Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ जीवराज जैन ग्रंथमाला प्रकाशन आचार्य श्री शिवार्य विचित भगवती आराधना (हिंदी) प्रकाशक जैन संस्कृती संरक्षक संघ, सोलापुर. #RETHRENH MATTURE tatt ! Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराज जैन ग्रंथमाला (हिन्दी विभाग पुष्प-३६) आचार्यश्री शिवार्य विरचित भगवती आराधना (आचार्यश्री अपराजित सूरि रचित विजयोदया टीका तथा तदनुसारी हिन्दी टीका सहित) - सम्पादक एवं अनुवादक - सिद्धान्ताचार्य श्री पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री - प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ (जीवराज जैन ग्रंथमाला) ४१०, दक्षिण कसबा, सोलापुर - ७. :: (०२१७) २३२०००७ वीर सवंत् २५३० ई.सन २००४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्रीमान शेठ श्री अरविंद रावजी दोशी अध्यक्ष - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर - ४१३ ००७ प्रथमावृत्ति १९७८ प्रति ११०० द्वितीयावृत्ती २००४ प्रति ३०० सर्वाधिकार सुरक्षित प्रिंटींग खर्च - रूपये ३००/ मुद्रक - श्री. एन. डी. साखरे प्रिंटर्स, रेल्वे लाईन्स, सोलापूर. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JIVRAJ JAIN GRANTHAMALA, NO. 36 ACHARYA SHRI SHIVARYAS BHAGVATI ARADHANA WITH The Sanskrit tika Vijayo-daya of Aparajit suri Edited along with the Hindi Translation etc. By Pandit Kailaschandra Shastri Published by Jain Sanskriti Sanrakshaka Sangh 410, South Kasba, Solapur 7 Ph. (0217) 2320007 Veera Samvat - 2530 A. D. 2004 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराज जैन ग्रंथमालका परिचय सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगाते रहे । सन् १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित सम्पत्तिका उपयोग विशेष रूपसे 'धर्म तथा समाजकी उन्नतिके कार्यमें करे । तदनुसार उन्होंने समस्त भारतका परिभ्रमण कर अनेक जैज विद्वानोंसे इस बातकी साक्षात् और लिखित रूपसे संम्मत्तियाँ संगृहीत की, कि कौनसे कार्यमें सम्पत्तिका विनियोग किया जाय । अन्तमें स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन् १९४१ के ग्रीष्मकालमें ब्रह्मचारीजीने सिद्ध क्षेत्र श्री गजपंथजीकी पवित्र भूमिपर अनेक विद्वानों को आमंत्रित कर उनके सामने ऊहापोहपूर्वक निर्णय करनेके लिए उक्त विषय प्रस्तुत किया । विदत्सम्मेलनके फलस्वरूप श्रीमान् ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति तथा जैन साहित्यके समस्त अंगों के संरक्षण-उद्धार-प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ की स्थापना की । तथा उनके लिये रु. 30,000/- का बृहत् दान घोषित कर दिया । आगे उनकी परिग्रह-निवृत्ति बढ़ती गई. । सन १९४४ में उन्होंने लगभग दो लाखकी अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अर्पण की। इसी संघके अन्तर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' द्वारा प्राचीन संस्कृतप्राकृत-हिन्दी तथा मराठी ग्रन्थों का प्रकाशन-कार्य आज तक अरखण्ड प्रवाहसे चल रहा है । आज तक इस ग्रन्थमाला द्वारा हिन्दी विभागमें ४१ ग्रन्थ तथा मराठी विभागमें १0३ ग्रन्थ व धवला विभाग. १६ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। -रतनचंद सखाराम शहा मंत्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी स्व. रो. ता. १६/१/१९५७ (पौष शु. १५) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्दिक अभिनंदन भगवती आराधनाके पुनमुद्रणके लिए और इस ग्रंथकी कीमत कम करनेके लिए नीचे लिखे हुओ श्रावक-श्राविकाओंने मिलकर रूपये १०,५००/- का सहयोग दिया है। इसलिए संस्था उन सभीके अत्यंत आभारी है। सौ. स्नेहल अरविंद रोकडे, डोंबिवली सौ. चंद्रकांत रमणलालजी कासलीवाल, डोंबिवली श्री. विकास राजेन्द्रकुमार जैन, भोपाल श्री. दिनेशकुमार जैन, कोहेफिजा भोपाल श्री. पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंडल, डोंबिवली सौ. पोर्णिमा शिखरचंद जैन, डोंबिवली श्री. नितीन शिखरचंद जैन, डोंबिवली Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय प्रस्तुत भगवती आराधना ग्रन्थ जैन साधुके आचारसे सम्बद्ध एक प्राचीन ग्रन्थ है और उसकी टीका विजयोदेया भी इस दृष्टिसे अपना विशेष महत्त्व रखती है । ये दोनों एक तीसरे जैन सम्प्रदायके माने जाते हैं जो न दिगम्बर था और न श्वेताम्बर । दिगम्बर सम्प्रदाय आगम ग्रन्थोंको मान्य नहीं करता और श्वेताम्बर सम्प्रदाय साधुओंके वस्त्र पात्रवादका समर्थक ही नहीं किन्तु पोषक है। किन्तु इस ग्रन्थ और इसकी टीकासे स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक ओर इनके रचयिता आगम ग्रन्थोंको मान्य करते हैं तो दूसरी ओर वे वस्त्र पात्रवादके घोर विरोधी प्रतीत होते हैं । इससे यह ध्वनित होता है कि वे ऐसे सम्प्रदायके अनुयायी हैं जो न आगम ग्रन्थोंको अमान्य ही करता है और न वस्त्रपात्र वादको स्वीकार करता है। ऐसा सम्प्रदाय यापनीय ही हो सकता है। किन्तु इस ग्रन्थमें न तो स्त्रीमुक्तिका ही समर्थन है और न केवली भुक्तिका प्रत्युतः अन्तमें स्त्रीसे भी वस्त्र त्याग करानेको इसमें चर्चा है । और यापनीय संघकी ये दोनों मान्यताएं बतलाई जाती हैं। अतः हम नहीं मान सकते कि इस ग्रन्थके कर्ता और टीकाकार सवस्त्रमुक्ति या स्त्री मुक्तिके समर्थक होंगे। इसमें आगत गाथा नं० ४२३ ऐसी गाथा है जो दिगम्बर मूलाचारमें भी आती है और श्रेताम्बरीय आगम साहित्यमें भी आती है। उसमे साधुके दस कल्प बतलाये हैं । कल्प कहते हैं करणीय आचारको । उसमे प्रथम ही कल्प है आचेलक्य । चेल कहते हैं वस्त्रको और अचेलक कहते हैं वस्त्र रहितको 1 इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने आगमोंके प्रमाण देकर साधुओंके नग्न रहने का ही समर्थन किया है। आचारांग सूत्रमें (१८२) में कहा है 'जो साधु अचेल रहता है उसे यह चिन्ता नहीं होती मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया मैं वस्त्रकी याचना करूंगा । उसे सीनेके लिये धागा और सुईकी याचना करूंगा। उसे सीऊंगा। ......." वह अचेलकपनेमें लाघव मानता है, आदि' आचारांग सूत्र २०९ में कहा है 'शीत ऋतु बीत जानेपर, गीष्मऋतु आनेपर यदि वस्त्र जीर्ण न हो तो उन्हें कहीं स्थापित कर दे। अथवा सान्तरोत्तर हो जाये या ओमचेल या एक शाटक या अचेल हो जाये ।' टीकाकारने सान्तरोत्तरका अर्थ किया है—'सान्तर है उत्तर-प्रावरणीय जिसका' अर्थात् शोतकी आशंकासे वस्त्रको त्यागता नही है, कभी ओढ़ लेता और कभी उतारकर पार्वमें रख लेता है। ओमचेलका अर्थ किया है-धीरे धीरे शीतके जाने पर द्वितीयादि वस्त्रको त्याग एकशाटक हो जाये । अथवा शीत बिल्कूल चले जाने पर उसे भी छोड़कर अचेल हो जाये। सूत्र २१ में कहा है--निग्रन्थ श्रमणोंके लिये पांच कारणोंसे अचेलपना प्रशस्त है-प्रतिलेखना अल्प होती है, स्वाभाविक रूप है, तप होता है लाघव है, विपुल इन्द्रिय निग्रह होता है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना स्थानांग सूत्र १७१ में वस्त्र धारणके तीन कारण कहे हैं--लज्जा, शरीरका अंग विकृत होना, परीषह सहनमें असमर्थता। इस प्रकारसे आगमानुसार भो विशेष अवस्थामें ही वस्त्र को अनुज्ञा थी। किन्तु उत्तरकाल के ग्रन्थकारों और टीकाकारोंने इस प्रकारके वचनोंको जिनकल्पका करार देकर तथा अचेलका अर्थ बदल कर मूल मार्गको तिरोहित ही जैसा कर दिया। जैसे जीतकल्प सूत्रमें आचेलक्य का अर्थ करते हुए कहा है-- दुविहा होति अचेला संताचेला असंतचेला य । तित्थगरऽसंतचेला संताचेला भवे सेसा ।।१९७५।। अचेल दो प्रकारके होते हैं एक वस्त्रके रहते हुए अचेल और एक वस्त्ररहित अचेल । तीर्थकर वस्त्ररहित अचेल है । शेष सब वस्त्र सहित अचेल हैं। 'परीषहोंमें एक नाग्न्य परीषह है । निरुक्तमें नाग्न्यका अर्थ इस प्रकार किया है-- यो हताशः प्रशान्ताशस्तमाशाम्बरमुचिरे। यः सर्वसङ्ग सन्त्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः ॥ अर्थात् जो सर्व परिग्रहसे रहित है उसे नग्न कहते हैं । टीकाकारोंने अल्प वस्त्रधारीको भी नग्न कहा है। आगममें परिग्रहका लक्षण मूर्छा-ममत्व भाव कहा है। इसकी ओटमें परिग्रह रखकर भी यह कहा जाता है कि हमारा ममत्व भाव नहीं है अतः हम अपरिग्रही हैं। __ अराधना और उसकी टोकामें परिग्रह भावका विस्तार से निराकरण किया है। आजकल दिगम्बर परम्परामें भी साधु मात्र शरीरसे तो नग्न रहते हैं किन्तु अन्तरंगसे नग्न तो विरल हैं। परिग्रहसे ममत्व छूटना बहुत कठिन है। वही संसारका कारण है। अतः यदि साधू बनकर भी परिग्रहका मोह नहीं छूटता तो साधुपना ही विडम्बना है। यह आवश्यक नहीं है कि सामर्थ्य न होते हुए भी साधु बनना ही चाहिये । साधु पद स्वयं एक साधना है । उसकी साधना गृहस्थाश्रममें की जाती है। गहस्थाश्रम उसीके लिये हैं। जो पांच अणव्रत पालनका भी अभ्यास नहीं करते वे महाव्रती बन जाते हैं । शरीरकी नग्नताको ही दिगम्बरत्व समझ लिया गया है । दिगम्बरत्वका वेष धारण करके तदनुसार आचरण न करनेसे क्या गति होती है, इसे भी शायद नहीं जानते हैं। सब अपनेको स्वर्गगामी मान लेते हैं। किन्तु गृहस्थाश्रमका पाप जो फल देता है। मुनिपदका पाप उससे भयानक फल देता है। अतः मुनिपद धारण करते हुए सबसे प्रथम उस महान् पापसे डरना चाहिए। ___ आचार्य शिवार्य महाराजने और उनके अन्यतम टीकाकार अपराजित सूरिने आगम ग्रन्थों को आंख बन्द करके स्वीकार नहीं किया यह प्रसन्नताकी बात है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके आगमोंकी वाचना वलभी वाचनासे, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जाती है अवश्य भिन्न होगी। क्योंकि टीकाकारने जो उद्धरण दिये हैं वे आजके आगमोंमें कम ही मिलते हैं। 'जिस सम्प्रदायका पन्द्रहवीं शताब्दी तक पता लगता है और जिसमें शाकटायन और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय स्वयंभू जैसे प्रतिभाशाली विद्वान् हुए है उसका साहित्य सर्वथा नष्ट हो गया हो, इस बातपर सहसा विश्वास नहीं होता । प्राचीन भण्डारोंमें वह अवश्य ज्ञात अज्ञात रूपमें पड़ा होगा'। श्रीयुत प्रेमीजीके इस कथनको भुलाना नहीं चाहिये। अकेले भ० आ० पर ही अनेक टीकाएं लिखी गई हैं और वे विक्रमकी १३वीं शब्तादी तक वर्तमान थीं। उनकी खोज होना आवंश्यक है । अभीतक छोटे-छोटे स्थानोंके शास्त्र भण्डारोंकी छान वीन नहीं की गई है। ऐसे स्थानोंसे भी कभी कभी ग्रन्थरत्नोंकी प्राप्ति हो जाती है । एकवार सब शास्त्र भण्डारोंकी छानबीन होना आवश्यक है । स्थानीय शास्त्र स्वाध्याय प्रेमी इस ओर यदि ध्यान दें तो यह खोज सरलतासे हो सकती है। प्राचीन शास्त्रोंकी पाण्डुलिपियोंकी सुरक्षाका प्रबन्ध होना चाहिये । कैलाशचन्द्र शास्त्री ग्रन्थमाला सम्पादक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १. प्रतियोंका परिचय भगवती आराधना या मूलाराधनाका प्रथम संस्करण पं० सदासुखदासजीको ढुंढारी भाषाकी टीकाके साथ सन् १९०९ में प्रकाशित हुआ था। उसका दूसरा संस्करण १९३२ में श्री अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हुआ था। किन्तु विजयोदया टीका, मूलाराधनादर्पण और आचार्य अमितगति रचित संस्कृत पद्योंके साथ उसका प्रथम संस्करण शोलापुरसे १९३५ में प्रकाशित हुआ था। उसका सम्पादन भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीटयूट पूनासे प्राप्त प्रतियोंके आधारपर पं० जिनदास पार्श्वनाथ शास्त्रीने हिन्दी अनुवादके साथ किया था । हमने उसी संस्करणको आधार बनाकर उसका पुनः सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद किया है। उसके सम्पादनके लिये हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज करते हुए हमें दो प्रतियाँ शुद्ध प्राप्त हो सकी । उनका परिचय इस प्रकार है अ प्रति-यह प्रति आमेर शास्त्रभण्डार जयपुर की है जो श्री महावीरजी अतिशयक्षेत्रके महावीर भवन जयपुरसे डा० कस्तूरचन्द काशलीवाल द्वारा प्राप्त हुई थी। प्रतिका लेख अतिसुन्दर और स्पष्ट है। यद्यपि कागज मटमैला हो गया है और छूनेसे टूटता है किन्तु लिपिपर समयका प्रभाव नहीं पड़ा है। प्रति प्राचीन और प्रामाणिक प्रतीत हुई। पृष्ठ संख्या ४९८ है । प्रत्येक पत्रमें १० पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्तिमें ४०-४२ अक्षर हैं। दूसरी आ प्रतिसे उसमें वैशिष्ट्य है अनेक पाठभेद हैं । इसमें गाथा संख्या २१४८ है। पूर्ण संख्या सौ पूरी होनेपर पूर्ण संख्या दी है और आगे एक दोसे प्रारम्भ किया है । इसका लेखनकाल सम्बत् १७६० है यथा 'सम्वत् १७६० वर्षे माघमासे कृष्णपक्षे दशम्यां तिथी गुरुवासरे श्री संग्रामपुरमध्ये लिखितमिदम् ।' वि० सं० १९१५ में पण्डित जगन्नाथने इसे भट्टारक देवेन्द्रकीतिको भेटमें दिया था । _ 'आ'-प्रति-यह प्रति धर्मपुरा दिल्लीमें स्थित लाला हरसुखराय शुगनचन्दके मन्दिरके दि. जैन सरस्वती भण्डारसे लाला पन्नालालजी अग्रवाल द्वारा प्राप्त हुई थी। इसका नम्बर ऊ ४ (क) है । पृष्ठ संख्या ३१२ है। प्रत्येक पत्रमें १५ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्तिमें ४५ अक्षर हैं। गाथा संख्या २१४८ है । इसमें भी जहाँ संख्या सौ पूरी होती है वहाँ पूर्णाङ्क देकर आगे एक दोसे प्रारम्भ किया है । साधारणतया शुद्ध है किन्तु संयुक्त अक्षर स्पष्टरूपसे नहीं लिखे गये हैं। इसका लेखनकाल १८६३ सम्वत् है । यथा सम्वत् १८६३ मिति फाल्गुन शुक्लपक्षे तृतीया तिथौ सनिवासरे जैनाश्रमिणा तुलसीरामेण लिलेष । श्रीरस्तु । इस तरह इन दो प्रतियोंका ही पूर्णरूपसे उपयोग हो सका है। इनके सिवाय भी जिन प्रतियोंका उपयोग किया जा सका उनका परिचय भी दिया जाता है। प्रति टोडारायसिंह-हम सन् ७५ में दशलाक्षणीपर्वमें अजमेर गये थे। केकड़ीके पं० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना रतनलालजी कटारियासे पत्रव्यवहार द्वारा इस प्रतिके पाठादि प्राप्त होते थे। किन्तु अजमेर में हमें यह प्रति कुछ समयके लिए प्राप्त हो गयी थी। _इसकी पत्र संख्या ३७९ है । प्रत्येक पृष्ठमें पन्द्रह पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्तिमें छत्तीस अक्षर है । गाथा संख्या २१४८ है लेख अशुद्ध है । यथा-सम्यक्के स्थानमें प्रायः सस्यक् लिखा है इसका लेखनकाल सम्वत् १९९९ है । यथा ___ अथ संवत्सरे १९९९ वर्षे मासानां मासोत्तममासे कार्तिकमासे शुक्लपक्षे तिथौ ५ बुधवासरे लिपीकृतं महात्मा गुमानरावदेव गांव वास्तव्यं । शुभंभूयात् ।' . ___ अजमेर में ही हमें भट्टारकजीके मन्दिरके भण्डारसे एक प्रति सेठ भागचन्दजी सोनी तथा पं० सुजानमलजी सोनीके प्रयत्नसे जिस किसी तरह कुछ समयके लिए प्राप्त हो सकी थी। उसमें मूलगाथाके ऊपर उसके संस्कृत शब्द भी लिखे हैं । इसकी पत्र संख्या २८१ है। यह प्रति सम्वत् १९११ की सालमें सेठ जवाहरमलजीके पुत्र मूलचन्दजी सोनीकी माताने भट्टारक रत्नभूषणजीको दी थी। इसमें गाथा संख्या २१६२ है । ___ ज-प्रति---यह प्रति भी आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर की है। इसका नम्बर ७७८ है । प्रत्येक पत्रमें पंक्तियां प्रायः १४ हैं, किसी पत्रमें १३ और किसीमें १५ है। प्रत्येक पंक्तिमें ४१ से ४४ तक अक्षर है। आमेर शास्त्रभण्डारकी ही 'अ' प्रतिसे प्रायः एकरूपता है। किन्तु लिपि न वैसी सुन्दर है और न सुस्पष्ट । प्रतिके अन्तमें लेखनकाल सं० १५१४ दिया है । अन्तिम लेखक प्रशस्ति इस प्रकार है सम्वत् १५२१ वर्षे आषाढ वदी १३ बुधदिने गोपाल शुभस्थाने श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीवादिराज श्रीप्रभाचन्द्रदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेवाः तत्प? श्रीजिनचन्द्रदेवा तसिक्षणी क्षुल्लिकी बाई धात्री मात्रा सुनषत लिषापितं इदं पुस्तकं ज्ञानावरणीकर्मक्षय निमित्तं । ज्ञान वा (न) ज्ञानदानेन नृभयो (निर्भयो) भयदानतः । अन्नदाता सुखी नित्यं न व्याधी भेषजा(-त्) भवेत् । यावज्जिनस्य धर्मोऽयं लोको स्थिति दयापरा। यावत्सुरनदीवाह तावन्नंदतु पुस्तकं । इसमें गाथा सं० २१४८ है। पृ० १९१ से २३१ तक नहीं हैं। पिण्डो उवधि सेज्जाए आदि गाथा ६०६ तक है । फिर 'कामाउरो णरो पुण' आदि गा० ८७७ से प्रारम्भ होता है । भगवती आराधनाकी ऐसी कोई प्रति नहीं मिल सकी जिसमें केवल मूलगाथाएँ ही हों। जितनी भी प्रतियाँ उपलब्ध हईं वे सब विजयोदया टीकाके साथ ही उपलब्ध हई। और उनमें ऐसी भी अनेक गाथाएँ सम्मिलित हैं जिनपर विजयोदया टोका नहीं है। पं० आशाधरजीने तो अपने मूलाराधना दर्पण नामक टीकामें ऐसी गाथाओंके सम्बन्धमें प्रायः यह लिख दिया है कि विजयोदयाका कर्ता इस गाथाको मान्य नहीं करता। विजयोदयाके अध्ययनसे प्रकट होता है कि उनके सामने टोका लिखते समय जो मूल ग्रन्थ उपस्थित था, उसमें और वर्तमान में उपलब्ध मूलमें अन्तर है। अनेक गाथाओंमें वे शब्द नहीं मिलते जिनकी व्याख्या टीकामें है। अतः ग्रन्थके मूल पाठका संशोधन प्रायः तब तक संभव नहीं है जब तक केवल मूल ग्रन्थका पाठ उपलब्ध न हो। इसीसे डा० ए० एन० उपाध्येके Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० भगवती आराधना परामर्शके अनुसार हमने प्रायः सभी उपलब्ध गाथाओंको स्थान दिया है। ऐसी भी कुछ गाथाएँ मूलमें सम्मिलित हो गई हैं जो विजयोदयामें उद्धृत हैं। हमने उन्हें मूलसे अलग करके टीकामें ही स्थान दिया है। जैसे गाथा ८०० की टीकाके अन्तर्गत हिसाके प्रकरणमें पाँच गाथाएँ 'उक्तं च' करके उद्धृत हैं। इसी तरह पंच परावर्तनके वर्णनमें भी कुछ गाथाएँ उद्धृत हैं। वे सब मूलमें सम्मिलित हो गई हैं। इन दोनोंकी संख्या आठ हो जाती है। फिर भी शोलापुरसे मुद्रित प्रतिमें गाथा संख्या २१७० है और इस संस्करणमें गाथा संख्या २१६४ है। इस तरह केवल छह का अन्तर है। __ हमारी अ और आ० प्रतिमें अन्तिम संख्या २१४८ है। इसका कारण यह भी है कि कुछ गाथाओंको क्रममें सम्मिलित नहीं किया गया है। कहीं क्रम संख्या छूट गई है। शोलापुरसे मुद्रित प्रति और उक्त हस्तलिखित प्रतियोंके गाथा क्रमांकका अन्तर नीचे दिया जाता है मुद्रित प्रति-२०१, ३०३, ४०४, ५०४, ६०३, ७०७, ८१३, ९१२, १०११, १११४, १२१५, १३१४, १५१५, १६१६, १७१३, १८१६, १९१९, २०२२, २१२०, २१७० । इनके स्थानमें हस्तलिखित प्रतियोंमें प्रायः पूर्णाङ्क हैं अर्थात् जैसे २१२० के स्थान पर २१०० है। केवल २१७० के स्थानमें २१४८ है। अब शोलापुरसे प्रकाशित संस्करण और वर्तमान प्रस्तुत संस्करणके गाथा अन्तरको स्पष्ट करना उचित होगा। प्रारम्भसे २७ गाथा पर्यन्त दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। २७ के पश्चात् शोला० प्रतिमें जो गाथा दी है उसपर २८ नम्बर दिया है। किन्तु यह मूलकी नहीं है। आशाधरजीने इसके सम्बन्धमें अपनी टीकामें स्पष्ट लिखा है कि अन्यत्रसे लाकर इसे सूत्र में पढ़ते हैं। अतः यहाँसे एकका अन्तर प्रारम्भ होता है । आगे शोला० प्रतिमें ११६ नम्बर दो बार पड़ गया है। पहले ११६, ११७, ११८ है और पुनः ११६ से प्रारम्भ कर दिया है।, इस तरह प्रस्तुत संस्करणमें जिस गाथा पर ११९ क्रमांक है उसमें शोला० में ११७ है। . आगे 'मयतण्हियाओ' आदि गाथाके पश्चात् प्रस्तुत संस्करणमें 'परिहर तं मिच्छत्तं' इत्यादि गाथा है। इस पर ७२५ क्रमांक है। यह शोला० प्रतिमें नहीं है। इसपर न तो विजयोदया है और न आशाधरकी पंजिका है । फिर भी प्रतियों में पाई जानेसे इसे दिया गया है। इस तरह एकका अन्तर रह जाता है। "हिंसादो अविरमण' इत्यादि गाथाकी विजयोदया टीकामें स्पष्ट रूपसे 'उक्तं च' लिखकर पाँच गाथाएँ उद्धृत हैं। शोला० में इन सबको मूलमें सम्मिलित कर लेनेसे ६ का अन्तर पड़ जाता है। प्रस्तुत संस्करणमें 'साकेदपुरे सीमंधरस्य' आदि गाथा अधिक है। इसके कारण छहके स्थानमें पाँचका अन्तर रह जाता हैं। पुनः शोला० प्रतिमें 'सव्वम्मि लोगखित्ते' इत्यादि गाथाको, जो विजयोदयामें स्पष्ट रूपसे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'उक्तं च' करके उद्धृत है मूलमें सम्मिलित कर लेनेसे अन्तर छहका हो जाता है। इतना ही दोनोंकी गाथा संख्या में अन्तर है। जिन पर विजयोदया टीका नहीं है । उन गाथाओंकी क्रमसंख्या प्रस्तुत संस्करणके अनुसार इस प्रकार है ५३, १०८, ११५, ११६, ११७, १५०, १८०, ४३२ से ४३८ तक (इन पर आशाधर की टीका है किन्त विजयाचार्य इन्हें मान्य नहीं करता, ऐसा भी उन्होंने नहीं लिखा है)--५९७.६८०. ६८१, ७३६, ७३७ (०३६ का अनुवाद अमित गतिने किया है), ७६९, ८०३ (अमित गतिका अनुवाद नहीं), ८०६ (अमित में है), ८१२ (अमित है), ८२६ (अमित में है), ८६९ (अमित में है) ९६२, ९६३ (अमित आशाधर दोनोंको स्वीकृत) ९६५ (आशाधर स्वीकृत, अमित नहीं) ९७३, ९७४, ९७५, ९८१ से ९९६ तक १०३८ (दोनोंसे स्वीकृत) । ११२५, ११२६, ११२७ (११२५, ११२६ में कुछ कथाओंके नाम हैं। इन दोनोंको अमितगति और आशाधरने स्वीकार नहीं किया है। ११२७ के विषयमें आशाधरने लिखा है कि संस्कृत टीकाकार इसे नहीं मानता। किन्तु शेष दोनोंके सम्बन्धमें चुप हैं। अतः ये दोनों प्रक्षिप्त हैं, किसी कथा' कोशकारने भो इनको उद्धत नहीं किया है) १२३२, १२७४ (दोनोंसे स्वीकृत) १२८८ (स्वीकृत), १३४८, १३५८, १४२७, १५४०, १६००, १६०१, १६०२, १६३४, १६३५, १७१०, २०२२ । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि इनके सिवाय भी ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जिन्हें विजयोदयाके कर्ताने स्पष्टार्थ मानकर उनकी व्याख्या नहीं की है। किन्तु उन्हें उन्होंने स्वीकार किया हैं। २. भगवती-आराधना प्रस्तुत ग्रन्थका नाम आराधना है और उसके प्रति परम आदरभाव व्यक्त करनेके लिए उसी तरह भगवती विशेषण लगाया गया जैसे तीथंकरों और महान आचार्यों के नामोंके साथ भगवान विशेषण लगाया जाता है । ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थकारने 'आराहणा भगवदी' (गाथा २१६२) लिखकर आराधनाके प्रति अपना महत् पूज्यभाव व्यक्त करते हुए उसका नाम भी दिया है। फलतः यह ग्रन्थ भगवती आराधनाके नामसे ही सर्वत्र प्रसिद्ध है। किन्तु यथार्थमें इसका नाम आराधना मात्र है। इसके टीकाकार श्री अपराजित सूरिने अपनी टीकाके अन्तमें उसका नाम आराधना टीका ही दिया है। इस भगवती आराधनाको आधार बनाकर आचार्य देवसेनने जो एक ग्रन्थ रचा है उसका नाम उन्होंने आराधनासार२ दिया है । इस भगवती आराधनाको संस्कृत पद्योंमें निबद्ध करनेवाले आचार्य अमितगति' ने भी अपनी प्रशस्तिमें 'आराधनैषा' लिखकर उसका नाम आराधना ही रखा है। तथा उसका एक स्तवन भी साथमें रचा है। दूसरे पंजिकाकार पं० आशाधरने यद्यपि १. देखो वृहत्कथाकोशकी डा० उपाध्येकी प्रस्तावना पृ० ७७ । संस्करण १९४३ । २. मा० दि० ग्रन्थमाला बम्बईसे वि० सं० १९७३ में प्रथम बार प्रकाशित । ३. सोलापुर संस्करणमें (१९३५) मुद्रित । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना अपनी इस टीकाको मूलाराधना' दर्पण नाम दिया है तथापि उन्होंने भी उसकी स्तुति करनेसे पूर्व 'भगवतीमाराधनामभिष्टौतुं' लिखकर भगवती आराधना नाम ही स्वीकार किया है। 'आराधना' के नामसे पाये जानेवाले ग्रन्थोंकी एक विस्तृत तालिका जिनरत्नकोशमें दी है तथा सीधी सिरीजसे प्रकाशित वृहत्कथाकोशकी अपनी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनामें स्व० डा० ए० एन० उपाध्येने उसे विस्तारसे दिया है। उसे देखकर प्रतोत होता है कि जैन परम्परामें प्रारम्भसे ही आराधनाका कितना महत्त्व रहा है। यथार्थमें आराधना पूर्ण जोवन ही सच्चा जीवन है। दूसरे शब्दोंमें आराधना पूर्वक मरण ही यथार्थ मरण है । उसके अभावमें न जीवन, जीवन है और न मरण मरण है। इस भगवती आराधनामें (गा० ६५२) कहा है कि चार निर्यापक समाधिमरण करनेवाले क्षपकको नित्य धर्मकथा सुनाते हैं । फलतः इसमें दृष्टान्त रूपसे अनेक कथा प्रसंगोंका निर्देश है। जिनको संकलित करके अनेक कथाकोश रचे गये हैं। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने गद्यकथाकोशकी पुष्पिकामें उसका नाम आराधना कथा प्रबन्ध दिया है। ब्रह्म नेमिदत्तके भी कथाकोशका नाम आराधना कथाकोश है। एक कथाकोश प्राचीन कन्नड़ भाषामें भी है उसका नाम वड्ढाराधना है । उसकी मूडविद्रीकी प्रतिमें उसका पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है ई पेल्द पत्तोवतु कथेगल् शिवकोट्याचार्यर् पेल्द वोड्डाराधनेय कवचवु मंगल महाश्री'। इसमें वड्डाराधनाको शिवकोटि आचार्यकी कृति कहा है। वड्डाराधनाका अर्थ होता है बड़ी आराधना। इससे यह प्रकट होता है कि उत्तरकालमें आराधना विषयक अन्य ग्रन्थोंसे इसकी विशिष्टता बतलाने के लिये या उनसे इसका पृथक् अस्तित्व और महत्त्व प्रदर्शित करनेके लिए आराधना नामके साथ वृहत् या मूल विशेषण लगाकर इसे वड्डाराधना या मूलाराधना नाम भी दिया गया है । किन्तु मूलनाम मात्र आराधना ही है । विषय परिचय जैसा कि इस ग्रन्थके नामसे प्रकट है, इस ग्रन्थमें आराधनाका वर्णन है। ग्रन्थकी प्रथम गाथामें ग्रन्थकारने चार प्रकार की आराधनाके फलको प्राप्त सिद्धों और अर्हन्तोंको नमस्कार करके आराधनाका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है और दूसरी गाथामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तपके उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरणको आराधना कहा है । टीकाकारने अपनी टीकामें इनको स्पष्ट किया है। अन्य जैन ग्रन्थोंमें भी सम्यग्दर्शन आदिका कथन है किन्तु उनके साथ आराधना शब्दका . प्रयोग तथा उद्योतन आदिरूपसे उनका कथन नहीं पाया जाता । - तीसरी गाथामें संक्षेपसे आराधनाके दो भेद कहे हैं-प्रथम सम्यक्त्वाराधना और दूसरी चारित्राराधना । चतुर्थ गाथामें कहा है कि दर्शनको आराधना करने पर ज्ञानकी आराधना नियमसे होती है किन्तु ज्ञानकी आराधना करने पर दर्शनकी आराधना भजनीय है, वह होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्ज्ञान नियमसे होता है परन्तु ज्ञानके होने पर सम्यग्दर्शनके होनेका नियम नहीं है। १. देखो, हरिषेणकृत वृहत्कथाकोशकी डा. उपाध्ये को प्रस्तावना पृ० ६८ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३ गाथा ६ में कहा है कि संयमकी आराधना करने पर तपकी आराधना नियमसे होती है किन्तु तपकी आराधना में चारित्रकी आराधना भजनीय है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत है तो उसका तप हाथीके स्नानकी तरह व्यर्थ है । अतः सम्यक्त्वके साथ संयमपूर्वक ही तपश्चरण करना कार्यकारी होता है, इसलिये चारित्रकी आराधना में सबकी आराधना होती है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही सम्यक् चारित्र होता है इसलिये सम्यक् चारित्रकी आराधना में सबकी आराधना गर्भित है । इसीसे आगममें आराधनाको चारित्रका फल कहा है और आराधना परमागमका सार है ||१४|| क्योंकि बहुत समय तक भी ज्ञान दर्शन और चारित्रका निरतिचार पालन करके भी यदि मरते समय उनकी विराधना कर दी जाये तो उसका फल अनन्त संसार है ||१६|| इसके विपरीत अनादि मिथ्यादृष्टि भी चारित्रकी आराधना करके क्षणमात्रमें मुक्त हो जाते हैं । अतः आराधना ही सारभूत है ॥७॥ इसपर यह प्रश्न किया गया कि यदि मरते समयको आराधनाको प्रवचन में सारभूत कहा है तो मरने से पूर्व जीवनमें चारित्रकी आराधना क्यों करना चाहिए || १८ || उत्तरमें कहा है कि आराधना के लिए पूर्व में अभ्यास करना योग्य है । जो उसका पूर्वाभ्यासी होता है उसकी आराधना सुखपूर्वक होती है ||१९|| यदि कोई पूर्व में अभ्यास न करके भी मरते समय आराधक होता है तो उसे सर्वत्र प्रमाणरूप नहीं माना जा सकता ||२४|| इस कथन से हमारे इस कथनका समाधान हो जाता है कि दर्शन ज्ञान चारित्र और तपका वर्णन जिनागममें अन्यत्र भी है किन्तु वहाँ उन्हें आराधना शब्दसे नहीं कहा है । इस ग्रन्थमें मुख्यरूपसे मरणसमाधिका कथन है । मरते समयकी आराधना ही यथार्थ आराधना है उसीके लिए जीवन भर आराधना की जाती है । उस समय विराधना करनेपर जीवनभरकी आराधना निष्फल हो जाती है और उस समयकी आराधनासे जीवनभरकी आराधना सफल हो जाती है । अतः जो मरते समय आराधक होता है यथार्थमें उसीके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपकी साधनाको आराधना शब्दसे कहा जाता है । । इस प्रकार चौबीस गाथाओं के द्वारा आराधनाके भेदोंका कथन करनेके पश्चात् इस विशालकाय ग्रन्थका मुख्य वर्ण्य विषय मरणसमाधि प्रारम्भ होता है इसको प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि यद्यपि जिनागम में सतरह प्रकारके मरण कहे हैं किन्तु हम यहाँ संक्षेपसे पाँच प्रकारके मरणोंका कथन करेंगे ॥ २५ ॥ वे हैं - पण्डित पण्डितमरण, पण्डितंमरण, बालपण्डितमरण, बालमरण और बाल-बालसरण ||२६|| क्षीणकषाय ओर केवलीका मरण पण्डित - पण्डितमरण है और विरताविरत श्रावकका मरण बालपण्डितमरण है ||२७|| अविरत सम्यग्दृष्टी - का मरण बालमरण है और मिथ्यादृष्टिका मरण बाल-बालमरण है ||२९|| पण्डितमरणके तीन भेद है - भक्तप्रतिज्ञा, प्रायोपगमन और इंगिनी । यह मरण शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधुके होता है ॥२९॥ इसके अनन्तर ग्रन्थकारने सम्यक्त्वकी आराधनाका कथन किया है । सम्यक्त्वाराधना-गाथा ४३ में सम्यक्त्वके पाँच अतीचार कहे हैं - शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अनायतन सेवा । तत्त्वार्थसूत्र में अनायतन सेवाके स्थान में 'संस्तव' नामक अतीचार कहा है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना टीकाकार अपराजितसूरिने अपनी टीकामें अतिचारोंको स्पष्ट करते हुए शंका अतिचार और संशयमिथ्यात्वके भेदको स्पष्ट करते हुए कहा है कि शंका तो अज्ञानके कारण होती है उसके मूलमें अश्रद्धान नहीं है। किन्तु संशयमिथ्यात्वके मूलमें तो अश्रद्धान है। इसी प्रकार मिथ्यात्वका सेवन अतिचार नहीं है, अनाचार है, मिथ्यादृष्टियोंकी सेवा अतिचार है। द्रव्यलोभादिकी अपेक्षा करके मिथ्याचारित्रवालोंको सेवा भी अतिचार है। गाथा ४४ में, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावनाको सम्यग्दर्शनका गुण कहा है। गाथा ४५-४६ में दर्शनविनयका वर्णन करते हुए अरहन्त, सिद्ध, जिनबिम्ब, श्रुत, धर्म, साधुवर्ग, आचार्य, उपाध्याय, प्रवचन और दर्शनमें भक्ति, पूजा, वर्णजनन, तथा अवर्णवादका विनाश और आसादनाको दूर करना. इन्हें दर्शन विनय कहा है। टीकाकारने इन सबको स्पष्ट किया है। इनमें 'वर्णजनन' शब्दका प्रयोग दिगम्बर साहित्यमें नहीं पाया जाता। वर्णजननका अर्थ है महत्ता प्रदर्शित करना । टोकाकारने इसका कथन विस्तारसे किया है। गाथा ५५ में मिथ्यात्वके तीन भेद कहे हैं संशय, अभिगृहीत, अनभिगृहीत । इस प्रकार सम्यग्दर्शन आराधनाका कथन करनेके पश्चात् गाथा ६३ में कहा है कि प्रशस्तमरणके तीन भेदोंमेंसे प्रथम भक्तप्रतिज्ञाका कथन करेंगे क्योंकि इसकालमें उसीका प्रचलन है। इसीका कथन इस ग्रन्थमें मुख्यरूपसे है, शेष दोका कथन तो ग्रन्थके अन्तमें संक्षेपसे किया है। भक्तप्रत्याख्यान-गाथा ६४ में भक्तप्रत्याख्यानके दो भेद किये हैं-सविचार और अविचार । यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है अन्यथा सविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है। सविचार भक्तप्रत्याख्यानके कथनके लिये चार गाथाओंसे चवालीस पद कहे हैं। और उनका क्रमसे कथन किया है। उन चवालीस पदोंमेंसे सबसे प्रथम पद 'अर्ह' का कथन करते हुए कहा है जिसको कोई असाध्य रोग हो, मुनिधर्मको हानि पहुँचानेवाली वृद्धावस्था हो, या देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत उपसर्ग हो, अथवा चारित्रका विनाश करनेवाले शत्रु या मित्र हों, दुर्भिक्ष हो, या भयानक वनमें भटक गया हो, या आँखसे कम दिखाई देता हो, कानसे कम सुनाई देता हो, पैरोंमें चलने-फिरनेकी शक्ति न रही हो, इस प्रकारके अपरिहार्य कारण उपस्थित होने पर विरत अथवा अविरत भक्त प्रत्याख्यानके योग्य होता है ॥७०-७३।। जिसका मुनिधर्म चिरकाल तक निर्दोष रूपसे पालित हो सकता है, अथवा समाधिमरण करानेवाले निर्यापक सुलभ हैं या दुभिक्षका भय नहीं है. वह सामने भयके न रहने पर भक्त प्रत्याख्यानके योग्य नहीं है। यदि ऐसी अवस्थामें भी कोई मरना चाहता है तो वह मुनिधर्मसे विरक्त हो गया है ऐसा मानना चाहिये ।।७४-७५।। इससे आगे ग्रन्थकारने भक्त प्रत्याख्यानके योग्य व्यक्तिके लिंगका कथन करते हुए कहा है जो औत्सर्गिक लिंगके धारी हैं अर्थात् समस्त परिग्रहके त्यागी हैं उनका लिंग तो बही Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना होता है। किन्तु जो अपवादिक अर्थात् परिग्रह सहित लिंगके धारी हैं यदि उनके पुरुषचिन्हमें कोई दोष नहीं है तो उनके लिये भी औत्सगिक लिंग धारण करना ही उचित है। किन्तु जो महत् सम्पत्तिशाली है या लज्जाशील है, या जिसके बन्धु बान्धव मिथ्यामती हैं उसके लिये अपवादलिंग उचित है ।।७६-७८॥ औत्सर्गिक लिङ्ग–अचेलता, हाथसे केशोंका उखाड़ना (केशलोच), शरीरसे निर्ममत्व और पीछी ये चार औत्सर्गिक लिंग हैं । स्त्रियोंमें भी जो औत्सर्गिक या अपवाद लिंग आगममें कहा है, भक्त प्रत्याख्यान करते समय परिग्रहको अल्प करते हुए औत्सर्गिक लिंग होता है। अर्थात् पृरुषोंकी तरह स्त्री भी यदि सम्पत्तिशालिनी है या लज्जाशील है, या उसके बन्धु बान्धव विधर्मी हैं तो एकान्त स्थानमें उसे समस्त परिग्रहके त्यागरूप उत्सर्ग लिंग दिया जा सकता है ।।८७॥ आगे इन चार प्रकारके लिंगोके लाभ बतलाते हुए सबसे प्रथम परिग्रह त्यागके गुण बतलाये हैं __परिग्रह त्यागमें लाघव, अप्रतिलेखन, निर्भयता, सम्मूर्छन जीवोंकी रक्षा और परिकर्मका त्याग ये चार गुण कहे हैं। जो वस्त्रसहित लिंग धारण करते हैं, उन्हें उनके शोधनमें लगना होता है, वस्त्र न रहने पर उसकी याचना, वस्त्र फटने पर उसे सीना, धोने पर सुखाना आदि व्यापार करना पड़ता है। वस्त्रोंमें जूं होने पर उनको दूर करना होता है। वस्त्रादिके सद्भावमें शीतादि परिषह सहन करना नहीं होता, किन्तु आगममें कर्मोंकी निर्जराके लिए परिषह सहनेका विधान है ॥८२॥ वस्त्ररहित होनेसे दिगम्बर वेशमें जनताका विश्वास प्राप्त होता है कि इनके पास छिपानेके लिए कुछ भी नहीं है। विषय सुखमें अनादरभाव प्रकट होता है। सर्वत्र स्वाधीनपना रहता है ।।८३॥ नग्नता जिनदेवका प्रतिरूप है । उससे वीर्याचार पलता है रागद्वेष नहीं होते ॥८॥ जो अपवाद लिंग धारण करता है वह भी अपनो शवितको न छिपाते हुए अपनी निन्दा गर्दा करते हुए जब परिग्रहको त्याग देता है तब शुद्ध हो जाता है ।।८६॥ इस प्रकार लिंग ग्रहण करनेके पश्चात् साधुको ज्ञानार्जन करना चाहिए। उसके लिए विनय करना आवश्यक है अतः ज्ञानविनयके आठ भेदोंका वर्णन है ।।११२॥ तदनन्तर दर्शनविनय, चारित्रविनय, उपचारविनय आदिका कथन है। इस प्रकार निर्ग्रन्थ लिंग स्वीकार करके जो श्रुतके अभ्यासमें तत्पर है, पाँच प्रकारकी विनयका पालक है उस साधुको अनियतवासी होना चाहिए, एक स्थान पर नहीं रहना चाहिये । अतः अनियतवासके गुण बतलाये हैं। किन्तु देशान्तरमें भ्रमण करनेसे ही साधु अनियत विहारी नहीं होता किन्तु वसति, उपकरण, ग्राम, नगर, संघ और श्रावक गण सबमें उसे ममत्वभावसे रहित होना चाहिये । तभी वह अनियत विहारी होता है। इस तरहसे साधु जीवन बिताता हुआ साधु जब अपना कल्याण करना चाहता है तो विचारता है कि अथालन्दविधि, भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी मरण, परिहार विशुद्धि चारित्र, पादोपगमन अथवा जिनकल्पमेंसे किसको मैं धारण करूं? Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना विजयोदयामें इन सवका वर्णन किया है जो अन्यत्र नहीं मिलता। इस प्रकार विचार कर यदि उसकी आयु अल्प शेष रहती है तो वह अपनी शक्तिको न छिपा कर भक्त प्रत्याख्यानका निश्चय करता है ।।१५८॥ तथा संयमके साधनमात्र परिग्रह रखकर शेषका त्याग कर देता है ।।१६४॥ तथा पाँच प्रकारको संक्लेश भावना नहीं करता। इन पाँचों भावनाओंका स्वरूप ग्रन्थकारने स्वयं कहा है (१८२-१८६) । ___ आगे सल्लेखनाके दो भेद कहे हैं बाह्य और आभ्यन्तर । शरीरको कृश करना बाह्य सल्लेखना है और कषायोंका कृश करना अभ्यन्तर सल्लेखना हैं। वाह्य सल्लेखनाके लिए छह प्रकारके बाह्य तपका कथन किया है। विविक्तशय्यासन तपका कथन करते हुए गाथा २३२में उद्गम उत्पादन आदि दोषोंसे रहित वसतिकामें निवास कहा है । टीकाकारने अपनी टीकामें इन दोषोंका कथन किया है। ये सर्वदोष मूलाचारमें भी कहे हैं । आगे वाह्य तपके लाभ बतलाये हैं। ___ गाथा २५१में विविध भिक्षु प्रतिमाओंका निर्देश है। टीकाकार अपराजित सूरिने तो उनका कथन नहीं किया किन्तु आशाधरजीने किया है। उनकी संख्या बारह कही है । मूलाचारमें इनका कथन नहीं है। ___इस भक्त प्रत्याख्यानका उत्कष्ट काल बारह वर्ष कहा है। चार वर्ष तक अनेक प्रकारके कायक्लेश करता है। फिर दूध आदि रसोंको त्यागकर चार वर्ष विताता है। फिर आचाम्ल और निर्विकृतिका सेवन करते हुए दो वर्ष विताता है, एक वर्ष केवल आचाम्ल सेवन करके बिताता है । शेष रहे एक वर्षमेंसे छह मास मध्यम तपपूर्वक और शेष छह मास उत्कृष्ट तपपूर्वक बिताता है (२५४-२५६)। इस प्रकार शरीरकी सल्लेखना करते हुए वह परिणामोंकी विशुद्धिकी ओर सावधान रहता है । एक क्षणके लिए भी उस ओरसे उदासीन नहीं होता। इस प्रकारसे सल्लेखना करनेवाले या तो आचार्य होते हैं या सामान्य साधु होते हैं । यदि आचार्य होते हैं तो वे शुभमूहूर्तमें सव संघको बुलाकर योग्य शिष्यपर उसका भार सौंपकर सबसे क्षमा याचना करते हैं और नये आचार्यको शिक्षा देते हैं। उसके पश्चात् संघको शिक्षा देते हैं । यथा हे साधुओं ! आपको विष और आगके तुल्य आर्याओंका संसर्ग छोड़ना चाहिये । आर्याके साथ रहनेवाला साधु शीघ्र ही अपयशका भागी होता है ॥३३२॥ महान् सयमी भी दुर्जनोके द्वारा किये गये दोषसे अनर्थका भागी होता है अतः दुर्जनोंकी संगतिसे बचो ॥३५०॥ सज्जनोंकी संगतिसे दुर्जन भी अपना दोष छोड़ देते हैं, जैसे सुमेरु पर्वतका आश्रय लेनेपर कौवा अपनी असुन्दर छविको छोड़ देता है ॥३२॥ जैसे गन्धरहित फूल भी देवताके संसर्गसे उसके आशीर्वादरूप सिरपर धारण किया जाता है उसी प्रकार सुजनोंके मध्यमें रहनेवाला दुर्जन भी पूजित होता है ॥३५३॥ गुरुके द्वारा हृदयको अप्रिय लगनेवाले वचन भी कहे जानेपर पथ्यरूपसे ही ग्रहण करना चाहिए । जैसे बच्चेको जबरदस्ती मुह खोल पिलाया गया घी हितकारी होता है ॥३६०॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अपनो प्रशंसा स्वयं नहीं करना चाहिए। जो अपनी प्रशंसा करता है वह सज्जनोंके मध्यमें तृणकी तरह लघु होता है ॥३६१।। इत्यादि । इस प्रकार आचार्य संघको उपदेश देकर अपनी आराधनाके लिए अपना संघ त्यागकर अन्य संघमें जाते हैं । ऐसा करने में ग्रन्थकारने जो उपपत्तियाँ दी हैं वे बहुमूल्म हैं ।।३८५।। समाधिका इच्छुक साध निर्यापककी खोजमें पांच सौ सात सौ योजन तक भी जाता है ऐसा करने में उसे बारह वर्ष तक लग सकते हैं ॥४०३-४०४।। इस कालमें यदि उसका मरण भी हो जाता है तो वह आराधक ही माना गया है ।।४०६॥ योग्य निर्यापकको खोजते हुए जब वह किसी संघमें जाता है तब उसकी परीक्षा की जाती है। जिस प्रकारका आचार्य निर्यापक होता है उसके गुणोंका वर्णन विस्तारसे किया है। उसका प्रथम गुण है आचारवत्त्व । जो दस प्रकारके स्थितिकल्पमें स्थित होता है वह आचारवान् होता है। गाथा ४२३ में इनका कथन है-ये दस कल्प हैं-आचेलक्य, उद्दिष्टत्याग, शय्यागृहका त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मास और पयुषणा। श्वेताम्बर आगमोंमें भी इन दस कल्पोंका विस्तारसे वर्णन मिलता है। विजयोदया टीकाकारने अपनी टीकामें इनका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है। सबसे प्रथम कल्प है आचेलक्य। चेल कहते हैं वस्त्रको, वस्त्रादि समस्त परिग्रहका त्याग आचेलक्य है। किन्तु श्वताम्बर परम्पराके साघु वस्त्र पात्र आदि परिग्रह रखते हैं। अतः टीकाकारने उनके मतका निरसन सप्रमाण किया है। और श्वेताम्बर आगमोसे-आचारांग, उत्तराध्ययन, आवश्यक आदिसे अनेक प्रमाण उद्धृत किये हैं। किन्तु वर्तमान श्वेताम्बर आगमोंमें उनसेसे अनेक प्रमाण नहीं मिलते । इस विषयमें आगे अलगसे चर्चा करेंगे। टीकामें कहा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थमें रात्रिभोजन त्याग नामक एक छठा व्रत भी था । पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थसिद्धि में सातवें अध्यायके प्रथमसूत्रके व्याख्यानमें रात्रि भोजन नामक छठे व्रतकी शका उठाकर समाधानमें कहा है कि उसका अन्तर्भाव अहिंसा व्रतकी भावनाओंमें किया है। प्रतिक्रमणके भेदोंका कथन करते हुए भी टीकाकारने कहा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकरके तीर्थ में साधुओंको प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थंकरोंके तीर्थमें साधु दोष लगनेपर ही प्रतिक्रमण करते थे। इसका कारण भी कहा है कि मध्यम तोर्थंकरोंके साधु दृढ़बुद्धि, एकाग्रचित, और अव्यर्थ लक्ष्यवाले थे इसलिए उनका आचरण गर्दा करनेमात्रसे शुद्ध हो जाता था । किन्तु शेष दो तीर्थंकरोंके साधु चलचित्त होनेसे अपने अपराधपर दृष्टि नहीं देते । इसलिए उन्हें सब प्रतिक्रमण करनेका उपदेश है। मूलाचारमें भी (७/१३२-१३३) यह कथन है। गाथा ४४८ की टीकामें पंचपरावर्तनका वर्णन है किन्तु द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, और भावसंसारका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिसे भिन्न है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना निर्यायक आचार्य के गुणोंमें एक गुण अवपीडक है । समाधि लेनेसे पूर्व दोषोंकी विशुद्धिके लिये आचार्य उस क्षपकसे उसके पूर्वकृतदोष बाहर निकालते हैं । यदि वह अपने दोषों को छिपाता है तो जैसे सिंह स्यारके पेटमें गये मांसको भी उगलवाता है वैसे ही अवपीडक आचार्य उस क्षपकके अन्तरमें छिपे मायाशल्य दोषोको बाहर निकालता है ||४७९|| १८ गाथा ५२८ में आचार्यके छत्तीस गुण इस प्रकार कहे हैं 7 आचारवत्व आदि आठ दस प्रकारका स्थितिकल्प, बारह तप, छह आवश्यक । किन्तु विजयोदयामें आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पाँच समिति, तीन गुप्ति ये छत्तीस गुण कहे हैं। पं० आशाधरने अपनी टीकामें विजयोदयाके अनुसार छत्तीस गुण बतलाकर प्राकृत टीकाके अनुसार अट्ठाईस मूलगुण और आचारवत्व आदि आठ इस तरह छत्तीस गुण कहे हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भगवती आराधना और विजयोदयामें अट्ठाईस मूलगुणोंको नहीं गिनाया है । यद्यपि कथनमें आ जाते हैं । आचार्यके सन्मुख अपने दोषोंकी आलोचना करनेका बहुत महत्त्व है उसके बिना समा सम्भव नहीं होती । अतः समाधिका इच्छुक क्षपक दक्षिण पार्श्व में पीछीके साथ हाथोंकी अंजलि मस्तकसे लगाकर मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक गुरुकी वन्दना करके सब दोषोंको त्याग आलोचना करता है । अतः गाथा ५६४ में आलोचनाके दस दोष कहे हैं । यह गाथा सर्वार्थ सिद्धि ( ९-२२ ) में भी आई है । आगे ग्रन्थकारने प्रत्येक दोषका कथन किया है । आचार्य परीक्षा के लिये क्षपकसे तीन बार उसके दोषोंको स्वीकार कराते हैं । यदि वह तीनों बार एक ही बात कहता है तो उसे सरलहृदय मानते हैं । किन्तु यदि वह उलटफेर करता है तो उसे मायावी मानते हैं । और उसकी शुद्धि नहीं करते । 1 इस प्रकार श्रुतका पारगामी और प्रायश्चित्तके क्रमका ज्ञाता आचार्य क्षपककी विशुद्धि करता है । ऐसे आचार्यके न होनेपर प्रवर्तक अथवा स्थविर निर्यापकका कार्य करते हैं । जो अल्पशास्त्रज्ञ होते हुए भी संघकी मर्यादाको जानता है उसे प्रवर्तक कहते हैं । जिसे दीक्षा लिये बहुत समय बीत गया है तथा जो मार्गको जानता है उसे स्थविर कहते हैं । निर्यापक - जो योग्य और अयोग्य भोजन पानकी परीक्षा में कुशल होते हैं, क्षपकके चित्तका समाधान करनेमें तत्पर रहते हैं, जिन्होंने प्रायश्चित्त ग्रंथोंको सुना है और दूसरोंका उद्धार करनेका महत्त्व जानते हैं ऐसे अड़तालीस यति निर्यापक होते हैं || ६४७ || वे क्षपकके शरीरको सहलाते हैं, हाथ पैर दबाते हैं, चलने-फिरने, उठने-बैठने में सहायता करते हैं । उनमेंसे चार तो परिचर्या करते हैं । चार धर्मकथा करते हैं । चार खानपानकी व्यवस्था करते हैं । वह खानपान उद्गम आदि दोषोंसे रहित होता है और क्षपकके स्वास्थ्यके अनुकूल होता है । चार यति उस लाये गये खानपानकी रक्षा करते हैं । चार यति मलमूत्र उठाते हैं । चार यति क्षपकके द्वारकी रक्षा करते हैं असंयमी जनोंको प्रवेशसे रोकते हैं । चार मुनि उस देश के अच्छे-बुरे समाचारों पर दृष्टि रखते हैं जिससे समाधि में कोई बाधा उपस्थित न हो । चार यति जो स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्तके ज्ञाता होते हैं, धर्मश्रवणके लिये उपस्थित श्रोताओं को इस तरहसे उपदेश देते हैं कि उससे क्षपकको कोई बाधा न पहुंचे । अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता और Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १९ बाद करनेमें कुशल चार यति उस सभा में सिंहके समान विचरण करते हैं कि यदि कोई विवाद करे तो उसका उत्तर दे सकें । कालके अनुसार यतियोंके गुणों और संख्या में भी परिवर्तन होता रहता है । कम से कम दो निर्यापक अवश्य होते हैं। एक बाहर जाये तो एक पासमें रहे ।।६७१-६७२॥ जब वह क्षपक खानपान त्यागकर संस्तर पर आरोहण करता है तब निर्यापक आचार्य उसके कान में शिक्षा देते है ||७१९ ॥ _सबसे प्रथम सम्यक्त्वका माहात्म्य बतलाते हैं । कि शुद्ध सम्यक्त्वी अविरत भी तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध करता है । असंयमी भी श्रेणिक भविष्य में तीर्थंकर होगा || ७३९|| सम्यक्त्वके पश्चात् ज्ञानका और तदनन्तर पाँच महाव्रतोंकी रक्षाका उपदेश देते हैं । गाथा ७७० में कहा है- जो ज्ञानरूप प्रकाशके विना मोक्षमार्गको प्राप्त करना चाहता है वह अन्धा अन्धकार में दुर्ग पर जाना चाहता है । गाथा ७७५ से ८१६ तक अहिंसाका वर्णन बहुत महत्त्वपूर्ण है । उसका प्रभाव अमृत के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अहिंसा वर्णन पर प्रतीत होता है । गाथा ७९१ में कहा है-यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्रीका वध न करना परमधर्म है सर्व प्राणियों पर दया परमधर्म क्यों नहीं है ? गाथा ८०४ से ८०९ तक तत्त्वार्थसूत्र के छठें अध्याय में कहे जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण के भेदों का विवेचन है । गाथा ८१७ से सत्याणुव्रतके चार भेद कहे हैं जो पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें भी कहे हैं । गाथा ८७१ से ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है । गाथा ८७२ में कहा है-जीव ब्रह्म है उसमें चर्या ब्रह्मचर्य है । गाथा ८८७-८८९ में कामकी दस दशाओंका वर्णन है । गाथा ९२१ में कहा है परमहिलं सेवंतो वेरं वधबंध- कलहधणनासं । पावदि रायकुलादो तिस्से णीयल्लयादो य ॥ सर्वार्थसिद्धिके सातवें अध्याय में भी परस्त्री सेवनमें यही दोष कहे हैं यथा – 'पराङ्गनालिंगनसंगकृत रतिश्चेहैव वैरानुबन्धिनो लिंगच्छेदनवधबन्धसर्वस्वापहरणादीनपायान् प्राप्नोति । गाथा ९२३ में जो कहा है तत्त्वार्थवार्तिकमें भी ब्रह्मचर्य के प्रकरणमें वही शकशः कहा है मादा घूदा भज्जा भगिणीसु परेण विप्पयम्मिकदं । जह दुक्खमप्पणी होई तहा अण्णस्स वि णरस्स ॥ ९२३ ॥ त०वा० - 'यथा च मम कान्ता परिभवे परकृते सति मानसपीडाऽतितीब्रा जायते तथेतरेषाम् । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० भगवंती आराधना गाथा ८१६ में अहिंसाणुव्रतमें चण्डालका उदाहरण दिया है । गाथा ८४३में असत्य भाषण के फलमें राजा वसुका उदाहरण है। गाथा ८८६ में चोरीके फलमें श्रीभूतिका उदाहरण है। गाथा ९२९ में परस्त्री गमनके फलमें कडारपिंगका उदाहरण है। गाथा ९३६ में कहा है कि स्त्रीके निमित्तसे ही महाभारत रामायण आदिमें वर्णित युद्ध हुए। गाथा ९९४ में कहा है वयणे अमयं चिट्ठदि हियए य विसं महिलियाए । इसी आशयका एक पद्य संस्कृतमें प्रसिद्ध है 'अधरेऽमृतमस्ति योषितां हृदि हालाहलमेव केवलम् ।' गाथा ९७१ आदिमें स्त्रीके वाचक स्त्री, नारी, प्रमदा, विलया, युवती, योषा, अबला, कुमारी और महिला शब्दोंकी व्युत्पत्ति दोषपरक की गई है। गाथा १००१ से गर्भमें शरीरकी रचनाका क्रम बतलाया है । तथा १०२१ आदिसे शरीरके अवयवोंका परिमाण बतलाया है। गाथा १०५७.१०५९ में संसाररूपी वृक्षका चित्रण है जिसमें एक पुरुष वृक्षकी डाल पकड़कर मोहवश लटका हुआ है और दो चूहे उस डालको काट रहे हैं। गाथा १०९५ में स्त्रीके कारण भ्रष्ट हुए रुद्र, पाराशर ऋषि, सात्यकि आदिके नाम आते हैं। गाथा ११११ से परिग्रहत्याग महाव्रतका निरूपण करते हुए कहा है कि पहले जो दस स्थिति कल्प कहे हैं उनमें प्रथम है वस्त्र आदि समस्त परिग्रहका त्याग । आचेलक्य शब्द देशामर्षक है अतः आचेलक्यसे समस्त परिग्रहका त्याग अभीष्ट है। केवल वस्त्रमात्रका त्याग करनेसे संयमी नहीं होता ॥१११८॥ गाथा ११२३ में लोभवश चोरोंके द्वारा मद्य, मांसमें विष मिलाकर परस्परमें एक दूसरेको मार डालनेका उदाहरण है, इस तरहके अनेक उदाहरण हैं। गाथा ११७८ में महाव्रत शब्दको व्युत्पत्ति दी है । यह मूलाचारमें भी है। गाथा ११७९ में कहा है कि इन महाव्रतोंको रक्षाके लिए ही रात्रिभोजन त्याग नामक व्रत कहा है । यह भी मूलाचारमें है। भाषा समितिका वर्णन करते हुए गाथा ११८७ में सत्यके दस भेद कहे हैं। तथा गाथा ११८९-९० में नौ प्रकारको अनुभय भाषा कही है। ये दो गाथाएँ जीवकाण्ड गोम्मटसारमें भी हैं और मूलाचारमें भी हैं। गाथा ११९१ की टीकामें टीकाकार ने लिखा है कि दशवैकालिक सूत्रकी विजयोदया टीकामें उद्गम आदि दोषोंका कथन किया है इससे यहाँ नहीं कहा। यह टीका भी इन्हीं टोकाकारकी होनी चाहिये। उसका नाम भी विजयोदया ही है। किन्तु इस ग्रन्थमें भी गाथा २३२ की टीकामें उद्गम आदि दोषोंका कथन टीकाकारने किया है। किन्तु वह संक्षिप्त है अतः विस्तारसे कथन दूसरी टीकामें किया होगा । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २१ गाथा ११९३ में प्रतिष्ठापन समितिका स्वरूप वही कहा है जो अन्य दिगम्बर ग्रन्थोंमें उत्सर्ग समिति के नाम से कहा है । केवल नाममें भेद है । गाथा १२०० में अहिंसा व्रतकी भावना कही है । त०सू० ७१४ में वाग्गुप्ति है और यहाँ एषणासमिति है इतना अन्तर है । सत्यव्रतकी भावना त०सू० के अनुरूप ही हैं । किन्तु तृतीय व्रतकी भावना भिन्न हैं । दोनोंमें किञ्चित् भी समानता नहीं है । निदानका निषेध करते हुए गा० १२१८ में पुरुष आदि होऊँ' ऐसा भी निदान नहीं करता अतः मुनिको केवल यही भावना करना चाहिये कि समाधिपूर्वक मरण हो आदि । कहा है कि मोक्षका इच्छुक मुनि 'मैं मरकर क्योंकि यह पुरुष आदि पर्याय भी भवरूप ही हैं । मेरे दुःखोंका नाश हो, कर्मोंका क्षय हो, क्षपकको सम्बोधन करते हुए इन्द्रिय आदिकी आसक्ति में नष्ट होनेवालोंके उदाहरणोंकी एक लम्बी तालिका इस ग्रन्थ में दी गई है । यथा - घ्राणेन्द्रियकी आसक्ति वश सरयू नदीमें अयोध्यापति गन्धमित्र विषपुष्प सूंघ कर मरा ।। १३४९|| पाटलिपुत्र में गन्धर्वदत्ता वेश्या पांचाल नामक गायकका गान सुनकर मूच्छित हो गई ।। १३५० ।। कंपिलाका राजा भीम मनुष्य के मांसका प्रेमी होनेसे मारा गया | १३५१ ॥ सुवेग नामक चोर स्त्रीके रूपमें आसक्त होनेसे मरा ॥१३५२ || नासिक नगर में ग्वालेपर आसक्त राष्ट्रकूटकी भार्याने अपने पुत्रको मार दिया। फिर उसकी पुत्रीने अपनी माँको मार दिया || १३५३॥ रोसे द्वीपायनने द्वारिका नगरीको जला दिया ॥ १३६८|| मानके कारण सगर के साठ हजार पुत्र मृत्युको प्राप्त हुए ।। १३७५ ।। माया दोषसे रुष्ट कुम्भकारने भरतगाँव के धान्यको सात वर्षतक जलाया || १३८२ ।। कार्तवीर्यंने लोभवश परशुरामकी गायें चुराई । वह परशुरामके द्वारा सुकुटुम्ब मारा गया || १३८८|| अवन्ति सुकुमालको तीन रात तक शृगालीने पूर्ववैरवश खाया ॥२५३४ ॥ पुद्गलगिरिपर सिद्धार्थके पुत्र सुकौशलमुनिको व्याघ्रीने खाया ॥ १५३५ ।। गजकुमार मुनिको पृथ्वीपर लिटाकर उसमें कीलें ठोकी गईं ॥ १३३६॥ सनतकुमारने सौ वर्ष तक अनेक रोग सहे || १५३७ ॥ णिकापुत्र मुनि गंगा में नावके डूब जानेपर मृत्युको प्राप्त हुए || १५३८ || भद्रबाहु घोर अवमौदर्य के द्वारा उत्तमस्थानको प्राप्त हुए || १५३९|| कौशाम्बी नगरी में ललितघट आदि मुनि नदीके प्रवाह में बह गये || १५४६ || चम्पा नगरीमें गंगा के तटपर घोर प्याससे पीड़ित धर्मघोष मुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए ।। १५४१ ॥ पूर्वजन्मके शत्रु द्वारा पीड़ित होकर श्रीदत्तमुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए । उष्णपरीषहको सहनकर वृषभसेन मुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए । रोहेडय (रोहतक) नगरमें क्रौंच राजाने अग्नि राजाके पुत्र को शक्तिसे मारा। वह उत्तमार्थको प्राप्त हुआ || १५४४ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना काकन्दी नगरी में चण्डवेगने अश्वघोष मुनिका सर्वांग छेद डाला ।। १५४५ ॥ विद्युच्चर मुनिने डाँस मच्छरोंकी घोर परीषह सहन की ।। १५४६ || हस्तिनापुर के गुरुदत्त मुनिके सिरपर द्रोणिमत पर्वतपर आग जलाई गई । चिलातपुत्र मुनिके शरीरको चीटियोंने खा डाला || १५४८ ॥ us मुनिको यमुनावक्रने तीक्ष्ण बाणोंसे छेद डाला ।। १५४९।। २२ कुम्भकारकट नगरमें अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनि यन्त्रमें पेले गये || १५५० ॥ चाणक्य मुनि कण्डों की आग में जलाये गये ॥१५५१ ॥ कुणाला नगरी में वृषभसेन मुनि वसतिका में जलाकर मारे गये इस प्रकारके उदाहरणोंके द्वारा निर्यापक आचार्यं क्षपकको करते हैं । धर्मध्यानका वर्णन - गा० १७०३ में धर्मध्यानके चार भेद कहे है । इसकी टीकामें चारोंके स्वरूपका वर्णन करते हुए टीकाकारने आज्ञाविचय धर्मध्यानका स्वरूप कहकर सर्वार्थसिद्धिमें ( ९।३६ ) में कहे स्वरूपको 'अन्ये तु वदन्ति' कहकर लिखा है । इसी तरह धर्मध्यानके आलम्बनरूपसे बारह अनुप्रेक्षाओंके कथन के अन्तर्गत संसार अनुप्रेक्षाके कथनमें पंचपरावर्तनका कथन है । गा० १७६७ की टीका में 'अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवं वदन्ति' लिखकर सर्वार्थसिद्धि ( २1१० ) में प्रतिपादित भवपरिवर्तनका स्वरूप कहा है । इस तरह टीकाकार सर्वार्थसिद्धिकारका उल्लेख 'अन्ये' शब्दसे करते हैं । । । १५५२ ॥ कष्ट - विपत्ति के समय दृढ़ तथा गाथा १८२८ की टीका में सातावेदनीय, शुभनाम, शुभगोत्र और शुभ आयुके साथ मोहनीय कर्मके भेद सम्यक्त्व, रति, हास्य, और पुरुषवेदको पुण्य प्रकृतियोंमें गिनाया है । तत्त्वार्थसूत्रके आठवें अध्यायके अन्त में श्वेताम्बरीय सूत्र पाठमें ऐसा ही कथन है । पं० आशाधर जी ने भी अपनी टीकामें विजयोदया का ही अनुसरण किया है। उन्होंने भी इसपर कोई आपत्ति नहीं की है । शुक्लध्यानका कथन - धर्मध्यानके आलम्बनरूपसे बारह अनुप्रेक्षाओंका कथन करनेके पश्चात् गाथा १८७१ से शुक्लध्यानके चार भेदोंका कथन है । इस प्रकार उत्कृष्ट आराधनाके पालक केवल ज्ञानी होकर लोकके शिखरपर विराजमान होते हैं |१९२३ ॥ मध्यम आराधनाके पालक शरीर त्यागकर अनुत्तरवासी देव होते हैं ॥१९२७॥ तेजोलेश्यासे युक्त जो क्षपक जघन्य आराधना करते हैं वे भी सौधर्मादि स्वर्गो में देव होते हैं ।।१९३४।। किन्तु जो आराधनासे गिरकर आर्त रौद्रध्यानी होते हैं वे सुगति प्राप्त नहीं करते । यहाँ ग्रंथकारने प्रसंगवश अवसन्न आदि कुमुनियोंका स्वरूप कहा है। टीकाकार ने गा० १९४४ की टीका में इन कुमुनियोंका स्वरूप स्पष्ट किया है । अवसन्न—जो उपकरण, वसतिका और संस्तरकी प्रतिलेखना में, स्वाध्याय में, विहारभूमिके शोधनमें, गोचरीकी शुद्धतामें, ईर्यासमिति आदिमें, स्वाध्यायके कालका ध्यान रखनेमें तत्पर नहीं रहता, छह आवश्यकोंमें आलस्य करता है, उसे अवसन्न कहते हैं । पार्श्वस्थ – जो उत्पादन और एषणा दोषसे दूषित भोजन करता है, नित्य एक ही वसतिकामें रहता है, एक ही संस्तरपर सोता है, एक ही क्षेत्रमें रहता है, गृहस्थोंके घरके भीतर बैठता है, रात में मनमाना सोता है, वह पार्श्वस्थ है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना टीकाकारने उपकरणवकुश और शरीरवकुशको भी पार्श्वस्थमुनि कहा है। तत्त्वार्थसूत्रमें वकुशमुनिको भी निर्ग्रन्थके भेदोंमें कहा है और तदनुसार ही सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक आदि टीकाओंमें कहा है। किन्तु विजयोदया टीकाकार लिखते हैं-जो रातमें मनमाना सोता है, संस्तरा इच्छानुसार लम्बा चौड़ा बनाता है वह उपकरणवकुश है। जो दिनमें सोता है वह देहवकुश है । ये भी पार्श्वस्थ हैं। सारांश यह है कि जो सुखशील होनेके कारण ही अयोग्यका सेवन करता है वह सर्वथा पार्श्वस्थ है । कुशील--जिसका कुत्सित शील प्रकट है वह कुशील है। उसके अनेक भेद टीकाकारने कहे हैं । तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंमें कुशीलको भो निर्ग्रन्थ मुनियोंमें गिनाया है। संसक्त--जो नटकी तरह चारित्र प्रेमियोंमें चारित्र प्रेमी और चारित्रसे प्रेम न करनेवालों- . में चारित्रके अप्रेमी बनते हैं वे संसक्त मुनि हैं। वे पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहते हैं। स्त्रियोंके विषयमें रागभाव रखते हैं । ऋद्धिगारव, रसगारव, सातगारवमें लीन रहते हैं। यथाच्छन्द--जो बात आगममें नहीं कही है उसे अपनी इच्छानुसार जो कहता है वह यथाच्छन्द है। जैसे उद्दिष्ट भोजनमें कोई दोष नहीं है क्योंकि भिक्षाके लिए पूरे ग्राममें भ्रमण करनेसे जीवनिकायकी विराधना होती है। जो हाथमें भोजन करता है उसे परिशातन दोष लगता है। आदि. जो क्षपक मरते समय सन्मार्गसे च्यत हो जाते हैं उसका कारण सात गाथाओंसे कहा है। मरणोत्तर विधि-गा० १९६८ से मरणोत्तर विधिका वर्णन है जो आजके युगके लोगोंको विचित्र लग सकती है। यथा ___१. जिस समय साधु मरे उसे तत्काल वहाँसे हटा देना चाहिये । यदि असमयमें मरा हो तो जागरण, बन्धन या च्छेदन करना चाहिये ।।१९६८।। २. यदि ऐसा न किया जाये तो कोई विनोदी देवता मृतक को उठाकर दौड़ सकता है, क्रीड़ा कर सकता है, बाधा पहुंचा सकता है ।।१९७१॥ ३. अनिष्टकालमें मरण होने पर शेष साधुओंमें से एक दो का मरण हो सकता है इसलिये संघकी रक्षाके लिये तृणोंका पुतला बनाकर मृतकके साथ रख देना चाहिये। ४. शवको किसी स्थान पर रख देते हैं । जितने दिनों तक वह शव गीदड़ आदिसे सुरक्षित रहता है उतने वर्षों तक उस राज्यमें सुभिक्ष रहता है । इस प्रकार सविचार भक्त प्रत्याख्यानका कथन करके अन्तमें निर्यापकोंकी प्रशंसा की है। अविचार भक्तप्रत्याख्यान-जब विचार पूर्वक भक्तप्रत्याख्यानका समय नहीं रहता और सहसा मरण उपस्थित हो जाता है तब मुनि अविचार भक्त प्रत्याख्यान स्वीकार करता है ॥२००५।। उसके तीन भेद हैं-निरुद्ध, निरुद्धतर और परम निरुद्ध । जो रोगसे ग्रस्त है, पैरोंमेंशक्ति न होनेसे दूसरे संघमें जाने में असमर्थ है उसके निरुद्ध नामक अविचार भक्त प्रत्याख्यान होता है । इसी प्रकार शेषका भी स्वरूप और विधि कही है ।। इस प्रकार सहसा मरण उपस्थित होनेपर कोई-कोई मुनि कर्मोको नाशकर मुक्त होते हैं । आराधनामें कालका बहुत होना प्रमाण नहीं है; क्योंकि अनादि मिथ्याइष्टि भी वर्द्धन राजा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना . भगवान ऋषभदेवके पादमूलमें बोधको प्राप्त होकर मुक्ति गया ।।२०२१।। आगे इंगिणीमरणका कथन है इंगिणीमरण-इंगिणीमरणका इच्छुक साधु संघसे अलग होकर गुफा आदिमें एकाकी आश्रय लेता है उसका कोई सहायक नहीं होता। स्वयं अपना संस्तरा बनाता है। स्वयं अपनी परिचर्या करता है। उपसर्गको सहन करता है क्योंकि उसके तीन शभ संहननोंमेंसे कोई एक संहनन होता है। निरन्तर अनप्रेक्षारूप स्वाध्यायमें लीन रहता है। यदि पैर में कांटा या आंखमें धूल चली जाये तो स्वयं दूर नहीं करता। भूखप्यासका भी प्रतीकार नहीं करता। _प्रायोपगमन-प्रायोपगमनकी भी विधि इगिणीके समान है। किन्तु प्रायोपगमनमें तृणोंके संस्तरेका निषेध है। उसमें स्वयं तथा दूसरेसे भी प्रतीकार निषिद्ध है। जो अस्थिचर्ममात्र शेष रहता है वही प्रायोपगमन करता है। यदि कोई उन्हें पृथ्वी जल आदिमें फेंक देता है तो वैसे ही पड़े रहते हैं। बाल पण्डितमरण-भेद सहित पण्डित मरणका कथन करनेके पश्चात् बाल पण्डितमरणका कथन है । एक देश संयमका पालन करनेवाले सम्यग्दृष्टि श्रावकके मरणको बाल पण्डितमरण कहते हैं। उसके पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाबत ये बारह ब्रत होते हैं । दिविरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति ये तीन गुणव्रत है ॥२०७५|| और भोगपरिमाण, सामायिक, अतिथि संविभाग और प्रोषधोपवास ये चार शिक्षाव्रत है। तत्त्वार्थसूत्र में भी ये ही व्रत कहे हैं। किन्तु रत्नकरण्ड श्रावकाचारसे इसमें अन्तर है । श्रावक विधिपूर्वक आलोचना करके तीन शल्योंको त्याग अपने घरमें ही संस्तर पर आरूढ़ होकर मरण करता है । यह बालपण्डितमरण है । __ अन्तमें पण्डित पण्डित मरणका कथन है । जो मुनि क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके केवलज्ञानी होकर मोक्ष लाभ करता है उसका पण्डित पण्डित मरण है। उसकी सब विधि कही है कि किस गुणस्थानमें किन प्रकृतियोंका क्षय करता है। केवलज्ञानी होनेपर क्या क्या करता है, आदि। अन्तमें कहा है कि समस्त आराधनाका कथन श्रुतकेवली भी करने में असमर्थ हैं। उक्त विषयपरिचयसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थका नाम आराधना क्यों रखा गया और क्यों उसके साथ भगवती जैसा आदरसूचक विशेषण लगाया गया। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रको अखण्ड जिनशासनने मोक्षका मार्ग माना है। सम्यक् चारित्रमें ही तप भी गर्भित है। इनका वर्णन अनेक जिनागमोंमें है। किन्तु आराधना शब्दसे वहाँ उनका व्यवहार नहीं किया गया है । ग्रन्थकारने दूसरी गाथाके द्वारा आराधनाका स्वरूप कहा है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तपके उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरणको आराधना कहते हैं। टीकाकारने अपनी टीकामें इन पाँचोंका स्वरूप स्पष्ट किया है। अन्तिम निस्तरण शब्दका अर्थ किया है सम्यग्दर्शन आदिको भवान्तरमें भी साथ ले जाना। इस ग्रन्थके अन्य व्याख्याकारोंके मतकी आलोचना टीकाकारने यद्यपि की है। तथापि उससे यह स्पष्ट होता है कि यतः इस ग्रन्थमें मुख्य रूपसे मरण समाधिका वर्णन है और जीवन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भर आराधना करनेका सुफल मरणकालमें आराधना है। उसमें यदि आराधक चूक जाता है तो उसके जीवनभरकी आराधना निष्फल हो जाती है। इसीसे इस ग्रन्थमें आराधना नाम देकर उसके साथ अत्यन्त पूज्यता सूचक विशेषण भगवती लगाया है। जिस आराधनाके द्वारा आराधक शरीर त्यागकर अपुनर्जन्म जैसे निर्वाणका लाभ करता है और भगवान बनता है उसे भगवती कहना सर्वथा उपयुक्त है। ४. ग्रन्थमें चचित मुख्य विषय जैसा विषय परिचयसे स्पष्ट है इस ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है मरणके प्रकार । यद्यपि मरणके सतरह भेद कहे हैं किन्तु ग्रन्थकारने उनमेंसे पाँच प्रकारके ही मरणोंका कथन किया है। वे हैं केवलज्ञानीका मरण अर्थात् निर्वाण लाभ पण्डितमरण है। विरताविरत अर्थात् देशसंयमीका मरण बाल पण्डितमरण है । अविरत सम्यग्दृष्टीका मरण बालमरण है और मिथ्या दृष्टिका मरण बालबालमरण है। तथा शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधुका मरण पंडितमरण है उसके तीन प्रकार हैं। उनमेंसे भक्त प्रतिज्ञा नामक पण्डित मरणका ही इस ग्रन्थमें वर्णन विशेष रूपसे है। गाथा २८ में जो 'साहुस्स' के साथ 'जहुत्तचारिस्स' विशेषण दिया है वह बहुत महत्त्वका है। जो साधु होकर शास्त्रानुसार आचरण करते हुए समाधिपूर्वक मरण करता है उसीका मरण पण्डितमरण है केवल साधुपद स्वीकार कर लेने मात्रसे पण्डितमरण नहीं होता। ___ समाधिपूर्वक मरण और आत्मघात-आजके अनेक विद्वान भी जो जिनागमसे पूर्णतया परिचित नहीं हैं किसी जैन साधूके समाधिपूर्वक मरणको भी आत्मघात जैसे दूषित शब्दसे कहते हुए सुने जाते हैं। उन्हें यह ध्यानमें रखना चाहिये कि जैन साधु किस दशामें समाधि लेनेके लिये तैयार होता है । गाथा ७०-७३ में कहा है- . ____ यदि किसीको साधुपदके लिये हानिकर असाध्य व्याधि हो गई हो, या अचानक कोई ऐसा उपसर्ग आ जावे जिसमें जीवन पर संकट हो, या अपने इष्टमित्र ही अपने चारित्रका घात करने पर उतर आवे, या भयंकर दुर्भिक्ष हो जिसमें साधुचर्याके योग्य गोचरी मिलना संभव न हो, या आँखोंसे कम दिखाई देता हो, कानोंसे कम सुनाई पड़ता हो, या पैरोंमें चलने फिरनेकी शक्ति न हो, अन्य भी इस प्रकारके कारण उपस्थित होने पर ही साधु समाधि लेनेका संकल्प करता है। इसके विपरीत जिसका मुनिधर्म निरतिचार पूर्वक पल रहा है, दुभिक्ष आदि भी नहीं हैं, वह भी यदि समाधिके लिये उत्सुक होता है तो समझना चाहिये कि उसे मुनिधर्मसे ही विरक्ति : हो गई है ( ७५ )। इतना स्पष्ट विधान होते हुए भी जैन समाधिको आत्मघातकी संज्ञा देना अत्यन्त अनुचित है। इसके विपरीत हिन्दू धर्मशास्त्रोंमें जो धर्मके नामपर पर्वतसे गिरकर या आगमें जलकर मरनेका विधान है वह आत्मघातसे भी क्रूर है। इस तरहके मरणको किसी भी तरह धर्म नहीं कहा जा सकता। १ देखो ‘तुलसीप्रज्ञा' अप्रैल सितम्बर १९७७ जैन विश्व भारती लाडतुं । . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना समाधिमरणको सल्लेखना कहते हैं, सम्यक् रीतिमे शरीर और कषायको कृश करनेका नाम सल्लेखना है। शरीर वाह्य है और कषाय अभ्यन्तर है। शरीरका साधन भोजन है। धीरे-धीरे आहारको घटानेसे शरीर कृश होता है और कषायके कारणोंसे बचनेसे कषाय घटती है। शरीरको सुखा डाला और क्रोध मान माया लोभ नहीं घटे तो शरीरका शोषण निष्फल है । आत्मघात करनेवालेकी कषाय प्रबल होती है। क्योंकि जो रागद्वेष या मोहके आवेशमें आकर विष, शस्त्र, आग आदिके द्वारा अपना घात करता है वह आत्मघाती कहलाता है। सल्लेखना करनेवालेके रागादि नहीं होते। तत्त्वार्थसूत्र ७/२२ को टीका सर्वार्थसिद्धिमें एक उदाहरणके द्वारा इसे स्पष्ट किया। जैसे व्यापारीको अपने व्यापारके केन्द्रका विनाश इष्ट नहीं होता क्योंकि उसके नष्ट होने पर उसका व्यापार ही नष्ट हो जायेगा। यदि किसी कारणवश उसके केन्द्र में आग लग जाये तो वह उसको बुझाकर उसकी रक्षा करनेका ही प्रयत्न करता है। किन्तु यदि उसको बचाना शक्य नहीं देखता तो उसमें भरे हुए मालको बचानेका प्रयत्न करता है। इसी तरह व्रत शीलरूपी द्रव्यके संचयमें लगा हुआ साधु या गृहस्थ भी अपने शरीरको नष्ट करना नहीं चाहता; क्योंकि वह धर्मका साधन है। यदि शरीर नष्ट होनेके कारण उपस्थित होते हैं तो अपने धर्मके अविरुद्ध उपायोंसे शरीरकी रक्षा करनेका प्रयत्न करता है किन्तु यदि वह प्रयत्न सफल नहीं होता तो शरीरकी रक्षाका प्रयत्न त्यागकर अपने धर्मको रक्षाका प्रयत्न करता है । ऐसी स्थितिमें उसे आत्मवध कैसे कहा जा सकता है ? __ यथार्थमें मरण शरीरधारी प्राणियोंके लिये उतना ही सत्य है जितना जीवन सत्य है । जीवनके मोहमें पड़कर मनुष्य उस सत्यको भुला देता है और जिस किसी भी उपायसे सदा जीवित रहनेका ही प्रयत्न करता है। किन्तु उसका यह प्रयत्न सफल नहीं होता। एक दिन मृत्यु उसके इस प्रयत्नको समाप्त कर देती है। अतः जीवनके साथ मृत्युके सुनिश्चित होनेसे मनुष्यको जीवनके साथ मरनेके लिये भी तैयारी करते रहना चाहिये। तथा जीवनमें हर्ष और मृत्युमें विषाद नहीं करना चाहिये। जिनकी मृत्यु शानदार होती है उनका जीवन भी शानदार होता है । रोते धोते हुए प्राणोंका त्याग करना भी कायरता ही है । अतः मृत्युका आलिंगन भी साहसके साथ करना चाहिये । उसीका कथन इस ग्रंथराजमें है। ५. भ० आराधना और मरणसमाधि आदि आगमोदय समितिसे १९२७ में 'चतुःशरणादि मरण समाध्यन्त प्रकीर्णक दशक' नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। इसमें आतुर प्रत्याख्यान, भत्तपरिण्णय, संथारगपइण्णय और मरण समाही इन चारमें प्रायः वही विषय है जो भ० आराधनामें मुख्य है। आतुर प्रत्याख्यानमें ७० गाथाएँ हैं। भत्तपरिण्णयमें १७२ गाथा हैं। संथारगपइण्णयमें १२३ और मरण समाधिमें ६६३ गाथा हैं । इस तरह मरण समाधि बड़ा ग्रंथ है और उसमें तथा भ०आ० में बहुत सी गाथाएँ समान हैं। शिष्य आचार्यसे मरण समाधि जानना चाहता है । आचार्य उसे समझाते हैं भणइ य तिविहा भणिया सुविहित आराहणा जिणिदेहि । सम्मत्तम्मि य पढ़मा नाणचरित्तेहिं दो अण्णा ।। १५ ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २७ इस तरह इसमें तीन ही आराधना कहीं हैं। इसमें भी गाथा ४४ में पण्डितमरणको कहनेकी सूचना है इत्तो जह करणिज्ज पंडियमरणं तहा सुणह । आगे मरणसमाधिको गा० ६० से ६६ तथा भ० आ० को गाथा १८१ से १८८ समान हैं। आचार्य कैसा होना चाहिये यह दो गाथा ८६-८७ में कहा है और भ०आ० ४१९-४२० गा० में कहा है । ये गाथाएँ समान नहीं है कथनी समान है। मर० स० ९४-९५ में और भ०० ५३३-५३४ में आलोचनाका कथन है। तथा म०स० ९६-१०१ में और भ०आ० ५४०-४२, ५४५, ५४८, ५४९ में शल्योंका कथन है । गाथा ३०१ से आगे कहा है इति सिरिमरणविभत्तिसुए संलेहणसुयं सम्मत्तं । अथ आराहणासुयं लिख्यते । अर्थात् मरणविभक्तिश्रुतके अन्तर्गत सल्लेखना श्रुत समाप्त हुआ। अब आराधनाश्रुत लिखते है। इस तरह इसमें दो विभाग किये हैं। भ० आ० को तरह इसमें भी साधना करनेवालोंके उदाहरण दिये हैं। यथा-कंचनपुरमें श्रेष्ठि जिनधर्म श्रावक (४२३) । मेतार्य मुनि (४२६), चिलाती पुत्र (४२७), गज सुकुमाल (४३१), अवन्ति सुकुमाल (४३५), धन्य शालिभद्र (४४४), सुकोशल (४६६), वइर ऋषि (४६८), वइर स्वामी (४७२), चाणक्य (४७८), इलापुत्र (४८३), क्षमाश्रमण आर्यरक्षित (४८९), स्थूलभद्र ऋषि (४९०), अर्जुन मालाकार (४९४), आसाढ़ मूति आचार्य (५०२) आदि। अन्तिम गाथाओंमें कहा है-एक मरणविभक्ति, दो मरणविशुद्धि, तीसरी मरणसमाधि, ल्लेखनाश्रत, पाँच भक्तप्रतिज्ञा, छठा आतुर प्रत्याख्यान, सातवाँ महाप्रत्याख्यान, आठवाँ आराधना पइण्णा इन आठ श्रुतोंका भाव लेकर मरणविभक्तिकी रचना की है । इसका दूसरा नाम मरणसमाधि है। आतुर प्रत्याख्यानका प्रारम्भ बालपण्डितमरणसे होता है। अतः भ० आ० की २०७२ से २०८१ तककी गाथाएँ इसमें एकसे दसतक वर्तमान हैं। इसमें आगे कुछ ऐसी गाथाएँ भी हैं जो कुन्दकुन्दके प्राभृतोंमें पाई जाती है यथा ममत्तं परिवज्जामि ॥२३॥ आया हु महं नाणे ॥२४॥ एगो मे सासदो अप्पा ।।२६।। संजोगमूला जीवेण ॥२७|| __ भत्तपइण्णामें भी अनेक गाथाएँ भ० आ० के समान हैं। संस्तार पइण्णाका प्रारम्भ क्षपकके लिये आवश्यक संस्तारककी प्रशंसासे होता है। इसकी प्रथम गाथामें संस्तारकी प्रशंसामें वे ही उपमा दी हैं जो भ० आ० में ध्यानकी प्रशंसामें दो हैं । यथा वेरुलिउव्व मणीणं गोसीसं चदंण व गंधाण । जह व रयणेसु वइरं तह संथारो सुविहियाणं ॥५।। वइरं रदणेसु जहा गोसीसं चंदण च गंधेसु ।। वेरुलियं व मणीणं तह ज्झाणं होइ खवयस्स ।।१८९०।। __ इसमें भी भ० आ० की तरह ही सुकौशल मुनि (६३), अवन्ति सुकुमाल (६५), रोहेटक नगरमें कोव क्षत्रिय (६८) पाटलीपुत्रमें चन्द्रगुप्त (७०), कोलपुरमें गृद्धपृष्ठ (७१), पाटलीपुत्र में चाणक्य (७३), काकन्दीपुरीमें अमृतघोष (७६), कौशाम्बीमें ललित घटा (७९), कुरुदत्त (गुरुदत्त) (८५), चिलाती पुत्र (८६), गजसुकुमाल (८७), आदि उदाहरण दिये हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना जैसे भगवतीमें गुरु क्षपकको सम्बोधन करते है। इसमें भी कुछ उसी प्रकार है। कोईकोई गाथा भी समान है। इस तरह मरणसमाधि, भत्तपइण्णा और संथारगमें तथा भगवती आराधनामें अनेक गाथाएँ समान है। किन्तु इनमें केवल समाधि सम्बन्धी कुछ आवश्यक कथन ही पाया जाता है । मरणोत्तर क्रियाका, ध्यानका, लिंगका तो वर्णन ही नहीं है। इसी प्रकार अपना संघ छोड़कर निर्यापकाचार्यको खोजनेका भी कोई वर्णन नहीं है। भगवती आराधनामें आराधनासे लेकर निर्वाण तकका सब अविकल वर्णन विस्तारसे किया है । गाथाओंमें समानता होनेका प्रमुख कारण तो यह है कि तीनों हो सम्प्रदायोंका मूल तो भगवान् महावीरकी वाणी और गौतम गणधरके द्वारा रचित द्वादशांग ही रहे हैं । भेदका मूलकारण वस्त्रपात्रवाद रहा है। विधि तो पृथक्-पृथक् नहीं रही। अतः प्राचीन गाथाएँ उत्तराधिकारमें दोनोंको मिली हैं। वही सर्वत्र मेल खाती हैं उनमें सिद्धान्त भेदकी बात नहीं है। अतः अपनी रचनाके अन्त में शिवार्यने जो कहा है कि मैंने अपनी शक्तिसे इसे उपजीवित करके पूर्वाचार्यकृतके समान रचा है वही इसपर पूर्ण प्रकाश डालता है। मरण समाधि भी इसी प्रकार रची गई है। ६. भ० आ० तथा मूलाचार दिगम्बर परम्परामें मूलाचार मुनि आचार विषयक प्राचीन मान्य ग्रन्थ है। टीकाकार अपराजित सूरिकी टीकामें उद्धृत कुछ गाथाएँ मूलाचारमें मिलती है। भगवती आराधनाके हाथ मिलान करनेसे भी दोनोंकी कुछ गाथाएँ परस्परमें मेल खाती हैं। किन्तु ये गाथाएँ अधिकतर मूलाचारके पञ्चाचार प्रकरणसे सम्बद्ध हैं। मूलाचारमें समाधिमरणका कथन नहीं है केवल दुनिआचारका ही कथन है। श्वेताम्बरीय मरणसमाधि आदि प्रकरणोंमें केवल मरणसमाधिका ही कथन है। किन्तु भगवती आराधनामें मुनि आचार और मरणसमाधि दोनोंका ही कथन है योंकि पण्डितमरणमें ही भक्त प्रतिज्ञा आदि होती है और वह मुनिके ही होता है । इसलिये भ० मा० में मुनि आचारका भी कथन है। तथा भ० आ० में जो मुनिका आचार कहा है वह मूलाचारमें भी कहा है। जिस 'आयार जीद कप्प' आदि गाथाके सम्बन्धमें कहा जाता है कि श्वेताम्बरीय होना नाहिये, वह भी मूलाचारके पञ्चाचारमें है। इस प्रकरणकी लगभग सैंतीस गाथाएँ भगवतीसे नल खाती हैं। भ० आ० में जो लिंग प्रतिपादक गाथा है वह भी मूलाचारमें है। अच्चेलकं जोचो आदि समयसाराधिकारकी १७ वी गाथा है। इसी अधिकारमें दस कल्पवाली गाथा भी । पीछीके गुण बतलानेवाली गाथा भी इसी अधिकारमें है उसका नम्बर १९ है। भ० आ० में इनका क्रमांक ७९, ४२३, ९७ है। इसके समयसाराधिकार की ८, ९, १६, १९, ४९, ६० और ८१ नम्बर की गाथाएँ भ० आ० में ७६८, ७६९, २९०, ९७, ७. २९७ और १४३४ नम्बरमें पाई जाती हैं। इनमें साधुके लिये उपयोगी कथन है-यथा आचरणहीन ज्ञान निरर्थक है। ज्ञान प्रकाशक है और तप शोधक है। निद्राको जीतना चाहिये। जिस क्षेत्रमें राजा न हो या दुष्ट राजा हो, वहाँ समाधि या “व्रज्या नहीं लेना चाहिये । आदि । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावन २९ पञ्चाचाराधिकारकी गा० ४०, ४२, ४८, ९८, ९९, ११०, ११७, १२३, १३०, १३१, १३२, १३३, १३५, १३६, १३८, १३९, १४०, १४३, १४५, १४६, १५६, १६२, १७०, १७२, १७४, १७७, १७८, १८२, १८९, १९०, १९४, १२९, २०४, २०५, २१०, २१२, २१३, भ० आ० में क्रमशः १८१९, १८२९, १८४१, ११७९, ११८०, ११८६, ११८८, ८०८, ११९५, ११९६, ११९७, ११९८, ११८१, ११८२, ११८४, ११९९, १२००, १२०४, १२०६, १२०७, २१५, २३८, ११२, ११४, ११९, १२२, १२३, १२७, १३१, १३२, ३०७, १६९८, १७०८, १७०९, १११२, १०६, १०३ है | दोनों ग्रन्थोंके गाथानुक्रमको देखते हुए यह कहना अति साहस होगा कि किसी एकने दूसरेसे लिया है या नकल की है। प्राचीन माने जानेवाले ग्रन्थों में इस प्रकारका क्वचित् साम्य देखकर यही मानना उचित प्रतीत होता है कि प्राचीन गाथाएँ परम्परासे अनुस्यूत चली आती थीं और उनका संकलन ग्रन्थकारोंने अपने-अपने ढंग से किया है । श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में वस्त्र और पात्र के कारण मुनि आचारमें भेद बड़ा है । किन्तु भ० आ० और मूलाचारके आचारमें साम्य देखकर यह कहना पड़ता है कि यदि भगवती आराधना के कर्ता दिगम्बर सम्प्रदाय के न होकर यापनोय थे तो भी यापनीय और दिगम्बर साधुओंके आचार में भेद नहीं था । आगे इसको चर्चा करेंगे । ७. रचयिताका सम्प्रदाय स्व० श्री नाथूरामजी प्रेमी ने 'यापनीयोंका साहित्य' शीर्षक लेखमें भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य और टीकाकार अपराजित सूरिको यापनीय सिद्ध किया है यहाँ प्रथम यापनीयोंके सम्बन्धमें प्रकाश डालना उचित होगा । वि० सं० ९९० में रचे गये दर्शनसारमें' देवसेन ने वि० सं० २०५ में कल्याण नगर में श्रीकलश नामके श्वेताम्बर से यापनीय संघकी उत्पत्ति बतलाई है । उसीमें विक्रसं० १३६ में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति बतलाई है । इस तरह दिगभ्वर और श्वेताम्बरकी तरह तीसरा भी जैन संघ था। डा० उपाध्ये ने अपने एक लेखमें' यापनीय संघ पर विस्तारसे प्रकाश डाला था । दिगम्बर साहित्य में वि० की सोलह शताब्दी के ग्रन्थकार श्रुत सागरसूरि ने अपनी षट् प्राभृत टीकामें यापनीयोंका परिचय देते हुए लिखा है 'यापनीयास्तु वेसरा ? इवोभयं मन्यते रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति । स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं केवलिजिनानां कवलाहारं परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति ।' अर्थात् यापनीय दोनोंको मानते हैं, रत्नत्रयको पूजते और कल्पसूत्र भी वांचते हैं । स्त्रियोंको उसी भवमें मोक्ष, केवली जिनोंके कवलाहार, परशासनमें सग्रंथोंको मोक्ष कहते हैं । यह सभी बातें श्वेताम्बर मानते हैं और इन्हींको लेकर श्वेताम्बर दिगम्बर सम्प्रदाय में मुख्य भेद है । १. कल्लाणे वरणयरे दुण्णिसए पंच उतरे जादे । जावणिय संघभावो । सिरिकलसादो दु सेवडदो ॥ २९ ॥ २. बम्बई यूनिवर्सिटी जर्नल जि० १, भाग २, मई १९३३ में प्रकाशित 'यापनीयसंघ ए जैन सेक्ट' । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना किन्तु' ललितविस्तरके कर्ता हरिभद्र और षड्दर्शन समुच्चयके टीकाकार गुणरत्न जो श्वेताम्बर हैं, कहते हैं कि यापनीय संघके मुनि नग्न रहते थे मोरकी पीछी रखते थे, पाणितल भोजी थे, नग्न मुत्तियाँ पूजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकोंको 'धर्मलाभ' देते थे। परन्तु वे मानते थे कि स्त्रियोंको उसो भवमें मोक्ष हो सकता है। केवलो भोजन करते हैं और सग्रन्थ अवस्था और परशासनसे भी मुक्त होना सम्भव है। हम इस कथनके प्रकाशमें सर्व प्रथम भ० आ० की परीक्षा करेंगे। प्रेमी जी ने लिखा है गाथा ७९-८३ में मनिके उत्सर्ग अपवाद मागका विधान है जिसके अनुसार मनि वस्त्र धारण कर सकता है । अतः सबसे प्रथम हम इसी पर प्रकाश डालते हैं। भक्त प्रत्याख्यानके योग्य लिंगका निरूपण करते हुए ग्रंथकार कहते हैं-जो औत्सगिक लिंगका धारी है उसका तो वही लिंग होता है। किन्तु जो आपवादिक लिंगका धारी है उसके पुरुष चिह्नमें यदि दोष न हो तो उसके लिये भी औत्सर्गिकलिंग ही होता है ।। ७६ ।। इसकी टीकामें अपराजित सूरि ने औत्सर्गिकका अर्थ सकल परिग्रहके त्यागसे उत्पन्न हुआ किया है तथा अपवादिक लिंगका अर्थ परिग्रह सहित लिंग किया है; क्योंकि यतियोंके अपवादका कारण होनेसे परिग्रहको अपवाद कहते हैं, इससे यह स्पष्ट है कि अपवादिक लिंगका धारी गृहस्थ ही होता है। मुनि तो औत्सर्गिक लिंगका ही धारी होता है। जो अपवादिक लिंग में स्थित हैं और जिनके पुरुष चिह्नमें कोई दोष नहीं है क्या उन सबको ही औत्सर्गिक लिंग धारण करना चाहिये, इसके उत्तरमें कहा है-जो महान् सम्पत्तिशाली राजा आदि हैं, लज्जाशील हैं, जिनके कुटुम्बी मिथ्याधर्मावलम्बो हैं उनको सार्वजनिक स्थानमें औत्सर्गिक लिंग नहीं देना चाहिये। वे सचेल लिंग पूर्वक ही समाधिमरण कर सकते हैं ।। ७८ ।। आगे औत्सगिक लिंगका स्वरूप कहा है __ अचेलता-वस्त्ररहितपना, केशलोच, शरीरसे ममत्वका त्याग और पीछी औत्सर्गिक लिंगमें ये चार बातें आवश्यक हैं ॥ ७९ ॥ - प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें कुन्दकुन्द स्वामी ने भी औत्सर्गिक लिंगका यही स्वरूप कहा है। और मूलाचारमें तो यही गाथा है। दोनों गाथाएँ समान है। यह तो हुआ पुरुषोंके सम्बन्धमें। स्त्रियोंके सम्बन्धमें कहा है-स्त्रियोंके भी जो औत्सर्गिक अथवा अन्य लिंग आगममें कहा है.उनके वही लिंग अल्पपरिग्रह करते हुए होता है ।। ८० ॥ इसकी टीकामें अपराजित सूरि ने स्पष्ट कर दिया है कि तपस्विनी स्त्रियोंके औत्सर्गिक लिंग होता है और 'इतर' का अर्थ श्राविका किया है । तथा लिखा है-भक्त प्रत्याख्यानमें तपस्विनियोंके औत्सर्गिक लिंग होता है। इतर अर्थात् श्राविकाओंके पुरुषोंकी तरह लगा लेना चाहिये । अर्थात् यदि स्त्री रानी वगैरह है, लज्जाशील है, उसके कुटुम्बी मिथ्यामती हैं. तो उसको पूर्वोक्त औत्सर्गिक लिंग जो सकलपरिग्रह त्यागरूप है एकान्त स्थानमें देना चाहिये । इसपर प्रश्न किया गया कि स्त्रियोंके उत्सर्ग लिंग कैसे कहते हैं ? उत्तरमें कहा है कि परिग्रह अल्प करने पर उनके भी उत्सर्गलिंग होता है। यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि यदि ग्रंथकार और टीकाकारको १. जै० सा० इ० पृ० ५९ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सवस्त्र मुक्ति अभीष्ट होती तो वह भक्त प्रत्याख्यानके लिये औत्सर्गिक लिंग आवश्यक नहीं रखते और न टीकाकार उत्सर्गका अर्थ सकल परिग्रहका त्याग करते तथा परिग्रहको यतिजनोंके अपवादका कारण होनेसे अपवादरूप न कहते। और न स्त्रियोंसे ही अन्तिम समय एकान्त स्थानमें परिग्रहका त्याग कराते । श्वेताम्बर परम्परामें जो भक्तप्रत्याख्यान विषयक मरणसमाधि आदि ग्रंथ हैं, जिनके साथ इस ग्रंथकी अनेक गाथाएँ भी मेल खाती हैं उनमें भक्तप्रत्याख्यानके लिये आवश्यक लिंगका कथन ही नहीं है। किन्तु भगवती आराधनामें उसपर बहुत अधिक जोर दिया गया है और इस विषयमें ग्रंथकार और टीकाकारमें एकरूपता है। दोनों ही साधु आचारके विषयमें इतने कट्टर हैं कि दिगम्बर आचार्योंको भी मात करते हैं। आगे यह प्रश्न किया गया कि जो भक्तप्रत्याख्यानके योग्य है वह रत्नत्रयकी भावनाका प्रकर्ष होनेपर मरणको प्राप्त हो जायेगा, लिंग ग्रहण आवश्यक क्यों है ? इसके उत्तरमें ग्रन्थकार ने गा० ८१-८४ तक लिंग ग्रहणके गुण बतलाये हैं । आगे प्रश्न किया गया क्या अपवाद लिंग का धारी शुद्ध नही ही होता? इसके उत्तरमें ग्रन्थकार कहते हैं अपवाद लिंगका धारी अपनी शक्तिको न छिपाते हुए अपनी निन्दा गर्दा करते हुए परिग्रहका त्याग करने पर शुद्ध होता है ॥८६॥ इसकी टीकामें टीकाकारने निन्दा गर्दाको स्पष्ट करते हुए लिखा है-'सकल परिग्रहका त्याग मुक्तिका मार्ग है। मुझ पापीने परिषहके भयसे वस्त्रपात्र आदि परिग्रह स्वीकार की' इस प्रकार अन्तरंगमें सन्तापको निन्दा कहते हैं। और दूसरोंसे ऐसा कहनेको गर्हा कहते हैं। जो ऐसा करता है वह निन्दा गर्दा क्रियारूप परिणत होता है । अन्तमें लिखा है __'एवमचेलता व्यावर्णितगुणा मूलतया गृहीता।' अर्थात् इस प्रकार जिस अचेलताके गुणोंका वर्णन किया गया है उसे मूल गुणरूपसे स्वीकार किया है। जो सकल परिग्रहके त्यागको मुक्तिका मार्ग मानता है वह सवस्त्र मुक्ति या स्त्री मुक्ति कैसे स्वीकार कर सकता है ? समाधिमरणके इच्छुक क्षपकको अपनी समाधिके लिए किस प्रकारका आचार्य खोजना चाहिये, इस प्रसंगसे कहा है जो दस कल्पोंमें स्थित हो। अतः गाथा ४२३ में दस कल्पोंको कहा हैं । यह गाथा मूलाचारमें भी है और श्वेताम्बर आगमोंमें भी है। इसमें सबसे प्रथम कल्प है अचेलता। चेल वस्त्रको कहते हैं अत: अचेलताका अर्थ होता है 'वस्त्ररहितपना' । किन्तु टीकाकारने अचेलकपनेका अर्थ करते हुए लिखा है-'चेल शब्दका परिग्रहका उपलक्षण है । अतः आचेलक्यका अर्थ है समस्त परिग्रहका त्याग । दस धर्मोंमें त्याग नामका एक धर्म है । त्यागका अर्थ है समस्त परिग्रहसे विरक्तता । अचेलताका भी यही अर्थ है । अतः 'अचेल' यति त्याग धर्मका पालक होता है आदि। इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने अचेलताके गुणोंका विस्तारसे समर्थन किया है। उसी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भगवती आराधना प्रसंगमें उन्होंने यह प्रश्न उठाया है कि पूर्वागमोंमें वस्त्रपात्र आदि ग्रहण करनेका उपदेश है और उसको दिखलानेके लिए आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमोंके प्रमाण उपस्थित किये हैं। तथा समाधानमें उन्हों आगमोंके प्रमाण देकर यह बतलाया है कि आचारांग आदिमें विशेष अवस्था में वस्त्रका ग्रहण बतलाया है लज्जाके कारण, शरीरके अंग ग्लानियुक्त होनेपर तथा परिषह सहनेमें असमर्थ होनेपर वस्त्र ग्रहण करें। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें मुनिका वस्त्रपात्र ग्रहण मान्य है । वह तो आगमोंमें वर्णित वस्त्रपात्रको विशेष अवस्थामें ही बतलाया गया कहते हैं। टीकाकार ने लिखा है-'आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया भिक्षूणां ह्रीमानमोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने अक्षम स गलाति अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति । तस्मात्कारणा ग्रहणम् यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधि गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम् । तस्माद् वस्त्रपात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् (पृ० ३२४-३२५) अर्थात् आगममें आर्यिकाओंको विशेष कारण होनेसे वस्त्रकी अनुज्ञा है। भिक्षुओंके शरीरका अवयव यदि लज्जाजनक हो. लिंगके मुखपर चर्म न हो या अण्डकोष लम्बे हो, अथवा परिषह सहने में असमर्थ हो तो वह वस्त्र ग्रहण करता है । अचेलताका अर्थ है परिग्रह त्याग । पात्र भी परिग्रह है अतः उसका भी त्याग सिद्ध हो है। अतः कारण विशेष होनेपर ही वस्त्रपात्रका ग्रहण होता है तथा कारण विशेष होने पर जो उपकरण ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहणकी विधि, तथा ग्रहण किये हुए का त्याग अवश्य कहना चाहिये । इसलिये बहुतसे सूत्रग्रन्थोंमें अर्थाधिकारकी अपेक्षासे जो वस्त्रपात्रका कथन किया है वह कारण विशेषकी अपेक्षा कहा है ऐसा मानना चाहिये। उक्त उद्धरणोंसे टीकाकार की भी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। तथा दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीयका भी भेद स्पष्ट हो जाता है। दिगम्बर तो विशेष परिस्थिति ग्रहण स्वीकार नहीं करते, न वे ऐसे आगमोंको मान्य करते हैं जिनमें वस्त्रपात्र यापनीय उन आगमोंको अमान्य न करके उनके कथनको विशेष कारणकी अपेक्षा स्वीकार करते हैं । अतः कारण विशेषसे ग्रहण किये गये वस्त्रपात्रको वे त्याज्य ही मानते हैं । अतः जिसने अपनी असमर्थताके कारण वस्त्र ग्रहण किया है उसे अन्तमें वस्त्र त्याग करना ही होगा यह ग्रन्थकार और टीकाकार दोनोंका मन्तव्य है। अतः न वे सवस्त्रमुक्ति मानते हैं और न परशासनमें मुक्ति मानते हैं । किन्तु वे वस्त्रपात्रवादके समर्थक आगमोंको दिगम्बरोंकी तरह सर्वथा अमान्य नहीं करते । इसीसे वे यापनीय कहे जा सकते हैं । यापनीय आगम ग्रन्थोंको मानते थे यह शाकटायन व्याकरणके उदाहरणोंसे भी स्पष्ट है। इस ग्रन्थकी सर्वप्रथम भाषा टीका पं० सदासुखदास जी ने की थी। उनके सामने अपराजित सूरिकी टीका भी थी। उक्त प्रकरणको देखकर उन्होंने लिखा था कि इस ग्रन्थकी टीकाका कर्ता श्वेताम्बर है, वस्त्र पात्र आदिका पोषण करता है अतः अप्रमाण है। ___ तब तक यापनीय संघसे विद्वान भी अपरिचित थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर दो ही जैन सम्प्रदाय सर्वत्र ज्ञात थे और पूर्वागमोंको दिगम्बर स्वीकार नहीं करते थे, श्वेताम्बर ही स्वीकार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३ करते थे । अतः जो उन्हें स्वीकार करे उसे श्वेताम्बर मान लिया जाता था । इसी आधार पर डा० के० बी० पाठकने शाकटायनको श्वेताम्बर मान लिया था और उनकी इस मान्यताको अनेक विदेशी विद्वानोंने भी स्वीकार कर लिया था; क्योंकि शाकटायनकी अमोघवृत्तिमें अनेक श्वेताम्बर मान्य आगम ग्रन्थोंका निर्देश है । डा० पाठककी इस मान्यताका निरसन श्रीयुत स्व० प्रेमी जीने 'शाकटायन ' का शब्दानुशासन' शीर्षक अपने निबन्धके द्वारा किया था जो सन् १९१६ में जैन हितंषी में प्रकाशित हुआ था । इसमें उन्होंने नन्दिसूत्रकी टीकामें आचार्यं मलयगिरिके एक वाक्यकी ओर ध्यान दिलाया था । उसमें शाकटायनको यापनीय यतिग्रामाग्रणी लिखकर उनकी स्वोपज्ञ शब्दानुशासन वृत्तिके आदिम मंगल श्लोकको उद्धृत किया है । उसके पश्चाद् डा० ए० एन० उपाध्येका यापनीयोंके सम्बन्धमें लेख बम्बई यूनिवर्सिटी के जर्नल ( जि० १, भाग ६ मई १९३३ ) में प्रकाशित हुआ । उसमें उन्होंने बतलाया कि श्वेताम्बर और दिगम्बरकी तरह ही यापनीय भी एक स्वतन्त्र और प्रमुख सम्प्रदाय था । उसके अपने मन्दिर और मूर्तियाँ थीं दक्षिणके अनेक राजवंशोंसे उन्हें संरक्षण प्राप्त था । शाकटायन इस सम्प्रदायका एक प्रसिद्ध ग्रन्थकार था । उसके शब्दानुशासनको अमोघवृत्तिके साथ दिगम्बरोंने अपना लिया और शेष दो प्रकरणोंको श्वेताम्बरोंने । दो प्रकरण हैं स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति । श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायके मौलिक भेदमें ये ही दोनों मान्यतायें प्रमुख कारण हैं । भारतीय ज्ञानपीठसे अमोधवृत्तिका जो संस्करण प्रकाशित हुआ है उसके प्रारम्भमें जर्मनी - के प्रो० डा० आर० बिरवेकी विद्वत्तापूर्ण अंग्रेजी प्रस्तावना है । उसमें उन्होंने उक्त दोनों प्रकरणोंके शब्दानुशासनके रचयिता शाकाटायनकृत होनेमें कुछ आपत्तियां उठाई हैं । ये दोनों प्रकरण भी इस संस्करण में दिये गये हैं । प्रथम स्त्रीमुक्ति प्रकरण है । इसके प्रारम्भमें छपा है'यापनीय- यतिग्रामाग्रणि भदन्तशाकटायनाचार्य विरचितं स्त्रीमुक्ति केवलिभुक्तिप्रकरणयुग्मम् । स्त्रीमुक्ति प्रकरण अन्तमें उसके कर्ताका नाम नहीं है । यथाइति स्त्रीमुक्ति प्रकरण समाप्तम् । केवल भुक्ति प्रकरणका अन्त इस प्रकार हैइति केवलिभुक्ति प्रकरणम् । इति स्त्रीनिर्वाण केवलीयभुक्ति प्रकरणम् ॥ कृतिरियं भगवदाचार्यंशाकटायनभदन्तपादानमिति । इस परसे प्रो० डा० बिरवेने लिखा है कि इसमें खटकने वाली बात यह है कि अन्तिम पुष्पिकामें केवल भगवदाचार्य शाकटायन लिखा है उसमें उनके संघका निर्देश नहीं है । किन्तु प्रारम्भिक वाक्य में शाकटायन के साथ यापनीययतिग्रमाग्रणी पद लगा हैं जैसा कि मलयगिरिने • लगाया है । यह मौलिक अन्तर उल्लेखनीय है । १. जै० सा० इ०, पृ० १५५ ॥ २. उक्त प्रस्तावना, पृ० १७ आदि 1 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना दोनों प्रकरणोंके प्रकाशित संस्करण में ऐसा उल्लेख नहीं है कि यापनीय शाकटायनने स्त्रीमुक्ति और केवल भुक्ति प्रकरण तथा अमोघवृत्तिके साथ शब्दानुशासनकी रचना की । तथा मलयगिरि दोनों प्रकरणों और उनके कर्ताके सम्बन्धमें मौन है | ३४ इस परसे यह संभावना होती है कि यद्यपि दोनों शाकटायन यापनीय थे। किन्तु एक नहीं थे । यह निष्कर्ष केवल इस बात पर निर्भर है कि दोनों प्रकरणोंकी हस्तलिखित मूल प्रति पर 'यापनीयप्रकरण युग्मम्' वाक्य पाया जाता है । किन्तु यदि उस पर यह वाक्य नहीं है जैसा कि मुझे (प्रो० विरवे) सन्देह है क्योंकि संस्कृत ग्रन्थोंके आधुनिक संस्करणोंके मुख पृष्ठोंका मुझे इससे स्मरण हो आता है, तो शाकटायनके यापनीय तथा दोनों प्रकरणोंके रचयिता होनेकी यह साक्षी मलयगिरिके कथनसे मेल नहीं खाती । बृहत् टिप्पणिका (१५ वी० शती) के अज्ञात लेखकने लिखा है— 'केवलिभुक्ति स्त्रीमुक्तिप्रकरणम् । शब्दानुशासनकृतशाकटायनाचार्यकृतम् । तत्संग्रह श्लोकाः' । इस परसे यह कहा जाता है कि शाकटायनने शब्दानुशासन और दोनों प्रकरणोंको रचा था । इस सूचनाको मलयगिरिकी सूचनाके साथ पढ़नेसे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि दोनों प्रकरणोंका रचयिता शाकटायन यापनीय होना चाहिये क्योंकि उसने शब्दामुशासन भी रचा था । इत्यादि । इस प्रकार प्रो० डा० बिरवेने उक्त दोनों प्रकरणोंके शब्दानुशासनके रचयिता शाकटायन कृत होनेमें सन्देह व्यक्त किया है । आज जिन ग्रन्थकारोंको यापनीय कहा जाता हैं उनमेंसे किसीने भी अपनी कृतिमें अपने सम्प्रदायका निर्देश नहीं किया है । यहाँ तक शाकटायनने भी नहीं किया है । अपनी अमोघवृत्तिके प्रारम्भमें लिखते हैं-- ' महाश्रमण संघाधिपतिर्भगवानाचार्यः शाकटायनः ।' अपने व्याकरणके प्रत्येक पादकी अन्तिम सन्धिमें लिखते हैं- 'श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य शाकटायन' यह तो उन ग्रन्थों में पाये जाने वाले आगमोंके निर्देश आदिके आधार पर उन्हें यापनीय कहा जाता है । इसी आधार पर आराधनाके कर्ता शिनार्य और उसके टीकाकार अपराजित सूरि भी यापनीय कहे जाते हैं । इन दोनोंकी ही गुरुपरम्परा न श्वेताम्बर सम्प्रदायमें पाई जाती है और न दिगम्बर सम्प्रदाय में । इससे भी उनकी भिन्नताका अनुमान किया जाता है । अस्तु, श्री प्रेमी जीने लिखा है 'दस स्थिति कल्पोंके नाम वाली गाथा जिसकी टीका पर अपराजितको यापनीय सिद्ध किया गया है, जीतकल्प भाष्यकी १९७२ नं० की गाथा है । श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अन्य टीकाओं और निर्युक्तियों में भी यह मिलती है और प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्डके स्त्रीमुक्ति विचार ( नया संस्करण पृ० १३१ ) प्रकरणमें इसका उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धांतके रूपमें ही किया है ।' प्रेमीजीका यह लिखना यथार्थ है कि दसकल्पोंवाली गाथा श्वेताम्बर आगम साहित्य में मिलती है । इसीसे आचार्य प्रभाचन्द्रने उसका उपयोग अपने पक्षकी सिद्धि में किया है कि आप लोग आचेलक्य नहीं मानते है, ऐसी बात नहीं है आप भी मानते हैं और उन्होंने प्रमाणरूपसे वही गाथा उद्धृत की है । किन्तु इससे वह गाथा तो श्वेताम्बरीय सिद्ध नहीं होती । मूलाचार में Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी ३५ भी (१०।१७) यह गाथा आई है। आशाधरके अनगारधर्मामृतमें (९।८०-८१) भी इसका संस्कृतरूप मिलता है। दस कल्प तो दिगम्बर परम्पराके प्रतिकूल नहीं है किन्तु अनुकूल ही है। इसका प्रबल प्रमाण प्रथमकल्प आचेलक्य ही है। जिसका अर्थ श्वेताम्बर टीकाकारोंने अल्पचेल या अल्पमूल्य चेल आदि किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र उक्त गाथांशको उद्धृत करके लिखते हैं 'पुरुषं प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये तदुपदेशात् । पुरुषके प्रति जो दस प्रकारके स्थितिकल्प कहे हैं उसमें आचेलक्यका उपदेश है। अतः वह दस स्थितिकल्पोंको अमान्य नहीं करते उन्हें मान्य करके ही अपने पक्षका समर्थन करते हैं। आगे प्रेमीजीने लिखा है--'आराधनाकी ६६२ और ६६३ (इस संस्करणमें ६६१-६६२) नम्बरकी गाथाएँ भी दिगम्बर सम्प्रदायके साथ मेल नहीं खाती हैं। उनका अभिप्राय यह है कि लब्धियुक्त और मायाचाररहित चार मुनि ग्लानिरहित होकर क्षपकके योग्य निर्दोष भोजन और पानक लावें । इसपर पं० सदासुखजोने आपत्ति की है और लिखा है कि यह भोजन लानेके बात प्रमाणरूप नाहीं। इसी तरह ‘सेज्जागासणिसेज्जा' (गाथा ३०७) आदि गाथापर (जो मूलाचारमें ३९१ नं० पर है) कविवर बनारसीदासको शङ्का हुई थी और उसका समाधान करनेके लिए दीवान अमरचन्दजीको पत्र लिखा था। दीवानजीने उत्तर दिया था कि इसमें वैयावृत्ति करनेवाला मुनि आहार आदिसे उपकार करे। परन्तु वह स्पष्ट नहीं किया कि आहार स्वयं हाथसे बनाकर दे । मुनिकी ऐसी चर्या आचारांगमें नहीं बतलाई है।' ___ उक्त प्रकरण संस्तरपर समाधिमरणके लिए आरूढ़ क्षपककी वैयाक्त्यसे सम्बद्ध है। पहली गाथामें कहा है कि चार परिचारक मुनि क्षपकको इष्ट भोजन लाते हैं जो प्रायोग्य अर्थात् उद्गम आदि दोषोंसे रहित होता है। 'इष्ट' को टीकामें स्पष्ट किया है कि जो क्षपकको भूख प्यास परीषहको शान्त करने में समर्थ हो वह इष्ट है। तथा वह भोजन बात पित्त कफ़कारक न हो। लानेवाले मुनियोंके लिए एक विशेषण दिया है। वे मायाचार रहित होने चाहिए अर्थात् अयोग्यको योग्य मानकर लानेवाले न हों।' ज्ञानीजन यह जानते हैं कि जव क्षपक संस्तरपर आरूढ़ होता है तब उसकी शारीरिक स्थिति कैसी होती है। वह गोचरी नहीं कर सकता। जबतक गोचरी करनेमें समर्थ होता है तबतक संस्तरारूढ़ नहीं किया जाता। ऐसी स्थितिमें यदि उसे भूखा प्यासा रखा जाये तो उसके परिणाम स्थिर नहीं रह सकते । अतः उस युगमें जब साधु बनोंमें निवास करते थे तब ऐसे मरणासन्न साधुके लिए यही व्यवस्था सम्भव थी कि अन्य साधु उसके योग्य खान-पानविधिपूर्वक लावें और उसे विधिपूर्वक देवें । आजकी तरह उस समय साधुओंके निवास स्थानपर जाकर श्रावकोंके चौके तो लगते नहीं थे। और लगते भी तो इस प्रकारके उद्दिष्ट भोजनको वे स्वीकार नहीं कर सकते थे। गाथामें आहार लानेका स्पष्ट विधान है। अतः बनाकर देनेकी कोई बात ही नहीं है। इसलिए उक्त कथन दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध नहीं है। समाधि एक दो दिनमें नहीं होती। उसमें समय लगता है और वही समय वैयावृत्यका होता है। आगे प्रेमीजीने लिखा है कि 'गाथा १५४४ (इस संस्करणमें १५३९) में कहा है कि घोर अवमोदर्य या अल्पभोजनके कष्टसे विना संक्लेश बुद्धिके भद्रबाहु मुनि उत्तमस्थानको प्राप्त हुए। परन्तु Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना दिगम्बर सम्प्रदायकी किसी भी कथामें भद्रबाहुका इस ऊनोदर कष्टसे समाधिमरणका उल्लेख नहीं है।' - हरिषेण कथाकोश सब कथा कोशोंसे प्राचीन है। इसमें १३१ नम्बर में बद्रबाहुकी कथा है। जब मगधमें दुर्भिक्ष पड़ा तो वह सम्राट चन्द्रगुप्तके साथ दक्षिणापथको चले। आगे लिखा है-- 'भद्रबाहुमुनि/रो भयसप्तकवजितः । पम्पाक्षुधाश्रमं तीन जिगाय सहसोत्थितम् ॥४२॥ प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम् । चकारानशनं धीरः स दिनानि बहून्यत्नम् ।।४३।। आराधनां समाराध्य विधिना स्वचतुर्विधाम् । समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ ॥४४॥ अर्थात् सात भयोंसे रहित भद्रबाहु मुनिने सहसा उत्पन्न हुए भूख प्यासके श्रमको जीता। और उज्ययिनी सम्बन्धी भाद्रपद देशमें पहुंचकर उन्होंने बहुत समय तक अनशन किया । तथा चार प्रकारकी आराधना करके समाधिमरणको प्राप्त हो स्वर्गको गये। इस गाथासे तो दिगम्बर मान्यताको ही पुष्टि होती है कि मगधमें दुभिक्ष पड़नेपर भद्रबाहु सम्राट चन्द्रगुप्तके साथ दक्षिणापथ चले गये थे। श्वेताम्बर ऐसा नहीं मानते। इसोसे मरण समाधि आदिमें भद्रबाहुका उदाहरण नहीं है । अतः उक्त कथन भी ठीक नहीं है। . आगे लिखा है-'तीसरी गाथाकी विजयोदया टीकामें 'अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः' आदिमें अनुयोगद्वारसूत्रका उल्लेख किया है । __ यह अनुयोगद्वार सूत्र नामक श्वे० ग्रंथका उल्लेख नहीं है, किन्तु निर्देश स्वामित्व आदि अनुयोग द्वारोंका उल्लेख है। जब विस्तारसे कथन करना होता है तो इन अनुयोग द्वारोंका आश्रय लिया जाता है। इसीलिये 'दिङमात्रोपन्यासः' लिखा है। गा० ७५२ की टीकामें लिखा भी है-'निर्देश-विधानैरनुयोगद्वारै'। __ हाँ, विजहना नामक अधिकार अवश्य ही आजके युगमें विचित्र लग सकता है जिसमें मुनिके मृत शरीरको रात्रिभर जागरण करके रखनेकी और दूसरे दिन किसी अच्छे स्थानमें वैसे ही बिना जलाये छोड़ आनेकी विधि वर्णित है। __ उस समयका विचार कीजिये जब बड़े-बड़े साधु संघ वनोंमें विचरते थे। उस समय किसी साधुका मरण हो जानेपर वनमें शवको रख देनेके सिवाय दूसरा मार्ग क्या था ? वे न जला सकते थे, न जलानेका प्रबन्ध कर सकते थे। अतः उसका सम्वन्ध किसी सम्प्रदाय विशेषसे नहीं है। यह तो सामयिक परिस्थिति और प्रचलन पर ही निर्भर है। अतः प्रेमीजीका केवल इतना ही लिखना यथार्थ है कि 'यापनीय संघ सूत्र या आगमग्रन्थोंको भी मानता था। और उनके आगमोंकी वाचना उपलब्ध वलभी वाचनासे, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जाती है, शायद कुछ भिन्न थी। उसपर उनकी स्वतंत्र टीकाएं भी हो सकती हैं जैसी अपराजितकी दशवैकालिक पर टीका थी जो अब अप्राप्य है।' अतः इस बातको दृष्टिमें रखकर विचार करने पर आराधनाके कर्ता शिवार्य और टीकाकार अपराजित दोनों ही यापनीय हो सकते हैं । अपराजित सूरिने अपनी टीकामें आगमोंसे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनेक उद्धरण दिये हैं किन्तु उनमेंसे कम ही उनमें मिलते हैं। अपराजितकी टीकाके सम्बन्धमें आगे विचार करेंगे। तब उनकी स्थिति पर विशेष प्रकाश पड़ सकेगा। किन्तु हमें वे सवस्त्र मुक्ति या स्त्री मुक्तिके समर्थक प्रतीत नहीं हुए। भगवती आराधना और कथाकोश भगवती आराधनामें कहा है कि जब संस्तरपर स्थित क्षपकका अन्तकाल आता है तब अशुभ मनवचनकायको निर्मूल करनेके लिए चार परिचारक धर्मकथा कहते हैं (६५९) । फलतः इस ग्रन्थमें गाथाओंके द्वारा ऐसे अनेक उदाहरण दिये गये हैं। किन्तु उनमें केवल व्यक्ति और घटनाका उल्लेख मात्र है कथाएं नहीं दी हैं। विजयोदया टीकामें भी गाथामें आगत शब्दोंकी व्याख्यामात्र है। आशाधरने कहीं-कहींपर कुछ विशेष कहा है । शोलापुरसंस्करण पृ० ६४३ पर अपनी टीकामे वह लिखते हैं'अति दुर्लभत्वे दश दृष्टान्ताः सूत्रेऽनुश्रूयन्ते __ चुल्लय पासं धण्णं जूवा रदणाणि सुमिण चक्कं वा । कुम्भ जुग परमाणुं दस दिटुंता मणुयलंभे ।। . एते चुल्ली भोजनादि कथा सम्प्रदाया दशापि प्राकृतटीकादिषु विस्तरेणोक्ताः प्रतिपत्तव्याः '। अर्थात् मनुष्य जन्मकी दुर्लभताके सम्बन्धमें सूत्रमें दस दृष्टान्त सुने जाते हैं। ये चुल्ली आदिकी दसों कथायें प्राकृत टीका आदिमें विस्तारसे कही है। आशाधरके इस उल्लेखसे प्रकट है कि भगवती आराधनापर प्राकृतमें भी कोई टीका थी और उसमें ये कथाएँ विस्तारसे दी हुई थीं । सम्भवतया इसीसे विजयोदया आदिमें नहीं दो गई हैं। स्व. डा० ए० एन० उपाध्येने हरिषेणकृत बृहत्कथाकोशकी अपनी अंग्रेजी प्रस्तावनामें आराधनासे सम्बद्ध कथाकोशों और कथानकोंपर विस्तारसे प्रकाश डाला है। यहाँ उसीके आधारपर संक्षेपमें ज्ञातव्य बातें दी जाती हैं। ऐसे कथाकोश हैं-१. हरिषेण कथाकोश (सं०), २. श्रीचन्द्रका अपभ्रंश कथाकोश, ३. प्रभाचन्द्र कथाकोश (सं०), ४. नेमिदत्तका आराधना कथाकोश (सं० पद्य), ५. नयनन्दिका अपभ्रंश कथाकोश, तथा पुरानी कन्नड़में वट्टाराधने । इन पाँचोंमें हरिषेण कथाकोशमें सबसे अधिक कथाएँ हैं, परिमाण और विस्तारमें भी यह सबसे बड़ा है और सबसे प्राचीन भी है। श्री चन्द्रको विशेषता यह है कि प्रथम वह आराधनासे गाथा देते हैं उसका संस्कृतमें अर्थ देते है फिर उससे सम्बद्ध कथा कहते हैं। उनका लिखना है कि जैसे दीवारके विना उसपर चित्रकारी सम्भव नहीं है उसी प्रकार गाथाकी शब्दशः व्याख्याके विना पाठक कथाको नहीं समझ सकता । वह प्रथम गाथाके व्याख्यानसे अपना कथाकोश प्रारम्भ करते हैं। प्रभाचन्द्रका कथाकोश संस्कृत गद्यमें है। भारतीय ज्ञानपीठसे इसका प्रकाशन हआ है। ग्रन्थकारने इसका नाम आराधना कथा प्रबन्ध दिया है। प्रत्येक कथाके प्रारम्भमें ग्रन्थकारने संस्कृत गद्यके साथ पद्य या भगवती आराधनाको गाथाका अंश दिया है। प्रारम्भकी ९० कथाएँ प्रायः भ० आ० के गाथाक्रमके अनुसार हैं। इन कथाओं तक कोशका प्रथम भाग समाप्त होता Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ भगवती आराधना है। इसका नाम आराधना कथाप्रबन्ध है। इसके रचयिता प्रभाचन्द्र पण्डित हैं जो जयसिंह देवके राज्यमें धाराके निवासी थे। दूसरे भागके प्रारम्भमें मंगल तक नहीं है । तथा कुछ कथाओंमें पुनरुक्ति है। प्रथम भागकी कथा १, २, ४ पात्रकेसरी अकलंक और समन्तभद्रसे सम्बद्ध हैं। हरिषेणके कथाकोशमें ये कथाएँ नहीं है। ब्र० नेमिदत्त स्पष्टरूपमें स्वीकार करते हैं कि उनका संस्कृतपद्योंमें रचित आराधना कथाकोश प्रभाचन्द्रके गद्यकथाकोशका ऋणी है। किन्तु फिर भी दोनोंमें स्पष्ट अन्तर है। प्रभाचन्द्रमें कथा संख्या १२२ है और नेमिदत्तमें १४४ । कुछ कथाएँ कम है और कुछ कथाएँ ऐसी भी है जो प्रभाचन्द्रमें नहीं हैं। ___ कन्नड़के वड्डाराधनेमें केवल १९ कथाएँ हैं जो भ० आ० की गाथा १५३४-१५५२ तक से सम्बद्ध है। प्रत्येक कथाके प्रारम्भमें गाथा दी है और कन्नड़में उसका व्याख्यान भी है। ये उन्नीस कथाएँ किश्चित् परिवर्तनके साथ हरिषेणके कथाकोशमें १२६ से १४४ नम्बरमें पाई जाती हैं और अन्य कथाकोशोंकी अपेक्षा उसके अधिक निकट हैं। किन्तु वड्डाराधनामें उनका विस्तार अधिक है। हरिषेणका कथाकोश तो सबसे बड़ा और प्राचीन होनेसे अनेक दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें १५७ कथाएँ हैं। किन्तु भगवती आराधनाकी कोई गाथा या उसका अंश इसमें नहीं है। केवल प्रशस्तिके श्लोक ८ में 'आराधनोद्धृत' पद आता है। हरिषेण कथाकोशमें कथाओंका शीर्षक उस व्यक्तिके नामसे दिया है जिसकी कथा है। किन्तु प्रभाचन्द्रके कथाकोशमें शीर्षक भ० आ० की गाथाके आधारपर दिया गया है। दोनोंके कथानकोंमें भी अन्तर है। '८. भगवती आराधनाको टोकाएं यहाँ हम भगवती आराधनाकी टोकाओंका परिचय देते हुए सबसे प्रथम विजयोदया टीकाके सम्बन्धमें प्रकाश डालेंगे जो इस संस्करणमें मुद्रित है। १. विजयोदया टोका-विजयोदया टोकाके अध्ययनसे यह स्पष्ट होता है कि उसके टीकाकार अपराजित सूरिका अध्ययन बहुत विस्तीर्ण तथा गम्भीर था । और उन्होंने आगम साहित्यका भी गहरा मंथन किया था। उनकी इस टीकामें प्राकृत और संस्कृतके उद्धरणोंकी बहुलता है। किन्तु उनमेंसे अधिकांशके स्थानका पता नहीं चलता। उनकी लेखन शैली सुलझी हुई है। जो कुछ लिखते हैं खूब खोलकर लिखते हैं। अपनी टीकामें उन्होंने गाथाके पदोंका शब्दार्थ तो दिया ही है किन्तु यथास्थान उससे सम्बद्ध विवेचन देकर विषयको स्पष्ट ही नहीं किया, किन्तु बहुत सी आवश्यक नवीन जानकारी भी दी है। उदाहरणके लिये १. गा० २५ में ग्रन्थकारने सतरह मरण कहे हैं। उसकी टीकामें टीकाकारने सतरह मरणोंके नाम और स्वरूप दिये हैं। २. गा० ४६ में ग्रन्थकारने संक्षेपसे दर्शनविनयको कहा है। टीकाकारने दर्शनविनयके प्रत्येक अंगको स्पष्ट किया है। उसमें भक्ति और पूजाके साथ एक शब्द है 'वर्णजनन', उसका Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३९ अर्थ है महत्ता ख्यापन | इसका वर्णन संस्कृत गद्यशैलीमें विस्तारसे किया है। इसमें सांख्यादि दर्शनोंकी समीक्षा भी है। अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं है पुरुष होनेसे । इस अनुमानका निरसन करते हुए कहा है-'जैमिनि आदि सकलदार्थज्ञ नहीं है पुरुष होनेसे' ऐसा भी कहा जा सकता है । इससे ऐसा प्रतीत होता है.कि कुमारिलने जो सर्वज्ञका खण्डन किया था, वह उनकी दृष्टि में है । आगे यह भी लिखा है कि 'अर्हन्तके सर्वज्ञता और वीतरागताकी सिद्धि अन्यत्र कही है इसलिये यहाँ नहीं कहते हैं। उनका यह कथन अकलंकके प्रकरणोंको लेकर भी हो सकता है । यद्यपि अकलंक आदि किसी दार्शनिक ग्रन्थकारका कोई संकेत नहीं है। किन्तु जिस प्रकार अकलंक देवने तत्त्वार्थ वार्तिकमें सूत्रके पदोंका व्याख्यान किया है। उसी प्रकारकी शैली यहाँ देखनेमें आती है । जैसे वर्ण शब्द रूपवाची है, अक्षरवाची है, बाह्मणादि वर्णवाची है आदि । ३. गा० ११८ में ग्रन्थकारने साधुके उत्तरगुणका केवल निर्देश किया है। किन्तु उसकी टीकामें बाह्य तपों और छह आवश्यकोंका स्वरूप बहुत ही सुरुचिपूर्ण दिया है। इसमें जो दो गाथायें उद्धृत हैं वे मूलाचारके षडावश्यक प्रकरणमें पाई जाती हैं। - ४. गाथा १४५ की टीकामें जिन भगवानके पञ्च कल्याणकोंका वर्णन संस्कृत गद्यमें बहुत ही भक्तिपूर्ण है। ५. गाथा १५७ की टीकामें आलन्दविधि, परिहार संयम आदिका जो वर्णन किया है. वह अन्यत्र देखने में नहीं आया। उसमें हमें सिद्धान्त विरुद्ध कथन कोई प्रतीत नहीं हुआ। प्रत्युतः उससे परिहार विशुद्धि संयमकी महत्ता और दुरूहताका ही बोध हुआ। श्वेताम्बर आगमके अनुसार तो जम्बूस्वामीके मुक्तिगमनके पश्चात् जिन कल्पका विच्छेद हो गया। किन्तु टीकाकारने लिखा है कि जिन कल्पी सर्व धर्म क्षेत्रोंमें सर्वदा होते हैं । इसमें भी कुछ गाथायें उद्धृत हैं जिनमें कल्पोक्त क्रम कहा है। ६. गाथा ४२३ की टीका में दस कल्पोंका वर्णन है। उसमें आचेलक्य कल्पका वर्णन करते हुए टीकाकारने आगमोंमें पाये जानेवाले वस्त्रपात्रवादकी समीक्षा करते हुए अचेलकताकी सिद्धि बड़े प्रभावक ढंगसे की है। वह सब उनके वैदुष्यका परिचायक तो है ही, यापनीयोंकी दृष्टिका भी परिचायक है। वही दृष्टि उन्हें श्वेताम्बरोंसे भिन्न करती है। इसमें भी उद्धरणोंकी बहुलता है। ७. गाथा ४४८ की टीकामें पंच परावर्तनका स्थूल वर्णन है। केवल भव-संसारका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिसे मेल खाता है । इसमें एक श्लोक भर्तृहरिशतकसे उद्धृत है । कुछ श्लोक टीकाकारके भी हो सकते हैं उनमें चतुर्गतिका स्वरूप कहा है। ८. गाथा ४८९ में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके अतिचारोंका संकेत है। इनमें से टीकामें जो तपके अतिचार कहे हैं वे उल्लेखनीय हैं क्योंकि अन्यत्र हमारे देखने में नहीं आये । ९. गाथा ११८१ की टीकामें मनोगुप्ति आदिका स्वरूप शंका समाधान पूर्वक स्पष्ट किया है। मनोगुप्तिमें मन शब्द ज्ञानका उपलक्षण है। अतः रागद्वेषकी कालिमासे रहित ज्ञानमात्र मनोगुप्ति है । यदि ऐसा न माना जाय तो मति आदि ज्ञानके समय मनोगुप्ति नहीं रहेगी। इस प्रकार टीकाकार ने अपनी टीकामें आवश्यकतानुसार समागत विषयोंको स्पष्ट करके, ग्रन्थकी गरिमामें वृद्धि की है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० भगवती आराधना उनकी टीकाके अवलोकनसे यह स्पष्ट है कि टीका लिखते समय उनके सामने इस ग्रन्थकी एकसे अधिक टीकायें वर्तमान थीं। प्रथम गाथाकी टीकाका प्रारम्भ ही 'अत्रान्ये कथयन्ति' से होता है। इसीमें कहा है 'इति भाष्यपरिहारौ केषांचित् ।' और इन भाष्य और उसके परिहार दोनोंको ही टीकाकारने अनुचित कहा है। इसी तरह दूसरी गाथाकी टीकामें भी 'अत्रान्ये व्माचक्षते' आता है। तीसरी गाथाको टीकामें आता है-'अस्य सूत्रस्योपोद्धातमेवमपरे वर्णयन्ति ।' चौथी गाथाकी टीकामें आता है-'अत्रापरे सम्बन्धमारम्भयन्ति गाथायाः ।' 'अत्रापरा व्याख्या', इस अपर व्याख्याकी परीक्षा करते हुए कहा है कि यदि ऐसा मानेंगे तो–'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं" इसके साथ विरोध आता है। यह उल्लेखनीय है कि यह आचार्य कुन्दकुन्दकी प्रसिद्ध गाथाका पूर्वार्द्ध है जो समयसार (४९) और प्रवचनसारमें (२६८०) भी आई है। प्रथम गाथाकी टीकामें भी टीकाकारने उदाहरणरूपमें कुन्दकुन्दके प्रवचनसारकी आद्य दो गाथा तथा पञ्चास्तिकायकी मंगल गाथाका पूर्वार्द्ध उद्धृत किया है। उससे पूर्वमें सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रकी मंगलगाथाका पूर्वाद्ध उद्धृत किया है। गाथा ११ की टीकामें समन्तभद्रके स्व० स्तो० का एक श्लोक उद्धृत है। इन्हीं तीन प्राचीन और प्रमुख जैनाचार्योंके उद्धरण ही पहचाननेमें आते हैं। इनके सिवाय पृ० ३०९ पर एक वरांगचरितका पद्य उद्धृत है और पृ० ३४७ पर शृङ्गार शतकका एक पद्य उद्धृत है। तथा तत्त्वार्थसूत्रसे अनेक सूत्र उद्धत है। विद्वान् जानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं एक दिगम्बर सम्मत है, दूसरा श्वेताम्बर सम्मत । जितने सूत्र उद्धृत हैं वे दिगम्बरसम्मत हैं। किन्तु गाथा १८२८ को टोकामें सातावेदनीय, सम्यक्त्वप्रकृति, रति, हास्य और पुंवेदको पुण्य प्रकृति कहा है। श्वेताम्बर सम्मत सूत्रपाठमें आठवें अध्यायके अन्तमें इसी प्रकारका सूत्र हैं । किन्तु दिगम्बर परम्परामें घातिकर्मोकी प्रकृतियोंको पाप प्रकृतियोंमें ही गिनाया है। यहाँ टीकाकारने उस सूत्रको तो प्रमाणरूपसे उद्धृत नहीं किया है किन्तु कथन तदनुसार किया है। पं० आशाधरजीने भी अपनी टीकामें विजयोदयाके अनुसार ही इन्हें पुण्य प्रकृति लिखा है, यह आश्चर्य ही है। तत्त्वार्थसुत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धि टीकाकारके सामने थी यह निर्विवाद है। सर्वार्थसिद्धिमें चारित्रका लक्षण प्रथम सूत्रकी टीकामें 'संसारकारणनिवृति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमश्चारित्रम्' किया है। विजयोदयामें गा० ६ की टीकामें लिखा है-यथाचाभ्यधायि 'कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो ज्ञानवतश्चारित्रम् ।। अन्य भी स्थलोंमें चारित्रका यही लक्षण टीकाकारने दिया है। गाथा १७६७ में भवसंसारका कथन है। इसकी टीकामें टीकाकारने 'अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवं वदन्ति' लिखकर सर्वार्थसिद्धि (२-१०) में कहे गये भवपरिवर्तनका स्वरूप उन्हीं शब्दोंमें कहा है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४१ गा० १६९४ में ध्यानके भेद कहे हैं। इसकी टीकामें सर्वार्थसिद्धिमें (९।२७) जो 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' की व्याख्या की है उसका खण्डन है । और चिन्ता शब्दका अर्थ चैतन्य किया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वार्थसिद्धिको मानते हुए भी उसे एकान्ततः मान्य नहीं करते थे। 'अन्ये' शब्दसे उसका उल्लेख ही यह बतलाता है कि वह उनकी आत्मीय नहीं थी। ____फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि आगमोंको छोड़कर अन्य आचार्यकृत साहित्यमें यापनीय ग्रन्थकार दिगम्बराचार्योंके साहित्यको प्रश्रय देते थे, क्योंकि जिस प्रकार इस टीकामें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपादके ग्रन्थोंके प्रमाण मिलते हैं उस प्रकार एक भी किसी श्वेताम्बराचार्य प्रणीत ग्रन्थका उद्धरण नहीं मिलता। श्वेताम्बर-दिगम्बरके मध्यमें तीन प्रमुख मत भेदोंमेंसे स्त्री मुक्ति और केवलिमुक्ति तो सैद्धान्तिक है। आज न कोई मुक्ति प्राप्त कर सकता है और न केवली हो सकता है। किन्तु अचेलकत्व या दिगम्बरत्व तो सैद्धान्तिक होनेके साथ वर्तमानमें भी दृश्यरूपमें प्रवर्तित है। इस दृष्टिसे यापनीय दिगम्बर सम्प्रदायके निकट रहे हैं। इसके सिवाय दक्षिणमें दिगम्बर सम्प्रदायका प्राबल्य था, उधर ही यापनीय सम्प्रदाय भी था। उसके भी मन्दिर और मूर्तियाँ थीं। वे भी नग्न मूर्तियोंके हो उपासक थे। नग्नतामें भेद कैसा। फलतः वे सब दिगम्बरोंमें ही समा गये। उनके साहित्यमें नग्नत्वका ही पोषण था तथा स्त्री मुक्ति और केवलिभुक्तिकी चर्चा नहीं थी। फलतः (उक्त दो प्रकरणोंको छोड़कर) उनका साहित्य भी दिगम्बरोंमें समा गया । जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण भगवती आराधना और उसकी विजयोदया टीका है। मूलाराधना दर्पण-भ० आराधनाकी दूसरी उपलब्धटीका मूलाराधना दर्पण है। शोलापुरसे १९३५ में प्रकाशित संस्करणमें इसका प्रकाशन हुआ था। यह टोका विज़योदया आदि टीकाओंको सामने रखकर लिखी गई है। विजयोदयाका इसपर विशेष प्रभाव है। विशेष कथन क्वचित् ही है। अतः हमने उसे इस संस्करणमें सम्मिलित न करके उसके विशेष कथनोंको विशेषार्थरूपमें ले लिया है। इसके रचयिता प्रसिद्ध ग्रन्थकार पं० आशाधर हैं। उन्होंने । सं० १२९५ में रचे गये जिन यज्ञकल्पकी प्रशस्तिमें मूलाराधना टीकाका निर्देश किया है। अपनी इस टीकामें आशाधरजीने विजयोदया टीकाकारका निर्देश श्री विजयाचार्य, टीकाकार, या संस्कृत टीकाकारके नामसे किया है । जिन गाथाओंपर विजयोदया नहीं है प्रायः उनके लिए आशाधरजीने यह निर्देश किया है कि इसे टीकाकार नहीं मानता। उनके सामने भी कुछ अन्य टीकाएँ थीं, ऐसा उनके उल्लेखोंसे प्रकट होता है। किन्तु उनमें उन्होंने प्राकृत टीकाको विशेष महत्त्व दिया है। उसके मतोंका निर्देश कई स्थानोंमें है और उसीको उन्होंने विशेष अपनाया है। कुछ टीकाएँ संस्कृत पद्यात्मक भी रही हैं। जैसे अमितगतिकी तो शोलापुर संस्करणमें प्रकाशित हो चुकी है। उसके अतिरिक्त भी एक दो पद्यात्मक टीका रही हैं जिनके पद्योंको भो प्रमाणरूपसे आशाधरजीने उद्धृत किया है। उनका विशेष परिचय इस प्रकार है १. गाथा १६ की टीकामें अपराजित सूरिने 'अन्ये व्याचक्षते' लिखकर अन्य व्याख्याका निर्देश किया है। आशाधरजीने उक्त मतान्तरका निर्देश करनेके पश्चात् लिखा है कि जयनन्दिपाद इस गाथाको पूर्वगाथाकी संवाद गाथा मानते हैं । वि० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना २. गाथा १७ की टीकामें अपराजितसरिने तो इतना ही लिखा है कि भद्दण आदि राजपुत्र जो अनादि मिथ्यादृष्टि थे उसी भवमें त्रसपर्यायको प्राप्त करके प्रथम जिनदेवके पादमूलमें प्रवजित होकर सिद्ध हुए। आशाधरजीने उन्हें भरतचक्रवर्तीके पुत्र लिखा है तथा उनकी संख्या ९२३ लिखी है। किसी अन्य टीकामें ऐसा निर्देश होना चाहिए। ३. गाथा पच्चीसमें सतरह मरण कहे हैं । आशाधरजीने दो आर्या द्वारा ये भेद कहे हैं आवीचितद्भवावध्याद्यन्तसशल्यगृध्रपृष्ठमतीः । जिघ्रासव्युत्सृष्टवलाका-संक्लिश्यमरणानि ॥११॥ शिशु शिशु शिशु शिशुपंडितमती: सभक्तोज्झनेंगिनीमरणम् । प्रायोपगमनपंडितपण्डितमरणे च सप्तदश विद्यात् ॥२॥ ये दो आर्या किसके हैं यह ज्ञात नहीं होता। ४. गाथा २७ की टीकामें 'टीकाकारस्तु' करके विजयोदयाका मत दिया है। ५. गाथा ४३ (४४) की टीकामें लिखा है-'श्रीविजयाचार्य मिथ्यात्व सेवाको अतिचार नहीं मानते ।' आगे टीकाका उद्धरण भी दिया है। .. ६. गाथा ४४ (४५) की टीकामें 'टीकाकारास्तु उवगृहणमित्यस्य उपवृहणं वद्धनमित्यर्थमकथयत्' । यहाँ 'टीकाकाराः' बहुवचन निर्देश होनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि विजयाचार्यके सिवाय अन्य टीकाकारोंने भी उवगृहणका अर्थ उपवृहंण किया है। ७. गाथा ४६ (४७) की टीकामें विजयोदयाका ही अनुसरण प्रायः अक्षरशः है। ८. गा० १२१ (११९) की टीकामें लिखा है 'टीकाकारस्तु पच्छिदसंसाहणा इति पठति । व्याख्याति च आचार्योपाध्यायादिभिः प्रार्थितस्य मनसाभिलषितस्य सम्यक्प्रसाधनं अनाज्ञप्तस्यापीङ्गितेनैवावगम्य' ऐसा कथन विजयोदयामें तो नहीं है । तब यह कोई अन्य संस्कृत टीकाकार होना चाहिए। ९. गा० १५२ (१५०) की टीकामें लिखा है-इसका विस्तार टीकामें देखना चाहिए । यह टीका विजयोदया हो सकती है उसमें विस्तारसे इसका कथन है। १०. गा० १५३ (१५१) को, जिसपर विजयोदया है, आशाधर प्रक्षिप्त लिखते हैं। ११. गा० २५३ (२५१) की टीकामें आशाधरजीने उस गाथाके अनुवादरूप तीन संस्कृत अनुवाद उद्धृत किये हैं। उनमेंसे एक तो अमितगतिका है शेष दो इस प्रकार हैं षष्टाष्टमादिभक्तैरतिशयवद्भिर्बली हि भुंजानः । मितलघुमाहारविधिं विदधात्यमलाशनं बहुशः ।। 'समोऽथ षष्टाष्टमकैस्ततो विकृष्टैर्दशमैः शमात्मकः । तथा लघु द्वादशकैश्च सेवते मितं मुदा चाम्लमनाविलो लघुः ।। १२. गा० २८२ (२८०) में 'गाहुग' पद आया है। विजयोदयाके अर्थको देकर आशाधरने लिखा है-'ग्राह्यामित्यपरे पठन्ति । ये अपरे कोई अन्य टीकाकार होने चाहिए । १३. गा० ४०५ (४०३) में आये पाठको लेकर आशाधरजीने लिखा है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनी अन्ये तु 'थडिलं संभोगिय' इति पठित्वा 'स्थंडिलं दृष्ट्वा' इति व्याख्यान्ति अध्ययन प्रश्नविधौ निपुणोऽसावैकरात्रिक प्रतिमः । स्थण्डिलशायी यायादप्रतिबद्धश्च सर्वत्र ।। इतरे तु स्थाण्डिल: स्थांडिलशायी, सभोगीयुतः सधर्मयुक्त इति मत्वेदं पेठःयह अमितगतिकृत पद्य है। इस तरह दो अनुवाद पाठभेद से हैं। १४. इसी तरह गाथा ४१२-४१३ (४१०-४११) की टीकामें भी पाठभेदका उल्लेख कर संस्कृत पद्यानुवाद दिये हैं जो अमितगतिसे भिन्न हैं। १५. गाथा ४२३ (४२३) की टोकामें टिप्पणका उल्लेख करके विजयोदयासे भिन्न अर्थ नवम और दसम कल्पका बतलाया है। १६. गाथा ४३२ (४३०) की टीकामें मनुष्य जन्मको दुर्लभतामें दस दृष्टान्त बतलाने वाली गाथा देकर लिखा है कि इनकी कथा प्राकृत टीका आदिमें विस्तरसे कही है। वहाँसे जानना। १७. गा० ५११ (५०९) की टीकामें श्रीचन्द्रमुनिकृत निबन्धका उल्लेख है कि उसमें ऐसा ही व्याख्यान है। १८. गा० ५२७ (५२५) में आचार्यको छत्तीस गुण सहित कहा है और गा० ५२८ (५२६) में छत्तीस गुण बतलाये हैं। किन्तु विजयोदयामें गाथासे सर्वथा भिन्न छत्तीस गुण कहे हैं। आशाधरजीने अपनी टीकामें उक्त संस्कृत टीका (विजयोदया) के छत्तीस गुण कहकर प्राकृत टीकामें कहे छत्तीस गण भी बतलाये हैं जो उससे भिन्न है। उसमें २८ मूलगुण भी हैं। २८ मूलगुणोंकी मान्यता दिगम्बर परम्परामें ही है । अतः प्राकृत टीकाकार दिगम्बर होना चाहिए। १९. गा० ५५२ (५५०) की टीकामें लिखा है कि सामायिक दण्डक स्तवपूर्वक वृहत् सिद्धभक्ति करके बैठकर लघुसिद्ध भक्ति करता है यह प्राकृत टीकाकी आम्नाय है। २०. गा० ५६० (५५८) की टीकामें अष्टप्रातिहार्य सहित प्रतिमा अरहन्तकी और आठ प्रातिहार्यरहित प्रतिमा सिद्ध की कही है। २१. गा० ५६३ (५६१) की टीकामें कहा है कि श्रीचन्द्राचार्य सिद्धभक्ति चारित्रभक्ति और शान्ति भक्तिपूर्वक वन्दनाका विधान करते हैं। २२. गा० ५६९ (५६७) में कृमिरागकम्बलका दृष्टान्त आया है। आशाधरजीने अपनी टीकामें इसका अर्थ संस्कृत टीका (विजयोदया) टिप्पन तथा प्राकृत टीकाके अनुसार पृथक्पृथक् दिया है। २३. गा० ५९१ (५८९) में चन्द्रपरिवेषसे अन्नकी प्राप्तिका उदाहरण आया है। उसकी कथा आशाधरजीने श्रीचन्द्रटिप्पणसे दी है। इससे ज्ञात होता है कि उसमें कुछ कथाएँ भी होनी चाहिए। २४. गा० ९२५ (९३१) की टीकामें आशाधरजीने उस गाथाका अन्य भी अर्थ देकर तदनुसारी अनुवादरूप श्लोक भी दिया है अन्ये-'जमणिच्छती महिलां अवसं परिभुजंदे जहिच्छाए। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ भगवती आराधनां तह वि किलिस्सदि जं सो' इति पठित्वा एवं व्याचक्षते । ..."तथा चोक्तम् _ 'यदयमकामयमानां कामयते योषिदं बलादवशाम् । क्लेशमुपैति तथाऽसौ तदस्य परदारगमनफलम्' ।। अमितगतिका अनुवाद इस प्रकार हैं 'भुज्यते यदनिच्छन्ती क्लिश्यमानांगनावशा। तदेतस्याः पुरातन्याः परदाररतेः फलम्' ।। २५. गा० ९७० में गोधाणुलुक्कं के दो अर्थ बतला करके तदनुसार दो अनुवाद उद्धृत किये हैं न दृष्टमपि सद्धावं वक्रधीः प्रतिपद्यते । गोधान्तद्धि विद्यते सा पुरुषे कुलपुत्र्यपि ।।-अमितगति । x x प्रत्येति न सद्भावं दृष्ट्वापि हि कपटनाटक तनुते । गोधागुप्ति योषा विदघाति नरस्य कुलजापि ।। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विजयोदयामें 'गोधाणुलुक्क' का अर्थ नहीं है। २६. गा० ११८० (११८६) की टीकामें गाथाके 'आवज्जण' शब्दके प्राप्ति और सर्वथा वनाश ऐसे दो अर्थ लेकर दो संस्कृत श्लोक उद्धृत किये हैं जो उस गाथाके अनुवादरूप हैं तथा अमितगतिका अनुवाद उनसे भिन्न हैं 'प्राप्तिशंका च पंचानां हिंसादीनां यतेर्भवेत् । रात्रिभोजनसद्भावे स्वविपत्तिश्च जायते' ।। अन्ये तु अण्हयाणं व्रतानां आवज्जणं सर्वथा विनाश इति व्याख्यान्ति । तथा चोक्तम् 'तेषां पञ्चानामपि महाव्रतानां विनाशने शङ्का । आत्मविपत्तिश्च भवेद् विभावरीभक्तसंगेन' ।। २७. गा० ११९० (११९६) की टीकामें सिद्धान्त रत्नमालासे नीचे लिखे श्लोक उद्धृत हैं याचनी, ज्ञापनी, पृच्छानयनी संशयन्यपि । आह्वानीच्छानुकूला वाक् प्रत्याख्यान्यप्यनक्षरा ॥ असत्यमोषभाषेति नवधा बोधिता जिनैः। व्यक्ताव्यक्तमतिज्ञानं वक्तुः श्रोतुश्च यद्भवेत् ।। त्वामहं याचयिष्यामि ज्ञाययिष्यामि किंचन । प्रष्टुमिच्छामि किञ्चित्वामानेष्यामि च किचन ।। बाल: किमेष वक्तीति व्रत सन्देग्धि मन्मनः । आह्वयाम्येहि भो भिक्षो करोम्याज्ञां तव प्रभो ।। किञ्चित्त्वां त्याजयिष्यामि हुङ्कारोत्यत्र गौः कुतः । याचन्यापि दृष्टान्ता इत्थमते प्रदर्शिताः । यह सिद्धान्त रत्नमाला अन्वेषणीय है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २८. गा० १३१९ ( १३२५ ) की टीकामें प्राकृत टीकाकारके मतसे व्याख्या देकर 'तथा चोक्त' पूर्वक उसका नीचे लिखा अनुवाद दिया है ‘एवं केचिद् गृहद्वन्द्वविमुक्ता अपि दीक्षिता । . कषायेन्द्रियदोषेण तदेवाददते पुनः ॥' अपि च गृहवासं तथा त्यक्त्वा कश्चिद्दोषशताकुलम् । कषायेन्द्रियदोषार्तो याति तं भोगतृष्णया ।-अमितगति । इसके आगे श्री विजयाचार्यके अनुसार अर्थ देकर 'तथाचोक्तं विदग्धप्रीतिवधिन्याम् । 'एवं केचिद् गृहवासदोषमुक्ताश्च दीक्षिताः सन्तः । इन्द्रियकषायदोषान्पुनरपि तानेव गृह्णन्ति ।' लिखा है। इससे प्रकट होता है कि प्राकृत टीकाकारकी व्याख्याके अनुसार कोई संस्कृत श्लोकात्मक रचना थी, जो अमितगतिसे भिन्न थी। अमितगति ने भी शायद उसका अनुसरण किया हो। और एक विदग्धप्रीतिवर्धनी नामक संस्कृत पद्यात्मक टीका भी थी। उसके पद्य आर्या छन्दमें थे। २९. गा० १३४० (१३४६ ) में भी अन्यस्तु लिखकर एक मत दिया है अन्यस्तु 'सउणो वीदंसगेणेव' इति पठित्वा 'पक्षी चंच्वा यथा' इति प्रतिपन्नः । तथा च तद्ग्रन्थ : कषायाक्षो कुटीश्चित्ते बहिनिभृतवेषवान् । आदत्ते विषयांश्चच्वा निभृतः शकुनो यथा ।। अमितगतिका अनुवाद इस प्रकार है 'बहिनिभृतवेषेण गृहीते विषयान् सदा । अन्तरामलिनः कंको मीनानिव दुराशयः ॥' विजयोदयामें गाथाके अन्तिम चरण 'सउणो वीदसंगणेव' का अर्थ ही नहीं है। ३०. गा० १४०७ ( १४१२ ) की टीकामें विजयाचार्यके मतसे व्याख्या देकर 'तथा चोक्तम्' पूर्वक नीचे लिखे श्लोक उद्धृत किये हैं यदि संगाटवीं यान्ति रागद्वेषमदोद्धताः । ध्यानयोधवशा नैव सन्ति ज्ञानांकुशं विना ।। विषयारण्यसाकांक्षास्ते कषायाक्षहस्तिनः । ततः शमरतिं नेया येन दोषं न कुर्वते ।। यह उक्त गाथाका ही पद्यानुवाद है । इसके आगे 'अन्यस्त्वेवमाह' लिखकर अमितगतिकृत पद्यानुवाद दिया है। उल्लिखित दोनों पद्यानुवाद गा० नं० १४०६ और १४०७ को मिलाकर है। किन्तु एक तीसरा पक्ष भी जो दोनों गाथाओंको पृथक करके अर्थ करता है यथा-रागद्वेषमदान्धः करणकरीन्द्रो विशन् विषयविन्ध्यम् । ध्यानसुभटस्य वश्यो ज्ञानांकुशितो भवेन्नियतम् ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना यह गाथा १४०६ का पद्यानुवाद है। दूसरी गाथामें चवलाके स्थानमें जो बाला पढ़ते हैं, उन्होंने कहा है 'इन्द्रिय कषायकलभा विषयवने क्रीडनैकरसरसिका। उपशमवने प्रवेश्यास्ततो न दोषं करिष्यन्ति ।' ३१. गा० १५६१ (१५६६) की टोकामें-एषा केषाञ्चिदाचार्याणां मतेन व्याख्या । उक्तं च नरककटे त्वं प्राप्तो यदुःखं लोहकण्टकैस्तीक्ष्णैः । यन्नारकैस्ततोऽपि च निष्क्रान्तः प्रापितो घोरम् ॥ अन्येषां त्वयं पाठो"""। तदुक्तम् आयसैः कण्टकैः प्राप्तो यदुःखं नरकावनौ । नारकैस्तुद्यमानः सन्पतितो निशितैर्भवान् ।। ३२. प्रायः आशाधर जी अपनी टीकामें 'श्रीविजयो नेच्छति' लिखते हैं कि टीकाकार श्रीविजय अमुक गाथाको मान्य नहीं करते। किन्तु १६३४-१६३५ (१६३९.१६४०) में लिखा है ये दो गाथाएँ श्रीविजय आदि मान्य नहीं करते। अर्थात् इन्हें अन्य टीकाकार भी मान्य नहीं करते । ३३. गाथा १८१२ ( १८१८ ) की टोकामें भी एक श्लोक उद्धत करके उसे प्राकृत टीकाकारके मतसे व्याख्या कहा है। और 'अन्ये' करके जो श्लोक उद्धृत किया है वह अमितगतिकी टीकाका है। उसके बाद 'अपरे' करके तीसरा मत दिया है। ३४. आशाधरजीकी तो सभी टोकाएं ग्रंथान्तरोंके प्रमाणोंसे भरी हुई है। इसमें भी कुछ उद्धरण उल्लेखनीय है । ध्यानके वर्णनमें आर्ष नामसे महापुराणसे बहुत श्लोक उद्धत किये हैं। उसी प्रसंगमें गाथा १८८१ ( १८८७ ) की टीकामें 'उक्तं च ज्ञानार्णवे' लिखकर सात श्लोक उद्धृत किये हैं। तथा गा० २११८ ( २१२४ ) की टीकामें 'तथा चोक्तं पञ्चसंग्रहे' लिखकर प्राकृत पञ्चसंग्रहसे ७ गाथाएँ उद्धृतकी है । प्राकृत पञ्चसंग्रहका यह सर्व प्रथम उल्लेख है जो किसी ग्रन्थमें मिलता है । इससे पूर्व किसी भी ग्रन्थमें नहीं मिलता। ३ प्राकृत टीका-इस प्रकार मूलाराधनादर्पणसे विजयोदयाके अतिरिक्त कई टीकाओंका पता चलता है उनमेंसे एक प्राकृत टीका तो सुनिश्चित थी । और वह किसी दिगम्बराचार्य प्रणीत होनी चाहिये क्योंकि उसमें आचार्यके छत्तीस गुणोंमें अठाईस मूलगुण गिनाये हैं । २८ मूलगुणोंकी परम्परा दिगम्बर परम्परा है। मूलाचारके प्रारम्भमें तथा कुन्दकुन्दके प्रवचनसारके चारित्रा र (गा०८-९) में मूलगुणोंका कथन आता है। आशाधरजीके उल्लेखोंसे यह भी प्रकट होता है कि उसमें और विजयोदयामें क्वचित् मतभेद भी हैं । तथा आशाधर जीने ऐसे स्थानोंमें प्राकृत टीकाको महत्त्व दिया है। उसमें कथाएं भी थीं । यह टीका अवश्य ही महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये । ४. एक अन्य संस्कृत टोका-आशाधर जीके उल्लेखोंसे प्रकट होता है कि विजयोदयाके अतिरिक्त अन्य भी संस्कृत टीका उनके सामने थीं। वे अनेक भी हो सकती हैं जैसा कि विजयोदयामें आये उल्लेखोंसे स्पष्ट है। किन्तु एक तो अवश्य थी । उसका उल्लेख आशाधर जीने संस्कृत टीकाकार रूपसे भी किया है। ५. संस्कृत पद्यानुवाद-गद्यात्मक संस्कृत टीकाओंके सिवाय कुछ पद्यात्मक संस्कृत Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनुवाद भी थे जिनमें प्राकृत गाथाओंका संस्कृत श्लोकोंमें रूपान्तर किया गया था। आज तो केवल अमितगति कृत पद्यानुवाद ही उपलब्ध है जो शोलापुर संस्करणमें प्रकाशित हुआ है । उसके सिवाय कम से कम दो अनुवाद आशाधरजीके सामने अवश्य रहे हैं। उनमेंसे एक अनुष्टुप् छन्दोंमें था तो दूसरा आर्या छन्दोंमें था । आर्या छन्दोंका अनुवाद हमें मूलके अधिक निकट प्रतीत हुआ है। आशाधरजीने जिस विदग्ध प्रीतिवर्धनीका नाम निर्देश करके उससे आर्याच्छन्द में जो उद्धरण दिया है वह गाथाका ही पद्यानुवाद है। अतः एक पद्यानुवादका नाम विदग्ध प्रीतिवर्धनी हो सकता है। किन्तु यह नाम भगवती आराधना जैसे ग्रन्थके पद्यानुवादके अनुकूल प्रतीत नहीं होता । यह नाम तो किसी सुभाषितसंग्रहके उपयुक्त हो सकता है या व्याख्यात्मक टीकाके भी उपयुक्त हो सकता है । अस्तु, कुछ विशेष कहना शक्य नहीं है। किन्तु इतना अवश्य है कि कोई एक पद्यानुवाद प्राकृत टीकाके अनुसार था। ६-७. दो टिप्पण-आशाधरजीने दो टिप्पणीका भी उल्लेख किया है। उनमेंसे एक तो श्री चन्द्रकृत टिप्पण है और दूसरा जयनन्दिकृत टिप्पण है। श्री चन्द्रकृत टिप्पणका उपयोग आशाधरजीने विशेष किया प्रतीत होता है। श्री प्रेमीजीने लिखा है कि ये वही श्रीचन्द जान पड़ते हैं जिन्होंने पुष्पदन्तके उत्तरपुराण और रविषेणके पद्मचरितके टिप्पण तथा पुराणसार आदि ग्रन्थ रचे थे जो भोजदेवके समयमें १०८७ थे और जिनके गुरुका नाम जिननन्दि था। ८. आराधना पञ्जिका-श्री प्रेमीजीने लिखा है कि पूणेके भाण्डारकर इन्स्टिस्य टमें इसकी एक प्रति है परन्तु उसके आद्यन्त अंशोसे यह नहीं मालूम हो सका कि इसके कर्ता कौन है। प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके कर्ता और अनेक ग्रन्थों पर टीकाएँ पञ्जिकाएँ लिखने वाले प्रभाचन्द्रके ग्रंथोंकी सूचीमें भी एक आराधना पंजिकाका नाम है। परन्तु यह वही है या इसके सिवाय कोई दूसरी यह नहीं कहा जा सकता । इसमें कोई उत्थानिका या मंगलाचरणसूचक पद्य नहीं है जैसा कि प्रभाचन्द्रके टीका ग्रंथोंमें प्रायः रहता है । प्रेमीजीने यह भी लिखा है कि दूसरे लिपिकर्ताने अपना संवत् १४१६ दिया है और उसने वह प्रति अपनेसे पहलेकी प्रति परसे की है। इससे इसके निर्माण कालके विषयमें इतनी बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है यह पंजिका चौदहवीं शताब्दीके बादकी नहीं है। १. जै० सा० इ०, पृ० ८६ का टिप्पण । २. जै० सा० इ०, पृ० ८०-८१ । हमने पूनाके भण्डारकर प्राच्य विद्या संशोधक मन्दिरमें इसकी खोज कराई किन्तु नहीं मिली। यदि मिलती तो उसे भी इसके साथ प्रकाशित कर देते । प्रेमी जीने उसका अन्त का अंश इस प्रकार दिया है अज्जजिणणंदि आर्य जिननन्दिगणिनः सर्वगुप्तगणिनः आचार्यमित्रनन्दिनश्च पादमूले सम्यगर्थं श्रतं चावगम्य । पुयारिएत्यादि । पूर्वाचार्यकृतानि च शास्त्राणि उपजीव्येयमाराधना स्वशक्त्या शिवाचार्येण रचिता पाणितल भोजिना । छदुमत्यदाण । छद्मस्थतया यदत्र प्रवचनविरुद्धबद्धं भवेत् तत् सुगृहीतार्थाः शोधयन्तु प्रवचनवत्सलतया। आराहणा भगवदी। आराधना भगवती एवं भक्त्या कीर्तिता सती संघस्य शिवाचार्यस्य च विपुलां सकलभव्यजनप्रार्थनीयां अव्यावाधसुखां सिद्धि प्रयच्छतु । इत्याराधनापञ्जिका समाप्ता । ( यह विजयोदयासे अक्षरशः मिलती हुई है । ) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ भगबती आराधना प्रभाचन्द्रकृत एक गद्यकथा कोश भी है जिसमें भ० आ० की गाथाएँ उद्धृत करके उनसे सम्बद्ध कथाएं दी हैं। सम्भव है यह पंजिका उन्हीं प्रभाचन्द्र की हो।। ९. भावार्थ दीपिका टीका-श्री प्रेमीजीने लिखा है कि यह टीका भी पूनेके भण्डारकर इन्स्टीच्यूटमें है यह टीका शिवजिद् अरुण अर्थात् पं० शिवजी लालने अपने पुत्र मणिजिद् अरुणके लिये बनाई है । वे जयपुरकी भट्टारकको गद्दीके पंडित थे । संवत् १८१८ में टीका समाप्त हुई है। इस प्रकार इस ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ रची गई थीं। भ० आ० के रचयिता __इस ग्रन्थके अन्तमें इसके रचयिताने जो अपना परिचय दिया है उससे इतना ही ज्ञात होता है कि आर्य जिननन्दि गणि, सर्वगुप्त गणि और आचार्य मित्र नन्दिके पादमूलमें सम्यक रूपसे श्रुत और अर्थको जानकर हस्तपुटमें आहार करनेवाले शिवार्यने पूर्वाचार्यकृत रचनाको आधार बनाकर यह आराधना रची है। __इससे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकारका नाम शिवार्य था और जिननन्दि, सर्वगुप्त और मित्रनन्दि उनके गुरु थे। उनके पादमूलमें ही उन्होंने श्रुतका अध्ययन किया था। किन्तु इस ग्रंथकी रचनामें उनका कोई हाथ प्रतीत नहीं होता, क्योंकि गाथा २१६० में वह 'ससत्तीए' अपनी शक्तिसे पूर्वाचार्य निबद्ध रचनाको उपजीवित करनेकी बात कहते हैं। उपजीवितका अर्थ पुनः जीवित करना होता है अतः ऐसा भी उनका अभिप्राय हो सकता है कि पूर्वाचार्य निबद्ध जो आराधना लुप्त हो गई थी उसे उन्होंने अपनी शक्तिसे जीवित किया है। यद्यपि अभी तकके विद्वान लेखकों ने 'पूज्वाइरियणिबद्धा उपजीवित्ताका अर्थ 'पूर्वाचार्योके द्वारा निबद्धकी गई या रची गई रचनाके आधारसे किया है, और हमने भी तदनुसार ही अर्थ किया है । किन्तु 'उपजीवित्ता इमा ससत्तीए' पद हमें इस अर्थका सूचक प्रतीत नहीं होता । यदि पूर्वाचार्य निबद्ध आराधना या इस तरहको कोई रचना उनके सामने थी तो इसके लिये उपजीवित्ता ( उपजीव्य) पदका प्रयोग नहीं घटित होता और न 'स्वशक्ति' पदका प्रयोग ही वजनदार प्रतीत होता है। उसका वजन तो तभी बढ़ता है जब रचयिता अपनी शक्तिसे एक पूर्वलुप्त कृतिको जोवनदान देता है । अतः शिवायंने पूर्वाचार्य निबद्ध रचनाको आधार बनाकर आराधना नहीं बनाई किन्तु उसे अपनी शक्तिसे पुनर्जीवित किया है। ____टीकाकार अपराजित सूरिने अपनी टीकामें 'पुवायरिय' आदिका जो अर्थ किया है वह भी ध्यान देने योग्य है-वह लिखते है-'पूर्वाचार्यकृतामिव उपजीव्य' यहाँ जो 'इव' पदका प्रयोग है वह उल्लेखनीय है । 'पूर्वाचार्यकृतकी तरह उपजीवित करके यह आराधना अपनी शक्तिसे शिवाचार्यने रची।' अर्थात् इस रचनाको उन्होंने अपनी शक्तिसे इस प्रकार उपजीवित किया मानों यह पूर्वाचार्यकृत है। पूर्वाचार्यकृत रचनाको आधार वनाकर रचने को गन्ध भी' टीकामें नहीं है । अतः यह ग्रन्थ शिवार्य की अपनी शक्तिसे रचित मौलिक कृति है। तभी तो वह आगे १. 'श्रीमन्तं जिनदेवं वीरं नत्वामराचितं भक्त्या। वृत्ति भगवत्याराधना-ग्रन्थस्य कुर्वेऽहम् ॥' २, जै० सा० इ० पृ० ७५ । हरिषेण कथा कोशको डा० उपाध्येकी प्रस्तावना पृ० ५२ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना की गाथामें अपनी छद्मस्थताके कारण आगमविरुद्ध यदि कुछ लिखा गया हो तो उसको शुद्ध करनेकी प्रार्थना करते हैं। अतः उन्होंने अपनी शक्तिसे एक लुप्त कृतिको पुनर्जीवित किया है, यही उनका अभिप्राय हमें प्रतीत होता है । अस्तु, जहाँ तक हम जानते हैं जैन परम्पराकी किसी पट्टावली आदिमें न तो शिवार्य नाम ही मिलता है और न उनके गुरुजनोंका ही नाम मिलता है। शिवार्य में शिव नाम और आर्य विशेषण हो सकता है जैसे आर्य जिननन्दि गणि और आर्य मित्रनन्दि गणिमें है । अतः अतः यह कह सकते हैं कि इस ग्रन्थके रचयिता आर्य शिव थे। भगवज्जिनसेनाचार्यने अपने महापुराणके प्रारम्भमें एक शिवकोटि नामक आचार्यका स्मरण किया है 'शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाऽऽराध्य चतुष्टयम् । मोक्षमार्ग स पायान्नः शिवकोटिमुनीश्वरः ॥' अर्थात् जिन की वाणी द्वारा चतुष्टय रूप ( दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप रूप ) मोक्षमार्गआराधना करके जगत् शीतीभूत हो रहा है वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें। इस श्लोकमें जो 'आराध्य चतुष्टयं' तथा शीतीभूतं पद है ये दोनों पद शिव आर्य रचित भगवती आराधना की ही सूचना करते प्रतीत होते हैं। क्योंकि उसीमें चार आराधनाओंका कथन है। तथा गाथा ११७६ में कहा है कि सर्वं परिग्रहको त्यागकर जो 'शीतीभूत' होता है । इसके साथ ही उसके रचयिताका नाम 'शिव' भी है। उसके साथ यद्यपि कोटि शब्दका प्रयोग विशेष किया गया है तथापि इसमें कोई विवाद नहीं हो सकता कि जिनसेन स्वामीने भगवती आराधनाके कर्ताका ही स्मरण किया है। आचार्य प्रभाचन्द्रकृत कथाकोश में दर्शन और ज्ञानका उद्योतन करने में आचार्य समन्तभद्र की कथा दी है। उसके अनुसार भस्मक व्याधि होने पर वे वाराणसीके राजा शिवकोटिके दरबारमें जाते हैं और उनके शिवालयमें शिवपिण्डीके फटने तथा चन्द्रप्रभु भगवानकी प्रतिभा प्रकट होनेके चमत्कारसे शिवकोटिको प्रभावित करते हैं। शिवकोटि राज्य त्याग कर साधु हो जाते हैं। तथा सकल श्रुतका अवगाहन करके लोहाचार्यरचित आराधनाको, जिसका परिमाण चौरासी हजार था, संक्षिप्त करके अढ़ाई हजार प्रमाण मूलाराधनाकी रचना करते हैं। प्रभाचन्द्रसे पूर्वमें आचार्य हरिषेणने कथाकोश रचा है उसमें यह कथा नहीं है, यद्यपि उस कथाकोशका आधार भो मूलाराधना या आराधना ही है। आचार्य जिनसेनके उल्लेखसे यह तो स्पष्ट है कि भगवती आराधनाके रचयिता शिवकोटि नामसे ही ख्यात रहे हैं । किन्तु जिनसेनने उन्हें समन्तभद्रका शिष्य नहीं कहा है। ऐसा होता तो समन्तभद्रके पश्चात् ही वे शिवकोटिका स्मरण करते। किन्तु दोनोंके मध्यमें श्रीदत्त और प्रभाचन्द्रका स्मरण है । अतः जिनसेन के समय तक शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य माननेकी कथा प्रवर्तित नहीं हुई थी। प्रभाचन्द्रके सामने इसका क्या आधार रहा है यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु लोहाचार्य विरचित ८४ हजार प्रमाण वाली आराधनाका भी अन्यत्र कोई संकेत नहीं मिलता। इसके साथ शिवार्य अपनी प्रशस्तिमें इसका कोई संकेत तक नहीं देते। यदि वह समन्त Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना भद्रसे प्रभावित होकर मुनि बने होते तो अपनी इस कृतिमें वे अवश्य ही इस घटनाका कुछ तो संकेत देते। अतः प्रभाचन्द्रकृत कथाकोशमें इस ग्रन्थकी रचनाके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा गया . है वह किसी किम्बदन्तीके आधारसे ही लिखा गया प्रतीत होता है । अस्तु, रचनाकाल आर्य शिवके सम्बन्धमें कुछ विशेष ज्ञात न होनेसे उसके रचनाकालके सम्बन्धमें केवल इतना ही कहा जा सकता है कि आचार्य जिनसेनके महापुराणसे पूर्वमें आराधनाकी रचना हुई है। किन्तु कितने पूर्व हुई है यह कहना शक्य नहीं है। विद्वानों का अनुमान है कि आचार्य कुन्दकुन्द तथा मूलाचारके रचयिता बट्टकेरके समकक्ष ही शिवार्य होने चाहिये क्योंकि भगवती आराधनामें कुछ नवीन प्रतीत नहीं होता। सब कुछ प्राचीन ही है। उसकी गाथाएँ यदि मेल खाती हैं तो दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराके प्राचीन ग्रन्थोंसे ही मेल खातीहैं । उसकी आचार विषयक गाथाएँ मूलाचारमें छुटफुट रूपसे मिलती हैं और मरण समाधि विषयक कुछ गाथाएँ मरण समाधि आदिमें मिलती हैं। उसमें जो मरणोत्तर विधि है जो आजके प्रबुद्ध पाठकोंको भी विचित्र प्रतीत होती है वह भी उसकी प्राचीनताकी द्योतक है। प्राचीन युगमें इस तरहके विश्वास पाये जाते थे। ग्रन्थमें अचेलकता पर बहत जोर दिया है तथा वस्त्रको परिग्रहक उपलक्षण बतलाकर समस्त परिग्रहके त्यागको अनिवार्य बतलाया हैं । कमण्डलु और पीछी दो ही उपकरण साधुके लिए अनिवार्य कहे हैं। यापनीय संघकी उत्पत्ति जो श्वेताम्बर सम्प्रदायके साधुसे हुई बतलाई है वह हमें परिग्रहके कारण ही हुई प्रतीत होती है। श्वेताम्बर साधु वस्त्र पात्रको अनिवार्य मानते थे। किन्तु यापनीय उससे सहमत न होंगे। इसीसे वे पृथक् हो गये होंगे। उसी समयकी यह रचना होना संभव है । उसके ऊपर जो संस्कृत और प्राकृतमें तथा गद्य और पद्यमें इतनी टीकायें रची गईं वे भी उसकी प्राचीनताको ही प्रकट करती हैं। अन्तिम उपलब्ध टीका आशाधर की है जो विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके उत्तरार्ध में रची गई है । और विक्रमकी नवम शताब्दीमें रचित महापुराणमें भगवती आराधना तथा उसके रचयिता शिवकोटिको स्मरण किया गया है। लगभग इसी कालकी रचना विजयोदया टीका होनी चाहिये । और विजयोदया लिखते समय उसके रचयिताके सामने एक नहीं, अनेक व्याख्यायें थीं। अतः भगवती आराधना विक्रमकी प्रारम्भिक शताब्दीके आसपास की रचना होना चाहिये। अतः उसे हम कुन्दकुन्दकी रचनाओंका लगभग समकालीन मान सकते है। कुन्दकुन्दके समयसारकी मंगल गाथा 'वंदित्तु सव्वसिद्धे' और भगवतीकी मंगलगाथा 'सिद्धे जयप्पसिद्धे' में हमें शब्दशः और अर्थशः एक-सी ही ध्वनि और भावना गूंजती हुई प्रतीत होती हैं। किन्तु कुन्दकुन्दने अपने चरित्तपाहुडमें समाधिमरणको चार शिक्षाव्रतोंमें स्थान दिया है और तत्त्वार्थसूत्रमें सल्लेखनाको अलगसे कहा है । भगवती आराधनामें भी गुणव्रत और शिक्षाव्रत तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार कहे हैं। तथा सल्लेखनाको पृथक्से कहा है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें रात्रिभोजन त्यागवतकी कोई चर्चा नहीं है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम टीकाकार पूज्यपाद कहते हैं कि १. हरि० कथाकोश की डा० उपाध्ये की प्रस्ता० पृ० ५५ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अहिंसाणुव्रतकी भावनामें यह गभित है। और भगवती आराधनामें भी अहिंसावतकी भावनामें आलोक भोजन है। फिर भी आराधनामें पंच महावतोंकी रक्षाके लिए रात्रिभोजन त्यागको आवश्यक कहा है। अतः यह विषय चिन्तनीय है। __शिवार्यके द्वारा स्मृत गुरुओंमें एक सर्वगुप्त गणि भी है। गाथा २१६२ में आये 'संघस्स' पदका व्याख्यान विजयोदयामें 'सर्वगुप्तगणिनः संघस्य' किया है। और अमोघवृत्तिमें एक उदाहरण आता है-'उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः' ( १।३।१०४ ) अर्थात् सर्वगुप्त सबसे बड़े व्याख्याता थे। इसके साथ ही तीन उदाहरण और हैं- शाकटायन, सिद्धनन्दि और विशेषवादी । यतः शाकटायन यापनीय थे इसलिये अन्य सब भी यापनीय होना चाहिये । और ऐसी स्थितिमें शाकटायनके द्वारा स्मृत सर्वगुप्त भगवती आराधनाके कर्ताके गुरु हो सकते हैं । टीकाकार अपराजित सूरि भगवती आराधनाकी जितनी हस्तलिखित प्रतियाँ हमारे देखने में आई सबमें अपराजित सूरिकी विजयोदया टीका पाई जाती है। इस टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि टीकाकारका नाम अपराजित सूरि था। वे चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृति आचार्यके प्रशिष्य थे और बलदेव सूरिके शिष्य थे। आरातीय आचार्योंके चूड़ामणि थे। नागनन्दि गणिके चरण कमलोंकी सेवाके प्रसादसे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। अर्थात् उनके विद्यागुरुका नाम नागनन्दि था । श्री अपराजित सूरि जिन शासनके उद्धारमें संलग्न थे और उन्हें बहुत यश प्राप्त था। उन्होंने श्रीनन्दिगणि या नागनन्दि गणिकी प्रेरणासे आराधनाकी टीका रची थी। टीकाका नाम श्री विजयोदया है। केवल इतना ही उन्होंने अपने सम्बन्धमें लिखा है। पं० आशाधर ने अनगार धर्मामृतकी टीकामें तथा भ० आ० को मूलाराधना दर्पण नामक पंजिकामें श्रीविजय या श्रीविजयाचार्य नामसे इनका उल्लेख किया है। अपराजित और श्रीविजय शब्द परस्परमें सम्बद्ध हैं। ऐसा प्रतीत होता है उन्होंने शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त की थी और उसी पर से उन्हें अपराजित पराजित न होनेवाला नाम प्राप्त हुआ था । संभवतः उसीकी स्मृतिमें उन्होंने अपनी टीकाओंको श्री विजयोदया नाम दिया था। उनकी दशवकालिककी टीकाका भी यही नाम था। शिवार्य की तरह अपराजित सूरिकी भी गुरुपरम्परा किसी जैन पट्टावली या गुर्वावलीमें नहीं मिलती। वह अपनेको आरातीय चडामणि लिखते हैं और सर्वार्थसिद्धि टीका के अनसार 'भगवानके साक्षात् शिष्य गणधर और श्रुतकेवलियोंके पश्चात् आरातीय आचार्योंने कालदोषसे अल्प आयु और अल्प बुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिए दशवैकालिक आदि रचे ।' अतः आरातीय आचार्य विशिष्ट होते थे। अपराजित सूरि भी अपने समयके विशिष्ट आचार्य माने जाते होंगे १ भा० ज्ञानपीठ सं०, पृ० ६८४–'एतच्च श्रीविजयोचार्यविरचितमूलाराधनाटीकायां विस्तरतः . समर्थितं दृष्टव्यमिह न प्रपंच्यते।'' २. शोलापुर संस्करण गाथा ४४, ५९५, ६८१, ६८२, १७१२ और १९१९ की टीका । ३. आरातोयैः पुनराचार्यैः कालदोषसंक्षिप्तायुर्मतिवलशिष्यानुग्रहार्थ दशवैकालिकाद्युपनिबद्धं ॥ -(१।