Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-९६
द्वितीयोपशम के कथन सम्बन्धी सन्दृष्टि इस प्रकार है -
बन्धयोग्यप्रकृति ७७ । गुणस्थान ८। गुणस्थान बन्ध | अबन्ध व्युच्छित्ति विशेष असंयत
| ९ | ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) देशसंयत
| ४ ४ (प्रत्याख्यानक्रोध-मान-माया-लोभ)
६ (गुणस्थानोक्त) अप्रमत्त
१९ (१५+६-२, आहारकद्विक) अपूर्वकरण
३६ (गुणस्थानोक्त) अनिवृत्तिकरण
५ (गुणस्थानोक्त) सूक्ष्मसाम्पराय | १७ | ६०
१६ (गुणस्थानोक्त) उपशान्तमोह
प्रमत्त
क्षयोपशमसम्यक्त्वमें बन्धयोग्य प्रकृति ७९ हैं, क्योंकि मिथ्यात्व व सासादन गुणस्थान में (१६+२५) ४१ प्रकृति की व्युच्छित्ति हो जाती है। गुणस्थान असंयतादि चार ही हैं, क्योंकि उपशमश्रेणी में उपशम और क्षायिकसम्यक्त्व एवं क्षपकश्रेणी में क्षायिकसम्यक्त्व होता है। असंयतादि चारों गुणस्थानों में व्युच्छित्ति और बन्ध का कथन तो गुणस्थानवत् है, किन्तु अबन्ध २-१२-१६ और २० प्रकृतिका यथाक्रम चारों गुणस्थानों में जानना । क्षयोपशमसम्यक्त्वसम्बन्धी बन्ध-अबन्धादिकी सन्दृष्टि
बन्धयोग्यप्रकृति ७९ । गुणस्थान ४॥ गुणस्थान | बन्ध | अबन्ध न्युच्छित्ति विशेष असंयत
| २ (आहारकद्विक) देशसंयत
७७
प्रमत्त
अप्रमत्त
१
।
२० (१६+६-२ आहारकद्विक)
क्षायिकसम्यक्त्व में बन्धयोग्य प्रकृति ७९ हैं। गुणस्थान असंयतसे अयोगीपर्यन्त हैं तथा सिद्ध भी जानना । असंयत में व्युच्छिन्नप्रकृति १०, बन्धप्रकृति ७७ और अबन्धप्रकृति २ (आहारकद्विक)।