Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६६
सामान्य-पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनी इन तीनों की निवृत्त्यपर्याप्तावस्था में |
बन्ध अबन्ध-बन्धव्युच्छित्ति की संदृष्टि ४ आयु-नरकद्विक-आहारकद्विक इन आठ बिना (१२०-८) ११२ प्रकृति बन्धयोग्या । गुणस्थान पाँच हैं। गुणस्थान | बन्ध | अबन्ध| बन्ध ।
विशेष प्रकृति | प्रकृति व्युछित्ति मिथ्यात्व
५ (सुरचतुष्क, तीर्थङ्कर) १३ (गुणस्थानोक्त १६- नरकद्विक, नरकायु) २९ (पर्याप्तवत् ३१-२, मनुष्य, तिर्यञ्चायु), किन्तु
मनुष्यनी के न्युच्छित्ति ९८ प्रकृति की। असंयत
४२ (२९+१८+५, तीर्थङ्कर-सुरचतुष्क) ८ (प्रत्याख्यान-अप्रत्याख्यान की चार-चार कषाय) नोट - यह गुणस्थान मनुष्यनी के नहीं होता है। ६१ (प्रमत्त की ६+अपूर्वकरण की आहारकद्विकबिना | ३४+ अनिवृत्तिकरण की ५+सूक्ष्म सां. की १६) ।
यह गुणस्थान भी मनुष्यनी के नहीं होता। सयोगी
१ (सातावेदनीय)
सासादन
प्रमत्त
लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य का सर्वकथन लब्ध्यपर्याप्ततिर्यञ्च के समान ही है। यहाँ तीर्थंकर, आहारकद्विक देवायु-भरकायु और वैक्रियिकषट्क के बिना बन्धयोग्य प्रकृति १०९ हैं और गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही है। आगे देवगति में कथन करते हैं -
णिरयेव होदि देवे आईसाणोत्ति सत्त वाम छिदी।
सोलस चेव अबन्धा भवणतिए णस्थि तित्थयरं ।।१११ ।। अर्थ - देवगति का सर्वकथन नरकगतिवत् जानना, किन्तु यहाँ विशेषता यह है कि मिथ्यात्वगुणस्थान में ईशानस्वर्गपर्यन्त सात प्रकृर्तियों की ही व्युच्छित्ति होती है, शेष ९ प्रकृतियों का यहाँ बन्ध नहीं है, अत: ९ तो ये एवं सुरचतुष्क, देवायु, आहारकशरीर और आहारक अङ्गोपाङ्ग ये सात