२०) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना क्योंकि उन्होंने भी दशवकालिक पर टीका रची थी। यापनीय सम्प्रदायमें जैसे शब्दानुशासनके रचयिता शाकटायन श्रुतकेवलिदेशीय कहे जाते थे वैसे ही यह आरातीय चूड़ामणि कहे जाते . होंगे। और उस समय भगवती आराधना पर टीका लिखना भी एक विशिष्ट महत्ताका परिचायक होगा। इसमें तो सन्देह नहीं कि अपराजित सूरि जिनागमके विशिष्ट अभ्यासी थे। उनकी विजयोदया टीका उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य और रचना शैलीकी विशिष्टताका परिचायक है। संस्कृत और प्राकृत पर उनका समान अधिकार था तथा गद्यकी तरह पद्य रचनामें भी अधिकार था। उनकी इस टीकामें चतुर्गतिका वर्णन करनेवाले कुछ श्लोक उन्हींके द्वारा रचित प्रतीत होते हैं । उनका इस रचनाका एक उद्देश हमें अचेलकत्वको प्रतिष्ठा करना प्रतीत होता है । क्योंकि ४२३ गाथाके व्याख्यानमें उन्होंने आगम प्रमाणोंके प्रकाशमें उसे जोरसे है। इसे हम पूर्वमें लिख आये है। अतः वह ऐसे समयमें हुए हैं जब वस्त्र पात्रवाद बढ़ रहा था। श्वेताम्बर परम्परामें विशेषावश्यक भाष्य इस विषयक एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जम्ब स्वामीके पश्चात् जिनकल्पकी व्युच्छित्तिकी घोषणा की गई है। ईसाकी आठवीं शताब्दीके श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरिने तो अपने संबोध प्रकरणमें साधुओंके अकारण कटिबन्ध पर भी आपत्ति की है। किन्तु टीकाकारों के द्वारा अचेलका अर्थ अल्पचेल और अल्पमूल्यचेल किये जानेसे अचेल जैसे स्पष्ट शब्दका भी वास्तविक अर्थ लुप्त हो गया। यह समय नौवीं शताब्दी है इसीके आसपास · अपराजित सूरि होना चाहिये। उनकी टीकामें जो उद्धरण खोज निकाले गये हैं उनमेंसे अर्वाचीन एक उद्धरण वरांगचरित का है। उसका रचनाकाल सातवीं शताब्दी है अतः उसके पश्चात् ही विजयोदया रची गई है। भर्तृहरि शृङ्गार शतकका भी एक श्लोक उद्धृत है। उसका समय भी लगभग यही होना चाहिये। यह उसकी पूर्वावधि है। उत्तरावधि तो आशाधरजीकी टीका है ही, उसमें विजयोदयाके अनेक उल्लेख हैं। संस्कृत पद्यानुवादके रचयिता अमितगतिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शती है। किन्तु उनके पद्यानुवादके सिवाय भो दो पद्यानुवाद और भी पाये जाते हैं। और वे अमितगतिसे पूर्वके हो सकते हैं; क्योंकि यद्यपि अमितगति एक सिद्धहस्त ग्रन्थकार हैं फिर भी पूर्व रचनाओंको अपनानेकी उनमें प्रवृत्ति देखी जाती है। उदाहरणके लिये उन्होंने संस्कृत पञ्चसंग्रह रचा और उसे मौलिक मान लिया गया। किन्तु जब लक्ष्मण सुत डडढाका पञ्चसंग्रह प्रकाशमें आया तब ज्ञात हुआ कि उसीका अनुसरण अमितगतिने किया है। उनके सामने विजयोदया हो सकती है। अन्य टिप्पण प्रकाशमें आनेपर विशेष प्रकाश पड़ सकेगा। श्रीयुत प्रेमीजीने इन्हें विक्रमकी नवम शताब्दीके पहले और छठी शताब्दीके बादका बतलाया है। उन्होंने लिखा है-गंग वंशके पृथ्वी कोंगुणी महाराजका एक दानपत्र श० सं० ६९८ (वि० सं० ८३३) का मिला है। उसमें यापनीय संघके चन्द्रनन्दि, कीर्तिनन्दि और विमलचन्द्रको जैनमन्दिरके लिये एक गाँव दिये जानेका उल्लेख है । अपराजित शायद इन्हीं चन्द्रनन्दिके प्रशिष्य हों।' १. देखो-मेरा लिखा 'भगवान महावीरका अचेलक धर्म', भा० जनसंघ मथुरासे प्रकाशित । २. भ० आ०, पृ० ३९० । ३. सै० सा० इ०, पृ० ७९ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उपसंहार अन्तमें मैं उन सबको धन्यवाद देता हूँ जिनके सहयोगसे मुझे इस ग्रन्थके सम्पादन, संशोधन और प्रस्तावना लेखनमें सहयोग मिला। दिल्लीके लाला पन्नालाल जीके सहयोगसे दि० जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा दिल्ली की प्रति प्राप्त हुई । श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जीके अधिकारियोंके सहयोगसे डा० कस्तूरचन्द्र जी काशलीवाल जयपुर द्वारा आमेर शास्त्र भण्डारकी प्रति प्राप्त हुई। पं० रतनलाल जी कटारिया केकड़ीके द्वारा टोडा रायसिंहकी प्रतिके पाठान्तर तथा प्रति प्राप्त हुई । सर सेठ भागचन्द जी, पं० सुजानमलजी सोनी आदि प्रयत्नसे भट्टारकजी के मन्दिर अजमेरकी प्रति प्राप्त हुई । तथा जीवराज ग्रन्थमाला के मंत्री सेठ बालचन्द देवचन्द शाह के सहयोगसे उस ग्रन्थमालासे इसका प्रकाशन हुआ । और पं० बाबूलाल जी फागुल्ल तथा उनके सुपुत्र श्री राजकुमार जीके सहयोग से एक ही वर्षके मध्य में इसका मुद्रण हो सका । यह ग्रंथ महान है । इसके सम्पादन, संशोधन, अनुवाद और मुद्रणमें भूल रहना स्वाभाविक है । यथा गाथा २५१ का अर्थ ही छूट गया है । उसे यहाँ दिया जाता है । पाठक सुधारकर पढ़ने का कष्ट करे आसाढ़ी अष्ट वी० नि० सं० २५०४ ५३ २५१ गाथाका छूटा हुआ अर्थ 'यदि क्षपककी आयु शेष हो और शरीर में बल हो तो जो अनेक भिक्षु प्रतिमायें कही हैं उनको भी धारण करें । जो अपनी शक्तिके अनुसार शरीरको कृश करता है उसे ये भिक्षु प्रतिमायें कष्ट नहीं देतीं । किन्तु जो शक्तिका विचार किये बिना सल्लेखना धारण करता है उसकी समाधि भंग होती है और उसे बड़ा क्लेश उठाना पड़ता है ।। २५१ ॥ ' विद्वानोंका अनुचर कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय-सूची विषय पृष्ठ विषय सिद्धोंको नमस्कार पूर्वक आराधनाका चारित्र ज्ञान और दर्शन एक ही हैं का कथन करनेकी प्रतिज्ञा चारित्रमें उद्योग और उपयोग ही तप है शास्त्रके आदिमें नमस्कार करनेका प्रयोजन २ चारित्रको प्रधानताको लेकर समाधान सिद्ध शब्दके चार अर्थ ४ दुःख दूर करना ज्ञानका फल आराधनाकी उपयोगिता __ अन्य व्याख्याओंकी समीक्षा आराधनाका स्वरूप ७ निर्वाणका सार अव्याबाध सुख उद्योतन, उद्यवन आदिका स्वरूप समस्त प्रवचनका सार आराधना संक्षेपसे दो आराधना कही हैं १० आराधनाकी महत्ताका कारण संक्षेपके तीन भेद ११ अन्त समय विराधना करनेपर दर्शनकी आराधना करनेपर ज्ञानकी __ संसारकी दीर्घता आराधना नियमसे होती है ज्ञानकी अन्य व्याख्याकारकी समीक्षा आराधना करनेपर दर्शनकी आराधना समिति, गुप्ति, दर्शन और ज्ञानके अतिचार भजनीय है आराधना ही सारभूत है उक्त विषयमें अन्य व्याख्याकारोंके यदि मरते समयकी आराधना सारभूत. _मतकी समीक्षा है तो अन्य समयमें आराधना क्यों मिथ्यादृष्टि ज्ञानका आराधक नहीं करना, इसका समाधान नयका स्वरूप तथा निरपेक्षनयके उदाहरण द्वारा समर्थन __निरासके लिए शुद्ध विशेषण योग शब्दके अनेक अर्थ ४४ संयमका अर्थ चारित्र मिथ्यात्व आदिको जीतकर ही श्रामण्य संयमकी आराधना करनेपर तपकी __ भावनावाला आराधना करनेमें समर्थ ४५ आराधना नियमसे, तपकी आराधनामें मिथ्यात्वके भेदोंका स्वरूप और उनको ___ चारित्रकी आराधना भजनीय २० जीतनेका उपाय अन्य व्याख्याकारोंकी समीक्षा ४६-४७ बाह्यतपके विना भी निर्वाणगमन २१ मरणके सतरह भेद ४९ असंयमी सम्यग्दृष्टीका भी तप व्यर्थ २२ सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतका बालअन्य व्याख्याकारोंकी समीक्षा पण्डितमरण चारित्रकी आराधनामें सबकी आराधना २४ सशल्यमरणके दो भेद अन्य व्याख्याकारोंकी समीक्षा २६ निदानके तीन भेद चारित्राराधनाके साथ ज्ञान और दर्शनकी; वसट्टमरणके चार भेद आराधनाका अविनाभाव २७ कषायवश आर्तमरणके चार भेद ४० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ६२ ९७ विषय-सूची विषय विषय इन सतरह मरणोंमेंसे यहाँ पाँच अर्हन्त सिद्ध, चैत्य, श्रुत, धर्म, साधु मरणोंका ही कथन करनेकी प्रतिज्ञा ६० और प्रवचनका अवर्णवाद । क्षीणकषाय और अयोग केवलीका दर्शनका आराधक अल्पसंसारी पण्डित पण्डितमरण ६१ , सम्यक्त्वकी आराधना जघन्य मध्यम अन्य व्याख्याकारोंकी समीक्षा और उत्कृष्ट पण्डितमरणके तीन भेद-पादोगमन, उत्कृष्ट केवली, जघन्य अविरत सम्यग्दृष्टी ९५ भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनी सराग सम्यक्त्व वीतरागसम्यक्त्व पादोपगमनमरण आदिकी व्युत्पत्ति प्रशस्तराग अप्रशस्तराग अविरत सम्यग्दृष्टोका बालमरण जघन्य सम्यक्त्व आराधनाका माहात्म्य मिथ्यादृष्टिका बाल-बालमरण ६५ मिथ्यादृष्टि किसीका भी आराधक नहीं दर्शन आराधनाका कथन मिथ्यादर्शनका स्वरूप और भेद ९८ सम्यग्दर्शनके भेदोंका स्वरूप मिथ्यात्वसे दूषित अहिंसादि गुण भी निष्फल ९९ सम्यग्दृष्टी गुरुनियोगसे असत्का भी मिथ्यात्वीका चारित्र और तप भी व्यर्थ १०१ श्रद्धान करता है अभव्यके अनन्तभव १०२ सूत्रसे दिखलानेपर भी यदि वह असत् प्रथम भक्तप्रत्याख्यानमरणका कथन १०३ श्रद्धान नहीं छोड़ता तो मिथ्यादृष्टि है ६९ भक्तप्रत्याख्यानके दो भेद १०४ किसके रचित सूत्र प्रमाण है ? ६९ यहाँ सविचार भक्तप्रत्याख्यानका कथन प्रत्येक बुद्ध-अभिन्न दसपूर्वीका स्वरूप ७० चालीस सूत्रों द्वारा १०४ सूत्रोंका अविपरीत अर्थ कौन कर चार गाथाओंसे चालीस सूत्र कहते हैं। १०५ सकता है ? ७१ असाध्यव्याधिमें या संयमको घातक जो षद्रव्योंका और तत्वोंका श्रद्धानी वृद्धावस्थामें या उपसर्गमें १०८ है वह सम्यग्दृष्टी है ७२ चारित्रके नाशक शत्रओंके होनेपर या जो सूत्रनिर्दिष्ट एक भी अक्षरका दुभिक्षमें या घोर जंगलमें फँस जानेपर ११० ___ श्रद्धान नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि ७६ चक्षु और श्रोत्रके दुर्बल हो जानेपर १११ मिथ्यादृष्टीका स्वरूप ওও परोंमें चलनेकी शक्ति न होनेपर भक्तमिथ्यात्वका फल अनन्तमरण ৩৩ प्रत्याख्यान करना योग्य है। उक्त अतः निर्ग्रन्थ प्रवचनकी श्रद्धा ही कार्यकारी ७८ भयोंके न होनेपर भी जो मुनि मरना सम्यक्त्वके अतिचार ७९ चाहता है वह मुनिधर्मसे विरक्त है ११२ सम्यग्दर्शनके चार गुण दर्शन विनय भक्तप्रत्याख्यानका इच्छुक निग्रन्थ लिंगअरहन्त, सिद्ध, चैत्य आदिका स्वरूप धारण करता है। ११३ भक्तिपूजा तथा वर्णजनन ८७ जिसके पुरुषचिन्हमें दोष हो वह भी उस सिद्ध, चैत्य, श्रुत, तथा धर्मका माहात्म्य ८८ समय निग्रन्थ लिंगधारण करे ११४ साधु, आचार्य, आदिका माहात्म्य ९० औत्सर्गिक लिंग (वेष) का स्वरूप ११४ ८३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० पृ० १६४ १६७ १३१ भगवती आराधना विषय विषय अन्तिम समयमें स्त्री भी औत्सर्गिक लिंग प्रत्याख्यानका कथन १५८ धारण करे ११५ गृहस्थोंके विरतिरूप परिणामोंके भेद १६० लिंग (वेष) धारण करनेके गुण ११६ कायोत्सर्गका निरूपण १६१ अचेलता (वस्त्रत्याग) के गुण ११९ कायोत्सर्गके चार भेद १६२ अचेलताका माहात्म्य १२१ कायोत्सर्गके दोष १६३ अपवादलिंगके धारीकी शुद्धिका क्रम १२१ उपचार विनयका निरूपण केशलोच न करने में दोष १२२ प्रत्यक्षकायिक विनय १६५ केशलोचके गुण १२३ वाचिक विनय शरीरसे ममत्वका त्याग १२६ मानसिक विनय १६८ स्नान तेलमर्दन, दन्तमंजन आदिका त्याग १२७ गुरुके सिवाय आर्यिका और गृहस्थोंकी भी पीछीसे प्रतिलेखनाका प्रयोजन १६९ १२९ विनय करना चाहिये पीछीके गुण १३० विनयके अभावमें दोष १७७ रातदिन जिनक्वन पढना चाहिये विनय मोक्षका द्वार १७० जिनवचन पढ़नेके लाभ १३२ विनयके अन्य गुण १७१ आत्महितका परिज्ञान १११ समाधिके कथनमें समाहित चित्तका आत्महितका ज्ञान न होनेके दोष १३५ स्वरूप १७३ आत्महितके ज्ञानका उपयोग १३५ मनकी चंचलता १७४ स्वाध्यायके लाभ मनको रोकना दुष्कर १७६ जिन वचनकी शिक्षा तप है १३६ जो मनको रोकता है उसीके समता १७७ स्वाध्यायके समान तप नहीं १४० पृच्छना और अनुप्रेक्षा स्वाध्याय कैसे हैं ? १७८ क्योंकि स्वाध्यायकी भावनासे सब गुप्तियाँ मनको विचारोंसे रोकना श्रामण्य है १७९ भावित होती हैं विचारका अर्थ है हिंसादिरूप परिणति , ज्ञान सम्पादनके लिये विनय करना चाहिये १४२ अनियत स्थानमें निवासके गुण १८१ ज्ञान विनयके भेद १४३ तीर्थकरोंके कल्याणकोंके स्थानोंके देखनेसे दर्शन विनय १४६ दर्शन विशुद्धि १८२ चारित्र विनय अनियतवाससे परीषह सहनेका अभ्यास १९१ इद्रिय प्रणिधान, कषाय प्रणिधानं गुप्ति , ज्ञानी आचार्योंका लाभ । १९२ और समितियोंका स्वरूप १४८ , सामाचारीमें कुशलता । १९३ बाह्य तपोका निरूपण १५१ अनियत विहारीका स्वरूप १९६ छह आवश्यकोंका निरूपण १५३ अनियत विहारके पश्चात् विचार कि मैं सामायिकके भेदोंका कथन अपना कल्याण कैसे करूँ? १९७ वन्दनाका कथन १५४ अथालन्दविधिका स्वरूप १९७ प्रतिक्रमणका कथन १५५ अथालन्द संयमीका आचार १९८ सामायिक और प्रतिक्रमणमें अन्तर १५६ गच्छ प्रतिबद्ध आलन्दककी विधि २०१ १४१ १४७ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ५७ प .:४० K २४७ २५७ विषय परिहार संयमकी विधि जिनकल्पको विधि भक्त प्रत्याख्यान करनेका निर्णय संयमके साधनमात्र परिग्रहके सिवाय शेष परिग्रहका त्याग पाँच प्रकारकी शुद्धि पाँच प्रकारका विवेक परिग्रह त्यागका क्रम द्रव्यथिति और भावश्रितिका स्वरूप भावश्रिति शुभपरिणामकी रक्षाके उपाय तथा प्रवत्तिका क्रम श्रितिके अनन्तर संघका त्याग पाँच प्रकारकी सक्लिष्टभावना कन्दर्प भावनाका कथन किल्विषभावनाका कथन अभियोग्य भावनाका कथन आसुरी भावनाका कथन संमोहभावनाका कथन इन भावनाओंका फल छठी तपभावना ग्राह्य तपोभावना ही समाधिका उपाय तपोभावनासे रहितके दोष श्रुत भावनाका माहात्म्य ज्ञानभावनाके होने पर ही तप-संयम होते हैं सत्वभावनाके गुण एकत्व भावनाके गुण तथा स्वरूप धृतिवल भावना सल्लेखनाके दो भेद बाह्य सल्लेखनाके उपाय बाह्यतप अनशन तपके भेद अद्धानशनके भेद विषय २०१ आहारका प्रमाण २३७ २०५ अवमोदर्य तप २३८ २०७ रस परित्याग तप वत्ति परिसंख्यान तप २१० कायक्लेश तप २४२ २१२ स्थानयोगका कथन २४३ २१४ आसनयोगका कथन विविक्त शय्यासन तर २४४ उद्गम दोष २४५ २१७ उत्पादन दोष २४६ एषणा दोष विविक्त वसति कौन २४८ विविक्तवसतिमें दोषोंका अभाव २४९ निर्जराके इच्छुक यतिके द्वारा करने योग्य तप २५० प्रकारान्तरसे सल्लेखनाके उपाय उनमें आचाम्ल उत्कृष्ट . २५८ आचाम्लका स्वरूप २५९ भक्तप्रत्याख्यानका काल बारह वर्ष २२४ बारह वर्षों में क्या करना चाहिये २२५ शरीर सल्लेखनाका क्रम कहकर अभ्यन्तर सल्लेखनाका क्रम २२६ अभावमें दोष २६१ परिणाम विशुद्धिका नाम कषाय सल्लेखना २६१ २२८ चारों कषायोंको कृश करनेका उपाय २६२ रागद्वषको शान्तिके उपाय २६३ २२९ कषायरूप अग्निकी शान्तिके उपाय २३० सल्लेखनाके पश्चात्का कर्तव्य २६५ २३३ यदि आचार्य सल्लेखना धारण करें तो २३५ अपना संघ योग्य शिष्यको सौंप कर सबसे क्षमा ग्रहण करें २३६ तत्पश्चात् शिक्षा दें कि गणधर (आचार्य) कैसा होता है १३६ ऐसा करनेवाला भ्रष्टमुनि होता है २७३ २३७ राजा विहीन क्षेत्र त्याज्य है अभ्यन्ता २२७ २६४ in mm Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ भगवती आराधना विषय ३१५ २८६ विषय नये आचार्यको शिक्षा देनेके बाद संघको रास्तेमें मरण होनेपर भी वह शिक्षा देते हैं २७४ आराधक है बहुत सोना नहीं, हास्य क्रीडा नहीं करना, खोजमें जाते हुए क्षपकके गुण ३१४ ____ आलस्य त्याग श्रमणधर्ममें लगना २७७ क्षपकको आता देख दूसरे गणके तपस्या में उद्योग करना .. २७८ साधुओंकी सामाचारीका क्रम ३१५ बालवृद्ध मुनियोंकी वैयावृत्य करना २८० प्रथम वे उसकी परीक्षा करते हैं। वैयावृत्य न करनेवालोंकी निन्दा २८१ तीन दिनके पश्चात् गुरु अपनाते हैं ३१७ वैयावृत्यके गुण बिना परीक्षाके अपनानेका निषेध वैयावृत्यसे अर्हन्त आदिमें भक्ति व्यक्त निर्यापक आचार्य कैसा होना चाहिये ३१८ होती हैं २८५ आचार्यके आचार्यव्रत्व गुणका कथन ३१९ वैयावृत्यका एक गुण पात्रलाभ दस कल्पोंका कथन ३२० आचार्य वयावृत्यका माहात्म्य २८८ टीकाकारके द्वारा अचेलकताका विस्तारसे यावृत्य करनेवाला जिनाज्ञाका पालक हैं २८९ सप्रमाण समर्थन ३२१-३२७ आर्याका संसर्ग करनेका निषेध २९१ उद्दिष्ट त्याग दूसरा कल्प ३२७ त्रीवर्गका विश्वास न करनेवाला ही शय्याधरका भोजन ग्रहण न करना ब्रह्मचारी २९२ राजपिण्डका त्याग चतुर्थ कल्प ३२८ पार्श्वस्थ आदि कमनियोंसे दूर रहो २९३ कृतिकर्म नामक पाँचवा कल्प ३२९ उनके संसर्गसे स्वयं भी वैसे बन जाओगे २९४ जीवोंके भेद-प्रभेदोंको जानने वालोंको ही दुर्जनोंकी गोष्ठीमें दोष व्रत देना, छठा कल्प ३३० मुजनोंके संसर्गमें गुण २९६ प्रथम' और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थ में 'हतकारी कटुक वचन भी सुनने योग्य है २९९ रात्रिभोजन त्याग नामक छठा भात्म प्रशंसा से बचो महाव्रत ३३० अपनी प्रशंसा न करने में गुण ३०२ पुरुषकी ज्येष्ठता सातवाँ कल्प ३३१ पाचरणसे गुणोंको प्रकट करनेका महत्व ३०२ प्रतिक्रमण आठवाँ स्थिति कल्प परनिन्दामें दोष ३०३ प्रतिक्रमणके भेद ३३२ गुरुका उपदेश सुनकर संघ आनन्दाश्रु छह ऋतुओंमें एक-एक मास ही एक गिराता है ३०४ समयमें रहना नवम कल्प ३३२ गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है ३०५ वर्षाकालके चार मासोंमें एकत्र निवास, आचार्य सल्लेखनाके लिए दूसरे गणमें दरवाँ स्थिति कल्प क्यों जाते हैं ? ३०७ इन दस कल्पोंसे युक्त आचार्य ग्राह्य अपने गणमें रहने में दोष ३०८ निर्यापकाचार्य के आचारवान होनेसे समाधिके लिए निर्यापककी खोज ३११ क्षपकका लाभ खोजने के लिए जाते हुए आचारवानका आश्रय न लेनेमें दोष ३३५ क्षपककी चर्याका क्रम ३१२ दूसरे आधारवत्व गुणका व्याख्यान ३३६ ३०० Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ३८४ w W ४८ ३४२ विषय-सूची विषय विषय जो ज्ञानी नहीं, उसका आश्रय लेने में दोष ३३७ ऐसा गुणयुक्त आचार्य निर्यापक होता है ३७९ ज्ञानी आचार्य के लाभ ३३९ ऐसा आचार्य खोजकर ही क्षपक उसके द्रव्य संसारका स्वरूप ३४१ पास सल्लेखनाके लिये जाता है। ३८० क्षेत्र संसारका स्वरूप :४२ उवसंपा नामक समाचारका क्रम ३८ काल संसारका स्वरूप ३४२ क्षपककी परीक्षा ३८३ भव संसारका स्वरूप ३४२ परीक्षा न करने में दोष भाव संसारका स्वरूप परीक्षा के पश्चात् परिचर्या करनेवाले मनुष्य पर्यायकी दुर्लभता ३४३ यतियोंसे पूछना य ३८५ देशको दुर्लभता ३४४ एक आचार्य एक समयमें एक ही क्षपकको सुकुलकी दुर्लभता ३४४ सल्लेखनाका भार लेते हैं ३८६ नीरोगताकी दुर्लभता फिर क्षपकको शिक्षा देते हैं ३८७ साधु समागमकी दुर्लभता _आचार्यके छत्तीस गुण ३८८ श्रद्धान और संयमको दुर्लभता गुरुसे दोषोको निवेदन करके प्रायश्चित आचार्यके व्यवहारवत्व गुणका कथन ३५५ लेना आवश्यक कर्तव्य ६८९ पाँच प्रकारका व्यवहार , निरवशेष आलोचना ३९१ प्रायश्चित्त दानका क्रम ३५६ आलोचनाके दो प्रकार ३९२ प्रायश्चित्त शास्त्रको जाने बिना प्रायश्चित्त सामान्य आलोचनाका स्वरूप देनेसे दोष ३५८ विशेष आलोचना आचार्यके प्रकुर्वित्व गुणका कथन ३५९ शल्यके तीन भेद - आचार्यका आय अपाय विशित्व गुण ३६० भावशल्य दूर न करने में दोष ३९४ ,, के अवपीडकत्व गुणका कथन शल्यसहित मरणमें दोष ३९५ अवपीडक आचार्यका स्वरूप ३६८ शल्यको निकालने में गुण क्षपकको पीड़ित किये बिना दोषोंको आलोचनासे पूर्व कायोत्सर्ग ३९७ निकालना संभव नहीं ३६९ ऐसा करनेका कारण ३९८ आचार्यके अपरिश्रावी गुणका कथन ३७० अप्रशस्त स्थानोंमें आलोचना नहीं करनी सम्यग्दर्शनके अतीचार _ चाहिये ४०० अनशन आदि तपोंके अतिचार ३७१ आलोचना करनेके योग्य स्थान अभ्रावकाशके अतिचार ३७२ प्रायश्चित्तके अतिचार पूर्व दिशाकी ओर मुख क्यों ? ३७२ क्षपकके दोष दूसरोंसे कहनेवाले आचार्यके आलोचनाकी विधि दोष आलोचनाके गुण-दोष ३७३ आकम्पित दोष आचार्यको कषाय रहित होना चाहिये ३७६ दूसरा अनुमानित दोष ४०७ ऐसा आचार्य ही क्षपकका चित्त शान्त दृष्ट दोष ४०८ करता है ३७७ बादर दोष ४०९ : mr m ३७० ० ० ० ४०१ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० विषय सूक्ष्म दोष प्रच्छन्न दोष शब्दाकुलित दोष बहुजन दोष अव्यक्त दोष तत्सेवो दोष आलोचनाकी विधि लगे हुए दोषोका विवरण आलोचनाके पश्चात् गुरु तीन बार पूछते हैं तीनों वार एक ही रूपसे कहे तो सरल आलोचना उसीको प्रायश्चित दिया जाता है दोषके अनुसार प्रायश्चित सल्लेखनाके अयोग्य वसतिका योग्यवस तिका संस्तरका स्वरूप पृथ्वीमय संस्तर शिलामय संस्तर तृणमय संस्तर निर्यापकोंका कथन अड़तालीस निर्यापक निर्यापकों का कार्य निरन्तर हितकारी कथा कहते हैं चार प्रकारकी कथाएँ वक्षेपणी कथा नहीं करना चाहिये बड़तालीस यतियों के कार्यका विभाजन कमसे कम दो निर्यापक होते हैं एक निर्यापकमें दोष निर्यापकके द्वारा आहारका प्रकाशन पाकके भेद जीवनपर्यन्त के लिये आहारका त्याग सबसे क्षमायाचना निर्यापकगण रात दिन सेवा में तत्पर भगवती आराधना पृ० क्षपकके कान में शिक्षा 2. ४११ मिथ्यात्वको त्यागो सम्यक्त्वको भजो ४१२ जिनभक्तिका माहात्म्य ४१४ ४१५ ४१६ ४१७ ४१८ ४२५ ४२७ ४२९ ४३१ ज्ञानोपयोगकी महत्ता यममुनिका उदाहरण दृढ़सूर्प चोरका उदाहरण अहिंसाव्रतका पालन करो मनुष्य जन्मको दुर्भलता ४२६ अहिंसा व्रतकी महत्ता हिंसा ४३३ ४३४ 13 ४४० 37 ४३५ संरम्भ आदिका लक्षण अजीवाधिकरणके चार भेद ४३६ निक्षेपके चार भेद ४३७ ४३८ अहिंसाकी रक्षाके उपाय "" 11 अहिंसाव्रत में चण्डालका उदाहरण असत्य वचनके चार भेद गर्हित और सावद्यवचनका स्वरूप सत्यवचनका स्वरूप और गुण सत्यवचनका माहात्म्य असत्यवचन अहिंसादिका विनाशक विना दी हुई तृणमात्र वस्तु भी अग्राह्य ४५१ परद्रव्यहरणके दोष ४५४ माता भी चोरका विश्वास नहीं करती परलोकमें भी चोरकी दुर्गति ४५५ श्रीभूति पुरोहितका उदाहरण विषय नमस्कार मत्रको आराधना भावनमस्कार के विना रत्नत्रय भी व्यर्थ गवालेका उदाहरण ४४४ ४४६ " संसारके सब दुःख हिंसाके फल हिंसाका लक्षण हिंसा सम्न्धी क्रियाओंके भेद अधिकरणके भेद जीवाधिकरणके भेद " ४५८ ब्रह्मचर्य का स्वरूप पृ० ४५९ ४६४ ४६८ ४७२ ४७३ ४७४ ४७४ ४७८ ४७९ ४८० ४८१ ४८५ ४८७ ४८८ ४८९ ४९१ ४९२ ४९३ ४९४ ४९५ ४९५ ४९६ ४९८ ४९९ ५०२ ५०३ ५०४ ५०५ ५०८ ५०९ ५१० ५१२ ५१२ ५१३ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ ५९१ १ ६०४ विषय-सूची विषय विषय अब्रह्मके दस भेद लोभी पिण्याक गन्धका उदाहरण ५७८ वैराग्यके उपाय पटन नामक वणिकका उदाहरण कामजन्य दोष सचित्त परिग्रहके दोष ५८३ कामके दस वेग ५१८ महाबत संज्ञाकी सार्थकता कामातुर गोरसंदीपका उदाहरण ५:२ उन महाव्रतोंकी रक्षाके लिये रात्रि भोजन परस्त्रीगमनके दोष ५२५ त्याग ५९२ ब्रह्मचारी इन दोषोंसे मुक्त ५२८ मनोगुप्ति और वचनगुप्ति ५९५ स्त्रियोंके निमित्तसे ही महाभारत कायगुप्ति ५९७ रामायण आदिके युद्ध हुए ईर्या समिति ५९९ दुराचारिणी स्त्रियोंके उदाहरण भाषा समिति ६०१ स्त्रियोंके दोषोंक साथ ही पतिव्रता सत्यवचनके भेद ६०० स्त्रियोंकी प्रशंसा अनुभय वचनके नौ भेद ६०२ गर्भमें शरोरके निर्माणका क्रम एषणा समिति ५.४३ शरीर में सिरा वगैरहका प्रमाण आदान निक्षेपण समिति ५४८ शरीरकी अशुचिता दूर नहीं हो सकती . . ६०५ प्रतिष्ठापन समिति ५५२ शरीरमें कुछ भी सार नहीं अहिंसा व्रतकी पाँच भावना ५५३ एषणा समितिका विस्तृत स्वरूप ६०८ शरीरकी अनित्यता सत्यव्रतकी भावना ६१० वृद्ध सेवाका कथन ५५९ अचौर्यव्रतकी भावना केवल अवस्थासे वृद्धता नहीं ब्रह्मचर्य व्रतकी भावना ६११ । केवल अवस्थासे वृद्धोंका संसर्ग भी उत्तम ,, परिग्रह त्याग व्रतकी भावना तीन कारणोंसे काम सेवनकी भावना ५६१ भावनाओंका महत्त्व स्त्रीके संसर्गसे होनेवाले दोष निःशल्यके ही महाव्रत होते हैं रुद्र, पाराशर, सात्यकि आदिका उदाहरण ५६६ निदानके तीन भेद स्त्री व्याघ्रके समान है प्रशस्त निदानका स्वरूप अन्तरंग और बहिरग परिग्रहका त्याग ५७० अप्रशस्त निदानका स्वरूप आगममें परिग्रह त्यागका उपदेश है भोग निदानका कथन केवल वस्त्र त्यागका ही नहीं है कुलाभिमानको दूर करनेका उपाय ६१८ आचेलक्यका अर्थ सर्व परिग्रह त्याग है ५७३ भोग निदानके दोष ६२४ तालपलंबका उदाहरण " भोग निदान वालेके मुनिपदकी निन्दा ६२५ परिग्रहके सद्भावमें अहिंसादि व्रत नहीं ५७४ भोगजन्य सुखकी निन्दा ६२७ परिग्रहके ग्रहणसे अशुभभाव ५७५ भोग शत्रु हैं ६३४ सहोदर भाईयोंका उदाहरण ५७६ निदानमें दोष, अनिदानमें गुण ६३८ साधुपर सन्देह करनेवाले श्रावकका मायाशल्य दोषमें पुष्पदन्ता आर्यिकाका उदाहरण ५७७ उदाहरण ६१३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना bi m ७३९ ७४९ ७५२ ७५३ ७५५ ७५६ ७५८ ७६१ ७६२ ७६७ ৩৬৮ ७७९ ७८५ ७८८ ६६१ ६६४ ७८९ विषय पृ० विषय . अवसन्न साधुका स्वरूप ६४ आहारमें गृद्धि होनेपर सम्बोधन पार्श्वस्थ साधुका स्वरूप मैत्री आदि भावनाओंका उपदेश कुशील मुनिका स्वरूप ६४३ धर्मध्यानका स्वरूप यथाछन्द मुनिका स्वरूप ६४५ चिन्ता निरोधका नया अर्थ संसक्त मुनिका स्वरूप ६४६ आर्त और रौद्रध्यानके भेद इन्द्रिय और कषायोंको निन्दा ६४८ ध्यानकी सामग्री गृहवासके दोष ६४९ धर्मध्यानके चार भेदोंका स्वरूप तिथंच गतिमें दुःख ६५९ बारह अनुप्रेक्षा इन्द्रिय विषय आसक्तिमें राजा गन्धमित्र अध्रुव भावनाका वर्णन आदिके उदाहरण ६६० अशरण भावनाका वर्णन क्रोधके दोष एकत्व भावनाका वर्णन मानके दोष अन्यत्व भावनाका वर्णन मायाके दोष ६६६ संसार भावनाका वर्णन लोभके दोष ६६७ भव संसारका स्वरूप मृगध्वज तथा कार्तवीर्यका उदाहरण ६६९ द्रव्य परिवर्तनका स्वरूप इन्द्रियजयका उपाय ६७४ क्षेत्र संसारका स्वरूप क्रोधजयका उपाय काल परिवर्तनका स्वरूप ६७५ भानजयका उपाय ६७८ भाव संसारका स्वरूप मायाजयका उपाय ६७९ वसन्त तिलका और धनदेवका उदाहरण लोभजयका उपाय ६८० देवगतिमें च्यवनका दुःख निद्राजयका उपाय ६०१ अशुभत्व अनुप्रेक्षाका कथन आलस्यके दोष ६८५ आस्रवानप्रेक्षाका कथन तपके गुण ६८६ मिथ्यात्व असंयम आदि आस्रव आचार्यके उपदेशसे क्षपक प्रसन्न होकर राग-द्वषका माहात्म्य वन्दना करता है योग शब्दका अर्थ क्षपकको वेदना होने पर स्वयं या वैद्यसे अनुकम्पा पुण्यास्रवका द्वार चिकित्सा कराते हैं अनकम्पाके तीन भेद क्षपक विचलित हो तो उसका उपाय ६९७ शुद्ध प्रयोगके दो भेद सुन्दर मिष्ट शब्दोंसे सम्बोधन ६९९ यतिका शुद्ध प्रयोग सुकुमाल, सुकौशल, गजकुमार सनत्कुमार ग्रहस्थका शुद्ध प्रयोग . आदिकी कथा सुनाते हैं। मिथ्यात्वका संवर. कषायका संवर, और नरकगतिकी वेदनाका वर्णन ७११ इन्द्रियसंवर तियंच गतिकी वेदनाका वर्णन ७१८ प्रमादका संवर मनुष्य गति और देवगतिके कष्ट ७२५ गुप्ति संवरका कारण ७९० ७९१ ७९३ ७९८ ८०० ८०९ ८१० ८११ ८१३ ८१८ ८१९ ८२२ or wr Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२५ Sur ८६० ८६१ . १० ८६३ ८६५ ८३८ ८६६ ८६७ ८६८ ८३८ ८३९ mr mm ८६९ ८७० विषय-सूची विषय विषय निर्जरानुप्रेक्षा ८२३ सम्यक्त्वको नष्ट करके मरनेवाले सविपाक निर्जरा सबके होती है ८२४ भवनत्रिकदेव तपसे अविपाक निर्जरा क्षपककी मरणोत्तर क्रिया (विजहणा) संवरके विना तप कार्यकारी नहीं २६ निषीधिकाका लक्षण धर्मानुप्रेक्षा र का स्थान आदि बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा मृतकका बन्धन आदि ध्यानके अनेक आलम्बन ८३४ आर्यिकाकी मरणोत्तर विधि शुक्लध्यानके चार भेद शवके साथ पीछी रखनेका उद्देश पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान ८३५ अमुक नक्षत्र में मरणका फल एकत्व वितर्क शुक्लध्यान तीसरा शुक्लध्यान मृतकके साथ पुतलेका विधान मरण पर उपवास आदि चतुर्थ शुक्लध्यान मृतकके शवकी स्थितिका फलाफल ध्यानकी महिमाका स्तवन ८४० आराधक क्षपककी स्तुति क्षपककी लेश्याविशुद्धि ८४३ निर्यापककी प्रशंसा परिणामविशुद्धिसे लेश्याविशुद्धि ८४५ अभ्यन्तर शुद्धि होने पर वाह्य शुद्धि अवश्य क्षपकको देखने जाने जानेवालोंकी प्रशंसा होती है क्षपक तीर्थस्वरूप है शक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरण करने अविचार भक्त प्रत्याख्यानका स्वरूप वाला उत्कृष्ट आराधक ८४६ और भेद लेश्याके आश्रयसे आराधनाके भेद ८४७ निरुद्ध अविचार भक्त प्रत्याख्यान उत्कृष्ट आराधनासे मुक्ति ८५० अनिहार , मध्यम आराधनासे अनुत्तरवासी देव । निरुद्धतर समाधिकी विधि जघन्य आराधनावाले सौधर्मादि देव होते अनादि मिथ्यादृष्टिको मोक्षको प्राप्ति . ८५१ इंगिणीमरणकी विधि आराधनासे भ्रष्ट होने वालेका पतन ८५२ प्रायोपगमनको विधि अवसन्न मुनिका आचरण ८५३ दोनों प्रकारके मरणोंमें अन्तर पार्श्वस्थ मुनिका आचरण ८५४ उक्त मरण करनेवालोंके उदाहरण कुशील मुनिके अनेक भेद तथा उनका वाल पण्डित मरण आचरण बारह प्रकारका गृहीधर्म संसक्त मुनिका आचरण ८५६ पण्डित पण्डित मरणका स्वरूप क्षपकोंके मरते समय सन्मार्गसे च्युत होनेके ध्यानकी वाह्य सामग्री कारण ८५७ क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति कन्दर्प भावनासे मरनेवाले कन्दर्पदेव ८५९ तदनन्तर क्षपक श्रेणि पर आरोहण अभियोग्य भावनासे मरनेवाले अभियोग्य अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण | जातिके देव , अनिवृत्ति करणमें प्रकृतियोंका क्षय ८४६ ८७१ ८७२ ८७३ ८७५ ८७६ VVV mmore ८९० ८९१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना पृ० ९०० विषय सूक्ष्मसाम्पराय और क्षीणकषाय केवलज्ञानका स्वरूप केवलज्ञानीका विहार समुद्धातका विधान समुद्धातका कार्य समुद्धातका समय केवलोके योगनिरोधका क्रम अयोगकेवलो अवस्था मुक्त जीवकी ऊर्ध्वगति विषय . ८९२ सिद्ध क्षेत्रका स्वरूप ८९३ लोकके अग्रभागसे ऊपर गमन न करनेका ८९४ कारण सिद्ध जीवोंका स्वरूप ८९५ सिद्धजीवोंमें सुख आदि ८९६ उत्कृष्ट आराधनाका फल मध्यम आराधनाका फल ८९७ जघन्य आराधनाका फल ८९९ ग्रन्थकार द्वारा आत्मपरिचय आदि ९०१ ९०३ ९०६ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना अपराजितसूरिकृता विजयोदया टीका सहिता दर्शनज्ञानचारित्रतपसामाराधनायाः स्वरूपं, विकल्पं, तदुपायं, साधकान्, सहायान्, फलं च प्रतिपादयितुमुद्यतस्यास्य शास्त्रस्यादौ मङ्गलं स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकृती क्षमं शुभपरिणामं विदधता तदुपायभूतेयमरचि गाथा सिद्धे जयप्पसिद्धे चउब्विहाराहणाफलं पत्ते । वंदित्ता अरहंते वोच्छं आराहणं कमसो ।। १ ।। सिद्धे जयप्पसिद्धे इत्यादिका । अत्रान्ये कथयन्ति-"निवृत्तविषयरागस्य निराकृतसकलपरिग्रहस्य क्षीणायुषस्साधकस्याराधनाविधानावबोधनार्थमिदं शास्त्र" तस्याविघ्नप्रसिद्ध्यर्थमिदं मङ्गलस्य कारिका गाथेति । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतादयोऽप्याराधका एव । तत्किमुच्यते निवृत्तविषयरागस्य निराकृतसकलपरिग्रहस्येति । न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टे: संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता, सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति । क्षीणायुष इति चानुपपन्नं । अक्षीणायुषोऽप्याराधकतां दर्शयिष्यति सूत्रं 'अणुलोमा वा सत्तू चारित्तविणासया हवे जस्स' इति । शास्त्रान्तरे पञ्चानां गुरूणां नमस्क्रिया प्रारभ्यते । तत्र चाहतामेवोपादानमादी । इह तु पुनद्वयोरेव इस शास्त्रमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तपकी आराधनाका स्वरूप, भेद, उसके उपाय, साधक, सहायक और फलका कथन किया जायगा। अतः अपने और उसको सुनने वालोंके प्रारब्ध कार्यमें आने वाले विघ्नोंको दूर करने में समर्थ मङ्गलस्वरूप शुभ परिणामको करते हुए आचार्यने उसके उपायभूत 'सिद्धे जयप्पसिद्धे' इत्यादि गाथा रची है। इसके सम्बन्धमें अन्य टीकाकार कहते हैं कि विषयोंमें रागसे निवृत्त और समस्त परिग्रहके त्यागी जिस साधककी आयु समाप्त होनेवाली है, उसको आराधना करानेके लिये यह शास्त्र रचा है तथा उसकी निर्विघ्न प्रसिद्धिके लिये यह मंगलकारक गाथा है। (इसपर हमारा कहना है कि) असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत आदि भी आराधक ही हैं। तब यह क्यों कहते हैं कि विषयोंके रागसे निवृत्त, समस्त परिग्रहके त्यागी साधकके लिये यह ग्रन्थ रचा है। असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत न तो विषयानुरागसे निवृत्त होते हैं और न समस्तपरिग्रहके त्यागी ही होते हैं। तथा 'जिनकी आयु समाप्त होनेवाली है' यह कथन भी यथार्थ नहीं है क्योंकि आगे 'अणुलोमा वा सत्तू' इत्यादि गाथासूत्रके द्वारा ग्रन्थकार, जिनकी आयु समाप्त होनेवाली अभी नहीं है उनकी भी आराधकता दिखलायेंगे । शङ्का-अन्य शास्त्रोंके प्रारम्भमें पाँचों गुरुओंको नमस्कार किया गया है और उनमें Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना नमस्कारो विपर्ययश्च । तत्कि कृतं वैधय॑मिति ? अत्रोच्यते-अन्यथाप्रवृत्तावस्ति कारणं । इह द्विप्रकाराः सिद्धसाधकभेदेन जीवाः । अर्हता सिद्धानां चाप्ताराधनाफलत्वात्, आचार्यादीनां त्रयाणां साधकानामनुग्रहायेदं शास्त्र प्रस्तूयत इति सिद्धानां मङ्गलत्वेनोपादानं युक्तं, नेतरेषामधिक्रियमाणत्वात्तेषामिति भाष्यपरिहारौ केषांचित् । तावसङ्गताविव लक्ष्यते । तत्र चाद्यस्य निवेद्यतेऽयुक्तता। किमर्थं नमस्कारः क्रियते शास्त्रादिषु ? अविघ्नप्रसिद्धये। कथं निहन्ति विघ्नमसौ ? स हि वक्तुः श्रोतुर्वा भवेत् ? उभयस्यापि निवन्धनमन्तरायः, 'विघ्नकरणमन्तरायस्य' [त. सू.] इति वचनात् । पञ्चप्रकारोऽसौ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां विघ्नकारणभेदेन, तत्र वक्तुर्दानान्तरायस्सम्पादयति प्रत्यूह, त्रिविधस्य हि दानस्य प्रतिबाधको दानान्तरायः । ज्ञानलाभं विहन्ति श्रोतु भान्तरायस्तदायत्तो विघ्नः कथं तस्मिन्सति न भवेत् सत्यपि नमस्कारे, यथा बीजसलिलवसुन्धराधर्मरश्मिकरसंघाताधीनजन्मा ब्रीह्याद्यङ्करः स्वहेतुसामग्यां भवत्यन्यूनायां सन्निहितेऽपि सालतमालादौ तथेहापि । अथैवं षे अन्तरायोऽशुभप्रकृतिः । स च शुभपरिणामोन्मलितरसप्रकर्षः स्वकार्य निष्पादयितु नालमिति । यद्येवं शुभपरिणाममात्रस्यानोपयोगस्तथा सति सिद्धादिगुणानुरागः सर्व एवोपयोगी 'विघ्नतिरप्रारम्भमें अरहन्तोंको ही ग्रहण किया है। किन्तु यहाँ सिद्ध और अरहन्त दो का ही ग्रहण किया है और वह भी विपरीत क्रमसे किया है अर्थात् सिद्धोंका ग्रहण प्रथम और अरहन्तोंका पश्चात् किया है। इस प्रकारको विपरीतताका क्या कारण है ? इसका कोई इस प्रकार उत्तर देते हैं अन्य प्रकारसे प्रवृत्ति करनेका कारण है। यहाँ सिद्ध और साधकके भेदसे जीवोंके दो प्रकार हैं। अरहन्त और सिद्ध तो आराधनाका फल प्राप्त कर चुके हैं अतः आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन साधकोंके अनुग्रहके लिये यह शास्त्र रचा गया है. इसलिये सिद्धोंका मंगल रूपसे ग्रहण यक्त है. आचार्य आदिका नहीं. क्योंकि उन्हीं के लिये यह ग्रन्थ रचा गया है। ऐसा कोई आचार्य भाष्य और उसका परिहार करते हैं । किन्तु वे दोनों ही असंगत जैसे प्रतीत होते हैं। उनमेंसे प्रथमकी अयुक्तताके सम्बन्धमें निवेदन करते हैं शास्त्रादिमें नमस्कार क्यों किया जाता है ? निर्विघ्नताकी प्रसिद्धिके लिये । वह विघ्नोंको कैसे दूर करता है ? विघ्न वक्ता या श्रोताको होता है । दोनोंका भी कारण अन्तराय कर्म है। तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा हैं-'विघ्न करनेसे अन्तराय कर्मका आस्रव होता है ।' दान, लाभ, उपभोग और वीर्यके विघ्न करने में कारण होनेके भेदसे अन्तरायके पाँच भेद हैं। उनमेंसे दानान्तराय वक्ताके दानमें विघ्न करता है क्योंकि दानान्तराय तीन प्रकारके दानमें बाधक होता है। लाभान्तराय श्रोताके ज्ञान लाभमें रुकावट डालता है, क्योंकि जब विघ्न अन्तराय कर्मके अधीन है तो उसके होते हुए विघ्न क्यों नहीं होगा, भले ही नमस्कार किया गया हो। जैसे धान्य आदिके अंकुरकी उत्पत्ति बीज, जल, पृथ्वी और सूर्यको किरणोंके समूहके अधीन है । अतः अपनी कारण सामग्रीके परिपूर्ण होनेपर उसकी उत्पत्ति साल, तमाल आदिके रहते हुए भी अवश्य होती है। उसी तरह यहाँ भी जानना। यदि आप कहें कि अन्तराय अशुभ कर्म है, शुभ परिणामके द्वारा उसकी अनुभाग शक्ति क्षीण कर दिये जानेपर वह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता, तब तो यहाँ शुभपरिणाम मात्र उपयोगी हुआ। और ऐसा होनेपर विघ्नोंको दूर करनेकी इच्छा करने वालेको सिद्ध आदिके गुणोंमें अनुराग आदि सब उपयोगी हुए। तब विचारशील पुरुषके द्वारा अपनाया गया क्रम १. विघ्ननिराचि-मु० । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३ श्चिकीर्षतस्तत्र कस्मात् प्रेक्षापूर्वकारिणः क्रमाश्रयणमन्याय्यं ? उपेयात्मलाभहेतुत्वमात्रनिवन्धनमुपायानामुपायत्वं, तद्यत्र यत्रास्ति तस्य तस्योपायता । तेन सर्व एवाहदादिगोचरा गुणानुरागास्तत्पुरःसरवाक्कायक्रिया अनादृतक्रमा भवन्ति वाञ्छितफलप्रसाधना एकैकरूपा बहवोऽपि । इमामानुपूर्वीमन्तरेणैषा सिद्धिः साध्यस्यान्यथा न विद्यत इति यत्र तत्राश्रीयते उपायक्रमः । यथा घट सिसाधयिषतो मृन्मर्दनपिण्डकरणचक्रारोपणादयः। युगपदनेकवचनप्रवृत्तिरसंभविन्येकस्य वरिति नान्तरीयकतया क्रमाश्रयणं तत्र च कामचारः। तथाहि, 'सिद्धं सिद्धठाणं ठाणमणोवमसुहगयाणमिति' (-सन्मति ।।१) । शासनगुणानुस्मरणमेव केवलं । क्वचित्तीर्थकृत्स्वपि वीरस्वामिनः एव प्रथमं नमस्क्रिया 'एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघादिकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ सेसे पुण तित्ययरे ससव्वसिद्ध विसुद्धसब्भावे । समणे य गाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ॥ इति -प्रव० सा० १११-२। क्वचिदेकप्रघट्टेन, 'इंदसदवंदिदाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणमिति ।' –पञ्चास्ति० १। क्वचिज्जीवगुण एवानाश्रितार्हदादिस्वामिविशेषो निरूपितः “धम्मो मङ्गलमुक्किट्ट" इति । अन्याय्य कैसे है ? उपेय अर्थात कार्यके आत्म लाभमें हेतु होना मात्र उपाय अर्थात् कारणोंके उपायपनेका निबंधन है । अर्थात् कारणोंमें कारणपना इसीसे होता है कि उनसे कार्य उत्पन्न होता है। वह जहाँ-जहाँ है वहाँ-वहाँ कारणपना है । अत: अर्हन्त आदि विषयक सभी गुणानुराग और उस पूर्वक वचन और कायकी क्रिया, विना क्रमके भी इच्छित फलकी साधक होती है चाहे वह एकएक रूप हो या बहुत हो। किन्तु जहाँ कार्यकी सिद्धि क्रमको अपनाये विना नहीं होती वहाँ उपायोंका क्रम अपनाना होता है। जैसे जो घड़ा बनाना चाहता है । वह पहले मिट्टीको मलता है, फिर उसका पिण्ड बनाता है, फिर उसे चाक पर रखता है आदि। इस क्रमके विना घड़ा नहीं बन सकता। इसलिए यहाँ क्रम आवश्यक है। किन्तु सर्वत्र क्रम आवश्यक नहीं है। तथा एक वक्ता एक साथ अनेक वचन व्यवहार नहीं कर सकता; इसलिए नमस्कार करनेमें क्रमका आश्रय लेना होता है। किन्तु उसमें यह अपेक्षित नहीं है कि पहले किसे नमस्कार करना। नमस्कार करनेवाला अपनी अपनी इच्छानुसार नमस्कार करता है। जैसे सन्मतिसूत्रके प्रारम्भमें 'सिद्ध सिद्धट्ठाणं' आदिसे केवल जिनशासनके गुणोंका ही स्मरण किया है। कहीं पर तीर्थंकरोंमें से भी वीर स्वामीको ही प्रथम नमस्कार किया है। जैसे प्रवचनसारके प्रारम्भमें कहा है-'यह मैं सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रोंसे वन्दित तथा घाति कर्ममलको धो डालनेवाले और धर्मके कर्ता वर्धमान तीर्थंकरको नमस्कार करता हूँ। तथा विशुद्ध सत्तावाले शेष तीर्थंकरोंको, समस्त सिद्धोंके साथ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारसे युक्त श्रमणोंको नमस्कार करता हूँ।' __कहीं एक साथ सब जिनोंको नमस्कार किया है। जैसे पंचास्तिकायके प्रारम्भमें कहा है-'सौ इन्द्रोंके द्वारा वन्दित और तीनों लोकोंका हित करनेवाले मिष्ट और स्पष्ट वचन बोलनेवाले, अनन्तगुणशाली भवजेता जिनोंको नमस्कार हो।' कहीं अर्हन्त आदि स्वामीविशेषका आश्रय न लेकर जीवके गुणका ही कथन किया है जैसे दशवैकालिकसूत्रके प्रारम्भमें 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है' आदि कहा है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना एवं सति वैचित्र्ये पर्ययाशङ्का? यच्चोक्तं साधकानुग्रहाधिकारे सिद्धात्मनामेव मङ्गलत्वेनाधिकारो युक्त इति । इदं पर्यनुयोज्योऽयं श्रुतसाधकार्थमुत (?) यद्येवं सकलस्य श्रुतस्य सामायिकादेर्लोकबिन्दुसारान्तस्यादौ मङ्गलं कुर्वद्भिर्गणधरैः 'णमो अरहंताणमित्यादिना कथं पञ्चानां नमस्कारः कृतः ?. तेन सूत्रविरोधिनी व्याख्या अनेनापि च सूत्र विरुध्यते, 'वंदित्ता अरहंते' इति अर्हतामुपादानात् । तेऽपि सिद्धा इति चेत् पृथगुपादानानर्थक्यं । अथैकदेशसिद्धास्त इति पृथगुपात्ताः आचार्यादयोऽपि किन्नोपात्तास्तेषामप्येकदेशसिद्धतास्ति । एकदेशसिद्धतायां अर्हतामप्याराधकत्वे सत्युपादानं स्वव्याख्याविरोधमाधत्त इति ।। 'सिद्धे' सिद्धान् "जगप्पसिद्ध' जगति प्रसिद्धान् ‘चदुठिवधारणाफलं' चतुर्विधाराधनाफलं पत्ते' प्राप्तान्, वंदित्ता वन्दित्वा 'अरहते' 'वोच्छं' वक्ष्यामि 'आराधणं' आराधना 'कमसो' क्रमशः ।। सिद्धशब्दस्य चत्वारोऽर्थाः नामस्थापनाद्रव्यभावा इति । तत्र नामसिद्धः क्षायिकं सम्यक्त्वं, ज्ञानं, दर्शनं, वीर्य, सूक्ष्मतां, अतिशयवतीमवगाहनां, सकलवाधारहिततां चानपेक्ष्य सिद्धशब्दप्रवृत्तेनिमित्तं कस्मिश्चित्प्रवृत्तः सिद्धशब्दः । ननु स्वरूपनिष्पत्तिः सिद्धशब्दस्य प्रवृत्तेनिमित्तं न सम्यक्त्वादय इति चेत् सत्यं, व्यावणितयत्किचिन्न्यूनात्मरूपनिष्पत्तिनिमित्तत एष्यत एव । पूर्वभावप्रज्ञप्तिनयापेक्षया चरमशरीरानुप्रविष्टो य आत्मा क्षीरानु इस प्रकारकी विविधताके होते हुए विपरीतता की-अर्हन्तोंसे पहले सिद्धोंको क्यों नमस्कार किया-इस प्रकारकी आशङ्का कैसी ? तथा यह जो कहा है कि साधकोंके अनुग्रहके लिए रचे गये इस ग्रन्थमें मंगल रूपसे सिद्धोंका ही अधिकार उचित है। इस विषयमें यह प्रश्न है कि ये साधक क्या श्रुत के हैं ? यदि ऐसा है तो सामायिकसे लेकर लोकबिन्दुसार पर्यन्त सकल श्रुतके आदिमें मंगल करनेवाले गणधर देवने 'णमो अरहंताणं' इत्यादि रूपसे पांचोंको नमस्कार क्यों किया? इसलिए आपकी व्याख्या सूत्र विरोधिनी है। तथा इसी गाथासूत्रसे भी विरुद्ध है; क्योंकि इसी गाथामें 'वंदित्ता अरहते' कहकर अर्हन्तोंका भी ग्रहण किया है । यदि कहोगे कि वे भी सिद्ध हैं तो उनका पृथक् ग्रहण व्यर्थ है। यदि कहोगे कि वे एकदेश सिद्ध हैं इसलिए उनका पृथक् ग्रहण किया है तो आचार्य आदिका ग्रहण क्यों नहीं किया; क्योंकि वे भी एकदेश सिद्ध हैं । एकदेश सिद्ध होने पर अर्हन्तोंका भी आराधक रूपसे ग्रहण अपनी ही व्याख्याके विरुद्ध जाता है। अस्तु, गा०—'जगत्में प्रसिद्ध और चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त सिद्धों और अर्हन्तोंको नमस्कार करके क्रमसे आराधनाको कहूँगा ॥१॥ टीका-सिद्ध शब्दके चार अर्थ हैं-नाम सिद्ध, स्थापना सिद्ध, द्रव्य सिद्ध और भावसिद्ध । क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, वीर्य, सूक्ष्मता, अतिशयवती अवगाहना और सकलबाधारहितता अर्थात् अव्याबाधत्व, ये गुण सिद्ध शब्दकी प्रवृत्तिमें निमित्त हैं अर्थात् जिनमें ये गुण होते हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं। इन गुणोंकी अपेक्षा न करके किसीमें प्रवृत्त सिद्ध शब्द नाम सिद्ध है। शंका-सिद्ध शब्दको प्रवृत्तिका निमित्त उसके स्वरूपकी निष्पत्ति है, सम्यक्त्व आदि गुण नहीं ? ___समाधान-आपका कथन यथार्थ है, पूर्व शरीरके आकारसे किंचित् कम जो आत्म रूप कहा है सिद्ध का, उसकी निष्पत्तिके निमित्तको हम स्वीकार करते हैं। पूर्व भाव प्रज्ञापन नयकी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका प्रविष्टोदकमिव संस्थानवत्तामुपगतः, शरीरापायेऽपि तमात्मानं चरमशरीरात् किंचिन्न्यूनात्मप्रदेशसमवस्थानं बुद्धावारोप्य तदेवेदमिति स्थापिता मतिः स्थापनासिद्धः । सिद्धस्वरूपप्रकाशनपरिज्ञानपरिणतिसामर्थ्याध्यासित आत्मा आगमद्रव्यसिद्धः । नोआगमद्रव्य सिद्धस्त्रेधा ज्ञायर्कशरीरभावितद्वयतिरिक्तभेदात् । ज्ञायकशरीरसिद्धः सिद्धप्राभृतज्ञस्य शरीरं भूतं भवत् भावि वा । भविष्यत्सिद्धत्वपर्यायो जोवो भाविसिद्धः । तद्व्यतिरिक्तमसंभवि, कर्मनोकर्मणोः सिद्धत्वस्य कारणत्वाभावात् । सिद्धप्राभृतगदितस्वरूपसिद्धज्ञानमागमभावसिद्धः । क्षायिकज्ञानदर्शनोपयक्तः परिप्राप्ताव्यावाधस्वरूपस्त्रिविष्टपशिखरस्थो नोआगमभावसिद्धः । स इह गृह्यते । ननु सामान्यशब्दस्यान्तरेण प्रकरणं विशेषणं वाऽभिमतार्थवृत्तिता दुरवगमा ? अत एव विशेषणमुपात्तं चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्तानिति । सम्यक्त्वं केवलज्ञानदर्शने सकलकर्मविनिर्मुक्ततेति चतुर्विधं, चतुर्विधाया आराधनायाः फलं साध्यं तत्प्राप्तिरात्मनः सम्यग्दर्शनादिरूपेण समवस्थानम् । ततोऽयमर्थ:-'फलं पत्ते' इत्यस्य क्षायिकसम्यक्त्वकेवलज्ञानदर्शननिरवशेषकर्मविनिर्मुक्ततारूपेणावस्थितानिति । जगति आसन्नभव्यजीवलोके समीचीनश्रुतज्ञानलोचने प्रसिद्धान् प्रतीतान् विदितान् । 'अरहते' इत्यत्र च शब्दमन्तरेणापि समुच्चयार्था गतिः । 'पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति' द्रव्याणीत्येवं यथा । निहतमोहनीयतयाऽस्तज्ञानअपेक्षा अन्तिम शरीरमें प्रविष्ट हआ जो आत्मा दूधमें मिले पानीकी तरह आकारवत्ताको प्राप्त हुआ, शरीरके नष्ट हो जानेपर भी उस आत्माको अन्तिम शरीरसे किञ्चित् न्यून आकार वाला बुद्धिमें स्थापित करके 'यह वही है' इस प्रकारसे स्थापित मूर्तिको स्थापना सिद्ध कहते हैं । सिद्धों के स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानकी परिणतिकी सामर्थ्यसे युक्त आत्मा आगमद्रव्यसिद्ध है । नोआगम-द्रव्यसिद्धके तीन भेद हैं-ज्ञायकशरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त । सिद्ध विषयक शास्त्रके ज्ञाताके भूत, भावि और वर्तमान शरीरको ज्ञायक शरीर सिद्ध कहते हैं । भविष्यमें सिद्ध पर्यायको प्राप्त करनेवाले जीवको भाविसिद्ध कहते हैं। इसमें तद्व्यतिरिक्त भेद सम्भव नहीं है क्योंकि कर्म और नोकर्म सिद्धत्वके कारण नहीं होते। सिद्ध प्राभृतमें कहे गये सिद्ध स्वरूपके ज्ञानमें उपयुक्त आत्मा आगम भावसिद्ध है। क्षायिक ज्ञान और क्षायिक दर्शनमें उपयुक्त तथा अव्यावाध स्वरूपको प्राप्त और लोकके शिखर पर विराजमान सिद्ध परमेष्ठी नो आगमभावसिद्ध हैं। यहाँ उसीका ग्रहण किया है । शङ्का-प्रकरण अथवा विशेषणके विना सामान्यसे अभिमत अर्थका वोध होना कठिन है अतः यहाँ सिद्धसे नो आगम भावसिद्धका ग्रहण कैसे संभव है ? समाधान-इसीलिये आचार्यने 'चतुर्विध आराधनाके फलको प्राप्त' यह विशेषण दिया है। सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और समस्त कर्मोसे सर्वथा मुक्तता ये चार, चार प्रकारकी आराधनाके फल हैं। आत्माका सम्यग्दर्शन आदि रूपसे सम्यक् अवस्थान ही उनको प्राप्ति है। अतः ‘फलं पत्ते' का अर्थ है---जो क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और समस्त कर्मो से विनिमुक्तता रूपसे स्थित है उन सिद्धोंको । 'जगत्' अर्थात् निकट भव्य जीवरूपी लोकमें, जिनकी आँख समीचीन श्रुतज्ञान हैं, उनमें जो प्रसिद्ध हे जाने माने हैं। 'अरहंते' यहाँ यद्यपि 'च' शब्द नहीं है फिर भी समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान होता है। जैसे 'पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि' इस सूत्रमें 'च' शब्द नहीं होने पर भी पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये द्रव्य हैं इस प्रकारसे समुच्चयका ज्ञान होता है उसी प्रकार जानना । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना दर्शनावरणात् अतिशयितपूजाभाज इत्ययमर्थोऽनेन 'अरहते' इत्यनेनोक्तः । अनुगतार्थत्वादर्हन्निति संज्ञायाः यथा सर्वनामशब्दोऽङ्गीकृतशब्दार्थसंज्ञाभावमुपयाति । अथवा 'जगप्पसद्धि' इति अर्हतां विशेषणं, यतः पञ्चमहा कल्याणस्थानेषु विष्टपत्रयेणाधिगता महात्मानः, नैव मितरे सिद्धाः । सर्वस्यैव हि वस्तुनः कथंचित्प्रतीतत्वे सति अप्रतीतस्य कस्यचिदभावात प्रसिद्धग्रहणमपात्तप्रकर्पमिति गम्यते । यथाऽभिरूपाय कन्या देयेति । तेनायमों जगति प्रसिद्धतमानिति । अर्हतामेव च प्रतीततरत्वमुक्तेन क्रमेण । अनधिगतप्रयोजनः श्रौता न यतते श्रवणेऽध्ययने वा। परोपकारसंपादनाय चेदं प्रस्तूयते मया ततः प्रयोजनं प्रकटयामीत्याह 'वोच्छं आराहणं' मिति । एतेनाराधनास्वरूपावगमनं प्रयोजनं शास्त्रश्रवणाद्भवतां भवतीत्यावेदितम् । नत्वाराधनास्वरूपावगमनं तु पुरुषार्थः । पुरुषार्थो हि प्रयोजनं, पुरुषार्थश्च सुखं दुःखनिवृत्तिा , न चानयोरन्यतरतास्य। अयमस्याभिप्रायः, यो येनार्थनार्थी स तत्प्राप्तये तदीयोपायमधिगंतुमुपादेयं वा यतते येन प्रयुक्तः क्रियायां प्रवर्तते तत्प्रयोजनं, ज्ञानेन प्रयुज्यते श्रवणादिक्रियायामुपयोगिवस्तुपरिज्ञानं प्रयोजनं भवतु; आराधना तु कथमुपयोगिनी ? सकलसुखरूपकेवलज्ञानपरमाव्याबाधतां जनयतीत्युपयोगिनी । तथा चोक्तं'चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्तानिति' । ततोऽयमर्थः, अनन्त ज्ञानादिफलनिमित्ताराधनाऽवबोधनार्थमिदं शास्त्रमा मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेसे तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणके चले जानेसे जो अतिशय युक्त पूजाके भाजन हैं, यह अर्थ 'अरहंते' पदसे वहाँ कहा गया है; क्योंकि 'अर्हन्' यह नाम सार्थक है। जैसे सर्वनाम शब्द स्वीकार किये गये शब्दार्थोके संज्ञापनेको अपनानेसे सार्थक हैं । अथवा 'जगत् प्रसिद्ध' यह पद अर्हन्तोंका विशेषण है; क्योंकि ये महात्मा पाँच महाकल्याणक स्थानोंमें तीनों लोकोंके द्वारा जैसे प्रख्यात होते हैं वैसे अन्य सिद्ध नहीं होते । सभी वस्तु किसी न किसी रूपमें प्रतीत होती हैं, सर्वथा अप्रतीत कोई नहीं है । अतः यहाँ 'प्रसिद्ध' पदका ग्रहण प्रकर्षताका परिचायक है। जैसे 'रूपवानको कन्या देना' । यहाँ रूपवान् शब्द विशिष्ट रूपका बोधक है। अतः 'जगत में सबसे' अधिक प्रसिद्ध यह अर्थ यहाँ लेना। और उक्त प्रकारसे अर्हन्त ही सबसे अधिक या सिद्धोंसे अधिक प्रसिद्ध हैं। प्रयोजनको जाने बिना श्रोता श्रवण या अध्ययनमें प्रयत्न नहीं करता। और मैं (ग्रंथकार) परोपकार करनेके लिये यह ग्रन्थ बनाता है, अतः प्रयोजन प्रकट करता हूँ-'वोच्छं आराहणं' इससे यह प्रयोजन सूचित किया है कि शास्त्रश्रवणसे आराधनाके स्वरूपका ज्ञान होता है। शंका-आराधनाके स्वरूपको जानना तो पुरुषार्थ नहीं है; क्योंकि पुरुषार्थ प्रयोजन है और पुरुषार्थ है सुख अथवा दुःखनिवृत्ति । आराधनाके स्वरूपको जानना न तो सुख है और न दुःख निवृत्ति है। हमारे इस कथनका अभिप्राय यह है कि जो जिस अर्थका इच्छुक होता है वह उसकी प्राप्तिके लिये उसके उपाय या उपादेयको जाननेका प्रयत्न करता है। जिसके द्वारा प्रेरित होकर, मनुष्य क्रियामें लगता है वह प्रयोजन हैं । ज्ञानके द्वारा श्रवण आदि क्रियामें लगता है अतः उपयोगी वस्तुका ज्ञान प्रयोजन हो सकता है परन्तु आराधना कैसे उपयोगी है ? __ समाधान-समस्त सुख रूप केवलज्ञान और परम अव्याबाधताको उत्पन्न करनेसे आराधना उपयोगी है। कहा है 'चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त ।' अतः अभिप्राय यह है कि अनन्त ज्ञानादि रूप फलकी प्राप्तिमें निमित्त आराधनाके स्वरूप Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका रभ्यत इति साध्यमाराधनास्वरूपज्ञानं साधनमिदं शास्त्रमिति साध्यसाधनरूपसंबन्धोऽपि शास्त्रप्रयोजनयोरत एव वाक्याल्लभ्यते । अभिधेयभतास्तु चतस्र आराधनाः । ग्राह्यमिदं शास्त्रं प्रयोजनादित्रयसमन्वितत्वात व्याकरणादिवदिति । एवमनया मङ्गलं प्रयोजनादित्रयं च सूचितं 'कमसो' क्रमेण पूर्वशास्त्रनिगदितेन । एतेन स्वमनोषिकाचचितमि न भवति । आप्तवचनानुसारितया प्रमाणमिदमित्याख्यातं भवति । 'पुव्वसुत्ताणं' इति वाक्यशेषादित्थं लभ्यते ॥१॥ का आराधना कस्य वा ? न ह्याराध्यापरिक्षानेनात्मभूताराधना शक्या प्रतिपत्तु इत्यारेकायामाह उज्जोवणमज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दंसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा . भणिया ।। २ ।। उज्जोवणमुज्जवणमित्यादिकं । 'उज्जोवणं' उद्योतनं शङ्कादिनिरसनं सम्यक्त्वाराधना श्रुतनिरूपिते वस्तुनि किमित्थं भवेन्न भवेदिति समुपजातायाः शङ्कायाः संशयप्रतिसंजिताया अपाकृतिः । कथं ? हेतुबलेन आप्तवचनेन वा समुपजाताया इत्थमेवेदमिति निश्चित्य । यद्धि यस्य विरोधि यत्रोपजातं तत्र नेतरदास्पदं बध्नाति, यथा शीतस्पर्शनाक्रान्ते शिशिरकरे उष्णता । विरोधि च निश्चयज्ञानं । संशीतेविरोधता च नियोगतस्तद्भावे तत्रेतरस्य तदा अभवनात् । वक्ष्यामः कांक्षादीनां स्वरूपं तन्निरासक्रमं च प्रस्तावे । अनिश्चयो का ज्ञान करानेके लिये इस शास्त्रको प्रारम्भ करते हैं। आराधनाके स्वरूपका ज्ञान साध्य है और उसका साधन यह शास्त्र है। इस प्रकार शास्त्र और प्रयोजनमें साध्य साधनरूप सम्बन्ध है यह भी इसी वाक्यसे ज्ञात होता है । इस शास्त्रका अभिधेयभूत अर्थात् जो इसके द्वारा कहा गया है वह है चार आराधना। अतः प्रयोजन, सम्बन्ध और अभिधेयसे युक्त होनेसे यह शास्त्र उसी तरह उपादेय है जैसे व्याकरणशास्त्र उपादेय है। इस प्रकार इस गाथासे मंगल प्रयोजन, सम्बन्ध और अभिधेयको सूचित किया है। 'कमसो' का अर्थ है क्रमसे अर्थात् पूर्व शास्त्रोंमें जैसा कहा है वैसा ही कहूँगा। इससे यह । सूचित किया है कि यह ग्रन्थकारकी अपनी बुद्धिकी उपज नहीं है किन्तु आप्त पुरुषोंके वचनोंके अनुसार होनेसे प्रमाण है । 'कमसो' के साथ 'पुव्व सुत्ताणं' पूर्व शास्त्रोंके इस वाक्यांशका अध्याहार करनेसे उक्त अर्थ निकलता है ॥१॥ आराध्यको जाने बिना उसकी आत्मभूत आराधनाको जानना शक्य नहीं है । अतः आराधना किसे कहते हैं और वह किसके होती है इस शंकाके समाधानके लिये आचार्य कहते हैं गाथा-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्त्वके उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और (णिच्छरणं) निस्तरणको (आराहणा) आराधना कहा है ।।२।। टीका-'उज्जोवण' का अर्थ है उद्योतन अर्थात् शंका आदि दोषोंको दूर करना। यह सम्यक्त्व आराधना है। शास्त्रमें कही गई वस्तुके विषयमें 'क्या ऐसा है अथवा नहीं है' इसप्रकार . से उत्पन्न हुई शंकाको, जिसका दूसरा नाम संशय है, दूर करना सम्यक्त्वाराधना है। युक्ति के बलसे अथवा आप्त वचनके द्वारा यह इसी प्रकार है ऐसा निश्चय करके उत्पन्न हई शंकाको दूर करना सम्यक्त्वका उद्योतन है। जिसका विरोधी जहाँ होता है वहाँ वह ठहर नहीं सकता। जैसे शीत स्पर्शसे व्याप्त चन्द्रमामें उष्णता नहीं ठहरती। निश्चयात्मक ज्ञान संशयका विरोधी है अतः इन दोनोंमें नियमसे विरोध है; क्योंकि एकके रहते हुए वहाँ उस समय दूसरा नहीं रहता । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना वैपरीत्यं वा ज्ञानस्य मलं, निश्चयेनानिश्चयव्यदासः । यथार्थतया वैपरीत्यस्य निरासो ज्ञानस्योद्योतनं । भावनाविरहो मलं चारित्रस्य. तास भावनास वत्तिरुद्योतनं चारित्रस्य । तपसोऽसंयमपरिणामः कलङ्कतया स्थितस्त स्यापाकृतिः संयमभावनया तपस उद्योतनम् । उत्कृष्टं यवनं उद्यवनं । ननु मिश्रणं युप्रकृतेरर्थः, मिश्रणं च संयोगता । तथा हि गुडमिश्रा धाना इति कथिते गुडेन संयुक्ता इति प्रतीयते । संयोगश्च विभिन्नयोरर्थयोरप्राप्तयोः प्राप्तिन च दर्शनादयोऽर्थान्तरभूता आत्मनस्तद्रूपविकलरूपाभावात् । तत्कथं दर्शनादिभिरात्मनो मिश्रणमिति ? उच्यते-विशेषवाच्योऽपि सामान्योपलक्षणतया वर्तते, यथा काकेभ्यो रक्ष्यतां सपिरित्यत्रोपघातकसामान्यमेंवार्थः काकशब्दस्य प्रतीतस्तद्वत्संबन्धसामान्यमत्र यवनशब्दाभिधेयं । असकृद्दर्शनादिपरिणतिरुद्यवनं । निराकुलं वहनं धारणं निर्वहणं, परिषहाद्युपनिपातेऽप्याकुलतामन्तरेण दर्शनादिपरिणतौ वृत्तिः । उपयोगान्तरेणान्तहितानां दर्शनादिपरिणामानां निष्पादनं साधनम् । भवान्तरप्रापणं दर्शनादीनां निस्तरणम । एवमाराधनाशब्दस्यानेकार्थवृत्तितायां यथावसरं तत्र तत्र व्याख्या कार्या । आगे हम कांक्षा आदिका स्वरूप और उनके निरासका क्रम कहेंगे। अनिश्चय अथवा विपरीतता ज्ञानका मल वा दोष है । निश्चयके द्वारा अनिश्चयका परिहार होता है। और यथार्थतासे विपरीतताका निरास होता है । यह ज्ञानका उद्योतन है अर्थात् ज्ञानका निश्चयात्मक और विपरीततारहित होना ही ज्ञानका उद्योतन है। भावनाका न करना चारित्रका मल है। अतः उन भावनाओंमें लगना चारित्रका उद्योतन है। असंयमरूप परिणाम तपका कलंक है । संयमकी भावनाके द्वारा उसको दूर करना तपका उद्योतन है। उत्कृष्ट यवनको उद्यवन कहते हैं। शंका-'यु' धातुका अर्थ मिश्रण है। संयोगपनेको मिश्रण कहते हैं। जैसे 'गुड़से मिश्रित धान' कहने पर गुड़से संयुक्त धानकी प्रतीति होती है। दो विभिन्न पदार्थ जो एक दूसरेसे अलग हैं उनके मिलनेको संयोग कहते हैं। किन्तु दर्शन आदि तो आत्मासे भिन्न पदार्थ नहीं हैं क्योंकि दर्शन आदिसे रहित आत्माका अभाव है। तब दर्शन आदिके साथ आत्माका मिश्रण कसे संभव है ? समाधान-जिस शब्दका जो विशेष अर्थ होता है वह भी उपलक्षणसे सामान्य रूप लिया जाता है। जैसे 'कौओंसे घी को बचाओ' यहाँ काक शब्दका अर्थ उपघातक सामान्य ही है अर्थात् जो धी को हानि पहुँचा सकते हैं उन सबसे घी को बचाओ। इसी तरह यहाँ 'यवन' शब्दका अर्थ सम्बन्ध मात्र है, कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। अतः बार बार आत्माका दर्शन आदि रूप परिणत होना उद्यवन है। निराकुलतापूर्वक 'वहन' अर्थात् धारण करनेको 'निर्वहण' कहते हैं । परीषह आदि आने पर भी आकुलताके बिना सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणतिमें संलग्न होना निर्वहण है। अन्य कार्योमें उपयोग लगनेसे तिरोहित हुए सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणामोंको पुनः उत्पन्न करना साधन है । और सम्यग्दर्शन आदिको दूसरे भवमें भी साथ ले जाना निस्तरण है। इस प्रकार आराधना शब्दके अनेक अर्थ होने पर अवसरके अनुसार व्याख्या करना चाहिये। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका अत्रान्ये व्याचक्षते-निस्तरणशब्दः सामर्थ्यवाची स प्रत्येक सम्बध्यते उद्योतनादिभिरुद्योतनादीनांतद्दर्शनादिभिश्चतुभिरपि यथासंख्येन संवन्धः । उद्योतनं मरणकाले प्रागवस्थाया उत्कर्षेण निर्मलीकरणं अविघ्नेन दर्शनाराधनेत्यादिना क्रमेण । त एवं पर्यनुयोज्याः किमत्र ज्ञानादीनां निर्मलीकरणमिष्टमनिष्टं वा। इष्टं चेद्दर्शनेनैव किमिति सम्बध्यते निर्मलीकर? उत्कर्षेण यवनमपि सर्वेषामिष्यते । अनाकुलं वहनमपि साधारणं किमुच्यते व्रतगुप्तिसमितीनां निश्चयेनानाकुलं वहनमिति ? न च निस्तरणशब्दात्सामर्थ्य प्रतीयते । उद्योतनं सामर्थ्यमित्यादिषु न च कश्चिदर्थः, अविघ्नेनेति कथमयमर्थो लभ्यते उज्जोवणादिशब्दैरनुपात्तो । मरणकालश्च कः ? मनुष्यभवपर्यायविनाशसमयो मरणकालसमयेन यद्युच्यते, न तत्र भावनोत्कर्षः, मारणान्तिकसमुद्घाते परिणाममान्द्यात् । अत्र भावनाकालो मरणकालशब्देनोच्यते सोऽनुपात्तोप्रकृतश्च कथमिह लभ्यते । भावनाकालगतव्यापारकथनायेदं शास्त्रं प्रस्तुतमिति लम्यत इति चेत्, न तथाऽसूत्रितत्वात् । 'दंसणणाणचरित्ततवाणमुज्जोवणमाराहणा भणिया' 'दसणणाणचरित्ततवाणुज्जवणमाराधणा' इति, इति प्रत्येकमभिसंबन्धोऽत्र कार्यः । अन्यथा असमासेन निर्देशं कुर्यात् ॥२॥ यहां अन्य व्याख्याकार कहते हैं—निस्तरण शब्द सामर्थ्यवाचक है। अतः उद्योतन आदिमेंसे प्रत्येकके साथ उसका सम्बन्ध होता है। और उद्योतन आदिका दर्शन आदि चारोंके साथ क्रमसे सम्बन्ध होता है। जैसे मरणकालमें पूर्वकी अवस्थाका उत्कृष्ट रूपसे निर्मल करना सम्यग्दर्शनका उद्योतन है अर्थात् निर्विघ्नतापूर्वक सम्यग्दर्शनकी आराधना उद्योतन है, इस प्रकारक्रमसे करना चाहिये। उनसे पूछना चाहिए कि क्या यहाँ ज्ञानादिका निर्मल करना इष्ट है या अनिष्ट ? यदि इष्ट है तो निर्मल करनेका सम्बन्ध अकेले दर्शनके साथ ही क्यों जोड़ा जाता है ? उत्कृष्ट रूपसे यवन भी सभी दर्शन आदिका इष्ट है । निराकुलतापूर्वक धारण करना भी सामान्य है ! तब आप व्रत, गुप्ति और समितिके निश्चयपूर्वक निराकुल धारणाकी बात क्यों कहते है ? तथा निस्तरण शब्दसे सामर्थ्यकी प्रतीति भी नहीं होती। उसे उद्योतन आदिके साथ जोड़ने पर उद्योतन सामर्थ्य, उद्यवन सामर्थ्य इत्यादिसे कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता। तथा उद्योतन आदिसे तो निर्विघ्नता अर्थ नहीं निकलता। तब यह अर्थ आप कैसे लेते हैं ? तथा मरणकालसे आपका क्या अभिप्राय है ? यदि मरणकाल समयसे मनुष्य पर्यायके विनाशका समय लेते हैं तो उस समय तो भावनाकी उत्कृष्टता सम्भव नहीं हैं क्योंकि मारणान्तिक समुद्घातमें परिणामोंमें मन्दता होती है। यदि यहाँ मरणकाल शब्दसे भावना काल लेते हों तो उसका तो यहाँ ग्रहण नहीं है। तब जिसका प्रकरण नहीं है उसे कैसे लिया जा सकता है ? शंका-भावना कालमें होनेवाले व्यापारका कथन करनेके लिए यह शास्त्र रचा जाता है ? समाधान नहीं, ऐसा ग्रन्थकारने नहीं कहा है। ग्रन्थकारने तो 'दसणणाणचरित्ततवाणं उज्जोवणं आराहणा भणिया'-दर्शन ज्ञान चारित्र और तपके उद्योतनको आराधना कहा है। 'उज्जवणं आराहणा भणिया'-दर्शन ज्ञान चारित्र और तपके उद्यवनको आराधना कहा है अतः प्रत्येकके साथ सम्बन्ध यहाँ करना चाहिए। यदि ग्रन्थकारको ऐसा इष्ट न होता तो वे 'दसण' इत्यादिका निर्देश समासपूर्वक न करते । भावार्थ-सम्यग्दर्शन आदिके उद्योतनको चार प्रकार की आराधना कहा है। सम्यग्दर्शन आदिके निर्मल करनेको उद्योतन कहते हैं। उत्कृष्ट यवन अर्थात् मिश्रणको-बार बार दर्शनादि Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना किं चतुर्विधैवाराधनेत्याशङ्कायामाह दुविहा पुण जिणवयणे भणिया आराहणा समासेण । सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरितंमि ।। ३ ॥ 'दुविहा पुण जिणवयणे समासेण दुविधा आराधणा भणिया' इति पदसंबन्धः । आवरणमोहजयाज्जिनाः । ज्ञानदर्शनावरणजयात्सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः । मोहपराजयाद्वीतरागद्वषाः । सर्वज्ञानां सर्वदशिनां वीतरागद्वेषाणां वचनं जिनवचनं । एतेन असत्यवचनकारणाभावात् प्रामाण्यमाख्यातमागमस्य । वक्तुरज्ञानाद्रागद्वेषाभ्यां वा प्रवृत्तं वचः अयथार्थावबोधनादप्रामाण्यमास्कन्दति । तत्र च 'समासेण' संक्षेपेण 'दुविधा' द्विप्रकारा 'भणिदा' कथिता 'आराहणा' आराधना । का प्रथमा आराधना का द्वितीयेत्यत आह-'सम्मत्तम्मि य पढमा' श्रद्धानविषया प्रथमाराधना । 'विदिया य' द्वितीया च 'हवे' भवेत् 'चरित्तं मि' चारित्रविषया आराधना । दर्शनचारित्राराधनयोः प्रथमद्वितीयव्यपदेशः उत्पत्त्यपेक्षया गुणस्थानापेक्षया चेति । केचिच्च दर्शनपरिणामोत्पत्त्युत्तरकाले हि चारित्रपरिणाम उत्पद्यत इति प्राथम्यं दर्शनाराधनायाः । असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं पूर्व रूप परिणमन करनेको उद्यवन कहते हैं । परीषह आदि आने पर भी निराकुलतापूर्वक वहन अर्थात् धारण करनेको निर्वहन कहते हैं । अन्य तरफ उपयोग लगनेसे दर्शन आदिसे मनके हटने पर पुनः उनमें उपयोग लगाना साधन है । अर्थात् नित्य या नैमित्तिक कार्य करते समय सम्यग्दर्शन आदिमें व्यवधान आ जाये तो पुनः उपायपूर्वक उसे करना साधन है। दूसरे भवमें भी सम्यग्दर्शनादिको साथ ले जाना अथवा उस भव में मरणपर्यन्त धारण करना निस्तरण है। तत्त्वार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । स्व और परके निर्णयको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। पापका बन्ध करानेवाली क्रियाओंके त्यागको चारित्र कहते हैं और इन्द्रिय तथा मनके नियमनको तप कहते हैं ।।२।। क्या आराधना चार ही प्रकारकी होती है ऐसी आशङ्कामें आचार्य कहते हैं गा०—जिनागममें संक्षेपसे आराधना दो प्रकारकी कही है। श्रद्धान विषयक प्रथम आराधना है। और दूसरी चारित्रविषयक आराधना है ।। ३ ॥ टी०-जिनवचनमें संक्षेपसे दो प्रकारकी आराधना कही है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहको जीतनेसे जिन होते हैं तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणको जीतनेसे सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। मोहको जीतनेसे वीतरागी और वीतद्वेषी होते हैं। सर्वज्ञ सर्वदर्शी और वीतराग तथा वीतद्वेषी महापुरुषोंका वचन जिनवचन कहलाता है। इससे असत्य बोलनेके कारणोंका अभाव होनेसे आगमके प्रामाण्यको ख्यापित किया है । वक्ताके अज्ञानसे अथवा रागद्वेषसे कहा गया बचन अयथार्थका बोध करानेसे अप्रमाण होता है। उस जिनवचनमें 'समासेण' अर्थात् संक्षेपसे 'आराहणा' अर्थात् आराधना, 'दुविधा' अर्थात् दो भेदरूप, 'भणिदा' अर्थात् कही है । पहली आराधना कौन है और दूसरी कौन है ? इसके उत्तर में कहते हैं-'सम्मत्तम्मि य पढमा' अर्थात् श्रद्धानविषयक प्रथम आराधना है और 'विदिया हवे चरितम्मि' चारित्र विषयक दूसरी आराधना है । उत्पत्तिकी अपेक्षा और गुणस्थानकी अपेक्षा दर्शनाराधनाको प्रथम तथा चारित्राराधनाको द्वितीय कहा है ऐसा कोई कहते हैं। उनका कहना है कि सम्यग्दर्शनरूप परिणामकी उत्पत्ति Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका प्रमत्तसंयतादिकं तु परमिति । श्रद्धानविरतिपरिणामयोयुगपदप्यस्ति प्रादुर्भावः, श्रद्धानवतो वा असंयतस्य पश्चाद्विरतिरुपजायते। तत्किमुच्यते 'उत्पत्त्यपेक्षयेति । असंयतसम्यग्दृष्टीनां कुतः क्रमो येन तदपेक्षया प्रथमद्वितीयव्यपदेशवृत्तिः स्यात् । उत्पत्त्यपेक्षया तत्रोक्त एव नियमः । अथागमे वचनपोपिर्यापेक्षया 'असंजदसम्मादिटिसंयदासंयदापमत्तसंयदा' इति वचनात् । तदेव वचनं किमर्थं क्रममाश्रित्य प्रवृत्तमुत नान्तरीयकतया ? न तावदस्ति परिणामानां नियोगभावी क्रमः । यदि स्यान्न योगपद्यं कदाचित्स्यात् । दृश्यते च सम्यग्दृष्टिसंयतासंयता इति चैकदा । अथ नानेकं वचनमेकः प्रयोक्तुं क्षमत इति वक्तुरिच्छानुविधायी क्रमः सूत्रविवक्षाकृतं प्राथम्यं द्वितीयता चेति वाच्यं न गुणस्थानापेक्षयेति । कि चोपजातदर्शनादिपरिणामस्यात्मनस्तद्गतातिशयवृत्तिराराधना साऽत्र प्रस्तुता । तत्र च प्राथम्यं द्वितीयता वा, तत्किमुच्यते उत्पत्त्यपेक्षया गुणस्थानापेक्षया चेति । अस्य सूत्रस्योपोद्धातमेवमपरे वर्णयन्ति-अस्मिन् शास्त्रे किमयमेव निश्चयश्चतुर्विधवाराधनेति, उतान्योऽपि विकल्पः संभवतीति ? अस्तीत्याहेति तदयुक्तम् ‘दसणणाणचरित्ततवाणमाराधणा भणिया' इत्यतीतहोनेके उत्तरकालमें चारित्ररूप परिणाम उत्पन्न होता है इसलिये दर्शनाराधना प्रथम है । असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पहले होता है प्रमत्तसंयत आदि बादमें होते हैं। किन्तु श्रद्धानरूप और विरतिरूप परिणाम एक साथ भी प्रकट होते हैं। अथवा सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न असंयतके पीछेसे भी चारित्र उत्पन्न होता है, तब उत्पत्तिकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीय हैं ऐसा कैसे कहते हैं ? असंयत सम्यग्दृष्टियोंका क्रम कैसे संभव है जिससे उसकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीय व्यवहार हो सके । उत्पत्तिकी अपेक्षासे उनके सम्बन्धमें नियम कहा ही है। . पूर्वपक्ष-आगममें वचनके पौर्वापर्यकी अपेक्षासे दर्शनाराधनाको प्रथम और चारित्राराधनाको द्वितीय कहा है, क्योंकि आगममें 'असंयतसम्यग्दृष्टी, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत' ऐसा वचन क्रम है। उत्तर-वही वचन किसलिये क्रमका आश्रय लेकर प्रवृत्त हुआ है ? क्या यह क्रम परस्परमें अविनाभावी होनेसे रखा गया है ? परिणामोंके क्रमसे ही होनेका तो कोई नियम नहीं है । यदि. होता तो एक साथ श्रद्धान और चारित्र भी नहीं होते। किन्तु सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत एक कालमें होते देखे जाते हैं। पूर्वपक्ष-एक व्यक्ति एक साथ अनेक वचनोंका प्रयोग नहीं कर सकता इसलिये क्रम वक्ताकी इच्छाका अनुसरण करता है । उत्तर-तब प्रथम और द्वितीयपनेको सूत्रकी विवक्षाकृत कहना चाहिये अर्थात् सूत्र में जिसकी प्रथम विवक्षा है वह प्रथम है और जिसकी विवक्षा बादमें है वह द्वितीय है । गुणस्थानकी अपेक्षा नहीं कहना चाहिये । दूसरे, जिस आत्मामें दर्शनादि परिणाम उत्पन्न हो गये हैं उसका दर्शन आदिके विषयमें विशेष अतिशय उत्पन्न करनेका नाम आराधना है। वही आराधना यहाँ प्रस्तुत है। उसके विषयमें उत्पत्तिकी अपेक्षा या गुणस्थानकी अपेक्षा प्रथमपना और द्वितीयपना कैसे आप कहते हैं ? अन्य कुछ व्याख्याकार इस गाथासूत्रका उपोद्धात इस प्रकार कहते हैं-इस शास्त्रमें क्या यही निश्चय है कि आराधना चार ही प्रकार की है अथवा कोई दूसरा भी विकल्प संभव है ? यदि कहते हो 'है' तो ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि गाथामें दर्शन ज्ञान चारित्र और तप आरा .. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ भगवती आराधना कालाभिधानक्रियातः प्रतीयते नास्य शास्त्रस्य व्यापार इति । यद्यस्य व्यापारः शास्त्रस्य वक्तूमिष्ट: स्यात् 'भण्णदि' इति ब्रूयात् । 'जिणवयणे भणिया दुविहा आराधणा' इति वचनात् । संक्षेपनिरूपणापि तत्स्थैवेतिनेह संक्षेपवाच्यम् । वस्तु बहूपन्यस्तं दुरवगमं मन्दबुद्धीनामिति । तदनुग्रहाय स्वल्पस्योपन्यासः । स संक्षेपस्त्रिप्रकारः-वचनसंक्षेपोऽर्थसंक्षेपस्तदुभयसंक्षेपश्चेति । वचनबहुत्वस्यार्थनिश्चयो न जायते जडानामिति वचनं संक्षिप्यते । अर्थस्तु सप्रपञ्च एव । अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः प्रस्तुतस्यार्थसंक्षेपः । वचनानि तु बहूनि । तस्योभयसंक्षपः पाश्चात्यः । द्विविधाराधनेति वचनसंक्षपो नार्थसंक्षपः । ज्ञानस्याराधना तपसश्च विद्यमानापि न वचनेनोच्यते । परमुखेनैदावबोधयितु शक्यत इति । दंसणमाराहंतेण णाणमाराहियं हवे णियमा । णाणं आराहतेण दंसणं होइ भयणिज्जं ॥ ४ ॥ 'दसणमाराहतेण' दर्शनाराधनायां कथितायां ज्ञानाराधनापि शक्यते प्रतिपत्तुम, अग्न्यानयनचोदनायां धना 'भणिता' 'कही है' इस प्रकार अतीत काल सम्बन्धी क्रियाका प्रयोग किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि इस शास्त्रका उसमें व्यापार नहीं है। यदि उनको कथन करनेमें इस शास्त्रका व्यापार इष्ट होता तो 'भण्णदि' ऐसा लिखते। किन्तु वे कहते हैं 'जिणवयणे भणिया दुविहा आराधणा ।' जिनवचनमें दो प्रकारकी आराधना कही है। उसीमें संक्षेप भी कथन किया है इसलिये यहाँ संक्षेप भी नहीं कहना चाहिये । इसका समाधान यह है कि बहत विस्तारसे कथन मन्दबद्धियोंके लिये दरवगम होता है। वे उसे समझनेमें असमर्थ होते हैं। उनके कल्याणके लिये संक्षेप कथन किया जाता है। उस संक्षेपके तीन प्रकार हैं-वचन संक्षेप, अर्थ संक्षेप और उभय संक्षेप । वचनका विस्तार होने पर जड़बुद्धि अर्थका निश्चय नहीं कर सकते। इसलिये वचनका संक्षेप किया जाता है । अर्थका तो विस्तार रहता ही है। बहुतसे अनुयोगद्वार आदिका उपन्यास न करके केवल दिशामात्रका बतलाना प्रस्तुत विषयका अर्थ संक्षेप है। वचन तो बहुत है। उन दोनोंका अर्थात् वचन और अर्थका संक्षेप उभय संक्षेप है। 'दुविहा आराधणा' यह वचन संक्षेप है, अर्थ संक्षेप नहीं है। ज्ञानकी आराधना और तपकी आराधनाके विद्यमान होते हुए भी उन्हें वचनसे नहीं कहा । उन्हें परमुखसे ही अर्थात् दर्शन और चारित्राराधनाके द्वारा ही जाना जा सकता है। ___ भावार्थ-पहले विस्तारमें रुचि रखने वाले शिष्योंको दृष्टिमें रखकर चार प्रकारकी आराधना कही। पीछे संक्षेप रुचि शिष्योंकी अपेक्षा उसे दो प्रकारका कहा, क्योंकि दर्शनका ज्ञानके साथ तथा चारित्रका तपके साथ अविनाभाव होनेसे दर्शनाराधनामें ज्ञानाराधनाका और चारित्राराधनामें तप आराधनाका अन्तर्भाव होता है। तथा सम्यग्दर्शन आराधनाके होने पर ही ज्ञानाराधनापूर्वक चारित्राराधना होती है ॥ ३ ॥ गा०-दर्शनकी आराधना करने वालेके द्वारा नियमसे ज्ञानकी आराधना होती है । किन्तु ज्ञानकी आराधना करने वालेके द्वारा दर्शनकी आराधना भजनीय है, होती भी है, नहीं भी होती ॥४॥ टी०–'दसणमाराहतेण' अर्थात् दर्शन आराधनाका कथन करने पर ज्ञान आराधनाको भी १. तत्रैव-मु० । २. परमसुखे-आ० । .. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका १३ शरावाद्यन्यतमभाजनमात्रप्रतिपत्तिवत् । ननु चान्तरेणाधारमानयनं न संभवतीति भवत्यनभिहितेऽपि भाजनमात्रे प्रतिपत्तिरिह कथम् ? इहाप्यविनाभावादित्याचष्टे 'दंसणमाराधंतेण' | अत्रापरे संबन्धमारम्भयन्ति गाथायाः । यदि द्विविधा आराधना 'चतुविधाराधनाफलं प्राप्ताः सिद्धाः ' इति प्रतिज्ञा हीयते द्वयोरसंग्रहात् इति चेत् नास्मिन्नपि विकल्पे तयोरपि संग्रहार्थम् । कथं 'दंसणमाराधं तेण ' इति प्रतिज्ञा हीयते इति । अत्र प्रतिज्ञा शब्देन किमुच्यते ? साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञेति तावन्न गृहीतम् । चतुर्विधाराधनाफलप्राप्तत्वस्येह साध्यता नास्ति । सिद्धमेव हि चतुर्विधाराधनाफलप्राप्तत्वमनूद्यत इति । अथाभ्युपगतिः प्रतिज्ञा सा किन्नोपपद्यते ? सन्ति चतस्रः आराधनास्तासां च फलं ते प्राप्तवन्तस्ततः सत्यभ्युपगन्तव्ये कथमभ्यु पगमानुपपत्तिः ? चतुर्विधेत्युक्तवन्तः द्विविधेति कथं न विरुद्धमिति पूर्वापरव्याहतिरिति चोद्यते । तथा यश्चोद्यमेव चोद्यते समासेन द्विविधेति वचनात् प्रपञ्चनिरूपणायां चतुविधा तत्को विरोधः ? तेन विरोधपरिहाराय चागतेयं गाथा | 'दंसणं' श्रद्धानं रुचिः, 'आराधतेण' आराधयता, 'णाणं' सम्यग्ज्ञानं, 'आराधिदं' आराधितं 'हवे' भवेत् 'नियमा' निश्चयेन । यस्य हि यद्विषया श्रद्धा तस्य कथंचिदप्यज्ञाने न सा भवति । न हि निर्विषया रुचिः जानना शक्य है । जैसे आग लानेकी प्रेरणा करने पर उसको लानेके लिए सकोरा आदि किसी एक पात्र मात्रका बोध हो जाता है । शङ्का- - बिना किसी आधारके आगका लाना संभव नहीं है इसलिये पात्रमात्रका कथन न करने पर उसका बोध हो जाता है । किन्तु यहाँ यह कैसे संभव है ? समाधान-- यहाँ भी अविनाभाव होनेसे 'दसंणमाराहंतेण' इत्यादि कहा है । यहाँ अन्य व्याख्याकार गाथाके सम्बन्धका आरम्भ इस प्रकार करते हैं- यदि आराधनाके भेद दो हैं तो 'चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त सिद्ध हैं' यह प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं होती; क्योंकि इसमें शेष दोका संग्रह नहीं किया है । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ यह बतलाते हैं कि उन दोमें भी शेष दोका संग्रह होता है । उसीके लिये 'दंसणमा राहंतेण' आदि कहा है । तथा आप कहते हैं कि प्रतिज्ञाकी हानि होती है । यहाँ प्रतिज्ञा शब्दसे आप क्या कहते हैं ? साध्यके निर्देशको प्रतिज्ञा कहते हैं । उसका तो यहाँ ग्रहण नहीं किया है; क्योंकि 'चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त' यह यहाँ साध्य नहीं है । चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त होना तो सिद्ध है, साध्य नहीं है । उसीका यहाँ अनुवाद मात्र किया है । यदि प्रतिज्ञाका अर्थ स्वीकृति है तो वह यहाँ क्यों नहीं उत्पन्न होती ? चार आराधनाएँ हैं और उनका फल सिद्धोंने प्राप्त किया है ऐसा स्वीकार करने पर स्वीकृतिको अनुपपत्ति कैसे हुई । शंका --- पहले कहा आराधनाके चार भेद हैं अब कहते हैं दो भेद हैं । तो यह पूर्वापर विरुद्ध कैसे नहीं है ? समाधान -- आप व्यर्थ ही तर्क में कुतर्क लगाते है । ग्रन्थकार कहते हैं कि संक्षेपसे आराधनाके दो भेद हैं और विस्तारसे कहने पर चार भेद हैं इसमें विरोध कैसा ? अतः विरोध दूर करनेके लिये ही यह गाथा आती है । अस्तु 'दंसण' अर्थात् श्रद्धान या रुचिकी 'आराधतेण' आराधना करनेसे 'णाण' अर्थात् सम्यग्ज्ञान 'आराधिदं' आराधित, 'हवे' होता है । 'णियमा' निश्चयसे । जिसकी जिस विषयमें श्रद्धा होती है। उसका उस विषय में अज्ञान होने पर किसी भी तरह वह श्रद्धा नहीं होती । रुचि विषयके बिना Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ भगवती आराधना प्रवर्तते । बुद्धिपरिगृहीतवस्तुविषया श्रद्धेत्यविनाभावः श्रद्धाया ज्ञानेन । अत्रापरा व्याख्या-आत्मनो विषयाकारपरिणामवत्तिानं तदावरणक्षयोपशमजनितं, भम्यावरणापगमे तोयजन्मवत् । तद्गतविशुद्धिः प्रसन्नता अभिरुचिः श्रद्धा । श्रतिनिरूपितार्थविषया सत्यभावना दर्शनं । तदर्शनमोहोपशमक्षयोपशमनिमित्तं तोया'श्रयपंकाभावे जलप्रसादवत् । तस्मिन्नाराध्यमाने ज्ञानसिद्धिरवश्यभाविनी निराश्रयधर्मस्य केवलसिद्धय भावादिति ।। तत्रेदं परीक्ष्यते, विषयाकारपरिणतिरात्मनो यदि स्याद्रपरसगन्धस्पर्शाद्यात्मकता स्यात्तथा च'अरसमरूवमगंधं अव्वंत्तं चेदणागुणमसई'--[समय० ४९] इत्यनेन विरोधः । विरुद्धश्च नीलपीतादिपरिणामो नैकत्र यज्यते । एकदा आकारद्वयसंवेदनप्रसंगश्चबाह्यस्यैकं नीलादिविज्ञानगतमपरम् । विज्ञानगतविशुद्धिः प्रसन्नता अभिरुचिः श्रद्धेति वाऽसमीचीनं गदितम् चैतन्यस्य धर्मः श्रद्धानं नतु ज्ञानं, ज्ञानधर्मत्वे क्षायोपशमिकज्ञानविनाशे कथमवस्थितिदर्शनस्य । न हि धर्मिणि विनष्टे धर्मस्यावस्थितिः । चैतन्यमविनाशि तदाश्रयं तदिति चेत् ज्ञानस्य धर्मता नश्यति । कि च यो यस्य धर्मः स तस्य स्वरूपम् । न चान्यस्य धर्मिणो रूपं धर्मान्तरस्य प्रभवति । न हि बलाकायाः शुक्लता कुन्दकुसुमस्य कदाचन । एवं मतेः प्रसन्नता श्रुतादेन स्यात्, श्रुतादेर्वा प्रसन्नता मतेरिष्यते । एवं ज्ञानभे नहीं होती । बुद्धिके द्वारा ग्रहण की गई वस्तुमें श्रद्धा होती है अतः श्रद्धाका ज्ञानके साथ अविनाभाव है। ___ इस गाथाको लेकर एक अन्य व्याख्या इस प्रकार है-आत्माके विषयाकार परिणमनको ज्ञान कहते हैं । वह ज्ञान ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है । जैसे भूमिरूप आवरणको हटा देने पर पृथ्वीसे पानीका जन्म होता है। उस ज्ञानमें जो निर्मलता होती है उसे प्रसन्नता या स्वच्छता कहते हैं। और उसमें अभिरुचिको श्रद्धा कहते हैं। शास्त्रमें निरुपित अर्थक विषयमें सत्यभावना श्रद्धा है । वही दर्शन है। वह दर्शनमोहके उपशम या क्षयोपशमसे होता है। जैसे पानीमें मिश्रित कीचडके अभावमें जल निर्मल होता है। उस दर्शनकी आराधना करने पर ज्ञानकी सिद्धि अवश्य होती है क्योंकि जिस धर्मका कोई आश्रय नहीं हैं उसकी सिद्धि एकाकी नहीं होती। अब इस व्याख्याकी परीक्षा करते हैं यदि आत्मा विषयाकार रूप परिणमन करता है तो विषयकी तरह आत्मा रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादिमय हो जायेगा। और ऐसा होने पर जो आत्माको अरस, अरूप, अगन्ध, अव्यक्त, अशब्द और चेतना गुणवाला कहा है उसके साथ विरोध आता है। तथा नील पीत आदि रूप परिणाम परस्परमें विरुद्ध होनेसे एक जगह नहीं रह सकते । तथा एक ही कालमें दो आकारोंको जाननेका प्रसंग आता है एक बाह्य नीलादि और दूसरा ज्ञानगत आकार । तथा ज्ञानमें जो विशुद्धि या प्रसन्नता है उसे अभिरुचि या श्रद्धा कहना भी समीचीन नहीं है। श्रद्धान चैतन्यका धर्म है, ज्ञानका नहीं। यदि उसे ज्ञानका धर्म माना जायगा तो क्षायोपशमिक ज्ञानके नष्ट होने पर दर्शन कैसे रह सकेगा। धर्मीके नष्ट होने पर धर्म नहीं रहता। यदि कहोगे कि चैतन्य अविनाशी है अतः दर्शनका वही आश्रय है तो वह ज्ञानका धर्म नहीं हो सकता। तथा जो जिसका धर्म होता हैं वह उसका स्वरूप होता है एक धर्मीका स्वरूप दूसरे धर्मीका नहीं हो सकता। बगुलोंकी पंक्तिका धर्म शुक्लता कभी भी कुन्दके फूलोंका धर्म नहीं हो सकती। इसी तरह मतिज्ञानकी निर्मलता १. तोयाशय-आ० । २. सिद्धभा-अ० आ० । ३. यदि न स्या-अ० आ० । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका तद्गोचराया अपि प्रसत्तेर्भेद इति क्षायिक्यां का वार्ता न तस्याः प्रत्यग्रायाः प्रादुर्भूतिः प्रलयो वा । न हि दर्शन मोहोदयं विना दर्शनस्याभावो युज्यते । यदि स्याद्दर्शनमोहनीय कल्पना अघटमाना भवेत् । अथ याथात्म्यविषया श्रद्धा आत्मप्रतिबंधकसद्भावान्नोदेति, तदपाये उद्गच्छति, यदि प्रतिबंधकारि किंचिन्न स्यात् । आत्मनि परिणामिनि सति किमिति सदा न भवेत् ? अतत्परिणामत्वं नात्मनि कदाचिदपि भवेत् । तत् अनुभवसिद्धश्चासौ सहकारिकारणानामसान्निध्यादात्मा श्रद्धानरूपेण न परिणमते । न तु किंचित्प्रतिबंधकमस्येति चेत् किं तत्सहकारि यस्याभावादनुत्पत्ति श्रद्धायाः ? अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि हेतुफलभावः सर्व एव, तावंतरेण हेतुता प्रतिज्ञामात्रत एव कस्यचित्सा वस्तुचितायामनुपयोगिनीति प्रतिबंधकसद्भावानुमानमागमेऽभिमतं तदेवं सति न घटते । किंचित् श्रुतप्ररूपितार्थविषया सत्यभावेनेति वा संबंद्धम् । अवध्यादिनिरूपितार्थविषया सत्यभावना किं न दर्शनं ? अवध्यादिकमपि वस्तुयाथात्म्यसंस्पर्श । अथ श्रतग्रहणं समीचीनज्ञानोपयोगोपलक्षणमिति मन्यसे भवतु अलमतिप्रसंगेन "समत्तणाणदंसण वीरियसुहमं तहेव अवगहणं । अगुरुलहुमव्वा बाहमट्ठगुणा होन्ति सिद्धाणं ॥ [ ] इत्यनेन च व्याख्या विरुध्यते । गुणान्तरत्वेन उपन्यासानुपपत्तेः । क्षायिकक्षायोपशमिकयोर्भेदोऽस्ति श्रुतादि ज्ञानोंकी नहीं हो सकेगी और न श्रुतादि ज्ञानकी निर्मलता मतिज्ञानकी । इस प्रकार ज्ञान भेद होने पर उन ज्ञानोंमें होने वाली निर्मलता में भी भेद होता है । यह क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी बात है । क्षायिककी क्या बात है । क्षायिकी निर्मलता न तो नवीन उत्पन्न होती है न नष्ट होती है । दर्शन मोहके उदयके बिना दर्शनका अभाव नहीं होता। यदि हो तो दर्शन मोहनीय कर्मकी मान्यता नहीं बनती । १५ यदि कहोगे कि प्रतिवन्धकका सद्भाव रहनेसे आत्मामें यथार्थ विषयक श्रद्धा नहीं होती, यदि कोई प्रतिबन्धक नहीं होता तो उसके अभाव में श्रद्धा प्रकट होती है । यदि आत्मा परिणामी है तो सदा श्रद्धा क्यों नहीं रहती । यदि आत्मा अपरिणामी है तो कभी भी श्रद्धा प्रकट नहीं Aai | इसलिये यह अनुभव सिद्ध है कि सहकारी कारणोंके न रहनेसे आत्मा श्रद्धान रूपसे परिमन नहीं करता, उसका प्रतिबन्धक कोई नहीं है । तब प्रश्न होता है कि वह सहकारी कौन है जिसके अभाव के कारण श्रद्धाकी उत्पत्ति नहीं होती । सर्वत्र कार्यकारणभाव अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा ही जाना जाता है । अन्वय व्यतिरेक के बिना केवल कहने मात्र से ही यदि किसीमें कार्यकारणभाव हो तो वस्तु विचार में उसका कोई उपयोग संभव नहीं है उसमें वह अनुपयोगी है । इसीसे आगममें प्रतिबंधकके सद्भावके अनुमानको मान्य किया गया है । अर्थात् प्रतिबन्धकके होनेसे श्रद्धा प्रकट नहीं होती और उसके अभाव में प्रकट होती है । ऐसा होने पर आपका उक्त कथन घटित नहीं होता । तथा शास्त्र में निरूपित अर्थको विषय करने वाली सत्यभावना दर्शन है यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि तब प्रश्न होता है कि अवधि आदि ज्ञानोंके द्वारा निरूपित अर्थको विषय करने वाली सत्यभावना दर्शन क्यों नहीं है ? क्योंकि अवधि आदि ज्ञान भी यथार्थ वस्तुको विषय करते हैं । यदि कहोगे कि समीचीन ज्ञानोपयोग लक्षण वाला श्रुत ज्ञान है इसलिये उसका ग्रहण किया है तो आगममें जो सिद्धोंके आठ गुण-सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु १. तावदसति - आ० मु० । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ भगवती आराधना ... ...wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Howwwwwwwwwwwwww वा न वा ? यदि नास्ति भावपंचकनिरूपणाकारिणा आगमेंन विरोधः । अथ अस्ति भेदःपरिणामः परिणामान्तरस्य स्वरूपं न भवति । परिणामक वस्य परिणामिस्वरूपता न्याय्या । यो भिन्नप्रतिबंधकापायजन्यौ, न तावन्योऽन्यस्य धर्मर्मिणौ यथा अवधिकेवले भिन्नप्रतिबंधकापायजन्ये, तथा न ज्ञानदर्शने । ज्ञानाराधना चारित्राराधनेति द्वैविध्यं कस्मान्नोपन्यस्तं इत्यत्र चोद्य प्रतिविधानायाह-णाणमाराधंतेण दंसणं होइ भयणिज्जं ।' ज्ञानशब्दः सामान्यवाची संशये, विपर्यासे, समीचीने च वृत्तः । संशयज्ञानं, विपर्यासज्ञानं, सम्यग्ज्ञानमिति प्रयोगदर्शनात् । तेन ज्ञाने परिणत आत्मा नियोगतस्तत्त्वश्रद्धाने विपरिणमत एवेति न नियोगोऽस्ति, मिथ्याज्ञानपरिणतस्य तत्त्वश्रद्धाया अभावात्। ततो ज्ञानस्य दर्शनाविनाभावित्वस्याभावात् न ज्ञानाराधनोक्त्या दर्शनाराधनावगंतु शक्येति न तथा संक्षेपाभिधानमागमे प्रक्रांतमिति भावार्थः। ‘णाणं' ज्ञानं । 'आराधतेण' आराधयता । 'दसणं' दर्शनं । 'होदि' भवति । 'भयणिज्ज' भजनीयं विकल्प्यम् । अत्र दसणशब्देन दर्शनविषयमाराधनमुच्यते । ततोऽयमर्थ:दर्शनाराधना भाज्यति भजनीयतया अविनाभावित्वाभावः सूचितः । सम्यग्ज्ञाने आराधिते भवत्याराधिता, मिथ्याज्ञानाराधनायां नेति भजनीयता । अथवा ज्ञानाराधना चारित्राराधनेति च शक्यते संक्षेप्तम । और अव्यावाध कहे हैं उसके साथ उक्त व्याख्याका विरोध आता है। क्योंकि एक गुणका अन्य गुणरूपसे उपन्यास नहीं किया जा सकता। तथा क्षायिक और क्षायोपशमिकमें भेद है या नहीं ? यदि नहीं है तो पाँच भावोंका निरूपण करनेवाले आगमसे विरोध आता है । यदि भेद है तो एक परिणाम दूसरे परिणामका स्वरूप नहीं होता, इसलिए परिणामोंके समूहको परिणामीका स्वरूप मानना न्याय है। तब जो भिन्न प्रतिबन्धकोंके अभावमें उत्पन्न होते हैं वे परस्परमें एक दूसरेके धर्म-धर्मी नहीं हो सकते। जैसे अवधिज्ञान और केवलज्ञान, अवधिज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण रूप भिन्न प्रतिवन्धकोंके अभावमें उत्पन्न होनेसे परस्परमें धर्म-धर्मी नहीं है उसी तरह ज्ञान और दर्शन भी परस्परमें धर्म-धर्मी नहीं हैं । शंका-ज्ञानाराधना और चारित्राराधना इस प्रकारसे दो आराधना क्यों नहीं कही ? समाधान-इसका उत्तर देते हैं-'णाणमाराधतेण दंसणं होइ भयणिज्जं ।' यहाँ ज्ञान शब्द सामान्यवाची है क्योंकि संशय, विपर्यय और समीचीनमें रहता है । संशयज्ञान, विपरीतज्ञान, सम्यग्ज्ञान ऐसा प्रयोग देखा जाता है। इसलिए ज्ञानरूप परिणमन करनेवाला आत्मा नियमसे तत्त्व श्रद्धान रूपसे परिणमन करता ही है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि जो आत्मा मिथ्याज्ञान रूपसे परिणमन करता है उसके तत्त्व श्रद्धाका अभाव होता है, इसलिए ज्ञान दर्शनका अविनाभावी नहीं है । अतः ज्ञानाराधनाके कहनेसे दर्शनाराधनाका ग्रहण शक्य नहीं है । इसलिए आगममें उस प्रकारसे संक्षेप कथन नहीं किया है। अतः ज्ञानकी आराधनासे दर्शनकी आराधना भजनीय है। यहाँ दर्शन शब्दसे दर्शन विषयक आराधनाको कहा है। अतः यह अर्थ हुआ कि दर्शन आराधना भजनीय है। इससे ज्ञानाराधनाके साथ दर्शनाराधनाके अविनाभावके अभावको सूचित किया है। अर्थात् सम्यग्ज्ञानकी आराधना करने पर तो दर्शनकी आराधना होती है, किन्तु मिथ्याज्ञानको आराधना करने पर दर्शनकी आराधना नहीं होती है। अथवा ज्ञानाराधना और चारित्राराधना इस प्रकारसे भी संक्षेप किया जा सकता है। भावार्थ-दर्शन श्रद्धानको कहते हैं। श्रद्धान अज्ञात वस्तुमें नहीं होता। अतः श्रद्धाका Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १७ ननु च ज्ञानमनन्तरेणापि दर्शनं वर्तते, यतो मिथ्यादृष्टिरपि ज्ञानस्याराधको भवति । अतोऽविनाभावा भाव इत्यत आह सुद्धणया पुण णाणं मिच्छादिहिस्स वेति अण्णाणं । तम्हा मिच्छादिट्ठी णाणस्साराहओ णेव ।। ५॥ शुद्धनयाः पुनः । अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमधर्मपरिच्छेदस्तदविनाभाविधर्मबलप्रसूतो नयः । तथा चोक्तम इति । "उपपत्तिबलादर्थपरिच्छेदो नयः' इति । शुद्धो नयो येषां ते शद्धनयाः। निरपेक्षनयनिरासाय शुद्धविशेषणम् । नित्यमेव सर्वथा क्षणिकमेवेति ये परिच्छेदास्ते विपर्यासरूपास्तथाविधस्य प्रतिपक्षधर्मानपेक्षस्य वस्तुनि रूपस्याभावात । सापेक्ष रूपं निराकांक्षतारूपेण दर्शयतः प्रत्ययस्य अतस्मिस्तदिति ज्ञानं भ्रान्तमिति भ्रान्तता । तद्दोषरहितता शुद्धता । तया हि-कृतकत्वेन अनित्यतामेव वस्तुनः प्रत्येति ज्ञानं न तत्स ज्ञानके साथ अविनाभाव है। अतः गाथा सूत्रमें ठीक ही कहा है कि तत्त्व श्रद्धानकी आराधना करने पर सम्यग्ज्ञानकी आराधना अवश्य होती है। इस पर प्रश्न होता है कि ज्ञानाराधना और चारित्राराधना ऐसे दो भेद क्यों नहीं रखे ? इसके उत्तरमें कहा है कि सम्यग्ज्ञानकी आराधना करने पर सम्यग्दर्शनकी आराधना होती हैं किन्तु मिथ्याज्ञानकी आराधनामें सम्यक्त्वकी आराधना नहीं होती। इस प्रकार ज्ञान और दर्शनमें अविनाभाव न होने से ज्ञानाराधनामें दर्शनाराधना भाज्य है। इस पर पुनः प्रश्न होता है कि जब 'सम्यग्ज्ञानकी आराधना' कहने पर सम्यक्त्वकी आराधनाका बोध हो सकता है तो वैसा क्यों नहीं कहा ? इसका उत्तर है कि ज्ञानके सम्यक् व्यपदेशमें सम्यक्त्व मुख्य हेतु है। सम्यक्त्वके विना ज्ञान सम्यक् नहीं कहलाता । अतः सम्यग्ज्ञानका प्राधान्य नहीं है ॥४॥ 'ज्ञानके विना भी सम्यग्दर्शन होता है क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी ज्ञानका आराधक होता है। अतः ज्ञानके साथ सम्यग्दर्शनका अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। इस आशंकाका उत्तर देते हैं गा०-किन्तु शुद्धनय दृष्टि वाले ज्ञानी जन मिथ्यादृष्टिके ज्ञानको अज्ञान कहते हैं, इसलिए मिथ्यादृष्टि ज्ञानका आराधक नहीं ही होता ॥५।। टो०-अनन्त धर्मात्मक वस्तुके किसी एक धर्मके जाननेको नय कहते हैं । यह नय उस धर्मके साथ ही रहनेवाले अन्य धर्मोंके बलसे उत्पन्न होता है। अर्थात् नय जिस धर्मको जानता है उस धर्मके साथ जो अनन्त धर्म उस वस्तुमें रहते हैं उनका निषेध नही करता। किन्तु उनको गौण करके एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुको जाननेका नाम नय है। कहा भी है-युक्तिके बलसे वस्तुके जाननेको नय कहते हैं । शुद्ध नय जिनका है वे शुद्धनय होते हैं । यहाँ निरपेक्ष नयके निरासके लिए 'शुद्ध' विशेषण लगाया है। वस्तु सर्वथा नित्य ही है अथवा सर्वथा क्षणिक ही है इस प्रकारके जो ज्ञान हैं वे विपरीत रूप है क्योंकि इस प्रकारके प्रतिपक्षी धर्मोंसे निरपेक्ष रूपका वस्तुमें अभाव है। वस्तुका स्वरूप सापेक्ष है उसे जो निरपेक्ष रूपसे दिखलाने वाला ज्ञान है, वह भ्रान्त है । क्योंकि जो जिस रूप नहीं है उसे उस रूप दिखलाता है वह ज्ञान भ्रान्त होता हैं। और जो उस दोषसे रहित है वह शुद्ध है। इसका खुलासा इस प्रकार है-वस्तुको उत्पत्तिको देखकर मिथ्याज्ञान वस्तुको सर्वथा अनित्य ही मानता है। किन्तु वह सर्वथा अनित्य नहीं है। समस्त Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ भगवती आराधना वथा वस्त्वनित्यं, नित्यानित्यात्मकत्वात्सकलस्य । यदि हि नित्यमेव स्यात् क्रियमाणतानुरूपहेतुकदंबकेना'यक्ता तस्यावदतो नित्यं भवत्येव च न भवतीति दृश्यप्रतिपत्तयः ॥ शुद्धा नया येषां प्रतिपत्तणां ते शुद्धनयाः । 'पुण' पुनः । णाणं ज्ञानमित्यभिमतं परस्य । 'मिच्छादिहिस्स' मिथ्यादृष्टेः । 'वैति' ब्रुवते । 'अण्णाणं' अज्ञानं इति । न ज्ञानशब्दः सामान्यवाची । किन्तु यथार्थप्रतिपत्तिरेव ज्ञानशब्दाभिधेयेति । ज्ञायते मन्यते अर्थः परिच्छिद्यते येन तज्ज्ञानम् । वस्त्वन्यभूतं च रूपमादर्शयता नार्थः परिच्छिद्यते तस्मान्न मिथ्याज्ञानं ज्ञानशब्दस्यार्थः, तदज्ञानमित्येव ग्राह्यम् ॥ ननु च "गदि ईदिये च काये जोगे वेदे कसाय णाणे य । संजमदंसणलेस्सा भविया सम्मत्तसण्णि आहारे ॥" -[प्रा० ५० सं० ११५७।] इत्यत्र ज्ञानशब्दः सामान्यवाची सत्यं, ज्ञातिआनमिति व्युत्पत्तौ सा निरूपणा सामान्यशब्द इति ।। 'तम्हा' तस्मात् । 'मिच्छादिट्ठों' तत्त्वश्रद्धानरहितः 'णाणस्साराधको ण होदित्ति' पदघटना । ज्ञानं नाराधयतीत्यर्थः॥ . यदुक्तं अज्ञाने दर्शनाभाव इति किं तदज्ञानं कस्य भवतीति ? तत इदं सुत्र इति। तदतिपेलवं । कि तदज्ञानमित्यस्य प्रश्नस्य प्रतिवचनं न सूत्रेऽस्ति । मिथ्याज्ञानलक्षणप्रतिपादनपरमिथ्यादृष्टिसम्बन्धिज्ञानत्वमेव वस्तु समूह नित्यानित्यात्मक है-कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है । यदि वस्तु सर्वथा नित्य होती तो उसको करनेके अनुरूप कारणोंका अभाव होता। अतः वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। जिन ज्ञाताओंके नय शुद्ध होते हैं वे शुद्धनय वाले होते हैं। ऐसे शुद्धनय वाले मिथ्यादृष्टिके ज्ञानको अज्ञान कहते हैं। यहाँ ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञानका वाचक नहीं है किन्तु ज्ञान शब्दका अर्थ यथार्थ ज्ञान ही है। जिसके द्वारा वस्तु जानी जाती है वह ज्ञान है। जो वस्तुमें नहीं पाये जानेवाले रूपको दर्शाता है वह वस्तुको नहीं जानता। अतः ज्ञान शब्दका अर्थ मिथ्याज्ञान नहीं है । मिथ्याज्ञान अज्ञान ही है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। शंका-'गइ इंदिये च काये' इत्यादि गाथाके द्वारा चौदह मार्गणा बतलाई है। उनमें भी ज्ञान शब्द आता है जो ज्ञान सामान्यका वाचक है ? । समाधान-आपका कहना सत्य है। 'ज्ञातिनि' जानना ज्ञान है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार वहाँ ज्ञान शब्दसे ज्ञान सामान्यका ग्रहण किया है। 'तम्हा' इस कारणसे 'मिच्छादिट्टी' जो तत्त्व श्रद्धानसे रहित है वह, णाणस्साराधको न होदि' ज्ञानका आराधक नहीं होता । इस प्रकार पदोंका सम्बन्ध होता है। इस गाथाकी अन्य टीकाकार इस प्रकार व्याख्या करते हैं.--पूर्वमें जो अज्ञान अवस्था में सम्यग्दर्शनकी आराधनाका अभाव कहा है वह अज्ञान क्या है और किसको होता है, इसको बतलानेके लिए यह गाथा सूत्र है। किन्तु उनका यह कथन अयुक्त है। 'वह अज्ञान क्या है' इस प्रश्नका कोई उत्तर इस गाथामें नहीं है। उनका यह भी कथन है कि मिथ्याज्ञानका लक्षण कहते हुए जो मिथ्यादृष्टिसे सम्बद्ध ज्ञानको अज्ञान कहा है उसमें उक्त दोनों प्रश्नोंका उत्तर आता है। १. युक्तता स्यास्यादतो-मु० । यक्तता तस्याव-ज० । २. रूपयता दर्शयता-आ० । । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ विजयोदया टीका अज्ञानलक्षणमित्युभयोरपि प्रतिवचनमिति विकल्प्यते । एवमपि 'तम्हा न मिच्छदिठिठ' इति सूत्रे मिथ्यादृष्टेनिस्याराधकत्वाभावमेव सूत्रकार उपसंहरति । तत्परित्यज्यासू त्रितमुपादेयमिति केयं स्वतंत्रता ? चारित्राराधना कथ्यते । चतुर्थ्या आराधनायाः प्रतिपत्तिक्रमं दर्शयन्नाह संजममाराहंतेण तओ आराहिओ हवे णियमा । आराहतेण तवं चारित्तं होइ भयणिज्जं ॥ ६ ॥ 'संजममाराहंतेण' संयम इत्यनेन शब्देन इह चारित्रमित्युच्यते। कर्मादाननिमित्तक्रियाम्य उपरमः संयमः । स च चारित्रम् । यथा चाभ्यधायि-'कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो ज्ञानवतश्चारित्रमिति"। 'संजम' चारियं, 'आराधतेण' आराधयता । 'तवो' तपः । 'आराधियो' आराधितं । 'हवे' भवेत । "णियमा' अवश्यमेव । कथं ? इह अनशनं नाम अशनत्यागः । स च त्रिप्रकारः । मनसा भुले, भोजयामि, भोजने व्यापृतस्यानुमतिं करोमि । भुञ्ज, भुक्ष्व, पचनं कुनिति वचसा । तथा चतुर्विधस्याहारस्याभिसंधिपूर्वकं कायेनादानं, हस्तसंज्ञायाः प्रवर्तनं अनुमतिसूचनं कायेन । एतासां मनोवाक्कायक्रियाणां कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशनं चारित्रमेव । योगत्रयेण तृप्तिकारिण्यां भुजिक्रियायां दर्पवाहिन्यां निराकृतिः अवमोदर्यम् । तथा आहारसंज्ञाय जयो वत्तिपरिसंख्यानम । रसगोचरगाद्धर्यत्यजनं त्रिधा रसपरित्यागः । कायसखाभिलाषत्यजनं कायक्लेशः । यदि इसे मान भी लिया जाये तब भी जो गाथामें 'तम्हा वा मिच्छादिट्ठी' इत्यादि कहा है वह बतलाता है कि गाथा सूत्रके कर्ता आचार्य 'मिथ्यादृष्टि ज्ञानका आराधक नहीं होता' यही उपसंहार करते हैं । अतः उसे छोड़कर जो बात गाथा सूत्रमें नहीं कही, उसे ग्रहण करना, यह कैसी स्वतन्त्रता है ॥५॥ आगे चारित्राराधनाको कहते हैं। उसके साथ चौथी तप आराधनाकी प्रतिपत्तिका क्रम दिखलाते हैं गा०-संयमकी आराधना करने वालेके द्वारा तप नियमसे आराधित होता है। किन्तु तपकी आराधना करने वालेके द्वारा चारित्र भजनीय होता है ॥ ६ ॥ टी०-'संजममाराहतेण' यहाँ आगत संयम शब्दसे चारित्रका ग्रहण होता है। कर्मोंके ग्रहण में निमित्त क्रियाओंके त्यागको संयम कहते हैं और वह चारित्र है। कहा भी है-ज्ञानी पुरुषके कर्मोंके ग्रहणमें निमित्त क्रियाओंके त्यागको चारित्र कहते हैं। चारित्रकी आराधना करने वालेके द्वारा तप नियमसे आराधित कैसे होता है यह बतलाते हैं-अनशन नामक तपमें अनशन नाम भोजनके त्यागका है। उसके तीन प्रकार हैं-मनसे भोजन करता हूँ, भोजन कराता हूँ, भोजनमें लगे हुएको अनुमति करता हूँ। मैं भोजन करता हूँ, तुम भोजन करो, भोजन बनाओ इस प्रकार वचनसे कहना। तथा चार प्रकारके आहारका संकल्पपूर्वक कायसे ग्रहण करना, हाथसे संकेत करना, कायसे अनुमतिका सूचन करना। ये जो मन वचन कायकी क्रियाएँ हैं जो कर्मोके ग्रहणमें कारण हैं उनका त्याग अनशन है जो चारित्र ही है। - तृप्ति करने वाले तथा मद पैदा करने वाले खानपानका मन वचन कायसे त्याग अवमौदर्य है। आहार संज्ञाके जीतनेको वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं। मन वचन कायसे रसविषयक लम्पटताके त्यागको रसपरित्याग तप कहते हैं । शारीरिक सुखकी इच्छाके त्यागको कायक्लेश तप १. सर्वां० सि० १११। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो आराधना चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनम् । स्वकृतापराधगृहनत्यजनं आलोचना । स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणं । तदुभयोज्झनं उभयं । येन यत्र वा अशुभोपयोगोऽभत्तन्निराक्रिया, ततोऽपगमनं विवेकः । देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्ग: । तपोऽनशनादिकं यथा भवति चारित्रं तथोक्तमेव । असंयमजुगुप्सार्थमेव प्रव्रज्याहापनं छेदः । मूलं पुनश्चारित्रादानम् । ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रियाः । तासामपोहनं विनयः । चारित्रस्य कारणानुमननं वैयावृत्त्यं ।। एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया प्रत्येतु शक्या तपस आराधना । अशनादिकं यदि नाम त्यक्तं न नियोगतोऽविरतिः प्रत्याख्याता भवति । कृताशन श्यत असयता इत्येतच्चेतसि कृत्वाह-आराधतेणेति 'आराधतेण' आराधयता । 'तवं' तपः। 'चारित्तं' चारित्रं सकलविरतियोगः । 'होदि' भवति । 'भयणिज्ज' भजनोयम । तपस्यद्यतः करोति वा न वा असंयमपरिहारं इति यावत । अत्रान्येषां व्याख्या-चारित्राराधनायां तपस आराधनायाः सिद्धिरवश्यंभाविनीत्युक्तं तत्कथं? तदिदं संयममाराधतेणेत्यादि एवं सत्रोपोद्धातः कृतः स नोपपद्यते । चारित्राराधनाया तपस आराधनायाः सिद्धिर्भवतीति नोक्तं क्वचित्सूत्रकारेण तत्किमच्येत उक्तमिति ? 'विदियाय हवं चरित्तहि इति वचनेनोक्तमिति चेन्न अशब्दार्थत्वात् । शब्देन हि यत्प्रतीयते तदुक्तमिति युक्त वक्तु । अपि च भवतु कहते हैं । चित्तको व्याकुलताके दूर करनेको विविक्त शयनासन तप कहते हैं। अपने द्वारा किया गये अपराधको छिपानेका त्याग करना आलोचना है। अपने द्वारा किये गये अशुभ मन वचन कायके व्यापारका प्रतीकार करना प्रतिक्रमण है। इन दोनोंको ही करना उभय है। जिसके द्वारा अथवा जिस स्थान पर अशुभ उपयोग हुआ हो उनसे अलग होना विवेक है। शरीरमें ममत्वका त्याग कायोत्सर्ग है । अनशनादि तप जिस प्रकार चारित्र हैं ऊपर कहा ही है। असंयमके प्रति ग्लानि प्रकट करनेके लिये दीक्षाके कालको कम कर देना छेद प्रायश्चित्त है । और पुनः चारित्र ग्रहण करना मूल प्रायश्चित्त है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपके अतीचारोंको अशुभ क्रिया कहते हैं उनका त्याग अर्थात् ज्ञानादिमें दोष न लगाना विनय है। चारित्रके कारणोंमें अनुमति देना वैयावृत्य है। इसी प्रकार स्वाध्याय और ध्यान भी चारित्र है क्योंकि ये सब अविरति, प्रमाद और कषायके त्यागरूप हैं । इस प्रकार चारित्राराधनाके कथनसे तप आराधनाको जाना जा सकता है। यदि भोजन आदिका त्याग किया तो अविरतिका त्याग नियमसे नहीं किया । 'भोजनका त्याग करने वाले भी असंयमी देखे जाते हैं। यह बात चित्तमें रखकर आचार्य कहते हैं तपकी आराधना करने वालेके द्वारा, सकलविरतिसे सम्बन्धरूप चारित्र, 'भयणिज्ज' भजनीय है । अर्थात् तपमें जो संलग्न है वह असंयमका त्याग करता भी है और नहीं भी करता। अन्य टीकाकार इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं-चारित्रकी आराधनामें तपकी आराधनाकी सिद्धि अवश्य होती है ऐसा जो कहा वह कैसे ? उसीके समाधानके लिये 'संजममाराधतेण' इत्यादि कहा है। ऐसा वे इस गाथाकी उत्थानिकामें कहते हैं। उनका कथन ठीक नहीं हैक्योंकि चारित्रकी आराधना करनेपर तप आराधनाकी सिद्धि होती है ऐसा ग्रन्थकारने कहीं भी नहीं कहा । तब कैसे कहते हैं कि ग्रन्थकारने ऐसा कहा है ? यदि कहोगे कि _ 'विदियाय हवे चरित्तम्मि' इस कथनके द्वारा कहा है ? तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २१ तेनोक्तं इह तदेवोक्तं किमिति पुनरुपन्यस्यते ? तत्कथमिति वा युक्तं सूत्रे चारित्रसिद्धावितरसिद्धिक्रमस्यानुपन्यासात् ॥ प्रतिज्ञामात्राद्विप्रतिपन्नो न प्रतिपद्यते इति युक्तिप्रश्नोऽयं स कथं युज्यते व्याख्यान्तरसूचिते प्रतिविधाने । यच्च व्याख्यानं "त्रयोदशात्मके चारित्रे सर्वथा प्रयतनं संयमः । स च बाह्यतपः संस्कारिताभ्यन्तरतपसा विना न संभवति । तदुपकृतात्मकत्वात्संयमस्वरूपस्येति" तदघटमानं । न हि प्रयतनं संयमशब्दस्यार्थः । क्वचिदपि संयमशब्दस्य तत्राप्रयक्तत्वात । प्रयोगावृत्तिसमधिगम्यो हि शब्दार्थः । 'विदिया य हवे चरित्तंहि' इति सूत्रे चारित्रशब्देन सामान्यवाचिना सकलचारित्रमिति किमर्थं विशेषेणोच्यते? सर्वस्य हि सामायिकादेश्चारित्रस्याराधना चारित्राराधना भवति । यथाहि-'पंडिदपडिदमरणं खीणकसाया मरंति केवलिणो'. इत्यन्ये यथाख्यातचारित्राराधनामपि वक्ष्यति । बाह्यतपःसंस्कारिताभ्यन्तरतपसा इति वा असंबद्धं । अन्तरेणापि बांद्यतपोऽनुष्ठानं अंतर्मुहूर्तमात्रेणाधिगतरत्नत्रयाणां भद्दणराजप्रभृतीनां पुरुदेवस्य भगवतः शिष्याणां निर्वाणगमनमागमे प्रतीतमेव ।। इन शब्दोंका यह अर्थ नहीं है । शब्दके द्वारा जिसकी प्रतीति हो, उसे उनका कथन कहना युक्त है । तथा, यदि उन्होंने ऐसा कहा है तो पुनः उसीका उपन्यास वह क्यों करते और वह कैसे यक्त हो सकता है ? क्योंकि गाथामें चारित्रकी सिद्धिमें अन्यकी सिद्धिके क्रमका कथन नहीं है। 'प्रतिज्ञामात्रसे विवादग्रस्त व्यक्ति नहीं समझता' इस प्रकारका युक्तिप्रश्न अन्य व्याख्याओंके द्वारा सचित प्रतिविधानमें कैसे युक्त हो सकता है ? । एक अन्य व्याख्या में कहा है-'तेरह प्रकारके चारित्रमें सर्वथा प्रयत्नशील होनेका नाम संयम है। वह संयम बाह्यतपके द्वारा संस्कार किये गये अभ्यन्तर तपके बिना नहीं होता अर्थात् बाह्य और अभ्यन्तर तपके होनेपर ही संयम होता है; क्योंकि संयमका स्वरूप तपके द्वारा उपकृत होता है' किन्तु उक्त कथन घटित नहीं होता; क्योंकि संयम शब्दका अर्थ प्रयत्नशील होना नहीं है । किसी ग्रन्थमें संयम शब्दका प्रयोग इस अर्थमें नहीं हुआ है । शब्दका अर्थ उसके बारंबार प्रयोगसे जाना जाता है। ___ 'विदिया य हवे चरित्तम्मि' इस गाथा सूत्रमें आगत चारित्र शब्द सामान्य चारित्रका वाचक है, उसका सकल चारित्र रूप विशेष अर्थ आप कैसे कहते हैं ? समस्त सामायिक आदि चारित्रकी आराधना चारित्राराधना है । आगे कहेंगे कि क्षीणकपाय और फेकलीके पण्डित पण्डित मरण होता है। अतः यथाख्यातचारित्राराधना भी उसमें आती है। तथा बाह्य तपके द्वारा संस्कारित अभ्यन्तर तपसे' इत्यादि कथन भी असम्बद्ध है क्योंकि बाह्य तपके अनुष्ठानके बिना भी अन्तर्मुहूर्तमात्रमें रत्नत्रयको प्राप्त करके, भगवान् ऋषभदेवके शिष्य भद्दणराज वगैरहका निर्वाण गमन आगममें प्रसिद्ध ही है। भावार्थ-संयम शब्दमें 'सं' का अर्थ है समन्त अर्थात् मन वचन कायके द्वारा पापको लाने वाली क्रियाओंका 'यमन'-त्याग संयम है। अतः संयमका अर्थ चारित्र है । वह बाह्य अनशन आदि और अभ्यन्तर प्रायश्चित्तादिके भेदसे बारह प्रकारका है। उस तपकी आराधना चारित्राराधनामें आती है क्योंकि उसमें भी अविरति, प्रमाद और कषायका त्याग होता है । किन्तु तप आराधनामें चारित्राराधना नहीं आती; क्योंकि तपस्वी असंयमका त्यागी होता भी है और नहीं भी होता । भोजनादिका त्याग करने वाले भी कोई-कोई असंयमी देखे जाते हैं । इस ग्रन्थ पर अन्य भी टीकाएँ थीं। उन्हींके मतका निराकरण ऊपर टीकाकार अपराजित सूरिने किया है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ननु तपस्यायत्तनिर्जरानुक्रमेण निर्जरामुपगच्छन्ति सन्ति कर्माणि यदा निःशेषाण्यपगतानि भवन्ति तदा स्वास्थ्यरूपं निर्बाणमपजायते ततो निर्वाणस्य कारणं निर्जरव, तस्याश्च संपादकं तपस्ततो यक्तं दर्शनाराधना तप आराधना चेति द्विविधा आराधनेति गदितु इत्यारेकायां, तपो निर्जरां मुक्तेरनुगुणां करोति सति चारित्रे संवरकारिणि नान्यथेति प्रदर्शयति 'सम्मादिट्ठिस्स वि' इत्यादिना सम्मादिठिठस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि । होदि हु हत्थिण्हाणं 'चुंदच्चुदकम्म तं तस्स ।।७।। • 'सम्मादिठिस्सवि' तत्वार्थश्रद्धानवतोऽपि । 'अविरदस्स' असंयतस्य । 'न तवो' तपः । 'महागुणो' गुणशब्दोऽनेकार्थवृत्तिः । रूपादयो गुणशब्देनोच्यन्ते क्वचिद्यथा-'रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणानि, पृथक्त्वं, संयोगविभागो,, परत्वापरत्वबुद्धयः, सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नादयः क्रियावद्गुणसमवायिकारणं द्रव्यं' -इत्यस्मिन्सूत्र गृहीताः ॥ 'गुणभूता वयमत्र नगरे' इति । अत्राप्रधानवाचीयस्य गुणस्य भावादिति विशेषेण वर्तते । 'गुणोऽनेन कृत' इत्यत्र उपकारार्थे वृत्तिः । इह उपकारे वर्तमानो गृह्यते। महागुणः उपकारोऽस्येति महागुणं । 'होदि' भवति । क्रिया चैव हि भाव्यते निषेव्यते वा इति वचनात् । 'न' तु भवनक्रियया संबध्यते, तपो न भवति महोपकारमिति । एतदुक्तं भवति कर्मनिमूलनं कर्तुमसमथं तपः सम्यग्दृष्टेरप्यसंयतस्य । पुनरितरस्य असति उन्होंने जो बाह्य तपके बिना मुक्ति प्राप्तिका निर्देश किया है उसका अभिप्राय इतना ही है कि जिन दीक्षा धारण करनेके पश्चात् ही अन्तर्मुहुर्तमें क्षपक श्रेणि पर आरोहण करके मुक्त हुए। अतः उन्हें अनशन आदि बाह्य तप नहीं करना पड़ा । अभ्यन्तर तप तो रहा ही ॥ ६ ॥ निर्जरा तपके अधीन है। जब क्रमसे निर्जराको प्राप्त होते होते सब कर्म चले जाते हैं तब 'स्व' में स्थिति रूप निर्वाणकी प्राप्ति होती है । अतः निर्वाणका कारण निर्जरा ही है और निर्जराका सम्पादक है तप । इसलिये दर्शनाराधना और तप आराधना ये दो आराधना कहना युक्त है। इस आशंकाके उत्तरमें आचार्य 'संवरको करने वाले चारित्रके होने पर ही तप मुक्तिके अनुकूल निर्जरा करता है, अन्यथा नहीं'-- ऐसा कथन करते हैं गा०–सम्यग्दृष्टी भी जो अविरत है अर्थात् अविरत सम्यग्दष्टीका तप महान् उपकारी नहीं होता। उसका वह तप हाथीके स्नानकी और मंथनचर्मपालिका मथानीकी रस्सीकी तरह होता है ।। ७ ॥ टी०-तत्त्वार्थ श्रद्धानवान् भी, असंयमीका तप महागुणवाला नहीं होता। गुण शब्दके अनेक अर्थ हैं। कहीं गुण शब्दसे रूपादि कहे जाते हैं जैसे वैशेषिक दर्शनके सूत्रमें गुण शब्दसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, आदि लिये गये हैं। हम इस नगरमें गुणभूत हैं' इस वाक्यमें गुणशब्दका अर्थ गौण या अप्रधान है। 'इनने गुण किया' इस वाक्यमें 'गुण' का अर्थ उपकार है। यहाँ भी गुणशब्दका अर्थ उपकार है। अतः महान् है 'गुण' अर्थात् उपकार इसका। गाथामें 'होदि' क्रिया है उसका अर्थ होता है'। उसके साथ 'ण' का सम्बन्ध लगाना चाहिये। तब अर्थ होता है-तप महान् उपकारी नहीं है। पूरे वाक्यका अभिप्राय है-असंयमी सम्यग्दृष्टीका भी तप कर्मोको जड़से नष्ट करने में असमर्थ है। फिर जो सम्यग्दृष्टी नहीं है, उनके संवरके १. चदं संछेदक-ज, दगंव तं-मु०, ये तु चुंदच्छिदकम्म इति पठन्ति-मूलारा० । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २३ संवरे प्रतिसमयमुपचीयमानकर्मसंहतेः का मुक्तिः ? ननु सत्यपि संयमे विना निर्जरां न निवृत्तिरिति । शक्यमेवमप्यभिधातु 'सम्मादिहिस्स वि अकदतवो भावणाविसेसस्स न चारित्तं महागुणं होदित्ति'। सत्यमेवमेतत् चारित्रप्राधान्यविवक्षापरा इयं चोदना । असिश्च्छिनत्तीत्यत्र छेत्तारमन्तरेण नासिनैव संपद्यते छिदा, तथा तदीयतैक्षण्यगौरवकाठिन्यातिशयनिरूपणवांछायां तस्यैव स्वातंत्र्यं निगद्यते । एवमिहापीति न दोषः । कुतः ? यस्मात् 'होदि खु हत्थिण्हाणं' होदि भवति । 'खु' शब्द एवकारार्थः । स हत्थिण्हाणमित्यनेन संबंधनीयः । हत्थिण्हाणमेवेति । यथा हस्ती स्नातोऽपि न नैर्मल्यं वहति पुनरपि करावजितपांसुपटलमलिनतया' तद्वत्तपसा निज र्णेऽपि कर्माशे बहुतरादानं असंयममुखेनेति मन्यते । दृष्टान्तान्तरमाचष्टे-चुदच्चुदकम्म मन्थनचर्मपालिकेव तद्वत्संयमहीनं तपः । दृष्टान्तद्वयोपन्यासः किमर्थम् इति चेत् । अपगताद्बहुतरोपादानं कर्मणोऽसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः । आर्द्रतनुतया बहुतरमुपादत्ते रजः । बन्धरहिता निर्जरा स्वास्थ्यं प्रापयति नेतरा बन्धसहभाविनीति । किमिव मन्थनचर्मपालिकेव । सा हि बन्धसहितां मुक्ति वर्तयति । अत्रान्ये व्याचक्षते-कालभेदमनपेक्ष्य शुद्धिमशद्धि च दर्शयता प्रथम उपात्तः । तदयुक्तं सकलकर्मापायो हि शुद्धिः, अभावमें प्रति समय बन्धनेवाले कर्मोका संचय होते हुए मुक्तिकी बात ही क्या है ? शङ्का-संयमके होनेपर भी निर्जराके विना मुक्ति नहीं होती। अतः ऐसा भी कहा जा सकता है कि जिसने तपकी भावना नहीं की उस सम्यग्दृष्टीका चारित्र महान् उपकारी नहीं है ? समाधान आपका कथन यथार्थ हो है। यह कथन चारित्रकी प्रधानताकी विवक्षाको लिये हुए है। जैसे 'तलवार काटती है' ऐसा कहा जाता है। किन्तु काटनेवाले व्यक्तिके विना केवल अकेली तलवार नहीं काटती। परन्तु तलवारकी तीक्ष्णता, गौरव और कठोरता आदि अतिशयोंको बतलानेकी इच्छा होनेपर 'तलवार काटती है' इस प्रकार तलवारके स्वातन्त्र्यको कहा जाता है । इसी तरह यहाँ भी है अतः कोई दोष नहीं है। उक्त कथनके समर्थन में ग्रन्थकार दृष्टान्त देते हैं-जैसे हाथी स्नान करके भी निर्मल नहीं होता, वह अपनी सूंडके द्वारा धूल उठाकर अपनेपर डालता है। उसी तरह तपके द्वारा कुछ कर्मोंकी निर्जरा होनेपर भी असंयमके द्वारा उससे अधिक कर्मोका बन्ध होता रहता है। ऐसा माना गया है। दूसरा दृष्टान्त देते हैं-मन्थनचर्मपालिकाकी तरह संयमहीन तप होता है । शङ्का-दो दृष्टान्त किस लिये दिये हैं ? __ समाधान-तपके द्वारा जितनी कर्मनिर्जरा होती है, असंयमके निमित्तसे उससे बहुत अधिक कर्मोका बन्ध होता है, यह बतलानेके लिए हस्तिस्नानका दृष्टान्त दिया है क्योंकि स्नानके पश्चात् शरीरके गीले होनेसे बहुत-सी धूल उसपर जम जाती है । तथा बन्धरहित निर्जरा मोक्ष प्राप्त कराती है, बन्धके साथ होनेवाली निर्जरा नहीं। जैसे मन्थनचर्मपालिका। वह तो बन्धसहित मुक्ति देती है अर्थात् मथानी चलाते समय एक ओरसे रस्सी छूटती जाती है किन्तु साथ ही दूसरी ओरसे लिपटती जाती है । दूसरे टीकाकार कहते हैं-समयभेदकी अपेक्षा न करके शुद्धि और अशुद्धिको दिखलानेके लिये प्रथम दृष्टान्त दिया है । किन्तु ऐसा कहना अयुक्त है क्योंकि समस्त कर्मोके विनाशको शुद्धि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ भगवती आराधना अशुद्धिश्च कर्मणा सह वृत्तिः, तत्रासती शुद्धिः कथमादय॑ते कौशापगममात्रतः ? शुद्धिर्वा या मुक्तिः सा कस्य न विद्यते ? फलं दत्वा प्रयान्त्यात्मनः कर्मपदगलस्कन्धाः । यच्चोक्तं यदा तु कालभेदेन वैधधमाशंक्यते बंधनशातनयोरेकसमयत्वात् इति ततो द्वितीयो दृष्टान्तः । रज्जुवेष्टननिर्गमनयोरेककालत्वादिति तदप्यसारं । न हि चंद्रमुखी कन्या इत्यत्र एवमाशंका संभवति, सदा संपूर्णमाननं वामलोचनायाः निशानाथस्य कदाचिदेव पूर्णता ततोऽनुमानमिति साधारणधर्ममात्रावलम्बन एवोपमानोपमेय भावः, वैधयं तूपमानोपमेययोरस्ति अन्यथा उपमानमिदं उपमेयमिति भेदो निरास्पदः । अपि च उपमेयस्यातिशयं प्रदर्शयितुमेवोपमानं प्रवृत्तम् ॥ न त्वेकस्योपमानस्यानुनतादृष्टे'तरदुपादीयते (?) इति युक्तम् । संक्षेपस्य प्रकारान्तराख्यानायाह अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं हवइ सव्वं ॥ आराहणाए सेसस्स चारित्ताराहणा भज्जा ॥ ८ ॥ और कर्मोंके साथ रहनेको अशुद्धि कहते हैं। जब वहाँ शुद्धि नहीं है तो कैसे उसे दिखलाते हैं ? और कुछ कर्मोके चले जाने मात्रसे यदि शुद्धि या मुक्ति मानते हो तो ऐसी शुद्धि किस जीवमें नहीं है क्योंकि कर्मपुद्गलस्कन्ध प्रत्येक आत्माको फल देकर जाते रहते हैं। और भी कहा है कि जब कालभेदसे वैधर्म्यकी आशंका की जाती है चूंकि बन्धन और निर्जराका एक ही काल है तब दूसरा दृष्टान्त दिया है; क्योंकि रस्सीके लिपटने और छूटनेका एक ही काल है, यह कथन भी निस्सार है । 'चन्द्रमुखी कन्या' इस दृष्टान्तमें इस प्रकारकी आशंका सम्भव नहीं है कि कन्याका मुख तो सदा सम्पूर्ण रहता है और चन्द्रमा तो पूर्णिमाके ही दिन पूर्ण होता है। उपमान उपमेय भाव दोनोंमें पाये जानेवाले साधारण धर्मोको ही लेकर किया जाता है, दोनोंमें वैधर्म्य तो होता ही है । यदि न होता तो उनमें यह उपमान और यह उपमेय ऐसा भेद ही न होता। तथा उपमेयकी विशेषता दिखलानेके लिए ही उपमान होता है। अकेले उपमानके लिये उपमेय नहीं होता ॥७॥ भावार्थ-मिथ्यादृष्टिकी तो बात ही क्या, तत्त्वोंका श्रद्धानी सम्यग्दृष्टी भी यदि अविरत है, हिंसादि विषयोंमें प्रवृत्त रहता है, उसका तप करना महान् उपकारक नहीं है। अर्थात् वह कर्मोको सर्वथा नष्ट नहीं कर सकता। जो संयमसे हीन होता है उसके संवरके अभावमें प्रतिसमय नये-नये कर्मोंका बन्ध होता रहता.है । अतः उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। यह कथन चारित्रकी प्रधानता दिखलानेके लिये है। जैसे तपके प्राधान्यकी विवक्षामें कहा है-तपसे ही मुक्ति होती है अतः तप करना चाहिए। असंयमीका तप हाथीके स्नानकी तरह होता है। जैसे हाथी स्नान करके शरीरके भीग जानेसे अपनी सूंड द्वारा अपने ऊपर डाली गई बहुत-सी धूल ग्रहण कर लेता है। उसी तरह असंयमी तपके द्वारा कुछ कर्मोंकी निर्जरा करके भोजनादिकी लम्पटतावश बहुत अधिक कर्मबन्ध करता है। दूसरा दृष्टान्त है मन्थनचर्मपालिका । हस्तिस्नान दृष्टान्तके द्वारा तो यह बतलाया है कि जितनी निर्जरा करता है उससे बहुत अधिक कर्मबन्ध करता है और दूसरे दृष्टान्तसे बतलाया है कि बन्धके साथ-साथ होनेवाली निर्जरासे मुक्ति नहीं हो सकती ।। ७ ॥ संक्षेपसे आराधनाके अन्य प्रकार कहते है१. दृष्टेरित-मु०। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २५ अहवेति । एकद्वयादिसंख्येयासंख्येयानंतरूपेण हि जैनी निरूपणा ॥ चरन्ति यान्ति तेन हितप्राप्ति अहितनिवारणं चेति चारित्रं, चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रं सामायिकादिक, तस्याराधनायां तत्परिणतो सत्यां आराधितं निष्पादितं । 'हवई' भवति । 'सव्वं' सर्व ज्ञानं दर्शनं तपश्च. प्रकारका प्रवृत्तः । यथा सर्वमोदनं भुंक्ते इति व्रीहिशाल्योदनप्रकारकात्स्न्यं भुजिक्रियायाः कर्मत्वेन प्रतीयते । एवमिहापि मुक्त्युपायप्रकाराणां ज्ञानादीनां सामस्त्यमाख्यायते । चारित्राराधनकैवेत्यनेन गाथार्द्धन कथितम् । अत्रेयमाशंका-कस्मादेकत्वनिरूपणाराधनायाश्चारित्रमखेनैव क्रियते नान्यमुखेनेत्यत आह-'आराधणाए' आराधनायां । 'सेसस्स' शेषस्य । ज्ञानदर्शनतपसां अन्यतमस्य । चारिताराधणा । 'भज्जा' भाज्या विकल्प्या । कथं ? असंयतसम्यग्दष्टिर्भवति ज्ञानदर्शनयोराराधको नेतरयोः । मिथ्याष्टिस्त्वनशनदावुद्यतोऽपि न चारित्रमाराधयति । कश्चित्पुनः ज्ञानादीनि च चारित्रमपि संपादयतीति नाविनाभाविता इतराराधनायां चारित्राराधनाया इति न तन्मुखेनैकत्वनिरूपणेति भावः ॥ ननु क्षायिकवीतरागसम्यक्त्वाराधनायां, क्षायिकज्ञानाराधनायां च इतरेषामप्याराधना नियोगतः संभवति तत्किमुच्यते शेषाराधनायां चारित्राराधना भाज्येति ? क्षायोपशमिक गा०-अथवा चारित्रकी आराधनामें ज्ञान, दर्शन, तप सब आराधित होता है । ज्ञान दर्शन और तपमेंसे किसीकी भी आराधनामें चारित्रको आराधना भाज्य होती है ।। ८॥ टो०-जैनधर्ममें वस्तुके कथन करनेके एक, दो, संख्यात, असंख्यात और अनन्तरूप है। जिसके द्वारा जीव हितकी प्राप्ति और अहितका निवारण करते हैं उसे चारित्र कहते हैं। अथवा सज्जनोंके द्वारा जो 'चर्यते' सेवन किया जाता है वह सामायिक आदिरूप चारित्र है। उसकी आराधना करनेपर अर्थात् उस रूप परिणतिके होनेपर सब-ज्ञान दर्शन और तप आराधितनिष्पादित होता है । यहाँ 'सर्व' शब्द समस्त प्रकारोंमें प्रयुक्त हुआ है। जैसे 'सब ओदनको खाता है', यहाँ ओदन अर्थात् भात या चावलके व्रीहि, शालि आदि जितने प्रकार हैं वे सब खानेरूप क्रियाके कर्मरूपसे प्रतीत होते हैं । अर्थात् सब प्रकारके चावलोंका भात खाता है यह 'सब ओदन' से अभिप्राय है। इसी प्रकार यहाँ भी 'सर्व' शब्दसे मुक्तिके उपायोंके जो प्रकार ज्ञानादि है उन सबका ग्रहण इष्ट है। इस तरह 'एक चारित्राराधना ही है' यह इस आधी गाथासे कहा है। यहाँ यह शंका होती है कि चारित्रकी मुख्यतासे ही आराधनाका एक प्रकार क्यों कहा है अर्थात् आराधनाके एक प्रकारमें चारित्रको ही क्यों लिया है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं-शेष अर्थात् ज्ञान दर्शन और तपमेंसे किसी एककी आराधना करनेपर चारित्रकी आराधना भाज्य है; क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि ज्ञान और दर्शनका ही आराधक होता है, चारित्र और तपका नहीं। और मिथ्यादृष्टि तो अनशन आदिमें तत्पर रहते हए भी चारित्रकी की आराधना नहीं करता। कोई ज्ञानादिको आराधना करता है और कोई चारित्रकी भी आराधना करता है । इस प्रकार अन्य आराधनाओंके साथ चारित्रकी आराधनाका अविनाभाव नहीं है अर्थात् चारित्राराधनाके विना भी अन्य आराधना होती है। इसलिए उनकी मुख्यतासे आराधनाका एक प्रकार नहीं कहा है । यह उक्त कथनका भाव है। शङ्का-क्षायिक वीतराग सम्यक्त्वकी आराधनामें और क्षायिकज्ञानकी आराधनामें अन्य चारित्रादिकी भी आराधना नियमसे होती है तब कैसे कहते हैं कि शेष आराधनाओंमें चारित्राराधना भाज्य है ? Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ज्ञानदर्शनोपक्षयैतदुक्तं इति ज्ञेयम् । अत्रान्येषां व्याख्या "चारित्ताराधणाए इत्यत्र चारित्रशब्देन सच्चारित्रमुपात्तम् । तच्च सद्दर्शनात्मकज्ञाननिरूपितक्रमाप्रच्यवनेन प्रयत्नवृत्तिरूपं तस्मिन्नाराध्यमाने शेषसिद्धिर्भवत्येव । कथं ? सज्ज्ञानकार्य चारित्रं सज्ज्ञानं च दर्शनाद्धितं (?) कार्ये हि कारणाविनाभावित्वं प्रयुक्तं इति ।" सानुपपन्ना। प्रतिज्ञामात्रेण हि सूत्रमिदमवस्थितं, एतत्साधनाय सूत्रद्वय मुत्तरं यत्र हि सूत्रकारो न निबंधनं वदति । आत्मनः प्रतिज्ञातस्य तत्र व्याख्यातुरवसरो निबंधनाख्याने । यत्र तु स एव वदति तत्र तदेव व्याख्यातुमवगन्तव्यमिति व्याख्याक्रमः शास्त्रेषु । न चेदमनेन प्रतिविधानमसूत्रितम स्वयमेवोत्प्रेक्षते । 'कादम्वमिणमकादम्वयत्ति णादण होदि परिहारो' इत्यत्र निरूपयिष्यति यतः सूत्रकारः । किं च उत्तरसूत्रानुष्ठानमस्यां व्याख्यायां चारित्राराधनामुखेनैकवाराधनेति प्रतिपिपादयिषितम् । तच्च सप्रतिविधानं प्रतिपादयितु कोऽवसर उत्तरगाथायाः । इतराराधनान्तर्भावकारिण्याश्चारित्राराधनाया निरूपणायां चारित्रस्वरूपाख्यानाय उत्तरगाथायातेति कथमनवसर इति चेत् यद्येवं दर्शनाराधनायां ज्ञानाराधनामन्तर्भाव्य प्रवर्तमानायां दर्शनस्वरूपं किं नोच्यते सूत्रकारेण ? स्वेच्छेति चेन्न न्यायानु उत्तर-उक्त कथन क्षायोपशमिकज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा किया है ऐसा जानना। __इस गाथापर अन्य टीकाकारोंकी व्याख्या इस प्रकार है-'चारित्ताराधणाए' यहाँ चारित्र शब्दसे सम्यक्चारित्र लिया है। वह सम्यक्चारित्र शास्त्रमें कहे गये सम्यग्दर्शनसे विशिष्ट सम्यग्ज्ञानके क्रमसे च्युत न होते हुए अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञानके साथ सावधानतापूर्वक प्रवृत्तिरूप होता है। उसको आराधना करनेपर शेष आराधनाओंकी सिद्धि होती ही है क्योंकि सम्यग्ज्ञानका कार्य चारित्र है और सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। कार्य कारणका अविनाभावी होता है-कारणके विना कार्य नहीं होता। - किन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है। इस गाथामें तो गाथाकारने केवल प्रतिज्ञामात्र की है कि चारित्राराधनामें सब आराधना आती है। इसकी सिद्धिके लिए आगे दो गाथाएँ हैं जिनमें ग्रन्थकारने उसका कारण कहा है कि क्यों चारित्राराधनामें अन्य आराधना समाविष्ट होती है। वहाँ व्याख्याताको उसका कारण बतलानेका अवसर है। शास्त्रोंमें व्याख्याका यही क्रम है कि ग्रन्थकारने स्वयं जहाँ जो कहा है वहाँ वही व्याख्याकारको कहना चाहिये । इस गाथामें तो उसने ऐसा नहीं कहा । व्याख्याकार स्वयं ही कल्पना करता है। गाथासूत्रकार तो आगे 'कादव्वमिणमकादव्व' इत्यादि द्वारा कहेंगे। तथा 'चारित्राराधनाकी मुख्यतासे एक ही आराधना है' इस व्याख्या में आगेके गाथासूत्रका कथन करना इष्ट है। यदि वह कथन यहीं कर दिया जाता है तो आगेकी गाथाके कथनका अवसर नहीं रहता। शङ्का-अन्य आराधनाओंका अपनेमें अन्तर्भाव करनेवाली चारित्राराधनाका निरूपण करनेपर चारित्रका स्वरूप बतलानेके लिये आगेकी गाथा आई है ? तब आप कैसे कहते हैं कि आगेकी गाथाके कथनका अवसर नहीं रहता ? | उत्तर—यदि ऐसा है तो दर्शनाराधना अपने में ज्ञानाराधनाको अन्तर्भूत करके प्रवृत्त हुई है अतः गाथाकारने सम्यग्दर्शनका भी स्वरूप क्यों नहीं कहा ? वह भी कहना चाहिए था। यदि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका गामिनां शास्त्रकाराणां न्यायादपेतेच्छा अयुका । कथं चारित्राराधनायां कथितायां इतरासां प्रतिपत्ति रविनाभावात् तावज्ज्ञानदर्शनाराधनयोरन्तर्भावइत्युत्तरगाथायाः पूर्वार्द्धन कथयति कायव्वमिणमकायव्वयत्ति णाऊण होइ परिहारो। तं चेव हवइ गाणं तं चेव य होइ सम्मत्तं ।। ९॥ 'कायन्वं' कर्तव्यं । 'इणं' इदं । 'अकायन्वयत्ति' अकर्तव्यमिति । 'णादण' ज्ञात्वा । 'हवदि' भवति । 'परिहारो' परिवर्जनं चारित्रमिति शेषः । कर्तव्याकर्तव्यपरिज्ञानं पूर्व तदुत्तरकालं अकर्तृपरिहरणं यत्तच्च चारित्रमिति सूत्रार्थः । ननु परिहार इत्यत्र परिहारो वर्जनार्थः । तथा हि-परिहरति सर्पमित्यत्र सपं वर्जयतीति गम्यते। ततश्च यद्वर्जनीयं तत्परिज्ञानमेव वर्जनमुपयुज्यते । तत एवं वक्तव्यं-अकादववत्ति' णादण हवदि परिहारो इति, कादव्वमित्येतत्किमर्थमपन्यस्तं ? कर्तव्यपरिज्ञानं करणे एवोपयुज्यते इति । अत्र प्रतिविधीयते-कादव मिणति पादूण हव दि परिहारो इति पदघटनका, अकादम्वमिणत्ति णादूण हवदि परिहारो इत्यपरा ॥ तत्राद्यायां पदघटनायां परिशव्दः समंताद्भाववृत्तिः । यथा परिधावतीत्यत्र हि समंताद्धावतीति गम्यते। हरति तूपादानवचनः । तथाहि प्रयोगः-कपिलिका हरति-कपिलिकामुपादत्त इति यावत् । मनसा, वचसा, कायेन कर्तव्यस्य संवरहेतोरुपादानं गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजयानां उपादानं चारित्रमिति कहोगे कि यह उनकी इच्छा है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि न्यायका अनुसरण करनेवाले शास्त्रकारोंकी इच्छा न्यायसे रहित नहीं होती ।। ८॥ चारित्राराधनाके कहनेपर अन्य आराधनाओंका ज्ञान कैसे सम्भव है ? इस प्रश्नका समाधान है कि चारित्राराधनाके साथ ज्ञान और दर्शनका अविनाभाव है अतः उसमें उनका अन्तर्भाव होता है। यही वार्ता आगेकी गाथाके पूर्वार्द्धसे कहते हैं गा०-यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य है इस प्रकार जानकर त्याग होता है। वही चैतन्यज्ञान है और वही सम्यक्त्व है ।। ९ ॥ टी०-पहले कर्तव्य और अकर्तव्यका परिज्ञान होता है। उसके पश्चात् अकर्तव्यका त्याग किया जाता है । यही चारित्र है । यह गाथासूत्रका अर्थ है । शंका–'परिहारो' में परिहार शब्दका अर्थ त्याग है। इसका खुलासा इस प्रकार है-- 'सर्पका परिहार करता है ऐसा कहनेपर 'सर्पको त्यागता है' यही अर्थ ज्ञात होत । अतः जो त्यागने योग्य है उसीका जानना योग्य है। ऐसी स्थितिमें ऐसा कहना चाहिए कि 'अकर्तव्यको जानकर उसका परिहार होता है।' तब कर्तव्यको जाननेको क्यों कहा ? कर्तव्यका परिज्ञान तो करनेके लिए होता है छोड़नेके लिए नहीं होता ? उत्तर-गाथामें 'कादव्वमिणत्ति णादूण वदि परिहारो' यह एक पद सम्बन्ध है। और 'अकादम्वमिणत्ति णादण हवदि परिहारो' यह दूसरा पद सम्बन्ध है । उनमेंसे प्रथम पद सम्बन्धमें 'परि' शब्दका अर्थ अच्छी तरह या पूर्णरूपसे होता है। जैसे 'परिधावति' का अर्थ अच्छी तरहसे, या पूर्णरूपसे दौड़ता है। 'हरति' का अर्थ ग्रहण करना है । जैसे 'कपिलिकां हरति' का अर्थ कपिलिकाको ग्रहण करता है। अतः इस वाक्यका अर्थ होता है-मनसे, वचनसे, कायसे, संवरके १. व्वं पित्ति-ज०। २. कपलिका-न० । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwman २८ भगवती आराधनां वाक्यार्थः । आस्रवबंधहेतवो ये परिणामास्ते न कर्तव्याः, न निर्वास्तेषां परिहरणं परिवर्जनं चारित्रमिति संबंधनीयम् । परिहार्य एव परिज्ञानमंतरेणापि तत्परिहारो दृश्यते । यथा शत्रुजनाध्यासितं देशं परिहरति कश्चित्तत्र तेषां अवस्थानमप्रतिपद्यमानोऽपि मार्गान्तरगामी एव'मज्ञात्वापि परिहार्य परिहरेदिति विनाभावितेति चेदयमभिप्रायः सूरे-सामान्यशब्दा अपि विशेषप्रवृत्तयो दृश्यते । तथा हि-गोशब्दो गोत्वसामान्यांगीकरणेन प्रवृत्तो गौर्न इंतव्या, गौस्तदा न स्प्रष्टव्या इत्यादावन्यत्र विशेषमैवाभिधेयी-करोति । महति गोमंडले गोपालकमासीनमेत्य कश्चित्पृच्छति गौदृष्टा भवतेति । अत्र वाक्ये गोशब्दस्तदभिप्रेतां कालाक्षी स्वस्तिमती वा प्रत्यायति । एवमत्र परिहारशब्दः परिवर्जनसामान्यगोचरोऽपि नियतानेकपरिहार्यविषये परिहरणे प्रयुक्तः । न च नियोगभाव्यनेकपरिहार्यविषयंपरिहरणं असकृवृत्तिपरिज्ञानं विना युज्यते । इति मिथ्यादर्शनं, असंयमाः, कषाया, अशुभाश्च योगाः प्रत्येकमनेकविकल्पाः सततं परिहरणीयाः । तत्कथं परिहरेदज्ञः। ननु ज्ञानचारित्रयोरविनाभाविता द्योत्या 'नादूण होदि परिहारो' इत्यनेन न श्रद्धानाविनाभावितेत्याशंकायामाह'तं चेव हवई' इत्यादिकं । तं चे व तदेव चैतन्यं । हवई' भवति, 'णाणं' ज्ञानं । 'तं चेव य' तदेवं च "हवइ' भवति, 'सम्मत्तं' तत्त्वश्रद्धानं चेति चैतन्यद्रव्याव्यतिरेकात् ज्ञानदर्शनयोरेकता ख्याता । ततो ज्ञानाहेतु कर्तव्यको ग्रहण करना, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषह जयको अंगीकार करना चारित्र है। आस्रव और वन्धके हेतु जो परिणाम हैं वे नहीं करने चाहिए। अतः उनका परिहार अर्थात् त्याग चारित्र है। इस प्रकार सम्बन्ध लगाना चाहिये। जो पदार्थ त्यागने योग्य होता है, उसे जाने विना भी उसका त्याग देखा जाता है : जैसे कोई शत्रुओंसे युवत स्थानको छोड़ता है। यद्यपि वह उस स्थान में उनके आवासको नहीं जानता, फिर भी दूसरे मार्गसे चला जाता है। इस प्रकार त्यागने योग्यको नहीं जानते हुए भी त्यागना चाहिए । शङ्का-तब तो 'त्याज्य पदार्थको जानकर छोड़ना चाहिये' इस प्रकारका अविनाभाव नहीं रहा? समाधान--आचार्यका अभिप्राय यह है कि सामान्य शब्दोंकी भी प्रवृत्ति विशेषमें देखी जाती है। जैसे 'गौ' शब्द गौसामान्यको लेकर प्रवृत्त होता है जैसे गौका वध नहीं करना चाहिए। गौको छूना चाहिए। किन्तु अन्यत्र यही सामान्यवाची गौ शब्द विशेष गौके अर्थ में प्रवृत्त होता देखा जाता है। जैसे--किसी बड़े गोमण्डलमें बैठे हुए ग्वालेके पास जाकर कोई पूछता हैआपने गौ देखी है क्या ? इस वाक्यमें गौ शब्द उस व्यक्तिको इष्ट काली गाय या अमुक प्रकारको गायका बोध कराता है । इसी तरह परिहार शब्द यद्यपि त्याग सामान्यका वाचक है तथापि यहाँ उसका प्रयोग निश्चित अनेक त्यागने योग्य विषयोंके त्यागमें हुआ है। और नियमसे त्यागने योग्य अनेक विषयोंका त्याग बार-बार जाने विना सम्भव नहीं है। इस प्रकार मिथ्यादर्शन, असंयम, कषाय, अशुभयोग और इनमेंसे प्रत्येकके अनेक भेद निरन्तर त्यागने योग्य हैं। जो अनजान है वह कैसे उनका त्याग कर सकता है ? शङ्का-'जानकर परिहार होता हैं' इस वचनसे ज्ञान और चारित्रकी अविनाभाविता प्रकट होती है, श्रद्धानकी अविनाभाविता प्रकट नहीं होती ? __ इस आशङ्काका आचार्य उत्तर देते हैं-वही चैतन्य ज्ञानरूप है और वही चैतन्य सम्यक्त्वरूप है । अतः चैतन्यरूप द्रव्यसे अभिन्न होनेसे ज्ञान और दर्शनकी एकता बतलाई है। अतः १. एवमन्यत्रापि परिहार्यात् परि-आ० । २. नेन श्रद्धा-अ० ज० मु० । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका २९ विनाभाविता कथनेन श्रद्धानस्यापि कथितैव भवति । चारित्रमेव ज्ञानदर्शने इति कल्पनायां 'नाटूण हवइ परिहारो' इति पूर्व ज्ञानं पश्चात्परिहार इति अत्र भेदोपन्यास: ' सूत्रकारस्य अघटमानः स्यात् । तं चेवेति नपुंसकलिंगनिर्देशश्च न स्यात् । 'सो चेव हवइ णाणं' इति वक्तव्यं भवति परिहारशब्दस्य पुल्लिंगत्वात् । अथवा कर्तव्याकर्तव्यपरिज्ञाने सत्यकर्तव्यानां मिथ्यादर्शनं ज्ञानं, असंयमः कषाया, योग इत्यमीषां परिहारश्चारित्रमित्येतस्मिन्नर्थे परिगृहीते 'तं चेव परिहरणसामान्यं चारित्रं, ज्ञानं दर्शनं इत्येकमेवेति । चारित्राराधनायामेव भेदवादिनोऽभिमतस्याराधनाप्रकारस्यान्तलींनतया चारित्राराधन केवेति सूत्रार्थः ॥ चारित्राराधनायामंतर्भावो ज्ञानदर्शनाराधनयोरेव निगदितो न तपस आराधनाया इत्यत आहचरणम्मि तम्मि जो उज्जमो आउंजणा य जो होई । सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतस्स || १० | 'चरणम्मि' चारित्रे । 'तम्मि' एतस्मिन् अकर्तव्यपरिहरणे | 'जो य उज्जमो' उद्योगः । 'आउंजणा य' उपयोगश्च । 'जिर्णोहि तत्रो होदित्ति भणिदो' इति पदघटना । चरणोद्योगोपयोगावेव तपो भवतीति जिनैः कृतकर्मारिपराजयैरुक्तमिति यावत् । कृतसुखपरिहारो हि चारित्रे प्रयतते न सुखासक्तचित्तस्ततश्च बाह्यानि चारित्रकी ज्ञानके साथ अविनाभाविता बतलानेसे श्रद्धानकी भी अविनाभाविता कही गई समझना । यदि चारित्रको ही ज्ञान और दर्शनरूप माना जाता है तो ' जानकर परिहार होता है' इस कथनमें जो पहले ज्ञानका और पश्चात् परिहारका भेदरूपसे उपन्यास ग्रन्थकारने किया है। वह नहीं बन सकेगा । तथा 'तं चेव' इस पदमें जो नपुंसक लिंगका निर्देश किया है वह भी नहीं बनेगा, किन्तु 'सो चेव हवइ णाणं' ऐसा प्रयोग करना होगा क्योंकि 'परिहार' शब्द पुंल्लिंग है और वही चारित्र है | अथवा कर्तव्य और अकर्तव्यका परिज्ञान होने पर अकर्तव्य जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, कषाय और योग हैं उनका परिहार चारित्र है, ऐसा अर्थ लेने पर 'तं चेव' अर्थात् परिहारसामान्य ही चारित्र, ज्ञान और दर्शन है इस प्रकार एक ही है । इस प्रकार चारित्राराधनामें ही भेदवादियोंको इष्ट आराधनाके प्रकारोंका अन्तर्भाव होनेसे चारित्राराधना एक ही है यह इस गाथासूत्रका-अर्थं है | भावार्थ - चारित्रके दो प्रकार है— कर्तव्यको स्वीकार करना और अकर्तव्यको त्यागना । ज्ञान और दर्शन पूर्वक हितकी प्राप्ति तथा अहितके परिहाररूपसे परिणत चैतन्य ही ज्ञान और दर्शनरूप है | अतः चारित्रका ज्ञान और दर्शनके साथ अविनाभाव होनेसे चारित्रमें दोनोंका अन्तर्भाव होता है ॥ ९ ॥ चारित्राराधनामें ज्ञानाराधना और दर्शनाराधनाका ही अन्तर्भाव कहा है, तप आराधनाका नहीं कहा । अतः कहते हैं गा० - उस अकर्तव्यके त्यागरूप चारित्रमें जो उद्योग है और उपयोग होता है, उन उद्योग और उपयोगको ही छल कपट त्यागकर करने वालेका जिनेन्द्रदेवने तप कहा हैं ॥ १० ॥ कहा टी० - उस अकर्तव्य के परिहाररूप चारित्रमें जो उद्योग और उपयोग है जिनदेवने उसे तप । अर्थात् चारित्र में उद्योग और उपयोग ही तप है, ऐसा कर्मरूपी शत्रुओं को पराजित करने १. भेदोप नासने-आ० । २. अघटमानं-आ० ज० । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० भगवती आराधना तपांसि चारित्रप्रारंभं प्रति परिकरतामुपयान्तीति । तथा च वक्ष्यति 'बाहिरतवेण होदि खु सव्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता' इति । तथा स्वाध्यायश्रुतभावना पंचविधा तत्र वर्तमानश्चारित्रे परिणतो भवति । तथा च वक्ष्यति 'सुदभावणाए णाणं वंसणतवसंजमं च परिणमदि' त्ति । परिणाम एव उपयोगः । 'कृतातिचारजुगुप्सापुरःसरं वचनमालोचनेति' अकर्तव्यपरिहरणोपयोगः कथं न चारित्रं ? कृतातिचारस्य यतेस्तदतिचारपराङ्मुखता योगत्रयेण हा दुष्टं कृतं चिंतितमनुमतं चेति परिणामः प्रतिक्रमणम् । उभयं चरणोपयोगः । एवमतिचारनिमित्तद्रव्यक्षेत्रादिकान्मनसा अपगतिस्तत्र अनादृतिविवेकः । इति उपयोगता विवेकस्य दुस्त्यजशरीरममत्व निवृत्तिर्ममेदं शरीरं न भवति नाहमस्येति भावना सा च परिग्रहपरित्यागोपयोग एवेति चारित्रम् । तपसोऽनशनादेश्चारित्रपरिकरतोक्तव । सातिचारं चारित्रमचारित्रमेवेति बद्धया निश्चित्यात्मनो. न्यनतापादन नवन्दनादिकासु असंयमपरिहारेण वृत्तश्चारित्रपरिकरः । पुनः प्रव्रज्यादानमपि चारित्रोपयोग एवेति । विनयस्तु पंच प्रकारः ज्ञानदर्शनविनययोनिदर्शनपरिकरतया तदुपयोगरूपतया च ज्ञानदर्शनाभ्यामभेदात्तद्वदेव चारित्राराधनांतर्भावः । . इन्द्रियविषयस्य रागद्वेषयोः कषायाणां च परित्यागः, अयोग्यवाक्कायक्रियायास्त्यागः, ईर्यादिषु निरवद्या च वृत्तिश्चारित्रोपयोग एवेति चारित्रे विनयस्यान्तर्भावः । तपोऽधिके तपसि च भक्तिः, अनासादना च वाले जिनदेवने कहा है । जो सुखको त्यागता है वही चारित्रमें प्रयत्नशील होता है, जिसका चित्त सुखमें आसक्त है वह चारित्र धारण नहीं कर सकता। अतः बाह्य तप चारित्रको प्रारम्भ करनेमें सहायक होते हैं। आगे कहेंगे-'वाह्य तपसे समस्त सुखशीलता छूट जाती है'। तथा स्वाध्यायके पाँच भेद पाँच श्रुत भावनारूप हैं। जो उसमें प्रवृत्ति करता है वह चारित्रमें प्रवृत्ति करता है। आगे कहेंगे-'श्रुतभावनासे ज्ञान, दर्शन, तप और संयमरूप परिणत होता है।' परिणामका ही नाम उपयोग है। किये हए दोषोंके प्रति ग्लानि पर्वक जो वचन होता है वह आलोचना है। तव अकर्तव्यके त्यागमें जो उपयोग होता है वह चारित्र क्यों नहीं है। जिस साधुने अपने व्रतोंमें दोष लगाया है उसका उन दोषोंसे विमख होकर. हाँ. मैंने बरा किया. या बरा विचारा या उसमें अनुमति दी, इस प्रकारके परिणामोंको प्रतिक्रमण कहते हैं। आलोचना और प्रतिक्रमणको उभय कहते हैं । अतिचारमें निमित्त द्रव्य, क्षेत्र आदिका मनसे हटाना, उनमें अनादर भावका होना विवेक प्रायश्चित्त है । इस प्रकार विवेकको उपयोगिता है। जिसको छोड़ना कठिन है उस शरीरसे ममत्व न करना 'यह शरीर मेरा नहीं है, न मैं इसका हूँ' इस प्रकारकी भावना व्युत्सर्ग है वह भी परिग्रहके त्यागरूप उपयोग ही है अतः चारित्र है। ____ अनशन आदि तप चारित्रके परिकर हैं-उसके सहायक हैं, यह पहले कहा ही है सदोष चारित्र अचारित्र ही है ऐसा बद्धिके द्वारा निश्चित करके आत्मामें पूर्णताका लाना, खड़े होना, वन्दना आदि क्रियाओंमें असंयमका परिहार करते हुए प्रवृत्त होना, ये सब भी चारित्रका परिकर है। दोष लगाने पर पुनः दीक्षा ग्रहण करना भी चारित्रमें उपयोग ही है । विनयके पाँच भेद हैं। उनमेंसे ज्ञानविनय और दर्शनविनय ज्ञान और दर्शनके परिकर होनेसे तथा ज्ञान और दर्शनमें उपयोगरूप होनेसे ज्ञान और दर्शनसे अभिन्न हैं अतः ज्ञान और दर्शनकी तरह उनका अन्तर्भाव चारित्राराधनामें होता हैं। ___ इन्द्रियोंके विषयोंमें राग द्वेषका तथा कषायोंका त्याग, अनुचित वचन और कायकी क्रियाका त्याग, तथा ईर्या समिति आदिमें निर्दोष प्रवृत्ति चारित्रोपयोगरूप होनेसे चारित्रविनयका Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३१ परेषां तपोविनयः, तं विना सुतपसोऽभावात् तपसः परिकरता ऽस्या सपरिकरं हि तपश्चारित्रस्य परिकरः । उपयोगो वा नान्या गतिरस्ति' (?) मन्यते । 'असढं चरंतस्स' शाठ्यमंतरेण वर्तमानस्य भवेत्तथा च चतुर्विधा, द्विविधा, एकविधा, वा आराधना स्यात् कस्मान्न निरूप्यते । पुरुषो हि प्रेक्षापूर्वकारी प्रयोजनायत्तचेष्टः सति प्रयोजने तत्साधनाय प्रयतते नान्यथा, तत्कथमियमाराधना व्याख्या प्रयोजिका श्रवणस्येत्याशंकायां, निर्वाणसुखस्याव्याबाधात्मकस्य पुरुषार्थस्योपायत्वप्रदर्शनेन आराधनाव्याख्या तदथिनामुपयोगिनी इत्येतत्प्रतिपादनायोत्तरप्रबंधः । अथवा व्यावणितविकल्पा या आराधना तस्यां चेष्टा कर्तव्येत्येतदाख्यानायोत्तरसूत्राणि, तथा चोपसंहारः 'कादव्वा खु तदत्थं आदहिदगवेसिणा चेछा' इति ॥ अन्येऽत्र व्याचक्षते ज्ञानदर्शनचारित्रेषु किं प्रधानमिति चोये चारित्रप्राधान्यख्यापनायोत्तरसूत्रमिति तदयुक्तम् णाणस्स देसणस्स य सारो चरणं हवे जहाखादं । चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं भणियं ॥११॥ 'णाणस्स दसणस्स य सारो चरणं जहाखादं' इत्युक्त ज्ञानदर्शनाभ्यां प्रधानं चारित्रं इति प्रतीतेरनुअन्तर्भाव चारित्रमें होता है। विशिष्ट तपस्वियोंमें और तपमें भक्ति तथा दूसरोंकी आसादना न करना तपविनय है। उसके बिना सम्यक् तप नहीं हो सकता। अतः तपविनय तपका परिकर है। और अपने परिकरके साथ तप चारित्रका परिकर है। उसके बिना गति नहीं है । जो कपट त्याग कर ऐसा करता हैं उसीके यह तप होता है । इस प्रकार आराधनाके चार, दो और एक भेद हैं। भावार्थ-चारित्र वही धारण करता है जो सुखको त्याग देता है। चारित्रमें उद्यम करना वाह्य तप है । इस तरह बाह्य तप चारित्रका परिकर है उसकी सहायक सामग्री है । और चारित्ररूप परिणाम अन्तरंग तप है । अन्तरंग तपके भेद प्रायश्चित्त आदि पाप प्रवृत्तियोंको दूर करते हैं अतः तप चारित्रसे भिन्न नहीं है ।।११।। पुरुष सोच-विचारकर काम करता है । उसकी चेष्टा प्रयोजनके अधीन होती है। प्रयोजन होने पर उसकी सिद्धिके लिये वह प्रयत्न करता है। प्रयोजन न होने पर नहीं करता। तब यह आराधनाका व्याख्यान कैसे उसका प्रयोजक है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं बाधारहित मोक्ष सुख पुरुषार्थ है वह पुरुषका प्रयोजन है। जो मोक्ष सुखके अभिलाषी हैं उनको उसका उपाय बतलानेके लिये आराधनाका कथन उपयोगी है। यह बतलानेके लिए आगेका कथन करते हैं । अथवा जिस आराधनाके भेदोंका कथन किया है उसमें चेष्टा करना चाहिये यह कहनेके लिये आगेका कथन है । इसीलिये ग्रन्थकारने उपसंहारमें कहा है कि आत्महितके अन्वेषकको उसके लिये चेष्टा करना चाहिये गा०–ज्ञानका और दर्शनका सार यथाख्यात चारित्र होता है। उस यथाख्यात चारित्रका सार सर्वोत्कृष्ट निर्वाण कहा है ॥ ११ ॥ टी०–अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें कौन प्रधान है ऐसा १. नान्यथास्तिता-आ० मु० । २ प्रयोजिता-आ० मु० । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भगवती आराधना पपत्तेः । त्रयाणामपि कर्मापायनिमित्ततास्ति वा न वा? यदि नास्तीत्युच्यते सूत्रविरोधः 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति सूत्रमवस्थितम् । अथोपायतास्ति ? परार्थतया गुणत्वं त्रयाणामिति का प्रधानता चारित्रस्य ? ज्ञानदर्शने चारित्रार्थे चारित्रं तु न तदर्थमिति न यक्तं वक्तं ज्ञानदर्शनयोः साध्यत्वात्तदुपायतया चारित्रस्य चारितं तदर्थमिति तस्य किमित्यप्रधानता न भवति ? न हि चारित्रमंतरेण क्षायिकं ज्ञानं, क्षायिक वीतरागसम्यक्त्वं चोपजायते । तस्मात्पूर्वोक्त एव उत्तरप्रबंधक्रमः । इदं सूत्रं यथाख्यातचारित्रस्वरूपं तत्फलं च गदितं आयातम् । णाणस्स दंसणस्स य सारो' सारशब्दोऽत्रातिशयितगुणवचनः । तथा प्रयोगः "पढमंचि य विगलियमच्छरेण सुयणेण गहियसारम्मि । वोस मोत्तूण खलो गेलउ कम्वम्मि कि अण्णं ॥" [ ] प्रथममेव साधुजनेन विगलितमात्सर्येण गृहीतेऽतिशयितगुणे काव्ये दोषं मुक्त्वा खलः किमन्यद्गृह्णाति इति गाथार्थः ।। ज्ञानदर्शनयोरतिशयितरूपं किं तन्मोहनीयजन्यकलंकरहितं, 'चरणं' चारित्रं । 'हवेत् । 'जहाखादं' यथाख्यातं। तथा चोक्तं "चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो सम्मोत्ति णिहिट्ठो ॥ मोहक्खोहविहूणो परिणामो अप्पणो य समो।" [प्रव० सा० १७] इति । "मोहो द्विविधो दर्शनमोहश्चारित्रमोहश्च । तत्र दर्शनमोहजन्यं अश्रद्धानं शंकाकांक्षाविचि प्रश्न करने पर चारित्रकी प्रधानता बतलानेके लिये यह गाथासूत्र कहा है। किन्तु यह अयुक्त है क्योंकि 'ज्ञान और दर्शनका सार यथाख्यात चारित्र है' ऐसा कहने पर 'चारित्र ज्ञान और दर्शनसे प्रधान है' ऐसी प्रतीति नहीं होती । प्रश्न होता है कि ये तीनों कर्मों के विनाशमें निमित्त है या नहीं ? यदि कहते हो नहीं हैं तो सूत्र में विरोध आता है क्योंकि 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है' ऐसा सूत्र है। यदि तीनों मोक्षके उपाय हैं तो परार्थ-परके लिये होनेसे तीनों गौण हो जाते हैं तब चारित्रको प्रधानता कैसी ? यदि कहोगे कि ज्ञान और दर्शन चारित्रके लिये हैं चारित्र ज्ञानदर्शनके लिये नहीं है, तो ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि साध्य ज्ञान और दर्शन हैं । उनकी सिद्धिका उपाय चारित्र है। अतः चारित्र ज्ञान दर्शनके लिये है तब वह अप्रधान क्यों नहीं हुआ ? चारित्रके बिना न तो क्षायिक ज्ञान होता है और न. क्षायिक वीतराग सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इसलिये जो पूर्वमें उत्तरगाथाके क्रमके सम्बन्धमें कहा है वही युक्त है। यह गाथासूत्र यथाख्यात चारित्रका स्वरूप और उसका फल कहनेके लिये आया है। 'णाणस्स दसणस्स य सारो' यहाँ सार शब्द सतिशय गुणका वाचक है । इस अर्थमें उसका प्रयोग देखा जाता है । किसी कविने कहा है-प्रथम ही मात्सर्य भावसे रहित साधुजनोंके द्वारा काव्यका सार ग्रहण कर लिये जाने पर दोषके सिवाय दुर्जन और क्या ग्रहण करें। यहाँ 'सार' शब्दका प्रयोग सातिशय गुणके अर्थ में ही किया गया है । प्रश्न होता है कि ज्ञान और दर्शनका सातिशय रूप क्या है ? तो वह है मोहनीयसे उत्पन्न हाने वाले कलंकसे रहित यथाख्यात चारित्र । कहा है ___निश्चयसे चारित्र धर्म है और धर्म समभावको कहा है । तथा मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम सम है । मोहके दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह। उनमेंसे दर्शनमोहसे Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका कित्सान्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवरूपं । चारित्रमोहजन्यो रागद्वेषौ तदनुन्मिश्रं ज्ञानं दर्शनं च यथाख्यातचारित्रमित्युच्यते " इति सूत्रार्थः । ' चरणस्स' चारित्रस्य, 'तस्स' तस्य, यथाख्याताख्यस्य, 'सारो' अतिशयितं फलं साध्यसाधनलक्षणसंबंधनिमित्ता षष्ठीयं तेन साध्यफलं लब्धं, सारशब्दस्तु तस्यातिशयमाचष्टे । ततोऽयमर्थो जातः यथाख्यातचारित्रस्य फलमतिशयितमिति । किं तत् 'निव्वाणं' निर्वाणं विनाशः । तथा प्रयोगः - निर्वाणः प्रदीपो नष्ट इति यावत् । विनाशसामान्यमुपादाय वर्तमानोऽपि निर्वाणशब्दस्य चरणशब्दस्य निर्जातकर्मशातनसामर्थ्याभिधायिनः प्रयोगात्कर्मविनाशगोचरो भवति । स च कर्मणां विनाशो द्विप्रकारः, कतिपयप्रलयः सकलप्रलयश्च । तत्र द्वितीयपरिग्रहमाचष्टे - 'अणुत्तरमिति' न विद्यतेऽन्यदुत्तरमधिकं अस्मादित्यनुत्तरं । 'भणिदं' उक्तं 'पवयण' इति शेषः । अथवा ज्ञानश्रद्धानयोः फलं दुःखहेतुक्रियापरिहारः । यदत्र' च फलं तत्र सन्निहितो हेतुस्ततश्चारित्राराधनायां इतरान्तर्भाव' इत्यायातमिदं सूत्रं 'णाणस्स दंसणस्स य सारो चरणं हवे जधाखावं' इति ॥ पापक्रिया दुःखहेतु तत्परिहारश्च असति ज्ञाने श्रद्धाने वा न संभवति क्वचिन्मनसो रंजनं अप्रीतिर्वा पापक्रियाभिनवकर्मसंवरणं चिरंतननिरासं च विदधाति चरणमदो युक्तमुच्यते 'चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं ' इति । अश्रद्धान उत्पन्न होता है । आत्मा, मोक्ष आदिके अस्तित्वमें शङ्काका होना, विषयभोगोंकी इच्छा, धर्मात्माको देखकर ग्लानि, मिथ्यादृष्टीकी मनसे प्रशंसा और वनसे स्तुति करना, ये सब उस अश्रद्धानके रूप हैं | चारित्रमोहसे राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। उनसे रहित ज्ञान और दर्शनको यथाख्यात चारित्र कहते हैं । यह गाथासूत्रका अर्थ है । उस यथाख्यात नामक चारित्रका सार अर्थात् सातिशय फल । यहाँ यह षष्ठी विभक्ति साध्य-साधनरूप सम्बन्धके निमित्तको लेकर है । उससे साध्यफलका बोध होता है । और 'सार' शब्द उसके अतिशयको कहता है । अतः यह अर्थ हुआ कि यथाख्यात चारित्रका सातिशयफल निर्वाण है। निर्वाणका अर्थ विनाश है । कहा जाता है दीपकका निर्वाण हो गया अर्थात् दीपक नष्ट हो गया । इस तरह यद्यपि निर्वाण शब्दका अर्थ विनाशमात्र है तथापि उत्पन्न हुए कर्मोंको नष्ट करने की शक्तिवाले चारित्र शब्दका प्रयोग होनेसे कर्मोंका विनाश अर्थ लिया जाता है । कर्मोंका विनाश दो प्रकारका है— कुछ कर्मोंका विनाश और सब कर्मोंका विनाश । यहाँ दूसरेका ग्रहण किया है क्योंकि 'अणुत्तर' शब्दका प्रयोग किया है। जिससे अधिक कोई नहीं है उसे अनुत्तर कहते हैं । 'भणिदं' अर्थात् आगम में कहा है । ३३ अथवा श्रद्धान और ज्ञानका फल दुःखकी कारण क्रियाओंका त्याग है । यहाँ जो फल है त्याग उसमें उसके हेतु ज्ञान और दर्शन समाविष्ट हैं । अतः चारित्राराधनामें अन्य आराधनाओंका अन्तर्भाव होनेसे 'ज्ञान और दर्शनका सार यथाख्यातचारित्र है' यह गाथा सूत्र आया है । पापकर्म दुःखके कारण हैं । उनका त्याग ज्ञान और श्रद्धानके विना सम्भव नहीं है । किसी में मनका अनुरक्त होना और किसीसे द्वेष करना पापक्रिया है । चारित्र नवीन कर्मोंके आनेको रोकता है और पुराने कर्मोंका विनाश करता है । अतः उचित ही कहा है कि उस चारित्रका सार सर्वोत्कृष्ट निर्वाण है ॥११॥ भावार्थ - रागद्वेषसे रहित ज्ञान और दर्शनको ही आगम में यथाख्यात चारित्र कहा है । उसका सार निर्वाण अर्थात् समस्त कर्मोंका विनाश है। निर्वाणसे उत्कृष्ट अन्य नहीं है ॥ ११॥ १. यस्तच्च -आ० मु० । २. इतरेतरान्त - आ० मु० । ५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना यज्ज्ञानं दुःखहेतुनिराकरणफलमित्यस्यान्वयप्रसाधनाय दृष्टान्तमाह चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहरणं । चक्खू होइ णिरत्थं दळूण बिले पडंतस्स ॥१२॥ 'चक्खुस्स दंसणस्स य सारों' इति । 'चक्खुस्स' चक्षुष : । द्रव्येन्द्रियमिह चक्षुरिति गृहीतं निर्वृतिरुपकरणं च तज्जन्यत्वादरूपगोचरं विज्ञानं दर्शनं तस्य संबंधितयोच्यते । ततोऽयमों जायते-चक्षुर्जन्यायाः प्रतीतेः सारो फलं कि 'सप्पादिदोसपरिहरणं' सर्पकंटकादीनां स्पर्शनादिक्रियायाः दुःखदायिन्याः परिहारः सादिभिः संपाद्यत्वात स्पर्शनभक्षणादिकः क्रियाविशेषः सर्पादिदोष इत्युच्यते, तस्य परिहरणं परिवर्जनं ततोऽयं वाक्यार्थ:-यज्ज्ञानं तदुःखनिराकरणफलं यथा चक्षुर्जन्यसादिगोचरज्ञानं सादिस्पर्शनभक्षणांदिपरिहरणफलमिति । चक्षुनिमिह चक्षुरुच्यते चक्षुःप्रसूतं ज्ञानं । 'होदि' भवति । 'णिरत्थं' निरर्थकं । 'दळूण' दृष्ट्वा ज्ञात्वा विलादिकमग्रतः स्थितं, बिलग्रहणमुपलक्षणं उपघातकारिणाम् । 