Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७६ त्रसनिवृत्तिअपर्याप्तकसम्बन्धी बन्ध-अबन्धादिका कथन पञ्चेन्द्रियनिर्वृत्त्यपर्याप्तकके समान समझना। बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ११२ तथा गुणस्थान १-२-४-६ और १३ वा है।
॥ इति कायमार्गणा॥
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अथ योगमार्गणा ओघं तस मणवयणे ओराले मणुवगइभंगो॥११५ ।। अर्थ - त्रसकाय में गुणस्थानबत् कथन जानना। (इसका सर्वकथन पूर्व में कायमार्गणा में कर दिया है।)
योगमार्गणाके मनोयोग और वचनयोग में सर्वरचना गुणस्थानवत् तथा औदारिककाययोग में बन्ध-अबन्धादिका कथन मनुष्यगति के समान जानना ।
विशेषार्थ - मनोयोग-वचनयोग में बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० हैं तथा गुणस्थान मिथ्यात्वसे सयोगीपर्यन्त १३ हैं। इनकी संक्षिप्तरचना इस प्रकार है - मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में व्युच्छित्तिरूप प्रकृतियां क्रमसे १६-२५-शून्य-१०-४-६-एक-३६-५-१६-शून्य-शून्य और एक हैं। बन्धप्रकृति ११७-१०१-७४-७७-६७-६३-५९-५८-२२-१७-१-१ और १ यथाक्रमसे मिथ्यात्वसे सयोगीपर्यन्त जानना। यहाँ गुणस्थानों में क्रमसे ३-१९-४६-४३-५३-५७-६१-६२-९८-१०३-११९-११९ और ११९ प्रकृतियाँ हैं। इनकी विशेषसन्दृष्टि समझने के लिए गुणस्थानोक्त सन्दृष्टि देखना चाहिए। यहाँ इतनी ही विशेषता है कि मनोयोग- वचयोग में गुणस्थान १३ ही हैं तथा इनमें पर्याप्त अवस्था ही होती है।
औदारिककाययोगी के बन्ध-अबन्ध और व्युच्छित्तिसम्बन्धी सर्वकथन मनुष्यगति के समान है। बन्धयोग्य प्रकृति १२० तथा गुणस्थान १३ हैं। संक्षिप्त कथन इसप्रकार है - यहाँ मिथ्यात्व से सयोगीपर्यन्त गुणस्थानों में व्युच्छित्तिरूप प्रकृति १६-३१-शून्य-४-४-६-एक-३६-५-१६-शून्यशून्य और एक है। बन्ध ११७-१०१-६९-७१-६७-६३-५९-५८-२२-१७-१-१ और १ प्रकृतिरूप यथाक्रम गुणस्थानों में जानना । अबन्ध क्रम से ३-१९-५१-४९-५३-५७-६१-६२-९८-१०३-११९११९ और ११९ प्रकृतिका है। विशेषकथन के लिए मनुष्यगतिसम्बन्धी सन्दृष्टि देखनी चाहिए। अब औदारिकमिश्रकाययोगसम्बन्धी कथन करते हैं -
ओराले वा मिस्से ण सुरणिरयाउहारणिरयदुगं। मिच्छदुगे देवचओ तित्थं ण हि अविरदे अस्थि ॥११६ ।।