Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसारकर्मकाण्ड-१४४
अर्थ - अघातियाकमों की प्रशस्तप्रकृतियों में शक्ति (स्पर्धक) के भेद मुड़, खाण्ड, शर्करा (मिश्री) और अमृत के समान हैं। इनमें क्रम से अधिक-अधिक मिठास है तथा अप्रशस्तप्रकृतियों के निम्ब, काजीर, विष, हलाहल के समान अनुभाग है।
विशेषार्थ - अघातियाकर्मों की प्रशस्तप्रकृतियों के प्रतिभाग अर्थात् शक्ति के भेद गुड़, खाण्ड, शर्कस (मिश्री) और अमृत के समान है। जैसे गुड़, खाण्ड, शर्करा (मिश्री) और अमृत एक दूसरे से अधिक-अधिक सुख के कारण यानि मिष्ट हैं उसी प्रकार गुड़भाग, खाण्डभाग, शर्कराभाग और अमृतभागरूप प्रशस्तप्रकृतिके स्पर्धक अधिक-अधिक सांसारिक सुख के कारण हैं तथा अप्रशस्तप्रकृतियों के प्रतिभाग निम्ब, काजीर, विष, हलाहल के समान है। जिस प्रकार निम्ब, काजीर, विष और हलाहल एक दूसरे की अपेक्षा अधिक-अधिक कटु हैं उसी प्रकार निम्बभाग, काजीरभाग, विषभाग व हलाहले भागरूप अप्रशस्तप्रकृतियों के स्पधक दुःख के कारण हैं।
यहाँ प्रशस्तप्रकृतियाँ ४२ और अप्रशस्तप्रकृतियाँ ३७ हैं। वर्णादिचार प्रकृतियाँ प्रशस्त और अप्रशस्त दोनोंरूप से गिनी गई हैं। प्रशस्तप्रकृति मुड़, खाण्ड, शर्करा व अमृत या गुड़, खाण्ड, शर्करा अथवा गुड़ व खाण्ड, इन तीनभावरूप तथा अप्रशस्तप्रकृतियाँ निम्ब, काजीर, विष, हलाहल या निम्ब, काजीर, विष अथवा निम्ब, काजीर, इन तीनभावरूप परिणत होती हैं।
।। इति अनुभाग प्रकरण ।।
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अथ प्रदेशबन्धप्रकरण
अथान्तर प्रदेशबन्धको ३३ गाथाओं द्वारा कहते हैं -
एयक्खेत्तोगाढं सब्वपदेसेहिं कम्मणो जोगं।
बंधदि सगहेदूहि य अणादियं सादियं उभयं ॥१८५॥ अर्थ - एकक्षेत्र अवगाढ़रूप से स्थित और कर्मरूप परिणमन के योग्य अनादि अथवा सादि या उभयरूप जो पुद्गलद्रव्य है उसे यह जीव सर्वप्रदेशों से अपने-अपने निमित्त से बाँधता है।
विशेषार्थ - कर्मरूपपुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेषसम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध कहलाता है। यहाँ सूक्ष्मनिगोदियाजीव की घनाङ्गुलके असंख्यातवेंभाग जघन्यरूप अवगाहना को एक जघन्यक्षेत्र जानना चाहिए।