'पडतस्स' पततः पुरुषस्य । ___ अत्रापरा व्याख्या-ज्ञानाद्दर्शनाच्चात्मोपकारिविशिष्टफलदायिचारित्रं इत्युक्तं । ननु ज्ञानमिष्टानिष्टमार्गोपदशि तद् युक्तं ज्ञानस्योपकारित्वमभिधातुं इति चेन्न ज्ञानमात्रेणेष्टार्थसिद्धिः, यतो ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समं । अत्र वस्तुनि दृष्टान्तदर्शनेन निगमयति-'चक्खुस्स दंसणस्स य, इति । ज्ञानदर्शनाभ्यामपि चारित्रस्यात्मोपकारिता कस्मिन्सूत्रे निगदिता येनोक्तमित्युच्यते । अतीतसूत्र इति चैतन्मिथ्या गाणस्स दसणस्स य सारो चरणं हवे जहाखादं' । इत्यतो वाक्यात्कि ज्ञानदर्शनाम्यां चारित्रमेवोपकारीत्ययं प्रत्ययो दुःखके कारणोंको दूर करना ज्ञानका फल है इस अन्वयकी सिद्धिके लिए दृष्टान्त कहते हैं गा०-चक्षुसे देखनेका सार सर्प आदि दोषोंसे दूर रहना है। देखकर भी आगे वर्तमान साँपके बिलमें गिरनेवाले मनुष्यकी आँख व्यर्थ है ॥१२॥ टी०-यहाँ 'चक्षु' से निर्वृति और उपकरणरूप द्रव्येन्द्रियका ग्रहण किया है। उससे उत्पन्न और रूपको जाननेवाले ज्ञानको यहाँ दर्शन कहा है। उससे यह अर्थ होता है-चक्षुसे होनेवाले ज्ञानका फल सर्प, कण्टक आदिकी दुःख देनेवाली क्रिया-काटना या पैरमें लगना आदिसे बचना है । गाथामें सर्पादिदोषसे वचना है। सो सर्प आदिके द्वारा किये जानेवाले स्पर्शन, काटना आदि क्रिया विशेषको सर्पादिदोष कहा जाता है। उसका परिहार फल है। तव वाक्यका अर्थ यह हुआ-जो ज्ञान है उसका फल दुःखका निराकरण है। जैसे चक्षुसे होनेवाले सादिके ज्ञानका फल सादिके स्पर्शसे उनके काटने आदिसे बचना है। यहाँ चक्षुसे चक्षुज्ञान अर्थात् चक्षुसे होनेवाला ज्ञान लेना चाहिए। आगे स्थित साँपके बिल आदिको देखकर भी, जानकर भी, उसमें गिरनेवाले मनुष्यका, चक्षुज्ञान, निरर्थक है। इस गाथाकी अन्य व्याख्याकार इस प्रकार व्याख्या करते हैं-'ज्ञान और दर्शनसे चारित्र आत्माका विशेष उपकारी और विशिष्ट फलदायी है ऐसा कहा है। यदि कोई कहता है कि ज्ञान इष्ट और अनिष्टमार्गका दर्शक है अतः उसको उपकारी कहना युक्त है। तो उसका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञानमात्रसे इष्टकी सिद्धि नहीं होती, आचरणहीन ज्ञान 'न हुए' के समान है । यहाँ दृष्टान्तके द्वारा उसका समर्थन करते हैं 'चक्खुस्स दंसणस्स' इत्यादि ? ____ इन व्याख्याकारसे हम पूछते हैं कि ज्ञान और दर्शनसे भी चारित्र आत्माका विशेष उपहारी है यह किस गाथासूत्र में कहा है ? यतः आप कहते हैं-'कहा है'। यदि कहोगे कि पिछले Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३५ जायते ? एवमिति तदनुभवविरुद्धमाचरतीत्युपेक्ष्यते, न चेत्कथमुक्तमित्युच्यते । किंच तस्य सूत्रस्य या पातनिका कृता ज्ञानदर्शनचारित्रेषु किं प्रधानमित्यत्र प्रश्ने, प्रधानस्य निरूपणार्थ सूत्रमित्यनया च विरुव्यते। चरणस्स तस्स सारो णिब्याणमणुत्तरं भणियं' इत्युक्तं चारित्रस्य समतारूपस्य फलमशेषकर्मापाय इत्युक्तं । कर्मापायो हि कथं पुरुषार्थः दुःखनिवृत्तिः सुखं चाभिमतं फलमित्यारेकायां प्रधानपुरुषार्थस्य अखिलबाधाव्यपगमरूपस्य सुखस्य निबंधनतयोपयोगितामाचष्टे सकलकर्मापायस्य णिव्वाणस्स य सारो अव्वाबाहं सुहं अणोवमियं ॥ कायव्वा हु तदह्र आदहिदगवेसिणा चेट्ठा ॥१३॥ "णिव्वाणस्स य सारो' इति । निरवशेषकर्मापायस्य सारः फलं । अन्वाबाहं कर्मजन्यसकलदुःखापायः कारणाभावे कार्यस्य अनुत्पत्तेः । 'अणोवमियं' उपमातीतं । 'कादम्वा' कर्तव्या। 'चेट्ठा' चेष्टा। 'तदळं' अव्यावाधसुखार्थम् । 'आदहिदगवेसिणा' आत्महितं मृगयता। क्व चेष्टा कार्या ? आराधनायां मृतावनतिचारज्ञानदर्शनचारित्रपरिणतिरूपायां । कस्मात् ? जम्हा चरित्तसारो भणिया आराहणा पवयणम्मि । सव्वस्स पवयणस्स य सारो आराहणातम्हा ।।१४।। 'जम्हा' यस्मात् 'चरित्तसारो' चारित्रस्य ज्ञाने दर्शने पापक्रियानिवृत्तौ च प्रयतस्य, चरणं प्रवृत्तिः गाथासूत्र में कहा है तो यह मिथ्या कथन है 'ज्ञान और दर्शनका सार यथाख्यात चारित्र है' इस वाक्यसे 'ज्ञान और दर्शनसे चारित्र विशेष उपकारी है' ऐसा बोध होता है क्या ? यदि कहोगे 'होता है तो आपका आचरण अनुभव विरुद्ध है अतः वह उपेक्षणीय है। यदि कहोगे 'नहीं होता' तो आपने ऐसा क्यों कहा? दूसरे, उस गाथासूत्रकी जो उत्थानिका है उसमें 'ज्ञान दर्शन चारित्रमें कौन प्रधान है' ऐसा प्रश्न करनेपर प्रधानका कथन करनेके लिए गाथासूत्र कहते हैं ऐसा कहा है, उससे भी विरोध आता है ॥१२॥ • 'चरणस्स तस्स सारो' इत्यादिमें समतारूप चारित्रका फल समस्त कर्मोंका विनाश कहा है। किन्तु कर्मोंका विनाश पुरुषार्थ कैसे है ? दुःखकी निवृत्ति और सुखको फल कहा है ऐसी आशङ्का होनेपर ग्रन्थकार प्रधान पुरुषार्थ जो बाधारहित सुख है, उसका कारण होनेसे समस्तकर्मोंके विनाशकी उपयोगिता बतलाते हैं गा०-निर्वाणका सार बांधारहित उपमारहित सुख है। अतः आत्महितके खोजीको उस अव्याबाध सुखकी प्राप्तिके लिए चेष्टा करना चाहिए ॥१३।। टो०-समस्तकर्मोंके विनाशका फल कर्मजन्य समस्त दुःखोंसे रहित, उपमारहित सुख है। अतः आत्महितके खोजीको, उस बाधारहित सुखके लिये, चेष्टा करना चाहिए। अर्थात् निरतिचार ज्ञानदर्शनचारित्रकी परिणतिरूप आराधनाको अपनाना चाहिए ॥१३॥ - गा०-क्योंकि प्रवचनमें चारित्रका फल आराधना कहा है। इसलिए समस्त प्रवचनका सार आराधना ही है ॥१४॥ टो०-ज्ञानमें, दर्शनमें, और पापकर्मसे निवृत्तिमें जो प्रयत्नशील है उसकी परिणतिको Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ भगवती आराधना परिणतिरिह चारित्रशब्देन गृहीता, ततोऽयमर्थो लब्धः 'सारः फलमिति । 'भणिदा' कथिता ! 'आराहणा' आराधना मृतो अनतिचाररत्नत्रयता । 'पवयणम्मि' प्रोच्येत दृष्टष्टत्रमाणाविरुद्धेन जीवादयः पदार्था अनेनास्मिन्वेति प्रवचनं जिनागमस्तस्मिन् । अतिशयवत्ताराधनाया प्रक्रांताया उपसंहरत्युत्तरार्द्धेन सव्वस्स इत्यादिना । 'सव्वस्त' नमस्तस्य । 'पवयणस्स' जिनागमस्य । 'सारो' अतिशयः । 'आराहणा' आराधना व्यावर्णितरूपा । 'तम्हा' तस्मात् । च शब्द एवकारार्थः । स चाराधनाशब्दात्परतो द्रष्टव्यः आराधनैव सार इति । अन्यत्र व्याख्या - यदिदमुक्तं फलं एतच्चारित्रमात्रादुत विशिष्टाज्जायते इत्याह-जम्हा चरित्तसारो इति । किं पातनिकार्थो गाथायां संवादमुपयाति न चेतीत्यत्र श्रोतारः प्रमाणं ||१४|| कस्मात् ? अतिशयवत्तयाराधनागमेऽभिहिता यस्मात् सुचिरमवि णिरदिचारं विहरित्ता णाणदंसणचरिते ॥ मरणे विराधयित्ता अनंतसंसारिओ दिट्ठो ॥ १५ ॥ 'सुचिरं ' अतिचिरकालमपि । 'णिरदिचारं' अतिचारमंतरेण । 'विरहिता' विहृत्य । क्व ? 'णाणदंसणचरिते' ज्ञाने श्रद्धाने समतायां च । 'मरणे' भवपर्याविनाशकाले । विराधयित्ता रत्नत्रयपरिणामान्विनाश्य मिथ्यादर्शनेऽज्ञानेऽसंयमे परिणतो भूत्वा । 'अनंतसंसारिओ' अनंतभवपर्यायपरिवर्तने उद्यतः । 'दिठ्ठी' दृष्टः | देशोनं पूर्वकोटीकालं अनतिचाररत्नत्रयप्रवृत्तानामपि मरणकाले ततः प्रच्युतानां मुक्त्यभावं संसारे चिरपरिभ्रमणकथनव्याजेन दर्शनं दर्शयति सूत्रकारः ॥ १५ ॥ यहाँ चारित्रशब्दसे ग्रहण किया है । तब यह अर्थ प्राप्त होता है कि चारित्रका फल, प्रवचन मेंजिसके द्वारा अथवा जिसमें जीवादिपदार्थ प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे अविरुद्ध कहे जाते हैं। वह प्रवचन अर्थात् जिनागम है उसमें आराधनाको कहा है । गाथाके उत्तरार्धद्वारा प्रकरण प्राप्त आराधनाकी अतिशयवत्ताका उपसंहार करते हैं--इस कारण से समस्त जिनागमका सार आराधना है । गाथामें जो 'य' च शब्द है वह एवकार ( ही ) के अर्थमें है और उसे आराधना शब्दके आगे लगाना चाहिए अर्थात् जिनागमका सार आराधना ही है । अन्यत्र इस गाथाकी व्याख्या इस प्रकार की गई है - यह जो फल कहा है वह चारित्र सामान्यसे प्राप्त होता है या विशिष्टचारित्रसे प्राप्त होता है । इसके उत्तरमें आचार्यने 'जम्हा चरितसारो' आदि गाथा कही है । हमारा प्रश्न है कि इस आपकी उत्थानिकाके अर्थका गाथाके साथ मेल खाता है क्या ? इस विषय में श्रोतागण ही प्रमाण हैं । हम अधिक क्या कहें ||१४|| आगममें आराधनाकी अतिशयवत्ता क्यों कही है इसका समाधान करते हैं गा-ज्ञान श्रद्धान और चारित्रमें बहुत कालतक भी अतिचार विना विहार करके मरणकालमें विराधना करके अनन्तभव धारण करनेवाला देखा गया है ।। १५ ।। टी० - ज्ञानमें, दर्शनमें और समतारूप चारित्रमें सुदीर्घकालतक अतिचार रहित विहार करके भी अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्रका निर्दोष पालन करके भी जब उस पर्यायके विनाशका समय आवे अर्थात् मरते समय यदि रत्नत्रयरूप परिणामोंको नष्ट करके मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयमरूप परिणामोंको अपनावे तो उसका संसार अनन्त होता है । अर्थात् कर्मभूमिमें मनुष्यपर्यायकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटी होती है । आठ वर्षकी अवस्थाके पश्चात् संयम धारण करके कुछ कम एक पूर्वकोटिकालतक उसका निरतिचार पालन किया । किन्तु मरणकाल आनेपर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३७ अनुपगतमिथ्यात्वस्य अविचलितचारित्रस्यापि परीषहपरिभवादुपगतसंक्लेशस्य महती संसृतिरिति भयोपदर्शनेन संवलेशः परित्याज्यः इति निगदति सूत्रकारः ‘समिदोसु य' इत्यादिना-- समिदिसु य गुत्तीसु य दंसणणाणे य णिरदिचाराणं । . आसादणबहुलाणं उक्कस्सं अंतरं होई ।। १६ ॥ अन्ये व्याचक्षते--"उक्तस्यानंतसंसारस्य प्रमाणप्रतिपादनाय आयाता गाथा अनंतस्यानंतविकल्पत्वात् अनंतविशेषः प्रतिपादनीयः" इति । अस्यां व्याख्यायां उक्कस्सं अंतर होदीत्येतावदुपयुज्यते । इतरस्य वचनसंदर्भस्य अनर्थकत्वं प्रसज्यत इति । समिदीसु य सम्यगयनादिषु अयनं समितिः, सम्यकश्रुतज्ञान निरूपितक्रमण गमनादिष वत्तिः समितिः । सावद्ययोगेभ्य आत्मनो गोपनं गुप्तिः । वस्तुयाथात्म्यश्रद्धानं दर्शनं । अपेतमिथ्यात्वकलङ्कस्यात्मनो वस्तुतत्त्वपरिज्ञानं मत्यादिक्षायोपशमिकं ज्ञानं । क्षायिके सति ज्ञाने आसादनाया असंभवः । मोहजन्यत्वात्संक्लेशस्य, मोहस्य च केवलज्ञानोत्पत्तेः प्रागेव विनष्टत्वात । तथा चोक्तं-'मोहक्षयाज्ज्ञानवर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् [त० सू० १०१] इति । वीतरागसम्यक्त्वं चेह न गृहीतम् । मोहप्रलय उससे च्युत हो गया तो संसारमें चिरकालतक भ्रमण करना पड़ता है । इस चिरकाल परिभ्रमणके बहानेसे सूत्रकार उसकी मुक्तिका अभाव बतलाते हैं ।।१५।। जो मिथ्यात्वभावको प्राप्त नहीं हुआ है जिसका चारित्र भी निश्चल है फिर भी यदि वह परीषहसे घबराकर संक्लेशभावको प्राप्त होता है तो उसका संसार सुदीर्घ है, ऐसा भय दिखलाकर ग्रन्थकार संक्लेशको त्यागनेका उपदेश देते हैं गा०-समितियोंमें और गुप्तियोंमें और दर्शन और ज्ञानमें जो अतिचार रहित प्रवृत्ति करते हैं। किन्तु मरणकाल आने पर परीषहके भयसे समिति आदिमें बारम्बार दोष लगाते हुए संक्लेश परिणाम करते हैं उनका अर्धपुद्गल परावर्तन काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। अर्थात् मरते समय रत्नत्रयसे च्युत होकर पुनः उतना काल बीतने पर रत्नत्रय प्राप्त करते हैं ।।१६।। टीका-अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि 'ऊपर जो अनन्त संसार कहा है उसका प्रमाण बतलानेके लिए यह गाथा आई है। क्योंकि अनन्तके अनन्त भेद होते हैं अतः अनन्तविशेषका कथन करना आवश्यक था । इस व्याख्या में 'उत्कृष्ट अन्तर होता है' गाथा के इस अन्तिम चरणकी उपयुक्तता तो होती है, किन्तु शेष वचन रचना निरर्थक पड़ जाती है । अस्तु । सम्यक् अयनको समिति कहते हैं। सम्यक् अर्थात् श्रुतज्ञानमें कहे गये क्रमके अनुसार चलने आदिमें प्रवृत्ति करना समिति है। सावध योगोंसे अर्थात् सदोष मन वचन कायकी प्रवृत्तिसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षण करना गुप्ति है । वस्तुका जैसा स्वरूप है वैसा ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। मिथ्यात्वरूप कलंकसे रहित आत्माके वस्तुतत्त्वके परिज्ञानको मति आदिरूप क्षायोपशमिक ज्ञान कहते हैं। यहाँ क्षायोपशमिक ज्ञानको ही लेनेका हेतु यह है कि क्षायिकज्ञानके होते उसमें दोष लगाना असम्भव है। क्योंकि संक्लेश मोहके उदयसे होता है और मोहकर्म केवलज्ञानके उत्पन्न होनेसे पहले ही नष्ट हो जाता है। कहा भी है-'मोहके क्षयसे तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान होता है।' यहां दर्शनसे वीतराग सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं किया गया है क्योंकि मोहका नाश हए विना वीतरागता नहीं होती। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ भगवती आराधनां आदातव्यस्य, मन्तरेण वीतरागता नास्तीति । ईयसिमिते रतिचार: मंदालोकगमनं, पदविन्यासदेशस्य सम्यगनालोचनम्, अन्यगतचित्तादिकम् । इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालोच्य भाषणं, अज्ञात्वा वा । अत एवोक्तं 'अपुट्ठो दु ण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' इति । अपुष्टश्रुतधर्मतया मुनिः अपुष्ट इत्युच्यते । भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात् इत्यर्थः । एवमादिको भाषासमित्यतिचारः । उद्गमादिदोषे गृहीतं भोजनमनुमननं वचसा, कायेन वा प्रशंसा, तैः सहवासः, क्रियासु प्रवर्तनं वा एषणासमित्यतीचारः । स्थाप्यस्य वा अनालोचनं, किमत्र जंतवः सन्ति न सन्ति वेति दुःप्रमार्जनं च आदाननिक्षेपण समित्यतिचारः । कायभूम्यशोधनं, मलसंपात देशानिरूपणादि, पवनसंनिवेशदिनकरादिषूत्क्रमेण वृत्तिश्च प्रतिष्ठापनासमित्यतिचारः । असमाहितचित्ततया कायक्रियानिवृत्तिः कायगुप्तेरतिचारः । एकपादादिस्थानं वा जनसंचरणदेशे, अशुभध्यानाभिनिविष्टस्य वा निश्चलता । आप्ताभासप्रतिबिंबाभिमुखतया वा तदाराधनाव्याप्त इवावस्थानं । सचित्तभूमौ संपतत्सु समंततः अशेषेषु महति वा वाते हरितेषु, रोषाद्वा दर्पाद्वा तूष्णीं अवस्थानं निश्चला स्थितिः कायोसर्गः काय गुप्तिरित्यस्मिन्पक्षे शरीरममताया अपरित्यागः कायोत्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचारः । रागादिसहिता स्वाध्याये वृत्तिर्मनोगुप्ते रतिचारः । 'शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दर्शनातीचाराः । द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिमंतरेण श्रुतस्य पठनं श्रुतातिचारः । अक्षरपदादीनां न्यूनताकरणं, अतिवृद्धिकरणं, विप मन्द प्रकाशमें चलना, पैर रखनेके स्थानको अच्छी तरह न देखना, गमन करते समय चित्तका उपयोग अन्यत्र होना, ये ईर्यासमिति के अतीचार हैं । यह वचन मुझे कहना युक्त है अथवा नहीं, ऐसा विचार किये बिना बोलना, या बिना जाने बोलना । इसीसे कहा है- 'बोलनेवालेके बीचमें बिना समझे नहीं बोलना चाहिये ।' ऐसे मुनिको जिसने शास्त्रकी बातको पुष्ट रूपसे नहीं सुना है अपुष्ट कहा है। अपुष्ट मुनिको बीचमें नहीं बोलना चाहिये । भाषासमितिके क्रमसे जो अनजान है उसे मौन ले लेना चाहिये । इत्यादि भाषा समितिके अतीचार हैं । उद्गम आदि दोष होने पर भी भोजन ले लेना, वचन से उसकी अनुमति देना, कायसे उसकी प्रशंसा करना, ऐसे मुनियोंके साथ रहना, या क्रियाओं में उनके साथ प्रवृत्ति करना, एषणासमिति - के अतीचार हैं । जो वस्तु ग्रहण करने योग्य या रखने योग्य है, उसे ग्रहण करते या स्थापित करते समय 'यहाँ जन्तु हैं या नहीं' ऐसा नहीं देखना या पिच्छिकासे सावधानता पूर्वक प्रमार्जन न करना आदाननिक्षेपण समितिके अतीचार हैं। शरीर और भूमिका शोधन न करना, मलत्याग करनेके स्थानको न देखना आदि प्रतिष्ठापना समितिके अतीचार हैं । चित्तके असावधान रहते हुए शारीरिक क्रियाका रोकना कायगुप्तिका अतीचार है । जहाँ मनुष्य आते जाते हैं वहाँ एक पैर आदिसे खड़े होना, अशुभ ध्यानमें लीन होकर निश्चल होना, मिथ्या देवताओंकी मूर्तिके सन्मुख ऐसे खड़े होना मानों उनकी आराधनामें लगे हैं, सचित्त भूमिमें जहाँ चारों ओर हरित वनस्पति फैली है, क्रोध या घमण्डसे मौनपूर्वक निश्चल खड़े होना कायगुप्तिके अतीचार हैं । जो कायोत्सर्गको कायगुप्ति मानते हैं उनके पक्षमें शरीरसे ममत्वको न छोड़ना अथवा जो कायोत्सर्गके दोष कहे हैं वे कायगुप्तिके अतीचार हैं । स्वाध्यायमें रागादिसहित प्रवृत्ति मनोगुप्तिका अतीचार है । शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा, संस्तव ये सम्यग्दर्शनके अताचार हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी शुद्धिके बिना श्रुतका पढ़ना श्रुतका अतीचार है | अक्षर १. 'शंका'सम्यग्दृष्टेरतीचाराः' - त० सू० ७/२३ । 1 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका रीतपौर्वापर्यरचनाविपरीतार्थनिरूपणा गंथार्थयोर्वेपरीत्यं अमी ज्ञानातिचाराः। उक्तातिचारविगमो निरतिचारता चारित्रादीनाम् । मरणकाले रत्नत्रयपरिणामाभावे दोष उक्तः । इदानीमा राधनाफला तिशयख्यापनायाह- दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा य ।। आराहया चरित्तस्स तेण आराहणा सारो ॥ १७ ॥ दिट्ठा इत्यादिकं । 'विट्ठा' दृष्टा उपलब्धाः । 'अणादिमिच्छाविट्ठी' अनादिमिथ्यादृष्टयः । भद्दणादया राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे असतामापन्नाः अत एवानादिमिथ्यादृष्टयः प्रथमजिनपादमूले श्रुतधर्मसाराः समारोपितरत्नत्रयाः । 'जम्हा' यस्मात्क्षणेन क्षणग्रहणं कालस्याल्पत्वोपलक्षणार्थम्, अन्यथा क्षणस्याल्पकालतया कर्मशातनस्य कर्तुमशक्यत्वात्, सकलकर्मशातनपुरस्सर सिद्धत्वमेव न स्यात् । 'सिद्ध य' सिद्धाश्च परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावाः, चशब्देन निरस्तद्रव्यभावकर्मसंहतयश्च, दृष्टा आराधनासंपादकाः । चरित्तस्स चारित्रस्य । चारित्रग्रहणं रत्नत्रयोपलक्षणं । एतेन चारित्राराधनां स्तौति इत्येतद्वयाख्यानं निरस्तं । चारित्राराधनास्तवनस्य नाय प्रस्तावः । आयुरते रत्नत्रमपरिणतिरिह प्रक्रांता स्तोतुं, किमुच्यते चारित्राराधनां स्तौतोति । पद आदिको कम करना या उनको बढ़ाना, आगेको पीछे और पीछेके पाठको आगे करके पौर्वापर्य रचनामें विपरीतता करना, विपरीत अर्थ करना, ग्रन्थ और अर्थमें विपरीतता करना, ये ज्ञानके अतीचार हैं। चारित्र आदिमें कहे अतिचारोंको न लगाना निरतिचारता है। विशेषार्थ-पं० आशाधरने अपने मूलाराधना दर्पणमें लिखा है कि जयनन्दि इस गाथाको पूर्वकी गाथाकी संवादगाथा मानते हैं ॥१६।। मरते समय रत्नत्रयरूप परिणामोंका अभाव होने में दोष कहा। अव आराधनाके फलका अतिशय कहते हैं गा०-क्योंकि रत्नत्रयके आराधक अनादिमिथ्या दृष्टि क्षणमात्रमें अर्थात् अल्पकालमें द्रव्यकर्म भावकर्मसे रहित सिद्ध देखे गये हैं । इसलिये आराधना सार है ।।१७|| टीका-भद्दण आदि राजपुत्रोंने उसी भवमें त्रसपर्याय प्राप्त की थी। अतएव वे अनादिमिथ्यावृष्टि थे । उन्होंने भगवान् ऋषभदेवके पादमूलमें धर्मका सार सुनकर रत्नत्रय धारण किया था और क्षणमात्रमें सिद्धत्व पद प्राप्त किया था। यहाँ 'क्षण' शब्दका ग्रहण कालकी अल्पताके उपलक्षणके लिये किया है। अन्यथा 'क्षण' वहुत छोटा काल है उतने कालमें समस्त कर्मोंका नाश करना अशक्य है और तब समस्त कर्मों के विनाशपूर्वक होनेवाला सिद्धत्व ही प्राप्त नहीं हो सकंगा । जिन्होंने समस्त ज्ञानादिस्वभावको प्राप्त कर लिया है और 'च' शब्दसे द्रव्यकर्म और भावकों के समूहको नष्ट कर दिया है उन्हें सिद्ध कहते हैं। यहाँ चारित्रका ग्रहण रत्नत्रयका उपलक्षण है। __अतः जो 'चारित्राराधनाका स्तवन करते हैं। ऐसा व्याख्यान करते हैं उसका निरास कर दिया है । यह प्रकरण चारित्राराधनाके स्तवनका नहीं है । यहाँ तो आयुके अन्त समयमें रत्नत्रयरूप परिणतिका स्तवन है । तब चारित्राराधनाके स्तवनकी बात क्यों करते हैं। भावार्थ-अनादिकालसे मिथ्यात्वका उदय होनेसे नित्यनिगोदपर्यायमें रहकर भद्र-विवर्द्धन आदि ९२३ भरतचक्रवर्तीके पुत्र हुए और उन्होंने भगवान् ऋषभदेवके पादमूलमें धर्म सुनकर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'सबस्स पवयणस्स य सारो आराहणा तम्हा' इति यदुच्यते, यस्मिन्नेव काले मरणं तस्मिन्नेव काले रत्नत्रयपरिणतेन भाव्यं हितार्थिना अन्यदा किमिति चारित्र तपसि स प्रयासः क्रियते इति शिष्यशंकामुपन्यस्यति सूत्रकारः जदि पवयणस्स सारो मरणे आराहणा हवदि दिट्ठा । किंदाई सेसकाले जदि जददि तवे चरित्ते य ।। १८ ।। . अदि पवयणस्स इत्यादिना । 'पवयणस्स' प्रवचनस्य । 'सारों' अतिशय इति । 'मरणे' आयुरते । 'आराहणा' आराधना रत्नत्रयपरिणतिः । 'जदि विठा' इति पदसंबंधः । यद्युपलब्धा । 'हववि' भवेत् । 'किदाई' किमिदानीं। 'सेसकाले' मरणकालादन्यः कालः शेषकालस्तत्र 'जददि' प्रयतनं क्रियते। क्व 'तवें' तपसि. 'चरित्ते' सामायिकादिके सावधक्रियापरिहारात्मके। चशब्दात् ज्ञानदर्शनयोश्च । एतदूवतं भवतिग्रहणकालादिषु भावितरत्नत्रयस्यापि मरणे तदभावे यदि सिद्धिः, अकृतभावनस्यापि मृतौ रत्नत्रयसान्निध्यात्सा सिद्धियदि भवति मरणधना सा महती संसृतिमावहति । अन्यदा जातायामपि विराधनायां मृतिकाले रत्नत्रयोपगतो संसारोच्छित्तिर्भवत्येव । ततो मरणकाले प्रयत्नः कार्य इत्यस्माभिरुपन्यस्तं । इतरकालवृत्तं तु रलत्रयं संवरनिर्जरयोर्कीतिकर्मणां च क्षयनिमित्तं इतीष्यत एव । तथा चोक्तं-'सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः' [त.सू० ९।४५] इति । रत्नत्रय धारण किया और अल्पकालमें ही सिद्धपद प्राप्त किया। इससे सिद्ध होता है कि आयुके अन्तमें आराधना सर्वोत्कृष्ट है ॥१७॥ यदि 'समस्त प्रवचनका सार आराधना है तो जिस कालमें मरण हो उसी कालमें अपना हित चाहनेवालेको रत्नत्रय धारण करना चाहिए, अन्यकालमें चारित्र और तपमें प्रयास क्यों किया जाये ? शिष्यकी इस शंकाको गाथासूत्रकार उपस्थित करते हैं गा०-प्रवचनका अतिशय आयुके अन्तमें आराधना यदि देखी जाती है। तो क्यों इस समय मरणकालसे अन्यकालमें यति तप चारित्र और ज्ञानदर्शनमें यत्न करता है ? ॥१८॥ टीका-गाथामें आये 'च' शब्दसे ज्ञान और दर्शन लेना चाहिए। कहनेका आशय यह है कि मरणकालसे भिन्नकालमें अर्थात् दीक्षा ग्रहण, शिक्षाकाल आदिमें रत्नत्रयका पालन करनेपर भी यदि मरणकालमें उसका पालन न किया जाये तो मुक्तिको प्राप्ति नहीं होती, और अन्यकालमें रत्नत्रयकी भावना न करके भी मरते समय रत्नत्रय धारण करनेसे वह मुक्ति यदि प्राप्त होती है तब तो मरणकालमें होनेवाला रत्नत्रय ही मोक्षका कारण हुआ । अतः शेषकालमें उसका प्रयास करना निष्फल हुआ। इसका उत्तर देते हैं-मरण समय जो रत्नत्रयकी विराधना है वह संसारको बहत दीर्घ करती है। किन्तु अन्यकालमें विराधना होनेपर भी मरते समय रत्नत्रय धारण करनेपर संसारका उच्छेद होता ही है। अतः मरणकालमें प्रयत्न करना चाहिए यह हमने कहा है। अन्य धारण किया गया रत्नत्रय संवर, निर्जरा और घातिकर्मोका क्षय करने में निमित्त होता है इसलिए उसे हम स्वीकार करते ही हैं । तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-सम्यग्दृष्टि, श्रावक, मुनि अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, उपशम श्रेणीवाला, उपशान्तमोह, क्षपकश्रेणिवाला, क्षीणमोह और जिन इनके क्रमसें असंख्यातगुनी असंख्यातगुनी निर्जरा होती है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ विजयोदया टीका एतेषामसंख्यातगुणनिर्जराः सम्यग्दर्शनादिगुणनिमित्तात्कथमफलता । क्षायिकं सम्यक्त्वं ज्ञानं चारित्रं च यत्साध्य तदखिलमवाप्यत एव इतरकालवृत्तयापि भावनया । तदेव चोद्यं चोद्यते इति चेतसि कृत्वा सूरिश्चोद्यानुसारेणापि परिहत्तुं शक्यते इत्याचष्टे आराहणाए कज्जे परियम्म सव्वदा वि कायव्वं । परियम्मभाविदस्स हु सुहसज्झाराहणा होइ ॥ १९ ॥ आराहणाए कज्जे इति । आराधनाशब्दः सम्यग्दर्शनादिपरिणामसंसिद्धिमनाश्रितकालभेदां प्रतिपादयितुं उद्यतोऽपि मरणे विधायित्ता इत्यत्र मरणकालविशेषस्य प्रस्तुतत्वात प्रकरणानुरोधेन तद्विषयायामेवाराधनायां गृह्यते । ततोऽयमर्थः-मृतिकालगोचररत्नत्रयसिद्धयर्थ 'परियम्म' परिकर्म परिकरः । 'सव्वदा' सर्वस्मिन्नपि काले-ग्रहणकालः, शिक्षाकालः, प्रतिसेवनाकालः सल्लेखनाकालश्चेह सर्वशब्देन गृह्यते । 'करणिज्ज' अवश्यकरणीयं । कुतोऽयं नियोग इत्याशंक्याह-'परिकम्मभाविदस्स' 'खु' परिकरण भावितस्यैव 'खु' शब्दोऽवधारणार्थः । 'सुखसज्झा' होदि' सुखेन क्लेशमंतरेण साध्या भवति । का 'आराधणा' आराधना मृतिगोचरा । येन हि यत्साध्यं तेन पूर्व तस्य परिकरोऽनुष्ठेय इत्यमुं अर्थ दृष्टांतवलेन साधयितुमुत्तरसूत्रम् । तथा च वदंति 'दृष्टांतसिद्धावुभयोविवादे साध्यं प्रसिद्धयेत्' [स्वयंभू स्तो० ५४] इति । जह रायकुलपसूओ जोग्गं णिच्चगवि कुणइ परियम्मं । तो जिदकरणो जुद्धे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ।। २० ॥ तो जब इनके सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके निमित्तसे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है तो वे निष्फल कैसे हैं ? जो साध्य है क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र वह सब, अन्यकालमें की गई रत्नत्रय भावनासे प्राप्त होता ही है ।।१८।। उक्त गाथामें उठाये गये तर्कको मनमें रखकर आचार्य तर्कके अनुसार भी उसका परिहार हो सकता है यह कहते हैं ___ गा०-आराधनाके कार्यके लिये परिकर्म सभी कालमें करना चाहिये; क्योंकि परिकर्म करने वालेके ही आराधना सुखपूर्वक साध्य होती है ॥१९॥ टो०-यद्यपि आराधना शब्द कालभेदका आश्रय न लेकर सम्यग्दर्शन आदि परिणामोंकी सम्यक् सिद्धिको कहता है तथापि १५ वी गाथामें 'मरणे विराधयित्ता' ऐसा कहनेसे मरणकाल विशेषके प्रस्तुत होनेसे प्रकरणके अनुरोधसे मरणकाल सम्बन्धी आराधनाके अर्थ में यहाँ लिया गया है। तब यह अर्थ होता है-मरते समयके रत्नत्रयकी सिद्धिके लिये सर्वदा, ग्रहणकाल, शिक्षाकाल, प्रति सेवनाकाल और सल्लेखना काल इन सब कालोंमें परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि जो अन्यकालोंमें भी रत्नत्रयके परिकरका पालन करता है उसीके मरते समयकी आराधना सुखपूर्वक होती है ।।१९।। ___जो व्यक्ति जिस कामको सिद्ध करना चाहता है उसे पहले उसकी साधन सामग्रीका आयोजन करना चाहिये, इस बातको दृष्टान्तके बलस साधन करनेके लिये आगेकी गाथा कहते हैं । क्योंकि समन्तभद्र स्वामीने कहा है कि वादी और प्रौर प्रतिवादीमें विवाद हो तो दृष्टान्तकी सिद्धि होने पर साध्यको सिद्धि होती है mmmmmmmmmmmmmom Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ भगवती आराधना wwwwwwwwwww - 'जह यथा । 'राजकुलपसूदो' राजपुत्रः । 'जोग्गं' योग्यं । प्रहरणक्रियायाः 'परियम्म' परिकर्म परिकरं। 'णिच्चमवि समरकालात्प्राक् प्रतिदिवसमपि । 'कुणदि' करोति । 'तो' ततः पश्चात् । 'जिदकरणो' क्रियते रूपादिगोचराः विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इंद्रियाण्युच्यते क्वचित्करणशब्देन । अन्यत्र क्रियानिष्पत्ती यदतिशयितं साधकं तत्करणमिति साधकतममात्रमुच्यते । क्वचित्तु क्रियासाभान्यवचनः यथा 'डुकृञ् करणे' इति । अत्र क्रियावाची गृहीतः। जितशब्दश्च स्ववशीकरणवृत्तिस्तथा जितभार्यः स्ववशीकृतभार्य इति गम्यते। तेनायमर्थः स्ववशीकृतक्रियः सन् 'जुद्ध' युद्धे समरे 'कम्मसमत्थों' कर्मसमर्थः । कर्मशब्दो ऽनेकार्थः । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायैानप्रतिबंधादिसामर्थ्याध्यासितानि क्रियते इति कर्माणि ज्ञानावरणादीनि । कतु: क्रियया व्यापकत्वेन विवक्षितमपि कर्म, यथा 'कर्मणि द्वितीयेति' । तथा क्रियावचनोऽपि अस्ति, कि कर्म करोषि ? कां क्रियामित्यर्थः । इह क्रियावाची गृहीतः । सा चात्र क्रियाऽच्यवनप्रहरणताडनादिका तस्यां 'समत्यो भविस्सदि' समर्थो भविष्यामीति । यो यत्साधयितुवांछति स तत्परिकर्मणि प्राक् प्रयतते, यथा रिपन्निहन्तुकामो हननकर्मोपायं अस्त्रशिक्षां करोति इत्येतावानर्थो दर्शितोऽनया गाथया। इदानीं हेतोः पक्षधर्मयोजनायाह इयसामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपत्यिम्म। तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो 'भविस्सहदि ।। २१ ॥ गा-जैसे राजपुत्र योग्य शस्त्र प्रहारका अभ्यास युद्धकालसे पहले प्रतिदिन भी करता है। पश्चात् शस्त्र प्रहार रूप क्रियाको अपने अधीन करके युद्ध करने में समर्थ होता है ।।२०।। टी-जिनके द्वारा रूमादि विषयक ज्ञान किया जाता है उन्हें करण कहते हैं । इस प्रकार कहीं 'करण' शब्दसे इन्द्रियाँ कही जाती हैं । अन्यत्र क्रियाकी निष्पत्तिमें जो सर्वाधिक साधक होता है उसे करण कहते हैं। साधकतमको करण कहा है। कहीं पर करण शब्द क्रिया सामान्यका वाचक है जैसे 'डुकृञ् करणे । यहाँ करण शब्द क्रियावाची ग्रहण किया है । और जित' शब्दका अर्थ अपने वशमें करना है । जैसे 'जितभार्य शब्दसे भार्याको अपने वशमें करने वाले पुरुषका बोध होता है। अतः 'जितकरण' का अर्थ क्रियाको अपने वशमें करने वाला होता है। इसी तरह 'कम्मसमत्थो' में कर्म शब्दके अनेक अर्थ हैं। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषायके द्वारा ज्ञानको रोकने आदिकी शक्तिसे युक्त जो किये जाते हैं उन ज्ञानावरण आदिको कर्म कहते हैं। तथा कर्ताकी क्रियाके द्वारा व्यापक होने रूपसे जो विवक्षित होता है उसे भी कर्म कहते हैं । जैसे 'कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। कर्म शब्द क्रियावाचक भी है। जैसे क्या कर्म करते हो अर्थात् क्या क्रिया करते हो । यहाँ कर्म शब्द क्रियावाची लिया है । यहाँ मारना, प्रहार करना आदि क्रिया ली गई है। जो जिसको साधन करना चाहता है वह पहले उसके परिकर्ममें लगता है जैसे जो शत्रुओं को मारना चाहता है वह मारनेके उपाय अस्त्र शिक्षामें लगता है । इतना अर्थ इस गाथासे बतलाया है ॥२०॥ अब उक्त दृष्टान्तकी योजना प्रकृत चर्चा में करते हैंगा०-इसी प्रकार साधु भी ध्यानका परिकर्म जो (सामण्णं) श्रामण्य है उसे नित्य भी १. भविस्संति-मु० । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४३ इथ सामण्णमिदि । 'इय' एवं 'सामण्णं' समणस्स भावो सामण्णं समता इत्यभियुक्ता निरुक्तिमत्राहुः । भवतोऽस्मादभिधानप्रत्ययौ इति भावशब्देन द्रव्यशब्दस्य वृत्तौ 'निमित्तभूतो गुण उच्यते । तथा चोक्तम्- 'यस्य गुणस्य भावाद्द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने त्वतलाविति', ततोऽत्रापि समण इत्यस्य शब्दस्य जीव प्रवृत्तौ कि निमित्तं गुणः समता, क्व जीविते, मरणं, लाभेऽलाभे, सुखे, दुःखे, बंधुषु, रिपौ च । एतेषु रागः क्वचित्क्वचिद्वेषश्वासमानता, तदुभयाकरणं जीवितादिस्वरूपपरिज्ञानं समचित्तता । अर्थयाथात्म्यग्राहित्वेन जीवितादिविषयाणां ज्ञानानां समता । जीवितं नाम प्राणधारणं तदायुरायत्तं न ममेच्छया वर्तते, सत्यामपि तस्यां प्राणानामनवस्थानात् । सर्व हि जगदिच्छति प्राणानामनपायं न च तेऽत्र तिष्ठन्ते । मरणं नाम इंद्रियादिप्राणेभ्यां विगम आत्मन: । तथा चोक्तम्- ' मृङ् प्राणत्यागे' [ ] इति । त्यागो हि वियोग आत्मनः सकाशात्प्राणानां पृथग्भावः । स चायुः संज्ञितानां पुद्गलानां अशेषगलनात् । अत्र द्रव्येंद्रियाणां उपघातकशरादिद्रव्यसंपाताद्भावेंद्रियस्य चोपयोगस्य विनाशः तदा वरणोदयात् । तदुदयादेव च लब्धेरभावः । वीर्यान्तरायोदयात्रिविधबलप्राणहानिः । मुखस्य नासिकायाश्च विधानात् श्लेष्मादिनावरोधात् उच्छ्वास निश्वासहानिः । अभिमतस्य लाभो लाभांतरायक्षयोपशमात् । अलाभस्तदुदयात् । सुखं नाम प्रीतिः सद्व े द्योदयात् 'अभिलषितविषयसान्निध्यात् । दुःखं तु बाधात्मकमसद्वेद्योदय हेतुकम् । बंधवो नाम न नियताः केचन सन्ति । संसृतो करता है, कि इसके पश्चात् मनको वशमें करके मैं मरते समय ध्यान में समर्थ होऊँगा ॥२१॥ टी० - समणके भावको सामण्ण कहते है ऐसी निरुक्ति विशेषज्ञोंने की है । 'सामण्ण' का अर्थ समता है । द्रव्य शब्दमें प्रवृत्तिका निमित्त जो गुण होता है उसे भाव शब्दसे कहते हैं । कहा भी है - जिस गुण के होनेसे द्रव्य में शब्दका निवेश होता है उसके वाचक शब्दसे त्व और तल प्रत्यय होते है । यहाँ भी समण शब्दकी जीव में प्रवृत्तिका गुण समता है अर्थात् समता गुणके कारण ही समण कहा जाता है । जीवनमें मरणमें, लाभमें अलाभ में, सुख और दुःखमें, बन्धुमें और शत्रुमें समान भावको समता कहते हैं । और इनमें किसीसे राग और किसीसे द्वेष करना असमानता है । और राग-द्वेषका न करना तथा जीवन आदिके स्वरूपको जानना समचित्तता है । जीवन आदि विषयोंके ज्ञान यथार्थग्राही होनेसे समतारूप है । प्राणधारणको जीवन कहते हैं । वह आयुके अधीन है मेरी इच्छाके अधीन नहीं है । मेरी इच्छा होने पर भी प्राण नहीं ठहरते । सर्व जगत चाहता है कि हमारे प्राण बने रहें । किन्तु वे 'नहीं रहते । आत्माके इन्द्रिय आदि प्राणोंके चले जानेको मरण कहते हैं । कहा भी है- मृङ् धातु प्राणत्यागके अर्थ में है 1 त्याग वियोगको कहते हैं । आत्मासे प्राणोंका पृथक् होना वियोग है । वह आयुकर्म सम्बन्धी पुद्गलोंके पूर्णरूपसे समाप्त होनेसे होता है । उपघातक बाण आदिके लगनेसे द्रव्येन्द्रियों का विनाश होता है और उपयोगरूप भावेन्द्रियका विनाश ज्ञानावरणके उदयसे होता है । उसीके उदयसे लब्धिरूप भावेन्द्रियका विनाश होता है । वीर्यान्तराय कर्मके उदयसे मनोबल, बचनबल और कायबल रूप प्राणोंकी हानि होती है । मुख और नाकको बन्द करनेसे या जुखाम - से उनकी रुकावट होनेसे श्वासोच्छ्वास प्राणकी हानि होती है । लाभान्तरायके क्षयोपशमसे इष्ट वस्तुका लाभ होता है और उसके उदयसे लाभ नहीं होता । सुख प्रीतिको कहते हैं वह सातावेदके उदयसे इष्ट वस्तुकी प्राप्तिसे होता है । दुःख बाधारूप होता है उसमें असाता वेदनीयका १. निवृत्तं ततो आ० मु० । २. विषशस्त्रादा-आ० मु० । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना परिभ्रमतः उपकारापेक्षा हि ते। यदि त एव अन्यदा कृतापकारा इति किन्नारयः ? अरयोऽपि कदाचिदुपपादितानुग्रहा इति किं न बंधवः ? अपि च स्नेहस्य सर्वासंयममूलस्य हेतुतया सन्मार्गप्रतिबंधकारितया च ते एव महाशत्रवः । किं च पुण्योदयावेव संपद्यते सकलं सुखं सुखहेतुवस्तुसान्निध्यं च । विपुण्यस्य न ते किंचिदपि कतु क्षमाः । न च कुर्वन्ति । तथा हि-मातरं त्यजति पुत्रः सा च सुतं । तथाऽसत्यसद्वद्योदये न कश्चित्किचिदप्यपकारं करोति । बाह्या हि शत्रवो नाभ्यंतरकर्मणि असति पीडामुपजनयन्ति । इत्येवंभता सर्वत्र समचित्तता सामण्णं । 'साधू वि' साधुर पि । 'कुगदि' करोति । 'णिच्चमवि' नित्यमपि सर्वदापि । 'जोगपरिकम्म योगशब्दोऽनेकार्थः । 'योगनिमित्तं ग्रहणं' इत्यात्मप्रदेशपरिस्पंदं त्रिविधवगणासहायमाचष्टे । क्वचित्संबंधमात्रवचनः 'अस्यानेन योग' इति । क्वचिद्धयानवचनः यथा 'योगस्थित' इति । इहायं परिगृहीतः । ततो ध्यानपरिकरं करोतीति यावत् । रागद्वेषमिथ्यात्वासंश्लिष्टं अर्थयाथात्म्यस्पशि प्रति निवृत्तविषयांतरसंचारं ज्ञानं ध्यानमित्युच्यते । अभावितसमानभावोऽनधिगतवस्तुसद्भावश्च न ध्यातुं क्षम इति भावः । "तो' ततः पश्चाज्जितकरणो' इत्यत्र करणशब्दः अंतःकरणे मनसि वर्तते । ततोऽयमर्थः स्ववशीकृतचित्तोऽहं मरणे भवपर्यायनाश वेलायां। 'झाणसमत्थो' ध्यानस्यैकाग्रचिन्तानिरोधस्य । ध्यानशब्दोऽत्र प्रशस्तध्यानविषये ग्राह्यो नाऽशुभयो रकतिर्यग्गति निवर्तनप्रवणयोः । योगे परिकर्मणि सदात्मनः प्रवृत्तत्वात् अयत्नसाध्यता धर्मशुक्लयोनिवर्तने 'समत्थो' शक्तः भविस्संति' भविष्यामीति ।। उदय हेतु है । बन्धु कोई नियत नहीं हैं । संसारमें भ्रमण करते हुए जीवका जो उपकार करते हैं वे बन्धु कहे जाते हैं । यदि वे ही कभी अपकार करते हैं तो शत्रु हो जाते हैं। शत्रु भी कभी-कभी उपकार करते हैं तो वे बन्धु क्यों नहीं हैं ? तथा स्नेह समस्त असंयमका मूल हेतु और सन्मार्गमें रुकावट डालने वाला है। अतः जिन्हें हम बन्धु मानते हैं वे ही महाशत्रु हैं । तथा पुण्यकर्मके उदयसे ही सर्व सुख और सुखकारक वस्तुओंकी प्राप्ति होती है । जो पुण्यहीन है उसको सुखके साधन भी कुछ नहीं कर सकते । माता पुत्रको त्याग देती है और पुत्र माताको त्याग देता है। तथा असाता वेदनीयके उदयके अभावमें कोई किंचित् भी अपकार नहीं कर सकता। अभ्यन्तर कर्मके अभावमें बाह्य शत्रु पीड़ा नहीं पहुंचाते। इस प्रकारसे सर्वत्र समचित्तताको सामण्ण कहते हैं । 'जोगपरिकम्म'में योग शब्दके अनेक अर्थ हैं । 'योगनिमित्तं ग्रहणं' यहाँ मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होने वाले आत्माके प्रदेशोंके हलनचलनको योग कहा है। कहीं योग शब्दका अर्थ सम्बन्धमात्र है । जैसे 'इसका इसके साथ योग है।' कहीं योगका अर्थ ध्यान है । जैसे 'योगस्थित' में योगका अर्थ ध्यान है । यहाँ योगका अर्थ ध्यान लिया है। राग-द्वेष और मिथ्यात्व से अछूते, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करने वाले और अन्य विषयोंमें संचार न करने वाले ज्ञानको ध्यान कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जिसने समानताको भावना नहीं भायी है और न वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जाना है वह ध्यान नहीं कर सकता । 'जितकरणो' में करण शब्द अन्तःकरण मनके अर्थमें हैं । अतः यह अर्थ हुआ कि 'मरते समय मेरा चित्त मेरे वशमें है' । 'झाणसमत्थो' में ध्यान शब्दका अर्थ एक ही विषयमें चिन्ताका निरोध करना है। यहाँ ध्या ध्यान ग्रहण करना, नरक गति और तिर्यञ्चगतिमें ले जाने वाले अशुभ ध्यान नहीं लेना। योगके परिकर्ममें तो आत्मा सदा लगा रहता है अतः उसके लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता । यहाँ योगसे शुभध्यान लिया गया है। अतः उसका परिकर्म-अभ्यास करना होता है जिससे मरते समय मैं १. ग्राह्यो शुभ-अ० आ० ज० । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका ४५ कृतपरिकरो राजपुत्रो व्यधनादिकासु क्रियासु उपगतकौशल: क्रियां प्रहरणादिकां संपाद्य यथाफलं प्राप्नोति इति एतदुत्तरगाथयाचष्टे जोगाभाविद इत्यनया जोगाभावदकरणो सत्तू जेदूण जुद्ध रंगम्मि | जह सो कुमारमल्लो रज्जवडायं बला हरदि ||२२|| जोगाभाविदकरणो परिकर्मणा असकृत्प्रवर्तितव्यधनताडनप्रहरणादिक्रिय: । आभावित इत्यत्राङ् भृशार्थे प्रयुक्तः । तथा च प्रयोगः - आधूमितं भृशं धूमेन परिपूर्णमित्यर्थः । ' सत्तू' शत्रून् । 'जेदूण' जित्वा । 'जुद्ध रंगम्मि' युद्धार्थ संस्कृतो देशो युद्धरंगमित्युच्यते तत्र । 'जह' यथा । 'सो' सः भावितात्मा । 'कुमारमल्लो' प्राणिनां कालकृतोऽवस्थाविशेषो द्वितीयः कुमारत्वं नाम । तद्योगाद्राजपुत्रः कुमारः स एव मल्लः । 'रज्जपडागं राज्यध्वजं । 'बला' बलात्कारेण । हरदि' हरति गृह्णाति ॥२२॥ दाष्टन्ति के योजयितुं उत्तरगाथा तह भाविदसामण्णो मिच्छत्तादी रिंबू विजेदूण | आराहणापडायं हरइ सुसंथार रंगहि ||२३|| 'तह भाविदसामण्णो' इति । 'तह' तथैव राजपुत्रवदेव | 'भाविदसामण्णो' भावित समानभावः । पुव्वमिति शेषः । 'मिच्छत्तादी' मिथ्यात्वा संयमकषायशुभयोगाः इत्येतान् । 'रिव्' रिपून् । 'विजेवण' भृशं जित्वा । विशब्दो भृशार्थे प्रयुक्तः । यथा विवृद्धो मल्लः भृशं वृद्ध इति यावत् । अथवा 'विजेवण' नानाप्रकारं जित्वा यथा विचित्रमिति नानाचित्रमिति यावत् । एकान्तमिथ्यात्वं, संशय मिथ्यात्वं विपर्ययमिथ्यात्वं धर्म और शुक्ल ध्यान करने में समर्थ हो सकूँ ॥ २१ ॥ 'जैसे अभ्यास किया हुआ राजपुत्र लक्ष्यको वेधने आदिकी क्रियामें कुशलता प्राप्त करके शस्त्रप्रहार आदिके द्वारा राज्य लाभ करता है' यह आगेकी गाथासे कहते हैं गा०—जैसे अभ्यासके द्वारा बार-बार लक्ष्यवेध शस्त्रप्रहार आदि क्रियामें दक्ष वह योद्धा राजपुत्र युद्ध भूमि में शत्रुको जीतकर राज्यके ध्वजको बलपूर्वक हरता है ||२२|| टी० - ' जोगाभाविदकरणो' में आभावित शब्दमें जो 'आ' है उसका अर्थ बार-बार या बहुत अधिक है । जैसे 'आधूमितं' का अर्थ धुएँसे अच्छी तरह भरा हुआ है । जो स्थान युद्धके लिए तैयार किया गया हो उसे युद्धरंग कहते हैं । प्राणियोंकी कालकृत जो दूसरी अवस्था विशेष होती है उसे कुमार अवस्था कहते हैं । उस अवस्थाके सम्बन्धसे यहाँ राजपुत्रको कुमार कहा है । अर्थात् जैसे युद्धमें दक्ष राजपुत्र शत्रुको जीतकर बलपूर्वक उसकी राज्यपताका हर लेता है वैसे ही आगे इस दृष्टान्तको दाष्टन्तिकमें लगानेके लिए उत्तरगाथा कहते हैं गा०--उस राजपुत्रकी ही तरह पूर्व में समानभावका अभ्यासी साधु मिथ्यात्व आदि शत्रुओंको पूरी तरहसे जीतकर शोभनीय संस्तररूपी रंगभूमि में आराधनारूपी पताकाको ग्रहण करता है ||२३|| टी०—मिथ्यात्व आदिमें आदि शब्दसे मिथ्यात्व असंयम, कषाय और अशुभयोग लेना । 'विजेदूण' में 'वि' शब्दका अर्थ बहुत या पूरी तरह है । जैसे 'विवृद्धो मल्लः' का अर्थ बहुत अधिक बढ़ा हुआ योद्धा है । अथवा 'विजेदूण' का अर्थ 'नानाप्रकारसे जीतकर' होता है। जैसे विचित्रका अर्थ नानाचित्र होता है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना इत्यनेकधा मिथ्यात्वपरिणामाः स्थिताः । तथैकान्तमिथ्यात्वं नाम वस्तुनो जीवादेनित्यत्वमेव स्वभावो न चानित्यत्वादिकम् । असदुत्पत्या सतो निरोधे वा अनित्यता भवति । न चासत उत्पत्तिर्यदि स्याद्गगनकुसुमादिकं किन्नोपजायते ? असत्वाविशेषे खकुसुमादेर्घटादेश्च घटादिकं उपजायते न वियत्कुसुमादिकं इत्यत्र न नियामकं हेतु पश्यामः । न च सद्विनश्यति, विनाशो ह्यसत्त्वं, भावाभावी हि परस्परपरिहारस्थि तलक्षणी नेकतां यातः । न भावोऽभावो भवति, इत्थममसत्वे उत्पादनिरोधयोरभावान्नित्यतैवावतिष्टते इति इदमेक मिथ्यात्वं । एतस्य जय उच्यते-न नित्यतैव वस्तुनो रूपं, अनित्यताया अपि प्रमाणसमधिगम्यत्वात् । रागद्वेषमिथ्यात्वसंशयविपर्ययादीनां आत्मनि सतां पश्चादनुभवप्रतिष्ठापितमसत्वमनुभवोपनोतं' चासत्वं प्रागनुभूतानामित्यनित्यता । पुद्गलद्रव्यस्यापि मघादेर्वर्णान्यथाभावः आम्रफलादीनां रूपरसगंधाद्यन्यथाभावश्च प्रत्यक्षग्राह्योऽशक्यापन्हवः। तथानुमानग्राह्यश्च-यत्सत्तत्सर्व नित्यानित्यात्मकं यथा घटस्तथा च जीवादिकं सदिति कारणानां प्रतिनियतजननस्वभावकार्यत्वात् । घटादेजनकानि सन्ति इत्युत्पत्तिः न खरविषाणादेः । न च भावाभावयो. विरोधः एकस्मिन्वस्तुन्येकदा प्रवृत्तेः रूपरसादीनामिव । अपररूपेणासत्वं सति विद्यते न वा । यद्यस्ति न विरोधः, न चेत्सर्वात्मकता। न ह्यभावो नाम भावादन्यः । अपि तु भावस्यैव रूपान्तरम् । ततोऽयुक्तो एकान्तमिथ्यात्व, संशयमिथ्यात्व, विपर्ययमिथ्यात्व, इत्यादि मिथ्यात्वपरिणाम अनेक प्रकार हैं। जीवादिवस्तुका स्वभाव नित्यता ही है, अनित्यता नहीं है इसे एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं। असत्की उत्पत्ति नहीं होती। यदि होती है तो आकाशका फूल क्यों नहीं उत्पन्न होता ? जब आकाशका फूल और घट दोनों ही असत् हैं तो घटादि तो पैदा होते हैं और आकाशका फूल पैदा नहीं होता, इसमें कोई नियामक हेतु हम नहीं देखते । तथा सत्का विनाश नहीं होता। विनाश कहते है असत्त्वको। किन्तु भाव और अभाव दोनों भिन्न हैं, दोनोंके लक्षण भिन्न हैं । वे कभी एक नहीं हो सकते। भाव-अभाव नहीं होता। इस प्रकार असत्वमें उत्पाद और विनाशका अभाव होनेसे नित्यता ही ठहरती है। यह एक मिथ्यात्व है। अब इसको जीतनेका कथन करते हैं। वस्तुका रूप केवल नित्यता ही नहीं है, अनित्यताका भी प्रमाणसे बोध होता है। राग, द्वेष, मिथ्यात्व, संशय, विपर्यय आदि आत्मामें पहले सत् प्रतीत होते हैं। पीछे अनुभवके द्वारा उनका असत्त्व प्रतिष्ठापित होता है। तथा पहले उनका आत्मामें अनुभव होता है और पीछे अनुभवसे ही उनका असत्त्व ज्ञात होता है । इसलिए ये अनित्य हैं। पुद्गलद्रव्य मेघ आदिका रूप भी वदलता देखा जाता है। आम्रफल आदिमें रूप, रस, गन्ध आदिका बदलना प्रत्यक्ष देखा जाता है। उसका लोप करना अशक्य है। तथा अनुमान प्रमाणसे भी उसका ग्रहण होता है, जो इस प्रकार है-जो सत् है वह सब नित्यानित्यात्मक है, जैसे घट। उसी तरह जीवादि भी सत् होनेसे नित्यानित्यात्मक हैं। कारणोंका स्वभाव प्रतिनियत कार्योंको ही उत्पन्न करना है। घटादिके उत्पन्न करनेवाले कारण हैं इसलिए उनकी उत्पत्ति होती है। गधेके सींग जैसे असम्भव कार्योंको उत्पन्न करनेवाले कारण नहीं हैं इसलिए उनकी उत्पत्ति नहीं होती। तथा भाव और अभावमें कोई विरोध नहीं है, रूप रस आदिकी तरह एक वस्तुमें दोनों एककालमें रहते हैं। जो वस्तु सत् है वह अपनेसे भिन्न वस्तुकी अपेक्षा असत् है या नहीं? यदि है तो भाव अभावमें विरोध नहीं रहा। और यदि कहोगे कि नहीं है तो वह वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी; क्योंकि उसमें किसी १. तं सत्त्वं प्रागननुभू-आ० गु० । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४७ नित्यत्वकान्तवादः इति । एवंभूतया तत्त्वश्रद्धया पराभूयते नित्यमेवेति मिथ्यात्वम् । (तथा क्षणिकमेव सर्व कथं कार्यकारि, यद्वस्तु सर्वथा सामर्थ्य विरहोऽभावलक्षणं) कार्यकारिता च न नित्य स्य । कथं तद्धि नित्यं स्वसं कुर्याद्युगपदेव वा ? न तावत्क्रमेण कार्यात्मलाभस्य कारणस्वभावसान्निध्यमात्रपराधीनत्वात् । सर्व कार्यप्रादुभूतिहेतूनां सामर्थ्यानां सदा सान्निध्यत्वात् कुतः कार्याणां क्रमः । समर्थहेतुभावेऽप्यभावे न तत्तस्य कार्य स्यात् । यथा सन्निहितेऽपि यवबीजेऽनुपजायमानस्य शाल्यंकुरस्य न यंवबीजकार्यता । युगपत्करोति चेत् द्वितीयादौ क्षणेऽकिंचित्करता स्यान्न च तया दृश्यते । इत्थं नित्यवस्तुलक्षणस्य कार्यकारित्वस्याभावात्, अनित्ये सद्भावात् क्षणिकमेवेत्यध्यवसायो मिथ्यात्वमेव । तस्य जय उच्यते-सत्यं सर्वथा नित्ये वस्तुलक्षणे नास्त्युक्तया नीत्या नित्यानित्यात्मके तु संभविनी कार्यकारिता। एकान्तेन क्षणिकतैव वस्तुनो यदि रूपं कार्यकारिता नास्ति । एकस्य वस्तुन एकमेव रूपं नापरमिति प्रतिज्ञानात् । एवमन्यत्रापि योज्य' एकान्तमिथ्यात्वजयः । संशयमिथ्यात्वं वस्तुस्वरूपावधारणात्मकं तस्य जयः कथंचिन्नित्यानित्यात्मकाः सवें भावा इति भावनया। विपर्यय मिथ्यात्वं हिंसाया दुर्गतिवतिन्याः स्वर्गादिहेतूतावसितिज्ञानम्, अहिंसायाश्च प्रत्यपायहेतु वस्तुका अभाव नहीं है। अभाव भावसे भिन्न नहीं है। किन्तु भावका ही रूपान्तर अभाव है। अतः एकान्तनित्यवाद अयुक्त है। इस प्रकारकी तत्त्वश्रद्धासे 'नित्य ही है' यह मिथ्यात्व हट जाता है। तथा सब क्षणिक भी कैसे कार्यकारी है ? वस्तु में सब सामर्थ्यका अभाव तो अभावका लक्षण है इसपर बौद्ध कहता है... नित्यपदार्थ कार्यकारी नहीं है। वह नित्यपदार्थ अपना कार्य क्रमसे करता है अथवा एकसाथ करता है ? क्रमसे तो कार्य कर नहीं सकता क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति कारण स्वभावमात्रके अधीन है। जब नित्यपदार्थमें सब कार्योको उत्पन्न करनेकी शक्तियाँ सदा वर्तमान हैं तब कार्य क्रमसे कैसे हो सकते हैं ? समर्थकारणके रहते हुए भी यदि कार्य नहीं होता तो उसे उस कारणका कार्य नहीं माना जा सकता। जैसे जौ बीजके रहते हुए भी उससे धानका अंकुर नहीं उगता । अतः धानका अंकुर जौंवीजका कार्य नहीं होता। यदि कहोगे कि नित्य एकसाथ सब कार्यो को उत्पन्न करता है तो दूसरे आदि क्षणोंमें वह नित्यपदार्थ अकिचित्कर हो जायेगा; क्योंकि सब कार्य पहले क्षणमें ही उत्पन्न हो जानेसे दूसरे क्षणमें उसे करनेके लिए कोई कार्य शेष नहीं रहेगा। किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। इस प्रकार नित्यवस्तुमें वस्तुका लक्षण कार्यकारीपना नहीं बनता । अतः अनित्यमें कार्यकारीपना होनेसे सब क्षणिक ही है। जैन कहते हैं-इस प्रकार निश्चय करना भी मिथ्यात्व ही है । अब उस मिथ्यात्वको जीतनेका उपाय कहते हैं ___ यह सत्य है कि उक्तनीतिके अतुसार सर्वथा नित्यवस्तुमें कार्यकारिता नहीं है किन्तु नित्यानित्यात्मकवस्तुमें कार्यकारिता है। यदि वस्तुका स्वरूप सर्वथा क्षणिकता है तो उसमें कार्यकारीपना नहीं है। क्योंकि आपने एकवस्तुका एक ही रूप माना है दूसरा नहीं माना। इसी प्रकार अन्यत्र भी एकान्तमिथ्यात्वको जीतनेकी योजना करनी चाहिए। वस्तुके स्वरूपका कुछ भी निश्चय न करना संशयमिथ्यात्व है। सब पदार्थ कथंचित् नित्यानित्यात्मक हैं इस भावनासे उसको जीतना चाहिए। दुर्गतिमें ले जानेवाली हिंसाको १. चोद्यः आ० मु० । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ भगवती आराधना तेति एतस्य जयः । परोक्षस्योपायोपेयभावस्य अप्रत्यक्षत्वात । अनुमानस्य च प्रत्यक्षपृष्ठभाविनस्तत्रावृत्तः । मः सर्वज्ञन निरस्तरागद्वेषेण प्रणीतः उपेयोपायतत्त्वस्य ख्यापकः आश्रयणीयः । कपिलादीनामसर्वज्ञतया न तत्प्रणीत आगमोऽदृष्टप्रतिपत्तावुपायः । तदसर्वज्ञता दृष्टेष्टप्रमाणविरुद्धवचनतया रथ्यापुरुषवत् । नित्यस्तु न शब्दो विद्यते। यदि स्यात्सर्वस्य नित्यतया पुरुषदोषानपश्लिष्टतास्तीति प्रामाण्यं भवेत् ततो जिनागमेन हिंसाया दुःखहेतुत्वप्रतीविपर्ययमिथ्यात्वप्रसिद्धिः तस्य जयः अविपरीतज्ञानेन । 'आराधणापडायं' आराधनापताकां । 'हरदि' गृह्णाति । 'सुसंथाररंगम्मि' शोभनासंस्तररंगे उद्गमादिदोदोषानुपहतता शोभनता ॥ चिरमभावितरत्नत्रयाणामतंमुहूर्तकालभावनानां सिद्धिरिष्यते तत्कि चिरभाव नयेत्यस्योत्तरमाचष्टे पुव्वमभाविदजोंग्गो आराधेज्ज मरणे जदि वि कोई । खण्णुगदिळंतो सो तं खुपमाणं ण सव्वत्थ ॥२४॥ 'पुवं' पूर्व मरणकालात् । 'अभावितजोग्गो' अभावितपरिकरः । 'आराधेज्ज' आराधयेत् । किं मरणं रत्नत्रयानुगतभवपर्यायप्रलयं । 'जदि वि' यद्यपि । 'कोई कश्चित् । 'खण्णुगविठ्ठंतो' स्थाणु दृष्टान्तः । 'सो' सः। 'तं ख' तदेव । अकृतपरिकरस्य कस्यचिद्रत्नत्रयसमापन्न । 'सम्वत्थ' सर्वत्र । 'ण पमाणं न पमाणं । अर्थाख्यानमत्र वाच्यम् ॥२४॥ एवं पीठिका समाप्ता ।। स्वर्गादिका हेतु मानना और अहिंसाको दुर्गतिका कारण मानना विपर्ययमिथ्यात्व है। इसकी जयका उपाय कहते हैं __ उपायपना और उपेयपना परोक्ष है, प्रत्यक्ष नहीं है। प्रत्यक्षके पीछे होनेवाला अनुमान भी उन्हें नहीं जान सकता। रागद्वेषसे रहित सर्वज्ञके द्वारा कहा गया आगम ही उपाय और उपेयभावकों बतलाता है उसीका आश्रय लेना चाहिए। कपिल आदि सर्वज्ञ नहीं थे। अतः उनके द्वारा कहा गया आगम अदृष्टको जाननेका उपाय नहीं है। कपिलादिके वचन सड़कपर घूमते आदमीकी तरह प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे विरुद्ध है अतः वे सर्वज्ञ नहीं हैं। तथा यह कहना कि वेद नित्य है ठीक नहीं है क्योंकि शब्द नित्य नहीं होता। यदि शब्द नित्य हो तो सभी शब्दोंके नित्य होनेसे पुरुषोंके दोष उसमें नहीं प्रवेश कर सकते अतः सभी शब्द प्रमाण मानने होंगे। अतः जिनागमसे प्रसिद्ध है कि हिंसा दुःखका कारण है अतः उसे सुखका कारण मानना विपर्ययमिथ्यात्व है । अविपरीत सच्चे ज्ञानसे उसको जीता जाता है ॥२३॥ यहाँ कोई शङ्का करता है कि जिन्होंने चिरकाल तक रत्नत्रयकी भावना नहीं भायी है, केवल अन्तर्मुहर्तकालतक ही रत्यत्रयकी आराधना की है, उनकी भी मुक्ति मानी जाती है तब आप चिरकाल भावनाकी बात कैसे करते हैं, इसका उत्तर देते हैं गा०–मरण समयसे पहले ध्यानके परिकरका अभ्यास न करनेवाला यद्यपि कोई मरते समय आराधना करे तो वह स्थाणुदृष्टान्मात्र है । सर्वत्र (पमाणं ण) प्रमाण नहीं है ॥२४॥ टो०-जैसे यदि किसीको किसी दूंठमेंसे अचानक धनका लाभ हो जाये तो उसे सर्वत्र प्रमाण नहीं माना जाता। उसी तरह यदि किसीने मरनेसे पूर्व रत्नत्रयका अभ्यास नहीं किया और कदाचित् मरते समय किया और उसे सिद्धि प्राप्त हो गई तो उसे सर्वत्र प्रमाणके रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता ॥२४॥ इस प्रकार पीठिका समाप्त हुई। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका मरणाणि सत्तरस देसिदाणि तित्थंकरहिं जिणवयणे ॥ तत्थ वि य पंच इह संगहेण मरणाणि वोच्छामि ॥२५॥ मरणान्यनेकप्रकाराणि इति शास्त्रान्तरे निर्दिष्टानि । तेष्विह निरूप्याणीमानीति निरूपयितुं इदमुत्तरं सूत्रं मरणाणीति । मरणं विगमो विनाशः विपरिणाम इत्येकोऽर्थः । तच्च मरणं जीवितपूर्वम् । जीवितं स्थितिरविनाशोऽवस्थितिरिति यावत् । स्थितिपूर्वको विनाशः । यदस्थितिकं तन्न विनश्यति यथा बन्ध्यासुतः । तथा च स्थितिरहितं वस्तु क्षणिकवादिनिरूप्यं जीवितं जन्मपुरोगं अनुत्पन्नस्य स्थित्यभावात् । तत उत्पत्तिविगमो ध्रौव्यं च सर्वेषां रूपाणि । अस्यां च प्रक्रियायां मरणं नामोत्पन्नपर्यायविनाशः। देवत्वं, तिर्यक्त्वं, नारकत्वं, मनुष्यत्वं, इत्यमीषां पर्यायाणां प्रध्वंस इह मरणशब्दवाच्यः । अथवा प्राणपरित्यागो मरणं । तथा चाभ्यधायिमङप्राणत्यागे इति । एवमेव प्राणग्रहणं जन्म, प्राणानां धारणं जीवितं । प्राणा द्विविधा द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च । तत्र द्रव्यप्राणा इन्द्रियाणि, बलं, उच्छ्वास, आयुरित्येतानि पुद्गलद्रव्याणि । भावप्राणा ज्ञानदर्शनचारित्राणि । एतत्प्राणापेक्षया सिद्धानां जीवितं । तत्रायद्विभेदं अद्धायर्भवायुरिति च । भवधारणं भवायुर्भवः शरीरं तच्च ध्रियते आत्मना' आयुष्कोदयेन । ततो भवधारणमायुष्काख्यं कर्म तदेव भवायुरित्युच्यते । तथा चोक्तम् देहो भवोत्ति वुच्चदि धारिज्जइ आउगेण य भवो सो। तो वुच्चवि भवधारणमाउगकम्मं भवाउत्ति ॥ [...] गा०-जिनागममें तीर्थङ्करोंने मरण सतरह कहे हैं। उन सतरह प्रकारके. मरणोंमेंसे भी यहाँ (संगहेण) संक्षेपसे पाँच मरणोंको कहूँगा ॥२५।। दी-मरण अनेक प्रकारके हैं ऐसा अन्य शास्त्रोंमें कहा है। उनमेंसे यहाँ इन मरणोंको कहना है यह बतलानेके लिए यह गाथासूत्र आया है। मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम इन सब शब्दोंका अर्थ एक है। वह मरण जीवनपूर्वक होता है । जीवन, स्थिति, अविनाश, अवस्थिति ये सब एकार्थक हैं। स्थितिपूर्वक विनाश होता है। जिसकी स्थिति नहीं है उसका विनाश नहीं है जैसे बाँझका पुत्र नहीं होता तो उसका विनाश भी नहीं होता। क्षणिकवादी बौद्धोंने जिस वस्तुको कहा है उसकी स्थिति नहीं है अर्थात् वह वस्तु ही नहीं है। जीवन जन्मपूर्वक होता है। जो उत्पन्न नहीं हुआ उसकी स्थिति नहीं है। इसलिए प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्यरूपको लिए हुए है। इस प्रक्रियाके अनुसार उत्पन्न हुई पर्यायके विनाशका नाम मरण है। तर्यञ्चपना. नारकपना और मनुष्यपना इन पर्यायोंका विनाश यहाँ मरणशब्दसे लिया है । अथवा प्राण छोड़नेका नाम मरण है। कहा भी है-'मृधातु' प्राणत्यागके अर्थमें हैं। इसी तरह प्राणग्रहणको जन्म कहते हैं। प्राणोंको धारण करना जीवन है । प्राणोंके दो भेद हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण । इन्द्रिय पाँच, तीन बल, उच्छ्वास और आयु ये पुद्गलद्रव्य द्रव्यप्राण हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये भावप्राण हैं। इन भावप्राणोंकी अपेक्षा सिद्धों में जीवन होता है। उन प्राणोंमें आयुप्राणके दो भेद हैं-अद्धायु और भवाय । भवधारणको भवायु कहते है । भव.शरीरको कहते हैं। आयुकर्मके उदयसे आत्मा भवधारण करता है। अतः आयुकर्म भवधारणरूप है उसे ही भवायु कहते हैं। कहा भी है-शरीरको भव कहते हैं । वह भव आयुकर्मके द्वारा धारण किया १. आत्मनः आ० मु०।। ७ - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० भगवती आराधना इति आयुर्वशेनैव जीवो जायते जीवति च आयुष एवोदयेन । अन्यास्यायुष उदये सति मृतिमुपैति पूर्वस्य चायुष्कस्य विनाशे । तथा चोक्तम् आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदये । अण्णाउगोदये वा मरवि य पुवाउणासे वा ॥' इति ॥ [ ] अद्धाशब्देन काल उच्यते, आउगशब्देन द्रव्यस्य स्थितिः । तेन द्रव्याणां स्थितिकालः अद्धायुरित्युच्यते । 'द्रव्यार्थापेक्षया द्रव्याणामनाद्यनिधनं भवत्यदायुः । पर्यायार्थापेक्षया चतुर्विधं भवत्यनाद्यनिधनं, साध्यनिधनं सनिधनमनादि, सादिसनिधनमिति । चैतन्यरूपादिमत्त्वगतिस्थितिहेतुत्वादिसामान्यापेक्षया अनाद्यनिधना स्थितिः । केवलज्ञानादिकानां साद्य निधनता । भव्यत्वस्य अनादिसनिधनता । सादिसनिधनता कोपादीनाम् । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य चतुविधा भवति स्थितिः । एतस्याद्धायुषो वशेन भवधारणायुषो निरूपणा भवति । आयु:संज्ञितानां कर्मणां पुद्गलद्रव्यतया आयु-स्थितेन द्रव्यस्थितेरत्यन्तान्यथात्वं । अथवा अनुभूयमानायुःसंज्ञकपुद्गलगलनं मरणं । तानि मरणानि 'सत्तरस' 'सप्तदश' । 'देसिदानि' 'कथितानि' । 'तित्थंकरहि' तीर्थकरैः । 'जिणवयणे' जिनानां वचने। ननु तीर्थकरैरुक्तानि इत्यनेनैव गतं कि जिनवचनग्रहणेन ? नैष दोषः जिनशब्देन गणधरा wwww जाता है । इसलिए भवधारणमें कारण आयुकर्मको भवायु कहते हैं । . . . __ इस प्रकार आयुके वशसे ही जीव जन्म लेता है और आयुके उदयसे ही जीवित रहता है। पूर्व आयुका विनाश और आगेकी अन्यं आयुका उदय होनेपर मरण होता है। कहा है-आयुके वशसे जीव जन्म लेता है। आयुके उदयमें जीवित रहता है। अन्य आयुका उदय होनेपर अथवा पूर्वआयुका नाश.होनेपर मरता है। अद्धाशब्दसे काल कहा जाता है और आयुशब्दसे द्रव्यकी स्थिति। अतः द्रव्योंके स्थितिकालको अद्धायु कहते हैं। द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा द्रव्योंकी अद्धायु अनादिनिधन है। और पर्यायार्थिककी अपेक्षा चार प्रकार की है-अनादिअनिधन, सादिअनिधन, अनादिसान्त और सादिसान्त । चैतन्य, रूपादिमत्ता, गतिहेतुता, स्थितिहेतुता आदि सामान्यकी अपेक्षा द्रव्योंकी स्थिति अनादि अनिधन है अर्थात् जीवादिद्रव्योंका अपना-अपना स्वभाव सदासे है और सदा रहेगा अतः वे सब इस दृष्टिसे अनादिअनन्त हैं। केवलज्ञान आदिकी अद्धायु सादिअनिधन है क्योंकि वह प्रकट होकर नष्ट नहीं होता। भव्यत्वकी अद्धायु अनादिसनिधन (सान्त) है क्योंकि भव्यत्व भाव यद्यपि अनादि होता है किन्तु मुक्त होनेपर नष्ट हो जाता है । कोप आदि सादि सनिधन हैं। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रयसे स्थिति चार प्रकारकी होती है। इस अद्धायुके द्वारा भवधारणरूप आयुका कथन होता है। जिन कर्मोकी आयुसंज्ञा होतो है वे कर्मपुद्गलद्रव्यरूप होनेसे आयुस्थिति द्रव्यस्थितिसे अत्यन्त भिन्न नहीं है। अथवा जो आयु संज्ञावाले पुद्गल उदयमें आ रहे हैं उनके गल जानेको मरण कहते हैं। वे मरण जिनवचनमें तीर्थङ्करोंने सतरह कहे हैं। शङ्का-तीर्थङ्करोंने कहे हैं इतना ही कहना पर्याप्त है, जिनवचनके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? १. इत्यर्था-आ० मु०। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५१ उच्यन्ते । अन्तरेण चशब्दं समुच्चयार्थगतिः। तत्रायं संबन्धः-जिनवचने च किं? सप्तदशमरणानि । एतेन तीर्थकृतो गणधराश्च मरणविकल्पानुपपादितवन्तः । तदुभयवचन सिद्धं प्रमाणमविशङ्कनीयमित्येतदाचष्टे १. आवीचिमरणं २. तद्भवमरणं ३. अवधिमरणं ४. आदिअंतायं ५. बालमरणं ६. पंडितमरणं ७. आसण्णमरणं ८. बालपंडिदं ९. ससल्लमरणं १०. बलायमरणं ११. वसट्टमरणं १२. विप्पाणसमरणं १३. गिद्धपुट्ठमरणं १४. भत्तपच्चक्खाणं १५. पाउवगमणमरणं १६. इंगिणीमरणं १७. केवलिमरणं चेति । एतेषां स्वरूपता यथागमं संक्षेपतो निरूप्यते ॥ वीचिशब्दस्तरंगाभिधायी इह तु वीचिरिव वीचिरिति आयुष उदये वर्तते । यथा समुद्रादी वीचयो नरन्तर्येणोद्गच्छन्ति एवं क्रमेण आयुष्काख्यं कर्म अनुसमयमुदेति इति तदुदय आवीचिशब्देन भण्यते । आयुषः अनुभवनं जीवितं, तच्च प्रतिसमयं जीवितभंगस्य मरणं । अतो मरणमपि अत्र आवीचि, उदयादनन्तरसमये मरणमपि वर्तते इति । तत्पनरावीचिकामरणं अनादिसनिधनं भव्यानाम । नन च सिद्धानामेव मरणं विच्छित्तिमुपयान्ति नेतरेषां ते च न भव्याः । भविष्यत्सिद्धत्वपर्याया हि भव्याः । सिद्धास्त्वधिगतसिद्धत्वपर्यायास्ततः किमुच्यते भव्यानामनादिसनिधनमिति । 'भवियाणमणादियं मरणं आवीचिग सणिधणं च' इति यदेवाधिगतभव्यत्वपर्यायं द्रव्यं तदेवेदमिति कृत्वा भन्यानामित्युक्तं इति नियतम् । अभव्यानां पुनरुदयं प्रति सामान्या समाधान-इसमें कोई दोष नहीं है। यहाँ जिनशब्दसे गणधर कहे गये हैं। 'च' शब्दके विना भी समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान होता है। अतः ऐसा सम्बन्ध लेना और जिनवचनमें सतरह मरण कहे हैं। इससे यह बोध होता है कि तीर्थङ्करों और गणधरोंने मरणके भेद कहे हैं। अतः उन दोनोंके वचनोंसे सिद्ध होनेसे प्रमाण है उसमें किसी प्रकार शङ्का नहीं करना चाहिए। वे हैं-१. आवीचिमरण, २. तद्भवमरण, ३. अवधिमरण, ४. आदि अन्तमरण, ५. बालमरण, ६. पंडितमरण, ७. आसण्णमरण, ८. बालपंडितमरण, ९. ससल्लमरण, १०. बलायमरण, ११. वसट्टमरण, १२. विप्पाणसमरण, १३. गिद्धपुट्ठमरण, १४. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५. प्रायोपगमन मरण, १६. इंगिणीमरण और १७. केवलीमरण । उनका स्वरूप आगमके अनुसार संक्षेपसे कहते हैं-वीचीशब्द तरंगको कहता है। किन्तु यहाँ 'वीचिके समान ऐसा अर्थ करनेसे वीचीका अर्थआयुका उदय है। जैसे समुद्र वगैरहमें तरंगे निरन्तर उठा करती हैं उसी प्रकार क्रमसे आयुनामक कर्म प्रतिसमय उदयमें आता है इसलिए उसके उदयको आवीचि शब्दसे कहा है। आयुके अनुभवनको जीवन कहते हैं। वह प्रतिसमय होता है। उसका भंग मरण है । अतः जीवनकी तरह मरण भी आवीची है क्योंकि आयुका उदय प्रतिसमय होता है अतः प्रत्येक अनन्तर समयमें मरण भी होता है। उसी प्रति समय होनेवाले मरणको आवीचिमरण कहते हैं। वह भव्यजीवोंके अनादिसान्त है। शङ्का-सिद्धोंके ही मरणका अन्त होता है, दूसरोंके नहीं। किन्तु सिद्ध भव्य नहीं हैं। जिनकी भविष्यमें सिद्धपर्याय होनेवाली हैं उन्हें भव्य कहते हैं। सिद्ध तो सिद्धपर्याय प्राप्तकर चुके हैं । तब कैसे कहते है कि भव्यजीवोंका मरण अनादिसान्त है ? समाधान-ऐसा कहा है कि भव्योंका आवीचिमरण अनादि और सान्त है। अतः जो द्रव्य भव्यत्वपर्यायको प्राप्त था वही यह है ऐसा मानकर भव्योंके अनादिसान्त मरण कहा है ऐसा निश्चित है। अभव्यजीवोंके सामान्य अपेक्षासे आयुका उदय बराबर रहता है अतः उनका आवीचिमरण अनादिनिधन है। किन्तु भवकी अपेक्षा और क्षेत्रादिकी अपेक्षा सादि है। चार Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना पेक्षयाऽवीचिकमनादिनिधनं । भवापेक्षया क्षेत्राद्यपेक्षया च सादिक । चतुर्णामायुष्काणां मध्ये द्वयार्यद्यपि सत्कमंता तथापि एकस्यैवायुष उदयः । द्वयोः प्रकृत्योः सत्कर्मता सह भवति । उच्यते-तिर्यङ्मनुष्यायुष्कयोः सर्वेरायुष्कैः सह सत्कर्मता देवनारकायुष्कयोस्तियङ्मानवायुष्काभ्यां सत्कर्मता । भवतु नामैषां सत्कर्मव्यवस्था । द्वयोरायुष्कप्रकृत्योः किं तद्युगपदुदयः ? अत्रोच्यते-अनुभूयमानप्रकृतिस्थितीनामुपरि इतरस्यायुषो निषेको यतस्ततो न युगपदायुषःप्रकृत्योरुदयः । किं च यस्मादेकस्य जीवस्य द्वयोर्भवयोगत्योर्वा न संभवः । भवं गति च प्रयोज्य अपेक्ष्य आयुष उदयो नान्यथा ततो नायुष्कद्वयोरुदयः । एवमेकस्यायुष्कर्मणः एकैव प्रकृतिरुदेत्येकस्यात्मनस्तस्मादेककायुष्कप्रकृतिगलनरूपामेव मृतिमुपैति । तदेतत्प्रकृतिसरणं कालभेदेन एकस्यापि चतुर्विधं भवति तदा वीचिकमेव । एवं प्रकृत्यावीचिमरणं व्याख्यातम् । द्वितीयं स्थित्यावीचिकमरणं । भवधारणकारणत्वपरिणतानां पुद्गलानां स्नेहादात्मप्रदेशेष्ववस्थितिरित्युच्यते । आत्मनः कषायपरिणामः सहकारी पुद्गलानां स्निग्धतायाः परिणामिकारणं तु तदेव पुद्गलद्रव्यं । सा चैषा स्थितिरेकादिककोतरा देशोनत्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणां यावन्तः समयास्तावद्भेदा उत्कर्ष स्थितिः । अंतर्मुहूर्तभवा परा। तस्या वीचय इव क्रमेणावस्थितायाः विनाशादात्मनो भवति स्थित्यावीचिकमरणं । आयुकर्मोंमेंसे यद्यपि एकजीवके दो ही आयुकर्मोंकी सत्ता रहती है (एक जिसे भोगता है और दूसरी जिसे परभवके लिए बाँधा है)। तथापि उदय एक ही आयुका होता है। दो प्रकृतियाँ सत्तामें एकसाथ रह सकती हैं। वहीं कहते हैं-तिर्यश्चायु और मनुष्यायु सब आयुओंके साथ सत्तामें रहती है अर्थात् देवायु और नरकायु दूसरी देवायु और नरकायुके साथ सत्तामें नहीं रहती; क्योंकि देव मरकर देव या नारकी नहीं हो सकता और न नारकी मरकर नारकी या देव होता है। शङ्का-आयुकर्मो की यह सत्कर्मव्यवस्था रहो, किन्तु दो आयुकर्मो का एकसाथ उदय क्यों नहीं होता ? ___ समाधान-आयुकर्मकी जिस प्रकृतिकी स्थिति अनुभवमें आ रही है और जिस आयुकी स्थितिका उदय हो रहा है उसकी स्थिति जहाँ समाप्त होती है उससे ऊपर दूसरी आयुके निषेक रहते हैं। अतः जबतक पहली आयुकी स्थिति समाप्त नहीं होती तबतक दूसरी उदयमें आ नहीं सकती। इसलिए एकसाथ आयुकी दो प्रकृतियोंका उदय नहीं होता। तथा एक जीवके एकसाथ दो भव या दो गति सम्भव नहीं है। और भव तथा गतिको लेकर उसके अनुसार आयुका उदय होता है, अन्यथा नहीं होता, इसलिए भी दो आयुका उदय एकजीवके नहीं होता। इस प्रकार एक आयुकर्मकी एक ही प्रकृति एकजीवके उदयमें आती है अतः एक-एक आयुकर्मके गलनरूप ही मरण होता है। यह प्रकृतिमरण कालभेदसे एक भी जीवके चार प्रकारका होता है। वह आवीचिकमरण ही है। इस प्रकार प्रकृति आवीचिमरणका व्याख्यान किया। ... दूसरा स्थिति आवीचिकमरण है। भवधारणमें कारणरूपसे परिणत हुए पुद्गलोंके स्नेहवश आत्माके प्रदेशोंमें ठहरनेको स्थिति कहते हैं। आत्माका कषायरूप परिणाम पुद्गलोंकी स्निग्धताका सहकारी होता है। परिणामी कारण तो स्वयं पुद्गलद्रव्य ही है। यह स्थिति एक समयसे लेकर एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते कुछ कम तेतीस सागरोंके जितने समय हैं उतने भेदवालो होती है । यह उत्कृष्ट स्थिति है। जघन्यस्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण होती है। तरंगोंके समान क्रमसे अवस्थित उस स्थितिके विनाशसे आत्माके स्थिति आवीचिकमरण होता है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका भवान्तरप्राप्तिरनन्तरोपसृष्टपूर्वभवविगमनं तद्भवमरणं । तत्त्वनंतशः प्राप्तं जीवेनेति ज्ञातव्यं तेन तद्भवमरणं न दुर्लभम् । अनुभवावीचिकामरगमुच्यते-कर्मपुद्गलानां रसः अनुभव इत्युच्यते, स च परमाणुषु षोढा वृद्धिहानिरूपेण वीचय इव क्रमेणावस्थितस्य प्रलयोऽनुभवावीचिमरणं । आयुःसंज्ञितानां पुद्गलानां प्रदेशा जघन्यनिषेकादारभ्य एकादिवद्धिक्रमेणावस्थितवीचय इव तेषां गलनं प्रदेशावीचिकामरणं । __ अवधिमरणं नाम कथ्यते--यो यादृशं मरणं सांप्रतमुपैति तादृगेव यदि मरणं भविष्यति तदवधिमरणं । तद्विविध देशावधिमरणं सर्वावधिमरणं इति । तत्र सर्वावधिमरणं नाम यदायुर्यथाभूतमुदेति सांप्रतं प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशस्तथानुभूतमेवायुः प्रकृत्यादिविशिष्टं पुनर्बध्नाति उष्यति च यदि तत्सर्वावधिमरणं । यत्सांप्रतमुदेत्यापुर्यथाभूतं तथाभूतमेव बध्नाति देशतो यदि तद्देशावधिमरणं । एतदुक्तं भवति देशतः सर्वतो वा सादृश्यनावधीकृतेन विशेषितं मरणमवधिमरणमिति । सांप्रतेन मरणेनासादृश्यभावि यदि मरणमाद्यंतमरणं उच्यते, आदिशब्देन सांप्रतं प्राथमिक मरणमुच्यते तस्य अंतो विनाशभावो यस्मिन्नुत्तरमरणे तदेतदाद्यंतमरणं अभिधीयते । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशयथाभूतः सांप्रतमुपैति मृति तथाभूतां यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाधतमरणं ।। वालमरणमुच्यते-बालस्य मरणं बालमरणं, स च बालः पञ्चप्रकारः अव्यक्तबालः व्यवहारबालः, भवान्तर प्राप्तिपूर्वक उसके अनन्तर पूर्ववर्ती भवका विनाश तद्भवमरण है। वह तो इस जीवने अनन्तवार प्राप्त किया है । अतः तद्भवमरण दुर्लभ नहीं हैं। अनुभव आवीचिमरण कहते हैं-कर्मपुद्गलोंके रसको अनुभव कहते हैं। वह अनुभव परमाणुओंमें छह प्रकारकी वृद्धि हानिके रूपसे तरंगोंकी तरह क्रमसे अवस्थित है। उसका विनाश अनुभव आवीचिमरण है। आयुसंज्ञावाले पुद्गलोंके प्रदेश जघन्य निषेकसे लेकर एक आदि वृद्धिके क्रमसे तरंगोंकी तरह अवस्थित है उनके गलनेको प्रदेश आवीचिदामरण कहते हैं। अवधिमरणको कहते हैं जो वर्तमानमें जैसा मरण प्राप्त करता है यदि वैसा ही मरण होगा तो उसे अवधिमरण कहते हैं। उसके दो भेद हैं-देशावधिमरण और सर्वावधिमरण । वर्तमानमें जो आयु जैसे प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशोंको लेकर उदयमें आ रही है वैसी ही प्रकृति आदिको लिए हुए यदि पुनः आयुबन्ध करता है और उसी प्रकार भविष्यमें उसका उदय होता है तो उसे सर्वावधिमरण कहते हैं। और वर्तमानमें जैसा आयुका उदय होता है वैसा ही यदि एक देश बन्ध करता है वह देशावधिमरण है। इसका अभिप्राय यह है एक देशसे अथवा सर्वदेशसे मर्यादाको लिए हुए सादृश्यसे विशिष्ट मरणको अवधिमरण कहते हैं। वर्तमानमरणसे यदि भाविमरण असमान होता है तो उसे आद्यन्तमरण कहते हैं । यहाँ आदि शब्दसे वर्तमानका प्राथमिकमरण कहा जाता है। उसका अन्त अर्थात् विनाश जिस उत्तरमरणमें होता है उसे आद्यन्तमरण कहते हैं । वर्तमानमें जिस प्रकारके प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश द्वारा मरणको प्राप्त होता है यदि एकदेश या सर्वदेशसे उस प्रकारके मरणको प्राप्त नहीं होता तो वह आद्यन्तमरण है। - बालमरणको कहते हैं-बालके मरणको बालमरण कहते हैं। वह बाल पाँच प्रकारका Nain Education International Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ज्ञानवालः, दर्शनबालः, चारित्रवाल इति । अव्यक्तः शिशः धर्मार्थकामकार्याणि यो न वेत्ति न च तदाचरणसमर्थशरीरः सोऽव्यक्तबालः । लोकवेदसमयव्यवहारान्यो न वेत्ति शिशुर्वासी व्यवहारवालः । मिथ्यादृष्टयः 'सर्वेऽर्थतत्त्वश्रद्धानरहिताः दर्शनबालाः । वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानन्यूना ज्ञानबालाः । अचारित्राः प्राणभृतश्चारित्रबालाः । एतेषां बालानां मरणं बालमरणं । एतानि च अतीते काले अनंतानि । अनंताश्व मृतिमिमां प्रपद्यते । इह दर्शनबालो गहीतः नेतरे बालाः कथं ? यस्मात्सम्यग्दृष्टेरितरवालत्वे सत्यपि दर्शनपंडिततायाः सद्भावात्पंडितमरणमेवेष्यते । दर्शनवालस्य पुनः संक्षेपतो द्विविधं मरणं । इच्छया प्रवृत्तमनिच्छयेति च । तयोराद्यमग्निना धूमेन, शस्त्रेण, विपेण, उदकेन, मरुत्प्रपातेन, उच्छवासनिरोधेन, अतिशीतोष्णपातेन, रज्ज्वा, क्षुधा, तुषा, जिह्वोत्पाटनेन, विरुद्धाहारसेवनया च बाला मृति ढोकन्ते, कुतश्चिन्निमित्ताज्जीवितपरित्यागैषिणः काले अकाले वा अध्यवसानादिना यन्मरणं जिजीविषोः तदद्वितीयम् । एतलिमरणैर्दुर्गतिगामिनो म्रियन्ते विषयव्यासक्तबुद्धयः अज्ञानपटलावगुंठिताः, ऋद्धिरससातगुरुकाः । बहुतीव्रपापकर्मास्रवद्वाराण्येतानि बालमरणानि जातिजरामरणव्यसनापादनक्षमाणि || पंडितमरणमुच्यते-व्यवहारपंडितः, सम्यक्त्वपंडितः, ज्ञानपंडितश्चारित्रपंडितः इति चत्वारो विकल्पाः । लोकवेदसमयव्यवहारनिपुणो व्यवहारपंडितः अथवाऽनेकशास्त्रज्ञः शुश्रूषादिबुद्धिगुणसमन्वितः व्यवहारपंडितः, है--अव्यक्तबाल, व्यवहारबाल, ज्ञानवाल, दर्शनबाल, चारित्रवाल । अव्यक्त छोटे बच्चेको कहते हैं । जो धर्म, अर्थ और कामको नहीं जानता और न जिसका शरीर ही उनका आचरण करने में समर्थ है वह अव्यक्तबाल है। जो लोक, वेद और समय सम्बन्धी व्यवहारोंको नहीं जानता अथवा इन विषयोंमें शिशु समान है वह व्यवहारबाल है। अर्थ और तत्त्वके श्रद्धानसे रहित सब मिथ्यादष्टि दर्शनबाल हैं। वस्तको यथार्थरूपसे ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे जो हीन हैं वे ज्ञानवाल जो चारित्रपालन किये विना जीते है वे चारित्रबाल हैं। इन बालोंके मरणको बालमरण कहते हैं। अतीतकालमें ये बालमरण अनन्त हो चुके हैं। अनन्तजीव इस मरणको प्राप्त होते हैं। यहाँ इनमेंसे दर्शनबालका ग्रहण किया है, अन्य बालोंका नहीं; क्योंकि सम्यग्दृष्टि में इतर वालपना रहते हुए भी दर्शनपंडितपना रहता है इसलिए उसके पंडितमरण ही स्वीकार किया है। संक्षेपसे दर्शनबालका मरण दो प्रकार का है एक इच्छापूर्वक, दूसरा अनिच्छापूर्वक । आगसे, धुएँसे, शस्त्रसे, विषसे, जलसे, पर्वतसे गिरनेसे, श्वासके रुकनेसे, अति शीत या अति गर्मी पड़नेसे, रस्सीसे, भूखसे, प्याससे, जीभ उखाड़नेसे और प्रकृति विरुद्ध आहारके सेवनसे बालपुरुष मरणको प्राप्त होते हैं यह इच्छापूर्वक मरण हैं अर्थात् ऐसे उपाय स्वयं करके वे मरते हैं। किसी निमित्त वश जीवनको त्यागनेकी इच्छा होने पर भी अन्तरंगमें जीनेकी इच्छा रहते हुए काल या अकालमें अध्यवसान आदिसे जो मरण होता है वह अनिच्छापूर्वक दर्शनबाल मरण है। जो दुर्गतिमें जानेवाले हैं, विषयोंमें अतिआसक्त हैं, अज्ञान पटलसे आच्छादित हैं, ऋद्धि, रस और सुखके लालची हैं वे इन बालमरणोंसे मरण करते हैं। ये बालमरण बहुत तीव्र पापकर्मोके आस्रवके द्वार हैं, जन्म, जरा, मरणके दुःखोंको लानेवाले हैं। पण्डितमरणको कहते हैं-इसके चार भेद हैं, व्यवहार पण्डित, सम्यक्त्व पण्डित, ज्ञानपण्डित और चारित्र पण्डित । जो लोक, वेद और समयके व्यवहारमें निपुण हैं वह व्यवहारपण्डित १. सर्वथा तत्व-आ० मु० । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ विजयोदया टीका क्षायिकेण क्षायोपशमिकेनौपशमिकेन वा सम्यग्दर्शनेन परिणतः दर्शनपंडितः । मत्यादिपंचप्रकारसम्यग्ज्ञानेषु परिणतः ज्ञानपंडितः । सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धसूक्ष्मसापराययथाख्यातचारित्रपु कस्मिश्चित्प्रवृत्तश्चारित्रपंडितः । इह पुनर्ज्ञानदर्शनचारित्रपंडितानां अधिकारः । व्यवहारपंडितस्य मिथ्यादृष्टः वालमरगं 'यतो भवति सम्यग्दृष्टेस्तदेव दर्शनपंडितमरणं भवति । तद्दर्शनपंडितमरणं नरके, भवनेषु, विमानेषु, ज्योतिष्केषु, वानव्यंतरेषु, द्वीपसमुद्रेषु च । ज्ञानपंडितमरणानि च तेष्वेव । मनुष्यलोके एव केवलमनःपर्ययज्ञानपंडितमरणं भवति । ओसण्णमरणमच्यते-निर्वाणमार्गप्रस्थितात्संयतसार्थाद्यो हीनः प्रच्युतः सोऽभिधीयते ओसण्ण इति । तस्य मरणं ओसण्णमरणमिति । ओसम्णग्रहणेन पावस्थाः, स्वच्छंदाः, कुशीलाः संसक्ताश्च गृह्यन्ते । तथा चोक्तम् ।। पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होंति ओसण्णा ॥ जं सिद्धिपच्छिदादो ओहोणा साधु सत्थादो ॥-[ के पुनस्ते ? ऋद्धिप्रियाः, रसेष्वासक्ताः, दुःखभीरवः सदा दुःखकातराः, कषायेषु परिणताः, सज्ञावशगाः, पापश्रुताभ्यासकारिणः, त्रयोदशविधासु क्रियास्वलसाः, सदा संक्लिष्टचेतसः, भक्के उपकरणे च प्रतिबद्धाः, निमित्तमंत्रौषधयोगोपजीविनः गृहस्थवैयावृत्त्यकराः, गुणहीना गुप्ति समितिपु चानुद्यताः मंदसंवेगा दशप्रकारे धर्मे अकृतबुद्धयः शबलचारित्राः ओसन्ना इत्युच्यते । एवंभूताः संतो मृत्वा वराका भवसहस्रषु है । अथवा जो अनेक शास्त्रोंका ज्ञाता है, सेवा आदि बौद्धिक गुणोंसे युक्त है वह व्यवहारपण्डित है। क्षायिक, क्षायोपशमिक अथवा औपशमिक सम्यग्दर्शनसे जो युक्त है वह दर्शनपण्डित हैं। जो मति आदि पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञान रूपसे परिणत है वह ज्ञानपण्डित है। जो सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्रमेंसे किसी एक चारित्रका पालक है वह चारित्रपण्डित है । यहाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र पण्डितोंका अधिकार है । व्यवहारपण्डित मिथ्यादृष्टि का तो वालमरण होता है और सम्यग्दृष्टिका मरण दर्शनपण्डित मरण है। वह दर्शनपण्डित मरण नरकमें भवनवासी देवोंमें, वैमानिक देवोंमें, ज्योतिष्क देवोंमें, व्यन्तर देवोंमें और द्वीप समुद्रोंमें होता है। ज्ञानपण्डित मरण भी इन्हींमें होता है। किन्तु केवलज्ञान और मनः पर्यायज्ञान पण्डितमरण मनुष्य लोकमें ही होता है। - ओसण्णमरणको कहते हैं निर्वाण मार्गेपर प्रस्थान करनेवाले संयमियोंके संघसे जो हीन हो गया है उसे निकाल दिया गया है वह ओसण्ण कहलाता है। उसके मरणको ओसण्णमरण कहते हैं। ओसण्णके ग्रहणसे पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील और संसक्तोंका ग्रहण होता है। कहा भी है-पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द कुशील और संसक्त ये ओसण्ण होते हैं क्योंकि ये मोक्षके लिए प्रस्थान करनेवाले साधुसंघसे बाहर होते हैं। ऋद्धियोंके प्रेमी, रसोंमें आसक्त, दुःखसे भीत, सदा दुःखसे कातर, कषायोंमें संलग्न, आहारादिसंज्ञाके अधीन, पापवर्धक शास्त्रोंके अभ्यासी, तेरह प्रकारकी क्रियाओंमें आलसी, सदा संक्लेशयुक्त चित्तवाले, भोजन और उपकरणोंसे प्रतिबद्ध, निमित्तशास्त्र, मंत्र, औषध आदिसे आजीविका करनेवाले, गृहस्थोंका वैयावृत्य करनेवाले, गुणोंसे हीन, गुप्तियों और समितियोंमें उदासीन, संवेग भावमें मन्द, दस प्रकारके धर्ममें मनको न लगानेवाले तथा सदोष चारित्रवाले मुनियोंको अवसन्न कहते हैं । इस प्रकारसे रहते हुए ये बेचारे मरकर हजारों भवोंमें भ्रमण करते १. यथा आ० मु० । २. आहीणा आ० । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ भगवती आराधना भ्रमन्ति । दुःखानि भुक्त्वा भुक्त्वा पार्श्वस्थ रूपेण सुचिरं विहृत्यान्ते आत्मनः शुद्धि कृत्वा यदि मृतिमुपैति प्रशस्तमेव मरणं भवति । सम्यग्दृष्टेः संयतासंयतस्य बालपंडितमरणं यतोसावुभयरूपो बाल: पंडितश्च । स्थूलकृतात्प्राणातिपातादेविरमणलक्षणं चारित्रमस्ति दर्शनं च ततश्चारित्रपंडितो दर्शनपंडितश्च' । कुतश्चित्सूक्ष्मादसंयमादनिवृत्त इति चारित्रबालः । तत्त् बालपंडितमरणं गर्भजेषु पर्याप्तकेषु तिर्यक्षु मनुजेषु भवति । दर्शनपंडितमरणं तु तेषु देवनारकेषु च । सशल्यमरणं द्विविधं यतो द्विविधं शल्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति । मिथ्यादर्शनमाया निदानशल्यानां कारणं कर्म द्रव्यशल्यं । द्रव्यशल्येन सह मरणं पंचानां स्थावराणां भवति असंज्ञिनां त्रसानां च । ननु द्रव्यशल्यं सर्वत्रास्ति तत्किमुच्यते स्थावराणामिति । भावशल्यविनिर्मुक्तं द्रव्यशल्यमपेक्ष्यते । एतदुक्तं सम्यक्त्वातिचाराणां दर्शनशल्यत्वात्सम्यग्दर्शनस्य च स्थावरेषु अभावात् त्रसेषु च विकलेंद्रियेषु । इदमेव स्यादनागते काले इति मनसः प्राणिधानं निदानं न च तदसंज्ञिष्वस्ति । मार्गस्य दूषणं, मार्गनाशनं, उन्मार्गप्ररूपणं, मार्गस्थानां भेदकरणं च मिथ्यादर्शनशल्यानि । तत्र निदानं विविधं प्रशस्तमप्रशस्तं भोगकृतं चेति । परिपूर्ण संयममाराधयितुकामस्य जन्मांतरे पुरुषतादिप्रार्थना प्रशस्तं निदानं, मानकषायप्रेरितस्य कुलरूपादिप्रार्थनमनागतभवविषयं अप्रशस्तं निदानं । अथवा हैं । किन्तु दुःख उठाते - उठाते पार्श्वस्थरूपमें चिरकाल तक विहार करके अन्तमें आत्माकी शुद्धि करके यदि मरते है तो प्रशस्तमरण ही होता है । सम्यग्दृष्टि संयतासंयतके मरणको बालपण्डित मरण कहते हैं क्योंकि यह बाल और पण्डित दोनों ही होता है । इसके स्थूल हिंसा आदिसे विरतिरूप चारित्र और दर्शन दोनों होते हैं अतः यह चारित्रपण्डित भी है और दर्शनपण्डित भी है । किन्तु कुछ सूक्ष्म असंयमसे निवृत्त नहीं होता, इसलिए चारित्र में बाल है । यह बालपण्डित मरण गर्भज और पर्याप्तक तिर्यञ्चों तथा मनुष्योंमें होता है । दर्शनपण्डित मरण तो इनमें भी होता है और देव तथा नारकियोंमें भी होता है । सशल्य मरणके दो भेद हैं क्योंकि शल्यके दो भेद हैं-द्रव्यशल्य और भावशल्य । मिथ्यादर्शन, माया और निदान इन शल्योंका कारण जो कर्म है उस कर्मको द्रव्यशल्य कहते हैं । द्रव्यशल्यके साथ मरण पाँचों स्थावरों, असंज्ञियों और त्रसोंका होता हैं । शंका- द्रव्यशल्य तो सर्वत्र है तब स्थावरोंके क्यों कहा ? समाधान - यहाँ भावशल्यसे रहित द्रव्यशल्यकी अपेक्षा है । यह कहा है कि सम्यग्दर्शनके अतिचारोंका कारण दर्शनशल्य हैं और सम्यग्दर्शन स्थावरोंमें तथा विकलेन्द्रिय त्रसोंमें नहीं होता । आगामी काल में यही होना चाहिए इस प्रकारके मनके उपयोगको निदान कहते हैं । असंज्ञियोंमें इस प्रकारका निदान नहीं होता । मोक्षमार्गको दोष लगाना, मार्गका नाश करना, मिथ्यामार्गका कथन करना, या मोक्षमार्गका कथन न करना, और जो मोक्षमार्गी हैं उनमें भेद डालना ये मिथ्यादर्शनशल्य हैं । उनमेंसे निदानके तीन भेद हैं- प्रशस्त, अप्रशस्त और भोगकृत । परिपूर्ण संयम की आराधना करनेकी इच्छासे परभवमें पुरुषत्व आदि प्राप्तिकी प्रार्थना प्रशस्त १. तश्चा । ततश्चारित्रपंडितो दर्शनपंडितश्च कुत-आ० । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका क्रोधाविष्टस्य स्वशत्रुवधप्रार्थना वशिष्ठस्येवोग्रसेनोन्मूलने । इह परत्र च भोगा अपि इत्थंभूता अस्माद् व्रतशीलादिकाद भवन्त्विति मनःप्रणिधानं भोगनिदानं । असंयतसम्यग्दष्टेः संयतासंयतस्य वा निदानशल्यं भवति । पाश्वस्थादिरूपेण चिरं विहृत्य पश्चादपि आलोचनामंतरेण यो मरणमुपैति तन्मायाशल्यं मरणं तस्य भवति । एतच्च संयते, संयतासंयते, अविरतसम्यग्दृष्टावपि भवति । वलायमरणमुच्यते-विनयवैयावृत्त्यादावकृतादरः, प्रशस्तयोगोद्वहनालसः, प्रमादवान्वतेषु, समितिषु, गुप्तिषु च स्ववीर्यनिगृहनपरः, धचितायां निद्रया धूर्णित इव ध्याननमस्कारादेः पलायते अनुपयुक्ततया, मरणं वलायमरणं । सम्यक्त्वपंडिते, ज्ञानपंडिते चरणपंडिते च बलायमर गमपि संभवति । ओसण्णमरणं ससल्लमरणं च यदभिहितं तत्र नियमेन बलायमरणम् । तद्वयतिरिक्तमपि बलायमरणं भवति । निःशल्यः संविग्नो भूत्वा चिरं रत्नत्रयप्रवृत्तस्य संस्तरमुपगतस्य शुभोपयोगात्पलायमानस्य भावस्य शुभस्यानवस्थानात् । ___ वसट्टमरणं नाम-आतें रौद्रे च प्रवर्तमानस्य मरणं । तत्पुनश्चतुर्विधं-इंदियवसट्टमरणं, वेदणावसट्टमरणं, कसायवसट्टमरणं, नोकसायवसट्टमरणं इति । इंदियवसट्टमरणं यत् तत्पंचविधं इंद्रियविषयापेक्षया । सुरैनरैस्तिर्यग्भिरजीवेश्च कृतेषु ततविततघनसुषिरशब्देषु मनोज्ञेषु रक्तोऽमनोज्ञेषु द्विष्टो मृतिमेति । यथा चतु:प्रकारे आहारे रक्तस्य द्विष्टस्य वा मरणं, पूर्वोक्तानां सुरनरादीनां गंधे द्विष्टस्य रक्तस्य वा मरणं, तेषामेव निदान है। मानकषायसे प्रेरित होकर आगामी भवमें उच्चकुल, सुन्दररूप आदिकी प्रार्थना अप्रशस्त निदान है। अथवा क्रोधके आवेशमें आकर अपने शत्रुके वधकी प्रार्थना, जैसे वशिष्ठने उग्रसेनके विनाशकी प्रार्थना की थी, अप्रशस्त निदान है। इस व्रतशील आदिके प्रभावसे इस भवमें और परभवमें इस प्रकारके भोग मुझे प्राप्त हों, इस प्रकार मनके संकल्पको भोगनिदान कहते हैं । असंयत सम्यग्दृष्टी अथवा संयत्तासंयतके निदानशल्य होता है। चिरकालतक पार्श्वस्थ आदि साधुके रूपमें विहार करनेके पश्चात् भी जो आलोचना किये बिना मर जाता है उसका वह मायाशल्य मरण होता है । ऐसा मरण संयत, संयतासंयत और अविरत सम्यग्दृष्टिमें होता है । बलायमरणको कहते हैं-जो विनय वैयावृत्य आदिमें आदरभाव नहीं रखता, प्रशस्त योगके धारणमें आलसी है, प्रमादी हैं, व्रतोंमें, समितियोंमें और गुप्तियोंमें अपनी शक्तिको छिपाता है, धर्मके चिन्तनमें निद्राके वशीभूत जैसा रहता है, उपयोग न लगनेसे ध्यान नमस्कार आदिसे दूर भागता है, उसका मरण बलायमरण है । दर्शनपण्डित, ज्ञानपण्डित और चारित्रपण्डितके बलायमरण भी सम्भव है। ओसण्णमरण और सशल्यमरणमें नियमसे बलायमरण होता है। उनके अतिरिक्त भी बलायमरण होता है । जो शल्यरहित विरक्त होकर चिरकालतक रत्नत्रयका पालन करता है किन्तु मरते समय संस्तरपर आरूढ़ होकर शुभोपयोगसे दूर भागता है, उसके शुभभावके स्थिर न रहनेसे बलायमरण होता है । वसट्टमरण कहते हैं—आर्त और रौद्रध्यानपूर्वक मरणको वसट्टमरण कहते हैं। उसके चार भेद हैं-इन्द्रियवसट्टमरण, वेदनासमट्टमरण, कसायवसट्टमरण, और नोकसायवसट्टमरण । इन्द्रियवसट्टमरण इन्द्रियोंके विषयोंकी अपेक्षा पाँच प्रकारका है। देवों, मनुष्यों, पशु-पक्षियों और अजीवोंके द्वारा किये गये तत, वितत, घन, और शुषिर शब्दोंमें, मनोज्ञ शब्दोंमें राग और अमनोज्ञ शब्दोंमें द्वेष करते हुए मरण होता है। यह श्रोत्रेन्द्रियवसट्टमरण है। चार प्रकारके १. मरणं भवति अ०। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ । भगवती आराधना रूपे संस्थाने वा रक्तस्य द्विष्टस्य वा मरणं, तेषामेव स्पर्श रागवतो द्वेषवतो वा मरणं, इति इंद्रियानिन्द्रियवशार्तमरणविकल्पाः । वेदणात्रसट्टमरणं द्विभेदं समासतः सातवेदनावशार्तमरणं असातवेदनावशार्तमरणमिति । शारीरे मानसे वा दुःखे उपयुक्तस्य मरणं दुःखवशार्तमरणमुच्यते । यो दुःखेन मोहमुपागतस्तस्य मरणमिति यावत् । तथा शारीरे मानसे वा सुखे उपयुक्तस्य मरणं सातवशार्तमरणं । - कषायभेदात्कषायवशार्तमरणं चतुर्विधं भवति । अनुबंधरोषो य आत्मनि परत्र उभयत्र वा मारणवशो' भवति । तस्य क्रोधवशार्तमरणं भवति । मानवशार्तमरणमष्टविधं भवति कुलेन, रूपेन, बलेन, धुतेन, ऐश्वर्यण, लाभेन, प्रज्ञया, तपसा वा आत्मानुमुत्कर्षयतो मरणमपेक्ष्य विख्याते विशाले उन्नते कुले समुत्पन्नोऽहमिति मन्यमानस्य मृतिः कुलमानवणार्तमरणम् । निरुपहतपंचेंद्रियसमग्रगावस्तेजस्वी प्रत्यग्रयौवनः सकलजनताचेतःसम्मदकररूप इति भावयतो मृतिः रूपवशार्तमरणं । वृक्षपर्वताद्युत्पाटनक्षमोऽहं योधवानह, मित्राणां च बलं ममास्ति इति बलाभिमानोदहनान्मानवशार्तमरणं । बहुपरिवारो बहुशासनोऽहं इति ऐश्वर्यमानोन्मत्तस्य मरणं मानवशार्तमरणं । लोकवेदसमयसिद्धान्तशास्त्राणि शिक्षितानि इति श्रुतमानोन्मत्तस्य मरणं श्रुतमानवशार्तमरणमुच्यते । तीक्ष्णा मम बुद्धिः सर्वत्राप्रतिहता इति प्रज्ञामत्तस्य मरणं प्रज्ञावशार्तमरणमुच्यते । व्यापारे क्रियमाणे आहारमें राग या द्वेष करते हुए मरण रसनेन्द्रियवसट्टमरण है। पूर्वोक्तदेव मनुष्य आदिको गन्धमें रागद्वेष करते हुए मरण घ्राणेन्द्रियवसट्टमरण है। उन्हींके रूप आकार आदिमें रागद्वेष करनेवालेका मरण चक्षुइन्द्रियवसट्टमरण है। उन्हींके स्पर्शमें रागद्वेष करनेवालेका मरण स्पर्शनेन्द्रियवसट्टमरण है । इस प्रकार इन्द्रिय और मनके वशसे होनेवाले आर्तध्यानपूर्वक मरणके भेद हैं । वेदनावसट्टमरणके संक्षेपसे दो भेद हैं-सातवेदनावशार्तमरण और असातवेदनावशार्तमरण । शारीरिक अथवा मानसिक दुःखमें उपयोग रहते हुए होनेवाले मरणको दुःखशार्तमरण कहते हैं । अर्थात् जो दुःखसे मोहको प्राप्त हुआ उसका मरण दुःभयशार्तमरण है । तथा शारीरिक अथवा मानसिक सुखमें उपयोग रहते हुए होनेवाला मरण सातवशात मरण है। · कषायके भेदसे कषायवशार्तमरणके चार भेद होते हैं। अपनेमें, दूसरेमें अथवा दोनोंमें मारनेके लिए उत्पन्न हुआ क्रोध मरणका कारण होता है। वह क्रोधवशार्तमरण है। मानवशआर्तमरणके आठ भेद हैं -कुल, रूप, बल, शास्त्र, ऐश्वर्य, लाभ, बुद्धि अथवा तपसे अपनेको बड़ा मानते हुए मरण होनेकी अपेक्षा ये आठ भेद होते हैं। मैं अति प्रसिद्ध विशाल उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ हूँ ऐसा मानते हुए होनेवाले मरणको कुलमानवश आर्तमरण कहते हैं। मेरा शरीर सशक्त पाँच इन्द्रियोंसे पूर्ण है, तेजस्वी और नवयौवनसे सम्पन्न है, मेरा रूप समस्त जनताके चित्तको मर्दन करता है, ऐसी भावना होते हुए जो मरण होता है वह रूपवश आर्तमरण है। मैं वृक्ष पर्वत आदिको उखाड़ने में समर्थ हूँ, लड़नेमें समर्थ हूँ, मेरे साथ मित्रोंका बल है, इस प्रकार बलके अभिमानको धारण करते हुए होनेवाला मरण बलमानवश आर्तमरण है । मैं बहुत परिवार वाला हूँ मेरा शासन बहुतोंपर है इस प्रकार ऐश्वर्यके मानसे उन्मत्तका मारण ऐश्वर्यमान वशार्तमरण है। मैंने लोक, वेद, समय और सिद्धान्त सम्बन्धी शास्त्रोंको पढ़ा है इस प्रकार शास्त्रके मानसे उन्मत्तका मरण श्रुतमानवश आर्तमरण है। मेरी बुद्धि तीक्ष्ण है, सब विषयोंमें उसकी १. वा मरणवशो भवति अ०। वा मारणवशो भवति आ० ।-वशोपि मरणवशः भ-मु० । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५९ मम सर्वत्र लाभो जायते इति लाभमानं भावयतो मरणं लाभवशातमरणम् । तपो मयानुष्ठीयते अन्यो मत्सदृशश्चरणे नास्ति इति संकल्पयतस्तपोमानवशार्तमरणं भवति । माया पंचविकल्पा निकृतिः, उपधिः, सातिप्रयोगः, प्रणिधिः प्रतिकुंचनमिति । अतिसंधानकुशलता धने कार्य वा कृताभिलाषस्य वंचना निकृतिः उच्यते । सद्भावं प्रच्छाद्य धर्मव्याजेन स्तन्यादिदोषे प्रवृत्तिरुपांधसंजिता माया। अर्थेषु विसंवादः स्वहस्तनिक्षिप्तद्रव्यापहरणं, दूषणं, प्रशंसा वा सातिप्रयोगः । प्रतिरूपद्रव्यमानकरणानि, ऊनातिरिक्तमानं; संयोजनया द्रव्यविनाशनमिति प्रणिधिमाया। आलोचनं कुर्वतो दोषविनिगृहनं प्रतिकुंचनमाया । एवंविधं मायावशार्तमरणं । उपकरणेषु, भक्तपानक्षेत्रेषु, शरीरे, निवासस्थानेषु च इच्छां मूर्छाच वहतो मरणं लोभवशार्तमरणं । हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंन्नपुंसकवेदे मूढमतेमरणं नोकषायवशातैमरणं । नोकषाय'वशार्तमरणमुपगतो जायते मनुजतिर्यग्योनिषु, असुरेषु, कंदर्पेषु, किल्बिषिकेषु च । मिथ्यादृष्टेरेतदेव बालमरणं भवति । दर्शनपंडितोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टिः संयतासंयतोऽपि वशार्तमरणमुपैति तस्य तद्वालपंडितं भवति दर्शनपंडितं वा । अप्रतिषिद्धे अननुज्ञाते च द्वे मरणे 'विप्पाणसंगिद्धतुट्ठमितिसंज्ञिते कृते प्रवर्तेते। दुर्भिक्षे, कांतारे, दुरुत्तरे, पूर्वशत्रुभये, दुष्टनृपभये, स्तेनभये, तिर्यगुपसर्ग एकाकिनः सोढुमशक्ये ब्रह्मव्रतनाशादिचारित्रदूषणे च बेरोक गति हैं इस प्रकार प्रज्ञाके मदसे मत्तके मरणको प्रज्ञामानवश आर्तमरण कहते हैं। व्यापार करनेपर मुझे सर्वत्र लाभ होता है इस प्रकार लाभका मान करते हुए होनेवाले मरणको लाभमानवशार्तमरण कहते हैं । मैं तप करता हूँ, तपश्चरणमें मेरे समान दूसरा नहीं है। ऐसा संकल्प करते हुए होनेवाले मरणको तपमानवशार्तमरण कहते हैं। मायाके पाँच भेद हैं-निकृति, उपधि, सातिप्रयोग, प्रणधि और प्रतिकुञ्चन । दूसरोंकी गुप्त बातोंकी खोजमें कुशलता, तथा धन अथवा किसी कार्यकी अभिलाषावालेको ठगना निकृति है। समीचीन भावको छिपाकर धर्मके बहानेसे चोरी आदि दोषोंमें प्रवृत्तिको उपधिनामक माया कहते है। अर्थ (धन) के विषयमें झगड़ा करना, अपने हाथमें रखे द्रव्यको हर लेना, प्रयोजनके अनुसार दोष लगाना या प्रशंसा करना सातिप्रयोग माया है । असली वस्तुमें उसके समान नकली वस्तु मिलाना, कमती बढ़ती तोलना, मिलावटके द्वारा द्रव्यका विनाश करना ये प्रणिधिमाया है। आलोचना करते समय दोषोंको छिपाना प्रतिकुंचन माया है। इस प्रकारके मायाचारपूर्वक होनेवाले मरणको मायावशार्तमरण कहते हैं। उपकरणोंमें, खानपानके क्षेत्रोंमें, शरीरमें, निवास में इच्छा और ममत्व रहते हुए होनेवाले मरणको लोभवशार्तमरण कहते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और पुरुषवेदको लेकर जिसकी बुद्धि मूढ़ हो गई है उसका मरण नोकषायवशावर्तमरण है। नोकषायवशार्तमरणसे मरा हुआ प्राणी मनुष्य योनि, तिर्यञ्चयोनि, तथा असुर, कन्दर्प और किल्विपजातिके देवोंमें उत्पन्न होता है । मिथ्यादृष्टिके होनेवाला यही मरण बालमरण होता है । दर्शनपण्डित, अविरतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतके भी वशार्तमरण होता है उनका वह मरण बालपण्डितमरण अथवा दर्शनपण्डितमरण होता है। पिप्पणास और गिद्धपट नामके दो मरण ऐसे हैं जिनका निषेध भी नहीं है अनुज्ञा भी नहीं है। दुर्भिक्षमें, भयानक जंगलमें, पूर्वशत्रुका भय होनेपर, या दुष्ट राजाका भय होनेपर, चोरका भय होनेपर, तिर्यश्चकृत उपसर्ग होनेपर जिसे अकेले सहन करना अशक्य है, या ब्रह्मचर्य १. वशति-अ० अ० ज० । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० भगवती आराधना जाते संविग्नः पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोढुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासत्युपाये सावधकरणभीरुः विराधनमरणभीरुश्च एतस्मिन् कारणे जाते कालेऽमुष्मिन् किं भवेत्कुशल मिति गणयतो यधुपसर्गभयत्रासितः संयमादभ्रश्यामि ततः संयमभ्रष्टो दर्शनादपि न वेदनामसंक्लिष्ट: सोढ़ उत्सहेत ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चितमतिनिर्मायश्चरणदर्शनविशुद्धः, धृतिमान्, ज्ञानसहायोऽनिदानः, अर्हदन्तिके, आलोचनामासाद्य कृतशुद्धिः, सुलेश्यः प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विापाणसं मरणमुच्यते ! शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तद्गिद्धपुट्ठमित्युच्यते । मरणविकल्पसंभवप्रदर्शनमिदं सर्वत्र कर्तव्यतयोपदिश्यते । प्रायोपगपनर्मिगिणीमरणं भक्तप्रत्याख्यानं इत्येतान्येवोत्तमानि पूर्वपुरुषैः प्रवर्तितानि । एवं दिङ्मात्रेण पूर्वागमानुसारि सप्तदशमरणव्याख्यानमत्रोपक्रान्तम् । एतेषु सप्तदशसु पंच मरणानि इह संक्षेपतो निरूपयिष्यामीति प्रतिज्ञानेन कृता । कानि तानि पंच मरणानि इत्याशंकायां नामनिर्देशार्थ गाथा पंडितपंडितमरणमित्यादिका पंडिदपंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव ।। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ।। २६ ।। ननु भवपर्यायप्रलयो मरणमिति यदि गृह्यते तस्य को भेदो भवपर्यायस्य अनेकत्वात् मरणं तद्विनाशः कथं न भिद्यते इति । मनुष्ये पंचप्रकारतानुपपन्ना अनंतत्वात् एकजीवगतस्यापि भवपर्यायस्य नानाजीवापेक्षायां व्रतका विनाश आदि दूषण चारित्रमें होनेपर संसारसे विरक्त और पापसे डरनेवाला साधु कर्मोंका उदय उपस्थित जानकर उसे सहने में असमर्थ होनेसे उससे निकलनेका उपाय न होनेपर पापकर्म करनेसे डरता हुआ, साथ ही विराधनापूर्वक मरणसे डरता हुआ विचारता है इस कालमें इस प्रकारके कारण उपस्थित होनेपर कैसे कुशल रह सकती है, यदि उपसर्गके भयसे डरकर संयमसे भ्रष्ट होता हूँ तो संयमसे भी भ्रष्ट और दर्शनसे भी भ्रष्ट होता हूँ। और बिना संक्लेशके वेदनाको सहन कर नहीं सकता। तब मैं रत्नत्रयके आराधनसे डिग जाऊँगा, ऐसी निश्चित मति करके सम्यक्त्व और चारित्रमें विशुद्ध, धैर्यशाली, ज्ञानसे सहायता लेनेवाला वह साधु किसी निदानके विना अर्हन्तके पासमें आलोचना प्रायश्चित्त लेकर शुभलेश्यापूर्वक श्वासोच्छ्वासका निरोध करता है। उसे विप्पणास मरण कहते हैं। और शस्त्रग्रहणसे होनेवाले मरणको गिद्धपुट्ठ कहते हैं। ___ मरणके भेदोंका यह प्रदर्शन सर्वत्र कर्तव्यरूपसे किया जाता है । किन्तु प्रायोपगमन, इंगिणीमरण और भक्तप्रत्याख्यान ये तीन ही मरण उत्तम हैं, पूर्व पुरुषोंने इनका पालन किया है। इस प्रकार संक्षेपसे पूर्व आगमके अनुसार सतरह मरणोंका व्याख्यान यहाँ किया ॥२५।। ___ इन सतरहमें से पाँच मरणोंको यहाँ संक्षेपसे कहूँगा ऐसी प्रतिज्ञा ऊपर की है। वे मरण कान ह एसा शका करने पर उनका नाम निर्देश करने के लिए गाथा कहते हैं गाथा-पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण, बाल पण्डितमरण, चौथा बालमरण और पांचवा वाल वालमरण, ये पांच मरण है। टोका-शंका-यदि भवपर्यायके विनाशको मरण कहते हो तो उसका भेद कैसा ? भवपर्याय तो अनेक हैं और उनका विनाश मरण है तब मरणके भेद उतने क्यों नहीं होंगे। अत: मनुष्यमें मरणके पाँच प्रकार ठीक नहीं है । एक जीव की भी भवपर्याय अनन्त होती हैं तब नाना Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका atsaसरः पंचत्वस्य । प्राणिनः प्राणेभ्यो वियोगो मरणं इति चेत्तदेकविधमेव सामान्यतः । प्राणभेदापेक्षयेति चेद्दशप्रकारतापद्यते । उदयप्राप्तकर्मपुद् गलगलनं मरणं इति यदि गृह्यते प्रतिसमयं गलनान्न पंचता । गुणभेदापेक्षया जीवान्पंचधा व्यवस्थाप्य तत्संबंधेन पंचविधं मरणमुच्यते । अत्रान्या व्याख्या - प्रशस्ततमं प्रशस्ततरं, ईषत्प्रशस्तं अविशिष्टं, अविशिष्टतरं इति पंडितपंडितमरणादीनि केचिद् । व्याचक्षते । पंडितशब्दः प्रशस्तमित्यस्मिन्नर्थे क्व प्रयुक्तो दृष्टो येनैवं व्याख्यायते ? किं च आगमांतराननुगतं चेदं व्याख्यानं । ववहारे सम्मत्ते णाणे चरणे य पंडिदस्त तदा । पंडिदमरणं भणिदं चदुग्विधं तब्भवंति हि ॥' [ 1 इति वदता चतुःप्रकाराः पंडिता उपदर्शिताः । तेषां मध्ये अतिशयितं पांडित्यं यस्य ज्ञानदर्शनचारित्रेषु स पंडितपंडित इत्युच्यते । एतत्पांडित्यप्रकर्षरहितं पांडित्यं यस्य स पंडित इत्युच्यते । व्याख्यातं बाल्यं पांडित्यं च यस्य स भवति वालपंडितः तस्य मरणं बालपंडितमरणं । यस्मिन्न संभवति पांडित्यं चतुर्णामप्येकं असौ बालः । सर्वतो न्यूनो वालबालः तस्य मरणं बालबालमरणं । अथ के पंडित पंडिता येषां मरणं पंडितपंडितमिति भण्यते इत्यारेकायामाह - पंडिदपंडितमरणे खीणकसाया मरंति केवलिणो । विरदाविरदा जीवा मरंति तदियेण मरणेण ||२७|| ६१ जीवोंकी अपेक्षा पाँच भेद कैसे संभव हैं ? यदि कहोगे कि प्राणीका प्राणोंसे वियोग मरण है तो वह सामान्यसे एक ही प्रकार का है । प्राणभेदकी अपेक्षा लेना हो तो दस भेद हो सकते हैं ? यदि उदय प्राप्त कर्म पुद्गलोंके गलनेका नाम मरण है तो कर्म पुद्गलोंका गलन तो प्रति समय होता है अत: पाँच भेद नहीं बनते ? समाधान -- गुणभेदकी अपेक्षा जीवोंके पाँच भेद करके उनके सम्बन्धसे मरणके पाँच भेद कहे हैं । प्रशस्त, अन्य व्याख्याकार पण्डितपण्डितमरण आदि पाँच मरणोंको प्रशस्ततम प्रशस्ततर, ईषत् अविशिष्ट और अविशिष्टतर कहते हैं । हम उनसे पूछते हैं कि पण्डित शब्दका प्रशस्त अर्थ में प्रयोग कहाँ देखा है जिससे आप ऐसी व्याख्या करते हैं । तथा यह व्याख्यान अन्य आगमोंके अनुकूल नहीं है । आगममें कहा है— व्यवहार में, सम्यक्त्वमें ज्ञानमें और चारित्रमें पण्डितके मरणको पण्डितमरण कहते हैं अतः उसके चार भेद हैं । इस प्रकार चार प्रकारके पण्डित कहे हैं । उनके मध्य में जिसका पाण्डित्य ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें अतिशयशाली है उसे पण्डितपण्डित कहते हैं । उसके पाण्डित्यके प्रकर्षसे रहित जिसका पाण्डित्य होता है उसे पण्डित कहते हैं । पूर्वमें व्याख्यात बालपन और पाण्डित्य जिसमें होते हैं वह बालपण्डित है । उसका मरण बालपण्डितमरण है । और जिसमें चारों प्रकारके पाण्डित्य में से एक भी पाण्डित्य नहीं है वह बाल है और जो सबसे हीन है वह बालबाल मरण है ||२६|| पण्डित पण्डित कौन हैं जिनका मरण पण्डितपण्डित कहा जाता है ? ऐसी शङ्का होनेपर आचार्य कहते हैं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना पंडिदपंडिदमरणं खोणकसाया मरंति के लिणो । सामान्य मृतेर्विशेषमृतिः कर्मतया निर्दिष्टा पंडितपंडितमरणमिति । यथा गोपोषं पुष्टः इति । 'खीणकसाया', कषन्ति हिंसन्ति आत्मानमिति कषायाः । अथवा कपायशब्देन वनस्पतीनां त्वक्पत्रमूलफलरस उच्यते । स यथा वस्त्रादीनां वर्णमन्यथा संपादयति एवं जीवस्य क्षमामार्दवार्जव संतोषाख्यगुणान्विनाश्यान्यथा व्यवस्थापयंतीति क्रोधमानमायालोभाः कषाया इति भयंते । ते क्षीणाः कषाया येषां ते क्षीणकषायाः । द्रव्यकर्मणां कषायवेदनीयानां विनाशात्तन्मूला अपि भावकषायाः प्रलयमुपगता इति क्षीणकषाया इति भण्यन्ते । केवलमसहायं ज्ञानं इंद्रियाणि मनःप्रकाशादिकं चानपेक्ष्य युगपदशेषद्रव्यपर्यायभासनसमर्थं सद्यत्' प्रवर्तते तद्येषामस्ति ते केवलिनः । यद्यपि केवलज्ञानवस्तुसामान्ये न प्रवर्तते केवलिशब्दस्तथापि सयोगकेवलिनो मरणस्यासंभवादयोगकेवलिनो ग्रहणं । अत्रान्ये क्षीणकषायाः श्रुतकेवलिनश्चेति व्याचक्षते । तेषां तद्व्याख्यानमसमंजसं श्रुतशब्दमंतरेण केवलिशब्दस्य क्वचिदप्यागमे समस्तश्रुतरत्नवत्यपि प्रयोगादर्शनात् । प्रसिद्धशब्दार्थासंभवो यदि स्यात् यथा कथंचिदन्योऽर्थो व्याख्येयः स्यात् । संभवति प्रतीतेऽर्थे कथं तत्परित्यागः । अपि च पांडित्यप्रकर्षः क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रापेक्षस्तत्र सन्निहितो न श्रुतकेवलिनि । विरदाविरदा जीवाः स्थूलकृतात्प्राणातिपातादेर्व्यावृत्ताः इति विरताः सूक्ष्माच्चाव्यावृत्तेरविरताः । विरता यदि कथमविरता अविरताश्चेत्कथं विरताः इति विरोधाशंका न कार्या । विरत ६३ गाo - पण्डितपण्डितमरणसे क्षीण कषाय और अयोगकेवली मरते हैं । विरताविरत जीव तीसरे मरणसे मरते हैं ||२७|| टी० - ' पण्डित पण्डितमरण मरते हैं' यहाँ पण्डितपण्डित नामक विशेष मरणको 'मरते हैं'. इस सामान्य मरणके कर्मरूपसे कहा है । जैसे बैलके समान पुष्टको सामान्य पुष्ट शब्दसे कहा है । जो 'कषन्ति' अर्थात् आत्माका घात करती हैं उन्हें कषाय कहते हैं । कषाय शब्दसे वनस्पतियोंके छाल, पात्र, जड़ और फलका रस कहा जाता है । वह रस जैसे वस्त्रादिके रंगको बदल देता हैं इसी प्रकार जीवके क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष नामक गुणोंको नष्ट करके अन्यथा कर देते हैं इसलिए क्रोध, मान, माया, लोभको कषाय कहते हैं । वे कषाय जिनकी क्षीण हो गई हैं- - नष्ट हो गई हैं वे क्षीणकषाय होते हैं । कषाय वेदनीय नामक द्रव्यकर्मोंका विनाश होने से उनका निमित्त पाकर होने वाली भावकषाय जिनकी नष्ट हो गई है वे क्षीणकषाय कहे जाते हैं । केवल अर्थात् असहाय ज्ञान, जो इन्द्रियाँ, मन, प्रकाश आदि की अपेक्षा न करके एक साथ समस्त द्रव्य-पर्यायोंको जाननेमें समर्थ हैं वह केवलज्ञान हैं। वह जिनके हैं वे केवली होते हैं । यद्यपि केवली शब्द केवलज्ञान रूप वस्तुसामान्यमें प्रवृत्त नहीं होता, तथापि सयोगकेवलीका मरण असम्भव होनेसे अयोगकेवलीका ग्रहण होता हैं । दूसरे व्याख्याकार 'क्षीणकषाय और श्रुतकेवली' ऐसा व्याख्यान करते हैं । उनका वह व्याख्यान ठीक नहीं है । श्रुत शब्दके बिना केवली शब्दका प्रयोग किसी भी आगममें समस्त श्रुतधारी के लिए नहीं देखा गया । यदि शब्दका प्रसिद्ध अर्थ असम्भव ही हो तो जिस किसी तरह अन्य अर्थ किया जा सकता है । जव सम्भव अर्थ प्रतीतिसिद्ध है तो उसे कैसे छोड़ा जा सकता है ? दूसरे, पाण्डित्यका प्रकर्षं वहाँ क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन और क्षायिक चारित्रकी अपेक्षा लिया गया है, वह श्रुतकेवली में नहीं है । जो स्थूल हिंसा आदिसे निवृत्त होनेसे विरत और सूक्ष्म हिंसा आदिसे अनिवृत्त होनेसे अविरत होते हैं वे जीव विरताविरत होते हैं । यदि वे विरत हैं तो अविरत कैसे हैं और अविरत १. सद्यत्र - अ० ज० मु० । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६३ त्वाविरतत्वयोः अर्पणाभेदाद्विरोधो नास्पदं बध्नाति । यथा द्रव्यपर्यायरूपापेक्षे नित्यानित्यत्वे एकद्रव्याधिकरणे एकस्मिन्नपि समये न विरोधमुपयातः । अथवा प्रत्याख्यानावरणानां क्षयोपशमे सति स्थूलात्प्राणातिपातादेविरतोऽस्मि न सूक्ष्मादित्येक एव परिणाम उपजायते । विरोधश्च नाम अनेकाधिकरणः यथा शीतोष्णस्पर्शादीनां । द्रव्यभावप्राणधारणाज्जीवा इति निरूप्यंते । 'तदएण' तृतीयेन मरणेन नियन्ते । वस्तुपरिणामवृत्तिक्रमो यदि स्यात्तथा गण्यमाने द्वित्त्वं त्रित्वं वा प्रतिप्रद्यरन । गुणस्थानापेक्षायां सम्यमिथ्यादृष्टेरेव तृतीयता न संयतासंयतत्वस्य तत्किमुच्यते तृतीयेनेति ? मरणस्य तु सामान्यापेक्षायां एकत्वमेवेति न तृतीयता । . विशेषापेक्षायां च अतीतानां च अनंतत्वादनागतानां चातिबहुत्वसंभवात् । अत्रोच्यते-सूत्रनिर्दिष्टक्रमापेक्षया तृतीयता ग्राह्या। विरताविरतपरिणामविशेषनिर्देशादेव जीवद्रव्यस्य गते जीवा इति सूत्रे वचनमपार्थकमिति चेन्नानर्थकं मतांतरनिवृत्तिपरत्वात् । साख्या हि प्रकृतिधर्मतां मरणस्याभ्युपयन्ति पुरुषस्य सर्वथा नित्यत्वात् । तत्तथा न, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वादात्मनः । अत्रोच्यते-पंडितपंडितमरणादनंतरं पंडितमरणं तदुल्लंध्य हैं तो विरत कैसे हैं इस प्रकारके विरोधकी आशङ्का नहीं करना चाहिए । अपेक्षा भेदसे विरतपने और अविरतपने में विरोधको कोई स्थान नहीं है। जैसे एक द्रव्यमें एक ही समयमें द्रव्यरूपकी अपेक्षा नित्यपना और पर्यायरूपकी अपेक्षा अनित्यपनामें कोई विरोध नहीं आता। अथवा अप्रत्याख्यानावरण कषायोंका क्षयोपशम होनेपर स्थूल हिंसा आदिसे मैं विरत हूँ किन्तु सूक्ष्म हिंसादिसे विरत नहीं हूँ इस प्रकारका एक ही परिणाम होता है। विरोध तो उनमें होता है जो एक आधारमें न रहकर अनेक आधारोंमें रहते हैं जैसे शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श आदिमें विरोध है । अस्तु, द्रव्यप्राण और भावप्राणोंको धारण करनेसे जीव कहे जाते हैं। विरताविरत जीव तीसरे मरणसे मरते हैं। __ शंका-यहाँ तृतीयसे यदि वस्तुके परिणामोंकी वृत्तिका क्रम लेते हैं तो गणना करनेपर दोपना या तीनपना प्राप्त होता है। गुणस्थानकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही तीसरा है, संयतासंयत नहीं है तब कैसे तीसरा कहते हैं। तथा सामान्यकी अपेक्षा मरण तो एक ही है, तीसरापना कैसे ? विशेषकी अपेक्षा अतीतमरण अनन्त हैं और भाविमरण उससे भी अधिक सम्भव हैं ? समाधान-सूत्रमें जिस क्रमसे मरणोंका निर्देश किया है उसकी अपेक्षा तीसरा लेना चाहिए। शंका-विरताविरत परिणाम विशेषका निर्देश करनेसे ही जीवद्रव्यका ज्ञान हो जाता है तब गाथामें जीवा पद व्यर्थ है ? समाधान-व्यर्थ नहीं है यह मतान्तरकी निवृत्तिके लिए है । सांख्य मतवाले मरणको प्रकृतिका धर्म मानते हैं क्योंकि उनके मतमें पुरुष सर्वथा नित्य है। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि आत्मा उत्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक है। शंका-पण्डितपण्डितमरणके अनन्तर पण्डितमरण आता है । उसे छोड़कर तीसरे मरणका १. गणने आ० मु०। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भगवती आराधना तृतीयस्य स्वामित्वं कस्मात्प्रदर्श्यते क्रमोल्लंघने प्रयोजनं वाच्यम् ? इति चेदुच्यते-उत्कृष्टजघन्यपंडितत्वमध्यवृत्तिपंडितत्वमित्येत दाख्यातू उभयावधिप्रदर्शन क्रियते । अथवा पंडितमरणे बहवक्तव्यमस्तीति तत्सान्यासिक व्यवस्थाप्य अल्पवक्तव्यतया बालपंडितमेव प्राग व्याचष्टे । कतिविधं पंडितमरणं किं स्वामिकं वा इत्यारेकायां इयं गाथा पायोपगमणमरणं इत्यादिका पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव । तिविहं पंडितमरणं साहुम्स जहुत्तचारिस्स ॥२८॥ पादाभ्यामुपगमनं ढोकनं तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमनमरणं । इतरमरणयोरपि पादाभ्यामुपगमनमस्तीति त्रैविध्यानुपपत्तिरिति चेन्न मरणविशेषे वक्ष्यमाणलक्षणे रूढिरूपेणायं प्रवर्तते, रूढी च क्रिया उपादीयमाना शब्दव्युत्पत्त्यथैव । यथा गच्छतीति गौरिति शब्दव्युत्पत्तौ क्रियमाणायामपि गमनक्रियाकर्तृतास्तीति स्वामी क्यों कहा ? क्रमका उल्लंघन करनेका प्रयोजन क्या है यह कहना चाहिए ? समाधान-उत्कृष्ट और जघन्य पंडितत्वके मध्य में रहनेवाला पण्डितत्व है यह कहनेके लिए दोनों अवधियोंको बतलाया है। अथवा पण्डितमरणके सम्वन्धमें बहुत कहना है इसलिए उसे अलग रखकर थोड़ा कथन होनेके कारण बालपण्डितमरण को ही पहले कहा है ।।२७।। पण्डितमरणके कितने भेद हैं और वह किसके होता है, यह कहते हैं गाथा-पादोपगमन मरण भक्तप्रतिज्ञा और इंगिणीमरण इस प्रकार पण्डितमरण तीन प्रकार का है। वह शास्त्रमें कहे अनुसार आचरण करनेवाले साधु के होता है ॥२८॥ टो०-पाद अर्थात् पैरो से, उपगमन पूर्वक होनेवालेको पादोपगमन मरण कहते हैं। शंका-शेष दोनों मरणोंमें भी पैरोंसे उपगमन होता है अतः तीन भेद नहीं बनते ? समाधान-यह पादोपगमन रुढ़िरूपसे मरण विशेषमें प्रवृत्त होता है, इसका लक्षण आगे कहेंगे। रूढ़ शब्दोंमें ग्रहण की गई क्रिया शब्दकी व्युत्पत्तिके लिए ही होती है। जैसे, जो चलती है वह गौ है । इस प्रकार गौ शब्दकी व्युत्पत्ति करने पर भी यद्यपि यह व्युत्पत्ति गमन क्रियाको सं० टि०-सब प्रतियोंमें इसके पश्चात एक नीचे लिखी गाथा आती है उसका नम्बर भी २८ है। हमने गाथा २७ की जो उत्थानिका दी है वह भी इस २८ नम्बरकी उत्थानिका है। तथा ऊपर टीकामें विरताविरत परिणामसे जीव द्रव्यका ज्ञान हो जाता है आदि जो शङ्का प्रारम्भ होती है वहाँसे टीकाका भाग इस गाथा २८ की टीकाके रूपमें दिया है । गाथा इस प्रकार है पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव । एवाणि तिण्णि मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसति ॥ अर्थ-पण्डित पण्डित मरण, पण्डित मरण और बाल पण्डित मरण इन तीन मरणोंकी जिनदेव सदा प्रशंसा करते हैं। इस गाथाके साथ न तो उत्थानिकाका कोई सम्बन्ध है और न टीकाका कोई सम्बन्ध है । अतः यह गाथा प्रक्षिप्त है । पं० आशाधरने गाथा २६ की अपनी टीकामें लिखा भी है-'तथा चान्यस्मादानीय सूत्रे पठन्ति' अर्थात अन्यत्रसे लेकर पढ़ते हैं इसके पश्चात् ही उन्होंने उक्त गाया दी है। इसलिये हमने इसे मूलमें नहीं रखा। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६५ गोशब्देन न महिष्यादयो भयंते । अथवा पाउग्गगमणमरणं इति पाठः । भवांतकरणप्रायोग्यं संहननं संस्थानं च इह प्रायोग्यशब्देनोच्यते । अस्य गमनं प्राप्तिः, तेन कारणभूतेन यन्नित्यं मरणं तदुच्यते पाउग्गगमणमरणमिति । भज्यते सेव्यते इति भक्तं, तस्य पइण्णा त्यागो भत्तपइण्णा । इतरयोरपि भक्तप्रत्याख्यानसंभवेऽपि रूढिवशान्मरणविशेषे एव शब्दोऽयं प्रवर्तते। इंगिणीशब्देन इंगितमात्मनो भण्यते स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवयंमानं मरणं इंगिणीमरणं । तिविहं त्रिविधं त्रिप्रकारं। पंडितमरणं कस्य तद्भवति? 'साधुस्स साधोः 'जधुत्तचारस्स' यथा येन प्रकारेण उक्तं श्रुते तथा चरितु शीलं यस्य साधोस्तस्येति यावत् । सदाचारः सर्व एव जनः संयतोऽसंयतश्च लोके साधुशब्दवाच्यः, इति संयतपरिग्रहाथं यथोक्तचारित्वविशेषणं कृतम् । इतरयोर्बालमरणबालबालयोरित्यनयोः स्वामित्वसूचनार्थगाथा अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि । मिच्छादिट्ठी य पुणो पंचमए बालबालम्मि ॥२९॥ अविरसदम्मादिदी इति प्रसिद्धार्थत्वान्न व्याख्येयं । अत्रावसरे इदं चोद्यमाशंक्यते । वोच्छं आराषणं कमसो इति प्रतिज्ञातं । सा च द्विप्रकारा दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति । तद्वयाख्यानमकृत्वा मरणविकल्पालेकर है किन्तु गौ शब्दसे भैंस आदि नहीं कहे जा सकते। अथवा 'पाउग्गगमणमरणं' पाठ है। यहाँ प्रायोग्य शब्दसे संसारका अन्त करनेके योग्य संहनन और संस्थान कहे जाते हैं। उसके गमन अर्थात् प्राप्तिको प्रायोग्यगमन कहते हैं। उसके कारण होनेवाले मरणको प्रायोग्यगमन मरण कहते हैं । 'भज्यते' अर्थात् जो सेवन किया जाये वह भक्त है। उसकी 'पइण्णा' अर्थात् त्याग भत्तपइण्णा है। भोजनका त्याग शेष दोनों मरणोंमें भी सम्भव है। फिर भी रूढ़िवश भत्तपइण्णा शब्द मरण विशेषका ही बोधक होता है। इंगिणी शब्दसे आत्माका इंगित अर्थात् संकेत कहा जाता है। अपने अभिप्रायके अनुसार रहकर होनेवाला मरण इंगिणीमरण है। इस तरह पण्डितमरण तीन प्रकार का है। पण्डितमरण किसके होता है ? श्रुतमें जिस प्रकारसे कहा है उसी प्रकारसे आचरणशील साधुके होता हैं। सभी सदाचार वाले मनुष्य, वे संयमी हो या असंयमी, लोकमें साधु शब्दसे कहे जाते हैं। इसलिये संयमीका ग्रहण करनेके लिए 'यथोक्तचारी' विशेषण दिया है ॥२८॥ विशेषार्थ-अपने पैरोंसे चलकर अर्थात् संघसे निकल कर योग्य देशमें आश्रय लेना पादोपगमन है। इसमें न स्वयं अपनी सेवा करता है और न दूसरेसे कराता है। भक्त प्रतिज्ञामरणमें स्वयं भी अपनी वैयावृत्य करता है और दूसरेसे भी कराता है । इंगिणीमरणमें अपनी वैयावृत्य स्वयं ही करता है दूसरेसे नहीं कराता। पादोपगमनको प्रायोपगमन भी कहते हैं और प्रायोपवेशन भी कहते हैं । 'प्राय' का अर्थ संन्यास है ।।। अब शेष बालमरण और बालबालमरणके स्वामियोंको कहते हैं गाथा—अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ बालमरणमें मरते हैं। मिथ्यादृष्टि पाँचवें बालबालमरणमें मरते हैं ॥२९॥ टो०-इस गाथाका अर्थ प्रसिद्ध होनेसे इसकी व्याख्या नहीं करते। . - शंका-यहाँ यह शंका करते हैं। ग्रन्थकारने 'क्रमसे आराधना को कहूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा की है। वह आराधना दो प्रकार की है-दर्शनाराधना और चारित्राराधना । उनका व्याख्यान Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भगवती आराधना स्तत्स्वामिनश्च कस्मान्निदिश्यते । प्रस्तुतपरित्यागमप्रस्तुताभिधानं चन क्षमते विद्वांसः । अत्रोच्यते-न अप्रस्तुतं अंतरनिर्दिष्टं मरणं । आराधनानुगतमरणस्यैवेह शास्त्रेऽभिधेयत्वेनेष्टत्वात् । आराधनायाश्च आराधकमतरणासंभवात् । स्वामी च निर्देष्टव्य एवेति सूरेरभिप्रायः ॥ ., अत एव प्रस्तुतां प्राथमिकी दर्शनाराधनां आचष्टे तत्थोवसमियसमत्तं खइयं खवोवसमियं वा । आराहतस्स हवे सम्मत्ताराहणा पढमा ॥३०॥ तत्थोवसमियसम्मत्तमित्यादिना । अथवा अंतरसूत्रनिर्दिष्टं बालमरणव्याख्यानं प्रस्तुतां प्राथमिकी सम्यक्त्वाराधनां पुरस्कृत्य प्रवर्तते इत्यत आह-तत्थोवसमियसमत्त । अथवा सम्यग्दर्शनविशेषस्य कस्यचिदेव आराधना उत सर्वस्येत्याशंका । कुतः संदेहः ? आचार्यमतभेदेन पदानामर्थद्वैविध्यात्सामान्यं पदानामभिधेयं । 'पदाच्छु तार्थसामान्यनिर्भासप्रतीत्युत्पत्तनं हि गामित्यतः पदाच्छुक्लां कृष्णां शबलामिति वा प्रतीतिः, खंडां मुंडां इति वा जायते । यच्च पदोपलब्धिकार्यभूतायां बुद्धो न प्रतिभाति तत्कथं शब्दस्याभिधेयतां गंतुमुत्सहते । अप्रतीयमानस्याप्यर्थत्वे अयमेवास्यार्थो नान्य इतीयं व्यवस्था न स्यात् । तेन सामान्यमेवार्थ इति । अन्ये तु मन्यते त्यागोपादानोपेक्षारूपा हि लोकव्यवहृतिस्तत्र पुमांसं प्रवर्तयितु शब्दाः प्रयुज्यंते । दुःखसाधनं यत्तत्त्यन करके मरणके भेद और उनके स्वामियोंका कथन क्यों किया गया? विद्वान् गण प्रस्तुतके परित्याग और अप्रस्तुतके कथनको सहन नहीं करते? ... समाषान--बीचमें जो मरणका कथन किया है वह अप्रस्तुत नहीं हैं । आराधना पूर्वक होनेवाले मरणका ही इस शास्त्रमें कथन करना इष्ट है। वही इसका अभिधेय-प्रतिपाद्य विषय है। और आराधकके बिना आराधना होना असम्भव है। अतः स्वामीका भी कथन करना ही चाहिए । यह आचार्यका अभिप्राय है ॥२९॥ . . इसीलिए प्रस्तुत प्रथम दर्शनाराधना को कहते हैं गाथा-उन सम्यक्त्वोंमें ओपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी आराधना करने वालेके प्रथम सम्यग्दर्शन आराधना होती है ॥३०॥ टी०-अथवा इसके पूर्वकी गाथामें कहा बालमरणका व्याख्यान प्रस्तुत प्रथम सम्यक्त्वाराधनाको लेकर ही किया है अतः यहां उसका कथन करते हैं।। शंका-यहाँ शंका होती है कि किसी सम्यग्दर्शन विशेषकी आराधना होती है या सबकी होती है ? इस सन्देहका कारण यह है। आचार्यों के मतभेदसे पदोंका अर्थ दो प्रकारका माना जाता है। एक मत है पदोंका अभिधेय सामान्य है क्योंकि पदसे सामान्य अर्थका बोध होता है। 'गौ' इस पदसे सफेद, काली या चितकबरी गौ की अथवा खण्डी या मुण्डी गौ की प्रतीति नहीं होती और पदकी उपलब्धिकी कार्यभूत बुद्धिमें जिसका प्रतिभास नहीं होता उसे शब्दका वाच्य कैसे माना जा सकता है । शब्द सुनकर जिस अर्थकी प्रतीति नहीं होती उसे भी यदि उसका अर्थ माना जाता है तो इस पदका यही अर्थ है, अन्य नहीं, यह व्यवस्था नहीं बनेगी। इसलिए सामान्य ही पदका अर्थ है। __ अन्य आचार्य मानते हैं कि लोक व्यवहार, त्याग, ग्रहण और उपेक्षा रूप है । उस व्यवहारमें पुरुषोंको प्रवृत्त करनेके लिए शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। जो दुःखका साधन होता है Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ विजयोदया टीका ज्यते । सुखसाधनमुपादीयते । तदुभयस्यासंपादकमुपेक्ष्यते। विशिष्टमेव च वस्तु सुखादीनां संपादकं । तथाहि-स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यादिकं अतिशयितमेवादातु उत्सहन्ते । दुःखसाधनं चात्मनिकटवत्येव कंटकादिकं परिजिहीर्षन्ति । तेन शब्देनापि तदथिनां तथाभूतमेव वस्तु प्रतिपाद्यमित्यभ्युपगन्तव्यं । अतो विशेषः पदानामर्थः इति । सारूप्यानामनेकविशेषवतिनां पदानामेकपदप्रयोगाद्यदि नाम विशेषो न प्रतीयते नैतावता विशेषस्याभिधेयताहानिः पदांत रसमवधाने विशेषप्रतीतेरनुभवसिद्धत्वात् इति जैनानामुभयं पदार्थः पदानामभयत्र प्रतीत्युत्पत्तः । तथाहि-न हिंस्याः प्राणिनः प्राणिसामान्यं परिहार्यत्वेन प्रतीयते । देवदत्तमानयेत्युक्ते पुरुषविशेषमवगच्छन्ति । ततो न ज्ञायते 'समत्तमि य' इत्यत्र सामान्यं सम्यक्त्वं गृहीतं उत तद्विशेष इति तेन तत्संदेहनिवृत्तिः क्रियते । 'तत्थ' तेषु सम्यक्त्वेषु । 'उवसमियसम्मत्तं' अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभानां सम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वानां च सप्तानामपशमादुपजातं तत्त्वश्रद्धानं औपशमिकं सम्यक्त्वं । तासामेव सप्तप्रकृतीनां क्षयादुपजातवस्तुयाथात्म्यगोचरा श्रद्धा क्षायिकं दर्शनं । तासामेव कासांचिदुपशमात अन्यासां च क्षयादुपजातं श्रद्धानं क्षायोपशमिकं । वा शब्दः प्रत्येकं संवध्यते । औपशमिकं वेत्यादिना क्रमेण । 'आराधंतस्स' आराधयतः । 'हवें भवेत् । 'सम्मत्ताराहणा' सम्यक्त्वाराधना। 'पढमा प्रथमा । “अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे" इत्युक्तं । तत्राविरतग्रहणं सम्यग्दृष्टेविशेषणत्वेनोपात्त । प्रतीतेन हि ९ उसको त्याग दिया जाता है। सुखके साधनको ग्रहण किया जाता है। जो न दुःखका साधन होता है, न सुख का, उसकी उपेक्षा की जाती है । तथा विशिष्ट वस्तु ही सुखादिका साधक होती है। जैसे स्त्री, वस्त्र, गंध, माला आदि जो उत्तम होती है उसे ही ग्रहण करनेके लिए उत्साहित होते हैं। दुःखके साधन कण्टक आदि अपने निकटवर्ती भी हों तो उन्हें छोड़ देते हैं अतः शब्दके द्वारा भी सुखादिके अर्थी पुरुषोंको विशिष्ट वस्तु ही प्रतिपाद्य है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। अतः पदोंका अर्थ विशेष है। समानाकार अनेक विशेषोंमें रहनेवाले पदोंका एक पदके प्रयोगसे यदि विशेषका अर्थ प्रतीत नहीं होता तो इससे विशेषके शब्दार्थ होनेको कोई हानि नहीं पहुँचती, क्योंकि उसके साथ अन्य पदका सम्बन्ध होनेपर विशेषकी प्रतीति अनुभवसे सिद्ध है। समाधान—जैनोंके मतमें पदोंका अर्थ सामान्य भी है और विशेष भी है। दोनों की ही प्रतीति होती है। वही दिखलाते हैं 'प्रणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए' ऐसा कहनेपर प्राणी सामान्य अर्थात् प्राणिमात्रकी हिंसा नहीं करनी चाहिए यही प्रतीति होती है। और 'देवदत्तको लाओ' ऐसा कहनेपर पुरुष विशेषका बोध होता है । इस तरह पदका अर्थ दोनों होनेसे यह ज्ञात नहीं होता कि 'सम्मत्तम्मि' पदसे सामान्य सम्यक्त्व ग्रहण किया है या विशेष सम्यक्त्व ग्रहण किया है ? इसलिए सन्देहकी निवृत्तिके लिए औपशमिक आदि सम्यक्त्व कहा है। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उत्पन्न हुआ तत्त्वश्रद्धान औपशमिक सम्यक्त्व है। उन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न हुई श्रद्धा, जो वस्तुओंके यथार्थस्वरूपको विषय करती है, क्षायिक सम्यग्दर्शन है। उन्हींमेंसे किन्हींके उपशम और अन्य प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न श्रद्धान क्षायोपशमिक दर्शन है। 'वा' शब्द प्रत्येकके साथ लगता है। 'अविरदसम्यग्दृष्टी बालमरणसे मरता है' ऐसा जो पहले कहा है उसमें 'अविरत' पदका ग्रहण सम्यग्दृष्टीके विशेषणके रूपमें किया है। जो प्रतीत Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ भगवती आराधना विशेष्येण भाव्यम् । तथाचा भाणि-प्रतीतपदार्थयोविशेषणविशेष्यभावः इति । तस्मात्कीदृग्जीवोऽभिधेयः सम्यग्दृष्टिशब्दस्येति प्रश्नस्योत्तरमाह सम्मादिट्ठी जीवो उवइटें पवयणं तु सद्दहइ ।। सदहइ असब्भावं अयाणमाणो गुरुणियोगा ॥३१॥ सम्मादिट्ठी जीवो इत्यनया । अत्रैवं पदघटना 'उवइटें पवयणं तु सद्दहदि यो जीवो सो सम्मादिट्ठी' इति । उवइट्ठ उपदिष्टं कथितं । ननु उपपूर्वो दिशिरुच्चारणक्रियः । तथा हि प्रयोगः- उपदिष्टा वर्णा उच्चारिताः वर्णा इति । सत्यम, समुच्चारणक्रियस्तत्रव वर्तते नान्यत्र इत्यत्र न निबंधनं किंचित । यथा गां दोग्धि इत्यादिषु सास्नादिमति दृष्टप्रयोगोऽपि गोशब्दो वागादिषु अपि वर्तते एवमिहापीति किं न गृह्यते ? उपदिष्टमपि न वेत्ति इत्यादौ कथितमिति प्रतीतिरुपजायते सा कथमपास्यते । प्रायोग्यवृत्तिसमधिगम्यो हि शब्दार्थः । प्रोच्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनं जिनागमः । प्रकर्षश्चोक्तः दृष्टेष्टप्रमाणाविरोधिता वस्तुयाथात्म्यानुसारिता च । प्रवचनवाच्योऽर्थः साहचर्यात्प्रवचनमिति संगृह्यते । तु शब्दः एवकारार्थः । स च क्रियापदात्परतो द्रष्टव्यः । व्याख्यातं जैनागमाथं यः श्रद्दधात्येव न तु श्रद्दधाति (?) इत्ययोगव्यवच्छेदः । स जीवः सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टिशब्दवाच्य इति प्रतीतपदार्थकत्वमादर्शितं । 'सद्दहदि' श्रद्धानं होता है वह विशेष्य होता है । कहा भी है-प्रतीत पदार्थों में विशेषण विशेष्यभाव होता है ॥३०॥ सम्यग्दृष्टी शब्दका वाच्य किस प्रकारका जीव होता है ? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं गा०-उपदिष्ट अर्थात् कथित जिनागममें श्रद्धान करता ही है जो जीव वह सम्यग्दृष्टी है । किन्तु नहीं जानने हुए गुरुके नियोगसे असत्य भी अर्थका श्रद्धान करता है ॥३१॥ टो-शंका-उपपूर्वक दिशि धातुका अर्थ उच्चारण करना है। जैसे 'उपदिष्टवर्ण' का अर्थ उच्चारित वर्ण है । आपने उपदिष्टका अर्थ कथित कैसे किया है ? समाधान-आपका कथन सत्य है किन्तु समच्चारण क्रिया अर्थ वाली धातु उसी अर्थमें है, अन्य अर्थमें नहीं है इसमें हम कोई निबन्धन नहीं देखते। जैसे 'गौ दुहता है' इत्यादि वाक्योंमें गौ शब्दका प्रयोग गलकम्बलवाले पशुके अर्थमें देखा जाता है। फिर भी गौ शब्द वाणी आदि अर्थों में भी देखा जाता है। इसी प्रकार यहां भी क्यों नहीं स्वीकार करते । 'उपदिष्टको भी नहीं जानता' इत्यादिमें 'कथित' अर्थकी प्रतीति होती है उसे कैसे छोड़ा जा सकता है ? शब्दका अर्थ उसके प्रयोगसे जाना जाता है । जिसके द्वारा अथवा जिसमें जीवादि पदार्थ कहे हैं वह प्रवचन है उसका अर्थ जिनागम है। प्रवचनमें, 'प्र' का अर्थ प्रकृष्ट है। प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे अविरुद्ध और वस्तुके यथार्थ स्वरूपका अनुसारी होना वचनकी प्रकृष्टता है यह पहले कहा है। साहचर्यसे प्रवचनके द्वारा कहे गये अर्थको भी प्रवचन कहते हैं । 'तु' शब्दका अर्थ 'ही' है । उसे क्रियापद के आगे रखना चाहिये। अतः जो व्याख्यात जैनागम के अर्थका श्रद्धान करता ही है वह जीव सम्यग्दृष्टी शब्दके द्वारा कहा जाता है, इस प्रकार दिखलाया है। गुरु अर्थात् व्याख्याताके नियोगसे इसका यह अर्थ है १. तथाभाविप्र-आ० मु० । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका करोति । 'असन्भावमपि' असत्यमप्यर्थ । 'अयाणमाणो' अनवगच्छन् । कि? विपरीतमनेनोपदिष्टमिति । गुरोख्यिातुरस्यायमर्थ इति कथनान्नियुज्यते प्रतिपत्त्यां श्रोता अनेन वचनेन इति नियोगः कथनं । सर्वज्ञप्रणीतस्यागमस्यार्थः आचार्यपरंपरया अविपरीतः श्रुतोऽवधतश्चानेन सूरिणा उपदिष्टो ममेति सर्वज्ञाज्ञाया रुचिरस्यास्तीति । आज्ञारुचितया सम्यग्दृष्टिर्भवत्येवेति भावः । किमेप विपरीतं प्रतिपद्यमानोऽपि सर्वदा सम्यग्दृष्टिरेव ? नेत्याह सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि ।।३२।। - सुत्तांदो इति । 'सुत्तादो' सूत्रात् । 'त' आत्मना विपरीतं गृहीतमर्थ । 'सम्म' सम्यक् अविपरीतरूपेण । 'दरसिज्जंतं दर्श्यमानं प्ररूप्यमाणं अन्येन आचार्येण । 'जवा' यदा यस्मिन्काले । 'न सद्दहदि' न श्रद्दधाति । 'सो चेव' स एव सम्यग्दृष्टितयोक्तः । 'मिच्छादिट्ठी हवई' मिथ्यादृष्टिर्भवति । आप्ताज्ञाश्रद्धानवैकल्यात् अर्थयाथात्म्याश्रद्धानाच्च । 'तदो' ततः । 'पहुवि' प्रभृति आरम्य । असंदिग्धसूत्रांतरदर्शितार्थाश्रद्धानादारभ्येति यावत् । 'सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं' इत्युक्तं केन रचितानि सूत्राणि प्रमाणभूतानीत्यत आह सुत्तं गणधरगथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च ॥ सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुन्विगघिदं च ।।३३।। ऐसा कहनेसे श्रोता इस वचनके द्वारा नियुक्त किया जाता है इस लिये उसे नियोग कहा है, गुरुने विपरीत कथन किया है यह न जानते हुए असत्य भी अर्थका श्रद्धान करता हैं । सर्वज्ञके द्वारा प्रणीत अर्थ आचार्य परम्परासे जो ठीक-ठीक सुना और अवधारित किया है वही आचार्यने मुझे कहा है इस प्रकार सर्वज्ञकी आज्ञामें उसकी रुचि है और आज्ञामें रुचि होनेसे वह सम्यग्दृष्टी ही है यह उक्त कथनका भाव है ।।३१।। क्या वह इस प्रकार विपरीत श्रद्धा करते हुए भी सर्वदा सम्यग्दृष्टि ही रहता है ? इसका उत्तर देते हैं कि नहीं गा०-सूत्रसे प्रथम गुरुके उपदेशसे विपरीत रूपसे ग्रहण किये अर्थको सम्यक् अविपरीत रूपसे अन्य आचार्यके द्वारा दिखलाने पर जब श्रद्धा नहीं करता। वही सम्यग्दृष्टी उस समय से मिथ्यादृष्टि होता है ॥३२॥ टी–प्रथम गुरुके निर्देशसे विपरीत अर्थका श्रद्धान करने वाले उस सम्यग्दृष्टीको जब कोई दूसरे आचार्य गणधर आदिके द्वारा रचे गये आगम प्रमाणका आश्रय लेकर यथार्थ अर्थ बतलावें और वह उसपर श्रद्धा न करके अपने विपरीत अर्थको ठीक समझे तो सन्देह रहित अन्य शास्त्रोंमें दिखलाये गये अर्थपर श्रद्धान न करनेके समयसे लेकर वह मिथ्यादृष्टी होता है क्योंकि वह आप्तकी आज्ञाका श्रद्धान नहीं करता तथा वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी उसे श्रद्धा नहीं है ।।३२।। ऊपर 'सूत्रसे सम्यक् दिखलाने पर' ऐसा कहा है तो किसके द्वारा रचित सूत्र प्रमाण होते हैं यह कहते हैं गा०-जो गणधरके द्वारा रचा हुआ हो, प्रत्येक बुद्धके द्वारा कहा हुआ हो, या श्रुतकेवली के द्वारा कहा हुआ हो या अभिन्न दशपूर्वीके द्वारा रचा गया हो वह सूत्र है ।।३३।। आगम Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० भगवती आराधना सुत्तं गणधरगथिदं इति । सुत्तं सूत्रं । गणशब्देन द्वादशगणा उच्यते । तान्धारयन्ति इति गणधराः । दुर्गतिप्रस्थिता हि तेन रत्नत्रयोपदेशेन धार्यन्ते ते सप्तविद्धिमुपगताः । उक्तं च बुद्धितविगुव्वणोसधिरसबलं च अक्खीणं ॥ सत्तविष इड्ढिपत्ता गणधरदेवा णमो तेसि ॥ [ ] इति । तैः 'गथिदं' ग्रथितं संदब्ध। केवलिभिरुपदिष्टं अर्थ ते हि अथ्नन्ति । तथाभ्यधा यि--'अत्थं कहति अरुहा गंथं गंथंति गणधरा तेसि । 'तहेव' तथैव । 'पत्तयबुद्धगधिवं' च प्रत्येकबुद्धग्रथितं च । श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमात् परोपदेशमंतरेणाधिगतज्ञानातिशयाः प्रत्येकबुद्धाः । 'सुदकेवलिणा' समस्तश्रुतधारिणा कथितं चेति । अभिन्नदसपुविकधिदं च । दशपूर्वाण्यधीयमानस्य विद्यानुप्रवादस्थाः क्षुल्लकविद्या महाविद्याश्च अंगुष्ठप्रसेनाद्याः प्रज्ञप्त्यादयश्च तैरागत्य रूपं प्रदर्य, सामर्थ्य स्वकर्माभाष्य पुरः स्थित्वा आज्ञाप्यतां किमस्माभिः कर्तव्यमिति तिष्ठति । तद्वचः श्रुत्वा न भवतीभिरस्माकं साध्यमस्तीति ये वदन्ति अचलितचित्तास्ते अभिन्नदशपूर्विणः । एतेषामन्यतमेन ग्रथितं सूत्रं प्रमाणं । प्रमाणेन केवलेन श्रुतेन वा गृहीतमर्थ अरक्तद्विष्टाः संतो यदुपदिशंति ततस्तद्वचसां प्रामाण्यं इति भावः । प्रमाणपरिदृष्टार्थगोचरं अरक्तद्विष्टवक्तृप्रभवं वचः प्रमाणं । यथा पितुररक्तद्विष्टस्य स्वप्रत्यक्षगोचरं वचः घटोऽयं रक्त इति । तथा च गणधरादीनां वचः प्रमाणं परिदृष्टार्थगोचरं अरक्तद्विष्टवक्तृप्रभवम् । ____टी०-गण शब्दसे बारहगण कहे जाते हैं। जो उन्हें धारण करते हैं वे गणधर हैं । अर्थात् दुर्गतिके मार्ग पर चलते हुए गणोंको रत्नत्रयके उपदेश द्वारा धारण करते हैं उन्हें सम्यग्दर्शनादिमें स्थापित करते हैं। वे गणधर सात प्रकारकी ऋद्धियोंको प्राप्त होते हैं। कहा है--बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, औषधिऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि, और अक्षीणऋद्धि इन सात प्रकारकी ऋद्धियोंको प्राप्त गणधरदेव होते हैं । उन्हें नमस्कार हो । वे गणधर केवलियोंके द्वारा उपदिष्ट अर्थको ग्रन्थरूपं गूथते है। कहा है-अरहन्त अर्थको कहते हैं और उनके गणधर उसे ग्रन्थका रूप देते हैं। श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे परोपदेशके बिना जो ज्ञानातिशयको प्राप्त होते हैं वे प्रत्येकबुद्ध हैं। जो समस्त श्रुतके धारी होते हैं वे श्रुतकेवली हैं । दश पूर्वोका अध्ययन करते हुए दसवें पूर्व विद्यानुवादमें स्थित अंगुष्ट प्रसेना आदि क्षुल्लक विद्याएँ और प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याएँ आकर अपना रूप दिखाकर और अपनी शक्ति कहकर सामने खड़ी होकर निवेदन करती हैं कि हमारे योग्य कार्य बतायें । उनके वचन सुनकर जो कहते हैं कि हमें आपसे कोई काम नहीं है, वे अचल चित्त वाले अभिन्न दसपूर्वी होते हैं। इनमेंसे किसी द्वारा रचा गया सत्र प्रमाण है। केवल ज्ञानरूप अथवा श्रतज्ञानरूप प्रमाणसे द्वारा गहीत अर्थको रागद्वषसे रहित होकर कहते हैं इस लिये इनके वचन प्रमाण हैं। जो वचन प्रमाणके द्वारा देखे गये अर्थको कहते हैं और रागद्वषसे रहित वक्तासे उत्पन्न होते हैं वे प्रमाण हैं। जैसे रागद्वषसे रहित पिताके द्वारा स्वयं प्रत्यक्षसे जानकर कहे गये वचन 'यह घड़ा लाल है' प्रमाण है । उसी तरह गणधर आदिके वचन प्रमाण हैं क्योंकि अच्छी तरहसे देखे गये अर्थको कहते हैं और रागद्वेषसे रहित वक्तासे उत्पन्न हुए हैं ॥३३॥ १. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।--आव०नि० ९२ । २. रक्ष्य इति आ० मु० । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका भवतु नामैषां अन्यतमेन प्रणीतं सूत्रं प्रमाणं तदर्थकथनं तु को विपरीतं करोति को वाऽविपरीतमित्यारेकायां अविपरीतार्थकथनकारिणो लक्षणमाहोत्तरगाथया - गिहिदत्थो संविग्गो अच्छुव देसेण संकणिज्जो हु । सो चेव मंदधम्मो अच्छुवदेसम्मि भजणिज्जो ||३४|| 'गिहिदत्थो संविग्गो' गृहीत आत्मसात्कृतोऽवधारितोऽर्थः सूत्रस्य येन सः गृहीतार्थः अवधृतसूत्रार्थ इति यावत् । 'संविग्गो' संसाराद् द्रव्यभावरूपात् परिवर्तनात् भयमुपगतः । विपरीतोपदेशे रागात्कोपाद्वा अनंतकालं संसारपरिभ्रमगं मम मिथ्यादृष्टेः सतो भविष्यतीति यः सभयः । ' अच्छुवदेसे' अर्थस्याभिधेयस्य सूत्राणामुपदेशे । 'न संकणिज्जो' नैवाशंक्यः । खु शब्द एवकारार्थः । 'सो चेव' स एव च गृहीतार्थः । 'मंदधम्मो' धर्मशब्दश्चारित्रवाची "चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिद्दिट्ठो' [प्रवच० ११७ ] इति वचनात् । ततो मंदचारित्र इत्यर्थः । ' अच्छुवदेसम्हि' सूत्रार्थव्याख्याने ? 'भयणिज्जो' भाज्यः । यदि सूत्रानुसारि युक्त्यनुगतं वा तद्वयाख्यानं ग्राह्यमन्यथा नेति यावत् । किमधिगतसप्रपंचवचनार्थो भूत्वा श्रद्धानवान्यः स एव च सम्यग्दृष्टिः, स एव सम्यक्त्वाराधकः इत्याकायामाह अन्योऽप्यस्तीति धमाधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य । आणाए सद्दहन्तो समत्ताराहओ भणिदो ||३५|| ७१ इनमें से किसी एकके द्वारा रचा गया सूत्र प्रमाण रहो । किन्तु उसके अर्थका कथन कौन विपरीत करता है और कौन अविपरीत करता है ? ऐसी शङ्का होनेपर अविपरीत अर्थका कथन करने वालेका लक्षण आगेकी गाथासे कहते हैं गा० - जिसने सूत्रके अर्थको ग्रहण किया है, संसारसे भयभीत है वह सूत्रोंके उपदेशमें शङ्का करनेके योग्य नहीं ही है । वही गृहीतार्थ मंद चरित्र वाला हो तो सूत्रके व्याख्यानमें भाज्य है ||३४|| टी० - जिसने सूत्रका अर्थ अच्छी तरह ग्रहण करके उसे अपने मनमें अवधारित किया है और द्रव्य भाव परिवर्तन रूप संसारसे डरता है, राग या द्वेषसे विपरीत उपदेश करने पर मुझे मिथ्यादृष्टी होकर अनन्तकाल संसारका परिभ्रमण करना होगा इस प्रकारका जिसे भय है वह तो सूत्रोंके अर्थका उपदेश करनेमें शङ्का करने योग्य बिल्कुल नहीं है । गाथामें आये हुए खु शब्दका अर्थ 'ही' है । किन्तु वही गृहीतार्थं यदि मन्दधर्मी है, यहाँ धर्मशब्द चरित्रका वाचक है क्योंकि कहा है— चारित्र हो धर्म है और जो धर्म है उसे सम कहा है । अतः मन्द धर्मका अर्थ मन्द चारित्र लेना चाहिये । तो उसका व्याख्यान यदि सूत्रके अनुसार अथवा युक्तिके अनुकूल हो तब तो ग्रहण करने योग्य है अन्यथा नहीं है ||३४|| क्या जो विस्तार पूर्वक सूत्रके अर्थको जानकर श्रद्धान करता है वही सम्यग्दृष्टी है, वही सम्यक्त्वका आराधक है ? ऐसी शङ्का करनेपर आचार्य कहते हैं कि अन्य भी सम्यग्दृष्टी होता है गा० - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, पुद् गलद्रव्य, कालद्रव्य और जीवद्रव्यको आज्ञासे श्रद्धान करने वाला सम्यक्त्वका आराधक होता है ||३५|| Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना __'धम्माधम्मागासाणित्ति'-जीवपुद्गलयोः स्वावस्थिताकाशदेशाद्देशान्तरं प्रति गतिः परिस्पंदपर्यायः परप्रयोगतः स्वभावतो वा विद्यते । अन्येषां निष्क्रियतेति न गतिरस्ति । अनयोर्गतिपर्यायस्य वाह्यं गतिहेतुत्वसंज्ञितं गुणं धारयतीति धर्मः। तं न धारयतीत्यधर्मः । यद्यपि जीवादिष्वपि अस्ति गतिहेतुतायाः साधारणं तथापि न तत्र धर्मशब्दस्य वृत्तिः । प्रतिनियतविषया रूढयः इत्युक्तमेव । अथवा स्थितेरुदासीनहेतुत्वादधर्मः । न च जीवादीनां स्थितेरुदासीनहेतृत्वमस्ति । तावतावभावपि असंख्यातप्रदेशो एकतामेवोद्वहन्तौ सूक्ष्मौ निःक्रियो रूपादिरहितौ । आकशं अनंतप्रदेशाध्यासितं सर्वेषां अवकाशदानसामोपेतं । पुद्गलास्तु रूपरसगंधस्पर्शवंतः अणुस्कंधरूपभेदाद्विविधाः । कालो निश्चयेतरविकल्पः । जीवा उपयोगात्मकाः। एतानर्थान् । 'आणाए' आज्ञया आप्तानां । सावधारणं चेदं । आज्ञायैव षड् द्रव्याणि सन्तीति श्रद्धातव्यं भवतीति आप्तवचनबलेनैव श्रद्धां तत्र करोति न निक्षेपनयादिमुखेन, प्रवृत्तयाधिगत्या सोऽपि सम्यक्त्वस्याराधकः । जीवद्रव्यविषयं नियोगतः श्रद्धानं कर्तव्यं इत्येतदाख्यानायोत्तरगाथा संसारसमावण्णा य छविहा सिद्धिमस्सिदा जीवा । ' जीवणिकाया एदे सद्दहिदव्वा हु आणाए ॥३६।। 'संसार' चतुर्गतिपरिभ्रमणं । 'समावण्णा' संप्राप्ताः शोभनाशोभनशरीरग्रहणमोचनाभ्युद्यताः, स्वयोगत्रयानीतपुण्यपापोदयजनितसुखदुःखानुभवनिरताः। त्रसस्थावरकर्मोदयापादितत्रसस्थावरभावाः, विचित्रमति टो-जीव और पुद्गलमें अपने रहनेके आकाशसे अन्य देशमें गमन हलन चलन रूप पर्यायोंके द्वारा परके प्रयोगसे अथवा स्वभावसे होता है। अतः गतिमान ये दो ही द्रव्य हैं। क्रिया रहित होनेसे अन्य द्रव्योंमें गति नहीं है । इन दोनों द्रव्योंकी गतिपर्यायका बाह्य गति हेतुत्व नामक गुण जो धारण करता है वह धर्म है । और जो उस गुणको धारण नहीं करता वह अधर्म है । यद्यपि जीवादिमें भी गतिहेतुताका साधारण धर्म रहता हैं तथापि उनमें धर्म शब्दकी प्रवृत्ति नहीं है, उन्हें धर्मके नामसे नहीं कहते; क्योंकि रूढ़ि शब्द प्रतिनियत विषयोंमें रहते हैं यह पहले कहा ही है । अथवा जो स्थितिका उदासीन हेतु है वह अधर्मद्रव्य है। जीवादि द्रव्य स्थितिके उदासीन हेतु नहीं हैं। ये दोनों धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी है. एक एक हैं, सक्ष्म और निष्क्रिय हैं तथा इसमें रूप रस आदि गुण नहीं रहते । आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेश वाला है और सब द्रव्योंको अवकाश देनेकी शक्तिसे युक्त है। पुद्गल तो रूप रस गन्ध और स्पर्श गुण वाले हैं। उनके अणु और स्कन्धके भेदसे दो भेद हैं। कालके निश्चयकाल और व्यवहारकाल भेद हैं। जीव उपयोगगुण वाले हैं। इन द्रव्योंका जो आप्तकी आज्ञासे ही श्रद्धान करता है कि छह द्रव्य है, निक्षेप नय आदिके द्वारा जानकर श्रद्धान नहीं करता, वह भी सम्यक्त्वका आराधक होता है ॥३५॥ जीव द्रव्य विषयक श्रद्धान नियमसे करना चाहिये, यह कहने के लिए आगेकी गाथा गा०-संसार अवस्थाको प्राप्त छह प्रकारके और सिद्धिको प्राप्त जीव होते है। ये जीवनिकाय आप्त की आज्ञाके बलसे श्रद्धान करनेके योग्य हैं ही ॥३६॥ . टो०-चतुर्गतिमें परिभ्रमणको संसार कहते हैं। उसे जो प्राप्त हैं वे संसारी हैं। संसारी जीव अच्छा बुरा शरीर ग्रहण करने और त्यागने में लगे रहते हैं। अपने मन वचन काय योगके द्वारा बाँधे गये पुण्य पाप कर्मके उदयसे होने वाले सुख दुःख को भोगने में लीन रहते हैं । त्रसनाम Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७३ ज्ञानावरणोदयेन तत्क्षयोपशमविशेषेण च एकेंद्रियाः, विकलेंद्रियाः, समग्रेन्द्रियाः पर्याप्तपर्याप्तिकर्मोदयनिर्वतितषड्विधपर्याप्तयस्तदितरे च, पृथिव्यादिशरीरभारोद्वहनचतुराः, आयुराख्यप्रकृतिघनशृंखलावगाढबंधनपराधीनवृत्तयः । नवविकल्पयोनिसमाश्रयोपजाततनुष्वासक्तबुद्धयः। जराडाकिनीपीतरूपरक्ताः, मृत्युदुरिक्रूराशनिसंपातचकितचेतसः संसारिणः 'छन्विषा' षट्प्रकाराः पृथिव्यादिशरीरसंबंधतः । 'सिद्धि' सम्यक्त्वकेवलज्ञानदर्शनवीर्याव्यावाधत्वपरमसूक्ष्मत्वावगाहनादिस्वरूपनिष्पत्तिम् । 'अस्सिदा' आश्रिताः। 'जीवा' जीवाः। ननु जीव प्राणधारणे इति वचनात् जीवति प्राणान्धारयति इति जीवः । प्राणाश्चेंद्रियादयः कर्मनिवाः पुद्गलस्कंधधारणभूतेषु कर्मस्वसत्सु न विद्यन्ते । ततः कथं सिद्धानां जीवतेति ? नैष दोषः, द्विविधाः प्राणाः द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्चेति । द्रव्यप्राणा इंद्रियादयः कर्महतुकाः । भावप्राणास्तु ज्ञानदर्शनादयः । न ते कर्मनिमित्तकाः । कर्माभावे प्रसूतेः । तेन भावप्राणधारणात् जीवता न्याय्या सिद्धानां । अथवा यदेव कृतप्राणधारणं वस्तु तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञोपदर्शितमेकत्वमाश्रित्य जीवव्यपदेशः सिद्धानाम । अथवा जीवशब्दश्चेतनावति रूढिशब्दः । रूढी च क्रिया व्युत्पत्त्यथैव तदसंभवेऽपि तदुपलक्षणगृहीतं सामान्यमाश्रित्य वर्तत एव । यथा गच्छतीति गौरिति व्युत्पादितोऽपि गोशब्दोऽसत्यामपि गतौ स्थिरता गौनिषण्णेत्यत्र वर्तते। गमनेनाध्रुवेणोपलक्षितस्य गोत्वस्य सद्भावात् । एवं प्राणधारणोपलक्षितचैतन्याश्रयाज्जीवशब्दस्य सिद्धेषु वृत्तिः । 'जीवनिकाया' जीवकर्मके उदयसे त्रस और स्थावर नाम कर्मके उदयसे स्थावर भावको प्रा । अनेक प्रकारके मतिज्ञानावरणके उदयसे और उसके क्षयोपशमके विशेषसे एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय होते हैं । पर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे बनी छह पर्याप्तियोंसे यथायोग्य युक्त होते हैं और अपर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे अपर्याप्त होते हैं। पृथिवी आदि कायके शरीरके भारको धारण करने वाले होते हैं । आयुनामक कमकी मजबूत सांकलसे कसकर बन्धनके कारण पराधीन होते हैं। नौ प्रकारको योनिके आश्रयसे उत्पन्न हुए शरीरोंमें उनकी अति आसक्ति होती है। उनके रूप और रक्तको जरा रूपी चुडैल पी जाती है। मृत्युरूपी कूर वज्रपातसे, जिसे टालना अशक्य है उनके चित्त भयभीत रहते हैं। ये संसारी जीव पृथिवीकाय आदिके भेदसे छह प्रकारके हैं। सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, वीर्य, अव्याबाधत्व, परमसूक्ष्मत्व, अवगाहना आदि स्वरूपकी प्राप्तिको सिद्धि कहते हैं । उसे प्राप्त सिद्ध जीव हैं। शंका-जीव शब्द प्राणधारणके अर्थमें है ऐसा वचन है। 'जीवति' अर्थात् प्राणोंको धारण करता है वह जीव है। और प्राण इन्द्रिय आदि कर्मजन्य हैं। सिद्धोंके पुद्गलस्कन्ध रूप कर्म नहीं हैं तब सिद्धोंमें जीवपना कैसे हैं ? समाधान-यह दोष नहीं है क्योंकि प्राणोंके दो भेद हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । द्रव्य प्राण इन्द्रिय आदि कर्मके उदयसे होते हैं। किन्तु भाव प्राण ज्ञानदर्शन आदि कर्मके निमित्तसे नहीं होते, कोंके अभावमें प्रकट होते हैं। अतः भाव प्राण धारण करनेसे सिद्धोंमें जीवपना न्याय्य है । अथवा जिसने पहले प्राणोंकों धारण किया था वही यह है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानके द्वारा एकत्वको लेकर सिद्धोंको जीव कहा जाता है। अथवा जीव शब्द चेतनावानके अर्थमें रूढ़ है। और रूढिमें क्रिया केवल व्युत्पत्तिके लिये होती है। अतः उसके न होनेपर भी उसके उपलक्षणसे गृहीत सामान्यका आश्रय लेकर उस शब्दकी प्रवृत्ति होती है। जैसे जो चले वह गौ है इस प्रकारसे व्युत्पत्ति करनेपर भी गौ शब्द नहीं चलनेपर भी गौके अर्थ में व्यवहृत होता है जैसे बैठी हुई गौ। गमन तो अध्र व है फिर भी उसमें गोपना वर्तमान है। इसी तरह प्राणधारणसे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ भगवती आराधना समूहाः। 'सद्दहिदव्वा' खु श्रद्धातव्याः एव । 'माणाए' आप्तानामाज्ञाबलात् । जीवाश्रद्धाने मुक्तिसंसारविषयपरिप्राप्तित्यागार्थप्रयासानुपपत्तिरिति भावः । यदि नाम धर्मादिद्रव्यापरिज्ञानात् परिज्ञानसहचारिश्रद्धानं नोत्पन्न तथापि नासौ मिथ्यादृष्टिदर्शनमोहोदयस्य अश्रद्धानपरिणामस्याज्ञानविषयस्याभावात् । न हि श्रद्धानस्यानुत्पत्तिरश्रद्धानं इति गृहीतं । श्रद्धानादन्यदश्रद्धानं इदमित्थमिति श्रुतनिरूपितेऽरुचिः । श्रद्धातव्यं प्रकारांतरेणापि निर्देष्टु उत्तरगाथा-पूर्व सर्वद्रव्यविषयश्रद्धानमुक्तं, पश्चादतिशयप्रतिपादनाथं जीवद्रव्यविषया श्रद्धा निरूपिता अनंतरगाथया । इदं तु आस्रवादयोऽपि श्रद्धातव्या इति सूच्यते आसवसंवरणिज्जरबंधो मुक्खो य पुण्णपावं च ।। तह एव जिणाणाए सद्दहिदव्वा अपरिसेसा ॥३७॥ 'आसवसंवरणिज्जर'। आस्रवत्यनेनेत्यास्रवः । आस्रवत्यागच्छति जायते कर्मत्वपर्यायः पुद्गलानां येन कारणभूतेनात्मपरिणामेन स परिणाम आस्रवः । ननु कर्मपद्गलानां नान्यतः आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा तत्रैवावस्थिताः पुदगलाः अनंतप्रदेशिनः कर्मपर्यायं भजन्ते 'एयक्खित्तोगाढं' मिति वचनात् । तत् किमुच्यते आगच्छतीति ? न दोषः । आगच्छन्ति ढोकन्ते ज्ञानावरणादिपर्यायमित्येवं ग्रहीतव्यं । उपलक्षित चैतन्यके आश्रयसे सिद्धोंमें जीव शब्दका व्यवहार होता है । आप्तकी आज्ञाके बलसे जीवके इन समूहोंका श्रद्धान करना चाहिये, क्योंकि जीवका श्रद्धान न होनेपर मुक्तिकी प्राप्ति और संसारके विषयोंके त्यागके लिये प्रयास नहीं हो सकेगा। यदि धर्मादि द्रव्योंका ज्ञान न होनेसे ज्ञानके साथ रहनेवाला श्रद्धान नहीं उत्पन्न हआ। तो भी वह मिथ्यादृष्टि नहीं है क्योंकि दर्शन मोहके उदयसे होनेवाला श्रद्धानरूप परिणाम, जिसका विषय अज्ञान है, उसका अभाव हैं। अश्रद्धानका अर्थ श्रद्धानका न होना नहीं लिया है किन्तु श्रद्धानसे जो अन्य है वह अश्रद्धान हैं अर्थात् श्रुतमें कहे हुए तत्त्वमें अरुचि अश्रद्धान है ॥३६॥ प्रकारान्तरसे श्रद्धा करने योग्यका कथन करनेके लिए आगेकी गाथा है। पहले सब द्रव्योंके श्रद्धान करनेको कहा । पीछे अतिशय प्रतिपादन करनेके लिये जीव द्रव्य विषयक श्रद्धाका कथन इसके पूर्ववर्ती गाथाके द्वारा किया। इस गाथामें आस्रव आदिकी भी श्रद्धा करना चाहिये, यह सूचित करते हैं ___ गा०-आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष और पुण्य, पाप ये सब सातों पदार्थ उसी प्रकार जिनदेवकी आज्ञासे श्रद्धान करने चाहिये ॥३७।। टी०—जिसके द्वारा आना होता है वह आस्रव है। जिस कारणभूत आत्मपरिणामसे पुद्गलोंका कर्म पर्यायरूपसे आगमन होता है वह परिणाम आस्रव है। शोका-कर्म पुद्गलोंका आगमन अन्य देशसे नहीं होता। जिस आकाश प्रदेशमें आत्मा ठहरा होता है वहीं पर स्थित अनन्तप्रदेशी पुद्गल कर्मपर्याय रूप होते हैं, क्योंकि आगममें 'एकक्षेत्रावगाढ़' कहा है। तब आप कैसे कहते हैं कि आते हैं ? समाधान-इसमें दोष नहीं है, आगमनका अर्थ ज्ञानावरणादि पर्याय रूपको प्राप्त होना Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७५ न देशान्तरपरिस्पंद इहागमनं विवक्षितं । तेन तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघातादयः जीवपरिणामाः कर्मत्वपरिणते: पुद्गलानां साधकतमतया विवक्षिताः आस्रवशब्देनोच्यते । अथवा आस्रवणं कर्मतापरिणतिः पुद्गलानां आस्रव इत्युच्यते । संवियते संरुध्यते मिथ्यादर्शनादिः परिणामो येन परिणामांतरेण सम्यग्दर्शनादिना, गुप्त्यादिना वा स संवरः । निर्जीर्यते निरस्यते यया, निर्जरणं वा निर्जरा । आत्मप्रदेशस्थं कर्म निरस्यते यया परिणत्या सा निर्जरा। निर्जरणं पथग्भवनं विश्लेषणं वा कर्मणां निर्जरा। मोक्ष्यतेऽस्यते येन मोक्षणमात्र वा मोक्षः। निरवशेषाणि कर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञानदर्शनयथाख्यातचारित्रसंज्ञितेन अस्यंते स मोक्षः । विश्लेषो वा समस्तानां कर्मणां । बध्यते अस्वतंत्रीक्रियन्ते कार्मणद्रव्याणि येन परिणामेन आत्मनः स बन्धः । अथवा बध्यते परवशतामापद्यते आत्मा यैन स्थितिपरिणतेन कर्मणा तत्कर्म बंध:। पुण्यं नाम अभिमतस्य प्रापकं । पापं नाम अनभिमतस्य प्रापकं । इह बंधशब्देन जीवपरिणाम एव गृहीतः न कर्म एव, पृथक पुण्यपापग्रहणात् । ननूक्तेन परिणामेन जीवपुद्गलयोरेवांतर्भाव आस्रवादीनां जीवपुद्गलत्वश्रद्धानस्य पूर्वमुपन्यस्तत्वात् किमर्थमिदं सूत्रमिति नैष दोषः । विनेयाशयवैचित्र्याद्देशनाभेद आगमवाक्येषु । ततः श्रद्धा तत्र सर्वत्र कार्येति चोदितं भवति । अश्रद्धानं न मनागपि कार्यम् । लेना चाहिये । यहाँ आगमनसे देशान्तरसे चलकर आना विवक्षित नहीं है। अतः आस्रव शब्दसे प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन, उपघात आदि जीव परिणामोंको पुद्गलोंके कर्मरूप परिणमनमें साधकतम रूपसे विवक्षित किया है। अथवा 'आस्रवण' अर्थात् पुद्गलोंकी कर्मरूप परिणतिको आस्रव कहा है। जिस सम्यग्दर्शनादि या गुप्ति आदि रूप अन्य परिणामसे मिथ्यादर्शन आदि परिणाम 'संवियते' रोका जाता है वह संवर है। जिसके द्वारा 'निर्जीयते' निरसन किया जाता है अथवा निर्जरणको निर्जरा कहते हैं। जिस परिणतिसे आत्माके प्रदेशोंमें स्थित कर्म हटाये जाते हैं वह निर्जरा है। कर्मोंके 'निर्जरण' अर्थात् पृथक् होनेको अथवा विश्लेषणको निर्जरा कहते हैं। जिसके द्वारा 'मोक्ष्यते' अर्थात् छूटते हैं अथवा मोक्षण मात्रको मोक्ष कहते हैं। क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन और यथाख्यात चारित्र नामक जिस परिणामसे समस्त कर्म छूटते हैं वह मोक्ष है। . अथवा समस्त कर्मोंका आत्मासे अलग हो जाना मोक्ष है । आत्माके जिस परिणामसे कार्मणद्रव्य 'बध्यन्ते' परतंत्र किया जाता है वह बन्ध है, अथवा जिस स्थिति रूप परिणत हए कर्मके द्वारा आत्मा 'बध्यते' अर्थात पराधीनताको प्राप्त होता है वह कर्म बन्ध है। इष्टको प्राप्त करानेवालेको पुण्य कहते हैं और अनिष्टको प्राप्त करानेवालेको पाप कहते हैं। यहाँ बन्ध शब्दसे जीवके परिणामका ही ग्रहण किया है, कर्मका नहीं, क्योंकि पुण्य पापका पृथक् ग्रहण किया है। . शंका–उक्त परिणामसे तो आस्रव आदिका अन्तर्भाव जीव और पुद्गलमें ही होता है । तथा जीव और पुद्गलके श्रद्धानका पहले कथन किया ही है तब इस गाथा सूत्रके कहनेकी क्या आवश्यकता थी? समाधान-यह दोष ठीक नहीं है। आगमके वचनोंमें शिष्योंके अभिप्राय नाना होनेसे उपदेश में भेद होता है। अतः इन सबमें श्रद्धा करना चाहिये यह प्रेरणा की गई है, किञ्चित् भी अश्रद्धान नहीं होना चाहिये ॥