Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोत्र
अन्तराय
गोसटमा कर्मकाण्ड ११२४
अनादेय
यश: कीर्ति
अयशस्कीर्ति
निर्माण
तीर्थकर
उच्च
नीच
दान - लाभादि ५
नोट - १. यह सन्दृष्टि ध. पु.
२० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
१० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
२० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
२० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
अन्त: कोड़ाकोड़ी
१० कोड़ाकोड़ीसागर
२० कोड़ाकोड़ीसागर
३० कोड़ाकोड़ी सागर
M
२/७ सागर
८ मुहूर्त
२ / ७ सागर "
२/७ सागर
अन्तः कोड़ाकोडी
८ मुहूर्त
२/७ सागर*
अन्तर्मुहूर्त
६ व महाबन्ध पु. २ के अनुसार है ।
३७४२१ ७७७७७
२. उपर्युक्त सन्दृष्टि ( * ) इस चिह्न सागररूप संख्या पल्योपमके असंख्यातवें भाग से हीन ग्रहणकरना चाहिए, किन्तु २००० / ७ सागर रूप संख्या पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन ग्रहण करना चाहिए |
३. सन्दृष्टि में २००० / ७ सागर * दिया है, वह असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा दिया है क्योंकि वैक्रियिक षट्क का बंध एकेन्द्रिय एवं विकलत्रय जीव नहीं करते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मिध्यात्व कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबंध १००० सागर है, इससे नाम और गोत्र का जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम २००० / ७ सागर होता है ।
शंका- स्त्रीवेद, हास्य, रति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वरादि प्रकृतियोंका जघन्यस्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवेंभाग से कम सागरोपमके दो बटे सात ( उ ) भागमात्र घटित नहीं होता है, क्योंकि इन स्त्रीवेदादि प्रकृतियोंका २० कोड़ाकोड़ीसागरोपमप्रमाण उत्कृष्टस्थितिबन्ध नहीं होता ।
समाधान - यद्यपि इन स्त्रीवेदादि प्रकृतियोंकी उत्कृष्टस्थिति २० कोड़ाकोड़ीसागरोपमप्रमाण नहीं है, तथापि मूलप्रकृतिकी उत्कृष्टस्थितिके अनुसार हासको प्राप्त होती हुई इन प्रकृतियों का पल्योपमके असंख्यातवें भाग से कम सागरोपमके दो बटे सात ( उ ) भागमात्र जघन्यस्थितिबन्ध में कोई विरोध नहीं है।
शंका- यदि मूल प्रकृति के सामान्य की अपेक्षा नामकर्म की उक्त उत्तरप्रकृतियों की जघन्य स्थिति एक सी ग्रहण की गई सो ठीक है पर स्त्रीवेद, हास्य और रति तो चारित्र मोहनीय के भेदरूप
१. ध. पु. ६ पृ. १९०-१९१ ।