Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७५ सासादनगुणस्थान में व्युच्छित्ति २९ प्रकृतियोंकी, बन्ध ९४ प्रकृतिका तथा अबन्धप्रकृति १५ हैं। पृथ्वीकाय-जलकाय और वनस्पतिकाय में बन्ध, अबन्धादिक कथन की सन्दृष्टि
बन्धयोग्य प्रकृति १०९। गुणस्थान २। गुणस्थान, बन्ध |अबन्ध व्युच्छित्ति
विशेष मिथ्यात्व । १०९ । ० । १५ ।। १५ (गुणस्थानोक्त १६-३ नरकद्विक, नरकायु+२
मनुष्यायु, तिर्यञ्चायु) | ९४ । १५
२९ (तिर्यञ्चगति कथित ३१-२ तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु)
सासादन
तेजकाय और वायुकाय में मनुष्यद्विक, मनुष्यायु व उच्चगोत्रबिना बन्धयोग्य प्रकृति १०५ हैं। गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही है।
तेजकाय-वायुकायमें एक ही गुणस्थान होने का कारण कहते हैं, तथा त्रसकाय में बन्धादिका कथन करते हैं -
ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे। अर्थ - लब्ध्यपर्याप्तक, साधारणशरीरसहित, सर्वसूक्ष्म तथा तेजकाय-वायुकाय-जीवों में सासादनगुणस्थान नहीं होता। तथा इसीगाथा के उत्तरार्ध में कहे हुए “ओघं तस" इन वचनों के अनुसार त्रसकाय की रचना गुणस्थानके समान समझना चाहिए।
विशेषार्थ - लब्ध्यपर्याप्तक, साधारणशरीरवाले, सर्वसूक्ष्म तथा तेजकाय-वायु-काय के जीवों में सासादनगुणस्थान नहीं होता तथा सासादनवाले नरकमें उत्पन्न नहीं होते। अत: नारकियों की अपर्याप्तदशा में नरकगति में सासादनगुणस्थान नहीं है।
त्रसकायिकों में बन्धयोग्य प्रकृति १२०, गुणस्थान १४ हैं। इनका संक्षिप्तकथन इस प्रकार है - मिथ्यात्वादिगुणस्थानों में क्रमसे व्युच्छिन्नप्रकृतियाँ १६-२५-शून्य-१०-४-६-१-३६-५-१६-शून्यशून्य-१ और शून्यरूप हैं। बन्धप्रकृति ११७-१०१-७४-७७-६७-६३-५९-५८-२२-१७-१-१-१
और शून्य यथाक्रम मिथ्यात्वादिगुणस्थानों में जानना । अबन्धप्रकृति भी गुणस्थानक्रमसे ३-१९-४६४३-५३-५७-६१-६२-९८-१०३-११९-११९-११९ और १२० जानना। विशेष कथन के लिए गुणस्थानोक्तसन्दृष्टि देखनी चाहिए।