३७।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ भगवती आराधना मिथ्यादृष्टिता किमल्पस्य अश्रद्धानेन भवति ? बहुतरं श्रद्धीयते इत्याशंका न कार्येत्येतदाचष्टे-- पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिनै ।। सेसं रोचंतो वि हु मिच्छादिट्ठी मुणेयव्यो ॥३८॥ पदमक्खरं इति । पदशब्देन पदसहचारी 'पदस्यार्थ उच्यते । 'अक्खरं च' इति स्वल्पशब्दोपलक्षणं स्वल्पमप्यर्थं शब्दश्रुतं वा । 'जो' यः । 'ण रोचेदि' न रोचते । 'सुत्तणिदिह्र' पूर्वोक्तप्रमाणनिर्दिष्टम् । 'सेस' इतरं श्रुताथं श्रुतांशं रोचतोऽपि । 'मिच्छादिछिी मिथ्यादष्टिरिति । 'मुणेदव्वो' ज्ञातव्यः । महति कुडे स्थितं बह्वपि पयो यथा विषकणिका दूषयति । एवमश्रद्धानकणिका मलिनयत्यात्मनमिति भावः ॥३८॥ __ मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यमित्युक्तं । स एव न ज्ञायते एवंस्वरूप इत्याशंकायां मिथ्यादृष्टिस्वरूपनिरूपणार्था गाथा मोहोदयेण जीवो उवइटें पवयणं ण सद्दहदि ।। सद्दहदि असम्भावं उवइट्ठ अणुवइट्ठ वा ॥३९॥ मोहोदयेणेति । साध्याहारत्वात् सूत्राणामध्याहोरण सहवं पदघटना । जो जोवो उवदिळं प्रवयणं मोहोदयेण सद्दहदि उवदिट] अणुवदिळं वा असद्भावं सद्दहदि । सो मिच्छादिट्ठोति । मोहयति मुह्यतेऽ - जब बहुत पर श्रद्धा है तब क्या थोड़ेसे अश्रद्धानसे मिथ्यादृष्टिपना होता है ? ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, यह कहते हैं गा०-जिसे पूर्वोक्त सूत्रमें कहा एक भी पद और अक्षर नहीं रुचता। शेषमें रुचि होते हुए भी निश्चयसे उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ।।३८|| टो०-पद शब्दसे पदका सहचारी पदका अर्थ कहा गया है। अक्षरसे थोड़े शब्द लिये गये है, थोड़ा सा भो अर्थ अथवा शब्द श्रुत जो आगममें कहा गया वह जिसे नहीं रुचता और शेष आगम रुचता भी हो, तब भी उसे मिथ्यादृष्टी ही जानना । जैसे बड़े कुण्डमें भरे हुए बहुत दूधको भी विषका कण दूषित कर देता है उसी प्रकार अश्रद्धानका एक कण भी आत्माको दूषित कर देता है ।।३८॥ उसे मिथ्यादृष्टि जानना, ऐसा तो कहा। किन्तु यही ज्ञात नहीं है कि मिथ्यादृष्टिका ऐसा स्वरूप है ? ऐसी शंका करनेपर मिथ्यादृष्टिका स्वरूप निरूपण करनेके लिये गाथा कहते हैं गा०-मोहके उदयसे जीव उपदिष्ट प्रवचनको श्रद्धान नहीं करता। किन्तु उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट असमीचीन भाव अर्थात् अतत्त्वका श्रद्धान करता है ।।३९।। टी०-सूत्रमें अध्याहार किया जाता है अर्थात् अन्यत्रसे कुछ पद लिये जा सकते हैं। अतः अध्याहारके साथ इस प्रकार पदोंका सम्बन्ध मिलाना चाहिये । जो जोव उपदिष्ट प्रवचनको मोहके उदयसे श्रद्धान नहीं करता और उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका श्रद्धान करता है वह १. पदार्थ उ० आ० । पदशब्दस्य सहकारी पद-मु० । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ विजयोदया टीका नेनेति वा मोहो दर्शनमोहनीयाख्यं कर्म मद्येन तुल्यवीर्यम् । यथा मद्यमासेव्यमानं अपाटवं प्रज्ञाया वैपरीत्यं च संपादयति ॥३९॥ मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि ।। ण य धम्म रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥४०॥ एवं मिथ्यात्व'कर्मापि तस्य उदयः सन्निहितसहकारिकारणस्य प्रतिबद्धवृत्तिस्तेनोदयेन कारणेन निरूपितं वस्तुयाथात्म्यं न श्रद्धत्ते अतत्त्वं तु कथितं अकथितं वा श्रद्धत्ते ॥४०॥ वस्तुयाथात्म्याश्रद्धाने को दोषो येन तत्प्रतिपक्षश्रद्धानभावनया तदपास्यते इत्याशंकायां अश्रद्धानकृतदोषमाहात्म्यख्यापनार्था गाथा सुविहियमिमं पवयणं असदहतेणिमेण जीवेण ।। बालमरणाणि तीदे मदाणि काले अणंताणि ॥४१॥ सुविहिदमिति । सुष्ठु विहितं कृतं पूर्वापरविरोधदोषरहितवस्तुयाथात्म्यनाहिविज्ञानकारणं । 'इम' इदं । 'पवयणं' प्रवचनं । असहहंतेण अश्रदृधानेन । 'इमेण' अनेन । 'जीवेण' जीवेन । एवमत्र पदसंबंधः । बालमरणाणि 'अणंताणि मदानि तीदे काले' इति । बालमरणान्यनंतानि अतीतकाले मृतानि । ननु मिथ्या मिथ्यादृष्टि है । यहाँ मोहसे दर्शनमोहनीय कर्म लेना। उसमें मद्यके समान शक्ति होती है । जैसे मद्यका सेवन बुद्धिको मन्द और विपरीत कर देता है वही दशा इस दर्शन मोहनीय ककी है ॥३९॥ गा०—मिथ्यात्वको वेदन--अनुभवन करने वाला जीव विपरीत श्रद्धावाला होता है । उसे धर्म नहीं रुचता । जैसे ज्वरसे ग्रस्त व्यक्तिको निश्चयसे मधुर रस नहीं रुचता ॥४०॥ टी--मद्यके समान ही मिथ्यात्व कर्म भी है। उसका उदय सहकारी कारणका सांनिध्यपाकर अपना कार्य करने में कटिबद्ध होता है । अतः उसके उदयके कारण शास्त्रमें कहे गये वस्तुके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान नहीं करता। और कहे गये या बिना कहे अतत्त्वका श्रद्धान करता है ।।४०॥ वस्तुका यथार्थ श्रद्धान न करने में क्या दोष है जिससे उसके प्रतिपक्षी श्रद्धानकी भावनासे उस दोषको दूर किया जाता है ? ऐसी शंका होने पर अश्रद्धानसे होने वाले दोषका महत्त्व बतलानेके लिये गाथा कहते हैं-- गा०--अच्छी तरहसे किये गये इस प्रवचनको अश्रद्धान करने वाले जीवने अतीतकालमें अनन्त बालमरण मरे ॥४१॥ टो०--पूर्वापर विरोध नामक दोषसे रहित होनेसे तथा वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करने वाले ज्ञानका कारण होनेसे प्रवचनको सुविहित कहा है। ऐसे प्रवचनका श्रद्धान न करनेके दोषसे इस जीवको अतीतकालमें अनन्त बार बालमरणसे मरना पड़ा है। १. मिथ्यात्वस्य । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ भगवती आराधना दृष्टेर्मरणं बालबालमरणं तत्किमुच्यते बालमरणानीति । बालत्वं नाम सामान्यं वालबालेऽपि विद्यते इति बालमरणानीत्युक्तं । कीदृशी तहि मतिः कार्या संसारभीरुणा--- णिग्गंथं' पव्वयणं इणमेव अणुत्तरं सुपरिसुद्धं ॥ इणमेव मोक्खमग्गोत्ति मदी कायव्विया तम्हा ||४२ || णिग्गंथं पश्वयणं' | ग्रथ्नंति रचयन्ति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रंथाः । मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं, असंयमः कषायाः, अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामाः । मिथ्यादर्शनान्निष्क्रान्तं किं सम्यग्दर्शनं । मिथ्याज्ञानानिष्क्रांतं सम्यग्ज्ञानम् । असंयमात्कषायेभ्योऽशुभयोगत्रयाच्च निष्क्रान्तं सुचारित्रं । तेन रत्नत्रयमिह निर्ग्रथशब्देन भण्यते । 'पव्वणं' प्रवचनस्येदं अभिधेयं । 'इणमेव' इदमेव, 'अणुत्तरं' न विद्यते उत्तरं उत्कृष्टमस्मादिति अनुत्तरम् । 'सुपरिशुद्धं' सुष्ठु परिशुद्धं । 'इणमेव' इदमेव । 'मोक्खमग्गोत्ति' कर्मणां निरवशेषापायस्योपाय इति । 'मह' बुद्धिः । 'कायव्विया' कर्तव्या । 'तम्हा' तस्मात् । यस्मादेवंभूतायामसत्यां मत्यां दुःखमरणप्राप्तिरतीतकाल इव भविष्यत्यपि काले भविष्यतीति ॥४२॥ शङ्का -- मिथ्यादृष्टि का मरण बालबालमरण है । तब यहाँ बालमरण क्यों कहा है ? समाधान — बालपना सामान्य है वह बाल- बाल में भी रहता है इसलिये 'बालमरण' ऐसा कहा है । विशेषार्थ - - पं० आशाधर जी ने अपनी टीकामें लिखा है कि कुछ 'सुविहिद' ऐसा पढ़ते हैं और उसका व्याख्यान वे 'हेतुचारित्र' ऐसा करते हैं । अर्थात् 'सुविहिद' को प्रवचनका विशेषण न करके सम्बोधनके रूपमें लेते हैं ॥४२॥ तब संसारसे डरने वालेको कैसी मति करनी चाहिये, यह कहते हैं- गा०- ० - - इसलिये रत्नत्रयरूप जो प्रवचनका अभिधेय है यही सर्वोत्कृष्ट और पूर्णरूपसे निर्दोष है । यही मोक्षका मार्ग है ऐसी मति करनी चाहिये || ४२ ॥ टी० - जो संसारको 'ग्रथ्नंति' रचते हैं उसे दीर्घं करते हैं उन्हें ग्रन्थ कहते है । ये ग्रन्थ हैं मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय और तीन अशुभ योगरूप परिणाम । मिथ्यादर्शनके हटनेसे सम्यग्दर्शन होता है । मिथ्याज्ञानके हटनेसे सम्यग् ज्ञान होता है। असंयम, कषाय और तीन अशुभयोगोंके हटनेसे सम्यक्चारित्र होता है । अतः यहाँ निर्ग्रन्थ शब्दसे रत्नत्रय कहा है । और 'पव्वयण' का अर्थ प्रवचन में कहा गया विषय है। जो प्रवचनमें कहा रत्नत्रय है वही अनुत्तर है अर्थात् उससे उत्कृष्ट कोई नहीं है और वही पूर्ण शुद्ध है, वही मोक्षमार्ग अर्थात् समस्त बुराइयों क उपाय है । ऐसी मति करना चाहिये, क्योंकि इस प्रकारकी मतिके न होनेपर दुःखदायक मरणोंकी प्राप्ति अतीतकालकी तरह भविष्यकालमें भी होगी || ४२ ॥ १. अन्ये तु निःसंग प्रवचनमिति प्राधान्येन व्याचक्षते - मूलारा० । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका तच्च सम्यक्त्वं निरतिचारं 'गणोज्ज्वलितं भावनीयं इत्येतदाचष्टे उत्तरप्रबंधेन । तत्रातिचारनिवेदननार्थोत्तरगाथा सम्मत्तादीचारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा ॥ परदिट्ठीण पसंसा अणायदणसेवणा चेव ।। ४३ ॥ 'सम्मत्तादीचारा' श्रद्धानस्य दोषाः । 'संका' शंका, संशयप्रत्ययः किंस्विदित्यनवधारणात्मकः । स च निश्चयप्रत्ययाश्रयं दर्शनं मलिनयति । ननु सति सम्यक्त्वे तदति चारो युज्यते । संशयश्च मिथ्यात्वमावहति । तथाहि मिथ्यात्वभेदेषु संशयोऽपि गणितः । 'संसइदमभिग्गहिदं अणभिग्गहिदं च तं तिविधं' इति । सत्यपि संशये सम्यग्दर्शनमस्त्येवेति अतिचारता युक्ता । कथं ? श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषाभावात्, उपदेष्टुरभावात्, तस्य वा वचननिपुणता नास्ति तन्निर्णयकारिश्रुत वचनानुपलब्धेः, काललब्धेरभावाद्वा यदि नाम निर्णयो नोपजायते । तथापि तु इदं यथा सर्वविदा उपलब्धं तथैवेति श्रद्धधेहमिति भावयतः कथं सम्यक्त्वहानिः ? एवंभूतश्रद्धारहितस्य को वेत्ति किमत्र तत्त्वमिति अदृष्टेषु कपिलादिषु सर्वज्ञतव दुरवधारा, अयमेव सर्वविन्नेतर इति आगमशरणतायां को वस्तुयाथात्म्यानुसारी को वा नेति संशय एवेति । यत्तत्त्वाश्रद्धानं संशयप्रत्ययोपनीतत्वात्त अतिचाररहित और गुणोंसे उज्ज्वल वह सम्यक्त्व भावनीय है यह आगे कहते हैं । उसके अतिचारोंका कथन आगेकी गाथासे करते हैं गा०-शङ्का, आसक्ति, उसी तरह विचिकित्सा या ग्लानि अतत्त्वदृष्टिजनोंकी प्रशंसा और अनायतनोंको सेवा, ये सम्यक्त्वके अतिचार हैं ॥४३।। टी०-शङ्का आदि सम्यक्त्वके अतीचार अर्थात् श्रद्धानके दोष हैं। शंका संशयज्ञानको कहते हैं जो 'यह क्या है' इस प्रकार अनवधारणरूप होता है। वह निश्चयात्मकज्ञानके आश्रयसे होनेवाले सम्यग्दर्शनको मलिन करता है। शङ्का-सम्यक्त्व होनेपर उसमें अतिचार लगना उचित है । किन्तु संशय तो मिथ्यात्वरूप है। मिथ्यात्वके भेदोंमें संशयको भी गिना है। कहा है-संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत तीन प्रकारका मिथ्यात्व है। समाधान-संशयके होनेपर भी सम्यग्दर्शन रहता है अतः उसका अतिचारपना उचित है। श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम विशेष न होनेसे, उपदेष्टाके अभावसे अथवा उससे वचनोंकी निपुणता न होनेसे, या निर्णयकारी शास्त्रवचनके प्राप्त न होनेसे अथवा काललब्धिके अभावसे यदि किसी विषयका निर्णय नहीं होता, तथापि जैसा इसे सर्वज्ञ भगवान्ने देखा है वैसा ही मैं श्रद्धान करता हूँ' ऐसी भावना करनेवालेके सम्यक्त्वका अभाव कैसे हो सकता है ? जिसके इस प्रकारकी श्रद्धा नहीं है, तथा कौन जानता है तत्त्व क्या है, कपिल आदिको जब देखा नहीं तो उनकी सर्वज्ञताका निर्णय कैसे हो सकता है, यही सर्वज्ञ है, दूसरा नहीं है इसमें आगमका आश्रय लेनेपर कौन आगम यथार्थ वस्तुको कहता है, कौन नहीं कहता इस प्रकारका संशय ही होता है । इस प्रकारके संशयपूर्वक जो तत्त्वका अश्रद्धान है वह संशयज्ञानके द्वारा उत्पन्न होनेके कारण १. गुणोपोद्वलितं अ० । गुणोपोद्वजितं आ० । २. वचनाभावात् वा का-आ० ।-लब्धेः अभावाद्वाकामु०। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० भगवती आराधना संशयमिथ्यात्वमित्युच्यते । अश्रद्धानरूपतैव लक्षणं मिथ्यात्वस्य । यथा वक्ष्यति 'तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होदि अत्थाण' मिति । अन्यथा मिथ्याज्ञानस्य मिथ्यादर्शनस्य च भेदो न भवेद, भेदश्च स्फुटो वाक्यांतरे 'मिच्छाणाणमिच्छादसणमिच्छाचारित्तादो पडिविरदोमीति' । किं च छद्मस्थानां रज्जूरगस्थाणुपुरुपादिषु किमियं रज्जुरुरगः स्थाणुः पुरुषो वा किमित्यनेकः संशयप्रत्ययो जायते इति' ते न सम्यग्दृष्टयः स्युः । कांक्षा गाद्ध आसक्तिः, सा च दर्शनस्य मलं । यद्येवं आहारे कांक्षा, स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यालंकारादिषु वाऽसंयतसम्यग्दृष्टेविरताविरतस्य वा भवति । यथा प्रमत्तसंयसस्य परीषहाकुलस्य भक्ष्यपानादिषु कांक्षा संभवतीति सातिचारदर्शनता स्यात् । तथा भव्यानां मुक्तिसुखकांक्षा अस्त्येव । इत्यत्रोच्यते न कांक्षामात्रमतीचारः किंतु दर्शनाद्वैताद्दानाद्देवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं, रूपं, वित्तं, स्त्री-पुत्रादिकं, शत्रुमर्दन, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह गृहीता एषा अतिचारो दर्शनस्य । _ 'विचिकित्सा जुगुप्सा' मिथ्यात्वासंयमादिषु जुगुप्सायाः प्रवृत्तिरतिचारः स्यादिति चेत् इहापि नियतविषया जगप्सेति मतातिचारत्वेन । रत्नत्रयाणामन्यतमे तद्वति वा कोपादिनिमित्ता जुगुप्सा इह गृहीता । ततस्तस्य दर्शनं, ज्ञानं, चरणं वाऽशोभनमिति । यस्य हि यत्र इदं भद्रं इति श्रद्धानं स तस्य जुगुप्सां करोति । ततो रत्नत्रयमाहात्म्यारुचियुज्यतेऽतिचारः । संशय मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्वका लक्षण अश्रद्धानरूपता ही है। आगे कहेंगे-'तत्त्वार्थका जो अश्रद्धान है वही मिथ्यात्व है। यदि ऐसा न हो तो मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शनमें भेद ही न हो। किन्तु अन्यत्र वचनमें स्पष्ट भेद कहा है। यथा-'मैं मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्रसे विरत होता है।' तथा छद्मस्थ जीवोंको रस्सी, सर्प, और स्थाणु पुरुष आदिमें, यह रस्सी है या साँप, अथवा स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार अनेक संशयज्ञान होते हैं। तब वे सम्यग्दृष्टी नहीं हो सकेंगे? कांक्षा गृद्धि या आसक्तिको कहते हैं । वह भी सम्यग्दर्शनका मल है। शंका-यदि ऐसा है तो असंयतसम्यग्दृष्टी अथवा विरताविरत श्रावकको आहारकी या स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला अलंकार आदिको कांक्षा होती है। तथा परीषहसे व्याकुल प्रमत्तसंयत मुनिके खान-पान आदिकी कांक्षा होती है वह भी सम्यग्दर्शनका अतीचार कहलायेगी। तथा भव्य जीवोंको मुक्ति सुखकी कांक्षा रहती ही है ? समाधान-कांक्षामात्र अतीचार नहीं है। किन्तु सम्यग्दर्शनसे, व्रतधारणसे, देवपूजासे और तपसे उत्पन्न हुए पुण्यसे मुझे अमुक कुल, रूप, धन, स्त्री-पुत्रादि, शत्रु विनाश, अथवा सातिशय स्त्रीपना, पुरुषपना प्राप्त हो इस प्रकारकी कांक्षा यहाँ ग्रहण की है। वह सम्यग्दर्शनका अतीचार है। विचिकित्सा जुगुप्साको कहते हैं । शंका-तब तो मिथ्यात्व असंयम आदिमें जुगुप्सा करना भी अतीचार हो जायेगा। समाधान–यहाँ भी नियत विषयमें जुगुप्साको अतिचाररूपसे माना है। रत्नत्रयमें किसी एकमें अथवा रत्नत्रयके धारीमें कोप आदिके निमित्तसे होनेवाली जुगुप्साका यहाँ ग्रहण किया हैं। जिसका जिसमें यह श्रद्धान है कि यह श्रेष्ठ है वह उसकी जुगुप्सा करता है। अतः रत्नत्रयके महत्त्वमें अरुचिका होना अतिचार होता है। १. ति ते सम्य-आ० मु० । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८१ 'परदिठीण पसंसा' परशब्दोऽनेकार्थवाची । क्वचिद् व्यवस्थावाची। नापरो ग्रामः पाटलिपुत्रादित्यादौ । तथा क्वचिदन्यार्थे परे आचार्या अन्ये इत्यर्थः । तथा इष्टार्थे, परं धाम गतः इष्टमिति यावत् । इह तु अन्यवाची । दृष्टिः श्रद्धा रुचिः । परा अन्या दृष्टिः श्रद्धा येषां ते परदृष्टयः । तत्त्वदृष्ट्यपेक्षया अतत्त्वदृष्टिरन्या तेषां प्रशंसा स्तुतिः । __ 'अणायदणसेवणा चेव'-अनायतनं षड्विधं मिथ्यात्वं, मिथ्यादृष्टयः, मिथ्याज्ञानं, तद्वन्तः, मिथ्याचारित्रं मिथ्याचारित्रवन्तः इति । तत्र मिथ्यात्वमश्रद्धानं तत्सेवायां मिथ्यादृष्टिरेवासौ नातिचारता। मिथ्यादृष्टीनां तु सेवा बहुमननं तेषां । मिथ्याज्ञानसेवा नाम निरपेक्षनयदर्शनोपदेश इदमेव तत्त्वमिति श्रद्धानमुत्पाद म श्रोतणामिति क्रियमाणो मिथ्याज्ञानिभिः सह संवासः तत्र अनरागो वा तदनवत्तिर्वा तत्सेवा। मिथ्याचारित्रं नाम मिथ्याज्ञानिनामाचरणं तत्रानुवत्तिद्रव्यलोभाद्यपेक्षया तेषु वा सांगत्यादिकं । एतेषां सम्यक्त्वातिचाराणां वर्जनम् ॥४३॥ गुणान्दर्शनविशुद्धिकारिणो निरूपयति उवगृहणमित्यनया उवगृहणठिदिकरणं वच्छल्लपभावणा गुणा भणिदा ।। सम्मत्तविसोधीए उवगृहणकारया चउरो ॥४४॥ उपबृंहणं नाम वर्द्धनं । बृह बृहि वृद्धाविति वचनात् । धात्वर्थानुवादी चोपसर्गः उप इति । स्पष्टे 'परदिट्ठीण' में पर शब्दके अनेक अर्थ हैं। कहीं पर शब्द व्यवस्थाका वाची होता है । जैसे पाटलिपुत्रसे अपर गाँव नहीं है। कहीं परका अर्थ अन्य है। जैसे पर आचार्य अर्थात् अन्य आचार्य । कहीं परका अर्थ इष्ट है। जैसे परं धामको गया अर्थात् इष्ट धामको गया। यहाँ पर शब्द अन्यवाची है । दृष्टिका अर्थ श्रद्धा या रुचि है। जिनकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा पर अर्थात् अन्य है वे परदृष्टि हैं । अर्थात् तत्त्वदृष्टिकी अपेक्षा अतत्त्वदृष्टि अन्य है। उनकी प्रशंसा-स्तुति सम्यग्दर्शनका अतीचार है। अनायतनके छह भेद हैं-मिथ्यात्व, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याचारित्र और मिथ्याचारित्रके धारक । उनमेंसे मिथ्यात्व तो अश्रद्धान ही है। उसकी सेवा करनेपर तो यह मिथ्यादृष्टि ही हुआ। अतः मिथ्यात्व सेवा अतीचार नहीं है। मिथ्यादृष्टियोंकी सेवाका अर्थ ना। मिथ्याज्ञानकी सेवाका मतलब है निरपेक्ष नयोंका उपदेश देना या 'यही तत्त्व है' इस प्रकारका श्रद्धान श्रोताओंको उत्पन्न कराऊँ, इस रूपमें मिथ्याज्ञानियोंके साथ संवास करना, उनसे अनुराग होना अथवा उनकी अनुकूलता । मिथ्याज्ञानियोंके आचरणको मिथ्याचारित्र कहते हैं। द्रव्यलोभ आदिकी अपेक्षासे उनका अनुवर्तन अथवा उनकी संगति । इन सम्यक्त्वके अतिचारोंको छोड़ना चाहिए ।।४३।। सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करनेवाले गुणोंको कहते हैं गाथा--उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना ये चार गुण सम्यक्त्वकी विशुद्धिको वृद्धि करनेवाले कहे हैं ॥४४॥ ___टो०-उपगृहण अर्थात् उपबंहण नाम बढ़ाने का है। क्योंकि 'बृह और बहि धातुका अर्थ वृद्धि है' ऐसा कहा है। धातुके अर्थ के ही अनुकूल 'उप' उपसर्ग है। स्पष्ट और अग्राम्य Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ८२ नाग्राम्येण श्रोत्रमनः प्रीतिदायिना वस्तुयाथात्म्यप्रकाशनप्रवणेन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्धान'वर्द्धनं तदुपबृहणं । सर्वजनविस्मयकारिणीं शतमखप्रमुख गीर्वाणसमितिविरचितो पचितिसदृशीं पूजां संपाद्य दुर्धरतपोयोगानुष्ठानेन वा आत्मनि श्रद्धा स्थिरीकरणम् । जीवादीनि द्रव्याणि तत्सामान्यविशेषरूपाध्यासितानि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकानि प्रतिसमयमिति जिनैः सम्यगभाणि एवमेव नान्यथा श्रद्दधे जिनानां मतं । न हि जिना वीतरागा विदिताखिलवेद्यतया याथातथ्याः कृपापरिगताः विपरीतमुपदिशंतीति भावनया स्थिरीकरणं, अस्थिरस्य रत्नत्रये स्थिरतापादनं । मिथ्यात्वाभिमुखस्य सम्यग्दृष्टेरस्थिरस्य मिध्यात्वं मूलमेव तदनुभवतः कर्मादानं, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायाहि बंधहेतवः । तद्बंधहेतुकं चानंतसंसारपरिभ्रमणं चतुरशीतियोनिशतसहस्रषु । सद्दर्शनं तु विचित्रयातनासंकटभयप्रदायिन्योर्नरकतियग्गतिवर्तिन्योर्व जार्गलांभूतं शतमखमनुष्यलोकयोरन्यूनमान्यरूपभोगादिसंपत्संपादनचतुरं क्रमेण निर्वाणमपि प्रयच्छति । ततो दुःखजलवाहिनीं मिथ्यादृष्टिकुल्ल्यामुल्लंघय, प्रतिपद्यस्व जैनों दृष्टिमिति तत्र स्थिरताकरणम् । तथा सम्यग्ज्ञानभावनायां च प्रमादिनमलसं दृष्ट्वा एवमसौ वक्तव्यः ज्ञानं हिताहितप्रकाशनपटु, तदंतरेण हितमजानतः कथं तत्र वृत्तिरहितपरिहारो वा । हिताहितप्राप्तिपरिहारी विना न सुखाधिगमदुःखविश्लेषी । तदर्थमेव चायं प्राज्ञो जनः क्लिश्यति । ततः पंचविधस्वाध्यायत्यागं मा कृथाः ज्ञाने स्थिरीकरणं । अथवा अनधिगतसूत्रार्थनिश्चयस्य तत्र निश्चयसंपादनं असकृद्भावनात्मनः स्थिरीकरणं । ( शिष्टजनोचित) कानों और मनको प्रसन्नता देनेवाले तथा वस्तुका यथार्थस्वरूप प्रकाशन करने में समर्थ धर्मोपदेशके द्वारा दूसरेके श्रद्धानको बढ़ाना उपबृंहण है । अथवा सर्व जनोंको आश्चर्यं पैदा करनेवाली, इन्द्रादि प्रमुख देवगणोंके द्वारा की जानेवाली पूजाके समान पूजा रचाकर अथवा दुर्धर तप और ध्यानका अनुष्ठान करके आत्मामें श्रद्धाको स्थिर करना उपबृंहण है । 1 जीवादि द्रव्य अपने सामान्य और विशेष रूपोंसे युक्त होकर प्रतिसमय उत्पाद व्यय धौव्यात्मक हैं ऐसा जिनदेवने सत्य ही कहा है। ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है । जिनदेवके मतका में श्रद्धान करता हूँ । वीतराग, समस्त पदार्थों के यथार्थ रूपको जाननेवाले दयालु जिनदेव विपरीत उपदेश नहीं देते' इस प्रकारकी भावनासे रत्नत्रयमें अस्थिरको स्थिर करना स्थितिकरण है । मिथ्यात्वके अभिमुख सम्यग्दृष्टिकी अस्थिरताका मूल मिथ्यात्व ही है । मिथ्यात्वका अनुभवन करनेवालेके . कर्मोंका ग्रहण होता है क्योंकि मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय बन्धके कारण हैं । और उस बन्धके कारण चौरासी लाख योनियोंमें अनन्तकाल तक संसार भ्रमण करना होता है । किन्तु सम्यग्दर्शन विचित्र कष्ट, संकट और भय देनेवाली नरक गति और तिर्यञ्च गतिके लिए वज्रमयी अर्गला है, इन्द्र लोक और मनुष्य लोकमें पूर्ण मान्य भोगादि सम्पदाको प्राप्त करानेमें चतुर है, क्रमसे मोक्ष भी प्राप्त कराता है । इसलिए दुःख रूपी जल जिसमें बहता है उस मिध्यादृष्टि रूपी नदीको पार करके जैनी दृष्टि प्राप्त करो। इस प्रकार उसमें स्थिर करना स्थितिकरण है । तथा सम्यग्ज्ञानकी भावनामें प्रमादी आलसीको देखकर उससे ऐसा कहना चाहिए- ज्ञान हित और अहितको प्रकाशित करनेमें चतुर होता है । उसके बिना जो हितको नहीं जानता वह कैसे हित में प्रवृत्ति और अहितका परिहार कर सकेगा और हितकी प्राप्ति तथा अहितके त्यागके बिना सुखकी प्राप्ति और दुःखसे छुटकारा नहीं हो सकता । उसीके लिए तो यह बुद्धिमान मनुष्य कष्ट उठाता है । अतः पाँच प्रकारको स्वाध्यायका त्याग मत करो। इस प्रकार ज्ञानमें स्थिरीकरण है । अथवा १. वर्तनं अ० आ० । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका चारित्रात् प्रच्यवमानं दृष्ट्वा हिंसादिसावद्यक्रियायां प्रवर्तमाना इहैव दुःखभाजो दृश्यन्ते, तथा परं हन्तुमुद्यतः स्वयं तेनैव हन्यते प्राक्तन मित्रर्वधुभिर्वोदीर्णवरैः । परत्र चाशुभां गतिमुपैति । दुःखदाय्यसद्वे द्य ं च बध्नाति । अलीकं ब्रुवन्निहैव बंधुजनस्यापि विद्वेष्योऽविश्वास्यश्च भवति कि पुनरन्यस्य । जिन्हां चोत्पाटयंति क्रुद्धा बलिनः । परत्र च मूकतां यास्यति इत्येवमाद्यसंयमगतदोषं प्रख्याप्य नीरोगतां दीर्घजीवनं, सौरूप्यं, प्रियवचनादिकं गुणमुपदिश्य अहिंसादिव्रताचरणफलं चारित्रे स्थिरीकरणम् । असंयतदोषं संयमगुणं वा पुनः पुनः स्मृत्वात्मनः स्थिरीकरणम् । धर्मस्थेषु मातरि भ्रातरि वानुरागी वात्सल्यं, रत्नत्रयादरो वात्मनः । प्रभावना माहात्म्यप्रकाशनं रत्नत्रयस्य तद्वतां वा ॥ ४४ ॥ दर्शनविनयप्रतिपादनार्थं गाथाद्वयमुत्तरम् -- सुदे य घम्मे य साधुवग्गे य । अरहंत सिद्धचे आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि ॥ ४५ ॥ 'अरहंत इत्यादिकं' । अरिहननाव्रजोहननाद्रहस्याभावादतिशयपूजार्हत्वाच्चाधिगतार्हद्वद्यपदेशा नोआगमभावादर्हन्त इह गृहीताः । न नामान्, निमित्ताभावेऽपि पुरुषकारान्नियुक्ताद्वयपदेशः । अर्हता प्रतिबिंबानि सूत्रके अर्थका निश्चय जिसे नहीं है उसे निश्चय कराना । तथा बारम्बार भावना करना आत्माका स्थिरीकरण है | ८३. चारित्रसे गिरते हुए को देखकर कहना -- जो हिंसा आदि पाप कार्योंमें लगते हैं वे इसी जन्ममें दुःख भोगते देखे जाते हैं । जो दूसरेको मारनेके लिए तैयार होता है वह स्वयं अथवा उसी दूसरेके द्वारा मारा जाता है । अथवा उसके मित्रों और बन्धुओंके द्वारा पूर्व वैरके उदीर्ण होनेसे मारा जाता है । मरकर दुर्गतिमें जाता है । दुःखदायी असातावेदनीय कर्मको बाँधता है । असत्य बोलने वाला इसी लोकमें बन्धुजनोंके द्वारा द्वेषका भाजन होता है तथा उसका वे विश्वास नहीं करते । फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ? बलवान पुरुष क्रुद्ध होकर झूठ बोलने वालेकी जिह्वा उखाड़ देते हैं। मरकर वह परलोकमें गूँगा होता है । इस प्रकारसे असंयमके दोष कहकर और नीरोगता, दीर्घ जीवन, सौन्दर्य, प्रियवचन आदि संयमके गुणोंका उपदेश देकर चारित्रमें स्थिर करना अहिंसा आदि व्रतोंके आचरणका फल है । अथवा असंयमके दोष और संयमके गुण बारबार स्मरण करके अपनेको चारित्रमें स्थिर करना स्थितीकरण है । धर्मात्माओं में माता-पिता वा भाईमें अनुराग करना वात्सल्य है । अथवा अपने रत्नत्रयमें आदरभाव रखना वात्सल्य है । रत्नत्रयका अथवा रत्नत्रयके धारकोंका माहात्म्य प्रकट करना प्रभावना है ||४४|| दर्शन विनयका कथन करनेके लिए आगे दो गाथा कहते हैं गा० - अरहन्त, सिद्ध और प्रतिबिम्बों में श्रुतमें और धर्ममें और साधुवर्ग में आचार्यमें उपाध्याय में और सुप्रवचन में दर्शन में भी ॥४५॥ टी०-- 'अरि' अर्थात् मोहनीयकर्मका नाश कर देनेसे, 'रज' अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मको नष्ट कर देनेसे, 'रहस्य' अर्थात् अन्तरायकर्मका अभाव कर देनेसे, और सातिशय पूजा योग्य होनेसे अर्हतु कहे जानेवाले नो आगमभावरूप अर्हन्तोंका यहाँ ग्रहण किया है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना सोऽयमित्यभिसंबंधादर्हद्वयपदेशभांजि पूजातिशयाहत्त्वेऽपि अरिहननादिगुणासंभवान्नेह गृह्यन्ते । आगमद्रव्याहन्नहत्स्वरूपव्यावर्णनपरप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तस्तदर्थेऽन्यत्र व्यापृतः। ज्ञायकशरीराहन्नाम तत्प्राभृतज्ञस्य त्रिकालगोचरं शरीरं । यस्मिन्नात्मनि अरिहननादयो भविष्यंति गुणाः स भाव्यर्हन् । तीर्थकरनामकर्म तद्व्यतिरिक्तद्रव्याईन् । अर्हद्वयावर्णनपरप्राभृतप्रत्ययोऽर्हन्नि सो बोध आगमभावार्हन् । एतेषु अरिहननादिगुणानामभावात् नेहार्हच्छब्देन ग्रहणम् । एवं नामसिद्धः अलब्धसकलात्मस्वरूपे सिद्धशब्दः । यस्य वा निमित्तनिरपेक्षा सिद्धसंज्ञा। स्थापनासिद्धा इति तत्प्रतिबिंबानि उच्यन्ते । ननु सशरीरस्यात्मनः प्रतिबिंबं युज्यते, अशरीराणां तु शुद्धात्मनां सिद्धानां कथं प्रतिबिंबसंभवः ? पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया शरीरमनुग्तो य आत्मा सयोगकेवलीतरो वा न शरीरान्निर्भक्तु शक्यते। विभागे हि शरीरात्संसारिता न स्यात् । अशरीरः संसारी चेति विरुद्धमेतत् । ततः शरीरसंस्थानबच्चिदात्मापि संस्थानवानेव संस्थानवतोऽव्यतिरिक्तत्वाच्छरीरस्थात्मवत् । स एव चायं प्रतिपन्नसम्यक्त्वाद्यष्टगुण इति स्थापनासंभवः। आगमद्रव्यसिद्धः सिद्धप्राभृतज्ञः सिद्धशब्देनोच्यते अनुपयुक्तः । सिद्धप्राभृतज्ञस्य नामसे जो अर्हन्त हैं उनका यहाँ ग्रहण नहीं है। अर्हन्त संज्ञाके जो निमित्त कहे हैं उनके अभावमें भी जबरदस्तीसे जो अर्हत् नाम रख दिया जाता है उसे नाम अर्हत् कहते हैं । अर्हन्तोंके प्रतिबिम्ब 'वे अर्हन्त यही हैं। इस प्रकारको स्थापनाके सम्बन्धसे अर्हन्त कहे जाते हैं और वे सातिशय पूजाके योग्य भी हैं फिर भी उनमें मोहनीय कर्मका विनाश आदि गुण न होनेसे यहाँ उनका ग्रहण नहीं किया है। अर्हन्तके स्वरूपका वर्णन करनेवाले शास्त्रका ज्ञाता, जो उसमें उपयोग नहीं लगा रहा किसी अन्य कार्यमें लगा है वह आगम द्रव्यअर्हन्त है। उस अर्हन्तविषयक शास्त्रके ज्ञाताका जो भूत वर्तमान और भावि शरीर है वह ज्ञायक शरीर अर्हन्त है। जिस आत्मामें अरिहनन आदि गुण भविष्यमें होंगे वह भाविअर्हन्त है। तीर्थङ्करनामकर्म तद्व्यतिरिक्त द्रव्य । अर्हन्तके वर्णनमें तत्पर शास्त्रका जो ज्ञान है-अर्थात् अर्हन्तविषयक जो ज्ञान है वह आगमभाव अर्हन्त है । इन सबमें अरिहनन आदि गुगोंका अभाव होनेसे यहाँ अर्हत् शब्दसे उनका ग्रहण नहीं किया है। इसी प्रकार जिसने सम्पूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं किया उसमें सिद्ध शब्दका व्यवहार नाम सिद्ध है। अथवा सिद्ध शब्दकी प्रवृत्तिमें निमित्त आठ कर्मोके विनाशकी अपेक्षा न करके जिसका नाम सिद्ध रखा गया है वह नामसिद्ध है । सिद्धोंके प्रतिबिम्बोंको स्थापनासिद्ध कहते हैं । शंका-शरीरसहित आत्माका प्रतिबिम्ब तो युक्त है। शरीर रहित शुद्ध आत्माओंका प्रतिबिम्ब कैसे सम्भव है ? समाधान-पूर्वभाव प्रज्ञापननयकी अपेक्षा जो आत्मा शरीरमें था, वह सयोगकवली हो या अन्य हो, उसे शरीरसे अलग नहीं किया जा सकता। यदि उसे शरीरसे पृथक् ही सर्वथा कर दिया जाये तो उसका संसारोपना नहीं बनता; क्योंकि शरीरसे रहित हो और संसारी हो यह तो परस्पर विरुद्ध है। अतः शरीरके आकारको तरह चेतन आत्मा भी आकारवान ही है क्योंकि वह आकारवानसे अभिन्न है, जैसे शरीरमें रहनेवाला आत्मा। वही यह सम्यक्त्व आदि आठगुणोंसे सहित है इस प्रकार सिद्धकी स्थापना सम्भव है। जो सिद्ध विषयक शास्त्रका ज्ञाता उसमें उपयुक्त नहीं है और उसे सिद्ध शब्दोंसे कहा जाता है तो वह आगमद्रव्य सिद्ध है। सिद्धविषयक Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८५ शरीरं ज्ञायकशरीरं । भविष्यत्सिद्धत्वपर्यायो भाविसिद्धः । व्यतिरिक्तसिद्धो न संभवति । सिद्धत्वं न कर्मकारणम इति सकलकर्मापायहेतुका सिद्धता । पुद्गलद्रव्यस्य तदुपकारिणोऽसंभवान्नोकर्मसिद्धाभावः । सिद्धप्रामृतानुसारिसिद्धज्ञानपरिणत आगमभावसिद्धः । निरस्तभाव द्रव्यकर्ममलकलङ्कः परिप्राप्तसकलक्षायिक भावः नोआगमभावसिद्धः । स इह गृहीतो न इतरे सकलात्मस्वरूपप्राप्त्यभावात् । 'चेदिय चैत्यं प्रतिबिंबं इति यावत् । कस्य ? प्रत्यासत्तेः श्रुतयोरेवाहत्सिद्धयोः प्रतिबिंवग्रहणं । अथवा मध्यप्रक्षपः पूर्वोत्तरगोचरस्थापनापरिग्रहार्थस्तेन साध्वादिस्थापनापि गृह्यते । श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाज्जातं वस्तुयाथात्म्यग्राहि श्रद्धानानुगतं श्रुतं अंगपूर्वप्रकीर्णकभेदभिन्न, तीर्थंकर श्रुतकेवल्यादिभिरारचितो वचनसंदर्भो वा, लिप्यक्षरधृतं वा । धर्मशब्देन चारित्रं समीचीनमुच्यते । ज्ञानदर्शनाम्यामनुगतं सामायिकादि पंचविकल्पम् । दुर्गतिप्रस्थित जीवधारणात्, शुभे स्थाने वा दधाति इति धर्मशब्देनोच्यते । अथवा 'खंती मद्दव अज्जव लाघव तव संजमो अकिंचणदा। तह होदि बम्भचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा ॥ -[मूलाचार ८।६२] इति सूत्रांतरनिर्दिष्टधर्मपरिग्रहः । क्रोधनिमित्तसान्निध्येऽपि कालुष्याभावः क्षमा स्नेहकार्याद्यनपेक्षः । जात्याद्यभिमानाभावो मान'दोषापेक्षस्य दृष्टकार्यानपाश्रयो मार्दवम् । आकृष्टान्तद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जव शास्त्रके ज्ञाताओंका शरीर ज्ञायकशरीर है। भविष्यमें जिसे सिद्धपर्याय प्राप्त होगी वह भाविसिद्ध है। तद्वयतिरिक्त सिद्ध सम्भव नहीं है क्योंकि सिद्धत्वपर्यायका कारण कर्म नहीं है। सिद्धता तो समस्त कर्मोके विनाशसे प्राप्त होती है। उस सिद्धत्वपर्यायका उपकारी पुद्गलद्रव्य नहीं है इसलिए नोकर्मसिद्ध भी नहीं हैं। सिद्ध विषयक शास्त्रके अनुसार सिद्धोंके ज्ञानरूप जो परिणत है वह आगम भाव सिद्ध है। जिसने भावकर्म और द्रव्यकर्ममलरूप कलंकको नष्ट करके सकलक्षायिकभावोंको प्राप्त कर लिया है वह नो आगम भावसिद्ध है। उसीका यहाँ ग्रहण किया है अन्यका नहीं; क्योंकि उन्होंने पूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं किया है। चैत्य प्रतिबिम्बको कहते हैं। चैत्य शब्द अर्हन्त और सिद्धके समीप है अतः सिद्ध और अईन्तके ही प्रतिबिम्ब ग्रहण करना। अथवा उससे पूर्वकी और उत्तरकी स्थापनाका ग्रहण करनेके लिए चैत्य शब्दको मध्यमें रखा है । उससे साधु आदिकी स्थापनाका भी ग्रहण होता है। श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ तथा वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करनेवाला श्रद्धान सहित ज्ञान श्रुत है । उसके भेद ग्यारह अंग, चौदह पूर्व और अंगबाह्य हैं । अथवा तीर्थंकर और श्रुतकेवली आदिके द्वारा रचा गया वचन सन्दर्भ श्रुत है । अथवा जो लिपि रूप अक्षरश्रुत है वह श्रुत है। धर्म शब्दसे समीचीन चारित्र कहा जाता है। ज्ञान और सम्यग्दर्शनसे अनुगत वह चारित्र सामायिक आदिके भेदसे पाँच प्रकार का है। दुर्गतिमें पडे हए जीवको धारण करनेसे अथवा शुभ स्थानमें धरनेसे उसे धर्म शब्दसे कहते हैं अथवा धर्म शब्दसे शास्त्रमें कहे गये क्षमा, मार्दव, आर्जव, लाघव, तप, संयम, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य, त्याग ये दस धर्म ग्रहण किये हैं। क्रोधके निमित्तोंके रहते हुए भी कलुषताके अभावको क्षमा कहते हैं। यह क्षमा किसी स्नेह सम्बन्धी कार्य आदिकी अपेक्षाके विना होती है। मानकी बुराइयोंकी अपेक्षा न करके तथा लौकिक १. दोषानपेक्षश्च दृ-आ० मु० । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना मित्युच्यते । द्रव्येषु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपातः सकल इति ततः परित्यागो लाघवं । अशनादिपरित्यागात्मिका क्रिया अनपेक्षितदृष्टफला द्वादशविधा तपः। इंद्रियविषयरागद्वेषाभ्यां निवृत्तिरिद्रियसंयमः । षड्जीवनिकायबाधाऽकरणादपरः प्राणिसंयमः । अकिंचणदा सकलग्रंथत्यागः । ब्रह्मचर्य नवविधब्रह्मपालनं । सता साधूनां हितभाषणं सत्यम् । संयतप्रायोग्याहारादिदानं त्यागः । एते दशधर्माः। साधयन्ति रत्नत्रयमिति साधवस्तेषां वर्गः समूहः । तस्मिन्वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञाने परिणतिर्ज्ञानाचारः । तत्त्वश्रद्धानपरिणामो दर्शनाचारः । पापक्रियानिवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः। अनशनादिक्रियासु वृत्तिस्तप आचारः । स्वशक्त्यनिगूहनरूपा वृत्तिर्ज्ञानादौ वीर्याचारः । एतेषु पंचस्वाचारेषु ये वर्तन्ते परांश्च प्रवर्तयंति ते आचार्याः । रत्नत्रयेषु उद्यता जिनागमार्थ सम्यगुपदिशंति ये ते उपाध्यायाः उपेत्य विनयेन ढौकित्वा अघीयते श्रुतमस्मादित्युपाध्यायः। 'पवयणे' प्रवचने । ननु श्रुतशब्दः प्रवचनवाची ततः पुनरुक्तता ? रत्नत्रयं प्रवचनशब्देनोच्यते । तथा चोक्तम्-'णाणदंसणचरित्तमेगं पवयणमिति' । अथवा श्रतज्ञानं श्रतमित्युक्तं पूर्वमिह तु प्रोच्यते जीवादयः पदार्था इति शब्दश्रुतमुच्यते । 'दंसणे' सम्यग्दर्शने च ॥ ४५ ॥ - कार्योंके प्रयोजनके विना जाति आदिका अभिमान नहीं होना मार्दव है। एक ऐसे धागेकी तरह जिसके दोनों छोर खींचे हुए हैं, कुटिलताके अभावको आर्जव कहते हैं। द्रव्योंमें 'यह मेरा है' यह भाव समस्त विपत्तियोंके आनेका मूल है अतः उसका त्याग लाघव है । लौकिकफलकी अपेक्षा न करके भोजन आदिके त्यागरूप क्रियाका नाम तप है उसके बारह भेद हैं। इन्द्रियोंके विषयोंमें रागद्वेष न करना इन्द्रियसंयम है। छह कायके जीवोंको बाधा न पहुंचाना दूसरा प्राणिसंयम है। समस्त परिग्रहका त्याग आकिञ्चन्य धर्म है। नौ प्रकारसे ब्रह्मका पालन ब्रह्मचर्य है । सज्जन साधु पुरुषोंके हितकारी भाषणको सत्य कहते हैं। संयमियोंके योग्य आहार आदि देना त्याग है। ये दस धर्म हैं। ____ जो रत्नत्रयका साधन करते हैं वे साधु हैं। उनके समूहको साधुवर्ग कहते हैं। वस्तुके यथार्थस्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानमें लगना ज्ञानाचार है। तत्त्वश्रद्धानरूप परिणाम दर्शनाचार है। पाप कार्योंसे निवृत्तिरूप परिणति चारित्राचार है। अनशन आदि क्रियाओंमें लगना तप आचार है। ज्ञानादिमें अपनी शक्तिको न छिपाकर प्रवृत्ति करना वीर्याचार है। इन पांच आचारोंमें जो स्वयं प्रवत्त होते हैं और दूसरोंको प्रवृत्त करते हैं वे आचार्य हैं । जो रत्नत्रयमें तत्पर हैं और जिनागमके अर्थका सम्यक् उपदेश करते हैं वे उपाध्याय हैं । विनय पूर्वक जाकर जिनसे श्रुतका अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं । पवयणका अर्थ प्रवचन है । शङ्का-श्रुत शब्दका अर्थ भी प्रवचन है। वह आ चुका है। फिर प्रवचन कहनेसे पुनरुक्तता दोष होता है। समाधान-प्रवचन शब्दसे रत्नत्रयको कहते हैं। कहा है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये प्रवचन हैं।' अथवा पूर्वमें श्रुतसे श्रुतज्ञान कहा है । यहाँ प्रवचन शब्दसे शब्दरूप श्रुत कहा है। जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ 'प्रोच्यन्ते' प्रकर्षरूपसे कहे जाते हैं वह प्रवचन है इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रवचनका अर्थ शब्दरूप श्रुत होता है । दर्शनसे सम्यग्दर्शन जानना ॥४५॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Via विजयोदया टीका भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स ।। आसादणपरिहारो दसणविणओ समासेण ॥४६॥ का भत्ती पूजा ? अहंदादिगुणानुरागो भक्तिः । पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति । गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाधुद्दिश्य द्रव्यपूजा अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरणप्रणमनादिका कायक्रिया च, वाचा गुणसंस्तवनं च । भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं । _ 'वण्णजगणं' वर्णशब्दः क्वचिद्रूपवाची शुक्लवर्णमानय शुक्लरूपमिति । अक्षरवाची क्वचिद्यथा 'सिद्धोवर्णसमाम्नायः' इति । क्वचित् ब्राह्मणादौ यथात्रव वर्णानामधिकार इति । क्वचिद्यशसि वर्णार्थी ददाति । तथा इहाप्यनंतरार्थो गृहीतः । तेन अर्हदादीनां यशोजननं विदुषां परिषदि । अन्येषामविश्ववेदिनां दृष्टष्टविरुद्धवचनताप्रदर्शनेन निवेद्य तत्संवादिवचनतया महत्ताप्रख्यापनं भगवतां वर्णजननम् । चैतन्यमात्रसमवस्थानरूपे निर्वाणे नापूर्वातिशयप्राप्तिरस्ति । यत्नमंतरेण सर्वात्मसु चैतन्यस्य सदा स्थितेः। विशेषरूपरहितत्वादसच्चैतन्यं खपुष्पवत् । प्रकृतेरचेतनाया मुक्तिरनुपयोगिनी। किं तया बद्धया मुक्या वा फलमात्मनः ? अनया दिशा कापिलमते सिद्धता दरुपपादा। बद्धयादिविशेषगण ऽन्येषां । आत्मनोऽचेतनतां कः सचेतमोऽभिलषति । विशेषरूपश्न्यं वा कथमात्मनः सत्ता ? नैव चासावात्मा गा०-भक्ति, पूजा, वर्णजनन और अवर्णवादका नाश करना तथा आसादनाका दूर करना संक्षेपसे दर्शन विनय है ॥४६॥ टो०-भक्ति और पूजा किसे कहते हैं ? अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुराग भक्ति है। पूजाके दो प्रकार हैं-द्रव्यपूजा और भावपजा। अर्हन्त आदिका उद्देश करके गन्ध, पुष्प, धूप, अक्षत आदि अर्पित करना द्रव्यपूजा है। तथा उनके आदरमें खड़े होना, प्रदक्षिणा करना, प्रणाम आदि करना रूप शारीरिक क्रिया और वचनसे गुणोंका स्तवन भी द्रव्यपूजा है। मनसे उनके गुणोंका स्मरण भाव पूजा है। "वर्णजनन' में वर्णशब्द कहीं तो रूपका वाचक है जैसे 'शुक्लवर्ण लाओ' यहां उसका अर्थ शुक्लरूप है। कहीं 'वर्ण' अक्षरका वाचक है। जेसे 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' यहाँ वर्णका अर्थ अक्षर है । कहीं वर्णशब्द ब्राह्मण आदिका वाचक है। जैसे 'यहाँ वर्णोंका ही अधिकार है। यहाँ वर्णसे ब्राह्मण आदि लिये गये है। कहींपर वर्णका अर्थ यश है। जैसे वर्णार्थी दान करता है। यहाँ वर्णका अर्थ यश है। यहाँ भी वर्णसे यश अर्थ लिया है। अतः विद्वानोंकी सभामें अर्हन्त आदिका यश फैलाना, दूसरे असर्वज्ञोंकी प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे विरुद्धता दिखलाकर उनके वचनींके संवादि होनेसे महत्ताका ख्यापन करना अर्हन्तोंका वर्णजनन है। चैतन्यमात्रमें स्थितिरूप निर्वाणको माननेपर अपूर्व अतिशयको प्राप्ति नहीं होती। विना प्रयत्नके ही सभी आत्माओंमें चैतन्य सदा रहता है। तथा विशेषरूपसे रहित चैतन्य आकाशके फूलके समान असत् होता है । अचेतन प्रकृतिकी मुक्ति मानना व्यर्थ है। उसके बँधने या मुक्त होनेसे आत्माको क्या ? इस प्रकार सांख्यके मतमें सिद्धता नहीं बनती। वैशेषिक आदि दूसरे दार्शनिक सिद्ध अवस्थामें बुद्धि आदि विशेष गुणोंका अभाव मानते हैं। इस तरह कौन सचेतन आत्माको अचेतन बनाना पसन्द करेगा। तथा विशेष धर्मोसे शून्य Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ भगवती आराधना पराभ्युपगतः बुद्धयादिगुणरहितत्वाद्भस्मवत् । रागादिक्लेशवासनारहितं चित्तमेव मुक्तिशब्देनोच्यते इत्यत्रापि चित्तमत्यंतासाधारणरूपं । यद्य के चिद्रपं नेतरदिति तस्य स्वभावोऽनिरूप्यः । असाधारणस्वरूपशून्यं यत्तदसद्यथा-नभस्तामरसं । असाधारणरूपशून्यं च विवक्षिताच्चित्तादन्यदिति । एवं मतान्तरे निरूपितानां सिद्धानामघटमानत्वाद्वाधाकारिसकलकर्मलेपनिर्दहनसमुपजाताचलस्वास्थ्यसमवस्थिताः अनंतज्ञानात्मकेन सुखेन संतृप्ताः सिद्धा इति तन्माहात्म्यकथनं सिद्धानां वर्णजननम् । __ यथा वीतरागद्वेषास्त्रिलोकचूलामणयोऽहंदादयो भव्यानां शुभोपयोगकारणतामुपयान्ति तद्वदेतान्यपि तदीयानि प्रतिबिंबानि । बाह्यद्रव्यालंबनो हि शुभोऽशुभो वा परिणामो जायते । यथात्मनि मनोज्ञामनोज्ञविषयसान्निध्याद्रागद्वषो यथा स्वपुत्रसदृशं सुदर्शनं पुत्रस्मृतेरालंबनं । एवमर्हदादिगुणानुस्मरणनिबंधनं प्रतिबिंबम् । तदानुस्मरणं अभिनवाशुभप्रकृतेः संवरणे, प्रत्यग्रशुभकर्मादाने, गृहीतशुभप्रकृत्यनुभवस्फारीकरगे, पूर्वोपात्ताशुभप्रकृतिपटलरसापहासे च क्षममिति सकलाभिमतपुरुषार्थसिद्धिहेतुतया उपासनीयानीति चैत्यमहत्ताप्रकाशनं चैत्यवर्णजननमिति । __ केवलज्ञानवदशेषजीवादिद्रव्ययाथात्म्यप्रकाशनपटु, कर्मधर्मनिर्मूलनोद्यतशुभध्यानचंदनमलयायमानं स्वपरसमुद्धरणनिरतविनेयजनताचित्तप्रार्थनीयं, प्रतिबद्धाशुभास्रवं, अप्रमत्ततायाः संपादकं सकलविकलप्रत्यक्षज्ञानआत्माकी सत्ता कैसे रहेगी। तथा दूसरोंके द्वारा माना गया आत्मा बुद्धि आदि गुणोंसे रहित होनेसे भस्मके समान है। बौद्धमतमें रागादि क्लेशवासनासे रहित चित्त ही मुक्ति शब्दसे कहा जाता है। उनके मतमें भी चित्त अत्यन्त असाधारणरूपको लिये हुए हैं। यदि चिद्रूप एक ही है अन्य नहीं है तो उसका स्वरूप निरूपण करनेके योग्य नहीं है। जो असाधारण स्त्ररूपसे शून्य होता है वह असत् होता है जैसे आकाशका कमल । और विवक्षित चित्तसे अन्य चित्त असाधारण स्वरूपसे शून्य है। इस प्रकार अन्य मतोंमें कहे गये सिद्धोंका स्वरूप नहीं बनता। अतः बाधा पैदा करनेवाले समस्त कर्मरूपी लेपको जला डालनेसे उत्पन्न हुए निश्चल स्वास्थ्यसे युक्त और अनन्तज्ञानरूप सुखसे सन्तृप्त सिद्ध होते हैं । इस प्रकार उनके माहात्म्यको कहना सिद्धोंका वर्णजनन है। जैसे राग-द्वेषसे रहित और तीनों लोकोंके चूड़ामणि अर्हन्त आदि भव्यजीवोंके शुभोपयोगमें निमित्त होते हैं, उन्हींकी तरह उनके ये प्रतिबिम्ब भो शुभोपयोगमें निमित्त होते हैं। क्योंकि बाह्य द्रव्यका आलम्बन लेकर शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं। जैसे मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयोंकी समीपतासे आत्मामें राग-द्वेष होते हैं। या जैसे अपने पुत्रके समान व्यक्तिका दर्शन पुत्रकी स्मृतिका आलम्बन होता है। इसी तरह प्रतिबिम्ब अर्हन्त आदिके गुणोंके स्मरणमें निमित्त होता है। यह गुणस्मरण नवीन अशुभ प्रकृतिके आस्रवको रोकनेमें, नवीन शुभकर्मके बन्धमें, बन्धे हुए शुभकर्मके अनुभागको बढ़ाने में और पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृति समूहके अनुभागको कम करने में समर्थ होता है। इस तरह समस्त इष्ट पुरुषार्थकी सिद्धिमें कारण होनेसे प्रतिबिम्बोंकी उपासना करना चाहिए। इस रूपसे प्रतिबिम्बकी महत्ताका प्रकाशन चैत्यवर्ण जनन है। श्रुतज्ञान केवलज्ञानकी तरह समस्त जीवादि द्रव्योंके यथार्थस्वरूपको प्रकाशित करने में दक्ष होता है, कर्मरूपी घामको मूलसे नष्ट करने में उद्यत शुभध्यानरूपी चन्दनके लिए मलयपर्वतके समान है। अपना और दूसरोंका उद्धार करनेमें लगे हुए शिष्यजनोंके द्वारा अन्तःकरणसे प्रार्थनीय है Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका बीजं, दर्शनचरणयोः समीचीनयोः प्रवर्तकं इति निरूपणा श्रुतवर्णजननम् । ___दुःखात् त्रातु, सुखं दातु, निधीनां रत्नानां चाधिपत्ये स्थापयितु, स्वचक्रविक्रमानमितसकलभूपालखेचरगणबद्ध मरुच्चक्रांश्चक्रलांछनान्पादयोः पातयितु, सुरविलासिनीचेतःसंमोहावह, तदीयविलुठत्पाठीनलोचनरागमभिवर्धयंतीं, हर्षभरपरवशोद्भिन्नसांद्ररोमांचकंचुकमाचरितुमुद्यतां, रूपशोभामन्दिरां संपादयितुमतिशयिताणिमादिगुणप्रसाधनां, सामानिकादिसुरसहस्रानुयानोपनीतमहत्तां, सततप्रत्यग्रयुवतालिंगितां सुभगतालतारोहयष्टिम्, अनेकसमुद्रबिन्दुगणनागणितायुःस्थिति, मेरुकुरुसुरसरित्कुलाचलादिगोचरस्वेच्छाविहारचतुरां, सुरांगनापृथुलनितम्बविंबाधरकठिननिबिड-समुन्नतकुचतटक्रीडालोकनस्पर्शनादिक्रियोपयोगामितप्रीतिविस्मितां, शतमखतामखेदेन झटिति घटयित विरूपताजननीजराडाकिनीनामगोचरां शोकवकानलंधितां, विपहावानलशिखाभिरनुपप्लुतां, रोगोरगैरदष्ट'व्यां, यममहिषखुराखंडितां, भीतिवराहसमितिभिरनुल्लिखितां, संक्लेशशतशरभरनध्यासितां, प्रियवियोगचण्डपुंडरीकरसेवितां, अनर्घ्यसुखरत्नप्रभवभूमि निवृति प्रापयितु समर्थो जिनप्रणीतो धर्म इति धर्मस्वरूपकथनं धर्मवर्णनजननम् ॥ अर्थात् वे श्रुतज्ञानके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। अशुभ आश्रवको रोकता है। अप्रमादपना लाता है. सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्षरूप ज्ञानका बीज है अर्थात श्रतानसे ही अन्यज्ञान पैदा होते हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें प्रवृत्त करानेवाला है। इस प्रकार कथन करना श्रुतज्ञानका वर्णजनन है। धर्म दुःखसे रक्षा करता है, सुख देता है, नवनिधि और चौदह रत्नोंका स्वामी बनाता है, अपने चक्ररत्नके पराक्रमसे समस्त राजाओं, विद्याधरोंको विनम्र करने वाले तथा देवगणोंको भी बांधने वाले चक्रवर्तियोंको चरणोंमें गिराता है, धर्मके प्रभावसे बिना किसी खेदके तत्काल इन्द्रपदवी प्राप्त होती है जो इन्द्रपदवी देवांगनाओंके चित्तको संमोहित करती है, उनके चंचल मीनके तुल्य लोचनोंमें अनुरागको बढ़ाती है, हर्षके भारसे प्रकट हुए सघन रोमांचरूपी कन्चुकको उत्पन्न करनेमें तत्पर होती है, रूपकी शोभा बढ़ानेके लिये सातिशय अणिमा आदि ऋद्धियोंका सम्पादन करती है, सामानिक आदि हजारों देवता अनुगमन करके उसका महत्त्व ख्यापन करते हैं, निरन्तर नवीन तारुण्य उसका आलिंगन करता है, सौभाग्यरूपी बेलके चढ़नेके लिये वह लकड़ीके तुल्य है, उसकी आयुकी स्थिति अनेक समुद्रोंके जल बिन्दुओंके द्वारा गिनी जाती है अर्थात् अनेक सागर प्रमाण आयु होती है, वह इन्द्रपद सुमेरु, देवकुरु, उत्तरकुरु, नदी, कुलाचल आदिमें स्वेच्छापूर्वक विहार करने में प्रवीण होता है और देवांगनाओंके स्थूल नितम्ब, ओष्ठ, कठिन उन्नत कुचोंके साथ क्रीड़ा, आलोकन, स्पर्शन आदि क्रियाके द्वारा अपरिमित प्रीतिको उत्पन्न कराता है । ऐसा इन्द्रपद धर्मके प्रभावसे प्राप्त होता है। तथा जिनदेवके द्वारा कहा गया धर्म मोक्षको भी प्राप्त करने में समर्थ है। जो मोक्ष शरीरको विरूप करने वाली जरारूपी डाकिनियोंके लिये अत्यन्त दूर है। अर्थात् वहाँ बुढ़ापा नहीं है, शोकरूपी भेड़िये वहाँ नहीं पहुँच सकते, विपत्तिरूपी बनकी आगकी शिखा वहाँ नहीं है, रोग रूपी सर्प वहाँ नहीं डसते, यमराजका भैंसा अपने खुरोंसे उसे खंडित नहीं करता, भयरूपी सूकरोंका समूह वहाँ नहीं पहुंचता, सैकड़ों संक्लेशरूपी शरभ वहां नहीं रहते, प्रियजनोंका वियोगरूपी प्रचण्ड आघात नहीं है और जो मोक्ष अमूल्य सुख रूपी रत्नोंका उत्पत्ति स्थान है वह धर्मसे प्राप्त होता है इस प्रकार धर्मके स्वरूपका कथन धर्मका वर्णजनन है । १. ष्टवपुष-आ० मु० । १२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० भगवती आराधना उत्त्रोटितप्रियवचनमुखरदुर्भेदबन्धुसमितिशृंखलाः, दुस्तरतरसंसारावर्तचिरपरिभ्रमणचकितसवेपथहृदयाः, अनित्यताभावनावहितचेतस्तया निरस्तशरीरद्रविणादिगोचराः, दुःखसंहतिसंपातरक्षाक्षमस्यापरस्य जिनप्रणीताद्धर्मादभावात् तमेव शरणमित्युपगताः, ज्ञानरत्नप्रदीपप्रभाप्रकरनिर्मूलितभुवनभवनान्तर्लीनाज्ञानध्वान्तसंततयः, कर्मणामादाने, तत्फलानुभवने, तन्निर्मूलने च वयमेकका एवेति कृतविनिश्चितयः असाधारणचैतन्यादिलक्षणोपनीतभेदापेक्षयाऽन्ये वयमितरद्रव्यकलापादित्यन्यताभावनायामासक्ताः, सुखदुःखयोरकृतादरद्वषाः, सदसद्योदयकर्मनिमित्तत्वेन ममादृतिमनभिमतं चापेक्षते इति उपकारापकारयोरहमेव प्रणेता, आत्मनः शुभाशुभकर्मणो निर्मापणे । ममैव स्वातंत्र्यात्तदुपचितत्वात, अनुग्रहनिग्रहयोः परे वराकाः किं कुर्वन्तोति मत्वा स्वजनपरजनविवेकनिरुत्सुकाः, समंतादुपसर्गमहोरगरवार्यवीर्येरवष्टब्धा अप्यविचलवृत्तयः, क्षुत्पिपासादिपरीषहमहारातिसरभससंपातेऽप्यदीनासंक्लिष्टचेतोवृत्तयः, त्रिगुप्तिगुप्तिमुपाश्रिताः, अनशनादितपोराज्यपालनोद्युक्तमतयः, कृतानूनषतकवचाः, गृहीतशीलखेटाः उदगीणध्यानातिनिशितमंडलाग्राः, कर्मारिपतनासाधनोद्यताः साधव इति साधुमाहात्म्यप्रकाशनं साधुवर्गवर्णजननं । मुक्ताहारपयोधरनिशाकरवासराधीश्वरकल्पमहील्हादय इव प्रत्युपकारानपेक्षानुग्रहव्यापृताः, निर्वाणपुर प्रियवचन बोलनेमें वाचाल बन्धुजन कठिनतासे टूटने वाली सांकलके समान है किन्तु साधुगण इस सांकलको तोड़ डालते हैं, उनका हृदय अत्यन्त दुस्तर संसाररूपी भंवरमें चिरकाल तक भ्रमण करनेसे भयभीत रहता है, चित्तके अनित्य भावनाके भाने में लगे रहनेसे शरीर धनसम्पत्ति आदिमें उनका आदरभाव नहीं होता, जिन भगवान्के द्वारा कहे गये धर्मके सिवाय अन्य किसीके दुःखोंके समूहसे रक्षा करने में समर्थ न होनेसे वे उसी धर्मकी शरणमें रहते हैं, ज्ञानरूपी रत्नमयी दीपककी प्रभाके समूहसे उन साधुओंने लोक रूपी भवनमें रहने वाले अज्ञान रूपी अन्धकारकी परम्पराको नष्ट कर दिया है, उनका यह निश्चय है कि कर्मोके बाँधने में, उनका फल भोगने में और उन्हें नष्ट करने में हम अकेले ही हैं, चैतन्य आदि असाधारण लक्षणके भेदसे हम सब द्रव्योंके समूहसे भिन्न हैं इस प्रकार वे अन्यत्व भावनामें आसक्त रहते हैं। न सुखमें आदरभाव रखते हैं और न दुःखसे द्वष करते हैं। साता और असाता वेदनीय कर्मके उदयके निमित्तसे मेरा आदर या निरादर होता है. अत: अपने उपकार और अपकारका व अपने शुभ अशुभ कर्मोके निर्माणमें मैं स्वतन्त्र हुँ-उसीके द्वारा मेरा अनुग्रह या निग्रह होता है, दूसरे बेचारे इसमें क्या करते हैं ? ऐसा मानकर वे स्वजन और परजनमें भेद बुद्धि करने में उदासीन होते हैं । चहुंओरसे शक्तिशाली उपसर्गरूपी भयानक साँसे घिरे होनेपर भी वे अविचल रहते हैं । भूख प्यास आदि परीषह रूपी महान् शत्रुओंका अचानक आक्रमण होनेपर भी उनकी चित्तवत्ति दीनता और संक्लेशसे रहित होती है । तीन गुप्ति रूपी गुप्तिका आश्रय लेते हैं, अनशन आदि तप रूपी राज्यका पालन करने में उनकी बुद्धि लगी रहती है, पूर्णव्रत रूपी कवच धारण करते हैं। शील रूपी खेटमें बसते हैं, ध्यानरूपी अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार रखते हैं, उसके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंकी सेनाको वशमें करनेके लिये तत्पर रहते हैं। इस प्रकार साधुओंके माहात्म्यको प्रकट करना साधुवर्गका वर्णजनन है। आचार्य मोतीका हार, मेघ, चंद्रमा, सूर्य और कल्पवृक्ष आदिकी तरह प्रत्युपकारकी १. कर्मारोपणे-आ० मु०। २. दुपचरित-आ० मु० । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका परिप्रापणक्षमे मार्ग निर्मले स्थिताः, परानपि विनतान्विनेयान्प्रवर्तयन्तः आयतातिधवलज्ञानपृथुलदर्शनपक्ष्मलेक्षणाः, कुलीना, विनता, विभया, विमाना, विरागा, विशल्या, विमोहा, वचसि तपसि महसि वाऽद्वितीया इति भाषणं सूरिवर्णजननम् । ___अधिगतश्रुतार्थयाथातथ्यात्मवाच्य वाचकानुरूपव्याख्यानाः, निरस्तनिद्रातंद्रीप्रमादाः, सुचरिताः, सुशीलाः, सुमेधसः, इत्याध्यापकवर्णजननम् । रत्नत्रयालाभादनंतकालं अयमनादिनिधनोऽपि भव्यजीवराशिर्न निर्वाणपुरमुपैति तल्लाभे च सकलाः संपदः सुलभाः इति मार्गवर्णजननम् । मिथ्यात्वपटलविपाटनपटीयसी, ज्ञाननैर्मल्यकारिणी, अशुभगतिगमनप्रतिबंधविधायिनी, मिथ्यादर्शनविरोधिनीति निगदनं समीचीनदृष्टेर्वर्णजननम् । सर्वज्ञतावीतरागते नाईति विद्य ते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एव प्राणभृतः इत्यादिरहंतामवर्णवादः । स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यालंकारादिविरहितानां सिद्धानां सुखं न किंचिदतीन्द्रियाणां तेषां समधिगतो न निबंधनमस्ति किंचिदिति सिद्धावर्णवादः । _स्वकल्पनाभिरयमहन्नेष सिद्धादिः इत्यचेतनस्य व्यवस्थापनायामपि दारिकाणां कृत्रिमपुत्र कव्यवहृतिरिव अपेक्षा न करके कल्याणमें लगे रहते हैं, मोक्षपुरीको प्राप्त करानेमें समर्थ निर्मल मार्गमें स्थित होते हैं, दूसरे भी विनम्र शिष्योंको मोक्ष मार्गमें लगाते हैं, विस्तृत और अतिधवल ज्ञान और महान् दर्शनरूपी उनके नेत्र होते हैं । वे कुलीन, विनीत, निर्भय, मानरहित, रागरहित, शल्यरहित, मोहरहित होते हैं । वचनमें और तप तथा तेजमें अद्वितीय होते हैं इस प्रकार कहना आचार्यका वर्णजनन है। उपाध्याय श्रुतके अर्थके ज्ञाता होनेसे वाच्य और वाचकके अनुरूप अर्थात् जिस शब्दका जो अर्थ है वही यथार्थ रूपसे व्याख्यान करते हैं। निद्रा, आलस्य और प्रमादसे दूर रहते हैं, वे अच्छे चरित, अच्छे शील और उत्तम मेघासे सम्पन्न होते हैं, ऐसा कहना उपाध्यायका वर्णजनन है । रत्नत्रयकी प्राप्ति न होनेसे यह अनादि निधन भी भव्य जीवराशि अनन्तकालसे मोक्षपुरीको नहीं जा पाती । उसके प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण सम्पदाएं सुलभ हैं इस प्रकार मोक्षमार्गकी प्रशंसा करना मार्ग वर्णजनन है। सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व पटलको उखाड फेकनेमें समर्थ है, ज्ञानको निर्मल करता है, अशुभ गतिमें गमनको रोकता है, मिथ्यादर्शनका विरोधी है ऐसा कथन समीचीन दृष्टिका वर्णजनन हैं। अर्हन्त भगवान्में सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं होती, सभी प्राणी रागादि और अज्ञानसे युक्त होते हैं इत्यादि कहना अहंन्तोंका अवर्णवाद है अर्थात् यह मिथ्यादोष लगाना है। स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला अलंकार आदिसे रहित सिद्धोंको कुछ भी सुख नहीं है। वे तो अतीन्द्रिय हैं उनको जाननेका कोई साधन नहीं है, ऐसा कहना सिद्धोंका अवर्णवाद है। अपनी कल्पनासे यही अर्हन्त है और ये सिद्ध आदि हैं इस प्रकार अचेतन पदार्थमें अर्हन्त आदिकी स्थापना करने पर भी जैसे बालिकाएँ खेलमें गुड्डा गुड्डी आदिमें पुत्रादिका काल्पनिक व्यवहार १. या इव भूषणं सूरय इति सूरि-आ० मु०। २. वाच्यमध्यत्यनु-आ० । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो आराधना न मुख्यवस्तूपसेवनोद्भवं फलमुपलभ्यते । न प्रतिबिंबादिस्था अर्हदादयः तद्गुणवैकल्यान्न प्रतिबिंबानामहदादित्वमिति चैत्यावर्णवादः । पुरुषकृतत्वाद्दशदाडिमादिवाक्यवदयथार्थता नातींद्रियं वस्तु पुंसो ज्ञानगोचरं, अज्ञातं चोपदिशतो वचः कथं सत्यं ? तदुद्गतं च ज्ञानं कथं समीचीन मिति श्रुतावर्णवादः । दुर्गतिप्रतिबंधं स्वर्गादिकं च फलं विधत्ते धर्म इति कथमदृष्टं श्रद्वीयते ? न हि सन्निहितकारणस्य कार्यस्यानुद्भवोऽस्ति यथांकुरस्य । सुखप्रदायी चेद्धर्मः स्वनिष्पत्त्यनंतरं सुखमात्मनः किं न करोति इति धर्मावर्णवादः । अहिंसादिव्रतपालनोद्यताः साधवः, सूरयोऽध्यापकाश्चेष्यन्ते । अहिंसावतमेवैषां न युज्यते षड्जोवनिकायाकुले लोके वर्तमानाः कथमहिंसकाः स्युः ? केशोल्लुंचनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः ? अदृष्टमात्मनो विषयं, धर्म, पापं, तत्फलं च गदतां कथं सत्यव्रतम् ? इति साध्ववर्णवादः । एवमितरयोरपि । विरुद्धानां एकत्र धर्माणामसंभवात् विरुद्धाभिमतधर्माधिकरणेकवस्तुज्ञापनं न सम्यक् । तदभिरुचेर्न समीचीनता विपर्ययज्ञानानुगतत्वान्मृगतृष्णोदकश्रद्धेव, मिथ्याज्ञानानुगतत्वाच्चरणमपि न सम्यक् । उरगप्रत्ययबलाद्रज्जुपरिहार इवेति प्रवचनावर्णवादः । करती हैं उस तरह मुख्य अर्हन्त आदिकी सेवासे होने वाला फल प्राप्त नहीं होता। तथा प्रतिबिब आदिमें स्थापित अर्हन्त नहीं है क्योंकि उनमें उनके गुण नहीं है इसलिये प्रतिबिम्ब आदि अर्हन्त आदि नहीं है ऐसा कहना चैत्यका अवर्णवाद है । _ अर्हन्तके द्वारा कहा गया श्रुत पुरुषके द्वारा कहा होनेसे 'दस अनार' जैसे वचनोंकी तरह यथार्थ नहीं है । अतीन्द्रिय वस्तु पुरुषके ज्ञानका विषय नहीं हो सकती। और बिना जाने उपदेश देने वालेके वचन कैसे सत्य हो सकते हैं। तथा उनसे होने वाला ज्ञान कैसे सच्चा हो सकता है इस प्रकार कहना श्रुतका अवर्णवाद है। धर्म दुर्गतिको रोकता है और स्वर्गादि फल देता हैं, विना देखे इसपर कैसे श्रद्धा की जा सकती है। जिस कार्यके कारण वर्तमान हों वह कैसे उत्पन्न नहीं होगा जैसे अंकुर । यदि धर्म सुखदाता है तो अपनी उत्पत्तिके पश्चात् ही आत्माको सुख क्यों नहीं करता। ऐसा कथन धर्मका अवर्णवाद है। अहिंसा आदि व्रतोंका पालन करने में जो तत्पर हैं उन्हें साधु, आचार्य और उपाध्याय कहते हैं। किन्तु अहिंसा व्रत ही इनके नहीं हैं । जो छह प्रकारके जीवोंसे भरे संसारमें रहता है वह अहिंसक कैसे हो सकता है ? तथा केशलोच आदिसे जो आत्माको पीड़ा पहुंचाते हैं वे आत्मघातके दोषी क्यों नहीं हैं ? जिन्हें देखा नहीं है ऐसे आत्माके विषय धर्म, पाप, उनका फल कहनेवालोंके सत्यव्रत कैसे हैं, ऐसा कहना साधुका अवर्णवाद है । इसी प्रकार आचार्य और उपाध्यायका भी अवर्णवाद जानना । एक वस्तुमें परस्परमें विरुद्ध धर्म असम्भव है। अतः परस्परमें विरुद्ध धर्मोका आधार एक वस्तुको कहना सम्यक् नहीं है। जो इसमें अभिरुचि रखता है वह सम्यग्दृष्टी नहीं है क्योंकि उसका ज्ञान विपरीत है जैसे मरीचिकामें जलकी श्रद्धा करनेवालेकी श्रद्धा विपरीत है। तथा मिथ्याज्ञानका अनुसारी होनेसे उसका चारित्र भी सम्यक् नहीं है। जैसे सर्प जानकर रस्सीको हटाना सम्यक् नहीं है । इस प्रकारका कथन प्रवचनका अवर्णवाद है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका - एतेषामवर्णवादानामसंभवप्रदर्शनं । पुरुषत्वाद्रथ्यापुरुषवत् सर्वज्ञो वीतरागो वा न भवत्यर्हन् इति साधनमनुपपन्नं । असर्वज्ञतामवीतरागतां चान्तरेण पुरुषता नोपपद्यते इत्यन्यथानुपपत्तेरभावात् । जैमिन्यादयो न सकलवेदार्थज्ञा पुरुषत्वादविपालवत् इति शक्यं वक्तुम् । सर्वज्ञतावीतरागतासिद्धिश्चान्यत्र निरूपितेति मेह प्रतन्यते । दुःखप्रतिकारार्थेषु वस्तुपु मढानां सुखसाधनव्यवहारः शरीरायासमात्र त्वान्न कामिनीसमागमसुखं । वैरूप्यनाशनर्वस्त्रादिभिर्न कृत्यं सिद्धानां । अशरीराणां सकलदुःखापायरूपं सुखं अविकलमनंतज्ञानात्मकं तेष्ववस्थितं । श्रुतं निबंधनं तदधिगमे । शुभोपयोगनिमित्ततार्हदादीनामिव प्रतिबिबानामिति न बुद्धयोप्रेक्षितव्या ॥४६॥ एवं दंसणमाराहंतो मरणे असंजदो जदि वि कोवि ।। सुविसुद्धतिव्वलेस्सो परित्तसंसारिओ होई ॥४७।। एवमित्यनया गाथया असंयतसम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वमाराधयतः फलमाचष्टे एवमिति पूर्वोक्तपरामर्शः । नैर्ग्रन्थ्यमेव मोक्षमार्ग प्रकृष्ट इति । 'सद्दइया' पत्तियया रोचय फासंतया पवयणस्स । सयलस्स जेण एदे सम्मत्ताराहया होति ॥' श्रद्दधानाः शंकादिकमपाकुर्वन्ति उपबृंहणादिभिः सम्यक्त्वस्य शुद्धिं वर्धयन्समीचीनं दर्शनविनयं इन अवर्णवादोंको असम्भव दिखलाते हैं पुरुष होनेसे राह चलते पुरुषकी तरह अर्हन्त सर्वज्ञ वीतराग नहीं हैं । यहाँ पुरुष हेतु ठीक नहीं है क्योंकि असर्वज्ञता और अवीतरागताके विना पुरुष नहीं होता ऐसी अन्यथानुपपत्ति नहीं है। इस तरहसे यह भी कहा जा सकता है कि जैमिनि आदि समस्त वेदार्थके ज्ञाता नहीं हैं, पुरुष होनेसे, जैसे भेड़ चरानेवाला व्यवित । सर्वज्ञता और वीतरागताकी सिद्धि अन्य ग्रन्योंमें कही है इसलिए यहाँ उसका विस्तार नहीं करते। जो वस्तु दुःखका प्रतीकार करनेके लिए हैं, अज्ञानी उन्हें सुखका साधन मान लेते हैं। स्त्री सम्भोग सुख नहीं है वह तो शारीरिक श्रममात्र है । तथा विरूपताको नष्ट करनेवाले वस्त्रोंसे सिद्धोंको क्या करना है ? वे तो शरीर रहित हैं उनमें समस्त दुःखोंका विनाशरूप अनन्तज्ञानात्मक सम्पूर्ण सुख हैं । इसके जाननेके लिए श्रुत वर्तमान है। तथा जैसे अर्हन्त शुभोपयोगमें निमित्त होते हैं उसी तरह उनके प्रतिबिम्ब भी होते हैं। इसलिए यह बौद्धिक कल्पनामात्र नहीं है ।।४६॥ __ गा०--इस प्रकार सम्यग्दर्शनको आराधना करने वाला मरते समय यद्यपि कोई असंयत होता है किन्तु सुविशुद्ध तीव्र लेश्या वाला अल्प संसारी होता है ।।४७|| टी०--'एवं' इत्यादि गाथाके द्वारा सम्यक्त्वकी आराधना करने वाले असंयत सम्यग्दृष्टिका फल कहते हैं। ‘एवं' पद पूर्वोक्त कथनके लिये आया है कि निम्रन्थता ही उत्कृष्ट मोक्ष मार्ग है। मनसे श्रद्धान करने वाले, यही उत्तम है ऐसा वचनसे प्रीति प्रकट करने वाले, संकेतादि से रुचिको दर्शानेवाले और समस्त प्रवचनका अनुष्ठान करने वाले ये सब सम्यक्त्वके आराधक होते हैं । अर्थात् जो श्रद्धान करते हुए शंका आदिको दूर करते हैं और उपवृहण आदिसे सम्यक्त्वको १. संवादार्थ व्याख्यातृभिः सूत्रे पठिता गाथा यथा-मूलारा० । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना संपादयन् । 'दंसणं' श्रद्धानं । 'आराहतो' निष्पादय'न्मरणे' भवपर्ययप्रच्युतिकाले । 'असंजवो जवि वि' यद्यप्यसंयतः । 'सुविसुद्धतिब्वलेस्सो' कषायानुरंजिता योगवृत्तिलेश्या, सा षोढा प्रविभक्ता कृष्णनीलकापोततेजः पद्मशुक्ललेश्याभेदेन । तत्राशुभलेश्यानिरासार्थं सुविशुद्धग्रहणं । तीव्रग्रहणं परिणामप्रकर्षोपादानाय । सुविशुद्धा तीव्रा लेश्या यस्य सुविशुद्धतीव्रलेश्यः । ‘परित्तसंसारिओ' अल्पचतुर्गतिपरिवर्तः । 'होदि' भवति । अल्पसंसारता सम्यक्त्वाराधनायाः फलत्वेन दर्शिता ।।४७|| तत्त्वश्रद्धानपरिणामः कतिभेदः किं फलं इत्यस्य प्रतिवचनमुत्तरप्रबंधः । तत्र भेदप्रतिपादनायाह तिविहा समत्ताराहणा य उक्कस्समज्झिमजहण्णा ॥ उक्कस्साए सिज्झदि उक्कस्सससुक्कलेस्साए ॥४८॥ "तिविहा' त्रिविधा। 'सम्मत्ताराहणा' सम्यक्त्वाराधना। 'उक्कस्समज्झिमजहण्णा' उत्कृष्टमध्यमजघन्या चेति । तत्र 'उक्कस्साए' उत्कृष्ट्या सम्यक्त्वाराधनया । 'सिज्झइ' सिध्यति निवृतिमुपैति । उत्कृष्टशुक्ललेश्यासहितया ॥४८॥ सेसा य हुंति भवा सत्त मज्झिमाए य सुक्कलेस्साए । संखेज्जाऽसंखेज्जा वा सेसा भवा जहण्णाए ॥४९।। 'सेसा' अवशिष्टाः। 'होति' भवन्ति । किं 'भवा' मनुष्यत्वादिपर्यायाः। कति ‘सत्त' सप्त । 'मज्झिमाए य' सम्यक्त्वाराधनया । 'सुक्कलेस्साए' शुक्ललेश्यया मध्यमया वर्तमानस्येत्युभाभ्यां मध्यमशब्दस्य विशुद्धिको बढ़ाते हुए दर्शन विनय करते हैं वे सम्यक्त्वके आराधक हैं। मरण अर्थात् भवपर्यायके छुटने के समय यद्यपि असंयत होता है किन्तु जो सम्यग्दर्शनको धारण किये होता है और सुविशुद्ध तीव्रलेश्या वाला होता है । कषायसे रंगी हुई मन वचन कायकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । उसके कृष्ण, नील, कपोत, तेज, पद्म और शुक्लके भेदसे छह भेद हैं। उनमें अशुभ लेश्या का निराकरण करनेके लिये 'सुविशद्ध' पद ग्रहण किया है। तथा परिणामोंका प्रकर्ष बतलानेके लिए तीव्र पद ग्रहण किया है। जिसके सुविशुद्ध तीव्र लेश्या होती है वह सुविशुद्ध तीव्र लेश्या वाला होता है । वह चतुर्गतिरूप परिवर्तमें अल्पकाल तक भ्रमण करता है। इस प्रकार सम्यक्त्वकी आराधना का फल अल्प संसार बतलाया है ॥४७॥ तत्त्वश्रद्धानरूप परिणामके कितने भेद हैं तथा उसका क्या फल है इसके उत्तरमें आगेका कथन करते हुए पहले भेद कहते हैं गा०--सम्यक्त्वकी आराधना तीन प्रकारकी है। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या सहित, उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधनामें मोक्ष प्राप्त करता है ॥४८॥ टी०–सम्यक्त्व आराधनाके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद हैं । उत्कृष्ट शुक्ल लेश्याके साथ यदि उत्कृष्ट आराधना सम्यक्त्वकी हो तो उससे मोक्ष प्राप्त होता है ।।४८।। गा०-और मध्यम शुक्ल लेश्याके साथ मध्यम सम्यक्त्वाराधनासे सात मनुष्य आदि पर्याय शेष होती है। जघन्य सम्यक्त्वाराधनासे संख्यात अथवा असंख्यात (भव) भव अवशेष रहते हैं ॥४९॥ टी०--गाथामें आये मध्यम शब्दका सम्बन्ध दोनोंमें लगाकर व्याख्यान करना चाहिये । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका संबंधो व्याख्येयः । 'संखेज्जा' संख्याताः 'असंखेज्जा वा' असंख्याता वा 'सेसा' शेषा भवन्ति भवाः । 'जहण्णाए' जघन्यसम्यक्त्वाराधनया मृतिमुपेतस्य । उक्तास्तिस्र आराधनाः कस्य भवंति इत्यस्योत्तरमाह गाथया उक्कस्सा केवलिणो मज्झिमया सेससम्मदिट्ठीणं । अविरदसम्मादिट्ठिस्स संकिलिट्ठस्स हु जहण्णा ॥५०॥ उत्कृष्टा सम्यक्त्वाराधना भवति । कस्य, 'केवलिणो' केवलिनः । केवलमसहायं ज्ञानं । इंदियाणि, मनः, प्रकाशोपदेशादिकं वानपेक्ष्य वृत्तः । प्रत्यक्षस्यावध्यादेः आत्मकारणत्वादसहायतारतीति केवलत्वप्रसंगः स्यादिति चेन्न रूढेनिराकृताशेषज्ञानावरणस्योपजायमान एव बोधे केवलशब्दवृत्तेः । केवलिशब्दो यद्यपि सामान्येन केवलिद्वये प्रवृत्तस्तथापीह अयोगिकेवलिग्रहणं इत्यन्यत्र मरणाभावात् ।। उत्कृष्टता कथं सम्यक्त्वाराधनाया इति चेत इह द्विविधं सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वं वीतरागसम्यवत्वं चेति । रागो द्विविधः प्रशस्तरागः अप्रशस्तराग इति । तत्र प्रशस्तरागो नाम पंचगुरुषु, प्रवचने च वर्तमानस्तद् अर्थात् मध्यम शुक्ल लेश्यामें वर्तमान मध्यम सम्यक्त्वाराधना वालेके सात भव शेष रहते हैं । और जघन्य सम्यक्त्वाराधनाके साथ मरने वालेके संख्यात अथवा असंख्यात भव शेष होते है ।।४९।। विशेषार्थ---पं० आशाधरने अपनी टीकामें कहा है कि अन्य टीकाकार 'संखेज्जा-संखेज्जा भवाय' ऐसा पढ़कर 'भवाश्च' में आये शब्दसे अनन्तका समुच्चय करते हैं किन्तु हम 'वा' शब्दसे करते हैं । परन्तु विजयोदयामें 'च' शब्द या वा शब्दसे अनन्तका ग्रहण नहीं किया है ।।४।। उक्त तीन आराधनाएँ किसके होती हैं इसका उत्तर आगेकी गाथासे कहते हैं गा०-उत्कृष्ट आराधना केवलीके होती है । मध्यम आराधना शेष सम्यग्दृष्टियोंके होती है। जघन्य आराधना संवलेश परिणाम वाले अविरत सम्यग्दृष्टिके होती है ।।५०॥ टी०-उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधना केवलीके होती है। केवल अर्थात् असहाय ज्ञान; क्योंकि वह इन्द्रियां, मन, प्रकाश और उपदेश आदिकी अपेक्षाके बिना होता है। ___शंका-प्रत्यक्ष अवधि आदि ज्ञान आत्मासे ही होते हैं। वे भी इन्द्रियादिकी सहायताकी अपेक्षा नहीं रखते, अतः उनके भी केवल ज्ञान होनेका प्रसंग आयेगा? समाधान--नहीं, क्योंकि रूढ़िवश जिसका सम्पूर्ण ज्ञानावरण नष्ट हो गया है उसीके उत्पन्न होने वाले ज्ञानमें केवल शब्दका व्यवहार होता है। यद्यपि केवली शब्द सामान्यसे दोनों प्रकारके केवलियों में प्रवृत्त होता है तथापि यहाँ अयोग केवलीका ग्रहण किया है क्योंकि सयोग केवलीका मरण नहीं होता। शंका--सम्यक्त्व आराधनाकी उत्कृष्टता कैसे होती है ? समाधान-यहाँ सम्यक्त्वके दो भेद हैं-सरागसम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व । रागके दो भेद हैं-प्रशस्तराग और अप्रशस्त राग। उनमेंसे अर्हन्त सिद्ध आदि पाँच परमेष्ठियोंमें और १. मानस्यैव बोधस्य आ० मु० । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना गुणानुरागत्मकः । अप्रशस्तो रागो द्विविधः इंद्रियविषयेषु मनोज्ञेषु जायमानः । आप्ताभासेपु, तत्प्रणीते सिद्धांते, तन्निरूपिते मार्गे, तत्स्थेषु वा प्रवर्तमानः दृष्टिरागः इति । तत्र प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सरागसम्यग्दर्शनं । रागद्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्शनं । तस्याराधना उत्कृष्टा रागमलाभावात् अशेषत्रिकाल गोचरवस्तुयाथात्म्यग्राहिसकलज्ञानसहचारित्वाच्च । ९६ 'मज्झिमगा' मध्यमिका सम्यक्त्वाराधना भवति । 'सेससम्मदिट्ठीणं' उपयुक्तेतरवचनः शेषशब्दः इति केवलिभ्यो येऽन्येऽसंयतसम्यग्दृष्टघादयस्त्रे परिगृह्यन्ते शेषशब्देन । तत्रापवादमाह्—‘अविरदसम्मादिट्टिस्स' असंयतसम्यग्दृष्टेः । 'जहण्णा' जघन्या सम्यक्त्वाराधना भवति । किं सर्वस्य ? नेत्याह - "संकिलिट्ट्ठस्स' संक्लिष्टस्य परीषहव्याकुलचेतसः इति यावत् । जघन्यसम्यक्त्वाराधनामाहात्म्यं कथयति— संखेज्जमसंखेज्जगुणं वा संसारमणुसरित्तूणं । दुक्खक्खयं करेंति जे सम्मत्तेणणुमरंति ॥ ५१ ॥ 'संखेज्जमंसखेज्जगुणं वा संसार मणुसरित्तूर्ण' परिभ्रम्य । 'दुक्खक्खयं' दुःखक्षयं । 'कति' कुर्वन्ति । के 'जे सम्मत्तेणणुम रंति' सम्यक्त्वेन सह मृतिमुपयान्ति । नन्वियं जघन्या सम्यक्त्वाराधना तस्यां च प्रवृत्तस्य संसारकालो निरूपित एव । 'संखेज्जं वा असंखेज्जं वा सेसा जहण्णाए' इति तत्पुनरुक्तता स्यादिति । न, प्रवचनमें. उनके गुणोंमें अनुराग रूप प्रशस्तराग है । अप्रशस्त रागके दो भेद हैं एक तो मनको प्रिय लगने वाले इन्द्रिय विषयोंमें होनेवाला और दूसरा, मिथ्या देवों में, उनके द्वारा कहे गये सिद्धान्तमें, उनके द्वारा कहे गये मार्ग में अथवा उस मार्ग के अनुयायियों में प्रवर्तमान दृष्टिराग । उनमें से प्रशस्त राग सहित जीवोंका श्रद्धान सरागसम्यग्दर्शन है और दोनों प्रकारके रागसे रहित तथा जिनका मोह और आवरण क्षीण हो गया है उनका श्रद्धान वीतराग सम्यग्दर्शन है । उसकी आराधना उत्कृष्ट है । क्योंकि राग और मलका अभाव है तथा समस्त त्रिकालवर्ती पदार्थोंके यथार्थं स्वरूपको ग्रहण करनेवाले सम्पूर्ण ज्ञानके साथ होता है । शेष सम्यग्दृष्टियोंके मध्यम सम्यक्त्वाराधना होती है । यहाँ शेष शब्द जो कहे हैं उससे अन्यका वाचक है, अतः केवलीसे अन्य जो असंयत सम्यग्दृष्टि हैं वे शेष शब्दसे ग्रहण किये जाते हैं । उसमें अपवाद कहते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टिके जघन्य सम्यक्त्वाराधना होती है । क्या सभीके होती है । इसके उत्तर में कहते हैं जो संक्लिष्ट है अर्थात् जिसका चित्त परीषहसे व्याकुल है उस अविरत सम्यग्दृष्टीके जघन्य सम्यक्त्वा राधना होती है ॥५०॥ जघन्य सम्यक्त्वाराधनाका माहात्म्य कहते हैं गा० - जो सम्यक्त्वके साथ मरते हैं वे असंख्यात अथवा असंख्यातगुणे संसारमें भ्रमण करके दुःखका क्षय करते हैं ॥ ५१ ॥ टी० - शंका - यह तो जघन्य सम्क्त्वाराधना है । उसे जो करता है उसका संसार काल पहले कहा ही है कि जघन्य सम्यक्त्वाराधनावालेके संख्यात या असंख्यात भव शेष रहते हैं । अतः पुनरुक्तता दोष आता है ? Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका उक्तस्यार्थस्याविशेषेण भूयोऽभिधानं पुनरुक्तमिति, इह तु विशेषाभिधानमस्ति 'दुक्खक्खयं करेंतित्ति' । सम्यक्त्वलाभमाहात्म्यनिवेदनाय गाथा लध्दण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति । तेसिमणंताणंता ण भवदि संसारवासद्धा ॥५२॥ 'लक्ष्ण' लब्ध्वा । 'सम्मत्तं' तत्त्वश्रद्धान । कियत्कालं ? 'महत्तकालमवि' अंतर्मुहूर्तमात्रमपि । 'ज' ये 'परिवडंति' सम्यक्त्वात्प्रच्यवन्ति अनंतानुबंधिनामुदयात् । तसि' तेषां सम्यक्त्वात्प्रच्युत्य मिथ्यात्वं गतांनां । 'संसारवासद्धा' संसारवसनकालोऽनंतो भवत्येवेति, तु शब्द एवकारार्थोत्र संबंधनं नेयः। अनंतानंतग्रहणं कुर्वता अनंतकालपरिभ्रमणसद्भावसूचनं कृतम् ॥५२॥ इति बालमरणम् ॥ जे पुण सम्मत्ताओ पन्भट्ठा ते पमाददोसेण । . भामन्ति दु भन्वा वि हु संसारमहण्णवे भीमे ॥५३॥ मिथ्यादृष्टेर्दर्शनस्याभावान्न तस्याराधकः स्यात् ज्ञानचारित्रयोः परिणत इति तयोराराधकः स्यादितीमां शंकामपाकर्तुमाह जो पुण मिच्छादिट्ठी दढचरित्तो अदढचरित्तो वा ।। कालं करेज्ज ण हु सो कस्स हु आराहओ होदि ॥५४॥ समाधान नहीं, जो बात पूर्व में कही है उसे बिना किसी विशेषताके पुनः कहनेको पुनरुक्त कहते हैं। किन्तु यहाँ तो विशेष कथन है कि दुःखका क्षय करते हैं ॥५१॥ सम्यक्त्वका माहात्म्य कहनेके लिये गाथा कहते हैं गा०-जो अन्तमुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यक्त्वसे गिर जाते हैं उनका संसारमें बसनेका काल अनन्तानन्त नहीं होता ॥५२॥ टी०-एक अन्तमुहर्त कालके लिये भी जो तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी कषायका उदय होनेसे सम्यक्त्वसे गिर जाते हैं। सम्यक्त्वसे गिरकर मिथ्यात्वमें जाने वाले उन जीवोंका संसारमें बसनेका काल अनन्त ही होता है। 'अनन्तानन्तकाल नहीं होता' ऐसा कहनेसे अनन्तकाल तक भ्रमणके सद्भावकी सूचना की है ॥५२॥ गा०-पुनः जो सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो जाते है। वे प्रमादके दोषसे भव्य होते हुए भी भयंकर संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करते ही हैं ॥५॥ विशेषार्थ-इस गाथापर विजयोदया टीका नहीं हैं । आशाधर जी ने भी इसकी टीका नहीं की है । अतः क्षेपक प्रतीत होती है। किन्तु प्रतियोंमें पाई जाती है । तथा गाथा ५२ की विजयोदया टीकामें 'तु शब्दो एवकारार्थोऽत्र संबंधनं नेयः' ऐसा वाक्य है जिसका अर्थ होता है कि यहाँ तु शब्दका अर्थ एवकार लेना। 'आ' प्रतिमें पाठ हैं-'तु शब्दो एवकारार्थो भामत्य तु शब्दका अर्थ एवकार है और उसे 'भामंति' के अनन्तर लेना चाहिये। इस गाथा ५३ में 'भामंति दु' पाठ है । इसी दु या तु का अर्थ एवकार लेनेके लिये कहा है। अतः यह गाथा मूलकी होना संभव है ॥५३॥ मिथ्यादृष्टिके सम्यग्दर्शनका अभाव होनेसे वह उसका आराधक न होवे, किन्तु ज्ञान और १. कारार्थो भामंत्यनन्तर नयः । -आ० ! १३ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ भगवती आराधना 'जो पुण मिच्छाक्छिी' यः पुनमिथ्यादृष्टिस्तत्त्वश्रद्धानरहितो। यः पुन'ढचरित्तो अदढचरित्तो वा' दृढचारित्रो वा अदृढचारित्रो वा । 'कालं करेज्ज' मृतिमुपेयात् । 'सो' सः । 'ण खु' नैव । 'कस्सई' कस्यचिदपि । 'माराधगो' आराधको भवति । सम्यक्त्वमंतरेण सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रे न स्तः, इति रत्नत्रये कस्यचिदपि नाराधक इति ग्राह्यम् । अन्यथा मिथ्यादर्शनादीनामाराधक एवासौ इति कृत्वा न कस्यचिदपि इत्ययुक्तं स्यात् ॥५४॥ अथ को मिथ्यादृष्टिर्यो मिथ्यात्ववान् । अथ तदेव मिथ्यात्वं नाम किं कतिविधं इत्यत आह तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं । संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च तं तिविहं ॥५५॥ 'त' तत् । 'मिच्छत्तं' मिथ्यात्वं । 'होदि' भवति । 'ज' यत् 'असद्दहणं' अश्रद्धानं । कस्य ? 'तच्चाणं' 'अत्थाणं' तत्वार्थानामनंतद्रव्यपर्यायात्मकानां जीवादीनां । अर्थस्य तत्त्वविशेषणमनर्थकम् । अतत्त्वरूपस्याभावात् इति चेन्न मिथ्याज्ञानोपदर्शितस्य नित्यत्वक्षणिकत्बाद्यन्यतमधर्ममात्रात्मकस्यातत्त्वरूपसंभवात् । तस्य भावस्तत्वं तत्त्वशब्दो भाववचनः । भाववत्वमर्थशब्दो ब्रवीति । ततोऽनयोभिन्नाधिकरणभृतोः कथं समानाधिकरणतेति न दोषः। भावदव्यतिरेकाद्भावस्य तत्त्वशब्दोऽर्थएव वर्तते इति । तथा च प्रयोगः-- चारित्र तो उसके है अतः वह उनका आराधक हो सकता है ? इस शंकाको दूर करने के लिए कहते हैं गाo-जो पुनः मिथ्यादृष्टि हैं वह दृढ़ चारित्र वाला अथवा अदृढ़ चारित्र वाला हो और मरण करे तो वह किसीका भी आराधक नहीं ही होता ॥५४॥ टी०-जो मिथ्यादृष्टि अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानसे रहित है वह दृढ़ चारित्र वाला हो या अदृढ़ चारित्र वाला हो और मरण करे तो वह ज्ञान या चारित्रका भी आराधक नहीं होता; क्योंकि सम्यक्त्वके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र नहीं होते। इसलिये रत्नत्रयमें से किसी का भी वह आराधक नहीं है ऐसा अर्थ लेना चाहिये । यदि ऐसा अर्थ नहीं लिया जाये तो मिथ्यादर्शन आदिका वह आराधक ही होनेसे 'किसीका भी आराधक नहीं' ऐसा कहना ठीक नहीं होगा ।।५४|| जो मिथ्यात्ववान् है वही मिथ्यादृष्टी है। तब वह मिथ्यात्व क्या है और उसके कितने भेद हैं ? यह कहते हैं गा०-जो तत्त्वार्थोंका अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है उसके तीन भेद है । संशयसे होनेवाला मिथ्यात्व, अभिगृहीत मिथ्यात्व और अनभिगृहीत मिथ्यात्व ॥५५॥ .टी०-तत्त्वार्थ अर्थात् अनन्त द्रव्य पर्यायात्मक जीवादिका अश्रद्धान मिथ्यात्व है। शंका-अर्थका तत्त्व विशेषण देना निरर्थक है क्योंकि अतत्त्वरूप अर्थका अभाव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्याज्ञानके द्वारा दिखलाये गये नित्यता क्षणिकता आदिमेंसे किसी एक धर्म वाला अतत्त्वरूप अर्थ संभव है। शंका-तत्के भावको तत्त्व कहते हैं । तत्त्व शब्द भाव वाचक है और अर्थ शब्द भाववान् को कहता है। अतः ये दोनों भिन्न-भिन्न अधिकरण वाले हैं। इनका सामानाधिकरण्य कैसे हो सकता है ? समाधान-यह दोष नहीं है क्योंकि भाव भाववान्से अभिन्न होता है अतः तत्त्वशब्द Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति'। अथवाप्यधिकरणतव । अर्थानां जीवादीनां यानि तत्वानि अविपरांतानि रूपाणि तेषामश्रद्धानं यत्तन्मिथ्यात्वं इति संबंधः क्रियते । 'संसयिदं' संशयितं किंचित्तत्त्वमिति । तत्वानवधारणात्मक संशयज्ञानसहचारि अश्रद्धानं संशयितं । न हि संदिहानस्य तत्त्वविषयं श्रद्धानमस्ति इदमित्थमेवेति, निश्चयप्रत्ययसहभावित्वात् श्रद्धानस्य । 'अभिग्गहिदं' परोपदे'शाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतं अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते । एतदुक्तं भवति । न संति जीवादीनि द्रव्याणि इति गृहाण संति जीवादीनि नित्यान्येवेति यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्वे अनेकांतात्मकत्वे चोपजातं अश्रद्धानं अरुचिमिथ्यात्वमिति । परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वं ॥५५॥ मिथ्यात्वदोपमाहात्म्यख्यापनायाह जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होति ॥ ते तस्स कडुगदुद्धियगदं च दुद्धं हवे अफला ॥५६॥ 'जे वि' हिंसा नाम प्रमादवतः प्राणेभ्यो वियोगकरणं प्राणिनस्ततो निवृत्तिरहिंसा। असदभिधानाद्विरतिः सत्यम् । अदत्तादानाद्विरतिरस्तेयं मैथनाद्विरतिव्रह्म। ममेदं भावो मोहोदयजःपरिग्रहः । ततो निवृत्तिरपरिग्रहता। एते अहिंसादयो गुणाः परिणामा धर्म इत्यर्थः ।। __ ननु सहभुवो गुणा इति वचनात् चैतन्यामूर्तत्त्वादीनामेवात्मनः सहभुवां गुणता। हिंसादिभ्यो विरतिअर्थमें रहता है। ऐसा प्रयोग भी देखा जाता है-जैसे तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। अथवा अन्य प्रकारसे भी अधिकरणता है-'अर्थ' अर्थात् जीवादिके, जो 'तत्त्व' अर्थात् अविपरीत रूप हैं उनका श्रद्धान न करना मिथ्यात्व है ऐसा सम्बन्ध किया जाता है। तत्त्वका निर्णय न करने वाले संशय ज्ञानका सहचारी जो अश्रद्धान है वह संशयित मिथ्यात्व है। जो संदेहमें है उसके तत्त्वविषयक श्रद्धान नहीं है क्योंकि श्रद्धान 'यह ऐसा ही है' इस प्रकारके निश्चयात्मक ज्ञानके साथ ही रहता है। परोपदेशकी मुख्यतासे गृहीत अर्थात् स्वीकार किया गया अश्रद्धान अभिगृहीत कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि 'जीवादि द्रव्य नहीं हैं यह स्वीकार करो। या जीवादि हैं किन्तु नित्य ही हैं। इस प्रकार जब दूसरेके वचनको सुनकर जीवादिके अस्तित्वमें या उनके अनेकान्तात्मक होने में जो अश्रद्धान या अरुचि उत्पन्न हो वह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और परोपदेशके बिना भी मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जो अश्रद्धान उत्पन्न होता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है।।५५।। गा०-जो भी अहिंसा आदि गुण मरते समय मिथ्यात्वके द्वारा दूषित होते हैं, वे उस दूषित गुण वाले आत्माके कडुवी तूंबीमें रखे गये दूधकी तरह निष्फल होते हैं ।। ५६ ।।। टो०-प्रमादवानके द्वारा प्राणिके प्राणोंका वियोग करना हिंसा है। उस हिंसासे निवृत्तको अहिंसा कहते हैं । असत् कहनेसे निवृत्तिको सत्य कहते हैं। बिना दी हुई वस्तुके ग्रहणसे विरतिको अचौर्य कहते हैं । मैथुन सेवनसे विरतिको ब्रह्मचर्य कहते हैं। मोहके उदयसे होने वाले 'यह मेरा है' इस प्रकारके भावको परिग्रह कहते हैं। उससे निवृत्तिको अपरिग्रह कहते हैं। ये अहिंसा आदि गुण अर्थात् अहिंसादि रूप परिणाम धर्म है। शङ्का-जो द्रव्यके साथ होते हैं वे गुण हैं ऐसा वचन है। उसके अनुसार चैतन्य अमूर्तत्व १. यद्देशा-आ० मु०। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० भगवती आराधना परिणामः पुनः कादाचित्कत्वात् मनुष्यत्वादिक्रोधादिवत्पर्याया, इति चेन्ननु गुणपर्ययवद्रव्यमित्यादावुभयोपादाने अवांतरभेदोपदर्शनमेतद्यथा 'गोबलीवर्दम्' इत्युभयोरुपादाने पुनरुक्ततापरिहृतये स्त्रीगोशब्दवाच्या इति कथनमेकस्यैव गुणशब्दस्य ग्रहणे धर्ममात्रवचनता। अहिंसादयश्च ते गुणाः अहिंसादिगुणाः । 'मिच्छत्तकडुगिदा' मिथ्यात्वेन तत्त्वाश्रद्धानेन । कडुगिदा कटूकृताः कटुकतां गताः । ‘होंति' भवति । कदा मरणे मरणकाले ते अफला भवंति । कस्य मिथ्यात्वकटूकृताहिंसादिगणस्यात्मनः । किमिव ? दुद्धवं क्षीरमिव । कीदृग्भूतं ? 'कडुअदुद्धियगदं' कटकालाबूपगतम् यथा अफलं फलरहितं । पित्ताद्युपशमनं प्रीतिरित्यादिकं यत्फलं क्षीरस्य प्रतीतं तेन फलेन अफलं जातम् । यथा क्षीरं भाजनदोषादेवं मिथ्यात्ववत्यात्मनि स्थिता अहिंसादिगुणा स्वसाध्येन फलेन न फलवंतः । पंचानुत्तरविमानवासित्वं लोकांतिकत्वमित्याद्यभ्युदयफलमिह गृहीतं । अहिंसादयो न स्वोचितफलातिशयदायिनः दुष्टभाजनस्थितत्वात् कटुकालाबुकगतपयोवदिति सूत्रार्थः ॥५६॥ न केवलं फलातिशयाकारित्वं अहिंसादिगुणानां, अपि तु मिथ्यात्वकटुकिते स्थिता दोषानपि कुर्वन्ति इत्याचष्टे जह भेसजं पि दोसं आवहइ विसेण संजुदं संतं ॥ तह मिच्छत्तविसजुदा गुणा वि दोसावहा होति ।।५७॥ 'यथा भेसजं पि' इति स्पष्टतया न व्याख्यायते। 'मिच्छत्तविसजुदा' मिथ्यात्वेन विषेण संबद्धाः आदि जो आत्माके साथ रहते हैं वे ही गुण हैं । हिंसादिके त्याग रूप परिणाम तो कभी होते हैं, कभी नहीं होते । अतः मनुष्यत्वकी तरह या क्रोधादिकी तरह पर्याय हैं, गुण नहीं हैं ? ___ समाधान-'गुण पर्यायवान्को द्रव्य कहते हैं' इत्यादिमें गुण और पर्याय दोनोंका ग्रहण किया है । जैसे 'गोवलोवर्द' यहाँ गो और बलीवर्द दोनोंको ग्रहण करने पर पुनरुक्तता दोष आता है क्योंकि दोनों शब्दोंका अर्थ एक है। इस पुनरुक्तता दोषको हटानेके लिये 'गो' शब्द गायका वाचक है ऐसा कहा है । एक गुण शब्दका ग्रहण करने पर वह धर्ममात्रको कहता है अतः कोई दोष नहीं है । वे अहिंसादि गुण मरते समय यदि तत्त्वके अश्रद्धान रूप मिथ्यात्नसे दूषित होते हैं तो मिथ्यात्वसे दूषित अहिंसा आदि गुण वाले आत्माके कटुक तूम्बीमें रखे दूधकी तरह निष्फल होते हैं । दूधका फल चित आदिको शान्त करना प्रसिद्ध है। किन्तु भाजनमें दोष होनेसे वह दूध फल रहित होता है । इसी तरह मिथ्यात्ववान् आत्मामें रहने वाले अहिंसा आदि गुण अपना साध्य जो फल है उससे फलवान नहीं हैं। यहाँ पाँच अनुत्तर विमानका वासी देव होना या लोकान्तिकदेव होना इत्यादि अभ्युदयरूप फलका ग्रहण किया है। अतः कटुक तूम्बीमें रखे दूधकी तरह सदोष भाजनमें रहनेके कारण अहिंसा आदि अपने उचित फलातिशयको नहीं देते, यह गाथा सूत्रका अभिप्राय है ।। ५६ ॥ अहिंसा आदि गुण केवल फलातिशयकारी ही नहीं हैं, बल्कि मिथ्यात्वसे कलुषित आत्मामें स्थित अहिंसादि दोष भी करते हैं, यह कहते हैं गा-जैसे औषध भी विषसे सम्बद्ध होने पर दोष करती है। उसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी विषसे सम्बद्ध अहिंसा आदि गुण भी दोषकारी होते हैं ।। ५७ ।। टो०-विष मिश्रित औषधकी तरह मिथ्यात्वरूपी विषसे सम्बद्ध अहिंसा आदि गुण भी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १०१ 'गुणा वि' गुणा अपि अहिंसादयो गुणा अपि । 'दोसावहा' दोषावहाः संसारे चिरपरिभ्रमणदोषमावहन्तीत्यर्थः । अथवा मिथ्यादृष्टेर्गुणाः पापानुबंधि स्वल्पमिन्द्रियसुखं दत्वा बहारंभपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयन्ति इति दोषावहाः । दृष्टान्तप्रदर्शनेन इष्टनिर्वृतिः । प्राप्तिश्च मिथ्यात्वमाहात्म्यान्न भवतीति प्रमाणेन दर्शयितु गाथाद्वयमायातम् ॥५७॥ दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो समिच्छिदं देतं । अणतो गच्छंतो जह पुरिसो णेव पाउणदि ||५८ || इत्यनेन प्रकृष्टगमनसामर्थ्याद्भमण' माख्यातम् । 'अण्णंतो गच्छंती' इत्यनेन तन्मार्गाप्रवृत्तत्वात् इत्ययं हेत्वर्थो दर्शिताः । तेन इष्टं देशं न प्राप्नोतीति साध्यधर्मो दृष्टान्तेनोपदर्शितः । 'सगिच्छदं देसं जह पुरिसो व पाउणवि इत्यनेन दृष्टान्त उपदर्शितः ॥ ५८॥ धणिदं पि संजमतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावेई । इट्ठ णिव्वुइमग्गं उग्गेण तवेण जुत्तों वि ॥५९॥ 'घणिदं' पि नितरामपि । 'संजमंतो' चारित्रे वर्तमानोऽपि । 'उश्गेण तवेण जुत्तोवि' उग्रेण तपसा युक्तोपि, नैव निर्वृतिं प्राप्नोति इत्यनेन साध्यधर्माख्यानम् । मिच्छादिट्ठी इत्यनेन साध्यधर्मि दर्शितम् । एवं प्रमाणरचना कार्या— मिथ्यादृष्टिनैवेष्टं प्राप्नोति तन्मार्गावृत्तित्वात् । यः स्वप्राप्यस्य मार्गे न प्रवर्तते न स तमभिमतं प्राप्नोति । यथा दक्षिणमथुरातः पाटलिपुत्रं प्राप्तुमिच्छुः दक्षिणां दिशं गच्छन्निति । 'विदि' निवृति | दोषावह होते हैं अर्थात् संसार में चिरकाल तक भ्रमणरूपी दोषको करनेवाले होते हैं । अथवा मिथ्यादृष्टि गुण पापका बन्ध करानेवाले थोडेसे इन्द्रिय सुखको देकर बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह में आसक्त उस जीवको नरकमें गिराते हैं यह दोष कारक है । दृष्टान्त द्वारा दिखलाने से मिथ्यात्वके माहात्म्यसे इष्टकी उत्पत्ति और प्राप्ति नहीं होती, यह प्रमाण द्वारा बतलानेके लिए दो गाथाएँ आई हैं । गा०—जैसे एक दिनमें सौ योजन भी चलनेवाला यदि अन्य मार्गसे जाता है तो वह पुरुष अपने इच्छित देशको नहीं प्राप्त होता || ५८|| टी०—इससे चलनेको उत्कृष्ट सामर्थ्य होनेसे संसार भ्रमण कहा है । अन्यत्र जानेवाला' इस पदसे 'अपने मार्गपर न चलने से' इस हेतु अर्थको दिखलाया है । अपने इच्छित देशमें न पहुँचने में हेतु है उसका सही मार्ग से न चलना । इष्ट देशको प्राप्त नहीं होता' यह साध्य धर्मं दृष्टान्त द्वारा बतलाया है । अर्थात् प्रतिदिन सौ योजन चलनेवाला मनुष्य अपने इष्ट स्थानको प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह सही मार्गसे नहीं जाता ||१८|| गा० - उसी प्रकार अत्यन्त भी चारित्रका पालन करनेवाला उग्र तप करते हुए भी मिथ्यादृष्टि इष्ट प्रधान मोक्ष नहीं पाता ॥५९॥ टो० - मिथ्यादृष्टि इष्टको प्राप्त नहीं करता, क्योंकि इष्टके मार्गपर नहीं चलता । जो o अपने इष्टकी प्राप्ति मार्गपर नहीं चलता, वह अपने इष्टको प्राप्त नहीं करता । जैसे दक्षिण १. बलमाख्यातं - अ० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भगवती आराधना 'अग्गं' अग्र्यां । अथवा निर्वृतिस्तुष्टिर्यथा मनसो निर्वृतिर्मनस्तुष्टिरित्यर्थः । निवृतेमार्गमुपायं क्षायिकज्ञानचारित्राख्यम् । स्पष्टतया न प्रतिपदं व्याख्या कृता ॥५९॥ व्रतेन शीलेन तपसा वा युक्तोऽपि मिथ्यात्वदोषाच्चिरं संसारे परिभ्रमति इतरस्मिन्त्रतादिहीने किं वाच्यमिति दर्शयति- जस्स पुण मिच्छदिट्ठिस्स णत्थि सीलं वद गुणो वावि । सो मरणे अप्पाणं किहण कुणई दीहसंसारं ॥ ६० ॥ स्वल्पापि मिथ्यात्वविषकणिका कुत्सितासु योनिषु उत्पादयति किमस्ति वाच्यं सर्वस्य जिनदृष्टस्याश्रद्धाने इति गाथाया अर्थः ॥ ६० ॥ एक्कं पि अक्खरं जो अरोचमाणो मरेज्ज जिणदिट्ठ || सो वि कुजोणिणिवुड्डो किं पुण सव्वं अरोचंतो ॥ ६१ ॥ एक्कमपीत्यस्य बालबालमरणप्रवृत्तस्य भव्यस्य संख्याता, असंख्याता, अनंता वा भवन्ति भवाः । अभव्यस्य तु अनंतानंताः । मिथ्यादर्शनदोषमाहात्म्यसूचनं संसारमहत्ताख्यापनेन क्रियतेऽनया गाथया ॥ ६१ ॥ संखेज्जासंखेज्जाणंता वा होंति बालबालम्मि || सेसा भव्वस्स भवा णंताणंता अभव्वस्स ||६२ || मथुरासे पाटलीपुत्र जानेका इच्छुक यदि दक्षिण दिशामें जाता हैं तो वह पाटलीपुत्र नहीं पहुँच सकता । उसी तरह मिथ्यादृष्टि भी प्रधानभूत मोक्षको नहीं प्राप्त करता; क्योंकि निर्वृत्ति अर्थात् मोक्षका मार्ग या उपाय क्षायिकज्ञान और क्षायिकचारित्र है अथवा निवृत्तिका अर्थ तुष्टि है । जैसे मनकी निर्वृत्तिका अर्थ मनकी तुष्टि है । अर्थात् उसे अनन्तसुख प्राप्त नहीं होता । स्पष्टरूपसे प्रत्येक पदकी व्याख्या नहीं की है ॥ ५९॥ आगे कहते हैं कि जब व्रत, शील और तपसे युक्त होनेपर भी मिथ्यात्व दोषके कारण चिरकाल तक संसारमें भ्रमण करता है तब जो व्रतादिसे हीन है उसका तो कहना ही क्या हैगा० - जिस मिथ्यादृष्टिके शील व्रत अथवा ज्ञानादि भी नहीं है वह मरनेपर कैसे अनन्त संसार नहीं करता है ॥ ६०॥ टी० - यदि मिथ्यात्वरूपी विषकी छोटी-सी भी कणिका कुत्सित योनियोंमें उत्पन्न कराती है तो जिन भगवान् के द्वारा देखे गये समस्त तत्त्वोंका श्रद्धान न होनेपर तो कहना ही क्या है ? ||६०|| गा०-जिन भगवान् के तो वह भी कुयोनियों में डूबता है, क्या है ॥ ६१ ॥ द्वारा देखा गया एक भी अक्षर जिसे रुचता नहीं है वह मरे तब जिसे सब ही नहीं रुचता उसके सम्बन्ध में तो कहना ही दी०—बालबालमरणसे मरनेवाले भव्य के संख्यात, हैं और अभव्य के तो अनन्तानन्त भव होते हैं । इस गाथासे द्वारा मिथ्यादर्शन दोषके माहात्म्यका सूचन किया है ॥ ६१ ॥ असंख्यात अथवा अनन्त भव होते संसारकी महत्ताका कथन करनेके ★ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका बालबालं गदं संखेज्जा वा इत्यनया। सप्तदशमरणविकल्पेषु पंचमरणान्यत्रोच्यते इति प्रतिज्ञातं । तत्र यत्पंडितमरणं तत्प्रायोपगमनमरणमिगिनीमरणं भक्तप्रत्याख्यानमिति त्रिविकल्पं सूचितं । तत्र भक्तप्रत्याख्यानं प्राग्वर्णनीयमिति दर्शयति सूत्रकारः स्वयमेव सम्बन्धमुत्तरप्रबंधस्य पुव्वं ता वण्णेसिं भत्तपइण्णं पसत्थमरणेसु ।। उस्सण्णं सा चेव हुसेसाणं वण्णणा पच्छा ।।६३।। 'पुग्वं' पूर्व प्रथमं तावत् । 'वणेसि' वर्णयिष्यामि । 'भत्तपइण्णं' भक्तप्रत्याख्यानम् । 'पसत्थमरणेसु' प्रशस्तमरणेषु व्याख्येयेषु निर्धारणलक्षणा चेयं सप्तमी । यथा-कृष्णा गोषु संपन्नक्षीरतमेति समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणं । प्रशस्तमरणसमुदायात व्यवयविकात् भक्तप्रत्याख्यानं पृथग्व्यवस्थाप्यते । पूर्वव्याख्येयत्वेन एतत्कालप्रयोग्यत्वेन गुणेनेति मन्यते। उस्सण्णं नितरां बाहल्येन यावदित्यर्थः । मरणं सा चैव भक्तप्रत्या- . ख्यानमृतिरेव । साध्याहारत्वात्सर्वसूत्रपदानां । एवंह काले इति वाक्यशेषः कार्यः । ___ संहननविशेषसमन्वितानां इतरमरणद्वयं । न च संहननविशेषाः । वज्रऋषभनाराचादयः अद्यत्वेऽमुष्मिक्षेत्र संति गणिनां । 'सेसाणं' शेषयोः प्रायोपगमनस्य इंगिनीमरणस्य च । वण्णणा कथनं । 'पच्छा' इति शेषः । गा०-बाल-बाल मरणसे मरनेपर भव्य जीवके संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त भव शेष होते हैं । अभव्यके अनन्तानन्त भव होते हैं ।।६२।। टी०-इस गाथाके साथ बाल-बालमरणका कथन समाप्त हुआ। मरणके सतरह भेदोंमेंसे यहाँ पांच मरणका कथन करते हैं ऐसी प्रतिज्ञाकी थी । उनमेंसे जो पंडित मरण है उसके प्रायोपगमन मरण, इंगिनी मरण और भक्त प्रत्याख्यान ये तीन भेद सूचित किये थे। उनमें से प्रथम भक्त प्रत्याख्यानका वर्णन करनेकी सूचना ग्रन्थकार आगेकी गाथासे स्वयं करते हैं गा०-प्रशस्त मरणोंमें पहले भक्त प्रत्याख्यानको कहूँगा। क्योंकि वह भक्त प्रत्याख्यान ही बहुतायतसे प्रचलित है । शेष मरणोंका वर्णन पीछे करेंगे ॥६३।। . टी०-जिनका यहाँ व्याख्यान किया जाना है उन प्रशस्त मरणोंमेंसे भक्त प्रत्याख्यानको पहले कहूँगा । यहाँ यह सप्तमी विभक्ति निर्धारण करनेके अर्थमें है, जैसे गौओंमें काली गाय बहुत अधिक दूध देती है। समदायसे उसके एक देशको पथक करनेको निर्धारण कहते हैं। तीन भेद वाले प्रशस्त मरणके समदायसे भक्त प्रत्याख्यानको पथक करते हैं। इस कालमें भक्त प्रल ही पालन करनेके योग्य है इस गुणके कारण उसका प्रथम कथन करना योग्य है। समस्त सूत्रपद अध्याहार सहित होते हैं इसलिये इस कालमें भक्त प्रत्याख्यान मरण ही 'उस्सण्ण' बाहुल्यसे प्रवर्तित है। शेष दो मरण विशेष सहननके धारकोंके होते है। और आजके समयमें गणियोंके वज्रऋषभनाराच आदि सँहनन विशेष इस क्षेत्रमें नहीं होते। इसीसे शेष प्रायोपगमन और इंगिनीमरणका कथन पीछे करेंगे। शंका-यदि आजके मनुष्योंमें उन मरणोंको करनेकी शक्ति नहीं है तो उनका कथन क्यों करते हैं ? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ भगवती आराधना यदि ते वर्तयितुं इदानींतनानामसामयं किं तदुपदेशेनेति चेत् तत्स्वरूपपरिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं । तच्च मुमुक्षूणामुपयोग्येवेति मन्यते ॥६३॥ कतिविकल्पं भक्तप्रत्याख्यानमित्यारेकायामाह दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणं सविचारमध अविचारं ।। सविचारमणागाढे मरणे सपरक्कमस्स हवे ॥६४।। 'दुविधं तु भत्तपच्चक्खाणं' द्विविधमेव भक्तप्रत्याख्यानं । 'सविचारमध अविचारं' इति । विचरणं नानागमनं विचारः । विचारेण वर्तते इति सविचारं । एतदुक्तं भवति । वक्ष्यमाणाहलिंगादिविकल्पेन सहितं भक्तप्रत्याख्यानं इति । अविचारं वक्ष्यमाणा दिनानाप्रकाररहितं । भवतु द्विविधं । सविचारभक्तप्रत्याख्यानं कस्य भवति इत्यस्योत्तरं । सविचारं भक्तप्रत्याख्यानं 'अणागाढे' सहसा अनुपस्थिते मरणे चिरकालभाविनि मरणे इति यावत । 'सपरक्कमस्स' सह पराक्रमेण वर्तते इति सपराक्रमस्तस्य हवे भवेत । पराक्रमः उत्साहः एतेनैव सहसोपस्थिते मरणे पराक्रमरहितस्य अविचारभक्तप्रत्याख्यानं भवतीति लभ्यते 'यतो' विचारभक्तप्रत्याख्यानं अस्य अस्मिन्काले इति सूत्रे नोक्तं ॥६४॥ तयोः कस्य भक्तप्रत्याख्यानस्य अनेन शास्त्रण निरूपणेत्याशंकायां आह सविचारभत्तपच्चक्खाणस्सिणमो उवक्कमो होइ । तत्थ य सुत्तपदाइं चत्तालं होंति णेयाइं ॥६५॥ समाधान-उनके स्वरूपको जाननेसे सम्यग्ज्ञान होता है और वह मुमुक्षुओंके लिए उपयोगी ही है ॥६३॥ भक्त प्रत्याख्यानके भेद कहते हैं गा--भक्त प्रत्याख्यान दो प्रकारका ही है। सविचार और अविचार | सविचार भक्त प्रत्याख्यान सहसा मरणके उपस्थित न होनेपर पराक्रम अर्थात् साहस और बलसे युक्त साधुके होता है ॥६४।। टी०-भक्त प्रत्याख्यान मरणके दो भेद हैं सविचार और अविचार। विचरण या नाना गमनको विचार कहते हैं और विचारसे सहितको सविचार कहते हैं। इसका यह अभिप्राय है कि आगे कहे जाने वाले अर्हलिंग आदि भेद सहित भक्त प्रत्याख्यान सविचार है और उनसे रहित अविचार है । सविचारं प्रत्याख्यान किसके होता है ? तो कहते हैं कि यदि मरण सहसा उपस्थित न हो, चिरकाल भावी हो तो पराक्रमसे उत्साहसे सहितके होता है। इसीसे वह भी प्राप्त होता है कि सहसा मरण उपस्थित होनेपर पराक्रमसे रहितके अविचार भक्त प्रत्याख्यान होता है। गाथामें अविचार भक्त प्रत्याख्यान इस कालमें इसके होता है, ऐसा नहीं कहा है ॥६४।। उन दोनोंमेंसे किस भक्त प्रत्याख्यानका इस शास्त्रके द्वारा कथन किया जायेगा ? इस शंका का उत्तर देते हैं गा-सविचार भक्त प्रत्याख्यानका यह उपक्रम अर्थात् प्रारम्भ होता है । और उस भक्त प्रत्याख्यानमें सूत्र और पद चालीस जानने योग्य हैं ।।६५।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'प्सविचारभत्तपञ्चक्खाणस्स' इति सविचारभक्तप्रत्याख्यानस्य । 'इणमो' अयं । 'उवक्कमो व्याख्यानप्रारंभः । 'होदि' भवति । 'तत्थ य' तत्र च भक्तप्रत्याख्याने। 'सुत्तपदाई' सूत्रपदानि । सूतेऽथ सूचयतीति वा सूत्रं । सूत्राणि च तानि पदानि च सूत्रपदानि । 'चत्तालं'चत्वारिंशत् । 'होति' भवन्ति । 'णेयाइ" ज्ञातव्यानि ॥६५॥ तानि सूत्रपदानि गाथाचतुष्टयनिबद्धानि अरिहे लिंगे सिक्खा विणय समाधी य अणियदविहारे । परिणामोवधिजहणा सिदी य तह भावणाओ य ॥६६।। 'अरिहे' अर्हः योग्यः । सविचारभक्तप्रत्याख्यानस्यायं योग्योऽयं नेति प्रथमोऽधिकारः कर्तृव्यापारः । लिंगादयः कर्तृपुरःसरा भवंतीति प्रागेव लिंगशिक्षादिभ्यो योग्यकर्तृनिर्देशः सूत्रे कृतः अरिह इति । शिक्षादिक्रियाया भक्तप्रत्याख्यानक्रियांगभूताया योग्यपरिकरमादर्शयितुं लिंगोपादानं कृतम् । कृतपरिकरो हि कर्ता क्रियासाधनायोद्योगं करोति लोके । तथा हि घटादिकरणे प्रवर्तमाना दृढबद्धकक्षाः कुलाला दृश्यते । ज्ञानमंतरेण न विनयादयः कर्तुं शक्यन्ते इति तेभ्यः प्राङ् निर्देशमर्हति शिक्षा । यथावसरमितरक्रममादर्शयिष्यामः । लिंगशब्दश्चिह्नवाची। तथाहि वक्ष्यति । 'चिह्न करणं' इति । सिक्खा' शिक्षा श्रुतस्य अध्ययनमिह शिक्षाशब्देनोच्यते। तथा च वक्ष्यति-'जिणवयणं कलुसहरं अहो य रत्ती य पढिदवमिति'। विनयः मर्यादा । तथा हि-ज्ञानादिभावनाव्यवस्था हि ज्ञानादिविनयतया वक्ष्यते । समेकीभावे वर्तते तथा च प्रयोग:-संगतं टी०–सविचार भक्त प्रत्याख्यानका व्याख्यान प्रारम्भ होता है उसमें चालीस सूत्रपद हैं ॥६५॥ उन सूत्रपदोंको चार गाथाओंसे कहते हैं गा०–अर्ह अर्थात् योग्य, लिंग अर्थात् चिह्न, शिक्षा अर्थात् शास्त्राध्ययन विनय और मनका एकाग्र करना, अनियत क्षेत्रमें विहार, परिणाम, परिग्रह त्याग और शुभ परिणामोंकी श्रेणिपर आरोहण तथा अभ्यास ॥६६॥ टी०-अर्हका अर्थ योग्य है । सविचार भक्त प्रत्याख्यानके यह योग्य हैं और यह योग्य नहीं है यह प्रथम अधिकार है जो कर्ताके व्यापारसे सम्बद्ध है। लिंग आदि कर्ताके होनेपर ही होते हैं इसलिये लिंग शिक्षा आदिसे पहले गाथामें 'अरिह' से योग्य कर्ताका निर्देश किया है। भवत प्रत्याख्यान क्रियाके अंगभूत शिक्षा आदि क्रियाके योग्य परिकर दिखलानेके लिये लिंगका ग्रहण किया है। क्योंकि साधन सामग्री जुटा लेनेपर ही कर्ता लोकमें क्रियाकी साधनाके लिये उद्योग करता है । घट आदि बनानेमें लगे कुम्भकार साधन सामग्री कर लेनेपर ही कमर बाँधकर तैयार देखे जाते हैं। ज्ञानके बिना विनय आदि नहीं किये जा सकते, इसलिये उनसे पहले शिक्षाका निर्देश योग्य है । अन्य क्रम अवसरके अनुसार कहेंगे । . लिंग शब्द चिह्नवाची है। आगे कहेंगे 'चिह्न करणं' । यहाँ शिक्षा शब्दसे श्रुतका अध्ययन कहा है। आगे कहेंगे-'जिन वचन कालिमाको दूर करता है उसे रात दिन पढ़ना चाहिये। विनयका अर्थ मर्यादा है। आगे ज्ञानादि भावनाकी व्यवस्था ज्ञानादिकी विनयके रूपमें कहेंगे । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ भगवती आराधना घृतमित्यत्र एकीभूतं तैलं एकीभूतं घृतमित्यर्थः । समाधानं मनसः एकताकरणं शुभोपयोगे शुद्धे वा । अनियतक्षेत्रवासः अनियतविहारः । तद्धावः परिणामः [ त. सू. ५।४२ ] इति वचनात्तस्य जीवादेव्यस्य क्रोधादिना दर्शनादिना वा भवनं परिणाम इति । यद्यपि सामान्येनोक्तं तथापि यतेः स्वेन कर्तव्यस्य कार्यस्यालोचनमिह परिणाम इति गृहीतम् । उपधिः परिग्रहः । तस्य 'जहणा' त्यागः । 'सिदीय' श्रितिः श्रेणिः सोपानमिति यावत् । भावनाभ्यासः तत्र असकृत्प्रवृत्तिः ॥६६॥ सल्लेहणा दिसा खामणा य अससिट्ठि परगणे चरिया । मग्गण सुठ्ठिय उवसंपया य पडिछा य पडिलेहा ॥६७॥ 'सल्लेहणा' सम्यक्तनूकरणं । "दिसा' परलोकदिगुपदर्शनपरः सूरिणा स्थापितः भवतां दिशं मोक्षवर्तनीमयमुपदिशति यः सूरिः स दिशा इत्युच्यते । 'खमावणा' क्षमाग्रहणं । 'अणुसिळि' सूत्रानुसारेण शासनम । 'परगणे' अन्यस्मिन्गणे 'चरिया' चर्या प्रवृत्तिः । 'मग्गण'मात्मनो रत्नत्रयविद्धि समाधिमरणं वा संपादयितुं क्षमस्य सूरेरन्वेषणं । 'सुटिदो' सुस्थितः परोपकरणे स्वप्रयोजने च सम्यक स्थितः सुस्थितः आचार्यः । 'उपसंपया' आचार्यस्य ढोकनं । 'पडिछा' परीक्षा । गणस्य, परिचारकस्य, आराधकस्य, उत्साहशक्तेश्च आहारगताभिलाषं त्यक्तुमयं क्षमो नेति । 'पडिलेहा' आराधनाया व्याक्षेपेण विना सिद्धिर्भवति न समका अर्थ एकीभाव है । जैसे 'संगत घृत' का अर्थ एकमेक हुआ ही है । समाधानका अर्थ है शुभोपयोग अथवा शुद्धोपयोगमें मनका एक रूप करना। अनियत विहारका अर्थ है अनियत क्षेत्रमें रहना । तत्वार्थ सूत्रमें 'तद्भाव' को परिणाम कहा है। अतः जीवादि द्रव्यके क्रोधादि या दर्शन आदि रूपसे होनेको परिणाम कहते हैं । यद्यपि सामान्य परिणाम गाथामें कहा है तथापि यहाँ साधुके द्वारा अपने कर्तव्यको आलोचनाको परिणाम शब्दसे ग्रहण किया है। उपधिका अर्थ परिग्रह है। उसका त्याग उपधिजहणाका अर्थ है। 'सिदी' या श्रितिका अर्थ श्रेणियां सोपान है। भावनाका अर्थ अभ्यास उसमें बार-बार प्रवृत्ति करना है ।।६।। ___ गा०–सल्लेखना, दिशा, क्षमाग्रहण, शिक्षा ग्रहण, अन्य गणमें प्रवृत्ति, आचार्यकी खोज सुस्थित उपसंपदा, परीक्षा, प्रतिलेखना ।।६७|| _____टी०-कषाय और शरीरको सम्यक् रीतिसे कृश करना सल्लेखना है। आचार्य अपने स्थानपर जिसे स्थापित करते हैं कि यह आपको परलोककी दिशा दिखलाते हुए मोक्ष मार्गका उपदेश देगा वह आचार्य दिशा कहलाता है। क्षमा ग्रहण करनेको खामणा कहते हैं । शास्त्रानुसार शिक्षा देनेको अणुसिट्ठि कहते हैं । परगण अर्थात् दूसरे संघमें जानेका परगण चरिया कहते हैं | अपनी रत्नत्रय विशुद्धि अथवा समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्यके खोजनेका मार्गण कहते हैं । परका उपकार करने में और अपने प्रयोजनमें सम्यक् रूपसे स्थित आचार्यको सुस्थित कहते हैं । आचार्यके पास जानेको उपसंपदा कहते हैं। गण, परिचारक, आराधक और उत्साह शक्ति की और यह आराधक आहारको अभिलाषा छोड़ने में समर्थ है या नहीं इन सबकी परीक्षा करना १. श्रितिः श्रेणिः निश्रेणिः सो. आ. मु० । २. वर्तन्या अयमु०-अ० । वर्तन्याशयमु-मु० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका वा राज्यस्य तस्य देशस्य ग्रामनगरादेस्तत्र प्रधानस्य वा शोभनं वा नेति एवं निरूपणम् ॥ ६७ ॥ आपुच्छा य पडिच्छण मेगस्सालोयणा य गुणदोसा । सेज्जा संथारो विय णिज्जवग पयासणा हाणी || ६८ || 'आपुच्छा' प्रतिप्रश्नः । किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यां न वेति संघप्रश्नः । 'पडिच्छणमेगस्स' प्रति चार कैरभ्यनुज्ञातस्यैकस्य संग्रह आराधकस्य । 'आलोयणा य' स्वापराधनिवेदनं गुरूणामालोचना | 'गुणदोसा' तस्या गुणदोषा: । 'सेज्जा शय्या वसतिरित्यर्थः । आराधकावासगृहमिति यावत् । संथारो वि य' संस्तरश्च । णिज्जावगा' निर्यापकाः आराधकस्य समाधिसहायाः । पयासणा चरमाहारप्रकाशनम् । 'हाणी' क्रमेणाहारत्यागः हानिः ॥ ६८ ॥ पच्चक्खाणं खामणं खमणं अणुसठिसारणाकवचे || समदाज्झाणे लेस्सा फलं विजहणा य णेयाई ॥ ६९ ॥ 'पच्चक्खाणं' प्रत्याख्यानं त्रिविधाहारस्य । 'खामणं' आचार्यादीनां क्षमाग्रहणं । 'खमणं' स्वस्यान्य भूतापराधे क्षमा । 'अणुसठि' अनुशासनं शिक्षणं निर्यापकस्याचार्यस्य । 'सारणा' दुःखाभिभवान्मोहमुपगतस्य निश्चेतनस्य चेतनाप्रवर्तना सारणा । 'कवचे' यथा कवचस्य शरशतनिपातदुःखनिवारणक्षमता एवमाचार्येण ‘पडिछा' है। आराधनाकी सिद्धि विना बाधाके आदि वहाँका प्रधान ये सब आराधनाके योग्य हैं कहते है ॥६७॥ १०७ होगी या नहीं, तथा राज्य, देश, ग्राम नगर या नहीं, इस प्रकारके निरूपणको पडिलेहा गा०—- पूछना एक क्षपकको स्वीकार करना, और आलोचना, आलोचनाके गुण दोष, शय्या अर्थात् वसति, और संस्तर, निर्यापक, अन्तिम आहारका प्रकाशन क्रमसे आहारका त्याग ॥ ६८ ॥ टी० - जब कोई आराधक समाधिमरणके लिये आवे तो आचार्यका संघसे पूछना कि हम इसे स्वीकार करें या नहीं आपृच्छा है । आराधककी सेवा करने वाले मुनियोंकी स्वीकृति मिलने पर एक आराधकको लेना 'एकका पडिच्छण है । गुरुके सामने अपने अपराधका निवेदन आलोचना है । आलोचनाके गुण और दोष 'गुणदोस' हैं । आराधकके रहनेका स्थान शय्या है उसे वसति भी कहते हैं संस्तरको संथार कहते हैं । आराधककी समाधिमें जो सहायक मुनि होते हैं उन्हें निर्यापक कहते हैं । आराधकके सामने अन्तिम आहारका प्रकाशन 'पगासणा' है। और क्रम आहार त्यागको हानि कहते हैं || ६८ ॥ गा०- प्रत्याख्यान, क्षमा ग्रहण, दूसरोंके अपराधको क्षमा करना । शिक्षण, सारणा, कवच, समभाव, लेश्या, आराधनाका फल (य) और (विजहणा) शरीर त्याग ये अधिकार जानना ॥ ६९ ॥ टी० - तीनों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रत्याख्यान है । आचार्य आदिसे क्षमा मांगना खामण है । दूसरेसे हुए अपराधको क्षमा करना खमण है । निर्यापकाचार्य जो शिक्षा देते हैं वह अनुशिष्टि है । दुःखसे पीड़ित होकर बेहोश हुए चेतना रहित आराधकको सचेत करना सारणा' है। जैसे कवचमें सैकड़ों बाणोंके लगनेसे होनेवाले दुःखको दूर करनेकी सामर्थ्य है । वैसे ही . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना निर्यापकेन धर्मोपदेशश्चतुर्गतिपरिभ्रमणे दुःसहानि दुःखानि ननु कर्मपरवशतया भुक्तानि निष्फलानि । इदं पुनदुःखसहनं निर्जरार्थ प्रवर्त्यमानं सकलदुःखान्तं सुखमप्यतीन्द्रियमचलमनुपममव्याबाधात्मकं संपादयिष्यतीति क्रियमाणो दुःखनिवारणगुणसामान्यात कवच शब्देनोच्यते । यथा शौर्यप्रचिख्यापयिषया माणवके सिंहशब्दः प्रयुज्यमानः शौर्यादिगुणाध्यासितं देवदत्तमवगमयति । 'समदा' समभावः जीवितमरणलाभालाभसंयोगविप्रयोगसुखदुःखादिष रागद्वेषयोरकरणं । 'ज्झाणे' ध्यानं एकाग्रचितानिरोधः । 'लेस्सा लेश्या कषायानरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या । फलं' साध्यं परिप्राप्यं आराधनायाः । 'विजहणा' आराधकस्य शरीरत्यागः ॥६९॥ वाहिव्व दुप्पसज्झा जरा य सामण्णजोग्गहाणिकरी ॥ उवसग्गा वा देवियमाणुसतेरिच्छया जस्स ।। ७० ॥ 'वाहिव्व' । अत्र चैवं पदघटना। 'वाहिन्ध दुप्पसज्झा सो अरिहो होइ भत्तपदिग्णाए' इति । व्याधिर्वा दुःप्रसाध्यः कलेशेन महता संयमप्रचयावहेन चिकित्स्यः यस्य विद्यते सोझै भक्तप्रत्याख्यानं कतु । जीयंति विनश्यति रूपवयोवलप्रभृतयो गुणा यस्यामवस्थायां प्राणिनः सा जरा। 'सामण्णजोग्गहाणिकरो' श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः; तस्य भावः श्रामण्यं । श्रमणशब्दस्य पुंसि प्रवृत्तिनिमित्तं तपःक्रिया श्रामण्यं, तेन योगः संबंधः साध्यसाधनलक्षणस्तस्य हानि विनाशं करोति या सा जरा यस्य सोर्हति भक्तप्रत्याख्यानं विधातु । निर्यापकाचार्य जो धर्मोपदेश देते हैं-तूने चार गतियोंमें भ्रमण करते हुए दुःसह दुःख सहे और कर्मोके अधीन होकर भोगे जिनसे कोई लाभ नहीं। किन्तु इस समयका दुःख सहन निर्जराके लिए हैं, सब दुःखोंका अन्त करनेवाला है और अतीन्द्रिय, अचल, अनुपम तथा बाधारहित सुखको भी देगा । इस प्रकार दुःखको दूर करनेके गुणकी समानतासे उसे कवच शब्दसे कहा है । जैसे शौर्यका बखान करनेकी इच्छासे बालकमें प्रयुक्त सिंह शब्द शौर्य आदि गुणोंसे युक्त देवदत्तका बोध कराता है। वैसे ही यहाँ भी जानना। जीवन, मरण, लाभ, हानि, संयोग, वियोग, सुख दुःख आदिमें रागद्वेष न करना समता है । एक विषयमें चिन्ताके निरोधको ध्यान कहते हैं। कषायसे अनुरक्त मन-वचनकायको प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। आराधनाके द्वारा प्राप्त साध्यको फल कहते हैं। और अन्तमें आराधकके शरीर त्यागको विजहणा कहते हैं । इतने अधिकारोंसे भक्त प्रत्याख्यान मरणका कथन करेंगे ।।६९।। उनमेंसे 'अर्ह' का कथन आगेकी गाथाके द्वारा करते हैं गा०-जिसके दुष्प्रसाध्य व्याधि हो, अथवा श्रामण्यके सम्बन्धको हानि पहुंचानेवाली वृद्धावस्था हो अथवा देवकृत मनुष्यकृत और तिर्यञ्चकृत उपसर्ग हो वह भक्त प्रत्याख्यान करनेके योग्य है ॥७॥ ___ दो०--दुःप्रसाध्य व्याधि हो, अर्थात् बड़े कष्टसे संयमके समूहका घात करके जिसका इलाज सम्भव हो वह भक्त प्रत्याख्यान करनेके योग्य होता है। जिस अवस्थामें प्राणीके रूप, वय, बल आदि गुण नष्ट हो जाते है उसे जरा कहते हैं। 'श्राम्यति' अर्थात् जो तपस्या करता है वह श्रमण है। श्रमणके भावको श्रामण्य कहते हैं। पुरुषमें श्रमण शब्दकी प्रवृत्तिमें निमित्त तपश्चरण श्रामण्य है। उससे योग अर्थात् साध्यसाधनरूप सम्बन्धकी हानि जो करती है अर्थात् जिसके होनेपर तपश्चरणकी साधना करना कठिन होता है वह वृद्धावस्था जिसके आ गई हो वह भक्त प्रत्याख्यान करनेके योग्य होता है। जिसका शारीरिक बल बुढ़ापेके कारण क्षीण हो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १०९ जरापसारितशरीरबल: शरीरबलसाध्येषु कायक्लेशेषु न वर्तितुमुत्सहते । अथवा सममणो 'समणो' समणस्स भावो सामण्णं । क्वचिदप्यननुगतरागद्वेषता समता सामण्णशब्देनोच्यते । वस्तुयाथात्म्यावहितचेतस्तया योगः संबंधो ध्यानयोग इति यावत । वस्तयाथात्म्यावबोधो निश्चलो यः स ध्यानमिष्यते । जरापरिप्लुतबोधस्य ध्यानं विनश्यति । ततो ध्यानयोगविनाशकारिणी जरा यस्य सोर्हति भक्तं त्यक्तुम् । अथवा सामण्णं समतां, युज्यंतेऽनेन निर्जराथिन इति योगः, तप: । योगशब्दस्तपसि कायक्लेशाख्ये रूढः सोऽत्र गृहीतः । 'आदावणादिजोगधारिणो अणागारा' इत्युक्तेः आतापनादितपोधारिणः इति प्रतीयते । द्वंद्वे अल्पाच्तरत्वाद्योगशब्दस्य पूर्वनिपातप्रसंग इति चेत् न अभ्यहितत्वात्समतायाः सामण्ण इत्यस्य पूर्वनिपात इति मन्यते, पूर्वतोऽभ्यहितमिति वचनात् । न हि समताशून्यात्तपसो विपुला निर्जरा भवति । सत्यां तु समतायां निर्जरा भवति । ततस्तपसो निर्जराहेतुता समतापरवशेति प्रधानं समता । __उवसग्गा वा उपद्रवा वा 'देवियमाणुसतेरिक्खिगा' देवर्नरैस्तिर्यग्भिश्च प्रवर्तिता यस्य सोर्हति भक्तप्रत्याख्यानं इति संबंधः । चतुर्विधत्वादुपसर्गस्य त्रैविध्योपदेशः कथमिति ? अत्रोच्यते-उपसर्गा वा इति वा शब्दः समुच्चयार्थोऽसौ देवियमाणुसतेरिक्खिगा वा इति संबंधनीयस्तेनाचेतनोपसर्गसमुच्चयः क्रियते ॥७॥ जाता है वह शरीरमें रहते बलके द्वारा करने योग्य कायक्लेशोंमें प्रवृत्त होनेके लिए उत्साहित नहीं होता। अथवा जिसका मन सम है वह समण है। समणका भाव सामण्ण है। किसी भी वस्तुमें रागद्वेष न करनेरूप समता 'सामण्ण' शब्दसे कही जाती है। वस्तुके यथार्थस्वरूपमें चित्तका लगना. उसके साथ योग-सम्बन्ध अर्थात् ध्यान योग। वस्तुके यथार्थस्वरूपका जो ज्ञान निश्चल होता है उसे ध्यान कहते हैं। बुढ़ापेसे ज्ञानके व्याप्त हो जानेपर ध्यान नष्ट हो जाता है। अतः ध्यानयोगका विनाश करनेवाली जरा जिसके है वह भोजनका त्याग करनेके योग्य है। अथवा समताको सामण्ण कहते हैं। और निर्जराके इच्छक जिससे यवत होते हैं वह योग अर्थात तप है। योग शब्द कायक्लेश नामक तपमें रूढ है। वही यहाँ योग शब्दसे लिया है। क्योंकि 'आदावणादि जोगधारिणो अणगारा' इस कथनसे 'आतपन आदि तपको धारण करनेवाले' ऐसा अर्थ प्रतीत होता है। शंका-'योग' शब्द अल्प अच्वाला है। अतः द्वन्द्व समासमें सामण्णसे पहले 'जोग' शब्द रखना चाहिए? समाधान-नहीं, क्योंकि समता पूज्य है अतः सामण्णको पहले रखना उचित है क्योंकि जो पूज्य होता है उसे पहले स्थान दिया जाता है ऐसा शास्त्रका वचन है । समताशून्य तपसे बहत निर्जरा नहीं होती। किन्तु समताके होनेपर होती है। अतः तप समताके परवश होकर निर्जरामें कारण होता है इसलिए समता प्रधान है। अथवा देव, मनुष्य और तिर्यञ्चोंके द्वारा जिसपर उपसर्ग किया गया हो वह भवत प्रत्याख्यानके योग्य होता है। शंका-उपसर्ग तो चार प्रकारका होता है । यहाँ तीन प्रकारका क्यों कहा ? समाधान–'उपसर्गा वा' में 'वा' शब्दका अर्थ समुच्चय हैं। उससे अचेतनकृत उपसर्गका समुच्चय होता है ॥७॥ १. त्रिविधो-अ० गु० । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना अणुलोमा वा सत्तू चारित्तविणासया हवे जस्स ॥ दुब्भिक्खे वा गाढे अडवीए विप्पणट्ठो वा ।।७१।। 'अणुलोमा वा' अनुकूला वा शत्रवः । 'चारित्तविणासगा' चारित्रं पापक्रियानिवृत्तिः तस्य विनाशकाः । बंधवो हि स्नेहान्मिथ्यात्वदोषात् स्वपोषणलोभाद्वा यस्य चारित्रं विनाशयितुं उद्यताः । अनुलोमत्वं शत्रुत्वविरोधि प्रातिकूल्ये समवस्थिता हि भवन्ति शत्रवस्तत्किमुच्यते 'अणुलोमा वा सत्त इति ? प्रियवचनमात्रभाषणादनुलोमता । अहितेऽसंयमे प्रवर्तनाद्धितस्य संयमधनस्य विनाशनात् शत्रवो भवन्ति । अथवा अनुलोमा बंधवः सत्त वा शत्रवश्चेति समुच्चयः वा शब्दसमुच्चयार्थत्वात् । 'देविगमाणुसतेरिक्खगा उवसग्गा जस्स' इतिवचनात् अनुकूलशत्रुकृतोऽप्युपसर्गः संगृहीतः एव किमर्थं पुनरुच्यते 'अणुलोमा वा' इति पुनरुक्तता। तत्र हि सूत्रे मनुष्योपसर्गो नाम बंधनताडनविलंबनादिकः शरीरोपद्रवः परकृतो गृहीतः । इह तु जिव्होत्पाटनादिकं कुर्मो यदि श्रामण्यं न त्यजसीति खलीकरणं वक्तुमिष्टम् । 'दुभिक्खे वा' दुर्भिक्षे वा । 'आगाढे' दुरुत्तरे महति अशनिपातमिव सर्वजनगोचरे अर्हति प्रत्याख्यातुं । 'अडवीए' अटव्यां महत्यां व्यालमृगाकुलायां मार्गोपदेशिजनरहितायां दिङ्मूढः पाषाणकंटकबहुलतया दुःप्रचारायां । 'विप्पणछो वा' विप्रनष्टो वा अर्हतीति संबंधः ॥११॥ गा०-अनुकूल बन्धु मित्र शत्रु हो जो चारित्रका विनाश करनेवाले हों। अथवा अनुकूल बन्धु और शत्रु जिसके चारित्रका विनाश करनेवाले हो । भयंकर दुभिक्ष हो अथवा भयंकर जंगलमें भटक गया हो तो भक्त प्रत्याख्यानके योग्य होता है ॥७१॥ टी०-अनुकूल ही शत्रु हों। पापक्रियासे निवृत्तिरूप चारित्रका विनाश करनेवाले हों। बन्धु स्नेहसे या मिथ्यात्व दोषसे या अपने भरण-पोषणके लोभसे जिसके चारित्रका विनाश करनेके लिए तत्पर हो वह भक्त प्रत्याख्यानके योग्य है । शंका-अनुलोमता शत्रुताकी विरोधी है। जो प्रतिकूल होते हैं वे शत्रु होते हैं तब 'अणुलोमा वा सत्तु' कैसे कहा? ___समाधान-प्रियवचनमात्र बोलनेसे अनुलोमता है और असंयमरूप अहितमें प्रवृत्ति करानेसे तथा संयमधनरूप हितका विनाश करनेसे शत्रु होते हैं। अथवा अनुलोम अर्थात् बन्धु और शत्रु इस प्रकार 'वा' शब्दको समुच्चयार्थक लेना चाहिए। शंका-पहले कहा है कि जिसपर देवकृत मनुष्यकृत उपसर्ग हो, तो इससे अनुकूल कृत और शत्रुकृत उपसर्गका ग्रहणकर ही लिया है यहाँ पुनः 'अणुलोमा वा सत्तु' क्यों कहा? इससे पुनरुक्तता दोषका प्रसंग आता है। ___ समाधान-उक्त गाथामें मनुष्योपसर्गसे परके द्वारा किया गया बाँधना, मारना, रोकना आदि शारीरिक उपद्रव लिया गया है। और यहाँ 'यदि मुनिपद नहीं छोड़ता तो हम तेरी जीभ उखाड़ लेंगे' इस प्रकारकी शत्रुता ली गई है। __ वज्रपातके समान भयंकर दुभिक्ष होनेपर भक्त प्रत्याख्यानके योग्य है । सर्प, मृग आदिसे भरे हुए भयंकर वनमें, जहाँ कोई रास्ता बतलानेवाला नहीं है, कंकर पत्थरोंके कारण चलना भी दुष्कर है, फंस जानेपर भक्त प्रत्याख्यानके योग्य होता है ।।७१॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका चक्खुं व दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्बलं जस्स || जंघाबलपरिहीणो जो ण समत्थों विहरिदुं वा ॥ ७२ ॥ 'खु' व' चक्षुर्वा । चष्टेऽर्थान्दर्शयतीति चक्षुः । 'दुब्बलं' दुर्बलं अल्पशक्तिकं सूक्ष्मवस्तुदर्शनाक्षमं । 'जस्स' यस्य । 'होज्ज' भवेत् । 'सोदं' व श्रोत्रं वा श्रूयते शब्द उपलभ्यते येन तत् श्रोत्रम् | 'दुब्बलं' शब्दोपलब्धिजननसामर्थ्यविकलं । सोप्यर्हति । 'जंधा बलपरिहीणों' 'जो' यः । 'ण समत्थो' न शक्तो । 'विहरिदु वा' गंतु वा सोप्यर्हति ॥ ७२ ॥ | दारिसंमि आगाढकारणे जादे || अम्मि चावि अरिsो भत्तपइण्णाए होदि विरदो अविरदो वा ॥ ७३ ॥ 'अण्णंमि चावि' अन्यस्मिन्नपि उक्तादस्मात् । 'आगाढकरणे' आगाढे कारणे 'जादे' जाते । 'एदारिसम्मि' उक्तकारणसदृशे । 'भत्तपदिण्णाए' अरिहो होदि विरदो अविरदो वा इति पदघटना । भक्त प्रत्याख्यानस्यार्हो भवति विरतः अविरतो वा ॥७३॥ अनर्ह सूचनायोत्तरगाथा १११ उस्सरह जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमणदिचारं वा ॥ णिज्जावया य सुलहा दुब्भिक्खभयं च जदि णत्थि ||७४ || 'उस्सरदि' नितरां प्रवर्तते । 'जस्स' यस्य । 'चिरमवि' चिरकालमपि । कि 'सामण्णं' चारित्रं । 'सुहेण' अक्लेशेन । 'अणविचारं वा' निरतिचारं । चारित्रविनाशभयादयं अतीतेषु कारणेषु सत्सु प्रत्याख्यानायोद्योगं गा० - जिसकी चक्षु दुर्बल हो अथवा जिसके श्रोत्र दुर्बल हों । जो जंघाबलसे हीन हो (वा) अथवा विहार करनेमें समर्थ न हो ॥७२॥ टी०—‘चष्टे' अर्थोको जो दिखलाती है वह चक्षु है । 'श्रूयते' जिसके द्वारा शब्दको जाना जाता है वह श्रोत्र है । जिसकी चक्षु अल्पशक्तिवाली हो, सूक्ष्म वस्तुको न देख सकती हो । जिसकी कर्णेन्द्रिय दुर्बल हो, शब्दका ज्ञान करानेमें आशक्त हो, जिसमें जंघाबल न हो, जो विहार करनेमें अशक्त हो, वे सब भक्तप्रत्याख्यानके योग्य हैं ॥ ७२ ॥ गा०—उक्तकारणके समान अन्य भी प्रबल कारण उपस्थित होनेपर विरत अथवा अविरत भक्तप्रत्याख्यानके योग्य होता है ||७३ || टी०—उक्त कारणोंके समान अन्य भी ऐसे कारण हों तो मुनि हो या श्रावक हो वह भक्तप्रत्याख्यानके योग्य होता है ॥ ७३ ॥ जो भक्तप्रत्याख्यानके अयोग्य हैं उन्हें आगेकी गाथासे कहते हैं— गा० - जिसका चारित्र चिरकाल भी विना किसी क्लेशके अतिचार रहित अच्छी तरह पालित हो रहा है । अथवा समाधिमरण कराने में सहायक निर्यापक (सुलहा ) सुलभ हैं । (च) और (जदि) यदि दुर्भिक्षका भय नहीं है ||७४|| टी० - पहले जो भक्तप्रत्याख्यान करनेके कारण कहे हैं उनके रहते हुए यह चारित्र विनाशके भयसे भक्तप्रत्याख्यानके लिए उद्योग करता है । किन्तु यदि चारित्र विना क्लेशके निरतिचार Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ११२ करोति । तच्चेत्प्रवर्तते निरतिचारमक्लेशेन नैव भक्तप्रत्याख्यानमर्हति । इदानीमहं यदि न त्यागं कुर्यां निर्यापकाः पुनर्न लप्स्यन्ते सूरयस्तदभावे नाहं पंडितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्त प्रत्याख्यानाई एव ||७४ || यदि च सुलभा निर्यापका अनागतदुर्भिक्षभयं च यदि न स्यान्न भवत्यर्हः इति कथयति तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो ॥ सो मरणं पच्छितो होदि हु सामण्णणिग्विण्णो ||७५ || 'तस्स' तस्य । 'ण' 'कम्पदि भत्तवद्दण्णं' न योग्यं प्रत्याख्यानं भक्तस्य । 'भये पुरदो अणुवट्ठिवे' भये पुरस्तादनुपस्थिते । 'सो' सः । निरतिचारश्रामण्यः सुलभनिर्यापकः अनुपस्थितदुर्भिक्षभयः । 'मरणं' मृति । 'पेच्छं तो' प्रार्थयमानः । खुशब्द एवकारार्थः । एवमसौ संभावनीयः 'सामण्णणिग्विण्ण एव होदित्ति' श्रामण्याण्यान्निर्विण्ण एव संभवतीति । ननु च अरिहेति अर्ह एवं सूचितो नानर्हः, तत्किमर्थमसू त्रितव्याख्या क्रियते, सूत्रकारेण ? अर्हप्रसंगादायातमिति केचित् । अनर्हमपि लक्षणतया अनर्हत्वं सूचितं इति वा न दोषः । स्वपर'भावाभावोभयाधीनात्मलाभत्वात्सर्ववस्तूनां इति मन्यते ॥ अरिहोत्ति गदम् ॥७५॥ पलता है तो वह भक्तप्रत्याख्यानके योग्य नहीं है उसे भक्तप्रत्याख्यान मरण नहीं करना चाहिए । तथा यदि इस समय मैं भक्तप्रत्याख्यान नहीं करता तो फिर मुझे समाधिमरण करानेवाले निर्यापकाचार्य नहीं मिलेंगे। उनके अभाव में मैं पण्डितमरणकी आराधना नहीं कर सकता । ऐसा यदि भय है तो भक्तप्रत्याख्यानके योग्य ही है । अर्थात् यदि ऐसा भय न हो और आराधनामें सहायक उस कालमें और आगे भी सुलभ हों तो उक्त भयसे तत्काल भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य नहीं है । इसी तरह यदि दुर्भिक्षका भय हो कि आगे धान्यका विनाश होनेसे भिक्षाके विना मेरे चारित्रकी हानि होगी तो भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य है, नहीं तो अयोग्य है ||७४ || यदि निर्यापक सुलभ हों और आगे दुर्भिक्षका भय न हो तो भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य नहीं है, ऐसा कहते हैं गा०-- आगे भयके अनुपस्थित होते हुए उसका भक्तप्रत्याख्यान योग्य नहीं है । वह यदि मरणकी प्रार्थना करता है तो मुनिधर्मसे विरक्त ही होता है ॥७५॥ टी० - जिसका चारित्र निरतिचार पलता है, निर्यापक भी सुलभ हैं और दुर्भिक्षका भय भी नहीं है फिर भी यदि वह मरना चाहता है तो ऐसी सम्भावना होती है कि वह मुनिपदसे विरक्त हो गया हैं । शंका- 'अरिह' इस पदसे 'अहं' ही सूचित होता है 'अनर्ह' अयोग्य नहीं । तब ग्रन्थकारने सूत्र विरुद्ध व्याख्या क्यों की ? समाधान--'अहं' के प्रसंगसे 'अनर्ह' आया है ऐसा कोई कहते हैं अथवा लक्षणासे 'अर्ह' भी 'अन' को सूचित करता है इसलिए कोई दोष नहीं है । क्योंकि सब वस्तुएँ स्वका भाव और परका अभाव, दोनोंके होनेसे ही आत्म लाभ करती हैं ऐसा माना जाता है || ७५॥ इस प्रकार 'अरिह' अधिकार समाप्त हुआ । १. वो नया-आ० मु० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ११३ भक्तप्रत्याख्यानार्हस्य तत्प्रत्याख्यानपरिकरभूतलिंगनिरूपणं उत्तराभिर्गाथाभिः क्रियते उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव ॥ अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंगं ॥७६।। उस्सग्गिलिंगवस्स उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकलपरिग्रहस्य उत्सर्गः। उत्सर्गे सकलग्रंथपरित्यागे भवं लिंग औत्सगिकं किं करोति क्रियासामान्यवचनोऽत्र सृज्यों ग्राह्यः घातूनामनेकार्थत्वादिति वचनात् । तेनायमर्थः औत्सर्गिकलिंगस्थितस्य भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषवतः । 'तं चेव उस्सग्गियं लिगं तदेव प्राक गृहीतं लिंगं औत्सर्गिकम् । 'अववादिलिंगस्स वि' यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः, अपवादो यस्य विद्यते इत्यपवादिकं परिग्रहसहितं लिंगं अस्येत्यपवादिकलिंगं भवति । वाक्यशेषं कृत्वा एवं पदसंबंध: कार्यः । 'बा पसलिंग' यदि प्रशस्तं शोभनं लिंग मेहनं भवति । चर्मरहितत्वं, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्वं, असकृदुत्यानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवेत् । पुंस्त्वलिंगता इह गृहीतेति बीजयोरपि लिंगशब्देन ग्रहणं । अतिलंबमानतादिदोषरहितता प्रशस्ततापि तयोर्गहीता ॥७६॥ अप्रशस्तलिङ्गस्य औत्सर्गिकं लिगं न भवत्येवेत्यस्यापवादमाह जस्स वि अवभिचारी दोसो तिहाणिगो विहारम्मि । सो वि हु संथारगदो गेण्हेज्जोस्सुग्गियं लिंगं ॥७७॥ जो भक्तप्रत्याख्यान करनेके योग्य है उसके भक्तप्रत्याख्यानका परिकर जो लिंग है, उस लिंगका कथन आगेकी गाथाओंसे करते हैं गा०-जो औत्सर्गिक लिंगमें स्थित है उसका जो पूर्वगृहीत है वही औत्सर्गिक लिंग होता है। आपवादिक लिंगवालेका भी औत्सर्गिक लिंग होता है यदि उसका पुरुष चिह्न दोष रहित हो ॥७॥ दो०-उत्कृष्टसे 'सर्जन' अर्थात् सकलपरिग्रहके त्यागको उत्सर्ग कहते हैं। 'उत्सर्ग' अर्थात् सकल परिग्रहके त्यागसे होनेवाले लिंगको औत्सर्गिक लिंग कहते हैं । यहाँ सृज् धातुका अर्थ क्रिया सामान्यवाची लेना चाहिए । क्योंकि ऐसा कहा है कि धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं। तब ऐसा अर्थ होता है कि जो औत्सर्गिक लिंगमें स्थित है और भक्तप्रत्याख्यानकी अभिलाषा रखता है उसका वही लिंग रहता है जो उसने पूर्वमें ग्रहण किया है अर्थात् औत्सगिक लिंग ही रहता है। मुनियोंके अपवादका कारण होनेसे परिग्रहको अपवाद कहते हैं। जिसके अपवाद हो वह अपवादिक है अर्थात् परिग्रह सहित लिंगवाला आपवादिक लिंगी होता है। वह यदि भक्तप्रत्याख्यान करना चाहता है तो उसे परिग्रहको त्यागकर औत्सर्गिक लिंग धारण करना होता है। इस लिंग धारण करनेपर नग्न होना पड़ता है। किन्तु उसके सम्बन्धमें यह नियम है कि उसका लिंग-पुरुष चिह्न प्रशस्त होना चाहिए। लिंगका चर्मरहित होना, अतिदीर्घ होना, स्थूल होना, और बारबार उत्तेजित होना ये दोष है । इन दोषोंसे रहित होनेपर ही औत्सर्गिक लिंग दिया जाता है । यहाँ लिंग शब्दसे पुरुष चिह्नका ग्रहण किया है । तथा उससे अण्डकोष भी ग्रहण होता है। वे भी अति लटकते हुए लम्बे नहीं होना चाहिए ॥७६॥ आगे 'अप्रशस्त लिंगवालेके औत्सर्गिक लिंग नहीं होता है, इस कथनका अपवाद कहते हैं Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ' जस्स वि' यस्यापि । 'अव्वभिचारी' अनिराकार्यो । 'दोसो' दोषः । 'तिट्ठाणिगो' स्थानत्रयभवः मेहने वृषणयोश्च भवः औषधादिनानपसार्यः । ' सोऽपि ' खु शब्द एवकारार्थः स च 'गेण्हेज्ज' इत्यनेन संबंधनीयः । गृण्हीयादेव किं ? 'उस्सग्गिगं लिंगं' औत्सर्गिकं अचेलतालक्षणं । क्व 'विहारम्मि' विहारे वसतौ, 'संथारगदे' संस्तरारूढः संस्तरारोहणकाले । एवं संस्तरारूढस्यैव औत्सर्गिकं नान्यत्रेत्याख्यातं भवति ॥७७॥ अपवाद लिंगस्थानां प्रशस्तलिगानां सर्वेषामेव किमौत्सर्गिकलिंग तेत्यस्यामारेकायां आह आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महदिओ हिरिमं ॥ मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं ॥ ७८ ॥ ११४ 'आवसधे वा' निवासस्थाने । 'अप्पा उग्गे अप्रायोग्ये अविविक्ते । 'अपवादिकलिंगं' हवदित्ति' शेषः । 'जो वा महढिगो' महर्द्धिक: । 'हिरिमं' हीमान् लज्जावान् । तस्यापि 'होज्ज' भवेत् अपवादिकं लिंगं । 'मिच्छे' वा मिथ्यादृष्टी । 'सजणे' स्वजनो बंधुवर्गो । 'होज्ज' भवेत् । अपवादिकलिंगं सचेललिंगं ॥७८॥ पूर्वनिर्दिष्टोत्सर्गलिंगस्वरूपनिरूपणार्थोत्तरगाथा अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं ॥ एसो हु लिंगकप्पों चदुव्विहो होदि उस्सग्गे ॥७९॥ गा० - जिसके भी लिंग और दोनों अण्डकोष इन तीन स्थानोंमें ऐसा दोष है जिसे औषध आदिसे भी दूर नहीं किया जा सकता। वह भी वसतिकामें संस्तरेपर आरूढ़ होनेपर औत्सर्गिक लिंगको अवश्य ग्रहण करे || ७७|| टी० - जिसके तीनों स्थामोंमें ऐसा दोष है जिसे चिकित्सासे भी नहीं दूर किया जा सकता । वह भी जब भक्त प्रत्याख्यान करता है तो उसे वसति में संथरे पर रहना होता है अतः उस समय उसे भी औत्सर्गिक लिंग ग्रहण करना आवश्यक है । इस प्रकार वह संस्तर पर आरूढ़ होते हुए भी औत्सर्गिक लिंगका पात्र होता है उससे पहले नहीं (क्योंकि सदोष लिंग वाला नग्नता का पात्र नहीं होता ) ॥७७॥ क्या प्रशस्त लिंग वाले सभी अपवाद लिंगके धारकोंको औत्सर्गिक लिंग लेना आवश्यक है इस शङ्काका उत्तर देते हैं गा० - जो महान सम्पत्तिशाली है अथवा लज्जालु है अथवा जिसके स्वजन बन्धुवर्ग मिथ्यादृष्टि विधर्मी है । उसके लोगोंके आवागमनके कारण अयोग्य निवास स्थानमें आपवादिक लिंग होता है ॥ ७८ ॥ टी० - जो प्रतिष्ठित धन सम्पन्न है या जिन्हें सबके सामने लज्जा लगती है या जिनका परिवार विधर्मी है उन्हें सार्वजनिक स्थानमें नग्न लिंग नहीं देना चाहिये । सवस्त्र लिंग ही उनके योग्य है || ७८ ॥ पहले कहे औत्सर्गिक लिंगका स्वरूप कहते हैं गा० - अचलता, हाथसे केश उखाड़ना, शरीर से ममत्व त्याग और प्रतिलेखन यह चार प्रकारका लिंगभेद औत्सर्गिक लिंगमें होता है ॥ ७९ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ११५ अच्चेलदकमिति । अच्चेलक्कं अचेलता । लोचो केशोत्पाटनं हस्तेन । वोसट्टसरीरदा य व्युत्सृष्टशरी-. रता च । पडिलिहणं प्रतिलेखनं । एसो दु एषः । लिंगकप्पो लिंगविकल्पः । चउविहो चतुर्विधः भवति । उस्सग्गे औत्सगिकसंज्ञिते लिंगे । अतीताभिर्गाथाभिः पुरुषाणां भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणां लिंगविकल्पोऽभिदृष्टनिश्चयः । अधुना स्त्रीणां तदथिनीनां लिंगमुत्तरया गाथया निरूप्यते इत्थीवि य जं लिंगं दिळं उस्सग्गियं व इदरं वा ।। तं तत्थ होदि हु लिंगं परित्तमुधिं करेंतीए ॥८॥ 'इत्योवि य' स्त्रियोऽपि । 'जं लिंगं' यल्लिगं । 'दिठं' दृष्टं आगमेऽभिहितं । 'उस्सग्गियं व' औत्सगिकं तपस्विनीनां । 'इदरं वा' श्राविकाणां । 'त' तदेव । 'तत्थ' भक्तप्रत्याख्याने । 'होदि' भवति । लिंगं तपस्विनीनां प्राक्तनम् । इतरासां पुंसामिव योज्यम् । यदि महद्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टिस्वजना च तस्याः प्राक्तनं लिंगं विविक्ते त्वावसथे, उत्सर्गलिंग वा सकलपरिग्रहत्यागरूपं । उत्सर्गलिंगं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तं' तत उत्सर्ग लिंगं । 'तत्य' स्त्रीणां 'होदि' भवति । 'परित्तं' अल्पं । 'उवधि' परिग्रहं । 'करतीए' 'कुर्वत्याः '। टो०-अचेलक अर्थात् वस्त्रादिका अभाव, केश लोच, शरीरका संस्कार आदि न करना और पीछो यह चार औत्सर्गिक लिंगके प्रकार है। औत्सर्गिक लिंगमें ये चार बातें होना आवश्यक हैं ॥ ७९ ॥ ___पिछली गाथाओंसे भक्त प्रत्याख्यानके अभिलाषी पुरुषोंके लिंगका निश्चय किया। अब उसकी अभिलाषी स्त्रियोंका लिंग कहते हैं गा०-स्त्रियोंके भी जो लिंग औत्सर्गिक अथवा अन्य आगममें कहा है। वही लिंग अल्प परिग्रह करती हुईके भक्त प्रत्याख्यानमें होता है ।। ८० ।। ____टो०-स्त्रियोंके आगममें जो लिंग कहा है तपस्विनी स्त्रियोंके औत्सर्गिक और श्राविकाओं के आपवादिक । वही लिंग उनके भक्त प्रत्याख्यानमें भी होता है। अर्थात् तपस्विनी स्त्रियोंके औत्सर्गिक लिंग होता है और शेषके पुरुषोंकी तरह जानना । अर्थात् यदि स्त्री किसी ऐश्वर्यशाली परिवारसे सम्बद्ध है या लज्जाशील है अथवा उसके परिवार वाले विधर्मी हैं तो उसे एकान्त स्थानमें सकल परिग्रहके त्यागरूप उत्सर्ग लिंग दिया जा सकता है। प्रश्न होता है कि स्त्रियोंके . उत्सर्ग लिंग कैसे सम्भव है ? तो उसका उत्तर यह है कि परिग्रह अल्प कर देनेसे स्त्रीके उत्सर्ग लिंग होता है ।। ८० ॥ विशेषार्थ-तपस्विनी स्त्रियाँ एक साड़ी मात्र परिग्रह रखती है किन्तु उसमें भी ममत्व त्यागनेसे उपचारसे निर्ग्रन्थताका व्यवहार होता है। किन्तु श्राविकाओंके उस प्रकारके ममत्वका त्याग न होनेसे उपचार से भी निर्ग्रन्थताका व्यवहार नहीं होता । भक्त प्रत्याख्यानमें तपस्विनियोंके अयोग्य स्थानमें तो पूर्व लिंग ही होता है। शेषके पुरुषोंकी तरह जानना । सारांश यह है कि तपस्विनी स्त्री मृत्युके समय वस्त्र मात्रको भी छोड़ देती है। अन्य स्त्री यदि योग्य स्थान होता है तो वस्त्र त्याग करती है। यदि वह धन सम्पन्न, या लज्जाशील या मिथ्यादष्टि परिवारसे सम्बद्ध Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ भगवती आराधना नन्वहस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिंगविकल्पोपादानेनेत्यस्योत्तरमाह जत्तासाधणचिह्णकरणं खु जगपच्चयादठिदिकरणं ।। गिहभावविवेगो वि य लिंगग्गहणे गुणा होंति ॥ ८१ ॥ 'जत्तासाधणचिण्हकरणं' यात्रा शरीरस्थितिहेतुभूता भुजिक्रिया। तस्याः साधनं यल्लिगजातं चिन्हजातं तस्य करणं । न हि गृहस्थवेषेण स्थितो गुणीति सर्वजनताधिगम्यो भवति । अज्ञातगुणविशेषाश्च दानं न प्रयच्छति । ततो न स्याच्छरीरस्थितिः । असत्यां तस्यां रत्नत्रयभावनाप्रकर्षः क्रमेणोपचीयमानो न स्यात् । विना तं न मुक्तिरित्यभिलषितकार्यसिद्धिरेव न स्यात् । गुणवत्तायाः सूचनं लिंगं भवति । ततो दानादिपरंपरया कार्यसिद्धिर्भवतीति भावः । अथवा यात्राशब्दो गतिवचनः । यथा देवदत्तस्य यात्राकालोऽयम् । गतिसामान्यवचनादप्ययं शिवगतावेव वर्तते, दारकं पश्यसीति यथा । यात्रायाः शिवगते: साधनं रत्नत्रयं तस्य चिह्नकरणं ध्वजकरणं । 'जगपच्चयादठिदिकरणं' जगच्छब्दोऽन्यत्र चेतनाचेतनद्रव्यसंहतिवचनो 'जगन्नेकावस्थं युगपदखिलानंत विषयम्' इत्येवमादी । इह प्राणिविशेषवृत्तिः । यथा-'अर्हतस्त्रिजगद्वंद्यान्' इति । प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थः । क्वचिज्ज्ञाने वर्तते यथा 'घटस्य प्रत्ययो' घटज्ञानं इति यावत् । तथा कारणवचनोऽपि 'मिथ्यात्वप्रत्ययोऽनंतः संसार' इति गदिते मिथ्यात्वहेतुक इति प्रतीयते । तथा श्रद्धावचनोऽपि 'अयं अत्रास्य प्रत्ययः' श्रद्धेति गम्यते । इहापि श्रद्धावृत्तिः । जगतः श्रद्धेति । ननु श्रद्धा प्राणिधर्मः अचेलतादिकं शरीरधर्मो लिंगम् । कमच्यते 'लिंगं है तो पुरुषोंकी तरह वस्त्र त्याग नहीं करती ॥८०॥ जो योग्य होता है उसके रत्नत्रयकी भावनाका प्रकर्ष होने पर मरण हो जाता है तब लिंग का कथन करनेकी क्या आवश्यकता है । इसका उत्तर देते हैं गा०-यात्राके साधन चिह्नका करना, जगतकी श्रद्धा, अपनेको स्थिर करना और गृहस्थतासे भिन्नता, ये चार लिंग ग्रहण करनेमें गुण होते हैं ।। ८१ ।। - टी०-यात्राका अर्थ है शरीरकी स्थितिमें कारण भोजन करना । उसका साधन जो लिंग है उसका करना लिंग धारण करनेका पहला गुण है; क्योंकि जो ग्रहस्थके वेषमें रहता है उसे सारी जनता गुणी नहीं मानती और उसके बिना भोजन नहीं मिलता। और ऐसी स्थितिमें इच्छित कार्यकी सिद्धि नहीं होती । अतः लिंग गुणवत्ताका सूचक होता है। और उससे दान आदिकी परम्परासे कार्यकी सिद्धि होती है । अथवा यात्रा शब्द गतिवाचक है। जैसे देवदत्तका यह यात्राकाल है । इस गति सामान्यका वाचक होनेपर भी यहाँ यात्रा शब्द मोक्ष गतिमें ही लिया गया है । अतः यात्रा अर्थात् मुक्ति गतिका साधन जो रत्नत्रय है उसका चिह्नकरण अर्थात् ध्वजा फहराने रूप लिंग होता है । अन्यत्र जगत शब्द चेतन और अचेतन द्रव्योंके समुदायका वाचक है । जैसे 'एक साथ अनन्त विषयोंको लिये हुए जगत एक अवस्था वाला नहीं है' इत्यादि वाक्यमें जगतका उक्त अर्थ लिया गया है। किन्तु यहाँ जगतका अर्थ प्राणि विशेष है। जैसे 'तीनों जगतके द्वारा वन्दनीय अर्हन्त' इस वाक्यमें जगतका अर्थ प्राणि विशेष है। प्रत्यय शब्दके अनेक अर्थ हैं। कहीं ज्ञानके अर्थमें है जैसे घटका प्रत्यय अर्थात् घटका ज्ञान । तथा प्रत्यय शब्द कारण वाचक भी है । जैसे अनन्त संसारका प्रत्यय मिथ्यात्व है' ऐसा कहने पर मिथ्यात्व हेतुक अनन्त संसार है ऐसा ज्ञान होता है । तथा प्रत्यय शब्द श्रद्धावाचक भी है। जैसे 'इसका इसमें प्रत्यय है', यहाँ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ११७ जगत्प्रत्यय' इति । सकलसंगपरिहारो मार्गो मुक्तेः इत्यत्र भव्यानां श्रद्धां जनयति लिगमिति जगत्प्रत्यय इत्यभिहितं । न चेत्सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तिलिंगं किमिति नियोगतोऽनुष्ठीयते इति । 'आदिठिदिकरणं' आत्मनः स्वस्य अस्थिरस्य स्थिरतापादनं । क्व? मुक्तिवमनि व्रजने । कि मम परित्यक्तवसनत्य रागेण, रोषेण, मानेन, मायया, लोभेन बा। वसनाग्रेसराः सर्वा लोकेऽलंक्रियाः तच्च निरस्तं । को मम रागस्थावसर इति । तथा परिग्रहो निबंधनं कोपस्य । तथा हि-पित्रा सुतो युध्यते धनाथितया ममेदं भवति तवेदमिति । तत्किमनेन स्वजनरिणा रिक्थेन, लोभ, मायां संपाद्य, दुर्गतिं च वर्द्धयता इति सकलः परित्यक्तो वसनपुरःसरः परिग्रहो रोषविजितये । हसति च मां परे साधवो रोषमुपयातं । क्वेयमवसनता मुमुक्षोः क्वायमस्य कोपहताशनः ज्ञानजलसेकपरिवृद्धतपोवनविनाशनबद्धविभ्रमः इति । तथा च माया धनार्थिभिः प्रयुज्यते सा च तिर्यग्गति प्रापयतीति भीत्वा मायोन्मूलनायवेदमनुष्ठितं । 'गिहिभावविवेगोवि' य गृहित्वात्पृथग्भावो दर्शितो भवति ।।८१।। __गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च । संसज्जणपरिहारो परिकम्मविवज्जणा चेव ।।२।। 'गंथच्चागो' परिग्रहत्यागः । 'लाघवं' हृदयसमारोपितशैल इव भवति परिग्रहह्वान् । कथमिदमन्ये भ्यश्चौरादिभ्यः पालयामि इति दुर्धरचित्तखेदवि गमाल्लघुता भवति । प्रत्ययसे श्रद्धाका बोध होता है । यहाँ भी प्रत्ययका अर्थ श्रद्धा है। जगतकी श्रद्धा । शङ्का--श्रद्धा प्राणिका धर्म है । और अचेलता आदि लिंग शरीरका धर्म है। तब आप कैसे कहते हैं—लिंग जगत प्रत्यय है ? । समाधान'समस्त परिग्रहका त्याग मुक्तिका मार्ग है' इसमें लिंग भव्यजीवोंकी श्रद्धा उत्पन्न करता है इसलिये लिंगको जगत प्रत्यय कहा है। यदि सकल परिग्रहका त्याग मुक्तिका लिंग न हो तो क्यों उसे नियमपूर्वक किया जायगा। 'आदठिदिकरण' का अर्थ है अपनी अस्थिर आत्माको स्थिर करना। किसमें ? मुक्तिके मार्गमें चलने में । जब मैंने वस्त्र ही त्याग दिया तो मुझे राग, रोष, मान, माया, लोभसे क्या प्रयोजन ? लोकमें सब अलंकरण वस्त्रमूलक होते हैं। वह मैंने त्याग दिया तो मुझे रागसे क्या प्रयोजन । तथा परिग्रह क्रोधका कारण है। देखो, धनकी अभिलाषासे पुत्र पितासे लड़ता है यह मेरा है यह तेरा है। तब अपने परिवारके वैरी इस धनसे क्या ? यह लोभ और मायाको उत्पन्न करके दुर्गतिको बढ़ाता है। इसीसे रोषको जीतनेके लिये मैंने वस्त्रपूर्वक सब परिग्रहका त्याग कर दिया। जब मुझे रोष होता है तो दूसरे साधु मुझपर हंसते हैं । कहाँ मुमुक्षुको यह नग्नता और कहाँ क्रोधरूपी अग्नि । यह तो ज्ञानरूपी जलके सिंचनसे फले-फूले तपोवनको नष्ट करने वाला है । तथा धनके इच्छुक मायाचार करते हैं । वह तिर्यञ्च गतिमें ले जाता है इस भयसे मायाका उन्मूलन करनेके लिये हो मैंने यह लिंग धारण किया है। तथा लिंग ग्रहण करनेसे गृहस्थपनेसे भिन्नता दीखती है ।। ८१ ॥ गा०-परिग्रहत्याग लाघव अप्रतिलेखन और भय रहितपना, सम्मूर्छन जीवोंका बचाव और परिकर्मका त्याग ये गुण लिंगमें होते हैं ॥८२।। १. लोभं आयासं पापं दुर्गति-आ० मु० । . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भगवती आराधना 'अप्पडिलिहणं' वसनसहितलिंगधारिणो हि वस्त्रखंडादिकं शोधनीयं महत् । इतरस्य पिच्छादिमात्र । 'परिकम्मविवज्जणा चेव' याचनसीवनशोषणप्रक्षालनादिरनेको हि व्यापारः स्वाध्यायध्यानविघ्नकारी अचेलस्य तन्न तथेति परिकर्मविर्जनं । 'गदभयत्तं' भयरहितता। भयव्याकुलितचित्तस्य न हि रत्नत्रयघटनायामुद्योगो भवति । सवसनो यतिर्वस्त्रेषु यूकालिक्षादिसम्मूर्छनजजोवपरिहारं न विधातुं अर्हः ।' अचेलस्तु तं परिहरतीत्यत्ह- 'संसज्जणं परिहारो' इति । 'परिसहअधिवासणा चेव'। शीतोष्णदंशमशकादिपरीषहजयो युज्यते नग्नस्य । वसनाच्छादनवतो न शीतादिबाधा येन तत्सहनपरीषहजयः स्यात् । पूर्वोपात्तकर्मनिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः इति वचनानिर्जराथिभिः परिषोढव्याः परीषहाः ॥८२॥ विस्सासकरं रूवं अणादरो विसयदेहसुक्खेसु । सव्वत्थ अप्पवसदा परिसह अधिवासणा चेव ।।८।। 'विस्सासकरं रूवं' विश्वासकारि जनानां रूपं अचेलतात्मकं । एवं असंगा नैतेऽन्यदगह्णन्ति नापि परोपघातकारि शस्त्रग्रहणं प्रच्छन्नमात्रं संभाव्यते । विरूपेषु चामीषु नास्मदीयाः स्त्रियो रागमनुबघ्नंतीति विश्वासः ॥ टी०-लिंग ग्रहणका एक गुण परिग्रहका त्याग है। दूसरा गुण लाघव है क्योंकि परिग्रहवान ऐसा होता है मानो छाती पर पहाड़ रखा है। कैसे अन्य चौर आदिसे इस परिग्रहकी रक्षा करूं इस प्रकार चित्तसे बड़े भारी खेदके चले जानेसे लाघव होता है। जो वस्त्र सहित मुनि लिंग धारण करते है उन्हें वस्त्रों आदिका शोधन करना पड़ता है किन्तु वस्त्र रहित साधुको तो केवल पीछी आदिका ही शोधन करना होता है अतः अप्रतिलेखना भी एक गुण है । वस्त्रधारीको मागना, सीना, धोना, सुखाना आदि अनेक काम करना होते हैं जिनसे स्वाध्याय और ध्यानमें विघ्न होता है। किन्तु वस्त्र रहित साधके ये सब नहीं होता अतः परिकर्मका न होना भी एक गणे है। जिसका चित्त भयसे व्याकुल रहता है वह रत्नत्रयके साधनमें उद्योग नहीं करता। अतः परिग्रहके त्यागसे भय नहीं रहता । तथा वस्त्र सहित साधु वस्त्रोंमें जूं लीख आदि सम्मूर्छन जीवोंका बचाव नहीं कर सकता। किन्तु वस्त्र रहित साघु इनसे बचा रहता है अतः संसञ्जण परिहार भी एक गुण है । तथा नग्न मुनि शीत, उष्ण, डासमच्छर आदि की परीषहको जीतता है। जो वस्त्र ओढ़े हैं उसे शीतादिकी बाधा नहीं होती। तब उसको सहना रूप परीषहजय कैसे सभव है ? तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है कि पूर्वग्रहीत कर्मोंकी निर्जराके लिये परीषहोंको सहना चाहिये ॥८२॥ ___ गा०-वस्त्र रहित रूप जनतामें विश्वास पैदा करने वाला होता है विषयसे होने वाले शारीरिक सुखमें अनादर भाव होता है । सर्वत्र स्वाधीनता रहती हैं और परीषहको सहना होता है ।।८३॥ १. अर्हति आ० गु० । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'अणादरो विसयदेहसुक्खेसु' विषयजनितेष शरीरसुखेषु प्रेताकारस्य किं मम वामलोचनाविलोकितेन, तासां कलगीतश्रवणेन, ताभिर्जुगुप्सनीयशरीरस्य का वा रतिक्रीडेति भावना चैवानादरः । अथवा शरीरसुखे विषयसुखे चानादरः । विषयसुखव्यतिरेकेण न शरीरसुखं, नाम किंचिदिति चेद्-शारीरदुःखाभावः शरीरसुखं, इंद्रियविषयसन्निधानजनिता प्रीतिविषयसुखमिति महाननयोर्भेदः। 'सम्वत्थ' सर्वस्मिन्देशे । 'अप्पवसदा' आत्मवशता । स्वेच्छया आस्ते, गच्छति; शेते वा । इहासनादिकरणे इदं मम विनश्यति वस्त्विति तदनरोधकता परतंत्रता नास्ति संयतस्य । परिग्रहविनाशभीरुरात्मनोऽयोग्येऽपि स्थाने उद्गमादिदोषोपहते प्राणिसंयमविनाशकारिणि वा आसनस्थानशयनादिकं संपादयति । त्रसस्थावरवाधामावहता वर्त्मना वा व्रजति । एतद्दोषपरिहारोऽसंगस्य भवति ।। 'परिसह अधियासणा चेव' पूर्वोपात्तकर्मनिर्जराथिना यतिना सोढव्याः परीषहाः नियोगेन क्षुधादयो बाधाविशेषाः द्वाविंशतिप्रकाराः । तत्रायं सामान्यवचनोऽपि परीषहशब्दः प्रकरणादचलाख्यात्तदनुरूपपरीषहवृत्तिाह्यः । तेन नाग्न्यशीतोष्णदंशमशकपरीषहसहन मिह कथितं भवति । सचेलस्य हि सप्रावरणस्य न तादशी शीतोष्णदंशमशकजनिता पीडा यथा अचेलस्येति मन्यते ॥८३॥ अचेलताया गुणान्तरसूचनाय गाथा जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं । इच्चेवमादिबहुगा अच्चेलक्के गुणा होति ॥८४|| टी०-नग्न मुनिको देखकर लोग सोचते हैं-ये तो परिग्रह रहित है, ये कुछ ग्रहण नहीं करते। ये परका घात करने वाले शास्त्र आदि भी छिपाकर नहीं रख सकते । ये तो विरूप है इनमें हमारी स्त्रियाँ भी राग नहीं कर सकती। इस प्रकारका विश्वास पैदा होता है। मेरा रूप तो प्रेतके समान है मुझे स्त्रियोंको ताकने, और उनके मनोहर गीतोंको सुननेसे क्या प्रयोजन ? अथवा इस ग्लानिभरे शरीरका उनके साथ कैसो रति क्रीड़ा । इस प्रकारकी भावना शारीरिक सुखमें अनादर है । अथवा शरीर सुख और विषय सुखमें अनादर ऐसा अर्थ भी होता है। शङ्का-विषयसुखसे भिन्न शारीरिक सुख नहीं है ? समाधान-शारीरिक दुःखके अभावको शरीर सुख कहते हैं और इन्द्रियोंके विषयोंके सम्बन्धसे उत्पन्न हुई प्रीति विषय सुख है। इन दोनोंमें महान् अन्तर है। सब देशमें आत्माधीनता रहती है। अपनी इच्छानुसार बैठता है, जाता है, सोता है। यहाँ आसन आदि करनेपर मेरा यह नुकसान होगा, इस प्रकार की परतंत्रता साधुके नहीं होती। परिग्रहके नाशके भयसे परिग्रही साधु उद्गम आदि दोषोंसे युक्त और प्राणिसंयमका विनाश करने वाले अयोग्य स्थानमें भी आसन, स्थान, शयन आदि करता है। अथवा त्रस और स्थावर जीवोंको बाधा पहुँचाने वाले मार्गसे गमन करता है । किन्तु परिग्रह रहित साधु इन दोषोंसे बचा रहता है । साधुको पूर्व संचित कर्मा के निर्जराके लिये नियमसे भूख प्यासकी बाधा आदि रूप बाईस परोषहोंको सहना चाहिये । यहाँ यह परीषह शब्द यद्यपि सामान्यवाची है फिर भी प्रकरणवश अचेलताका प्रकरण होनेसे उसके अनुरूप परीषह ग्रहण करना चाहिये । अतः यहाँ नाग्न्य, शीत, उष्ण, और दंशमशक परीषहोंका सहन कहा है । जो साधु सवस्त्र है कपड़ा ओढ़े हुए हैं उन्हें शीत उष्ण और डासमच्छरसे होने वाली वैसी पीड़ा नहीं होती जैसी वस्त्र रहितको होती है ।।८।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भगवती आराधना ___ "जिणपडिरूवं' जिनानां प्रतिबिंबं चेदं अचेललिगं । ते हि मुमुक्षवो मुक्युपायजा यद्गृहीतवन्तो लिंग तदेव तदर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः । यो हि यदर्थी विवेकवान् नासौ तदनुपायमादत्ते यथा घटार्थी 'तुरिवेमादीन्मुक्त्यर्थी च यतिनं चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् । यच्चात्मनोऽभिप्रेतम्योपायस्तन्नियोगत उपादत्ते यथा चक्रादिकं तथा यतिरपि अचेलतां । तदुपायता च अचेलताया जिनाचरणादेव ज्ञानदर्शनयोरिव । 'विरियायारों' वीर्यांतरायक्षयोपशमजनितसामर्थ्यपरिणामो वीर्य, तदविग्रहनेन रलत्रयवृत्तिर्वीर्याचारः । सच पंचविधेष्वाचारेष्वेकः स च प्रतितो भवति । अचेलतामद्वहताऽशक्यचेलपरित्यागस्य कृतत्वात् । परिग्रहत्यागो हि पंचमं व्रतं तन्नाचरितं भवेत् शक्तोऽपि यदि न परिहरेत् । ___ 'रागादिवोसपरिहरणं' । लाभे रागोऽलाभे कोपः । लब्धे ममेदभावलक्षणो मोहः । अथवा मृदुत्वं दानमित्येवमादिषु वसनाच्छादनगुणेषु रागोऽमृदुस्पर्शनादिषु द्वेष इत्येषां परिहारः । 'इच्चेवमादि' इत्येवमादयः 'बहुगा' महान्तः महाफलतया अच्वेलक्के अचेलतायां सत्यां 'गुणा होंति' गुणा भवन्ति । यांचादीनता रक्षा संक्लेशादिपरिहाराः आदिशब्देन गृहीताः ॥८४॥ अचेलताके अन्य गुणोंका सूचन करते हैं गा०-यह अचेलता जिन भगवानका प्रतिरूप है । वीर्याचारका प्रवर्तक है। रागादि दोषोंको दूर करती है । इत्यादि बहुतसे गुण अचेलतामें होते हैं ।।८४॥ टो०-जिण पडिरूव-यह अचेललिंग जिन देवोंका प्रतिबिम्ब है अर्थात् जिन देवोंने जो लिंग ग्रहण किया था मुक्तिके लिये वहीं लिंग मुक्तिके अभिलाषियोंके योग्य है। क्योंकि जिनदेव मुमुक्षु थे मुक्तिका उपाय जानते थे। जो जिस वस्तुका प्रार्थी होता है और विवेकशील होता है वह उस वस्तुके जो उपाय नहीं है उन्हें ग्रहण नहीं करता। जैसे घट बनानेका इच्छुक कपड़ा बुननेके साधन तुरि आदिको ग्रहण नहीं करता। इसी तरह मुक्तिका इच्छुक साधु वस्त्र ग्रहण नहीं करता क्योंकि । वस्त्र मुक्तिका उपाय नहीं है । और जो अपनेको इष्ट वस्तुका उपाय होता है उसे नियमसे ग्रहण करता है। जैसे घटका अर्थी चाक आदिको अबश्य ग्रहण करता है। उसी तरह साध भी अचेलताको ग्रहण करता है और अचेलता ज्ञान और दर्शनकी तरह मक्तिका उपाय है यह जिन भगवानके आचरणसे सिद्ध है। वीरियायारो-वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए सामर्थ्यरूप परिणामको वीर्य कहते है । उसको न छिपाते हुए रत्नत्रयके पालन करनेको वीर्याचार कहते हैं। पांच प्रकारके आचारोंमेंसे एक वीर्याचार है उसका पालन होता है क्योंकि अचेलताके धारणसे जो वस्त्रत्याग अशक्य है वह हो जाता है। परिग्रहका त्याग पाँचवा व्रत है। शक्ति होते हुए भी यदि परिग्रहका त्याग न करे तो वह पाँचवाँ व्रत नहीं रहता। रागदिदोस परिहरण–लाभमें राग होता है, लाभ न होने पर क्रोध आता है। जो प्राप्त होता है उसमें 'यह मेरा है' इस प्रकारका मोह होता है । अथवा ओढ़ने पहिरनेके वस्त्रोंके कोमलता मजबूती आदि गुणोंमें राग होता है और कठोर स्पर्शन आदिमें द्वेष होता है। वस्त्र त्याग देनेपर ये रागादि दोष नहीं होते। इस प्रकार अचेलतामें महाफलदायक महान गुण होते हैं । आदि शब्दसे मागना, दीनता, आदिसे रक्षा होती है और संक्लेश आदि नहीं होते ॥८४|| १. तंतुरित्येवमा-आ० नु० । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका पुनरप्यचेलतामाहात्म्यं सूचयत्युत्तरगाथा इय सव्वसमिदकरणो ठाणासणसयणगमण किरियासु । णिगिणं गुत्तिमुवगदो पग्गहिददरं परक्कमदि ।। ८५ ।। 'इय' एवं अवसनतया । 'सव्वसमिवकरणो सम्यगितानि प्रवृत्तानि समितानि, क्रियते रूपाद्युपयोग एभिरिति करणानि इंद्रियाणि, समितानि च तानि करणानि च समितकरणानि सर्वाणि च तानि समितकरणानि च सर्वसामंतकरणानि, सर्वसमितकरणान्यस्येति सर्वसमितकरणः । रागद्वेषरहिता भावेन्द्रियाणां प्रवृत्तिः समीचीना तस्याश्च अलता निबंधनं । रागादिविजयाय गृहितासंगत्वात्कथमिव रागादी प्रेक्षावान्यतते ॥८५॥ १२१ 'ठाणासणसयणगमणकिरियासु' एकपादसमपादादिका स्थानक्रिया, उत्कटासनादिका आसनक्रिया, दंडायतशयनादिका शयनक्रिया । सूर्याभिमुखगमनादिका गमनक्रिया । एतासु । पग्गहिदवरं प्रगृहीततरं । 'परक्कम दि' चेष्टते । कः ? निगिणं नग्नतां । 'गुति' गुप्ति । 'उवगदो' उपगतः प्रतिपन्नः । कृतवसनत्यागस्य शरीरे निःस्पृहस्य मम किं शरीरतपंणेन तपसा निर्जरामेव कर्तुं मुत्सहते इति तपसि यतते इति भावः ॥८५॥ अपवादलिंगमुपगतः किमु न शुद्धयत्येवेत्याशंकायां तस्यापि शुद्धिरनेन क्रमेण भवतीत्याचष्टेअववादिय लिंगको विसयासत्तिं अगूहमाणो य । णिंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो ॥ ८६ ॥ आगेकी गाथासे फिर भी अचेलताका माहात्म्य सूचित करते हैं गा० - इस प्रकार, नग्नता और गुप्तिको धारण करनेवाला सब इष्ट अनिष्ट विषयोंमें अपनी इन्द्रियोंको रागद्व ेषसे रहित करता है । और स्थान, आसन, शयन, गमन आदि क्रियाओंमें प्रग्रहीततर अर्थात् सुदृढ़रूपसे चेष्टा करता है || ८५ ॥ 0 दी० -- सव्वसमिदकरणानि - सम्यक् रूपसे 'इत' अर्थात् प्रवृत्तको समित कहते हैं । और जिनसे रूपादिका जानना देखना किया जाये उसे करण कहते हैं । करणका अर्थ इन्द्रिय है । जिसकी सब इन्द्रियां समित हैं वह सर्वसमितकरण है । भावेन्द्रियोंकी रागद्वेषसे रहित समीचीन प्रवृत्ति में कारण अचेलता है जिस विचारशील बुद्धिमान व्यक्तिने रागादिको जीतने के लिए असंगत को स्वीकार किया है वह रागादिमें कैसे यत्नशील हो सकता है । । एक पैर से या दोनों पैरोंको सम करके खड़े होना स्थान क्रिया है उत्कटासन आदि आसन क्रिया है । दण्डके समान एकदम सीधा सोना आदि शयन क्रिया है । सूर्यकी ओर अभिमुख होकर चलना गमन क्रिया है । जिसने वस्त्र त्याग दिया है और शरीर से निस्पृह है वह 'मुझे शरीर के पोषणसे क्या' ऐसा विचारकर तपके द्वारा निर्जरा करनेमें ही उत्साहित होता है । यह उक्त कथनका भाव है ||८५|| अचेल समाप्त हुआ । क्या अपवाद लिंगका धारी शुद्ध नहीं ही होता ? इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि उसकी शुद्धि भी इस क्रमसे होती हैं गा० - अपवादलिंग में स्थित होते हुए भी अपनी शक्तिको न छिपाते हुए और निन्दा ग करते हुए परिग्रहका त्याग करनेपर शुद्ध होता है || ८६ ॥ १६ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ भगवती आराधना अववादिलिंगकदो वि' अपवादलिंगस्थोऽपि । करोति स्थानार्थवृत्तिरिह परिगृहीतः । तथा च प्रयोगः एवं च कृत्वा एवं च स्थित्वेत्यर्थः । 'सुज्झदि' शुध्यति च । कर्ममलापायेन शुद्धयति । कीदृक् सन् यः स्वां 'सत्ति' शक्ति। 'अगृहमाणो' अगृहमानः सन । 'उवधि' परिग्रहं । 'परिहरंतो' परित्यजन् योगत्रयेण । "णिदणगरहणजुत्तो' सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मा! मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यंतःसंतापो निंदा । गर्दा परेषां एवं कथनं । ताभ्यां युक्तः निंदागहक्रियापरिणतः इति यावत् । एवमचेलता व्यावणितगुणा मूलतया गृहीता ।।८६॥ केशलोचाकरणे के दोषा यान्परिहत्तु लोचोऽनुष्ठीयते इत्यारेकायां दोषप्रतिपादनायोत्तरं गाथाद्वयम् केसा संसज्जति हु णिप्पडिकारस्स दुपरिहारा य । सयणादिसु ते जीवा दिट्ठा आगंतुया य तहा ॥ ८७ ॥ 'केसा' केशाः । 'संसज्जति खु' खुशब्द एवकारार्थः । यूकालिक्षोत्पत्तेराधारभावमुपव्रजन्त्येव कस्य केशाः ? 'णिप्पडियारस्स' निष्क्रान्तः प्रतीकारात निष्प्रतीकारः । प्रतीकारशब्दः सामान्यवचनोऽपि संसजनस्य प्रकृतत्वात् संसजनप्रतिकार एव वृत्तो गृह्यते । तैलाभ्यंगगंधादिप्रक्षेपजलप्रक्षालनादिनियामकुर्वत इत्यर्थः । ते च सम्मूच्र्डनामुपगताजीवा यूकादयः । 'दुःपरिहारा य' दुःखेन परिह्रियन्ते । क्व ? 'सयणादिसु' शयनं आतपगमनं, शिरसा कस्यचिदवष्टंभनं । निद्रामुद्रितलोचनस्य पतनं परवशस्य सतः आदिशब्देन गृह्यते । बाधा ट्रो०--'अववादियलिंगकदो' में 'कद' जिस 'करोति' धातुसे बना है उसका अर्थ यहाँ स्थान लिया है । जैसे 'ऐसा करके' का अर्थ इस प्रकार स्थिर करके होता है । अतः अपवादलिंगमें स्थित भी कर्ममलको दूर करके शुद्ध होता है । किस प्रकार होता है ? अपनी शक्तिको न छिपाकर मन-वचनकायसे परिग्रहका त्याग करनेपर होता है। तथा, समस्त परिग्रहका त्याग मुक्तिका मार्ग है, मुझ पापीने परीषहसे डरकर वस्त्र पात्र आदि परिग्रह स्वीकार किया। इस प्रकारके अन्तःसन्तापको निन्दा कहते हैं। दूसरोंसे ऐसा कहना गर्दा है। उनसे युक्त होनेपर अर्थात् अपनी निन्दा गर्दा करनेपर शुद्ध होता है । इस प्रकार जिस अचेलताके गुणोंका वर्णन ऊपर किया गया है उसे मूलरूपमें स्वीकार किया है ।।८६|| केशलोच न करने में क्या दोष है जिन्हें दूर करनेके लिए लोच किया जाता है ? इस शङ्काके उत्तर में दो गाथाओंसे दोषोंको कहते हैं गा०-प्रतीकार न करनेवालेके केश जूं आदि सम्मूर्छन जीवोंके आधार होते हैं। और वे सम्मूर्छन जीव शयन आदिमें दुष्परिहार होते हैं। तथा अन्यत्रसे आते हुए भी कीट आदि देखे गये हैं ।।८७॥ दो०-'संसज्जति खु' में खु शब्दका अर्थ एवकार है। अतः निष्प्रतीकारके केश जूं लीख आदिकी उत्पत्तिके आधार होते ही हैं। जो प्रतीकारसे रहित है वह निष्प्रतीकार है। यद्यपि प्रतीकार शब्द सामान्य प्रतीकारका वाचक है। फिर भी संसजनका प्रकरण होनेसे संसजन सम्बन्धी प्रतिकार लिया जाता है। उसका अर्थ होता है कि जो बालोंमें तेल मर्दन नहीं करता, सुगन्धित वस्तु नहीं लगाता, उन्हें पानीसे नहीं धोता उसके केशोंमें सम्मूर्छन जू आदि उत्पन्न हो जाते हैं और साधुके सोनेपर, धूपमें जानेपर, सिरसे किसीके टकरानेपर उन जीवोंको बाधा १. शय्योपगमनं आ० मु० । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १२३ जोवेभ्यः कथंचिदन्यदेशकालस्वभावभेदात् । ततः बाधायां दुष्परिहारायां जीवा एव दुष्परिहारा एव भवंतीति मन्यते । अन्यथा हस्तेनापनेतु शक्याः कथं दुष्परिहाराः स्युः । न केवलं तत्रोत्पन्ना एव दुष्परिहारास्तथा तेनैव प्रकारेण जीवाः 'आगंतुका य' अन्यत आगताश्च कीटादयश्च । एतेन हिंसादोष आख्यातः ।।८७।। जगाहि य लिक्खाहि य बाधिज्जंतस्स संकिलेसो य। संघट्टिजंति य ते कंडुयणे तेण सो लोचो ॥ ८८ ॥ जूवाहि य यूकाभिश्च । लिक्खाहिं य लिक्षाभिश्च । 'बाधिज्जतस्स'. वाध्यमानस्य यतेः संकिलेसो य संक्लेशश्च जायते इति शेषः । स च क्लेशोऽशभपरिणामः पापात्रवः पूर्वोपात्तकर्मपदगलरसाभिवर्द्धननिपुणः । अथवा बाधिज्जंतस्स भक्ष्यमाणस्य संकिलेसोय दुःखं वा । तथा चोक्तं-क्लिश विवाधने इति । एतेनात्मविराधनादोपः सूचितः । अथ तद्भक्षणे असहमानः कंड्यति तत्र दोषमाह-'संघटिज्जंति य' संघट्यंते ते यूकादयः । आगंतुकाश्च 'कंडूयणे' कंडूकरणे । 'तेण' तेन दोषेण हेतुनासो आगमदृष्ट: 'लोचो' लोचः क्रियते इति शेषः । प्रदक्षिणावर्तः केशश्मश्रुविषयः हस्तांगुलीभिरेव संपाद्यः द्वित्रिचतुर्मासगोचरः ॥८८॥ एवं लोचाकरणे दोषानुद्भाव्य लोचे गुणख्यापनाय गाथात्रयमुत्तरम् लोचकदे मुंडत्तं मुंडत्ते होइ णिव्वियारत्तं । तो णिव्वियारकरणो पग्गहिददरं परक्कमदि ।।८९॥ पहुँचती है। बाधाका मतलब है कि भिन्न देश, भिन्नकाल और भिन्न स्वभाव होनेसे जीवोंसे जीवोंको बाधा पहुँचतो है । उस बाधाको दूर करना अशक्य जैसा है। जब बाधा ही दुष्परिहार है तो उन जीवोंको दूर करना भी दुष्परिहार है, क्योंकि यदि बाधा पहुँचनेकी बात न होती तो उन्हें हाथसे निकाला जा सकता था। तथा जो जीव केशोंमें उत्पन्न होते हैं वे ही दुष्परिहार नहीं है, अन्यत्रसे आकर भी कीटादि वालोंमें घुस जाते हैं उन्हें भी दूर करना कठिन होता है। इस तरहसे केशलोच न करने में हिंसादि दोष कहे हैं ।।८७|| गा०-गँ से और लीखोंसे पीड़ित साधुके संक्लेश उत्पन्न होता है। खुजाने पर वे जूं आदि पीड़ित होते हैं इस कारणसे वह केशलोच किया जाता है ।। ८८ ॥ टी०-जू और लीख जब साधको बाधा पहुँचाती है तो साधुको संक्लेश होता है। वह संक्लेश अशुभ परिणाम रूप होनेसे पापास्रवका कारण है। उससे पूर्वबद्ध कर्म पुद्गलोंके अनुभाग रसमें वृद्धि होती है । अथवा 'वाधिज्जत'का अर्थ खाना या काटना है' उनके काटने पर यदि साधु ग्वुजाता है तो वे जू आदि पीड़ित होते हैं इस दोषके कारण आगममें कहा लोच करते हैं। यह लोच सिर और दाढ़ीके बालोंका हाथकी अंगुलियोंके द्वारा दो, तीन या चार मासमें प्रदक्षिणा के रूपमें अर्थात् दाहिनी ओरसे वायीं ओर किया जाता है ।। ८८ ।।। इस प्रकार लोचके न करने में दोष बतलाकर लोचमें गुणोंका कथन तीन गाथाओं द्वारा करते हैं____ गा०-लोच करने पर सिर मुण्डा हो जाता है । मुण्डताके होने पर निर्विकारता होती है। उससे विकार रहित क्रियाशील होनेसे प्रगृहीततर चेष्टा करता है ।। ८९ ।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भगवती आराधना 'लोयकवों लोचे कृतः स्थितः लोचकृतः सप्तमीति योगविभागात्समासः । तस्मिन् लोचे कृते । लोचस्थिते इति केचित् । अन्ये तु वदन्ति लोयगदे इति पठंतः लोचं गतः प्राप्तः लोचगतः तस्मिन्निति । अथवा कृतशब्दो भावसाधनः ततः सल्लक्षणा सप्तमी लोच एव कृतं तस्मिन् । लोचक्रियायां सत्यां । मुडत्तं' मुंडशिरस्कता नाम भवति । न मुंडशिरस्कता मुक्त्युपायो गुणोऽरत्नत्रयत्वादसत्याभिधानवत् तत्किमुक्तेनानेनानुपयोगिना गणेनेत्याशंकायां आह-'मडत्ते होदि णिग्वियारत्तं' इति । 'मुडत्ते' मुंडनायां सत्त्यां । 'होदि' भवति । 'णिग्विगारत्तं' निर्विकारता । विकारो विक्रिया सलीलगमनशृगारकथाकटाक्षेक्षणादिकः । तस्मान्निष्क्रान्तः तत्राप्रवृत्तः निर्विकारः तस्य भावः निर्विकारता । निर्विकारो भवति इति यावत । 'तो' ततः 'णिब्वियारकरणो विकाररहितक्रियः । 'पग्गहिददरं' प्रगृहीततरं । 'परक्कमदि' चेष्टते करणत्रये इति शेषः । रत्नत्रयोद्योगे परंपरया लोचस्योपयोगः समाख्यातोऽनया गाथया । नग्नस्य मुंडस्य मम सविभ्रमं गमनादिकं जनो दृष्ट्वा हसति, शोभते तरामियमस्य विलासिता षंडकस्य वामलोचनाविलास इवेति मन्यमानो निरस्तविकारो मुक्तये केवलं घटते इत्यभिप्रायः ॥८९।। अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुवयादि । साधीणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा ॥९०।। 'अप्पा' आत्मा । 'दमिदो होदि' वशीकृतो भवति । कस्य ? आत्मन एव । केन करणेन ? 'लोएण' केशोत्पाटनेन । दुःखभावनया निगृहीतदर्पः सर्व एव शांतो भवति यथा बलीवादिरिति मन्यते । टो०-लोचमें कृत अर्थात् स्थित लोचकृत है। दोनोंका योगविभाग करके सप्तमी समासमें अर्थ होता है-लोच करने पर। कोई 'लोचमें स्थित होने पर' ऐसा अर्थ करते हैं । अन्य 'लोयगदे' ऐसा पाठ रखते हैं। वे अर्थ करते हैं लोचको प्राप्त होने पर । अथवा कृत शब्द भावसाधन है। तब सप्तमीका अर्थ सत् होता है अर्थात् लोच क्रिया होने पर । मुण्डित होता है—सिर मुंड जाता है। शङ्का-सिर मुण्डन मुक्तिका उपाय नहीं है क्योंकि वह रत्नत्रय रूप नहीं है जैसे असत्य बोलना । तब इस अनुपयोगी गुणके कहनेसे क्या लाभ ? . ___समाधान-इसके उत्तरमें कहते हैं कि मुण्डन होने पर निर्विकारता होती है । लीला सहित गमन, शृगार कथा, कटाक्ष द्वारा निरीक्षण ये सब विकार है जो ये सब नहीं करता वह निर्विकार होता है । और जिसकी चेष्टाएँ विकार रहित होती हैं वह रत्नत्रयमें उद्योग करता है। इस गाथासे परम्परासे लोचका उपयोग कहा है। मैं नग्न और मुण्डे सिर हूँ मेरा विलासपूर्ण गमन आदि देखकर लोग हँसते हैं कि नपुंसकके स्त्री विलासकी तरह इसकी विलासिता कैसी शोभती है ? ऐसा मान, विकारको दूरकर वह केवल मुक्तिके लिये प्रयत्न करता है, यह इस गाथाका अभिप्राय है ॥ ८९ ।। गा०—केशलोचसे आत्मा दमित होता है और सुखमें आसक्त नहीं होता है। और स्वाधीनता निर्दोषता और निर्ममत्व होता है । ९० ॥ टो०-केश उपाडनेसे आत्मा आत्माके वशमें होता है । जैसे बैल वगैरह दुःख देनेसे शान्त हो जाते हैं वैसे ही दुःख भावनासे मदका निग्रह होने पर सभी शान्त हो जाते हैं। सुखमें आसक Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १२५ 'सुखे य' सुखे च । 'संगं' आसक्ततां नोपयाति । सुखमेव सुखलंपटं करोति जनं । दुःखेऽन्तर्भाव्यमाने सुखासक्तिहन्यते सुखोपयोगमूलात्तदभावात् । बीजाभावेऽकुर इव । इन्द्रियसुखं वाऽत्र सुखशब्देनोच्यते तत्रासक्तो हिंसादिषु प्रवर्तते । तेन परिग्रहारंभमूलात्सुखासंगाद्वयावृत्तिः संवर एवेति मुक्तेर्भवत्युपायः । अभिनवास्रवनिरोधमंतरण का नाम निर्जरा? तस्यां वाऽसत्यां का मुक्तिरिति भावः । 'साधीणदा य' स्ववशता च । केशासक्तो हि जनोऽवश्यं शिरोम्रक्षण, सम्मर्दने प्रक्षालने, तच्छोषणेच प्रयतते । स चायं व्यापारो विघ्नमावहति स्वाध्यायादेः । 'णिहोसदा य निर्दोषती च । या सदोषक्रिया सा न कार्या यथा स्तेयादिका। निर्दोषा त्वनुष्ठीयते यथानशनादिका। तथा चेयमदोषा लोचक्रिया। 'देहे य' देहे च । "णिम्ममदा' ममेदंबुद्धिरहितता। अनेन शौचाख्यो धर्मो भावितो भवतीत्युक्तं भवति । 'प्रकृष्टा लोभनिवृत्तिः शौचं शरीरलोभनिवृत्तिः शौचं । शरीरलोभनिवृत्तिः सकललोभनिराक्रियाया मूलं । शरीरोपकृतये बन्धुधनादिष्वस्य लोभः । धर्मश्च संवरहेतुः, गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजपैरिति वचनात् ॥९॥ आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि सम्मसढ्ढा य । उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहण च ।। ९१ ।। 'आणक्खिदा य होदि' आदर्शिता भवति । 'लोचेण' लोचेन । का? 'धम्मसढ्ढा' धर्मे चारित्रे नहीं होता । सुख ही मनुष्यको सुखलम्पट बनाता है । अन्तरंगमें दुःखकी भावना भाने पर सुखकी आसक्ति कम होती है सुखकी आसक्तिका मूल है सुखका उपभोग । उसका अभाव होनेसे सुखकी आसक्ति नहीं होती । जैसे बीजके अभावमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता। अथवा यहाँ सुख शब्दसे इन्द्रिय सुख लिया है। जो इन्द्रिय सुखमें आसक्त होता है वह हिंसा आदि करता है। अतः जो सुखासक्ति परिग्रह और आरम्भका मूल है उससे निवृत्त होना संवर ही है । अतः वह मुक्तिका उपाय है। नवीन कर्मोंका आना रुके बिना निर्जरा कैसी ? और उसके अभावमें मुक्ति कैसी? यह अभिप्राय है । तथा केशलोचसे स्वाधीनता आती है क्योंकि जो मनुष्य केशोंसे अनुराग रखता है वह अवश्य सिरको साफ करने, उसकी मालिश करने धोने तथा सुखाने में लगा रहता है और ये सव काम स्वाध्याय आदिमें विघ्न डालते हैं। तथा निर्दोषता होती है। जो क्रिया सदोष है वह नहीं करना चाहिए जैसे चोरी आदि । किन्तु निर्दोष क्रिया की जाती है जैसे उपवास वगैरह । उसी तरह लोच क्रिया भी निर्दोष है। शरीरमें 'यह मेरा है' ऐसी बुद्धि नहीं होती। इससे शौच धर्म पलता है यह कहा है। लोभसे अत्यन्त निवृत्तिको शौच कहते हैं । शरीरमें लोभकी निवृत्ति भी शौच है। शरीरमें लोभकी निवृत्ति सब प्रकारके लोभोंको दूर करनेका मूल है । शरीरके उपकारके लिए ही मनुष्य परिवार और धन आदिका लोभ करता है और शौच धर्म संवरका कारण है क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषह जयसे संवर कहा है ॥९०॥ गा०-और केशलोच करनेसे आत्माकी धर्ममें श्रद्धा प्रदर्शित होती है। उसी प्रकार लोच उग्र तप है और दुःखका सहन है ।। ९१ ।। टी.-लोच करनेसे आत्माकी धर्म अर्थात् चारित्रमें श्रद्धा प्रदर्शित होती है । अर्थात् १. तिहन्यते-आ० मू० । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ भगवती आराधना श्रद्धा। कस्य ? 'अप्पणों' आत्मनः । महती धर्मस्य श्रद्धाऽन्यथा कथमिदं दुःसहं वदेशमारभते इति । आत्मनो धर्मश्रद्धाप्रकाशनेन परस्यापि धर्मश्रद्धाजननोपबृहणं कृतं भवति । सोऽयमपवृहणाख्यो गुणो भावितो भवति । 'उग्गो तवो य' उग्रं च तपः कायक्लेशाख्यं दुःखांतराणि च सहते ।। 'लोचः तथैव' व्यावणितगुणवच्च । 'दुक्खस्स' दुःखस्य 'सहणं च' सहनं च दुःखं भावयत् दुःखान्तराणि च सहते । दुःखसहनान्निर्जरा भवत्यशभकर्मणां ॥९१॥ लोचोत्ति गदं ॥ व्युत्सृष्टशरीरताभिधानायोत्तरः प्रबंधः सिण्हाणभंगुव्वट्टणाणि णहकेसमंसुसंठप्पं । दंतोट्ठकण्णमुहणासियच्छिभमुहाइंसंठप्पं ॥ ९२ ।।। सिण्हाणभंगुम्वट्टणाणि वज्जेदिति पदघटना स्नानाभ्यंजनोद्वर्तनानि ।। णहकेसमंसुसंठप्पं नखकेशश्मश्रुसंस्कारं च वर्जयन्ति । अन्तरेणापि चशब्दं समुच्चयार्थप्रतीतिः पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मनः इति द्रव्याणि' इत्यत्र यथा ।। दन्तोट्ठकण्णमुहणासियच्छिभमुहादि संठप्पं वज्जेदिति पदरचना ।। दंतानामोष्ठयोः, कर्णयोर्मुखस्य, नासिकाया, अक्ष्णोध्रुवोरादिग्रहणात्पाणिपादादीनां च संस्कृति परिहरंति ।। स्नानमनेकप्रकारं शिरोमात्रप्रक्षालनं, शिरो मुक्त्वा अन्यस्य वा गात्रस्य, समस्तस्य वा । तन्न शीतोदकेन क्रियते स्थावराणां त्रसानां च वाधा माभूदिति । कर्दमवालुकादिमनाज्जलक्षोभणात्तच्छरीराणा च वनस्पतीनां पीडातःमत्स्यदर्दुरं सूक्ष्मत्रसानां च स्नानं निवार्यते । उष्णोदकेन स्ना त्विति चेन्न, तत्र त्रस थावरइसकी धर्मश्रद्धा महान है, यदि न होती तो इतना दुःसह कष्ट क्यों उठाता ? अपनी धर्मश्रद्धा प्रकाशित करनेसे दूसरेकी भी धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है और उसमें वृद्धि होती है। इस तरह उपवृंहण नामक गुण भी भावित होता है। तथा लोचसे कायक्लेश नामक उग्र तप होता है। तथा दुःख सहन करनेसे अन्य दुःखोंको भी सहन करने में समर्थ होता है। दुःख सहन करनेसे अशुभ कर्मोकी निर्जरा होती है । इस प्रकार लोचका कथन समाप्त हुआ ॥९१॥ ___ व्युत्सृष्ट शरीरता अर्थात् शरीरसे ममत्वके त्यागका कथन करनेके लिए आगेकी गाथा कहते हैं गा०-स्नान, तेलमर्दन, उबटन और नख, केश, दाढ़ी-मूंछोंका संस्कार छोड़ देते हैं। दाँत, ओष्ठ, कान, मुख, नाक, भौं आदिका संस्कार छोड़ देते हैं ॥९२।। टो०-'छोड़ते हैं' यह पद लगा लेना चाहिए । 'च' शब्दके विना भी समुच्चयरूप अर्थका बोध होता है । जैसे पृथिवी जल तेज वायु आकाश काल दिशा आत्मा मन ये द्रव्य हैं। यहाँ 'च' शब्द न होनेपर भी समुच्चयरूप अर्थका बोध होता है। अतः स्नान, अभ्यंजन, और उबटन नहीं लगाता है नख, केश, दाढ़ीका संस्कार और दाँत, ओष्ठ, कान, मुख, नाक, भौं आदिसे हाथ पैर आदिका संस्कार छोड़ देते हैं। स्नानके अनेक प्रकार हैं-सिरमात्र धोना, सिरको छोड़कर शेष शरीरको धोना अथवा समस्त शरीरको धोना। स्थावर और त्रसजीवोंको बाधा न हो, इसलिए स्नान ठण्डे जलसे नहीं करते । कीचड़ रेत आदिके मर्दनसे पानीमें क्षोभ पैदा होता है और जिसके होनेसे उनमें रहनेवाले वनस्पति कायिक जीवोंको तथा मछली मेढक और सूक्ष्म त्रसजीवोंको पीड़ा होती है। इस १. स्नायादिति-आ० मु० । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १२७ बाधा स्थितैव । भूमिदरीविवरस्थितानां पिपीलिकादीनां मृतेः, तरुणतृणपल्लवानां चोष्णांबुभिस्तप्तानां दुःखासिका महती जायते, तथा क्षारतया धान्यरसादीनां । न चास्ति प्रयोजनं स्नानेन सप्तधातुमयस्य देहस्य न सुचिता शक्या करें । ततो न शौचप्रयोजनं । न रोगापहृतये रोगपरीषहसहनाभावप्रसंगात्, न हि भूषार्य विरागत्वात् । घृततैलादिभिरभ्यंजनमपि न करोति प्रयोजनाभावादुक्तेन प्रकारेण घृतादिना क्षारेण स्पृष्टा भूम्यादिशरीरादि जंतवो बाध्यते । प्रसाश्च तत्रावलग्नाः । उद्वतने इतस्ततः पततां व्याघातः । मूलत्वक्फलपत्रादेः पेषणे, दलने च महानसंयम: 1 निर्वर्तनविलेखनघर्षणरंजनादिको नखसंस्कारः। केशसंस्कारो हस्तघर्षणेन मसणतासंपादनं, तथा श्मश्रणामपि । दंतमलापकर्षणं तद्रंजनं वा दंतसंस्कारः। ओष्ठमलापकर्पणं तद्रागकरणं वा ओष्ठसंस्कारः । हस्वयोलंबतापादनं दीर्घयोर्वा हस्वकरणं तन्मलनिरासोऽलंकारग्रहणं कर्णसंस्कारः । मखस्य तेजःसंपादनं लेपेन मंत्रेण वा मखसंस्कारः । अक्ष्णोः प्रक्षालनं अंजनं अक्षिसंस्कारः। विकटोत्थितानां रोम्णां उत्पाटनं आनुलोम्यापादनं लंबयोरुन्नतीकरणं, मरूसंस्कारः । शोभाथं हस्तपादादिप्रक्षालनं, औषधविलेपादिसंस्कार आदिशब्देन गृहीतः ॥९२॥ वज्जेदि बंभचारी गंधं मल्लं च धूववासं वा । संवाहणपरिमद्दणपिणिद्धणादीणि य विमुत्ती ॥ ९३ ॥ लिए शीतल जलसे स्नान नहीं करते । शंका-तब गर्म जलसे स्नान करना चाहिए ? समाधान-उसमें भी त्रस और स्थावर जीवोंको बाधा रहती ही है । पृथिवी तथा पहाडके बिलोंमें रहनेवाली चींटी आदिके मरनेसे और उष्णजलके तापसे कोमल तृण पत्ते आदिके झुलसनेसे बड़ा दुःख होता है। तथा जलके खारपनेसे धान्यके रसको भी हानि पहुंचती है। तथा स्नानकी कोई आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि सप्तसाधुओंसे युक्त शरीरको पवित्र नहीं किया जा सकता । अतः पवित्रताको दृष्टिसे स्नानका कोई प्रयोजन नहीं है। रोगको दूर करनेके लिए भी स्नान आवश्यक नहीं है क्योंकि तब साधु रोगपरीषह सहन नहीं कर सकेंगे। और शरीरकी शोभाके लिए भी स्नान आवश्यक नहीं है क्योंकि साधु तो विरागी होते हैं। साधु प्रयोजन होनेसे घी तेल आदिसे शरीरका अभ्यंजन भी नहीं करते। क्योंकि कहे हुए अनुसार घी आदिसे तथा क्षारसे भूमि आदि तया शरीर आदिमें चिपटे जीवोंको बाधा पहुँचती है । उद्वर्तन अर्थात् उबटन लगानेसे शरीरसे चिपटे त्रसजीव यहाँ वहाँ गिरकर मर जाते हैं। तथा उबटन तैयार करनेके लिये वृक्षकी जड़, छाल, फल पत्ते आदिको पीसने या दलने में महान असंयम होता है । काटना, छाटना, रगड़ना, रंगना आदि नखका संस्कार है। हाथसे घर्षणके द्वारा चिकनापना लाना केश तथा दाढी मूछोंका संस्कार है। दाँतका मैल दूर करना अथवा दाँतोंको रंगना दाँतका संस्कार है । ओठोंका मल दूर करना अथवा उनको रंगना ओष्ठ संस्कार है । यदि छोटे हो तो बड़ा करना और बड़े हों तो छोटा करना, मेल निकालना अथवा आभूषण धारण करना कानका संस्कार है । लेप या मंत्र द्वारा मुखको तेजस्वी बनाना मुखका संस्कार है। आँखोंको धोना, अंजन लगाना आँखका संस्कार है । विकट रूपसे उठे हुए रोमोंको उखाड़ना और उन्हें व्यवस्थित करना तथा लटकती हुईको ऊँचा करना भौंका संस्कार है । आदि शब्दसे शोभाके लिये हाथ पैर धोना, अथवा औषध आदिका लेप करना, ग्रहण किये गये हैं ।। ९२ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ भगवती आराधना 'गंध' कस्तूरिकादिकं । 'मल्लं' माल्यं चतुष्प्रकारं । 'धूववासं वा' धूपं कालागुर्वादिकं । वासं मुखवासं च जातिफलादिकं । अनेकसुरभिद्रव्यमिश्रं वा । 'संवाहणं' हस्ताभ्यां मलनं । चरणावमईनं परितः 'परिमईनं' । अंसकुट्टनं उन्नति दाढ्यं च कतु यत्तत्पिणिद्धमित्युच्यते । एतत्सर्व वर्जयति प्रयोजनाभावाद्धिसाप्रवृत्तेश्च । कः ? ब्रह्मचारी अब्रह्म निवृत्तिपरो यतिः ॥१३॥ किं ब्रह्मव्रतस्य कुर्वन्ति स्नानादिपरित्यागाः येन तद्वताचरणप्रियस्तदनुष्ठाने यतते इत्यारेकायामाह जल्लविलित्तो देहो लुक्खो लोयकदवियडबीभत्थो । जो रूढणक्खलोमो सा गुत्ती बंभचेरस्स ॥९४।। 'जल्लविलित्तो देह' इति । 'देहो गुत्ती बंभचेरस्स' इति पदघटना । 'देहः' शरीरं । 'गुत्तो' गुप्तिः रक्षा। कोदृक् ? 'जल्लविलित्तो' घनीभूतमुपर्युपरि प्रचितं शरीरमलं जल्लशब्देनोच्यते । तेन विलित्तो विलिप्तः देहः । स्नानादित्यागात् 'रुक्खो' रूक्षस्पर्शः स्नानादिविरहादेव 'लोचकदविगदबीभत्थो' लोचकरणविकृतबीभत्सः । 'जो' यो देह 'रूढणक्खलोमो' दीर्धीभूतनखप्रच्छाद्यदेशलोमान्वितः । सेति गुप्तिः ॥ सामानाधिकरण्यात् स्त्रीलिंगत्वात् ॥ कस्य ? 'बंभचेरस्स' ब्रह्मचर्यस्य ।। इति व्युत्सृष्टदेहता ॥ गा-ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ गन्ध, माल्य और धूप और मुखवास संवाहन, परिमर्दन और पिणिद्धण आदिको छोड़ देता है ॥ ९३ ॥ टी-ब्रह्मचारी अर्थात् अब्रह्मके त्यागमें तत्पर साधु कस्तूरी आदि गंध, चार प्रकारको माला (पुष्पमाला, रत्नमाला, मोतीमाला और सुवर्णमाला) कालागुरु आदि धूप, मुखको सुवासित करने वाले जाति फल आदि, अथवा अनेक सुगन्धित द्रव्योंका मिश्रण, हाथोंसे शरीरकी मालिश, पैरोंसे शरीरको दबवाना, और पिणिद्ध, इन सबको प्रयोजन न होनेसे और हिंसापरक होनेसे छोड़ देता है। कन्धों को उन्नत और दृढ़ बनानेके लिये जो उनको कूटा जाता है उसे 'पिणिद्धण' कहते हैं । ९३ ॥ ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करने वालेको स्नान आदिके त्यागसे क्या लाभ होता है जिससे ब्रह्मव्रतके आचरणका प्रेमी स्नान आदिके त्यागको अपनाता है, इस शङ्काका उत्तर देते हैं गा-जल्लसे लिप्त, रूक्ष, लोच करनेसे विकृत और वीभत्स, बढ़े हुए नख और रोमों से युक्त जो शरीर होता है, ब्रह्मचर्यकी वह गुप्ति है ॥१४॥ टो०--शरीरपर चढ़ा हुआ मैलपर मैल जल्ल कहाता है। स्नान आदिका त्याग करनेसे यतिका शरीर मैलसे लिपता जाता है। तथा स्नान आदि न करनेसे रुखा हो जाता है। केश लोच करनेसे भद्दा और ग्लानि युक्त होता है उसे देखकर लोगोंको ग्लानि होती है। नख बढ़े हुए होते हैं। गुप्त अंग आदिके बाल बढ़ जाते हैं। ऐसा शरीर ब्रह्मचर्यकी गुप्ति है । उससे यतिके ब्रह्मचर्यकी रक्षा होती है। 'गुप्ति' शब्द स्त्रीलिंग होनेसे सामानाधिकरण्यके लिये 'सा' शब्दका प्रयोग किया है ॥९४।। व्युत्सृष्ट शरीरताका प्रकरण समाप्त हुआ। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका प्रतिलेखनसाध्यप्रयोजनाख्यानायोत्तरगाथाद्वयम् इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे । उव्वत्तणपरिवत्तण पसारणाउंटणामरसे ।।९५॥ 'यस्य येन हि संबन्धो दूरस्थमपि तस्य तत्' इत्यनेन क्रमेण संबन्धः-'इरियादाणे' पडिलेहणेण पडिलिहिज्जदित्ति एवं सर्वत्र । ईर्यायां गमने व्रजतः स्वपादनिक्षेपदेशे दुष्परिहाराः यदि स्युः पिपीलिकादयोऽथवा प्राक् पादावलग्नरजसो विरुद्धयोनिभूिमिरुत्तरा जलं प्रवेष्टव्यं यदि 'पडिलेहणेण' प्रतिलेखनेन 'पडिलेहिज्जवि निराक्रियते त्रसादिकं । 'आदाने' ग्रहणे ज्ञानचारित्रसाधनानां । "णिखेवे विवेके' । ज्ञानसंयमोपकरणानां निक्षेपे स्थापनायां । यन्निक्षिप्यते यत्र च तदुभयप्रमार्जनं कायं। शरीरमलानां उच्चारादीनां 'विवेके' उत्सर्जने वा कर्तरि प्रदेशः । सा च भर्यद्ययोग्या प्रमार्जनीया। 'ठाणे निसीयणे सयणे' स्थाने आसने च शयनकियायां । 'उव्वत्तपपरियत्तणपसारणाउंटणामरसे। 'उन्वत्तणं' उत्तानशयनं । 'परिवत्तणं' पावातरसंचार, 'पसारणं' प्रसारणं हस्तपाददीनां । आउंटणं संकोचनं । स्पर्शनक्रिया 'आमरसशब्देनोच्यते' । पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ चिण्हं च होइ सगपक्खे । विस्सासियं च लिंगं संजदपडिरूवदा चेव ॥९६॥ ___चिण्हं च होदि' चिह्नतां भजते । 'सगपक्खे' स्वप्रतिज्ञायां । सर्वजीवदया हि यतेः पक्षः । विस्सासियं च' विश्वासकारि च जनानां । 'लिंग' प्रतिलेखनाख्यं कथमयमतिसूक्ष्मान्कुंथ्वादीनपि परिहत्तं, गृहीतप्रति अव प्रतिलेखनका प्रयोजन बतलानेके लिये दो गाथा कहते हैं गा०-गमनमें, ग्रहणमें, रखने में मल त्यागमें स्थानमें बैठनेमें शयनमें ऊपरको मुखा करके सोने में करवट लेने में हाथ पैर फैलाने में संकोचनमें और स्पर्शनमें पीछीसे परिमार्जन करना चाहिये ॥१५॥ टी०-जिसका जिसके साथ सम्बन्ध होता है दूर होते हुए भी वह उसका होता है, इस क्रमके अनुसार प्रतिलेखनके दूर होते हुए भी यहां उसके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिये। ईर्या अर्थात गमन करते हए यदि अपने पैर रखनेके देशमें चींटी आदिको दूर करना अशक्य हो, अथवा अपने पैरोंमें लगी हुई धूलसे आगेकी भूमि विरुद्ध योनि वाली हो या यदि जलमें प्रवेश करना हो तो पीछीसे त्रसादि जीवोंको दूर करना चाहिये । अर्थात् पीछीसे उस देशका पैर आदि का परिमार्जन करके चलना चाहिये । ज्ञान और चारित्रके साधन पुस्तक कमण्डलु आदिको ग्रहण करते समय, या उन्हें रखते समय, जो वस्तु रखें और जहाँ रखे उन दोनोंका प्रमार्जन करना चाहिये-पीछीके द्वारा उन्हें झाड़ना चाहिये । शरीरके मल मूत्रादिका त्याग करते समय यदि भूमि अयोग्य हो तो उसका प्रमार्जन करना चाहिये। स्थान, आसन और सोते समय मुख ऊपर करके सोते हुए या करवट लेते समय या हाथ पैर फैलाते और संकोचते समय, किसी वस्तु को छूते समय पीछेसे प्रमार्जन करना चाहिये । यहाँ आमरस शब्दसे स्पर्शन क्रियाको कहा है ।।१५।। गा०-उक्त क्रिया करते समय पाछेके द्वारा प्रतिलेखना करना चाहिये, इस प्रकार पूर्व Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना लेखनोऽस्यान्महतो जीवान्कथमिव बाधितुं उत्सहते इति । 'संजदपडिरूवदा चैव' । संयतानां 'प्राक्तनानां प्रतिबिंबता च प्रतिलेखना ग्रहणेन भवति ॥९६॥ प्रतिलेखनलक्षणाख्यानायाह १३० रयसेयाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लघुत्तं च । जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥ ९७ ॥ 'रजसेदाणमगहणं' रजसः सचित्तस्य अचित्तस्य वा स्वेदस्य अग्राहकं । अचित्तरजोग्राहिणा सचित्त रजो प्रतिलेखने तद्विराधना सचित्तर जो ग्राहिणा चेतरस्य । स्वेदग्राहिणि रजसामुपहतिः । 'मद्दवसु कुमालदा ' मृदुस्पर्शता मार्दवं, सुकुमालदा सौकुमार्यं । 'लघुत्तं च' लघुत्वं च । एते पंच गुणाः यत्रैते पंच प्रकारगुणाः संति 'तं' तत् 'प्रडिलिहणं' प्रतिलेखनं 'पसंसंति' स्तुवंति दयाविधिज्ञाः । अमृदुना, असुकुमारेण गुरुणा च प्रतिलेखनेन जीवानामुपघात एव कृतो न दयेति भावः । एवं चतुर्गुणयुक्तं लिंगं व्याख्यातं गृहीतलिंगस्य यतेः ॥९७॥ शिक्षानंतरेति तन्निरूपणार्थं उत्तरप्रबंधः - णिउणं विउलं सुद्धं णिकाचिदमणुत्तरं च सव्वहिंदं । जिणवयणं कलुसहरं अहो य रत्ती य पढिदव्वं ॥ ९८ ॥ गाथासे सम्बन्ध है | अपनी प्रतिज्ञामें पीछी चिह्न होती है । और प्रतिलेखना रूप लिंग मनुष्योंको विश्वास करानेवाला है । और प्राचीन मुनियोंका प्रतिबिम्ब रूप है ॥९६॥ टी० - मुनिका पक्ष या प्रतिज्ञा सब जीवोंपर दया करना है । अतः पीछी उसका चिह्न है । तथा यह चिह्न मनुष्योंमें विश्वास उत्पन्न कराता है कि जब यह व्यक्ति अतिसूक्ष्म कीट आदि जीवोंकी भी रक्षाके लिये पीछी लिये हुए है तो हमारे जैसे बड़े जीवोंको कैसे बाधा पहुँचा सकता है । तथा पीछी धारण करनेसे प्राचीन मुनियोंका जो रूप था उसीकी छाया वर्तमान मुनियों में आ जाती है || ९६ ॥ प्रतिलेखनाके लक्षण कहते हैं गा०-- धूलि और पसीने को पकड़ती न हो, कोमल स्पर्शवाली हो, सुकुमार हो, और हल्की हो । जिसमें ये पाँच गुण होते हैं उस प्रतिलेखनाकी प्रशंसा करते हैं ॥९७॥ टी० - सचित्त या अचित्त रज और पसीनेको ग्रहण न करती हो; क्योंकि अचित्त रजको ग्रहण करनेवाली पीछी से सचित्त रजकी प्रति लेखना करनेपर उनमें रहनेवाले जीवोंका घात होता है और सचित्त रजको ग्रहण करनेवाली पीछीसे अचित्त रजकी प्रतिलेखना करने पर भी घात होता है। पसीनेको पकड़नेवाली पीछीसे रजमें रहनेवाले जीवोंका घात होता है । तथा पीछी कोमल स्पर्शवाली, सुकुमार और हल्की होनी चाहिये । जिस प्रतिलेखनमें ये पाँच गुण होते हैं, दयाकी विधिको जाननेवाले उसकी प्रशंसा करते हैं । इसका भाव यह है कि कठोर, असुकुमार और भारी प्रतिलेखनासे जीवोंका घात ही होता है, दया नहीं । इस प्रकार लिंगको स्वीकार करनेवाले साधुके चार गुणोंसे युक्त लिंगका कथन किया ||९७|| १. प्रधानानां -आ० मु० । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका जिंणवयणं जिनवचनं । 'अहो य रत्तो य' नक्तं दिवं । 'पढिदव्वं' अध्येतव्वं । कीदृग्भूतं जिनप्रवचनमत आह–'निउणं' जीवादीनर्थान्प्रमाणनयानुगतं निरूपयतीति निपुणं । 'सुद्ध पूर्वापरविरोधपुनरुक्तादिद्वात्रिंशद्दोषवर्जितत्वात् शुद्धं । 'विपुलं' निक्षेपः, 'एकार्थः, निरुक्तिः अनुयोगद्वारं, नयश्चेति अनेकविकल्पेन जीवादीनन्सिप्रपंचं निरूपयतीति विपुलं । अर्थगाढत्वान्निकाचितं अर्थनिचित । 'अणुत्तरं च न विद्यते उत्तरं उत्कृष्टमस्मादित्यनुत्तरं । परेषां वचनानि पुनरुक्तानि, अनर्थकानि, व्याहतानि, प्रमाणविरुद्धानि च तेभ्य इदमुत्तरं तदसंभविगुणत्वात् । 'सवहिदं' सर्व प्राणहितं । अन्येषां मतानि केषांचिदेव रक्षा सूचयति । 'जिघांसन्तं जिघांसीयात् न तेन ब्रह्महा भवेत्' इत्युपदेशात् । कलुसहरं द्रव्यकर्मणां ज्ञानावरणादीनां अज्ञानादेर्भावमलस्य च विनाशनात् कलुषहरं । 'अहो य रत्तीय पढियन्वमित्यनेन' अनारतं अध्ययनं सूचितं ॥९८॥ अव शिक्षाका कथन करते हैं गा०-निपुण विपुल, शुद्ध, अर्थसे पूर्ण, सर्वोत्कृष्ट और सब प्राणियोंका हित करनेवाला द्रव्यकर्म भाव कर्मरूपी मलका नाशक जिनवचन रात-दिन पढ़ना चाहिये ॥९८॥ टो०-जिनवचन रात-दिन पढ़ना चाहिये। किस प्रकार जिनवचन पढना चाहिये ? इसके उत्तरमें कहते हैं जो निपुण हो अर्थात् जीवादि पदार्थोंका प्रमाण और नयके अनुसार निरूपण करनेवाला हो । पूर्वापर विरोध पुनरुक्तता आदि बत्तीस दोषोंसे रहित होनेसे शुद्ध हो। विपुल हो अर्थात् निक्षेप, निरुक्ति अनुयोगद्वार और नय इन अनेक विकल्पोंसे जो जीवादि पदार्थोंका विस्तार से निरूपण करता हो। निकाचित अर्थात अर्थसे भरपुर हो। अनुत्तर अर्थात जिससे कोई उत्तर यानी उत्कृष्ट न हो। दूसरोंके वचन पुनरुक्त, निरर्थक, बाधित और प्रमाण विरुद्ध हैं अतः उनसे जिनवचन उत्कृष्ट हैं क्योंकि जो गुण उनमें सम्भव नहीं है उन गुणोंसे युक्त है। सब प्राणियोंका हितकारी है। दूसरोंके मत तो किन्हीं की ही रक्षा सूचित करते हैं। कहा है-वेदका जाननेवाला भी ब्राह्मण यदि किसीको मारता हो तो उसे मार डालना चाहिये । उससे ब्रह्म हत्याका पाप नहीं लगता। तथा ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म और अज्ञानादिभावमलका विनाश करनेसे जिनवचन पापका हरनेवाला है। उसे 'रात-दिन पढ़ना चाहिये' इससे निरन्तर अध्ययन करना सूचित किया है ॥९८॥ १. पक्षार्थः -आ० मु० । २. आ० मु० प्रत्योअधोलिखिताश्लोकाः स । "यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा ।। यज्ञो हि भूत्यै सर्वेषां तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ १॥ "अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः ॥ क्षेत्रदारहरश्चेति षडेते आततायिनः ॥" "आततायिनमायांतमपि वेदांतविद् द्विजम् ॥ जिघांसंतं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा भवेत् ॥" Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ भगवती आराधना जिनवचनशिक्षायां गुणान्संहृत्य कथयति आदहिदपइण्णा भावसंवरो णवणवो या संवेगो ॥ णिक्कंपदा तवो भावणा य परदेसिगत्तं च ।।९९।। आदहिदपइण्णा आत्महितपरिज्ञानं । इंदियसुखं अहितं परिहितमिति गृह्णन्ति जनाः । दुखप्रतीकारमात्रं तत् ? अल्पकालिकं, पराधीनं, रागानुबंधकारि, दुर्लभं, भयावहं, शरीरायासमात्र, अशुचिशरीरासंस्पर्शनजं । तत्रास्य बालस्य सुखबुद्धिः । निःशेपदुखापायजनितं स्वास्थ्यं अचलं सुखमिति न वेत्ति । जिनवचोऽभ्यासात्वधिगच्छति । 'भावसंवरों' भावः परिणामः तस्य संवरो निरोधः । ननु परिणाममंतरेण न द्रव्यस्यास्ति क्षणमांत्रमप्यवस्थानं तत्किमच्यते भावसंवर इति । परिणामविशेषवृत्तिरिह भाव शब्द इति मन्यते। तथा वक्ष्यति 'सज्झायं कुव्वंतो पंचदीसंवुडो इति' अशुभकर्मादाननिमित्तपरिणामग्रहणमिह सरागापेक्षया। वीतरागाणां त केषांचिच्छद्धोपयोगनिमित्ततया पुण्यासवपरिणामसंवरोऽपि ग्राह्यः । 'णवणवो य' प्रत्ययः प्रत्यग्रः । 'सवेगो' धर्मे श्रद्धा जिनवचनाभ्यासादुपजायते । “णिक्कंपदा' निश्चलता। क्व ? रत्नत्रये । 'तवो' स्वाध्यायाख्यं तपश्च । 'भावणाय' भावना च गुप्तीनां । 'परदेसिगत च' परेषामुपदेशकता च ॥ जिनवचनकी शिक्षामें जो गुण हैं उन्हें कहते हैं गा०-आत्महितका ज्ञान होता है। भाव संवर होता है। नवीन-नवीन संवेग होता है रत्नत्रयमें निञ्चलता होती है । स्वाध्याय तप होता है और भावना होती है। और दूसरोंको उपदेश करनेकी क्षमता होती है ॥१९॥ ट्रोल-जिनवचनके पढ़नेसे आत्महितका परिज्ञान होता है-इन्द्रिय सुख अहितकर है उसे लोग हितकर ग्रहण करते हैं। इन्द्रिय सुख दुःखका प्रतोकार मात्र है, अल्पकाल तक रहता है। पराधीन है, रागका सहचारी है, दुर्लभ है (?), भयकारी है, शरीरका आयासमात्र है, अपवित्र शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न होता है । उसको यह अज्ञानी सुख मानता है। समस्त दुःखोंके विनाशसे उत्पन्न हुआ स्वास्थ्य-आत्मामें स्थितिरूप भाव-स्थायी सुख है यह नहीं जानता। वह सुख जिनवचनके अभ्याससे प्राप्त होता हैं। भाव अर्थात् परिणामका, संवर अर्थात् निरोध भावसंवर है। शका-परिणामके विना द्रव्य एक क्षण भी नहीं रह सकता । तब आप कैसे भावसंवर कहते हैं ? समाधान यहाँ भाव शब्द परिणाम विशेषका वाचक लिया गया है। आगे कहेंगेस्वाध्याय करनेवाला पाँचों इन्द्रियोंसे संवृत होता है। अत: यहां सरागकी अपेक्षासे अशुभ कर्मों के ग्रहणमें निमित्त परिणामका ग्रहण किया है। वीतरागोंमेंसे तो किन्हींके जिनवचन शुद्धोपयोग में निमित्त होता है इसलिये भावसंवरसे पुण्यास्रवमें निमित्त परिणामोंका संवर भी ग्राह्य है । जिनवचनके अभ्याससे नित नया 'संवेग' अर्थात् धर्ममें श्रद्धा उत्पन्न होतो है । रत्नत्रयमें निश्चलता आती है। स्वाध्यायनामक तप होता है, गुप्तियोंकी भावना होती है तथा दूसरोंको उपदेश देनेकी सामर्थ्य आती है ॥९९|| Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका आदहिदपरिण्णा इत्यस्य व्याख्यानं गाथोत्तरा णाणेण सव्वभावा जीवाजीवासवादिया तघिगा । णज्जदि इह परलोए अहिदं च तहा हियं चैव ॥ १० 11 'णाणेण' ज्ञानेन । 'सव्वभावा' सर्वे पदार्था: । 'जीवाजीवादिगा' जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षाः । 'सधिगा' तथ्यभूताः । 'णज्जंति' ज्ञायन्ते । 'तथा' तेनैव प्रकारेण । 'इहपरलोए' इह परस्मिश्च लोके । 'अहद' अहितं । 'हिदं हितं चैव । ननु च आदहिदपरिण्णा इत्यत्र हितस्यैव हि सूचितत्वात् जोवादिपरिज्ञानं असूचितं कथं व्याख्यायते पूर्वमभिहितं हितमनुक्त्वा ? अत्रोच्यते-आत्मा च हितं च आत्महिते तयोः परिज्ञानं इति गृहीतं । न चात्मनो हितमिति । ततो युक्तं व्याख्यातं । एवमपि जीव एव निर्दिष्ट इत्यजीवाद्युपन्यासः कथं ? आत्मशब्दवस्तूपलक्षणत्वाददोषः । जीवाजीवात्रवबंधसंवर निर्जरामोक्षास्तत्त्वं [त०सू० १८] इत्यत्र सूत्रे आदी निर्दिष्टो जीवः प्रसिद्धस्तेनोत्तरोपलक्षणं क्रियते । अथवा आत्मन्यज्ञाते हितमेव दुर्ज्ञातं आत्मपरिणामो हि हितं तच्च स्वास्थ्यं । तच्च स्वरथे आविदिते स्वास्थ्यं सुज्ञातं भवति । तत आत्मा ज्ञातव्यः । १३३ जादं सयं समत्त णाणमणं तत्थवित्थिदं विमलं । रहिदं तु उग्गहादिहिं सुहंति एयंतियं भणियं" [प्र० ० १५] | इति वचनात् अनंतज्ञानरूपं सुखं यदि हितमिति गृहीतं, तथापि चेतनाया जीवत्वाच्चैतन्यावस्थास्वरूपत्वात् केवलस्यावस्थानात् आत्मा ज्ञातव्य एव । मोक्षस्तु कर्मणां तदपायतयाधिगंतव्यः । तत्परिज्ञानमजीवेऽनिर्ज्ञाते न भवति । पुद्गलानामेव द्रव्यकर्मत्वात् तद्वियोगस्य मोक्षत्वात् । स च मोक्षो बंधपुरस्सरः । न आगे आत्महित परिज्ञानका व्याख्यान करते हैं गा० – ज्ञानके द्वारा जीव अजीव आस्रव आदि सब पदार्थ तथ्यभूत जाने जाते हैं । उस प्रकारसे इस लोक और परलोकमें अहित और हित जाना जाता है ॥१००॥ टी० - शंका- 'आत्महित परिज्ञा' इस पदमें तो हितको ही सूचित किया है, जीवादिके परिज्ञानको तो सूचित नहीं किया है तब पहले कहे गये हितका कथन न करके जीवादि परिज्ञानका व्याख्यान क्यों किया है ? समाधान - आत्महित परिज्ञानका अर्थ आत्मा और हितका परिज्ञान लिया है । 'आत्माका हित' अर्थ नहीं लिया है । अतः जीवादिका व्याख्यान करना युक्त है । शंका - - ऐसा अर्थ करनेपर भी जीवका ही निर्देश किया है । तब अजीव आदिका उपन्यास क्यों किया ? समाधान- आत्म शब्द अजीवादिका उपलक्षणरूप होनेसे कोई दोष नहीं है । क्योंकि 'जीवाजीवा' इत्यादि सूत्रमें जीवका प्रथम निर्देश प्रसिद्ध है उससे आगेके अजीवादिका उपलक्षण किया है । अथवा, आत्माका ज्ञान हुए विना उसके हितको जानना कठिन है । आत्माका परिणाम हित है और वह स्वास्थ्य है । अतः स्वस्थका ठीक ज्ञान होनेपर स्वास्थ्यका सम्यग्ज्ञान होता है । अतः आत्मा ज्ञातव्य है । अथवा ऐसा कहा है- अनन्त पदार्थों में व्याप्त और अवग्रह आदिके क्रमसे रहित निर्मल सम्पूर्णज्ञान जो परकी सहायताके विना स्वयं होता है उसे एकान्तसे सुखरूप कहा है।' इस कथन से यद्यपि अनन्तज्ञानरूप सुखको हित स्वीकार किया है तथापि चेतना जीव है और केवलज्ञान चैतन्य अवस्था स्वरूप है अतः आत्मा ज्ञातव्य ही है और मोक्ष कर्मोंके विनाशरूप होनेसे जानने योग्य है । कर्मोंका ज्ञान अजीवको जाने विना नहीं होता, क्योंकि पुद्गल ही Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ भगवती आराधना ह्यसति बंधे मोक्षोऽस्ति । स च वंधो नासत्यास्रवे । मोक्षस्य चोपायौ संवरनिर्जरे। अहितं इति यदि दुःखं गृह्यते तदैहलौकिकमनुभवसिद्धमेव । किं तत्र जिनवचनेन ? अहितकारणं यद्यहितमुच्यते तत्कर्म तच्चात्राजीववचनेन आक्षिप्तं । अथ हिंसादयः परंपराकारणत्वेन दुःखस्यावस्थिताः अहितशब्देनोच्यन्ते । तथाप्ययुक्तं आस्त्रवेऽन्तर्भूतत्वात् । अत्रोच्यते-अनुभूतमपि दुःखं अस्मिजन्मनि जडमतयो विस्मरंत्यत एव सन्मार्ग न ढोकते । तेषां स्मृतिर्जन्यते जिनवचनेन मनुजभवापदां प्रकटनेन । जुगुप्सिते कुले प्रादुर्भूतिविचित्रास्तत्र रोगोरगदशनजनिता विपदः । निर्द्रविणता, दुर्भगता, अबंधुता, अनाथता, प्रार्थितद्रविणपरांगनालाभधूमध्वजनिर्दग्धचित्तता, द्रविणवतां कुत्सितप्रेषणकरणं, तथापि तेषां आक्रोशननिर्भर्त्सनताडनादीनि, परवशतामरणादीन्येवमादिना, इह लोके हितं दानतपःप्रभृतिक हितकारणं हितं इति यदा गृह्यते 'हितमारण्यमौषधं' इति यथा । यतो दानादिके कुशलकर्मणि वर्तमाना जनैः स्तूयंते वंद्यन्ते । उक्तं च दानेन तिष्ठन्ति यशांसि लोके दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् ।। परोऽपि बंधुत्वमुपैति दानात्तस्मात्सुदानं सततं प्रदेयम् ॥” इति ।-[वरांच० ७॥३६] इंद्रचक्रवरादयोऽपि प्रणतिमायान्ति तपोद्रविणानाम् । परलोके अहितं भवान्तरभाविदुःखं नरकगती हि, तिर्यक्त्वे च, परलोके हितं निवृतिसुखं, तदेत्सकलं अवबोधयति जैनी भगवती भारती। द्रव्यकर्मरूप होते हैं और उनका विनाश मोक्ष है। वह मोक्ष बन्धपूर्वक होता है। क्योंकि वन्धके अभावमें मोक्ष नहीं होता । तथा वन्ध आस्रवके विना नहीं होता। और मोक्षके उपाय संवर और निर्जरा हैं। शंका-यदि अहितसे दुःख लेते है तो इस लोकमें होनेवाला दुःख अनुभवसे सिद्ध है। उसमें जिनवचनकी क्या आवश्यकता ? यदि अहितके कारणको अहित कहते हैं तो वह कर्म है और अजीव शब्दसे उसका ग्रहण होता है। यदि परम्परासे दुःखका कारण होनेसे हिंसा आदिको अहित शब्दसे लेते हैं तो भी अहितका पृथक् कथन अयुक्त है क्योंकि आस्रवमें उनका अन्तर्भाव होता है। समाधान-इस जन्ममें अनुभूत भी दुःखको अज्ञानी भूल जाते हैं इसीसे वे सन्मार्गमें नहीं लगते । जिनवचनके द्वारा मनुष्य भवमें होनेवाली विपत्तियों को बतलानेसे उनका स्मरण होता है। निन्दनीय कुलमें जन्म होनेपर वहाँ रोगरूपी साँपके डसनेसे उत्पन्न हुई विपत्तियाँ आती हैं। दरिद्रता, भाग्यहीनता, अबन्धुता, अनाथता, इच्छित धन और पर स्त्रीकी प्राप्ति न होने रूप अग्निसे चित्तका जलते रहना, धनिकोंकी निन्दनीय आज्ञाका पालन करनेपर भी उनके गाली; गलौज, डाँट फटकार, मारपीट, परवश मरण आदिको सहना पड़ता है। जब हितका अर्थ हितका कारण लिया जाता है तो इस लोकमें दान, तप आदि हित हैं । जैसे जंगली औषधी हितका कारण होनेसे हित कही जाती है क्योंकि जो दान आदि सत्कार्य करते हैं लोग उनकी स्तुति और वन्दना करते हैं। कहा भी है-'दानसे लोकमें चिरस्थायी यश होता है। दानसे वैर भी नष्ट हो जाते हैं। दानसे पराये भी बन्धु हो जाते हैं। अतः सुदान सदा देना चाहिए ॥' तपोधनोंको इन्द्र चक्रवर्ती आदि भी नमस्कार करते हैं। परलोकमें अहितसे मतलब है आगामी नरकगति और तिर्यञ्चगतिके भवमें होनेवाला दुःख । और परलोकमें हितसे मतलब है मोक्षसुख । जिन भगवान्के द्वारा उपदिष्ट भारती इन सबका ज्ञान कराती है ॥१००॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १३५ आत्महितापरिज्ञाने दोषमाचष्टे आदहिदमयाणंतो मुज्झदि मूढो समादियदि कम्मं । कम्मणिमित्तं जीवो परीदि भवसायरमणंतं ।।१०१।। ''आदहिदमयाणतो' आत्महितमबुध्यमानः । 'मुज्झदि' मुह्यति अहितं हितमिति प्रतिपद्यते । मोहे को दोष इत्यत आह–'मूढो' मोहवान् 'समादियदि' समादत्ते । 'कम्म' कर्मसामान्यशब्दोप्ययं अशुभकर्मवृत्तिग्राह्यः । कर्मग्रहणे को दोष इत्यत आह–'कम्मणिमित्तं' कर्महेतुकं, जीवः 'परीदि' परिभ्रमति । किं 'भवसायरम्' भवसमुद्रं 'अणंतं' अनन्तम् ॥१०१॥ आत्महितपरस्योपयोगमादर्शयति जाणंतस्सादहिदं अहिदणियत्ती य हिदपवत्ती य । होदि य तो से तम्हा आदहिदं आगमेदव्वं ॥१०२।। 'जाणतस्स' जानतः । 'आदहितं' आत्महितं । 'अहिदणियत्ती य' अहितनिवृत्तिश्च । 'हिदपवत्तीय' हिते प्रवृत्तिश्च । 'होदि य' भवति च । 'तो' ततः हितज्ञानात्पश्चात् । 'तह्मा' तस्मात् ‘आदहिदं' आत्महितं । 'आगमेदव्वं' शिक्षितव्यम् । अत्र चोद्यते-ननु आत्महितज्ञस्य हिते प्रवृत्तिभवतु, अहितान्निवृत्तिः कथं ? अहितज्ञोऽहितान्निवर्तते, हितमहितं च भिन्नमेव । यद्यतो भिन्नं न तस्मिन्नवगते तदन्यदवगतं भवति । यथावानरेऽवगते न मकरः, भिन्नं च हितादहितं तस्माद्धितज्ञोऽहितं अजानन् कथमहितान्नियोगतो निवर्तेत ? अत्रो आत्महितका ज्ञान न होनेके दोष कहते हैं___गा०-आत्माके हितको न जाननेवाला मोहित होता है। मोहित हुआ कर्मको ग्रहण करता है । और कर्मका निमित्त पाकर जीव (अणतं) अनन्त भवसागरमें भ्रमण करता है ॥१०१॥ टी०-आत्महित या आत्मा और हितको जाननेवाला अहितको हित मानता है। यही मोह है। इस मोहमें क्या दोष है ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि मोही जीव कर्मको ग्रहण करता है । यहाँपर यद्यपि कर्म सामान्य कहा है तथापि अशुभकर्म ग्रहण करना चाहिए। कर्मोके ग्रहणमें क्या दोष है ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि कर्मके कारण जीव भव समुद्रमें अनन्तकाल तक भ्रमण करता है ॥१०१।। आत्महितके ज्ञानका उपयोग दिखलाते हैं गा०-आत्महितको जाननेवालेके अहितसे निवृत्ति और हितमें प्रवृत्ति होती है। हिताहितके ज्ञानके पश्चात् उसका हिताहित भी जानता ही है। इसलिए (आदहिदं) आत्महितको आगमसे सीखना चाहिए ।।१०२।। ___टी०-शंका-आत्महितको जाननेवालेको हितमें प्रवृत्ति होओ, किन्तु अहितसे निवृत्ति कैसे ? जो अहितको जानता है वह अहितसे निवृत्त होता है। तथा हित और अहित भिन्न हैं। जो जिससे भिन्न होता है उसके जाननेपर उससे भिन्नका ज्ञान नहीं होता । जैसे बन्दरको जाननेपर मगरका ज्ञान नहीं होता। और हितसे अहित भिन्न है अत हितको जाननेवाला अहितको नहीं जानता। तब वह कैसे नियमसे अहितसे निवृत्त होगा? Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना च्यते-सर्वमेव वस्तु स्वपरभावाभावोभयाधीनात्मलाभं यथा घटः पृथु लोदराद्याकारात्मकः पटादिरूपतयाऽग्राह्यः, अन्यथा विपर्ययस्तं तज्ज्ञानं भवेत् । एवमिहापि हितविलक्षणमहितं अजानता तद्विलक्षणता हित ज्ञाता भवेत् । अतो हितज्ञोऽहितमपि वेत्तोति युक्ता निवृत्तिस्ततः ।।१०२।। शिक्षाया अशुभभावसंवरहेतुता प्रतिपादनायाह सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसुंदडो तिगुत्तो य ॥ हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू ।।१०३।। "सज्झाय' स्वाध्यायं पंचविधं वाचनाप्रश्नानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशभेदेन । तत्र निरवद्यस्य ग्रन्थस्या ध्यापनं तदर्थाभिधानपुरोगं वाचना । संदेहनिवृत्तये निश्चितवलाधानाय वा सूत्रार्थविषयः प्रश्नः । अवगतार्थानप्रेक्षणं अनुप्रेक्षा । आम्नायो गुणना। आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवैजनी, निवेदनीति चतस्रः कथास्तासां कथनं धर्मोपदेशः.। तं स्वाध्यायं कुर्वन् । 'चिदयसंवुडो होदि' पंचेन्द्रियसंवृतो भवति । ननु पञ्चेन्द्रिय शब्दः निष्ठांतस्य पूर्वनिपातासंवृतपंचेन्द्रिय इति भवितव्यम् ? सत्यं । 'जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम्' इत्यनेन बहब्रोही पंचेन्द्रियत्वजातिवृत्तिरिति जातिवचनः । ततो निष्ठांतं परतःप्रयज्यते इति मन्यते । इन्द्रियमनेकप्रकारं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं इति । इह तु रूपाधुपयोगा इन्द्रियशब्देनोच्यन्ते । तेनायमर्थःस्वाध्यायं कुर्वन्निरुद्ध समाधान-प्रत्येक वस्तुका जन्म स्वके भाव और परके अभाव, इन दोनोंके अधीन है। जैसे घट बड़े पेट आदि आकारवाला होता है. पटादिरूपसे उसका ग्रहण नहीं होता। यदि घटका पटरूपसे ग्रहण हो तो वह ज्ञान विपरीत कहलायेगा। इसी तरह यहाँ भी जो हितसे विलक्षण अहितको नहीं जानता वह उससे विलक्षण हितका भी ज्ञाता नहीं हो सकता। अतः जो हितको जानता है वह अहितको भी जानता है । इसलिए उसकी अहितसे निवृत्ति उचित ही है ।।१०२॥ शिक्षा अशुभभावके संवरमें हेतु है, यह कहते हैं गा-विनयसे युक्त होकर स्वाध्याय करता हुआ साधु पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे संवृत और तीन गुप्तियोंसे गुप्त एकाग्रमन होता है ।। १०३ ॥ . टी.-वाचना, प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके भेदसे स्वाध्यायके पाँच भेद हैं। उसके अर्थका कथन करने पूर्वक निर्दोष ग्रन्थके पढ़ानेको वाचना कहते हैं। सन्देहको दूर करनेके लिये अथवा निश्चितको दृढ़ करनेके लिये सूत्र और अर्थके विषयमें पूछना प्रश्न है । जाने हुए अर्थका चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । कण्ठस्थ करना आम्नाय है। कथाके चार प्रकार हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी । उनके करनेको धर्मोपदेश कहते हैं। उस स्वाध्यायको करने वाला पञ्चेन्द्रिय संवृत होता है । शङ्का-बहुव्रीहि समासमें निष्ठान्तका पूर्वनिपात होनेसे 'संवृत पञ्चेन्द्रिय' होना चाहिये। समाधान-आपका कथन सत्य है। 'जातिकाल सुखादिभ्यः परवचनम्' इस सूत्रसे पञ्चेन्द्रिय शब्द पञ्चेन्द्रिय जातिवृति होनेसे जातिवाचक है। इसलिये निष्ठान्तका प्रयोग पञ्चेन्द्रियके आगे किया है। इन्द्रियके अनेक भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय । किन्तु यहाँ इन्द्रियशब्दसे रूपादि विषयक १. पृथुतलाद्या-अ० । पृथुलाद्या-आ० । २. यान्नि-आ० मु० । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १३७ रूपाधुपयोगो भवति इति । रूपाद्युपयोगनिरोधे किं फलं ? रागाद्यप्रवृत्तिः । मनोज्ञामनोज्ञरूपाधुपयोगावलंबनौ रागद्वेषौ। न ह्यनवबुध्यमानो विषयः स्वसत्तामात्रेण तो करोति । सुप्तेऽन्यमनस्के वा रागादीनां विषयसन्निधावप्यदर्शनात् । "गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते। तत्तो विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा॥" [पञ्चास्ति० १२९ ] इति वचनाच्च । कथं स्वाव्याये प्रवर्तमानः 'विणयेण समाहिदों' ज्ञानविनयेन समन्वितो भूत्वा यः स्वाघ्यायं करोति 'तिगुत्तो य होदि' तिसृभिर्गुप्तिभिश्च भवति । मनसोप्रशस्तरागाद्यनवलेपात्, अनृतरूक्षपरुषकर्कशात्मस्तवनपरदूषणादावव्यापृतेः, हिंसादौ शरीरेणाप्रवृत्तेश्च, “एयग्गमणो य होदि भिक्खू' इति पदघटना-एकमुखान्तःकरणश्च भवति भिक्षुः स्वाध्याये रतः । एतदुक्तं भवति-ध्याने प्रवृत्तिमप्यासादयतीति । न ह्यकृतश्रुतपरिचयस्य धर्मशुक्लध्याने भवितुमर्हतः । अपायोपायभवविपाकलोकविचयादयो धर्मध्यानभेदाः । अपायादिस्वरूपज्ञानं जिनवचनबलादेव 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' [त-सू० ९।३७] इत्यभिहितत्वाच्च ॥१०॥ प्रत्यग्रसंवेगप्रभवक्रममाचष्टे जह जह सुदमोग्गाहदि अदिसयरसपसरमसुदपुव्वं तु । तह तह पल्हादिज्जदि नवनवसंवेगसड्ढाए ।। १०४ ।। उपयोग कहा गया है । अतः यह अर्थ होता है कि स्वाध्यायको करने वालेका रूपादि विषयक उपयोग रुक जाता है। शङ्का-रूपादि विषयक उपयोगको रोकनेका क्या फल है ? समाधान-रागादिकी प्रवृत्ति नहीं होती। राग द्वेष मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपादि विषयक उपयोगका आश्रय पाकर होते हैं। जिस विषयको जाना नहीं वह विषय केवल अपने अस्तित्वमात्रसे राग द्वषको पैदा नहीं करता। क्योंकि सोते हुए या जिसका मन अन्य ओर है. उस मनुष्यमें विषयके पासमें होते हुए भी राग द्वष नहीं देखे जाते । कहा है-'गतिमें जाने पर शरीर बनता है। शरीरसे इन्द्रियाँ बनती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है और उससे राग और द्वष होते हैं । जो विनय पूर्वक स्वाध्याय करता है वह पञ्चेन्द्रिय संवृत और तीन गुप्तियोंसे गुप्त होता है क्योंकि उसका मन अप्रशस्त रागादिके विकारसे रहित होता है, झूठ, रुक्ष, कठोर, कर्कश, अपनी प्रशंसा, परनिन्दा आदि वचन नहीं बोलता, तथा शरीरके द्वारा हिंसा आदिमें प्रवृत्ति नहीं करता । तथा स्वाध्यायमें लीन साधु एकाग्रमन होता है। अर्थात् ध्यानमें भी प्रवृत्ति करता है। जिसका श्रुतसे परिचय नहीं है उसके धर्मध्यान शुक्लध्यान नहीं होते । अपायविचय, उपायविचय, विपाकविचय, लोकविचय आदि धर्मध्यानके भेद हैं। अपाय आदिके स्वरूपका ज्ञान जिनागमके बलसे ही होता है । कहा भी है-आदिके दो शुक्लध्यान और धर्मध्यान पूर्ववित् श्रुतकेबलीके होते हैं ।। १०३ ॥ नवीन संवेगके उत्पन्न होनेका क्रभ कहते हैं गा०-जैसे-जैसे अतिशय अभिधेयसे भरा, जिसे पहले कभी नहीं सुना ऐसे श्रुतको अवगाहन करता है, तैसे-तैसे नई नई धर्मश्रद्धासे आह्लाद युक्त होता है ।। १०४ ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भगवती आराधना 'जह जह' यथा यथा । 'सुदं' श्रुतं 'ओग्गाहदि' अवगाहते शब्दश्रुताभिधेयमधिगच्छतीति यावत् । 'अदिसयरसपसरं अतिशयरसप्रसरं' समयांतरेषु अनुपलब्धोऽर्थोऽतिशयितो रसः । शब्दस्य हि रसोऽर्थः तस्य सारत्वात आम्रफलादिरस इव । प्रसरशब्देन प्राचुर्यमतिशयितार्थस्य सूचयति । ततोऽयमर्थोऽस्य-अतिशय़ाभिधेयबहलं श्रुतमिति । ननु प्रवादिनोऽपरेऽपि स्वसमयमेव प्रशंसन्ति । प्रत्यक्षेणानुमानेन च विरुद्धमर्थस्वरूपं केवलं नित्यत्वमनित्यतां वा निरूपयतामागमानां नातिशयार्थप्रसरता। प्रमाणांतरसंवाद्यागमार्थोऽतिशयितो भवति नापरः । 'असुदपुव्वं तु' अश्रुतपूर्वमेव । ननु भव्यानामभव्यानां च कर्णगोचरतामायात्येव श्रुतं किमुच्यतेऽश्रुतपूर्वमिति ? अथ श्रुताभिधेयापरिज्ञानाच्छब्दमानं श्रुतमप्यश्रुतं इति गृह्यते तदप्ययुक्तं, अर्थोपयोगस्यापि असकृत् ज्ञातत्वात् । अयमभिप्रायः श्रद्धानसहचारिबोधाभावाच्छ्रुतमप्यश्रुतमिति । 'तह तह पल्हादिज्जई' तथा तथा .प्रल्हादमुपैति । 'नवनवसंवेगसड्ढाए' प्रत्यग्रतरधर्मश्रद्धया । ननु च संसाराद्भीरता संवेगः ततोऽयमर्थः स्यादसंबंधः न दोषः । संसारभीरुताहेतुको धर्मपरिणामः । आयुधनिपातभीरताहेतुककवचग्रहणवत् । तेन संवेगशब्दः कार्ये धर्मे वर्तते ॥१०४॥ निष्कंपताख्यानायाह आयापायविदण्हू दंसणणाणतवसंजमे ठिच्चा । विहरदि विसुज्झमाणो जावज्जीवं दु णिक्कंपो ॥१०५।। टी०-जैसे-जैसे श्रुतका अवगाहन करता है अर्थात् शब्द रूप श्रुतके अर्थको जानता है । वह श्रुत 'अतिशयरस प्रसर' होना चाहिये । अन्य धर्मोमें जो अर्थ नहीं पाया जाता उसे 'अतिशयरस' कहा है । क्योंकि शब्दका रस उसका अर्थ है वही उसका सार है। जैसे आम्रफलादिका रस । प्रसर शब्दसे अतिशयित अर्थकी बहुलता सूचित होती है। अतः 'अतिशयितरस प्रसर' का अर्थ है-अतिशय अभिधेयसे भरा हुआ श्रुत । शङ्का-अन्य मतावलम्बी भी अपने सिद्धान्तकी प्रशंसा करते हैं ? समाधान-प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरुद्ध अर्थके स्वरूप केवल नित्यता या केवल अनित्यता का कथन करने वाले आगम अतिशय अर्थबहुल नहीं हैं। जिस आगमका अर्थ अन्य प्रमाणोंसे प्रमाणित होता है वही आगमार्थ अतिशयित होता है, अन्य नहीं। तथा वह अश्रुतपूर्व जो पहले नहीं सुना, होना चाहिये। .. शङ्का-भव्य और अभव्य जीवोंके कानोंमें श्रुत सुनने में आता ही है तब आप अश्रुत पूर्व कैसे कहते हैं ? यदि श्रुतके अर्थका ज्ञान न होनेसे शब्दमात्र श्रुतको अश्रुत कहते हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अर्थके उपयोगका भी अनेक बार ज्ञान हो जाता हैं ? समाधान-अभिप्राय यह है कि श्रद्धान पूर्वक ज्ञान न होनेसे श्रुत भी अश्रुत होता है । - तो जैसे श्रुतका अवगाहन करता है वेसे वैसे नई नई धर्मश्रद्धासे युक्त होता है । - शङ्का-संसारसे भीरुताको संवेग कहते हैं । तब आपका अर्थ धर्म ठीक नहीं हैं । समाधान–इसमें कोई दोष नहीं है। संसारसे भीरुता धर्म परिणामका कारण है। जैसे शस्त्रके आघातके भयसे कवच ग्रहण करते हैं इससे संवेग शब्द संवेगका कार्य जो धर्म है उसको कहता है ।। १०४ ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १३९ आयापायविदण्हू वृद्धिहानिक्रमज्ञः । प्रवचनाम्यासादेवं रत्नत्रयाभिवृद्धिः एवं तथा हानिरिति यो जानाति असौ । 'दंसणणाणतवसंजमें' 'श्रद्धाने, ज्ञाने, तपसि, संयमे वा। 'ठिच्चा' स्थित्वा । 'विहरदि' प्रवर्तते । 'विसुज्झमाणो' शुद्धिमुपयान् । 'जावज्जीवं' जीवितकालावधि । तु शब्दोऽन्ते नेयः । 'णिक्कंपो दु' विनिष्प्रकंपो निश्चल एवेति यावत् । निःशंकितत्वादिना दर्शनस्य वृद्धिः, शंकादिना हानिः । अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धया स्वाध्याये चोपयोगात् ज्ञानवृद्धिः । अनुपयोगादपूर्थीिग्रहणाच्च ज्ञानहानिः । यथा चोक्तम्"पुटवगहिदं पि णाणं 'संकुडवियजुत्तजोगिस्स" इति । तपसो द्वादशविधस्य वृद्धिः संयमभावनया वीर्याविनिगूहनात् ज्ञानोपयोगात् । हानिः पुनस्तद्विपर्ययादैहिककार्यासंगाद्वा । सम्यक् पापक्रियाभ्य उपरमः संयमः । पापक्रियाश्चाशुभमनोवाक्काययोगाः तेन चारित्रं संयमः । 'पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रं' इति वचनात् । तस्य संयमस्य वृद्धिः पंचविंशतिभावनाभिर्दानि तासां भावनानां अभावेन । श्रुताद्विना ज्ञानादीनां गुणदोषं वा न वेत्ति । अनिर्मातगुणः कथं गुणानुपवंहयेत्, अविदितदोषो वा तांस्त्यजेत् । तेन शिक्षायामादरः कार्यः ॥१०५॥ जिनवचनशिक्षा तपः इत्येतदुच्यते वारसविहम्मि य तवे सम्भंतरवाहिरे कुसलदिढे । ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्मं ।।१०६।। निष्कम्पताका कथन करते हैं गा०-वृद्धि और हानिके क्रमको जानने वाला श्रद्धान, ज्ञान, तप और संयममें स्थित होकर शुद्धिको प्राप्त होता हुआ जीवन पर्यन्त विहार करता है वह निश्चल ही है ।। १०५ ।। .. टो०-प्रवचनके अभ्याससे जो यह जानता है कि ऐसा करनेसे रत्नत्रयकी वृद्धि होती है और ऐसा करनेसे हानि होती है वह श्रद्धान, ज्ञान, तप, और संयममें स्थित होकर शुद्धिको प्राप्त करता हुआ. जीवन पर्यन्त विहार करता हैं निष्कम्प अर्थात् निश्चल ही है। - निःशंकित आदि गुणोंसे सम्यग्दर्शनकी वृद्धि होती है और शंका आदिसे हानि होती है। अर्थशुद्धि, व्यंजनशुद्धि और उभयशुद्धिसे तथा स्वाध्यायमें उपयोग लगानेसे ज्ञानकी वृद्धि होती है। उपयोग न लगानेसे तथा नवीन अपूर्व अर्थको ग्रहण न करनेसे ज्ञानकी हानि होती है । कहा है-'पूर्वमें ग्रहण किया हुआ भी ज्ञान, जो. उसमें उपयोग नहीं लगाता. उसका घट जाता है।' संयमको भावनासे व अपनी शक्तिको न छिपाकर ज्ञानमें उपयोग लगानेसे बारह प्रकारके तपकी वृद्धि होती है। उससे विपरीत करनेसे और लौकिक कार्यों में फंसे रहनेसे तपकी हानि होती है। पाप क्रियाओंसे सम्यक रीतिसे विरत होनेको संयम कहते हैं। अशुभ मनोयोग, अशुभ वचन योग और अशुभकाय योग पापक्रिया है। अतः चारित्र संयम है। कहा भी है-'पाप क्रियाओंसे निवृत्ति चारित्र है।' उस संयमको वृद्धि पच्चीस भावनाओंसे होती है और उन भावनाओंके अभावसे संयमकी हानि होती है। शास्त्राभ्यासके बिना ज्ञान आदिके गुण अथवा दोषको नहीं जानता। जो गुणोंको नहीं जानता वह कैसे गुणोंको बता सकता है। और जो दोषोंको नहीं. जानता वह कैसे उन्हें छोड़ सकता है ? अतः शिक्षामें आदर करना चाहिये ॥ १०५ ।। .... जिनवचनकी शिक्षा तप है, यह कहते हैं१. संकुडइविजु-मु० । २. अज्ञात-आ० मु० । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० भगवती आराधना 'बारसविहम्मि य' द्वादशप्रकारे । 'तवे' तपसि । 'सम्भंतरबाहिरे' सहाभ्यन्तरदाह्याभ्यां वर्तते इति साभ्यंतरबाह्यं । बाह्यमभ्यंतरं वा तपो मुक्त्वा किमन्यत्तपो नाम यत्ताभ्यां सह वर्तते इत्युच्यते ? तपःसामान्य विशेषैः सह वर्तते इत्यच्यते । अजाद्यतत्वात अभ्यहितत्वाच्च अभ्यन्त रशब्दस्य पू बाह्यशब्दात । 'कुसलदिठू' संसारः, संसारकारणं, बंधो, वंधकारणं, मोक्षस्तदुपायः इत्यत्र वस्तुनि ये कुशलाः सर्वविदस्तैरुपदिष्टे । 'सज्झायसम' स्वाध्यायेन सदशं । 'तवोकम्म' तपःक्रिया। 'ण वि अत्थि' नैवास्ति । 'ण विय' नैव । 'होहिदि' भविष्यति । नाप्यासीदिति कालत्रयेऽपि स्वाध्यायसदृशस्यान्यस्य तपसोऽभावः कथ्यते । अत्र चोद्यते-स्वाध्यायोऽपि तपो अनशनाद्यपि तपो बुद्धरेविशेषात कर्मतपनसामर्थ्यस्याविशेषात् । किमुच्यते स्वाध्यायसदृशं तपो नेति ? कर्मनिर्जराहेतुत्वातिशयापेक्षया सदृशमन्यत्तपो नेवास्तीत्यभिप्रायः । तपो नाम किमात्मपरिणामो भवेत् न वा? आत्मपरिणामत्वे कथं कस्यचिद्वाह्यता? अनात्मपरिणामत्वेन . निर्जरां कुर्यात् घटादिवदित्यत्रोच्यते-आत्मपरिणाम एव तपः । कथं तहि बाह्यता ? बाह्याः सद्धर्ममार्गाद्ये जनाः तैरप्यवगम्यत्वात् बाह्यमित्युच्यतेऽनशनादि बार्वािचरणात् । सन्मार्गज्ञा अभ्यन्तराः । तदवगम्यत्वा'तैराचरितत्वाद्वा बाह्याभ्यन्तरमिति सूरेरभिप्रायः ।। गा०-सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट अभ्यन्तर और बाह्यभेद सहित वारह प्रकारके तपमें स्वाध्यायके समान तपक्रिया नहीं है और न होगी ही ।। १०६ ।। ___टी०-शंका-बाह्य और अभ्यंतर तपको छोड़कर अन्य तप क्या है जो बाह्य अभ्यन्तर सहित बारह प्रकारका तप कहते हो ? समाधान-सामान्य तप विशेषोंके साथ रहता है यह कहनेका अभिप्राय है। यद्यपि बाह्य शब्दमें अल्प स्वर हैं फिर भी अभ्यन्तर शब्दके आदिमें अच् होनेसे तथा पूज्य होनेसे अभ्यन्तर शब्दको प्रथम स्थान दिया है। संसार और संसारके कारण, बन्ध और बन्धके कारण तथा मोक्ष और उसके उपाय इन वस्तुओंमें जो कुशल सर्वज्ञ हैं उनके द्वारा उपदिष्ट तपोंमें स्वाध्यायके समान तप न है, न होगा और न था, इस प्रकार तीनों कालोंमें स्वाध्यायके समान अन्य तपका अभाव कहा है। शंका-- स्वाध्याय भी तप है और अनशन आदि भी तप है। दोनोंमें ही कर्मको तपनेकी शक्ति समान है । फिर कैसे कहते हैं कि स्वाध्यायके समान तप नहीं है ? समाधान-कर्मोकी निर्जरामें हेतु जितना स्वाध्याय है उतना अन्य तप नहीं है इस अपेक्षासे उक्त कथन किया है। । शंका-तप, क्या आत्माका परिणाम है अथवा नहीं है ? यदि आत्माका परिणाम तप है तो वह कैसे हुआ ? यदि तप आत्माका परिणाम नहीं है तो वह कर्मोकी निर्जरा नहीं कर सकता जैसे घट । __ समाधान-आत्माका परिणाम ही तप है। तव आप कहेंगे कि वह बाह्य कैसे है ? समीचीन धर्ममार्गसे जो लोग बाह्य हैं वे भी उन्हें जानते हैं इसलिए अनशन आदिको बाह्य तप कहा है, क्योंकि बाह्य लोग भी उन्हें करते हैं। जो सन्मार्गको जानते हैं वे अभ्यन्तर हैं। उनके द्वारा ज्ञात होनेसे अथवा उनके द्वारा पालन किये जानेसे अभ्यन्तर कहे जाते हैं। इस प्रकार तप १. त्वात् घटादिवत्त-आ० मु० । . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका १४१ प्रतिज्ञामात्रेण स्वाध्यायस्यान्यतपोभ्योऽतिशयितता न सिद्धयतीति मन्यमानं प्रति अतिशयसाधनायाह जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण ॥१०७।। छट्टट्ठमदसमदुबालसेहिं अण्णाणियस्स जा सोही । तत्तो वहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्स णाणिस्स ॥१०८|| 'जं' यत । 'अण्णाणी' सम्यज्ञानरहितः । 'कम्म' कर्म । 'खवेदि' क्षपयति । 'भवसदसहस्सकोडोहि' भवशतसहस्रकोटिभिः । 'तं' तत् कर्म । 'णाणी' सम्यग्ज्ञानवान् । 'तिहिं गुत्तो' त्रिगुप्तियुक्तः । 'खवेदि' क्षपयति । 'अंतोमुत्तेण' अन्तर्मुहूर्तमात्रेण । झटिति कर्मशातनसामर्थ्य तपसोऽन्यस्य न विद्यते इत्ययमतिशयः स्वाध्यायस्य ।।१०७॥ _स्वाध्याये उद्यतो गुप्तिभावनायां प्रवृत्तो भवति । तत्र च वृत्तस्य रत्नत्रयाराधनं सुखेन भवति इत्युत्तरगाथया कथ्यते सज्झायभावणाए य भाविदा होति सव्वगुत्तीओ। गुत्तीहिं भाविदाहिं य मरणे आराघओ होदि ॥१०९।। मनोवाक्कायव्यापाराः कर्मादानहेतवः सर्व एव व्यावर्तते स्वाध्याये सति, ततो भाविता भवन्ति गुप्तयः । कृताभिमतादियोगत्रयनिरोधश्च रत्नत्रय एव घटते इति सुखसाध्यता। अनंतकालाभ्यस्ताशभबाह्य और अभ्यन्तर कहे गये हैं ऐसा आचार्यका अभिप्राय है ॥१०६।। __ जो कहता है कि केवल कहने मात्रसे स्वाध्यायको अन्य तपोंसे श्रेष्ठता सिद्ध नहीं हो सकती, उसके प्रति श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं गा०–सम्यग्ज्ञानसे रहित अज्ञानी जिस कर्मको लाख करोड़ भवोंमें नष्ट करता है, उस कर्मको सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियोंसे युक्त हुआ अन्तर्मुहूर्तमात्रमें क्षय करता है ।।१०७॥ गा.-अज्ञानीके दो, तीन, चार, पाँच आदि उपवास करनेसे जितनी विशुद्धि होती है उससे बहुत गुणी शुद्धि जीमते हुए ज्ञानीके होती है ।।१०८॥ टो०-इतनी शीघ्रतासे कर्मोको काटनेकी शक्ति अन्य तपमें नहीं है, यह स्वाध्यायका अतिशय है ।।१०८॥ जो स्वाध्यायमें तत्पर होता है वह गुप्ति भावनामें प्रवृत्त होता है । और जो गुप्ति भावनामें प्रवृत्त होता है वह रत्नत्रयकी आराधना सुख पूर्वक करता है वह आगेकी गाथासे कहते हैं गा०-स्वाध्याय भावनासे सब गुप्तियाँ भावित होती है। और गुप्तियोंकी भावनासे मरते समय रत्नत्रय रूप परिणामोंकी आराधनामें तत्पर होता है ।।१०९।। टी०-स्वाध्याय करनेपर मन वचन कायके सब ही व्यापार, जो कर्मोंके लानेमें कारण हैं चले जाते हैं। ऐसा होनेसे गुप्तियाँ भावित होती हैं। और तीनों योगोंका निरोध करने वाला मुनि रत्नत्रयमें ही लगता है । अतः रत्नत्रय सुख पूर्वक साध्य होता है, इसका भाव यह है कि Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ भगवती आराधना योगत्रयस्य कर्मोदयसहायस्य व्यावर्तनमतिदुष्करं स्वाध्यायभावनैव क्षमा कतु मिति भावः । 'सज्झायभावणाए य स्वाध्यायभावनया वा। ‘भाविदा' भाविताः । 'होति' भवन्ति । 'सव्वगुत्तीओ' सर्वगुप्तयः । 'गुत्तीहि' गुप्तिभिः । 'भाविदाहि' भाविताभिः । 'मरणे' मरणकाले । 'आराधगो' रत्नत्रयपरिणामाराधनपरः । 'होदि' भवति । स्वाध्यायभावनारतः परस्योपदेशको भवन् इतरोऽज्ञः कमुपकारं परस्य संपादयेदभव्यस्य ।१०९ ॥ परस्योपदेशकत्दै किमस्यायातमित्यत्राह आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती । होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स ॥११०॥ 'आदपरसमुद्धारों' आत्मनः परस्य वा उद्धरणमुद्दिश्य व्यापृतः स्वाध्याये स्वकर्माण्यपि साधयति परेषामप्युपयुक्तानां । 'आणा' "श्रेयोथिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः" (वरांगच. १२१३) इत्याज्ञा सर्वविदां, सा परिपालिता भवतीति शेषः । 'वच्छल्लदीवणा' वात्सल्यप्रभावना परेषामुपदेशकत्वे कृता भवति । 'भत्ती' भक्तिश्च कृता भवति जिनवचने तदभ्यासात् । 'होदि' भवति । 'परदेसगत्ते' परेषामुपदेष्टकत्वे सति । 'अव्वोच्छित्ती य' अव्युच्छित्तिश्च । 'तित्थस्स' तिसु चिट्ठदित्ति तित्थं मोक्षमार्गः श्रुतं वां । श्रुतमपि रत्नत्रयनिरूपणे व्यापृतत्वात् तत्रस्थं भवति । ततोऽयं अर्थः-श्रुतस्य मोक्षमार्गस्य वा अव्यच्छित्तिरिति ॥ ११०॥ सिक्खा गदा ॥ लिंगग्रहणानंतरं ज्ञानसंपत्तिः कार्या, ज्ञानसंपदि वर्तमानेन विनयोऽनुष्ठातव्यः । स च पंचप्रकार इत्याह विणओ पुण पंचविहो णिद्दिट्ठो णाणंदसणचरिने । तवविणवो य चउत्थो चरिमो उवयारिओ विणओ ॥१११॥ . . .. अनन्तकालसे जिन तीन अशुभयोगोंका इस जीवने अभ्यास किया हुआ है और कर्मका उदय जिसका सहायक है उससे अलग होना अत्यन्त कठिन है । स्वाध्यायकी भावना ही इसे करने में समर्थ है ॥१०९॥ जो स्वाध्यायकी भावनामें लीन रहता है वह दूसरोंको भी उपदेश करता है किन्तु जो स्वयं अज्ञानी है वह किसी अन्य भव्यका भी क्या उपकार कर सकता है ? ऐसी स्थितिमें परको उपदेश देनेपर इसे क्या लाभ है, यह कहते हैं- .. गा०-टी०-अपने और दूसरोंके उद्धारके उद्देशसे जो स्वाध्यायमें लगता है वह अपने भी कर्मोको काटता है और उसमें उपयुक्त दूसरोंके भी कर्मोको काटता है। सर्वज्ञ भगवानकी जो आज्ञा है कि कल्याणके इच्छुक जिन शासनके प्रेमीको नियमसे धर्मोपदेश करना चाहिये, उसका भी पालन होता है। दूसरोंको उपदेश करने पर वात्सल्य और प्रभावना होती है। जिन वचनके अभ्याससे जिन वचनमें भक्ति प्रदर्शित होती है। दूसरोंको उपदेश करनेपर मोक्षमार्ग अथवा श्रुतरूप तीर्थकी अव्युच्छित्ती-परम्पराका अविनाश होता है। श्रुत भी रत्नत्रयके कथनमें संलग्न होनेसे तीर्थ है । अतः स्वाध्याय पूर्वक परोपदेश करनेसे श्रुत और मोक्षमार्गका विच्छेद नहीं होता। वे सदा प्रवर्तित रहते हैं ॥११०॥ . लिंग स्वीकार करनेके पश्चात् ज्ञानरूप सम्पदाका संचय करना चाहिये । और ज्ञान सम्पदाका संचय करते हुए विनय करनी चाहिये । उसके पाँच भेद हैं-उन्हें कहते हैं Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १४३ विनयत्यपनयति यत्कर्माशुभं तद्विनयः । तथा चोक्तं-"जह्मा विणेदि. कम्मं अट्ठविहं चाउरंग मोक्खो य” (मूलाचार ७८१) इति । 'पुण' पश्चात् जिनवचनाभ्यासोत्तरकालं । 'पंचविहो' पंचप्रकारः । 'णिहिठठो' निर्दिष्टः । 'णाणसणचरित्ते' विषयलक्षणेयं सप्तमी । ज्ञानदर्शनचारित्रविषयः ।। 'त तपसि विनयश्च ॥ 'चउत्थो चतर्थः । 'चरमो' अन्त्यः ।। 'उवयारिओ विणयो' उपचारविनयश्चेति ॥ _ज्ञानविनयभेदानाचष्टे काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभये विणओ गाणम्मि अविहो ॥११२।। । 'काले स्वाध्यायवाचनकालाविह कालशब्देन गृह्यते । अन्यथा कालमन्तरेण कस्यचिदपि वृत्त्य भावात् कालग्रहणमनर्थकं स्यात् । भवतु नाम कालविशेषः कालशब्दवाच्यः तथ त । भवत नाम कालविशेषः कालशब्दवाच्यः तथापि नासौ विनयो न कर्म व्यपनयतीति. यदि व्यपनयेत्सर्वस्याकर्मवत्ता प्राप्नुयात । 'काले' इति सप्तम्यंतं पदं । तेन वाक्यशेषपुरस्सरोऽयं सूत्रार्थों जायते । साध्याहारत्वात सर्व सूत्राणां । काले अध्ययनमिति । परिवर्जनीयत्वेन निदिष्टं कालं संध्यापर्वदिग्दाहोल्कापातादिकं परिहत्याध्ययनं कर्म विनयति इति विणए इति प्रथमान्तः। विनयः श्रुतश्रतधरमाहात्म्यस्तवनं श्रुतश्रुतधरभक्तिरिति यावत् । गा०—जिनवचनके अभ्यासके पश्चात् विनय पाँच प्रकारकी कही है। ज्ञानविनय दर्शनविनय चारित्रविनय और चतुर्थ तपविनय और अन्तिम उपचार विनय है ।।१११।। टी-'विनयति' जो अशुभ कर्मको दूर करती है वह विनय है। कहा है-यतः आठ प्रकारके कर्मोको दूर करती है अतः विनय है ।।१११॥ ज्ञान विनयके भेदोंको कहते हैं. गा०—काल, विनय, उपधान, बहुमान, 'तथा निह्नव, व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि, उभयशुद्धि ये ज्ञानके विषयमें आठ प्रकारकी विनय है ।।११२।। टी०-यहाँ काल शब्दसे स्वाध्यायकाल और वाचन काल ग्रहण किये जाते हैं। अन्यथा कालके बिना किसीका भी अस्तित्व संभव न होनेसे कालका ग्रहण व्यर्थ हो जायेगा। शंका-काल शब्दका वाच्य काल विशेष रहो। किन्तु काल विनय नहीं है क्योंकि काल कर्मको नष्ट नहीं करता । यदि करे तो सब ही जीव कर्म रहित हो जायेंगे ? समाधान--- 'काले' यह सप्तमी विभक्तिसे युक्त पद है अतः इसके साथमें शेष वाक्य जोड़ने से सूत्रार्थ होता है; क्योंकि सभी सूत्र अध्याहार सहित होते हैं । उनमें ऊपरसे कुछ वाक्य जोड़ना होता है । अतः 'कालमें अध्ययन' यह उसका अर्थ होता है । सन्ध्या, पर्व, किसी, दिशामें आग लगना, उल्कापात आदि जो काल छोड़ने योग्य कहे हैं उन कालोंको छोड़कर किया गया अध्ययन कर्मको नष्ट करता है । 'विणए' यह प्रथमान्त शब्द है । श्रुत और श्रुतके धारकोंके माहात्म्यका स्तवन अर्थात् श्रुत और श्रुतके धारकोंकी भक्ति विनय है। १ 'काले....."प्राप्तुयात्' इत्येतद् प्रतिषु उत्थानिकारूपेण लिखितम् । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ भगवती आराधना 'उवहाणे' अवग्रहः । यावदिदमनुयोगद्वारं निष्ठामुपैति तावदिदं मया न भोक्तव्यं, इदं अनशनं चतुर्थषष्ठादिकं करिष्यामीति संकल्पः । स च कर्म व्यपनयतीति विनयः । 'बहुमाणे' सन्मानं । शुचेः कृतांजलिपुटस्य अनाक्षिप्तमनसः सादरमध्ययनं । 'तह तथा। 'अणिण्हवणे' अनिह्नवश्च निह्नवोऽपलापः । कस्यचित्सकाशे श्रुतमधीत्यान्यो गुरुरित्यभिधानमपलापः । वंजण अस्थ तदुभये' व्यंजनं शब्दप्रकाशनं, अर्थः शब्दवाच्यः, तदुभयशब्देन व्यंजनमर्थश्च निदिश्यते। वंजण अत्यतभये व्यंजनं च अर्थश्च तभयं चेति द्वद्वे कृते सर्वो द्वंद्वो विभाषया एकवद भवतीति एकवदभावार्थस्य एकवचनं कृतं । अर्थशब्दस्य अजाद्यदंतत्वादल्पान्तरत्वाच्च पूर्वनिपातप्रसंग इति चेन्न, सर्वतोऽभ्यहितं पूर्व निपतति इति व्यंजनशब्दः पूर्व प्रयुज्यते । कथमयहितं ? स्वयं परप्रत्ययहेतुत्वात्स्वयं च शब्दश्रुतादेवार्थयाथात्म्यमति परं चावबोधयति । अत्र च 'वंजणअत्यतदुभये सुद्धी' इति शेषः । तत्र व्यंजनशुद्धिर्नाम यथा गणधरादिभिर्वात्रिंशद्दोषवजितानि सूत्राणि कृतानि तेषां तथैव पाठः । शब्दश्रुतस्यापि व्यज्यते ज्ञायते अनेनेति विग्रहे ज्ञानशब्देन गृहीतत्वात् तन्मूलं हि श्रुतज्ञानं । उपधानका अर्थ अवग्रह है। जब तक आगमका यह अनुयोगद्वार समाप्त नहीं होता तब तक मैं अमुक वस्तु नहीं खाऊँगा। या यह अनशन या चतुर्थ अथवा षष्ठम उपवास करूंगा इस प्रकारका संकल्प अवग्रह है । वह भी कर्मको दूर करता है अतः विनय है। . बहुमाणका अर्थ सन्मान है। पवित्र हो, दोनों हाथ जोड़ और मनको निश्चल करके सादर अध्ययन बहुमान है। निह्नव अपलापको कहते हैं। किसीके पासमें अध्ययन करके उससे अन्यको गुरु कहना है अपलाप है। __ व्यंजन शब्दके प्रकाशनको कहते हैं। शब्दके वाच्यको अर्थ कहते हैं । 'तदुभय शब्दसे व्यंजन और अर्थ कहे जाते हैं। 'व्यंजन और अर्थ और तदुभय' इस प्रकार द्वन्द्व समास करनेपर सब द्वन्द्वोंमें विकल्पसे एकवद्भाव होता है इसलिये एक वचन किया है। शंका-अर्थ शब्दके आदिमें अच् होनेसे और अल्प अच्वाला होनेसे पूर्व निपातका अर्थात् प्रथम रखनेका प्रसंग आता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जो सबसे पूज्य होता है वह प्रथम रखा जाता है इसलिये व्यंजन शब्दका प्रयोग पहले किया है। शंका-व्यंजन सबसे पूज्य क्यों है ? समाधान-व्यंजन अर्थात् शब्द स्वयं दूसरोंको ज्ञान कराने में हेतु है, और स्वयं शब्द श्रुत से ही वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जानता है तथा दूसरोंको ज्ञान कराता है। ___ यहाँ व्यंजन अर्थ और तदुभयके साथ शुद्धि शब्द लगाना चाहिये । गणधर आदिने जैसे बत्तीस दोषोंसे रहित सूत्र रचे हैं उनका वैसा ही पाठ व्यंजन शुद्धि है। 'व्यज्यते' अर्थात् जिसके. द्वारा जाना जाता है ऐसा विग्रह करनेपर ज्ञान शब्दसे शब्दश्रुतका भी ग्रहण होता है क्योंकि श्रुतज्ञानका मूल शब्द है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १४५ अथ अर्थशब्देन किमुच्यते ? व्यंजनशब्दस्य सांनिध्यादर्थशब्दः शब्दाभिधेये वर्तते, तेन सूत्रार्थोऽर्थ इति गृह्यते । तस्य का शुद्धिः ? 'प्रविपरीतरूपेण सूत्रार्थनिरूपणायां अर्थाधारत्वान्निरूपणाया अवैपरीत्यस्य अर्थशुद्धिरित्युच्यते । सूत्रार्थनिरूपणायाः शब्दश्रुतत्वादविपरीतनिरूपणापि व्यंजनशुद्धिरेव भवतीति नार्थशुद्धिः कदाचिदिति चेत्, न परकृतं शब्दश्रुता विपरीतपाठे। व्यंजनशुद्धिस्तदर्थनिरूपणाया अवैपरीत्यं अर्थशुद्धिः । प्रत्ययश्रुते तु अर्थयाथात्म्यप्रतिभासोऽर्थशुद्धिः ॥ तदुभयशुद्धिर्नाम तस्य व्यंजनस्य अर्थस्य च शुद्धिः । ननु व्यंजनार्थशुद्धयोः प्रतिपादितयोः तदुभयशुद्धिहीता न तद्वयतिरेकेण तदुभयशुद्धिर्नामास्ति ततः कथमष्टविधता ? अत्रोच्यते-पुरुषभेदापेक्षयेयं निरूपणा कश्चिदविपरीतं सूत्रार्थ व्याचष्टे सूत्रं तु विपरीतं पठति । तत्तथा न कार्यमिति व्यंजनशुद्धिरुक्ता। अन्यस्तु सूत्रमविपरीतं पठन्नपि निरूपयत्यन्यथा सूत्रार्थ इति तन्निराकृतयेऽर्थशुद्धिरुदाहृता । अपरस्तु सूत्रं विपरीतमधीते सूत्राथं च कथयित्कामो विपरीतं व्याचष्टे तदुभयापाकृतये उभयशुद्धिरुपन्यस्ता । अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभासपरिकरोऽष्ट विधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्दवाच्यो भवतीति सूरेरभिप्रायः ।।२१२।। व्यंजन शब्दकी समीपतासे अर्थशब्द शब्दके वाच्यको कहता है अतः अर्थसे सूत्रार्थका ग्रहण होता है। अविपरीत रूपसे सूत्रके अर्थकी निरूपणामें निरूपणाका आधार अर्थ होता है। अतः निरूपणाकी अविपरीतताको अर्थ शुद्धि कहते हैं अर्थात् सूत्रके अर्थका यथार्थ कथन अर्थ शुद्धि है। शंका-सूत्रके अर्थकी निरूपणा शब्दश्रुत रूप होती है अतः अविपरीत निरूपणा भी व्यंजन शुद्धि ही हुई, अर्थ शुद्धि कभी भी नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि दूसरेके द्वारा किया गया शब्दश्रुतका अविपरीत पाठ व्यंजन शुद्धि है। और उसके अर्थका अविपरीत निरूपण अर्थ शुद्धि है। किन्तु ज्ञानरूप श्रु तमें अर्थका ठीक-ठीक ज्ञान अर्थ शुद्धि है । व्यंजन और अर्थकी शुद्धिको तदुभय शुद्धि कहते हैं। शंका-व्यंजन शुद्धि और अर्थशुद्धिके कहनेपर तदुभय शुद्धि आ जाती है क्योंकि उन दोनों शुद्धियोंके विना तदुभय शुद्धि नहीं होती। तब आठ भेद कैसे रहे ? । समाधान-यह निरूपणा पुरुष भेदकी अपेक्षासे है। कोई व्यक्ति सूत्रका अर्थ तो ठीक कहता है किन्तु सूत्रको विपरीत पढ़ता है । ऐसा नहीं करना चाहिये इसके लिए व्यंजन शुद्धि कही है। दूसरा व्यक्ति सूत्र तो ठीक पढ़ता है किन्तु सूत्रका अर्थ अन्यथा कहता है उसके निराकरणके लिये अर्थ शुद्धि कही। तीसरा व्यक्ति सूत्रको ठीक नहीं पढ़ता और सूत्रका अर्थ भी विपरीत करता है। इन दोनोंको दूर करने के लिये उभय शद्धि कही है। यह आठ प्रकारका ज्ञानाभ्यासका परिकर आठ प्रकारके कर्मोंका विनयन करता है उन्हें दूर करता है इसलिये उसे विनय शब्दसे कहते है यह आचार्यका अभिप्राय है ॥११२॥ १. कस्य मां-आ० मु०। २. विपरीत-आ० मु०। ३. श्रुतवि०-२० । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भगवती आराधना दर्शनविनयसूचनपरोत्तरगाथा उवगृहणा दिया पुब्बुत्ता तह भत्तिया दिया य गुणा । संकादिवज्जणं पि ओ सम्मत्तविणओ सो ॥११३।। उवगृहणादिगा उपबृंहणादिकाः । उपबृंहणं, स्थितिकरणं, वात्सल्यं, प्रभावना चेत्येते । 'पुव्वुत्ता' पूर्वाचार्यैरुक्ताः पूर्वोक्ताः । अस्मात् सूत्रात्पूर्वेण व सूत्रेण "उवगृहणठिदिकरणं वच्छल्लपभावणा भणिदा" इत्यनेनोक्ताः पूर्वमुक्ताः । पूर्वोक्तो वा सम्मत्तविणओ सम्यक्त्वविनय इति संबंधनीयं । 'तध भत्तिय गुणा' तथा भक्त्यादिकाश्च गुणाः विनयस्तथा ते तत्प्रकारेण अवस्थिताः इति । अहंदादिविषया भक्त्यादिगुणा इति यावत । 'संकादिवज्जणं पिय' शंकादिवर्जनं च । चशब्दः पादपुरणः । 'णेओ' ज्ञेयः ।। 'सम्मत्तविणओ' सम्यक्त्वविनय इति ।। उपबृंहणादीनां भक्त्यादीनां च गुणानां बहुत्वात् तेषामेव च विनयत्वात् सम्मत्तविणया इति वाच्यमिति चेत्, विनयसामान्यापेक्षया तस्यैकत्वादेकवचनेन पदसंस्कारः कृतो न निवर्तते । न च पदांतरवाच्यापेक्षया बहुत्वमस्तीत्येतावता अप्रतिपदिकात् सुबुत्पद्यते । तथा च प्रयोगः वृक्षा वनमिति ॥११३।। चारित्रविनयनिरूपणापरा गाथा इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायन्वो ॥११४।। आगे दर्शनविनयका कथन करते हैं गा०—पूर्वोक्त उपगृहण या उपवृंहण आदि तथा भक्ति आदि गुण, शंका आदिका त्याग यह सम्यक्त्वविनय जानो ।।११३|| टी०-पूर्वोक्त अर्थात् पूर्वाचार्योके द्वारा कहे गये, या इससे पहलेके गाथा सूत्र 'उवग्रहण दिदिकरणं वच्छल्ल पभावणा भणिदा' के द्वारा कहे गये उपवृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये गुण सम्यक्त्वविनय है । तथा अर्हन्त आदि विषयक भक्ति आदि गुण सम्यक्त्वविनय है और शंका आदि दोषोंका त्याग सम्यक्त्व विनय है। शंका-उपवृंहण आदि और भक्ति आदि गुण बहुत हैं और वे गुण ही सम्यक्त्वकी विनय रूप है । इस लियें गाथामें 'सम्मतविणया' इस प्रकार बहुवचनका प्रयोग करना चाहिये ? समाधान-विनय सामान्यकी अपेक्षा सम्यक्त्व विनय एक है अतः एक वचन पदका प्रयोग किया है। विनय पदके वाच्य बहुत होनेसे बहुपना संभव नहीं है क्योंकि 'वृक्षा वनम्' ऐसा प्रयोग होता है अर्थात् वृक्ष बहुत होनेसे 'वन' में बहुवचनका प्रयोग जैसे नहीं हुआ वैसे ही यहाँ भी जानना ॥११३॥ अब चारित्र विनयका कथन करते है गा०-इन्द्रिय और कषायरूपसे आत्माकी परिणति न होना, और गुप्तियाँ और समितियां, यह संक्षेपसे चारित्र विनय ज्ञातव्य है ।।११४।। १. णमादीया अ० । २. भत्तियादि गुणा अ० । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १४७ इंदियकसायपणिधाणं पि य । इंद्र आत्मा तस्य लिंगमंद्रियं । यत्करणं तत्कर्तृमद्यथा-परशुः । करणं च चक्षुरादिकं । तेनास्य की केनचिद्धाव्यमिति । तच्च द्विविधं द्रव्ये द्रियं भावेन्द्रियमिति । तत्र द्रव्येन्द्रिय नाम निर्वत्यपकरणो। मसरिकादिसंस्थानो यः शरीरावयवः कर्मणा निर्वय॑ते इति निर्वतिः । उपक्रियतेऽनुगृह्यते ज्ञानसाधनर्मिद्रियमनेनेत्युपकरणं अक्षिपत्रशुक्लकृष्णातारकादिकं । भावेंद्रियं नाम ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषोपलब्धिः, द्रव्ये द्रियनिमित्तरूपादयुपलब्धिश्च । इह इंद्रियशब्देन मनोज्ञामनोज्ञरूपादिसान्निध्ये रागकोपानुगरूपादिनिर्भासाः प्रतीतयो गृहीताः ।। 'कषयंति हिंसंति आत्मक्षेत्रमिति कषायाः । अथवा तरूणां वल्कलरसः कषायः, कषाय इव कपाय इत्युपमाद्वारेण क्रोधादो वर्तते कषायशब्द उपमार्थः । यथा कषायो वस्त्रादेः शीक्ल्यशुद्धिमपनयति, निराकर्तु चाशक्यस्तद्वदात्मनो ज्ञानदर्शनशुद्धि विनाशयति, आत्मावलग्नश्च दुःखेनापोह्यते इति । यथा वा पटादेः स्थैर्य करोति कषायस्तद्वदेव कर्मणां स्थितिप्रकर्षमात्मनि निदधाति क्रोधादिः । इन्द्रियाणि च कषायाश्च इन्द्रियकषायाः। इन्द्रियकषाययोः अप्रणिधानं अनाक्षेपः आत्मनो व्यावणितेंद्रियकषायापरिणतिः । 'गुत्ती ओ चेव' गुप्तयश्च । संसारकारणादात्मनो गोपनं गुप्तिः । संसारस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभवपरिवर्तनस्य कारणं कर्म ज्ञानावरणादि । तस्मात्संसारकारणादात्मनो टो०-इन्द्र आत्माको कहते हैं । उसका लिंग इन्द्रिय है । जो करण होता है वह कर्तावाला है जैसे परश । चक्ष आदि करण है। अतः उनका कोई कर्ता होना चाहिये। वह इन्द्रिय दो प्रकार की है-भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय । उनमेंसे निर्वति और उपकरण द्रव्येन्द्रिय हैं । कर्मकेद्वारा जो मसूर आदिके आकाररूप शरीरका अवयव रचा जाता है वह निर्वृति है। और जिसके द्वारा - ज्ञानकी साधन इन्द्रिय उपकृत होती है वह उपकरण है। जैसे आँखके पलक, आँखकी काली सफेद तारिका। ज्ञानावरणके क्षयोपशम विशेषकी प्राप्तिको भावेन्द्रिय कहते हैं। और द्रव्येन्द्रियके निमित्तसे जो रूपादिका बोध होता है वह भी भावेन्द्रिय है। यहाँ इन्द्रिय शब्दसे मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपादिके प्राप्त होनेपर जो राग और कोपको लिये हुए रूपादिकी प्रतीति होती है उनको ग्रहण किया है। जो 'कषयन्ति' आत्माका घात करती हैं वे कषाय हैं । अथवा वृक्षोंकी छालके रसको कषाय कहते हैं। कषायके समान जो है वह कषाय है। इस उपमाके द्वारा क्रोधादिको कपाय शब्दसे कहते हैं । यह उपमा रूप अर्थ हैं। जैसे कषाय-वृक्षकी छालका रस यदि वस्त्रपर लग जाता है तो उसकी सफेदीको हर लेता है और उसे दूर करना अशक्य होता है। उसी तरह क्रोधादि आत्माकी ज्ञान दर्शन रूप शुद्धिको नष्ट कर देता है। और आत्मासे सम्बद्ध होनेपर बड़े कष्टसे छटता है । तथा जैसे कषाय वस्त्रादिको टिकाऊ करती है वैसे ही क्रोधादि आत्मामें कर्मों की स्थितिको बढ़ाते हैं। इन इन्द्रिय और कषायमें अप्रणिधान अर्थात् आत्माका कहे गये इन्द्रिय और कषाय रूपसे परिणत न होना चारित्र विनय है। संसार के कारणोसे आत्माके गोपनको गुप्ति कहते हैं। द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन भाव परिवर्तन और भव परिवर्तन रूप संसारके कारण ज्ञानावरण आदि कर्म हैं। १. का ति मु० । २. वाल्क-आ० मु० । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ भगवती आराधना गोपनं रक्षा गुप्तिरित्याख्यायते । भावे क्तिः, अपादानसाधनो वा, यतो गोपनं सा गुप्तिः । गौपयतीति कर्तृसाधनो वा क्तिन् । शब्दार्थव्यवस्थेयम् । कि स्वरूपं तस्या इति चेत् । सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । कायवाङ्मनःकर्मणां प्राकाम्याभावो निग्रहः, यथेष्ट'चारिताभावो गुप्तिः । सम्यगिति विशेषणात्पूजापुरस्सरां क्रियां संयतो महानय मिति यशश्चानपेक्ष्य पारलौकिकमिदियसुखं वा क्रियमाणा गुप्तिरिति कथ्यते । इति सूरयो व्यवस्थिताः । रागकोपाभ्यां अनुपप्लुता नोइंद्रियमतिः मनोगुप्तिरिति ब्रूमहे । एवं चायं वक्ष्यति सूत्रकारो 'जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगत्ति' मिति । अनृतपरुषकर्कशमिथ्यात्वासंयमनिमित्तवचनानां अवक्तृता वाग्गुप्तिः । अप्रमत्ततया यदप्रत्यवेक्षिताप्रमाणितभूभागेऽचंक्रमणं, द्रव्यांतरादाननिक्षेपशयनासनक्रियाणां अकरणं कायगुप्तिः कायोत्सर्गो वा । 'समिदीओ' समितयः । प्राणिपीडापरिहारादरवतः सम्यगयनं प्रवृत्तिः समितिः । सम्यग्विशेषणाज्जीवनिकायस्वरूपज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा प्रवृत्तिर्गृहीता । ईर्ष्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः पंचसमितयः । ईर्यादिसमितीनां वाक्कायगुप्तिभ्यां अविशेषस्ततो भेदेनोपादानमनर्थकं, प्राणिपीडाकारिण्याः कायक्रियाया निवृत्तिः कायगुप्तिः, ईर्यादिसमितयश्च तथाभूतकायक्रियानिवृत्तिरूपा । अत्रोच्यते-निवृत्तिरूपा गुप्तयः प्रवृत्तिरूपाः समितयः इति भेदैः विशिष्टा गमनभाषणाभ्यवहरणग्रहणनिक्षेपणोत्सर्गक्रियाः समितय इति उच्यन्ते । 'एसो' उन संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षा गुप्ति कही जाती है । यहाँ भाव साधनमें क्ति प्रत्यय हुआ है । अथवा अपादान साधन कर लेना। जिससे गोपन हो वह गुप्ति है । अथवा जो रक्षा करता है वह गुप्ति है इस कर्तृसाधनमें क्तिन् प्रत्यय करनेसे गुप्ति शब्द बनता है, यह शब्दार्थ व्यवस्था है । गुप्तिका स्वरूप दूसरा है योगके सम्यक् निग्रहको गुप्ति कहते हैं। काय, वचन और मनकी क्रियाओंकी स्वेच्छारिताके अभावको निग्रह कहते हैं। स्वेच्छाचारिताका अभाव गुप्ति है। सम्यक् विशेषणसे पूजा पूर्वक क्रियाकी और यह महान संयमी है इस यशकी अपेक्षाके बिना तथा पारलौकिक इन्द्रिय सुखकी इच्छाके बिना जो योग निग्रह किया जाता है वह गुप्ति कही जाती है । ऐसा आचार्योंने कहा है। मनका राग और क्रोध आदिसे अप्रभावित होना मनोगुप्ति है। आगे ग्रन्थकार कहेंगेमनका रागादिसे निवृत्त होना मनोगुप्ति है। असत्य, कठोर और कर्कश वचनोंको तथा मिथ्यात्व और असंयममें निमित्त वचनोंको न बोलना वचनगुप्ति है। अप्रमादी होनेसे विना देखी और बिना बुहारी हुई भूमिमें गमन न करना तथा किसी वस्तुका उठाना, रखना, सोना बैठना आदि क्रियाओंका न करना कायगुप्ति है । अथवा कायसे ममत्वका त्याग कायगुप्ति है। प्राणियोंको पीड़ा न हो, इस भावसे सम्यक् रूपसे प्रवृत्ति करना समिति है। सम्यक् विशेषणसे जीवके समूहोंके स्वरूपका ज्ञान और श्रद्धान पूर्वक प्रवृत्ति ली गई है । समिति पाँच हैंईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग । शंका-ईर्या आदि समितियाँ वचन गुप्ति और काय गुप्तिसे भिन्न नहीं है । अतः उनका अलगसे कथन व्यर्थ है, क्योंकि प्राणियोंको पीड़ा पहुँचाने वाली शारीरिक क्रियासे निवृत्तिको काय गुप्ति कहते हैं। ईर्या आदि समितियाँ भी उसी प्रकारकी कायक्रियाकी निवृत्ति रूप हैं। समाधान-गुप्तियाँ निवृत्ति रूप हैं और समितियाँ प्रवत्ति रूप हैं, यह इन दोनोंमें भेद है । १. यथोक्त-आ० । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका एषः । 'चरित्तविणओ' चारित्रविनयः । 'समासदो' संक्षेपतः । ‘णादव्वो' ज्ञातव्य । 'होदि' भवति । ___ इंद्रियकषायाप्रणिधानं मनोगुप्तिरेव किमर्थं पृथगुच्यते ? सत्यम् । वाक्कायगुप्त्योरेव गुत्तीओ इत्यनेन परिग्रहः । अथवा रागद्वेषमिथ्यात्वाद्यशुभपरिणामविरही मनोगुप्तिः सामान्यभूता। इंद्रियकषायाप्रणिधानं तद्विशेषः । सामान्यविशेषयोश्च कथंचिद्भेदान्न पौनरुक्त्यं । मनोगुप्तावन्तर्भूतस्यापि इंद्रियकषायाप्रणिधानस्य भेदेनोपादान चारित्रार्थिनोऽवश्यं परिहार्यत्वख्यापनार्थ वा। ननु त्रयोदशविधं चारित्रं पंच महाव्रतानि, पंच समितयः, तिस्रो गुप्तयः इति । ततः समितीनां गुप्तीनां चारित्रत्वे चारित्रस्य विनय इति कथं भेदेनाभिधानं ? व्रतान्येवान्यत्र चारित्रशब्देनोच्यते । तेषां परिकरत्वेनावस्थिताः गुप्तयः समितयश्चेति सत्रकारस्याभिप्रायः । तथा चोक्तमन्यैः 'कर्मादाननिमित्तक्रियाभ्यश्च विरतिः अहिंसाभेदेन पंचप्रकारा गुप्तिसमितिविस्तारः' संक्षेपो भवति। कश्चारित्रबिनयव्यास' इति चेत पंचविंशतिभावनाः । 'तस्थैर्याथं भावनाः पंच पंचेति' (त० सू० ७१९) निरूपिता ॥११४॥ गमन, भाषण, भोजन, ग्रहणनिक्षेप और मल मूत्र त्याग रूप क्रियाको समिति कहते हैं। ये सब संक्षेपसे चारित्र विनय है । का-इन्द्रिय और कषायमें उपयोग न लगाना तो मनोगुप्ति ही है, उसे पृथक् क्यों कहा? समाधान-आपका कहना सत्य है । यहाँ 'गुत्तीओ' से वचन गुप्ति और कायगुप्तिका हो ग्रहण किया है। अथवा रागद्वेष मिथ्यात्व आदि अशुभ परिणामोंका अभाव सामान्य मनोगुप्ति हैं। और इन्द्रिय तथा कषायमें उपयोगका न होना विशेष मनोगुप्ति है । और सामान्य तथा विशेषमें कथंचित् भेद होनेसे पुनरुक्तता दोष नहीं है। अथवा इन्द्रिय और कषायका अप्रणिधान यद्यपि मनोगुप्तिमें आ जाता है फिर भी उसका पृथक् ग्रहण चारित्रके इच्छुकोंको उसका त्याग अवश्य करना चाहिये, यह बतलानेके लिये किया है । शंका-चारित्रके तेरह भेद हैं—पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति । अतः समिति और गुप्ति चारित्र हैं । तब इन्हें चारित्रकी विनयके रूपमें भिन्न क्यों कहा है ? समाधान–यहाँ चारित्र शब्दसे व्रत ही कहे गये हैं। गुप्ति और समितियां उन व्रतोंके परिकर रूपसे स्थित हैं यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है। अन्य आचार्योने भी कहा है-कर्मोको लाने में निमित्त क्रियाओंसे विरति अहिंसा आदिके भेदसे पाँच प्रकारकी हैं। गुप्ति समिति उनका विस्तार है। शंका-चारित्र विनयका विस्तार क्या है ? ___ समाधान-पाँच ब्रतोंको पच्चीस भावना विस्तार है । तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है-उन व्रतोंकी स्थिरताके लिये पाँच-पाँच भावना है ॥११४॥ १. स्तारसं-आ० मु०। २. यन्यास-आ० मु० । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भगवती आराधना पणिधाणं पि य दुविहं इंदिय णोइंदियं च बोधव्वं । सद्दादि इंदियं पुण कोधाईयं भवे इदरं ॥११५।। सदरसरूवगंधे फासे य मणोहरे य इयरे य । जं रागदोसगमणं पंचविहं होदि पणिधाणं ॥११६॥ णोइंदियपणिघाणं कोघो माणो तधेव माया य । लोभो य णोकसाया मणपणिधाणं तु तं वज्जे ॥११७।। तपोनिरूपणार्थ गाथाद्वयमुत्तरम् उत्तरगुणउज्जमणे सम्म अघिआसणं च सढ्ढाए । आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ ॥११८॥ सम्यग्दर्शनज्ञानाभ्यामुत्तरकालभावित्वात्संयमः उत्तरगुणशब्देनोच्यते । न हि श्रद्धानं ज्ञानं चांतरण संयमः प्रवर्तते । अजानतः श्रद्धानरहितस्य वाऽसंयमपरिहारो न संभाव्यते। तेनायमर्थ:--संयमोद्योग' इति तपसो निर्जराहेतुता सति संयमे, नान्यथेति तपसः संयमः परिकरः । तथा चाहः 'संजमहीणं च तवं जो कुणइ णिरत्ययं कुणइ' इति । 'सम्म' सम्यक् । संक्लेशं दैन्यं चांतरेण 'अधियासणं' सहनं क्षुधादेः । . गा०-प्रणिधानके भी दो भेद हैं इन्द्रिय और नोइन्द्रिय । शब्द आदि इन्द्रिय और क्रोधादिक नोइन्द्रिय प्रणिधान है ऐसा जानना ॥ ११५ ॥ गा०-मनोहर और अमनोहर शब्द, रस, रूप गन्ध और स्पर्शमें जो राग द्वेष होता है वह पाँच प्रकारका इन्द्रिय प्रणिधान होता है ॥ ११६ ॥ गा०-नो इन्द्रिय प्रणिधान क्रोध मान तथा माया लोभ और नोकषाय है। ये तो मन प्रणिधान छोड़ना चाहिये ॥ ११७ ।। तपका कथन करनेके लिये आगे दो गाथा कहते हैं गा०-उत्तर गुण अर्थात् संयममें उद्यम सम्यक् रीतिसे भूख प्यास आदिको सहन करना, तपमें अनुराग पहले कहे गये छह आवश्यकोंकी न्यूनता न होना आधिक्य न होना ॥ ११८ ॥ ___टी०-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके उत्तर कालमें होनेसे संयमको उत्तरगुण कहते हैं । श्रद्धान और ज्ञानके बिना संयम नहीं होता । अथवा जो जानता नहीं है और न जिसे श्रद्धा है वह असंयमका त्याग नहीं कर सकता। इससे यह अर्थ हुआ कि संयमके होने पर तप निर्जराका कारण होता है, अन्यथा नहीं होता। इन प्रकार संयम तपका परिकर है। कहा भी है-'जो १. द्योततपसो-आ० मु० । २. गा० ११४, ११५, ११६ पर टीका नहीं है । आशाधरजीने अपनी टीकामें कहा है कि टीकाकार इन्हें स्वीकार नहीं करता ।-सं० । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १५१ अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानेषु क्षुत्तृड्जनितवेदनया अव्याकुलता, कथमिदमुद्वहामीति वा अदीनता, प्रणिधानं. अदिम पिबामीति वा भक्तकथापरित्यागः, तत्कथनानादरः इतस्ततश्चापरिवर्तन क्षुधा तषा वा बाधितोऽस्मीति एवं वचनं सहनं, अथवा भोजनदिवसे यांचाया अकरणं, श्रांतोस्म्युपवासेन रूक्षं भोक्तू न शक्नोमि क्षीरघृतशर्करादिकं दातव्यमिति बचनेन यांचाया अकरणं, मनसा वा यदीदं लभ्यते भद्रं स्यात् इति वाऽप्रार्थना, कायसंज्ञया वा क्षीरादीनामप्रदर्शनं क्षीरादिदाने वाऽप्रहसितायमानमुखता, शीतरूक्षाद्याहारदाने वा अकुपिताननता, अलाभेऽपि लाभादलाभो मे परं तपोवृद्धिरिति संकल्पेनालाभपरीषहसहनं वा, अथवा लौकिकानां धर्मस्थानां वा सत्कारपुरस्काराकरणे तपसि महति वर्तमानोऽप्यहमेतेषां न पूजितः इति कोपसंक्लेशाकरणं । सत्कारपुरस्कारपरीषहसहनं वा । रसपरित्यागं कृतवतः रसवदाहारकथादर्शनोपजायमानतदादरनिवारणं रसपरित्यागजातशरीरसंतापक्षमा वा सहनं । आतापयोगधारिणो धर्माद्युपनिपाते असंक्लिष्टचित्तता तत्प्रतीकारवस्तुषु अनादरश्च सहनं । जनविविक्तदेशे वसतः पिशाचव्यालमृगाद्यवलोकनादिकृतभोतिव्युदासोऽरतिविजयश्च सहनं । प्रायश्चित्तमाचरतोऽपि महदिदं दत्तं गुरुणा बलाबलं ममानिरूप्येति कोपाकरणं, प्रायश्चित्तकरणजनितश्रमण वा असंक्लिष्टतासहनं । ज्ञानविनये वर्तमानस्य क्षेत्रकालशुद्धिकरण मामैव नियोजयति इति कोपनिरासो वा, तद्गतश्रमे असंक्लेशश्च सहनं । दर्शनविनये अभ्युद्यतस्य सन्मार्गात्प्रच्यवमानस्य स्थिरीकरणं महानायासः, संयमके बिना तप करता है वह निरर्थक करता है।' 'सम्म' का अर्थ सम्यक् है अर्थात् संक्लेश और दीनताके बिना भूख आदिका सहन करना। अनशन, अवमौदर्य और वृत्ति परिसंख्यान नामक तपोंमें भूख प्याससे होने वाली वेदनासे व्याकुल न होना कि कैसे इसे सहूँगा। अथवा अदीनता, खान-पानमें मनको न लगाना, मैं खाता हूँ पीता हूँ इस रूपमें भोजनकी कथा न करना, उसकी कथामें आदर भाव न रखना, इधर उधर नहीं घूमना, मैं भूख या प्याससे पीड़ित हूँ इस प्रकारके वचनको सहन करना, अथवा भोजनके दिन माँगना नहीं, मैं उपवासमें कमजोर हो गया हुँ, रूखा भोजन नहीं कर सकता, दूध घी शक्कर आदि देना चाहिये । इस प्रकारके वचनसे याचना नहीं करना अथवा यदि अमुक वस्तु प्राप्त हो तो उत्तम है ऐसी मनसे प्रार्थना न करना अथवा शरीरके संकेतसे दूध आदिको न दिखलाना, अथवा दाता दूध आदि दे तो मुखको प्रफुल्लित न करना और ठंडा रूखा आहारादि दे तो मुख पर क्रोध न लाना अथवा भोजन न मिलने पर लाभसे अलाभमें मेरे तपकी परम वृद्धि है ऐसा संकल्प करके अलाभ परीषहको सहना, अथवा लौकिक या धर्मात्मा पुरुषोंके द्वारा आदर सम्मान न करने पर 'मैं महान् तपस्वी हूँ फिर भी इन्होंने मेरी पूजा नहीं की' इस प्रकारका कोप और संक्लेश न करना, अथवा सत्कार पुरस्कार परीषहको सहना । यदि रसका त्याग किया है तो रस यक्त आहारकी कथा अथवा रस यक्त आहारको देखनेसे उसके प्रति उत्पन्न हुए आदर भावका निवारण करना, रसको त्यागनेसे शरीरमें उत्पन्न हुए संतापको सहना । यदि आताप योग धारण किया है तो धूप आदि आने पर चित्तमें संक्लेश न करना, और उसका प्रतीकार करने वाली वस्तुओंमें आदर भाव न करना, मनुष्योंसे शून्य देशमें निवास करते हुए पिशाच, सर्प, मृग आदिको देखने आदिसे उत्पन्न हुए भयको रोकना तथा अरति परीषहको जीतना। प्रायश्चित करते हुए भी 'गुरुने मुझे मेरा बलाबल न देखकर महान् प्रायश्चित दे दिया' इस प्रकार कोप न करना अथवा प्रायश्चित करनेसे उत्पन्न हुए श्रमसे मनमें संक्लेश न करना । ज्ञान विनय करते समय क्षेत्र शुद्धि काल शुद्धि करने में मुझे ही लगाते हैं' इस Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ भगवती आराधना स्वचेतसोपि ऋजुतापादनमतिदुष्करं किमंग पुनः परस्येत्यसंकल्पः सहनं । पुरस्कृतचारित्र विनयस्य ईर्यादिसमितयो दुष्कराः । जीवनिकायाकुले जगति कियंतः परिहतु शक्यंते ? निपुणतरं प्रतिपदन्यासं जीवावलोकने तत्परिहृतौ च कियद्गन्तुं शक्यते ? तथा प्रवर्तमानं बाधन्तेतरामातपादयः । नवकोटिपरिशुद्धा भिक्षा क्व लप्स्यते, खलेषु कृतज्ञता वेति मनसोऽप्यप्रणिधानं चारित्रविनयः । तपोविनयमुपगतस्यानशनादितपोऽनुष्ठानातिशयस्य मम स्वल्पमसंयमं अप्रासुकोदकपानेन, अशुद्धभिक्षाग्रहणेन वा जातं तप एवोन्मूलयतीति असंकल्पं सहनं । असकृदभ्युत्यानं, अनुगमनं प्रेषणकरणं, उपकरणशोधनादिकं वा कः कतु शक्नोति प्रतिदिनमित्यनभिसंधिरुपचार विनयसहनं । 'सढ्ढा य' श्रद्धा च । क्व तपसि । तपसा संपाद्यमुपकारमात्मनोऽवलोक्य बुद्धया तपो हि प्रत्यग्रं कर्म संवृणोति, चिराजितानां कर्मणां निर्जरामापादयति, इंद्रचक्रलांछनादिसंपदोऽप्यानयति । समीचीनस्य तपसोऽलाभादेव जननमरणावर्तसहनं, असुखाकुले भवांभोधी पर्यटनं ममासीद् भविष्यति च तथैव इति तपस्यनुरागः कार्यः । 'आवास गाणं' आवश्यकानां । ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं इति व्युत्पत्तावपि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते । व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवशः परवश इति यावत् । तेनापि कर्तव्यं कर्मेति । यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दोऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव । एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रंदनं, पूत्करणं वा न तद्भण्यते अथवा आवासप्रकारका कोप न करना अथवा उससे होने वाले श्रमसे संक्लेश भाव न करना, उसे सहना । दर्शन विनय करते हुए 'सन्मार्गसे गिरते हुएको स्थिर करना बड़ा कठिन है अपने चित्तको भी सरल करना कठिन है फिर दूसरेका तो कहना क्या । इस प्रकार संकल्प न करना उसे सहना । चारित्र विनय करने वालेको, 'ईर्या आदि समितियाँ दुष्कर हैं, यह जगत जीवोंसे भरा है कहाँ तक उन्हें बचाया जा सकता है ? अत्यन्त कुशलता पूर्वक पदको रखते हुए जीवोंको देखकर उन्हें बचाते हुए चलने में कौन समर्थ है ? इस प्रकारसे चलने पर आतप आदिकी अत्यन्त वाधा होती है । दुर्जनों कृतज्ञताकी तरह नौ कोटिसे शुद्ध भिक्षा कहाँ मिलती है' इस प्रकार मनमें न सोचना चारित्र विनय है । तप विनय करने वालेके 'अनशन आदि तपके अनुष्ठानमें लगे मेरे अप्रासुक जल पीने अथवा अशुद्ध भिक्षाके ग्रहणसे हुआ थोड़ा सा असंयम तपसे नष्ट हो जाता है' इस प्रकारका संकल्प न करना सहना है । 'बार-बार उठना, पीछे जाना, आज्ञा पालना, उपकरण आदि शुद्धि, कौन प्रतिदिन कर सकता है' इस प्रकारका संकल्प न करना उपचार विनय सहन है । तप नवीन कर्मोंका आना रोकता है । चिरकालसे संचित कर्मोंकी निर्जरा करता है । इन्द्र, • चक्रवर्ती आदिको संपदा भी लाता है । सम्यक् तपके अलाभसे ही जन्म मरणके चक्र और दुःखसे भरे संसार समुद्र में भ्रमण मुझे करना पड़ा है तथा करना पड़ेगा, इस प्रकार तपके द्वारा होने वाले उपकारोंको अपने में देखकर तपमें अनुराग करना चाहिये । न वश, अवश और अवशका कर्म आवश्यक है । ऐसी व्युत्पत्ति होने पर भी सामायिक आदिको ही आवश्यक कहते हैं । व्याधि, दुर्बलता आदिसे पीड़ितको भी अवश या परवश कहते हैं, और उसके द्वारा किया गया कर्म आवश्यक है । किन्तु जैसे जो 'आशु' शीघ्र चलता है वह अश्व (घोड़ा) हैं ऐसी व्युत्पत्ति होने पर भी व्याघ्र आदिको अश्व नहीं कहते, बल्कि प्रसिद्धिवश घोड़ेको हो अश्व कहते हैं । वैसे ही यहाँ भी जो अवश्य कर्म हैं - यहाँ-वहाँ घूमना, रोना, चिल्लाना 1 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १५३ कानां इत्ययमर्थः । आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनीति कृत्वा सामायिकं, चतुर्विशतिस्तवो, वंदना, प्रतिक्रमणं, प्रत्याख्यानं, व्युत्सर्ग इत्यमीपां । तत्र सामायिकं नाम चतुर्विध नामस्थापनाद्रव्यभावभेदेन । निमित्तनिरपेक्षा कस्यचिज्जीवादेरध्याहिता संज्ञा सामायिकमिति नामसामायिकम् । सर्वसावद्यनिवृत्तिपरिणामवता आत्मना एकीभूतं शरीरं यत्तदाकारसादृश्यात्तदेवेदमिति स्थाप्यते यच्चित्रपुस्तादिकं तत्स्थापनासामायिकम् । आगमद्रव्यसामायिकं नाम 'श्रुतस्याद्यं सामायिकं नाम ग्रंथः, तदर्थज्ञो यः सामायिकाख्यात्मपरिणामप्रत्यवभासः प्रत्ययरूपेण सांप्रतमपरिणतः आत्मा। नो आगमद्रव्यसामायिकं नाम यत्त्रिविकल्पं ज्ञायकशरीरभावितद्वयतिरिक्तभेदेन । सामायिकज्ञस्य यच्छरीरं तदपि सामायिकज्ञानकारणं, आत्मेव शरीरमंतरेण तस्याभावात् । यस्य हि भावाभावी नियोगतो यदनुकरोति तत्तस्य कारणमिति हेतुफलव्यवस्था वस्तुषु । ततः प्रत्ययसामायिकस्य कारणत्वाच्छरीरं त्रिकालगोचरं सामायिकशब्दवाच्यं भवति । चारित्रमोहनीयक्षयोपशमविशेषसहायो य आत्मा भविष्यत्सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिपरिणामः सोऽभिधीयते भाविसामायिकशब्देन । चारित्रमोहनीयाख्यं कर्म परिप्राप्तक्षयोपशमावस्थं नो आगमद्रव्यतद्वयतिरिक्तकर्म सामायिकमिति ग्राह्यं । आगमभावसामायिकं नाम प्रत्ययसामायिकं । नो आगमभावसामायिकं नाम सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिपरिणामः । अयमिह गृहीतः । चतुर्विंशतिसंख्यानां तीर्थकृतामत्र भारते प्रवृत्तानां वृषभादीनां जिनवरत्वादिगुणज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा आदि, उन्हें आवश्यक नहीं कहते । अथवा 'आवासयाण' का अर्थ आवासक है। जो आत्मामें रत्नत्रयका आवास कराते हैं-सामायिक, चतुविंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग। उनमेंसे नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे सामायिकके चार भेद है। निमित्तकी अपेक्षाके विना किसी जीव आदिका नाम सामायिक रखना नाम सामायिक है। सर्व सावद्यके त्याग रूप परिणाम वाले आत्माके द्वारा एकीभूत शरीरका जो आकार सामायिक करते समय होता है उस आकारके समान होनेसे 'यह वही है' इस प्रकार जो चित्र, पुस्त आदिमें स्थापना की जाती है वह स्थापना सामायिक है । द्वादशांग श्रुतका आद्य ग्रन्थका नाम सामायिक है । उसके अर्थका जो ज्ञाता है जिसे सामायिक नामक आत्म परिणामका बोध है किन्तु जो वर्तमानमें उस ज्ञानरूपसे परिणत नहीं है अर्थात् उसका उपयोग उसमें नहीं है वह आगम द्रव्य सामायिक है। नो आगम द्रव्य सामायिक ज्ञायक शरीर, भावि और तद्वयतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है । सामायिकके ज्ञाता का जो शरीर है वह भी सामायिकके ज्ञानमें कारण है क्योंकि आत्माकी तरह शरीरके विना भी ज्ञान नहीं होता। जिसके होने पर जो नियमसे होता है और अभावमें जो नहीं होता, वह उसका कारण है । ऐसी वस्तुओंमें कार्य कारणभावकी व्यवस्था है । अतः ज्ञान सामायिकका कारण होनेसे त्रिकालवर्ती शरीर सामायिक शब्दसे कहा जाता है। चारित्र मोहनीय कर्मके क्षयोपशम विशेषकी सहायतासे जो आत्मा भविष्यमें सर्वसावद्ययोगके त्यागरूप परिणाम वाला होगा उसे भावि सामायिक शब्दसे कहा जाता है । जो चारित्र मोहनीय नामक कर्म क्षयोपशम अवस्थाको प्राप्त है वह नोआगमद्रव्य तद्वयतिरिक्त सामायिक है। प्रत्यय रूप सामयिक आगमभाव सामायिक है। और सर्वसावद्य योगके त्यागरूप परिणाम नोआगमभाव सामायिक है। यहाँ इसीको ग्रहण किया है। इस भारतमें हुए वषभ आदि चौबीस तीर्थंकरोके जिनवरत्व आदि गुणोंके ज्ञान और श्रद्धान २० Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ भगवती आराधना चतुर्विशतिस्तवनपठनक्रिया नोआगमभावचतुर्विंशतिस्तव इह गृह्यते । वंदना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरःसरेण अभ्युत्थानप्रयोगभेदेन द्विविधे विनये प्रवृत्तिः । प्रत्येकं तयोरनेकभेदता कर्तव्यं केन, कस्य, कदा, कस्मिन्कतिवारानिति । अभ्युत्थान केनोपदिष्टं, किंवा फलमुद्दिश्य कर्तव्यं ? पूर्वमेव विनयः कर्तव्यतयोपदिष्टः सर्वेजिनः कर्मभूमिषु सदा मानकषायभंगः । गुरुजने बहुमानं, तीर्थकराणां आज्ञासंपादनं श्रुतधर्माराधनाक्रिया भावशुद्धिराजवं, तुष्टि च फलमपेक्ष्य केन तत् क्रियते । अमानिना, संविग्नेन, अनलसेनाशठेनानुग्रहकारणार्थिना, परगुणप्रकाशनोद्यतेन संघवत्सलेन । असंयतस्य संयतासंयतस्य वा नाभ्युत्थानं कुर्यात्, पार्श्वस्थपंचकस्य वा । रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यतानां अभ्य त्थानं कर्तव्यं कुर्यात । सुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबन्धनिमित्तं प्रमादस्थापनोव्हणकरणात् । संविग्नजनं प्रति क्रियमाणमभ्युत्थानं निर्जरानिमित्तं विरतिस्थापनोपबृहणकरणात् । वाचनामनुयोगं वा शिक्षयतः अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भिः सर्वेरेव । वसतेः, कायभूमितः, तिः चैत्यात. गरुसकाशात. ग्रामांतराद्वा आगमनकालेऽभ्यत्थातव्यं । गरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्यत्थानं कार्य । अनया दिशा यथागममितरदप्यनगंतव्यम् । दुऊणदं जहाजादं बारसावत्तमेव य । चदुस्सिरं तिसुद्धच किदिकम्मं पउंजए॥ [मूलाचार-७।१०४] पूर्वक चौवीस स्तवनोंको पढ़ना नोआगमभाव चतुर्विशंतिस्तव है। उसीका यहाँ ग्रहण है । रत्नत्रयसे सहित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक और स्थविर मुनियोंके गुणातिशयको जानकर श्रद्धापूर्वक अभ्युत्थान और प्रयोगके भेदसे दो प्रकारकी विनयमें प्रवृत्तिको वन्दना कहते हैं। उन अभ्युत्थान विनय और प्रयोग विनयके अनेक भेद हैं कि किसको किसका कब, कितनी बार करना चाहिये। शंका-अभ्युत्थानका उपदेश किसने दिया है और किस फलके उद्देशसे करना चाहिए ? समाधान-सब जिनदेवोंने कर्मभूमियोंमें सदा प्रथम ही कर्तव्यरूपसे विनयका उपदेश दिया है। विनयसे मानकषायका विनाश होता है। गुरुजनोंमें बहमान, तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका पालन, श्रतमें कहे गये धर्मकी आराधना. परिणाम विशद्धि. आर्जव और सन्तोषरूप फलको अपेक्षा करके विनय की जाती है। यह विनय कौन करता है ? जो मान रहित, संसारसे विरक्त, निरालसी, सरल अनुग्रह करनेका इच्छुक, दूसरोंके गुणोंको प्रकट करने में तत्पर और संघका प्रेमी होता है वह विनय करता है। असंयमी और संयमासंयमी तथा पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकारके भ्रष्ट मुनियोंके सन्मानमें उठना नहीं चाहिए। जो रत्नत्रय और तपमें नित्य तत्पर रहते हैं उनके प्रति उठना चाहिए। जो सुखशील साधु हैं उनके सन्मानमें उठना कर्मवन्धका कारण है क्योंकि वह प्रमादको बढ़ानेमें कारण होता है। जो वाचना देता है अथवा अनुयोगका शिक्षण देता है वह अपनेसे रत्नत्रयमें न्यून भी हो तब भी उनके पासमें सव अध्ययन करनेवालोंको उनके सन्मानमें उठकर खड़ा होना चाहिए। वसतिसे, कायभूमिसे, भिक्षासे, जिन मन्दिरसे, गुरुके पाससे अथवा ग्रामान्तरसे आनेके समय उठना चाहिए। जब-जब गुरुजन निकलते हैं अथवा निकलकर प्रवेश करते हैं तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार आगमसे अन्य भी जानना चाहिए। १. क्ष्यत्केन तत्-आ० मु० । - Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका इत्यादिकः प्रयोगविनयः । प्रतिक्रमणं प्रतिनिवृत्तिः षोढा भिद्यते नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन । अयोग्यनाम्नामनुच्चारणं नामप्रतिक्रमणं भट्टि दारिगा सामिणी इत्यादिकमयोग्यं नाम । आप्ताभासानामर्चा, सस्थावराणां रूपाणि लिखितान्युत्कीर्णानि वा स्थापनाशब्देनेह गृह्यन्ते । तत्राप्ताभासप्रतिमायां पुरः स्थितायां यदभिमुखतया कृतांजलिपुटता, शिरोवनतिः, गंधादिभिरभ्यर्चनं च न कर्तव्यम् । एवं सा स्थापना परिहृता भवति । श्रसस्थावरादिस्थापनानामविनाशनं, अमर्द्दनं, अताडनं वा परिहारः प्रतिक्रमणं । वास्तुक्षेत्रादीनां दशप्रकाराणां उद्गमोत्पादनैषणादोषदुष्टानां वसतीनां, उपकरणानां भिक्षाणां च परिहरणं, अयोग्यानां चाहारदीनां गृद्धेर्दर्पस्य च कारणानां संक्लेशहेतुनां वा निरसनं द्रव्यप्रतिक्रमणं । उदककर्द्दमत्रसस्थावरनिचितेषु क्षेत्रेषु गमनादिवर्जनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । यस्मिन्वा क्षेत्रे वसतो रत्नत्रयहानिर्भवति तस्य वा परिहारः, तच्च किं ? ज्ञानतपोवृद्धैरनाध्यासितं । रात्रिसंध्यात्रयस्वाध्यायावश्यककालेषु गमनागमनादिव्यापाराकरणात् कालप्रति - १५५ मूलाचारमें कहा है- क्रियाकर्ममें दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति, और तीन शुद्धियाँ होती हैं | पंचनमस्कारके आदिमें एक नमस्कार और चौबीस तीर्थंकरोंके स्तवनके आदिमें दूसरा नमस्कार इस प्रकार दो नमस्कार होते हैं- पंचनमस्कारका उच्चारण करने के प्रारम्भमें मनवचनकायके संयमनरूप तीन शुभयोगोंके सूचक तीन आवर्त होते हैं। पंचनमस्कार की समाप्ति होनेपर भी उसी प्रकार तीन आवर्त होते हैं । इसी प्रकार चौबीस तीर्थङ्करोंके स्तवनके आदि और अन्तमें तीन-तीन आवर्त होते हैं । इस प्रकार बारह आवर्त होते हैं । अथवा एकबार प्रदक्षिणा करनेपर चारों दिशाओंमें चार प्रणाम होते हैं । इस प्रकार तीन प्रदक्षिणाओंमें बारह प्रणाम होते हैं। पंचनमस्कार और चतुर्विंशति स्तवके आदि और अन्तमें दोनों हाथ मुकुलितकर मस्तकसे लगाना, इस तरह चार सिर होते हैं । इस प्रकार मनवचनकायकी शुद्धिपूर्वक क्रियाकर्म होता है यह सब प्रयोग विनय है । दोषों से निवृत्तिको प्रतिक्रमण कहते हैं । उसके छह भेद हैं-नामप्रतिक्रमण, स्थापना प्रतिक्रमण, द्रव्यप्रतिक्रमण, क्षेत्रप्रतिक्रमण, कालप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण । अयोग्य नामोंका उच्चारण न करना नाम प्रतिक्रमण है । भट्टिनी, दारिका, स्वामिनी इत्यादि अयोग्य नाम है । स्थापना शब्दसे यहाँ आप्ताभासोंकी मूर्ति, त्रस और स्थावरोंकी आकृतियाँ लिखित या खोदी हुई, ग्रहण की गई हैं । उनमेंसे आप्ताभासोंकी प्रतिमाओंके सन्मुख हाथ जोड़ना, सिर नमाना और गन्ध आदिसे पूजन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार करनेसे उस स्थापनाका परिहार हो जाता है यह स्थापना प्रतिक्रमण हैं । त्रस स्थावर आदिकी स्थापनाओंको नष्ट न करना अथवा तोड़ना- फोड़ना आदि न करना स्थापना प्रतिक्रमण है । मकान खेत आदि दस प्रकारकी परिग्रहोंका, उद्गम उत्पादन और एपगा दोषोंसे दूषित वसतिकाओंका उपकरणोंका, और भिक्षाओंका अयोग्य आहार आदिका और जो तृष्णा और मदके तथा संक्लेशके कारण है उन द्रव्योंका त्याग द्रव्य प्रतिक्रमण है । जल, कीचड़ और त्रस स्थावर जीवोंसे भरे क्षेत्रोंमें आने जानेका त्याग क्षेत्र प्रतिक्रमण है । अथवा जिस क्षेत्रमें रहनेसे रत्नत्रयकी हानि हो उसका त्याग क्षेत्र प्रतिक्रमण है तपसे वृद्ध मुनिगण नहीं रहते, इसलिए उनमें रहना वर्जित है । रात, ऐसे क्षेत्रों में ज्ञान और तीनों सन्ध्या, स्वाध्याय । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ भगवती आराधना क्रमणं । कालस्य दुष्परिहार्यत्वात्कालाधिकरणव्यापारविशेषाः कालसाहचर्यात्कालशब्देन गृहीताः । मिथ्यात्वमसंयमः, कषायः, रागः, द्वेषः, संज्ञा, निदानं, आर्तरौद्रमित्यादयोऽशुभपरिणामाः, पुण्यासवभूताश्च शुभपरिणामाः इह भावशब्देन गृहीता गृह्यन्ते, तेभ्यो निवृत्तिर्भावप्रतिक्रमणं इति केषांचियाख्यानं । चतुर्विधमित्य परे। निमित्तनिरपेक्षं कस्यचिन्नामत्वेन नियुज्यमानं प्रतिक्रमणमित्यभिधानं नामप्रतिक्रमणं । अशभपरिणामानां विशिष्टजीवद्रव्यानुगतशरीराकारसादृश्यापेक्षया चित्रादिरूपं स्थापितं स्थापनाप्रतिक्रमणं । प्रमाणनयनिक्षेपादिभिः प्रतिक्रमणावश्यकस्वरूपज्ञ'स्तत्रानुपयुक्तः प्रत्ययप्रतिक्रमणकारणत्वात् आगमद्रव्यप्रतिक्रमणशब्देनोच्यते । नो आगमद्रव्यप्रतिक्रमणं त्रिविधं ज्ञायकशरीरभावितद्वयतिरिक्तभेदैः । यथात्मा कारणं प्रतिक्रमणपर्यायस्य, तथा तदीयमपि शरीरं त्रिकालगोचरमिति प्रतिक्रमणशब्दवाच्यं भवति । चारित्रमोहक्षयोपशमसानिध्ये भविष्यत्प्रतिक्रमणपर्याय आत्मा भाविप्रतिक्रमणं । क्षयोपशमावस्थामपगतः चारित्रमोहः नो आगमद्रव्यव्यतिरिक्तकर्म प्रतिक्रमणं । प्रतिक्रमणप्रत्यय आगमभावप्रतिक्रमणं । मिच्छाणाणमिच्छादसणमिच्छाचारितादो पडिविरदोमित्ति एवं स्वरूपज्ञानं । अशुभपरिणामदोषमवबुध्य श्रद्धाय तत्प्रतिपक्षपरिणामवृत्ति!आगमभावप्रतिक्रमण । ___सामायिकात् प्रतिक्रमणस्य को भेदः ? सावद्ययोगनिवृत्तिः सामायिकं । प्रतिक्रमणमपि अशुभमनोवाक्कायनिवृत्तिरेव तत्कथं षडावश्यकव्यवस्था ? और षडावश्यकोंके कालमें गमन आगमन आदि व्यापार न करना काल प्रतिक्रमण है। कालका त्याग तो अशक्य जैसा है अतः कालमें होनेवाले कार्य विशेषोंको कालके सम्बन्धसे काल शब्दसे ग्रहण किया है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, राग, द्वेष, आहारादि संज्ञा, निदान, आर्त रौद्र इत्यादि अशुभ परिणाम और पुण्यास्रवभूत शुभ परिणाम यहाँ भाव शब्दसे ग्रहण किये हैं। उनसे निवृत्ति भाव प्रतिक्रमण है। ऐसा किन्हीं आचार्योंका व्याख्यान है। ____ अन्य आचार्य प्रतिक्रमणके चार भेद कहते हैं । निमित्तकी अपेक्षा न करके किसीका प्रतिक्रमण नाम रखना नामप्रतिक्रमण है। अशुभ परिणामवाले जीवोंके शरीरका जैसा आकार होता है उस आकारके सादृश्यकी अपेक्षासे चित्रमें अशुभ परिणामोंकी स्थापना स्थापना प्रतिक्रमण है ? प्रमाण नय-निक्षेप आदिके द्वारा प्रतिक्रमण नामक आवश्यकके स्वरूपका जो ज्ञाता उसमें उपयुक्त नहीं है वह प्रतिक्रमण विषयक ज्ञानका कारण होनेसे आगम द्रव्य प्रतिक्रमण शब्दसे कहा जाता है। नो आगम द्रव्य प्रतिक्रमणके तीन भेद हैं-ज्ञायकशरीर, भावि और तद्वयतिरिक्त । जैसे प्रतिक्रमण पर्यायका कारण आत्मा है वैसे उसका त्रिकालवर्ती शरीर भी कारण है इसलिए वह प्रतिक्रमण शब्दसे कहा जाता है। चारित्रमोहके क्षयोपशमके होनेपर जो आत्मा भविष्यमें प्रतिक्रमण पर्यायरूपे होगा वह भावि प्रतिक्रमण है। क्षयोपशम अवस्थाको प्राप्त चारित्रमोह कर्म नोआगमद्रव्य व्यतिरिक्त कर्म प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमणरूप ज्ञान आगम भाव प्रतिक्रमण है । अर्थात् मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्रसे मैं विरत हूँ इस प्रकारका स्वरूपज्ञान आगमभाव प्रतिक्रमण है। अशुभ परिणामके दोषको जानकर और उसपर श्रद्धा करके उसके प्रतिपक्षी शुभपरिणामोंमें प्रवृत्ति नोआगमभाव प्रतिक्रमण है । शंका-सामायिक और प्रतिक्रमणमें क्या भेद है ? सावद्ययोगसे निवृत्ति सामायिक है और अशुभ मनवचनकायसे निवृत्ति प्रतिक्रमण है तब छह आवश्यककी व्यवस्था कैसे सम्भव है ? १. ज्ञसूत्रा-आ० मु०। २. कस्य प्र-आ० मु० । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका अत्रोच्यते - सव्वं सावज्जजोगं पच्चक्खामीति वचनाद्धिसादिभेदमनुपादाय सामान्येन सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिः सामायिकं । हिंसादिभेदेन सावद्ययोगविकल्पं कृत्वा ततो निवृत्तिः प्रतिक्रमणं । "मिच्छत्तपडिक्कमणं, तहेव असंजमपडिक्कमणं । कसासु पडिक्कमणं, जोगेसु अप्पसत्थेसु " ॥ [ मूलाचा० ७।१२० ] इति वचनादिति केचित्परिहन्ति । इदं त्वन्याय्यं प्रतिविधान । योगशब्देन वीर्यपरिणाम उच्यते । स च वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितत्वात् क्षायोपशमिको भावस्ततो निवृत्तिरशुभकर्मादाननिमित्तयोगरूपेण अपरिणतिरात्मनः सामायिकं । मिथ्यात्व'मसंयमः कषायाश्च दर्शनचारित्रमोहोदयजा औदयिकाः । मिथ्यात्वं तत्त्वाश्रद्धानरूपं, असंयमो हि हिंसादिरूपः क्रोधादयस्तु परस्परतो मिथ्यात्वादसंयमाच्चानुभवसिद्ध वैलक्षण्यरूपाः । ये भिन्नहेतुस्वरूपास्ते नैक्यमापद्यन्ते यथा शालियवगोधूमादिधान्यं । भिन्न हेतुस्वरूपाश्च मिथ्यात्वा संयमकषायाः । तेभ्यो विरतिर्व्यावृत्तिः प्रतिक्रमणं । सावद्ययोगमात्रनिवृत्तिः सामायिकमिति भेदो महाननयोः । भेदमेवाश्रित्यामीषां परिणामानां चदुपच्चयगो बंधो इति सूत्रमवस्थितं । अन्यथा योगविकल्पत्वे मिथ्यात्वादीनां चतुःसंख्या न न्याय्या योगेन सह । १५७ प्रत्याख्यानं नाम अनागतकालविषयां क्रियां न करिष्यामि इति संकल्पः । तच्च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल भावविकल्पेन षड्विधं । अयोग्यं नाम नोच्चारयिष्यामीति चिन्ता नामप्रत्याख्यानं । आप्ताभासानां समाधान - सर्व सावद्ययोगको त्यागता हूँ इस प्रकार हिंसा आदिका भेद न करके सामान्यसे सर्व सावद्ययोगसे निवृत्ति सामायिक है । और हिंसा आदिके भेदसे सावद्ययोगके भेद करके उससे निवृत्ति प्रतिक्रमण है । सूत्रमें कहा है- 'मिध्यात्व प्रतिक्रमण' असंयम प्रतिक्रमण, कषाय प्रतिक्रमण और अप्रशस्त योग प्रतिक्रमण होता है । उक्त शंकाका कोई आचार्य ऐसा उत्तर देते हैं किन्तु वह उचित नहीं है । योग शब्दसे वीर्यपरिणाम कहा जाता है । वह वीर्यपरिणाम वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेके कारण क्षायोपशमिक भाव है । उससे निवृत्ति अर्थात् अशुभकर्मको लानेमें निमित्त योगरूपसे आत्माका परिणमन न करना सामायिक है । मिथ्यात्व, असंयम और कषाय दर्शनमोह और चारित्रमोहके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औदयिक हैं । मिथ्यात्व तत्त्वोंके अश्रद्धानरूप है । असंयम हिंसादिरूप है और क्रोधादि तो मिथ्यात्व और असंयमसे विलक्षण हैं यह अनुभवसिद्ध है । जिनका हेतु और स्वरूप भिन्न होता है वे एक नहीं हो सकते जैसे शालि, जौ, गेहूँ आदि धान्य । मिथ्यात्व, असंयम और कषायके हेतु और स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं उनसे निवृत्ति प्रतिक्रमण है । और सावद्य योगमात्र निवृत्ति सामायिक है । अतः दोनोंमें महान् भेद है इन परिणामोंके भेदको ही लेकर 'चदुपच्चयगो बन्धो'-- बन्धके चार कारण है, यह सूत्र अवस्थित है । अन्यथा यदि मिथ्यात्व आदि योग भेद हों तो फिर योगके साथ चारकी संख्या नहीं बन सकती । आगामी काल में मैं यह काम नहीं करूँगा, इस प्रकारके संकल्पका नाम प्रत्याख्यान है । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे उसके छह भेद हैं। मैं अयोग्य नामका १. त्वासंयमक - आ० मु० । २ पञ्चयाण बंधो-आ० मु० | Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ भगवती आराधना प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण सस्थावरस्थापनापीडां न करिष्यामीति प्रणिधानं मनसः स्थापनाप्रत्याख्यानं । अथवा अहंदादीनां स्थापनां न विनाशयिष्यामि नैवानादरं तत्र करिष्यामि इति वा । अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न ग्रहीष्यामीति चिंताप्रबंधो द्रव्यप्रत्याख्यानं योग्यानि वा निष्ठितप्रयोजनानि । संयमहानि संक्लेशं वा संपादयंति यानि क्षेत्राणि तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यानं । कालस्य दुःपरिहार्यत्वात् कालसाध्यायां क्रियायां परिहतायां काल एव प्रत्याख्यातो भवतीति ग्राह्य। तेन संध्याकालादिष्वध्ययनगमनादिकं न संपादयिष्यामीति चेतः कालप्रत्याख्यानं । भावोऽशुभपरिणाम तन्न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं भावप्रत्याख्यानं । तद्विविध मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानमिति । ननु च मूलगुणा व्रतानि तेषां प्रत्याख्यानं निरासो भविष्यत्कालविषयश्चेन्न स संवरार्थिना कार्यः, संवरार्थमवश्यमनुष्ठीयते इति । उत्तरगुणानां कारणत्वान्मूलगुणव्यपदेशो व्रतेपु वर्तते मूलगुणशब्दः मूलगुणश्च सः प्रत्याख्यानं च तत् इति मूलगुणप्रत्याख्यानं । व्रतोत्तरकालभावित्वादनशनादिकं उत्तरगुण इति उच्यते । उत्तरगुणश्च सः प्रत्याख्यानं च तदिति उत्तरगुणप्रत्याख्यानं । तत्र संयतानां जीवितावधिकं मूलगुणप्रत्याख्यानं । संयतासंयतानां अणुव्रतानि मूलगुणवतव्यपदेशभांजि भवंति । तेषां द्विविधं प्रत्याख्यानं अल्पकालिकं, जीवितावधिकं चेति । पक्षमासषण्मासादिरूपेण भविष्यत्कालं सावधिकं कृत्वा तत्र स्थूलहिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहान्नाचरिष्यामि इति प्रत्याख्यानमल्पकालिकम् । उच्चारण नहीं करूँगा, इस प्रकारका विचार नाम प्रत्याख्यान है । मैं आप्ताभासोंकी प्रतिमाको नहीं पूज़ंगा, मनवचनकायसे त्रस और स्थावरोंकी स्थापनाको पीड़ा नहीं पहुँचाऊँगा, इस प्रकारका मनका संकल्प स्थापना प्रत्याख्यान है। अथवा मैं अर्हन्त आदिकी स्थापनाको नष्ट नहीं करूँगा, न उसका अनादर ही करूँगा, इस प्रकारका मनका संकल्प स्थापना प्रत्याख्यान है। अयोग्य आहार तथा उपकरण द्रव्योंको मैं ग्रहण नहीं करूंगा, इस प्रकारके चिन्ता प्रबन्धको द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं । जो क्षेत्र संयमको हानि पहुंचाते हैं अथवा संक्लेश उत्पन्न करते हैं। उन्हें मैं छोड़ें गा इस प्रकारके संकल्पको क्षेत्र प्रत्याख्यान कहते हैं। कालको छोड़ना तो अशक्य जैसा है अतः काल साध्य क्रियाका त्याग करने पर कालका ही प्रत्याख्यान होता है ऐसा लेना चाहिये । अतः सन्ध्याकाल आदिमें अध्ययन गमन आदि नहीं करूँगा इस प्रकारके चित्तको काल प्रत्याख्यान कहते हैं । भावसे अशुभ परिणाम लेना । मैं अशुभ परिणाम नहीं करूँगा, इस प्रकारका संकल्प करना भाव प्रत्याख्यान है। उसके दो भेद हैं-मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान । शङ्का-मूलगुण व्रतोंको कहते हैं । उनका प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग भविष्यत् कालमें यदि किया जायेगा तो संवरके इच्छुक यतिको उसे नहीं करना चाहिये, उसे तो संवरके लिये व्रत अवश्य पालनीय होते हैं ? समाधान-उत्तर गुणोंका कारण होनेसे व्रतोंको मूलगुण कहते हैं अतः मूलगुण रूप प्रत्याख्यान मूलगुण प्रत्याख्यान है । व्रतोंके उत्तर कालमें अनशन आदि होते हैं इसलिये उन्हें उत्तर गुण कहते हैं । यहाँ भी उत्तर गुणरूप प्रत्याख्यान उतरगुण प्रत्याख्यान है। उनमेंसे संयमियोंके जीवनपर्यन्त मूलगुण प्रत्याख्यान होता है। और संयमासंयमी श्रावकोंके अणुव्रत मूलगुणव्रत कहलाते हैं। उनके दो प्रकारका प्रत्याख्यान होता है-एक अल्पकालिक और दूसरा जीवनपर्यन्त । पक्ष, मास, छहमास आदि रूपसे भविष्यतकालकी मर्यादा करके 'इतने काल तक मैं स्थूल हिंसा, १. अयोग्यानि वानिष्ट-मु०। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका १५९ आमरणमवधिं कृत्वा न करिष्यामि स्थूलहिंसादीनि इति प्रत्याख्यानं जीवितावधिकं । उत्तरगुणप्रत्याख्यानं संयतसंयतासंयतयोरपि अल्पकालिकं जीवितावधिकं वा । परिगृहीतसंयमस्य सामायिकादिकं अनशनादिक च वर्तते इति उत्तरगुणत्वं सामायिकादेस्तपसश्च । भविष्यत्कालगोचराशनादित्यागात्मकत्वात्प्रत्याख्यानत्वं । सति सम्यक्त्वे चैतदुभयं प्रत्याख्यानं । जीवनिकायं हिंसादिस्वरूपं च ज्ञात्वा श्रद्धाय सर्वतो देशतो वा हिंसादिविरतिव्रतं । तथा चोक्तं-'निःशल्यो व्रती (त० सू० ७.१८) इति । मिथ्यादर्शनशल्यं, मायाशल्यं, निदानशल्यं चेति त्रिविधं शल्यं तेभ्यो निष्क्रांतः निःशल्यः । सावधारणं चेदं निःशल्य एव व्रतीति । तेन सशल्यस्यव्रतिता निरस्ता भवति । न च असति श्रद्धाने मिथ्यात्वशल्यनिवृत्तिः । न च जीवाद्यर्थपरिज्ञानमंतरेण श्रद्धानस्यास्ति संभव इति ज्ञानदर्शनवत एव व्रतिता सूत्रकारेणाख्याता । तथावश्यकेऽप्युक्तम् "पंचवदाणि जदीणं अणव्वदाइंच देशविरदाणं । ण हु सम्मत्तेण विणा तो सम्मत्त पढमदाए ॥"[ ] इति हिंसादिप्रवर्तनपरं भाषितमिति क्रियाः पंचापि सरात्रिभोजनाः प्रत्याचष्टे यतिस्विधा मनोवाक्कायविकल्पेन कृतकारितानुमतैर्यावज्जीवं । सम्यग्दृष्टिस्त्वगारी मूलगूणं उत्तरगुणं वा स्वशक्त्या गृहाति परिमितकालं यावज्जीवं वा । आत्मना प्रावकृतं हिंसादिकं हा दुष्टं कृतं, हा दुष्टं संकल्पितं, वचो वा हिंसादिप्रवर्तनपरं भाषितं इति निंदागहमियां स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म और परिग्रहका आचरण नहीं करूँगा, इस प्रकारका प्रत्याख्यान अल्पकालिक है । मरणपर्यन्त मैं स्थूल हिंसादि नहीं करूँगा, इस प्रकारका प्रत्याख्यान जीवितावधि है। उत्तरगुण प्रत्याख्यान संयत और संयतासंयतके भी अल्पकालिक अथवा जीवनपर्यन्त होता है । जिसने संयम ग्रहण किया है उसके सामायिक आदि और अनशन आदि होते हैं इसलिये सामायिक आदि और तप उत्तरगुण हैं। और भविष्यत्कालमें अनशन आदिके त्यागरूप होनेसे प्रत्याख्यान रूप भी हैं । सम्यक्त्वके होने पर ही ये दोनों प्रत्याख्यान होते हैं। ____ जीवनिकाय और हिंसा आदिके स्वरूपको जानकर तथा श्रद्धा करके सर्वदेश अथवा एक देशसे हिंसा आदिके त्यागको व्रत कहते हैं । कहा भी है-जो निःशल्य है वही व्रती है। मिथ्यादर्शन शल्य, मायाशल्य और निदानशल्य, इस प्रकार तीन शल्य हैं। उनसे जो रहित है वह निशल्य है। यह निशल्य शब्द अवधारण सहित है। निःशल्य ही व्रती होता है। इससे जो शल्य सहित है उसके व्रतीपनेका निषेध किया है। श्रद्धानके अभावमें मिथ्यात्वशल्यसे निवृत्ति नहीं होती । और जीवादि पदार्थांके ज्ञानके बिना श्रद्धान संभव नहीं है। अतः ज्ञानदर्शनवान्को ही सूत्रकारने व्रती कहा है । तथा आवश्यकमें भी कहा है-'सम्यक्त्वके बिना न तो यतियोंके पाँच व्रत होते हैं और न देशविरत श्रावकोंके अणुव्रत होते हैं । अतः सम्यक्त्वको प्रथमता है।' इस प्रकार यति मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे रात्रिभोजनके साथ हिंसा आदि पाँचों पापोंका त्याग जीवनपर्यन्तके लिये करता है। गृहस्थ सम्यग्दृष्टि मूलगुण अथवा उत्तरगुणको अपनी शक्तिके अनुसार कुछ काल या जीवनपर्यन्तके लिये ग्रहण करता है। अपने द्वारा पहले किये गये हिंसा आदिको 'हा, मैंने बुरा किया, हा, मैंने बुरा संकल्प किया, हिंसा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० भगवती आराधना स्वपरविषयाम्यां दूषयन्वर्तमानं चासंयमं कृतं क्रियमाणासंयमसदृशं न करिष्यामि इति मनसि कुर्वन्प्रत्याख्याता भवति । ___ अगारिणां विरतिपरिणामविकल्पो निरूप्यते । स्थूलकृतप्राणातिपातादिकं कृतकारितानुमतविकल्पात् त्रिविधं मनोवाक्कायविकल्पैर्न त्यजति । मनसा स्थूलकृतप्राणातिपातादिकं न करोमि, तथा वचसा कायेनेति त्रिविधं कृतम् । मनसा स्थूलकृतं प्राणातिपातादिकं न कारयामि तथा वचसा कायेन चेति त्रिविकल्पं कारितं । तथा मनसा स्थूलकृतप्राणातिपातादिकं नानुजानामि, तथा वचसा कायेन चेति विभेदमनुमननं । एवं नवविधं स्थूलकृतप्राणवधादिकं त्यक्तुमशक्तोऽगारी। । तथा मनोवाग्भ्यां स्थूलकृतप्राणातिपातादिकं कृतकारितानुमतिविकल्पात्रिविधं व कतु मशक्तो मनसा न करोमि, न कारयामि, नानुजानामि । वचसा न करोमि, न कारयामि नानुजानामि इति । कायेन कृतकारितानुमतविकल्पान् हिंसादींश्च न समर्थो विहातु । तथा च सूत्रं 'न खु तिविधं तिविधेण य दुविधेक्कविधेण वापि विरमेज्ज इति ॥' [ ] कथं तहगारी विरतिमुपैति ? अत्रोच्यते कृतकारितविकल्पाद्विप्रकारं हिंसादिकं मनोवाक्कायस्त्यजति । वाचा कायेन वा हिंसादिविषयं कृतकारितं त्यजति । कायेन एकेन वा कृतं कारितं त्यजति । अत एवोक्तं 'दुविधं पुण तिविधेण य दुविधेकविधेण वा विरमेज्ज' इति । अथवा हिंसायाः स्वयं करणं एक मनोवाक्कायैस्त्यजति । नाहं मनसा वाचा कायेन स्थूलकृतप्राणातिपातादिकं पंचकं करोमीति अभिसंधिपूर्वकं विरमणं आदिमें प्रवर्तन करने वाला बचन वोला,' इस प्रकार स्व और परविषयक निन्दा गहकेि द्वारा दोषयुक्त बतलाते हुए, तथा वर्तमानमें मैं जो असंयम करता हूँ और पूर्वमें जैसा असंयम किया है वैसा मैं भविष्यमें नहीं करूंगा, ऐसा मनमें संकल्प करके त्याग करता है। अब गृहस्थोंके विरतिरूप परिणामोंके भेद कहते हैं—कृत, कारित और अनुमतके भेदसे तीन भेदरूप स्थूल हिंसा आदिको ग्रहस्थ मन वचन कायसे नहीं त्यागता है। मनसे स्थूल हिंसा आदिको नहीं करता हूँ तथा वचनसे और कायसे नहीं करता हूँ, ये तीन भेद कृत हैं। मनसे स्थूल हिंसा आदिको न कराता हूँ तथा वचनसे और कायसे नहीं कराता हूँ। ये तीन भेद कारितके हैं । तथा मनसे स्थूल हिंसा आदिमें अनुमति नहीं देता हूँ तथा वचनसे और कायसे अनुमति नहीं देता हूँ ये तीन भेद अनुमतके हैं। इस प्रकार नौ प्रकारकी स्थूल हिंसा आदिका त्याग करने में गृहस्थ असमर्थ होता हैं । तथा कृत कारित अनुमतके भेदसे तीन भेदरूप स्थूल हिंसा आदिको मन और वचनसे करने में असमर्थ होता है । मनसे न करता हूँ, न कराता हूँ और न अनुमति देता हूँ। वचनसे न करता हूँ, न कराता हूँ और न अनुमति देता हूँ। कायसे कृत कारित अनुमतरूप हिंसा आदिको छोड़नेमें समर्थ नहीं हूँ। सूत्रमें कहा है-कृतकारित अनुमतके भेदसे तीन भेद रूप हिंसा आदिको मन वचन कायसे अथवा मन वचनसे अथवा कायसे त्याग नहीं करता है। तब गृहस्थ कैसे त्याग करता है यह बतलाते हैं कृत और कारितके भेदसे दो भेदरूप हिंसा आदिको मन वचन कायसे छोड़ता है। कृत कारित रूप हिंसादिको वचन और कायसे छोड़ता है। अथवा कृत कारित रूप हिंसा आदिको एक कायसे छोड़ता है । इसीसे कहा है-'कृत कारित रूप हिंसा आदिको तीन रूपसे, दो रूपसे या एक रूपसे छोड़ता है।' अथवा हिंसाके एक स्वयं करनेको मन वचन कायसे त्यागता है । 'मैं मनसे वचनसे कायसे स्थूल हिंसादि पाँच पापोंको नहीं करता हूँ' इस प्रकार संकल्प पूर्वक त्याग Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १६१ करोति । वाक्कायाभ्यां वा स्वयं करणं त्यजति कायेनैकेन वा । तथा चोक्तम्— 'एकविधं तिविषेण वापि विरमेज्ज' इति । एवमेते व्रतविकल्पाः भविष्यत्कालविषयतयानुयुज्यमानाः प्रत्याख्यानविकल्पाः भवन्तीत्यत्रोपन्यासः कृतः । कायोत्सर्गी निरूप्यते - कायः शरीरं तस्य उत्सर्गस्त्यागः कायोत्सर्गः । उपलब्ध्यधिष्ठानेन्द्रियावयवक: कर्मनिवर्तितः पुद्गलप्रचयविशेष औदारिकाख्य इंह कायशब्देन गृहीतः इतरत्र उत्सर्गस्यासंभवात् वक्ष्यमाणस्य । ननु च आयुषो निरवशेपगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तत्किमुच्यते कायोत्सर्ग इति । 8 आत्मशरीरयोरन्योऽन्यस्य प्रदेशानुप्रवेशिनोरायुर्वशात् अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं सप्तधातुरूपतया अशुचितमं शुक्रशोणितवीतबीजत्वाच्च तथा ऽनित्यत्वं अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दुःखहेतुत्वं, शरीरगतम मताहेतुकमनंतसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्संप्रधार्य दोषान्नेदं मम नाहमस्येति संकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव । यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येकस्मिन्मंदिरे त्यक्ते - त्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेदं भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि । किंच कायापायसन्निपातेऽपि अपायनिराकरणाभिलाषस्याभावात् । यो यदपायनिराकरणानुत्सकस्तेन तत्परित्यक्तं यथा वसनादिकं परिहृतं । शरीरापायनिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माद्युज्यते कायस्य त्यागः । करता है । अथवा स्वयं करनेको वचन और कायसे त्यागता है या एक कायसे त्यागता है । कहा है - 'एक कृतको तीन प्रकारसे त्यागता है । इन व्रतके भेदोंको भविष्य कालके साथ जोड़ने पर कि मैं भविष्य में ऐसा नहीं करूँगा, ये प्रत्याख्यानके भेद होते हैं । . अब कायोत्सर्गको कहते हैं - काय अर्थात् शरीरके, उत्सर्ग अर्थात् त्यागको कायोत्सर्ग कहते हैं। पदार्थो को जाननेका आधार इन्द्रियाँ जिसकी अवयव है, और कर्मके द्वारा जिसकी रचना हुई तथा जो पुद्गलोंका एक समूह विशेष है उस औदारिक नामक शरीरको यहाँ काय शब्दसे ग्रहण किया है क्योंकि आगे कहे जानेवाला उत्सर्गं अन्य शरीरोंमें सम्भव नहीं है । शंका - आयुकर्म जब पूर्णरूपसे समाप्त हो जाता है तब आत्मा शरीरको छोड़ता है अन्य कालमें नहीं छोड़ता । तब कैसे आप कायोत्सर्गकी बात करते हैं ? समाधान - आत्मा और शरीरके प्रदेश परस्पर में मिलनेसे आयुकर्मके कारण यद्यपि शरीर ठहरा रहता है तथापि शरीर सात धातु रूप होनेसे अपवित्र है, रज और वीर्यंसें उत्पन्न होनेसे विशेष अपवित्र है । तथा अनित्य है, नष्ट होनेवाला है, दुःखसे धारण करने योग्य है, असार है. दुःखका कारण है, इस शरीर से ममत्व करनेसे अनन्त संसार में भ्रमण करना होता है, इत्यादि दोषोंको कर 'न यह मेरा है, न मैं इसका हूँ' ऐसा संकल्प करनेवालेके शरीरमें आदरका अभाव होनेसे कायका त्याग घटित होता ही है । जैसे प्राणोंसे भी प्यारी पत्नी अपराध करनेपर उसमें अनुराग न रहने से 'यह मेरी है' इस प्रकारका भाव न होनेसे एक ही घर में रहते हुए भी 'त्यागी हुई' कही जाती है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना । दूसरे, शरीरके विनाशके कारण उपस्थित होनेपर भी कायोत्सर्ग करनेवालेके विनाशके कारणको दूर करनेकी इच्छा नहीं होती। जो जिसके विनाशके कारणों को दूर करनेमें उत्सुक नहीं है उसने उसे त्याग दिया है, जैसे त्यागा हुआ वस्त्रादि। और यति शरीरके विनाशके कारणको दूर करनेमें उत्सुक नहीं होता । अतः उसके २१ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भगवती आराधना 'स च शरीरनिःस्पृहः, स्थाणुरिवोर्ध्वकायः, प्रलंबितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः, तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते देशे । ____ अन्तर्मुहूर्तः कायोत्सर्गस्य जघन्यः कालः, वर्षमुत्कृष्टः । अतिचारनिवृत्तये कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवन्ति रात्रिदिनपक्षमासचतुष्टयसंवत्सरादिकालगोचरातिचारभेदापेक्षया । सायाह्नोच्छ्वास शतकं, प्रत्यूषसि पंचाशत्, पक्षे त्रिशतानि, चतुर्यु मासेषु चतुःशतानि, पंचशतानि संवत्सरे उच्छ्वासानां । प्रत्युषसि प्राणिबधादिषु पंचस्वतीचारेषु अष्टशतोच्छवासमात्रः काल: कायोत्सर्गः कार्यः । कायोत्सर्गे कृते यदि शक्यते उच्छवासस्य स्खलनं वा परिणामस्य उच्छ्वासाष्टकमधिकं स्थातव्यम् । उत्थितोत्थितं, उत्थितनिविष्टम्, उपविष्टोत्थितं, उपविष्टनिविष्ट इति चत्वारो विकल्पाः । धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्गः उत्थितोत्थितो नाम । द्रव्यभावोत्थानसमन्वितत्वादुत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते । तत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणवदुवं अविचलमवस्थानं । ध्येयकवस्तुनिष्ठता ज्ञानारव्यस्य भावस्य भावोत्थानं । आर्तरौद्रयोः परिणतो यस्तिष्ठति तस्य उत्थितनिषण्णो नाम कायोत्सर्गः । शरीरोस्थानादुत्थितत्वं शुभपरिणामोद्गतिरूपस्योत्थानस्याभावान्निषण्ण इत्युच्यते । अत एव विरोधाभावो भिन्न कायत्याग उचित है। तथा वह शरीरसे निस्पृह होकर, स्थाणुकी तरह शरीरको सीधा करके, दोनों हाथोंको लटकाकर. प्रशस्त ध्यानमें लीन हो, शरीरको ऊँचा-नीचा न करके परोषहों और उपसर्गो को सहन करता हुआ, कर्मोको नष्ट करनेकी अभिलाषासे जन्तुरहित एकान्त देशमें ठहरता है। कायोत्सर्गका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल एक वर्ष है। अतिचारोंको दूर करनेके लिए कायोत्सर्गके रात, दिन, पक्ष, मास, चार मास, वर्ष आदिकालमें होनेवाले अतिचारोंकी अपेक्षा अनेक भेद हैं । सायंकालमें सौ उच्छ्वास प्रमाण, प्रातःकालमें पचास उच्छ्वास प्रमाण, पाक्षिक अतिचारमें तीन सौ उच्छवास प्रमाण, चार मासोंमें चार सौ उच्छ्वास प्रमाण और वार्षिकमें पाँच सौ उच्छ्वास प्रमाण काल कायोत्सर्गका है । हिंसा आदि पाँच अतिचारोंमें एक सौ आठ उच्छ्वास मात्र काल तक कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग करनेपर यदि उच्छ्वासका अथवा परिणामका स्खलन हो जाये तो आठ उच्छ्वासप्रमाण अधिक काल तक कायोत्सर्ग करना चाहिए। ___ कायोत्सर्गके चार भेद हैं-उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टउत्थित, और उपविष्टनिविष्ट । जो धर्मध्यान या शुक्लध्यान सहित कायोत्सर्ग करता है उसके उत्थितोत्थित नामक कायोत्सर्ग है। यहाँ द्रव्य और भाव दोनोंके ही उत्थानसे युक्त होनेसे उत्थितोत्थित शब्दसे उत्थानका प्रकर्ष कहा है। स्थाणुकी तरह शरीरका उन्नत और निश्चल रहना द्रव्योत्थान है। ज्ञानरूप भावका ध्यान करने योग्य एक ही वस्तुमें स्थिर रहना भावोत्थान है। जो आर्त रौद्रध्यानके साथ कायोत्सर्ग करता है उसके उत्थितनिविष्ट नामक कायोत्सर्ग होता है। शरीरके खड़े होनेसे इसे उत्थित और शभपरिणामकी उद्गतिरूप उत्थानका अभाव होनेसे निविष्ट या निषण्ण कहते हैं। इसीसे एक कालमें एक क्षेत्रमें उत्थान-खड़े होना और निविष्ट–बैठना इन दोनों आसनोंमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि दोनोंके निमित्त भिन्न हैं। जो बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान करता है उसके उत्थितनिषण्ण कायोत्सर्ग होता है क्योंकि उसके परिणाम तो उत्थित १. तत्र शरीर-आ० मु० । २. नां प्रत्युपसि प्राणि-आ० मु० । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका निमित्तत्वादुत्थानासनयोः एकत्र एकदा । यस्त्वासीन एव धर्मशुक्लध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उत्थितनिपण्णो भवति परिणामोत्थानात्कायानुत्थानाच्च । यस्तु निषण्णोऽशुभध्यानपरस्तस्य निषण्णनिषण्णकः कायशुभपरिणामाभ्यां अनुत्थानात् । देवसिकाद्यतीचारं रत्नत्रयगतं मनसा विमृश्य इदं मया न सुष्टु कृतं प्रमादिनेति संचिन्त्य पश्चाद्धमें शुक्ले वा ध्याने प्रयतितव्यम् । कायोत्सर्गप्रपन्नः स्थानदोषान्परिहरेत् । के ते इति चेदुच्यते । १ तुरग इव कुंटीकृतपादेन अवस्थानम् २ लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थानं ३ स्तंभवत्स्तब्धशरीरं कृत्वा स्थानं । ४ स्तंभोपाश्रयेण वा कुड्याश्रयेण वा मालावलग्नशिरसा वावस्थानम्। ५ लंविताधरतया, स्तनगतदृष्टया वायस इव इतस्ततो नयनोद्वर्तनं कृत्वा । ६ खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं संपादयतोऽवस्थानं । ७ युगावष्टब्धवलोवई इव शिरोऽधः पातयता। ८ कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, संकुचिताङ्गुलिपंचकं वा कृत्वा ९ शिरश्चालनं कुर्वन् १० मूक इव हुंकारं संपाधावस्थानं ११ मूक इव नासिकया वस्तुपर्दशयता वा १२ अंगुलीस्फोटनं १३ भ्रूनर्तनं वा कृत्वा १४ शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं १५ शृंखलाबद्धपाद इव वावस्थानं १६ पीतमदिर इव परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषाः ॥ व्यावणितानामावश्यकानां अपरिहाणिर्हानिर्न कार्या । अणुस्सेगो आधिक्येनाकरणं च । है किन्तु शरीर बैठा हुआ है। जो बैठे हुए अशुभध्यानमें लीन होता है उसके निषण्ण निषण्ण कायोत्सर्ग होता है। क्योंकि न तो उसका शरीर उत्थित है और न शुभपरिणाम ही हैं । रत्नत्रयमें देवसिक आदि अतीचारोंको मनसे विचारकर 'मुझ प्रमादीने यह ठीक नहीं किया' ऐसा सोचकर पीछे धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान करना चाहिये। कायोत्सर्ग करने वालेको स्थान सम्बन्धी दोष दूर करना चाहिये । वे दोष इस प्रकार हैं१. घोड़ेकी तरह पैरको थोड़ा मोड़कर खड़ा होना। २. बेलकी तरह इधर-उधर हिलते हुए खड़े होना । ३. स्तम्भकी तरह शरीरको स्तब्ध करके खड़े होना । ४. स्तम्भ अथवा दीवारके आश्रयसे अथवा ऊपरके तल्लेसे सिरको लगाकर खड़े होना। ५. ओष्ठको लटकाकर दृष्टि अपने स्तनों पर रखकर कौएकी तरह आँखोंको इधर-उधर घुमाना। ६. लगामसे पीड़ित मुख वाले घोड़ेकी तरह मुख चलाते हुए अवस्थित होना । ७. जैसे कन्धे पर जुआ होनेसे बैल अपना सिर नीचे डालता है उस तरह सिरको लटकाकर अवस्थापन करना। ८. कैथके फलको ग्रहण करने वाला मनुष्य जैसे अपनी हथेलीको फैलाता है उस तरह हथेलीको फैलाकर या पांचों अंगुलियोंको संकुचित करके अवस्थित होना । ९. सिरको चलाते हुए अवस्थान । १०. गूंगेकी तरह हुंकार करते हुए अवस्थान । ११. गूंगेकी तरह ना कसे वस्तुको दिखलाते हुए अवस्थान । १२. अंगुली चटकाते हुए अवस्थान । १३. भौंको नचाते हुए अवस्थान । १४. भीलनीकी तरह अपने अग्रभागको हथेलीसे ढकते हुए अवस्थान । १५. ऐसे खड़े होना मानों दोनों पैर साँकलसे बँधे हैं । १६. मदिरा पिये हुए की तरह अथवा पराधीन शरीर वालेकी तरह खड़ा होना । ये कायोत्सर्गके दोष हैं। जो पहले छह आवश्यक कहे हैं उनमें हानि नहीं करनी चाहिये और न उनमें आधिक्य करना चाहिये ।। ११८ ।। १. मया दुष्टं कृतं-आ० मु० । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ भगवती आराधना भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं । एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स ॥ ११९ ॥ 'भत्ती' भक्तिः । वदननिरीक्षणादिप्रसादेन अभिव्यज्यमानोऽन्तर्गतोऽनुरागः । 'तवोऽधिगम्मि' तपो ऽधिके च 'तवम्मि' य सम्यक्तपसि तद्वति च, भक्तिरिति यावत् । तच्च सम्यग्ज्ञानदर्शनसंयमानुगतं । 'अहीलणा य' अपरिभवश्च । 'सेसाणं' शेषाणां । तपसा न्यूनानामात्मनः ज्ञानश्रद्धानच रणवतां परिभवे ज्ञानादीन्येव परिभूतानि भवति । ततो बहुमानाभावो ज्ञानातिचारः, वात्सल्याभावो दर्शनातिचारः । सातिचारज्ञानदर्शनस्य चारित्रममशुद्ध इति, महाननर्थ इति भाव: । 'एसो' एष व्यावणितपरिणामसमूह उत्तरगुणोद्योगादिकः । 'तवम्मि' तपसि तपोविषयः । 'विणओ' विनयः । 'जहुत्तचारिस्स' श्रुतनिरूपितक्रमेणाचरतः । 'साधुस्स' साधोः ।। ११९ ।। उपचारविनयनिरूपणार्थीत्तरगाथा - काइयवाइयमाणसिओत्ति तिविधो हु पंचमो विओ । सो पुण सव्वो दुविहो पच्चक्खो चेव पारोक्खो ।। १२० ।। 'काइगवाइगमाण सिगोत्ति' पदसंबंध: । पंचमो विनयस्त्रिप्रकारः कायेन मनसा, वचसा च, निर्वर्त्यते इति । 'सो पुण सव्वो' स पुनस्त्रिप्रकारोऽपि विनयः । 'दुविधो' 'द्विविधः । 'पच्चक्खो चेव' प्रत्यक्षः । 'पारोक्खो' परोक्षश्चेति ॥ १२० ॥ गा०—जो तपमें अधिक हैं उनमें और तपमें भक्ति और जो अपने से तपमें हीन हैं उनका अपरिभव यह श्रुतके अनुसार आचरण करने वाले साधुकी तप विनय है ॥११९|| 10 टी० - मुखकी प्रसन्नतासे प्रकट होनेवाले आन्तरिक अनुरागको भक्ति कहते हैं । तपसे afari ओर सम्यक् तपमें भक्ति करना । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और संयमके अनुगत तप ही सम्यक् तप है । जो तपमें न्यून है उनका तिरस्कार नहीं करना । जो ज्ञान श्रद्धान और चारित्र से युक्त होनेपर भी अपनेसे तपमें कम हैं, उनका तिरस्कार करनेपर ज्ञानादिका ही तिरस्कार होता है । और ऐसों का बहुमान न करना ज्ञानका अतिचार है । उनमें वात्सल्य न रखना सम्यग्दर्शनका अतिचार है । और जिसका ज्ञान और दर्शन सातिचार है उसका चारित्र अशुद्ध है, इस तरह महान् अर्थ है | यह ऊपर कहा, उत्तरगुणोंमें उद्योग आदि शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधु की तप विषयक विनय है ॥ ११९ ॥ उपचार विनयका निरूपण करते हैं गा० ० - पाँचवीं उपचार विनय तीन प्रकारकी है कायिक, वाचनिक और मानसिक । और वह तीनों प्रकार की विनय दो प्रकारकी है प्रत्यक्ष विनय और परोक्ष विनय ॥ १२० ॥ टी० - पाँचवीं विनय तीन प्रकारकी है जो कायसे, मनसे और वचनसे की जाती है । और ये तीनों प्रकारकी भी विनय दो प्रकारकी है- प्रत्यक्ष और परोक्ष || १२० || Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ विजयोदया टीका तत्र प्रत्यक्षकायिकविनयप्रदर्शनाय गाथाचतुष्टयमुत्तरम् अब्भुट्ठाणं किदियम्भ गवसणं अंजली य मुंडाणं । पच्चुग्गच्छणमेत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव ॥१२१।। 'अब्भुठ्ठाणं' अभ्युत्यानं गुर्वादीनां प्रवेशनिःक्रमणयोः । 'किदियम्म' णवंसणं, वंदना, शरीरावनतिश्च । 'अंजली य' कृतांजलिपुटता च । 'मुडाणं' शिरोवनतिश्च । 'पच्चुग्गच्छणं' प्रत्युद्गमनं । आसीने स्थिते वा गुरो । 'पच्छिद अणुसाधणं चेव' स्वयं गच्छतः दूरात्परिहृत्य निभृतकरचरणस्यावनतगात्रस्य गमनं, सहगमे वा पृष्टतः स्वशरीरमात्रप्रमाणभूभागेन तं परिहृत्य गमनं ॥१२१॥ णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं । आसणदाणं उवगरणदाणमोगासदाणं च ।।१२२॥ णीयं च आसणं नीचरासनं । पृष्ठतः स्वहस्तपादश्वासादिभिरुपद्रुतो न भवति यथा गुर्वादिस्तथासनं । अग्रतोऽभिमखात मनागपसत्य वामपार्वेऽनद्धतस्येषदवनतोत्तमांगस्य चासनं । आसने गरावपविष्टे स्वयं भमावासनं च । 'सयणं च णीयमिति' पदघटना। नीचैः शयनमिति यावत् । 'अनुन्नते देशे शयनं, गुरुनाभिप्रमाणमात्रभूभागे वा स्वशिरो भवति यथा तथा शयनं । हस्तपादादिभिर्वा यथा न घट्यते गर्वादिः । 'आसणवाणं' र गुरु उनमेंसे प्रत्यक्षकायिक विनयको चार गाथाओंसे दिखलाते हैं टी०-गुरु आदिके प्रवेश करनेपर या बाहर जानेपर अभ्युत्थान-खड़े होना, कृतिकर्म अर्थात् वन्दना करना, णवंसण अर्थात् शरीरको नम्र करना, दोनों हाथोंको जोड़ना, सिरको नवाना, प्रत्युद्गमन अर्थात् गुरुके बैठने अथवा खड़े होनेपर उनके सामने जाना, और जब गुरु जावें तो उनसे दूर रहते हए अपने हाथ पैरको शान्त और शरीरको नम्र करके गमन करन के साथ जानेपर उनके पीछे अपने शरीर प्रमाण भूमिभागका अन्तराल देकर गमन करें ॥१२१॥ विशेषार्थ-पं० आशाधरने अपनी टीकामें लिखा है कि टीकाकार तो 'पच्छिद अणुसाधणं' के स्थानमें 'पच्छिद संसाहणा' पढ़ते हैं और उसकी व्याख्या करते हैं कि आचार्य उपाध्याय आदिके द्वारा प्रार्थित और मनसे अभिलषितका सम्यक् प्रसाधन करना अर्थात् आज्ञा नहीं देनेपर भी संकेतसे ही जानकर करना । यह टीकाकार कोई दूसरे जान पड़ते हैं क्योंकि विजयोदयामें तो यह पाठ नहीं है। गा०--नीचा स्थान, नीचा गमन, नीच आसन, नोचे सोना, आसनदान, उपकरणदान और अवकाशदान ये उपचार विनयके प्रकार हैं ।।१२२।। टो०--नीचा आसन-गुरुके पीछे इस प्रकार बैठे कि अपने हाथ पैर श्वास आदिसे गुरुको किसी प्रकारकी बाधा न पहुँचे। आगे बैठना हो तो सामनेसे थोड़ा हटकर गुरुके वाम भागमें उद्धतता त्यागकर और अपने मस्तकको थोड़ा नवाकर बैठे। आसन पर गुरुके बैठने पर स्वयं भूमिमें बैठे। नीचे सोना-अर्थात् जो ऊँचा नहीं हो ऐसे देशमें सोना, अथवा गुरुके नाभि प्रमाण मात्र भूभागमें अपना सिर रहे इस प्रकार सोना । अथवा अपने हाथ पैर वगैरहसे गुरु आदिका १. अनुत्तरे देशे आ० मु० । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · भगवती आराधनां आसितुमिच्छति इत्यवगम्य निरूप्य चक्षुषा प्रमार्जनयोग्यं न वेति पश्चात्प्रतिलेखनेन लाघवमाद्दवादिगुणान्वितेनातिशनकैः प्रमार्ण्य भूभागं पीठादिकं च आसनदानं । ' उपकरणदानं' ज्ञानसंयमो उपक्रियेते अनुगृह्येते येनतदुपकरणं पुस्तकादि ग्रहीतुमभिप्रेतं तस्य दानं । अथवा उद्गमोत्पादनेषणादिदोषे रदुष्टस्य सुप्रतिलेखनस्यात्मनां लब्धस्य उपकरणस्य दानं । 'ओगासवाणं च' अवकाशदानं च शीतार्त्तस्यावस्थित निवातावकाशदानं, उष्णादितस्य शीतलस्थानदानं ग्रामनगरादिस्वावासस्थानदानं वा ॥१२२॥ परूिव कायसं फासणदा पडिरूवकालकिरिया य । पेणकरणं संथारकरणमुवकरणपडि लिहणं ॥ १२३॥ १६६ 'पडिरूव कायसं फासणदा' कायस्य संस्पर्शनं कायसंस्पर्शनं । प्रतिरूपं कायस्य संस्पर्शनं प्रतिरूपकायसंस्पर्शनं तस्य भावः प्रतिरूपकायसंस्पर्शनता । गुर्वादिशरीरानुकूलं संस्पर्शनमिति यावत् । अयं चात्र क्रमः — मनागुपसृत्य स्थित्वा तदीयेन पिच्छेन कार्यं त्रिः प्रमृज्य आगंतुकजीववाधापरिहारोपयुक्तः सादरः स्वबलानुरूपं यावद्यादृग्मद्द 'नसहस्तावदेव मद्दनं कुर्यात् । उष्णाभितप्तस्य यथा शैत्यं भवति तथा स्पृरोच्छीतार्तस्य यथौष्ण्यं तथा । 'पडिवकालकिरिया य' कालकृतोऽवस्थाविशेषो वालत्वादिरिह कालशब्देनोच्यते कालप्रभवत्वात् । संघट्टन न हो इस प्रकार शयन करे। आसनदान — गुरु बैठना चाहते हैं ऐसा जानकर चक्षुसे देखे कि प्रमार्जनके योग्य है या नहीं ? पीछें लाघव कोमलता आदि गुणोंसे युक्त पीछीसे अत्यन्त धीरेसे भूभाग और आसन आदिको पोंछ देवे । उपकरणदान - जिससे ज्ञान और समय का उपकार हो उसे उपकरण कहते हैं । गुरु पुस्तक आदि चाहते हों तो उन्हें देना । अथवा उद्गम उत्पादन आदि दोषोंसे रहित उपकरण अपनेको मिला हो तो उसे देना उपकरणदान है । अवकाशदान- शीतसे पीड़ितको वायु रहित स्थान देना और गर्मीसे पीड़ितको शीतल स्थान देना, अथवा ग्राम नगर आदिमें अपना आवास स्थान देना ॥ १२२ ॥ विशेषार्थ -नीचा स्थानका मतलव है गुरु जहाँ बैठे या खड़े हों उसके वाम भागमें या पीछे बैठना । और नीचे गमनका मतलब है - गुरुके बैठे रहते या खड़े रहते स्वयं गमन करते शिष्यका गुरुसे दूर रहते हुए अपने हाथ पैरको निश्चल रखते हुए और शरीर को नम्र करके गमन करना । गा०-- गुरु आदिके शरीर के अनुकूल स्पर्शन, बालपने आदि अवस्थाके अनुरूप वैयावृत्य करना, और गुरु आदिकी आज्ञाका पालन करना, तृण आदिका संथरा करना, उपकरणों की प्रतिलेखना करना ॥ १२३॥ टी० - काय के स्पर्शनको कायस्पर्शन कहते हैं । प्रतिरूप कायका स्पर्शन प्रतिरूप काय स्पर्शन है और उसका भाव प्रतिरूपकाय स्पर्शनता है अर्थात् गुरु आदिके शरीर के अनुकूल स्पर्शन करना । इसका क्रम इस प्रकार है - गुरुसे थोड़ा हटकर बैठे और उनकी पीछीसे तीन बार उनके शरीरका प्रमार्जन करके आगन्तुक जीवको किसी प्रकारकी बाधा न हो इस प्रकार सादर अपने बलके अनुरूप जितने काल तक और जितना मर्दन गुरु सह सके उतना ही मर्दन करे। यदि गुरु गर्मी से तप्त हों तो शीतपना जिस प्रकार संभव उस प्रकार स्पर्श करे और यदि शीतसे पीड़ित हों तो गर्मी पहुँचाना जैसे हो उस प्रकार स्पर्श करे । तथा 'प्रतिरूपकाल क्रिया' में काल शब्दसे Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १६७ तेन बालत्वाद्यनुरूपवैयावृत्त्यक्रियेति यावत् । पेसणकरणं गुर्वादिभिराज्ञप्तस्य । 'संथारकरणं तृणफलकादिकसंस्तरणक्रिया । 'उवकरणपडिलिहणं' गुर्वादीनां ज्ञानसंयमोपकरणप्रतिलेखनं अस्तमनवेलायां आदित्योद्गमने च ।।१२३॥ इच्चेवमानि विणओ उवयारो कीरदे सरीरेण । एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि ॥१२४।। उपचारिकविनयः । शेषं सुगमं । वाचिकविनयनिरूपणार्थ गाथाद्वयम् पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च । सुत्ताणुवीचिवयणं अणिठुरमकक्कसं वयणं ।।१२५।। __ 'पूयावयणं' पूजापुरस्सरं वचनं भट्टारक इदं शृणोमि, भगवन्निदं कतुमिच्छामि युष्मदनुज्ञयेत्यादिकं । ‘हिदभासणं च' गुर्वादीनां यद्धितं लोकद्वयस्य तस्य भाषणं । 'मितभाषणं' यावता विविदिषितार्थप्रतिपत्तिर्भवति तावदेव वक्तव्यं न प्रसक्तानुप्रसक्तं । 'मधुरं' च श्रोत्रप्रियं । 'सुत्ताणुवीचिवयणं' सूत्रानुवीचिवचनं । भाषासमित्यधिकारे यानि वाच्यानि निर्दिष्टानि वचांसि तेषां कथनं । 'अणिठ्ठरं' अनिष्ठुरं परचित्तपीडाकृतावनुद्यतं । 'अकक्कसं वयणं' अकर्कशं वचनं अपरुषमिति यावत् ॥१२५॥ कालकृत अवस्थाविशेष बाल्य अवस्था आदि ग्रहण की है क्योंकि वह कालसे होती है। अतः गुरुकी बाल आदि अवस्थाके अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये । उनके लिये तृणोंका या लकड़ीके पटियाका संथरा करना चाहिये । सूर्यके अस्त और उदय होनेके समय उनके ज्ञान और संयमके उपकरण शास्त्र कमण्डलु आदिकी सफाई करना चाहिये ॥१२३।। ___ गा०-इस प्रकारको आदि लेकर उपचार विनय शरीरके द्वारा साधुवर्गमें यथा योग्य की जाती है । यह कायिक विनय है ॥१२४|| टी०-यह उपचार विनय है । शेष सुगम है ।।१२४॥ दो गाथाओंसे वाचिक विनयका निरूपण करते हैं___ गा०—पूजा पूर्वक वचन, हितकारी भाषण, मित भाषण, मधुर भाषण, सूत्रानुसार वचन, अनिष्ठुर और अकर्कश वचन वचनविनय है ।।१२५॥ टी०-'हे भट्टारक ! मैं सुन रहा हूँ,' 'हे भगवन् आपकी आज्ञा हो तो मैं ऐसा करना चाहता हूँ । इस प्रकारसे पूजा पूर्वक वचन बोलना । जो गुरु आदिके लिये इस लोक और परलोक में हितकर हो ऐसा हित भाषण करना। जितना बोलनेसे विवक्षित अर्थका बोध हो उतना ही बोलना, प्रासंगिक या अप्रासंगिक न बोलना । कानोंको प्रिय वचन बोलना, भाषासमिति अधिकार में जो वचन बोलने योग्य कहे हैं उन्हें ही बोलना, तथा दूसरेके चित्तको पीड़ा करने वाले निष्ठुर वचन और कर्कश वचन न बोलना वाचिक विनय है ।।१२५॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भगवती आराधना उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरिय महीलणं वयणं । एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादव्व ॥ १२६ ॥ 'उवसंतवयणं' प्रशांतरागकोपः उपशांतः तस्य वचनं उपशांतवचनं । विरागस्य विशेषस्य च यद्वचस्तदेव भाष्यं । 'अगिहत्थवयणं' गृहस्था मिथ्यादृष्टयोऽसंयता अयोग्यवचनविकल्पानभिज्ञास्तेषां यद्वचनं न भवति तस्य अभिधानं । 'अकिरियं' षट्कर्मव्यावर्णनपरं यन्न भवति । 'अहोलणं' परानवज्ञाकारि । 'एसो' व्यावर्णितवचनव्यापारः । 'वाचिगविणओ' वाग्विनयो । 'जधारिहं' यथाहं । 'होदि कादव्वों' कर्तव्यो भवति ॥ १२६ ॥ मानसिक विनयं निरूपयति पापविसोत्तिग परिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामों । णायव्वो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ || १२७|| 'पापविसोत्तिगपरिणामवज्जणं' पापशब्देन अशुभकर्माण्युच्यते । स्रोतः प्रवाहः । स्रोत इव अविच्छेदेन प्रवृत्तेः कर्माणि अपि पापविस्रोतः शब्देन उच्यते । पापविस्रोतः प्रयोजनाः परिणामा ये तेषां वर्जनं । इह गुरुविनयस्य प्रस्तुतत्वात् गुरुविषयोऽशुभः परिणामः आत्मनो यथेष्टचारित्व निवारणजनितः क्रोधः । अविनीततादर्शनादनुग्रह भावमपेक्ष्य नाध्यापयति पूर्ववन्न मया सह संभाषणं करोति इति वा क्रोधः । गुरुविनये आलस्यं, गा०- -उपशान्त वचन, जो वचन गृहस्थों के योग्य नहीं हैं, कृषि आदि आरम्भ से शून्य वचन, दूसरों की अवज्ञा न करने वाला वचन बोलना यह यथा योग्य वाचिकविनय करने योग्य होती है ॥ १२६॥ टी० - जिसका राग द्वेष शान्त हो गया है उसे उपशान्त कहते हैं । उसका वचन उपशान्त वचन है । अर्थात् राग रहित और रोष रहितका जो वचन होता है वही बोलना चाहिये । गृहस्थ अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयमी जो योग्य अयोग्य वचनोंको नहीं जानते, उनका जो वचन हो वह नहीं बोलना जो वचन वे नहीं बोलते वही बोलना चाहिये । जिस वचन में असि, मषी, कृषि, सेवा, वाणिज्य आदि षट्कर्मोंका उपदेश न हो वह बोलना चाहिये । तथा जो वचन दूसरेका निरादर न करता हो वह बोलना चाहिये। ये जो वचन कहे हैं इनका बोलना वचन विनय है । उसको यथायोग्य करना चाहिये ॥ १२६॥ मानसिक विनय को कहते हैं -- गा०-- पापको लाने वाले परिणामोंको न करना, जो गुरुको प्रिय और हितकर हो उसीमें परिणाम लगाना, यह संक्षेपसे मानसिक विनय जानना ॥ १२७ ॥ टी० – पाप शब्दसे अशुभ कर्मोंको कहा है । स्रोतका अर्थ प्रवाह है । प्रवाहकी तरह लगातार होनेसे कर्मोंको भी पाप विस्रोत शब्दसे कहा है । पापको लाना ही जिनका काम है उन परिणामोंको त्यागना चाहिये । यह गुरु विनयका प्रकरण होनेसे गुरु विषयक अशुभ परिणाम लेना । गुरुके द्वारा अपनी स्वेच्छाचारिताका निवारण करनेसे क्रोध उत्पन्न होना, शिष्यको अविनयी देख उसपर गुरु कृपा न करे तो 'मुझे पहलेकी तरह नहीं पढ़ाते हैं न मेरे साथ पहलेकी तरह वार्तालाप करते हैं इस प्रकार क्रोध करना, गुरुकी विनय में प्रमाद करना, गुरुकी अवज्ञा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १६९ गुरुं प्रत्यवज्ञा, निंदा, संभ्रमः, तत्प्रतिकूलवृत्तितेत्येवमादयः । "पियहिदे य परिणामो' गुरोर्यत्प्रियं तस्मै यद्धितं आत्मने वा तत्र परिणामः । ‘णादब्वो' ज्ञातव्यः । 'संखोवेण' समासेन । “एसो' एषः । 'माणस्सिगो' मानसिकः । 'विणओ' विनयः ॥१२७॥ . इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो । विरहम्मि विवट्टिज्जइ आणाणिदेसचरियाए ॥१२८॥ 'इय' एवं । 'एसो' एषः । 'पच्चक्खो' प्रत्यक्षो विनयः। सन्निहितगुरुविषयत्वात् । 'पारोक्खिगो' वि गुरोः परोक्ष क्रियमाणोऽपि विनयः । कोऽसाविति चेदाह-'गुरुणो विरहम्मि विवट्टिज्जइ' गुरोविरहेऽपि यत् क्रियते । 'आणाणिद्देसचरियाए' आज्ञायाम्-इत्थमेव भवता कार्य मुमुक्षुणा न कदाचनेत्यमिति यन्निर्दिश्यते तदाज्ञानिर्देशः । 'बढ्दतगो विहारो दंसणणाणचरणेसु कादवो' इत्येवमादिसदृशः ॥१२८॥ न गुरुष्वेव विनयः कार्य इति ग्रहीतव्यं, एतेष्वपि विनयः कर्तव्य इत्याह राइणिय अराइणीएसु अज्जासु चेव गिहिवग्गे । विणओ जाहरिहो सो कायवो अप्पमत्तेण ॥ १२९॥ 'राइणिय अराइणिएसु' यथा रत्नानि दुर्लभानि अभिलषितदानक्षमाणि तथैव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि श्रद्धानादिपरिणामेनोत्कृष्टेन वर्तमानः राइणिय इत्युच्यते । आत्मनो न्यूनरत्नत्रया अराइणिया अथवा 'रादिणिग ऊमरादिणिगेसु' ज्येष्ठकनिष्ठव्रतेषु च शेषं सुगमं ।।१२९।। करना निन्दा करना, उनके प्रतिकूल चलना इत्यादि पाप परिणामोंको छोड़ना। और गुरुको जो प्रिय हो और हितकर हो उसमें ही परिणाम लगाना। ये संक्षेपसे मानसिक विनय हैं ।।१२७॥ गा०—इस प्रकार यह प्रत्यक्ष विनय है, परोक्ष विनय भी वह है जो गुरुके अभावमें उनकी आज्ञा निर्देशका आचरण करनेमें की जाती है ॥१२८॥ टी-यह प्रत्यक्ष विनय है क्योंकि गुरुके सामनेकी जाती है और गुरुके अभावमें जो उनकी आज्ञाका पालन किया जाता है वह गुरुके परोक्षमें होनेसे परोक्ष विनय है। 'आप मुमुक्षु हैं आपको ऐसा ही करना चाहिये और कभी भी उसके विपरीत नहीं करना चाहिये' यह आज्ञा निर्देश है। जैसे 'सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्रमें सदा विहार करना चाहिये', इत्यादि ॥१२८॥ _ 'न केवल गुरुकी ही विनय करना चाहिये किन्तु इनकी भी विनय करना चाहिये यह कहते हैं . गा०-रत्नत्रयमें जो अपनेसे उत्कृष्ट हैं, रत्नत्रयमें जो अपनेसे हीन है उनमें, आर्यिकाओंमें और गृहस्थवर्गमें वह विनय जो जिस योग्य हो, प्रमाद रहित होकर करना ही चाहिये ।।१२९।। टी-जिस प्रकार इच्छित वस्तुको देनेमें समर्थ रत्न दुर्लभ हैं उसी तरह सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रत्न शब्दसे कहे गये हैं। अत: जो उत्कृष्ट श्रद्धान आदि परिणामों से युक्त हैं तथा अपनेसे न्यून रत्नत्रयसे युक्त हैं उनकी विनय करना चाहिये । अथवा 'रादिणिग ऊमरादिणिगेसु' ऐसा पाठ होनेपर भी अपनेसे जो व्रतोंमें ज्येष्ठ हैं और कनिष्ट हैं उनकी विनय करना चाहिये । शेष गाथा सुगम है ॥१२९।। २२ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० भगवती आराधना विनयाभावे दोषमाचष्टे-दोषप्रकटनेन भयमुत्पाद्य विनये दृढ़तां कर्तुम् विणएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा । विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं ॥१३०॥ 'विणएण विप्पहूणस्य' विनयरहितस्य यतेः । 'हवइ सिक्खा णिरत्थिया सव्वा' सर्वशिक्षा निष्फला। कि शिक्षायाः फलं इत्यारेक्य आह-'विणओ सिक्खाए फलं' व्यांवर्णितः पञ्चप्रकारो विनयः शिक्षायाः फलं । तस्य विनयस्य किं फलं ? पुरुषार्थो हि फलमित्यांशंक्याह 'विणयफलं सन्नकल्लाणं' सर्वमभ्युदयनिःश्रेयसरूपं कल्याणस्थानमानैश्वर्यादिकं इन्द्रियानिन्द्रियसुखं च ।।१३०।।। विणओ मोक्खदारं विणयादो संजमो तवो णाणं । विणएणाराहिज्जा आयरिओ सव्वसंघो य ॥१३१।। 'विणओ मोक्खहार' यथा द्वारमभिमतदेशप्राप्तेरुपायस्तद्वत मोक्षस्य निरवशेषकर्मापायस्य प्राप्तावुपायो विनय इति मोक्षद्वारमित्युच्यते । निरूपिते पञ्चप्रकारे विनय स्यत्येवे (?) कर्मापायो भवतीति 'विणयादो' विनयाद् हेतोः 'संजमो' संयमो भवति । ज्ञानादिविनयेषु अनवरतं प्रवर्तमानो ह्यसंयम परिहत्तुं शक्नोति नापरः । इन्द्रियकषाययोरप्रणिधानं यदि न स्यात् कथमिन्द्रियसंयमःप्राणिसंयमो वा भवति ? 'तवो तपः ज्ञाना विशेषार्थ-पं० आशाधरने अपनी टीकामें 'रादिणिग ऊमरादिणिगेसु' पाठ रखा है'रादिणिगा' अपनेसे रत्नत्रयसे अधिक या समान साधु । ऊमरादिणिगा-अपनेसे हीन रत्नत्रय वाले, ऐसा अर्थ किया है। और लिखा है कि अन्य टीकाकार इसका अर्थ इस प्रकार करते हैंरातिका और अवम रातिका अर्थात् जो अपनेसे तपमें एक रात आदि बड़े या छोटे हैं। दोष प्रकट करनेसे भय उत्पन्न कराकर विनयमें दृढ़ करनेके लिये विनयके अभावमें दोष कहते हैं गा०—विनयसे रहित साधुकी सब शिक्षा निष्फल होती है। शिक्षाका फल विनय है । विनयका फल सब कल्याण है ॥१३०॥ दी-विनय रहित साधुकी सब शिक्षा निष्फल है; क्योंकि पूर्व में कही पाँच प्रकार की विनय शिक्षाका फल है और उस विनयका फल सर्व कल्याण है। सब लौकिक अभ्युदय और मोक्ष रूप कल्याण उसका फल है अर्थात् विनयसे मान, ऐश्वर्य आदि तथा इन्द्रिय जन्य और अतीन्द्रिय सुख मिलता है ॥१३०॥ गा०-विनय मोक्षका द्वार है। विनयसे संयम, तप और ज्ञानकी प्राप्ति होती है। विनयसे आचार्य और सर्व संघ अपने वशमें किया जाता है ॥१३१॥ टी०- जैसे द्वार इष्ट देशकी प्राप्तिका उपाय होता है उसी तरह समस्त कर्मोंके विनाश रूप मोक्षको प्राप्ति का उपाय विनय है इस लिये मोक्षका द्वार कहा है। पूर्व में कही पाँच प्रकार की विनयके होनेपर ही कर्मोंसे छुटकारा होता है । विनयसे ही संयम होता है। क्योंकि जो पाँच प्रकारकी विनयोंमें सदा लगा रहता है वही असंयमको त्यागने में समर्थ होता है, जो विनयोंमें प्रवृत्ति नहीं करता वह असंयमको नहीं छोड़ सकता। यदि इन्द्रियों और कषायोंकी ओरसे विमुखता न हो तो कैसे इन्द्रिय संयम या प्राणिसंयम हो सकता है। तथा ज्ञानादिकी विनयसे Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १७१ दिविनयशून्यं अनशनादिकं न कर्म तपतीति विनयहेतुकं तपसः तपस्त्वमिति मत्वोच्यते विनयात्तप इति । 'गाणं' ज्ञानं च विनयहेतुकं । अविनीतो हि ज्ञानं न लभते । 'विणएण' विनयेन । 'आराधिज्जदि' आराध्यते स्ववशे स्थाप्यते । 'आयरिओ' आचार्य: । 'सव्वसंघो य' सर्वश्च संघः ॥ १३१ ॥ आयारजीवकष्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्झंझा । अज्जव मद्दव लाघव भत्ती पल्हादकरणं च ॥ १३२ ॥ 'आयारजीदक पगुणदीवणा' रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथममङ्गमाचारशब्देनोच्यते । आचारशास्त्रनिर्दिष्टः क्रमः आचारजीदशब्देन उच्यते । कल्प्यते अभिधीयते येन अपराधानुरूपो दण्डः स कल्पस्तस्य गुणः उपकारस्तेन निर्वर्त्यत्वात् । अनयोः प्रकाशनं 'आचारजोदकप्पगुणदीवणा' । एतदुक्तं भवति-कायिको वाचिकश्च विनयः प्रवर्तमानः आचारशास्त्रनिर्दिष्टं क्रमं प्रकाशयति । कल्पोऽपि विनयं विनाशयतो दण्डयतो विनयं निरूपयति । तद्भूयादयं प्रवर्त्यते इति कल्पसंपाद्य उपकारः प्रकटितो भवति इति केषांचिद् व्याख्यानं । अन्ये तु वदन्ति । कल्पयते इति कल्प्यं योग्यं कल्प्या गुणाः कल्प्यगुणाः आचारक्रमस्य कल्प्यानां च गुणानां प्रकाशनं 'आचारजीदकल्पगुणदीवणाशब्देनोच्यते' श्रृताराधना चारित्राराधना च कृता भवतीत्येतदाख्यातं अनेनेति । 'अत्तसोधिणिज्झंझा' विनयपरिणतिरात्मशुद्धेर्ज्ञानदर्शनवीतरागात्मिकाया निमित्तमिति आत्मशुद्धिरुच्यते । अथवा ज्ञानादिविनयपरिणतिः कर्ममलापायलम्यत्वात् शुद्धिरुच्यते आत्मनः पङ्कापायलम्या जलादि शून्य अनशन आदि कर्मको नष्ट नहीं कर सकते । इसलिये तपमें तपपनाका कारण विनय है ऐसा मानकर 'विनयसे तप होता है, कहा है । तथा ज्ञानका कारण भी विनय है । अविनीत पुरुष ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । और विनयसे आचार्य तथा समस्त संघ अपने वश में हो सकता है ॥ १३१ ॥ गा०—आचारके क्रम तथा कल्प्य गुणोंका प्रकाशन, आत्मशुद्धि, वैमनस्यका अभाव, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति और अपने और दूसरोंको प्रसन्न करना, ये विनय के गुण है ॥१३२॥ टी० - रत्नत्रयके आचरणका कथन करनेमें तत्पर होनेसे पहले अंगको आचारांग कहते हैं | और आचार शास्त्रमें कहे गये क्रमको 'आचारजीत' शब्दसे कहते हैं । 'कल्प्यते' अर्थात् जो अपराधके अनुरूप दण्डको कहता है वह कल्प है उसका गुण अर्थात् उपकार । इन दोनोंका प्रकाश 'आचारजीदकप्पगुणदीवणा ' है । इसका अभिप्राय यह है कि कायिक और वाचिक विनयके करनेसे आचारशास्त्रमें कहे गये क्रमका प्रकाशन होता है । कल्प भी विनयको न मानने वाले साधुको दण्डका विधान करता है अतः विनयका ही निरूपण करता है । उसके भयसे साधु विनय करता है इस प्रकार कल्पके द्वारा किया जाने वाला उपकार प्रकट होता है । ऐसा किन्हीं का व्याख्यान है । अन्य टीकाकार कहते हैं 'कल्प्यते इति कल्प्यं' अर्थात् योग्य । कल्प्य गुणोंको कल्प्यगुण कहते हैं । आचारके क्रमका और कल्प्य गुणोंका प्रकाशन ' आयारजीद कल्प गुण दोवणा' शब्दका अर्थ है । इससे यह कहा है कि विनय करने से श्रुतकी आराधना और चारित्र की आराधना होती है । तथा विनय करना आत्म शुद्धिका अर्थात् ज्ञान दर्शन और वीतराग रूप परिणतिका निमित्त है । अथवा ज्ञानादि विनय रूप परिणति कर्ममलके विनाशसे प्राप्त होती है अतः उसे आत्माकी शुद्धि कहते हैं । जैसे Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ भगवती आराधनां शुद्धिरिव । वैमनस्याभावो ‘णिज्झंज्झा' विमनस्को भवति विनयहीनो गुर्वादिभिरननुगृह्यमाणः । 'अज्जवं' आर्जवं नाम ऋजुमार्गवृत्तिः, शास्त्रनिर्दिष्टं वा चरणं ऋजु । 'मद्दव' अभिमानत्यागो माहवं परगुणातिशय श्रद्धानेन, तन्माहात्म्यप्रकाशनेन च विनयेन च अभिमाननिरासः कृतो भवति । लाघवं विनीतो हि आचार्यादिषु न्यस्तभरो भवतीति लाघवं विनयमूलं । 'भत्ती' विनीतस्य हि सर्वजनो विनीतो भवति इति विनयहेतुका भक्तिः । 'पल्हादकरणं' च प्रकृष्टं सुखं प्रकृष्टसुखं प्रहलादस्तस्य करणं क्रिया प्रह लादकरणमित्युच्यते । येषां विनयः क्रियते तेषां सुखं संपादितं भवति इति परानुग्रहो गुणः आत्मनो वा प्रह लादकरणं । कथमविनीतो हि निर्भर्त्सनादिभिरनवरतं दुःखितो भवति । विनीतो हि निर्भर्त्सनाद्यभावात सुखी भवति । बाधाभावे एव सुखव्यवहारो लोके ॥१३२॥ कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो । तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥१३३।। "कित्ती' विनीतोऽयमिति संशब्दनं कीर्तिः । 'मेत्ती' परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलापो मैत्री। परस्य दुःखं नैवेच्छति विनीत इति । 'माणस्स भंजणं' मानस्य भङ्गः । ननु माईवशब्देनाभिहित एव मानभङ्गः पूर्वसूत्रे ततः पौनरुक्त्यं इति । उच्यते 'माणस्स भंजणं 'परस्स' इति शेषः एकस्य विनयदर्शनात् परोऽपि स्वं मानं जहाति । गतानुगतिको हि प्रायेण लोकः । कीचड़के दूर होनेसे जलादिकी शुद्धि होती है। :णिज्झंझा' का अर्थ वैमनस्यका अभाव है। जो विमनस्क होता है अर्थात् जिसका मन स्थिर नहीं होता वह विनय हीन होता है। गुरु उसपर अनुग्रह नहीं करते । ऋजु मार्ग पर चलनेको आर्जव कहते हैं और शास्त्रमें कहे गये आचरणको ऋजु कहते हैं। मार्दवका अर्थ अभिमानका त्याग है। दूसरेके गुणातिशयमें श्रद्धा करनेसे और उनके माहात्म्यको प्रकट करनेसे तथा विनय करनेसे अभिमानका निरास स्वयं हो जाता है । जो विनीत साधु होता है वह अपना भार आचार्यपर सौंपकर लघु हो जाता है अर्थात् आचार्य स्वयं उसकी चिन्ता करते हैं अतः लाघव का मूल विनय है। जो विनीत होता है सभी मनुष्य उसकी विनय करते है अतः विनय भक्तिका कारण है। प्रकृष्ट सुखको प्रहलाद कहते हैं उसका करना प्रहलादकरण है। जिनकी विनय की जाती है उनको सुख होता है इस प्रकार दूसरोंको प्रसन्न करना विनयका गुण है। अपनेको प्रसन्न करना भी विनयका गुण है क्योंकि जो अविनयी होता है सब उसका तिरस्कार आदि करते हैं अतः वह निरन्तर दुखी रहता है। और जो विनयी होता है उसका कोई तिरस्कार आदि नहीं करता, अतः वह सुखी रहता है क्योंकि लोकमें बाधाके अभावको ही सुख कहा जाता है ॥१३२॥ गा०-कीत्ति, मित्रता, मानका विनाश, गुरुजनोंका बहुमान, और तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका पालन और गुणोंकी अनुमोदना ये विनयमें गुण हैं, ॥१३३।। ___टी०-यह विनयी है ऐसा कहना कीर्ति हैं। विनयीकी कीर्ति होती है। दूसरोंको दुःख न होनेकी भावना मैत्री है ! जो विनीत होता है वह दूसरोंको दुःख नहीं चाहता । और मानका भंग होता है। शङ्का-पूर्व गाथामें मार्दव शब्दसे मानभंगको कहा ही है। पुन: कहनेसे पुनरुक्तता दोष आता है ? Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका १७३ नूनमभिमानत्यागो गुणो अन्यथा किमित्ययं विनयं करोतीति । गुरवो हि बहुमान्याः कृता भवन्ति विनयेनेत्याह-'गुरुजणे य बहुमाणों' इति । तित्थयराणं आणा संपादिदा होदित्ति' शेषः । विनयमुपदिशतां तीर्थकृतां आज्ञा संपादिता भवति, अनुष्ठितेन विनयेन । 'गुणानुमोदोय' गुणिषु विनयं प्रवर्तयता तदीयगुणानुमननं कृतं भवति इति । केचिद् गुणेषु श्रद्धानादिषु हर्षः कृतो भवतीत्येवं वदन्ति । एते विनयगुणाः । गुणशब्द उपकारवचनोऽत्र विनयजन्यत्वाद्विनयस्य गुणा इत्युच्यन्ते ॥१३३।। विनयव्याख्यानानन्तरं समाधिनिरूपणार्थ उत्तरप्रबंधः ! योग्यस्य, गृहीतलिङ्गस्य, ज्ञानभावनोद्यतस्य, ज्ञाननिरूपते विनये वर्तमानस्य, रत्नत्रये मानसः सम्यगाराधनं न्याय्यमित्यधिकारसंबन्धोऽनुगंतव्यः । चेतः समाहितं कीदृक् तस्य वा समाहितस्य किं फलमिति चोद्यद्वयप्रतिविधानार्था' गाथा । चित्तं समाहिदं जस्स होज्ज वज्जिदविसोत्तियं वसियं । सो वहदि णिरदिचारं सामण्णधुरं अपरिसंतो ॥१३४॥ 'चित्तं समाहिदं जस्स' जस्स चित्तं वज्जिदविसोत्तिगं वसियं समाहिद इति पदघटना । यस्य चेतः परित्यक्ताशुभपरिणतिप्रसरं वशवति च यत्र नियुङ्क्ते तत्रैव तिष्ठति, तच्चित्तं समाहितमिति ग्राह्यम् । अत्रैवं ___ समाधान-यहाँ परके मानभंगको कहा है। एक की विनय देखकर दूसरा भी अपना मान छोड़ देता है, क्योंकि लोग प्रायः गतानुगतिक होते हैं। दूसरोंको जैसा करता देखते हैं स्वयं भी वैसा करते हैं। वे सोचते हैं-निश्चय ही अभिमानका त्याग गुण है, अन्यथा यह विनय क्यों. करता । विनयसे गुरुवोंका बहुत मान होता है क्योंकि विनयी शिष्य अपने गुरुजनोंका बहुत सम्मान करता है। तथा तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका पालन होता है। अर्थात् विनयका उपदेश देने वाले तीर्थंकरों की आज्ञाका पालन विनय करने से होता है। तथा गुणीजनों की विनय करनेसे उनके गुणोंकी अनुमोदना होती है। कोई कहते हैं कि श्रद्धानादि गुणोंमें हर्ष प्रकट होता है । ये विनयके गुण हैं। यहाँ गुणशब्द उपकारवाची है । विनयसे पैदा होनेके कारण इन्हें विनयके गुण कहते हैं ।।१३३॥ - विनयका कथन करनेके पश्चात् समाधिका कथन करते हैं। जो योग्य हो, जिसने साधु लिंग स्वीकार किया हो, ज्ञान भावनामें तत्पर हो, शास्त्र निरूपित विनयका पालन करता हो और जिसका मन रत्नत्रय में हो, उसको सम्यक् आराधना करना योग्य है, इस प्रकार अधिकार का सम्बन्ध लगाना चाहिये । अब समाहित चित्त कैसा होता है और उसका क्या फल है ? इन दो प्रश्नों का उत्तर गाथा द्वारा देते हैं गा०—जिसका चित्त अशुभ परिणामोंके प्रवाहसे रहित और वशवर्ती होता है वह चित्त समाहित होता है । वह समाहित चित्त विना थके णिरतिचार चारित्रके भारको धारण करता है ॥१३४॥ टी०—जिसका चित्त अशुभ परिणामोंके प्रवाहको छोड़ देता है और जहाँ उसे लगाया जाय वहीं ठहरा रहता है वह चित्त समाहित जानना । यहाँ यह विचार करते हैं कि यह चित्त १ प्रतिविबोधना आ० मु० । २. अन्यैरेवं आ० मु० । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना १७४ विचार्यते । किमिदं चित्तं नाम ? मन इति चेद् द्रव्यमनो भावमनश्चेति तद्द्विप्रकार, कस्येह ग्रहणं ? न तावत् द्रव्यमन: पुद्गलत्वादसंभविनी कर्मादाननिमित्ततया परिणतिरिति । 'वज्जिद विसोत्तिगमिति' विशेषणमसंभवीति । न च तद्वशवत् त्मिनः । तेन भावमनो गृह्यते । नोइन्द्रियमतिः सा रागादिसहभाविनी तद्रहिता चास्तीति युज्यते 'वज्जिद विसेसोत्तिगं' इति विशेषणं वसिगमिति च तस्यां घटते । नोइन्द्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमवत आत्मनो वशेन नोइन्द्रियमतिर्वर्तते । तथा हि रागकोपभयदुःखादयो नटादोनां वशेन परिणामा वर्तते तत्कार्य पुलकादिदर्शनेनानुमीयमानाः । तद्वदेव नोइन्द्रियमतिरपि आत्मेच्छया क्वचिदेवावरुद्धानुभूयते इति । 'सो' स: 'समाहिदचित्तो' वहति वहदं धारयति । तथा च प्रयोगः - विषयं वहति धारयति इति गम्यते । 'निरदिचार' निरतिचारं निर्दोषं । किं ? सामण्णधुरं रागकोपानुपप्लुतचित्तः समण इत्युच्यते । तथा च नैरुक्ता वदन्ति 'सममणो' समणो इति । समणस्स भावो सामण्णं । तच्च किं ? समानता चारित्रं । तस्य भारं कीदृशं निरतिचारं निर्मलं । 'अपरिसंतो' अश्रान्तश्चारित्रभारोद्वहनं फलं समाहितचित्तस्येत्याख्यातं भवति । अनिभृतमनस्तायां दोषाख्यानव्याजेन निभृतं मनः कार्यमिति द्रढयत्युत्तरगाथया । कश्चित्कंचिदुज्जयिनीस्थं दक्षिणापथाभिमुखमाह अल्पधान्यः क्षुद्रजनबहुलो द्रमिलदेशः इति । स एवमुक्तं प्रत्येति अयं जनपद: सुभिक्ष: सुजनाधिवासः इति ॥ १३४ ॥ चालणिगयं व उदयं सामण्णं गलइ अणिहुदमणस्स | कायेण य वायाए जदि वि जधुत्तं चरदि भिक्खू || १३५ || क्या है ? यदि चित्तसे मतलब मनसे है तो उसके दो भेद हैं- द्रव्यमन और भावमन । यहाँ किसका ग्रहण किया है ? द्रव्यमनका ग्रहण तो संभव नहीं है क्योंकि पौद्गलिक होनेसे कर्मों के ग्रहणमें निमित्त रूपसे उसकी परिणति संभव नहीं है । तथा 'वज्जिदविसेसोत्तिगं' यह विशेषण भी संभव नहीं है । तथा द्रव्यमन आत्माके वशवर्ती भी नहीं है । अतः चित्तसे भावमनका ग्रहण होता है । वह भावमन नोइन्द्रियमति है और नोइन्द्रियमति रागादि सहित और रागादि रहित होती है । उसमें 'वज्जिद विसेसोत्तिग और 'वसिग' दोनों विशेषण घटित होते हैं । नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम वाले आत्माके नोइन्द्रियमति होती है अतः वह उसके वशवर्ती है । जैसे राग, कोप, भय और दुःख आदि परिणाम नट आदिके अधीन होते है क्योंकि उनका कार्य देखकर दर्शकोंको रागादि होते हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि रागादि परिणाम नट वगैरहके वशवर्ती हैं। उसी तरह नोइन्द्रिय मति भी आत्माकी इच्छासे किसी एक विषयमें रुकी हुई अनुभवमें आती है । अर्थात् आत्माकी इच्छानुसार भावमन किसी भो विषयमें लीन हो जाता है ! वह समाहित चित्त निर्दोष 'सामण्णधुरा' को धारण करता है । जिसका चित्त राग द्वेषसे अबाधित होता है उसे समण कहते हैं । निरुक्तिकार कहते हैं 'सममणो समणो' समता युक्त मन जिसका है वह समण है और समणके भावको सामण्ण कहते है । वह समानता चारित्र है । उसके निरतिचार अर्थात् निर्मल भारको वह अश्रान्त होकर धारण करता है। इससे यह बतलाया है कि समाहित चित्तका फल चारित्रके भारको धारण करना है । जैसे किसी उज्जयिनीके निवासीको जो दक्षिणापथकी ओर जाता था किसी ने कहा कि द्रमिल देशमें अन्नकी कमी है और क्षुद्र जनोंसे भरा है। उसके ऐसा कहने पर वह जान लेता है कि यह देश सुभिक्षशाली और सुजनोंसे भरा है । उसी तरह चित्तकी चंचलतामें दोष कहने के बहानेसे ग्रन्थकार उत्तर गाथासे यह दृढ़ करते हैं कि मनको निश्चल करना चाहिये ॥१३४॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १७५ 'चालणिगयं व उदयं' उदकमिव चालनीगतं । 'सामण्ण' सामान्य समानभावो । 'गलइ' गलति । कस्स 'अणिहदमणस्स' अनिभृतं चेतो यस्य । 'कायेण य वायाए' कायेन च वचसा च । 'जदि वि चरदि' यद्यपि चरति प्रवर्तते भिक्षुः । 'जधुत्तं' यथाशास्त्रेणोक्तं । तथा वाक्कायाभ्यामाचरतोऽपि मनोनिभृतताभावे श्रामण्यं नश्यतीत्यर्थः । तस्माच्चेतःसमाधानं कार्यमित्युपसंहारः ॥१३५।। मनसो दुष्टतां प्रपञ्चेनोपदिश्य तदेवंभूतं मनो यो निगृह्णाति तस्य श्रामण्यं भवति समानभावो नेतरस्येत्येतदुत्तरप्रबन्धेनोच्यते तद्दौरात्म्य प्रकाशनार्थ गाथापञ्चकम् वादुब्भामो व मणो परिधावइ अट्ठिदं तह समंता । सिग्धं च जाइ दूरंपि मणो परमाणुदव्वं वा ।।१३६।। 'वादुम्भामो' इत्यादिकं । 'वादुम्भामो व वात्येव । 'मणो' मनः । 'परिधावई' धावति परिरनर्थकः प्रलंबित इति यथा । 'अद्विदं' इति क्रियाविशेषणं अस्थितं धावति । क्वचिद्विषयेऽनवस्थितिराख्याता मनसः । 'तह समंता' तथा समंतात् । 'दूरं' पि दूरमपि । सिग्धं च जाई' शीघ्रं याति । 'मणो' मनः । 'परमाणुदव्वं वा' परम प्रकृष्टो अणुः सूक्ष्मः परमाणुः स एव द्रव्यं गुणपर्यायगमनात् तदिव । एतेन झटिति दूरस्थितविषयग्रहणं तस्य दौरात्म्यमावेदितं ॥१३६॥ अंघलयबहिरमवो व्व मणो लहुमेव विप्पणासेइ । दुक्खो य पडिणियचेद् जो गिरिसरिदसोदं वा ॥१३७।। गा-जिसका चित्त चंचल है उसका समान भाव चालनीमें रखे पानीकी तरह गल जाता है । यद्यपि वह भिक्षु कामसे और वचनसे शास्त्रमें कहे अनुसार आचरण करता है ॥१३५।। टी०--इसका सार यह है कि वचन और शरीरसे शास्त्रानुसार आचरण करने वाले भी साधुका मन यदि निश्चल नहीं है तो उसका श्रामण्य नष्ट हो जाता है। अतः चित्तको स्थिर करना चाहिये । यह उपसंहार है ॥१३५॥ मनकी दुष्टताका विस्तारसे कथन करके, इस प्रकारके मनको जो वशमें करता है उसके समान भावरूप श्रामण्य होता है, अन्यके नहीं होता, यह आगे कहते हैं। प्रथम ही पाँच गाथाओं से मनकी दुष्टता प्रकट करते हैं गा--बड़े जोरसे चलने वाली हवाकी तरह मन उसीकी तरह चहुँ ओर अस्थिर रूपसे दौड़ता है । और परमाणु द्रव्यकी तरह मन दूरवर्ती भी वस्तुके पास शीघ्र जाता है ।।१३६॥ ____टी–प्रचण्डवायुकी तरह मनके अस्थिर गमनसे यह बतलाया है कि मन किसी भी विषयमें स्थिर नहीं रहता। तथा दूरवर्ती वस्तुके पास परमाणु द्रव्यकी तरह शीघ्र जाता है। परम अर्थात् प्रकृष्ट, अणु अर्थात् सूक्ष्म जो है वह परमाणु हैं। वह परमाणु द्रव्य है क्योंकि गुण पर्यायों वाला है। इससे मनकी दुष्टता बतलाई है कि वह दूर स्थित विषयको झट ग्रहण कर लेता है ( जैसे परमाणु एक समयमें चौदह राजु गमन करता है ) ॥१३६॥ गा--मन अन्धे बहरे और गूगेके समान है शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। और पहाड़ी नदीके प्रवाहकी तरह लौटाना अशक्य है ।।१३७॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'अंधलयबहिरमूओ व मणो हवई' इति शेषः । अंधवद्बधिरवन्मूकवच्च भवति मनः । कदाचित्कथंचित्क्वचिद्विषये सक्तं मनः सन्निहितमपि विषयं न पश्यति, न शृणोति, न ब्रवीति, इति । ननु चक्षुरादेः कर्तृता दर्शनादौ न मनसस्तत्सर्वदापि न किंचित्पश्यति, न शृणोति वक्ति वा ? उच्यते - मनसः करणस्य कर्तृता परशुश्च्छिनत्तीति यथा । एतदुक्तं भवति - द्रष्टव्ये जीवादिके, श्रोतव्ये जिनवचनादिके, स्वपरहिते वाक्ये च कदाचिदप्रवृत्तिर्मनसो दुष्टतेति । यथा भृत्यो दुष्ट इत्युच्यते स्वामिना नियुक्ते कर्मण्यप्रवर्तमानः । एवं मनोऽप्यात्मना नियुक्तेऽव्यापृते दुष्टमिति भावः । 'लहुमेव विप्पणादि य' आशु विनश्यति च । अनित्यतादोषस्तु वस्तुयाथात्म्यग्राहिणो मनसः नो इन्द्रियमतेः । 'दुक्खो य' दुःखं अशक्यं । 'पडिनियत्तेदु' जं' प्रतिनिवर्त्तयितु वस्तु 'न्यभूतरूपग्रहणे भूतरूपनिरासे च प्रवृत्तं ताभ्यां निवर्तयितुं न शक्यं रागादिसहचारित्वात् प्रतिनिवर्तयितु । किमिव गिरिसरिदसोदंव्व' गिरिनदीप्रवाह इव ॥ १३७॥ १७६ तत्तो दुक्खे पंथे पाडेदु ं दुट्टओ जहा अस्सो | वीणमच्छोव्व मणो णिग्धेत्तुं दुक्करो धणिदं ॥ १३८|| 'तत्तो' तस्मात्प्रतिनिवर्तनात् । 'दुषखे' दुष्करे 'पये' मार्गे । 'पाडे' पातयितुं । किमिव । 'दुट्ठओ जहा अस्सो' दुष्टोऽतिव्यालो यथैवाश्वः । एतेन दुष्करमार्गावपातित्वदोषः प्रकटितः । 'वीलणमच्छोव्व' मसृणतरदेहमत्स्य इव । 'घणिदं दुक्करो णिघेत्तुं नितरां दुष्करं ग्रहीतुं मनः । एतेन दुरवग्रहता ख्याता ॥ १३८ ॥ टी० - मन अंधे, बहरे और गूंगे मनुष्यकी तरह है क्योंकि कभी-कभी किसी विषयमें आसक्त मन निकटवर्ती भी विषयको नहीं देखता, नहीं सुनता, और नहीं बोलता । शङ्का — देखने आदिका काम तो चक्षु आदि इन्द्रियोंका है, मनका नहीं । मन तो सदा ही न कुछ देखता है, न सुनता है, न बोलता है । समाधान -मन करण है फिर भी उसे कर्ता कहा है । जैसे परशु लकड़ी काटनेमें करण है फिर भी उसे कर्ता कहा जाता है परशु काटता है । इसका आशय यह है कि देखने योग्य जीवादिमें, सुनने योग्य जिन वचन आदिमें और स्वपरका कल्याण करने वाले वचनोंमें मनका प्रवृत्त न होना उसकी दुष्टता है । जैसे जो सेवक स्वामीके द्वारा कहे गये कार्य में प्रवृत्त नहीं होता उसे दुष्ट कहा जाता है । उसी तरह मन भी आत्माके द्वारा नियुक्त कार्यमें प्रवृत्त न होनेसे दुष्ट कहा जाता है । तथा शीघ्र नष्ट हो जाता है । इससे वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करने वाले मनकी अनित्यताका दोष बतलाया है । तथा वस्तुके अविद्यमान स्वरूपको ग्रहण करनेमें और विद्यमान स्वरूपका निरास करनेमें प्रवृत्त हुए मनको उससे हटाना वैसे ही अशक्य है जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाहको लौटाना अशक्य होता है; क्योंकि मन रागादिभावमें आसक्त होता है || १३७|| गा० - अयोग्य विषयसे हटानेसे मन दुष्कर मार्ग में गिराता है । जैसे दुष्ट घोड़ा गिराता है । अति चिकने मच्छकी तरह पकड़ने में अत्यन्त दुष्कर है || १३८|| टी० - जैसे कुमार्ग पर चलते हुए दुष्ट घोड़ेको रोकनेसे वह मार्ग में गिरा देता है वैसे ही मन भी खोटे मार्ग में गिराता है । इससे दुष्कर मार्गमें गिरानेका दोष प्रकट किया । तथा जैसे १. तुं यदन्य आ० मु० । २. द्वाभ्यां आ० । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १७७ जस्स य कदेण जीवा संसारमणंतयं परिभमंति । भीमासुहगदिबहुलं दुक्खसहस्साणि पावंता ।।१३९।। 'जस्स य' यस्स च । 'कदेण' करोति क्रियासामान्यवाची इह चेष्टावृत्तिर्गृहीतस्तेनायमर्थः याय मनसश्चेष्टितेन जीवाः संसारं पञ्चविधं परावर्त परिभ्रमन्ति । 'अणंतगं' अनन्तप्रमाणावच्छिन्न । 'भीमासुहगदिबहुलं' भयावहाशुभनरकादिगतिप्रचुरं । 'दुक्खसहस्साणि' शारीरागन्तुकमानसस्वाभाविकाख्यानि प्रत्येक मनेकविकल्पानि । 'पावंता' प्राप्नुवन्तो जीवाः । एतेन चतुर्गतिपरावर्तमूलतादोषः प्रकटितः ।।१३९।। जम्हि य वारिदमेत्ते सव्वे संसारकारया दोसा । णासंति रागदोसादिया हु सज्जो मणुस्सस्स ।।१४०।। 'जम्हि' यस्मिश्च मनसि । 'वारिदमेत्ते' वारित एव मात्रग्रहणं वारणादन्यं निराकर्तुमुपात्तं । मनो निवारणादेव 'रागदोसादिया' रागद्वेषादयः । 'णासंति खु' नश्यन्त्येव । 'सज्जो' सद्यः तदानीमेव । 'संसारकारया' परावर्तपञ्चकस्य संपादनोद्यताः ॥१४०।। इय दुट्ठयं मणं जो वारेदि पडिहवेदि य अकंपं । सुहसंकप्पपयारं च कुणदि सज्झायसणिहिदं ॥१४१।। चिकने शरीर वाली मछलीको पकड़ना कठिन है वैसे ही मनको रोकना बहुत कठिन है। इससे 'दुरवग्रहता' नामक दोष कहा ॥१३८।। ___ गा०—जिस मनकी चेष्टासे जीव हजारों दुःख भोगते हुए भयंकर अशुभ गतियोंसे भरे हुए अनन्त संसारमें भ्रमण करते हैं ।।१३९।। टो०-गाथामें आया 'कदेण' शब्द करने रूप क्रियासामान्यका वाची है किन्तु यहाँ उसका अर्थ चेष्टा लिया है । अतः ऐसा अर्थ होता है कि जिस मनकी चेष्टासे जीव पाँच परावर्तन रूप संसारमें भ्रमण करते हैं, वह संसार अनन्त प्रमाण वाला है और उसमें भयानक नरक आदि अशुभ गतियोंका बाहुल्य है। तथा वे जीव शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक स्वाभाविक आदि अनेक प्रकारके दुःखोको पाते हैं। इससे 'चतुर्गतिमें भ्रमणका मूल' दोष प्रकट किया ।।१३९॥ गा०-जिस मनके निवारण करने मात्रसे मनुष्यके सब संसारके कारक राग द्वेष आदि दोष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।।१४०॥ टी--'वारिदमेत्ते' में 'मात्र' पदका ग्रहण निवारणसे अन्यका निराकरण करनेके लिये किया है । अर्थात् अन्य कुछ न करके मात्र मनको रोका जाये तो पाँच परावर्तन रूप संसारके कारण सब दोष तत्काल नष्ट हो जाते हैं ।।१४०॥ गा०-उक्त प्रकारसे जो दुष्ट मनको रागादिसे निवारण करता है, और निश्चलरूपसे श्रद्धानरूप परिणामादिमें स्थापित करता है। तथा शुभसंकल्पोंमें मनको प्रवृत्त करता है और स्वाध्यायमें मनको लगाता है उसके सामण्ण-समताभाव होता है ।।१४१।। २३ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ भगवती आराधना 'इय' एवं व्यावणितरूपेण । 'दुट ठयं दृष्टकं दृष्टं । 'मणं' मनो। 'जो वारेदि' यो निवारयति रागादिभ्यः । 'परिठ्ठवेदि य' प्रतिष्ठापयति च श्रद्धानपरिणामादौ । 'अकंप' निश्चलं। क्रियाविशेषणमेतत् । तस्स सामण्णं होदि वक्ष्यमाणेन संबन्धः । 'सुभसंकप्पपयारं जो कुणदि तस्स सामण्णं होदित्ति' संबंधनीयं । शुभः संकल्पः तस्मिन्प्रकृष्टश्चारो गमनं प्रवृत्तिर्यस्य मनसस्तच्छभसंकल्पप्रचारं मनो यः करोति । 'सज्झायसण्णिहिद' च जो कुदि तस्स सामण्णं इति संबन्धते । सम्यगध्ययनं स्वाध्यायः द्रुतविलंबितादिदोषरहितत्वं अर्थव्यञ्जनशुद्धिश्च सम्यक्त्वं । स पुनः पञ्चप्रकारः वाचनाप्रश्नानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशभेदेन । प्रश्नस्य कथं स्वाध्यायता? प्रश्नो हि ग्रन्थेऽर्थे वा संशयच्छेदाय इत्थमेवैतदिति निश्चितार्थबलाधानाय वा प्रच्छनं । न हि यः पृच्छति ग्रन्यमर्थ वा सोऽधीते ? अध्ययनप्रवृत्त्यर्थत्वात् प्रश्नेऽध्ययनव्यपदेशः इन्द्रप्रतिमार्थे दारुणि इन्द्रव्यपदेश इव । अथवा किर्मिदमेवं पठितव्यमिति अधीत एव ग्रन्थे संदिहानः । अर्थसंदेहेऽपि किमस्य वाक्यस्य पदस्य वायमर्थः इति । यद्वाप्यते एवं निश्चितबलाधानार्थे प्रश्ने योज्यम् । अनुप्रेक्षा कथं ख्वाध्यायः ? अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा अन्तर्जल्परूपमध्ययनमस्त्येव तत्रापीति मन्यते । घोषपरिशुद्धं श्रुतं परावर्त्यमानं आम्नायः स्वाध्यायो भवत्येव । आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी, निवेदनी चेति कथाश्चतस्रस्तासामुपदेशो धर्मोपदेशः स च स्वाध्यायः । एतस्मिन्स्वाध्याये सम्यक निहितं निक्षिप्तं मनो यः करोति इत्यर्थः । टो-जो ऊपर कहे अनुसार रागादिसे दुष्ट मनको हटाता है और श्रद्धानादिमें निश्चलरूपसे मनको. स्थापित करता है उसके सामण्ण होता है इस प्रकार आगेके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए। शुभ संकल्पमें प्रकृष्ट चार प्रचार अर्थात् प्रवृत्ति जिसके मनकी है अर्थात् जो मनको शुभ संकल्पोंमें लगाता है उसके सामण्ण होता है। सम्यक् अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं । जल्दी पढ़ना या देरसे धीरे-धीरे पढ़ना इत्यादि दोषोंसे रहित होना तथा अर्थशुद्धि और वचनशुद्धिका होना सम्यक्पना है। उस स्वाध्यायके पाँच भेद हैं-वाचना, प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । प्रश्न कैसे स्वाध्याय है यह बतलाते हैं-ग्रन्थ अथवा अर्थके सम्बन्धमें संशयको दूर करनेके लिए अथवा निश्चित अर्थको पुष्ट करनेके लिए पूछना प्रश्न है। जो ग्रन्थ या अर्थको पूछता है वह अध्ययन नहीं करता, किन्तु ऐसा करना अध्ययनकी प्रवृत्तिके लिए होता है इससे प्रश्नको अध्ययन कहा है। जैसे इन्द्रकी प्रतिमा बनानेके लिए लाये गये काष्ठको इन्द्र कहा जाता है । अथवा 'क्या इसे इस प्रकार पढ़ना चाहिए' इस तरह पढ़े हुए ही ग्रन्थमें सन्देह करना, तथा अर्थमें सन्देह होनेपर भी 'क्या इस पद अथवा वाक्यका यह अर्थ है' इस प्रकार पुछना स्वाध्यायका कारण होनेसे स्वाध्याय है। इसी प्रकार निश्चित अर्थको दृढ़ करनेके लिए भी प्रश्नकी योजना करनी चाहिए। अनुप्रेक्षा कैसे स्वाध्याय है ? जाने हुए अर्थका मनसे अभ्यास करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं। इसमें भी अन्तर्जल्परूप अर्थात् मन ही मनमें अध्ययन होता ही है। शुद्ध उच्चारणपूर्वक श्रुतका पाठ करना आम्नाय है। यह तो स्वाध्याय है ही। आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी इस प्रकार चार कथाएँ हैं। उनका उपदेश धर्मोपदेश है। यह भी स्वाध्याय है । इस स्वाध्यायमें जो मनको सम्यक्पसे लगाता है उसके सामण्ण होता है। १. तहि यदृच्छावग्रहमर्थ वा-आ० मु०। २. द्रव्यव्य-आ० मु० । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १७९ अत्रैवं पदघटना अध्याहृतं कृत्वा 'इय दुट्ठकं मणो सो वारेदि अकंपं पडिट्ठवेदि य जो मणं सुभसंकम्पपयारमेव कुणदि सज्झायसण्णिहिदं काऊण इति' । एवं दुष्टं मनः स वारयति निश्चलं प्रतिष्ठापयति वा । यो मनः शुभसंकल्पप्रचारमेव करोति । स्वाध्याये सन्निहितं कृत्वेति सूत्रार्थः । तस्येत्थंभूतस्य श्रामण्यं समानता वा भवति ॥१४॥ जो विय विणिप्पडतं मणं णियत्तेदि सह विचारेण । णिग्गहदी य मणं जो करेदि अदिलज्जियं च मणं ।।१४२।। 'जो वि य' यश्चापि । 'विणिप्पडतं' वि शब्दो नानार्थः, निर् इत्युपसर्गो बहिर्भावे, पडिर्गमनार्थः । ततोऽयमर्थोऽस्य पदस्य विचित्रं बहिनिर्गच्छन्निवतयेदिति । ननु च सत्यभ्यंतरे कस्मिश्चित्तदपेक्षो भवति बहिर्भावस्ततः किम् ? अभ्यन्तरमिह गृहीतं रत्नत्रयं । कथमस्याभ्यन्तरता? आत्मनो निजस्वरूपमिति । रागकोपादयस्तु चारित्रमोहोदयजा भावाः परिणामा बाह्या मिथ्यात्वासंयमकषायादिभेदेन विचित्रास्तदभिमुखतया प्रवृत्त:। "णियत्तेदि सह विचारेण जो' इति शेषः कोऽसौ विचारः ? उच्यते-इदं तत्त्वाश्रद्धानं, इयं च हिंसादिपरिणतिरयं वा क्रोधादिको भावो मया परिणामिकारणभूतेन निर्वय॑मानो जातिजरामरणपरिणामरूपानन्तसंसारकारणानां कर्मणां मूलोत्तरप्रकृतिभेदेन संख्यात विकल्पानां, स्थितिविशेषमात्मप्रदेशेष्ववस्थानरूपं, तीवमध्यममन्दरूपाश्रद्धानासंयमकषायपरि n इस प्रकार जो दुष्ट मनका निवारण करता है और उसे श्रद्धानादिमें स्थिर करता है तथा जो मनको शुभसंकल्पोंमें ही लगाता है और स्वाध्यायमें प्रवत्त रहता है उसके श्रामण्य अथवा समता होती है ॥१४॥ गा-जो भी रत्नत्रयसे च्युत होकर विचित्र रागादिमें जानेवाले मनको विचारोंके साथ हटाता है, और जो मनको निन्दा गर्दा के द्वारा निगृहीत करता है-उसकी निन्दा करता है, और मनको अति लज्जित करता है उसके सामण्ण होता है ।।१४२।। टो.-'विणिप्पडतं' में 'वि' शब्दका अर्थ अनेक है, 'निर' यह उपसर्ग बहिर्भावके अर्थमें है और 'पडि' का अर्थ गमन है । अतः इस पदका अर्थ है अनेक बाह्य विषयोंमें जानेवाले मनको रोके । शङ्का-किसी अभ्यन्तरके होनेपर उसको अपेक्षा बहिर्भाव होता है यहाँ वह अभ्यन्तर कौन है ? समाधान-रत्नत्रय है और वह आत्माका निजस्वरूप होनेसे अभ्यन्तर है। राग-कोप आदि तो चारिनमोहके उदयसे होनेवाले भाव हैं, वे बाह्य हैं । तथा मिथ्यात्व, असंयम और कषाय आदिके भेदसे नाना हैं । उनके अभिमुखरूपसे प्रवृत्तिको जो विचारोंसे रोकता है। शंका-वह विचार कौन है ? समाधान-यह जो तत्त्वका अश्रद्धान है, अथवा हिंसादिरूप परिणति है, अथवा क्रोधादि भाव है, इन रूप मैं परिणमन करता हूँ तो ये हिंसादिरूप परिणाम जन्म जरा मरण परिणामरूप अनन्त संसारके कारण जो कर्म है, जो मूलप्रकृति और उत्तर प्रकृतिके भेदसे संख्यात भेदवाले हैं, १. संख्यातासंख्यात-आ० मु० । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० भगवती आराधना णामनिर्वर्तनसामर्थ्यमनुभवाख्यं च निवर्तयति । तानि चात्मप्रदेशस्थान्यनन्तप्रदेशपुद्गलस्कन्धद्रव्याणि सन्निहितद्रव्यक्षेत्रकालभवभावसहायापेक्षया पुनरपि मिथ्यात्वादिपरिणाममापादयन्ति । न हि सन्निहिताविकलकारणसमूहस्य कार्यस्य अनुत्पत्तिर्नाम संभाव्यते । तेन चाश्रद्धानादिपरिणामेन तथैव कर्मणामादानं, आत्तानां स्थितिः, सामर्थ्यातिशयः इत्यादिका परंपरता तयानन्तकालपरिभ्रमणमिति महानयमनर्थो मम भविष्यतीति, एवंभूतेन विचारेण मनो निवर्तयति यस्तस्य श्रामण्यमिति संबन्धः। 'णिग्गहदि य मणं जो' यो मनो निगलाति 'हा दूठं चितितमिदमिति' निन्दागाम्यां तस्य श्रामण्यमिति संबन्धः । 'करेदि अदिलज्जियं च मणं', करोत्यतीव लज्जापरं यो मनः । कथं संसारमहितं तत्कारणभूतान्परिणामान्मुक्ति तदुपायांश्च भावानधिगच्छतः श्रद्धानस्य तत्परिणामव्यपोहनार्थमेवं गृहीतनिर्ग्रन्थलिंगस्य चिन्तेय मयुक्तेति, निरूपयति, अतिव्रीडां मनसो जनयति ॥१४२॥ दासं व मणं अवसं सवसं जो कुणदि तस्स सामण्णं । होदि समाहिदमविसोत्तियं च जिणसासणाणुगदं ॥१४३॥ 'अवसं दास व मणं सवसं जो कुणदि' इति पदसंबन्धः । दास व चेटिपुत्रं अवशवतिनं यथा कश्चिबलात्स्ववशं करोत्येवमधीतजिनवचन आत्मनो मनो निरवग्रहतया प्रवृत्तं अशुभपरिणामप्रसरे यदि नाम तथापि बलात्तन्निर्भाभिमतशुभभावपरंपरानुकूलतया यः स्थापयति जैनमतामृतास्वादकारितत्सामर्थ्यातिशयस्तस्य उनके स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धके कारण होते हैं। आत्माके प्रदेशोंमें कर्मोंके अवस्थानका नाम स्थितिबन्ध है और तीव्र मध्यम मन्दरूप अश्रद्धान, असंयम और कषायरूप परिणामोंको उत्पन्न करनेकी शक्तिको अनुभाग बन्ध कहते हैं। आत्माके प्रदेशोंके साथ बन्धको प्राप्त हुए वे अनन्तप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध सम्बद्ध द्रव्य क्षेत्र, काल, भव और भावकी सहायता पाकर पुनः मिथ्यात्वादिरूप परिणामों की उत्पत्तिमें सहायक होते हैं। क्योंकि जिस कार्यके समस्त कारण पूर्णरूपसे विद्यमान होते हैं वह कार्य अवश्य उत्पन्न होता है। उस उत्पन्न हुए अश्रद्धानादिरूप परिणामसे पुनः उसी प्रकारसे नवीन कर्मोंका बन्ध होता है। उनमें स्थिति और अनुभाग शक्ति पड़ती है। इस प्रकार यह परम्परा चलती है। उस परम्परासे अनन्तकाल तक संसारमें भ्रमण क है। इस प्रकार अश्रद्धान आदिरूप परिणाम करनेसे मेरा महान अहित होगा। इस प्रकारके विचारसे जिसका मन अश्रद्धान आदिसे हटता है उसके श्रामण्य होता है। तथा जो मैंने बुरा किया, बुरा विचारा इत्यादि निन्दा और गर्हासे मनका निग्रह करता है उसके श्रामण्य होता है। तथा जो मनको अत्यन्त लज्जित करता है-हे आत्मन् ! संसार अहित है, उसके कारणभूत परिणामोंको, मुक्तिको और मुक्तिके उपायरूप भावोंको तू जानता है उनकी श्रद्धा करता है। संसारके उन कारणोंको दूर करनेके लिए ही तुने निर्ग्रन्थलिंग धारण किया है, तुझे ऐसी चिन्ता नहीं करनी चाहिए इस प्रकार मनको लज्जित करता है उसके श्रामण्य होता है ॥१४२।। ___ गा०–वशमें रहनेवाले दासकी तरह वशमें न रहनेवाले मनको जो अपने वशमें करता है, उसके एकमात्र शुद्ध चिद्रूपका अवलम्बन करनेवाला पाप परिणामोंसे निवृत्त और जिन शासनका अनुगामी श्रामण्य होता है ।।१४३॥ ___टो०-वशमें न आनेवाले दासीपुत्रको जैसे कोई बलपूर्वक अपने वशमें करता है, वैसे ही जो जिनागमका अभ्यासी अशुभपरिणामोंके प्रवाहमें वे रोक प्रवृत्त हुए अपने मनको बलपूर्वक उसकी डाँट फटकार करके इष्ट शुभ भावोंकी परम्पराके अनुकूल बनाता है, उसमें यह विशेष Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १८१ 'सामण्णं' समानता 'होदि' भवति । 'समाहिद' एकमुखं । 'अविसोत्तिगं' दूरापसृतविश्वरूपाशुभपरिणामप्रवाहं । 'जिणसासणाणुगदं' संपाटितद्रव्यभावकर्मक रपराभवानां यच्छासनं - शिष्यंते जोवादयः पदार्था अनेनास्मिन्वेति शासनं आगमस्तेनानुगतम् ॥१४३॥ योग्यस्य गृहीतमुक्त्युपायलिङ्गस्य श्रुत शिक्षापरस्य पञ्चविधविनयवृत्तेः स्ववशीकृतमनसः अनियतवासो युक्तः । कस्तत्र गुणः ? इत्यारेकायां समाधिगतस्य अनियत विहारगुणप्रकटनार्थं उत्तरसूत्र - दंसणसोधी ठिदिकरणभावणा अदिसयत्तकुसलत्तं । खेत्परिमग्गणावि य अणियदवासे गुणा होंति ।। ४४ ।। 'दंसणसोधी' दर्शनशुद्धिः । दृशिर प्रेक्षणे इति पठितोऽपि धातुः श्रद्धानार्थं वृत्तिरिह गृहीतः । धातूनामनेकार्थत्वात् । तथा च सूत्रं - 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' । [ तं०सु० १।२ ] इति जिनागमनिरूपितार्थविषयश्रद्धानमिह दर्शनशब्देन भण्यते । तस्य शुद्धिर्नेर्मल्यं । 'ठिदिकरणं' स्थितिकरणं रत्नत्रयपरिणामस्यात्मनोऽनपायः' । तस्य करणं स्थितिकरणं । 'भावणा' भावना अभ्यासः पुनः पुनवृत्ति: । 'अविसयत्त कुसलत्तं' अतिशयितेष्वर्थेषु निपुणता । 'खेत्तपरिमग्गणावि यक्षियंति निवसन्ति तस्मिन्निति क्षेत्रं । ग्रामनगरादिकं क्षेत्रं । तस्य क्षेत्रस्य अन्वेषणा च । अनियतस्थानवसने गुणा 'होति' भवन्ति ॥ १४४ ॥ सामर्थ्यं जैनमतरूपी अमृतका पान करनेसे आई है । उसके 'सामण्ण' अर्थात् समभावपना होता है । वह श्रामण्य एक मुख होता है, अशुभपरिणाम प्रवाहको जिन्होंने विश्वको अपने रंग में रंगा है, दूर करता है, और जिनशासनानुगत होता है । द्रव्य और भावकर्मके द्वारा किये जानेवाले पराभवोंको जिन्होंने नष्ट कर दिया है उन जिनका शासन । जिसके द्वारा या जिसमें जीवादि पदार्थ सिखाये जाते हैं उसे शासन कहते हैं अर्थात् जिनागमका अनुगामी होता है || १४३|| जो योग्य है, जिसने मुक्तिका उपाय जो निर्ग्रन्थलिंग है उसे स्वीकार किया है, श्रुतके अभ्यास में तत्पर है, पाँच प्रकारकी विनयका पालन करता है, और जिसने मनको अपने वशमें कर लिया है उसके लिए अनियतवास युक्त है । उसमें क्या गुण है ? ऐसी शंका होनेपर समाधि करनेवालेके अनियत विहारके गुण प्रकट करते हैं गा० - दर्शन विशुद्धि, स्थितिकरण, भावना, अतिशय अर्थों में निपुणता और क्षेत्रका अन्वेषण ये अनियत स्थानमें बसनेमें गुण होते हैं ॥ १४४॥ टी० - दर्शन शब्द जिस 'दृशिर' धातुसे बना है यद्यपि उसका अर्थ देखना है फिर भी यहाँ उसका अर्थ श्रद्धान ग्रहण किया है । क्योंकि धातुओंके अनेक अर्थं होते हैं । तत्त्वार्थसूत्रमें कहा भी है- 'तत्त्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । अतः यहाँ दर्शन शब्दसे जिनागममें कहे गये अर्थों का श्रद्धान लिया है । उसकी शुद्धि अर्थात् निर्मलता दर्शनविशुद्धि है । आत्माके रत्नत्रयरूप परिणामका नष्ट न होना स्थिति है । उसका करना स्थितिकरण है । पुनः पुनः अभ्यास करने को भावना कहते हैं । ग्राम नगर आदि क्षेत्र हैं । उसकी खोज, ये सब अनियत स्थानमें बसने के हैं ||१४|| विशेषार्थ - समाधिमरणके इच्छुकको एक स्थानमें नहीं बसना चाहिए | अनियत स्थानमें १. पायपरिणामः तस्य आ० मु० । २. क्षंति आ० | क्षयंति मु० । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ भगवती आराधना दसणशुद्धी इत्येतत्पदव्याख्यानकारिणी गाथा जम्मणअभिणिक्खवणे णाणुप्पत्ती य तित्थचिण्हणिसिहीओ । पासंतस्स जिणाणं सुविसुद्धं दंसणं होदि ॥१४५॥ . 'जम्मण' जन्माभिनवशरीरग्रहणं । तद्यस्मिन्क्षेत्रे जातं तदिह साहचर्याज्जन्मशब्देनोच्यते । गृहीतशरीरस्य वात्मनो जनन्युदराद्यत्र निष्क्रमणं जातं तद्वा । 'अभिणिक्खवणे' रत्नत्रयाभिमुख्येन गृहाबहिर्गमनं यस्मिन्क्षेत्रे तदिह निष्क्रमणं । 'णाणुप्पत्ती य' केवल ज्ञानावरणक्षयात् सर्वार्थयाथात्म्यग्रहणक्षमं यत्केवलं तदिह ज्ञानमिति गृहीतं । सामान्यशब्दानामपि विशेषवृत्तिः प्रतीतैव । तस्य ज्ञानस्योत्पत्तिर्यस्मिन् क्षेत्रे तदिह साहचर्यात् 'णाणुप्पत्ती य' शब्देनोच्यते । 'तित्थं' चिण्हं । तीर्थमिह समवशरणं गृह्यते । तरन्ति तस्मिन्भव्याः पापविनाशार्थिनः इति । तस्य चिह्नतया स्थिता मानस्तम्भाः । 'णिसिहीओ' निषिधीयोगिवत्तिर्यस्यां भूमौ सा निषिधी इत्युच्यते । एतज्जन्मादिस्थानं श्रुतेन प्रागवगतं । 'पासंतस्स' पश्यतः । कस्य ? 'जिणाणं' जिनानां 'सुविसुद्ध' सुष्ठु विशुद्धं । 'दंसणं' श्रद्धानं । 'होदि' भवति । एतदुक्तं भवति देशान्तरातिथेः जिनानां जन्मादिस्थानदर्शनान्महती श्रद्धोत्पद्यते। यथा कांचिद्वयाबर्ण्यमानरूपां विलासिनीं परोक्षामगवत्य परस्य वचनोपजाताभिलाषस्य तस्यां दर्शनपथमपजातायां श्रद्धातिशयो जायते इति । बसनेके उक्त गुण कहे हैं। इन गुणोंका वर्णन ग्रन्थकार आगे स्वयं करते हैं। टीकाकारने भावनाका अर्थ पुनः पुनः अभ्यास किया है और पं० आशाधरने परीषह सहन किया है । आगे ग्रन्थकारने भी यही अर्थ भावनाका किया है। अभ्याससे ही परीषह सहनकी सामर्थ्य होती है । सम्भवतः इसी भावसे भावनाका अर्थ अभ्यास किया है । लोकमें भावनाका यही अर्थ प्रचलित है ॥१४४॥ 'दंसणसुद्धी' इस पदका व्याख्यान करनेवाली गाथा कहते हैं गा-जिनदेवोंके जन्मस्थान, दीक्षास्थान, केवलज्ञानकी उत्पत्तिका स्थान और समवसरणके चिह्न मानस्तम्भका स्थान निषीधिका स्थान देखनेवालेके सम्यकपसे निर्मल सम्यग्दर्शन होता है ॥१४५|| टी.-नये शरीरके ग्रहण करनेको जन्म कहते हैं। वह जन्म जिस क्षेत्रमें हुआ, जन्मके साहचर्यसे यहाँ उस स्थानको जन्म शब्दसे कहा है । अथवा शरीर ग्रहण करनेवाले आत्माका माताके पेटसे निकास जहाँ हुआ वह जन्म है। रत्नत्रय धारण करनेकी भावनासे घरसे बाहर जाना जिस क्षेत्रमें हआ उसे निष्क्रमण कहा है। केवलज्ञानावरणके क्षयसे सब पदार्थो के यथार्थस्वरूपको ग्रहण करने में समर्थ केवलज्ञानको यहाँ ज्ञान शब्दसे ग्रहण किया है; क्योंकि सामान्यवाची शब्दोंकी भी विशेषमें प्रवृत्ति प्रसिद्ध ही है। यहाँ तीर्थसे समवसरणका ग्रहण किया है। जिसमें पापके विनाशके इच्छुक भव्य जीव तिरते हैं वह तीर्थ है। उस समवसरणके चिह्न मानस्तम्भ हैं। निषिधि अर्थात् योगिवृत्ति जिस भूमिमें हो उसे निषिधी कहते हैं। श्रुतसे पहले जाने हए जिनदेवके इन जन्मादि स्थानोंको जो देखता है उसका श्रद्धान सुविशद्ध होता है। देशान्तरमें भ्रमण करनेवालेके जिनदेवोंके जन्मादि स्थानोंको देखनेसे महती श्रद्धा उत्पन्न होती है, जैसे किसी सुन्दर नारीको वर्णनके द्वारा परोक्षरूपसे जानकर दूसरेके कथनसे उसे देखनेकी इच्छा होती है और उसे साक्षात् देखनेपर विशेष श्रद्धा होती है। अथवा जब तीर्थंकर जन्म लेते हैं तब अनियत विहार करने वाला यति तीन ज्ञानके धारी Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १८३ अथवा यदा तीर्थकृतः संभवन्ति तदा अनियतविहारो यतिजिनानां ज्ञानत्रयचारिणां अवाप्तस्वर्गावतरणपूजातिशयानां जन्माभिषेककल्याणं भुवनभवनान्तर्लीनतमोवितानापनयनोद्यतं, सुधापानमिव सकलप्राणभृदारोग्यविधायि, सुरविलासिनीननिमिव सकलजगदानंददायि, प्रियवचनमिव मनःप्रसादकारि, पुण्यकर्मेव अगण्यपुण्यवितरणप्रवीणं, लक्ष्मीपरिचारिकाभिः साश्चर्य ससंभ्रमं ईक्षितं, गह्यकामरप्रकीर्णानेकसुरभिप्रसूनकरणगन्धानुभ्रमभ्रमरकृतकोलाहलं अनारतप्रहतमंगलभेरीभंभाध्वनिभरितभुवनविवरं, सुरवधूनर्तनजिगीषयेव सौधशिखररङ्गनत्यत्प्रत्यग्रपञ्चवर्णपताकाविलासिनीक, हरिविष्टरप्रचलनोपनीतसाध्वसनवसूरवल्लभारभसकण्ठग्रहप्रीतिविकासिमुखशतमखसुखं, संम्रमोत्थितकृताञ्जलिपुटसुरपरिवारसादराकर्ण्यमानवज्रभृदाज्ञं, भेर्यादिध्वानाहूतप्रमुखसकलगीर्वाणचक्रं, परस्परसंघर्षगृहीतोत्तरवैक्रियिकदेवपृतनाव्याप्तपवनपथदेश,जन्माभिषेकसमयप्रयाणसंपादानायातपोलोमीनपुरध्वानचकितहसीविलासविराजमानराजमन्दिराङ्गणं, ऐरावतावतीर्णप्रसारितवज्रिवनघनभुजार्गलं, सुरकरप्रहारप्रसरदुंदुभिभेरीध्वानसन्मिश्रसिंहनादवधिरितविशालाशामुखं, प्रहतानेकप्रयाणकपटहगम्भीरधीरारावं, असकलशशिकरावदातचमररुहविक्षेपदक्षबलभिन्निकुरुंवजिनावलोकनव्यग्रसुराग्रमहिषीक, श्वेतातपत्रजलधरघटावरुद्धनभोमंडलं, विद्युदायमानपताकाकुलं, इन्द्रनीलमयसोपानप्रयायिसुरपतनं, सुरगजरदनसरोनलिनदलरंगशोभाविधायिनर्तकीसलीलपदन्यासं, गृहीताष्टमंगलदेवीसहस्रपुरोगानं, देवप्रतीहारदरापसार्यमाणक्षुद्रामरगणं, आत्म और स्वर्गसे अवतरित होते समयकी विशिष्ट पूजाको प्राप्त जिनदेवके जन्माभिषेक कल्याणको देखता है। वह जन्मोत्सव लोक रूपी घरमें छिपे हुए अन्धकारके फैलावको दूर करने में तत्पर होता है । अमृतपान की तरह समस्त प्राणियोंको आरोग्य देने वाला है। देवांगनाओंके नृत्यकी तरह समस्त जगत्को आनन्दमयी है, प्रियवचनकी तरह मनको प्रसन्न करता है । पुण्यकर्मकी तरह अगणित पुण्यको देने वाला है । लक्ष्मीरूपी परिचारिकाओं के द्वारा बड़े आश्चर्य और शीघ्रता के साथ इसे देखा जाता है। गुह्यक जाति के देवोंके द्वारा बरसाये गये अनेक प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी गन्ध पर मंडराने वाले भौंरों की गंजनके कोलाहलसे पर्ण होता है। निरन्त नरन्तर बजने वाली मंगल भेरी और वाद्योंकी ध्वनिसे समस्त भुवन भर जाता है। देवांगनाओंके नृत्यको जीतनेकी इच्छासे ही मानों महलोंके शिखर पर पाँच वर्णकी पताका रूपी नृत्यांगनाएँ नाचती हैं । भगवान्के जन्मके समय इन्द्रके सिंहासनके कम्पनसे भयभीत हुई नवजन्म वाली देवांगनाएं जल्दीसे इन्द्रके कण्ठसे लिपट जाती हैं तब इन्द्रका मुख प्रेमसे खिल उठता है। तब देव परिवार जल्दीसे उठकर बड़े आदरसे इन्द्रकी आज्ञा सुनता है। भेरीके शब्दको सुनकर इन्द्रादि प्रमुख सब देवगण एकत्र होते हैं. परस्परके संघर्षसे उत्तर वैक्रियिक शरीरको धारण करने वाले देवोंकी सेनासे आकाश मार्ग व्याप्त हो जाता है। जन्माभिषेकके समय जिन बालकको लानेके लिये आई हुई इन्द्राणीके नूपुरोंके शब्दसे चकित हुई हँसीके विलाससे राजमन्दिरका आँगन शोभित होता है। ऐरावतसे उतरकर इन्द्र अपनी वज्रमयी भुजायें फैला देता है । देवताओंके हाथोंके प्रहारसे ढोल और भेरीके शब्दके साथ मिला सिंहनाद विशाल दिशाओंको बधिर कर देता है। गमन करते समय बजाये जाने वाले अनेक नगारोंका गम्भीर शब्द होता है। इन्द्रोंका समूह अपूर्ण चन्द्रमाकी किरणोंके समान शुभ चमरोंको दक्षतापूर्वक ढोरता है। इन्द्राणियाँ बालक जिनका मुख देखनेके लिये उत्कण्ठित होती हैं। श्वेत छत्ररूपी मेघोंकी घटाओंसे आकाश ढक जाता है। पताकायें बिजुलीकी तरह प्रतीत होती हैं । इन्द्रनीलमय सीढ़ियोंकी तरह देवसेना गमन करती है । ऐरावतके दाँतों पर बने सरोवरोंमें खिले कमलके पत्रों पर नर्तकियाँ लीलाके साथ पद निक्षेप करती हुई नृत्य करती Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ भगवती आराधना रक्षदेवसहस्रसंपाद्यमानरक्षाविधानं, नर्तनव्यग्राद्भुतविग्रहाग्रेसरभूतं, प्रदक्षिणीकृतसुराचलं, आरूढसुरगिरिशिखरायमाणसिंहासनं, तद्देवकुमारपरंपरानीतक्षीरवारिधिजलभरितरत्नकलशकृताभिषेक, पौलोमीरचितबालानुरूपमण्डनं, गुणस्तवव्यापृतेंद्रवैतालिकसहस्र, सुराधिपरचितजन्मोत्सवनर्तनं, जन्माभिषेककल्याणं पश्यति तस्य पश्यतः । अभिनिष्क्रमणं वा जिनानामीदृक् तदिति वण्यंते । सर्व एव जिनाः समधिगतोदीरितजन्माभिषेककल्याणाः, शतमखशासनस्थसादरधनदोपनीयमानदिव्योचिताङ्गरागवसनभोजनवाहनालंकारसंपत्संदोहाः, मनोनकूलक्रीडासंपादनचतुरदेवकुमारपरिवाराः, केचित्पुरातनपुण्यपरिपाकोदयाचलोद्गतविराजमानारकसहस्रचक्ररविसहायेन अमेयभुजविक्रमेण वशीभूताशेषमागधप्रभासादिदेव विद्याधरभूमिपालसंहतयः, सुरकुमारीरूपयौवनविभ्रमापहसनचतुरानेकद्वात्रिंशद्दे वीसहस्राननारविंदविकासनोद्यताः; पाकशासनप्रहितनर्तकीनुत्तावलोकनविनोदाः, सादराकणितकिन्नरादिदेवगान्धर्वगीताः, कालमहाकालादिनवनिधिप्रभवः, प्रत्येकदेवसहस्रपरिपाल्यमानचक्रादिचतुर्दशरत्नानुयाताः, द्वात्रिंशत्सहस्रमुकुटवद्धशातकुम्भघटितमोलि तटमकरिकास्थितरत्नप्रदीपालीहुई नृत्य करती हैं। हजारों देवियाँ हाथोंमें अष्ट मंगल लिये हुए आगे गमन करती है। देवोंके द्वारपाल क्षुद्र देवगणोंको वहाँसे दूर कर देते हैं । हजारों आत्मरक्ष जातिके देव रक्षा करने में तत्पर रहते हैं। नाचने में मग्न अद्भुत शरीरधारी देव आगे रहते हैं। सब सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं । सुमेरुके शिखरके समान सिंहासन पर भगवान्को विराजमान करते हैं। देवकुमारोंकी परम्परासे लाये गये क्षीर समुद्रके जलसे भरे रत्नमयी कलशोंसे जिन भगवान्का अभिषेक करते हैं । इन्द्राणी बालकका उनके अनुरूप शृंगार करती है। सहस्रों इन्द्र वैतालिक भगवान्के गुणोंका स्तवन करते हैं । जन्मोत्सवके अवसर पर इन्द्र नृत्य करता है। ऐसे जन्माभिषेक कल्याणको जो देखता है उसका सम्यग्दर्शन अति निर्मल होता है । जिन भगवान्का अभिनिष्क्रमण इस प्रकारका होता है । उसका वर्णन करते हैं सभी जिनदेवोंका जन्माभिषेक कल्याणक बड़ी विभूतिके साथ मनाया जाता है। इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर उनके लिये दिव्य अंगराग, वस्त्र, भोजन, वाहन, अलंकार आदि संपत्ति प्रस्तुत करता है । मनके अनुकूल क्रीड़ा करने में चतुर देवकुमारोंका परिवार रहता है । उनमेंसे कोई-कोई जिनदेव पूर्वसंचित पुण्यकर्मके उदयरूपी उदयाचल पर प्रकट हुए. एक हजार आरोंसे युक्त चक्ररूपी सूर्यकी सहायतासे और अपने अपरिमित भुज पराक्रमसे समस्त मागध प्रभास आदि देव, विद्याधर और राजाओंके समूहको अपने अधीन कर लेते हैं, देवांगनाओंके रूप, यौवन और विलासको तिरस्कृत करनेमें चतुर बत्तीस हजार पट्टरानियोंके मुखरूपी कमलोंको विकसित करने में तत्पर रहते हैं । इन्द्रके द्वारा भेजी गई नर्तकियोंके नृत्यका अवलोकन करते हुए मनोविनोद करते हैं। किन्नर आदि देवगन्धर्वोके गीतोंको बड़े आदरसे सुनते हैं। काल महाकाल आदि नौ निधियाँ उनके राजकोषमें उत्पन्न होती हैं । चक्ररत्न आदि चौदह रत्न होते हैं। प्रत्येक रत्नकी एक हजार देव रक्षा करते हैं । बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजाओंके स्वर्ण निर्मित मुकुटोंके ऊपरकी मकरिकामें लगे रत्नदीपोंकी पंक्तिके द्वारा उनके पादपीठ निरन्तर पूजे जाते हैं अर्थात् बत्तीस हजार राजा उन्हें नित्य नमस्कार करते हैं । देवकुमार भेटे ले लेकर उनकी सेवामें सदा उपस्थित होते हैं। इस १ मौलित्रपुकटिका-अ० । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका प्रकरेणानव रतमर्च्यमानपादपीठाः, देवकुमारोपनोयमानोपायनविलोकनैकव्यग्राः, मनुजभोगाग्रेसरं सुखमखेदेनानुभवन्ति । अपरेऽपि मण्डलीकमहामण्डलीकपदमुपगताः । पुनस्तीर्थ करनामकर्मोदयात् चारित्रमोहक्षयोपशमप्रकर्षानुगतादनादिकालावलग्नस्वपरकर्म रजोविधूननाववद्धकक्ष्या इत्थं मनः प्रणि 'दधति - केयं मोहस्य महत्ता येनास्मानप्यध्यक्षीक्रियमाणदुरन्तसंसारसरिदधिपदुःखावर्तान् प्रवर्तयत्यारम्भपरिग्रहयोः । अणिमाद्यष्टगुणसंपत्कं, अपदमापदां, अभिलाषस्याप्यविषयम्, अपरामराणां कुशाग्रीयबुद्धीनामपि बलभिदामगोचरं वचसामप्रत्यूहं अपराधीनं, अनास्वादितान्यूनतारसं, अहमिद्रसुखं चिरतरमनुभूतवतामस्माकं केयमुत्कण्ठा मनुजभोगसंपदि, खलजनमंत्रीव विचित्रदुःखानुबंधविधानोद्यतायां चलायां विपुण्यसमितिरिव परायत्तवृत्तौ कुकविकृतिरिवाल्पार्थ संग्रहायां, दूरभव्यस्य मुक्तिपदवीगतिरिव अनेकप्रत्यूहप्रतिहतायां अनन्तकालपरिभुक्तायां इति । तदैव च ब्रह्मलोकान्तावासादधिगतलौका न्तिकव्यपदेशाः शङ्खावदाततनवः, स्वावधिज्ञानलोचनेनावलोक्य स्वपरोत्तारणाबद्धपरिकरतां जिनानां महदिदं कार्यं अनेकभव्यानुग्रहकरं भगवता प्रारब्धं, अस्माभिरपि एतदनुमन्तव्यं । पूज्यपूजाव्यतिक्रमश्च स्वार्थभ्रं शकारीति सुरपथादवतीर्य स्वामिनः पुरस्तात्सबहुमानमवस्थिता एवं विज्ञापयंति — तरह वे मनुष्यों को प्राप्त भोगोंसे होने वाले सर्वोत्कृष्ट सुखको बिना किसी खेदके भोगते हैं, अन्य कुछ जिनदेव मण्डलीक, महामण्डलीक आदि राजपदोंको प्राप्त होते हैं । पुनः तीर्थंकर नामकर्मके उदयसे और चारित्र मोहके क्षयोपशमके प्रकर्ष से अनादिकालसे लगी हुई अपनी और दूसरोंकी कर्मरूपी धूलिको दूर करनेमें कमर कसकर वे इस प्रकार मनमें विचारते हैं - यह मोहकी कैसी महत्ता है कि दुरन्त संसार समुद्र के दुःखरूपी भँवरोंको प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले हम जैसोंको भी आरम्भ और परिग्रहमें फँसाता है । हमने चिरकाल तक अहमिन्द्रका सुख भोगा है जो अणिमा आदि आठ ऋद्धियोंसे सम्पन्न होता है, जिसमें कभी कोई आपत्ति नहीं आती, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता, अन्य देव और कुशाग्र बुद्धिशाली इन्द्रों को भी वह सुख प्राप्त नहीं है, वचन के अगोचर है, अपराधीन है, उसमें कभी कमी नहीं होती । ऐसा अहमिन्द्र पदका सुख चिरकाल तक भोग चुकनेपर हमारी यह मनुष्यकी भोगसम्पदामें उत्कण्ठा कैसी ? यह भोग सम्पदा दुष्टजनकी मैत्रीकी तरह अनेक दुःखोंकी परम्पराको उत्पन्न करने वाली है, चंचल है, पाप पुण्यकर्मके समान पराधीन है, जेसे कुकविकी रचना में अल्पसार होता है वैसे ही इस भोगसम्पदामें भी सार नहीं है । जैसे दूर भव्य के मोक्ष गमनमें अनेक बाधाएँ रहती हैं वैसे ही इस भोगसम्पदा में अनेक बाधाएँ रहती हैं और हमने इसे अनन्तकाल भोगा है । उसी समय ब्रह्मलोक स्वर्गके अन्त में रहनेसे लौकान्तिक नामधारी देव, जिनका शरीर शंखके समान श्वेत होता है, अपने अवधिज्ञान रूपी चक्षुसे देखते हैं कि जिनदेव स्वयंको और दूसरोंको संसार समुद्रसे पार उतारनेके लिये एकदम तत्पर हैं तो विचारते हैं- भगवान्ने अनेक भव्य जीवों पर अनुग्रह करने वाला यह महान् कार्य करनेका बीड़ा उठाया है, हमें भी इसकी अनुमोदना करनी चाहिए । तथा पूज्य पुरुषों की पूजा न करना भी स्वार्थका घातक है । ऐसा विचार स्वर्गसे उतरकर भगवान् के सम्मुख बड़े आदर के साथ उपस्थित हो, इस प्रकार निवेदन करते हैं १. प्रतिदधति - आ० मु० । २४ १८५ २. कथं मोहस्य बलवत्ता - आ० मु० | Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना भट्टारका ! उचित एवायमुद्योगो भवतां कल्पमहीरुहा इव प्रत्युपकारनिरपेक्षा, जगदनुग्रहकारिणो हि महान्तः, मिथ्यात्वतिमिराव गुंठितज्ञान लोचनतथा विनेयजन राशिरुत्पथ प्रस्थानोऽसकृत्कुगतिगर्तपतितो निः सतु - मभिलषन्नपि असमर्थः क्लिश्यति । स च भवत्पातितायतदृढसमीचीनदृष्टिरज्ज्वावकृष्टः युष्मदुपदशितातिप्रगुणविशाल मुक्तिमार्गढौकनादनन्तज्ञानात्मकेन सुखेन सुखी भवत्वित्यभिधाय गतेषु सारस्वतादिषु । १८६ जिननिर्वेदसमीरणान्दोलितहरिविष्टरो हरिः प्रणिधानप्रवर्तितावधिलोचनाधिगतगुरुप्रारभ्यमाणकार्यः, सिंहासनतः ससंभ्रममुत्थाय, स्वामिसमवस्थितदिगभिमुखं गत्वा सप्तपदमात्रं, ललाटतटविन्यस्तेन प्रबुद्धनलिनदलच्छायापहा सिना, अंकुशकुलिशकलशादिलक्षणोद्भासिना दक्षिणेन करेणालंकृतमौलिरत्नप्रभादंतुरमवनम्य शिरः सलीलं नमः सद्धर्मतीर्थ प्रवर्तनोद्यतेभ्यः शरणागतविनेयत्राणकारिभ्योऽलौकिक नयनेभ्यो जिनेभ्य इत्यभिधाय, पुरोधावभेरीध्वानादिभिर्झटिति विदितकार्येण समुदितावनतेन स्वनायकपुरोयायिना, विचित्रातपत्रशस्त्रवस्त्रविभूषण वाहनोज्ज्वलेन गीर्वाणचक्रेणानुगम्यमानः सौधर्मः सह नरामरेन्द्रः, चमररुहहरिविष्टरश्वतातपत्रादिपरमेश्वरलांछनमखिलमपहाय प्रतीहारनिवेदितागमनस्तदाज्ञयाशु धर्मचक्रलांछनांतिकमवाप्य सबहुमानप्रणाममारभते स्म । ततो जिनात्सादरावलोकनप्रसादमात्मोचितमुपलभ्य विज्ञापनं करोति । सकलोऽयमायातोऽच्युताधिपपुरःसरः शक्रलोको भट्टारकाणां परिनिष्क्रमणपरिचर्यामुपपादयितुमना अवगतमुक्तिमार्गोऽप्ययं स्वाधीनज्ञानात्म भगवन् ! आपका यह उद्योग उचित ही है । महान् पुरुष कल्पवृक्षकी तरह प्रत्युपकारकी अपेक्षा न करके जगत् पर अनुग्रह करते हैं । मिथ्यात्व रूपी अन्धकारसे ज्ञानरूपी दृष्टिके अवरुद्ध हो जानेसे संसारके भव्य जीव कुमार्गमें चल पड़ते हैं । बार-बार कुगतिरूपी गढ़में गिरकर निकलना चाहते हुए भी नहीं निकल पाते और कष्ट भोगते हैं । आपके द्वारा डाली गई विस्तृत दृढ़ समीचीन दृष्टिरूपी रस्सीके द्वारा खींचे गये वे भव्य जीव आपके द्वारा बतलाये गये गुणशाली विशाल मोक्षमार्ग पर चलकर अनन्त ज्ञानात्मक सुखसे सुखी हों । इतना कहकर वे लौकान्तिक देव चले जाते हैं । भगवान्‌के वैराग्यरूपी हवाके झकोरोंसे इन्द्रका सिंहासन कम्पित होता है । तब इन्द्र अवधिज्ञान रूपी दृष्टिका उपयोग करके भगवान् के द्वारा प्रारम्भ किये जाने वाले कार्यको जानता है । तत्काल सिंहासनसे उठ, जिस दिशा में भगवान् हैं उस दिशाकी ओर सात पद चलकर, खिले हुए कमलकी पांखुरीकी शोभाको तिरस्कृत करने वाले और अंकुश, वज्र, कलश आदि शुभ लक्षणोंसे शोभित दाहिने हाथको मस्तकसे लगाकर मुकुटके रत्नोंकी प्रभासे भासित सिरको नवाकर कहता हैं - 'समीचीन धर्मरूप तीर्थंके प्रवर्तनके लिये उद्यत, शरणागत भव्य जनोंकी रक्षा करने वाले और अलौकिक नेत्रोंसे विशिष्ट जिनदेवको नमस्कार हो । भेरी आदिके शब्दसे सब देवोंको ज्ञात हो जाता है । नाना प्रकारके छत्र, शस्त्र, वस्त्राभूषण और वाहनोंके साथ अपने नायकको आगे करके सब देव सौधर्मके पीछे चलते हैं । सौधर्मेन्द्र अन्य इन्द्रों और राजाओंके साथ राजमहलके द्वार पर पहुँच सिंहासन, चमर छत्र, आदि इन्द्रत्वके सत्र चिह्नोंको दूर करके द्वारपालसे अपने आनेका समाचार निवेदन कराता है । आज्ञा मिलने पर इन्द्र तत्काल धर्मचक्र प्रवर्तक भगवान्के समीप जाकर अत्यन्त बहुमान पूर्वक नमस्कार करता हैं । जिनदेव इन्द्रकी ओर आदरपूर्वक देखते हैं । भगवान् के इस सादर अवलोकनको ही अपने योग्य प्रसाद मानकर इन्द्र निवेदन Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १८७ कानन्तसुखानुभवलम्पटोऽपि, अवधीरितेन्द्रियसुखखेदोऽपि, अपरिप्राप्तसंयमघातिकर्मक्षयोपशमः, न चारित्रे प्रयतते, न परान्प्रवर्तयितुमीहते । सुविशुद्धज्ञानदर्शनोऽपि न विना समीचीनं चारित्रं तपश्च, कर्माणि निरवशेष क्षपयितुं घटते । अनेकसमुद्रगणनायुःस्थितितया दीर्घसंसारी वराकोऽस्मदादिः क्लिश्यति । उत्यातुमभिलपन्नपि दारको यथा पतत्येवमपि जनश्चारित्राभिलाष्यपि तद्वोढमसमर्थस्तिष्ठति । यूयं पुविदितवेदितव्याः क्षयोपशमपरिप्राप्तिनिवृत्तिपरिणामाः, पूज्यतमाः जन्मान्तरेऽस्माकमपीदृशी वीतरागता सकलारम्भपरिग्रहपरित्यागोद्योगो विनेयजनोपकारशक्तिश्च भवत्प्रसादादस्यानुमननाच्च भवतु सज्जीकृतमिदं विमानं आनीतमलंकरोतु देवः इत्युपरतवचसि सुराधिपे हर्षविपादपरवशं ज्ञातिवर्ग अन्तःपुराणि परिवारं चावलोक्य कृपया जिना वदन्ति चिरसंवासादल्पकोपकारापेक्षया जनस्यानुरागो भवति तदनुसारी कोपस्ताभ्यां दुरन्तकर्मादानं ततो भवति ममेदंभावः सर्वदुःखानां मूलमपनेतुमर्हति विद्वान् । न हि कस्यचित् किचिन्मित्रं, धनं, शरीरं वानपाय्यस्ति । पात्रे समिता हि बन्धवः, परिवाराश्च, धनं पुनरर्जने विनाशे च महतीमानयति दुःखासिकां । तदथिभिरन्यैश्च सह विरोधं कारयति । तृष्णां प्रकर्षवतीमादधाति लवणजलपीतिमिव । बामलोचनाः पुनः सुरा इव चित्तं मोहयन्ति, व्यलीकरोदनेन हसनेन चाटुभिश्च पुंसामल्पसत्त्वानां चेतः स्ववशीकुर्वन्ति । चर्ममयपुत्रिकासु, चपलासु, संध्याम्बुदावलीवास्थिररागासु, मायाजननीषु, मृषाचेटीनायिकासु, सुगतिवज्रार्गलयष्टिपु करता है-अच्युतेन्द्र आदि समस्त इन्द्रगण भगवान्के निष्क्रमण कल्याणक सम्बन्धी परिचर्या करनेके अभिलाषी हैं । हम मुक्तिके मार्गको जानते हैं । स्वाधीन ज्ञानात्मक अनन्त सुखका अनुभव करनेके लिये भी आतुर हैं, इन्द्रिय सुखको भी खेद रूप जानकर उसकी उपेक्षा करते हैं। किन्तु संयमका घात करने वाले कर्मका क्षयोपशम हमें प्राप्त नहीं हैं। इसलिये न हम स्वयं चारित्रमें प्रवृत्त होते हैं और न दूसरोंको ही प्रवृत्त करना पसन्द करते हैं । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे युक्त व्यक्ति भी समीचीन चारित्र और तपके बिना समस्त कर्मोका क्षय नहीं कर सकता। अनेक सागरों प्रमाण आयु होनेसे दीर्घ संसारी हमलोग कष्ट उठाते हैं। जैसे शिशु उठना चाहते हुए भी गिरता है वैसे ही हम लोग चारित्रके अभिलाषी होते हुए भी उसे धारण करने में असमर्थ रहते हैं । आप तो सब कुछ जानते हैं। चारित्रमोहका क्षयोपशम होनेसे आपके निवृत्ति रूप परिणाम हुए हैं । आप पूज्यतम हैं। आपके प्रसादसे तथा आपकी अनुमोदना करनेसे आगामी जन्ममें हमें भी इस प्रकारको वीतरागता, समस्त आरम्भ और परिग्रहको त्यागनेका उद्योग तथा भव्य जीवोंका उपकार करनेकी शक्ति प्राप्त हो । यह सजाया हुआ विमान तैयार है, देव ! इसे सुशोभित करें। देवेन्द्रके कथनके पश्चात् अन्तःपुर, परिवार और ज्ञातिवर्गको हर्ष और विषादमें देखकर जिनदेव कृपापूर्वक कहते हैं-चिरकाल तक साथ रहनेसे तथा थोड़ा बहुत उपकार करनेसे लोगोंमें अनुराग होता है तथा कोप भी होता है। इस अनुराग और कोपसे दुरन्तकर्मोका बन्ध होता है । उससे 'यह मेरा है' इस प्रकारका भाव होता है, यह सब दुःखोंका मूल है। विद्वान्को करना चाहिए। न किसीका कोई मित्र है और न धन और शरीर ही स्थायी हैं। बन्ध बान्धव और परिवार यानपात्रमें मिले हुए पुरुषोंके समान हैं। धनके कमानेमें और कमाये हुए धनके नष्ट हो जानेपर वहुत दुःख होता है। उस धनके अर्थी अन्यजनोंसे विरोध होता है। जैसे खारा जल पीनेसे प्यास बढ़ती है वैसे ही धन पानेसे धनकी तृष्णा बढ़ती है। स्त्रियाँ मदिराकी तरह चित्तको मोहित करती हैं। वनावटी रोने और हँसने तथा मीठे वचनोंसे कमजोर मनुष्योंके चित्तको अपने वशमें कर लेती हैं। स्त्रियाँ चर्मनिर्मित पुतलियाँ हैं, चंचल होती हैं, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ भगवती आराधना कोऽनुरागः प्रज्ञावताम् ? शरीरं पुनरिदमनेकाशुचिनिधानं, व.चारपुचवत्प्राणभतामनपायी भारः महारोगनागानां वल्मीकीभूतं, जराव्याघ्रीनिवासविल, नेत्रखण्डचर्मवेष्टितलोष्टवदन्तनि:सारं बहिर्मनोहरं, गुणः पुनरत्र एक एव धर्मसहायता । गिरिनदीस्रोतांसीवानवस्थितानि यौवनानि । तणाग्निज्वाला इव संपदः क्षणमात्रं दृष्टनष्टा । इत्थमवगम्य मा कृथा वृथा प्रमादं जननरत्नाकरपारगमनाय कुरुतोद्योगं । मर्षणीयोऽस्माभिः प्रमादात्कृतोपराध इति । भगवद्भारतीसमनन्तरं सुरकुमारकरप्रहताः समन्ततो दुन्दुभयो ध्वनन्ति । सकलं च जगदिन्दुप्रमुखं जयध्वनिमुखरं जायते । समन्तात्सुरतरुण्यः सविलासं नृत्तमारभन्ते । जगन्नाथाश्च त्रिलोकभूषणा धवलदुकूलपरिधानाः परमशुक्ललेश्यया निवृतिसंफल्येव मुक्ताकण्ठिकाव्याजेनोपगतयालंकृतग्रीवाः विरागांणामपि मुखरागकरणे पाटवं नः पश्यतेति दर्शयद्भयामिव कुण्डलाभ्यां विराजमानपूर्णमसृणगण्डस्थलाः । वृत्तं प्रियं एषां चेन्नोवसर इतीवोपगतेन कटकद्वयेनाश्लिष्टप्रकोष्टाः । यत्रामीषामतिशयरत्नाभिमानः तत्पश्यामः स्थित्वोच्चरितीवोत्तमाङ्गस्थेन मुकुटरत्नकलापेन शोभमानः निर्वाणपुरमिव विमानं प्रविशन्ति । ततः शतमखयुग्मवाहस्कन्धोत्क्षिप्तेन विमानेन सदेवीकचतुनिकायामरसप्तानीक परिवृतेन गत्वा अवतीर्य सन्ध्याकालीन मेघमालाकी तरह उनका राग अस्थिर होता है। वे स्वभावसे मायावी होती हैं, सुगतिके लिए वज्रनिर्मित अर्गला हैं। उनमें बुद्धिमानोंका कैसा अनुराग ? यह शरीर अनेक अपवित्र वस्तुओंकी खान है, कचरेके ढेरकी तरह प्राणियोंका ऐसा भार है जो कभी नष्ट नहीं होता। महारोगरूपी सोंके लिए वामी है और जरारूपी सिंहनीके रहने के लिए विल है । जैसे लोष्ठको चमड़ेसे मढ़कर उसपर आँखें लगा देनेपर वह बाहरसे सून्दर और भीतरसे निःसार होता है उसी तरह यह शरीर भी बाहरसे सन्दर और भीतरसे निःसार है। इसमें केवल एक ही गण है कि यह धर्ममें सहायक होता है। पहाडी नदीके स्रोतोंकी तरह यौवन स्थायी नहीं है। तणोंकी आगकी लपटोंकी तरह सम्पदा क्षणमात्रमें देखते-देखते नष्ट हो जाती है . ये सब जानकर वथा प्रमाद मत करो, जन्म समुद्रको पार करनेके लिए उद्योग करो। हमसे प्रमादवश जो अपराध हुए उन्हें क्षमा करें। भगवान्की वाणीके पश्चात् देवकुमार दुंदुभियाँ बजाते हैं। इन्द्र आदि सब लोग जय जयकार करते हैं। देवांगनाएँ विलासपूर्ण नृत्य आरम्भ करती हैं। तीनों लोकोंके भूषण और जगत्के स्वामी जिनदेव सफेद वस्त्र धारण करते हैं। गलेमें मोतियोंकी माला पहने हैं मानों मुक्तिकी दूतीके समान परमशुक्ल लेश्याने उस मुक्तामालाके व्याजसे भगवान्के कण्ठको सुशोभित किया है। दोनों कानोंके कुण्डलोंसे भगवान्का स्निग्ध गण्डस्थल शोभित है, मानों दोनों कुण्डल यह दिखला रहे हैं कि विरागोंके भी मुखको रागयुक्त (लाल) करने में हमारा चातुर्य लोग देखें। दोनों हाथोंमें दो गोल कड़े हैं। वे गोल कड़े मानों यह विचार कर ही आये हैं कि भगवान्को वृत्त प्रिय है। वृत्तका अर्थ चारित्र भी है और गोल भी। सिरपर रत्नमयो मुकुट शोभित है। रत्नोंने सोचा-इन्हें रत्नों (रत्नत्रय) का बड़ा अभिमान है जरा इनके साथ रहकर देखें तो । इस प्रकारसे आभूषित भगवान् मोक्षपुरीके द्वारके समान विमानमें प्रवेश करते हैं। उस विमानको इन्द्र अपने कन्धोंपर उठाते हैं। देवांगनाओंके साथ चारों निकायोंके देव और उनकी सातों सेनाएँ विमानको घेरे होती हैं । उस विमानसे जाकर भगवान् रमणीक स्थानमें Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १८९ रम्यतमे देशे उत्तराभिमुखाः, कृतसिद्धनमस्कृतयः मुकुटादिकं क्रमेण अलंकारादिकं अपनयन्ति । परित्यक्तोभयसकलग्रंथाः परिगृह्णन्ति योगत्रयेण रत्नत्रयमित्थंभूतं च परिनिष्कमणं पश्यतः । ‘णाणुप्पत्ति' ज्ञानोत्पत्तियितेऽवबुध्यते सकलमर्थयाथात्म्यमनेनेति ज्ञानं इति केवलमुच्यते । तस्योत्पत्तिरवतारितमोहनीयभाराणां, योगवासराधीश्वरनिर्मूलितज्ञानदृगावरणतमसां, उत्खातान्तरायविषविटपिनां, अपनीतक्रममनपेक्षितकरणचेष्टम पास्तसंशीतिकं, दूरीकृतविपर्यासं केवलमुत्पद्यते । तस्य फलस्य दर्शनाज्जिनप्रणीते मार्गे अपनीतशङ्कादिकलङ्का श्रद्धोत्पद्यते । फलार्थो तद्वत्सु रोचते दृष्टसामर्थ्य इति किं चित्रम् ? ॥१४५।। एवमनियतविहारे दर्शनशुद्धिस्वार्थमुपदर्य परोपकारं स्थिरीकरणं प्रकटयति संविग्गं संविग्गाणं जणयदि सुविहिदो सुविहिदाणं । जुत्तो आउत्ताणं विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं ॥१४६।। 'संविग्गं' संसारभीरुतां । 'जणयदि' जनयति । कः ? 'सुविहिदो' सुचरितो योऽनियतवासः । केषां ? सुविहिदाणं सुचरितानां । 'संविग्गाणं' संविग्नानां । 'जुत्तो' अनशनादिके तपसि युक्तः । 'आजुत्ताणां' योगचाराणां । 'विसुद्धलेस्सो' विशद्धलेश्यः । 'सुलेस्साणं' सुलेश्यानां च । सम्यक चारित्रतपसोः शुद्धलेश्यायां च उतरते हैं। और उत्तरकी ओर मुख करके सिद्धोंको नमस्कार करते हैं। तथा क्रमसे मुकुट आदि अलंकारोंको उतार देते हैं। अन्तरंग बहिरंग सब परिग्रहको त्यागकर मन-वचन-कायसे रत्नत्रयको स्वीकार करते हैं । इस प्रकारके निष्क्रमणको जो देखता है उसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है। अब केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वर्णन करते हैं जिसके द्वारा समस्त पदार्थो का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है उसे ज्ञान कहते हैं । यहाँ ज्ञानसे केवलज्ञान कहा है। उसकी उत्पत्ति इस प्रकार होती है जो मोहनीयका भार उतार देते हैं, योगरूपी सूर्यसे ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूपी अन्धकारको निर्मूल कर देते हैं और अन्तराय कर्मरूपी विषवक्षको उखाड़ देते हैं उनके क्रमरहित, इन्द्रियोंकी सहायता न लेनेवाला, संशय विपरीततासे दूर केवलज्ञान उत्पन्न होता है । उसके फल के दर्शनसे जिनकथित मार्गमें शंका आदि दोषोंसे रहित श्रद्धा उत्पन्न होती है। जो उस फलके अभिलाषी हैं वे उसकी शक्तिको देखकर यदि उस रत्नत्रयसे युक्त भगवन्तोंमें रुचि करते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है ? ॥१४५।। इस प्रकार अनियत विहारसे दर्शनविशुद्धिरूप स्वार्थको बतलाकर अब स्थिरीकरणरूप परोपकारको प्रकट करते हैं गा०–सम्यक् आचार और अनशन आदि तपसे युक्त विशुद्ध लेश्यावाले मुनियोंका अनियतवास सम्यक् आचारवाले, योगके धारी, सम्यक् लेश्यावाले और संसारसे भीत साधुओंमें संसारसे भय उत्पन्न करता है ॥१४६|| __टी०-सम्यक चारित्र, सम्यक्तप और शुद्धलेश्यामें वर्तमान अनियत विहारी साधुको देखकर सभी सम्यक् चारित्रवाले, सम्यक् तप करनेवाले और शुद्ध लेश्यावाले यतिगण अत्यन्त संसारसे भीत होते हैं। वे मानते हैं कि हम संसारसे वैसे भीत नहीं हैं जैसे यह भगवान् मुनिराज हैं । अत एव हमारा चारित्र और तप सदोष है । अर्थात् सम्यक् आचार, तप और विशुद्ध लेश्या १. वीतक्र-आ० मु०। २. मत्यस्त-आ० मु० । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० भगवती आराधना प्रवर्तमानं दृष्ट्वा सर्वेऽपि सुचारित्राः सुतपसः, शुद्धलेश्या यतयः अतिशयवतीं संसारभीरुतां प्रतिपद्यन्ते । न वयमतीव संसारभीरवः यथायं भगवान् अतएव नश्चारित्रं तपश्च सातिचारं इति मन्यमानाः ।। १४६ ।। उत्तरगाथया एतदाचष्टे न केवलं अतिशयितचारित्रतपोगुण एव परं संविग्नं करोति किंतु एवंभूतोऽपि इत्याचष्टे पियधम्मवज्जभीरू सुत्तत्थविसारदो असढभावो । संवेगाविद य परं साधू यिदं विहरमाणो || १४७॥ 'पियधम्मवज्जभीरू' प्रिय उत्तमक्षमादिधर्मो यस्य, यश्चावद्यस्य पापस्य भीरुः । 'सुत्तत्यविसार दो' सूत्रार्थयोर्निपुण: । 'असढभावो' शाठयरहितः । 'संवेग्गाविदि य' परं संविग्नं करोति । 'साधू' साधुः । 'णियदं' सर्वकालं 'विहरमाणो' देशान्तरातिथिः ॥ १४७॥ पूर्व गाथायां परस्थिरीकरणं प्रतिपाद्य उत्तरयात्मानमपि स्थिरयति इत्यभिधत्तेसंविगदरे पासिय पियधम्मदरे अवज्जभीरुदरे । सयमवि पियरिधम्मो साधू विहरंतओ होदि ॥ १४८ ॥ 'ठिदियरणं' । 'संविग्गतरं' इत्यादिकया । असकृत्पञ्चविधपरावर्तनिरूपणा हितचेतस्तयोपगततदागमनभयातिशयाः संविग्नतराः । अभिनवकर्मनिरोधं चिरंतनगलनं करोति, अभ्युदयनिः श्रेयससुखानि च प्रयच्छति सुचरितो धर्म इति । धर्मस्य फलमाहात्म्ये अनारतं चेतः समाधानात्प्रियधर्मतराः, स्वल्पमप्यशुभयोगानामवसरा वाले अनियत विहारी साधुको देखकर अन्य मुनि जो सम्यक् आचारवान् हैं, तपस्वी हैं, विशुद्ध लेश्यावाले हैं वे भी प्रभावित होकर और भी अधिक आचार, तप और लेश्यामें बढ़नेके लिए प्रयत्नशील होते हैं । यह अनियतवाससे परोपकार होता है । दर्शनविशुद्धिका लाभ तो अपना उपकार है ॥ १४६ ॥ आगेकी गाथासे कहते हैं कि केवल विशिष्ट चारित्र और तप ही दूसरेको संसारसे विरक्त नहीं करता किन्तु गा०—जो उत्तम क्षमा आदि धर्मका पालक है और पापसे डरता है, सूत्र और उसके अर्थ - में निपुण है, शठता से रहित है ऐसा सदा देशान्तर में विहार करनेवाला साधु दूसरोंमें विराग उत्पन्न करता है ॥ १४७॥ पूर्वगाथा में दूसरोंके स्थिरीकरणका कथन किया है । आगेकी गाथासे अपने भी स्थिरीकरणको कहते हैं गा० - संविग्नतर प्रिय धर्मतर और अवद्य भीरुतर साधुको देखकर विहार करनेवाला साधु स्वयं भी प्रिय स्थिर धर्मतर, संविग्नतर और अवद्य भीरुतर होता है || १४८|| टी० - बार-बार पाँच प्रकारके परावर्तनोंका निरूपण चित्तमें बैठ जानेसे जो उस परावर्तनके आगमन से अत्यन्त भीत होते हैं वे साधु संविग्नतर होते हैं । अच्छी तरह पालन किया गया और पुराने कर्मों की निर्जरा करता है। तथा इहलौकिक धर्मके फलके इस माहात्म्यमें जिनका चित्त लीन होता है दे धर्म नये कर्मों के आनेको रोकता है अभ्युदय और मोक्षका सुख देता है । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १९१ दानादवद्यभीरुतराः । स्वयमात्मना प्रियस्थिरधर्मतराः । अन्तरेणाप्यतिशायिकप्रत्ययमतिशयार्थगतिरत्र 'अभिरूपाय कन्या देयेति' यथा प्रियस्थिरधर्मतरः इति । अपिशब्देन संविग्नतरः अवद्य भीरुतरश्चेति ग्राह्यम् ॥ १४८ ॥ भावनां व्याचष्टे - परिषहसहनमिह भावनेत्युच्यते चरिया छुहाय तण्हा सीदं उन्हं च भाविदं होदि । सेज्जाव अपविद्धा विहरणेणाधिआसिया होदि ॥ १४९ ॥ 'चरिया' चर्याजन्यं दुःखमिह चर्येति गृहीतं । उपानहान्येन वा अकृतपादरक्षस्य, गच्छतो निशितशर्करापाषाणकण्टकादिभिस्तुद्यमानचरणस्य, उष्णरजः संतप्तपादस्य, वा यदुःखं यस्यानुभवनमसंक्लेशेन चर्या - भावना । 'छुहा य' अपरिचिते देशे संयतैः पूर्वमनध्यासिते अल्पधान्यसंग्रहे प्रयोग्याया अलाभात् भिक्षायाः समुपजाता क्षुद्वेदना सोढा भवति । चिरमेकत्र वसतो जनः परिचयाद्दाक्षिण्याद्वा भिक्षां प्रयच्छतीति न महान्परिश्रमः । 'सीदं उण्हं च' शीतोष्णस्पर्शजं दुःखं इह गृह्यते । तदनुभवनं संक्लेशरहित भावितं ' सोढं भवति । 'सेज्जा' य शय्या च वसतिः । 'अपडिबद्धा' ममेदं भावरहिता । 'अधिआसिदा' सोढा भवति । 'विहरणेण ' विविधदेशगमनेन ॥ १४९ ॥ प्रियधर्मतर होते हैं । और जो थोड़ेसे भी अशुभ योगको नहीं होने देते वे अवद्य भीरुतर होते हैं । उन्हें देखकर सदा विहार करनेवाला साधु स्वयं भी प्रियस्थिर धर्मतर होता है । गाथा में 'पियथिरधम्मो ' पाठ है उसमें अतिशयको बतलानेवाला 'तर' प्रत्यय नहीं है फिर भी अतिशय अर्थका बोध होता है । जैसे किसीने कहा है 'अभिरूपको कन्या देना', यहाँ अभिरूप से विशिष्ट रूपवानका बोध होता है | अतः प्रियस्थिर धर्मतर अर्थ लेना । 'अपि ' शब्दसं संविग्नतर और अवद्य भीरुतर भी ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् वह साधु दूसरे इस प्रकार के विशिष्ट साधुओंको देख स्वयं भी वैसा विशिष्ट बन जाता है । यह विहारसे लाभ है || १४८॥ अब भावनाको कहते हैं । यहाँ परीषह सहनको भावना कहते हैं गा०---- - अनेक देशों में विहार करनेसे, चर्या भूख, प्यास शीत और उष्णका दुःख संक्लेशरहित भावसे सहना होता है । वसति भी ममत्वसे रहित सहनेमें आती है ॥ १४९ ॥ टी० – यहाँ 'चर्या' शब्द से चर्यासे होनेवाले दुःखका ग्रहण किया है। जूता अथवा अन्य किसी वस्तुसे अपने पैरोंकी रक्षा नहीं करनेवाले साधुके चलते हुए तीक्ष्ण कंकर पत्थर काँटे आदिसे पैर छिद जाते हैं, अथवा गर्मधूलिसे पैर झुलस जाते हैं । उसके दुःखको विना संक्लेशके सहना चर्याभावना है । अनजान देशमें, जहाँ पूर्व में कभी साधुओंका जाना नहीं हुआ, और अनाजका संग्रह भी कम है, वहाँ, योग्य भिक्षाके न मिलनेसे उत्पन्न हुआ भूखका दुःख सहना होता है । बहुत समय तक एक स्थानपर बसनेसे मनुष्य परिचित होनेसे अथवा उदारतावश भिक्षा देते हैं इसलिए भिक्षामें बड़ा श्रम नहीं होता । शीत उष्ण से शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श से होनेवाला दुख यहाँ लिया है । उसका अनुभवन अर्थात् संक्लेशरहित भावपूर्वक सहना होता है । तथा रहनेके लिए वसतिका जो प्राप्त होती है उसमें भी 'यह मेरी है' ऐसा भाव नहीं रहता । ये सब विहार करनेवाले मुनियोंको सहना होता है ॥ १४९ ॥ १. भाविनां आ० मु० । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १९२ १९२ भगवती आराधना 'णाणादेसे कुसलो णाणादेसे गदाण सत्थाणं । अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण ॥१५०॥ अतिशयार्थकुशलताख्यं गणं कथयति सुत्तत्थथिरीकरण अदिसयिदत्थाण होदि उवलद्धी । आयरियदंसणण दु तम्हा सेविज्ज आयरियं ॥१५१।। __'सुत्तत्थथिरीकरणं' अल्पवर्णरचनं, अभिधेयविषयसंशयाकारि सारार्थवदभ्यन्तरीकृतोपपत्तिक, प्रमाणान्तरदर्शित वस्तुतद्रूपविरुद्धानुपदर्शनेन निर्दोष इत्येतद्गुणसहितं सूत्रं तस्यार्थो वाच्यं बाह्यः आन्तरो वा अर्थः, तयोः सूत्रार्थयोः थिरीकरणं इत्थमेवेदं सूत्रं शब्दतः, अभिधेयं चास्येदमेवेति यत्तत । 'होदि उवलद्धी' अतिशयेनार्थोपलब्धिर्भवति । 'आयरियदंसणेण' आचार्याणां दर्शनेन । तु शब्दः पादपूरणः अवधारणार्थो वा। आचार्यदर्शनेनैव अथवा सूत्रार्थानां स्थिरीकरणं व्याख्यातॄणामाचार्याणां तत्र दर्शनात् । 'अदिसइदत्थाणं' अतिशयितानां सूत्रार्थानां 'उवलद्धी' उपलब्धिः। 'होदि' भवति । प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्त्या अनुयोगद्वारेण निरूप्यमाणः सूत्रार्थो अतिशयितो भवति । आचार्याणां व्याख्यातॄणां दर्शनेन मतभेदेन । केचिनिक्षेपमुखेनैव सूत्रार्थमुपपादयन्त्यपरे नैगमादिविचित्रनयानुसारेण अन्ये सदाद्यनुयोगोपन्यासेन । अपरे ‘अदिसयसत्थाणं होइ - गा०-देशान्तरमें जानेसे अनेक देशोंके सम्बन्धमें कुशल हो जाता है। अनेक देशोंमें पाये जानेवाले शास्त्रोंके शब्दार्थके विषयमें कुशल होता है ॥१५०॥ अतिशय अर्थकुशलता नामक गुणको कहते हैं गा०-आचार्योंके दर्शनसे ही सूत्र और अर्थका स्थिरीकरण और अतिशयित अर्थोंकी उपलब्धि होती है । इसलिये आचार्यकी सेवा करनी चाहिए ॥१५॥ टी०-थोड़े शब्दोंमें रचा गया हो, अर्थके विषयमें संशय उत्पन्न न करता हो, सारसे भरा हो, जिसकी उपपत्ति उसीमें गभित हो, और अन्य प्रमाणोंके द्वारा वस्तुका जो स्वरूप बतलाया गया है उसके विरुद्ध कथन न करनेसे निर्दोष हो। जिसमें ये गुण होते हैं वह सूत्र है। उसका अर्थ बाह्य और आन्तर दोनों प्रकारका है। इन सूत्र और उसके अर्थका स्थिरीकरण-यह सूत्र शब्दरूपसे इसी प्रकार है अर्थात् इसके शब्द ठीक हैं और इसका अर्थ भी यही है-यह सूत्रार्थका स्थिरीकरण है । आचार्योंके पास रहनेसे यह लाभ होता है तथा अतिशयित सूत्रार्थको उपलब्धि होती है। जो सूत्रका अर्थ प्रमाण नय निक्षेप निरुक्ति और अनुयोगके द्वारा किया गया हो उसे अतिशयित कहते हैं । आचार्य अर्थात् सूत्रके अर्थका व्याख्यान करने वाले व्याख्याताओंमें दर्शन अर्थात् मतभेद देखा जाता है । कोई व्याख्याता निक्षेप द्वारा ही सूत्रके अर्थका उपपादन करते हैं। अन्य व्याख्याता नैगम आदि विभिन्न नयोंके द्वारा सूत्रार्थका कथन करते हैं। कुछ अन्य सत् आदि अनुयोगोंका उपन्यास करके सूत्रार्थका कथन करते हैं। 'तु' शब्द पादपूतिके लिये अथवा अवधारणके लिये है। आचार्य दर्शनसे ही सूत्र और अर्थका स्थिरीकरण होता है और अतिशयित अर्थकी प्राप्ति १. इयं गाथा क्षिप्ता मन्तव्या । २. वस्तुतया विह-आ० मु० । ३. यत्तेन आ० मु० । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका उवलद्धो' इति पठन्ति । तत्रायमर्थः-अतिशयभूतानां शास्त्राणां प्रत्यग्राणामरातीयैः सूरिभिः कृतानां चिरंतनानामेवाप्रत्याख्यातानां उपलब्धिर्भवति । प्रकारान्तरेण अतिशयार्थकुशलत्वमाख्यातुमीहते -णिक्खवणपवेसादिसु आयरियाणं बहुप्पयाराणं । . सामाचारी कुसलो य होदि गणसंपवेसेण ||१५२।। "णिक्खवणपवेसाविसु' इत्यनया गाथया। 'आयरियाणं' आचार्याणां । 'बहुप्पयाराणं' बहुविधानां । केचिदाचार्याः चरणक्रममवगच्छन्ति परैः सहाचरणात् । अपरे पुनः शास्त्रनिगदितमेव । अन्ये तदुभयज्ञाः । इति बहप्रकारता । एवं आचार्याणां अनेकप्रकाराणां गणसंपवेसेण गणप्रवेशेन निःक्रमणप्रवेशादिकासु क्रियासु । 'कुसलो य होदि' कुशलश्च भवति । कः ? सामाचारी। ते यथा आचरन्ति तथा प्रवर्तमानः स्वावासदेशान्निगन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा' देशाच्छरीरप्रमार्जनं कार्य, तथा प्रविशतापि । किमर्थ? शीतोष्णजन्तुनामाबाधापरिहारार्थ अथवा श्वेत रक्तकृष्णगुणासु भूमिषु अन्यस्या निःक्रमणे अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जनं कटिप्रदेशादधः कार्य । अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकायिकानां तद्भूमिभागोत्पन्नानां प्रसानां चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सचित्तचित्तरजसोः पदादिषु लग्नयोन्निरासः । यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव ति ठेत् । महतीनां नदीनां उत्तरणे आराद्भागे कृतसिद्धवन्दनः यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व होती है, कोई ‘अदिसयसत्थाण होइ उवसद्धी' ऐसा पढ़ते हैं। उसका यह अर्थ है-अतिशयभूत शास्त्रोंकी जो नवीन बने हैं अथवा प्राचीन आरातीय आचार्योंके द्वारा रचे गये हैं उनकी उपलब्धि होती है-उनको जानना देखना होता है ।।१५१।। प्रकारान्तरसे अतिशय अर्थकुशलताका कथन करते हैं गा०-बहुत प्रकारके आचार्योंके गणमें प्रवेश करनेसे वसति और दाताके घरसे निकलने और प्रवेश करने आदिमें जो उनका सम्यक् आचरण है उसमें प्रवीण होता है ॥१५२॥ टी०-आचार्य बहुत प्रकारके होते हैं। कुछ आचार्य दूसरोंके साथ आचरण करनेसे आचरणका क्रम जानते हैं। दूसरे कोई आचार्य शास्त्रमें जो आचार कहा है उसे ही जानते हैं। अन्य कुछ आचार्य दोनोंको जानते हैं। इस प्रकार आचार्योंके वहुत प्रकार हैं। इस प्रकार अनेक प्रकारके आचार्योंके संधमें प्रवेश करनेसे निष्क्रमण प्रवेश आदिमें सामाचारी कुशल होता है। वे आचार्य जैसा आचरण करते हैं उसी प्रकार जो आचरण करता है उसे सामाचारी कहते हैं । अपने रहनेके स्थानसे यदि बाहर जाना चाहता है वह स्थान शीतल हो अथवा गर्म हो, शरीरका प्रमार्जन करके बाहर जाना चाहिए। इसी प्रकार प्रवेश करते हुए भी प्रमार्जन करना चाहिए। यह प्रमार्जन पीछीसे शरीरकी सफाई शीतकाय और उष्णकायके जीवोंको बाधा न हो, इसलिए किया जाता है । अथवा सफेद, लाल या काले गुणवाली भूमियोंमें एकमेंसे निकलकर दूसरीमें प्रवेश करनेपर कमरसे नीचे प्रमार्जन करना चाहिए। अन्यथा विरुद्ध योनिके संक्रमसे पृथिवीकायिक जीवोंको और उस भूमिमें उत्पन्न हुए त्रसोंको बाधा होतो है। तथा जलमें प्रवेश करते समय पर आदिमें लगी सचित्त और अचित्त धलीको दूर कर देना चाहिए । जब तक पर न सूखे तबतक जलसे निकलकर जलके पास ही ठहरना चाहिए, वहाँसे जाना नहीं चाहिए। यदि बड़ी नदीको १. द्वा सकलशरीर-अ०। २५ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ भगवती आराधना शरीरभोजनमुपकरणं च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यानः समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत, परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत् । तदतिचारव्यपोहाथ । एवमेव महतः कान्तारस्य प्रवेशनिःक्रमणयोः । तथा भिक्षानिमित्त गृहं प्रवेष्टुकामः अवलोकयेत्किमत्र बलीव, महिष्यः, प्रसूता वा गावः, दुष्टा वा सारमेया, भिक्षाचराः श्रमणाः वा सन्ति न सन्तीति । सन्ति चेन्न प्रविशेत । यदि न बिभ्यति ते यत्नेन प्रवेशं कुर्यात् । ते हि भीता यति बाधन्ते स्वयं वा पलायमानाः त्रसस्थावरपीडां कुर्युः । क्लिश्यन्ति, महति वा गर्तादौ पतिता मृतिमुपेयुः । गहीतभिक्षाणां वा तेषां निर्गमन गहस्थैः प्रत्याख्यानं वा दृष्ट्वा श्रुत्वा वा प्रवेष्टव्यं । अन्यथा बहव आयाता इति दातुमशक्ताः कस्मैचिदपि न दधुः । तथा च आहारान्तरायः कृतः स्यात् । क्रुद्धाः परे भिक्षाचराः निर्भर्त्सनादिकं कुर्युरस्माभिराशया प्रविष्ठं गृहं किमर्थं प्रविशतीति । अन्ये भिक्षाचरा यत्र स्थित्वा अन्वेषन्ते भिक्षां, यत्र वा स्थितानां गृहिणः प्रयच्छन्ति तावन्मात्रमेव भूभागं यतिः प्रविशेन्न गृहाभ्यन्तरं । गृहिभिस्तिष्ठ प्रविशेत्यभिहितोऽपि नान्धकारं प्रविशत् सस्थावरपीडापरिहृतये । तद्द्वारकाद्युल्लङ्घने कुप्यन्ति च गृहिणः । एलकं वत्सं वा नातिक्रम्य प्रविशेत् । भीताः पलायनं कुर्युरात्मानं वा पातयेयुः । द्वारमप्यायामविष्कम्भहीनं प्रविशतः गात्रपीडा इति संकुटितांगस्य विवृताधोभागस्य वा प्रवेशं दृष्ट्वा पार करना हो तो इस ओर सिद्धोंकी वन्दना करे और जबतक मैं नदीके पार न पहुंचूँ तबतकके लिए मेरे सब शरीर भोजन और उपकरणका त्याग है इस प्रकार प्रत्याख्यान ग्रहण करे और चित्तको समाहित करके नौका आदिमें चढ़े। तथा दूसरे तटपर पहुँचकर कायोत्सर्ग करे। यह कायोत्सर्ग नदी पार करने में लगे दोषकी शुद्धिके लिए किया जाता है। इसी प्रकार किसी महान् वनमें प्रवेश करने और निकलनेपर करना चाहिए। तथा भिक्षाके लिए धरमें प्रवेश करनेसे पूर्व देख ले कि यहाँ, साँड़, भैंस, ब्याई हुई गाय, अथवा दुष्ट कुत्ते और भिक्षाके लिए श्रमण हैं अथवा नहीं हैं। यदि हों तो घरमें प्रवेश न करें। यदि वे पशु साधुके प्रवेशसे न डरे तो सावधानतापूर्वक प्रवेश करे । वे पशु डरनेपर यतिको बाधा कर सकते हैं। अथवा स्वयं भागकर बस और स्थावर जीवोंको पीड़ा पहुँचा सकते हैं। स्वयं कष्टमें पड़ सकते हैं। किसी बड़े गड्ढे में गिरकर मर सकते हैं । अथवा भिक्षा लेकर निकलते हुए साधओंको देखकर और गहस्थोंके द्वारा उनका प्रत्याख्यान सनकर घर में प्रवेश करना च अन्यथा 'बहुतसे साधु आ गये, हम इन्हें भिक्षा देने में असमर्थ हैं ऐसा सोच गृहस्थ किसीको भी भिक्षा नहीं देंगे । और तब आहार में अन्तराय हो जायगा। अन्य भिक्षार्थी क्रुद्ध होकर तिरस्कार करेंगे कि जिस घरमें हम भिक्षा लेते हैं उसमें ये क्यों प्रविष्ट हुए। अन्य भिक्षा लेनेवाले जहाँ खड़े होकर भिक्षाकी प्रतीक्षा करते हैं अथवा जहाँपर खड़े हुए भिक्षार्थियोंको गृहस्थ भिक्षा देते हैं, वहीं तक साधुको जाना चाहिए। घरके भीतर प्रवेश नहीं करना चाहिए। गृहस्थोंके द्वारा 'पधारिये' घरमें प्रवेश कीजिए, ऐसा कहनेपर भी त्रस और स्थावरजीवोंको पीड़ा न पहुंचे इसलिए अन्धकारमें प्रवेश नहीं करना चाहिए। उनके द्वार आदिको लाँघनेपर गृहस्थ क्रुद्ध हो सकते हैं। बछड़े आदिको लाँधकर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करनेसे वे डरकर भाग सकते हैं अथवा साधुको गिरा सकते हैं । लम्बाई चौड़ाईसे रहित द्वारमें प्रवेश करते हुए अंगोंको १. भोगान्तरायः-आ० मु०। २. लभन्ते-आ० मु०। ३. गृहिणः भीतः-आ० । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १९५ कुप्यन्ति हसन्ति वा । आत्मविराधना मिथ्यात्वाराधना च । द्वारपार्श्वस्थ जन्तुपीडा स्वगात्रमर्द्दने च शिक्याव - लम्बितभाजनानि वा अनिरूपितप्रवेशी अभिहंति । तस्मादूर्ध्वं तिर्यक् चावलोक्य प्रवेष्टव्यं । तदानीमेव लिप्तां, जलसेकार्द्रा, प्रकीर्णहरितकुसुमफलपलाशादिभिर्निरन्तरां, सचित्तमृत्तिकावतीं, छिद्रबहुलां, विचरत्त्रसजीवां, गृहिणां भोजनार्थं कृतमण्डलपरिहारां, देवताध्युषितां निकटभूतना 'नाजनामंतिकस्थासनशयनामासीनशयितपुरुषां, मूत्रात्रपुरीषादिभिरुपहतां भूमिं न प्रविशेत् । संयमविराधना आत्मविराधनां मिथ्यात्वाराधनां च परिहतु भुक्त्वा निर्गच्छन्नपि शनैरतीवानवनतो वन्दमानं प्रति दत्तयोग्याशीर्वादो निर्गच्छेत् । तथा भिक्षाकालं, बुभुक्षाकालं च ज्ञात्वा गृहीतावग्रहः, ग्रामनगरादिकं प्रविशेदीय समितिसम्पन्नः । भोजनकालपरिमाणं ज्ञात्वा ग्रामादिभ्यो निःसरेत् । जिनायतनं, यतिनिवासं वा प्रविशन्प्रदक्षिणां कुर्यान्निसोधिकाशब्दप्रयोगं च । निर्गन्तुकाम आसीधिकेति । आदिशब्देन परिगृहीता स्थानभोजनशयनगमनादिक्रिया । तत्रापि यत्नो यतीनां । तं सकलं वेद्मि गुरुकुलवासी सूत्रार्थज्ञोऽहं, न मयाचारक्रमः सूत्रार्थो वान्यसकाशे ज्ञातव्य इत्यभिमानं न वहेत् ।। १५२ ।। शिक्षायामुद्येोगपरो भवेदित्याह - कंठदेहिं विपाणेहिं साहुणा आगमो हु कादव्वो । सुत्तस्स य अत्थस्स य सामाचारी जध तहेव ॥ १५३ ॥ संकुचित करनेपर शरीरमें पीड़ा होती है। नीचेके भागको फैलाकर प्रवेश करनेपर लोग देखकर कुपित होंगे या हँसेंगे । तथा आत्माकी विराधना और मिथ्यात्वको आराधना होती है । अपने शरीरका मर्दन करनेपर द्वारके पार्श्वभाग में स्थित जीवोंको पीड़ा होती है । विना देखे घर में प्रवेश करनेवाला साधु छीकेपर रखे बरतनोंसे टकराता है । अतः ऊपर और इधरउधर देखकर घरमें प्रवेश करना चाहिए । जो भूमि तत्काल लीपी गई हो, जलके सिंचनसे गीली हो, हरे फूल, फल पत्र आदिसे सर्वत्र ढकी हो, सचित्त मिट्टीवाली हो, जिसमें बहुत छिद्र हों, जिसपर सजीव विचरते हों, गृहस्थोंके भोजके लिए मण्डल आदि रचे गये हों, जहाँ देवताका निवास हो, पासमें बहुतसे आदमी बैठे हों, आसन शय्या पासमें हों, पुरुष सोये या बैठे हों, टट्टी पेशाब आदि पड़े हों, उस भूमिसे प्रवेश नहीं करना चाहिए। संयमकी विराधना, आत्माकी विराधना और मिथ्यात्वकी आराधनासे बचने के लिए भोजन करके निकलते हुए भी धीरेसे अति नम्र हो, वन्दना करनेवालोंको आशीर्वाद देते हुए निकलना चाहिए। तथा भिक्षाका समय और अपनी भूख समयको जानकर कोई नियम ग्रहण करके ईर्यासमितिपूर्वक ग्राम नगर आदिमें प्रवेश करना चाहिए। और भोजनके कालका परिमाण जानकर ग्रामादिसे निकलना चाहिए । जिन मन्दिरमें अथवा साधु निवासमें प्रवेश करते समय निसिधिका शब्दका प्रयोग करना चाहिए और प्रदक्षिणा करना चाहिए । निकलते समय 'आसीधिका' शब्दका प्रयोग करना चाहिए । आदि शब्दसे स्थान, भोजन, शयन, गमन आदि क्रियाका ग्रहण किया है । उनमें भी यतियों को सावधानता बरतनी चाहिए। मैं सब जानता हूँ, गुरुकुलका वासी और सूत्रके अर्थका ज्ञाता हूं, मुझे दूसरेसे आचारक्रम और सूत्रार्थ नहीं जानना है' ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिए || १५२ || शिक्षा में उद्योग करना चाहिए, ऐसा कहते हैं १. त भाजना-अ० । २. एषापि गाथा क्षिप्तैव-मूलारा० ! Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ भगवती आराधना 'कण्ठगदेहिं वोत्यादिना' । कण्ठगतैः प्राणैः सह वर्तमानेनापि साधुना आगमशिक्षा कर्तव्यैव सूत्रस्यार्थस्य सामाचारस्य च ॥१५३॥ क्षेत्रपरिमार्गणां व्याचष्टे संजदजणस्स य जम्हि फासुविहारो य सुलभवृत्ती य । तं खेत्तं विहरंतो णाहिदि सल्लेहणाजोग्गं ॥१५४॥ 'संजदजण' इत्यादिना । असंयमान् हिंसादीन्ज्ञात्वा श्रद्धाय च तेभ्य उपरतो व्यावृत्तः सम्यग्यतः संयतः इत्युच्यते तस्य संयतजनस्य । 'जम्हि' यस्मिन्क्षेत्रे । 'फासुविहारो य' प्रासुकं विहरणं जीवबाधारहितं गमनं अत्रसद्वरितबहलत्वादप्रचुरोदककर्दमत्वाच्च क्षेत्रस्य । 'सुलभवत्तीय' सुखेनाक्लेशेन लभ्यते वृत्तिराहारो यस्मिनक्षत्रे। 'तं खेत्तं' तत्क्षेत्रं । 'णाहिवि' ज्ञास्यत्यात्मनः परस्य वा । 'सल्लेहणाजोग्गं' सम्यककायकषायतन करणं सल्लेखना तस्या योग्यं । कः ? 'विहरंतो' देशान्तराणि भ्रमन् ॥१५॥ न देशान्तरभ्रमणमात्रादनियतविहारी भवति किन्त्वेवंविध इत्याचष्टे वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे । सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो॥१५५।। 'वसईसु अ' इत्यादिना-'वसतिषु' उपकरणेषु । ग्रामे नगरे गणे श्रावकजने च । सर्वत्र अप्रतिबद्धः । गा०-प्राणोंके कण्ठमें आ जानेपर भी साधुको आगमका अभ्यास अवश्य करना चाहिए। जैसे वह सूत्रका और अर्थका और समाचारीका अभ्यास करता है उसी प्रकार उसे आगमका अभ्यास करना चाहिए ॥१५३॥ टी०-कण्ठगत प्राणोंके होते हुए भी साधुको आगमकी शिक्षा करना ही चाहिए तथा सूत्र, अर्थ और सामाचारीकी भी शिक्षा करना चाहिए ॥१५॥ विशेष०-आशाधर इस गाथाको प्रक्षिप्त बतलाते हैं। क्षेत्र परिमार्गणाको कहते हैं गा०-जिस क्षेत्रमें संयमीजनका प्रासुक विहार और सुलभ आहार हो, वह क्षेत्र देशान्तरमें भ्रमण करनेवाला सल्लेखनाके योग्य जानता है ॥१५४|| • टी०-असंयमरूप हिंसा आदिको जानकर और श्रद्धान करके जो उनसे अलग होता है अर्थात् उनका त्याग करता है उस सम्यक् यतको संयत कहते हैं। संयमी मनुष्यका जिस क्षेत्रमें प्रासुक विहार अर्थात् जीव बाधारहित गमन होता है; क्योंकि क्षेत्रमें त्रस और हरितकायकी बहुलता और पानी कीचड़की अधिकता नहीं होनी चाहिए। तथा जहाँ वृत्ति अर्थात् आहार सुखपूर्वक विना क्लेशके प्राप्त होता है वह क्षेत्र देशान्तरमें विहार करनेवाला अनियत विहारी साधु सल्लेखनाके योग्य जानता है। सम्यक् रीतिसे शरीर और कषायके कृश करनेको सल्लेखना कहते हैं उसके योग्य वह क्षेत्र होता है ॥१५४॥ आगे कहते हैं कि केवल देशान्तरमें भ्रमण करनेसे अनियत विहारी नहीं होता किन्तु जो ऐसा होता है गा०-वसतियोंमें और उपकरणोंमें ग्राममें नगरमें संघमें और श्रावकजनमें सर्वत्र यह मेरा है इस प्रकारके संकल्पसे रहित साधु संक्षेपसे अनियत विहारी होता है ॥१५५।। टी०-वसति, उपकरण, ग्राम, नगर, गण और श्रावकजनमें जो सर्वत्र अप्रतिबद्ध है, यह Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका १९७ ममेदं वसत्यादिकं अहमस्य स्वामीति संकल्परहितः अनियतविहारी भवति इति संक्ष पतः प्रतिपत्तव्यः । विहारो गदो ॥१५५॥ अनियतवासादनन्तरं परिणाम प्रतिपादयितुं उत्तरगाथा अणुपालिदो य दीहो परियाओ वायणा य मे दिण्णा । णिप्पादिदा य सिस्सा सेयं खलु अप्पणो कादु॥१५६॥ 'अणुपालिवो-य' अनुपालितश्च सूत्रानुसारेण रक्षितः । 'दोहो' दीर्घः चिरकालप्रवृत्तिः । 'परियाओ' पर्यायः ज्ञानदर्शनचारित्रतपोरूपः । 'वायणा वि' वाचनापि । 'मे' मया। 'विण्णा' दत्ता । "णिप्पादिदा य सिस्सा' निष्पादिताश्च शिष्याः । 'सेयं' श्रेयः हितं । 'अप्पणो काउ' आत्मनः कतुं 'जुत्तं' इति शेषः । एतदुक्तं भवति । ज्ञानदर्शनचारित्रेषु चिरकालं परिणतोऽस्मि। सूत्रानुसारेण परेभ्यश्च निरवद्यग्रन्थार्थदानं च कृतं । शिष्याश्च व्युत्पन्नाः संवृत्ताः । एवं स्वपरोपकारक्रियया गतः कालः । इतः प्रभृत्यात्मन एव हितं कतु न्याय्यमिति चेतःप्रणिधानं इह परिणामशब्देनोच्यते । तथा चोक्तम् अप्पहियं कायव्वं जइ सक्कइ परिहियं च कायव्वं । अप्पहियपरहियादो अप्पहिदं सुछ कावव्वं ॥[ ] किण्ण अघालंदविघी भत्तपइण्णेगिणी य परिहारो। पादोवगमणजिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो ॥१५७|| 'किं णु अधालंदविधि' । कोऽसावथालन्दविधिः ? उच्यते-परिणामः सामर्थ्य, गुरुविसर्जनं. प्रमाणं, स्थापना, आचारमार्गणा, अथालन्दमासकल्पश्च । गृहीतार्थाः कृतकरणाः, परीषहोपसर्गजये समर्थाः, अनिवसति आदि मेरी है और मैं इसका स्वामी हूं इस प्रकारके संकल्पसे रहित है उसे संक्षेपमें अनियत विहारी जानना । इस प्रकार अनियत विहार समाप्त हुआ ॥१५५।। अनियत वासके अनन्तर परिणामका कथन करनेके लिए गाथा गा०-दीर्घकाल तक ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप पर्यायका मैंने शास्त्रानुसार पालन किया। और मैंने वाचना भी दी और शिष्योंको तैयार किया। अब निश्चयसे । करना उचित है ॥१५६।। । टोका-इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानदर्शन चारित्रमें मैं चिरकालतक रमा हूँ । तथा दूसरोंको आगमके अनुसार निर्दोष ग्रन्थ और उसके अर्थका दान किया है। शिष्य भी व्युत्पन्न हो गये । इस प्रकार अपना और परका उपकार करने में काल बीता। आजसे अपना ही हित करना उचित है । इस प्रकारके मनोभावको यहाँ परिणाम शब्दसे कहा है। कहा भी है-'अपना हित करना चाहिए। यदि शक्ति हो तो परका हित भी करना चाहिए। किन्तु आत्महित और परहित में से आत्महित अच्छे प्रकार करना चाहिए ॥१५६॥ - गा-क्या अथालन्द विधि, भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनीमरण, परिहार विशुद्धि चारित्र, पादोपगमन अथवा जिनकल्पको धारण करके मैं विहार करूँ॥१५७॥ टी०-अथालन्दविधि क्या है, यह कहते हैं-परिणाम, सामर्थ्य, गुरुके द्वारा विसर्जन, प्रमाण, स्थापना, आचार मार्गणा और अथालन्दकमासकल्प यह क्रम है । जो मुनि शास्त्रज्ञ, करने Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना गृहितवलवीर्या, आत्मानं मनसा तुलयन्ति । किमथालन्दविधिरारभणीयोऽथवा प्रायोपगमनविधिरिति । परिहारस्यासमर्था अथालन्दविधिमुपगन्तुकामास्त्रयः, पञ्च, सप्त, नव वा ज्ञानदर्शनसंपन्नास्तीवसंवेगमापन्नाः, स्थविरमूलनिवासिनः, अवधृतात्मसामा विदितायुःस्थितयः स्थविरं विज्ञापयन्ति-भगवन् ! किमिच्छामोऽयालन्दकसंयमं प्रतिपत्तुमिति । तच्छ् त्वा स्थविरो वारयति धृत्या शरीरेण च दुर्बलान्परिणामातिशयविरहितांश्च कांश्चिदनुजानाति । समग्रगुणास्ते निसृष्टाः स्यविरेण प्रशस्तेऽवकाशे स्थिताः कृतलोचाः, गुरूणामालोचनां कृत्वा कृतव्रतारोपणा अचिरोदगते आदित्ये कल्पस्थितमेकं गणस्यालोचनां श्रोतु शुद्धि चैव कतू समद्यतं स्थापयन्ति । स एव प्रमाणं गणस्य । आत्मनः सहाया यावन्तो गणान्निर्गतास्तावन्त एव तत्स्थाने स्थापयितव्या गणे। आचारो निरूप्यते-अथालन्दसंयतानां लिङ्गं औत्सर्गिकं, देहस्योपकारार्थ आहारं वसति च गृह्णन्ति, शेषं सकलं त्यजन्ति । तुणपीठकटफलकादिकं उपधिं च न गृह्णन्ति । प्राणिसंयमपरिपालनार्थं जिनप्रतिरूपतासंपादनार्थ च गृहीतप्रतिलेखना ग्रामान्तरगमने विहारभूमिगमने, भिक्षाचर्यायां, निषद्यायां च अप्रतिलेखना एव व्युत्सृष्ट शरीरसंस्काराः परीषहान्सहन्ते नो वा धृतिबलहीनाः । अस्ति च मनोबलं संयममाचरितु इति मत्वा त्रयः पञ्च वा सह प्रवर्तन्ते । रोगेणाभिघातेन वा जाताया वेदनायाः प्रतिक्रियया वा यदा तपसातिश्रान्तास्तदा योग्य कार्यको कर चुकने वाले, परीषह और उपसर्गको जीतनेमें समर्थ तथा अपने बल और वीर्यनहीं छिपानेवाले होते हैं, वे अपनी तुलना मनमें करते हैं कि क्या अथालन्दविधि प्रारम्भ करें या प्रायोपगमन विधि ? जो परिहार विशुद्धिको धारण करने में असमर्थ हैं और अथालन्दविधिको स्वीकार करना चाहते हैं ऐसे पाँच, सात या नौ मुनि, जो ज्ञान और दर्शनसे सम्पन्न हैं, तीव्र वैराग्यसे सम्पन्न हैं, आचार्यके पादमूलमें रहते हैं, जिन्होंने अपनी सामर्थ्यका निर्णय कर लिया है और जिन्हें अपनी आयुकी स्थिति ज्ञात है वे आचार्यसे निवेदन करते हैं.-भगवन् ! हम अथालन्दक संयमको धारण करना चाहते हैं। यह सुनकर आचार्य जो धैर्य और शरीरसे दुर्बल हैं, जिनके परिणाम उन्नत नहीं हैं, उन्हें रोक देते हैं और कुछको अनुमति देते हैं । वे सम्पूर्ण गुणशाली गुरुके द्वारा छोड़ दिये जाने पर प्रशस्त स्थानमें लोच करते हैं। और गुरुके सन्मुख आलोचना करके व्रत धारण करते हैं। सूर्यका उदय होते ही कल्पस्थित मुनियोंमें से एकको जो गणको आलोचना सुनते और दोषोंकी शुद्धि करनेके लिए तत्पर होता है, स्थापित करते हैं । वही गणके लिए प्रमाण होता है अपने सहायक जितने मुनि गणसे निकले हैं, गणमें उनके स्थानमें उतने ही मुनि स्थापित करना चाहिए। अब अथालन्दकोंके आचारका निरूपण करते हैं-अथालन्दक मुनियोंके औत्सर्गिक लिंग (नग्नता) होता है । शरीरके उपकारके लिए आहार और वसति स्वीकार करते हैं । शेष सब छोड़ देते हैं। तृणोंका आसन, लकड़ीका तख्त आदि परिग्रह स्वीकार नहीं करते । प्राणि संयमको पालनेके लिए और जिनदेवका प्रतिरूप रखनेके लिए पीछी रखते हैं। अन्य ग्रामको जाने पर, विहार भूमिमें जाने पर, भिक्षाचर्या में और बैठते समय प्रतिलेखना नहीं करते। शरीरका संस्कार नहीं करते, परीषहोंको सहते हैं और धैर्यबलसे हीन नहीं होते। संयमका आचरण करनेके लिए हममें मनोबल है ऐसा मानकर तीन या पाँच मुनि एक साथ रहते हैं। रोगसे या चोट आदिसे १. राधनोयो-आ० मु० । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका सहायहस्तावलम्बनं कुर्वन्ति । वाचनादिकां च न कुर्वन्ति यामा'ष्टकेऽप्यनिद्रा एकचित्ता ध्याने यतन्ते । यदि बलादायाति निद्रा तत्राकृतप्रतिज्ञाः स्वाध्यायकालप्रतीक्षणादिकाश्च क्रियास्तेषां न सन्ति । श्मशानमध्येऽपि तेषां ध्यानमप्रतिषिद्ध आवश्यकेषु च प्रयतन्ते। उपकरणप्रतिलेखनां कालद्वयेऽपि कुर्वन्ति । सस्वामिकेषु देवकुलादिषु तदनुज्ञया वसन्ति । अज्ञायमानस्वामिकेषु यस्येदं सोऽनुज्ञां करोतु इत्यभिधाय वसन्ति । सहसातिचारे जाते अशुभपरिणामे वा मिथ्या मे दुष्कृतमिति निवर्तते । दशविधे समाचार प्रवर्तन्ते । दानं, ग्रहणं, अनुपालना, विनयः, सहभोजीनं च नास्ति संघेन तेषां: कारणमपेक्ष्य केषांचिदेक एव सल्लापः कार्यः। यत्र क्षेत्रे सधर्मा तत्क्षेत्रं न प्रविशन्ति । मौनावग्रहनिरताः पंथानं पृच्छन्ति, शंकितव्यं वा द्रव्यं शय्याधरगृहं वा ।. एवं तिस्र एव भाषाः । ग्रामाद्बहिरागंतुकागारे कल्पस्थितेनानुज्ञाते वसन्ति । पशुपक्षिप्रभृतिभिर्यत्र ध्याने विघ्नो भवति ततः स्थानादपयांति। को भवान्, कुत आयातः, क्व प्रस्थितः, कियत्कालं अत्र भवतो वसनं, कति ययमिति पुष्टाः श्रमणोऽहमित्येवं प्रतिवचनमेकं प्रयच्छन्ति, इतरत्र कुततूष्णीभावाः । अपसरातः स्थानादवकाशं में प्रयच्छ, परिपालय गृहं, इत्यादिको वाग्व्यापारो यत्रान्येषां भवति, तत्र न निवसन्ति । बहिरपि वसतः यदि भवति, ततोऽपयान्ति । स्वावासगृहे प्रज्वलिते न चलन्ति चलन्ति वा गोचर्यायामप्राप्तायां उत्पन्न हुई वेदनाका प्रतीकार नहीं करते । जब तपसे अत्यन्त थक जाते हैं तब सहायके रूपमें एक दूसरेका सहारा लेते हैं । वाचना आदि नहीं करते। आठों पहर भी नहीं सोते और एकाग्र होकर ध्यानमें प्रयत्न करते हैं। यदि अचानक निद्रा आ जाती है तो सो लेते हैं, नहीं सोनेकी प्रतिज्ञा उनके नहीं होती । स्वाध्यायके समय उनके प्रतिलेखना आदि क्रिया नहीं होती। स्मशानके मध्यमें भी वे ध्यान कर सकते हैं उसका उनके लिए निषेध नहीं है । और आवश्यकोंमें प्रयत्नशील रहते हैं । उपकरणोंकी प्रतिलेखना दोनों समय करते हैं। जिन देवकुलादिके स्वामी होते हैं उनमें उनकी आज्ञा लेकर ही निवास करते हैं। जिन मन्दिरों के स्वामीका पता नहीं होता उनमें 'जिनका यह है वह हमें स्वीकृति प्रदान करें' ऐसा कहकर निवास करते हैं। सहसा अतिचार लगने पर अथवा अशुभ परिणाम होने पर 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' ऐसा कहकर निवृत्त हो जाते हैं । दस प्रकारके समाचारका पालन करते हैं। संघके साथ उनका देन, लेन, अनुपालना, विनय और सहभोजन या वार्तालाप नहीं होता। आवश्यकता होने पर किसीसे एक ही व्यक्तिको बात करना चाहिए। जिस क्षेत्रमें साधर्मी मुनि हों, उस क्षेत्रमें वे नहीं जाते। मौनका नियम पालन करते हैं किन्तु, मार्ग या शंका युक्त द्रव्य और वसतिकाके स्वामीका घर पूछ लेते हैं । इस प्रकार तीन ही उनकी भाषा होती हैं । गाँवसे बाहर आने वालोंके लिए जो मकान होता है उसमें कल्पस्थित मुनिकी अनुज्ञा मिलने पर ठहरते हैं। जिस स्थानमें पशु-पक्षी आदिके द्वारा ध्यानमें विघ्न होता हो वहाँसे चले जाते हैं। कोई पूछे कि आप कौन हैं, कहाँसे आये हैं, कहाँ जाते हैं, कितने समय तक आप यहाँ रहेंगे ? तो 'मैं श्रमण हूं' इस प्रकार एक ही उत्तर देते हैं, शेष प्रश्नोंके संबंधमें चुप रहते हैं । 'यहाँसे जाओ, मुझे स्थान दो, घरको देखना, इत्यादि वचन व्यवहार जहाँ अन्य लोग करते हैं वहाँ निवास नहीं करते । घरके बाहर भी ठहरने पर यदि कोई ऐसा व्यवहार करता है तो वहाँसे भी चले जाते हैं। जिस घरमें वे रहते हैं उसमें आग लगने पर वहाँसे नहीं जाते १. यामाके अ० । यामाकष्टके-आ०। २. लनं-आ० मु०। ४. इतरेत्र आ० । इतरे कृत-मु०। ५. न चलन्ति वा-अ० । ३. सहजल्पनं-आ० मु० । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० भगवती आराधना तृतीयपौरुण्यां द्विगव्यतमध्वानं गच्छन्ति । यदि गमनव्याघातो महावातेन वर्षादिना जातः समतीतगमनकाल एव तिष्ठन्ति । व्याघ्रादिका, व्यालमृगा' वा पतन्ति ततोऽपसर्पन्ति न वा पादे कण्टकालग्ने, चक्षुषि रजःप्रवेशे वा, अपनयन्ति न वा । दृढधतिकाः मिथ्यात्वचर्याराधनामात्मविराधनामवस्थां दोषान्वा तस्मात्परिहरन्ति न वा । तृतीयपौरुष्यां भिक्षार्थमवतरन्ति । कृपणवनीपकपशुपक्षिगणे अपगते पञ्चमी पिण्डैषणां कुर्वन्ति मौनं च । एका, द्वे तिस्रश्चतस्रः पञ्च वा गोचर्यो यत्र क्षेत्र तत्रालन्दिकयोगं प्रवर्तयन्ति । यस्मात्पाणिपात्रभोजी मिथ्याराधनां न वर्जयति तस्माल्लेपमलेपं वा भक्त्वा तत्प्रक्षालयन्ति । धर्मोपदेशं कुरुतः प्रव्रज्यामिच्छामि भगवतां पादमले इत्युक्ताश्चापि न मनसापि वांछन्ति किं पुनर्वचसा कायेन । इतरे तत्सहाया धर्मोपदेशं कृत्वा मशिखं मुण्डितं वा गणाधिपतयेऽपयन्ति । क्षेत्रतः सप्ततिशतधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति । कालतः सर्वदा । चारित्रतः सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः । तीर्थतः सर्वतीर्थकृतां तीर्थेषु । जन्मनः त्रिंशद्वर्षजीविताः। श्रामण्येन एकोनविंशतिवर्षाः । श्रुतेन नवदशपूर्वधराः । वेदतः पुमांसो नपुंसकाश्च । लेश्यातः पद्मशुक्ललेश्याः । ध्यानेन धर्मध्यानाः । संस्थानतः षड्विधेष्वन्यतरसंस्थानाः देशोनसप्तहस्तादि यावत्पञ्चधनुःशतो याः । कालतो भिन्नमुहुर्तावूनपूर्वकोटिकाल अथवा जाते हैं। गोचरी नहीं मिलने पर तीसरे पहर में दो गव्यूति प्रमाण मार्ग चलते हैं। यदि प्रचण्ड वायु या वर्षी आदिसे गमनमें रुकावट आती है तो वहीं ठहर जाते हैं। व्याघ्र आदि अथवा सर्प मृग आदि आ जाते हैं तो वहाँसे हटते भी हैं और नहीं भी हटते । पैरमें काँटा लगने पर अथवा आँखमें धूल चली जाने पर उसे निकालते हैं, नहीं भी निकालते। 'दृढ़ धैर्यशाली वे मुनि मिथ्यात्वचर्याराधना और आत्मविराधना अवस्थाको अथवा दोषोंको दूर करते हैं अथवा नहीं करते (?) । तीसरे पहर भिक्षाके लिए निकलते हैं। कृपण, याचक, पशु-पक्षी गणके चले जाने पर पाँचवीं पिण्डैपणा करते है और मौन रखते हैं। जिस क्षेत्रमें एक, दो, तीन, चार अथवा पाँच गोचरी होती है उस क्षेत्रमें आलन्दिक योग करते हैं । यतः पाणिपात्रमें भोजन करने वाला मिथ्या आराधनाको नहीं छोडता. इसलिए वह लेप अथवा अलेपको खाकर उसका प्रक्षालन करते हैं ?' कोई आकर कहे कि धर्मोपदेश करो, मैं आपके चरणोंमें दीक्षा लेना चाहता हूँ तो ऐसा कहने पर भी वे मनसे भी उसकी चाहना नहीं करते, तब वचन और कायका तो कहना ही क्या? अन्य मुनि जो उनके सहायक होते हैं वे उन्हें धर्मोपदेश देकर शिखा सहित अथवा मुण्डन कराकर आचार्यको सौंप देते हैं। क्षेत्रको अपेक्षा एक सौ सत्तर कर्मभूमि रूप धर्मक्षेत्रोंमें ये आलन्दक मुनि होते हैं । कालकी अपेक्षा सर्वदा होते हैं। चारित्रकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्रमें होते हैं । तीर्थकी अपेक्षा सब तीर्थङ्करोंके तीर्थमें होते हैं । जन्मसे तीस वर्षतक गृहस्थाश्रममें रहकर उन्नीस वर्ष तक मुनि धर्मका पालन करते हैं, श्रुतसे नौ या दस पूर्वके धारी होते हैं । वेदसे पुरुष अथवा नपुंसक होते हैं ! लेश्यासे पद्म या शुक्ल लेश्यावाले होते हैं। ध्यानसे धर्मध्यानी होते हैं। संस्थानसे छह प्रकारके संस्थानोंमें से किसी एक संस्थान वाले होते हैं। कुछ कम सात हाथसे लेकर पाँचसी १. व्यालमृगाद्या यद्याप-आ० मु० । २. कुर्वतः तत्प्र-आ० । कुर्वन्त तत्प्र० मु० । ३. जीविनःआ० । ४. शतोत्सेधा-मु०। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २०१ स्थितयः । विक्रिया चारणताक्षीरास्रवित्वादयश्च तेषां जायन्ते । विरागतपा न सेवन्ते । गच्छविनिर्गतालन्दविधिरेष व्याख्यातः । . गच्छप्रतिबद्धालन्दकविधिरुच्यते--गच्छानिर्गच्छन्तो बहिः सक्रोशयोजने विहरन्ति । सपराक्रमो गणघरो ददाति क्षेत्राद् बहिर्गत्वार्थपदं । तेष्वपि समर्था आगत्य शिक्षा गह्णन्ति । एको द्वौ त्रयो वा परिज्ञानधारणा गुणसमग्रा गुरुसकाशमायान्ति । कृतप्रतिप्रश्नकार्याः स्वक्षेत्र भिक्षाग्रहणं कुर्वन्ति । अपराक्रमस्तु गणधरो गच्छे सूत्रार्थपौरुषीं कृत्वा अग्रोद्यानं गत्वा यत्नेन ददात्यर्थपदं । अथवा स्वोपाश्रय एव गणधरो अन्यापसारणं कृत्वा एकस्मै उपदिशति । यदि गच्छेत्क्षेत्रान्तरं गणः अथालन्दिका अपि गुर्वनुज्ञया यान्ति क्षेत्र । यदा गच्छनिवासिनः क्षेत्रप्रतिलेखनार्थ प्रयन्तते तदा सत्र मार्गेण द्वो अथालन्दिको याती। व्याख्यातोऽयमथालन्दविधिः । परिहार उच्यते-जिनकल्पस्यासमर्थाः परिहारसंयमभरं वोढुं समर्थाः आत्मनो बलं वीर्यमायुः प्रत्यवायांश्च ज्ञात्वा ततो जिनसकाशं उपगत्य कृतविनयाः प्राञ्जलयः पृच्छन्ति “परिहारसंयम प्रतिपत्तुमिच्छामो युष्माकमाज्ञया" इति तच्छ त्वा येषां ज्ञानम नुत्तरं उपजायते विघ्नो वा तान्निवारयति । निसृष्टास्तु यतीन्द्रण संयतानां कृतनिःशल्याः प्रशस्तमवकाशमुपगताः, लोचं कृत्वा सुनिश्चिता गुरूणां कृतालोचना व्रतानि सुविशुद्धानि कुर्वन्ति । परिहारसंयमाभिमुखानां मध्ये एक सूर्योदये स्थापयन्ति कल्पस्थितं गु त्वेन । सच धनुष ऊँचे होते हैं। कालसे एक अन्तर्महर्तसे लेकर कुछ कम पूर्वकोटिकी स्थितिवाले होते हैं अर्थात् अथालन्दक होनेके कालसे लेकर जघन्य आयु अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट आयु बीते वर्षोंसे हीन पूर्व कोटि प्रमाण होती है । उनको विक्रिया, चारण और क्षीरास्रवित्व आदि ऋद्धियाँ उत्पन्न होती हैं किन्तु रागका अभाव होनेसे उनका सेवन नहीं करते । यह गच्छसे निकले हुए आलन्दककी विधिका कथन है । अब गच्छसे प्रतिबद्ध आलन्दककी विधि कहते हैं-ये गच्छसे निकलकर बाहर एक योजन और एक कोस क्षेत्रमें विहार करते हैं। यदि आचार्य पराक्रमी होते हैं तो क्षेत्रसे बाहर जाकर उन्हें अर्थपद (शिक्षा) देते हैं। आलन्दकों में से भी जो समर्थ होते हैं वे आकर आचार्यसे शिक्षा ग्रहण करते हैं। परिज्ञान और धारणा गुणसे पूर्ण एक दो अथवा तीन अथालन्दक मुनि गुरुके पास आते हैं, और उनसे प्रश्नादि करके अपने क्षेत्रमें जाकर भिक्षा ग्रहण करते हैं । (?) यदि आचार्य शक्तिहीन होते हैं तो गच्छमें सूत्रार्थपौरुषी (?) करके... ................ । आगेके उद्यान में जाकर सावधानतापूर्वक अर्थपद देते हैं। अथवा अपने उपाश्रयमें ही अन्य शिष्योंको दूर करके एकको ही अर्थपद देते हैं। यदि गण अन्य क्षेत्रको जाता है तो अथालन्दक मुनि भी गुरुकी आज्ञासे उस क्षेत्रको जाते हैं। जब गच्छ निवासी मुनि क्षेत्रकी प्रतिलेखना करते हैं तब उस मार्गसे दो अथालन्दक जाते हैं। यह अथालन्दकी विधि कही । परिहारका कथन करते हैं-जो जिनकल्पको धारण करने में असमर्थ होते है और परिहार संयमके भारको वहन करने में समर्थ होते है वे अपना बल, वीर्य, आयु और विघ्नोंको जानकर जिन भागवान्के पास जाकर हाथ जोड़ विनयपूर्वक पूछते हैं हम आपकी आज्ञासे परिहार संयम धारण करना चाहते हैं। यह सुनकर जिनका ज्ञान उत्कृष्ट नहीं होता अथवा जिन्हें कोई बाधा होती हैं उनको रोक देते हैं। जिन्हें आज्ञा मिल जाती है वे मुनियोंके पास निःशल्य होकर प्रशस्त स्थानोंमें जाकर केशलोच करते हैं। फिर गुरुओंके सन्मुख आलोचना करके अपने व्रतोंको अच्छी तरह विशुद्ध करते हैं। परिहार संयम धारण करनेवालोंमेंसे एक कल्पस्थितको सूर्यका उदय Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ भगवती आराधना प्रमाणं तस्य । स चालोचनां श्रुत्वा शुद्धि करोति । कल्पस्थितमाचार्य मुक्त्वा शेषाणां मर्द्धा अग्रे परिहारसंयम गृह्णन्ति इति परिहारका भण्यन्ते । शेषास्तेषामनुपरिहारकाः। पश्चात्परिहारसंयमग्राहिणः अनुपरिहारका भण्यन्ते । एवं कल्पस्थिते सति ये पश्चात्परिहारसंयमार्थमात्मानमुपसृतास्तानपि स्वगणे प्रक्षिपति गणी। यावद्धिरूनो गणः तावत्प्रमाणं गणं कृत्वा परिहारकाननुपरहारिकांश्च व्यवस्थापयति । तेन परिहारसंयम निविशमाना अनुपरिहारकाश्च एको द्वौ बहवो वा भवन्ति । जदि तिण्णि, एगो गणी विदिओ परिहारसंयम पडिवण्णो, तदिओ अणुपरिहारगो। जदि पंच एको कप्पट्टिदो, दो परिहारसंजमं पडिवज्जति। तेसिमणपरिहारगा पत्तेगं । इतरे जदिसत्त एगो कप्पट्ठिदो, तिण्णि परिहारगा, इदरे तिण्णि अणुपरिहारगा। जदि णव एगो कप्पट्ठिदो, चत्तारि परिहारिगा, चत्तारि अणुपरिहारिगा। छहिं मासेहिं परिहारीणिविट्ठाणी हवंति । ततो पच्छा अणुपरिहारी परिहारं पवेदिदु । तेसि णिविट्ठपरिहारी हवंतेणुपरिहारगारे ते पुणो छहिं मासेहिं णिविट्ठाई भवन्ति । तु कप्पट्ठिदो पच्छा परिहार पवज्जदि । तस्सेगो अणुपरिहारी एगो कप्पट्ठिदो वि । असोविअ छहिं मासेहिं णिविट्ठपरिहारगो अट्ठारसमासा ते एवं होंति पमाणदो। होनेपर गुरुके रूपसे स्थापित करते हैं। उस गणके लिए वह प्रमाण होता है। वह आलोचना सुनकर उनकी शुद्धि करता है। कल्पस्थित आचार्यको छोड़कर शेषमेंसे आधे पहले परिहार संयमको ग्रहण करते हैं इसलिए उन्हें परिहारक कहते हैं। शेष उनके अनुपरिहारक होते हैं । जो पीछे परिहारसंयम ग्रहण करते है वे अनुपरिहारक कहे जाते हैं। इस प्रकार कल्पस्थित होनेपर जो पीछे परिहार संयमके लिए अपनेको उपस्थित करते हैं उन्हें भी गणी अपने गणमें मिला लेता हैं। जितने साधु गणमें कम हुए हैं उतने प्रमाण गणको करके परिहारकों और अनुपरिहारकोंको व्यवस्था गणी करता है। अतः परिहार संयममें प्रवेश करनेवाले अनुपरिहारक एक दो अथवा बहुत होते हैं। यदि तीन होते हैं तो उनमेंसे एक गणी, दूसरा परिहारसंयमका धारी और तीसरा अनुपरिहारक होता है। यदि पाँच होते हैं तो उनमें एक कल्पस्थित गणी, दो परिहारसंयमके धारी और उन दोनोंमें प्रत्येकका एक-एक अनुपरिहारक होता है। यदि सात होते हैं तो उनमें एक कल्पस्थित, तीन परिहारक और शेष तीन अनुपरिहारक होते हैं। यदि नौ हों तो एक कल्पस्थित, चार परिहारक और चार अनुपरिहारक होते हैं। छह महीने तक परिहार संयमी परिहारसंयममें निविष्ट होता है। उसके पश्चात् अनुपरिहारक परिहारसंयममें प्रविष्ट होता है । उनके भी निविष्ट परिहारक होनेपर अन्य अनुपरिहारक परिहार संयममें प्रविष्ट होते हैं। वे भी छह मासमें निविष्ट परिहारक हो जाते हैं। पीछे कल्पस्थित परिहारमें प्रविष्ट होता है। उसका एक अनुपरिहारक और एक कल्पस्थित होता है। वह भी छह मासमें निविष्टपरिहारक होता है । इस प्रकार प्रमाणसे अठारह मास होते हैं। विशेषार्थ-इसका खुलासा है कि परिहारविशुद्धि संयममें तीन मुनि धारण करनेवाले हों तो उनमेंसे एक कल्पस्थित होता है जो गणी कहाता है, दूसरा परिहारक होता है और तीसरा अनुपरिहारक है । संयममें प्रवेश करनेके छह मास बीतनेपर परिहारक निविष्ट हो जाता है तब अनुपरिहारक संयममें प्रवेश करता है । छह महीना बीतनेपर वह भी निविष्ट परिहारक हो जाता १. तस्य गणस्य-आ० मु०। ४. पडिव-मु०। २. णां अग्रे-अ०। ३. रगते आ० ।-रगे ते मु० । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २०३ लिङ्गादिकस्तेषामाचारो निरूप्यते-एकोपधिकं अवसानं लिङ्गं परिहारसंयतानां । वसतिमाहारं च मुक्त्वा नान्यद् गृह्णन्ति तृणफलकपीठकटकादिकं । संयमाथं प्रतिलेखनं गृह्णन्ति । त्यक्तदेहाश्च चतुर्विधानुपसर्गान्सहन्ते। दृढधृतयो निरन्तरं ध्यानावहितचित्ताः । अस्ति नो बलवीयं सर्वगुणसमग्रता च । एवंभूता अपि यदि गणे वसामो वीर्याचारो न प्रवर्तितः स्यादिति मत्वा त्रयः, पश्च, सप्त, नव वा निर्यान्ति । रोगेण वेदनयोपहताश्च तत्प्रतिकार' च न कुर्वन्ति । प्रायोग्यमाहारं मुक्त्वा, वाचनां प्रश्न परिवर्तनां मुक्त्वा सूत्रार्थपौरुषीष्वपि सूत्रार्थमेवानुप्रेक्षन्ते । एवं यामाष्टकेऽपि निरस्त निद्रा ध्यायन्ति । स्वाध्यायका क्रिया न सन्ति तेषां । यस्माच्छमशानमध्येऽपि ध्यानं न प्रतिषिद्धं । आवश्यकानि यथाकाल कुर्वन्ति । कालद्वये कृतोपकरणशोधना अनुज्ञाप्य देवकुलादिषु वसन्ति । अनियमानस्वामिकेषु यस्येदं सोऽनुज्ञानं नः करोतु इति वसन्ति । आसीधिकां च निषीधिकां च निष्क्रमणे प्रवेशे च संपादयन्ति । निर्देशक मुक्वा इतरे दविधे समाचारे वर्तन्ते । उपकरणादिदानं, ग्रहणं, अनुपालनं, विनयो, वन्दना सल्लापश्च न तेषामस्ति संघेन सह । गहस्थैरन्यलिङ्गिभिश्च दीयमानं योग्यं गृह्णन्ति । तैरपि न शेषोऽस्ति संभोगः । तेषां त्रयाणां, पञ्चानां, सप्तानां, नवानां च परस्परेणास्ति संभोगः । कप्पट्टिदो णुकप्पी भुजणसंघाडदाणगहणे वि । सवासवणालावणाहि भुजन्ति अण्णोणं ॥ है। तब कल्पस्थित परिहारसंयममें प्रवेश करता है। छह माह बीतनेपर वह भी परिहारमें निविष्ट होता है । इस प्रकार परिहारमें निविष्ट होनेमें तीन मुनियोंको अठारह मास लगते हैं। इसी तरह पाँच, सात और नौ का भी अठारह मास काल जानना । इनका कथन अन्यत्र नहीं मिला। परिहारसंयतोंका लिंगादिक आचार कहते हैं वसति और आहारके सिवाय अन्य तृणासन, लकड़ीका आसन, चटाई आदि ग्रहण नहीं करते । संयमके लिए पीछी ग्रहण करते हैं । शरीरसे ममत्व छोड़कर चार प्रकारके उपसर्गोको सहते हैं। दृढ धैर्यशाली तथा निरन्तर ध्यानमें चित्त लगाते हैं । 'हममें बलवीर्य और सब गणोंकी पूर्णता है। ऐसे होते हुए भी यदि हम संघमें रहते हैं तो वीर्याचारका पालन नहीं होता। ऐसा मानकर तीन, पाँच, सात अथवा नौ संयमी एक साथ निकलते हैं। रोग और वेदनासे पीड़ित होने पर उसका इलाज नहीं करते। वाचना, पूछना और परिवर्तनोंको छोड़कर सूत्रार्थ और पौरुषीमें सूत्रार्थका ही चिन्तन करते हैं । आठों पहर निद्रा त्यागकर ध्यान करते हैं। स्वाध्याय काल और प्रतिलेखना आदि क्रिया उनके नहीं होती; क्योंकि श्मशानमें भी उनके लिए ध्यानका निषेध नहीं है । यथासमय आवश्यक करते हैं। दोनों समय उपकरणोंका शोधन करते हैं। आज्ञा लेकर देवालय आदिमें रहते हैं। जिन देवालयों आदि स्थानोंके स्वामियोंका पता नहीं होता, 'जिसका यह है वह हमें स्वीकारता दें' ऐसा कहकर निवास करते हैं | निकलते और प्रवेश करते समय आसीधिका और निषीधिका क्रिया करते हैं । निर्देशकको छोड़कर शेष दस प्रकारके सामाचार करते हैं। उपकरण आदि देना, लेना, अनुपालन, विनय, वन्दना, वार्तालाप आदि व्यवहार उनका संघके साथ नहीं होता । गृहस्थ अथवा अन्य लिगियोंके द्वारा दी हुई योग्य वस्तुको ग्रहण करते हैं । उनके साथ भी शेष सम्बन्ध नहीं होता। उनमेंसे तीन, पाँच, सात अथवा नौ संयतोंका परस्परमें व्यवहार होता है। कल्पस्थित आचार्य और परिहारसंयमी परस्परमें संघाटदान संघाटग्रहण (सहायता देना १. कारकं च न अ०-कारकं कंचन-आ० । २. विशन्ति मु० । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना संवासवंदणीपाददाण अणुपालणाहि परिहारि । अणुपरिहारी भुंजवि निवसमाणो वंदणसंवासाला वर्णाहि ॥ कपट्टिदं भुजदि अणुपरिहारि पि गहणासंवासठाणाहि तु । णिविसमाणो णिश्विसमाणं संवासदो ण अणेण ॥ कपट्ठिदो भुजदि संवासणुपासण गिराहि । कपट्ठिदोणुकपीव वंदिदा वेति धम्मलाहोत्ति ॥ गारत्थि अण्णतित्थी अण्णतित्थो हि निव्विसंतो । 'पत्तमणीको सवो वि विषयं अष्णोष्णं गणं वादंति ॥ दट्ठूण व सोवण व जत्थ हु साधम्मिग्गो वसदि खेत्तो । तं ण पविसंति खेत्तं कुदो पुणो वंदनादीगं ॥ एवं कल्पोक्तः क्रमः सर्वोऽनुगन्तव्यः । मौनाभिग्रहरतास्तिस्रो भाषा मुक्त्वा प्रष्टव्याहृतिमनुज्ञाकरणीं प्रश्ने प्रवृत्तां च मार्गस्य शंकितस्य वा योग्यायोग्यत्वेन शय्याधरगृहस्य, वसतिस्वामिनो वा प्रश्नः । ग्रामाद्वहिः श्मशानं, शून्यगृहं, देवकुलं, गुहां वा आगन्तुकगृहं तरुकोटरं वा अनुज्ञापयन्त्येकवारं । कस्त्वं कुतो वागच्छसि, गमिष्यसि वा कं देशं, कियच्चिरमंत्र वसति कतिजना इति प्रश्ने श्रमणोऽहमित्येकमेव प्रतिबचनं प्रयच्छन्ति । इतरत्र तूष्णींभावः । इतोऽवकाशादपसर्पणं कुरु, स्थानमिदं प्रयच्छ, परिपालय त्वमित्येवमादिको वाग्व्यापारो यत्र तत्र न वसन्ति । गोचर्या यद्यपर्याप्ता तृतीययामे गव्यूतिद्वयं यान्ति । वर्षमहावातादिभिर्यदि व्याघातो गमनस्य अतीतगमनकालास्तत्र तिष्ठन्ति । व्याघ्रादिव्यालागमने यदि ते भद्रा युगमात्रं अपसर्पन्ति । दुष्टाश्चेत्पदमात्रमपि न चलन्ति । नेत्रयोसहायता लेना ), निवास, वन्दना, वार्तालाप आदि व्यवहार करते हैं । अनुपरिहार संयमी परिहारसंयम के साथ संवास, वन्दना, दान, अनुपालना आदिसे व्यवहार करते हैं । कल्पस्थित भी अनुपरिहारसंयमीके साथ व्यवहार करता है । वन्दना करनेपर धर्मलाभ कहता है । एक दूसरेको देखकर सब परस्पर में विनय करते हैं । जहाँ अधार्मिकजन बसते है वहाँ वे प्रवेश नहीं करते । इस प्रकार सब कल्पोक्त क्रम जानना चाहिए 1 ये तीन भाषाओंको छोड़ सदा मोनसे रहते हैं। वे तीन भाषाएँ हैं- पूछनेपर उत्तर देना, माँगना और स्वयं पूछना । मार्ग में शंका होनेपर मार्ग पूछना पड़ता है, ये उपकरणादि योग्य हैं या अयोग्य, यह पूछना होता है । शय्याधर, जो वसतिकासे सम्बद्ध होता है उसका घर पूछना होता है, वसतिका स्वामी कौन है यह पूछना होता है । गाँवसे बाहर स्मशान, शून्यघर, देवालय, गुफा, आनेवालोंके लिए बना घर अथवा वृक्षके खोलमें निवास करते समय 'हमें अनुज्ञा दें' ऐसा एकबार कहना होता है । 'तुम कौन हो, कहाँसे आते हो, कहाँ जाओगे, यहाँ कितने समय तक ठहरोगे, तुम कितने जन हो' इस प्रकारके प्रश्न होनेपर 'हम श्रमण हैं' यह एक ही उत्तर देते हैं । शेषमें चुप रहते हैं । 'इस स्थान से चले जाओ, यह स्थान हमें दो, जरा घर देखना इत्यादि वचन व्यवहार जहाँ होता है वहाँ नहीं ठहरते । गोचरी यदि नहीं मिलतो तो तीसरे पहर दो गव्यूति जाते हैं । यदि वर्षा, आँधी आदिसे गमनमें बाधा होती है तो जहाँतक गमन किया है वहीं ठहर जाते हैं । व्याघ्र आदि पशुओंके आनेपर यदि वे भद्र होते हैं तो मुनि चार हाथ चलते हैं और २०४ १. पत्तसुणीको - आ० मु० | ४. प्रश्ने प्रवर्तते वा मा-आ० । २. पसंसन्ति-आ० मु० 1 ३. कुदो हु गो-आ० मु० । ५. इन गाथाओंका यथार्थ भाव स्पस्ट नहीं हो सका है-अनुवादक । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २०५ धूलिप्रवेशे सकण्टकादिविद्धे वा स्वयं न निराकुर्वन्ति । परे यदि निराकुर्युस्तूष्णीमवतिष्ठन्ते । तृतीययाम एव नियोगतो भिक्षार्थं गच्छन्ति । यत्र क्षेत्रे षट्गोचर्या अपुनरुक्ता भवन्ति तत्क्षेत्रमावासप्रयोग्यं शेषमयोग्यमिति वर्जयन्ति । क्षेत्र, तीर्थ, कालश्चारित्रं, पर्यायं श्रुतं वेदः, लेश्या, ध्यानं, संहननं, संस्थानं, आयामो गात्रस्य, आयुः, लब्धयः, अतिशयज्ञानोत्पत्तिः, सिद्धिरित्येतेऽनियोगा इहानुगन्तव्याः । क्षेत्रतः भरतैरावतयोः, प्रथमपाश्चात्ययोः तीर्थे, उत्सर्पिणी - अवसर्पिण्योः कालतः, छेदोपस्थापनाप्रभवाश्चारित्रतः, प्रथमतीर्थकरकाले देशोनपूर्वकोटीकायकालः । विशतिवर्षाग्रः शतवर्षकालः पाश्चात्यतीर्थे । जन्मतस्त्रिशद्वर्षाः पर्यायतः एकोनविंशतिवर्षाः । श्रुतेन च दशपूर्विणः, वेदेन पुरुषवेदाः, लेश्यातस्तेजः पद्मशुक्ललेश्याः, धर्मध्यानपरा ध्यानतः, आद्यत्रिकसंहननाः षट्स्वन्यतरसंस्थानाः । सप्तहस्तादिपञ्चधनुः शतायताः अष्टादशमासाः पूर्वकोटी वा आयुः । चारणताहारसिद्धिः विक्रियाहारद्धिश्च लब्धयः । अवधिमनः पर्ययं केवलं वा योगसमाप्तौ प्राप्नुवन्ति । सिद्धयन्ति वा परेषां । संक्षेपतः परिहार विधिवर्णना । जिनकल्पो निरूप्यते - जितरागद्वेषमोहा, उपसर्गपरिषहारिवेगसहाः, जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पका एक एवेत्यतिशयो जिनकल्पिकानां । इतरो लिङ्गादिराचारः प्रायेण व्यावणितरूप एव । क्षेत्रादिभिर्निरूप्यते - सर्वधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति जिनकल्पिकाः । कालः सर्वदा । सामायिकच्छेदोपस्थापने वा यदि दुष्ट हुए तो एक पग भी नहीं चलते । नेत्रोंमें धूल चले जानेपर या काँटा आदि लग जानेपर स्वयं नहीं निकालते । यदि दूसरे निकालते हैं तो चुप रहते हैं । नियमसे तीसरे पहरमें ही भिक्षाके लिए जाते हैं । जिस क्षेत्रमें छह भिक्षाएँ अपुनरुक्त होती हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न घरोंसे मिल जाती हैं वह क्षेत्र निवासके योग्य होता है, शेष अयोग्य होता है उसे छोड़ देते हैं । क्षेत्र, तीर्थ, काल, चारित्र, पर्याय, श्रुत, वेद, लेश्या, ध्यान, संहनन, संस्थान, शरीरकी लम्बाई, आयु, लब्धि, अतिशय ज्ञानोत्पत्ति, सिद्धि ये अनुयोग यहाँ जानना चाहिए। क्षेत्रकी अपेक्षा भरत और ऐरावत क्षेत्रमें, प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थमें, कालकी अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमें, चारित्रकी अपेक्षा छेदोपस्थापना चारित्रसे उत्पन्न होते हैं । प्रथम तीर्थकरके कालमें उनकी आयु कुछ कम एक पूर्वकोटि और अन्तिम तीर्थंकरके कालमें एक सौ बीस वर्ष होती है । जन्मसे तीस वर्षतक भोग भोगते हैं और मुनिपर्याय उन्नीस वर्ष होती है । श्रुतसे दस पूर्व पाठी होते हैं । वेदसे पुरुषवेदी होते हैं । लेश्यासे तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले होते हैं । ध्यानसे धर्मध्यानी होते हैं । आदिके तीन संहननवाले होते हैं और छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान होता है । सात हाथसे लेकर पाँच सौ धनुष लम्बे होते हैं । परिहारसंयमके कालसे जघन्य आयु अठारह मास और उत्कृष्ट आयु परिहारसंयम होनेसे पूर्वके वर्षोंसे हीन एक पूर्वकोटी हाती है । चारण ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि और आहार ऋद्धियाँ होती हैं । परिहारविशुद्धिरूप योगके पूर्ण होनेपर अवधिज्ञान, मन:पर्यय वा केवलज्ञानको प्राप्त होते हैं । मोक्ष भी प्राप्त करते हैं । यह संक्षेपसे परिहारविशुद्धिका वर्णन है । अब जिनकल्पको कहते हैं - रागद्वेष मोहको जीतते है, उपसर्ग और परीषहरूपी शत्रुओंके वेगको सहते हैं । जिनके समान एकाकी ही विहार करते हैं इसलिए जिनकल्पिक होते हैं । यही जिनकल्पिकों की विशेषता है । शेष लिंगादि आचार प्रायः उक्त प्रकार ही है । 1 क्षेत्र आदिकी अपेक्षा कथन करते हैं - जिनकल्पी समस्त कर्मभूमियोंमें होते हैं । सर्वदा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भगवती आराधना चारित्रतः । सर्वतीर्थेषु तीर्थतः । जन्मना त्रिंशद्वर्षाः । श्रामण्यतः एकानविंशतिवर्षाः । नवदशपूर्वधारिणः । तेजःपद्मशुक्ललेश्याः । धर्मशुक्लध्यानाः । प्रथमसंहननाः, षट्स्वन्यतरसंस्थानाः । सप्तहस्तादिपञ्चधनुःशतायामाः । भिन्नमुहूर्तादिन्यूना पूर्वकोटिः कालः । विक्रियाहारकचारणताक्षीरास्रावित्वादिकाश्च तपसा लब्धयो जायन्ते । विरागास्तु न सेवन्ते । अवधिमनःपर्ययं केवलं वा प्राप्नुवन्ति केचित् । ये केवलिनस्ते नियमतः सिध्यन्ति ।।१५७॥ एवमथालन्दादिकं प्रतिपद्य चारित्रविधि मयोत्साहः कर्तव्यः इति विचारयति एवं विचारयित्ता सदिमाहप्पे य आउगे असदि । अणिमूहिंदबलविरिओ कुणदि मदिं भत्तवोसरणे ॥१५८|| _ 'एवं विचारयित्ता' एवमुक्तेन प्रकारेण । “विचारयित्ता' विचार्य । 'सदिमाहप्पे य' स्मृतिमाहात्म्ये च सति । 'आउगे असदि' आयुष्यसति दीर्घ । 'अणिगूहिदबलाविरिओ' असंवृतबलसहायं वीर्य आहारव्यायामाम्यां कृतं बलं । 'कुणई' करोति । 'मह' मति । 'भत्तवोसरणे' भज्यते सेव्यते इति भक्तं आहारः। तस्य त्यागं आहारेण समयसाधनेन शरीरस्थिति चिरं कृत्वा स्वपरोपकारः कृतः । आयुष्यल्पे न शरीरमवस्थातुमलमाहारग्रहणेऽपि । तेन त्याज्यो मयाहारः इति भावोऽस्य । अत एव सूत्रकारेणेदमुक्तं 'दोहो परियाओं' इति । अवशिष्टकालाल्पताख्यापनाय न केवलमायुषोऽल्पता एव भक्तत्यागमतेः कारणं, अपि तु अन्यदपीति ॥१५८॥ होते हैं । सामायिक अथवा छेदोपस्थापना चारित्रवाले है । सब तीर्थङ्करोंके तीर्थमें होते हैं । जन्मसे तीस वर्ष और मुनिपदसे उन्नीस वर्षके होते हैं। नव-दस पूर्वके धारी होते हैं। तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले होते हैं। धर्मध्यानी और शुक्लध्यानी होते हैं। प्रथम संहनन होता है और छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान होता है। सात हाथसे लेकर पांच सौ धनुष तक लम्बे होते हैं । अन्तमुहूर्त आदिसे न्यून एक पूर्वकोटिकाल होता है। तपसे विक्रिया, आहारक, चारण और क्षीरास्रवित्व आदि लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं किन्तु विरागी होनेसे उनका सेवन नहीं करते। कोई-कोई अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानको प्राप्त करते हैं। जो केवलज्ञानी होते हैं वे नियमसे मोक्ष जाते हैं ॥१५७॥ इस प्रकार अथालंदिक आदि चारित्रकी विधिको धारण करके मुझे उत्साह करना चाहिए, ऐसा विचार करते हैं गा०—उक्त प्रकारसे विचार करके स्मृतिका माहात्म्य होनेपर और आयुके अल्प होने पर अपने बल और वीर्यको न छिपाता हुआ मुनि भक्त प्रत्याख्यानमें मति करता है ॥१५८।। टी०-उक्त प्रकारसे विचार करके स्मृतिका माहात्म्य होने पर आयुके लम्बा न होने पर बल और वीर्यको न छिपाता हुआ भक्त प्रत्याख्यानमें मति करता है । आहार और व्यायामसे जो शारीरिक शक्ति होती है उसे बल कहते हैं । और बलका सहायक वीर्य होता है । 'भज्यते' अर्थात् जो सेवन किया जाता है उसे भक्त कहते है उसका अर्थ आहार है उसका त्याग भक्त प्रत्याख्यान है। आहारके द्वारा शरीरकी स्थितिको लम्बी करके अपना और परका उपकार किया। आयुके थोड़ा रह जाने पर आहार ग्रहण करने पर भी शरीर नहीं ठहरता। अतः मैं आहारका त्याग करता हूं यह इसका भाव है। इसीसे ग्रन्थकारने शेष बचे कालकी अल्पता बतलानेके लिए 'दीहो परियाओ' Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका पुव्वुत्ताणण्णदरे सल्लेहणकारणे समुप्पण्णे | तह चैव करिज्ज मदिं भतपइण्णाए णिच्छयदो ॥ १५९ ॥ 'पुवृत्ताणण्णवरे' पूर्वमुक्तानां 'वाहीव दुप्पसज्झा' इत्यादीनां मध्ये अन्यतरस्मिन् । 'सल्लेहणकारणे' सम्यक् कायकषायतनूकरणं सल्लेखना तस्याः कारणे वा । 'समुप्पण्णे' समुपस्थिते । 'तह चेव' तथैव च । यथाप. आयुषि करोति भक्तत्यागे मति तथैव णिच्छयवो भत्तपइण्णाए मदि करेज्ज' निश्चयतो भक्तप्रत्याख्याने मतिं कुर्यात् । एतद्गाथाद्वयं सूत्रकारवचनम् ॥१५९॥ आराधकस्य मनःप्रणिधानं प्रदर्शयति जाव य सुदी ण णस्सदि जाव य जोगा ण मे पराहीणा । जाय सड्ढा जायदि इंदियजोगा अपरिहीणा ॥ १६० ॥ २०७ 'जाव य सुई ण णस्सदि' यावत्स्मृतिर्न नश्यति । रत्नत्रयाराधनगोचरा अनुभूतविषयग्राहिणी तदित्थंभूतमिति प्रवर्तमाना स्मृतिरित्युच्यते मतिविज्ञानविकल्पः । वस्तुयाथात्म्यश्रद्धानं दर्शनं तद्याथात्म्यावगमो ज्ञानं, समता चारित्रमिति । श्रुतेनावगते परिणामत्रये यदुपजायते स्मार्तं ज्ञानं तदिह स्मृतिरित्युच्यते । स्मृतिमूलो व्यवहारः स्मृतौ नष्टायां न स्यादिति, स्मृतिसद्भावकाल एव प्रारभ्या मया सल्लेखनेति चिन्त्यम् । 'जाव य' कहा है । भक्त त्यागकी मति होनेका कारण केवल आयुका कम रह जाना ही नहीं हैं किन्तु अन्य भी कारण हैं ।। १५८ ॥ विशेषार्थ - स्मृति माहात्म्यसे आशय है - जिनागमके रहस्यका उपदेश सुननेसे जो उसका संस्कार रहा, उसके प्रभावसे 'मैं मरते समय अवश्य विधिपूर्वक सल्लेखना करूंगा' ऐसा जो विचार किया था, उसका स्मरण भी भक्त प्रत्याख्यानका कारण होता है । गा० ० - पहले कहे गये कारणों में से किसी एक सल्लेखना के कारणके उपस्थित होने पर उसी प्रकार निश्चयसे भक्त प्रत्याख्यानमें मति करे || १५९ ॥ टी० – पहले सल्लेखनाके जो कारण 'असाध्य बीमारी' आदि कहे हैं उनमें से किसी एक कारणके उपस्थित होने पर भी वैसे ही भक्त प्रत्याख्यानका विचार करना चाहिए जैसा आयुके अल्प रहने पर किया है ॥ १५९ ॥ आराधकके मनकी दृढ़ता बतलाते हैं गा०-- जब तक स्मृति नष्ट नहीं होती, जब तक मेरे आतापन आदि योग पराधीन नहीं होते, जब तक श्रद्धा रहतो है, इन्द्रियोंका अपने विषयोंसे सम्बन्ध हीन नहीं होता ॥ १६०॥ टी० - पहले अनुभव में आये विषयको ग्रहण करने वाली और 'वह वस्तु' इस प्रकार प्रवृत्ति वाली स्मृति होती है । यह मतिज्ञानका विकल्प है । यहाँ रत्नत्रयकी आराधना विषयक स्मृति ग्रहण की है । वस्तु यथार्थ स्वरूपके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं और उसके यथार्थ स्वरूपके जाननेको ज्ञान कहते हैं । तथा समताको चारित्र कहते हैं । श्रुतके द्वारा जाने गये रत्नत्रय रूप परिणाममें जो स्मृतिज्ञान होता है उसे यहाँ स्मृति कहा है । व्यवहारका मूल स्मृति है । स्मृतिके नष्ट होने पर व्यवहार नहीं होता । अतः स्मृतिके रहते हुए कालमें ही मुझे सल्लेखना प्रारम्भ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ भगवती आराधना यावच्च । 'जोगा' योगाः आतापनादयः । 'ण मे पराहीणा' न मे परायत्ताः शक्तिवैकल्यात । विचित्रेण तपसा निर्जरां विपुलां कर्तुकामस्य मम तपोऽतिचारे सा न भवतीति यावन्निरतिचारं इदं तपस्तावत्सल्लेखनां करोमीति कार्यां चिन्ता । 'जाव य सड्ढा जायदि' यावच्छ्रद्धा जायते रत्नत्रयमाराधयितुं । 'तावखमं मे काउमिति' वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । उपशमकालकरणलब्धयो हि दुर्लभाः प्राणिनां सुहृदो विद्वान्स इव । मूलं ताः श्रद्धायाः, न च विनष्टा सा पुनर्लभ्यते । न च तामन्तरेणातिशयवतामाहारत्यागेः सुखेन संपाद्यते । 'इंदियनोगा' इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां रूपादिभिविषयैः सम्वद्धा 'अपरिहोणा' होना न भवन्ति । दृक्श्रोत्रेन्द्रियाणामपाटवे दर्शनश्रवणाभ्यां परिहार्योऽसंयमः कथं परिह्रियते । दृष्ट्वा श्रुत्वा स इदमयोग्यमिति वेत्ति नान्यथा ।।१६०।। जाव य खेमसुभिक्खं आयरिया जाव णिज्जवणजोग्गा । अत्थि ति गारवरहिदा णाणचरणदंसणविसुद्धा ॥१६१॥ 'जाव य खेमसुभिक्खं' यावच्च क्षेमसुभिक्षं, स्वचक्रोपद्रवस्य व्याधेर्माश्चिाभावः क्षेम इत्युच्यते । प्रचुरधान्यता सुभिक्षत्वम् । एतदुभयमन्तरेण दुर्लभा निर्यापकाः, तानन्तरेण चतुष्काराधना । 'आयरिया जाव' आचार्या यावत् 'अत्थि' सन्ति । कीदग्भूता 'णिज्जवणजोगा' निर्यापकत्वयोग्याः । 