Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसारकर्मकाण्ड-१४८.
___ यह जीव योग व मिथ्यात्वके निमित्त से प्रतिसमय कर्मरूप परिणमनेयोग्य समयप्रबद्ध प्रमाण परमाणुओं को ग्रहण करके कर्मरूप परिणमाता है। उनमें किसी समय तो पहले ग्रहण किए सादिद्रव्यपरमाणुओं को ही ग्रहण करता है तथा किसी समय अभी तक नहीं ग्रहण किये गये अनादिद्रव्यरूप परमाणुओं को ग्रहण करता है एवं कभी-कभी दोनोंरूप परमाणुओं को ग्रहण करता है। अब समयप्रबद्ध का प्रमाण कहते हैं -
सयलरसरूवगंधेहिं परिणदं चरमचदुहिं फासेहिं।
सिद्धादोऽभव्वादोऽणंतिमभागं गुणं दव्वं ॥१९१ ।। अर्थ - वह समयप्रबद्ध पाँच प्रकार रस, पाँच प्रकार वर्ण, दो प्रकार गन्ध तथा स्पर्श के ८ भेदों में से अन्तिम चार, शीत उष्ण स्निग्ध रुक्ष रूप गुणों से सहित (उसमें गुरु, लघु, मृदु, कठिन ये चार स्पर्श नहीं होते) परिणमता हुआ सिद्धराशि के अनन्तवेंभाग और अभव्यराशि से अनन्तगुणा कर्मरूप पुद्गलद्रव्य जानना अर्थात् इतनो परमाणुओं के समूहरूप वर्गणा को ग्रहणकर प्रतिसमय कर्मरूप करता है।
अब एक समय में ग्रहण किया हुआ समयप्रबद्ध आठ मूल प्रकृतिरूप परिणमता है उसमें एक-एकप्रकृति का बटवारा जिस क्रम से होता है उस क्रम को बताते हैं -
आउगभागो थोबो णामागोदे समो तदो अहियो ।
घादितियेवि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥१९२ ।। अर्थ - सभी मूलप्रकृतियों में आयुकर्म का भाग स्तोक है, नाम व गोत्रकर्मका भाग आपस में समान है तो भी आयुकर्म के भाग से अधिक है। अन्तराय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन तीन घातिया कर्मों का भाग आपस में समान है तो भी नाम व गोत्र कर्म से अधिक है इससे अधिक मोहनीयकर्मका है तथा मोहनीयकर्म से भी अधिक वेदनीय कर्मका है।
विशेषार्थ - मिथ्यात्वगुणस्थान में चारों आयुका बन्ध होता है। सासादन गुणस्थान में नरकानु के बिना तीन आयु का बन्ध है। असंयतगुणस्थान में नरक व तिर्यञ्चबिना दो आयुका बन्ध है। देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थान में एक देवायुका ही बन्ध होता है इसके आगे आयुबन्ध नहीं है। आगे अनिवृत्तिकरणपर्यन्त आयु के बिना सातकर्मका ही बन्ध है। इसके ऊपर सूक्ष्मलाम्पराय में आवु और मोहनीयकर्म बिना छहकर्म का बन्ध है। आगे तीन गुणस्थानों में एक वेदनीयकर्म का ही बन्ध है
१. स्निग्ध और रुक्ष में से कोई एक,शीत और उष्ण में से कोई एक, कर्कश और मृदु में से कोई एक, तथा गुरु-लघु में से कोई
एक, इस प्रकार चारस्पर्श होते हैं । (धवल पु. १४ पृ. ५५८. व ५५९ सूत्र ७७८. व ७८३ की टीका)