Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-१०१ अब उत्तरप्रकृतियों में इन चार बन्धों की विशेषता कहते हैं -
घादितिमिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचओ।
सत्तेत्तालधुवाणं चदुधा सेसाणयं तु दुधा ॥१२४॥ अर्थ - मोहनीयके बिना तीनधातियाकर्मोंकी १९ प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व, सोलह-कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण और अगुरुलधुयुगल तथा निर्माण, वर्णादिचार ये ४७ प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धी कहलाती हैं। इनका सादि इत्यादि चारों प्रकारका बन्ध होता है तथा शेषका दोप्रकार का बन्ध होता
विशेषार्थ - जबतक बन्धकी व्युच्छित्ति नहीं होती तबतक इन ध्रुवप्रकृतियोंका प्रतिसमय बन्ध होता है इसलिए इनको ध्रुवबन्धी कहते हैं तथा इनसे शेष वेदनीयकी दो, मोहनीयकी सात, आयुकी चार, गतिचार, जातिपांच, औदारिकशरीर, औदारिक अङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकअङ्गोपाङ्ग, आहारकशरीर, आहारकअङ्गोपाङ्ग, छहसंस्थान, छहसंहनन, चारआनुपूर्वी, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति-युगल, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, सुभग, दुर्भग, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशस्कीर्ति, अयशस्कीर्ति, तीर्थङ्कर तथा गोत्रकर्म की दो ये ७३ प्रकृति अध्रुवबन्धी हैं। इन प्रकृतियों के सादि और अध्रुवबन्ध ही होते हैं। अथानन्तर इन प्रकृतियों के अप्रतिपक्ष और सप्रतिपक्षभेद कहते हैं।
सेसे तित्थाहारं परघादचउक्क सब्वआऊणि ।
अपडिवक्खा सेसा सप्पडिवक्खा हु बासठ्ठी ॥१२५ ।। अर्थ - ७३ अध्रुवबन्धीप्रकृतियों में से तीर्थकर, आहारकद्विक, परघातादि चार और चारआयु ये ग्यारह प्रकृतियां अप्रतिपक्षी कहलाती हैं तथा शेष ६२ प्रकृति सप्रतिपक्षी हैं। ५. शंका - मिथ्यात्व को ध्रुवोदयी क्यों नहीं माना, ध्रुवबंधी तो माना है, क्योंकि यह प्रकृति बंधव्युच्छिति तक बराबर
निरन्तर बंध होने से ध्रुवबंधी कहलाती है वैसे ही उदय-व्युच्छेद तक निरन्तर उदय आते रहने से इसे ध्रुवोदयी भी कहना चाहिए, पर मिथ्यात्व को ध्रुवोदयी नहीं कहा। तो फिर इसे ४७ ध्रुवबंधी प्रकृतियों में भी नहीं कहना चाहिए या फिर ध्रुवोदयी भी कहा जाए? समाधान - जब तक बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती तब तक निरन्तर बंधनेवाली प्रकृति ध्रुवबंधी है, किन्तु उदय में यह विवक्षा नहीं है। संसार (छद्मस्थ) अवस्था में जिसका निरन्तर उदय रहे वह ध्रुवउदयी प्रकृति है। आपके मतानुसार तो नित्यनिगोदियाजीव (गो.जी, गाथा १९७) के तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, स्थावरकाय, नौचगोत्र का निरन्तर उदय होने से वे भी ध्रुव उदयी हो जावेंगी। यदि ये ध्रुव उदयी नहीं है तो मिथ्यात्व भी ध्रुवउदयी नहीं है।