Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७४
असय
प्रमत्त
। ६२ । ५० |
६१
३७ (२४+१८-५ देवचतुष्क व तीर्थङ्कर) १३ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु + ४ | प्रत्याख्यानकषाय) ६५ (प्रमत्त की ६+अप्रमत्त की शून्य + अपूर्वकरण की ३४ + अनिवृत्तिकरण की ५ + सूक्ष्मसाम्पराय की १६% ६१, क्योंकि देवायु व आहारकद्विक का
बन्ध नहीं है) । १- सातावेदनीय
संयोगी
१
१११ ।
१
पञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक में बन्धयोग्य प्रकृति १०९ है, क्योंकि तीर्थङ्कर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु और वैक्रियिकषट्क इन ११ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। गुणस्थान एक मिथ्यात्व है।
॥ इति इन्द्रियमार्गणा॥
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अथ कायमार्गणा अब इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय में तथा कायमार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रियसम्बन्धी पृथ्वीकायादि पञ्चस्थावरकाय में बन्ध आदि का कथन करते हैं -
पंचिंदिएसु ओघं एयक्खे वा वणप्फदीयंते।
मणुवदुगं मणुवाऊ उच्च ण हि तेउ वाउम्हि ॥११४ ॥ अर्थ - पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी व्युच्छित्तिआदिका कथन गुणस्थानवत् जानना उसमें कुछ भी विशेषता नहीं है। (इसका कथन इन्द्रियनार्गणा में कर आए हैं वहाँ से जानना) कायमार्गणामें पृथ्वीकायसे वनस्पतिकायपर्यन्त एकेन्द्रियके समान व्युच्छित्ति-आदि जानना । विशेष यह है कि तेजकाय-वायुकाय में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी-मनुष्यायु और उच्चगोत्र इन चारका बन्ध नहीं होता।
विशेषार्थ -- कायमार्गणामें पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त तीर्थर, आहारकद्विक, देवायु, तरकायु तथा वैक्रियिकषट्क इन ११ प्रकृतिबिना बन्धयोग्य १०९ प्रकृतियाँ हैं। इनमें से पृथ्वीकायजलकाय और वनस्पतिकाय में उत्पन्न हुए जीवों के सासादनगुणस्थान के रहते हुए शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती अतः तिर्यञ्च आयु और मनुष्यायुका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होता है। इस कारण मिथ्यात्वगुणस्थान में व्युच्छित्ति १५ प्रकृतियों की, बन्धरूप प्रकृतियाँ १०९ और अबन्ध शून्य है।