Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - १६९
पहले मूल प्रकृतियों के विभाजन में नामकर्मसम्बन्धी जो द्रव्य कहा था उसमें आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर उसमें से एकभाग को पृथकू रखकर बहुभाग के २१ भाग करना तथा एक-एक भाग एक-एक प्रकृति को देना । २३ प्रकृतियों का जो बन्ध था उनमें औदारिक-तैजस-कार्मण इन प्रकृतियों का शरीरनामक पिण्डप्रकृति में अन्तर्भाव होने से पिण्डप्रकृतिरूप एक ही प्रकार का बन्ध है, अतः यहाँ २१ ही भाग किये हैं तथा जो एक भाग रहा उसमें आवली के असंख्यातवें भाग ( प्रतिभाग ) का भाग देकर बहुभाग अन्त में कही हुई निर्माणप्रकृतिको देना तथा अवशेष एकभाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग अयशस्कीर्ति को देना, शेष एकभागमें प्रतिभागका भाग देकर प्राप्त द्रव्यका बहुभाग अनादेथको देना। इसी प्रकार जो एक-एक भाग शेष रहता जावे उसमें प्रतिभाग का भाग देकर बहुभागबहुभाग क्रम से दुर्भग, अशुभ, अस्थिर, साधारण, अपर्याप्त, सूक्ष्म, स्थावर, उपघात, अगुरुलघु, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण, हुण्डक - संस्थान, शरीरपिण्डप्रकृति और एकेन्द्रियजातिको देना एवं अन्त में जो एकभाग शेष रहा वह तिर्यञ्चगति को देना तथा पहले जो समानरूप २१ भाग किये थे उस एक-एकभागमें प्रतिभागविधिसे प्राप्त तत् तत् प्रकृतिका द्रव्य मिलाने पर तत् तत् प्रकृतिका द्रव्य होता है। जिस प्रकार २३ प्रकृतिक बन्धस्थान का कथन किया उसी प्रकार जहाँ २५ प्रकृतिका युगपत् बन्ध हो वहाँ इसी प्रकार २५ प्रकृति में विभाजन करना चाहिए तथैव २६ २८ २९ ३० और ३१ प्रकृतिके बन्ध में भी विभाजन जानना । जहाँ एक यशस्कीर्ति का ही बन्ध है वहाँ नामकर्मसम्बन्धी सम्पूर्णद्रव्य उस एकप्रकृतिको ही देना। इन स्थानों में जिनका युगपत् बन्ध हो उन पिण्डप्रकृतियों के भेदों का विभाजन एक पिण्डप्रकृति के द्रव्य में विपरीत क्रम से अधिक अधिक जानना। जिस प्रकार २३ प्रकृतिस्थान में एक शरीरनामा पिण्डप्रकृति के तीनभेद पाये जाते हैं तो वहाँ शरीर प्रकृतिके हिस्से में जो द्रव्य आया उसमें प्रतिभागका भागदेकर बहुभागके तीनभाग करके एक-एक समानभाग तीनों को देना शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग कार्मण को देना तथा अवशिष्ट एकभाग में प्रतिभाग का भाग देकर लब्धद्रव्य का बहुभाग तैजसको देना एवं शेष एक भाग औदारिकशरीर का द्रव्य जानना । इस प्रकार प्रतिभाग विधि से प्राप्त अपने-अपने द्रव्यको पूर्व में जो समानरूप से तीनभाग किये थे उनमें मिलाने से तत् तत् प्रकृतिका द्रव्य होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना तथा जहाँ पिण्डप्रकृति में एकही प्रकृति का बन्ध हो वहाँ पिण्डप्रकृति का सर्वद्रव्य एक प्रकृतिको देना और ४१ जीवपदों में नामकर्म के स्थानों का जैसे बन्ध होता है उस कथन को आगे स्थान समुत्कीर्तन अधिकार में कहेंगे वहाँ से जानना । इस प्रकार प्रदेशबन्धके कथन में द्रव्य का विभाजन कहा वह एक-एक समय में जो एकसमयप्रबद्ध बँधता है वहाँ समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणुओं में जिस-जिस प्रकृति का जितना - जितना द्रव्य कहा उतने - उतने परमाणु उस उस प्रकृतिरूप होकर परिणत होते हैं, ऐसा भावार्थ जानना । कोई भाग और समभागादि के विषय को न समझे उसके लिए अब सन्दृष्टि में दृष्टान्त कहते हैं -
सर्वद्रव्यका प्रमाण ४०९६ है, इसका विभाजन चार स्थानों पर करना। प्रतिभाग का प्रमाण ८