Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसारकर्मकाण्ड-१४५
एयसरीरोगाहियमेयक्खेत्तं अणेयखेत्तं तु।
अवसेसलोयखेत्तं खेत्तणुसारिट्ठियं रूबी ।।१८६ ।। अर्थ - एकशरीर से रुके हुए स्थान (आकाश) को एकक्षेत्र कहते हैं और शेष सर्वलोकके क्षेत्र को अनेकक्षेत्र कहते हैं। अपने-अपने क्षेत्रानुसार ठहरे हुए पुद्गल 'द्रव्य का प्रमाण त्रैराशिक से समझ लेना। यहाँ एक शरीर शब्द से प्राय: जघन्यशरीर लेना, क्योंकि निगोद शरीरवाले जीव अनन्त हैं। इसी कारण मुख्यता से घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण एक क्षेत्र समझना।
विशेषार्थ - यद्यपि शरीर की अवगाहना जघन्य अवगाहना से उत्कृष्टपर्यन्त अथवा समुद्घात की अपेक्षा लोकपर्यन्त है। यहाँ जघन्य अवगाहना का आदि भेद तो घनाशुलको पल्यके असंख्यातवें भाग का भागदेने पर जो लब्ध आवे उतने प्रमाण है और अन्तिम भेद लोकप्रमाण है। अन्तिम में से आदि को घटाने पर और उसमें एक मिलने से समस्तअवगाहना के भेद हो जाते हैं तथा बहुत जीव घनागुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर की अवगाहना को धारण करने वाले हैं, अत: मुख्यतासे एक क्षेत्र का प्रमाण घनामुलके असंख्यातवें भाग मात्र कहा है इतने प्रमाण क्षेत्र के बहुत प्रदेश हैं, अतः प्रदेशों की अपेक्षा ये भी अनेकक्षेत्र हैं, तथापि विवक्षासे यहाँ इस क्षेत्र को एक क्षेत्र कहा है। इस क्षेत्र को छोड़कर अवशेष लोकाकाश का सर्वक्षेत्र अनेकक्षेत्र है। इन-इन क्षेत्र में रहने वाले रूपी पुद्गलद्रव्य का प्रमाण इस प्रकार जानना -
यदि समस्तलोक में सर्वपुद्गलद्रव्य पाया जाता है, तो एकक्षेन में कितना पुद्गलद्रव्य पाया जावेगा इस प्रकार त्रैराशिक करना। यहाँ प्रमाणराशि समस्तलोक, फलराशि पुद्गलद्रव्यका प्रमाण, इच्छाराशि एकक्षेत्र का प्रमाण है। यहाँ फलराशि से इच्छाराशि के गुणाकर प्रमाणराशि का भाग देने से जो लब्ध आवे उतना एकक्षेत्र सम्बन्धी पुद्गलद्रव्य समझना तथा इच्छाराशि का प्रमाण अनेकक्षेत्र मानकर पूर्ववत् त्रैराशिकविधि से जो लब्ध आवे उतना अनेकक्षेत्रसम्बन्धी पुद्गलद्रव्य जानना।
एयाणेयक्खेत्तट्टियरूविअणंतिम हवे जोगं।
अवसेसं तु अजोम्गं सादि अणादी हवे तत्थ ।।१८७॥ अर्थ - एक तथा अनेकक्षेत्रों में ठहरे हुए पुद्गलद्रव्य के अनन्त-भाग पुद्गलपरमाणुओं का समूह कर्मरूप होने योग्य हैं और शेष अनन्तबहुभागप्रमाण कर्मरूप होने के अयोग्य है। एकक्षेत्रयोग्य, एकक्षेत्रअयोग्य, अनेकक्षेत्रयोग्य और अनेकक्षेत्रअयोग्य इस प्रकार ४ भेद हुए। इन सभी के सादिअनादि भेद होने से ८ भेद हुए।
विशेषार्थ - एकक्षेत्रसम्बन्धी पुद्गलद्रव्य के प्रमाण में अनन्त का भाग देनेपर एकभाग प्रमाण