Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१३९
अपरिवर्तमान मध्यमपरिणामी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टिजीव जघन्य अनुभागसहित बाँधता है और शेष २३ प्रकृतियों को परिवर्तमान मध्यमपरिणामी मिथ्यादृष्टिजीव ही जघन्यअनुभागसहित बाँधता है। अथानन्तर उन ३१ प्रकृतियों के नाम कहते हैं -
थिरसुहजससाददुगं उभये मिच्छेव उच्चसंठाणं।
संहदिगमणं णरसुरसुभगादेज्जाण जुम्मं च ॥१७७ ।। अर्थ - स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशस्कीर्ति-अयशस्कीर्ति, सातावेदनीय व असातावेदनीय ये आठ प्रकृति परिवर्तमान मध्यमपरिणामी मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके तथा उच्चगोत्र ६ संस्थान, ६ सहनन, प्रशस्त-अप्रशस्तविहायोगति, मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति व देवगत्यानुपूर्वी, सुभगदुर्भग, आदेय-अनादेय ये २३ प्रकृतियाँ परिवर्तमान मध्यमपरिणामी मिथ्यादृष्टिजीव के जघन्यअनुभागसहित बंधती हैं। इस प्रकार जघन्यअनुभागसहित बँधनेवाली ये ३१ प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ - परिवर्तमानमध्यमपरिणाम और अपरिवर्तमानमध्यमपरिणाम का लक्षण कहते हैं
अणुसमयं केवलं वट्टमाणा हीयमाणा च जे संकिलेस्सविसोहिपरिणामा ते अपरियत्तमाणा णाम। जेत्थ पुण ठाविदूण परिणामंतरं गंतूणं एगहोदि आगमणं संभवदि ते परियत्तमाणा णाम। तत्थ उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णा तिविहा परिणामा ण तत्थ सव्व विसुद्धपरिणामेहिं य जहण्णो अणुभागो होदि। अप्पसत्थपयडीण अणुभागदो अणंतगुणपसत्थपयडी अणुभागस्स अणंतगुणवटिप्पसंगादोण सव्वसंकिलेट्ठपरिणामेहिं य तिव्वसंकिलेस्सेण असुहाणं पयडीणं अणुभागवहिप्पसंगादो तम्हा जहण्णुकस्सपरिणामणिराकट्ठे परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेहित्ति उत्तं ।
अर्थात् जो परिणाम संक्लेश अथवा विशुद्धि से प्रतिसमय बढ़ते ही जावें या घटते ही जावें पुन: पूर्वावस्था को प्राप्त न हो उन्हें अपरिवर्तमानपरिणाम कहते हैं तथा जो परिणाम एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होकर पुन: पूर्वावस्था को प्राप्त हो सकें वे परिवर्तमानपरिणाम हैं।
उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से परिणाम तीन प्रकार के हैं। यहाँ सर्वोत्कृष्ट विशुद्धपरिणामों से जघन्यअनुभागबन्ध नहीं होता, क्योंकि अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग से अनन्तगुणा अनुभाग प्रशस्तप्रकृतियों का है। यह अनन्तगुणीवृद्धिका प्रसङ्ग है। (सर्वोत्कृष्टविशुद्धपरिणामों से शुभप्रकृतियोंका उत्कृष्टअनुभागबन्ध होता है, किन्तु यहाँ जघन्यअनुभागबन्ध का कथन है, अत: सर्वोत्कृष्टविशद्धपरिणामों १. महाबन्ध पु. ४ पृ. ११२ पर भी परिवर्तमान है, जो उचित है। २. गाथा १७० से १७७ सम्बन्धी विशेष कथन महाबन्ध पु. ४ पृ. २१२-२१५ पर देखना चाहिए।