Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५४ पुरिसं चदुसंजलणं कमेण अणियट्टिपंचभागेसु।
पढमं विग्धं दंसणचउजसउच्चं स सुहुमंते॥१०१॥ अर्थ - पुरुषवेद, सज्वलन की चारकषाय इन पाँचप्रकृतियों की बन्धव्युच्छिति अनिवृत्तिकरणगुणस्थान के पाँच भागों में क्रम से होती है। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण की पाँच, अन्तराय की पाँच, दर्शनावरण की चार, यश:कीर्ति एवं उच्चगोत्र इन १६ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति होती है।
विशेषार्थ - यहाँ पर जो अंते शब्द है वह अन्तदीपक है अर्थात् सभी प्रकृतियों की व्युच्छिति गुणस्थान के अन्त में समझना, किन्तु सातवें-आठवें और नवमें गुणस्थान में यथासम्भव जान लेना चाहिए। अब उपशांतमोह-क्षीणमोह और सयोगकेवलीगुणस्थान में बन्धव्युच्छित्ति कहते हैं।
उवसंतखीणमोहे जोगिम्हि य समयियट्ठिदी सादं।
णायव्वो पयडीणं बंधस्संतो अणंतो य॥१०२॥ अर्थ - उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवलीगुणस्थान में एकसमय की स्थितिवाला सातावेदनीय बँधता है तथा सयोगकेवली के अन्त में सातावेदनीय की ही बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। अयोगकेवली में बंध के कारण योग का अभाव होने से बंध भी नहीं तथा व्युच्छित्ति भी नहीं होती। इस प्रकार प्रकृतियों के बन्ध का अन्त (बन्ध व्युच्छित्ति), बन्ध का अनन्त (यानी बन्ध सद्भाव) तथा "च" शब्द से अबन्ध जानना चाहिए।
गुणस्थानों में बन्धव्युच्छित्ति की सन्दृष्टि गुणस्थान | व्युच्छिन्न प्रकृतियों
व्युच्छिन्न प्रकृतियों के नाम की संख्या मिथ्यात्व
मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रियजाति स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्स, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु । अनन्तानुबन्धी कषाय ४, स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमण्डल-स्वातिकुब्जक और वामनसंस्थान, वज्रनाराच-नाराच-अर्धनाराचकीलितसंहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यञ्चगति-तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चायु और उद्योत।
सासादन