Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१६८ हो उतना नपुंसकवेदसम्बन्धी द्रव्य है, यह द्रव्य स्त्रीवेद के द्रव्य से संख्यातगुणा है। रति व अरतिसम्बन्धी द्रव्य को सन्दृष्टि की अपेक्षा ४८ अन्तर्मुहूर्त का भाग देने पर जो प्रमाण हो उसको सन्दृष्टि की अपेक्षा रति के काल १६ अन्तर्मुहूर्त से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह रतिनोकषायसम्बन्धीद्रव्य जानना, यह स्तोक है तथा अरतिके काल ३२ अन्तर्मुहूर्त से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह अरतिनोकषायसम्बन्धीद्रव्य जानना, यह रतिके द्रव्य से संख्यातगुणा है तथा हास्य और शोक सम्बन्धी जो द्रव्य है उसको सहनानी की अपेक्षा ४८ अन्तर्मुहूर्त का भाग देने पर जो प्रमाण आवे उसको हास्य के कालकी सन्दृष्टि १६ अन्तर्मुहूर्त से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह हास्य सम्बन्धीद्रव्य है यह शोकके द्रव्य से संख्यातगुणा कम है। शोकके काल ३२ अन्तर्मुहूर्त से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह शोकका द्रव्य है वह द्रव्य हास्यके द्रव्य से संख्यातगुणा है।
इस प्रकार युगपत् बन्धको प्राप्त होनेवाली पाँच नोकषायों में पूर्वोक्त क्रम से घटता-घटताद्रव्य कहा, तथापि पिण्डरूप में परस्पर नानाकाल में एकत्रित होने की अपेक्षा द्रव्य का विभाजन अपने-अपने बन्ध काल में इस प्रकार से होता है, यहाँ तीनों वेदों का एक पिण्ड, रति-अरतिका एकपिण्ड तथा हास्य; शोकका एकपिण्ड जानना। इस प्रकार पूर्वोक्तपिण्डका द्रव्य बँधता है।
अन्तरायकर्म की पाँच प्रकृतियों में तथा नामकर्म के बन्धस्थानों में जो क्रम है उसे कहते हैं -
पणविग्धे विवरीदं सबंधपिंडदरणामठाणेवि ।
पिंडं दव्वं च पुणो, सबंधसपिंडपयडीसु ॥२०६ ।। अर्थ – अन्तरायकर्म की पाँचों प्रकृतियों में विपरीत क्रम है तथा नामकर्म के स्थानों में जो एक ही काल में बन्धको प्राप्त होनेवाली गति आदि पिण्डप्रकृति और अगुरुलघुआदि अपिण्डरूप प्रकृतियाँ हैं इनमें भी विपरीत ही क्रम है। इस प्रकार प्रदेश या परमाणुके बन्ध का विधान विपरीतक्रम से कहा।
विशेषार्थ - युगपत् जिसका बन्ध हो ऐसे नामकर्म की २३ प्रकृतियों के बन्धका स्थान है उसमें पायी जाने वाली प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं -
तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर, हुण्डकसंस्थान, वर्ण-गन्ध-रसस्पर्श, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर-सूक्ष्म-अपर्याप्त व साधारण,अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीर्ति और निर्माण इन २३ प्रकृतियों का युगपत् बन्ध मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यंच करता है। सो यह स्थान साधारण सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक भव को प्राप्त करने के योग्य है। अर्थात् इसका बन्ध करने वाला मर कर साधारण सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक भव में उत्पन्न होता है। अब इनका विभाग दिखाते हैं -