Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-११४
भागदेने पर जो लब्ध आवे उतने-उतने प्रमाण उत्कृष्टस्थिति एकेन्द्रियजीव के बँधती है। इस प्रकार त्रैराशिकविधि से ४० कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण बँधनेवाली १६ कषायों की जो स्थिति है उसमें एकेन्द्रिय के उत्कृष्टस्थिति एकसागर के ४/७ भागप्रमाण बँधती है। इसी त्रैराशिक क्रमसे ३० कोड़ाकोड़ीसागर की उत्कृष्टस्थितिवाले असातावेदनीयकी तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मो की १९ प्रकृतियों की एकेन्द्रियजीव के उत्कृष्टस्थिति एकसागर के ३/७ भाग प्रमाण बँधती है तथा २० कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाणवाले कर्मकी २/७ सागरप्रमाण बँधती है।
द्वीन्द्रिय जीव के ७० कोड़ाकोड़ीसागर की उत्कृष्टस्थिति में से मिथ्यात्वकर्मका २५ सागरप्रमाण बन्ध होता है तो ३० कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिवाला जो कर्म है उसका दोइन्द्रिय जीव के कितने सागर का स्थितिबन्ध होगा? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर ७५ सागरका सातवाँ भाग (७५/७) लब्ध आया । ४० कोड़ाकोड़ीसागर की स्थितिवाले कर्मका १०० सागरके सातवाँभाग (१००/७) प्रमाण उत्कृष्टस्थितिबन्ध होता है। इसीप्रकार सभी कर्मों की स्थिति एकेन्द्रियसे २५ गुणी द्वीन्द्रियजीवके बंधती
त्रीन्द्रिय जीवों के सभी कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रिय से ५० गुनी, चतुरिन्द्रिय जीवों के सभी कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रिय से १०० गुनी एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सभी कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रिय से हजार गुनी बँधती है।
इस प्रकार त्रैराशिकविधि से उत्कृष्टस्थिति निकालकर इसमें से एकेन्द्रियके पल्यका असंख्यातवां और विकलेन्द्रियके संख्यातवांभाग कम करदेने पर जघन्यस्थिति ज्ञात कर लेना चाहिए। पुन: आबाधा की कुछ विशेषता दिखाते हैं -
सण्णि असण्णिचउक्के एके अंतोमुत्तमाबाहा।
जेट्टे संखेजगुणा आवलिसंखं असंखभागहियं ॥१४६ ॥ अर्थ - सञीजीव, असञीचतुष्क और एकेन्द्रियजीवके प्रकृतियों की जघन्य आबाधा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है एवं उत्कृष्टआबाधा सञ्जीजीवों में अपनी जघन्यआबाधा से संख्यातगुणी, असञ्जीचतुष्क में अपनी जघन्यआबाधा से आवलीके संख्यातवेंभाग अधिक, तथा एकेन्द्रियमें अपनी जघन्य आबाधा से आवली के असंख्यातवें भाग अधिक समझना।
विशेषार्थ - सञीपञ्चेन्द्रिय जीवों की जघन्य अबाधा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और जघन्यस्थितिबन्ध अन्त:कोटाकोटीसागरप्रमाण है। कर्मबन्ध होनेके पश्चात् कर्म जबतक उदय अथवा उदीरणारूप नहीं होता तबतकके कालको उदय आबाधा व उदीरणाआबाधाकाल कहते हैं। बन्धके समय उदयआबाधाकाल