Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - १२०
हुए उतने समय सूक्ष्मअपर्याप्तककी उत्कृष्टस्थिति में से घटाने पर सूक्ष्मअपर्याप्तककी जघन्यस्थिति का प्रमाण होता है।
प्रमाणराशि शलाका ३४३, फलराशि एकेन्द्रिय के मिथ्यात्वकी स्थिति के भेदों का प्रमाण (पल्यका असंख्यातवाँ भाग), इच्छाराशिशलाका २, यहाँ फलराशिको इच्छाराशि से गुणा करके प्रमाणराशिका भाग देने पर जो लब्ध आया उतने सूक्ष्मअपर्याप्तके जघन्यस्थिति के अनन्तर स्थिति बंध से बाद अपर्याप्त जघन्यस्थितिपर्यन्त स्थिति के भेद जानने। इस अन्तरालकी दो शलाका होती हैं। ये जितने भेद हुए उतने समय सूक्ष्मअपर्याप्तककी जघन्यस्थितिमें से घटाने पर बादर अपर्याप्तककी जघन्यस्थिति होती है।
प्रमाणराशि और फलराशि पूर्वोक्त और इच्छाराशि १४ । यहाँ फलराशिको इच्छाराशि से गुणाकरके प्रमाणराशिका भाग देने पर जो लब्ध आया उतने बादर अपर्याप्तकी जघन्यस्थिति बंध के अनंतर स्थितिबंध के भेद से लेकर सूक्ष्मपर्याप्तककी जघन्यस्थितिपर्यन्त स्थिति के भेद हैं। इस अन्तराल की १४ शलाका जाननी । ये जितने भेद हुए उतने समय बादर अपर्याप्तकी जघन्यस्थितिमें से घटाने पर सूक्ष्मपर्याप्तकी जघन्यस्थितिका प्रमाण होता है।
प्रमाण और फलराशि पूर्वोक्त तथा इच्छाराशि ९८ । यहाँ फलराशि को इच्छाराशि से गुणाकरके प्रमाणराशि का भाग देने पर जो लब्ध आया उतने सूक्ष्मपर्याप्तके जघन्यस्थिति के अनंतर स्थिति बन्ध सेबादरपर्यातककी जघन्यस्थितिपर्यन्त स्थिति के भेद जानने तथा इसके मध्यकी ९८ शलाका जाननी । ये जितने भेद हुए उतने समय सूक्ष्मपर्याप्तककी जघन्य स्थिति में से घटाने पर बादरपर्याप्तकी जघन्यस्थिति होती है। यह जघन्यस्थितिबन्ध जो एकेन्द्रियजीवके कहा था वही जानना । इस प्रकार १४ जीवसमासों में एकेन्द्रियमें सूक्ष्म - बादर के पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षा चारजीवसमास हैं तथा इनके जघन्यस्थितिबन्ध और उत्कृष्टस्थितिबन्ध के भेद से आठस्थान हुए। इस प्रकार आठस्थानों में स्थितिबन्ध का प्रमाण कहा । इन आठों के मध्यवर्ती ७ अन्तरालों में स्थितिभेदों के प्रमाणको जानने के लिए सात त्रैराशिकका कथन किया |
आबाधाकालका प्रमाण भी इसी प्रकार त्रैराशिकद्वारा निकाल लेना चाहिए। इसीको दिखलाते
एकेन्द्रियजीवके मिध्यात्वकी उत्कृष्टआबाधा आवली के असंख्यातवेंभाग अधिक संख्यातआवली मात्र अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और जघन्यआबाधा केवल अन्तर्मुहूर्तमात्र है। यहाँ उत्कृष्टमें से जघन्य को घटाने पर एक-एक आबाधा में एक-एक समय बढ़ता है अतः एकका भाग देने पर जो प्रमाण आवे उसमें एक मिलानेपर एकेन्द्रिय जीव के मिथ्यात्वकी आबाधा के सर्वभेदों का प्रमाण होता है। जिसप्रकार स्थितिबन्ध