Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१७०
है अत: ४०९६८ = ५१२ प्रमाण लब्ध हुआ। इस एकभागबिना शेष बहुभाग ४०९६-५१२ - ३५८४ को चार का भाग देने पर ३५८४ ४ = ८९६ लब्ध आया सो, यह चार भागों में प्रत्येक का प्रमाण जानना। शेष एक भाग (५१२) में प्रतिभाग ८ का भाग देने पर ५१२८ = ६४ लब्ध आया इसको पृथक् रखकर शेष बहुभाग ५१२-६४-४४८ प्रमाणद्रव्य अधिकद्रव्यवाले को देना। शेष एकभागको प्रतिभागस भाग देनपर (६४:८)-८ लब्ध आया सो इसको पृथक् रखकर अवशिष्ट बहुभाग ६४-८ = ५६ को उससे (पूर्वोक्त अधिक द्रव्यवाले से) हीनद्रव्यवाले को देना। शेष एक भाग (८) को प्रतिभाग (८) से भाग देनेपर ८१८-१ लब्ध आया सो इसके बिना बहुभागप्रमाण द्रव्य ८-१ = ७ उससे भी हीनद्रव्यवाले को देना तथा जो शेष एक भाग है वह उससे भी हीनद्रव्यवालेको देना | इनको पूर्व में किये ८९६ प्रमाण समानभागरूप स्वकीय-स्वकीयद्रव्य में मिलानेपर क्रमशः ५३४४. ९५२, ९०३, ८९७ हुआ। इस प्रकार सर्व ४०९६ प्रमाणसमयप्रबद्धद्रव्य का चार भागों में विभाजन जानना । इसी प्रकार पूर्वोक्त सभी प्रकृतियों का विभाजन होगा। अब उत्कृष्टादि प्रदेशबन्ध के सादि इत्यादि भेद मूलप्रकृतियों में कहते हैं -
छण्हंपि अणुक्कस्सो, पदेसबंधो दु चदुवियप्पो दु।
सेसतिये दुवियप्पो, मोहाऊ णं च दुवियप्पो ।। २०७॥ अर्थ - ज्ञानावरणादि ६ कर्मों का अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुवके भेद से चार प्रकार का है तथा शेष उत्कृष्टादि तीन प्रकार के प्रदेशबन्ध में सादि और अध्रुवरूप दो भेद हैं। मोहनीय व आयुकर्म का उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट-अजघन्य-जघन्य प्रदेशबन्ध सादि व अध्रुवके भेद से दो प्रकार का है।
विशेषार्थ - सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में मोहनीय और आयुकेबिना ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तरायकर्म का बन्ध होता है। समयप्रबद्धका कुलद्रव्य इन छहों कर्मों को मिलने से ज्ञानावरणादि छहों कर्मों का उत्कृष्टप्रदेशबन्ध सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में होता है। जिन्होंने सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान को प्राप्त नहीं किया उनके इन ज्ञानावरणादि छहकर्मों का अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध अनादि है। जो उपशमश्रेणी से गिर गये हैं उनके इन ६ कर्मों का अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध सादि है तथा भव्य के अध्रुव एवं अभव्य के ध्रुवबन्ध होता है।
मोहनीयकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सञ्जीपञ्चेन्द्रियपर्याप्त मिथ्यादृष्टिजीव के होता है जो पुन: पुनः प्राप्त हो सकता है, अतः मोहनीयकर्म का उत्कृष्ट व अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध सादि व अध्रुवरूप होता है। इनसातों कर्मों का जघन्यप्रदेशबन्ध सूक्ष्मएकेन्द्रियअपर्याप्तके प्रथमसमय में होता है। सो वह पुनः पुनः प्राप्त होता रहता है इसलिए इन सातों कर्मों का जघन्य व अजघन्यप्रदेशबन्ध सादि व अध्रुवरूप होता है। आयुकर्म का प्रदेशबन्ध निरन्तर नहीं होता अत: आयुका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यप्रदेशबन्ध सादि एवं अध्रुवरूप होता है। १. महाबन्ध पु. ६ पृ. १३।