Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६४
अर्थ - मनुष्यगतिसम्बन्धी सर्वकथन तिर्यञ्चगतिवत् जानना, किन्तु विशेषता यह है कि य तीर्थकर और आहारकद्विक का बन्ध होने लगता है, अतः यहाँ पर बन्धयोग्य १२० प्रकृति । सामान्यमनुष्य, पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यिनी में बन्ध- अबन्धादि की रचना तिर्यञ्चगति के समान है औ लब्ध्यपर्यातक्रमनुष्य की रचना लब्ध्यपर्यामतिर्यञ्चवत ही है।
विशेषार्थ - मनुष्यगतिसम्बन्धी असंयतगुणस्थान में यद्यपि व्युच्छित्ति अप्रत्याख्यान कषायस चारप्रकृति की है और शेष वज्रर्षभनाराचादि छह प्रकृतियों की व्युच्छित्ति सासादनगुणस्थान में ही जाती है, तथापि इतनी विशेषता है कि तीर्थकर और आहारकद्विक का बन्ध मनुष्यों में पाया जाता है सामान्यमनुष्य, पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनी की भी रचना इसी प्रकार जानना ।
बन्धयोग्य प्रकृति १२० एवं गुणस्थान १४ हैं । पूर्व पूर्व गुणस्थानों की व्युच्छिन्नप्रकृतियों मे बन्ध में से घटाने पर विशेषकथन पूर्वक अबन्धयोग्य प्रकृतियों में मिलाने पर गुणस्थानों में बन्ध अ अबन्ध होता है।
यहाँ मिथ्यात्वगुणस्थान में व्युच्छित्ति १६ प्रकृति की, बन्ध तीर्थकर और आहारकद्विकबिन ११७ प्रकृति का, अबन्धप्रकृति ३ । सासादनगुणस्थान में तिर्यञ्चवत् व्युच्छित्ति ३१ की, बन्धप्रकृति १०१ और अबन्धप्रकृति १९ हैं। मिश्रगुणस्थान में व्युच्छिन्नप्रकृति शून्य, बन्ध देवायुबिना ६९, अबन्धरूप प्रकृति ५१ । असंयत गुणस्थान में अप्रत्याख्यानरूप चारकषाय की व्युच्छित्ति, बन्ध देवायु और तीर्थ के मिलने से ७१ प्रकृति का, अबन्धप्रकृति ४९ । देशविरतगुणस्थान में व्युच्छित्तिरूपप्रकृति प्रत्याख्यान की चारकषाय, बन्धप्रकृति ६७ और अबन्धप्रकृति ५३ । इसके आगे प्रमत्त गुणस्थान से अयोगीपर्यन्त व्युच्छित्ति-बन्ध और अबन्धरूप कथन गुणस्थानरचनावत् जानना ।
सामान्यमनुष्य-पर्याप्तमनुष्य मनुष्यनीसम्बन्धी बन्ध- अबन्ध-व्युच्छित्तिकी संदृष्टि
बन्धयोग्य प्रकृति १२० । गुणस्थान १४ ।
विशेष
गुणस्थान बन्ध अबन्ध बन्ध
व्युच्छित्ति
मिथ्यात्व ११७ ३
१०१ १९
६९ ५१
७१ ४९
६७ ५३
सासादन
मिश्र
असंयत
देशसंयत
१६
३१ ३१ (२५+६ वज्रर्षभनाराचादि पूर्वोक्त)
५१ (३१+१९+१ देवायु)
४९ (५१-२ तीर्थकर, देवायु) ४ ( अप्रत्याख्यानकषाय )
४ ( प्रत्याख्यानकषाय )
०
४
३ (तीर्थकर आहारकद्विक) १६ ( गुणस्थानोक्त)
४