Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्पा कर्मकाण्ड - १२३
इनको जोड़ने पर ४९ होते हैं इनको संख्यातकी सहनानी २ से गुणा करने पर ४९०२ = ९८ ये अधस्तनशलाका हैं। इनको संख्यातकी सहनानी २ से गुणा करनेपर १९६ उपरितनशलाकाका प्रमाण है। A१९६२८४१२१४९८१९६ । इसीप्रकार मध्यवर्ती तीनभेदों के समान द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असीपञ्चेन्द्रियों के भी जानना। उनकी सहनानी ४-१ - २ रूप है।
आगे सजी जीवों की स्थितिके चारभेदों में कुछ विशेषता दिखाते हैं।
सणिस्स हु हेट्ठादो ठिदिठाणं संखगुणिदमुबरुवरिं । ठिदिआयामोवि तहा सगठिदिठाणं व आबाहा ।। १५० ।।
अर्थ - सञ्ज्ञीपञ्चेन्द्रिय के चारभेदों में नीचे से लेकर अर्थात् सञ्जीपतिके जघन्यस्थितिबन्ध से ऊपर-ऊपर चतुर्थभेदपर्यन्त स्थितिके स्थान (भेदों का प्रमाण ) संख्यातगुणा क्रम से जानना और स्थितिआयाम ( समयों का प्रमाण ) भी संख्यातगुणा है तथा आबाधाकालका प्रमाण स्थितिस्थानों के समान ही समझना चाहिए।
विशेषार्थ - जिस प्रकार स्थितिस्थान और स्थितिआयाम का प्रमाण बहुभाग और एकभाग के हिसाब से निकाला जाता है उसीप्रकार से आबाधाका प्रमाण भी निकालना चाहिए ।
सीजीव के मिथ्यात्व की उत्कृष्टस्थिति ७० कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण है अर्थात् दोबार संख्यातसे पल्यको गुणा करने पर जो प्रमाण आवे, उतने प्रमाण है तथा जघन्यस्थिति मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण है अर्थात् एक बार संख्यातसे पल्य को गुणा करने पर जो प्रमाण आवे, उतने प्रमाण है । उत्कृष्ट में से जघन्य को घटाकर एक-एक भेदों में से एक-एक समय की वृद्धि होती है। अतः एकका भाग देने पर जो प्रमाण हो उसमें एक मिलाने पर सञ्ज्ञी के मिथ्यात्वकी स्थिति के सर्वभेदों का प्रमाण होता है। इसमें संख्यातका भाग देकर लब्ध में से एक भाग पृथक्कर शेष बहुभागमात्र सञ्जीपर्याप्तक के उत्कृष्टस्थितिबन्ध से सजी अपर्याप्तकके उत्कृष्टस्थितिबन्धपर्यन्त स्थितिभेदों का प्रमाण है। इनमें से एककम करने पर जो प्रमाण रहा उतने समय सञ्ज्ञीपर्यामकके उत्कृष्टस्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागर में से घटाने पर जो प्रमाण शेष रहे वह सञ्ज्ञी अपर्याप्तककी उत्कृष्टस्थिति जाननी तथा जो एकभाग रहा था उसमें संख्यातका भाग देकर एकभाग को पृथक् रख शेष बहुभाग सञ्ज्ञी अपर्याप्तक की उत्कृष्ट से सञ्ज्ञी अपर्याप्तककी ही जघन्य स्थितिपर्यन्त स्थितिभेदों का प्रमाण है। इस प्रमाण को सञ्ज्ञी अपर्याप्तक की उत्कृष्टस्थिति में से घटाने पर सञ्ज्ञी अपर्याप्तककी जघन्यस्थिति का प्रमाण होता है तथा जो एक भाग शेष था उतने प्रमाण सञ्ज्ञी अपर्याप्तकका जघन्य से एक समय कम अनन्तर स्थिति बन्ध से लेकर सञ्ज्ञीपर्याप्तककी जघन्यस्थिति पर्यन्त स्थितिभेदों का प्रमाण है। इस प्रमाण को सञ्ज्ञी अपर्याप्तककी जघन्यस्थिति में से घटाने पर सञ्ज्ञीपर्याप्तक का जघन्यस्थिति बन्ध होता है, वह प्रमाण अन्तः