'तिगारवरहिदा' गारवत्रयरहिताः ऋद्धिरससातगुरुकाः ये न भवन्ति । ऋद्धिप्रियो ह्यसंयतमपि जनं निर्यापकत्वेन स्थापयति । स्वयं च नासंयमभोरुर्भवति । असंयमकारणं अनुमननं च न परिहरतीति । रसासातगुरुको क्लेशासही आराध करनी चाहिए ऐसा विचार करे । जब तक मेरे आतापन आदि योग शक्तिकी कमीसे पराधीन नहीं होते । मैं अनेक प्रकारके तपसे बहुत निर्जरा करना चाहता हूँ किन्तु तपमें दोष लगने पर बहुत निर्जरा नहीं हो सकती । इसलिए जब तक तप निरतिचार है तब तक सल्लेखना कर लेना चाहिए, ऐसी चिन्ता करना उचित है । जब तक श्रद्धा रत्नत्रयकी आराधना करनेकी है 'तब तक मैं करने में समर्थ हूँ ऐसा आगे कहेंगे, उसके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए। जैसे विद्वान् मित्र दुर्लभ हैं वैसे ही प्राणियोंको उपशमलब्धि, काललब्धि और करणलब्धि दुर्लभ हैं। वे लब्धियाँ श्रद्धाका मूल हैं। एक बार उस श्रद्धाके नष्ट हो जाने पर उसका पूनः प्राप्त होना दुर्लभ है। श्रद्धाके बिना अतिशय शालियोंका भी आहारत्याग सुखपूर्वक सम्पन्न नहीं होता। चक्षु आदि इन्द्रियोंका रूपादि विषयोंके साथ सम्बन्धको इन्द्रिययोग कहते हैं। वे जब तक हीन नहीं होते, चक्षु और कर्ण इन्द्रियके अपने विषयको ग्रहण करने में असमर्थ होने पर देखने और सुननेसे दूर होने वाला असंयम कैसे दूर किया जा सकता है। देख और सुनकर 'यह अयोग्य है' ऐसा ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं होता ॥१६०।। . गा०-जब तक क्षेम और सुभिक्ष है, जब तक आचार्य निर्यापकत्वके योग्य तीन गारवोंसे रहित निर्मल ज्ञान चारित्र और दर्शनवाले हैं ॥१६॥ ___टो०-जब तक क्षेम और सुभिक्ष है । अपने देश और परदेशकी सेनाके उपद्रव और मारी रोगके अभावको क्षेम कहते हैं। और धान्यकी बहुतायतको सुभिक्ष कहते हैं। इन दोनोंके बिना निर्यापकोंका मिलना दुर्लभ है और उनके बिना चार प्रकारकी आराधना दुर्लभ है। तथा आचार्य निर्यापकत्वके योग्य जब तक हैं तथा ऋद्धिगारव, रसगारव और सातगारवसे जो रहित होते हैं। जो आचार्य ऋद्धिप्रिय होता है वह असंयमी जनको भी निर्यापक बना देता है। और स्वयं भी असंयमसे नहीं डरता। तथा ऐसो अनुमति, जो असंयममें कारण होती है, देनेका त्याग नहीं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका कस्य शरीरपरिकर्म कथं कुरुतः ? कि च स्वयं सरागो वैराग्यं परस्य संपादयत्येवेति न नियोगोऽस्ति । 'गाणचरणदंसण विसुद्धा' ज्ञानचारित्रदर्शनेषु विशुद्धाः निर्मलाः । जीवादियाथात्म्यगोचरता ज्ञानग्य शुद्धिः । दर्शनस्यापि समीचीनज्ञानसहभाविता, अरक्तद्विष्टता च चारित्रशुद्धिः । शुद्धज्ञानचरणदर्शनशुद्धाःचारित्रशुद्धा भण्यन्ते । यथा प्रकृष्टशुक्लगुणयोगाच्छुक्लतम इत्युच्यते पटादिः ॥१६१॥ ताव खमं मे कादं सरीरणिक्खेवणं विदुपसत्थं । समयपडायाहरणं भत्तपइण्णं णियमजण्णं ॥१६२।। 'ताव खमं मे काउं' तावद्युक्तं कत्तु मम । किं ? 'सरीरणिखेवणं' शरीरनिक्षेपणं शरीरत्यजनं । विदुपसत्थं विद्वज्जनस्तुतं आत्महितत्वात् । 'समयपडागाहरणं' समयः सिद्धान्तः, तस्मिन् कीर्तिता पताका आराधना पताकेव पताका उपमार्थः । यथा पताका वस्त्रादिरचिता जयादिकं प्रकटयति । एवमियं आराधनापि भवनिर्मुक्ति प्रकटयति । तस्या हरणं ग्रहणं । 'भत्तपइण्णं' भक्तप्रत्याख्यानं 'नियमजण्णं' व्रतयज्ञं । ननु शरीरत्यागोऽन्यः, अन्या ज्ञान-श्रद्धान-तपःसु परिणतिरन्यद् भक्तत्यजनं, अन्यानि च व्रतानि तत्कथं समानाधिकरणनिर्देशः ? अत्रोच्यते-प्रत्येकमभिसम्बन्धः कार्यः । 'ताव खमं मे काउं' इत्यनेन शरीरनिक्खेवणं इत्यादीनां । ततोऽयमर्थः-शरीरत्यजनं, सम्यग्दर्शनादिपरिणमनं, भक्तप्रत्याख्यानं, व्रतयज्ञश्च तावत्क मम युक्तमिति ॥१६२॥ करता । जो आचार्य रसप्रेमी और सुख प्रेमी हैं वे सल्लेखना करनेवाले आराधकके शरीरकी सेवा कैसे करेंगे ? दूसरे, जो स्वयं सरागी है वह दूसरेको वैराग्य उत्पन्न कराता ही ऐसा कोई नियम नहीं है । तथा आचार्य ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें विशुद्ध होना चाहिए । जीवादिके यथार्थ स्वरूपको जानना ज्ञानको शुद्धि है। समीचीन ज्ञानका सहभावी होना दर्शनकी शुद्धि है। और राग-द्वेषका न होना चारित्रकी शुद्धि है । जिनका ज्ञान दर्शन चारित्र शुद्ध होता है वे शुद्ध ज्ञान दर्शन चारित्र वाले कहे जाते हैं। जैसे उत्कृष्ट शुक्ल गुणके सम्बन्धसे वस्त्र आदि ‘शुक्लतम'अत्यन्त सफेद कहे जाते हैं ।।१६१॥ ___ गा०-तब तक मुझे शरीरका त्याग, विद्वानोंसे स्तुत, आगममें कही गई आराधना रूपी पताकाका ग्रहण, व्रत यज्ञ तथा भक्त प्रत्याख्यान करना युक्त है ।।१६२।।। टी०-भक्त प्रत्याख्यान तब तक मुझे करना उचित है, यह पूर्व गाथाओंसे सम्बद्ध है । यह भक्त प्रत्याख्यान शरीरके त्यागरूप है क्योंकि शरीरको त्यागनेके लिए ही किया जाता हैं । विद्वानोंसे प्रशंसनीय है क्योंकि आत्माके हित रूप है। तथा समय अर्थात् सिद्धान्तमें आराधनाको पताका कहा है । जैसे वस्त्रादिसे बनी पताका जयको प्रकट करती है वैसे ही यह आराधना भी संसारसे निर्मुक्तिको प्रकट करती है । भक्त प्रत्याख्यान उस पताको ग्रहण करने रूप है। शंका-शरीरका त्याग अन्य है, ज्ञान श्रद्धान और तप करना अन्य है, भोजनका त्याग अन्य है और व्रत अन्य हैं । ये सब भिन्न हैं तब कैसे इनका समानाधिकरण रूपसे निर्देश किया है ? समाधान-'तब तक मुझे करना युक्त है । इसके साथ शरीर त्याग आदि प्रत्येकका सम्बन्ध करना चाहिए । तव ऐसा अर्थ होता है-शरीरका त्याग, सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणमन, भक्त प्रत्याख्यान और व्रतयज्ञ मुझे तब तक करना युक्त है ।।१६२।। २७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० भगवती आराधना व्यावणितस्य परिणामस्य गुणमाहात्म्यकथनायोत्तरगाथा एवं सदिपरिणामो जस्स दढो होंदि णिच्छिदमदिस्स । तिव्वा वेदणाए वोच्छिज्जदि जीविदासा से || १६३ ॥ एवं सदिपरिणामो' व्यावणितस्मृतिपरिणामो यः " स्मार्तज्ञानमेव परिणाम: । 'जस्स दढो होज्ज' 'यस्य तैर्दृढो भवेत् । 'णिच्छियमविस्स' निश्चित मतेः । करिष्याम्येव शरीरनिक्ष ेपणं इति कृतनिश्चयस्य । 'जीविदासा वोच्छिज्जइ' जीविते आशा व्युच्छिद्यते । 'तिब्वाए वेदणाएं' तीव्रायामपि वेदनायामुदीर्णायां । एतत्प्रतीकारं कृत्वा जीवामीति चिन्ता न भवति । 'से' तस्येति जीविताशाव्युच्छेदो गुणः सूचितः । परिणामं गदं ॥ १६३ ॥ 'उवधि जहणा' इति पदं व्याचष्टे प्रबन्धेन संजमसाधणमेतं उवधिं मोत्तूण सेसयं उवधिं । पजहदि विसुद्धलेस्सो साधू मुतिं गवेसंतो || १६४॥ 'संजमसाहणमेत्तं' - संयमः साध्यते येनोपकरणेन तावन्मात्रं कमण्डलुपिच्छमात्रं । 'उवधि' परिग्रहं 'मोत्तूण' मुक्त्वा । 'सेसयं' अवशिष्ट' । 'उर्वाध' अवशिष्ट उपधिर्नाम पिच्छान्तरं कमण्डल्वन्तरं वा तदानीं संयमसिद्धो न कारणमिति संयमसाधनं न भवति । येन सांप्रतं संयमः साध्यते तदेव संयमसाधनं अथवा ज्ञानोपकरणं अवशिष्टोपधिरुच्यते ! 'पजहद्द' प्रकर्षेण योगत्रयेण त्यजति । 'विसुद्धलेस्सो' विशुद्धलेश्यः । 'साहू' साधुः । 'मुक्ति' मुक्ति कर्मणामपायं । 'गवेसंतो' मृगयन् । लोभकषायेणाननुरंजिता योगवृत्तिरिह विशुद्धलेश्या ऊपर कहे परिणामके गुणोंका माहात्म्य कहनेके लिए गाथा कहते हैं गा० - ऊपर कहा स्मृति परिणाम 'मैं शरीरत्याग करूँगा ही' ऐसा निश्चय करनेवालेके दृढ़ होता है । उसके तीव्र वेदना होनेपर जीवनकी आशा नष्ट हो जाती है || १६३ || टी० - 'मैं शरीरका त्याग करूँगा ही' ऐसा जो दृढ़ निश्चय कर लेता है तीव्र भी वेदनाक होने पर मैं उसका प्रतीकार करके जीवित रहूँ ऐसी चिन्ता उसे नहीं होती । अतः 'जीवनकी आशाका विनाश' उसका गुण सूचित किया है ॥ १६३ ॥ 'उवधिजहण' अर्थात् परिग्रहत्यागका विस्तारसे कथन करते हैं गा० - मुक्तिको खोजनेवाला विशुद्ध लेश्यासे युक्त साधु संयमके साधनमात्र परिग्रहको छोड़कर शेष परिग्रहको प्रकर्षं अर्थात् मन-वचन-कायसे त्याग देता है ॥१६४॥ o टो० -- जिस उपकरणसे संयमकी साधना की जाती है वह उपकरण कमण्डलु और पीछीमात्र है । उनको छोड़कर जो शेष परिग्रह है- दूसरी पीछी दूसरा कमण्डलु, वह उस समय संयमकी सिद्धि में कारण न होनेसे संयमका साधन नहीं है । जिससे वर्तमान में संयमकी साधना होती है वही संयमका साधन है । अथवा शेष परिग्रह में ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदि कहे हैं क्योंकि समाधिके समय उनका उपयोग नहीं रहता । मुक्ति अर्थात् कर्मोंका विनाश करनेका इच्छुक साधु पीछी कमण्डलुमात्र परिग्रहके सिवाय शेष परिग्रहको मन-वचन-कायसे छोड़ता है । वह साधु विशुद्धलेश्यासे युक्त होता है । यहाँ लोभकषायसे अननुरंजित ( नहीं रंगी हुई अर्थात् लोभरहित ) १. यस्मात्तज्ज्ञा-आ० मु० २. यस्य स्मृतैर्दृ- -आ० मु० । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २११ गृहीता। सा हि परिग्रहत्यागे प्रवर्तयत्यात्मानमिति ।।१६४।। वसत्यादिकं तहि त्याज्यतया नोपदिष्टमिति आशङ्किते इति तत्त्यागमुपदिशति अप्पपरियम्म उवधिं बहुपरियम्मं च दोवि वज्जेइ । सेज्जा संथारादी उस्सग्गपदं गवेसंतो ॥१६५।। 'अप्पपरियम्म उवधि' अल्पपरिकर्म निरीक्षणप्रमार्जनविधूननादिकं यस्मिन्तं परिग्रहं । 'बहु' महत् परिकर्म यत्र तं च । 'दो वि' द्वावपि 'वज्जेदि' वर्जयति मनोवाक्कायैः । 'सेज्जासंथारादी' वसतिसंस्तरादिकं । 'उस्सग्गपदं' उत्सर्जनं त्यागः तदेव पदं । परिग्रहत्यागपदान्वेषणकारीति यावत् । गाथाद्वयेनातिक्रान्तेन द्रव्योपधित्यागो व्याख्यातः । इयता परिसमाप्तः परिग्रहत्यागः ।।१६५।। पंचविहं जे सुद्धिं अपाविदूण मरणमुवण मन्ति । पंचविहं च विवेगं ते खु समाधि ण पावन्ति ।।१६६।। ‘पचंविहं जे सुद्धि' इत्यादिना कि प्रतिपाद्यते पूर्वमसूचितमिति । अत्रोच्यते-योग्योपादनमेवायोग्यत्यागस्तत्परिहार इत्युपधित्याग एवाख्यायते उत्तरग्रन्थेनापि । 'पंचविहं' पञ्चप्रकारां । 'सुद्धि' शुद्धि । 'अपाविदूण' अप्राप्य । 'जे' ये । 'मरणं' मृति । 'उवणमंति' प्राप्नुवन्ति । 'पंचविहं' पञ्चविधं च 'विवेगं' विवेकं, 'परिहरणं' पृथग्भावं, अप्राप्य मृतिमुपयान्ति । खु शब्द एवकारार्थः । स च क्रियापदात्परतो योज्यः । मन-वचन-कायकी वृत्तिको विशुद्धलेश्या कहा है; क्योंकि वह जीवको परिग्रहके त्यागमें प्रवृत्त करती है ॥१६॥ ___यहाँ कोई शंका करता है कि वसति आदिको तो त्याज्य नहीं कहा ? इससे उसके त्यागका उपदेश करते हैं गा०—परिग्रहत्याग पदका अन्वेषण करनेवाला साधु अल्पपरिकर्मवाले और बहुत परिकर्मवाले दोनों ही प्रकारके परिग्रहोंको जिनमें वसति संस्तर आदि भी हैं, मन-वचन-कायसे त्याग देता है ॥१६५।। टो०-जिसमें देखना, साफ करना, झाड़ना आदि कम करना होता है वह परिग्रह अल्पपरिकर्मवाला होता है। और जिसमें यह बहुत करना होता है वह बहुत परिकर्मवाला है। परिग्रहत्यागपदका खोजी साधु दोनोंको ही मन-वचन-कायसे त्यागता है । अतः वसति संस्तर आदि भी त्याग देता है । इन दो गाथाओंसे द्रव्यपरिग्रहके त्यागका कथन किया । यहाँ तक परिग्रहत्यागका प्रकरण समाप्त होता है ।।१६५।। - गा०-जो पाँच प्रकारकी शुद्धियोंको और पाँच प्रकारके विवेकको प्राप्त किये विना मरणको प्राप्त होते हैं, वे समाधिको नहीं ही प्राप्त होते हैं ।।१६६।। ट्रो०-शंका-'पञ्चविहं जे सुद्धि' इत्यादिके द्वारा पहले सूचित किये विना क्या कह __समाधान-योग्यका ग्रहण ही अयोग्यका त्याग है । अतः आगेके ग्रन्थसे भी परिग्रहका त्याग ही कहा है। जो पाँच प्रकारकी शुद्धि और पाँच प्रकारके विवेक अर्थात् भिन्नपनेको प्राप्त किये विना मरते हैं वे समाधिको प्राप्त नहीं ही होते । गाथामें आये 'खु' शब्दका अर्थ 'ही' है और Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भगवती आराधना समाधि न प्राप्नुवन्त्येवेति । उपधिपरित्यागाभावे अभिमतसमाध्यभावो दोष आख्यातः ॥१६६।। पंचविहं जे सुद्धिं पत्ता णिखिलेण णिच्छिदमदीया । पंचविहं च विवेगं ते हु समाधि परमुवेंति ॥१६७।। के समाधि प्राप्नुवंतीत्यत्र आह-पंचविहं' पञ्चविधा, 'जे सुद्धि पत्ता' ये शुद्धि प्राप्ताः । 'णिखिलेण' साकल्येन । "णिच्छियमईगा' निश्चितमतयः । “पंचविहं' पञ्चविधं च 'विवेगं' विवेक 'ते हैं समाहिं परमति' ते स्फुटं समाधि परमुपयान्ति ॥१६७॥ का एषा पंचविधा शुद्धिरित्याह आलोयणाए सेज्जासंथारुवहीण भत्तपाणस्स । वेज्जावच्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ ।।१६८।। 'आलोयणाए' आलोचनायाः शुद्धिः, शय्यासंस्तरयोः शुद्धिः, उपकरणशुद्धिः, भक्तपानशुद्धिः, वैयावृत्त्यकरणशुद्धिरिति पञ्चविधा । मायामृषारहितता आलोचनाशुद्धिः । मनोगतवक्रता माया। व्यलीकता चासौ मृषा । मायाकषायः स चाभ्यन्तरपरिग्रहः 'चत्तारि तह कसाया' इति वचनात् । मृषा कथं परिग्रहः इति चेत् उपधीयते अनेनेत्युपधिरिति शब्दव्युत्पत्ती उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यलीकेनेत्युपधिरित्युच्यते । यत्र यस्यादरः कर्महेतो तत्सर्वमुपधिरेवेति भावः । उद्गमोत्पादनैषणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च वसतिसंस्तरयोः शुद्धिस्तामुपगतेन उद्गमादिदोषोहतयोर्वसतिसंस्तरयोस्त्यागः कृत इति भवत्युपधिउसे क्रियापद 'पावेंति' के परे लगाना चाहिए। परिग्रहत्यागके अभावमें इष्ट समाधिका अभाव नामक दोष कहा है ॥१६६।। गा०—पूर्णरूपसे निश्चित मति वाले जो पाँच प्रकारकी शुद्धिको और पाँच प्रकारके विवेक को प्राप्त हुए हैं, वे निश्चयसे परम समाधिको प्राप्त होते हैं ॥१६७।। टो०-कौन समाधि प्राप्त करते हैं यह इस गाथामें कहा है ।।१६७।। पाँच प्रकारकी शुद्धि कहते हैं गा०-आलोचना की शुद्धि, शय्याकी, संस्तरकी और परिग्रहकी शुद्धि, भक्तपानकी शुद्धि और वैयावृत्य करने वालोंकी शुद्धि, निश्चयसे शुद्धि पाँच प्रकारकी होती है ।।१६८|| टो०-माया और मृषासे रहित होना आलोचनाकी शुद्धि है । मनमें कुटिलताका होना माया है । असत्य भाषणको मृषा कहते हैं । माया कषाय है और वह अभ्यन्तर परिग्रह है। 'चार कषाय हैं' ऐसा आगमका वचन है। शङ्का-मृषा कैसे परिग्रह है ? समाधान-'उपधीयतेऽनेनेत्युपधिः' इस शब्द व्युत्पत्तिके करने पर 'अनेन' अर्थात् असत्य भाषणके द्वारा 'उपधीयते' कर्मका ग्रहण होता है अतः मृषा उपधि है । जिस कर्मके हेतुमें जिसका आदर है वह सब उपधि ही है यह कहनेका अभिप्राय है। उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित होना तथा 'यह मेरा है' इस प्रकार परिग्रहका भाव न होना वसति और संस्तरकी शुद्धि है। उस शुद्धिको जिसने स्वीकार किया उसने उद्गम Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका त्यागः । उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्यां सत्यां उद्गमादिदोषदुष्टानां असंयमसाधनानां ममेदं भावमूलानां परिग्रहाणां त्यागोऽस्त्येव । संयतव्यावृत्त्यक्रमज्ञता वैयावृत्यकारिशुद्धिः सत्यां तस्यां असंयता अक्रमज्ञाश्च' न मम वैयावृत्त्यकरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवन्ति ॥ १६८ ॥ अह्वा दंसणणाणचरित्तसुद्धी य विणयसुद्धी य । आवाससुद्धी व पंच वियप्पा हवदि सुद्धी ||१६९ || 1 'अहवा' अथवा 'दंसणणाणचरित्तसुद्धो य, विनयसुद्धी य, आवासयसुद्धी वि य' आवश्यक शुद्धिश्चेति 'पंचवियप्पा' पञ्चविकल्पा 'हवइ सुद्धी' भवति शुद्धिः । निःशङ्कितत्वादिगुणपरिणतिर्दर्शनशुद्धिः तस्यां सत्यां शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सादीनां अशुभपरिणामानां परिग्रहाणां त्यागो भवति । काले पठनमित्यादिका ज्ञानशुद्धिः अस्यां सत्यां अकालपठनाद्याः क्रिया ज्ञानावरणमूलाः परित्यक्ता भवन्ति । पञ्चविंशतिभावनाश्चारित्रशुद्धिः । सत्यां तस्यां अनिगृहीतमनः प्रचारादिरशुभपरिणामोऽभ्यन्तरपरिग्रहस्त्यक्तो भवति । दृष्टफलानपेक्षिता विनयशुद्धिः । तस्यां सत्यामुपकरणादिलाभलोभो निरस्तो भवति । मनसावद्ययोगनिवृत्तिः जिनगुणानुरागः वन्द्यमानश्रुतादिगुणानुवृत्तिः कृतापराधविषया निन्दा, मनसा प्रत्याख्यानं, शरीरासारतानुपकारित्वभावना, चेत्यावश्यक शुद्धिरस्यां सत्यां अशुभयोगो जिनगुणाननुरागः श्रुतादिमाहात्म्येऽनादरः, अपराधाजुगुप्सा, अप्रत्याख्यानं, शरीरममता चेत्यमी भावदोषाः परिग्रहा निराकृता भवन्ति ॥ १६९ ॥ २१३ आदि दोषोंसे दूषित वसति और संस्तरका त्याग कर दिया इस प्रकार उपधित्याग होता है । उपकरण आदि की भी शुद्धि उद्गम आदि दोषोंसे रहित होना हैं । उसके होने पर उद्गम आदि दोषोंसे दूषित, असंयमके साधन और 'यह मेरा है' इस भावके मूलकारण परिग्रहों का त्याग है ही । संयमी होना और वैयावृत्यके क्रमका ज्ञाता होना वैयावृत्यकारीकी शुद्धि है । उसके होने पर असंयमी और क्रमको न जानने वाले मेरे वैयावृत्य करने वाले नहीं हैं ऐसा स्वीकार करने पर उनका त्याग होता है ॥ १६८ ॥ गा० – अथवा दर्शन शुद्धि, ज्ञान शुद्धि, चारित्र शुद्धि, विनय शुद्धि और आवश्यक शुद्धि इस प्रकार शुद्धिके पाँच भेद होते हैं || १६९ || 0. टी० - निःशंकित आदि गुणोंका धारण करना दर्शन शुद्धि है । उसके होने पर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि अशुभ परिणाम रूप परिग्रहोंका त्याग होता है । 'कालमें पढ़ना' आदि ज्ञान शुद्धि है । उसके होने पर अकाल पठन आदि क्रिया, जो ज्ञानावरणके बन्धकी कारण हैं, त्याग होता है । पच्चीस भावनाएँ चारित्र शुद्धि है । उसके होने पर मनकी चंचलताको न रोकना आदि अशुभ परिणाम, जो अभ्यन्तर परिग्रह हैं उनका त्याग होता है । दृष्ट फलकी अपेक्षा न करके विनय करना विनय शुद्धि है । उसके होने पर उपकरण आदिके लाभका लोभ दूर होता है । सावद्य योगका त्याग, जिन देवके गुणोंमें अनुराग, नमस्कार करनेके योग्य श्रुत आदि के गुणों का पालन करना, किये हुए अपराधकी निन्दा, मनसे प्रत्याख्यान करना, शरीरकी असारता और उसके अनुपकारीपनेका चिन्तन, ये आवश्यक शुद्धि है । उसके होने पर अशुभ योग, जिन देवके गुणों में अनुरागका अभाव, श्रुत आदिके महात्म्यमें अनादर, अपराधके प्रति ग्लानिका न होना, प्रत्याख्यानका न होना, और शरीर से ममता, ये दोष परिग्रह है, इनका निरास होता १. श्च मम-आ० । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ भगवती आराधना पञ्चविधविवेकप्रख्यापनायोद्यता गाथा इंदियकसायउवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स । एस विवेगो भणिदो पंचविधो दव्वभावगदो ।।१७०।। 'इंदियकसाय' इति । इन्द्रियविवेकः, कषायबिवेकः, भक्तपान विवेकः, उपधिविवेकः, देहविवेकः इति एष विवेकः पञ्चप्रकारो निरूपितः पूर्वागमेषु । स पुनः पञ्च प्रकारोऽपि द्विविधः । द्रव्यकृतो भावकृत इति । रूपादिविषयेषु चक्षरादीनामादरेण कोपेन वा अप्रवर्तनं । इदं पश्यामि शृणोमीति वा । तथा तस्या निविडकुचतट पश्यामि, नितम्बरोमराजि वा विलोकयामि, पथुतरं जघनं स्पृशामि, कलं गीतं सावधानं शृणोमि, मुखकमलपरिमलं जिघ्रामि, बिम्बाधरं समास्वादयामि इति वचनानुच्चारणं वा द्रव्यत इन्द्रियविवेकः । भावत इन्द्रियविवेको नाम जातेऽपि विषयविषयिसम्बन्धे रूपादिगोचरस्य विज्ञानस्य भावेन्द्रियाभिधानस्य रागकोपाभ्यां विवेचनं, रागकोपसहचारिरूपादिविषयमानसज्ञानापरिणतिर्वा । द्रव्यतः कपायविवेको नाम कायेन वाचा चेति द्विविधः । भ्रूलतासङ्कोचनं, पाटलेक्षणता, अधरावमईनं, शस्त्रनिकटीकरण, इत्यादिकायव्यापाराकरणं । हन्मि, ताडयामि, शूलमारोपयामि इत्यादिवचनाप्रयोगश्च परपरिभवादिनिमित्तचित्तकलङ्काभावो भावतः क्रोधविवेकः । तथा मानकषायविवेकोऽपि वाक्कायाभ्यां द्विविधः । गात्राणां स्तब्धताकरणं, शिरस उन्नमनं, उच्चासनारोहणादिकं च यन्मानसूचनपरं तस्य कायव्यापारस्याकरणं । मत्तः को वा श्रुतपारगः सुचरितः सुतपोधनश्चेति वचनाप्रयोगश्च । एवमेवतेभ्योऽहं प्रकृष्ट इति मनसाहकारवर्जनं भावतो है ।।१६९॥ पाँच प्रकारके विवेकका कथन करते हैं गा०-इन्द्रिय विवेक, कषाय विवेक, उपधिविवेक, भक्तपान विवेक और देहका विवेक इस प्रकार यह विवेक पाँच प्रकारका पूर्वागम में कहा है। तथा यह पाँच प्रकारका विवेक द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकार है ॥१७०॥ टी-रूप आदि विषयोंमें चक्षु आदि इन्द्रियोंका आदर भावसे या क्रोधवश प्रवृत्ति न करना, यह देखता हुँ, अथवा यह सुनता हूँ, उसके घने स्तनोंको देखता हूं, अथवा नितम्ब और रोमपंक्तिको देखता हूँ, स्थूल जघनको स्पर्श करता हूँ, मनोहर गीत सावधानता पूर्वक सुनता हूँ, मुख रूपी कमलकी सुगन्ध सूघता हूँ, ओष्ठका रसपान करता हूँ, इत्यादि वचनोंका उच्चारण न करना द्रव्य इन्द्रिय विवेक है । विषय और विषयी अर्थात् पदार्थ और इन्द्रियका सम्बन्ध होने पर भी रूपादिका जो ज्ञान होता है जिसे भावेन्द्रिय कहते हैं, उस ज्ञानके होने पर भी राग द्वेष न करना अथवा राग द्वषके सहचारी रूपादि विषय रूपसे मानसज्ञानका परिणत न होना भाव इन्द्रिय विवेक है। द्रव्य कषाय विवेक के दो भेद हैं शरीरसे और वचन से । भौंको संकोचना, आँखोंका लाल होना, ओठ काटना, शस्त्र उठाना इत्यादि काय व्यापारका न करना काय द्रव्य कषाय विवेक है । मारता हूँ, ताड़न करता हूँ, सूली पर चढ़ाता हूँ इत्यादि वचन न बोलना वचन क्रोध कषाय विवेक है। दूसरे के द्वारा किये गये तिरस्कार आदिके निमित्तसे चित्तमें मलिनताका न होना भावसे क्रोध विवेक है। तथा मान कषाय विवेकके भी वचन और कायकी अपेक्षा दो भेद हैं । शरीरको स्तब्ध करना, सिर को ऊँचा करना, उच्चासन पर बैठना आदि जो मान सूचक काय व्यापार हैं उनका न करना काय मान कषाय विवेक है। मुझसे बड़ा कौन शास्त्रका पंडित है, चारित्रवान और तपस्वी हैं, इस प्रकारके वचन न बोलना वचन मान कषाय विवेक है। इसी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २१५ मानकषायविवेकः । वाक्कायाभ्यां मायाविवेको द्विप्रकारः । अन्यत दुवत इवान्यस्य यद्वचनं तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा, मायां करोमि न कारयामि, नाभ्युपगच्छामि इति वा कथनं वाचा मायाविवेकः । अन्यकुर्वत इवान्यस्य कायेनाकरणं कायतो मायाविवेकः । लोभकषायविवेकोऽपि द्विविधः। यत्रास्य लोभस्तदुद्दिश्य करप्रसारणं, द्रव्यदेशानपायिता, तदुपादातुकामस्य कायेन निषेधनं हस्तसंज्ञया निवारणं, शिरश्चालनया वा एतस्य कायव्यापारस्य अकरणं कायेन लोभविवेकः शरीरेण वा द्रव्यानुपादानं । एतन्मदीयं वरतुग्रामादिकं वा अहमस्य स्वामीति वचनानुच्चारणं वा लोभविवेकः । नाई कस्यचिदीशो न च मम किञ्चिदिति वचनं वा। ममेदंभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्भावतो लोभविवेकः ॥१७०॥ अहवा सरीरसेज्जा संथारुवहीण भत्तपाणस्स । वेज्जावच्चकराण य होइ विवेगो तहा चेव ।।१७१।। 'अहवा' अथवेति । विवेकः प्रकारान्तरेणावेद्यते । 'सरीरसेज्जासंथारुवहीणभत्तपाणस्स' शरीरविवेकः वसतिसंस्तरविवेकावुपकरणविवेकः, भक्तपान विवेकः । 'वेज्जावच्चकराण य' यावत्यकराणां च विवेको भवति । 'तहा चेव' तथैव द्रव्यभावाभ्यां इति यावत । तत्र शरीरविवेकः शरीरेण निरूप्यते । संसारिणः शरीराद्विवेकः कथमिति चेत् । शरीरेण स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्रवापरिहरणं शरीरविवेकः । शरीरं उपद्रवन्तं नरं तियञ्चं देवं वा न हस्तेन निवारयति । मा कृथा ममोपद्रवमिति दंशमशकवृश्चिकभुजगसारमेयादीन हस्तेन, पिच्छाद्युपकरणेन, दण्डादिभिर्वाऽपसारयति । छत्रपिच्छकटकप्रावरणादिना वा न शरीररक्षां करोति । प्रकार इनसे में उत्कृष्ट हूँ ऐसा मनसे अहंकार न करना भावसे मान कषाय विवेक है। माया विवेक भी वचन और कायकी अपेक्षा दो प्रकार है। दिखाना तो ऐसा मानों कुछ अन्य बोलते हैं और बोलना.कछ अन्य, इसका त्याग अथवा माया पूर्ण उपदेशका त्याग, अथवा न मैं माया करता हूँ, न कराता हूँ, न अनुमोदना करता हूं ऐसा बोलना वचन माया विवेक है । अन्य करते हुए उससे अन्यका कायसे न करना काय माया विवेक है । लोभ कषाय विवेक भी दो प्रकारका है। जिस वस्तुका लोभ हो उसको लक्ष्य करके हाथ पसारना, जो उसे लेना चाहे उसे शरीरसे मना करना या हाथके संकेत से रोकना अथवा सिर हिलाकर मना करना, इस काय व्यापारका न करना काय लोभ विवेक है । अथवा शरीरसे वस्तुका ग्रहण न करना काय लोभ विवेक है। यह वस्तु ग्राम आदि मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ इत्यादि वचनका उच्चारण न करना, अथवा न मैं किसी का स्वामी हूँ और न कुछ मेरा है ऐसा बोलना वचन लोभ विवेक है। यह मेरा है इस भावरूप मोहजन्य परिणामका न होना भाव लोभ विवेक है ।।१७०।। गा०-अथवा शरीर विवेक, वसति विवेक, संस्तर विवेक, उपधि विवेक, भक्तपान विवेक, और वैयावृत्य करने वालोंका विवेक, द्रव्य और भाव रूप होता है ।।१७१।। टी-प्रकारान्तरसे विवेकके भेद कहते हैं । शरीर विवेक शरीर के द्वारा किया जाता है। - शङ्का-संसारी जीवका शरीरसे विवेक कैसे संभव है ? • समाधान-अपने शरीरमें होने वाले उपद्रवोंका दूर न करना, शरीर विवेक है । शरीरपर उपद्रव करने वाले मनष्य. तिर्यञ्च अथवा देव को हाथसे नहीं रोकता कि मेरे ऊपर उपद्रव मत करो। डांस, मच्छर, बिच्छू, सर्प, कुत्ते आदिको हाथसे, पिच्छी आदि उपकरणसे अथवा दण्ड वगैरहसे दूर नहीं करता। छाता, पीछी, चटाई अथवा अन्य किसी आवरणसे शरीरको रक्षा • - Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ भगवती आराधना शरीरपीडां मम मा कृथा इत्यवचनं । मां पालयेति वा, शरीरमिदमन्यदचेतनं चैतन्येन सुखदुःखसंवेदनेन वाऽविशिष्टमिति वचनं वाचा विवेकः । वसतिसंस्तरयोविवेको नाम कायेन वसतावनासनं प्रागध्युषितायां, संस्तरे वा प्राक्तने अशयनं अनासनं । वाचा त्यजामि वसति संस्तरमिति वचनं । कायेनोपकरणानामनादानं, अस्थापनं क्वचिदरक्षा च उपधिविवेकः । वाचा परित्यक्तानीमानि ज्ञानोपकरणादीनि इति वचनं वाचा . उपधिविवेकः । भक्तपानयोरनशनं अपानं वा कायेन भक्तपानविवेकः । एवंभूतं भक्तं पानं वा न गृह्णामि इति वचनं वाचा भक्तपानविवेकः । वैयावृत्यकराः स्वशिष्यादयो ये तेषां कायेन विवेकः तैः सहासंवासः । मा कृथा वैयावृत्त्यं इति वचनं, मया त्यक्ता यूयमिति वचनं । सर्वत्र शरीरादौ अनुरागस्य ममेदं भावस्य वा मनसा अकरणं भावविवेकः ॥१७१।। परिग्रहपरित्यागक्रमं उपदिशति सव्वत्थ दव्वपज्जयममत्तसंगविजडो पणिहिदप्पा । णिप्पणयपेमरागो उवेज्ज सव्वत्थ समभावं ॥१७२।। सम्वत्थ इत्यादिना । 'सव्वत्थ' सर्वत्र देशे। 'पणिहिदप्पा' प्रणिहितात्मा प्रकर्षण निहितः निक्षिप्तः वस्तुयाथात्म्यज्ञाने आत्मा येन स प्रतिनिहितात्मा । 'दग्वपज्जयममत्तसंगविजडो' द्रव्येषु जीवपुद्गलेषु तत्पर्यायेषु च ममतारूपो यः संगः परिग्रहस्तेन परित्यक्तः। प्रणयः स्नेहः प्रेम प्रीतिः, राग आसक्तिः । क्व ? द्रव्यपर्यायेषु जीवद्रव्ये पुत्रदारमित्रादौ, तेषां नीरोगत्वधनवत्त्वादौ पर्याये, आत्मनो वा देवत्वे, चक्रवर्तित्वेऽहमिन्द्रत्वे वा । तथा शरीरे आहारादिके भोगसाधने, तदीयरूपरसगन्धस्पर्शपर्यायेपु वा, एतेभ्यः नहीं करता। यह कायसे शरीर विवेक है। मेरे शरीरको पीड़ा मत दो, अथवा मेरो रक्षा करो, [ न बोलना, अथवा यह शरीर अचेतन है, मुझसे भिन्न है, चैतन्यसे और सुख दुःखके संवेदनसे रहित है ऐसा वोलना वचनसे शरीर विवेक है। जिसमें पहले रहे हैं उस वसति में न रहना कायसे वसति विवेक है। पूर्वके संस्तर पर न सोना न बैठना कायसे संस्तर विवेक है। मैं वसति या संस्तर को त्यागता हूँ यह वचनसे वसति और संस्तर विवेक है। 'उपकरणोंका त्याग करता हूँ' ऐसा बोलना वचनसे उपधि विवेक है, भक्तपानको न खाना न पीना कायसे भक्तपान विवेक है। 'इस प्रकारके भोजन और पानको ग्रहण नहीं करता ऐसा कहना वचनसे भक्तपान विवेक है। वैयावृत्य करने वाले अपने शिष्यों आदिके साथ वास न करना कायसे विवेक है । 'वैयावृत्य मत करो' 'मैंने तुम्हारा त्याग किया ऐसा कहना' वचनसे विवेक है। सर्वत्र शरीर आदिमें अनुरागका 'यह मेरा है' इस प्रकार का भाव मनमें न करना भावविवेक है ।।१७१।। परिग्रह के त्यागका क्रम बतलाते हैं___ गा०-सर्व देशमें प्रतिनिहित आत्मा द्रव्य और पर्यायोंमें ममतारूपी परिग्रहसे रहित, प्रणय, प्रेम और रागसे रहित सर्वत्र समभावको प्राप्त होता है ।।१७२।। टी.-जिसने वस्तुके यथार्थ स्वरूप के ज्ञानमें आत्माको प्रकर्षरूपसे निहित किया है वह प्रतिनिहितात्मा है अर्थात् जो वस्तु स्वरूपके जानने में लीन रहता है और द्रव्य अर्थात् जीव पुद्गलमें और उनकी पर्यायोंमें ममता नहीं करता । और जीव द्रव्य अर्थात् पुत्र स्त्री मित्रादि में उनकी नीरोगता, धनवत्ता आदि पर्यायोंमें अथवा आत्माकी देवपना, चक्रवर्तीपना, अहमिन्द्रपना आदि पर्यायोंमें तथा शरीरमें, आहारादिमें; भोगके साधनमें और उनकी रूप, रस, गन्ध, Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २१७ परिणामेभ्यो निर्गतो 'णिप्पणयपेमराग' इत्युच्यते । 'उवेज्ज' प्रतिपद्यत । 'समभावं' समचित्ततां । द्रव्ये पर्याय वा रागकोपावन्तरेण तत्तस्वरूपग्रहणमात्रप्रवृत्तिनिता समचित्तता ॥ उवधी गदा ॥१७२। परिग्रहपरित्यागादनन्तरोऽधिकारः श्रितिनमि, एतद्वयाख्यातुकामः श्रितिशब्दस्यार्थद्वयं व्याचष्टे भावश्रितिव्यथितिरिति, अप्रकृतं श्रितिशब्दार्थ निराकर्तुमिष्टं दर्शयितुम् जा उवरि उवरि गुणपडिवत्ती सा भावदो सिदी होदि । दव्वसिदी हिस्सेणी सोवाणं आरुहंतस्स ।।१७३।। 'जा' या । 'उवरि उवरि' उपर्युपरि। 'गुणपडिवत्ती' गुणप्रतिपत्तिः । ज्ञानश्रद्धानसमानभावानां गुणानां प्रवृत्तानां उपर्युपरि गुणनात्तथाभूतानामेव प्रतिपत्तिर्या सा। 'भावदो' भावेन । 'सिदी होदि' श्रितिभवति । भावश्रितिः सैवेति यावत् । अथ का द्रव्यथितिः ? अस्योत्तरमाह-'दग्वसिदी' श्रीयते इति श्रितिः द्रव्यं च तत् श्रितिश्च सा द्रव्यश्रितिः । यदाश्रीयते द्रव्यं निश्रेयणीसोपानादिकं तदपि श्रितिशब्देनोच्यते । 'आरुहंतस्स' आरोहतः ॥१७३॥ अनयोः का' परिगृहीतेत्यत्राह सल्लेहणं करेंतो सव्वं सुहसीलयं पयहिदूण । भावसिदिमारुहिता विहरेज्ज सरीरणिव्वण्णो ॥१७४।। स्पर्श पर्यायोंमें प्रणय अर्थात् स्नेह, प्रेम और राग अर्थात्. आसक्ति रूप परिणामोंसे रहित है वह सर्वत्र समभाव अर्थात् समचित्तताको प्राप्त होता है। द्रव्य अथवा पर्यायमें राग द्वेष के विना उनके स्वरूपको ग्रहण मात्र करनेकी प्रवृत्तिको अर्थात् ज्ञानताको समचित्तता कहते हैं ॥१७२।। ___ उपधि त्याग समाप्त हुआ। परिग्रह त्यागके अनन्तर श्रिति नामक अधिकार है। उसका व्याख्यान करनेके इच्छक ग्रन्थकार श्रिति शब्दके दो अर्थ कहते हैं भाव श्रिति और द्रव्य श्रिति । श्रिति शब्दके अप्रकृत अर्थका निराकरण और इष्ट अर्थ का कथन करते हैं गा०-जो ऊपर-ऊपर गुणोंकी प्रतिपत्ति है वह भावसे श्रिति है। ऊपर चढ़ने वाले के नसैनी सीढ़ी आदि द्रव्य श्रिति है ।।१७३।। टो०-ज्ञान श्रद्धान समभाव आदि गणोंका ऊपर-ऊपर उन्नत होना गुण प्रतिपत्ति है और वह भाव श्रिति है। भाव अर्थात् परिणामसे श्रिति भाव श्रिति अर्थात् परिणाम सेवा है । 'श्रीयते' जिसका आश्रय लिया जाये वह श्रिति है। द्रव्यरूप श्रिति द्रव्य श्रिति है। ऊपर चढ़ने वाला नसैनी सीढी आदि जिस द्रव्यका आश्रय लेता है उसको भी श्रिति शब्दसे कहते हैं ॥१७३।। यहाँ इन दोनोंमेंसे किसका ग्रहण किया है, यह कहते है गा०–सल्लेखना करता हुआ शरीरसे विरक्त साधु सब सुखशीलताको मन वचन कायसे त्यागकर भावश्रिति पर आरोहण करके विहार करे ॥१७४॥.. १. का या ग-आ० मु० । २५ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भगवती आराधना ___ "सल्लेहणं' सल्लेखनां । 'करतो' कुर्वन् । 'सव्वं सुहसीलयं' सर्वां सुखभावनां आसनशयनभोजनादिविषयां । 'पयहिदूण' प्रकर्षेण त्यक्त्वा योगत्रयेणेति यावत् । 'भावसिदिमारुहिता' श्रद्धानादिपरिणामसेवां प्रतिपद्य । 'विरहेज्ज' प्रवर्तेत । 'सरीरणिविण्णो' शरीरनिःस्पृहः। किमनेन शरीरेण, सुलभेनासारण, अशुचिना, कृतघ्नेन, भारेण रोगाणामाकरेण, जरामरणप्रतिहतेन दुःखविधायिनेति ।।१७४।। दवसिदि भावसिदि अणुओगवियाणया विजाणंजा । ण खु उड्ढगमणकज्जे हेछिल्लपदं पसंसंति ॥ १७५।। दव्वसिदि भावसिदि अणुओगवियाणया विजाणंता' इत्यस्मिन्सूत्रे पदघटना । 'उड्ढगमणकज्जे हेट्ठिलपवं ण खु पसंसंति' इति । ऊर्ध्वगमने कार्य अधोधःपादनिक्षेपं नैव प्रशंसन्ति । 'विजाणता' विशेषेण जानन्तः । कां 'दव्वसिदि भावसिदि' च द्रव्यभावश्रियोः स्वरूपं उपादेयश्रितिज्ञा' इति यावत् । न केवलं नितिमात्रज्ञाः किन्तु 'अणुओगवियाणया' अनुयोगशब्दः सामान्यवचनोऽपि इह चरणानुयोगवृत्तिर्गहीतस्तेनायमर्थः आचाराङ्गज्ञाः अथवा चतुर्विधानुयोगज्ञाः श्रुतमाहात्म्यवन्तः न प्रशंसन्ति । एतदुक्तं भवति-शुभपरिणामवतां तदतिशय एव प्रवर्तितव्यं, न जघन्यपरिणामप्रवाहे निपतितव्यं, यतोऽतिशयितश्रुतज्ञानलोचना यतयो निन्दति जघन्यपरिणामान् । कुतो ? मन्दायमानशुभपरिणामः क्रमेण न बहलविशालकर्मतिमिरमपाकर्तुमर्हति नाशाभिमखः प्रदीप इव । यथा नाशसन्मुखः प्रदीपोऽतितेजसा प्रवर्तमानो मन्दं मन्दं ज्वलन्नाशमपैति शनैः शनस्तमसाच्छाद्यते तथा मन्दायमानपरिणामोऽपीत्यर्थः । अशुभपरिणामसन्ततेमुलं भवति । तेन कर्मणां स्थितिरनुभवश्च प्रकर्षमुपैति ततो व्यवस्थिता सैव दीर्घसंसारिता । समीचीनज्ञानमारुतप्रेरितः शुभपरि गा०-टो०--इस सुलभ, असार, अपवित्र, कृतघ्न, भाररूप, रोगोंका घर और जन्म मरणसे युक्त, दुःखदायी शरीरसे क्या लाभ ऐसा विचार साधु शरीरसे निस्पृह होकर सल्लेखना धारण करता है और बैठना, सोना, भोजन आदिकी सब सुख भावनाको छोड़ श्रद्धानादि परिणामोंका आश्रय लेता है ॥१७४॥ गा०-द्र व्यश्रितिके भावश्रितिके स्वरूपको विशेष रूपसे जानने वाले तथा आचारांगके ज्ञाता ऊर्ध्वगमन रूप कार्यमें नीचे पैर रखना प्रशंसनीय नहीं ही मानते ॥१७५॥ टी०-अनुयोग शब्द अनुयोग सामान्यका वाची होने पर भी यहाँ चरणानुयोगका वाचक ग्रहण किया है अतः उसका अर्थ आचारांगके ज्ञाता होता है। अथवा चार प्रकारके अनुयोगोंके ज्ञाता भी होता है । द्रव्यश्रितिके और भावश्रितिके स्वरूपको जानने वाले तथा चरणानुयोगके ज्ञाता ऊपर जानेके लिये नीचे-नीचे पैर रखना प्रशंसनीय नहीं मानते । आशय यह है कि शुभ परिणाम वालोंको शुभ परिणामोंकी उत्कृष्टतामें ही लगना चाहिये, जघन्य परिणामोंके प्रवाहमें नहीं गिरना चाहिये। क्योंकि अतिशय युक्त श्रुतज्ञान रूपी चक्षुसे सम्पन्न यतिगण जघन्य परिणामों की निन्दा करते हैं। क्योंकि जिसके शुभ परिणाम उत्तरोत्तर मन्द होते जाते हैं वह घने विशाल कर्मरूपी अन्धकारको नाशके अभिमुख दीपककी तरह दूर नहीं कर सकता। जैसे बुझता हुआ दीपक तीव्र प्रकाश देता है किन्तु मन्द-मन्द जलकर बुझ जाता है और धीरे-धीरे अन्धकारसे ढक जाता है। उसी तरह मन्द होता हुआ शुभ परिणाम भी अशुभ परिणामोंकी परम्पराका जनक होता है और उससे कर्मोंकी स्थिति और अनुभाग उत्तरोत्तर बढ़ता है। उससे वही दीर्घ संसारि १. ज्ञाना इति आ० मु०। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ facturer णामनिलः प्रकृष्यमाणो विशोषित कर्मपादपरसस्तमुन्मूलयतीति ॥१७५॥ श्रितेरपायस्थान परिहाराख्यानायोत्तरगाथा - गणणा सह संलाओ कज्जं पड़ सेंसएहिं साहूहिं । मोण से मिच्छजणे भज्जं सण्णीसु सजणे य ।। १७६ ।। 'गणिणा सह' सावधारणमिदं गणिनैव सह । 'संलावो' प्रश्नप्रतिवचनप्रबन्धः, नान्यैः सह चिरभाषणं कार्यम् । आचार्येण सह संलापः शुभपरिणामस्य हेतुरित्यनुज्ञायते । इतरे तु प्रमादिनो यत्किञ्चिद् ब्रुवन्तोऽशुभपरिणामं विदध्युः । 'कज्जं पड़' कार्यं स्वं प्रति । 'सेस गेहि साधूहि' शेषैः साधुभिः सम्भाषणं कार्य, न प्रबन्धरूपा कथा कार्या । 'मोणं' मौनमेव । 'से' तस्य शुभपरिणामश्रेणीमारूढस्य । 'मिच्छजणे मिथ्यादृष्टिजने । स्वार्थे बद्धपरिकरस्य किं तेनानुपकारिणा हितोपदेशाग्राहिणा जनेन । 'भज्जं' भाज्यं विकल्प्यं मौनं । 'सणीसु' मिथ्यादृष्टिष्वप्युपशान्तेषु । 'सजणे य' स्वजने च । मिथ्यादृष्टौ अस्यामवस्थायां मदीयं वचनं श्रुत्वा सम्यग्दर्शनादिकमिमे गृह्णन्तीति यद्यस्ति सम्भावना ब्रूयाद् धर्मं न चेन्मौनमेव ॥ १७६॥ उपगतशुभ परिणामस्य प्रवृत्तिक्रममाचष्टे - सिदिमारुहित्तु कारणपरिभुत्तं उवधिमणुवधिं सेज्जं । परिकम्मादिउवहदं वज्जित्ता विहरदि विदण्हू || १७७ || २१९ 'सिदिमारुहित्तु' शुभपरिणामश्रेणिमारुह्य । कारणभुत्तं किञ्चित्कारणमुपदिश्य श्रुतग्रहणं, परेषां वा ना प्राप्त होता है | सम्यग्ज्ञान रूपी वायुसे प्रेरित शुभ परिणाम रूप आग बढ़ती-बढ़ती कर्म रूपी वृक्षके रसको सुखाकर उसे जड़से नष्ट कर देती है ॥ १७५ ॥ श्रितिके विनाश स्थानोंसे बचनेके उपाय कहते हैं गा० - शुभ परिणामोंकी श्रेणि पर आरूढ़ साधुको आचार्यके ही साथ वार्तालाप करना चाहिये । कार्य हो तो शेष साधुओंसे वार्तालाप करे । मिथ्यादृष्टिजनों में मौन रहे । शान्त परिणामी मिथ्यादृष्टियों में और अपने ज्ञातिजनोंमें मौन करे, नही करे ।। १७६ ।। टी०-आचार्यके साथ ही 'संलाप' अर्थात् प्रश्नोत्तर आदि करना चाहिये । दूसरोंके साथ लम्बा वार्तालाप नहीं करना चाहिये । आचार्य के साथ संलाप शुभ परिणाम का कारण है इसलिये उसकी अनुज्ञा है । अन्य लोग प्रमादी होनेसे जो कुछ भी बोलकर अशुभ परिणाम कर देते हैं । शेष साधुओंके साथ संभाषण करना चाहिये किन्तु लम्बी कथा नहीं करना चाहिये । मिथ्यादृष्टि जनसे बात नहीं करना चाहिये क्योंकि वह तो स्वार्थ में डूबा है । हितोपदेशको नहीं सुनता । ऐसे अनुपकारी व्यक्तिसे क्या काम ? जो मिथ्यादृष्टि होते हुए भी शान्त परिणामी हैं और अपने ज्ञातिबन्धु हैं उनसे वार्तालाप किया जा सकता है । ये मेरे वचन सुनकर सम्यग्दर्शन आदिको ग्रहण करेंगे, यदि ऐसी सम्भावना है तो धर्मका उपदेश दें, नहीं तो मौन ही रहें ॥१७६॥ शुभ परिणामके धारी मुनिकी प्रवृत्तिका क्रम कहते हैं गा० - क्रमका ज्ञाता मुनि शुभ परिणामों की श्रेणिपर चढ़कर किसी कारणवश व्यवहार आई परिग्रहको और ईषत् उपधिरूप वसतिको तथा जो लीपने-पोतने अयोग्य है, उसे त्याग कर तपश्चरण करता है ॥ १७७॥ टी० - शुभ परिणामोंकी परम्परासे जो मुनि ऊपर चढ़ रहा है वह ऐसे परिग्रहको त्याग Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० विजयोदया टीका श्रुतोपदेशं, आचार्यादिवैयावृत्त्यादिकं वा, 'परिभुत्तं' व्यवहृतं । 'उधि' परिग्रहमौषधं अतिरिक्तज्ञानसंयमोपकरणानि वा । 'अणुपधि' ईषत्परिग्रहं । अन्वत्रेषदर्थवृत्तिः अनुदरा कन्येति यथा । कोसावनुपधिरत आह'सेज्ज' सेविज्जदि जदिणा इति व्युत्पत्ती बसतिरुच्यते, तेन सेज्जं वसति । परिकम्मादिउवहद' यतयोऽत्र वसन्तीति प्रमार्जनप्रलेपनादिपरिकर्मणा उपहतं अयोग्यं । 'परिवज्जित्ता' वर्जयित्वा । 'विहरदि' आचरति । 'विदण्हू' क्रमज्ञः ॥१७७॥ श्रित्यनन्तरं किं करोतीत्यत्राह तो पच्छिमंमि काले वीरपुरिससेवियं परमघोरं । भत्तं परिजाणंतो उवेदि अब्भुज्जदविहारं ॥१७८।। 'तो' तस्याः श्रितेः । 'पच्छिमंमि काले' पश्चिमे काले। 'वीरपुरुससेवियं' वीरैः पुरुषराचरितं । 'परमघोरं' अतिदुष्करं । ‘भत्तं परिजाणंतो' आहारं परित्यक्तुकामः । 'उवेदि' उपैति । किं ? अब्भुज्जदविहार' सम्यग्दर्शनादिपरिणामाभि'मुख्य उद्यन्तं विहारं ॥१७८॥ कीदृगसावभ्युद्यतो विहार इत्यत्राचष्टे इत्तिरियं सव्वगणं विधिणा वित्तिरिय अणुदिसाए दु । जहिदूण संकिलेसं भावेइ असंकिलेसेण ॥१७९।। 'इत्तिरियं' कियतः कालस्य । ‘सत्रगणं' संयतानां, आर्यिकाणां, श्रावकाणां, इतरासां च समिति । देता हैं जो कारणवश व्यवहारमें आया है जैसे स्वयं शास्त्राध्ययनके लिये या दूसरोंको शास्त्रका उपदेश देनेके लिये ज्ञान और संयमके उपकरण शास्त्र आदि व्यवहारमें आये हों जो कि स्वयं अपने लिये आवश्यक नहीं है । तथा आचार्य आदिकी वैयावृत्यके लिये औषध आदि व्यवहारमें आई हो। ऐसा परिग्रह कारणभुक्त परिग्रह है। तथा कारणभुक्त अनुपधिको भी त्याग दे। अनुपधिमें अन्का अर्थ ईषत् या किञ्चित् है। यह अनुपधि है 'सेज्ज' । 'जो यतिके द्वारा सेवित होती है' इस व्युत्पत्तिके अनुसार सेज्जाका अर्थ वसति है। तथा 'इसमें यति गण रहेंगे' इस अभिप्रायसे जिस वसतिकी सफाई लिपाई पुताई की गई है वह भी त्याज्य है। इन सबको त्यागकर वह मुनि तपश्चरण करता है ।।१७७॥ श्रितिके अनन्तर वह क्या करता है यह कहते हैं गा०-उस श्रितिके अन्तिम समयमें वीर पुरुषोंके द्वारा आचरित अतिकठिन आहारको त्याग देनेका इच्छुक वह मुनि सम्यग्दर्शन आदि परिणामोंकी अभिमुखतामें तत्पर बिहारको प्राप्त होता है । अर्थात् रत्नत्रयकी मुख्यताको लिये हुए आचरण करता है ।।१७८॥ वह अभ्युद्यत विहार कैसा है, यह कहते हैं गा०-तत्काल गुरुके पश्चात् जो संघका पालन करता है उसे, विधिपूर्वक समस्त संघको सौंपकर संक्लेशको छोड़कर असंक्लेशसे आत्माको भाता है ।।१७९|| टी.-सर्वगणसे मतलब है मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका तथा अन्य जनोंका समूह । १. णामादिमु-आ० मु० । mn Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २२१ 'वितिरिय' दत्त्वा । कथं 'विधिणा' विधिना । कथं ? सर्वस्य गणस्य मध्ये तं व्यवस्थाप्य स्वयं बहिः स्थित्वा 'एष निरतिचाररत्नत्रयः आत्मानं युष्मानपि समर्थ:- संसारसागरादुद्धत्तं, अनुज्ञातश्च यया सूरिरयमिति । तत एतदुपदेशानुसारेण भवद्भिः प्रवर्तितव्यं इति । 'अणुदिसाए दु' 'अनु' पश्चादर्थं दिशिविधाने गुरोः पश्चाद्दिशति विधत्ते चरणक्रमं यः सोभिधीयते अगुदिसशब्देन । 'जहिऊण' त्यक्त्वा । 'संकिलेस' संक्लेशं परोपकारसम्पादनायासं । 'भावेइ' भावयति । 'असंकिलेसेण' न विद्यते संक्लेशोऽस्मिन्नित्यसंक्लेशः शुभपरिणामस्तेन भावयति आत्मानं ॥ १७९ ॥ जावंतु' केइ संगा उदीरया होति रागदोसाणं । ते वज्जितो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्सङ्गी ॥ १८० ॥ त्यक्तव्य संक्लेशभावनाकल्पस्याख्यानायाचष्टे - कन्दप देवखिब्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा | एसा हु सङ्किलिट्ठा पञ्चविहा भावणा भणिदा ॥ १८१ ॥ कंदप्प इत्यादिना । गतिकर्म चतुर्विधं नरकगतिस्तिर्यग्गतिमनुष्यगतिर्देवगतिरित्यत्र देवगतिर्नेकप्रकारा असुरदेवगतिनागदेवगत्यादिप्रपंचेन । कन्दर्पदेवगतेः किल्बिषदेव गते राभियोग्यदेवगतेः, असुरदेवगतेः, सम्मोहदेवगतेश्च कारणभूताः आत्मपरिणामाः । कारणे कार्योपचारोऽन्नप्राणवत् । यथान्नं वै प्राणाः इति 'अनुदिसाए' में अनुका अर्थ है पश्चात् और दिशका अर्थ है विधान । गुरुके पीछे जो चारित्रके क्रमका विधान करता है उसे अनुदिश कहते हैं । सल्लेखनार्थी उसको सर्वसंघके मध्य में स्थापित करके स्वयं बाहर होता है । उस समय वह कहता है - इसका रत्नत्रय निर्दोष है । यह अपना और तुम्हारा भी संसार सागर से उद्धार करने में समर्थ है । मैंने इसे आचार्य बनने की अनुज्ञा दी है । अतः इसके उपदेशके अनुसार आपको चलना चाहिये । संघके भारसे मुक्त होकर वह परोपकार करनेका प्रयत्न रूप संक्लेश छोड़ देता है, अर्थात् परोपकार करना छोड़ देता है और जिसमें संक्लेश नहीं है ऐसे असंक्लेश अर्थात् शुभ परिणामसे आत्माकी भावना भाता है ॥ १७९ ॥ गा०—जितना कोई परिग्रह रागद्वेषकी उदीरणा करने वाला होता है, उसे छोड़ता हुआ निस्संग होकर राग और द्व ेष को निश्चयसे जीतता है || १८० || विशेष- इस पर विजयोदया टीका नहीं है । आशाधर ने भी इस पर टीका नहीं की किन्तु इतना लिखा है कि टीकाकार इस गाथाको नहीं मानता । छोड़ने योग्य संक्लेश भावनाके भेद कहते हैं गा०-- कन्दर्पदेवगति, किल्विषदेवगति, आभियोग्यदेवगति, असुरदेवगति और सम्मोहदेवगतिके कारण भूत आत्म परिणाम यह निश्चयसे पाँच प्रकारकी संक्लिष्ट भावना कही है ॥ १८२ ॥ टी० - गतिकर्मके चार भेद हैं-नरक गति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । इनमें से देवर्गात असुरदेवगति, नागदेवगति आदिके विस्तारसे अनेक भेद हैं । कन्दर्पदेवगति, किल्विषदेवगति, आभियोग्य देवगति, असुरदेवगति और सम्मोहदेवगतिके कारणभूत आत्मपरिणामोंको उस उस गतिके नामसे कहा है । यहाँ कारणमें कार्यका उपचार किया है जैसे 'अन्न ही प्राण है' । यहाँ १. एतां टीकाकारो नेच्छति - मूलारा० । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ भगवती आराधना प्राणकारणेऽन्ने प्राणोपचाराः । कार्यगतेन व्यपदेशेन कन्दर्पभावना, किल्बिषभावना, अभियोग्यभावना, असुरभावना, सम्मोहभावनाश्चेति पञ्चप्रकारा भावना निरूपिताः सर्वविद्भिः ॥१८१॥ तत्र कन्दर्पभावनानिरूपणायोत्तरगाथा कंदप्पकुक्कुआइय चलसीलो णिच्चहासणकहोय । विब्भावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥१८२।। कन्दप्पकुक्कुआइयचलसीलो रागोद्रेकात्प्रहाससम्मिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कंदर्पः । रागातिशयवतो इसतः परमुद्दिश्याशिष्टकायप्रयोगः कौत्कुच्यं एवं भवत मातरं करोमीति । कंदर्पकौत्कुच्याभ्यां चलसील:, णिच्चहासणकहो य' सदा हास्यकथाकथनोद्यतः । 'विन्भावितो य परं' परं विस्मापयन् कुहुकं किञ्चिदुपयॆ कंदप्पं भावणं कुणदि' कंदर्पभावनां करोति । रागोद्रेकजनितहासप्रवर्तितो वाग्योगः परमविस्मयकारी वा कंदर्पभावनेत्युच्यते । असकृत्प्रवर्तमानः ।।१८२॥ किल्बिषभावनाख्यानायाचष्टे णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहणं । ___ माइय अवण्णवादी खिब्भिसियं भावणं कुणइ ।।१८३॥ णाणस्स इत्यादिकं । 'माई अवण्णवादी' इत्येताभ्यां प्रत्येकं संबन्धनीयम् । ज्ञानमिह श्रुतं परिगृहीतं तज्ञानविषया माया यस्य विद्यते स ज्ञानसंबन्धी मायावान् ज्ञानभक्तिरहितो बाह्यविनयवृत्तिः । 'केवलिणं' माणके कारण अन्नमें प्राणका उपचार किया है। उन्हीं परिणामोंका कार्य जो कन्दर्प आदि गति है उसी कन्दर्पशब्दसे कन्दर्प भावना, किल्विष भावना, आभियोग्य भावना, असुर भावना, सम्मोह भावना ये पाँच प्रकार की भावनाएं सर्वज्ञ देवने कही हैं ।।१८१॥ आगेकी गाथा में कन्दर्प भावनाका कथन करते हैं गा०-कन्दर्प कौत्कुच्य आदिसे चलशील, और सदा हास्य कथा करनेमें तत्पर, दूसरेको विस्मयमें डालने वाला कन्दर्प भावनाको करता है ।।१८२।। टो०-रागकी.अत्यधिकतासे हँसीसे मिला हुआ असभ्य वचन बोलना कन्दर्प है। रागकी अधिकतासे हँसते हुए दूसरे को लक्ष्य करके शरीरसे कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है। इन दोनोंको जो करता है, सदा हास्य कथा करता है, और कुछ कौतुक दिखाकर दूसरेको अचरजमें डा वह कन्दर्प भावना करता है । आशय यह है कि रागकी अधिकतासे होने वाले हास्य पूर्वक वचन योग और काय योग तथा दूसरेको कुतूहल पूर्वक अचरजमें डालना कन्दर्प भावना है ।।१८२।। किल्विष भावनाको कहते हैं गा-जो ज्ञानके, केवलियोंके, धर्मके, आचार्यों और सर्व साधुओंके विषयमें मायाचार करता है, झूठा दोष लगाता है वह किल्विषक भावनाको करता है ॥१८३।। टीका-'माइय अवण्णवादी' ये दोनों पद प्रत्येकके साथ लगाना चाहिये । 'ज्ञान' से यहाँ श्रुतज्ञान ग्रहण किया है। जो श्रुतज्ञानके विषयमें माया रखता है वह ज्ञान सम्बन्धी मायाचारी है। ज्ञानमें भक्ति नहीं है, बाहरसे विनय करता है। केवलियोंमें आदर तो दिखलाता है किन्तु Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २२३ केवलिष्वादरवानिव यो वर्तते । तदर्चनायां मनसा तु न रोचते स केवलिनां मायावान् । धर्मश्चारित्रं तत्र मायया प्रवृत्तः । आचार्याणां साधूनां च वञ्चकः । खिभिसभावणं किल्विषभावनां । 'कुणई' करोति ।।१८३॥ अभियोग्यभावनां निरूपयत्युत्तरगाथा ' मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जो हु । इड्ढिरससादहेदु अभिओगं-भावणं कुणइ ॥१८४।। 'मंताभिओगकोदुगभूईकम्म' मन्त्राभियोगक्रियां, कुतूहलोपदर्शनक्रियां, बालादीनां रक्षार्थ भूति कर्म च । 'पयुंजदे' करोति यः । 'अभियोगं भावणं कुणइ' अभियोग्यां भावनां करोति । कि? सर्व एव म योगादी प्रवृत्तो नेत्याह । 'इड्ढिरससादहेदु मंताभियोगकोदुगभूईकम्मं जो पउंजदे सो अभियोगभावणं कुणइ' । द्रव्यलाभस्य, मृष्टाशनस्य, सुखस्य वा हेतुं मन्त्राद्यभियोगकर्म प्रयुक्ते यः स एव अभियोग्यभावनां करोति' नेतरः । स्वस्य परस्य वा आयुरादिपरिज्ञानार्थ कौतुकं उपदर्शयन, वैयांवृत्यं प्रर्वतयामीति वा । उद्यतः, ज्ञानदर्शन चारित्रपरिणामादरवर्तनान्न दुष्यतीति भावः ॥१८४॥ चतुर्थी भावनां वदन्ति अणुबद्धरोसविग्गहसंसत्ततवो णिमित्तपडिसेवी । णिक्किवणिराणतावी आसुरिअं भावणं कुणदि ॥१८५।। उनकी पूजा मनमें नहीं रुचतो । वह केवलियोंके सम्बन्धमें मायावी है। धर्म अर्थात् चारित्रके विषयमें जो मायाचार करता है वह धर्मका मायावी है। तथा जो आचार्यों और साधुओंको ठगता हे वह किल्विष भावनाको करता है ॥१८३।। आगेकी गाथासे अभियोग्य भावनाको कहते हैं गा०-जो द्रव्यलाभ, मिष्टरस और सुखके लिए मंत्राभियोग-भूत आदि बुलाना, कौतुकअकालमें वर्षा आदि दिखलाना और वच्चोंकी रक्षाके लिये भभूत देना आदि करता है वह अभियोग्य भावना करता है ॥१८४।। टी०-द्रव्यलाभ, मीठा भोजन और सुखके लिये जो मन्त्राभियोग क्रिया, कुतूहल दिखानेकी क्रिया और बालक आदिकी रक्षाके लिये भूतिकर्म करता है वह अभियोग्य भावनाको करता है। जो द्रव्यलाभ आदिके लोभसे मंत्रादि करता है वही अभियोग्य भावना करता है, सब नहीं ! जो अपनी या दूसरोंकी आयु आदि जाननेके लिये मंत्र प्रयोग करता है, धर्मकी प्रभावनाके लिये कौतुक दिखलाता है या वैयावृत्य करनेकी भावनामें तत्पर रहता है वह ज्ञान दर्शन और चारित्र परिणामोंमें आदर भाव रखनेसे दोषका भागी नहीं है, यह भाव है ॥१८४।। चौथी आसुरी भावनाको कहते हैं गा०-अनुबद्ध क्रोध और कलहसे जिसका तप संयुक्त है, ज्योतिष आदिसे आजीविका करता है, निर्दय है, दूसरेको कष्ट देकर भी पश्चात्ताप नहीं करता वह आसुरी भावनाको करता है ॥१८५॥ १. ति तेन यः स्वस्य-आ० मु० । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ भगवती आराधना ___'अणुबंघरोसविग्गहसंसत्ततवो णिमित्तपडिसेवी' रोषश्च विग्रहश्च रोषविग्रही अनुबन्धो रोषविग्रहो अनुबन्धरोषविग्रही अनुबन्धरोषविग्रहाम्यां संसक्तं. संबद्धं अनुबन्धरोषविग्रहसंसक्तं तपो यस्य स तथोक्तः । 'निमित्ताजीवी च' यः स आसुरोभावनां करोति इति केचित्कथयन्ति । अनुबद्धो भवान्तरानुयायी रोषो यस्य सोऽनुबद्धरोषः । विग्रहेण कलहेन संसक्तं तपो यस्य सः विग्रहसंसक्ततपःशब्देन भण्यते । अनुबद्धौ रोषविग्रहो अस्येत्यनुबद्धरोषविग्रहः । सम्यगतीव संसक्तं संबद्धं परिग्रहेण तपो यस्य स संसक्ततपोभिलापवाच्यः । णिक्किवणिराणुतावी, यः निर्दयः प्राणिषु, कृत्वापि परपीडां अनुतापरहितश्चासुरी भावनां करोति ॥१८५॥ संमोहभावना निरूप्यते उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मंग्गविप्पडिवणी य । मोहेण य मोहितो संमोहं भावणं कुणइ ॥१८६॥ उम्मग्गवेसणं मिथ्यादर्शनं, अविरति, वा य उपदिशति, आप्ताभासानागमस्तित्प्रणीतांश्च हितत्वेनाचष्टे । यो वा तत्त्वज्ञो हिसादिकं कुर्वन्नपि न पापेन लिप्यते । ज्ञानं हि सर्वं पापं दहति इति प्रतिपादयता हिंसादिभ्यो भयं निराकुर्वता हिंसादिषु जीवाः प्रवर्तिता भवन्ति । स एकः उन्मार्गस्योपदेष्टा । यज्ञे प्राणिवधो न पापाय शास्त्रचोदितत्वाद्दानादिवत् । किं च पशवो. हि यागार्थमेवादौ सृष्टा याजका यजमानाः पशवश्च मन्त्रमाहात्म्यात्स्वर्ग लभन्ते इति । अयमेकः उन्मार्गोपदेशः । 'मग्गदूसणों' संवरस्य निर्जरायाश्च निरवशेषकर्मापायस्य वा हेतुभूताः समीचीनज्ञानदर्शनचारित्रपरिणामा मार्ग इति उच्यते । अव्याबाधसुखस्य परंपरा ___टी.-अनुबद्ध रोष और विग्रहसे जिसका तप सम्बद्ध है और जो निमित्ताजीवि है वह आसुरी भावनाको करता है ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। अनुबद्ध अर्थात् आगामी भवमें जानेवाला जिसका क्रोध है अर्थात् ऐसा उत्कट क्रोध है जो दूसरे भवमें साथ जाता है वह व्यक्ति अनुवद्ध रोष है, जिसका तप विग्रह अर्थात् कलहसे सम्बद्ध है वह 'विग्रह संसक्त तप' शब्दसे कहा जाता है। जिसका रोष और विग्रह अनुबद्ध है वह अनुबद्ध रोष विग्रह है। और जिसका तप परिग्रहसे अतीव सम्बद्ध है वह 'संसक्त तप' शब्दसे कहा जाता है । जो प्राणियोंमें दया नहीं करता तथा दूसरोंको पीड़ा पहुँचा कर भी पछताता नहीं है, वह आसुरी भावना करता है ।।१८५।। सम्मोह भावनाको कहते हैं--- गा०-जो मिथ्यात्व या असंयमका उपदेश देता है, मार्गको दूषण लगानेवाला है और रत्नत्रयका विरोधी है, अज्ञानसे मूढ है वह सम्मोह भावनाको करता है ।।१८६।। टी.-उम्मग्गदेसण अर्थात् जो मिथ्यादर्शन अथवा अविरतिका उपदेश देता है, आप्ताभासोंको और उनके द्वारा रचित शास्त्रोंको हितकारी कहता है, जो तत्त्वज्ञ है वह हिंसा आदि करते हुए भी पापसे लिप्त नहीं होता, ज्ञान सब पापको भस्म कर देता है ऐसा कहनेवाला हिंसा आदि पापका भय दूर करके जीवोंको हिंसा आदिमें लगाता है। वह उन्मार्गका उपदेशक है। यज्ञमें किया गया प्राणिवध पापका कारण नहीं है क्योंकि वेदमें कहा है जैसे दान पापका कारण नहीं है। प्रारम्भमें यज्ञके लिये ही पशुओंकी सृष्टि की गई थी। जो यज्ञ करते हैं, कराते हैं और पशु, ये सब मरकर मन्त्रके माहात्म्यसे स्वर्गमें जाते हैं। यह भी उन्मार्गका उपदेष्टा है । 'मग्गदूसणो'-संवर और निर्जराके तथा समस्त कर्मोंके विनाशके हेतु सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप परिणाम मार्ग कहे जाते हैं; क्योंकि बाधारहित सुखके परम्परासे कारण हैं, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २२५ कारणत्वाच्च । तस्य मार्गस्य दूषणं नाम ज्ञानादेव मोक्षः किं दर्शनचारित्राभ्यां ? चारित्रमेवोपायः कि ज्ञानेनेति कथयन्मार्गस्य दूषको भवति । अथवा मार्गप्रत्यायनपरं श्रुतं मार्गस्तस्य दूषको यो अपव्याख्यानकारी। 'मग्गविप्पडिवणी य' मार्गे रत्नत्रयात्मके विप्रतिपन्नः एष न मुक्तेर्मार्ग इति यस्तद्विरुद्धाचरणः । मोहेण य अज्ञानेन च संशयविपर्यासरूपेण । 'मुज्झन्तो' मुह्यन् । सम्मोहेसु तीवकामरागेषु कुत्सितेषु देवेषु उपपद्यते ॥१८६।। भावनानां फलं दर्शयति भयोपजननाय एदाहिं भावणाहिं य विराधओ देवदुग्गदि लहइ । तत्तो चुदो समाणो भमिहिदि भवसागरमणंतं ।।१८७॥ ‘एदाहिं भावणाहिं य एताभिः भावनाभिः । 'देवदुग्गई लहदि' देवेषु दुष्टा या गतिस्तां गच्छति । 'विराधगो' रत्नत्रयाच्च्युतः । 'तत्तो चुदो समाणो' तस्या देवदुर्गतेश्च्युतः सन् । 'भमिहिदि' भ्रमिष्यति भवसागरमन्तातीतं ।।१८७।। एदाओ पंच वि वज्जिय इणमो छट्ठीए विहरदे धीरो । पंचसमिदो तिगुत्तो णिस्संगो सव्वसंगेसु ।।१८८॥ 'एदाओ पंच वि वज्जिय' एताः पञ्च भावनाः परित्यज्य 'इणमो' अयं यतिः धीरः। 'छट्ठीए' षष्ठ्या भावनया । 'विहरदे' प्रवर्तते । पष्ठयां भावनायां प्रवर्तितु एवंभूतो योग्यः इत्याचष्टे-'पंचसमिदो' समितिपञ्चकवृत्तिः । 'तिगुत्तो' गुप्तित्रयालंकृतः । 'णिस्संगों' संगरहितः । 'सव्वसंगेसु' सर्वपरिग्रहेषु ॥१८८।। का सा षष्ठीभावना ? अत्राचष्टे तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणा चेय । धिदिबलविभावणाविय असंकिलिट्ठावि पंचविहा ।।१८९।। उस मार्गको दूषण लगाना । यथा-ज्ञानसे ही मोक्ष होता है, दर्शन और चारित्रसे क्या लाभ । अथवा चारित्र ही मोक्षका उपाय है, ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है। ऐसा कहनेवाला मार्गका दूषक होता है। अथवा मार्गका ज्ञान करानेवाला श्रुतमार्ग है उसका जो दूषक है-मिथ्या व्याख्यान रता है। 'मग्गविप्पडिवणी'--रत्नत्रयात्मक मार्गमें विप्रतिपन्न है। यह मुक्तिका मार्ग नहीं है ऐसा मानकर उसके विरुद्ध आचरण करता है और मोह अर्थात् संशय विपर्ययरूप अज्ञानसे मोहित है। वह तीव्रकामी और रागी नीच देवों में उत्पन्न होता है ।।१८६।। भय उत्पन्न करनेके लिये भावनाओंका फल बतलाते हैं गा०-रत्नत्रयसे च्युत हुआ व्यक्ति इन भावनाओंसे देवोंमें जो दुष्टगति है उसे प्राप्त करता है । उस देवदुर्गतिसे च्युत होकर अन्तरहित संसार समुद्र में भ्रमण करता है ।।१८७।। ___ गा०-इन पाँचों ही भावनाओंको त्याग कर यह धीर यति छठी भावनामें प्रवृत्त होता है। जो पाँच समितियोंको पालता है, तीन गुप्तियोंसे सुशोभित है और सब परिग्रहोंमें आसक्ति रहित है । अर्थात् छठी भावनामें प्रवृत्त होनेके योग्य ऐसा यति ही होता है ॥१८८॥ छठी भावनाको कहते हैं२९ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ भगवती आराधना 'तवभावणा' तपसोऽभ्यासः । 'सुदभावणा' ज्ञानस्य भावना । 'सत्तभावणा' अभीरुत्वभावना । 'एगत्तभावणा' एकत्वभावना। 'धिविबलविभाविणावि ' धतिवलभावना चेति । 'असंकिलिष्ठावि पंचविधा' असंक्लिष्टा भावनाः पञ्चप्रकाराः । ननु च ताः पञ्चभावनास्तत्र किमुच्यते 'छट्ठी य भावणा चेति' असंक्लिष्टभावनात्वसामान्यापेक्षया एकतामारोप्य षष्ठीत्युच्यते । विशेषरूपापेक्षया तपोभावनादिविवेकः । अत एव सूत्रकारोऽपि एकतां दर्शयति असंक्किलिट्ठा वि पंचविहा' इति ॥१८९।। तपोभावना समाधेः कथमुपाय इत्यत्राचष्टे तवभावणाए पंचेंदियाणि दंताणि तस्स वसमेंति । इंदियजोगायरिओ समाधिकरणाणि सो कुणइ ॥१९०।। 'तवभावणाए' तपोभावनया असकृदशनत्यागेन द्रव्यभावरूपेण । 'पंचेंदियाणि' पञ्चापि इन्द्रियाणि । 'तस्स' तपोभावनारतस्य । 'वसमेंति' वशमपयान्ति । 'यतो' यस्मात, 'दंताणि' दान्तानि निगहीतदणि । इंदिययोगायरिओ' इन्द्रियाणां शिक्षाविधाय्याचार्योऽसौ । 'समाधिकरणानि' रत्नत्रयसमाधानक्रियाः । 'सो' सः, 'कुगइ' करोति । एतदुक्तं भवति । दान्तानि इन्द्रियाणि तपसा न कामरागमस्यानयन्ति । क्षुधादिभिरुपद्रुतात्मा न वामलोचनासुरतक्रीडादौ करोत्यादरमिति प्रतीतमेव । ननु चाननादी प्रवृत्तस्याहारदर्शने तद्वार्ताश्रवणे तदासेवायां चादरो नितान्तं प्रवर्तते ततोऽयुक्तमुच्यते तपोभावनयां दान्तानीन्द्रियाणीति । इन्द्रियविषय गा०-असंक्लिष्ट अर्थात् संक्लेशरहित भावना भी पाँच प्रकारकी है-तप भावना, श्रुतभावना, सत्त्व भावना, एकत्वभावना और धृतिबल भावना ॥१८९।। टी०-तपका अभ्यास तप भावना है। ज्ञानकी भावना श्रुतभावना है। निर्भयताकी भावना सत्त्व भावना है । एकत्व भावना और धृतिबल भावना ये पाँच असंक्लिष्ट भावना हैं। शंका-ये तो पाँच भावना हैं तब छठी भावना कैसे कहा ? समाधान-असंक्लिष्ट भावनापना इन सबमें समान है, इस अपेक्षा इनमें एकत्वका आरोप करके छठी भावना कहा है। विशेषकी अपेक्षा तपो भावना आदि भेद होता है। इसीसे ग्रन्थकार भी 'असंकिलिट्ठा वि पंचविहा' लिखक र एकताको बतलाते हैं ।।१८९।। तपभावना समाधिका उपाय कैसे है यह कहते हैं गा० द्रव्य और भावरूप तपकी भावनासे पाँचों इन्द्रियाँ दमित होकर उस तप भावनावालेके वशमें हो जाती हैं। इन्द्रियोंको शिक्षा देनेवाला वह आचार्य रत्नत्रयका समाधान करनेवाली क्रियाएँ करता है ।।१९०॥ टी०—इसका भाव यह है कि तपसे दमित इन्द्रियाँ साधुमें कामराग उत्पन्न नहीं करतीं। जो भूख आदिसे पीड़ित है वह स्त्रीके साथ रतिक्रीडा आदि करने में रुचि नहीं रखता यह प्रसिद्ध ही है। शङ्का-जो उपवास आदि करता है उसका आहारके देखने में, आहारकी चर्चा सुनने में और उसके सेवनमें अत्यन्त आदर होता ही है। अतः यह कहना अयुक्त है कि तप भावनासे इन्द्रियाँ दमित होती हैं ? Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २२७ रागकोपपरिणामानां कर्मास्रवहेतुतया अहितत्वप्रकाशनपरिज्ञानपुरःसरतपोभावनया विषयसुखपरित्यागात्मकेन अनशनादिना दान्तानि भवन्ति इन्द्रियाणि । पुनः पुनः सेव्यमानं विषयसुखं रागं जनयति । न भावनान्तरान्तहितमिति मन्यते ॥१९॥ तपोभावनारहितस्य दोषमाचष्टे उत्तरप्रवन्धेन सदृष्टान्तोपन्यासेन इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराजियपरस्सो। अकदपरियम्म कीवो मुज्झदि आराहणाकाले ।।१९।। 'इंदियसुहसाउलओ' इन्द्रियसुखस्वादलम्पटो। 'घोरपरीसहपराजियपरस्सो' परीषहैः घोरैः दुःसहः क्षुदादिभिः पराजितोऽभिभूतः सन् यः पराङ्मुखतां गतो रत्नत्रयस्य । 'अकदपरियम्म कीवो' अकृतं परिकर्म तपआराधनाया येनासौ अकृतपरिकर्मा । 'कीवो' दीनः । 'मुज्झइ' मुह्यति विचित्ततामाप्नोति । 'आराहणाकाले' आराधनायाः काले ॥१९॥ अत्र दृष्टान्तमाह जोग्गमकारिज्जतो अस्सो सुहलालिओ चिरं कालं । रणभूमीए वाहिज्जमाणओ जह ण कज्जयरो ॥१९२।। 'जोग्गमकारिजंतो' वाक्चालनभ्रमणलङ्घनादिकां शिक्षा अकार्यमाणः । 'अस्सो' अश्वः । 'सुहलालिओ' सुखलालितः । 'चिरं कालं रणभूमीए' युद्धभूमौ । 'वाहिज्जमाणगो' वाह्यमानः । 'जह ण कज्जकरों' यथा कार्य न करोति तथा यतिरपि ॥१९२।। सुगमत्वान्न व्याख्यायते गाथात्रयम् तवभावणा पुवमकारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले । ण भवदि परीसहसहो विसयसुहे मुच्छिदो जीवो ॥१९३॥ । समाधान-इन्द्रियके विषयमें होनेवाले राग द्वेषरूप परिणाम कर्मोके आस्रवमें हेतु होते हैं इसलिये वे अहितकारी हैं। इस परिज्ञानपूर्वक तपोभावनासे किये गये अनशन आदिसे जो कि विषय सुखके परित्यागरूप है, इन्द्रियाँ दमित होती हैं। बार बार सेवन किया गया विषय सुख रागको उत्पन्न करता है । किन्तु भावनासे दमित हुआ नहीं करता !!१९०॥ जो तपभावनासे रहित है उसका दोष दृष्टान्तपूर्वक आगेकी गाथासे कहते हैं गा०—जो इन्द्रिय सुखके स्वादमें आसक्त है, भूख आदिको दुःसह परीषहोंसे हारकर रत्नत्रयसे विमुख हुआ है, जिसने परिकर्म-आराधनाके योग्य तप नहीं किया है वह दीन आराधना के कालमें विचित्त हो जाता है उसका मन इधर-उधर भटकता है ॥१९१॥ इसमें दृष्टान्त देते हैं गा०-जैसे जिस घोड़ेको शब्दके संकेत पर चलने, भ्रमण, लंघन आदिकी शिक्षा नहीं दी गई है और चिरकाल तक सुखपूर्वक लालन पालन किया गया है वह घोड़ा युद्धभूमिमें सवारीके लिये ले जाया गया कार्य नहीं करता वैसे ही यति भी जानना ।।१९२।। आगेकी तीन गाथाएँ सुगम हैं अतः उनकी टीका नहीं है Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ भगवती आराधना जोग्गं कारिज्जतो अस्सो दुहभाविदो चिरं कालं । रणभूमीए वाहिज्जमाणओ कुणदि जह कज्जं ॥१९४॥ पुव्वं कारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले । होदि हु परीसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो ॥१९५॥ श्रुतभावनामाहात्म्यं प्रकटयति सुदभावणाए णाणं दंसणतवसंजमं च परिणवइ । तो उवओगपइण्णा सुहमच्चविदो समाणेइ ।।९६।। 'सुवभावणाए'–श्रूयते इति श्रुतमित्यस्यां व्युत्पत्तो शब्दश्रुतमुच्यते । तस्य भावना नाम तदर्थविषयज्ञानासकृत्प्रवृत्तिः । ननु शब्दश्रुतस्यासकृत्पठनं श्रुतभावना स्यात, ज्ञानं ततोऽर्थान्तरं ? अत्रोच्यते-श्रुतकार्य ज्ञाने श्रुतशब्दो वर्तते इति । न दोषो वा । गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्तावपि नाश्वादी गोशब्दो वर्तते । किन्तु रूढिवशात्सास्नादिमत्येव । एवमिहापि श्रयते इति व्यत्पादितोऽपि न सकले श्रोत्रोपलभ्ये वचनसन्दर्भ प्रवर्तते. अपि तु स्वसमयरूढिवशाद् गणधरोपरचिते एव । तथैव श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ते ज्ञाने एव वर्तते । तस्यास्य श्रुतज्ञानस्य भावनया। 'णाणं दंसणतवसंजमं च परिणमइ' समीचीनज्ञानदर्शनतपःसंयमपरिणतिः गा-जिसने पूर्व कालमें तप नहीं किया और विषय सुखमें आसक्त रहा वह जीव मरते समय समाधिकी कामना करता हुआ उस प्रकार परीषहको सहन करनेवाला नहीं होता ॥१९३॥ गा०-जैसे योग्य शिक्षाको प्राप्त अश्व चिरकाल तक दुःखसे भावित हुआ, अर्थात् कष्ट सहनेका अभ्यासी युद्धभूमिमें सवारीमें ले जाने पर कार्य करता है ॥१९४।। गा०-उसी प्रकार पूर्व में तप करनेवाला विषय सुखसे विमुख जीव मरते समय समाधिका इच्छुक हुआ निश्चयसे परीषहको सहनेवाला होता है ॥१९५।। श्रु तभावनाका माहात्म्य प्रकट करते हैं गा०-श्रुतभावनासे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, तप और संयमरूप परिणमन करता है। ज्ञान भावनासे उपयोगकी प्रतिज्ञाको सुखपूर्वक अचलित होता हुआ समाप्त करता है ।।१९६॥ टी०-'श्रूयते' जो सुना जाता है वह श्रुत है 'ऐसी व्युत्पत्ति करनेपर श्रुतसे शब्दश्रुत कहा जाता है । उसकी भावनाका मतलब है-शब्दके अर्थविषयक ज्ञानमें बार-बार प्रवृत्ति करना अर्थात् उसका अभ्यास करना श्रुतभावना है। शंका-शब्दरूप श्रुतका बार-बार पढ़ना श्रुतभावना है । ज्ञान उससे भिन्न है ? समाधान-श्रुतका कार्य ज्ञान है अतः उसे भी श्रुतशब्दसे कहते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है । जो 'गच्छति' चलती है वह गौ है ऐसी व्युत्पत्ति करनेपर भी अश्व आदिको 'गौ' शब्दसे नहीं कहा जाता। किन्तु रूढ़िवश गलकम्बलवाले पशुको ही गौ कहा जाता है। इसी प्रकार यहाँ भी 'श्रूयते' जो सुना जाता है वह श्रुत है ऐसी व्युत्पत्ति करनेपर भी कानसे जो कुछ वचन समूह सुना जाता है उस सबको श्रुत नहीं कहते । किन्तु अपनी आगमिक रूढ़िवश गणधरके द्वारा रचे गये शब्दसमूहको ही श्रुत कहते हैं। उसी प्रकार श्रु तज्ञानावरणके क्षयोपशमके निमित्तसे होनेवाले ज्ञानको ही श्रुत कहते हैं। उस श्रुतज्ञानकी भावनासे समीचीनज्ञान दर्शन तप और Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २२९ प्रतिपद्यते । ज्ञानभावनापरो ज्ञानपरिणतो भवत् कथमसौ दर्शनादौ परिणामान्तरे प्रवृत्तो भवति ? न हि क्रोधपरिणतो मायायां प्रवृत्तो भवतीति चेन्नैष दोषः । यद्यान्नन्तरीयक तस्मिन्सति तद्भवत्येव तदधिकरणे यथा कृतकत्वेऽनित्यत्वं । ज्ञानं चान्तरेण न भवन्ति सम्यग्दर्शनादयः । अत्रेदं चोद्यं-असंयतसम्यग्दृष्टेरस्ति ज्ञानं तस्य तपःसंयमौ किमुत स्तः ? संयमसद्भावे कथमसंयतता? तस्मान्न तौ स्तः । कथमिदं सूत्रं ? नायमस्य सूत्रस्यार्थो ज्ञानभावनायां सत्यां भवत्येव सर्व एव इति, किन्तु ज्ञानभावनायां सत्यामेव भवन्ति नासत्याम् । तपःसंयमौ कार्यत्वेन स्थितौ चारित्रमोहक्षयोपशमविशेषसहायापेक्षिणा ज्ञानेन प्रवत्येते, न चावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति । धूममजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात काष्ठाद्यपेक्षस्य । 'तो' ततः ज्ञानभावनातः । 'उवओगपदिण्णां' ज्ञानदर्शनतपःसंयमपरिणामप्रबन्धे प्रवर्तयाम्यात्मानं इति या उपयोगप्रतिज्ञा तां । 'सह' अक्लेशेन । 'समादि' समापयति । 'अच्चविदो' अचलितः ॥१९६।। जदणाए जोग्गपरिभाविदस्स जिणवयणमणुगदमणस्स । सदिलोवं कादं जे ण चयंति परीसहा ताहे ॥१९७।। 'जदणाए' यत्नेन । 'जोग्गपरिभाविदस्स' युज्यते अनेन अनशनादिना निर्जराथं यतिरिति बाह्यं तपः संयमरूप परिणतिको प्राप्त होता है। . शंका-जो ज्ञानभावनामें लीन है वह ज्ञानरूप परिणत होता है किन्तु वह दर्शन आदि अन्य परिणामरूप परिणत कैसे हो सकता है ? जो क्रोध रूपसे परिणत है वह मायारूपसे परिणत नहीं हो सकता? : समाधान-यह दोष उचित नहीं है। जो जिसके विना नहीं होता वह उसके होनेपर अवश्य होता है। जैसे जो बनाया हुआ है वह अनित्य अवश्य है। ज्ञानके विना सम्यग्दर्शन आदि नहीं होते। शंका-यहाँ यह तर्क होता है कि असंयत सम्यग्दृष्टीके ज्ञान है तब क्या उसके तप और संयम है ? यदि संयम है तो वह असंयत कैसे है ? अतः उसके तप और संयम नहीं हैं ? तब यह सूत्रगाथा कैसे ठीक है ? समाधान-इस सूत्रगाथाका यह अर्थ नहीं है कि ज्ञानभावनाके होनेपर सब तप संयम आदि होते ही हैं। किन्तु ज्ञानभावनाके होनेपर ही होते हैं, उसके अभावमें नहीं होते। तप और संयम कार्य है अतः चारित्रमोहके क्षयोपशम विशेषकी अपेक्षा सहित ज्ञानके होनेपर होते हैं। कारणके होनेपर कार्य अवश्य होता ही है ऐसा नियम नहीं है। काष्ठ आदिकी आग बिना घूमके भी देखी जाती है। ज्ञानभावनासे उपयोग प्रतिज्ञाको बिना क्लेशके अचल होकर समाप्त करता है—पूर्ण करता है । 'मैं ज्ञान दर्शन तप संयमरूप परिणामोंमें अपनेको प्रवृत्त करता हूं' यह उपयोग प्रतिज्ञा है ॥१९६|| गा०-तब यत्नसे अपनेको तपसे भावित करनेवालेके तथा जिनागमके अनुगत चित्तवालेके स्मृतिका लोप करनेमें परीषह समर्थ नहीं होती ॥१९७।। ट्री०-यति निर्जराके लिए इस अनशन आदिसे 'युज्यते' युक्त होता है वह योग है। इस Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० भगवती आराधना योगशब्देनारोच्यते । तेनायमर्थः । तपसा भावितस्येति । 'जिणवयणमणुगदमणस्स' जिनवचनानुगतचेतसः । 'सदिलोवं' स्मृतिलोपं । रत्नत्रयपरिणामप्रवन्धसम्पादनोद्योगस्य स्मृतिर्या तस्या विनाशं । 'काउंजे' कतु । 'न चयंति' न शक्नवन्ति । के ? परिस्सहा' क्षुदादिवेदनाः । 'ताहे' तदा । एतदुक्तमनया गाथया-अभ्यस्यमानं श्रुतज्ञानं निर्मलं पटोयो भवति । पाटवाभ्यासबलेन च स्मृतिरखे देन प्रवर्तते । स्मृतिमलो हि योगो वाक्कायव्यापार इति । सुदं गदं ॥१९७।।। सत्वभावनाया गुणं स्तौति उत्तरगाथया देवेहिं भीसिदो वि हु कयावराधो व भीमरूवेहिं । तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिब्भओ सयलं ।।१९८॥ बहुसो वि जुद्धभावणाय ण भडो हु मुज्झदि रणम्मि । तह सत्तभावणाए ण मुज्झदि मुणी वि उवसग्गे ॥१९९।। 'देवेहि' देवस्त्रासितोऽपि । खु स्फुटं । कृतापराधोऽपि भीमरूपैः । वा अथवा । तो ततः । सत्वभावनया सोढदुःखात् । 'वहई भरं णिब्भओ सयलं' वहति भरं संयमस्य निर्भयः सकलं । मतेर्भीमरूपदर्शनाच्च भीतिरुपजायते । भीतस्य प्रच्युतरत्नत्रयस्य तदतिदुरवापं । तदनवाप्त्या न कर्म निमूर्लनं शक्यं कत्तु। अनाव्युत्पत्तिके अनुसार यहाँ योग शब्दसे बाह्य तप कहा है । अतः 'जोग्गपरिभाविदस्स' का अर्थ तपसे भावित होता है। जो यत्नपूर्वक तप करता है और अपने चित्तको जिनागमका अनुसारी बनाता है उसकी स्मृतिका-अर्थात् रत्नत्रयरूप परिणामोंके प्रबन्ध सम्पादनमें उद्योग करनेकी जो उसकी स्मति है कि मुझे रत्नत्रयरूप परिणामोंको सम्पन्न करने में उद्योग करना है उस स्मृतिक लोप परीषह नहीं कर सकतीं। इस गाथासे यह कहा है कि सतत अभ्यास करनेसे श्र तज्ञाना निर्मल और प्रबल होता है। प्रबल अभ्यासके बलसे स्मति विना खेदके अपना काम करती है। योग अर्थात् वचन और कायके व्यापारका मूल स्मृति है ।।१९७|| श्रुतभावनाका कथन समाप्त हुआ। आगेकी गाथासे सत्त्वभावनाके गुणका कथन करते हैं गा०-देवोंके द्वारा पीड़ित किया गया भी अथवा भयंकर जीवोंके द्वारा सताया गया यति सत्त्वभावनाके द्वारा दुःख सहन करनेसे निडर होकर संयमके समस्त भारको वहन करता है ।।१९८॥ टो०-मरणसे और भयंकररूपके देखनेसे भय उत्पन्न होता है। डरकर यदि रत्नत्रयको छोड़ बैठा तो पुनः उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है। और रत्नत्रयको प्राप्त किये विना कर्मका निर्मूलन करना शक्य नहीं है। तथा कर्मोंका विनाश न होनेपर वे आत्माको नाना प्रकारके कष्ट देते हैं। इसलिए भय ही अनेक अनर्थोंका मूल है ऐसा निश्चय करके सबसे पहले भयको ही भगाना चाहिए ॥१९८॥ गा०–अनेक प्रकारकी भी युद्ध सम्बन्धी भावनासे जैसे योद्धा युद्ध में नहीं ही मोहित होता अर्थात् युद्धसे नहीं डरता। वैसे ही मुनि भी सत्त्वभावनासे उपसर्ग आनेपर मोहित नहीं होता ॥१९९|| Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका सादितप्रलयानि च कर्माणि विचित्रं यातयन्त्यात्मानं । ततो भीतिरेवानेकानर्थमूलमिति निश्चित्य सा प्रागेव निरसनीया। तथाहि-||१९९॥ खणणुत्तावणवालणवीयणविच्छेयणावरोहत्तं । चिंतिय दुह अदीहं मुज्झदि णो सत्तभाविदो दुक्खे ॥२००।। बालमरणाणि साहू सुचिंतिदूणप्पणो अणंताणि । मरणे समुट्ठिए विहि मुज्झइ णो सत्तभावणाणिरदो ॥२०१।। पृथिवीकायिकाः सन् खननदहनविलेखनकुट्टनभञ्जनलोठनपेषणचूर्णनादिभिर्बाधां परिप्राप्तोऽस्मि । अपश्च शरीरत्वेनोपादाय धर्मरश्मिकरनिकरापातेन, दहनज्वालाकलापकवलिततनुतया पर्वतदरीसमुन्नतदेशेभ्योऽतिवेगेन शिलाघनवसुन्धरासु पतनेन, आम्ललवणक्षारादिरससमवेतद्रव्यसन्मिश्रणेन, धगधगायमानेऽग्नौ प्रक्षेपणेन, तरुतटशिलापातेन पादकरतलाभिघातेन, तरणोधतानां विशालघनोरःस्थलावपीडनेन, अवलोकमानमहानागतरणमज्जनहस्तक्षोभणादिना व महती वेदनां अधिगतोऽस्मि । तथा समीरणं तनुतया परिगृह्य द्रुमगुल्मशिलोच्चयादीनां प्राणभृतां नितान्तकठिनकायानां चाभिघातेन समीरणान्तरावमनेन, ज्वलनस्पर्शनेन च दुःखासिकामनुभूतोऽस्मि । तथा परिगृहीताग्निशरीरो विध्यापनेन पांसुभस्मसिकतादिप्रक्षेपणेन, मुशलमात्रजलधारापातेन, दण्डकाष्ठादिभिस्ताडनेन, लोष्ठपाषाणादिभिश्चणनेन प्रभञ्जनभञ्जनेन विपदमाश्रितोऽस्मि । फलपलाशपल्लवकुसुमादिकायं स्वीकृत्य त्रोटनभक्षणमर्दनपेषणदहनादिभिस्तथा गुल्मलतापादपादिकं गा०-खोदना, जलना, वहना छेदना, रोपनाको विचारकर सत्त्वभावनायुक्त मुनि दुःखमें अल्पकालीन दुःखसे मोहित नहीं होता अर्थात् नहीं डरता ॥२०॥ गा०-सत्त्वभावनामें लीन साधु अपने अनन्त बालमरणोंको सम्यकरूपसे विचारकर मरणके उपस्थित होनेपर भी मोहित नहीं होता ॥२०१।। टी०-पृथ्वीकायमें जन्म लेकर मैंने खोदने, जलने, जोतने, कूटने, तोड़ने, लोटने, पीसने और चूर्णकी तरह पीसे जानेका कष्ट उठाया है। जलको शरीररूपसे ग्रहण करके मैंने सूर्यकी किरणोंके समहके गिरनेसे. आगकी ज्वालाके समहके द्वारा मेरे शरीरको निगल लेनेसे. पर्वतर्क गुफा जैसे ऊँचे स्थानोंसे शिला और कठोर पृथिवी पर अतिवेगसे गिरनेसे, खट्टे, नमकीन, खारे आदि रसोंसे युक्त द्रव्योंके मिलनेसे, धक्-धक् जलती हुई आग पर फेंकनेसे, वृक्ष, किनारे और शिलाओंके गिरनेसे, पैर और हथेलीके अभिघातसे, तैरनेमें उद्यत मनुष्योंके विशाल और दृढ़ छातीसे पीड़ित होनेसे, विशालकाय हाथियों के तैरने डूबने और सूंडके द्वारा क्षोभित होनेसे मैने बड़ी वेदना भोगी है। तथा वायुको शरीररूपसे ग्रहण करके वृक्ष, झाड़ी, पर्वत आदि प्राणियोंकी अत्यन्त कठोर कायाके अभिघातसे, दूसरी वायुके द्वारा दबाये जानेसे, और आगके स्पर्शनसे मैंने दुखोंका अनुभव किया है। तथा अग्निको शरीररूपसे ग्रहण करके बुझानेसे, धूल भस्म रेत आदि मेरे ऊपर फेंकनेसे, मसल जैसी जलधारा डालनेसे, दण्ड काष्ठ आदिसे पीटनेसे, लोष्ठ पत्थर आदि से चूर्णित करनेसे और वायुसे पीड़ित होनेसे मैं विपत्तियोंका स्थान बन चुका हूँ। फल, पलाश, पत्र, फूल आदिके शरीरको स्वीकार करके तोड़ना, खाना, मलना, पीसना और जलाने आदिसे Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ भगवती आराधना तनूकृत्य छेदनेन, भेदनेनोत्पाटनेन, रोहणेन, कर्षणेन, दहनेन च क्लेशभाजनतामुपयातोऽस्मि । तथा कुन्थुपिपीलिकादित्रसो भूत्वा वेगप्रयायिरथचक्राक्रमणेन खरतुरगादिपरुषखुरसन्ताडनेन, जलप्रवाह प्रकर्षणेन, दावानलेन, द्रुमपाषाणादिपतनेन, मनुजचरणावमर्द्दनेन, बलवतां भक्षणेन च चिरं क्लिष्टोऽस्मि । तथा खरकरभबलीवर्दादिभावमापद्य गुरुतरभारारोपणेन, बन्धनेन, कर्कशतरकशादण्डमुशलादिताडनेनाहारनिरोधनेन, शीतोष्णवातादिसंपातेन, कर्णच्छेदनेन, दहनेन, नासिकावेधनेन विदारणेन, परश्वादिनिशितासिधारा प्रहारेण चिरमुपद्रुतोऽस्मि । तथा भग्नपादं कृशतया व्याध्यभिभवेन वा पतितं इतस्ततः परावर्त्यमानं, क्रूरतमव्याघ्र शृगालसारमेयादिभिर्भक्ष्यमाणं, काकगृध्रकङ्कादिभिः कवलीक्रियमाणं, तरलतरतारकाक्षियुगलं, कस्त्रातुमासीत् । ततो यतो गुरुतर भारोद्वहनजात क्वथितव्रणसमुद्भव कृमिकुलेन, काकादिभिश्चानारतमुपद्रुतोऽस्मि । तथा मनुजभवेऽपि करणवैकल्याद्दारिद्रद्यादसाध्यव्याध्युपनिपातात्, प्रियालाभादप्रिययोगात्परप्रेष्यकरणादपरपराभवात्, द्रविणार्जनाशया दुष्करकर्मादानमूलषट्कर्मोद्योगाच्च, विचित्रां विपदमुतोऽस्मि । तथैवामरभवेऽपि 'दूरमपसर लघु प्रयाहि, प्रभोः प्रस्थान वेला वर्तते, प्रयाणपटहं ताडय, ध्वजं धारय, हताशदेवीजनं पालय, तिष्ठ स्वामिनोऽभिलषितेन वाहनरूपेण, कि विस्मृतोऽस्य 'नल्पपुण्यपण्यशतमखस्य दासेरतां यत्तूष्णीं तिष्ठसि । पुरो न धावसीति देवमहत्तरपरुषतरभारतीशलाकानां श्रवणतोदनेन शतमुखान्तःतथा झाड़ी, बेल, वृक्ष आदिको छेदने, भेदने, उखाड़ने, खींचने और जलानेसे मैं क्लेशका पात्र बना हूँ । तथा कुंथु चींटी आदि त्रस पर्यायको धारण करके वेगसे जाते हुए रथके पहियेके आक्रमणसे, गधे घोड़े आदिके कठोर खुरके आघातसे, जलके प्रवाहके खिचावसे, जंगल की आगसे, वृक्ष, पत्थर आदिके गिरने से, मनुष्यके चरणोंसे रौंदे जानेसे और बलवानोंके द्वारा खाये जानेसे मैंने चिरकाल तक कष्ट भोगा है । तथा गधा ऊँट बैल आदिका शरीर धारण करके भारी बोझा लादनेसे, सवारी करनेसे, बाँधनेसे, अत्यन्त कठोर कोड़े, दण्डे, और मूसल आदिसे पीटनेसे, भोजन न देनेसे, शीत उष्ण वायु आदिके चलने से, कान छेदनेसे, जलानेसे, नाक छेदनेसे, परशु आदिसे काटने से, तीक्ष्ण तलवारकी धारके प्रहारसे मैंने चिरकाल उपद्रव सहे हैं । तथा पैर टूट जाने पर, कमजोर होनेसे अथवा रोगसे पीड़ित होनेसे गिर पड़ने पर इधर-उधर घूमने पर अतिक्रूर व्याघ्र, सियार, कुत्ते आदि खाये जाने पर, कौवे, गिद्ध, कंक आदि पक्षियोंके द्वारा अपना आहार बनाये जाने पर, आखोंसे आँसू बहाते हुए भी कौन मेरी रक्षा करता था । अतः भारी बोझा लादनेसे उत्पन्न हुए घावों में पैदा हुए कीटोंसे और उनको खाने वाले कौओंसे मैं निरन्तर सताया गया हूँ। तथा मनुष्यभवमें भी इन्द्रियों की कमी होनेसे, गरीबीसे, असाध्य रोगके होनेसे, इष्ट वस्तुके न मिलने से, अप्रियके संसर्गसे दूसरे की चाकरी करनेसे, दूसरेके द्वारा तिरस्कृत होनेसे, धन कमानेकी इच्छासे दुष्कर कर्मबन्धके कारण षट्कर्मों को करनेसे अनेक प्रकारकी विपत्तियोंको मैंने भोगा है । उसी प्रकार देवपर्याय में भो-दूर हटो, जल्दी चलो, स्वामीके प्रस्थान करनेका समय है । प्रस्थान करनेके नगारे बजाओ, ध्वजा लो, निराश देवियोंको देखभाल करो, स्वामीको इष्ट वाहनका रूप धारण करके खड़े रहो, क्या अति पुण्यशाली इन्द्रकी दासताको भूल गये जो चुपचाप खड़े हो, आगे नहीं दौड़ते । इस १. स्यल्प - अ० आ० । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २३३ पुरादभ्रविभ्रमविलोकनोद्भूताभिलाषदहनजनितसन्तापेन षण्मासावस्थितेरायुषः परिज्ञानेन च महदुदपादि दुःखं । एवं नरकभवेपि । इत्थमनन्तकालमनुभतदुःखस्य मम को विषादो, दुःखोपनिपाते। न च विपण्णं त्यजन्ति दुःखानि, स्वकारणायत्तसन्निधानानि तानीति सत्वभावना। यद्यशुभशरीरदर्शनाद् भीतिः सापि नो युक्ता । तानि शरीराणि असकृन्मया गृहीतानि दृष्टानि च। का तत्र परिचितेभ्यो भीतिरिति चित्तस्थिरीक्रिया सत्वभावना ॥२०॥ एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा । सज्जइ वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं ॥२०२॥ एकत्वभावना नाम जन्मजरामरणावृत्तिजनितदुःखानुभवने न दुःखं मदीयं संविभजति कश्चित् । दुःखसंविभजनगुणन स्वजन इत्यनुरागः तदकरणेन च परजन इति च द्वेषो युज्यते । न चेदस्ति सुखं मय्याधातुमक्षमः इति न तत्सूखेनापि स्वजनपरजनविवेकः। तस्मादेक एवाहं न मे कश्चित् । नाप्यहं कस्यचिदिति चिन्ता कार्या। तस्या गणमाचष्टे 'एयत्तभावणाए' एकत्वभावनया हेतभतया । 'न सज्ज दि' नासक्ति करोति । क्व ? कामभोगे, गणे शिष्यादिवर्गे, शरीरे वा सुखे वा। कामं स्वेच्छया भुज्यन्ते इति कामभोगाः । सुखसाधनतया संकल्पितभक्तपानादयो वामलोचनादिवर्गश्च तत्र न संगं करोति । बाह्यद्रव्यसंसर्ग प्रकार देवोंके प्रधानोंके अति कठोर वचन रूपी कीलोंसे कानोंके छेदनेसे, इन्द्रके अन्तपुरकी देवांगनाओंके प्रचुर विलासको देखकर उत्पन्न हुई ऐसी सुन्दर देवांगनाओंकी अभिलाषारूपी आगसे उत्पन्न हुए संतापसे, और आयुके छह मासके शेष रहनेके परिज्ञानसे महान दुःख होता है। इसी प्रकार नरक पर्यायमें भी जानना । इस प्रकार मैंने अनन्तकाल दुःखका अनुभव किया है। तब दुःख आने पर विषाद क्यों ? विषाद करनेसे दुःख छोड़ता नहीं है । दुःख तो अपने कारणोंके होनेसे होता है । यह सत्त्वभावना है। यदि अशुभ शरीरके देखनेसे भय होता है तो वह भी ठीक नहीं है । ऐसे शरीर मैंने बहुत बार धारण किये हैं और देखे हैं। परिचितोंसे भय कैसा ? इस प्रकार चित्तको स्थिर करना सत्त्वभावना है ।।२०१।। गा०-एकत्व भावनासे कामभोगमें, संघमें अथवा शरीरमें आसक्ति नहीं करता । वैराग्यमें मन रमाये हुए सर्वोत्कृष्ट चारित्रको अपनाता है ।।२०२।। टो०-एकत्व भावनाका स्वरूप इस प्रकार है-जन्म, जरा, और मरणके वार-बार होनेसे उत्पन्न हुए दुःखको भोगने में कोई मेरे दुःखमें भाग नहीं लेता। अतः दुःखमें भाग लेनेसे यह स्वजन है इसलिए उसमें अनुराग और जो दुःखमें भाग नहीं लेता वह परजन है इसलिए उससे द्वष करना उचित नहीं है । यदि कोई दुःखमें भाग नहीं लेता तो मुझमें सुख हो पैदा करदे सो भी बात नहीं है। अतः जो मुझमें सुख पैदा करे वह स्वजन है और जो सुख पैदा नहीं करता वह परजन है ऐसा भेद सुखको लेकर भी नहीं होता। अतः मैं अकेला ही हूँ। कोई मेरा नहीं है। और न मैं ही किसीका हूँ ऐसा विचार करना चाहिए । उसका लाभ कहते हैं कि एकत्व भावनासे काम भोगमें, शिष्यादिके समूहरूप गणमें, शरीर अथवा सुखमें आसक्ति नहीं होती। 'काम' अर्थात् अपनी इच्छासे जो भोगे जाते हैं वे कामभोग हैं। सुखका साधन होनेसे मनमें संकल्पित खान-पान आदि और स्त्री आदि वर्ग कामभोग हैं। उसमें वह आसक्ति नहीं Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना २३४ जनिताः प्रीतिविशेषाः सुखशब्दवाच्यास्ते तृष्णामेवातिशयवतीं आनयंति चेतोव्याकुलकारिणीं न चेतः स्वास्थ्यं संपादयितुमीशा इति । न तु उपयोग्याः कामभोगाः, रत्नत्रयसंपत्तिरेव जनस्योपयोगिनी, न तथा भोगसंपदा - स्माकं किञ्चिदस्ति कृत्यं । मदीयपरिणामावलंबिनौ हि बन्धमोक्षौ मम । ततः किं तेन गणेन । शरीरमप्यकिञ्चित्करं । न चेत्कर्माणि किञ्चित्कुर्युः । बाह्यं जीवाजीवात्मकं द्रव्यं रागकोपनिमित्तं इदमुपकारकमनुपकारकमिति वा संकल्प्यमानं नान्यथा । ततः संकल्पमीदृग्भूतं विहाय शुद्धात्मस्वरूपज्ञानपरिणामप्रबन्धः असहायात्मस्वरूपविषय इति एकत्वभावनोच्यते । सत्यामस्यां न क्वचित्सङ्गः' ततः 'वेरग्गग्रदो' वैराग्यमुपगतः । 'फाइ' स्पृशति । 'अणुत्तरं धम्मं' अतिशयितं चारित्रं । एतेन संसारवीजस्य सङ्गस्य निवृत्तिरशेषकर्मापायतोश्चारित्रस्य च लाभो गुण एकत्वभावनाजन्यः इत्याख्यातं भवति । एकत्वभावना मोहमज्ञानरूपं अप्यपनयति यथा जिनकल्पिको निरस्तमोहः संवृत्तः ॥ २०२॥ भयणीए विधम्मिज्जंतीए एयत्तभावणाए जहा । जिणकप्पिदो ण मूढो खवओ वि ण मुज्झइ तधेव ॥ २०३ ॥ यथा जिनकल्पिको जिनकल्पकं प्रपन्नो नागदत्तो नाम मुनिर्भगिन्यामयोग्यं कारयन्त्यामपि एकत्वभावनया | ,ण मूढो' मोहं न गतः । तथैव क्षपकोऽपि न मुह्यतीति गाथार्थः । एकत्वभावना ॥२०३॥ पञ्चमी धृतिबलभावना दुःखोपनिपात अकातरता धृतिः सैव बलं धृतिबलं तस्य भावनाभ्यासः असकृदकातरतया वृत्तिः । तया धृतिबलभावनया दुःखदपरीषहचम्वा युध्यतीति निगदति- करता । बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए प्रीति विशेषको सुख शब्दसे कहते हैं । वे चित्तको व्याकुल करने वाली अति तृष्णाको ही पैदा करते हैं । वे चित्तको स्वस्थ करनेमें समर्थ नहीं हैं । कामभोग भोगने योग्य नहीं हैं । रत्नत्रयरूप संपत्ति ही मनुष्यके लिए उपयोगी है । उस भोगसम्पदासे हमें कुछ नहीं करना है । मेरे परिणामों पर अवलम्बित बन्ध और मोक्ष ही मेरे हैं । अतः गणसे मुझे क्या ? शरीर भी अकिञ्चित्कर है । यदि ऐसा न होता तो कर्म क्या करते । बाह्य जीव अजीव आदि द्रव्योंमें यह उपकारक है और यह उपकारक नहीं है ऐसा संकल्प करनेसें ही रागद्वेष होते हैं, और संकल्प न करनेसे नहीं होते । इसलिए इस प्रकारका संकल्प त्यागकर शुद्ध आत्म स्वरूपके ज्ञानरूप परिणामोंका प्रबन्ध और परकी सहायता से रहित आत्म स्वरूपका चिन्तन एकत्व भावना कहाता है । उसके होने पर किसी भी पदार्थ में ममत्व नहीं होता । अतः वैराग्य धारण करके उत्कृष्ट चारित्रको अपनाता है । इससे यह कहा है कि संसारका बीज जो ममत्वभाव हैं उससे निवृत्ति और समस्त कर्मोंके विनाशका कारण जो चारित्र है उसकी प्राप्ति एकत्व भावनासे होने वाले गुण हैं । एकत्व भावना अज्ञानरूप मोहको भी दूर करती है । जैसे जिनकल्पी मोहको दूर करते हैं ||२०२|| गा० - जैसें अयोग्य आचरण करनेवाली अपनी बहनमें जिनकल्पको धारण करनेवाला नागदत्त नामक मुनि एकत्व भावनासे मोहको प्राप्त नहीं हुआ । वैसे ही क्षपक भी मोहको प्राप्त नहीं होता || २०३ || एकत्व भावना समाप्त हुई । पाँचवी धृतिबल भावना है । उसका अर्थ है दुःख आनेपर कार नहीं होना । धृति अर्थात् धैर्य ही हुआ बल । उसकी भावना अर्थात् अभ्यास, निरन्तर कात १. संगं करोति वे-आ० मु० । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ विजयोदया टीका कसिणा परीसहचमू अब्भुट्टइ जइ वि सोवसग्गावि । दुद्धरपहकरवेगा भयजणणी अप्पसत्ताणं ॥२०४।। 'कसिणा' कृत्स्ना । 'परीसहचम्' परीषहसेना क्षुदादिद्वाविंशतिदुःखपृतनेति यावत् । 'अब्भुट्ठई' आभिमुख्येनोत्तिष्ठति । 'जइवि' यद्यपि 'सोवसग्गा वि' चतुर्विधेनोपसर्गेण सह वर्तमानापि । 'दुद्धरपहकरवेगा' दुर्धरसंकटवेगा । 'अप्पसत्ताणं भयजणणी' अल्पसत्वानां भयजननी ।।२०४|| धिदिधणिदवद्धकच्छो जोघेइ अणाइलो तमच्चाई । धिदिभावणाए सूरो संपुण्णमणोरहो होई ।।२०५।। 'तं' तां पृतनां । 'जोधेई' योधयति । कया सह ? 'धिदिभावणाए' धृतिमावनया । कः ? 'धिदिधणिदबद्धकच्छो' धृत्या नितरां बद्धकक्षः। 'सूरो' शूरः । 'अणाइलो' अनाकुलो विक्रमवान् । फलमाचष्टे तस्य 'संपुण्णमणोरहो होइ' संपूर्णमनोरथो भवति ॥२०५॥ एयाए भावणाए चिरकालं हि विहरेज्ज सुद्धाए । काऊण अत्तसुद्धि दंसणणाणे चरित्ते य ॥२०६॥ 'एयाए भावणाए' एतया पञ्चप्रकारया भावनया सह । 'चिरकालं विहरेज्ज' चिरं प्रवर्तेत । 'सुद्धाए' शुद्धया । 'काऊण' कृत्वा । 'अत्तसोधि' आत्मशुद्धि । 'दसणणाणे चरिते य' रत्नत्रये निरतिचारो भूत्वा ॥२०६।। व्यावणितभावनानन्तरा सल्लेखनेत्यधिकारसंबन्धमाचष्टे एवं भावमाणो भिक्खू सल्लेहणं उवक्कमइ । णाणाविहेण तवसा बज्झेणब्भंतरेण तहा ॥२०७॥ एवं भावमाणो 'एवं' उक्तेन प्रकारेण 'भावमाणो भावनापरः । 'भिक्खू सल्लेहणं' सल्लेखनां तनूकरणं । 'उवक्कमइ' प्रारभते । केन ? 'णाणाविहेण' नानाप्रकारेण । 'तवसा' तपसां 'बझेगम्भंतरेण तहा' रता रहित वृत्ति । उस धृति बल भावनासे दुःखदायी परीषहकी सेनासे मुनि युद्ध करता है, यह कहते हैं गा०-दुःखदायी संकटके वेग सहित, अल्प शक्तिवालोंको भय पैदा करनेवाली भूख आदि बाईस परीषहोंकी समस्त सेना जिसके साथमें चार प्रकारके उपसर्ग भी हैं, यदि सन्मुख खड़ी हो ।।२०४॥ गा०-धैर्यके साथ दृढ़तापूर्वक कमरको बाँधनेवाला शूर विना किसी घबराहटके धृति भावनासे उस सेनासे अत्यन्त युद्ध करता है । फलस्वरूप उसका मनोरथ सम्पूर्ण होता है ॥२०५।। गा०—इस शुद्ध पाँच प्रकारकी भावनासे आत्माकी शुद्धि करके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयमें चिरकालतक विहार करना चाहिए ॥२०६|| भावनाओंका वर्णन करनेके अनन्तर सल्लेखना अधिकारके साथ उनका सम्बन्ध कहते हैं गा०--उक्त प्रकारसे भावना भानेवाला भिक्षु नाना प्रकारके बाह्य और अभ्यन्तर तपसे सल्लेखनाको प्रारम्भ करता है ।।२०७।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ भगवती आराधना बाह्याभ्यन्तरेण च ॥२०७॥ भेदमकृत्वा व्यावर्णयितु अशक्या सल्लेखनेति भेदमाचष्टे सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया य बाहिरा चेव । अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे ॥२०८।। 'संल्लेहणा य दुविहा' सल्लेखना च द्विप्रकारा । 'अभंतरिया य बाहिरा चेव' अभ्यन्तरा बाह्या चेति । 'अभंतरा कसायेसु' अभ्यन्तरा सल्लेखना क्रोधादिकषायविषया । 'बाहिरा होदि हु सरीरे' बाह्या भवति सल्लेखना शरीरविपया ॥२०८॥ बाह्य सल्लेखनोपायनिरूपणार्थः उत्तरप्रवंध सव्वे रसे पणीदे णिज्जहित्ता दु पत्तलुक्खेण । अण्णदरेणुवधाणेण सल्लिहइ य अप्पयं कमसो ॥२०९।। 'सम्वे रसे' सर्वान्रसान् । प्रकर्ष नीताः प्रणीताः तान् अतिशयवत' इत्यर्थः सुसंस्कृतान् बलवर्द्धनानित्यर्थः । 'णिज्जहित्ता' त्यक्त्वा । 'अण्णदरेणुवधाणण' अन्यतरेणावग्रहेण । 'अप्पगं' आत्मानं शरीरं । 'कमसो' क्रमशः । 'सल्लिहदि' तनुकरोति ॥२०९।। । बाह्यं तपो व्याचष्टे अणसण अवमोयरियं चाओ य रसाण वुत्तिपरिसंखा । कायकिलेसो सेज्जा य विवित्ता बाहिरतवो सो ।।२१०॥ 'अणसणं' अनशनं । 'उवमोददरियं' अवमोदयं । 'चागो य रसाणं' त्यागो रसानां । 'वृत्तिपरिसंखा' वत्तिपरिसंख्यानं । 'कायकिलेसो' कायक्लेशः । 'सेज्जा विवत्ता' विविक्तशय्या। 'बाहिरतवो सो बाह्य तपस्तत् ।।२१०॥ तत्र अनशनतपोभेदनिरूपणार्था गाथा अद्धाणसणं सव्वाणसणं दुविहं तु अणसणं भणियं । विहरंतस्स य अद्धाणसणं इदरं च चरिमंते ।।२११।। भेद किये विना सल्लेखनाका वर्णन करना अशक्य है इसलिए पहले उसके भेद कहते हैं गा०–सल्लेखनाके दो भेद हैं अभ्यन्तर और बाह्य । अभ्यन्तर सल्लेखना क्रोध आदि कषायकी होती है, बाह्य सल्लेखना शरीरके विषयमें होती है ॥२०८॥ बाह्य सल्लेखनाके उपाय बतलाते हैं गा०-वलको बढ़ानेवाले सब रसोंको त्यागकर प्राप्त हुए रूखे आहारसे कोई एक नियम विशेष लेकर अपने शरीरको क्रमसे कृश करता है ।।२०९।। बाह्य तपको कहते हैं गा०-अनशन, अवमौदर्य, रसोंका त्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शय्या ये बाह्य तप है ।।२१०॥ १. वत इत्यर्थः णिज्जू-आ० मु० । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २३७ 'अद्धाणसणं' अद्धाशब्दः कालसामान्यवचनोऽन्यत्रेह चतुर्थादिपण्मासपर्यन्तो गृह्यते । तत्र यदनशनं तदद्धानशनं । 'सव्वाणसणं चेदि' सर्वानशनं चेति । दुविधमणसणं दु' तु शब्दोऽवधारणार्थ द्विप्रकारमेवानशनं । सर्वशब्दः प्रकारकात्स्न्ये वर्तते । यथा सर्वमन्नं भक्ते । परित्यागोत्तरकालो जीवितस्य यः सर्वकालः तस्मिन्ननशनं अशनत्यागः सर्वानशनं । कदा तदुभयमित्यत्र कालविवेकमाह-'विहरंतस्स य' ग्रहणप्रतिसेवनकालयोवर्तमानस्य । 'अद्धाणसणं' अद्धानशनं । इतरं च इतरत सनिशनं । 'चरिमंते' चरिमान्ते । परिणामकालस्यान्ते ॥२१॥ अद्धानशनविकल्पं प्रतिपादयति होइ चउथं छठ्ठट्ठमाइ छम्मासखवणपरियंतो। अद्धाणसणविभागो एसो इच्छाणुपुवीए ॥२१२।। 'अद्धाणसणविभागो होइ' इति पदघटना । अद्धानशनविभागो भवति । 'चउत्थं छठ्ठट्ठमाई छम्मासखमणपरियंतो चतुर्थषष्ठाष्टमादिषण्मासक्षपणपर्यन्तः । ‘इच्छाणुपुवीए' आत्मेच्छा' क्रमेण ॥२१२॥ अवमोदरियं निरूपयितुकामः आहारप्रमाणं प्रायोवृत्त्या प्रवृत्तं दर्शयति बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होइ। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे कवला ॥२१३।। अनशन तपके भेद गाथा द्वारा कहते है गा०-अद्धानशन और सर्वानशन इस प्रकार अनशन दो ही प्रकारका कहा है। ग्रहण और प्रतिसेवनाकालमें वर्तमानके अद्धानशन होता है और मरण समय में सर्वानशन होता है ॥२११।। टी०-अन्यत्र अद्धाशब्द कालसामान्यका वाचक है। किन्तु यहाँ अद्धानशनमें अद्धाशब्द चतुर्थ आदिसे लेकर छहमास पर्यन्त जितने भेद अनशनके होते हैं उन सबके लिए ग्रहण किया है। उन उपवासोंमें जो अनशन होता है वह अद्धानशन है । सर्वशब्द सब प्रकारोंमें आता है। जैसे सब प्रकारका अन्न खाता हूँ। संन्यास ग्रहण करनेके पश्चात् जबतक जीवन रहे उस सब कालमें जो भोजनका त्याग है वह सर्वानशन है। इस तरह अनशन दो ही प्रकारका है। ये दोनों कब होते हैं इसके लिए कालका भेद किया है। ग्रहण कालमें अर्थात् दीक्षा ग्रहणसे लेकर संन्यास धारण करनेसे पूर्वके कालमें तथा प्रतिसेवना काल अर्थात् दोषोंकी विशुद्धिके लिए अद्धानशन होता है और परिणाम कालके अन्तमें अर्थात् मरण समयमें सर्वानशन होता है ॥२११|| गा०-चतुर्थ षष्ठ आदिसे छह मासके उपवास पर्यन्त यह अद्धानशनके भेद होते हैं । ये मुनिगण अपनी इच्छाके अनुसार करते हैं ।।२१२।। अवमौदर्यका निरूपण करनेकी इच्छासे प्रायः प्रचलित आहारका परिमाण बतलाते हैं_गा०-बत्तीस ग्रास प्रमाण आहार पुरुषके पेटको पूरा भरनेवाला होता है। स्त्रियोंके कुक्षिपूरक आहारका परिमाण अट्ठाइस ग्रास होता है ।।२१३।। १. आत्मेच्छाव्रतेन-आ० मु०। २. आहारप्रवृत्ति दर्शयति आ० । आहारपरिमाणं प्रायो-मु० । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ भगवती आराधना 'बत्तीसं किर कवला' पुरुषस्य कूक्षिपूरणो भवत्याहारः । द्वात्रिंशत्कवलमात्रः 'इत्थिआए' स्त्रियाः कुक्षिपूरणो भवत्याहारः अष्टाविंशतिकवलजातानि । 'तत्तो' तस्मादाहारात् ॥२१३।। एगुत्तरसेढीए जावय कवलो वि होदि परिहीणो । ऊमोदरियतवो सो अद्धकवलमेव सिच्छं च ॥२१४।। 'एगुत्तरसेढीए' एककवलोत्तरश्रेण्या 'परिहीणो' परिहीनः । 'ऊमोदरियतवो' अवमोदर्याख्यं तपःक्रिया यावदेककवलावशेषतया न्यून 'अद्धकवलं' अर्धकवलं यावदवशिष्टं । समप्रविभक्तं कवलमर्धकवलशब्देनोच्यते । यावदेकसिक्थकं वा अवशिष्टं । आहारस्याल्पतोपलक्षणमिदं अन्यथा कथमेकसिक्थकमात्रभोजनोद्यतो भवेत् । ननु चाहारो न्यूनः कथं तप इत्युच्यते इति केचित्कथयन्ति । आयूनतापरिहारस्य तपसो हेतुत्वात्तप इत्युच्यते अवमोयरियं । तथा च निरुक्तिः -अवमं न्यून उदरमस्यावमोदरः । अवमोदरस्य भावः कर्म च अवमौदर्यमिति ॥२१४॥ रसपरित्यागो निरूप्यते चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीदमज्जमंसमहू । कखापसंगदप्पाऽसंजमकारीओ एदाओ ।।२१५॥ 'चत्तारि महावियडीओ' चतस्रो महाविकृतयः । महत्याश्चेतसो विकृतेः कारणत्वात् महाविकृतय इत्युच्यन्ते । 'होंति' भवन्ति । 'णवणीदमज्जमंसमहू' नवनीतं, मद्यं, मांस, मधु च । कीदृश्यस्ताः ? 'कला गा०-पुरुष और स्त्रीके उक्त आहारमेंसे एक दो आदि ग्रासकी हानिके क्रमसे जब तक एक ग्रास मात्र भी शेष होता है वह अवमौदर्य तप है। जब तक अर्धग्रास ही अवशिष्ट रहे या एक सिक्थ शेष रहे तब तक भी अवमौदर्य तप है ॥२१४|| टो.--एक ग्रासके बराबर दो भाग करने पर एक भागको अर्धकवल कहते हैं । एक चावल मात्र जो कहा है वह आहारकी अल्पताका उपलक्षण है । अन्यथा कोई मात्र एक चावलका भोजन करनेके लिए कैसे तत्पर हो सकता है। शंका-थोड़ा आहार लेना तप कैसे है ? ऐसा कोई कहते हैं । समाधान–पेट भर खानेका त्याग तपका हेतु होनेसे अवमौदर्यको तप कहा जाता है। अवमौदर्यकी निरुक्ति है-'अवम' अर्थात् न्यून (कमभरा) उदर है जिसका वह अवमोदर है और अवमोदरका भाव अथवा कर्म अवमौदर्य है ।।२१४॥ रस परित्याग तपका निरूपण करते है गा०-चार महाविकृतियाँ होती हैं, मक्खन, मद्य, मांस और मधु। ये गृद्धि, प्रसंग, दर्प, और असंयमको करते हैं ।।२१५।। टो०-चित्तमें महान विकार पैदा करनेसे इन्हें महाविकृति कहते हैं। नवनीत कांक्षा अर्थात् गृद्धिको उत्पन्न करता है। मद्य प्रसंग अर्थात् पुनः पुनः अगम्या स्त्रीके साथ भोगविलास कराता है। मांस इन्द्रियोंमें मद पैदा करता है। मधु असंयमको उत्पन्न करता है असंयमके दो भेद Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २३९ पसंगदप्पासंजमकारीओ एदाओ'। काक्षा गाद्ध, प्रसंगः पुनःपुनस्तत्र वृत्तिः, दर्पः दृप्तेन्द्रियता, असंयमः रसविषयानुरागात्मकः इन्द्रियासंयमः, रसजजन्तुपीडा प्राणासंयमः, एतान्दोषानिमाः कुर्वन्ति ॥२१५॥ आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण । ताओ जावज्जीवं णिज्जूढाओ पुरा चेव ॥२१६।। 'आणाभिकंखिणा' । अवं पदघटना-'ताओ' ताः महाविकृतयः । 'जावज्जीवं' जीवितावधिकं । "णिज्जूढाओ' परित्यक्ताः । 'पुरा चेव' सल्लेखनाकालात्पूर्वमेव । केन परित्यक्ताः ? 'आणाभिकंखिणा'-इदमित्थं त्वया कर्तव्यमिति कथनं आज्ञा । सर्वविदा आज्ञप्ता भव्याः परित्याज्या नवनीतादयः । तदासेवा असंयमः कर्मबन्धहेतुरिति । अस्यामाज्ञायां कांक्षावता आदरवता सर्वज्ञाज्ञाऽसंपादनादेव दुरन्तसंसारमध्यपतनं ममासीद्भविष्यति च तेन तदाज्ञादरः कार्य इत्यभ्युद्यतेन । 'अवज्जभीषणा' अवद्यं पापं तेन । अयमर्थः पापभीरुणा । 'तवसमाधिकामेण तपस्येकाग्रतामभिलषता । अतो नवनीतादित्यागोऽपि रसत्याग एव ॥२१६॥ इह सल्लेखनाकाले ममैषां त्यागो गृहीत इत्याचष्टे खीरदधिसप्पितेल्लगुडाण पत्तेगदो व सव्वेसि । णिज्जूहणमोगाहिम पणकुसणलोणमादीणं ॥२१७।। 'खीरदधिसप्पितेल्लगुडाणं' क्षीरस्य, दध्नः, धृतस्य, तैलस्य, गुडस्य, च 'णिज्जूहणं' त्यागः । कथं ? 'पत्तेगदो व' प्रत्येक एकैकस्य वा त्यागः । 'सवेसि' सर्वेषां वा क्षीरादीनां त्यागः रसपरित्यागः । 'ओगाहिम पणकुसण लोणमादीण' अपूपानां, पत्रशाकानां, सुपस्य, लवणादीनां वा त्यागो रसपरित्यागः ॥२१७॥ हैं-इन्द्रिय असंयम और प्राणि असंयम । मधुके रसके विषयमें अनुरागकी आतुरता रूप इन्द्रिय असंयम होता है और मधुमें उत्पन्न जन्तुओंका घात होनेसे प्राण असंयम होता है ॥२१५।। गा०-सर्वज्ञकी आज्ञाके प्रति आदरवान, पाप भीरु और तपमें एकाग्रताके अभिलाषीने वे महविकृतियाँ सल्लेखनाके समयसे पूर्व ही जीवन पर्यन्तके लिये ( णिज्जूढाओ) त्याग दी है ॥२१६॥ टो०-यह काम इस प्रकार तुम्हें करना चाहिये, ऐसा कहना आज्ञा है । सर्वज्ञकी आज्ञासे भव्य जीवोंके लिये नवनीत आदि छोड़ने योग्य हैं। उनका सेवन असंयम हैं जो कर्मबन्धका कारण है । इस आज्ञाका पालन न करनेसे ही मेरा दुरन्त संसारके मध्यमें पतन हुआ और होगा। इसलिये उस आज्ञाका आदर करना चाहिये इस प्रकार जो उद्यत हुआ है और अवद्य अर्थात् पाप से जो डरता है तथा जो तपमें एकाग्रताका अभिलाषी है वह तो पहले ही जीवन पर्यन्तके लिये इन विकृतियोंको त्याग चुका है । अतः नवनीत आदिका त्याग भी रस त्याग ही है ॥२१६॥ - अब इस सल्लेखनाके समय मैंने इन नीचे कही वस्तुओंका त्याग किया, यह कहते है गा०-दूध, दही, घी, तेल, गुड़का और घृत पूर, पुवे, पत्रशाक, सूप और लवण आदिका सबका अथवा एक-एकका त्याग रस परित्याग है । अर्थात् सल्लेखना कालमें दूध आदि सबका या उनमेंसे यथायोग्य दो तीन चारका त्याग रस परित्याग है ॥२१७|| Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० भगवती आराधना अरसं च अण्णवेलाकदं च सुद्धोदणं च लुक्खं च । आयंबिलमायामोदणं च विगडोदणं चेव ।।२१८।। 'अरसं' च स्वादरहितं । 'अण्णवेलाकदं च' वेलान्तरकृतं च शीतलमिति याबत । 'सुद्धोदणं च' शुद्धौदनं च केनचिदप्यमिश्रं । 'लुक्ख च' रूक्षं च स्निग्धताप्रतिपक्षमतेन स्पर्शेन विशिष्टमिति यावत् । 'आयंबिलं' असंस्कृतसौवीरमिश्रं । 'आयामोदणं' अप्रचरजलं सिक्थाढ्यमिति केचिद्वदन्ति । अव श्रावणसहितमित्यन्ये । 'विगडोदणं' अतीव पक्वं । उष्णोदकसम्मिश्रं इत्यपरे ॥२१८।। इच्चेवमादि विविहो णायव्वो हवदि रसपरिच्चाओ। एस तवो भजिदल्वो विसेसदो सल्लिहंतेण ॥२१९।। 'इच्चवमादिविविहो' एषमादिविविधो नानाप्रकारो। 'णादव्वो हवइ रसपरिच्चाओ' ज्ञातव्यः सर्वेषां रसपरित्यागः । 'एस तवो भजिदब्बो' एतद्रसपरित्यागाख्यं तपः । 'भजिद-वो' सेव्यं । विसेसदो' विशेषेण । 'सल्लिहंतेण' कायसल्लेखनां कुर्वता । 'चाओ रसाणं' ।।२१९।। वृत्तिपरिसंख्याननिरूपणाय गाथाचतुष्टयमुत्तरम् गत्तापच्चागदं उज्जुवीहि गोमुत्तियं च पेलवियं । सम्बकावटॅपि पदंगवीधी य गोयरिया ।।२२०।। गा०-स्वाद रहित अन्य समयमें बनाया गया अर्थात् ठण्डा भोजन, और शुद्ध भात जिसमें कोई अन्य शाक वगैरह न मिला हो, और रूखा भोजन जिसमें घी आदि न हो, आचाम्ल अर्थात् कांजी मिश्रित भात, थोड़ा जल और बहुत चावल वाला भात, और बहुत अधिकपका भात ॥२१८॥ टी०-आयामोदण' का अर्थ कोई तो थोड़ा जल और चावल बहुत ऐसा भात करते है । अन्य कुछ अवश्रावण सहित (?) कहते है । विगडोदणका अर्थ दूसरे व्याख्याकार गर्मजलसे मिश्रित भात करते है ॥२१८॥ गा०--इत्यादि अनेक प्रकारका रस परित्याग सबको जानने योग्य है। शरीर सल्लेखना करने वालेको यह रस परित्याग नामक तप विशेष रूपसे सेवन करना चाहिये ॥२१९:। रस परित्याग तपका वर्णन समाप्त हुआ। आगे चार गाथाओंसे वृत्तिपरि संख्यान तपका कथन करते हैं . ____टी०-'गत्तापच्चागदं'—जिस मार्गसे पहले गया उसीसे लौटते हुए यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं ग्रहण करूंगा। 'उज्जुवीहिं'-सीधे मार्गसे जानेपर मिली तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं ग्रहण करूंगा। गोमूत्तियं' बैलके मूतते हुए जानेसे जैसा आकार बनता है मोड़ेदार, वैसे जाते हुए यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं ग्रहण करूंगा। 'पेल्लवियं'-वस्त्र सूवर्ण आदि रखनेके लिए बांस के पत्ते आदिसे जो सन्दूक बनता है, जिसपर ढकना भी हो, उसके समान चौकोर भ्रमण करते हुए भिक्षा मिली तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं। 'संबूकावट्ट'-शंखके आवतॊके समान गाँवके अन्दर आवर्ताकार भ्रमण करके बाहरकी १. अवसावण आ. मू. । २. अतीवतीव्रपक्वं आ. मु.। ३. कायव्वो अ० आ० । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीक २४१ 'गतापच्चगदं' । यया वीथ्या गतः पूर्वं तयैव प्रत्यागमनं कुर्वन्यदि भिक्षां लभते गृह्णाति नान्यथा । 'उज्जुवीहि' ऋया वीथ्या गतो यदि लभते गृह्णाति नेतरथा । गोमूत्रिकाकारं भ्रमणं वा संपादयन् । 'पेल्लविगं' वंशदलादिभिनिष्पादितं वस्त्रसुवर्णादिनिक्षेपणार्थं पिधानसहितं यत्तद्वच्चतुरस्राकारं भ्रमणं । 'संबूकावट्ट पि य' शंबूकावर्त इव । 'पदंगवीथी य' पतंगमाला पतंगवीथीत्युच्यते । सा यथा भ्रमति तथा भ्रमणं । 'गोयरिया' गोचर्यां भिक्षायां भ्रमणं । एवंभूतेन भ्रमणेन लब्धां भिक्षां गृह्णामि नान्यथेति कृतसंकल्प 'ता वृत्तिपरिसंख्यानं ॥ २२०॥ पाडयणियंसणभिक्खा परिमाणं दत्तिघासपरिमाणं । पिंडेसणा य पाणेसणा य जागूय पुग्गलया ।। २२१ ।। 'पाडयणियंसणभिक्खापरिमाणं' इमं एव पाटकं प्रविश्य लब्धां भिक्षां गृह्णामि नान्यं । एकमेव पाटकं पाटकद्वयमेवेति । अस्य गृहस्य परिकरतया अवस्थितां भूमिं प्रविशामि न गृहमित्थमभिग्रहः णियंसणमित्युच्यते इति केचिद्वदन्ति । अपरे पाटस्य भूमिमेव प्रविशामि न पाटगृहाणि इति संकल्पः पाडगणिगंसणमित्युच्यते इति कथयन्ति । भिक्षापरिमाणं एकां भिक्षां द्वे एव वा गृह्णामि नाधिकामिति । 'दत्तिभासपरिमाणं' एकेनैव दीयमानं द्वाभ्यामेवेति दानक्रियापरिमाणं । आनीतायामपि भिक्षायां इयत एवं ग्रासान्गृह्णामि इति वा परिमाणं । 'पिडेसणा' पिण्डभूतमेवासनं गृह्णामि । 'पाणेसणाओ' द्रवबहुलतया यत्पीयते अशनं । 'जागूय' यवागूः । 'पोग्गलिया वा' धान्यान्येव निष्पावचणकमसूरकादीनि भक्षयामि इति ॥ २२१ ॥ संसि फलिह परिखा पुप्फोवहिद व सुद्धगोवहिदं । लेवड मलेवर्ड पाणायं च णिस्सित्थगं ससित्थं ||२२२|| और भ्रमण करते हुए भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं । 'पदंगवीधी' – पक्षियों की पंक्ति जैसे भ्रमण करती है उस तरह भ्रमण करते हुए यदि भिक्षा मिली तो मैं ग्रहण करूँगा । गोयरिया' – गोचरी भिक्षाके अनुसार भ्रमण करते हुए भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा । इस प्रकारके संकल्प करनेको वृत्ति परिसंख्यान कहते हैं २२०॥ - गा०-टी०–‘पाड्यनियंसण' - इसी ही फाटक में प्रवेश करके मिली हुई भिक्षाको ग्रहण करूँगा, अन्य फाटक में नहीं । एक ही फाटक में प्रवेश करूँगा या दो में ही प्रवेश करूँगा । 'अमुक घरसे लगी हुई भूमिमें प्रवेश करूँगा, घरमें नहीं जाऊँगा ? इस प्रकारकी प्रतिज्ञाको णियंसण कहते हैं । ऐसा कोई कहते हैं । दूसरोंका कहना है कि पाटकी भूमि में हो प्रवेश करूँगा, पाटके घरों में प्रवेश हींग इस प्रकारके संकल्पको 'पाटकाणियंसण' कहते हैं । 'भिक्षा परिमाण' - एक ही भिक्षा या दो ही भिक्षा ग्रहण करूँगा, अधिक नहीं । 'दत्तिघास परिमाण' - एक के ही द्वारा देने पर या दो के ही द्वारा देनेपर भिक्षा ग्रहण करूंगा । अथवा दाताके द्वारा लाई गई भिक्षा में से भी इतने ही ग्रास ग्रहण करूंगा ऐसा परिमाण करना । पिंडेसणा' - पिण्ड रूप भोजन ही ग्रहण करूंगा । 'पाणेसणा' - जो बहुत द्रव होनेसे पीने योग्य होगा वही ग्रहण करूंगा । 'जागूय' यवागू ही ग्रहण करूंगा । 'पुग्गलया'– चना मसूर आदि धान्य ही ग्रहण करूँगा || २२१॥ १. ल्पना वृ-आ० मु० । २. मित्यवग्रहः । ३१ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ भगवती आराधना संसिलैं शाककुल्माषादिव्यञ्जनसन्मिभूसंसृष्टमेव । 'फलिह' समन्तादवस्थितशाकं मध्यावस्थितौदनं । 'परिखा' परितो व्यञ्जनं मध्यावस्थितान्न । 'पुप्फोवहिदं च व्यञ्जनमध्ये पुष्पबलिरिव अवस्थितसिक्थकं । 'सुद्धगोवहिद' शुद्धेन निष्पावादिभिरमिश्रेणान्नेन 'उवहिदं' संसृष्टं शाकव्यञ्जनादिकं । 'लेवडं' हस्तलेपकारि । डं' यच्च हस्ते न सज्जति । 'पाणगं' यच्च हस्ते न सज्जति । 'पाणगं' पानं च कीदृक् ? 'णिसित्थगंससित्थं' सिक्थरहितं पानं तत्सहितं च ।।२२२।। पत्तस्स दायगस्स य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए । इच्चेवमादिविविहा णादव्वा वुत्तिपरिसंखा ॥२२३।। 'पत्तस्स' एवंभूतेत भाजनेनैवानोतं गृह णामि सौवर्णेन, कंसपाश्या, राजतेन मृण्मयेन वा । 'दायगस्स य' स्त्रियैव तत्रापि बालया, युवत्या, स्थविरया सालङ्कारया, निरलङ्कारया, ब्राह्मण्या, राजपुत्र्या इत्येवमादि अभिग्रहोऽवग्रहः । 'बहुविहो' बहुविधः । 'ससत्तीए' स्वशक्त्या । 'इच्चेवमादि' एवंप्रकारा । 'विविहा' विविधा। 'णायव्वा' ज्ञातव्याः । 'वृत्तिपरिसंखा' वृत्तिपरिसंख्या ।।२२३॥ कायक्लेशनिरूपणायोत्तरप्रबन्धः अणुसूरी पडिसूरी य उढसूरी य तिरियसूरी य । . उब्भागेण य गमणं पडिआगमणं च गंतूणं ॥२२४॥ 'अणुसूरि' पूर्वस्या दिशः पश्चिमाशागमनं क्रूरातपे दिने । 'पडिसूरी' अपरस्या दिशः आदित्याभिमुखं गमनं । 'उढ्ढसूरी य' उध्वं गते सूर्ये गमनं । 'तिरियसूरी य' तिर्यगवस्थितं दिनकरं कृत्वा गमनं । 'उन्भागमेण गमणं' स्वावस्थितग्रामाद् ग्रामान्तरं प्रति भिक्षार्थं गमनं । 'पडिआगमणं च गन्तूणं' प्रत्यागमनं गा०-टी०-'संसि?'-जो शाक कुल्माष आदि ब्यंजनसे मिला हुआ हो । 'फलिह'-जिसके चारो ओर शाक रखा हो और बीचमें भात हो। 'परिखा-- चारो ओर व्यंजन हो बीच में अन्न रखा हो । 'पुप्फोवहिद'-व्यंजनोके मध्यमें पुष्पावलीके समान चावल रखे हो। 'सुद्धगोवहिद'शुद्ध अर्थात् विना कुछ मिलाये अन्नसे 'उपहित' अर्थात् मिले हुए शाक व्यंजन आदि। 'लेवड' जिससे हाथ लिप जाये । 'अलेवड' जो हाथसे न लिप्त हो। सिक्थ सहित पेय और सिक्थ रहित पेय । ऐसा भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूंगा ऐसा संकल्प करता है ॥२२२।। गा०-टी०- पत्तस्स'-इसी प्रकार सोने, चाँदी, कांसी या मिट्टीके पात्रसे ही लाया गया भोजन ग्रहण करूंगा। 'दायगस्स'-स्त्रीसे ही, उसमें भी बालिकासे या युवत्तीसे या वृद्धासे अथवा अलंकार सहित स्त्री या अलंकार रहित स्त्रीसे या ब्राह्मणीसे या राजपूत्रीसे दिया गया आहार ही ग्रहण करूंगा। इस तरह बहुत प्रकार के अभिग्रह अपनी शक्तिके अनुसार होते हैं। ये सब विविध वृति परिसंख्यान जानना चाहिये ॥२२३।। काय क्लेशका कथन करते हैं___ गा०-टी०-'अणुसूरि'-जिस दिन कड़ी धूप हो सूरजको पीछे करके पूरव दिशासे पश्चिम दिशाकी ओर जाना। 'पडिसूरि'--पश्चिम दिशासे सूरजकी ओर मुख करके गमन करना। 'उड्वसूरी'-सूरजके ऊपर आ जाने पर गमन करना, 'तिरियसूरी'-सूरजका एक ओर रखते हुए गमन करना। 'उन्भागेण गमण'--जिस ग्राममें मुनि ठहरे हों उस ग्रामसे दूसरे गाँवमें भिक्षाके १. दिभरमि-अ० आ० । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २४३ च 'गत्वा ॥२२४॥ स्थानयोगनिरूपणा साधारणं सवीचारं सणिरुद्धं तहेव वोसटें । . समपादमेगपादं गिद्धोलीणं च ठाणाणि ।।२२५।। 'साधारणं' प्रमृष्टस्तम्भादिकमुपाश्रित्य स्थानं । 'सवीचार' ससंक्रमं पूर्वावस्थिताद्देशाद्गत्वापि स्थापितस्थानः । 'सणिरुद्ध' निश्चलमवस्थानं । 'तहेव' तथैव । 'वोसटें' कायोत्सर्गः । 'समपाद” समौ पादौ कृत्वा स्थानं । 'एगपाद' एकेन पादेन अवस्थानं । गिद्धोलोणं गृद्धस्योर्ध्वगमनमिव बाहू प्रसार्यावस्थानं ॥२२५॥ आसनयोगनिरूपणा समपलियंकणिसेज्जा समपदगोदोहिया य उक्कुडिया । मगरमुह हस्थिसुण्डी गोणिसेज्जद्धपलियङ्का ।।२२६॥ 'समपलियंकणिसेज्जा' सम्यक्पर्यङ्कनिषद्या। 'समपद' स्फिपिठस'मवसरणेनासनं । 'गोदोहिगा' गोदोहने आसनमिवासनं । 'उक्कुडिगा' ऊवं संकुचितमासनं । 'मगरमूह' मकरस्य मुखमिव कृत्वा पादाववस्थानं । 'हत्थिसुण्डी' हस्तिहस्तप्रसारणमिव एक पादं प्रायासनं । हस्तं प्रसार्येत्यपरे। 'गोणिसेज्ज अद्धपरियंक' गोनिषद्या गवापासनमिव अर्द्धपर्यवं ॥२२६।। वीरासणं च दण्डायउढ ढसाई य लगडसाई य । उत्ताणो मच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य ॥२२७॥ लिये जाना। 'गंतूण पडिआगमण'-जाकर लौट आना ये सब काय क्लेश तप है ।। २२४॥ स्थान योगका कथन करते हैं-- गा०-टी०--'साधारण'-चिकने स्तम्भ आदिका आश्रय लेकर खडे होना । सवीचार-पूर्व स्थानसे दूसरे स्थान पर जाकर कुछ काल तक खड़े रहना। 'सणिरुद्ध'-अपने स्थान पर ही निश्चल स्थित होना । 'वोसट्ट' -कायोत्सर्ग करना। समपाद---दोनों पैर बराबर करके खड़े होना । 'एगपाद'-एक ही पैर से खड़े होना । 'गिद्धोलीण'-- जैसे गिद्ध उड़ते समय अपने दोनों पंख फैलाता है उस तरह दोनों हाथ फैलाकर खड़े होना ।।२२५।। आसन योगका कथन करते है-- गा-टी०-'समपलियंकणिसेज्जा'-सम्यक् पर्यंकासनसे बैठना। 'समपद'-जांघे और कटि भागको सम करके वैठना । 'गोदोहिगा' गौ दुहते समय जैसा आसन होता है वैसे आसनसे वैठना। 'उक्कुडिया'-ऊपरको संकुचित आसनसे बैठना अर्थात् दोनों पैरोंको जोड़ भूमिको न छूते हुए बैठना । 'मगरमुह'-मगरके मुखकी तरह पैर करके बैठना । 'हत्थिसुंडी-हाथीके सूंड फैलानेकी तरह एक पैर फैलाकर बैठना। दूसरों का कहना है कि हाथ फैलाकर बैठना हत्थिVडी है। 'गोणिसेज्ज' दोनों जंघाओंको संकोच कर गायकी तरह बैठना। और अर्धपर्यकासन । ये सब कायक्लेश के आसन हैं ।।२२६।। १. कृत्वा अ० । २. समकरणेना-मु० । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'वीरासणं' जंघे विप्रकृष्टदेशे कृत्वासनं । दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा शयनं । स्थित्वा शयनं च ऊर्ध्वशायीत्युच्यते । 'लगडसाई' सङ्कुचितगात्रस्य शयनं । उत्ताणो उत्तानं शयनं । अवमस्तकशयनं एक पार्श्वशयनं च ॥ २२७॥ २४४ अन्भावगासरायणं अणिट्ठवणा अकंडुगं चेव । तणफलयसिलाभूमी सेज्जा तह केसलोचो य ।।२२८।। 'अन्भावगाससयणं' बहिनिरावरणदेशे शयनं । 'अणिट्टिदणगं' निष्ठीवनाकरणं । 'अकंडुवणगं च ' अकण्डूयनं । 'तणफलग सिलाभूमीसेज्जा' तृणादिषु शय्या | 'तहा' तथा 'केसलोओ य' केशलोचश्च ॥ २२८ ॥ अन्भुट्ठणं च रादो अण्हाणमदंतधोवणं चेव । एसो सीदुण्हादावणादी य ॥ २२९ ॥ काय किलेसो 'अब्भुट्टणं च रादो' रात्रावशयनं जागरणमित्यर्थः । 'अण्हाणं' अस्नानं । 'अनन्तधोवणं चेव' दन्तानामशोधनं । 'कायकिलेसो' कायक्लेशः । ' एसो' एषः । 'सीदुण्हादावणादी य' शीतातपनमुष्णातपनमित्येवमादिकं ॥ २२९ ॥ विविक्तशयनासननिरूपणा जत्था विसोत्तिग अत्थि दु सदरसरूवगन्धफासेहिं | सज्झायज्झाणवाघादो वा वसधी विवित्ता सा ॥ २३० ॥ ' जत्थ ण विसोत्तिग' यस्यां वसतौ न विद्यतेऽशुभपरिणामः । सद्दरसरूव गन्धफासेहि शब्दरसरूपगन्धस्पर्शैः करणभूतैः मनोज्ञ रमनोज्ञैर्वा । 'सा विवित्ता वसधी' विविक्ता वसतिः । 'सज्झायज्झाणवाघादो' स्वाध्यायध्यानयोर्व्याघातो वा नास्ति सा विविक्ता भवति ॥ २३०॥ गा० टी० - दोनों जंघाओंको दूर रखकर आसन वीरासन है । आगे शयनके भेद करते हैदण्डे के समान शरीरको लम्बा करके सोना । खड़े होकर सोना । इसे ऊर्द्धशायी कहते हैं । 'लगण साई' - शरीरको संकुचित करके सोना । उताण - ऊपरको मुख करके सोना । ओमच्छिय-मस्तक नीचे करके सोना अर्थात् नोचे मुख करके सोना । एक करवट से सोना । मडयसाइ - मृतककी तरह निश्चेष्ट सोना ॥ २२७॥ गा० - टी०– 'अब्भवगास सयणं' - बाहर खुले आकाशमें सोना । 'अणिट्टिवणगं' – थूकना नहीं । अकंडू गं - खुजाना नहीं । तथा तृण, काठका पटिया, शिला, या भूमिपर सोना और केसलोच ॥ २२८॥ गा० - टी० - रातमें शयन नहीं करना अर्थात् जागना । स्नान नहीं करना । दाँतोको नहीं धोना, उनकी सफाई नहीं करना । और शीतकालमें तथा गर्मी में आतपन योग करना इत्यादि यह कायक्लेश है || २२९|| विविक्त शयनासन तपका कथन करते हैं गा०—जिस वसतिमें मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्द, रस, रूप गन्ध और स्पर्शके द्वारा अशुभ परिणाम नहीं होते । अथवा स्वाध्याय और ध्यानमें व्याघात नहीं होता वह विविक्त वसति हैं ||२३०|| Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका विडाए अवियडाए समविसमाए वहिं च अन्तो वा । इत्थिणउंसयपसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए || २३१|| 'वियडाए' उद्घाटितद्वारायां । 'अवियडाए' अनुद्घाटितद्वारायां वा । 'समविसमाए' समभूमिसमन्वितायां विषमभूमिसमन्वितायां वा । 'बहि व' वहिर्भागे वा । 'अन्तो वा' अभ्यन्तरे वा । 'इत्थिणसयपसुवज्जिदाए' स्त्रीभिर्नपुंसकं पशुभिश्च वर्जितायां वसतौ । 'सीदाए' शीतायां । 'उसिणाए' उष्णायां ॥२३१॥ उगम उप्पादण सणाविसुद्धाए अकिरियाए दु । वसति असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए || २३२|| 'उग्गम उप्पादण एसणाविसुद्धाए' उद्गमोत्पादनेपणादोषरहितायां । तत्रोद्गमो दोषो निरूप्यते । वृक्षच्छेदस्तदानयनं इष्टकापाकः, भूमिखननं, पापाणसिकतादिभिः पूरणं, धरायाः कुट्टनं, कर्दमकरणं, कीलानां करणं, अग्निनाय सस्तापनं कृत्वा प्रताड्य क्रकचैः काष्ठपाटनं वासी भिस्तक्षणं, परशुभिरच्छेदनं इत्येवमादिव्यापारेण षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन वा कारिता वसतिराधाकर्मशब्देनोच्यते । यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिङ्गिनो वा तेषामियमित्युद्दिश्य कृता, पापंडिनामेवेति वा श्रमणानामेवेति, निर्ग्रन्थानामेवेति सा उद्देसिंगा वसदित्ति भण्यते । आत्मार्थं गृहं कुर्वता अपवरकं संयतानां भवत्विति कृतं अभोवन्भमित्युच्यते । आत्मनो गृहार्थमानीतैः काष्ठादिभिः सह वहुभिः श्रमणार्थमानीताल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते । पाषण्डिनां गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्संयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रणेन निष्पादितं वेश्म मिश्रम् । स्वार्थमेव कृतं संयतार्थमिति स्थापितं ठविदं इत्युच्यते । संयतः स च यावद्भिदि गा० - वह वसति खुले द्वार वाली हो अथवा वन्द द्वार वाली हो । अथवा ऊँची नीची हो । वह बाहरके भाग में हो अथवा अन्दरके भागमें हो पशुओंसे रहित हो ठंडी हो या गर्म हो ॥२३१॥ २४५ गा० ... उद्गम उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित, दुःप्रमार्जन, आदि संस्कारसे रहित, जीवों की उत्पत्तिसे रहित, शय्यारहित वसतिकामें अन्दर या बाहर में विविक्त शयनासन तपके धारी मुनि निवास करते हैं ||२३२ ॥ टी० – उद्गमदोषको कहते हैं - वृक्षको काटना, उसको लाना, ईटे पकाना, भूमि खोदना, उसे पत्थर रेत वगैरहसे भरना, पृथ्वीको कूटना, कीचड़ तैयार करना, कीले बनाना, आग से लोहा गरम करके उसे पीटकर करोतोंसे लकड़ी चीरना । विसौलोंसे छीलना, फरसोंसे काटना, इत्यादि व्यापारसे छहकायके जीवोंको बाधा पहुँचाकर अपने द्वारा बनाई या दूसरे से बनवाई वसति अधःकर्मनामक दोषसे युक्त है । जितने दीन अनाथ दरिद्र अथवा वेषधारी आयेंगे उनके उद्देससे बनाई, अथवा यह पाषडियोंके ही लिए हैं, या श्रमणोंके ही लिए हैं या निर्ग्रन्थोंके ही लिए है, ऐसी वसति उद्देसिंग दोष से युक्त होती है । अपने लिए घर बनाते हुए यह कोठरी संयमियोंके लिए रहे ऐसा संकेतपूर्वक बनाई वसतिका अब्भोलब्भ कहलाती है । अपना घर बनानेके लिए लाए गये बहुत से काष्ठ आदिके साथ थोड़ा-सा सामान श्रमणोंके लिए लाकर दोनोंके मेलसे बनी वसति पूतिक कही जाती है । पाषण्डियों अथवा गृहस्थोंके लिए घर बनवाकर पीछे मुनियोंका उद्देश करके उसमें काष्टआदि मिलाकर बनवाई वसति मिश्रदोषसे दूषित है । अपने ही लिए उसकी भूमि सम हो । स्त्री नपुंसक और Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ भगवती आराधना नैरागमिष्यति तत्प्रवेश दिने गृहसंस्कारं सकलं करिष्यामः इति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारितं वेश्म तत्पाहुडिंगमित्युच्यते । तदागमानुरोधेन गृहसंस्कारकालापहासं कृत्वा वा संस्कारिता वसतिः । यद्गृहं अन्धकारबहुलं तत्र प्रकाशसंपादनाय यतीनां छिद्रीकृतकुड्यं, अपाकृतफलकं, सुविन्यस्तप्रदीपकं वा तत्पादुकारशब्देन भण्यते । द्रव्यक्रीतं भावक्रीतं इति द्विविधं क्रीतं वेश्म, सचित्तं गोवलीवर्द्धादिकं दत्वा संयतार्थ क्रीतं, अचित्तं वा घृतगुडखंडादिकं दत्वा क्रीतं द्रव्यक्रीतं । विद्यामन्त्रादिदानेन वा क्रीतं भावक्रीतं । अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहितं अवृद्धिकं वा गृहीतं संयतेभ्यः पामिच्छं उच्यते । मदीये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मदीयं तावद्गृहं यतिभ्यः प्रयच्छेति गृहीतं परियट्टमित्युच्यते । कुडचाद्यर्थं कुटीरककटादिकं स्वार्थ निष्पन्नमेव यत्संयतार्थमानीतं तदभ्यहिडमुच्यते । तद्विविधमाचरितमनाचरितमिति । दूरदेशाद् ग्रामान्तरात्द्वानीतमनाचरितं इतरदाचरितं । इष्टकादिभिः, मृत्पिडेन, वृत्या, कवाटेनोपलेन वा स्थगितं अपनीय दीयते यत्तदुद्भिन्नं । निश्रेण्यादिभिरारुह्य इत आगच्छत युग्माकमियं वसतिरिति या दीयते द्वितीया तृतीया वा भूमिः सा मालारोहमित्युच्यते । राजामात्यादिभिर्भयमुपदर्थं परकीयं यद्दीयते तदुच्यते अच्छेज्जं इति । अनिसृष्टं द्विविधं । गृहस्वामिना अनियुक्तेन या दीयते वसतिः यदस्वामिनापि वालेन पवशवर्तिना दीयते सोभय्यप्यनिसृष्टेति उच्यते । उद्मदोषा निरूपिताः । उत्पादनदोषां निरूप्यते - पंचविधानां धात्रीकर्मणां अन्यतमेनोत्पादिता वसतिः । काचिद्दारकं स्नप वनाये घरको संयमियोंके लिए स्थापित करना ठविद दोष है । अमुक मुनि जितने दिनोंमें आवेंगे, उनके प्रवेश करनेके दिन घरकी सब सफाई आदि करायेंगे, ऐसा चित्तमें विचारकर बनवाया घर 'पाहुडिंग' कहा जाता है । अथवा मुनिके आनेके अनुरोधसे घरका संस्कार करनेका जो समय नियत किया था उस समय से पूर्व संसार करना पाडुडिंग दोष । जिस घर में बहुत अन्धकार रहता है उसमें मुनियोंके लिए बहुत प्रकाश लानेके उद्देशसे दीवारमें छेद करना, लकड़ीका पटिया हटाना, दीपक रखना पादुकारदोष है खरीदा हुआ दो प्रकारका होता है द्रव्यकृत और भावकृत । सचेतन गाय बैल वगैरह देकर मुनिके लिए खरीदा गया अथवा अचित्त घी गुड़ खाँड़ आदि देकर खरीदा गया घर द्रव्यकृत है । विद्या मंत्र आदि देकर खरीदा गया घर भावकृत है । विना व्याजका अथवा व्याज पर थोड़ा सा ऋण लेकर मुनियोंके लिए लिया गया घर पामिच्छ कहा जाता है। आप मेरे घरमें रहें, अपना घर यातियोंको देदें इस प्रकार ग्रहण किया घर परिकहता है । अपनी दीवार आदिके (?) लिए जो तैयार या उसे मुनिके लिए लाना अभ्यहिड कहाता है | उसके दो भेद हैं आचरित और अनाचरित । जो दूर देशसे या अन्य ग्रामसे लाया गया वह नाचरित है शेष आचरित है । जो घर इट आदिसे, मिट्टी के ढेलोंसे, वासे, कपाट से या पत्थरसे ढपा है इनको हटाकर दिया गया वह घर उद्भिन्न दोषसे युक्त है । सीढ़ी वगैरह से ऊपर चढ़कर 'यहाँ आओ, आपकी यह वसति है' इस प्रकारसे जो दूसरे या तीसरे खण्ड की भूमि दी जाती है उसे मालारोहण कहते हैं । राजा मंत्री आदिके द्वारा भय दिखलाकर जो दूसरे की वसति दी जाती हैं । वह अच्छेज्ज है । अनिसृष्टके दो भेद हैं । घरके स्वामीके द्वारा जो नियुक्त नहीं है ऐसे व्यक्तिके द्वारा जो वसति दी जाये वह अनिसृष्ट है । और जो पराधीन वालक स्वामी के द्वारा दी जाए वह भी अनिसृष्ट है । ये उद्गमदोष कहे । उत्पादन दोष कहते हैं—धायके पाँच काम हैं— कोई बालकको नहलाती है । कोई उसे Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २४७ यति, भूषयति, क्रीडयति, आशयति स्वापयति वा। वसत्यर्थमेवोत्पादिता वसतिर्धात्रीदोषदुष्टा । नामान्तरान्नगरान्ता राच्च देशादन्यदेशतो वा संबन्धिनां वार्तामभिधायोत्पादिता दूतकोत्पादिता । अंगं, स्वरो, व्यञ्जनं, लक्षणं, छिन्नं, भौम, स्वप्नोऽन्तरिक्षमिति एवंभूतनिमित्तोपदेशेन लब्धा वसतिनिमित्तदोषदृष्टा । आत्मनो जाति, कुलं, ऐश्वर्यं वाभिधाय स्वमाहात्म्यप्रकटनेनोत्पादिता वसतिराजीवशब्देनोच्यते । भगवन्सर्वेषां आहारदानाद्वसतिदानाच्च पुण्यं किमु महदुपजायते इति पृष्टो न भवतीत्युक्ते गृहिजनः प्रतिकूलवचनरुष्टो वसतिं न प्रयच्छेदिति एवमिति तदनुकूलमुक्त्वा योत्पादिता सा वणिगवा शब्देनोच्यते । अष्टविधया चिकित्सया लब्धा चिकित्सोत्पादिता। क्रोधोत्पादिता च । गच्छतामागच्छतां च यतीनां भवदीयमेव गृहमाश्रयः इतीयं वार्ता दूरादेवास्माभिः श्रुतेति पूर्व स्तुत्वा या लब्धा, वसनोत्तरकालं च गच्छन्प्रशंसां करोति पुनरपि वसति लप्स्ये इति । एवं उत्पादिता संस्तवदोषदुष्टा । विद्यया, मन्त्रेण, चूर्णप्रयोगण वा गृहिणं वशे स्थापयित्वा लब्धा, मूल कर्मणा वा भिन्नकन्यायोनिसंस्थापना मुलकर्म । विरक्तानां अनुरागजननं वा । उत्पादनाख्योऽभिहितो दोषः षोडशप्रकारः । अथ एषणादोषान्दश प्राह किमियं योग्या वसतिर्नेति शङ्किता। तदानीमेव सिक्ता सत्यालिप्ता सती धा छिद्रस्रुतजलप्रवाहेण वा, जलभाजनलोठनेन वा तदानीमेव लिप्ता वा म्रक्षितेत्युच्यते । सनित्तपथिव्या, अपां, 'वायौ हरितानां, बीजानां भूषण पहिनाती हैं। कोई खेल खिलाती है, कोई भोजन कराती है, कोई सुलाती है, इनमेंसे कोई एक कर्म करके प्राप्त की गई वसति धात्रोदोषसे दूषित है। अन्य ग्राम, अन्य नगर या देशान्तमें रहनेवाले सम्बन्धियोंकी कुशलवार्ता कहकर प्राप्त की गई बसत्ति दूतकर्मके द्वारा उत्पादित होनेसे दूतकर्म दोषसे दुष्ट है। अंग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न और अन्तरिक्ष, इस प्रकार निमित्तोंके उपदेशसे-गृहस्थोंको शुभाशुभ बतलाकर प्राप्त की गई वसति निमित्त नामक दोषसे दुष्ट है। अपनी जाति, कुल अथवा ऐश्वर्यको कहकर अपना बड़प्पन प्रकट करके प्राप्त की गई वसति आजीव शब्दसे कही जाती है। भगवन् ! सबको आहार देने और वसति देनेसे क्या महान् पुण्य होता है ? ऐसा गृहस्थ पूछे तो, 'नहीं होता' ऐसा कहनेपर गृहस्थ प्रतिकूल वचनसे रुष्ट होकर वसति नहीं देगा' इस विचारसे उनके अनकल कहकर प्राप्त की गई वसति 'वणिगवा' शब्दसे कही जाती है। आठ प्रकारकी चिकित्साके द्वारा प्राप्त की गई वसति चिकित्सा दोषसे दुष्ट हैं। क्रोधादिके द्वारा प्राप्त की गई वसति क्रोध आदि दोषसे दुष्ट है। आने जानेआले यात्रियोंके लिए आपका ही घर आश्रय है यह बात हमने दूर देशसे ही सुनी है, इस प्रकार पहले स्तुति करके प्राप्त की गई अथवा निवास करनेके पश्चात् जाते समय प्रशंसा करना कि पुनः आनेपर वसति प्राप्त हो तो वह संस्तव दोषसे दुष्ट है। विद्या, मन्त्र या चूर्णके प्रयोगसे गृहस्थको वशमें करके प्राप्त की गई वसति विद्यादोष, मंत्रदोष और चूर्णदोषसे दुष्ट है, मूलकर्मके द्वारा प्राप्त की गई अथवा विरागियोंको राग उत्पन्न करके प्राप्त हुई वसति मूलकर्म दोषसे दुष्ट है। उत्पादन नामक सोलह प्रकारका दोष कहा । · दस एषणा दोष कहते हैं यह वसति योग्य है या नहीं, ऐसी शंका करना शंकित दोष है । जो वसति तत्काल ही सींची गई या लीपी गई है अथवा छिद्रसे बहनेवाले जलके प्रवाहसे या जलपात्रके लुड़कानेसे १. वाल्या आ० । अपां हरि-मु० । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ भगवती आराधना त्रसानां उपरि स्थापितं पीठफलकादिकं अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते वसतिः सा निक्षिप्त च्यते । हरितकंटकसचित्तमृत्तिकापिधानमाकृष्य या दीयते सा पिहिता । काष्ठचेलकण्टकप्रावरणाद्यार्पणं कुर्वता पुरोयायिनोपदर्शिता वसतिः साहारणशब्देनोच्यते । मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन, मत्तेन, व्याधितेन, नसकेन, पिशाचगृहीतेन, नग्नया वादीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा । स्थावरैः पृथिव्यादिभिः सः पिपीलिकामत्कुणादिभिः सहितोन्मिश्रा । वितस्तिमात्राया भुमेरधिकाया अपि भुवो ग्रहणं प्रमाणातिरंकदोषः । शीतवातातपाद्यपद्रवसहिता वसतिरियमिति निन्दां कुर्वतो वसनं धूमदोषः । निर्वाता, विशाला, नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रानुरागं इङ्गाल इत्युच्येत । एवमेतैरुद्गमादिदोषरनुपहता वसतिः शुद्धा तस्यां । 'अकिरियाए' दुःप्रमार्जनादिसंस्काररहितायाः। 'असंसत्ताए' जीवसंभवरहितायाः । 'णिप्पाहुडियाए' शय्यारहितायाः । सेज्जाए वसतौ। . अन्तर्बहिर्वा वसइ वसति । यतिविविक्तशचासनरतः ॥२३२।। अथ का विविक्ता वसतिरित्यत्राह सुण्णघरगिरिगुहारुक्खमूलआगंतुगारदेवकुले। अकदप्पब्भारारामधरादीणि य विवित्ताइ ।।२३३।। शून्यं गृहं, गिरेर्गुहा, वृक्षमूलं, आगन्तुकानां वेश्म, देवकुलं, शिक्षागृहं केनचिदकृतं अकृतप्राग्भार उसी समय लीपी गई है उसे म्रक्षित कहते हैं। सचित पृथिवी, वायु, जल हरे बीज, और त्रसजीवोंके ऊपर स्थापित पीठ, काष्ठकलक आदिको यहाँ शय्या करें ऐसा कहकर जो बसति दी जाती है उसे निक्षिप्त कहते है। हरित काँटे, सचित मिट्टीके आवरणको हटाकर जो वसति दी जाती है वह विहित दोषसे युक्त है। काष्ट, वस्त्र, कण्टकके आवरण आदिको खींचते हुए आगे जानेवाले मनुष्यके द्वारा दिखलाई गई वसति साधारण शब्दसे कही जाती है। जिसे मरण अथवा जननका शौच लगा है ऐसे गृहस्थके द्वारा या मत्त, रोगी, नपुंसक, जिसे पिशाचने पकड़ा हुआ है या बालिकाके द्वारा दी गई वसति दायक दोषसे दूषित है। स्थावर पृथिवी आदि, त्रस चोटी खटमल आदिसे सहित वसति उन्मिश्रा है। जितने वालिस्त प्रमाणाम साधको चाहिए उससे एक वालिश्त भूमि भी अधिक लेना प्रमाणातिरेक नामक दोष है। यह वसति शीतवायु, धूप आदि उपद्रववाली है ऐसी निन्दा करते हुए भी उसी वसतिमें रहना घूमदोष है। यह वसति विशाल है इसमें हवा नहीं आती, अधिक गर्म भी नहीं है, सुन्दर है इस प्रकार उससे अनुराग करना इंगाला दोष है । वसति इन दोषोंसे रहित होनी चाहिए ॥२३२।। विशेषार्थ-साधुको देने योग्य आहार, औषध, वसति, संस्तर, उपकरण आदि दाताकी जिन मार्गविरुद्ध क्रियाओंसे उत्पन्न होते हैं वे उद्गम आदि सोलह दोष है। और मार्गविरुद्ध जिन क्रियाओंसे भोजन आदि बनाये जाते हैं वे सोलह उत्पादन दोष है । ये बत्तीस भी आधाकर्मरूप होनेसे दोष कहे जाते हैं। यतिके भोजन आदिके लिए छहकायके जीवोंको बाधा देना अथवा ऐसे कारणसे उत्पन्न भोजन आदि आधाकर्म कहे जाते हैं । एषणादोष दस हैं। मूलाचारमें इन दोषोंका कथन है। विविक्त वसति कौन है यह कहते हैंटी०-शून्य घर, पहाड़की गुफा, वृक्षका मूल, आनेवालोंके लिए बनाया घर, देवकुल, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २४९ शब्देनोच्यते । आरामगृहं क्रीडार्थमायातानां आवासाय कृतं । एता विविक्ता वसतयः ।।२३३॥ अत्र वसने दोषाभावमाचष्टे-- कलहो बोलो झंझा वामोहो संकरो ममत्तिं च । - ज्झाणाज्झयणविघादो पत्थि विवित्ताए वसधीए ॥२३४॥ 'कलहो बोलो' । ममेयं वसतिस्तवेयं वसतिरिति कलहो न केनचित् अन्यजनरहितत्वात् । 'बोलो' शब्दबहलता। 'झंझा' संक्लेशो। 'वामोहो' वैचित्त्यं । 'संकरो' अयोग्यैरसंयतैः सह मिश्रणं । 'ममत्वं च' ममेदंभावश्च । 'गत्थि' नास्ति । 'ज्झाणज्झयणविघादों' ध्यानस्याध्ययनस्य च व्याघातः । उक्तः कलहादिर्न विद्यते । क्व ? 'विवित्ताए वसधीए' बिविक्तायां वसतौ । एकस्मिन्प्रमेये निरुद्धज्ञानसंततिानं । अनेकप्रमेयसंचारी स्वाध्यायः ॥२३४।। इय सल्लीणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तत्थ जोएहिं । पंचसमिदो तिगुत्तो आदट्ठपरायणो होदि ।।२३५।। 'इय' एवं । 'सल्लीणं' एकात्मतां 'उवगदो' उपगतः । केन ? 'जोहिं' योगः तपोभिनिर्वा । सुहप्पवहिं सुखप्रवृत्तः सुखेनाक्लेशेन प्रवृत्तः । 'पंचसमिदो' समितिपंचकोपेतः । 'तिगुत्तो' कृताशुभमनोवाक्कायनिरोधः । 'आदपरायणो होदि' आत्मप्रयोजनपरो भवति । एतेन कथ्यते--विविक्तवसतिस्थायी यतिनिष्प्रतिद्वन्द्वध्यानैः शुभैस्तपोभिर्वा स्वास्थ्यमुपगतः संवरं निर्जरां च स्वप्रयोजनं संपादयति इति ॥२३५।। संवरपूर्विकां निर्जरां स्तोतुमाह--- जं णिज्जरेदि कम्म असंवडो समहदावि कालेण । तं संवडो तवस्सी खवेदि अंतोमुहुत्तेण ।।२३६।। शिक्षाघर, किसीके द्वारा न बनाया गया स्थान, आरामघर-क्रीड़ाके लिए आये हुओंके आवासके लिये जो बनाया गया है ये सब विविक्त वसतियाँ हैं ।।२३३।। इनमें रहने में कोई दोष नहीं है, यह कहते हैं गा०—विविक्त वसतिमें कलह, शब्द बहुलता, संक्लेश, चित्तका व्यामोह, अयोग्य असंयमियोंके साथ सम्बन्ध, यह मेरी है ऐसा भाव, तथा ध्यान और अध्ययनमें व्याघात नहीं है ।।२३४॥ टी०-विविक्त वसतिमें यह मेरी वसति है यह तेरी वसति है इस प्रकार कलह नहीं होता क्योंकि वहाँ अन्य लोग नहीं होते। इसीसे ऊपर कहे अन्य दोष भी नहीं होते। ध्यान अध्ययनमें बाधा नहीं होती। एक पदार्थमें ज्ञानसन्ततिके निरोधको ध्यान कहते हैं और अनेक पदार्थों में संचारको स्वाध्याय कहते हैं ॥२३४|| गा०-इस प्रकार विविक्त वसतिमें निवास करनेसे विना क्लेशके सुखसे होनेवाले तप अथवा ध्यानके द्वारा बाह्यतपमें एकात्मताको प्राप्त यति पाँच समितियोंसे युक्त हुआ अशुभ मन वचनकायका निरोध करके आत्माके कार्यमें तत्पर होता है ।।२३५।। टो०-यहाँ कहा है कि विविक्त वसतिमें रहनेवाला यति निर्विघ्न ध्यानके द्वारा अथवा शुभतपके द्वारा स्वास्थ्यको प्राप्त होकर संवर और निर्जरारूप अपने प्रयोजनको करता है ।।२३५।। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० भगवती आराधना 'जं णिज्जरेदि कम्म' यत्कर्म निर्जरयति तपसा बाह्येन । कः ? 'असंवुडो' असंवृतः अशुभयोगनिरोधरहितः । 'सुमहदावि कालेण' सुष्ठु महता कालेनापि । 'तं' तत्कर्म 'खवेदि' क्षपयति । 'अंतामहत्तंण' अतिस्वल्पेन कालेन । कः ? 'संवुडो' संवतः गप्तिसमितिधर्मानप्रेक्षापरीषहजयपरिणतः। 'तवस्सी' तपस्वी अनशनादिमान् ॥२३६।। एवमवलायमाणो भावेमाणो तवेण एदेण । दोसेणिग्घाडतो पग्गहिददरं परक्कमदि ।।२३७।। एवमुक्तेन क्रमेण एतेन । 'तण भावमाणो' तपसा भावयन्नात्मानमुद्यतः । 'अवलायमाणो' अपलायमानः । कुतो दुर्धरात्तपसः । एवमवलोयमाणो इति क्वचित्पाठः । तत्रायमर्थ:-किल एवमेदेण तवेण भावेमाणो इति पदसंबन्धः । एवमेतेन तपसा भावयमानः अपलोयमाणो द्रव्यकर्म विनाशयन् इति । तदयुक्तं- अशब्दार्थत्वात् । 'दोसे' दूषयंति रत्नत्रयमिति दोषाः अशभपरिणामाः तान घातयन । 'पग्गहिददरं' नितरां । 'परक्कमदि' चेष्टते मुक्तिमार्गे ॥२३७।। यतिना निर्जरार्थिना एवंभूतं तपोऽनुष्ठेयं इति कथयति । सो णाम बाहिरतवो जेण मणी दुक्कदं ण उठेदि । जेण य सड्ढा जायदि जेण य जोगा ण हायति ।।२३८।। 'सो णाम बाहिरतवो' तन्नाम बाह्यं तपः । किं ? 'जेण मणो दुक्कडं ण उद्वेदि' येन तपसा क्रियमाणेन मनो दुष्कृतं प्रति नोत्तिष्ठते । 'जेण य सड्ढा जायदि' येन च क्रियमाणेन तपसा तपस्यभ्यंतरे श्रद्धा जायते । 'जेण य जोगा ण हायंति' येन च क्रियमाणेन पूर्वगृहीता योगा न हीयन्ते । तत्तथाभूतं तपोऽनुष्ठेयमिति यावत् ।।२३८॥ ____संवरपूर्वक निर्जराकी प्रशंसा करते हैं गा०-असंवृत्त अर्थात् अशुभयोगका निरोध न करनेवाला यति महान् कालके द्वारा भी जिस कर्मकी बाह्य तपके द्वारा निर्जरा नहीं करता उस कर्मको संवत् अर्थात् गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजयको करनेवाला तपस्वी अति स्वल्पकालमें क्षय करता है ।।२३६।। गा०-उक्तक्रमसे इस तपसे अपनेको तत्पर करता हुआ दुर्धरतपसे न डरकर रत्नत्रयको दूषित करनेवाले अशुभ परिणामोंको घातता है और अत्यन्त मुक्तिके मार्गमें चेष्टा करता है ॥२३७॥ टी०-कहींपर 'एवमवलोयमाणो' ऐसा पाठ है। 'एदेण तवेण भावेमाणो' पदके साथ उसका सम्बन्ध करके ऐसा अर्थ करते है-इस प्रकार इस तपसे भावना करता हुआ 'अपलोयमाण' अर्थात् द्रव्यकर्मका विनाश करता है। यह युक्त नहीं है क्योंकि यह शब्दार्थ नहीं है ॥२३७।। निर्जराके इच्छुक यतिको इस प्रकार तप करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-उसीका नाम बाह्य तप है, जिस तपके करनेसे मन पापकी ओर नहीं जाता। और जिस तपके करनेसे अभ्यन्तर तपमें श्रद्धा उत्पन्न हो और जिसके करनेसे पूर्व में गृहीत योग-व्रत विशेष हीन नहीं होते । इस प्रकारका तप करना चाहिए ।।२३८।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका बाहिरतवेण होदि हु सव्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता | सल्लिहिदं च सरीरं ठविदो अप्पा य संवेगे ||२३९ ।। बाह्यतपोऽनुष्ठाने गुणं कथयत्युत्तरैः सूत्रः । 'बाहिरतवेण' वाह्येन तपसा हेतुभूतेन । 'सव्वा सुहसीलदा परिचत्ता होदि' सर्वा सुखशीलता परित्यक्ता भवति । सुखभावना रागं जनयति । रागः स्वयं च कर्मबंधहेतुदोषं चानयति । वंधः कर्मस्थितिहेतुः संवम 'र्था निरस्ता भवति इति मन्यते । 'सल्लिहिदं च सरीरं' भवति । शरीरं दुःखनिमित्तं तत्त्यक्तुकामस्य तनूकरणमुपायः तदनुष्टितं भवतीति यावत् । 'ठविदो' स्थापितः । 'आदा य' स्वयं च, 'संवेगे' संसारभीरुतायां । ननु च संसारभीरुता हेतुस्तपसो न तपो हेतुस्तस्याः, ततोऽयुक्तमभाणि सूत्रकारेण वाह्येन तपसा संवेगे स्थापितः । लोकेनायं संविग्नचित्त इति स्थाप्यते बाह्ये तपसि वर्तमानस्ततो युक्तमुच्यते ॥ २३९॥ दंताणि इंदियाणि य समाधिजोगा य फासिदा होंति । अणिहिदवीरियओ जीविदतण्हा य वोच्छिण्णा ॥ २४० ॥ दांतान 'इंदियाणिच' इन्द्रियाणि च । 'होति' भवन्ति । अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानेन जिह्वा दान्ता भवति इति । विविक्तमनेन इतराणि इन्द्रियाणि दान्तानि भवन्ति । मनोज्ञेन्द्रियविषयरहितायां वसतावस्थानात्तानि निगृहीतानि भवन्ति । समाधिजोगा य फासिदा होंति रत्नत्रयैकाग्र्यं समाधिः । समाधिषु योगाः समाधियोगाः । योगाः सम्बन्धास्ते च ' फासिदा होंति' स्पृष्टा भवन्ति । रत्नत्रयसमाधानसम्बन्धाः स्पृष्टा भवन्ति । अशनादिकं त्यजता विषयरागो निरस्तो भवति । विषयरागव्याकुलो हि रत्नत्रये न घटते । असति तस्मिन्व्याकुलोऽशुभ परिणामैकमुखो भवति इति मन्यते । 'अणिगूहिद वीरियदा' अनिगूढवीर्यता २५१ आगेकी गाथासे वाह्यतपको करनेके गुण कहते हैं गा० - टी० - बाह्य तपसे सब सुख शीलता छूट जाती है । क्योंकि सुख शीलता रागको उत्पन्न करती है । राग-रागको बढ़ाता है और कर्मबन्धके कारण दोषोंको लाता है । बन्धकर्मकी स्थिति में हेतु है । इस तरह बाह्य तपसे अनर्थ करनेवाली यह सुखशीलता नष्ट होती है । शरीर दुःखका कारण है । उसको छोड़नेका उपाय है शरीरको कृश करना। बाह्य तपसे शरीर कृश होता है और स्वयं आत्मा संसारसे भीरुता में स्थापित होती है । शंका- न तो संसारसे भीरुता तपका हेतु है और न तप संसारसे भीरुताका हेतु है अतः ग्रन्थकारने यह अयुक्त कहा है कि बाह्य तपसे संवेगमें स्थापित होता है ? समाधान - जो वाह्य तप करता है उसे लोग मानते हैं कि इसका चित संसारसे विरक्त है । अतः ग्रन्थकारका कथन युक्त है || २३९|| गा० - टी० - इन्द्रियाँ दान्त होती हैं । अनशन, अवमौदर्य और वृत्ति परिसंख्यान तप करनेसे जिह्वा दान्त होती है । विविक्त शय्यासन तपसे शेष इन्द्रियाँ दान्त होती हैं । जहाँ इन्द्रियोंको प्रिय लगनेवाले विषय नहीं हैं ऐसो वसतिमें रहनेसे इन्द्रियोंका निग्रह होता है । रत्नत्रयमें एकाग्रताको समाधि कहते हैं । समाधिमें योग अर्थात् सम्बन्ध स्पष्ट होते हैं । भोजन आदिका त्याग करनेसे विषयोंसे राग नहीं रहता । जो विषय रागसे सताया हुआ है वह रत्नत्रय में नहीं लगता । रत्न१. सेवमर्थ नि-आ० । संवमर्थान्नि - मु० । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ भगवती आराधना च भवति । वीर्याचारे प्रवृत्तश्च भवति ।' 'जीविदतण्हा य' या जीविते तृष्णा च 'वोच्छिन्ना' व्युच्छित्ति गता । न हि जीविताशावान् अशनादिकं त्यक्तुमीहते । जीविते तृष्णावान्यत्किचित्कृत्वा असंयमादिकं प्राणानेव धारयितुमुद्यतो भवति न रत्नत्रये ॥२४०॥ दुक्खं च भाविदं होदि अप्पडि बद्धो य देहरससुक्खे । मुसमूरिया कसाया विसएसु अणायरो होदि ॥२४१॥ 'दुःखां च भावियं होइ' दुःखं च भावितं भवति । दुःखभावना च कथमुपयोगिनी असंक्लेशेन दुःखसहने कर्मनिर्जरा जायते । क्रमेण च जायमाना निर्जरा निरवशेषकर्मापायस्योपाय इत्येवमुपयोगिनी इति मन्यते । अपि चासकृद्भावितदुःखो निश्चलो भवति' ध्याने। 'अप्पडिबद्धो य होइ' अप्रतिबद्धश्च भवति । 'देहरससोक्खें' शरीररससौख्ये । एतेषु त्रिषु प्रतिवद्धता समाधेविघ्नः स निरस्तो भवतीति भावः । 'मुसुमूरिदा कसाया' उन्मृदिताः कषायाः भवन्ति । कथं अनशनादिना कपायनिग्रहः कृतो भवति ? क्षमामार्दवार्जवसन्तोषभावनादिप्रतिपक्षमता विनाशयन्ति कषायान्नेतरदिति चेत् अयमभिप्रायः---अशनाद्यलाभे, स्वल्पलाभे, अशोभनानां वा लाभे क्रोधकषाय उत्पद्यते। तथा प्रचुरलाभाद्रसवद्भिक्षालाभाच्च लब्धिमानहमेवेति मानकषायः । अस्मदीयभिक्षागृहं यथान्ये न जानन्ति तथा प्रविशामीति चिन्ता मायाकषायः । अशने रसे प्राचुर्यविशिष्टे वासक्तिर्लोभकषायः । तथा वसत्यप्रदाने कोपः, तल्लाभे च मानकषायः प्राग्वत् । अन्येऽप्यागच्छन्तीति न मम वसतिरस्त्यवकाशो वाऽत्रेति वचनान्मायाकषायः । अहमस्य स्वामीति लोभः । इत्थं त्रयमें न लगनेसे व्याकुल होकर अशुभ परिणामोंमें ही लगता है। अपनी शक्तिको छिपाता नहीं है और वीर्याचारमें प्रवृत्त होता है । जीवनकी जो तृष्णा है वह भी नष्ट हो जाती है। जिसे जीनेकी तृष्णा है वह भोजनादिकका त्याग करना नहीं चाहता। जीवनकी तृष्णावाला जो कुछ भी असंयम आदि करके प्राणधारण करने में ही तत्पर रहता है, रत्नत्रयमें नहीं लगता ॥२४०।। गा.-टो०-दुःखका सहन होता है। बिना किसी संक्लेशके दुःख सहनेसे कर्मोंकी निर्जरा होती है । और क्रमसे होनेवाली निर्जरा समस्त कर्मोके विनाशका उपाय है इसलिए दुःखभावना उपयोगी हैं। दूसरे, बार-बार दुःखकी भावना करने वाला ध्यान में निश्चल होता है। शरीर, रस और सुखमें अप्रतिबद्ध-अनासक्त होता है। इन तीनोंमें आसक्ति समाधिमें विघ्न करती है । अतः उसका निरास होता है । कषायोंका मर्दन होता है । शंका-अनशन आदिसे कषायका निग्रह कैसे होता है ? कषायोंकी विरोधी क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष भावना आदि कषायोंको नष्ट करते हैं, अन्य नहीं। समाधान-अभिप्राय यह है कि भोजन आदि न मिलने पर, या कम मिलने पर अथवा अरुचिकर मिलने पर क्रोध कषाय उत्पन्न होती है। तथा प्रचुर लाभसे और स्वादयुक्त भिक्षाके लाभसे मैं 'लब्धि सम्पन्न हूँ' ऐसी मान कषाय उत्पन्न होती है। मेरे भिक्षा लेनेके घरको दूसरे न जान सकें इस तरह घरमें प्रवेश करूँ, यह चिन्ता माया कषाय है। रसीले अत्यधिक भोजनमें आसक्ति लोभ कषाय है। तथा वसति नहीं देने पर क्रोध और उसके मिलने पर मानकषाय होती है जैसा पहले भोजनके सम्बन्धमें कह आये हैं। दूसरे भी आने वाले हैं इस वसतिमें स्थान नहीं है १. तीतिध्या-आ० मु० । २. वसतेर-आ० मु०। ३. शश्चात्र-आ० मु० । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २५३ कषायनिमित्तवस्तुत्यागान्न कषायाणामवसरः इति । 'विसएसु' विषयेषु स्पर्शनादिषु । 'अणावरो होइ' अनादरो भवति औदासीन्यं जायते । तदौदासीन्यात् तदादरनिमित्तकर्मसंवरो भवतीति भावः । अशनस्य हि शक्लादिरूपे मृदुस्पर्श, सौगन्धे, रसे वादरस्त्यक्तो भवति अशनं त्यजता। तथा क्षीरादिकमपि त्यजता क्षीरादिरूपेषु ॥२४॥ कदजोगदाददमणं आहारणिरासदा अगिद्धी य । लाभालामे समदा तितिक्षणं बंभचेरस्स ।।२४२।। 'कदजोगदा' सर्वत्यागस्य पश्चाभाविनः योगश्च कृतो भवति बाह्येन तपसा । 'आददमणं' आत्मनो दमनं आहारे सुखे च योऽनुरागस्तस्य प्रशमनात् । 'आहारणिरासदा' आहारे नैराश्यं सम्पादितं प्रतिदिनं आहारगताशापरित्यागाभ्यासात् । सर्वत्यागकालेऽपि सुकरा भवत्याहारनिराशतेति भावः । 'अगिद्धी य' द्धिश्च अलंपटता च । क्व ? आहारे । न ह्याहारे गद्धिमान्लब्ध्वा तं त्यजति । लाभालाभे समदा लाभालाभयोः समता । लाभे च सत्याहारस्य हर्षाकरणात अलाभे च तथाऽकोपात् । यः स्वयमेव लब्धमपि त्यजति स कथमिव परेषामदाने दुर्मनीभवति । 'तितिक्खणं बंभचेरस्स' ब्रह्मचर्य च सोढं भवति । रसवदाहारत्यागादभिनवेऽसति शुक्रसंचये अनशने च संचितप्रलये सति न स्त्रीष्वनुरागो भवति इति भावः । तथा गलितशुक्राणां पुंसां वैमुख्यं अंगनासु प्रतीतमेव ॥२४२।। ऐसा कहना माया कषाय है। मैं इस वसतिका स्वामी हैं यह लोभ कषाय है। इस तरह जो वस्तु कषायमें निमित्त हैं उनका त्याग करनेसे कषाय का अवसर नहीं रहता। (विसएसु अणादरो होई) स्पर्शन आदि विषयों में अनादर होता है अर्थात् उदासीनता होती है। विषयोंमें उदासीनतासे विषयोंमें आदर भाव रखनेके निमित्तसे बन्धने वाले कर्मोका संवर होता है यह भाव है। भोजनके त्यागसे भोजनके शुक्ल आदि रूपमें, कोमल स्पर्शमें, सुगन्धमें अथवा रसमें आदरका त्याग हो जाता है। तथा दूध आदिका भी त्याग करनेसे दूध आदिके रूप रस आदिमें आदरका त्याग हो जाता है ॥२४१।। गा०-ट्री०-- 'कद जोगदा'-बाह्य तपसे मरणकालमें जो सर्व आहारका त्याग करना होता है उसका अभ्यास होता है । 'आत्मदमण'-आहार और सुखमें जो अनुराग है उसका प्रशमन होनेसे आत्माका दमन होता है । 'आहारणिरासदा'-प्रतिदिन आहार सम्बन्धी आशाके त्यागके अभ्याससे आहारके विषयमें निराशा सम्पन्न होती है। अभिप्राय यह है कि समस्त आहारका त्याग करने के काल में भी आहार सम्बन्धी इच्छाका विनाश सुकर होता है । 'अगिद्धीय'—और आहारमें लंपटता नहीं रहती । जिसको आहारमें गृद्धि है वह आहार पाकर उसे छोड़ नहीं सकता। 'लाभालाभे समदा'-लाभ और अलाभमें समता रहती है। आहारका लाभ होने पर हर्ष नहीं करता और अलाभमें क्रोध नहीं करता । जो स्वयं भी प्राप्त आहारको छोड़ देता है वह दूसरोंके न देने पर अपना मन खराब कैसे कर सकता है। 'तितिक्खणं बंभचेरस्स'-ब्रह्मचर्यको धारण करता है.। रसोले आहारके त्यागसे नवीन वोर्यसंचय नहीं होता और अनशनसे संचितवीर्य क्षय होता है तब स्त्रीमें अनुराग नहीं होता। तथा जिन पुरुषों में वीर्यहीनता होती हैं उनके प्रति स्त्रियोंकी विमुखता प्रसिद्ध ही है ।।२४२।। १. हि भक्तादिरूपे-आ० । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ भगवती आराधना णिदाजओ य दढझाणदा विमुत्ती य दप्पणिग्धादो । सज्झायजोगणिव्विग्घदा य सहदुक्खसमदा य ।।२४३।। "णिहाजो य' निद्राजयश्च । प्रतिदिनमश्नतः रसवदाहारसेवापरस्य बहुभोजिनश्च निवाते सुखस्पर्श निरुपद्रवे च देशे शयानस्य निद्रा महती जायते, यया परवशो निश्चेतन इव भवत्याभपरिणामप्रवाहे च पतति, न च रत्नत्रयेण घटयति, तस्या जयो। 'दढझाणदा' दृढध्यानता च दुःखोपनिपाताच्चलति ध्यानाद भावितदुःखो यतिः । कृततपोभावनस्तु क्षुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि सहते । “विमुत्तो य' विमुक्तिविशिष्टत्यागः अनशनादावुद्यतेन शरीरमेव त्यक्तं भवति तदेव दुस्त्यजं । 'दप्पणिग्धादो' असंयमकरणो यो दर्पस्तस्य निर्घातश्च कृतो भवति । 'सज्झायजोगणिग्विग्घदा य' वाचनानप्रक्षाम्नायधर्मोपदेशर्योगः संबन्धी यस्तस्य विघ्नाभावश्च । आहारार्थे भ्रमतः कथं स्वाध्यायः क्रियते ? बहुभोजनश्च उत्तानः स्वपिति आसितुमप्यसमर्थः । रसवदाहारभोजी आहारोष्मणा दह्यमान इतस्ततः परावर्तते । अविविक्तायां वसतौ वर्तमानः परेषां वचः शृण्वंस्तैः सह संभाषणं कुर्वन्नाधीते । विविक्तदेशस्थायी पुनर्निाकुलः स्वाध्याये घटते । 'सुहदुःखसमदा य' सुखेन हृष्यति दुःखेन दुष्यति इति रागद्वेषावन्तरेण सुखदुःखानुभवः सुखदुःखसमता । अशनं रसांश्च सुखसाधनभूतांस्त्यजता सुखे रागस्त्यक्तो भवति । क्षुदादिजनितवेदनोपनिपाते असंक्लेशात् दुःखे न च द्वेषोऽस्यास्तीति । 'बाहिरतवेण होदि हु' इत्यनेन पञ्चसूत्र'निविर्दिष्टानां प्रत्येकं संवन्धः ॥२४३।। गा.-टो०-'णिद्दाजओय'-निद्राजय होता है। जो प्रतिदिन भोजन करता है, रसीले आहार के सेवनमें तत्पर रहता है, बहुत भोजन करता है, उसे वायुके प्रकोपसे रहित, सुखकारक स्पर्शवाले उपद्रवहीन देशमें सोने पर गहरी नींद आती है, जिसके अधीन होकर वह चेतनाहीन जैसा हो जाता है और अशुभ परिणामोंके प्रवाहमें गिर जाता है । वह रत्नत्रयमें नहीं लगता। उस निद्राका जय होता है । 'दढ़झाणदा' दृढ़ ध्यान होता है। जिस यतिको दुःख सहनेका अभ्यास नहीं होता, वह दुःख पड़ने पर ध्यानसे विचलित हो जाता है । किन्तु तपका अभ्यासी भूख आदि परीषह आने पर सहता है। 'विमुत्तीय' विमुक्ति अर्थात् विशिष्ट त्याग करता है क्योंकि जो अनशन आदिमें तत्पर रहता है वह तो शरीर ही को छोड़ देता है और शरीर ही को छोड़ना कठिन होता है। 'दप्पणिधादो'-असंयमको करने वाला जी दर्प है उसका भी पूरी तरहसे घात होता है। 'सज्झायजोगणिव्विग्घदाय'-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके साथ जो सम्बन्ध है उसमें कोई विघ्न नहीं होता। आहारके लिए भ्रमण करने वाला साधु कैसे स्वाध्याय कर सकता है । बहुत भोजन करने वाला तो ऊपरको मुख करके सोता है वैठ भी नहीं सकता। रसीला आहार खाने वाला आहारकी ऊमासे इधर-उधर करवटे बदलता है। जो बहुजन संकुल वसतिमें रहता है वह दूसरोंकी बातें सुनकर उनके साथ बातचीत करता है, स्वाध्याय नहीं करता । किन्तु एकान्त स्थानमें रहने वाला व्याकुलता रहित होकर स्वाध्याय करता है। सुहदुखसमदाय'-सुखसे हर्षित होना और दुःखसे दुः खो होना राग-द्वेष है। उनके विना सुख-दुःख का अनुभव सुख-दुःख समता है। सुखके साधनभूत भोजन और रसोंको जो त्यागता है वह सुखमें रागको त्यागता है । भूख प्यासका कष्ट होने पर संक्लेश न होनेसे उसे दुःखमें द्वष नहीं होता। १. त्रीनिदि-अ० मु० । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ विजयोदया टीका आदा कुलं गणो पवयणं च सोभाविदं हवदि सव्वं । अलसत्तणं च विजडं कम्मं च विणिद्धयं होदि ।।२४४।। 'आदा कुलं गणो पवयणं च सव्वं सोभाविद हववित्ति' पदघटना । बाह्येन तपसा स्वयं कुलमात्मनो, गणं, स्वशिष्यसन्तानश्च शोभामपनीतो भवति । 'अलसत्तणं च' अलसत्वं च । 'विजडं' त्यक्तं भवति । दुर्धरतपःसमुद्योगात् 'कम्मं च विणिधुदं' कर्म च संसारमूलं विशेषेण निद्भूतं भवति ॥२४४।। बहुगाणं संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं । मग्गो य दीविदो भगवदो य अणुपालिया आणा ॥२४५।। 'बहुगाणं' बहूनां । 'संवेगो जायदि' संसारभीरुता जायते । यथा सन्नद्धमेकं दृष्टवा नूनमत्र भयमस्ति किचिदहमपि सन्नह्यामीति जन: प्रवर्तते । एवं तपस्युद्यतमवलोक्य संसारभ यादयमेवं क्लिश्यति तदस्माकमप्यनिवारितमेवेति विभेति । भीतश्च प्रतिक्रिया प्रारभते । 'सोमत्तणं च मिच्छाणं' मिथ्यादृष्टीनां सौम्यता सुमुखता वा जायते । दुर्द्धरमिदं महत्तपो यतीनां इति प्रसन्ना भवंतीति यावत् । 'मग्गो य दीविदो' मार्गश्च मुक्तेः प्रकाशितो भवति यतीनां बाह्येन तपसा करणभूतेन । न तपसा विना कर्मणां निर्जराऽस्तीति 'भगवदो य अणुपालिदा आणा' भगवतः आज्ञा चानुपालिता भवति यतिना बाह्येन तपसा करणेन ॥२४५।। देहस्स लाघव संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं । जवणाहारो संतोसदा य जहसंभवेण गुणा ।।२४६।। 'देहस्स लाघवं' शरीरस्य लाघबगुणो बाह्येन तपसा भवति । लघुशरीरस्य आवश्यकक्रियाः सुकरा भवन्ति । स्वाध्यायध्याने चाक्लेशसम्पाद्ये भवतः । गेहस्स लूहणं' शरीस्नेहविनाशनं च गुणः । शरीरस्नेहादेव उक्त पाँच गाथामें जो कुछ कहा है उसका सम्बन्ध 'बाह्यतपसे होता है' इस वाक्यके साथ लगाना चाहिए ॥२४३।। टो०-बाह्य तपसे आत्मा, अपना कुल, गण, अपनी शिष्य परम्परा शोभित होती है । आलस्य छूट जाता है। और दुर्धर तप करनेसे संसारका मूल कर्म विशेषरूपसे नष्ट होता है ॥२४४॥ टो०-यतिके बाह्य तप करनेसे बहुतसे लोगोंको संसारसे भय उत्पन्न होता है। अवश्य ही यहाँ कुछ भय है मैं भी तैयारी करता हूँ । इस प्रकार लोग तपमें प्रवृत्त होते हैं। तपमें उद्यत जनको देखकर 'यह संसारके भयसे इस प्रकारका कष्ट उठाता है । हम भी इससे बच नहीं सकते ऐसा मान संसारसे डरता है और डरकर उसका प्रतीकार करता है। तपस्वीको देखकर मिथ्यादृष्टियोंमें भी सौम्यता आ जाती है। यतियोंका यह महान तप दुर्द्धर है इस प्रकार अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हैं। यातियोंके बाह्य तप करनेसे मुक्तिका मार्ग प्रकाशित होता है। क्योंकि तपके बिना कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती । और भगवान्की आज्ञाका अनुपालन होता है ।।२४५॥ टी०-बाह्य तपसे शरीरमें हलकापन आता है। जिसका शरीर हल्का होता है वह आवश्यक क्रियाओंको सरलतासे करता है। तथा स्वाध्याय और ध्यान विना कष्टके होते है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ भगवती आराधना जनोऽसंयमे प्रवर्तते । शरीरमेवानथं हेतुरिति तपोऽपि न करोति । तेनाहितः शरीरस्नेहो विनाशितो भवति । 'उवसमो तहा परमो' तथा चोत्कृष्टश्चोपशमो भवति रागादेर्दुः करे तपसि वर्तमानस्य । किं च मम रागेण उपद्रवकारिणा । सति रागे हि नवकर्मबन्धो जायते । चिरन्तनकर्मरसोपबृंहणं च । सति चेत्थं मदीयः क्लेशो निष्फलो भवेदिति मनः प्रणिधानादुपशमः । 'जवणाहारो' परिमिताहारता इति केचिदाचक्षते । तत्र च गुणो नीरोगतादिकमिति । तथा चाहुमिताशिनः षड्गुणा भजन्ते इति । अपरे शरीरस्थितिमात्रहेतुराहारः जवणाहारशब्दः शरीरवाच्यः इति स्थिताः ॥ २४६ ॥ एवमित्यादिनोपसंहरति एवं उग्गम उप्पादणे सणासुद्धभत्तपाणेण । मिदलहुयविरस लुक्खेण य तवमेदं कुणदि णिच्चं ॥२४७॥ 'एवमेदं तवो णित्त्वं कुणदित्ति' पदघटना । ' एवं ' व्यावणितरूपेण | 'एवं' एतत् बाह्यं तपः । ' कुणदि' करोति । 'णिच्चं' नित्यं । ' उग्गमउप्पादणे सणासुद्धभत्तपाणेण' उद्गमोपादनंषणादोषरहितेन, भक्तेन पानेन च । कीदृग्भूतेन ? "मिदलहुगविरसलुक्खेण' परिमितेन लघुना, विरसेन, रूक्षेण । एवंभूतं शुद्ध माहारं भुक्त्वा तपः कुर्यान्नाशुद्धमिति भावः । उल्लीणोल्लीणेहिं य अहवा एक्कंतवड्ढमाणेहिं । सल्लिइ मुणी देहं आहारविधिं पयणुगिंतो ।। २४८ ॥ 'उल्लीणोल्लीणेहि य' प्रवर्द्धमानेन हीयमानेन च तपसा चतुर्थषष्ठादिक्रमेणानशनतपोवृद्धिः । एकद्वि शरीरसे स्नेहका विनाश होता है यह भी एक गुण है । शरीरके स्नेहसे ही मनुष्य असंयमका आचरण करता है । शरीर ही अनर्थका कारण है । इसीके स्नेहवश मनुष्य तप नहीं करता । अतः तपसे अहितकारी शरीरस्नेहका नाश होता है । दुष्कर तप करनेवालेके रागादिका उत्कृष्ट उपशम होता है । वह मनमें विचारता है, इस उपद्रवकारी रागसे मुझे क्या ? रागके होनेपर नवोन कर्मका बन्ध होता है, और पूर्वबद्धकर्मों में रसकी वृद्धि होती है । ऐसा होनेपर मेरा कष्ट सहन निष्फल है । ऐसे विचारसे उपशम होता है । 'जवणाहारो' - इसका अर्थ कोई 'परिमित आहार' करते हैं । उसमें नीरोगता आदि गुण हैं । कहा है 'परिमित भोजनमें छह गुण होते हैं ।' अन्य कुछ शरीरकी स्थितिमात्रमें हेतु जो आहार है वह जवणाहार है ऐसा कहते हैं || २४६ ॥ उक्त चर्चाका उपसंहार करते हैं गा०- - कहे अनुसार उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषसे रहित भोजन और पानसे और परिमित, लघु, रसरहित और रूक्ष भोजन पानसे यह बाह्य तप नित्य यति करता है । इसका भाव है कि इस प्रकारका शुद्ध आहार खाकर तप करना चाहिए । अशुद्ध आहार करके नहीं ॥२४७॥ गा०—वर्द्धमान या हीयमान अनशन आदि तपोंसे अथवा सर्वथा वर्द्धमान तपोंके द्वारा आहारकी विधिको अल्प करता हुआ मुनि शरीरको कृश करता है || २४८|| टी० - चतुर्थ, षष्ठ आदिके क्रमसे अनशन तपकी वृद्धि होती है । एक दो आदि ग्रास कम १. कुर्यान्नशुद्ध - अ० । कुर्युः सुशुद्ध-आ० । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका २५७ कवलादिन्यूनतया अवमोदर्यवृद्धिः । एकस्य रसस्य द्वयोस्त्रयाणामित्यादिना क्रमेण रसपरित्यागवृद्धिः । एकपाटकं, गृहसप्तकं, गृहत्रयं वा प्रविशामीति, भिक्षाग्रासपरिमाणन्यूनताकरणेन वा वृत्तिपरिसंख्यानवृद्धिः । दिवसे आतपनं कृत्वा रात्री प्रतिमावग्रहकरणमित्यादिना कायक्लेशवृद्धिः । एवं श्रमै महति संजाते क्रमेण अनशनादीनां न्यूनताकरणं । 'अहवा' अथवा । 'एयंतवढमाणेहिं' एकान्तेन वर्धमानः तपोभिः । 'सल्लिहई' संलिखति । 'मुणी' मुनिः । 'देहं' । 'आहारविधि' अशनादिविधि । ‘पयणुगितो' अल्पीकुर्वन् ॥२४८॥ प्रकारान्तरेण सल्लेखनोपायमाचष्टे-- अणुपुव्वेणाहारं संवट्टतो य सल्लिहइ देहं । . दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सन्लेहणं कुणइ ॥२४९।। 'अणुपुर्वण' क्रमेण । आहारं संवट्टतो य आहारं न्यूनयित्वा । सल्लिहइ देहं तनूकरोति । दिवसग्गहिगेण तवेण चावि एकैकदिनं प्रतिगृहीतेन तपसा ·च, एकस्मिन्दिनेऽनशनं, एकस्मिन्दिने वृत्तिपरिसंख्यानं इति । सल्लेहणं कुणइ सल्लेखनां करोति ॥२४९॥ विविहाहिं एसणाहिं य अवग्गहेहिं विविहेहिं उग्गेहिं । संजममविराहिंतो जहाबलं सल्लिहइ देहं ॥२५०॥ "विविहाहि' नानाप्रकारैः । “एसणाहिं य' भोजनः रसवजितरप्यल्पैः शुष्कराचाम्ला । 'अवग्गहेहि' नानाप्रकारैरवग्रहः । 'उग्हिं' उप्रैः । 'संजममविराधेतो' संयम द्विप्रकारं अविनाशयन् । 'जहाबलं' स्वबलानतिवृत्त्या देहं तनूकरोति ॥२५॥ सदि आउगे सदि चले जाओ विविधाओ 'भिक्खुपडिमाओ । ताओ वि ण बाघते जहाबलं सल्लिहंतस्स ॥२५१।। करनेसे अवमौदर्यकी वृद्धि होती है। एक रसका, फिर दो रसका, फिर तीन रसका, इत्यादि क्रमसे त्याग करनेसे रसपरित्यागकी वृद्धि होती है। मैं एक पाटकमें या सात घरमें या तीन घरमें प्रवेश करूंगा । अथवा भिक्षाके ग्रासोंका परिमाण कम करनेसे वृत्तिपरिसंख्यान तपकी वृद्धि होती है। दिनमें आतापन योग करके रात्रिमें प्रतिमा योग धारण करने आदिसे कायक्लेशकी वृद्धि होती है। इस प्रकार करनेसे महान् श्रम होनेपर क्रमसे अनशन आदिमें कमी करता है। या फिर बढ़ाता ही जाता है और आहारको कम करके मुनि शरीरको कृश करता है ॥२४८।। प्रकारान्तरसे सल्लेखनाका उपाय कहते हैं गा०--क्रमसे आहारको कम करते हुए शरीरको कृश करता है । और एक एक दिन ग्रहण किये तपसे, एक दिन अनशन, एक दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस प्रकार सल्लेखनाको करता है ॥२४९|| गा०-नाना प्रकारके रस रहित भोजन, अल्प भोजन, सूखा भोजन, आचाम्ल भोजन आदिसे और नाना प्रकारके उग्न नियमोंसे दोनों प्रकारके संयमोको नष्ट न करता हुआ यति अपने बलके अनुसार देहको कृश करता है ।।२५०॥ १. मायिय दुय तिय चउ पंच मास छम्मास सत्त मासी य । तिण्णेव सत्तराई राइंदिय राइपडिमाओ ॥' -मलाराधनादर्पणे । ३३ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ भगवती आराधना 'सवि आउगे' आयुषि सति । 'सदिबले' सति बले । 'जाओं' याः 'विविहाओ' विचित्राः । 'भिक्खुपडिमाओ' भिक्षप्रतिमाः। 'ताओ वि' ताश्च । 'ण बाते' न पीडां जनयंति महतीं। कस्य ? 'जहाबलं सल्लिहंतस्स' यथाबलं तनूकुर्वतः बलमन्तरेण कुर्वतः प्रारब्धमहाक्लेशस्य योगभङ्गः संक्लेशश्च महान् जायते इति भावः ॥२५॥ शरीरसल्लेखनाहेतुषु उपन्यस्तेषु के उत्कृष्टा इत्यत्राह सल्लेहणा सरीरे तवोगुणविधी अणेगहा भणिदा । आयंबिलं महेसी तत्थ दु उक्कस्सयं विति ॥२५२॥ 'सल्लेहणा शरीरे' शरीरसल्लेखनानिमित्तं शरीरे सल्लेखना इत्युच्यते । 'तवोगुणविधी' तपःसंज्ञितो गुणविकल्पः । 'अणेगहा भणिवा' अनेकधा निरूपितः अतीतसूत्रः । 'तत्थ' तत्र । 'महेसी' महर्षयः । 'आयंबिलं दु' आचाम्लाश'नमेव । 'उक्कस्सगं' उत्कृष्टमिति । 'ति' ब्रुवन्ति ॥२५२॥ टी०-आयुके होते हुए और बलके होते हुए अपनी शक्तिके अनुसार शरीरको कृश करने वाले यतिके जो विविध भिक्षु प्रतिमाएँ है, वे भी महान् कष्ट नहीं देती। जो शक्तिके बिना करता है उसे प्रारम्भ में ही महान् क्लेश होनेसे योगका भंग तथा महा संक्लेश परिणाम होते हैं ॥२५१॥ विशेषार्थ-आशाधरजीने एक गाथाके द्वारा उसका अर्थ करते हुए भिक्षु प्रतिमाओंका कथन किया है जो इस प्रकार है आत्माकी सल्लेखना करने वाला, धैर्यशाली, महासत्त्वसे सम्पन्न, परीषहोंका जेता, उत्तम संहननसे विशिष्ट, क्रमसे धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानको पूर्ण करता हुआ मुनि जिस देशमें रहता है उस देशके लिये दुर्लभ आहारका व्रत ग्रहण करता है कि यदि एक मासमें ऐसा आहार मिला तो मैं भोजन करूंगा, अन्यथा नहीं करूंगा। उस मासके अन्तिम दिन वह प्रतिमा योग धारण करता है। यह एक भिक्षु प्रतिमा है। इस प्रकार पूर्वोक्त आहारसे सौगुने उत्कृष्ट अन्य-अन्य भोजन सम्बन्धी नियम लेता है । ये नियम दो, तीन, चार, पाँच, छै और सात मासको लेकर होते है । अर्थात् दो या तीन आदि सात मासमें ऐसा आहार मिलेगा तो आहार करूँगा । सर्वत्र नियमोंके अन्तिम दिन प्रतिमा योग धारण करता है। ये सात भिक्षु प्रतिमा हैं। पुनः पूर्व आहार से सौगुना उत्कृष्ट दुर्लभ अन्य-अन्य आहारका नियम सात-सात दिनका तीन बार ग्रहण करता है। अर्थात् सात दिनमें ऐसा मिला तो ग्रहण करूंगा। ये तीन भिक्षु प्रतिमा हैं। फिर रात दिन प्रतिमायोगसे स्थित रहकर पीछे रात्रि प्रतिमायोग धारण करता है। ये दो भिक्षु प्रतिमा हैं। इनके धारण करनेपर पहले अवधि मनःपर्यय ज्ञानको प्राप्त करनेके पीछे सूर्योदय होनेपर केवलज्ञानको प्राप्त करता है। इस तरह बारह भिक्षु प्रतिमायोगसे स्थित होकर पश्चात् रात्रि प्रतिमायोग धारण करता है ॥२५१॥ ऊपर जो शरीरकी सल्लेखनाके हेतु कहे हैं उनमें कौन उत्कष्ट हैं, यह कहते हैं गा०-शरीरकी सल्लेखनाके निमित्त अनेक प्रकार तप नामक गुणके विकल्प पूर्व गाथाओं के द्वारा कहे हैं। उनमेंसे महर्षि आचाम्लको ही उत्कृष्ट कहते हैं ॥२५२।। १. शनाय च आ० । -शनाख्यं च मु० । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ विजयोदया टीका शरीरसल्लेखनोपायोत्कृष्टमाचाम्लाशनमित्युक्तं तत्कीदृगिति चोदिते आह छट्टमदसमदुबालसेहिं भत्तेहिं विदियअट्ठोहिं । . मिदलहुगं आहारं करेदि आयंबिलं बहुसो ॥२५३।। 'छट्टमदसमदुबालसेहि भत्तेहिं विदियअठेहि' द्वित्रिचतुःपञ्चदिनोपवासैः उत्कृष्टः । 'भिदलहगं आहारं करेदि' परिमितं लध्वाहारं करोति । 'आयंबिलं' आचाम्लं । 'बहुसो' बहुशः ॥२५३॥ भक्तप्रत्याख्यानस्यास्य वर्ण्यमानस्य कियत्काल इत्यत्रोत्तरं उक्कस्सएण भत्तपइण्णाकालो जिणेहिं णिद्दिट्ठो। कालम्मि संपहुत्ते बारसवरिसाणि पुष्णाणि ॥२५४।। 'उक्कस्सएण' उत्कर्षेण । 'भत्तपइण्णाकालो' भक्तप्रत्याख्यानकालः । 'जिणेहि णिहिटो' जिननिर्दिष्टः । 'कालम्मि' काले । 'संपत्ते' महति सति । 'बारसवरिसाणि' सम्पूर्णद्वादशवर्षमात्रान् ॥२५४॥ उक्तेषु द्वादशवर्षेषु एवं कर्तव्यमिति क्रमं सल्लेखनाय दर्शयति जोगेहिं विचित्तेहिं दुखवेइ संवच्छराणि चत्तारि । वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो वि 'सोसेदि ।।२५५।। 'जोहि' कायक्लेशः । 'विचित्तेहि दु' विचित्ररनियतः । 'खवेदि' क्षपयति । 'संवच्छराणि चत्तारि' वर्षचतुष्टयं । यत्किचिद्भुक्त्वा । 'विगडी णिज्जूहित्ता' रसादीन्क्षीरादोन्परित्यज्य । 'चत्तारि' वपंचतुष्टयं । 'पुणो वि' पुनरपि । "सोसेदि' तनूकरोति तनुम् ॥२५५॥ शरीरको सल्लेखनाके उपायोंमें आचाम्लको उत्कृष्ट कहा, वह कैसा होता है, यह कहते हैं गा०-उत्कृष्ट दो दिन, तीन दिन, चार दिन और पाँच दिनके उपवासके बाद अधिकतर परिमित और लघु आहार आचाम्लको करते हैं ॥२५३।। विशेषार्थ-'अदिविकट्रेहि' के स्थानमें 'वियदि अद्वेहि' पाठ भी मिलता है । उसका अर्थ 'विशेष अतिकष्ट' ऐसा होता है। इस गाथाका तात्पर्य यह है षष्ठ आदि उपवासोंसे संक्लेशको न प्राप्त होता यति मित और लघु कांजी का आहार प्रायः करता है। उसे संलेखनाके हेतुओंमें उत्कृष्ट कहते हैं ॥२५३॥ जिस भक्त प्रत्याख्यानका वर्णन चल रहा है उसका काल कितना है ? इसका उत्तर देते हैं गा०-यदि आयुका काल अधिक शेष हो तो जिन भगवान्ने उत्कृष्टसे भक्त प्रत्याख्यानका काल पूर्ण बारह वर्ष कहा है ।।२५४॥ उक्त बारह वर्षमें ऐसा करना चाहिये, इस प्रकार सल्लेखनाका क्रम बतलाते हैं गा-नाना प्रकारके कायक्लेशोंके द्वारा चार वर्ष बिताता हैं। दूध आदि रसोंको त्यागकर फिर भी चार वर्ष तक शरीरको सुखाता है ॥२५५।। . . १. मोमेइ अ० । २. मोसेदि अ०। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० भगवती आराधना आयंबिलणिन्वियडीहिं दोणि आयविलेण एक्कं च । अद्ध णादिविगठेहिं अदो अद्धं विगठेहिं ।।२५६।। 'आयंबिलपिस्वियडीहिं' आचाम्लेन निर्विकृत्या च । 'दोण्णि' वर्षद्वयं क्षपयति । 'आयंबिलेण' आचाम्लेनैव । 'एकं च' एक वर्ष । 'अद्ध" अवशिष्टस्य वर्षस्य षण्मासान । 'नादिविगहि' अत्यनत्कष्टस्तपोभिः क्रशयति । 'अदो अद्ध विकठेहि' अतः परं षण्मासान उत्कृष्टस्तपोभिः ॥२५६।। व्यावणितेनैव क्रमेण आचरितव्यमिति नियोगो न विद्यते इत्याचष्टे भत्तं खेत्तं कालं धातुंच पडुच्च तह तवं कुज्जा । वादो पित्तो सिंभो व जहा खोभं ण उवयंति ॥२५७।। 'भत्तं' आहारं शाकबहुलं, रसबहुलं, कुल्मापप्रायं, निष्पावचणकादिमिश्र, शाकव्यञ्जनादिरहितं वा । 'खेत्तं' अनूपजाङ्गलसाधारणविकल्पं । 'कालं' धर्मशीतसाधारणभेदं । धातुमात्मनः शरीरप्रकृतिं च । 'पडुच्च' आश्रित्य । 'तह' तथा । 'तवं कुज्जा' तपः कुर्या'ज्जहा खोभं ण उदयंति'। यथा क्षोभं नोपयान्ति । 'वादो पित्तो सिभो वा' वातपित्तश्लेष्मत्रिकं ॥२५७।। • शरीरसल्लेखनाक्रममभिधायाभ्यन्तरसल्लेखनाक्र ममभिधातुं अभ्यन्तरसल्लेखनया सह सम्बन्धं कथयन्ति एवं सरीरसल्लेहणाविहिं बहुविहा व फासेंतो। अज्झवसाणविसुद्धिं खणमवि खवओ ण मुंचेज्ज ।।२५८।। 'एव'मुक्तेन क्रमेण । 'शरीरसल्लेहणाविहि' नानाप्रकारं । 'फासेतो वि' स्पृशन्नपि । 'अज्झवसाण गा०-आचाम्ल और निविकृतिके द्वारा दो वर्ष बिताता है। आचाम्लके द्वारा एक वर्ष विताता है। मध्यम तपके द्वारा शेष वर्षके छह माह और उत्कृष्ट तपके द्वारा शेष छह मास बिताता है ।।२५६॥ विशेषार्थ-शेष चार वर्षों में से दो वर्ष कांजी और रस व्यंजन आदिसे रहित भात वगैरह खाकर बिताता है। एक वर्ष केवल कांजी आहार लेता है। अन्तिम बारहवें वर्षके प्रथम छह महीनोंमें मध्यम तप करता है । अन्तिम छह महीनोंमें उत्कृष्ट तप करता है ॥२५॥ आगे कहते हैं कि ऊपर कहे क्रमके अनुसार ही आचरण करनेका नियम नहीं है गा०-आहार, क्षेत्र, काल अपनी शारीरिक प्रकृतिको विचार कर इस प्रकार तप करना चाहिये जिस प्रकार वात पित्त और कफ क्षोभको प्राप्त न हों ।।२५७|| ___टी०-आहारके अनेक प्रकार हैं-शाक बहुल-जिसमें शाक ज्यादा है, रस बहुल-जिसमें घी दूध आदि रस अधिक हैं । कुल्माषप्राय-जिसमें कुलथी अधिक है। कच्चे चने आदि से मिला आहार और शाक व्यंजन आदिसे रहित आहार । क्षेत्र भी अनेक प्रकारके हैं जिसमें पानीकी प्रचुरता है, वर्षा अधिक होती है, कहीं वर्षा कम होती है। काल गर्मी सर्दी और साधारण होता है। इन सबका तथा अपनी प्रकृतिका विचार करके तप करना चाहिये जिससे स्वास्थ्य खराब न हो ॥२५७॥ शरीरकी सल्लेखनाका क्रम कहकर अभ्यन्तर सल्लेखनाका क्रम कहनेके लिये अभ्यन्तर सल्लेखनाके साथ सम्बन्ध कहते हैं गा०–उक्त क्रमसे नाना प्रकारकी शरीर सल्लेखनाकी विधिको करते हुए भी परिणामों Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २६१ विसुद्धि' परिणामविशुद्धि । 'खवगो खणमवि ण मुचेज्ज' क्षपकः क्षणमपि न त्यजेत् ॥२५८॥ अभ्यन्तरशुद्धयभावे दोषं कथयति अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा जे तवं विगट्ठपि । . कुव्वंति बहिल्लेस्सा ण होइ सा केवला सुद्धी ॥२५९।। 'अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा' अध्यवसान विशुद्ध्या वर्जिताः । 'जे' ये । 'तवं' तपः । “विगळंपि कुव्वंति' उत्कृष्टमपि कुर्वन्ति । 'बहिल्लेस्सा' बहिर्लेश्याः पूजासत्काराद्याहितचित्तवृत्तयः । 'ण होवि तेसि - केवला सुद्धी' दोषोन्मिश्रका भवतीति शुद्धिरिति यावत् ।।२५९॥ केवला शुद्धिः कस्य तर्हि भवतीत्याह अविगट्ठ पि तवं जो करेइ सुविसुद्धसुक्कलेस्साओ। अज्झवसाणविसुद्धो सो पावदि केवलं सुद्धिं ॥२६०॥ 'अविकळं वि' अनुत्कृष्टमपि तपो यः करोति । सुविशुद्धशुक्ललेश्यासमन्वितः विशुद्धपरिणामः स केवलां शुद्धि प्राप्नोति इति गाथार्थः ॥२६०।। प्रस्तुतां द्वितीयां कषायराल्लेखनामुक्तयाध्यवसायविशुद्धया योजयति अज्झवसाणविसुद्धी कसायकलुसीकदस्स णस्थित्ति । अज्झवसाणविसुद्धी कसायसल्लेहणा भणिदा ॥२६१॥ .. 'अज्झवसाणविसुद्धी' परिणामविशुद्धिः । 'कसायकलुसोकदस्स' कषायः कलुषीकृतस्य । ‘णत्थि' नास्ति यस्मात् इति तस्मात् । 'अज्झावसाणविसद्धी' परिणामविसद्धिः । 'कसायसल्लेहणा भणिया' कषायसल्लेखनेति गदिता ॥२६१॥ की विशुद्धिको क्षपक एक क्षणके लिये भी न छोड़े ॥२५८।। अभ्यन्तर शुद्धिके अभावमें दोष कहते हैं गा०-परिणामोंकी विशुद्धिको छोड़कर जो उत्कृष्ट भी तप करते हैं उनकी चित्तवृत्ति पूजा सत्कार आदिमें ही लगी होती है। उनके अशुभ कर्मके आस्रवसे रहित शुद्धि नहीं होती। अर्थात् दोषोंसे मिली हुई शुद्धि होती है ।।२५९। तब केवल शुद्धि किसके होती है, यह कहते हैं गा०-जो अतिविशुद्ध शुक्ललेश्यासे युक्त और विशुद्ध परिणामवाला अनुत्कृष्ट भी तप करता है वह केवल शुद्धिको पाता है । यह गाथाका अर्थ है ॥२६०॥ प्रस्तुत दूसरी कषाय सल्लेखनाको उक्त अध्यवसान विशुद्धिसे जोड़ते हैं गा०—जिसका चित्त कषायसे दूषित है उसके परिणाम विशुद्धि नहीं होती। इसलिये परिणाम विशुद्धिको कषाय सल्लेखना कहो है ।।२६१।। - विशेषार्थ-जिस मुनिका चित्त क्रोधाग्निके द्वारा कलुषित है उस मुनिके परिणाम विशुद्ध नहीं हैं। अतः उसके कषाय सल्लेखना नहीं है। कषायके कृश करनेको कषाय सल्लेखना कहते हैं । और कषायके कृश हुए बिना परिणाम विशुद्ध नहीं होते । अतः परिणाम विशुद्धिके साथ कषाय सल्लेखना का साध्य साधन भाव सम्बन्ध है ॥२६१॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ भगवती आराधना शुभपरिणामप्रवाहवृत्तेन चतुष्कषायसल्लेखना कृता भवति इत्यभिधाय सामान्येन चतुर्णामपि कषायाणा तनूकरणे उपायं प्रतिपक्षपरिणामचतुष्कं कथयति कोधं खमाए माणं च मद्दवेणाज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं जिणदु खु चत्तारि वि कसाए ।।२६२॥ कोधं खमायेत्यादिना कषायविनाशने उपायस्तदुत्पत्तित्यागः ॥२६२।। उत्पद्यमानो हि कषायो वृद्धिमुपैतीति कथयति कोहस्स य माणस्स य मायालोभाण सो ण एदि वसं । जो ताण कसायाणं उप्पत्तिं चेव वज्जेइ ।।२६३॥ 'कोहस्स य' अत्रैवं पदघटना । 'जो तेसि कसायाणमुप्पत्ति चेव वज्जेदि' यस्तेषां कषायाणामुत्पत्ति एव परिहरति । 'क्रोधस्स य माणस्स य मायालोभाण सो ण एदि वसं' क्रोधमानमायालोभानां स नोपैति वशं । यस्तेषामत्पत्तिमपेक्षते स तदशगः कथं कषायसल्लेखनां कुर्यादिति भावः ॥२६३॥ कषायोत्पत्ति परिहतुमिच्छता किं कर्तव्यमित्यत आह तं वत्थं मोत्तव्वं जं पडि उप्पज्जदे कसायग्गि । तं वत्थमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं ॥२६४॥ 'तं वत्थु मोत्तव्वं तद्वस्तु मोक्तव्यं । 'जं पडि उप्पज्जदे' यन्निमित्तं उत्पद्यते 'कसायग्गों' कषायाग्निः । 'तं वत्थुमल्लिएज्जो' तद्वस्तूपाश्रयणं कुर्यात् । 'जत्थ' यत्रोपाश्रयणे । 'उवसमो कसायाणं' कषायाणामुपशमो भवति ॥२६४॥ जइ कहवि कसायग्गी समुट्ठिदो होज्ज विज्झवेदव्वो । रागदोसुप्पत्ती विज्झादि हु परिहरंतस्स ।।२६५।। 'जइ कहवि कसायग्गी' यदि कथंचित्कषायाग्निः । 'समुट्ठिदो होज्ज' समुत्थितो भवेन् । 'विज्झवे जो शुभ परिणामोंके प्रवाहमें बहता है वही चार कषायोंकी सल्लेखना करता है यह कहकर, सामान्य से चारों कषायों को कृश करनेका उपाय उनके प्रतिपक्षी चार प्रकारके परिणाम हैं, यह कहते हैं टो०-क्रोधको क्षमासे, मानको मादवसे माया को आर्जवसे और लोभको सन्तोषसे, इस प्रकार चारों ही कषायोंको जीतो ॥२६२॥ आगे कहते हैं कि उत्पन्न हुई कषाय बढती है टो०-जो उन कषायोंकी उत्पत्तिको ही रोक देता है वह मुनि क्रोध, मान, माया, लोभके वशमें नहीं होता ।।२६३|| जो कषायकी उत्पत्तिसे बचना चाहता है उसे क्या करना चाहिए यह कहते हैं मा०-उस वस्तुको छोड़ देना चाहिए जिसको लेकर कषायरूपी आग उत्पन्न होती है। और उस वस्तुको अपनाना चाहिए जिसके अपनानेसे कषायोंका उपशम हो ॥२६४|| _ गा०-यदि थोड़ी भी कसायरूप आग उठती हो तो उसे बुझा दे। जो कषायको दूर करता है उसके राग-द्वेषकी उत्पत्ति शान्त हो जाती है ॥२६५॥ टी०-नीच जनकी संगतिकी तरह कषाय हृदयको जलाती है। अशुभ अंगोंपांग नामकर्म Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २६३ बम्वो' विध्यापयितव्यः । 'रागद्दोसुप्पत्ती' रागद्वेषयोरुत्पत्ति । "विज्झादि हु' शाम्यत्येव । 'परिहरंतस्स परिहरतः। कषायाग्निः प्रशान्ति नीयते। तदोषापेक्षणेन नीचजनसाङ्गत्यमिव हृदयं दहति, अशुभाङ्गोपाङ्गनामकर्मवद्विरूपाननं करोति । रज इव चक्षुषो रागमानयति । महासमीरण इव तनुं कम्पयति । सुरापानमिव यत्किचिन्निगदयति । समीचीनज्ञानलोचनं मलिनयति । दर्शनवनमुत्पाटयति । चारित्रसरः शोषयति । तपःपल्लवं भस्मयति । अशुभप्रकृतिलतां स्थिरयति । शुभकर्मफलं विरसयति । प्रत्यग्रमनोमलं ढोकयति । हृदयं कठिनयति । प्राणभृतो घातयति । भारतीमसत्यां प्रवर्तयति । गुरूनपि गुणान्लङ्घयति । यशोधनं नाशयति । परानपवादयति । महतोऽपि गुणान्स्थगयति । मैत्रीमुन्मूलयति । कृतमप्युपकारं विस्मारयति । अपकारमध्यापयति । महति नरकगर्ने पातयति । दुःखावतें निमज्जयतीत्यनेकानवहत्वभावनया ॥२६५।। रागद्वेषप्रशान्त्युपायकथनाय गाथा जावंति केइ संगा उदीरया होति रागदोसाणं । ते वज्जंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो ।।२६६।। 'जावंति केइ संगा' यावन्तः केचन परिग्रहाः । 'उवीरगा होंति रागदोसाणं' उत्पादका भवन्ति रागद्वेषयोः । 'ते वज्जंतो' तान्परिग्रहान्निराकुर्वन् । 'जिणवि खु जयत्येव । 'राग दोसं च' रागद्वेषौ । 'निस्संगो' निःपरिग्रहः ॥२६६॥ के उदयसे जो मुख विरूप होता है वैसे ही कषायके उदयमें मनुष्यका मुख क्रोधसे विरूप हो जाता है। जैसे धूल पड़नेसे आँख लाल हो जाती है उसी तरह क्रोधसे आँख लाल हो जाती है । जैसे महावायुसे शरीर कांपने लगता है वैसे ही क्रोधसे मनुष्य काँपने लगता है। जैसे शरावी शराब पीकर जो चाहे बकता है वैसे ही क्रोधमें मनुष्य जो चाहे बोल देता है। जैसे जिसपर भूतका प्रकोप होता है वह कुछ भी करता है वैसे ही क्रोधी मनुष्य जो चाहे करता है। कषाय समीचीन ज्ञानरूपी दृष्टिको मलिन कर देती है । सम्यग्दर्शनरूपी वनको उजाड़ देती है। चारित्ररूपी सरोवरको सुखा देती है। तपरूपी पत्रोंको जला देती है। अशुभकर्मरूपी बेलकी जड़ जमा देती है । शुभकर्मके फलको रसहीन कर देती है। अच्छे मनको मलिन करती है। हृदयको कठोर बनाती है । प्राणियोंका घात करती है। वाणीको असत्यकी ओर ले जाती है । महान् गुणोंका भी निरादर करती है । यशरूपी धनको नष्ट करती है। दूसरोंको दोष लगाती है। महापुरुषोंके भी गुणोंको ढांकती है, मित्रताकी जड़ खोदती है। किये हुए भी उपकारको भुलाती है। महान् नरकके गढ़ेमें गिराती है। दुःखोंके भँवरमें फँसाती है । इस प्रकार कषाय अनेक अनर्थ करती है । ऐसी भावनासे कषायको शान्त करना चाहिए ॥२६५॥ आगे गाथाके द्वारा रागद्वेषकी शान्तिके उपाय कहते हैं गा०—जितने भी परिग्रह रागद्वषको उत्पन्न करते हैं, उन परिग्रहोंको छोड़नेवाला अपरिग्रही साधु राग और द्वषको निश्चयसे जीतता है ।।२६६॥ १. विज्झादिषु अ० । विज्भादिसु आ० । २. यति । आविष्टग्रह इव यत्किचन कारयति समी-मु० । ३. गाथार्थः, अ०। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ भगवती आराधना एवमुदयमुपयाति कषायाग्निः स चेत्थमपकारं करोत्येवं प्रशान्ति नेतव्य इत्येतद्गाथात्रयोदाहरणे नोच्यते पडिचोदणासहणवायखुभिदपडिवयणईघणाइद्धो । चंडो हु कसायग्गी सहसा संपज्जलेज्जाहि ॥ २६७॥ 'पडिचोयणा' प्रतिचोदनायाः असहनमेत्र वातः तेन क्षुभितः प्रतिवचनेन्धनैरिद्धः क्रूरः कषायाग्निः सहसा प्रज्वलति ॥ २६७॥ जलिदो हु कसायग्गी चरित्तसारं डहेज्ज कसिणं पि । सम्मत्तं पि विराधिय अनंतसंसारियं कुजजा || २६८ || 'जलिदो हि कसायग्गी' ज्वलितश्च कषायाग्निः । 'चरितसारं' चारित्राख्यं सारं दहत्येव । सम्यक्त्वं विनाश्यानन्त संसारपरिभ्रमणे रतं कुर्यादेव ॥ २६८ ॥ तहा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमाणयं चैव । इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि ॥ २६९ ॥ 'तम्हा खु' तस्मात्खलु कषायाग्निः पापमुत्पद्यमानमेव प्रशमयेत् । केन "इच्छामि भगवतः शिक्षां, मिथ्या भवतु मम दुष्कृतं, नमस्तुभ्यं" इत्येवंभूतेन सलिलेन ॥२२९॥ तह चेव णोकसाया सल्लिहियव्वा परेणुवसमेण । साओ गारवाणि य तह लेस्साओं य असुहाओ || २७० || इस प्रकार कषायरूपी अग्निका उदय होता है और वह इस प्रकार अपकार करती है, तथा इस प्रकारसे उसे शान्त करना चाहिए, यह तीन गाथाओंसे कहते हैं- टो० - शिष्य की अयोग्य प्रवृत्तिको रोकनेके लिए गुरुके द्वारा शिक्षा दिये जानेपर शिष्यने जो प्रतिकूल वचन कहे वह गुरुको सहन नहीं हुए । वही हुई वायु । उस वायुसे गुरुके मन में आग भड़क उठी। उसके पश्चात् गुरुने शिष्यको पुनः समझाया तो शिष्यने पुनः प्रतिकूल वचन कहे । उसने गुरुकी कोपाग्निमें ईंधनका काम किया तो आग भड़क उठी । अथवा गुरुने शिष्यको शिक्षा दी । शिष्य उससे क्रुद्ध हुआ । शिष्यकी क्रोधरूप वायुसे क्षुब्ध होकर गुरुने पुनः उसे शिक्षा दी । उस शिक्षाने शिष्यकी क्रोधाग्निको भड़काने में ईंधनका काम किया। ऐसे भयानक कषायाग्नि सहसा भड़कती है ॥२६७॥ गा०—– जलती हुई कषायरूप आग समस्त चारित्र नामक सारको जला देती है । सम्यक्त्वको भी नष्ट करके अनन्त संसारके परिभ्रमण में लगा देती है || २६८ ॥ टी० – इसलिए पापरूप कषायाग्निको उत्पन्न होते ही बुझा देना चाहिए उसको बुझानेका जल है --मैं भगवान् जिनेन्द्रदेवकी शिक्षाकी इच्छा करता हूँ । मेरा खोटा कर्म मिथ्या हो, मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६९ ॥ १. 'सम्मत्तम्मि विराधिद' - अ० । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका २६५ 'तह चेव णोकसाया' तथैव नोकषायाः तनूकर्तव्याः । 'परेणुवसमेण' परेणोपशमेन । संज्ञा, गारवाणि, अशुभाश्च लेश्याः, हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुरुषनपुंसकवेदाः नोकषाया इत्युच्यन्ते । आहारभयमैथुनपरिग्रहाभिलाषाः संज्ञाः । ऋद्धौ तीव्राभिलाषी, रसेषु, सुखे च गारवशब्देन उच्यते ॥२७०॥ कषायवत्स्वार्थभ्र शकरत्वाविशेषान्नोकषायादीनामपि ममक्षोः सल्लेखनीयत्वमाख्याति परिवढिदोवधाणो विगडसिराण्हारुपासुलिकडाहो । सलिलहिदतणुसरीरो अज्झप्परदो हवदि णिच्चं ॥२७१॥ 'परिवड्ढिदोवधाणो' परिवद्धितावग्रहः । अन्येषां पाठः परिवट्टिदावधाणो परिवर्धितावधानः । “वियडसिराण्हारुपासुलिकडाहो' प्रकटीभूता महत्यः अल्पाश्च सिराः पावास्थिसंहतयः कटाक्षदेशाश्च यस्य । 'सल्लिहिवतणुसरोरो' सम्यक्तनकृतं शरीरं यस्य सः । 'अज्झप्परदो' अध्यात्म ध्यानं तत्र रतः । 'होई' भवति । 'णिच्चं नित्यं ॥२७॥ एवं कदपरियम्मो सब्भंतरबाहिरम्मि सलिलहणे । संसारमोक्खबुद्धी सव्वुवरिल्लं तवं कुणदि ॥२७२॥ ‘एवं कदपरियम्मो' एवमुक्तेन क्रमेण कृतपरिकरः । 'सम्भंतरबाहिरम्मि सल्लिहणे' अभ्यन्तरसल्लेखनासहितायां बाह्यसल्लेखनायां । 'संसारमोक्खबुद्धी' संसारत्यागे कृतबद्धिः 'सम्ववरिल्लं तवं' सर्वेभ्यस्तपोभ्यः उत्कृष्टं तपश्चरति । सल्लेहणा सम्मत्ता ॥२७२।। सल्लेखनानन्तरं कार्यमुपदिशति वोढुं गिलादि देहं पव्वोढव्वमिणसुचिभारोत्ति । तो दुक्खभारभीदो कदपरियम्मो गणमुवेदि ॥२७३॥ गा०-टी०-इसी तरह उत्कृष्ट उपशमभावके द्वारा नोकषाय, संज्ञा, गारव और अशुभ लेश्याओंका घटाना चाहिए। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद इन्हें नोकषाय कहते हैं । आहार, भय, मैथुन और परिग्रहको चाहका नाम संज्ञा है । ऋद्धिकी तीव्र अभिलाषा, रस और सुखकी चाहको गारव.कहते हैं ॥२७०।। ___ गा०-ट्री०-जो प्रतिदिन अपने नियमोंको बढ़ाता है, जिसकी बड़ी और छोटी सिरायें, दोनों ओरकी हड्डियां और नेत्रोंकी हड्डियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं—शरीरको सम्यकपसे कृश करनेवाला वह यति नित्य आत्मामें लीन रहता है ।।२७१।।। गा०-ट्री०-उक्त क्रमके अनुसार अभ्यास करनेवाला अभ्यन्तर सल्लेखना सहित बाह्य सल्लेखना करनेपर संसारके त्यागका दृढ़ निश्चय करके सब तपोंसे उत्कृष्ट तप करता है ।।२७२।। सल्लेखना सम सल्लेखनाके अनन्तर होनेवाले कार्यका उपदेश देते हैं १. गौरव-अ०, आ० । २, परिवधाणो-अ० । ३. श्चरइ चरति-अ० । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'वोढुं गिलावि देह' शरीरोद्वहन हर्षरहितः । 'पन्चोढव्वं इणमसुइभारोत्ति' परित्यागार्हमिव अशुचिभारभूतं शरीरमिति कृतचित्तः । 'तो' पश्चाद् 'दुःखभारभोदो' दुःखभाजनाच्छरीराद्भीतः । ' कयपरिकम्मो ' कृतसमाधिमरणपरिकरः । 'गणं' शिष्यवृन्दं । 'उवेदि' ढौकते । अन्येषां पाठः 'वोढुं गिलामि देहं ' इति । ते व्याख्यानयन्ति - शरीरं वोढुं अकृतादरोऽस्मि । पव्वोढव्व मिणमसुइभारीत्ति परित्याज्यमिदं अशुचिभारभूतं शरीरमिति कृतनिश्चयः ॥ २७३॥ २६६ सल्लेहणं करें तो जदि आयरिओ हवेज्ज तो तेण । ता वि अवस्था चिंतेदव्वं गणस्स हियं ॥ २७४॥ 'सल्लेहणं करेंतो' सल्लेखनां कर्तुमुद्यतः । 'जइ' यदि 'आयरिओ हवेज्ज' आचार्यो भवेत् । 'तो' ततः । 'ते' तेन । 'ताए वि' तस्यामपि । 'अवस्था' अवस्थायां । 'चितेयव्वं' चिन्तनीयं । 'गणस्स' गणस्य । 'हिय' हितं ॥ २७४॥ कालं संभावित्ता सव्वगणमणुदिसं च वाहरिय | सोमतिहिकरणणक्खत्तविलग्गे' मंगलोगासे ॥ २७५ ॥ 'कालं संभावित्ता' आत्मनः आयुःस्थिति विचार्य । 'सव्वगणं' सर्वगणं । 'अणुदिसं च' वालाचार्यं च । 'वाहरिय' व्याहृत्य । 'सोमतिहिकरणणक्खत्तविलग्गे' सौम्ये दिने, करणे, नक्षत्रे, विलग्ने 'मंगलोगा से' शुभे देशे ॥ २७५॥ गच्छा पालणत्थं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू | तो तम्मि गणविसग्गं अप्पकहाए कुणदि धीरो || २७६ || गा० - टी० - यह अपवित्र और भाररूप शरीर त्यागने योग्य है ऐसा निश्चय करके जो शरीरको धारण करनेसे ग्लानि करता है उसे शरीर के धारण करने में कोई हर्षं नहीं होता । पीछे दुःखके घर इस शरीरसे डरकर समाधिमरणकी तैयारी करता हुआ अपने शिष्योंके पास जाता है । _दूसरे आचार्य 'वोढुं गिलामि देहं ' ऐसा पाठ पढ़ते हैं वे उसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं- मुझे शरीर धारण करनेमें कोई रुचि नहीं है यह अशुचि और भारभूत शरीर छोड़ने योग्य है ऐसा मैंने निश्चय किया है || २७३ || गा०—टी०–सल्लेखना करनेवाले दो प्रकारके होते हैं - एक आचार्य, दूसरे साधु । यदि आचार्य हो तो उसे उस अवस्था में भी गणका हित विचारना चाहिए । अर्थात् आचार्य यदि सल्लेखना धारण करनेका निश्चय करे तो उसे अपने संघके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिए कि उसकी क्या व्यवस्था की जाये || २७४॥ गा० - दी ० - अपनी आयुकी स्थिति- विचारकर समस्त संघको और बालाचार्यको बुलाकर शुभ दिन, शुभकरण, शुभनक्षत्र और शुभलग्न में तथा शुभ देशमें || २७५।। गा० टी० -- गच्छका अनुपालन करनेके लिए गुणोंसे अपने समान भिक्षुका विचार करके १. गो तह मं- अ० । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २६७ 'गच्छाणुपालणत्थं' गच्छानुपालनार्थ । 'आहोइय' विचार्य । 'अत्तगुणसम' आत्मनो गुणः समानं । 'निक्ख" भिक्ष । 'तो' ततः । 'तम्मि' तस्मिन् । 'गणविसरगं' गणत्यागं । 'अप्पकहाए' अल्पया कथया । 'कूणइ धीर' करोति धीरः । अन्ये तु वदन्ति 'अप्पणो' कथयति ॥२७६॥ किमर्थमेवं प्रयतते सूरिः ? अधोच्छित्तिणिमित्तं सव्वगुणसमोयरं तयं णच्चा । अणुजाणेदि दिसं सो एस दिसा वोचि बोधिचा ॥२७७।। 'अवोच्छित्तिणिमित्तं' धर्मतीर्थस्य ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य व्युच्छित्तिर्मा भूदित्येवमर्थ । 'सव्वगुणसमोयरं' सर्वगुणसमन्वितं । 'तगं' तक 'णच्चा' ज्ञात्वा, 'अणुजाणेदि' अनुज्ञां करोति । 'दिसं' आचार्यः 'सो' सः एषः । दिसा आचार्यः 'वोत्ति' युष्माकमिति । 'बोधित्ता' बोधयित्वा । दिसा समता' ॥२७७॥ क्षमाग्रहणक्रमं निरूपयति आमंतेऊण गणिं गच्छम्मि य तं गणिं ठवेदूण । तिविहेण खमावेदि हु स वालउड्ढाउलं गच्छं ।।२७८|| . 'आमंतेऊण गणि' आमंत्र्य आचार्य । 'गच्छम्मि य' गणे । 'तं गणि ठवेदण' तं आत्मनानुज्ञातं स्थापयित्वा, स्वयं पृथग्भूत्वा । 'तिविधेण खमावेदि खु स बालउड्ढाउलं गच्छं' मनोवाक्कायैहियति क्षमांस बालवृद्धः संकीर्ण गणं ॥२७८॥ जं दीहकालसंवासदाए ममकारणेहरागेण । कडुगपरुसं च भणिया तमहं सव्वं खमावेमि ।।२७९।। __'जं दोहकालसंवासदाए' दीर्घकालं सह संवासेन यज्जातं ममत्वं, स्नेहो, द्वेषो, रागश्च तेन । 'जं' यत् 'कडुगपरुसं च भणिया' कटुकं परुपं वा वचः भणिताः 'तं' तत् युष्मान् । 'सव्वं खमावेमि' सर्वान् क्षमा ग्राहयामि ॥२७९॥ पश्चात् वह धीर आचार्य थोड़ीसी बातचीत पूर्वक उस पर गणका त्याग करता है ॥२७६।। आचार्य ऐसा क्यों करते हैं ? यह कहते हैं गा०-टी०–ज्ञानदर्शन चारित्रात्मक धर्मतीर्थकी व्युच्छित्ति न हो, इसलिए उसे सब गुणोंसे युक्त जानकर यह तुम्हारा आचार्य है ऐसा शिष्योंको समझाकर आप इस गणका पालन करें ऐसा उस नवीन आचार्यको अनुज्ञा करते हैं ।।२७७|| दिसा प्रकरण समाप्त हुआ। अब क्षमाग्रहणका क्रम कहते हैं गा०-टी०-आचार्यको बुलाकर गणके मध्य में उस अपने द्वारा स्वीकृत गणीको स्थापित करके और स्वयं अलग होकर वाल और वृद्ध मुनियोंसे भरे उस गणसे वह पुराने आचार्य मन वचन कायसे क्षमा माँगते हैं ।।२७८।। गा०-टो०-दीर्घकाल तक साथ रहनेसे उत्पन्न हुए ममता, स्नेह, द्वेष और रागसे जो कटुक Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ भगवती आराधना गणेन संपाद्य क्रममाचष्टे-. वंदिय णिसुडिय पडिदो तादारं सव्ववच्छलं तादि । धम्मायरियं णिययं खामेदि गणो वि तिविहेण ।।२८०।। 'वंदिय णिसुडिय पडिवो' अभिवद्य संकुचितपतितः । 'तादार' संसारदुःखात्त्रातारं । 'सव्ववच्छलं' सर्वेषां वत्सलं । 'तादि' यति । धम्मायरियं' दशविधे उत्तमक्षमादिके धर्म, स्वयं प्रवृत्तं अन्येषां प्रवर्तक । "णिययं' आत्मीयं । 'खामेवि गणो वि तिविहेण' क्षमां ग्राहयति गणस्त्रिविधेन । खमावणा समत्ता ॥२८०।। अनुशासननिरूपणार्थ उत्तरप्रबन्धः--- संवेगजणियहासो सुत्तत्थविसारदो सुदरहस्सो। आदठ्ठचिंतओ वि हु चिंतेदि गणं जिणाणाए ॥२८१॥ 'संवेगजणिदहासो' संसारभीरुतया करणभूतया उत्पाटितहासः । परिग्रहेऽस्मिस्त्यक्ते अभ्यन्तराश्च रागादयः निमित्तापायादपयान्ति । तदपगमात्तन्मूलस्थितीनि कर्माणि प्रलयमुपव्रजन्ति । तेषु नष्टेष्वेव चतुर्गतिभ्रमणं नक्ष्यति' इति जात हर्षः। 'सुतत्थविसारदो' सूत्रे जिनप्रणीते तदर्थे च विसारदो निपुणः 'सुदरहस्सो' श्रुतप्रायश्चित्तग्रंथः । 'आदचितओ वि हु' आत्मप्रयोजनचिंतापरोऽपि । 'चितेदि गणं जिणाणाए' जिनानामाज्ञया गणचिन्तां करोति ॥२८१॥ और कठोर वचन कहे गये आपसे मैं उन सबकी क्षमा माँगता हूँ ॥२७९॥ गणके द्वारा किये जाने वाले कार्यको कहते हैं गा०-ट्री०-वन्दना करके, पृथ्वीपर पाँचों अंगोंको स्थापित करके अर्थात् पञ्चांग नमस्कार करके संसारके दुःखोंसे रक्षा करने वाले सबको प्रिय अपने दश प्रकारके उत्तम क्षमादिरूप धर्ममें स्वयं प्रवृत्त और दूसरोंको प्रवृत्त करने वाले आचार्यसे गण भी मन वचन कायसे क्षमा माँगता है ॥२८०॥ क्षमाका प्रकरण समाप्त हुआ। आगे अनुशासनका कथन करते हैंगा०-टी०-संसारसे डरनेके कारण जिसे हर्ष प्रकट हुआ है अर्थात् इस परिग्रहका त्याग करने पर अभ्यन्तर रागादि अपने निमित्तका विनाश होनेसे चले जायेंगे क्योंकि बाह्य परिग्रह रागादिके उत्पत्तिमें निमित्त हैं अतः निमित्तके न रहनेसे नैमित्तिक रागादि भी नहीं रहेंगे। और रागादिके न रहनेसे रागादिके कारण बन्धने वाले कर्म नष्ट हो जायेंगे। उनके नष्ट होने पर चार गतियों में भ्रमण नष्ट हो जायेगा, इसलिए जिसे हर्ष उत्पन्न हुआ है, और जिन भगवान्के द्वारा कहे गये सूत्र और उसके अर्थमें जो निपुण है, जिसने प्रायश्चित्त शास्त्र सुना है वह आचार्य अपने प्रयोजनकी चिन्ता करते हए भी जिन भगवानकी आज्ञासे गणकी चिन्ता करता है। अर्थात् यद्यपि आचार्य संल्लेखना धारण करनेके लिए अपना गण त्यागकर दूसरे गणमें जानेके लिए तत्पर है फिर भी गणकी चिन्ता करके उसे उपदेश देते हैं ॥२८॥ १. इति विजित हर्षः आ० मु०। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २६९ णिद्धमहुरगंभीरं गाहुगपल्हादणिज्जपत्थं च । अणुसिट्टि देइ तहिं गणाहिवइणो गणस्स वि य ।।२८२।। "णिद्ध' स्नेहसहितां । 'महुरं' माधुर्यसमन्वितां । 'गभीरं' सारार्थवत्तया गृहीतगाम्भीयाँ । 'गाहगं' ग्रा हिकां सुखाववोधां । 'पल्हादणिज्जपच्छं च' चेतःप्रल्हादविधायिनीं। 'पत्थं' पथ्यां हितां। 'अणुसिटिंठ देई' अनुशिष्टि ददाति । 'हि' तस्मिन्पूर्वोक्ते काले देशे च । 'गणाहिवइणो गणस्स वि य' गणाधिपतये गणाय च ॥२८२॥ वडढंतओ विहारो दंसणणाणचरणेसु कायव्वो। कप्पाकप्पठिदाणं सव्वेसिमणागदे मग्गे ॥२८३|| "वड्ढ़तगो विहारो कायव्वो' वर्धमानविहारः कार्यः । दव ? 'सवेसि कप्पाकप्पट्ठियाणं अणागदे मग्गे' सर्वेषां प्रवृत्तिनिवृत्तिस्थितानां मुक्तिमार्गे। प्रमत्तसंयतादिगुणस्थानापेक्षया विचित्रो यतिधर्मः दसणवदसामायिकादिविकल्पेन प्रवृत्तिधर्मोऽपि विचित्ररूपः । तस्य सकलस्योपादानं सर्वेषामित्यनेन । कोऽसौ मार्ग इत्याशंकायामाह-सामान्येन 'दंसणणाणचरणेसु' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु। चतुर्विकल्पगणोद्देशेनायमुपदेशः ॥२८३॥ सूरये कथयति संखित्ता वि य पवहे जह वच्चइ वित्थरेण वडढंती । उदधिंतेण वरणदी तह सीलगुणेहिं वड्ढाहि ॥२८४।। 'संखित्ता वि य' संक्षिप्तापि च 'पवहे' प्रवाहे प्रवहत्यस्मादिति प्रवाहः उत्पत्तिस्थानं तत्र संक्षिप्तापि सती वरनदी । 'जह वच्चइ' यथा व्रजति । 'वित्थरेण' पृथुलतया । 'वडढंतो' वर्द्धमाना । 'उदधितेण' यावत्समुद्रं । 'तह सीलगुणेहि वड्ढाहि' तथा शीलगुणस्त्वं वर्धस्व ॥२८४।। मज्जाररसिदसरिसोवमं तुम मा हु काहिसि विहारं । मा णासेहिसि दोण्णि वि अप्पाणं चेव गच्छं च ।।२८५॥ गा०-टो०-उस पूर्वोक्त शुभ तिथि आदिसे युक्त काल और देशमें गणाधिपति और गणको भी स्नेह सहित, माधुर्यसे युक्त, सारवान होनेसे गम्भीर सुखसे समझमें आने वाली, चित्तको आनन्द दायक और हितकारी शिक्षा देते हैं ।।२८२।। ___ गा०-टो०-सब प्रवृत्ति और निवृत्ति में स्थित मुनियों और गृहस्थोंको मुक्तिके मार्गमें सम्यग्दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्रमें वर्धमान विहार उत्तरोत्तर उन्नत अनुष्ठान करना चाहिए। यति धर्म प्रमत्त संयत आदि गुणस्थानोंकी अपेक्षा अनेक प्रकार है। प्रवृति रूप गृहस्थ धर्म भी दर्शन, व्रत सामायिकके भेदसे अनेक प्रकार हैं । उस सबका ग्रहण यहाँ 'सब' शब्दसे किया है। यह चारों प्रकारके संघको लक्ष्य करके आचार्य उपदेश देते हैं ॥२८३॥ नये आचार्यको कहते हैं गान्टी०-उत्पत्ति स्थानमें छोटी सी भी उत्तम नदी जैसे विस्तारके साथ बढ़ती हुई समुद्र तक जाती है उसी प्रकार तुम शील और गुणोंसे बढ़ो ॥२८४॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० भगवती आराधना 'मज्जाररसिदसरिसोवम' मार्जारस्य रसितं रटनं मार्जाररसितं तेन सह सादृश्यं उपमा परिच्छेदो यस्य विहारस्य तन्मार्जाररसितसदृशोपमं विहारं चरणं । 'तुम' भवान् । 'मा हु काहिसि' मा कार्षीः । मार्जारस्य रसितं प्राङ्महत् क्रमेणापचीयते तद्वद्रत्नत्रयभावनातिशयवती प्राक् क्रमेण मन्दायमाना न कर्तव्येति यावत । 'माणासेहिसी दोण्णि वि अत्ताणं चेव गच्छंच'-आत्मनो गणस्य च विनाशं मा कृथाः । प्रथममेवातिदुर्धरचारित्रतपोभावनायां प्रवृत्तो भवान् गणं च तथा प्रवय॑मानो दुश्चरतया नश्यति ।।२८५।। जो सघरं पि पलिचं णेच्छदि विज्झविदुमलसदोसेण । किह सो सद्दहिदव्वो परघरदाहं पसामेदु ॥२८६॥ 'जो सघरं पि' य स्वगृहं अपि । दह्यमानमालस्यान्न वाञ्छति विध्यापयितु कथमसौ श्रद्धातव्यः परकीयगृहदाहं प्रशमयितु उद्योगं करोतीति ।।२८६।। तस्माद्भवतवं प्रवर्तितव्यमित्याचष्टे वज्जेहि चयणकप्पं सगपरपक्खे तहा विरोधं च । वादं असमाहिकरं विसग्गिभूदे कसाए य ॥२८७॥ 'वज्जेहि चयणकप्पं' वर्जय अतिचारप्रकारं ज्ञानदर्शनचारित्रविषयं । अवाचनाकाले अस्वाध्यायकाले वा पठनं । क्षेत्रशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि वा विना । निह्नवः, ग्रन्थार्थयोरशुद्धिः, अबहुमानं इत्यादिको ज्ञानातिचारः । शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दर्शनातिचाराः । समितिभावनारहितता चारित्रातिचारः। एते च्यवनकल्पेनोच्यन्ते । 'सगपरपक्खे तहा विरोहं च' धर्मस्थेषु, मिथ्यादृष्टिषु च विरोध वर्जयेत् । चेतः समाधानविनाशकारणं वादं च वज्जणीयः । वादे प्रवृत्तो यथात्मनो जयः पराजयः परस्य वा गा०-टी०-तुम विलावके शब्दके समान आचरण मत करना । विलावका शब्द पहले जोरका होता है फिर क्रमसे मन्द हो जाता है उसी तरह रत्नत्रयकी भावनाको पहले बड़े उत्साहसे करके पीछे धीरे-धीरे मन्द मत करना । और इस तरह अपना और संघ दोनोंका विनाश न करना । प्रारम्भमें ही कठोर तपकी भावनामें लगकर आप और गणको भी उसीमें लगाकर दुश्चर होनेसे विनाशको प्राप्त होंगे ॥२८५।। गा०-टो०-जो जलते हुए अपने घरको भी आलस्यवश बचाना नहीं चाहता। उसपर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह दूसरेके जलते घरको बचायेगा ।।२८६।। ___ इसलिए आपको ऐसा करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-टी०-ज्ञान दर्शन और चारित्रके विषयमें अतिचारोंको दूर करो। जो वाचना और स्वाध्यायका काल नहीं है उसमें क्षेत्र शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, और भाव शुद्धिके विना वाचना आदि करना, निह्नव, ग्रन्थ और अर्थकी अशुद्धि, आदरका अभाव इत्यादि ज्ञान विषयक अतिचार हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा और सस्तव ये सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं। समितिकी भावना न होना चारित्रका अतीचार है । ये सब 'च्यवनकल्प' कहे जाते हैं। धार्मिको और मिथ्याष्टियोंके साथ विरोध नहीं करना चाहिए । चित्तकी शान्तिको भंग करने वाला वाद भी नहीं करना चाहिए । वाद करने वाला जिस प्रकार अपनी जय और दूसरेकी पराजय हो यही Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २७१ भवति तदेवान्वेषते न तत्त्वसमाधानवान् । 'विसग्गिभूदे कसाये य' कषाया हि क्रोधादयः स्वस्य परस्य च मृत्युं उपानयन्ति इति विषभूताः, हृदयं दहन्तीति दहनभूतास्तांश्च वर्जय । तथा चोक्तं-- त्रिलोकमल्लाः कुलशीलशत्रवो, मलानि दुर्माय॑तमानि चापि ते । यशोहरा हानिकरास्तपस्विनां, भवन्ति दौर्भाग्यकरा हि देहिनाम् ॥ १॥-[ ] न केवलं ते परलोकलोपिनः, इमं च लोकं क्रशयन्ति दारुणाः । न धर्ममात्रस्य च विघ्नहेतवो, धनस्य कामस्य च ते विघातकाः ॥२॥ इति-[ ] णाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु । ण चएदि जो ठवेदु गणमप्पाणं गणघणी सो ॥२८८।। 'णाणम्मि दसणम्मि य' रत्नत्रये गणमात्मानं च यो न स्थापयित् समर्थो नैवासी गणधरः । ण च एदि न समर्थः । बहवो मम वशवर्तिनः सन्ति एतावता भव'तो गणित्वगर्वो माभूदिति भावः ।।२८८॥ कीदृक्तहि गणधरो भवतीति चेदेवंभूत इत्याचष्टे 'णाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु । चाएदि जो ठवेंदु गणमप्पाणं गणधरो सो ॥२८९।। स्पष्टार्था गाथा ॥२८९॥ पिंडं उवहिं सेज्जं अविसोहिय जो हु भुजमाणो हु । मलठाणं पत्तो मलोत्ति य समणपेल्लो सो । २९०।। प्रयत्न करता है तत्त्वका समाधान नहीं करता। क्रोधादि कषाय अपनी और दूसरेको मृत्युमें कारण होती हैं इसलिए वे विषरूप हैं और हृदयको जलाती हैं इसलिए आगके समान हैं। उन्हें छोड़ना चाहिए। कहा भी है ये कषायें तीन लोकमें मल्लके समान हैं । कुल और शीलके शत्रु हैं । वे ऐसे मल हैं जिनको दूर करना सबसे कठिन है। ये कषायें तपस्वियोंकी हानि करने वाली और उनके यशको हरने वाली हैं तथा प्राणियोंके दुर्भाग्यको करने वाली हैं। 'वे कषायें केवल परलोकको ही नष्ट नहीं करतीं, किन्तु इस लोकको भी हीन करती हैं। वे केवल धर्ममें ही विघ्न नहीं डालती किन्तु अर्थ और काम की भी घातक हैं' ।।२८७।। टो०-आगमके सारभूत तीन दर्शन ज्ञान और चारित्र रत्नत्रयमें जो गणको और अपनेको स्थापन करने में समर्थ नहीं है वह गणधर नहीं है। मेरे अधीन बहुतसे मुनि हैं इसलिए आपमें गणी होनेका घमण्ड नहीं होना चाहिए ॥२८८।। तब गणधर कैसा होता है यह कहते हैं- गा०-आगमके सारभूत तीन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रमें अपनेको और गणको स्थापित करने में जो समर्थ होता है वह गणधर है ॥२८९।। १. वतो न ग-अ०। २. अ० आ० प्रत्योः इयं गाथा ‘णाणम्मि दसणम्मि इति लिखिता, न सर्वा । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ भगवती आराधना पिंडं उवहि सेज्जं उग्गमउप्पादणेसणादीहिं । चारित्तरक्षण8 सोधितो होदि सूचरित्तो ।।२९१।। "पिंडं' आहारं, 'उहि' उपकरणं, 'सेज्ज' वसति । सोधितो शोधयन् । 'उग्गमउप्पावणेसणावोहिं' उद्गगमोत्पादनषणादिभिर्दोषैः । किमर्थं शोधयति ? 'चारित्तरक्खण' चारित्ररक्षणार्थ उदगमादिदोषं परिहरति । सुसंयत इति लोके यशो मे भविष्यतीति वा, स्वसमयप्रकाशने लाभो ममेत्थं भवतीति वा चेतस्यकृत्वेति भावः । एवंभूतः सुचरित्रो भवतीति यतिः ॥२९१।। एसा गणधरमेरा आयारत्थाण वणिया सचे। लोगसुहाणुरदाणं अप्पच्छंदो जहिच्छाए ।।२९२॥ 'एसा गणधरमेरा' एषा गणधरमर्यादा । 'सुत्ते वण्णिदा' सूत्रे निरूपिता। केषां ? 'आयारत्याणं' आचारस्थानां । पञ्चविधे आचारे ये स्थितास्तेषां गणिनां व्यवस्था सूत्रे वणिता । 'लोगसुहाणुरदाण' लोकानुवर्तिनां सुखेप्सूनां च । यथेच्छया असंयतजनसंसर्गः सुखादरश्च शास्त्रे निषिद्धः । तत्र ये वर्तन्ते स्वेच्छया तेषां 'अप्पच्छंदो' आत्मेच्छा एव केवला न तेषां गणधरमर्यादा सूत्रे वणिता। अथवा लोकसुखं नाम मृष्टाहारभोजनं, यथाकामं, मृदुशय्यासनं, मनोज्ञे वेश्मनि वसनं च तत्र रतानां विषयातराणामित्यर्थः ॥२९२॥ सीदावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ । सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ॥२९३॥ 'सोदावेदि' मंदं करोति । 'विहार' चारित्रं रत्नत्रये प्रवृत्ति । 'सुहसीलगुणेहि सुखसमाधानाभ्यासः । 'जो अबुद्धिओ' यो बुद्धिरहितः । 'सो वरि लिंगधारी' स वृथालिंगी भवति, द्रव्यलिंगं धारयति । 'संजमसारेण णिस्सारो' संयमाख्येन इंद्रियप्राणसंयमविकल्पेन सारेण निःसारः केवलनग्नः स इति । एतदुक्तं भवति ॥२९३ गा०-आहार, उपकरण और वसतिका शोधन किये बिना जो उसका सेवन करता है वह साधु मूल स्थान नामक दोषको प्राप्त होता है और वह भ्रष्टश्रमण है ॥३९०॥ __ आहार, उपकरण और वसतिका जो उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषोंसे चारित्रकी रक्षाके लिए शोधन करता है वह सम्यक संयमी है। मेरा लोकमें यश होगा कि यह सुसंयमी है अथवा अपने आगमका प्रकाश करनेसे मुझे लाभ होगा ऐसा वह अपने मनमें नहीं सोचता। ऐसा यति ही सम्यक् चारित्र वाला होता है ॥२९१|| गा०-टी०-पाँच प्रकारके आचारमें स्थित जो गणो है उन गणियोंकी यह गणधर मर्यादा सूत्रमेंकही है । जो लोकके अनुसार चलने वाले सांसारिक सुखके इच्छुक हैं अथवा लोकसुख यानी मिष्टाहारका यथेच्छ भोजन, कोमल शय्या पर शयन, मनोहर घरमें निवास, इनमें जो रत हैं अर्थात् जो स्वेच्छाचारी है उनकी गणधर मर्यादा सूत्रमें नहीं कही है ॥२९२।। गा०-टो०-जो बुद्धिहीन साधु सुखशील गुणोंके कारण रत्नत्रयमें प्रवृत्तिरूप चारित्रमें उदासीन रहता है वह केवल द्रव्यलिंगका धारी है और इन्द्रिय संयम तथा प्राणसंयमसे शून्य है ॥२९ ॥ १. व्यावर्णिता-आ० म०। २. सो नवरिलिंगी भवति द्रव्य-अ० । ३. निःसारः एत-आ० मु० । ४. इस गाथा पर टीका नहीं है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २७३ पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुजमाणोदु । मूलट्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।।२९४।। य उद्गमादिदोषोपहृतमाहारं, उपकरणं, वसतिं वा गृह्णाति तस्य नेन्द्रियसंयमः, नैव प्राणसंयमः, न यतिन गणधर इति निगद्यते ॥२९४॥ कुलगामणयररज्जं पयहिय तेसु कुणइ ममत्तिं जो । सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ।।२९५।। 'कुलगामणयररज्ज' कुलं, ग्राम, नगरं, राज्यं च । 'पयहिय' परित्यज्य । तेसु कुणवि ममत्तिं जो' प्रामादिषु पुनः यः करोति ममतां । मदीयं कुलं, अस्मदीयो ग्रामः, नगरं, राज्यं चेति । यो हि यत्र ममतां करोति तस्य यदि शोभनं जातं तुष्यति अन्यथा द्वेष्टि, संक्लिश्यति वा । ततो रागद्वेषयोर्लाभे च वर्तमानः असंयतेष्वादरवात् (वत्त्वात्) कथमिव संयतो भवतीति भावः ।।२९५।। अपरिस्साई सम्म समपासी होहि सव्वकज्जेसु । संरक्ख सचक्खुपि व सबालउड्डाउलं गच्छं ॥२९६।। 'अपरिस्साई' गुरुरयमिति शंकां विहाय निगदितानामपराधानां प्रकटनं मा कृथाः । 'समपासी चेव होहि कज्जेसु' कार्येषु सम्यक् समदर्येव च भव । 'संरक्ख सचक्खु पि व' परिपालय स्वनेत्रं इव । किं ? 'सबाल उढ्ढाउलं गच्छं' सबालवृद्धराकीणं गणं ॥२९६॥ णिवदिविहूर्ण खेचं णिवदी वा जत्थ दुट्ठओं होज्ज । पव्वज्जा च ण लब्भदि संजमघादों व तं वज्जो ॥२९७॥ "णिवदि विहूर्ण खेत्तं परिहर' नृपतिरहितं क्षेत्रं त्यज । "णिववि वा जत्थ दुट्ठओ होज्ज' नृपतिर्वा यस्मिन् देशे दुष्टो भवेत्तच्च क्षेत्र परित्यज । 'पग्वज्जा चण लन्भदि जत्थ' प्रव्रज्या च न लभ्यते यत्र क्षेत्र । गा-०टी०-जो उद्गम आदि दोषोंसे सहित आहार, उपकरण अथवा वसतिको स्वीकार करता है उसके न प्राणिसंयम है और न इन्द्रिय संयम है। वह केवल नग्न है । न वह यति है और न गणधर है ।।२९४॥ गा०-टी०-जो कुल, ग्राम, नगर और राज्यको छोड़कर भी उससे ममत्व करता है कि मेरा कुल है, हमारा गाँव है या नगर है राज्य है, वह भी केवल नग्न है । जो जिससे ममता करता है उसका यदि अच्छा होता तो उसे सन्तोष होता है अन्यथा द्वेष करता है अथवा संक्लेश करता है। इस तरह राग-द्वेष करने पर असंयतोंमें आदरवान होनेसे वह कैसे संयमी हो सकता है ॥२९५।। गा०-टी०-'हमारा यह गुरु आलोचित दोषोंको दूसरेसे नहीं कहता। ऐसा मानकर शिष्योंके द्वारा प्रकट किये अपराधोंको किसी अन्यसे मत कहो । कार्यों में समदर्शी ही रहो। और बाल और वृद्ध यतियोंसे भरे गणकी अपनी आँखकी तरह रक्षा करो ॥२९६।।। गा०-टी -जिस क्षेत्रमें कोई राजा न हो उस क्षेत्रको त्याग दो। अथवा जिस क्षेत्रका राजा १. असंयतो भवतीति-आ० मु०। २. गाथा २९५-२९६ ग० । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना शिष्या यत्र न जायंते तच्च । 'संजमघातो व जत्थं' संयमस्य चोपधातो यत्र क्षेत्रे 'तं वज्जो' त्यजेति गणिशिक्षा ।। गणिसिक्खा ॥२९७॥ गणं शिक्षयत्युत्तरप्रबंधेन कुणह अपमादमावासएसु संजमतवोवधाणेस । णिस्सारे माणुस्से दुल्लहबोहिं वियाणित्ता ।।२९८।। 'कुणह अपमादमावासगेसु' कुरुताप्रमादमावश्यकेषु । 'संजमतवीवधाणेसु' संयमस्य, तपसश्वाश्रयेषु । अयहितः संयम इति पूर्वनिपातः । संयम विना न तपः शक्नोति कर्तुं मुक्तिमिति सामायिकादौ प्रवर्तमानस्य संयमो भवति । असंयमं त्यजतीति, सावद्यक्रियानिवृत्तौ सत्यां कर्माणि तपतीति तपो भवति । नान्यथेति तपसोऽप्याश्रयः । “णिस्सारे माणुस्से' साररहिते मानुष्ये अनित्यतया अशुचितया मनुजानां असारं । तत्र 'दुर्लभा बोधिं' दुर्लभां दीक्षाभिमुखां बुद्धि । 'विजाणित्ता ज्ञात्वा ॥२९८॥ समिदा पंचसु समिदीसु सव्वदा जिणवयणमणुगदमदीया । तिहिं गारवेहिं रहिदा होह तिगुत्ता य दंडेसु ॥२९९।। सम्यक्प्रवृत्ताः 'होह' भवत । ‘पंचसु समिदिसु' पञ्चसु समितिषु । 'सव्वदा' सर्वदा । जिणवयणमणुगदमदीगा' जिनवचनमनुगतबुद्धयः । तिहिं गारवेहि रहिया' गारवत्रयरहिताः 'सिगुत्ता य' गुप्तित्रयसमन्विताः भवत । 'क्व दंडेसु' अशुभमनोवाक्कायेषु ॥२९९॥ सण्णाउ कसाए वि य अट रुदं च परिहरह णिच्चं । दुट्ठाणि इंदियाणि य जुत्ता सव्वप्पणो जिणह ॥३०॥ दुष्ट हो उस क्षेत्रको त्याग दो। जिस क्षेत्रमें प्रव्रज्या प्राप्त न हो अर्थात् शिष्य न बनें, अथवा जिस क्षेत्रमें संयमका घात हो उस क्षेत्रको त्याग दो ॥२९७॥ आचार्य शिक्षा समाप्त हुई। आगे गण (संघ) को शिक्षा देते हैं गा०-टी०-मनुष्य जन्म अनित्य और अशुचि होनेसे सार रहित है। उसमें दीक्षा धारण करनेकी बुद्धि होना दुर्लभ है ऐसा जानकर आवश्यकोंमें, जो संयम और तपके आश्रय है, प्रमाद मत करो। यहाँ पूज्य होनेसे संयमको तपसे पहले रखा है क्योंकि संयमके बिना अकेला तप मुक्ति नहीं प्राप्त करा सकता । सामायिक आदिमें प्रवर्तमान मुनिके संयम होता है। असंयमको वह त्यागता है। सावद्य क्रियाकी निवृत्ति होने पर कर्मोंको तपनेसे तप होता है। संयमके बिना तप नहीं होता । अतः आवश्यक कर्म तपके भी आश्रय हैं । इसलिए साधुको उनमें प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥२९८|| गा०-हे मुनिगण ! आप सर्वदा पाँच समितियोंके पालनमें तत्पर रहें। अपनी बुद्धिको जिनागमकी अनुगामिनी बनाओ। तीन गारव मत करो और अशुभ मन वचन कायके विषयमें तीन गुप्तियोंका पालन करो ॥२९९।। गा०-नित्य आहारादि विषयक संज्ञाओंको, कषायोंकों और आर्त तथा रौद्रध्यानंको दूर करो । तथा ज्ञान और तपसे युक्त होकर अपनी सर्वशक्तिसे दुष्ट इन्द्रियोंको जीतो ॥३०॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विजयोदया टोका २७५ 'सण्णाओं' संज्ञा आहारादिविषयाः । 'कसाए वि' कषायानपि । 'अद्रं रुईच' आत रौद्रं च ध्यानं । 'परिहरत' निराकुरुत । 'णिच्चं' नित्यं । 'दुट्ठाइं इंदियाई' दुष्टानीन्द्रियाणि च । 'जुत्ता' युक्ता ज्ञानेन तपसा च । 'सव्वप्पणा जिणह' सर्वशक्त्या इन्द्रियजयं कुरुत ।।३००॥ · धण्णा हु ते मणुस्सा जे ते विसयाउलम्मि लोयम्मि । विहरति विगदसंगा णिराउला णाणचरणजुदा ॥३०१॥ 'धण्णा हु ते मणुस्सा' धन्यास्ते मनुष्याः । के ? 'जे विसयाउलम्मि लोयम्मि' ये शब्दादिभिराकीणे जगति । 'विगदसंगा' निःसंगाः क्वचिदपि विषये स्पर्शादौ । 'णिराउला' | 'णाणचरणजुदा' ज्ञानेन चारित्रेण च युताः । ज्ञानचारित्रयुतानां प्रशंसा तत्रादरज'ननार्था गणस्य ॥३०१॥ सुस्सूसया गुरूणं चेदियभत्ता य विणयजुत्ता य । सज्झाए आउत्ता गुरुपवयणवच्छला होह ॥३०२।। _ 'सुस्सूसगा गुरूण' सम्यग्दर्शनज्ञांनचारित्रः गुणगुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योपाध्यायसाधवः । तेषां शुश्रूषाकारिणो भवत । शुश्रूषापरेण भाव्यं । लाभादिकमनपेक्ष्य तेषां गुणेष्वनुरागः कृतो भवति । गुणानुरागाद्दर्शनशुद्धिस्तदीयरत्नत्रयानुमननं च भवति । सुकरो पायः पुण्यार्जने अनुमननं नाम । 'चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रतिबिंवानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्ताः । यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाद्वेषो रागश्च जायते । यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुस्मरणे निमित्ततास्ति तद्वज्जिनसिद्धगुणाः अनन्तज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न सन्ति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयन्ति सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरणं अनुरागात्मकं ज्ञानदर्शने सन्निधापयति । ते च .. गा०-वे मनुष्य धन्य हैं जो शब्दादि विषयोंसे व्याप्त जगत्में किसी भी स्पर्शादि विषयमें आसक्ति नहीं रखते और निराकुल होकर ज्ञान और चारित्रसे युक्त होते हैं। जो ज्ञान और चारित्रसे युक्त होते हैं उनकी प्रशंसा करनेसे संघका उनके विषयमें आदरभाव उत्पन्न होता है ।।३०१॥ गा०टी०–सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र नामक गुणोंसे महान् होनेसे आचार्य उपाध्याय और साधुको गुरु कहते हैं । उनकी सेवामें तप्पर रहना चाहिए । लाभ आदिकी अपेक्षा न करके उनके गुणोंमें अनुराग करना चाहिए। गुणोंमें अनुराग करनेसे सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है और उनके रत्नत्रयकी अनुमोदना होती है। अनुमोदना पुण्य उपार्जन करनेका सरल उपाय है। चैत्य अर्थात् जिन और सिद्धोंकी कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिबिम्बोंमें भक्ति के चाहिए । जैसे शत्रुओं और मित्रोंकी प्रतिकृति देखनेसे द्वष और राग उत्पन्न होता है। यद्यपि वे प्रतिकृतियाँ कोई अपकार या उपकार नहीं करतीं, तथापि उन शत्रुओं और मित्रोंने जो अपकार या उपकार किये होते हैं उनके स्मरणमें उनकी प्रतिकृतियाँ निमित्त होती हैं । उसी तरह यद्यपि 'प्रतिबिम्बोंमें जिन और सिद्धोंके गुण अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, सम्यक्त्व वीतरागता आदि नहीं होते, तथापि उनके समान होनेसे उनके गुणोंका स्मरण कराती हैं। और वह गुणोंका स्मरण जो १. जननार्थ गणस्य-आ० । जननसमर्था गणस्य मु०। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ भगवती आराधना संवरनिर्जरे महत्यौ संपादयतः । तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनी कुरुत । 'विणयजुदा य' विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः । ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रविनया उपचारविनयश्चेति पञ्च प्रकारेण विनये युक्ता भवत । शास्त्रोक्तवाचनास्वाध्यायकालयोरध्ययनं श्रुतस्य श्रुतं प्रयच्छतश्च भक्तिपूर्वं कृत्वा, अवग्रहं परिगृह्य, बहुमानं कृत्वा, निह्नवं निराकृत्य, अर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धि संपाद्य एवं भाव्यमानं श्रुतज्ञानं संवरं निर्जरां च करोति । अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत् । शंकाकांक्षादिनिरासो दर्शनविनयः । स च प्रयत्नेन भवद्भिः संपाद्योऽन्यथा शंकादिपरिणामा मिथ्यात्वमानयन्ति । दर्शनमोहनीयस्य चास्रवा भवन्ति । ततो मिथ्यादर्शननिमित्तकर्मवशादनन्तसंसारपरिभ्रमणं दुःखभीरूणां भवतां जायते । रूपरसगंधस्पर्शशब्देषु मनोज्ञामनोज्ञेषु सन्निहितेषु अनन्तकालाभ्यासाद्रागोप्रीतिश्च जायते । तथा कषायाश्च बाह्यमभ्यन्तरं च निमित्तमाश्रित्य प्रादुर्भवन्ति । ते चोत्पद्यमानाश्चारित्रं विनाशयन्ति । कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो हि चारित्रं । रागादयश्च कर्मादाननिमित्त क्रियास्तथा अशमनोवाक्कायक्रियाश्च कर्मादाननिमित्ताः। तथा षड्जीवनिकायबाधापरिहारमन्तरेण गमनं । मिथ्यात्वेऽसंयमे वा प्रवर्तकं वचनं साक्षात्पारंपर्येण वा जीवबाधाकरणं भोजनं अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादाननिक्षेपौ शरीरमलोत्सर्गो जीवपीडाहेतरेताः कर्मपरिग्रहनिमित्ताः अनुरागात्मक होता है, ज्ञान और दर्शनमें लगाता हैं। और वे ज्ञान और दर्शन महान् संवर और निर्जरा करते हैं । इसलिए उपयोगी चैत्य भक्ति करना चाहिए । कर्ममलको जो विलय करती है वह विनय है । ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तपविनय और उपचार विनय, इन पांच प्रकारकी विनयमें संलग्न रहो। शास्त्रमें जो वाचना और स्वाध्याय काल कहा है, उन कालोंमें श्रुतका अध्ययन, और श्रुतका दान भक्तिपूर्वक करके अवग्रह स्वीकार करके, बहुमान करके, निह्नवको दूर करके, अर्थशुद्धि, व्यंजन शुद्धि और अर्थ व्यंजन दोनोंकी शुद्धि करके । इस प्रकार आठ अंगोंके साथ भाया गया श्रुत ज्ञान संवर और निर्जरा करता है। ऐसा नहीं करनेसे ज्ञानावरणका कारण होता है। शङ्का काँक्षा आदिको दूर करना दर्शन विनय है। आपको प्रयत्नपूर्वक शंका आदिको दर करना चाहिए। ऐसा न करनेसे शंका आदि परिणाम मिथ्यात्वको लाते हैं और दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रव में कारण होते हैं। उससे मिथ्यादर्शनमें निमित्त मिथ्यात्वकर्मके कारण आप जैसे दुःख भीरुजनोंको अनन्त संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्दके मिलनेपर अनन्तकालके अभ्यासवश राग और द्वष उत्पन्न होते हैं। तथा बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तका आश्रय पाकर कषायें उत्पन्न होती हैं। और वे उत्पन्न होकर चारित्रको नष्ट करती हैं। कर्मोंके ग्रहणमें निमित्त क्रियाओंके रोकनेको चारित्र कहते हैं। रागादि कर्मोंको ग्रहणमें निमित्त क्रिया है । अशुभ मन वचन और कायकी क्रिया भी कर्मोंके ग्रहणमें निमित्त होती है। तथा छहकायके जीवसमूहको बाधा न पहुँचाये विना गमन करना, मिथ्यात्व और असंयममें प्रवर्तक वचन बोलना, साक्षात् या परम्परासे जीवोंको बाधा करनेवाला भोजन करना, विना देखे और विना साफ किये वस्तुओंको ग्रहण करना और रखना, विना देखी और विना साफ की गई भूमिमें मलमूत्र त्यागना ये सब क्रियाएँ जीवोंको कष्ट पहुंचानेवाली हैं अतः १. प्रकारे वि-आ० मु०। . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २७७ क्रियाः । आसां परिवर्जनं चारित्रविनयः । व्यावणिताशभक्रियापरिवर्जनं विना चारित्रं नाम किमारम्भवतां तस्मादत्रोद्योगं कुरुत । अनशनादिकतपोजनितक्लेशसहनं तपोविनयः । सति संक्लेशे महानास्रवो भवेदल्पा निर्जरा। उपचारविनयाद्विनीत इति पूज्यते बुधैरन्यथा अविनीत इति निन्द्यते किं च उपचारविनयं मनोवाक्कायविकल्पं यो न करोति, स गुरून्मनसावजानाति, नाभ्युत्तिष्ठति, नानुगच्छति. नाञ्जलिं करोति, न स्तौति, न विज्ञप्ति करोति, गुरोरग्रत आसनमारोहति, याति पुरस्तेषां, निन्दति, परुषं वदति, आक्रोशति वा स नीचर्गोत्रं बध्नाति । तेन श्वपाकचाण्डालादिकूलेषु गहितेष, सारमेयग्रामसूकरादिषु वा जायते । न च रत्नत्रयं गुरुभ्यो लभते । विनीतं हि शिक्षयन्ति गुरवः, प्रयत्नेन मानयन्ति च ततो विनयपरा भवत । अविनये दोषं विनये च गुणं महान्तमवबुध्य 'सज्झाए आजुत्ता होह' शोभनं अध्ययनं स्वाध्यायः । जीवादितत्त्वपरिज्ञानं, तदुपायभूतश्च ग्रन्थः तस्मिन्स्वाध्याये आजुत्ता आयुक्ता भवत निद्रां, हास्यं क्रीडां, आलस्यं, लोकयात्रांच त्यक्त्वा । तथा चोक्तम् णिवण वह मण्णज्ज हासं खेडं विवज्जए। जोग्गं समणधम्मस्स जुजे अणलसो सदा ॥" इति । [ ] 'गुरुपवयण वच्छल्ला होह' गुरुप्रवचनत्सला भवत ।।३०२॥ दुस्सहपरीसहेहिं य गामवचीकंटएहिं तिक्खेहिं । . अभिभूदा वि हु संता मा घम्मधुरं पमुच्चेह ॥३०३॥ कर्मोंके ग्रहण में निमित्त हैं। इनको त्यागना चारित्र विनय है। इन कही गई अशुभ क्रियाओंको त्यागे विना आरम्भ करनेवालोंके चारित्र कैसे हो सकता है। अतः इसमें उद्योग करना चाहिए। अनशन आदि तपसे होनेवाला कष्ट सहना तपविनय है। संक्लेश परिणाम होनेपर महान् आस्रव होता है और थोड़ी निर्जरा होती है। उपचार विनय करनेसे विद्वानोंसे पूजित होता है। नहीं करनेपर अविनयी कहा जाता है और निन्दाका पात्र होता है । तथा मन वचन कायसे जो उपचार विनय नहीं करता वह मनसे गुरुओंकी अवज्ञा करता है, उनके आनेपर खड़ा नहीं होता, उनके जानेपर पीछे-पीछे गमन नहीं करता, हाथ नहीं जोड़ता, स्तुति नहीं करता, विज्ञप्ति नहीं करता, गुरुके सामने आसन पर बैठता है, उनके आगे चलता है, निन्दा करता है, कठोर वचन बोलता है, चिल्लाता है. ऐसा करनेवाला नीच गोत्रका बन्ध करता है और मरकर श्वपाक चाण्डाल आदि नीचकुलोंमें और कुत्ता सुअर आदिमें जन्म लेता है। उसे गुरुओंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं होती। गुरु विनीतको शिक्षा देते हैं और प्रयत्नपूर्वक उसका सन्मान करते हैं। इसलिए अविनयमें दोष और विनय में महान् गुण जानकर विनयी होना चाहिए। तथा स्वाध्यायमें लगना चाहिए। सुन्दर अध्ययनको स्वाध्याय कहते है। जीवादितत्त्वोंका परिज्ञान और उसके उपायभूत ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें निद्रा, हास्य, क्रीड़ा, आलस्य और लोकयात्राको त्यागकर लगना चाहिए। कहा भी है-'बहुत सोना नहीं चाहिए। हास्य क्रीड़ा छोड़ना चाहिए। सदा आलस्य त्यागकर श्रमणधर्मके योग्य कार्यमें लगना चाहिए।' तथा गुरुमें प्रवचनवात्सल्य रखना चाहिए ॥३०२॥ गा०-दुःसह परीषहोंसे और तीक्ष्ण आक्रोशवचनरूपी काँटोंसे पराभूत होकर भी धर्मकी धुराके भारको मत त्यागो ॥३०३|| Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ भगवती आराधना 'दुस्सहपरीसहेहिं य' दुःसहैः परिषहैश्च । 'गामवचीकंटएहिं तिक्खेहि' आक्रोशवचनकण्टकैस्तीक्ष्णश्च । .'अभिभूदा वि य संता' पराभूता अपि संतः । 'माधम्मधुरं पमुच्चेह' मा कृथा धर्मभारत्यागं । ननु च 'दुस्सहपरीसहेहिं य अभिभूदा मा धम्मधुरं पमुच्चेहं' इत्यनेनैव आक्रोशपरीषहसहनं उपदिष्ट ? किमनेन 'गामवचीकंटएहिं' इत्यनेन ?। अयमभिप्रायः सूत्रकारस्य-सोढक्षदादिवेदनोऽपि न सहतेऽनिष्टं वचस्ततोऽतिदुष्करमपि तत्सोढव्यं इति दर्शनाय पृथगुपादानम् ।।३०३॥ तपस्युद्योगः सर्वप्रयत्नेन त्यक्तालस्यैर्भवद्भिः इत्युपदिशति तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि । अणिगूहिदवलविरिओ तवोविधाणम्मि उज्जमदि ।।३०४॥ 'तित्थयरो' तोथंकरः तरंति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थ । केचन तरंति श्रुतेन गणधरैलिंबनभूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते । तदुभयकरणात्तीर्थकरः । अथवा 'तिसु तिदित्ति तित्थ' इति व्युत्पत्ती तीर्थशब्देन मार्गो रत्नत्रयात्मकः उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति । 'चउणाणी' मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानवान् । 'सुरमहिदो' सुरंश्चतुःप्रकारैः पूजितः स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणेषु । “सिझिदव्वगधुवम्मि' नियोगभाविन्यां सिद्धावपि । तथापि 'अणिमूहियबलविरिओ' अनुपह्न तबलवीर्यः । 'तवोविहाणम्मि' तपःसमाधाने । 'उज्जमदि' उद्योगं करोति ।।३०४।। किं पुण अवसेसाणं दुक्खक्खयकारणाय साहूणं । होइ ण उज्जम्मिद सपच्चवायम्मि लोयम्मि ।।३०५।। किं पुण अबसेसाणं' किं पुनर्न प्रयतितव्यं अवशिष्टः साधुभिः । 'दुक्खक्खयकारणाय' दुःखविनाशन टोo-शा-'दुःसह परीषहोंसे अभिभूत होकर भी धर्मकी धुराको मत त्यागो। इतना कहनेसे आक्रोश परीषहको सहनेका उपदेश दे दिया, फिर 'तीक्ष्ण आक्रोश वचन' आदिके कहने- की क्या आवश्यकता है ? - समाधान-ग्रन्थकारका अभिप्राय यह है कि भूख आदिकी वेदनाको सहनेवाला भी : अनिष्टवचन नहीं सहता । अतः अति दुष्कर भी आक्रोश वचनको सहना चाहिए। यह बतलानेके लिए पृथक् ग्रहण किया है ।।३०३।। . ... आगे उपदेश देते हैं कि आलस्य त्यागकर आपको पूरे प्रयत्नसे तपमें उद्योग करना चाहिए '. गा०-टो०-जिसके द्वारा भव्यजीव संसारको तिरते हैं वह तीर्थ हैं। कुछ भव्य श्रुत अथवा आलम्बनभूत गणधरोंके द्वारा संसारको तिरते हैं अतः श्रुत और गणधरोंको भी तीर्थ कहते हैं। इन दोनों तीर्थोको जो करते हैं वे तीर्थंकर हैं। अथवा 'तिसु तिदित्ति तित्थं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार तीर्थ शब्दसे रत्नत्रयरूप मार्ग कहा जाता है। उसके करनेसे तीर्थंकर होता है। वे 5.मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानके धारी होते हैं। स्वर्गसे गर्भमें आनेपर, जन्माभिषेक और तपकल्याणमें चार प्रकारके देव उनकी पूजा करते हैं। उनको सिद्धिकी प्राप्ति नियमसे होती है फिर भी वे अपने बल और वोर्यको न छिपाकर तपके विधानमें उद्यम करते हैं ॥३०४|| .... गा०--टी०-तब दुःखका विनाश करनेके लिए शेष साधुओंका तो कहना ही क्या है। १. अभिभूता अ०। २. सहतोऽतिदुष्क-अ० । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २७९ निमित्तं । सापाये लोके आयुषः, शरीरस्य, बलस्य नीरोगतायाश्च विनाशे अविदितकाले सति, दावानलसमाने. मृत्यावायाति, लोकवनमिदं अशेषं भस्मसात्कतु अद्य इत्यपि सुचिरं निमेषमात्रेणापि मृत्युरेयात्' मासमर्द्धमासमृतुमयनं संवत्सरं वा प्रति वचनाधिकारः कस्माद्यावन्नायाति मृत्युस्तावत्तपस्युद्योगः कार्यः । न हि मृत्योर्देशनियमस्ति । स्थल एव प्रचारो यथा शकटादीनां समीरणपथ एव ज्योतिषां सलिल एव मीनमकरादीनां । कष्टतमस्य पुनरस्य मृत्योः स्थले, जले, वियति च विहृतिः । दहनस्य, सुधासुतेर्वा सुराधिपतेः प्रभंजनस्य शीतस्योष्णस्य वा, हिमान्या वा अप्रवेशदेशाः सन्ति न तथा मृत्योः । यथा वा निदानमानं व्याधीनां पित्तानिलश्लेष्मरूपमेव मृत्योः पुनरखिलमेव निदानं । वातस्य पित्तस्य कफस्य शीतोष्णयोर्वर्षा हिमातपानां शक्यः प्रतीकारविधिनं पुनः संसारे मृत्योः । हिमोष्णवर्षादीनां च कालो विदितोऽस्ति न तद्वदस्य । न वा हितमस्य चिद्विद्यते । यथा राहुवदनकुहरे प्रवेशो निशापतेः । असत्यपि मृत्यूपनिपाते जीवतोऽपि कुरोगाशनिम्यो महद्भयं । यथा वियतो निपतत्यबुद्ध एवाशनिः । आयर्बलं रूपादयश्च । गुणास्तावदेव यावन्नोपैति रोगो देहं । यत्तु तन्त्वलग्नस्य फलस्य तावदपातो यावन्न श्वपुसनः । व्याधौ बाध्यमाने देहे न सुखेन शक्यते श्रेयः कर्तुं यथा वेश्मनि दह्यमाने समन्तान्न शक्यते प्रतीकारः । असत्सु वा रोगेषु रागशत्रुः सुहृन्मुखेन शत्रुरिव प्रवृद्धः यदा नरस्य चित्तं बाधते न तदा समेऽधिकारः । पित्तोदयो वैद्यशुभप्रयोगैः प्रशाम्येदपि, रागोदयस्य इस विनाशशील लोकमें आयु, शरीर, बल और नीरोगताके विनाशका काल अज्ञात है । दावानलके समान मृत्यु इस समस्तलोकरूपी वनको जला डालनेके लिए आज या देरमें या क्षणमात्रमें अथवा एकमास, एकपक्ष, ऋतु दो, मास, छहमास अथवा एक वर्ष में कब आ जायेगी यह कहना है । जबतक मृत्यु नहीं आती तबतक तपमें उद्योग करना चाहिए । मृत्युका कोई देश नियत नहीं है । जैसे गाड़ी आदि स्थलपर ही चलती है । ज्योतिषीदेव आकाशमें ही चलते हैं, मीन मगर आदि पानी में ही चलते हैं । किन्तु यह सबसे अधिक दुःखदायी मृत्यु जल, थल और आकाशमें विहार करती है । ऐसे देश हैं जहाँ आग, चन्द्रमा, इन्द्र, वायु, शीत, उष्ण अथवा बर्फका प्रवेश नहीं है । किन्तु ऐसा कोई देश नहीं जहाँ मृत्युका प्रवेश नहीं है । जैसे रोगोंका निदान बात पित्त कफ ही है । किन्तु मृत्युका निदान तो सब ही है । वात, पित्त, कफ, शीत, उष्ण, वर्षा, हिम, आप इन सबका प्रतीकार करनेकी विधि है । किन्तु संसारमें मृत्युका कोई इलाज नहीं है । शीतऋतु, ग्रीष्मऋतु, वर्षाऋतु आदिका काल तो ज्ञात है किन्तु मृत्युका काल ज्ञात नहीं है । जैसे चन्द्रमा राहुके मुख में प्रवेश करके उससे दूर जाता है उस तरह मृत्य के मुखमें प्रवेश करके निकलना सम्भव नहीं है । मृत्यु न भी आये और जीवन बना रहे तब भी कुरोगरूपी वज्रपातका महाभय रहता है । जैसे आकाशसे अचानक वज्रपात होता है वैसे ही अचानक रोगका आक्रमण होता है । आयु, बल और रूपादि गुण तभी तक हैं जबतक शरीर में रोग नहीं होता । तन्तुसे लगा फल तभी तक नहीं गिरता जबतक वायुको झोंका नहीं आता । शरीरके रोगसे पीड़ित होनेपर सुखपूर्वक आत्मकल्याण नहीं किया जा सकता । जैसे घरके चारों ओरसे जलनेपर प्रतीकार सम्भव नहीं होता । अथवा रोगोंके नहीं होनेपर रागरूपी शत्रु मित्रके रूपमें शत्रुकी तरह बढ़कर जब मनुष्य के चित्तको पीड़ा देता है तब समभाव कठिन होता है । पित्तका विकार वैद्यके कुशल प्रयोगों से शान्त हो भी सकता है । किन्तु प्राणीके लिए अहितकर रागके उदयको समाप्त १. रेवान्न मा-आ० मु० । २. मुखे श-अ० । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० भगवती आराधना प्राण्यहितस्य हन्तु प्रशमः सुदुर्लभः । यदैव च तस्य प्रशमोपलब्धिः पूर्वोक्तकर्मप्रशान्तौ तदैव श्रेयस्कृती शक्तिः पित्तोपशान्तो कार्यचित्ते च। इत्थं मृत्युव्याधयो राग इत्यते प्रत्यवाया जगति तांश्चेतसि कृत्वा, यदा ते न सन्ति तदोद्योगः कार्यः ॥३०५॥ सत्तीए भत्तीए विज्जावच्चुज्जदा सदा होह । आणाए णिज्जरित्ति य सबालउड्ढाउले गच्छे ॥३०६॥ 'सत्तीए भत्तीए' शक्त्या भक्त्या च । 'विज्जावच्चुज्जदा' वैयावृत्त्ये उद्यताः । 'सदा होह' नित्यं भवत । 'आणाए णिज्जरित्तिय' सर्वज्ञानामाज्ञा वैयावृत्त्यं कर्तव्यमिति तदाज्ञया हेतुभूतया, वैयावृत्त्यं हि तपः निर्जरा भवतीति च । 'सवालउढ्ढाउले' सह बालवर्धमाना ये वृद्धास्तैराकोणे गणे ॥३०६॥ वैयावृत्त्यं 'कर्तुमित्युक्तं तदिदमिति सेज्जागासणिसेज्जा उवधी पडिलेहणाउवग्गहिदे । आहारोसहवायणविकिंचणुव्बत्तणादीसु ॥३०७।। 'सेज्जागासणिसेज्जा उवधी पडिलेहणा उवगहिदे' शय्याकाशस्य, ‘निषद्यास्थानस्य, उपकरणानां . च प्रतिलेखना', उपग्रह उपकारः । किंविषयः ? 'आहारोसहवायणविकिंचणुव्वत्तणादीसु' योग्यस्य आहारस्य औषधस्य वा दानं स्वाध्यायोत्सारणं अशक्तस्य शरीरमलनिरासः । 'उवत्तणे' पार्वात्पान्तेिरस्योस्थापनं ॥३०७॥ अद्धाणतेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे । वेज्जावच्चं उत्तं संगहसारक्खणोवेदं ।।३०८।। 'अद्धाण तेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे' अध्वनां श्रमेण श्रान्तानां पादादिमनं । स्तेनरुपद्र्यकरनेके लिए प्रशमभाव दुर्लभ है। जैसे पित्तके शान्त होनेपर चित्त काममें लगता है वैसे ही जिस समय पूर्वोक्त कर्मका उपशम होनेपर प्रशमभावकी प्राप्ति होती है, उसी समय आत्मकल्याण करनेको शक्ति आती है। इस प्रकार संसारमें मृत्यु, व्याधि और राग ये बाधक हैं। उनको चित्तमें लाकर जब वे न हों तब तपमें उद्योग करना चाहिए ॥३०५॥ गा-बालमुनि और वृद्ध मुनियोंसे भरे हुए गणमें सर्वज्ञकी आज्ञासे सदा अपनी शक्ति और भवितसे वैयावृत्य करने में तत्पर रहो । सर्वज्ञदेवकी आज्ञा है कि वैयावृत्य करना चाहिये। वैयावृत्य तप है और तपसे निर्जरा होती है ॥३०६।। वैयावृत्य करनेके लिये कहा है । उस वैयावृत्य को बतलाते हैं गा०-सोनेके स्थान, बैठनेके स्थान और उपकरणोंकी प्रतिलेखना करना, योग्य आहार योग्य औषधका देना, स्वाध्याय कराना, अशक्त मुनिके शरीरका मल शोधन करना, एक करवट से दूसरी करवट लिटाना ये उपकार वैयावृत्य हैं ।।३०७।। गा०-जो मुनि मार्गके श्रमसे थक गये हैं उनके पैर आदि दबाना, जिन्हें चोरों ने सताया १. कर्तुमभ्युद्युक्तं प्रतीदमिति द-आ०, मु० । २. नाया उ-आ० । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २८१ मागानां तथा श्वापदैः, दुष्ट भूमिपालः, नदीरोधकः मार्या च तदुपद्रवनिरासः विद्यादिभिः । 'ऊमे' दुभिक्षे सुभिक्षदेशनयनं । 'वेज्जावच्च वृत्तं' वैयावृत्त्यमुक्तम् । 'संगहसारक्सगोवेई' संग्रहसंरक्षणाभ्यामुपेतः ॥३०८।। वैयावृत्याकरणं निन्दति . अणिगूहिदबलविरिओ वेज्जावच्चं जिणोवदेसेण । जदि ण करेदि समत्थो संतो सो होदि णिद्धम्मो ॥३०९।। अनिगूहितेत्यादिना-अनिगूढवीर्यो यो वयावृत्त्यं जिनोपदिष्टं क्रमेण न करोति । शक्तोऽपि सन् स निधर्मो भवति धर्मान्निष्क्रान्तो भवति इति सूत्रार्थः ।।३०९॥ दोषान्तराणि व्याचष्टे तित्थयराणाकोवो सुदधम्मविराधणा अणायारो। अप्पापरोपवयणं च तेण णिज्जहिदं होदि ॥३१०॥ "तित्थयराणाकोधो' तीर्थकराणामाज्ञाकोपः । 'सुदधम्मविराहणा' श्रतोपदिष्टधर्मनाशनं । 'अगाचारो' आचाराभावः वैया वृत्त्याख्ये तपसि अवृत्तेः । 'अप्पापरोपवयर्ण च तेग णिज्यूहिवं होदि' आत्मा साधुवर्गः प्रवचनं च त्यक्तं भवति । तपस्यनुद्योगादात्मा त्यस्तो भवति, आपापकाराकरणाद्यतिवर्गः, श्रुतोपदिष्टस्याकरणादागमश्च त्यक्तः ।।१०।। गुणान्वयावृत्त्यकरणे कथयति गाथाद्वयेन गुणपरिणामो सड्ढा वच्छल्लं भत्तिपचलंभो य । संधाणं तव पूया अन्वोच्छित्ती समाधी य ॥३११।। 'गुणपरिणामो' यतिगुणपरिणतिः । 'सड्ढा' श्रद्धा। 'वच्छल्लं' वात्सल्यं । 'भत्तो' भवितः । 'पत्तलंभो है, जंगली जानवरोंसे, दुष्ट राजासे, नदीको रोकने वालों से और मारी रोगसे जो पीड़ित हैं, विद्या आदिसे उनका उपद्रव दूर करना, जो दुभिक्षमें फंसे हैं उन्हे सुभिक्ष देशमें लाना, आप न डरें इत्यादि रूप से उन्हें धैर्य देना तथा उनका संरक्षण करना वेयावृत्य कहा है ॥३०८|| वैयावृत्य न करने की निन्दा करते हैं गा०-अपने बल और वीर्यको न छिपाने वाला जो मुनि समर्थ होते हुए भी जिन भगवान के द्वारा कहे हुए क्रम के अनुसार यदि वैयावृत्य नहीं करता है तो वह धर्मसे वहिष्कृत होता है यह इस गाथा का अभिप्राय है ।।३०९।। वैयावृत्य न करनेसे तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका भंग होता है। शास्त्रमें कहे गये धर्मका नाश होता है । आचारका लोप होता है और उस व्यक्तिके द्वारा आत्मा, साधुवर्ग और प्रवचन का परित्याग होता है। तप में उद्योग न करनेसे आत्मा का त्याग होता है। आपत्ति में उपकार न करनेसे मुनिवर्गका त्याग होता है और शास्त्र विहित आचरण न करनेसे आगमका त्याग होता है ।।३१०॥ दो गाथाओं से वैयावृत्य करनेमें गुणों को कहते हैं· गा०-वैयावत्य करनेका पहला गुण है 'गुण परिणाम' अर्थात् जो वैयावृत्य करता है ३६ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ भगवती आराधना य' पात्रस्य लाभः । 'धाणं' संधानं । 'तव' तपः । पूया पूजा । 'अव्वुच्छित्ती य तित्थस्य' अव्युच्छित्तिश्च तीर्थस्य । 'समाधी य' समाधिश्च ॥३११॥ आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य । वेज्जावच्चस्स गुणा पभावणा कज्जपुण्णाणि ॥३१२।। 'आणा संजमसाखिल्लवा य' आज्ञा संयमसाहाय्यं च । 'दाणं च' दानं च । सर्वज्ञोपदिष्टवैयावृत्यकरणादाज्ञा संपादिता। आज्ञासंपादनमाज्ञासंयमः । परस्य वैयावत्त्यकृत उपकारः । रत्नत्रयस्य निरतिचारस्य दानं । 'संजमसाखिल्लदा य' संयमसाहाय्यमिति चार्थः । 'अविदिगिछा य' अविचिकित्सा च । 'वेज्जावच्चस्स गुणा' वैयावृत्यस्य गुणाः । 'पभावणा' प्रभावना च । 'कज्जपण्णाणि' कार्यनिर्वहणानि च ॥३१२॥ गुणपरिणामो इत्येतत्पदं व्याचष्टे मोहग्गिणादिमहदा घोरमहावयणाए फुट्टतो। डज्झदि हु धगधगंतो ससुरासुरमाणुसो लोओ ॥३१३। 'मोहग्गिणा' अज्ञानाग्निना । 'अदि महवा' अतिमहता, सकलवस्तुविषयतया महदज्ञानं तेन । 'डज्झदि' दह्यते । 'घोरमहावेदणाए' घोरया महत्या वेदनया । 'फुटतो' विशीर्यमाणः । 'धगधगंतो' धगधगायमानः । 'ससुरासुरमाणुसो लोगो' देवासुरमानुषैः सह वर्तमानो लोकः ॥३१३॥ एदम्मि णवरि मुणिणो णाणजलोवग्गहेण विज्झविदे । डाहुम्मुक्का होति हु दमेण णिव्वेदणा चेव ॥३१४॥ 'एदम्मि' एतस्मिन्लोके दह्यमाने । 'णवरि' पुनः । 'मुणिणो णिग्वेदणा चेवं होंति' मुनय एव निवेदना उसकी पीड़ित साधुके गुणों में वासना होती है कि मैं भी ऐसा बनूं । और जिस साधु की वैयावृत्य की जाती है उसकी सम्यक्त्व आदि गुणों में विशेष प्रवृत्ति होती है । इसके सिवाय श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रका लाभ, सन्धान-अपने में जो गुण पूजा छूट गये हैं उनका पुनः आरोपण, तप, धर्म तीर्थ की परम्परा का विच्छेद न होना तथा समाधि, ये गुण हैं ॥३११॥ गा०–सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट वैयावृत्य करनेसे सर्वज्ञकी आज्ञाका पालन होता है। आज्ञा पालनसे आज्ञा संयम होता है । वैयावृत्य करने वालेका उपकार होता है। निर्दोष रत्नत्रय का दान होता है। संयम में सहायता होती है। विचिकित्सा-ग्लानि दूर होती है। धर्म की प्रभावना होती है और कार्यका निर्वाह होता है ॥३१२।। . 'गुण परिणाम' पद का व्याख्यान करते हैं गा०-अति महान मोहरूपी आगके द्वारा सुर असुर और मनुष्यों सहित यह वर्तमान लोक धक् धक् करते हुए जल रहा है। घोर महावेदनासे उसके अंग टूट फूट रहे है ॥३१३॥ विशेषार्थ-'यह मेरा है और मैं इसका हूँ' इत्यादि प्रत्यय रूप अज्ञान समस्त वस्तुओंके सम्बन्धमें होनेसे उसे अतिमहान कहा है। तथा लोकसे बहिरात्मा प्राणियों का समूह लिया गया है। गा०-इस लोकके जलने पर भी मुनियों को कोई वेदना नहीं है। क्योंकि ज्ञानरूपी जलके Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २८३ भवन्ति । कथं ? 'णाणजलोवग्गहेण' ज्ञानजलोपग्रहेण । 'विज्झविदे' नष्ट मोहाग्नौ । 'डाहुम्मुक्का' दाहोन्मुक्ताः । 'दमेण' रागद्वेषप्रशमेन च । एतदुक्तं भवति-समीचीनज्ञानजलप्रवाहोन्मूलिताज्ञानवह्निप्रसरत्वं नाम यतीनां गुणः निर्वेदनत्वं चेति ॥३१४॥ णिग्गहिदि दियदारा समाहिदा समिदसव्वचेटुंगा । धण्णा णिरावयक्खा तवसा विधुणंति कम्मरयं ॥३१५।। 'णिग्गहिदिदियदारा' इन्द्रियं द्विविधं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं इति । तत्र द्रव्येन्द्रियं पुद्गलस्कन्धा आत्मप्रदेशाश्च तदाधाराः । भावेन्द्रियं ज्ञानावरणक्षयोपशम इन्द्रियजनितो रूपाबूपयोगश्च । तत्रहोपयोगेन्द्रियं गहीतं तत्साहचर्यादागद्वषावमनोज्ञे मनोज्ञेच विषये प्रवृत्ती इह पापकर्मनिमित्ततया इन्द्रियद्वारशब्देनोच्यते । तेनायमर्थः-निगृहीतेन्द्रियविपयरागद्वेषा इति । 'समाहिदा' रत्नत्रये समवहितचित्ताः । 'समिदसव्वचेटठंगा' सम्यकप्रवृत्तसहाः । 'धण्णा' पुण्यवन्तः । “णिरावयक्खा' निश्चला इति केचिद्वदन्ति । अन्ये निरपेक्षाः । सत्कारं लाभं वानपेक्षमाणाः इति कथयन्ति । 'तपसा विधुणंति कम्मरयं तपसा कर्मरजोविधूननं कुर्वन्ति । . निगृहीतेन्द्रियत्वं, रत्नत्रयैकाग्रता, निरवद्यचेष्टावत्ता, सत्कारादेनिरपेक्षता, तपसि वृत्तता, कर्मरजोविधूननं च यत्तिगुणाः एतया गाथया सूचिताः ॥३१५।। इय दढगुणपरिणामो वेज्जावच्चं करेदि साहुस्स । वेज्जावच्चेण तदो गुणपरिणामो कदो होदि ।।३१६।। 'इयं' एवं 'दढगुगपरिणामो' यतिगुणेषु व्यावणितेषु दृढपरिणामः । 'साधुस्स वेज्जावच्चं करेई' प्रवाहसे-आत्मा और शरीर आदिके भेद ज्ञानरूपी जलके प्रवाहसे मोहरूपी आगके नष्ट हो जाने से तथा रागद्वेषके शान्त हो जानेसे वे दाह से मुक्त हैं। आशय यह है कि सम्यग्ज्ञान रूपी जलके प्रवाहसे अज्ञानरूपी आगके फैलावको समाप्त कर देना और वेदना · रहित होना अर्थात् ज्ञानानन्दमय होना यतियों का गुण है ।।३१४॥ ___ गा०-टी०-इन्द्रियके दो भेद हैं द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । पुद्गल स्कन्धोंके और उनके आधार भूत आत्म प्रदेशोंके इन्द्रियाकार रचनाको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। और ज्ञानावरणके क्षयोपशम और इन्द्रियसे होने वाले रूपादि विषयक उपयोगको भावेन्द्रिय कहते हैं। इनमेंसे यहाँ उपयोगरूप इन्द्रियका ग्रहण किया है, क्योंकि उसकी सहायतासे मनको प्रिय और अप्रिय लगने वाले विषयों में राग द्वष होते हैं। पापकर्ममें निमित्त होनेसे यहाँ इन्द्रियद्वार कहा है अतः यह अर्थ होता है जिन्होंने इन्द्रियों के विषयोंमें होने वाले रागद्वषका निग्रह कर दिया है। जिनका चित्त रत्नत्रयमें लीन रहता है। जो ईर्याभाषा आदि चेष्टाएँ सम्यक रूप करते हैं और जो 'णिरावयक्खा' है। इसका अर्थ कोई 'निश्चल' कहते हैं और कोई निरपेक्ष कहते हैं अर्थात् जो सत्कार और लाभ की अपेक्षा नहीं करते । वे पुण्यशाली मुनि तपसे कर्म रूपी धूलिको नष्ट करते हैं । इस प्रकार इन्द्रियों का निग्रह करना, रत्नत्रयमें एकाग्र होना, निषि चेष्टाएँ करना, सत्कार आदि की अपेक्षा न करना, तप में लीन रहना और कर्म रूपी रजका दूर करना ये यतियोंके गुण इस गाथाके द्वारा कहे हैं ।।३१५॥ गा०-टी०-इस प्रकार ऊपर कहे यतिके गुणोंमें जिसका परिणाम दृढ़ होता है वह साधु की वैयावृत्य करता है । वैयावृत्य करने से गुण परिणाम होता है । आशय यह है कि इस यतिमें Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ भगवती आराधना साधोवैयावृत्त्यं करोति । 'वेज्जावच्चेण' वैयावृत्त्येन । 'तदो' तेन 'गुणपरिणामो कदो होदि' गुणपरिणामः कृतो भवति । एतदुक्तं भवति-अस्य यतेरेते गुणाः, इमे नश्यन्ति यदि नोपकारं कुर्यात् इति यश्चेतसि करोति स तेषु गुणेषु परिणतो भवति । यस्य चोपकारः कृतस्तस्य च गुणेषु परिणतिः कृता भवति । अतः स्वपरोपकारनिमित्तं वैयावृत्यं इति आख्यातं ॥३१६॥ . जह जह गुणपरिणामो तह तह आरुहइ धम्मगुणसेढिं । वढदि जिणवरमग्गे णवणवसंवेगसड्ढावि ॥३१७|| 'जह जह' यथा यथा गुणपरिणामो भवति । 'तह तह आरुहइ धम्मगुणसेढि' तथाऽरोहति चारित्रगणश्रेणीः। 'वडढइ' वर्धते । 'जिणवरमग्गे' जिनेन्द्रमार्गे। किं वर्द्धते ? 'नवनवसंवेगसड्ढावि' प्रत्यग्रसंसारभीरुता श्रद्धापि । इह गुणशब्देन गुणनिर्भासः स्मार्तः प्रत्यय उच्यते । तेनायमर्थ:-यथा यथा यतिगुणानां स्मरणं तथा तथा चारित्रगुणानां स्मरणं तथा तथा चारित्रगुणानुपारोहति । विस्मृतयतिगुणो न तत्र प्रयतते । तेषां गुणानां स्मरणात्तत्र रुचिरुपजायते । गुणानुरागिणो हि भव्याः । संसारभीतिः श्रद्धा च प्रवर्तमाना दृढयति यति रत्नत्रये। एतया गाथया सूत्रिता श्रद्धा व्याख्याता ॥३१७॥ गुणानामनुस्मरणात्तत्र रुचिर्भवति रुची प्रवृद्धायां वात्सल्यं नाम दर्शनस्य गुणो भवतीत्याचष्टे सड्ढाए वढियाए वच्छल्लं भावदो उवक्कमदि । तो तिव्वधम्मराओ सव्वजगसुहावहो होइ ।।३१८।। 'सड्ढाए वढिदाए' श्रद्धया वद्धितया । 'वच्छल्लं भावदो उवक्कमदि' वात्सल्यं भावतः मनसा प्रारभते । 'तो' ततः । “तिव्वधम्मराओ' धर्मे तीव्रो रागः । 'सध्वजगसुहावहो होदि' सर्वेषु जगत्सु यत्सुखं ये गुण हैं । यदि मैं इनकी सेवा न करूंगा तो ये गुण नष्ट हो जायेगे। ऐसा जो चितमें विचारता हैं वह उन गुणोंमें परिणत होता हैं। और जिसकी सेवा की है उसकी गुणों में परिणति होती है । अर्थात् वैयावृत्य करने वाला स्वयं उन गुणोंसे सुवासित होता है और जिसका वैयावृत्य किया जाता है वह यति अपने गुणोंसे च्युत नहीं होता। अतः अपने और दूसरोंके उपकारके लिए वैयावृत्य कहा है ॥३१६।।। गा०-दो०-जैसे-जैसे गुण परिणाम होता है वैसे वैसे चारित्र रूप गुणोंकी सीढ़ी पर चढता है, और जिनेन्द्रके मार्गमें नई-नई संसार भीरुता और श्रद्धा भी बढ़ती है। यहाँ गुण शब्दसे गुणोंको विषय करने वाला स्मरण ज्ञान कहा गया है। तब यह अर्थ होता हैं-जैसे-जैसे यतिके गुणोंका स्मरण होता है वैसे-वैसे चारित्र गुण पर आरोहण करता है। जो यतिके गुणोंको भूल जाता है वह उसमें प्रयत्न नहीं करता। उनके गुणोंका स्मरण करनेसे उनमें रुचि पैदा होती है। भव्य जीव गुणोंकी अनुरागी होते हैं। संसारसे भय और श्रद्धा यतिको रत्नत्रयमें दृढ़ करती है। इस गाथासे श्रद्धा गुणका कथन किया ॥३१७॥ आगे कहते हैं कि गुणोंके स्मरणसे उनमें रुचि होती है। रुचि बढ़ने पर सम्यग्दर्शनका वात्सल्य नामक गुण होता है गा०-श्रद्धाके बढ़ने पर मुनि मनसे वात्सल्य करते हैं। उससे धर्ममें तीव्र राग होता है। धर्ममें तीव्र राग समस्त जगतमें जो इन्द्रिय जन्य और अतीन्द्रिय सुख है उसे लाता है । अथवा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयादया टीका २८५ ऐन्द्रियमतीन्द्रियं वा तदावहत्या कर्पति धर्मे तीव्रो रागः । तीव्रधर्मरागो वा यतिरात्मनः सकलं सुखमावहति । वात्सल्यं इत्येतद्व्याख्यातं गाथयाऽनया ॥ ३१८॥ वैयावृत्त्यस्य च भक्तिर्नाम यो गुणस्तं व्याचष्टे अरहंतसिद्धभत्ती गुरुभत्ती सव्वसाहुभत्ती य । आसेविदा समग्गा विमला वरधम्मभत्ती य || ३१९ || 'अरहंत सिद्धभत्ती' तत्रार्हन्तो नामातिक्रान्ते तृतीये भवे दर्शनविशुद्धयादिपरिणामविशेषवद्ध तीर्थकरत्वनामकर्मातिशयाः, स्वर्गावतरणादिपदुरवापपञ्चमहाकल्याणभागिनः घातिकर्मप्रलयाधिगतसकलद्रव्यत्रिकालगोचरस्वरूपावभासनपटुनिरतिशयज्ञानदर्शन मोहोन्मूलनोपजातवीतरागसम्यक्त्वाः, चारित्रमोहोत्पाटनलब्धवीतरागभावाः, वीर्यान्तरायकर्मप्रक्षयाविर्भूतानन्तवीर्याः, परीतसंसारभव्यजनोद्धरणवद्धप्रतिज्ञाः, अष्टमहाप्रातिहार्यचतुस्त्रिंशदतिशय विशेषाः । सिद्धा नाम मिथ्यात्वादिपरिणामोपनीतकर्माष्टकबन्धनिर्मुक्ताः अजरामराज्याबाधा उपमातीतानन्तसुखाः जाज्वल्यमाननिरावरणज्ञानतनवः पुरुषाकारावाप्तपरमात्मावस्थाः । एतयोरर्हत्सिद्धयोभक्तिः । गुरुशब्देनात्राचार्योपाध्याय गृहीतो तयोर्भक्तिः । सव्वसाहभत्ती य' सर्वसाधुभक्तिश्च । 'आसेविआ' आसेविता भवति । 'समग्गा' समस्ता 'विमला वरधम्मभत्तीय' प्रधाने धर्मे रत्नत्रयात्मके भक्तिश्च आसेविता भवति । अर्हदाद्युपदिष्टवैयावृत्त्यकरणात्तेषां भक्तिः कृता भवति । रत्नत्रयवतामुपकारकरणात्तदादरत एव तत्र भक्तिः । वैयावृत्यं भक्तिमापादयति अर्हदादिष्वित्युक्तं ॥३१९॥ धर्म में तीव्रराग रखने वाला यति सब सुखको प्राप्त होता है । इस गाथासे वात्सल्यका कथन किया ||३१८ || वैयावृत्यका भक्ति नामक जो गुण है उसे कहते हैं गा० - टी० - इस भवसे पूर्व तीसरे भवमें दर्शन विशुद्धि आदि परिणाम विशेषसे जिसने तीर्थंकरत्व नामक अतिशयशाली कर्मका बन्ध किया है, जो स्वर्गावतरण आदि पाँच महाकल्याण का भागी हैं जो कल्याणक किसी अन्यको प्राप्त नहीं होते, घातिकर्मोंके विनाशसे जिसने - त्रिकालवर्ती सव द्रव्योंके स्वरूपको प्रकाशित करनेमें पटु निरतिशय ज्ञान प्राप्त किया है, दर्शन मोह के क्षय से जिन्हें वीतराग सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है, चारित्रमोहके क्षयसे जिसने वीतरागता प्राप्त की है, वीर्यान्तराय कर्मके प्रक्षयसे जिनमें अनन्तवीर्यं प्रकट हुआ है, जिनके संसारका अन्त आ गया है उन भव्यजीवोंका उद्धार करनेकी प्रतिज्ञासे जो वद्ध हैं, जो आठ महाप्रतिहायें और चौतीस अतिशय विशेषसे युक्त है, वे अर्हन्त है । मिथ्यात्व आदि परिणामोंसे आये आठ कर्मो बन्धनसे जो छूट चुके हैं, जो अजर अमर, अव्यावाध गुणसे युक्त है अनुपम अनन्त सुखसे शोभित हैं जिनके सदा प्रज्वलित रहने वाला आवरण रहित ज्ञानमय शरीर है, जो पुरुषाकार है और जिन्होंने परमात्म अवस्थाको पालिया है वे सिद्ध हैं । इन अर्हन्तों और सिद्धोकी भक्ति अर्हन्त सिद्ध भक्ति है । गुरु शब्दसे यहाँ आचार्य और उपाध्यायका ग्रहण किया है। उनकी भक्ति गुरु भक्ति है । और सर्वसाधुओंकी भक्ति तथा प्रधान धर्म रत्नत्रयमें सम्पूर्ण निर्मल भक्ति । इन अर्हन्त आदि का ऊपर कहा वैयावृत्य करनेसे उनकी भक्ति की गई जानना । रत्नत्रयके धारकोंका उपकार करने से उनका आदर ही उनकी भक्ति है । अभिप्राय यह है कि वैयावृत्यसे अर्हन्त आदिमें भक्ति व्यक्त होती है || ३१९ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ इदानों तस्या माहात्म्यं स्तौति- भगवती आराधना संवेगजणियकरणा णिस्सल्ला मंदरुव्व णिक्कंपा । जस्स दढा जिणभची तस्स भयं णत्थि संसारे || ३२० || 'संवेगजणिकरणा' संसारभीरुताजनितोत्पादा । करणशब्दः सामान्यवचनोऽपि उत्पत्तिक्रियावृत्तिरत्रगृहीतः । 'णिस्सल्ला' मिथ्यात्वेन, मायया, निदानेन च रहिता । 'संदरुब्ब शिवकंपा' मंदर इव निश्चला । 'जस्स दढा जिणभत्ती' यस्य जिने भक्तिर्दृढा । 'णतस्स भयमत्थि संसारे' तस्य भयं नास्ति संसारात् । जिनशब्देना चात्रादादयः सर्व एवोच्यन्ते - कर्मैकदेशानां समस्तानां च जयात् । धर्मोऽपि कर्माण्यभिभवति इति द्रव्यलाभादिकमनुद्दिश्य प्रवृत्तेस्तत्कथयति । 'संवेगजणिकरणा' इत्यनेन संसारभयनिराकरणोपायभूता जिनभक्तिरिति ज्ञात्वा प्रवृत्तेति यावत् । वैनयिकमिथ्यादृष्टेः सर्वत्र भक्तिः प्रवर्तते इति तन्निरासाय णिस्सल्ला इत्युच्यते । 'मंदत्व णिक्कंपा' इत्यनेन सर्वकालवृत्तिताख्याता । सासादन सम्यग्दृष्टेज ताप्यल्पकाला न संसारानिस्सारयतीति ॥ ३२० । वैयावृत्यस्य पात्रलाभगुणमाचष्टे पंचमहव्वयगुत्तो णिग्गहिदकसायवेदणो दंतो । लब्भदि हु पत्तभूदो णाणासुदरयणणिधिभूदो ॥ ३२१|| 'पंचमहव्वयगुत्तो' पञ्चभिर्महाव्रतैः कृतास्रवनिरोधः । 'णिग्गहिय कसायवेयणो' निगृहीतकषायवेदनः कषायस्तु तपयत्यात्मानमिति वेदना । 'दंतो' दान्तः शान्तरागजदोषः । परिज्ञानाद्वैराग्यभावनातः प्रशान्तराग इति कृत्वा दान्त इत्युच्यते । 'लम्भदि खु पत्तभूदो' लभ्यते पात्रभूतः । ' णाणासुदरयणाधिभूदो' नाना अब उस भक्तिका माहात्म्य कहते हैं गा० - टी० - 'संवेग जणिय करण' में 'करण' शब्द क्रिया सामान्यका वाची होने पर भी यहाँ उसका अर्थ उत्पत्तिरूप क्रिया लिया है । अतः संसारके भयसे जो उत्पन्न होती है, मिथ्यात्व माया और निदान नामक शल्योंसे रहित सुमेरुकी तरह निश्चल, ऐसी दृढ़ जिन भक्ति जिसके है उसे संसारसे भय नहीं है । कर्मोकं एक देशको अथवा सब कर्माको जीतनेसे यहाँ 'जिन' शब्दसे अर्हन्त आदि सभी लिये है । 'धर्म भी कर्मोंको निरस्त करता है इसलिये जिन शब्दसे धर्म भी कहा जाता है । किन्तु वह धर्म द्रव्यलाभके उद्दे शसे न होकर जिन भक्ति संसारका भय दूर करनेका उपाय है । यह जानकर होना चाहिये । वैनयिक मिथ्यादृष्टिकी भक्ति सबमें होती है उसके निराकरण के लिये निःशल्य कहा है । मेरुकी तरह निश्चल कहनेसे वह भक्ति सर्वकालमें होनी चाहिये ऐसा कहा है । सासादन सम्यग्दृष्टीके अल्पकालीन भक्ति होती है किन्तु वह संसारसे नहीं निकालती ॥ ३२० ॥ वैयावृत्यका एक गुण पात्रलाभ है । उसे कहते हैंगा०टी० - वैयावृत्य करनेसे, पाँच महाव्रतों के कषाय वेदनाका निग्रह करने वाला, कषाय आत्माको दान्त अर्थात् जिसके राग जन्य दोष शान्त हो गये हैं, होती है और वैराग्य भावनासे राग शान्त होता है इससे शास्त्रोंरूपी रत्नोंका निधि है नानां शास्त्रोंका ज्ञाता है, ऐसा पात्र प्राप्त होता है' अर्थात् वैयावृत्य द्वारा कर्मोके आस्रवको रोकने वाला, संतप्त करती हैं इससे वेदना कहा है, वस्तु तत्वको जाननेसे वैराग्य भावना दन्त कहा है, तथा जो नाना प्रकारके Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ विजयोदया टीका श्रुतरत्ननिधिभूतः ॥२२१॥ दंसणणाणे तव संजमे य संधाणदा कदा होइ । तो तेण सिद्धिमग्गे ठविदो अप्पा परो चेव ॥३२२।। 'दसणणाणे' दर्शनज्ञानयोः । 'तवसंजमे य' तपश्चारित्रयोश्च । 'संधाणदा होदि' कुतश्चिन्निमित्ताद्विच्छिन्नानां दर्शनादीनां संधानं कृतं भवति वैयावृत्त्येन । 'तो' तस्मात् तेनैव वैयावृत्त्यकारिणा । 'सिद्धिमग्गे' रत्नत्रये । 'ठविदो अप्पा परो चेव' स्थापित आत्मा परश्च । अनया संधानमित्येतत्सूत्रपदव्याख्यानम् ॥२२२।। तव इत्येतद्वयाख्यातुमाह वेज्जावच्चकरो पुण अणुत्तरं तवसमाधिमारूढो । पफ्फोडितो विहरदि बहुभवबाधाकर कम्मं ।।३२३॥ 'वेज्जावच्चकरो पुण' वैयावृत्यकरः पुनः 'अणुत्तरं तवसमाधि मारूढो' उत्कृष्ट वैयावृत्त्याख्ये तपसि समाधिमे काग्नतामुपाश्रितः । 'पफ्फोडितो विहरदि' विधूनयन्विहरति । 'बहुभवबाधाकरं' कम्म' बहुभवेषु वाधाः संपादयत्कर्म ।।३२३॥ जिणसिद्धसाहुधम्मा अणागदातीदवट्टमाणगदा । तिविहेण सुद्धमदिणा सव्वे अभिपूइया होति ।।३२४॥ "जिणसिद्ध साहुधम्मा' तीर्थकृतः, सिद्धाः, साधवो, धर्मश्च । 'अणागदातीदवट्टमाणगदा' सर्वे त्रिकालवर्तिनः 'सन्वे तिविधेण पूजिदा होंति' सर्वे मनोवाक्कायः पूजिता भवन्ति । 'सुद्धमहणा' शुद्धचेतसा । तीर्थकृदादयस्तदाज्ञासंपादनात्पुजिताः, दशविधे धर्म तपसोऽन्तर्भावाद्वैयावृत्त्यस्य च तदन्तर्गतत्वाद्ध यावृत्त्ये आदरात तत्प्रवृत्तश्च धर्मः पूजितो भवति ॥३२४॥ करने वालेको वैयावृत्यके लिये ऐसे सत्पात्र मुनी प्राप्त होते हैं यह एक महान् लाभ है ।।३२१॥ गा०-टी०-किसी निमित्तसे सम्यग्दर्शन आदिमें त्रुटि हो गई हो तो वैयावृत्य करनेसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्तप और सम्यक चारित्रमें पुनः नियुक्ति हो जाती है। अतः उसी वैयावृत्यकारीके द्वारा स्वयं आत्मा तथा जिसकी वह वैयावृत्य करता है उसकी रत्नत्रय में पुनः स्थिति होती है। इससे दोनों का ही लाभ है। इस गाथाके द्वारा 'संधान' पदका व्याख्यान किया है ॥३२२।। तप गुणको कहते हैं गा०-वैयावृत्य करनेवाला मुनि उत्कृष्ट वैयावृत्य नामक तपमें एकाग्र होकर अनेक भवोंमें कष्ट देनेवाले कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ विहार करता है ॥३२३।।। गा०-शुद्धचित्तसे वैयावृत्य करनेवालेके द्वारा भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालके सब तीर्थंकर, सिद्ध, साधु और धर्म मन-बचन-कायसे पूजित होते हैं। तीर्थंकरोंकी आज्ञाका पालन करनेसे सभी तीर्थंकर आदि इसके द्वारा पूजित होते हैं। तथा दस प्रकाके धर्मों में एक तपधर्म भी है और वैयावृत्य उसका एक भेद है अतः वैयावृत्यमें आदरभाव रखने तथा वैयावृत्य करनेसे धर्म पूजित होता है ॥३२४॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना वैयावृत्त्यं दशविधं आचार्योपाध्यायतपस्विशिक्षकग्लान गणकुलसंघसाघुमनोज्ञभेदेन । तत्राचार्यवैयावृत्यमाहात्म्यकथनायाचष्टे -- २८८ आइरियधारणाए संघो सव्वो वि धारिओ होदि । संघस्स धारणाए अव्वोच्छित्ती कया होई || ३२५ || 'आइरियधारणाए' आचार्यधारणातः, 'संघो सम्बो वि धारिदो होदि' सर्वः संघोऽवधारितो भवति । कथं ? आचार्यो हि रत्नत्रयं ग्राह्यति । गृहीतरत्नत्रयांस्तेषु द्रढयति । अतिचाराञ्जातानप्यपनयति । तदुपदेशबलेनैव गुण संहतिरूपतां धत्ते संघो नान्यथेति संघो धारितो भवति । संघधारणाया गुणमाचष्टे । संघस्स धारणाए अबोच्छिती का होदि' धर्मतीर्थस्याभ्युदयनिःश्रेयससुखसाधनस्य अव्युच्छित्तिः कृता भवति । उपाध्यायादयः सर्व एव साधयन्ति निरवशेषकर्मापायमिति साधुशब्देनोच्यन्ते ॥ ३२५॥ तेष्वन्यतमस्य साधोर्धारणायां गुणं कथयति - साधुस्स धारणाए वि होइ तह चेव घारिओ संघो । साधू चेव हि संघो ण हु संघो साहुवदिरित्तो ॥ ३२६ ॥ 'साधुस्त धारणाए' एकस्य साधोर्वैयावृत्यकरणेन धारणायां । 'होदि' भवति । 'तह चेव' तथैव आचार्यधारणातः संघधारणात् । 'धारिदो संघो' धारितो यतिसमुदायः । कथमेकस्य धारणायां समुदायधारणा, समुदायावयवयोर्भेदादित्याशंकायामाह - ' साधू चेव हि संघो' साधव एव हि संघः । 'ण हि संघो साधुवदिरित्तो' नैव संघो नामार्थान्तरभूतोऽस्ति साधुव्यतिरिक्तः । कथंचित्समुदायावयोरव्यतिरेक इति मन्यते गाथा आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शिक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञके भेदसे वैयावृत्यके दस भेद हैं । उनमेंसे आचार्य वैयावृत्यका माहात्म्य कहते हैं T गा० - टी० - आचार्यका धारण करनेसे समस्त संघ धारित होता है । क्योंकि आचार्य रत्नत्रय ग्रहण कराते हैं और जो साधु रत्नत्रयको धारण किये होते हैं उन्हें उसमें दृढ़ करते हैं । उत्पन्न हुए अतिचारोंको दूर करते हैं । आचार्य के उपदेशके प्रभावसे ही संघ गुणोंके समूहको धारण करता है अतः आचार्य के धारणसे संघका धारण होता है । आचार्यके विना संघका धारण सम्भव नहीं है । संघके धारणसे अभ्युदय और मोक्षके सुखका साधन जो धर्म है उस धर्मतीर्थंका विच्छेद नहीं होता । उपाध्याय आदि सभी समस्तकर्मों के विनाशकी साधना करते हैं इसलिए साधु शब्दसे उन सबका ग्रहण होता है ॥ ३२५ ।। विशेषार्थ - धारणाका अर्थ है अपने धर्मकर्मकी शक्तिको भ्रष्ट करनेके निमित्तोंको दूर करके उसको शक्ति प्रदान करना । इसीको वैयावृत्य भी कहते हैं । उक्त आचार्यादिमें से किसी एक साधुकी धारणाके गुण कहते हैं - गा० - टी० - जैसे आचार्यकी धारणासे संघकी धारणा होती है वैसे ही एक साधुकी धारणा से अर्थात् वैयावृत्य करनेसे साधु समुदायकी धारणा होती है । शंका- एक साधुकी धारणासे सब साधु समुदायकी धारणा कैसे हो सकती है ? क्योंकि समुदाय और व्यक्ति में तो भेद है ? इसके उत्तरमें कहते हैं समाधान - साधु ही संघ है । साधुओंसे भिन्न कोई संघ नामक वस्तु नहीं है । समुदाय Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वयेनानेन । अव्युच्छित्तिर्व्याख्याता ॥ ३२६॥ विजयोदया टीका सिद्धिसुखे चेतसि एकाग्रता समाधिरित्युच्यते तदुपगूहनं कृतं भवतीत्याचष्टेगुणपरिणामादीहिं अणुत्तरविहीहिं विहरमाणेण । जा सिद्धिसुहसमाधी सा वि य उवगूहिया होदि || ३२७|| 'गुणपरिणामावीहि य' गुणपरिणामः, श्रद्धा, वात्सल्यं, भक्तिः, पात्रलाभः, संधानं, तपः, पूजा, तीर्था - व्युच्छित्तिक्रियेत्येतैः । 'अणुत्तरविधीह' प्रकृष्टः क्रमैः । 'विहरमाणेण' आचरता । 'जा सिद्धिसुहसमाधी' या सिद्धिसुखैकाग्रता । 'सा वि य उवगूहिया होइ' साप्यालिङ्गिता भवति । कारणे ह्यादरः कार्ये समाधानमन्तरेण न प्रवर्तते । न हि साध्ये घटे चेतस्यसति तदुपायभूतदण्डादिकारणकलापे जनः प्रवर्तते । इह च गुणपरिणामादय उपायाः सिद्धिसुखस्य न च सिद्धिसुखैकाग्रतामन्तरेण ते युज्यन्ते इति भावः ॥ ३२७॥ अणुपालिदा य आणा संजमजोगा य पालिदा होंति । णिग्गहियाणि कसायिंदियाणि साखिल्लदा य कदा || ३२८|| २८९ 'अणुवालिदा या आणा' अनुपालिता च आज्ञा भवति वैयावृत्यं कुर्वता । केषां ? तीर्थकृदादीनां । एतेन 'आणा' इत्येतत्सूत्रपदं व्याख्यातं भवति । 'संजम जोगा य पालिदा होंति' इत्यनेन संयमपदव्याख्या कृता संयमेन सह सम्बन्धः आचार्यादीनाम् । 'पालिदा होंदि' रक्षिता भवन्ति । व्याध्याद्यापद्गतानां रोगपरीषहानसंक्लेशेन धारयितुमसमर्थानाम् । अथवा संयमयोगाश्च तपांसि अनशनादितपोविशेषाः रक्षिता भवन्ति स्वस्य परेषां च, करणानुमननाभ्यां स्वस्यापन्निरासेन स्वस्थतोपजात सामर्थ्यादीनां संयमसंपादनात् । परेषां सहायतां और उसके अवयव व्यक्तिमें कथञ्चित् अभेद होता है यह इन गाथाओंके द्वारा माना है || ३२६|| अव्युच्छित्तिका कथन समाप्त हुआ । सिद्धि सुखमें चित्तकी एकाग्रताको समाधि कहते हैं । वैयावृत्य से उसका उपगूहन होता है, यह कहते हैं गा०-श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रलाभ, सन्धान, तप, पूजा, तीर्थकी अव्युच्छित्ति (अविनाश) इत्यादि गुणोंका उत्कृष्ट क्रमके साथ आचरण करनेवाले मुनिको जो सिद्धि सुखमें एकाग्रता है, वह भी प्राप्त होती है; क्योंकि कार्य में समाधान हुए विना कारणमें आदर नहीं होता । यदि चित्तमें घट बनानेकी भावना न हो तो उसके उपायभूत जो दण्ड आदि कारण हैं उनमें मनुष्य प्रवृत्त नहीं होता । यहाँ गुणपरिणाम आदि सिद्धिसुखके उपाय हैं, सिद्धिसुख में एकाग्रताके विना वे उपाय नहीं हो सकते। यह अभिप्राय है || ३२७|| गा० - टी० -- ' जो वैयावृत्य करता है वह तीर्थंकरोंकी आज्ञाका पालन करता है। इस कथनसे गाथाके 'आणा' पदका व्याख्यान किया है । 'संयमयोगका पालन होता है' इस कथन से संयमपदका व्याख्यान किया है क्योंकि आचार्य आदिका संयमके साथ सम्बन्ध है । जो आचार्य आदि व्याधि आदि से पीड़ित होते हैं और विना संक्लेशके रोगपरीषहको सहने में असमर्थ होते हैं उनकी वैयावृत्य करनेसे संयमकी रक्षा होती है । अथवा 'संयमयोग' अर्थात् अनशन आदि तपके भेदोंकी रक्षा होती हैं । अपने भी और दूसरोंके भी तपकी रक्षा होती है। दूसरोंसें वैयावृत्य कराकर अथवा वैयावृत्य करने की अनुमोदना करके स्वास्थ्यको प्राप्तकर अपने तपकी रक्षा करता है तथा दूसरोंकी ३७ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० भगवती आराधना व्याचष्टे-जम्हा इति वाक्यशेषाध्याहारेण सूत्रपदानि सम्बन्धनीयानि । यस्मान्निगृहीतानि कषायेन्द्रियाणि तद्दोषोपदेशं कुर्वता तस्मात् 'साखिल्लदा य कदा' सहायता कृता ।।३२८॥ अदिसयदाणं दत्तं णिव्विदिगिच्छा दरिसिदा होइ । पवयणपभावणा वि य णिव्यूढं संघकज्जं च ॥३२९।। 'अदिसयदाणं वत्तं' अतिशयदानं दत्त भवति रत्नत्रयदानात् । 'णिविदिगिछा य दरिसिया होइ' सम्यग्दर्शनस्य गुणो निर्विचिकित्सा नाम सा प्रकटिता भवति । द्रव्यविचिकित्सा निरस्ता शरीरमलानां निराकरणात् जुगुत्सां विना । 'पवयणपभावणा वि य' प्रवचनमागमस्तदुक्तार्थानुष्ठानात् प्रवचनप्रभावना कृता भवति । 'णिन्यूढं संघकज्जं च' संघेन कर्तव्यं कायं च निश्चयेन संपादितं भवति । एतेन ‘कज्जपुण्णाणि' इत्येतद्वयाख्यातम् ॥३२९।। वैयावृत्त्यस्य फलमाहात्म्यं दर्शयति गुणपरिणामादीहिं य विज्जावच्चुज्जदो समज्जेदि । तित्थयरणामकम्मं तिलोयसंखोभयं पुण्णं ।।३३०।। 'गुणपरिणामादीहिं य' । अत्रैवं पदसम्बन्धः 'वेज्जावच्चुज्जदो' वैयावृत्ये उद्यतः । 'गुणपरिणामादीहि गुणपरिणामादिभिः कारणभूतैः । 'पुण्णं तित्थयरणामकम्मं समज्जेदि' पुण्यं तीर्थकरनामकर्म समर्जयति । कीदृक् ? 'तिलोयसंखोभयं त्रैलोक्यसंक्षोभकरणक्षमम् ॥३३०।। । एदे गुणा महल्ला वेज्जावच्चुज्जदस्स बहुया य । अप्पट्ठिदो हु जायदि सज्झायं चेव कुव्वंतो ॥३३१।। 'एदे गुणा महल्ला' एते गुणा महान्तः 'वेज्जावच्चुज्जदस्स' वैयावृत्त्योद्यतस्य । 'बहुया य' वहवः । marwarmmmmmmmmarrrrrrrrrrrrrr. आपत्तिको दूर करके, उनके स्वास्थ्य लाभ करके शक्ति प्राप्त करनेपर उनके संयमकी रक्षा होती है । दूसरोंकी सहायताका कथन गाथाके उत्तरार्द्धसे करते हैं। उसमें 'जम्हा' पदका अध्याहार करके इस प्रकार अर्थ होता है—यतः वैयावृत्य करनेवाला कषाय और इन्द्रियोंके दोष बतलाकर कषाय और इन्द्रियोंका निग्रह करता है, अतः वह दूसरोंको सहायता प्रदान करता है ।।३२८|| ___ गा०-टी-वैयावृत्य करनेवाला उक्त प्रकारसे दूसरे साधुओंको रत्नत्रयका दान करता है इसलिए वह सातिशयदानका दाता होता है। तथा वैयावृत्यसे सम्यग्दर्शनका निर्विचिकित्सा नामक गुण प्रकाशित होता है। शरीरका मलमूत्र आदि विना ग्लानिके उठानेसे द्रव्यविचिकित्सा दूर होती है। आगममें कहे हुए धर्मका पालन करने से प्रवचनकी प्रभावना भी होती है। और संघका जो करने योग्य कार्य है उसका भी सम्पादन होता है। इस गाथासे 'कज्जपुण्णाणि' पदका व्याख्यान किया है ॥३२९॥ वैयावृत्यके फलका माहात्म्य कहते हैं गा०-वैयावृत्यमें तत्पर साधु गुणपरिणाम आदि कारणोंके द्वारा उस तीर्थङ्कर नामक पुण्यकर्मका बन्ध करता है जो तीनों लोकोंमें हलचल पैदा करता है ।।३३०॥ । गा०-वैयावृत्यमें तत्पर साधुके बहुतसे महान् गुण होते हैं। जो केवल स्वाध्याय ही Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २९१ 'अप्पट्ठियो ह जायदि' आत्मप्रयोजनपर एव जायते । ‘सज्झायं चैव कुम्वंतो' स्वाध्यायमेव कुर्वन् । वैयावृत्यकरस्तु स्वं परं चोद्धरतीति मन्यते ॥३३१।। वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गमग्गिविससरिसं । अज्जाणुचरो साधू लहदि अकित्तिं खु अचिरेण ॥३३२।। 'वज्जेह' वर्जयत अग्निना विषेण सदृशः आर्याजनसंसर्गः । प्रमादरहितैर्भवद्भिस्त्याज्यः अज्जाणुचरों' आर्यानुचरः । 'साधू' साधुलहदि अकित्ति लभते अयशः 'अचिरेण' अचिरेण । चित्तसंतापकारितया अग्निसदृशता । संयमजीवितविनाशनाद्विषसदृशता । पापस्य अयशसश्च प्रायेण भीरुलोकोऽपि साध्वाचारः मिथ्यादृष्टिरसंयतोऽपि किं पुनविदितवेदितव्यस्य परिहार्यमशेष उद्यतः परिहतुं यतिजनः पापमयशश्च न परिहरेत् । तथा च श्लोकः काये पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपाति यत् । नरः पतितकायोऽपि यशःकायेन धार्यते ॥ [ ] ॥३३२।। थेरस्स वि तवसिस्स वि बहुस्सुदस्स वि पमाणभूदस्स । अज्जासंसग्गीए जणजंपणयं हवेज्जादि ॥३३३।। 'थेरस्स' स्थविरस्य । 'तवसिस्स वि' अनशनादितपस्युद्यतस्यापि । 'बहुसुदस्स वि' बहुश्रुतस्यापि । 'पमाणभूदस्स' प्रमाणभूतस्य । 'अज्जासंसग्गीए जणपणयं हवेज्जादि' 'अज्जासंसग्गीए जणपणयं हवेज्जादि' आर्यापरिचयाज्जनापवादो भवति ॥३३३॥ किं पुण तरुणो अबहुस्सुदो य अणुकिट्ठतवचरित्तो । अज्जासंसग्गीए जणपणयं ण पावेज्ज ॥३३४॥ करता है वह तो अपने ही प्रयोजनमें लगा रहता है। किन्तु वैयावृत्य करनेवाला अपना और दूसरोंका उपकार करता है । अर्थात् केवल स्वाध्याय करनेवाले साधुसे वैयावृत्य करनेवाला विशिष्ट होता है। स्वाध्याय करनेवाले साधुपर विपत्ति आवे तो उसे वैयावृत्य करनेवालेका ही मुख ताकना होता है ॥३३१।। गा-टी०-हे साधुजनो! आपको प्रमादरहित होकर आग और विषके तुल्य आर्याओंके संसर्गको छोडना चाहिए। आर्याके साथ रहनेवाला साध शीघ्र ही अपयशका भागी होता है। आर्याका संसर्ग चित्तको सन्तापकारी होनेसे आगके समान है और संयमरूपी जीवनका विनाशक होनेसे विषके समान है । साधु आचारवाले मिथ्यादृष्टि असंयमी लोग भी प्रायः पाप और अपयशसे डरते हैं। फिर जो सब कुछ जानते हैं और समस्त त्यागने योग्य पदार्थोके त्यागमें तत्पर रहते हैं वे साधुजन पाप और अपयशके कामसे क्यों नहीं दूर रहेंगे ? कहा भी है-शरीर नष्ट होनेवाला है उसकी रक्षा सम्भव नहीं है। यशकी रक्षा करने योग्य है जो नष्ट नहीं होता। शरीरके छूट जानेपर मनुष्य यशरूपी शरीरसे जीवित रहता है ॥३३२।। गा०-वृद्ध, अनशन आदि तपमें तत्पर तपस्वी, बहुश्रुत और प्रमाण माना जानेवाला भी साधु आर्याजनके संसर्गसे लोकापवादका भागी होता है ॥३३३।। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ भगवती आराधना कि पुण ण पावेज्ज जणंजपणयं' किं पुनर्न प्राप्नुयाज्जनापवाद वा ? प्राप्नोति नियोगतः । केन ? 'अज्जासंसग्गीए' आर्यागोष्ठया। कः ? "तरुणो अबस्सुदो अणुकिट्ठतवचरित्तो य' तरुणो यतिरबहुश्रुतोऽनुत्कृष्टतपश्चारित्रश्च ॥३३४॥ जदि वि सयं थिरबुद्धी तहा वि संसग्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीवे व घदं विलेज्ज चिनं खु अज्जाए ॥३३५।। 'जवि वि सयं थिरबुद्धी' यद्यपि स्वयं स्थिरबुद्धिः । 'तहा वि' तथापि। 'संसग्गिलद्धपसराए' संसर्गाल्लब्धप्रसरायाः । 'अज्जाए' आर्यायाः । 'चित्तं विलेज्ज' चित्तं द्रवति । किमिव ? 'अग्गिसमीवे व घदं' अग्निसमीपस्थं घृतमिव । न केवलमार्याजन एव परिहरणीयः किं तु-॥३३५।। सव्वत्थ इत्थिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अवीसत्थो। णित्थरदि बंभचेरं तन्विवरीदो ण णित्थरदि ॥३३६।। 'सम्वत्थ इत्यिवग्गम्मि' सर्वस्मिन्नेव स्त्रीवर्गे बालाकन्यामध्यमास्थविरासुरूपाविरूपेति विचित्रभेदे । 'अप्पमत्तो' अप्रमत्तः प्रमादरहितः । सदा 'अवोसत्थो' विश्वासरहितः । "णित्थरइ' निस्तरति 'बंभचेरं' ब्रह्मचर्य । 'तद्विवरीदो' तद्विपरीतः प्रमत्तः विश्वासवांश्च । 'गणित्थरदि' न निस्तरति ॥३३६॥ आर्यानुचरणे दोषं प्रकटयति सव्वत्तो वि विमुत्तो साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो। सो चेव होदि अज्जाओ अणुचरंतो अणप्पवसो ॥३३७।। 'सम्वत्तो वि विमुत्तो साहू सम्वत्थ होइ अप्पवसो' सर्वस्माद्वास्तुक्षेत्रादिकाद्विमुक्तः साधुः सर्वत्र भवति स्ववशः 'सो चेव' स एवात्मवशः । 'होइ' भवति । 'अणप्पवसो' अनात्मवशः । किं कुर्वन् ? 'अज्जाओ अणुचरंतो' आर्या अनुचरन् ॥३३७॥ गा-तब जो अवस्थामें तरुण हैं, बहुश्रुत भी नहीं हैं और न जो उत्कृष्ट तपस्वी और चारित्रवान हैं वे आर्याजनके संसर्गसे लोकापवादके भागी क्यों नहीं होंगे ? ॥३३४|| गा०-मुनि यद्यपि स्वयं स्थिर चित्तवाला हो फिर भी उसके संसर्गसे चित्तमें उल्लास पाकर आर्याका मन उसी प्रकार द्रवित होता है जैसे आगके समीपमें घी द्रवित होता है ।।३३५।। __ गा०-तथा केवल आर्याओंका संसर्ग ही त्याज्य नहीं है, बल्कि जो बाला, कन्या, तरुणी. वद्धा. सरूप. कुरूप सभी प्रकारके स्त्रीवर्गमें प्रमाद रहित होता है और कभी भी उनका विश्वास नहीं करता वही साधु ब्रह्मचर्यको जीवन पर्यन्त पार लगाता है। जो उससे विपरीत होता है अर्थात् स्त्रियोंके सम्बन्धमें प्रमादी और विश्वासी होता है वह ब्रह्मचर्यको पार नहीं कर पाता ॥३३६॥ ___ आर्याके अनुचरणमें दोष बतलाते हैं गा०-जो साधु घर, जमीन आदि समस्त परिग्रहोंसे मुक्त है वह सर्वत्र अपनेको वशमें रखता है। किन्तु वही साधु आर्याका अनुगामी होकर आत्मवशी नहीं रहता ॥३३७|| Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका खेलपडिदमप्पाणं ण तरदि जह मच्छिया विमोचेदु ं । अज्जाणुचरो ण तरदि तह अप्पाणं विमोचेदु ||३३८ || 'खेल पडिदमप्पाणं' इलेष्मपरीतमात्मानं । 'जह ण तरह मच्छिया विमोचेदुं' यथा न तरति मक्षिका विमोचयितुम् । 'तह अज्जानुचरो ण तरइ अप्पाणं विमोचेदुं' तथा आर्यांनुचरो न शक्नोति आत्मानं विमोचयितुम् ।। ३३८ ।। साधुस्स णत्थि लोए अज्जासरिसी खु बंधणे उत्रमा । चम्मेण सह अतो ण य सरिसो जोणिकसिलेसो ||३३९ || 'साधुस्स णत्थि लोए अज्जासरिसी खु बंधणे उवमा' साधोर्नास्ति लोके आर्यासदृशी बन्धने उपमा | 'चम्मेण सह अवॅतो' चर्मणा सह अपगच्छन् । 'ण य सरिसो जोणिगसिलेसो' नैव सदृशः चर्मकारश्लेषः । न केवलं आयजनो दूरत एव परिहार्यः अपि तु अन्यदपि वस्तु ||३३९।। अण्णं पि ता वत्थं जं जं साधुस्स बंधणं कुणदि । तं तं परिहरह तदो होहदि दढसंजदा तुज्झ ॥ ३४० ॥ 'अण्णं पि ता वत्थु " अन्यदपि तथाभूतं वस्तु । 'जं जं साधुस्स बंधणं कुणई' यद्यत्साधोर्वन्धनं करोति अस्वतन्त्रतां करोति । 'तं तं परिहरहं तत्तत्परिहारे उद्योगं कुरुत । 'ततः ' वस्तुत्यागात् । 'होहदि दढसंपदा तुज्झ' भवतां दृढ़संयतता गुणो भवत्येवमिति यावत् । बाह्यवस्तुनिमित्तो ह्यसंयमस्तत्त्यागे त्यक्तो भवति ॥ ३४० ॥ २९३ पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे | हंदि हु मेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा || ३४१ || 'पासत्यादीपणयं' पार्श्वस्थादिपञ्चकं पार्श्वस्थः, अवसन्नः, संसक्तः, कुशीलो, मृगचरित्रः इति पञ्च । तान् दूरतो निराकुरुत । अपरित्यागदोष माह- 'मेलणदोसेण तम्मयदा होइ' संसर्गदोषेण पार्श्वस्थादि मयता ||३४१ ॥ तन्मयता प्रतिपत्तिक्रमाख्यानायाता. गाथा - गा० - जैसे मनुष्य के कफमें फँसी हुई मक्खी उससे अपनेको छुड़ाने में असमर्थ होती है | वैसे ही आर्याका अनुगामी साधु उससे अपनेको छुड़ानेमें असमर्थ होता है ||३३८ || गा० - साधुका आर्याके साथ सहवास ऐसा बन्धन है जिसकी कोई उपमा नहीं है । चर्मके साथ ही उतरने वाला वज्रलेप भी उसके समान नहीं है ||३३९॥ गा० - साधुको केवल आर्याजनोंके संसर्गसे ही दूर नहीं रहना चाहिए किन्तु अन्य भी जो-जो वस्तु साधुको परतन्त्र करती है उस उस वस्तुको त्यागने में तत्पर रहो । उसके त्यागसे तुम्हारा संयम दृढ़ होगा । बाह्य वस्तुके निमित्तसे होने वाला असंयम उस वस्तुके त्यागसे त्यागा जाता है ॥ ३४० ॥ गा०--- पाश्वस्थ, अवसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचरित्र इन पाँच प्रकारके कुमुनियोंसे तुम सदा दूर रहो । उनसे मेल रखनेसे पुरुष उनके समान पार्श्वस्थ आदि रूप हो जाता है || ३४१ || Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ भगवती आराधना लज्जं तदो विहिंसं णिव्विसंकदं चेव । पियधम्मो वि कमेणारुहंतओ तम्मओ होइ ।।३४२।। पावस्थादिसंसर्ग कतुवांच्छन्नपि 'लज्ज' लज्जां उपारोहति । 'ततः' पश्चाद्विहिंसं असंयमजुगुप्सां करोति । कथमहमेवंविधं व्रतभङ्गं करोमि दुरंतसंसारपतनहेतुमिति । पश्चाच्चारित्रमोहोदयात्परवशः पारंभं' प्रारभते । कृतप्रारम्भो यतिरारम्भपरिग्रहादिषु निविसंकदं चेव निर्विशङ्कतामुपैति । 'पियधम्मोवि' धर्मप्रियोऽपि । 'कमेणारुहंतगो' क्रमेण प्रतिपद्यमानो लज्जादिकं । 'तम्मओं होदि' पावस्थादिरूपो भवति ॥३४२।। यद्यपि बाक्कायाभ्यां न प्रयतते तथापि मानसी पावस्थादितां प्रतिपद्यत इत्याचष्टे संविग्गस्सवि संसग्गीए पीदी तदो य वीसंभो । सदि वीसंभे य रदी होइ रदीए वि तम्मयदा ॥३४३॥ 'संविग्गस्स वि' संसारभीरोरपि यतेः । 'संसग्गीए' पार्श्वस्थादिसंसर्गेण । 'पोदी होदि' प्रीतिर्भवति । 'तदो य' प्रीतेः सकाशात । 'वीसंभो होदि' विस्रम्भो भवति । 'सदि वीसंभे य रदी' विस्रम्भे सति रतिर्भवति । पार्श्वस्थादिषु 'रदीए वि तम्मयदा' रत्या च तन्मयता ।।३४३॥ संसर्गवशाद्गुणदोषो भवतोऽचेतनेष्वपीति दृष्टान्तेन बोधयति जइ भाविज्जइ गंधेण मट्टिया सुरभिणा व इदरेण । किह जोएण ण होज्जो परगुणपरिभाविओ पुरिसो ॥३४४॥ 'जदि' यदि । 'भाविज्जई' भाव्यते वास्यते । 'गंधेण' गन्धेन, 'मट्टिया' मृत्तिका । 'सुरहिणा व इयरेण' सुरभिणा च इतरेण वा । 'कह जोएण ण होज्जो' कथं संबन्धेन न भवेत् । 'परगुणपरिभावओ पुरिसो' परेपां पार्श्वस्थादीनां गुणः परिभावितः पुरुषः ।।३४४॥ परगुणग्रहणायाह पार्श्वस्थ आदिके संसर्गसे कैसे पार्श्वस्थ आदिरूप हो जाता है यह बतलाते हैं गा०-पार्श्वस्थ आदिका संसर्ग करनेकी इच्छा रखते हुए भी लज्जा करता है। पश्चात् असंयमके प्रति ग्लानि करता है कि मैं कैसे इस प्रकार व्रत भंग करूँ. यह तो दन्त संसारमें गिराने वाला है। पश्चात चारित्र मोहके उदयसे परवश होकर असंयमका प्रारम्भ करता है। असंयमका प्रारम्भ करके यति आरम्भ परिग्रह आदिमें निःशंक होकर प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार धर्मका प्रेमी भी मुनि क्रमसे लज्जा आदि करते हुए पाश्र्वस्थ आदि रूप हो जाता है ॥३४२।। यद्यपि उनको संगतिसे वचन और कायसे तो उनके आचारमें प्रवृत्ति नहीं करता तथापि मनसे पाश्र्वस्थ आदि रूप हो जाता है यह कहते हैं गा०-संसारसे भयभीत भी मुनि पाश्र्वस्थ आदिके संसर्गसे उनसे प्रीति करने लगता है। प्रीति करनेसे उनके प्रति विश्वासी हो जाता है। उनका विश्वास करनेसे उनका अनुरागी हो जाता है और उनमें अनुराग करनेसे पार्श्वस्थादिमय हो जाता है ।।३४३॥ ___संसर्गसे अचेतन वस्तुओंमें भी गुण और दोष उत्पन्न हो जाते हैं, यह दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं___ गा०-यदि सुगन्ध अथवा दुर्गन्धके संसर्गसे मिट्टी भी सुगन्धित अथवा दुर्गन्धयुक्त हो Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २९५ जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ तारिसो चेव । वासिज्जइ च्छरिया सा रिया वि कणयादिसंगेण ।।३४५॥ दृष्टान्तत्वनोपन्यस्ता मृत्तिका छुरिका च । तथा चोक्तं सुरभिणा व इदरेण इति ॥३४५।। दुज्जणसंसग्गीए पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि । सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ॥३४६।। 'दुज्जणसंसग्गीए' दुष्टजनसंसर्गेण । 'पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि' विजहाति स्वगुणं सुजनोऽपि । 'सीयलभावं जहा उदकं पजहाद' शैत्यं भावं यथा जहात्युदकं । 'अग्गिजोएण' अग्निसम्बन्धेन । साधुः स्वगुणं जहात्यनलसम्बद्धजलमिवेति सहजगुणत्यागे दृष्टान्तः ॥ ३४६।।। सशोभनगुणेन संसर्गात् तद्वत् स्वयमप्यशोभनगुणो भवतीति कथयति सुजणो वि होइ लहुओ दुज्जणसंमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसंसिट्ठा ॥३४७॥ 'सुजणो वि होइ लहुओ' सुजनोऽपि भवति लघुः । 'दुज्जणसंमेलणाए दोसेण' दुर्जनगोष्ठीदोषेण। . 'मालावि मोल्लगरुया' मालापि सुमनसां मौल्येन लघ्वी। 'होइ' भवति। 'मडयसंसिठ्ठा' मृतकस्य संश्लिष्टा ॥३४७।। अदुष्टोऽपि दुष्ट इति शङ्ख्यते यतिः पावस्थादिगोष्ठया इत्येतदृष्टान्तेनाचष्टे दुज्जणसंसग्गीए संकिज्जदि संजदो वि दोसेण । पाणागारे दुद्धं पियंतओ बंभणो चेव ॥३४८॥ दुज्जणसंसग्गीए इति स्पष्टार्था गाथा ॥३४८॥ जाती है तो संसर्गसे पुरुष पार्श्वस्थ आदिके गुणोंसे तन्मय क्यों न होगा ? ॥३४४॥ गा०-जो जिस प्रकारकी वस्तुसे मैत्री करता है वह वैसा ही हो जाता है । स्वर्ण आदिके संसर्गसे लोहेकी छुरी भी उसी रूप हो जाती है ॥३४५॥ गा-दुष्टजनके संसर्गसे सज्जन भी अपना गुण छोड़ देता है । जैसे आगके सम्बन्धसे जल अपने शीतल स्वभावको छोड़ देता है। आगके सम्बन्धसे जलकी तरह साधु भी अपना गुण छोड़ देता है । यह स्वाभाविक गुणके त्यागमें दृष्टान्त है ॥३४६।। अशोभनीय गुण वाले मनुष्यके संसर्गसे मनुष्य उसीकी तरह स्वयं भी अशोभनीय गुणवाला हो जाता है, यह कहते हैं--- गा०-दुर्जनोंकी गोष्ठोके दोषसे सज्जन भी अपना बड़प्पन खो देता है। फूलोंकी कीमती माला भी मुर्दे पर डालनेसे अपना मूल्य खो देती है ॥३४७|| __ पार्श्वस्थ आदिके साथ संसर्ग करनेसे अच्छे भी यतिको लोग बुरा होनेकी शंका करते हैं, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं गा०-दुर्जनके संसर्गसे लोग संयमीके भी सदोष होनेकी शंका करते हैं। जैसे मद्यालयमें बैठकर दूध पीने वाले ब्राह्मणके भी मद्यपापी होनेकी शंका करते हैं ॥३४८॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ भगवती आराधना परदोसगहणलिच्छो परिवादरदो जणो खु उस्सूणं । दोसत्थाणं परिहरह तेण जणपणोगासं ॥३४९।। 'परदोसगहणलिच्छो' परदोषग्रहणेच्छावान् । 'परिवादरदो' परोक्षे परदोषवचने रतः । 'जणो' जनः । 'उस्सणं ख' नितरामेव । तेण दोसत्थाणं परिहरहतेन दोषस्थानपरिहारं कुरुत । 'जणपणोगासं' जनजल्पनावकाशं ॥३४९।। दुर्जनगोष्टी अनर्थमावत्यैहलौकिकमित्येतत्कथयति अदिसंजदो वि दुज्जणकएण दोसेण पाउणइ दोसं । जह घुगकए नोसे हंसो य हओ अपावो वि ॥३५०॥ अदिसंजदो वि इत्यनया । अतीव संयतोऽपि दुर्जनकृतेन दोषेण प्राप्नोति । 'दोसं' अनर्थ । यथोलककतदोषनिमित्तं अपापोऽपि हंसो हतः ॥३५०॥ दुर्जनगोष्टया दोषान्तरमाचष्टे दुज्जण संसग्गीए वि भाविदो सुयणमज्झयारम्मि । ण रमदि रमदि य दुज्जणमज्झे वेरग्गमवहाय ॥३५१।। 'दुज्जणसंसग्गीए वि भाविदो' दुर्जनगोष्टया भावितः। 'सुजणमज्झयारम्मि' सुजनमध्ये । 'ण रमदि' न रमते । 'रमदि य दुज्जणमझें' रमते दुर्जनमध्ये । 'वेरग्गमवहाय' वैराग्यं परित्यज्य ॥३५॥ सुजनसमाश्रयणे गुणख्यापनायोत्तरसूत्राणि जहदि य णिययं दोसं पि दुज्जणो सुयणवइयरगुणेण । जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययच्छविं जहदि ॥३५२।। 'जहदि य' जहाति निजमपि दोषं दुर्जनः सुजनमिश्रगुणेन । यथा मेरुसमाश्रयणे काको जहाति सहजा गा-लोग दूसरोंके दोषोंको पकड़नेके इच्छुक होते हैं और परोक्षमें दूसरोंके दोषोंको कहने में रस लेते हैं । इसलिए जो दोषोंका स्थान है उससे अत्यन्त दूर रहो क्योंकि; ऐसा न करनेसे लोगोंको अपवाद करनेका अवसर मिल जाता है ।।३४९।। 'दुर्जनोंकी संगति अनर्थकारी है यह एक लोक प्रचलित कथाके द्वारा कहते हैं--- गा०-महान् संयमी भी दुर्जनके द्वारा किए गये दोषसे अनर्थका भागी होता है । जैसे उल्लूके द्वारा किए गये दोषके लिए निर्दोष भी हंस मारा गया ॥३५०॥ दुर्जनोंकी संगतिका अन्य दोष कहते हैं गा०-दुर्जनोंको संगतिसे प्रभावित मनुष्यको सज्जनोंका सत्संग रुचिकर नहीं लगता। वह वैराग्यको त्यागकर दुर्जनोंमें ही रमता है ॥३५१॥ सज्जनोंके सत्संगमें गुणोंका कथन आगेकी गाथाओंसे करते हैंगा.-सज्जनोंकी संगतिके गुणसे दुर्जन अपना दोष भी छोड़ देता है । जैसे सुमेरु पर्वतका Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २९७ मपि छायामशोभनां तद्वत्तां । सन्तोऽपि दोषा नश्यन्ति सुजनाश्रयेण ततस्ते समाश्रयणीया इति भावः ॥३५२।। सुजनसमाश्रयणे अभ्युदयफलं, पूजालाभं कथयति गाथा कुसुममगंधमवि जहा देवयसेसत्ति कीरदे सीसे । ___ तह सुयणमज्झवासी वि दुज्जणो पूइओ होइ ।।३५३॥ कुसुममित्यादिका। यथा सौगन्ध्यरहितमपि कुसुमं देवताशेषेति क्रियते शिरसि तथा साधुजनमध्यवासी दुर्जनोऽपि पूजितो भवति ॥३५३।। द्रव्यसंयमे वाक्कायनिमित्तास्रवनिरोधरूपे प्रवृत्तिगुणं कथयति संविग्गाणं मज्झे अप्पियधम्मो वि कायरो वि णरो। उज्जमदि करणचरणे भावणभयमाणलज्जाहिं ।।३५४॥ संविग्गाणं मज्झे इत्यनया। संसारभीरूणां मध्ये वसन्यद्यपि धर्मप्रियो न भवति । कातरश्च' सुखे तथापि उद्युङ्क्ते पापक्रियानिवृत्तौ भावनया, भयेन, मानेन, लज्जया च ॥३५४॥ संसारभीरोरपि यतेः सुजनसमाश्रयणेन गुणमभिदधाति संविग्गोवि य संविग्गदरो संवेगमज्झयारम्मि । होइ जह गंधजुत्ती पयडिसुरभिदव्वसंजोए ॥३५५।। संविग्गोऽपि इत्यनया । प्रागपि संसारभीरुर्जनः संविग्नमध्यनिवासी संविग्नतरो भवति । यथा गन्धयुक्तिः कृतको गन्धः प्रकृतिसुरभिद्रव्यगन्धसंसर्गे सुरभितरो भवति ।।३५५॥ आश्रय लेने पर कौवा अपनी असुन्दर छविको छोड़ देता है। इसका भाव यह है कि सज्जनोंकी सत्संगतिसे विद्यमान भी दोप नष्ट हो जाते हैं अतः सज्जनोंका आश्रय लेना चाहिए ॥३५२।। सज्जनोंका आश्रय लेने पर अभ्युदय रूप फल और पूजाका लाभ होता है, यह कहते हैं गा०-जैसे सुगन्धसे रहित भी फूल 'यह देवताका आशीर्वाद है' ऐसा मानकर सिर पर धारण किया जाता है उसी प्रकार सुजनोंके मध्यमें रहने वाला दुर्जन भी पूजित होता है ।।३५३।। वचन और कायके निमित्तसे होने वाले आश्रवके रोकनेको द्रव्य संयम कहते हैं । उस द्रव्य संयममें प्रवृत्तिका लाभ कहते हैं गा-जिसको धर्मसे प्रेम नहीं है तथा जो दुःखसे डरता है वह मनुष्य भी संसार भीरु यतियोंके मध्य में रहकर भावना, भय, मान और लज्जासे पापके कार्योंसे निवत्त होनेका उद्योग करता है ।।३५४॥ संसारसे भीत यति भी सज्जनोंका सत्संग करनेसे लाभान्वित होता है यह कहते है गाo-जो मनुष्य पहले से ही संसारसे विरक्त है वह विरागियोंके मध्य में रहकर और भी अधिक विरागी हो जाता है। जैसे बनावटी गन्धसे युक्त द्रव्य स्वभावसे ही सुगन्धित द्रव्यकी गन्धके संसर्गसे और भी अधिक सुगन्धित हो जाता है ।।३५५।। १. श्चदुःखे आ० । -श्चासुखे प० । ३८ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ भगवती आराधना बहव इत्येतावता चारित्रक्षुद्रा न भवद्भिः समाश्रयणीयाः एक इति वा न सुगुणः परिहार्य इत्येतदाचष्टे वासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो वरं खु एक्को वि । जं संसिदस्स सीलं दंसणणाणचरणाणि वड्ढेति ॥३५६।। 'पासत्थसदसहस्सादो वि' पार्श्वस्थग्रहणं चारित्रक्षुद्रोपलक्षणार्थ । चारित्रक्षुद्राच्छतसहस्रादपि एकोऽपि सुशीलो वरम् । यः संयममाश्रितस्य शीलं, दर्शनं, ज्ञानं, चारित्रं च वर्द्धते, स भवदिभराश्रयणीय इति भावार्थः ॥३५६॥ संजदजणावमाणं पि वरं खु दुज्जणकदादु पूजादो । सीलविणासं दुज्जणसंसग्गी कुणदि ण दु इदरं ।।३५७।। संयताः परिभवन्ति माम सुचरितं ततः पावस्थादीनेवाश्रयामि इति न चतः कार्यमित्याचष्टे'संजदजणावमाणं पि वरं' संयतजनापमानमपि वरं। 'दुज्जणकदादु पूजादो' दुर्जन तायाः पूजायाः । कथं ? 'दुज्जणसंसग्गी सीलविणासं कुणदि' दुर्जनसंसर्गः शीलविनाशं करोति । 'न दु इदरं' न तु इतरं । संयतजनावमानं तु नैव शीलविनाशं करोति ॥३५७।। प्रस्तुतोपसंहारगाथा आसयवसेण एवं पुरिसा दोसं गुणं व पावंति । तम्हा पसत्थगुणमेव आसयं अल्लिएज्जाह ॥३५८॥ 'आसयवसेण' आश्रयवशेन । एवमुक्तेन क्रमेण । 'पुरिसा दोसं गुणं व पावंति' पुरुपा दोषं गुणं वा प्राप्नुवन्ति। ''तम्हा पसत्थगुणमेव आसयं अल्लिएज्जाह' तस्मात् प्रशस्तगुणमेव आश्रयं आश्रयेत् ॥३५८॥ __ चारित्रमें क्षुद्र यति बहुत भी हों तो आपको उनका संग नहीं करना चाहिए। और गुणशाली एक हो तो उसको उपेक्षा नहीं करना चाहिए यह कहते हैं गा०-पार्श्वस्थ अर्थात् चारित्रमें क्षुद्र यति लाख भी हों तो उनसे एक भी सुशील यतिश्रेष्ठ है जो अपने संगीके शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्रको बढ़ाता है । आपको उसीका आश्रय लेना चाहिए। गाथामें आगत 'पार्श्वस्य' शब्द जो चारित्रमें क्षुद्र हैं उन सबके उपलक्षणके लिए है ॥३५६।। गा०-संयमीजन मुझ चारित्रहीनका तिरस्कार करते हैं अतः मैं पार्श्वस्थ आदि चारित्रहीन मुनियोंके ही पास रहूँ। ऐसा मनमें विचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि दुर्जनके द्वारा की गई पूजासे संयमीजनोंके द्वारा किया गया अपमान श्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि दुर्जनका संसर्ग शोलका नाशक है किन्तु संयमीजनों द्वारा किया गया अपमान शीलका नाशक नहीं है ॥३५७॥ प्रस्तुत चर्चाका उपसंहार करते हैं गा०-उक्त प्रकारसे अच्छे बुरे आश्रयके कारण पुरुष दोष और गुणको प्राप्त करते हैं। इसलिए प्रशस्त गुणयुक्त आश्रयका ही आश्रय लेना चाहिए ॥३५८|| Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका २९९ पत्थं हिदयाणिठें पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स । कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स ।।३५९|| 'पत्थं हिदयाणिठं पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स' पथ्यं हितं हृदयस्य अनिष्टमपि वदत आत्मीयगणे वसतः । 'कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स' 'कटुकमौषधमिवापि तन्मधुरविपाकं भवति । तस्य परस्य अनिष्टेन कथितेन किमस्माकं स्वं प्रयोजनम। किन्न वेत्ति स्वयं इति नोपेक्षितव्यम् । परोपकारः कार्य एवेति कथयति । तथाहि-तीर्थकृतः विनेयजनसंबोधनार्थ एव तीर्थविहारं कुर्वन्ति । महत्ता नामैवं यतपरोपकाराबद्धपरिकरता । तथा चोक्तं क्षुद्राः संति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः । स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणी ॥ दुष्पूरोदरपूरणाय पिबति स्रोतःपति वाडवो। जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापविच्छित्तये ॥ [ ] ॥३५९।। इतरेणापि श्रवणयोरनिष्टमपि तद्ग्राह्यं इति कथयति पत्थं हिदयाणिटुं पि भण्णमाणं णरेण घेत्तव्वं । पेल्लेदूण वि छूटं बालस्स घदं व तं खु हिदं ॥३६०॥ हृदयस्यानिष्टमपि पथ्यं नरेण बुद्धिमता ग्राह्यं हितं इति चेतो निधाय । 'पेल्लेदूण वि छूढं' अवष्टभ्यापि प्रवेशितं तं बालानां हितं भवति यथा तद्वदिति यावत् ॥३६०॥ अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा । अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि ।।३६१॥ गा०-टो०-अपने गणके वासी साधुको हितकारी किन्तु हृदयको अनिष्ट भी लगनेवाले वचन बोलना चाहिए, क्योंकि वे वचन कडुवी औषधीकी तरह उसके लिए मधुर फलदायक होते हैं। दूसरेको अनिष्ट वचन बोलनेसे हमारा अपना क्या प्रयोजन है, क्या वह स्वयं नहीं जानता । ऐसा मान उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। परोपकार करना ही चाहिए। जैसे तीर्थंकर शिष्यजनोंके सम्बोधन के लिए ही विहार करते हैं। महत्ता नाम इसीका है कि परोपकार करने में तत्पर रहना । कहा भी है 'अपने ही मरण-पोषणमें लगे रहनेवाले क्षुद्रजन तो हजारों हैं किन्तु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है ऐसा पुरुष सज्जनोंमें अग्रणी विरल ही होता है। बड़वानल अपना कभी न भरनेवाला पेट भरनेके लिए समुद्रका जल पीता है। किन्तु मेघ ग्रीष्मसे संतप्त जगत्के सन्तापको दूर करनेके लिए समुद्रका जल पीता है ॥३५९|| आगे कहते हैं कि कानोंको अप्रिय भी गुरुका वचन ग्रहण करना चाहिए गा०-हृदयको अनिष्ट भी वचन गुरुके द्वारा कहे जाने पर मनुष्यको पथ्य रूपसे ग्रहण करना चाहिए। जैसे बच्चेको जबरदस्ती मुँह खोलकर पिलाया गया घी हितकारी होता है उसी तरह वह वचन भी हितकारी होता है ॥३६०।। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० भगवती आराधना 'अप्पपसंसं परिहरह आत्मप्रशंसा त्यजत सदा । 'मा होह' मा भवत । 'जसविणासयरा' यशसा विनाशकाः । सद्भिर्गुणैः प्रख्यातमपि यशो भवतां नश्यति आत्मप्रशंसया । 'अप्पाणं थोवंतो' आत्मानं स्तुवन् । 'तणलहुओ होदि हु जणम्मि' तृणवल्लघुर्भवति सुजनमध्ये ॥३६१।। संता वि गुणा कत्थंतयस्स णस्संति कजिए व सुरा । सो चेव हवदि दोसा जं सो थोएदि अप्पाणं ।।३६२।। संता वि विद्यमाना अपि 'कथंतयस्स' ममैते गुणा इति कथयतः । 'गुणा णस्संति' गुणा नश्यन्ति । कजिएव सुरा सौवीरेण सुरेव । 'सो चेव हवइ दोसो' स एव भवति दोषः । 'जं सो थोएदि अप्पाणं' यदात्मानं स्तौति सः ॥३६२॥ स्वगुणस्तवनाकरणे यदि ते नश्यन्ति तर्हि स्तोतव्याः स्युर्न तथा नश्यन्ति इत्याचष्टे संतो हि गुणा अकहिंतयस्स पुरिसस्स ण वि य णस्संति । अकहिंतस्स वि' जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो ।।३६३।। संता विद्यमाना अपि । 'अहितयस्स' अभाषमाणस्य । 'पुरिसस्स' पुरुषस्य । 'गुणा ण विय अस्संति' व नश्यन्ति । यदि न स्वयं स्तौति स्वगुणान्न प्रख्यातिमुपयान्तीत्येतच्च नेति वदति । 'अहितस्स . वि' अस्तुवतोऽपि 'गहवइणो' ग्रहपतेः आदित्यस्य ' जगविस्सुदो तेजो' जगति विश्रुतं तेजः ॥३६३॥ आत्मन्यसतां गुणानां उत्पादकं स्तवनमिति च न युज्यत इत्याह गा०-अपनी प्रशंसा करना सदाके लिए छोड़ दो। अपने यशको नष्ट मत करो क्योंकि समीचीन गुणोंके कारण फैला हुआ भी आपका यश अपनी प्रशंसा करनेसे नष्ट होता है। जो अपनी प्रशंशा करता है वह सज्जनोंके मध्यमें तृणकी तरह लघु होता है ॥३६१॥ - गा.--'मेरेमें ये ये गुण हैं' ऐसा कहने वालेमें विद्यमान भी गुण उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे काँजीके पीनेसे मदिराका नशा नष्ट हो जाता है। वह जो अपनी प्रशंसा करता है यही उसका दोष है ॥३६२।। आगे कहते हैं कि अपने गुणोंकी प्रशंसा न करनेसे यदि वे गुण नष्ट होते हों तो उनकी प्रशंसा करना उचित है किन्तु वे नष्ट नहीं होते गा-जो पुरुष अपने गुणोंकी प्रशंसा स्वयं नहीं करता उसके विद्यमान गुण नष्ट नहीं होते । यदि वह अपने गुणोंकी प्रशंसा नहीं करता तो उसके गुणोंकी प्रख्याति नहीं होती, ऐसी बात नहीं है। सूर्य अपने गुणोंको स्वयं नहीं कहता। फिर भी उसका प्रताप जगत्में प्रसिद्ध है ॥३६३।। आगे कहते हैं कि अपनी प्रशंसा करनेसे अपनेमें अविद्यमान भी गुण प्रकंट होते हैं ऐसा कहना युक्त नहीं है १. वि गहवइणो णो जगविस्सदो-आ० । २. त्यस्य णो जग विस्सुदो तेजो न जगति विश्रुतं तेजःआ० मु० । ३. ति वचनं-आ० मु० । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदयाटीका ३०१ ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स । धंति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव ॥३६४।। 'ण य जायंति असंता गुणा' नैवोत्पद्यन्ते असंतो गुणाः । विकत्थंतयस्स स्तुवतः । 'धंति' नितरां 'महिलायंतो व' वामलोचनेव आचरन्नपि । 'पंडगो पंडगो चेव' षंढः षंढः एव भवति न युवतिः ॥३६४॥ संतं सगुणं कित्तिज्जंतं सुजणो जणम्मि सोदण । लज्जदि किह पुण सयमेव अप्पगुणकित्तणं कुज्जा ॥३६५।। 'संतं सगुणं कित्तिज्जतं' विद्यमानमपि स्व गुण कीर्त्यमानं । 'सुजणो जणम्मि सोदूण' साधुजनस्य मध्ये श्रुत्वा । 'लज्जइ' व्रीडामुपैति । 'किह पुण' कथं पुनः ‘सयमेव अप्पगुणकित्तणं कुज्जा' स्वयमेवात्मनो गुणकीर्तनं कुर्यात् ॥३६५॥ स्वगुणासंकीर्तने गुणमाचष्टे अविकत्थंतो अगुणो वि होइ सगुणो व सुजणमज्झम्मि । सो चेव होदि हु गुणो जं अप्पाणं ण थोएइ ।।३६६।। 'अविकत्यंतो अगुणो वि होइ' अकीर्तयन् स्वयमगुणोऽपि भवति । 'सगुणो व' गुणवानिव । 'सुजणमज्झम्मि' सुजनमध्ये । परस्परव्याहतमिदं वचः 'अगुणस्स गुण' इति एतस्यामाशंकायामाह-'सो चेव होदि गुणो' स एव गुणो भवति । 'जं अप्पाणं ण थोएदि' यदात्मानं न स्तीति । समीचीनज्ञानदर्शनादिगुणाभावानिर्गुणाः, आत्मप्रशंसाऽकरणगुणेन गुणवानिति भावार्थः ।। यदि सन्ति गुणस्तस्य निकषे सन्ति ते स्वयम् । न हि कस्तूरिकागन्धः शपथेन विभाव्यते ॥ [ ] ॥३६६॥ वायाए जं कहणं गुणाण तं णासणं हवे तेसिं । होदि हु चरिदेण गुणाणकहणमुब्भासणं तेसिं ॥३६७।। गा०-अपने गणोंकी प्रशंसा करने वाले परुषमें अविद्यमान गण प्रशंसा करनेसे उत्पन्न नहीं होते ! स्त्रीकी तरह खूब हाव-भाव करने पर भी नपुंसक नपुंसक ही रहता है, युवति नहीं वन जाता ॥३६४॥ ___ गा०-सज्जन मनुष्योंके बीचमें अपने विद्यमान भी गुणकी प्रशंसा सुनकर लज्जित होता है । तब वह स्वयं ही अपने गुणोंकी प्रशंसा कैसे कर सकता है ॥३६५।। अपने गुणोंकी प्रशंसा न करनेके गुण कहते हैं गा०-अपनी प्रशंसा न करनेवाला स्वयं गुणरहित होते हुए भी सज्जनोंके मध्यमें गुणवान्की तरह होता है। गुणरहितको गुणवान कहना तो परस्पर विरुद्ध है, ऐसी आशंका करनेपर कहते हैं-वह जो अपनी प्रशंसा नहीं करता यही उसका गुण है। भावार्थ यह है कि सम्यग्ज्ञानदर्शन आदि गुणोंका अभाव होनेसे वह गुणरहित हैं किन्तु अपनी प्रशंसा न करनेके गुणसे गुणवान् है। 'यदि उसमें गुण हैं तो वे स्वयं कसौटीपर कसे जायेंगे। कस्तूरीकी गन्धके लिए शपथ करना नहीं होता ॥३६६॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ भगवती आराधना 'वायाए जं कहणं' वाचा गुणानां यत्कथनं । 'तं पासणं हवे तेसि' तन्नाशनं भवेत्तेषा गुण.ना । 'चरिदेहि गुणाण कहणं' चरितैरेव गुणानां कथनं 'तेसिमुन्भासणं होइ' गुणानां प्रकटनं भवति । एतदुक्त भवति-गुणान्प्रकटयितुकामस्य यद्वाचा कथनं गुणेष्वात्मनः प्रवृत्तिरेव गुणप्रकाशनं इति ॥३६७।। 'चरितेन गुणप्रकाशनस्य माहात्म्यं कथयति ___ वायाए अकहेंता सुजणे विकतहेंया य चरिदेहिं । सगुणे पुरिसाण पुरिसा होंति उवरीव लोगम्मि ।।३६८।। 'वायाए अहिता' वाचया अकथयन्तः । 'सुजणे' साधुजनमध्ये । 'चरिदेहि विहितगा य' चरितः प्रतिपादयन्तः । 'सगुणे' आत्मीयान्गुणान् । 'पुरिसाणं पुरिसा लोगम्मि उवरोव होंति' पुरुषाणामुपरीव भवन्ति पुरुषा लोके ॥३६८॥ सगुणम्मि जणे सगुणो वि होह लहुगो णरो विकस्थितो । सगुणो वा अकहितो वायाए होंति अगुणेसु ।।३६९।। ‘सगुणम्मि जणे' गुणवति जने । 'सगुणो वि गरो' गुणवानपि नरः । 'लहुगो होदि' लघुर्भवति । कः ? 'सगुणं गरो विकत्यंतो' स्वगुणं नरो वाचा निरूपयन् । किमिव ‘सगुणो वा' गुणवानिव । 'वाचा अकप्यतो' वचनेन अप्रकटयन् । 'अगुणेसु' निगुणमध्ये ।।३६९।। चरिएहिं कत्थमाणो सगुणं सगुणेसु सोभदे सगुणो । वायाए विकहितो अगुणो व जणम्मि अगुणम्मि ॥३७०॥ 'चरिएहिं कत्थमाणो' चरितैरेव प्रकटयन् । किं 'सगुणं' स्वगुणं । 'सगुणो सोभदे' गुणवान् जनः शोभते । क्व 'सगुणेसु' गुणवत्सु । किमिव 'वायाए विकथंतो' वचसा हुवन् । 'अगुणोव्व' निर्गुण इव । 'अगुणम्मि' निर्गुणमध्ये ॥३७०।। __गा०-वचनसे गुणोंको कहना उनका नाश करना है। और आचरणसे गुणोंका कथन उनको प्रकट करना है। अभिप्राय यह है कि जो गुणोंको प्रकट करना चाहता है उसे वचनसे न कहकर गुणोंमें अपनी प्रवृत्तिसे ही गुणोंका प्रकाशन करना चाहिए ॥३६७।। अपने आचरणसे गुणोंको प्रकट करनेका माहात्म्य कहते हैं गा.--जो वचनसे न कहकर साधुजनके मध्यमें अपने आचरणसे अपने गुणोंको कहते हैं पुरुष लोकमें सब पुरुषोंसे ऊपर होते है ।।३६८॥ गा०-गुणवान पुरुषोंमें गुणवान भी मनुष्य यदि अपने गुणोंको कहता है सो लघु होता है । जैसे निर्गुणोंके मध्यमें अपने गुणोंको न कहने वाला गुणवान होता है ।।३६९।। . गा०-गुणवानोंमें गुणवान मनुष्य अपने गुणको अपने आचरणसे प्रकट करता हुआ ही शोभता हैं। जैसे निर्गुण मनुष्योंमें निर्गुण मनुष्य वचनसे अपने गुणोंको कहता हुआ शोभित होता है ||३७०॥ १. नेयं उत्थानिका । -आ० मु० । २. 'वायाए अकहिंता सुजणे वरिदेहिं कहयगा होति । विकहितगा य सगुणे पुरिसा लोगम्मि उवरीव ।।' -आ० मु० । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ३०३ सगणे व परगणे वा परपरिपवादं च मा करेज्जाह । __ अच्चासादणविरदा होह सदा वज्जभीरू य ॥३७१।। 'सगणे व परगणेवा परपरिवादं च मा करेज्जाह' आत्मीये गणे परगणे वा परापवादं मा कृथाः । 'अच्चासादणविरदा य होह' अत्यासादनतो विरता भवत । 'सदा वज्जभीरू य' पापभीरवश्च भवत ॥३७१।। परनिन्दया दोषमाचष्टे आयासवेरभयदुक्खसोयलहुगत्तणाणि य करेइ ।। परणिंदा वि हु पावा दोहग्गकरी सुयणवेसा ॥३७२।। स्पष्टार्था गाथा ॥३७२।। परनिन्दा किमर्थं क्रियते गुणित्वे स्थापयितुमात्मानमिति चेत्, तन्निराकरोति किच्चा परस्स जिंदं जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज । सो इच्छदि आरोग्गं परम्मि कडुओसहे पीए ।।३७३।। 'किच्चा परस्स णिदं' परनिन्दां कृत्वा । 'जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज' य आत्मानं गुणितायां स्थापयितुमिच्छेत । 'सो इच्छदि स वांछति । कि 'आरोग्गं' नीरोगतां । 'परम्मि कडगोसधे पोदे' कटकौषधपायिन्यस्मिन् ॥३७२॥ सत्पुरुषक्रमं व्याचष्टे दळूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ । रक्खइ य सयं दोसंव तयं जणजेपणभएण ॥३७४॥ 'दठूण अण्णदोस' अन्यस्य दोपं दृष्ट्वा । 'सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होदि' सत्पुरुषः स्वयं लज्जामुपैति । 'रक्खड़ सयं दोसं व' स्वदोषमिव च रक्षति । 'जणजपणभयेण' जननिन्दाभयेन ॥३७४।। गा० - अपने गणमें अथवा दूसरे गणमें दूसरोंकी निन्दा नहीं करना चाहिये। तथा अति आसादनासे विरत रहो और सदा पापसे डरो ॥३७१।। पर निन्दाका दोष कहते हैं गा-परनिन्दा आयास, वैर, भय, दुःख, शोक और लघुताको करती है पापरूप है, दुर्भाग्यको लाती है और सज्जनोंको अप्रिय है ।।३७२।। __जो कहते हैं कि अपनेको गुणी कहलाने के लिये परनिन्दा की जाती हैं उनका निराकरण करते हैं गा०-जो परको निन्दा करके अपनेको गुणी कहलानेकी इच्छा करता है वह दूसरेके द्वारा कडुवी औषधी पीनेपर अपनी नीरोगता चाहता है । अर्थात् जैसे दूसरेके औषधी पीनेपर आप नीरोग नहीं हो सकता। वैसे ही दूसरेकी निन्दा करके कोई स्वयं गुणी नहीं बन सकता ॥३७३|| ___ गा०-सत्पुरुष दूसरोंके दोष देखकर स्वयं लज्जित होता है। लोकापवादके भयसे वह अपनी तरह दूसरोंके भी दोषोंको छिपाता है ॥३७४।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ भगवती आराधना अप्पो वि वरस्स गुणो सप्पुरिसं पप्प बहुदरों होदि । उदए व तेल्लबिंद किह सो जंपिहिदि परदोस ।।३७५।। 'अप्पो वि परस्स गुणो' परस्य गुणः स्वल्पोऽपि । 'सप्पुरिसं पप्प' सत्पुरुषं प्राप्य । 'बहुदरो होई' अतिमहान् भवति । 'उदए व तेल्लबिन्दू' उदके तैलबिन्दुरिव । 'किह सो जंपिहिदि परदोसं' कथमसी इत्थंभूतः जल्पति परस्य दोषं ॥३७५।।। एसो सब्वसमासो तह जतह जह हवेज्ज सुजणम्मि । तुझं गुणेहिं जणिदा सव्वत्थ वि विस्सुदा कित्ती ॥३७६।। ‘एसो सध्वसमासो' एष सर्वस्योपदेशस्य संक्षेपः । 'तह जतह' तथा यतध्वं । 'जह हवेज्ज सुजणम्मि' यथा भवेत्सुजने । 'तुज्झं गुणेहिं जणिदा सम्वत्थ वि विस्सुदा कित्ती' युष्माकं गुणैर्जनिता सर्वत्रापि विश्रुता कीर्तिः ॥३७६॥ कासौ संयतानां कीर्तिरिति शंकायामुच्यते एस अखंडियसीलो बहुस्सुदो य अपरोवतावी य । चरणगुणसुठ्ठिदोत्तिय धण्णस्स खु घोसणा भमदि ।।३७७।। ‘एस अखंडियसीलो' एष अखंडितसमाधिः । 'बहुस्सुदो य' बहुश्रुतश्च । 'अपरोवतावी य' अपरोपता'. पकारी च । 'चरणगुणसुट्टिदोत्ति य' सुचारित्रगुणैः सुस्थित इति । 'धण्णस्स खु' पुष्यवतः । 'घोसणा भमइ' यशो विचरति ॥३७७॥ एवं गुरूपदेशं श्रुत्वा गणः बाढत्ति भाणिणं ऐदं णो मंगलेत्ति य गणो सो । गुरुगुणपरिणदभावो आणंदसुं णिवाणेइ ।।३७८॥ 'वाढत्ति भाणिदणं' वाढमित्युक्त्वा । 'एदं णो मंगलोत्ति य' एतद्भवतां वचनं अस्माकं मंगलं नितरां इत्युक्त्वा । 'गुरुगुणपरिणदभावो' गुरोर्गुणेषु परिणतचित्तः । 'आणंदंसुणिवाडे इ' आनन्दाथु निपात गा०-दूसरेका छोटासा भी गुण सत्पुरुषको पाकर अतिमहान हो जाता है । जैसे तेलकी बूंद पानीमें फैलकर महान हो जाती है। तब वह सत्पुरुष दूसरेके दोपको कैसे कह सकता हैं ।।३७५।। गा०-- यह समस्त उपदेश का सार है । ऐसा यत्न करो जिससे सज्जनोंमें तुम्हारे गुणोंसे उत्पन्न हुई कोर्ति सर्वत्र फैले ॥३७६।। संयमी जनोंकी वह कीर्ति क्या है, यह बतलाते हैं गा०-यह साधु अखण्डित समाधिके धारी हैं, बहुश्रुत हैं, दूसरोंको कष्ट नहीं देते, और चारित्रगुणमें अच्छी तरह स्थित हैं । पुण्यशालीका यह यश सर्वत्र फैलता है ।।३७७|| गा०-इस प्रकार गुरुका उपदेश सुनकर संघ 'हमें स्वीकार है' ऐसा कहकर आपके ये वचन हमारे लिये अत्यन्त मंगल कारक है ऐसा कहता है । तथा गुरुके गुणोंमें मन लगाकर १. ताप इव कारी । -आ० । २. चरइ । -अ० आ० । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याति || ३७८|| विजयोदया टीका भगवं अणुग्गहों मे जं तु सदेहोव्व पालिदा अम्हे । सारणवारणपडिचोदणाओ धण्णा हु पावेंति ||३७९ ॥ 'भगवं अणुंग्गहो में' भगवन्ननुग्रहोऽस्माकं । 'जं तु सवेहोव्व पालिदा अम्हे' यत्स्वशरीरमिव पालिता वयम् | 'सारणवारणपडिचोयणाओ' एवं कुरुत, "मैवं कृथाः इति शिक्षा । 'धण्णा पावेति' धन्याः प्राप्नुवन्ति ।। ३७९ ।। अम्हे वि खमावेमो जं अण्णाणा पमादरागेहिं । पडिलोमिदा य आणा हिदोवदेसं करिताणं || ३८० || 'अम्हे विमावेमो' वयमपि क्षमां ग्राहयामः । 'अण्णाणा' अज्ञानात् । 'पमादरार्गोह' प्रमादाद्रागाच्च । 'जं पडिलोमिदा अम्हे' भवतां प्रतिकूलवृत्तयो यद्वयं जाताः । ' आणाहिदोवदेसं करंताणं' आज्ञां हितोपदेशं कुर्वताम् ||३८० ॥ सहिदय सकण्णयाओ कदा सचक्खू य लद्धसिद्धिपहा । तुझ वियोगेण पुणो णट्ठदिसाओ भविस्सामो || ३८१ ।। ३०५ 'सहिदय सकण्णयाओ' सहृदयाः सकर्णकाश्च जाताः । 'कदा सचक्खू य' कृताः सलोचनाः । 'लद्धसिद्धिपहा ' लब्धसिद्धिमार्गाः । 'तुज्झ वियोगेण पुणो भवद्भधो वियोगेन पुनः । 'णट्ठदिसाओ' नष्टदिक्काः । 'भविस्सामो' भविष्यामः ॥ ३८१ ॥ सव्वजयजीव दिए थेरे सव्वजगजीवणाथम्मि पवसंतेय मरते देसा किर सुण्णया होंति ।। ३८२ ॥ 'सन्वजयजी वहिदगे' सर्वस्मिञ्जगति ये जीवाः तेषां हिते । 'थेरे' ज्ञानतपोवृद्धे । 'सव्वजग जीव आनन्दके आँसू गिराता है || ३७८|| गा०—भगवत् ! आपका हमपर बड़ा अनुग्रह है । आपने अपने शरीर की तरह हमारा पालन किया है । तथा 'यह करो' और 'यह मत करो' इत्यादि शिक्षा दी है । भाग्यशाली ही ऐसी शिक्षा प्राप्त करते हैं ||३७९ ॥ गा० - आपकी आज्ञा और हितका उपदेश करनेपर हमने जो अज्ञान प्रमाद और रागवश उसके प्रतिकूल आचरण किया, उसके लिये हम भी आपसे क्षमा माँगते हैं ||३८० || -- १. मा कुरुत मु० ! ३९ गा०- - आपने हमें हृदय युक्त अर्थात् विचारशील बनाया । हमें सकर्ण बनाया अर्थात् आपके उपदेश सुनकर कानोंका फल प्राप्त किया । आपने हमें आँखें प्रदान कीं अर्थात् हमें शास्त्र स्वाध्यायमें लगाया । तथा आपके प्रसादसे हमने मोक्षका मार्ग प्राप्त किया । अब आपके वियोग से हम दिशाहीन हो जायेंगे। हमें कोई मार्ग दिखाने वाला नहीं रहेगा || ३८१ ॥ गा०—समस्त जगत् के जीवोंका हित करने वाले, ज्ञान और तपसे वृद्ध तथा समस्त जगत् Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ भगवती आराधना णाथमि' सर्वजगतो जीवानां नाथे । 'पवसंते य मरते' प्रवासं मृति वा प्रतिपद्यमाने । 'देसा किर सुण्णया होंति' देशाः किल शून्या भवन्ति ॥ ३८२॥ सव्वजयजीव दिए थेरे सव्वजगजीवणाथम्मि | पवसंतेय मरते होदि हु देसोंधयारोव्व ॥ ३८३ ॥ सीलड्ढगुणड्ढे हिंदु बहुस्सुदेहिं अवरोवतावीहि । पवसंते य मरते देसा ओखंडिया होंति || ३८४|| 'सीलड्ढगुणढह दु बहुस्सुर्दोह अवरोवतावीहि' शीलाढ्य बहुश्रुतैः अपरोपतापिभिः । 'पवसंते य मरते' मृति प्रवासं वा प्रतिपद्यमानैः । 'देसा ओखंडिदा होंति' जनपदा अवखंडिता भवन्ति । गतार्थोत्तरा गाथा ||३८४ ॥ सव्वस्स दायगाणं समसुहदुक्खाण णिष्पकंपाणं । दुक्खं खु विसहिदुं जे चिरप्पवासो वरगुरूणं ||३८५ ॥ 'सव्वस्स दायगाणं' ज्ञानदर्शनचारित्रतपोदानोद्यतानां । 'समसुहदुक्खाण' सुखदुःखयोः समानानां । 'णिष्पकंपाणं' परीषहेभ्यो निश्चलानां । 'वरगुरूणं' महतां गुरूणां । 'चिरप्पवासी' चिरकालप्रवासी वियोगः । 'दुक्खणं ख विसहिदु जे' सोढुमतीव दुष्करं ॥ ३८५॥ एवं परिसमाप्य अनुशासनाधिकारं परगणचर्यां निरूपयति एवं आउच्छित्ता सगणं अब्भुज्जदं पविहरंतो । आराघणाणिमित्तं परगणगमणे मई कुणदि || ३८६|| 'एवं आउच्छित्ता' आपृच्छघ । 'सगणं' स्वगणं । 'अब्भुज्जदं पविहरन्तो' प्रकर्षेण रत्नत्रये प्रवर्तमानः । 'आराहणाणिमित्तं' आराधनानिमित्तं । 'परगणगमणे मई कुणई' परगणगमने मति करोति ॥ ३८६|| के जीवोंके स्वामीके अन्यत्र चले जानेपर अथवा मरणको प्राप्त होनेपर देश शून्य हो जाते हैं ||३८२|| गा०- समस्त जगत् के जीवोंके हितकारी, ज्ञान और तपसे वृद्ध तथा सब जगत् के जीवों के स्वामीके अन्यत्र चले जाने या मरणको प्राप्त होनेपर देशमें अन्धकार-सा छा जाता है ||३८३ || गा० - शीलसे सम्पन्न और गुणोंसे समृद्ध, बहुश्रुत तथा दूसरोंको संताप न देने वाले महर्षियोंके प्रवासमें जानेपर या मरणको प्राप्त होनेपर सब देश उजाड़ सा प्रतीत होते हैं ॥ ३८४॥ गा० - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपका दान करनेमें तत्पर रहते हैं, सुख और दुःख में समभाव रखते हैं तथा परीषहोंसे विचलित नहीं होते उन महान गुरुओंके वियोगका दुःख सहना अति कठिन है ||३८५ || इस प्रकार अनुशासन अधिकार को समाप्त करके परगणचर्याका कथन करते हैं गा० - इस प्रकार अपने गण से पूछकर रत्नत्रयमें उत्कृष्ट रूपसे प्रवृत्ति करने में तत्पर आचार्य आराधना करनेके लिये दूसरे गण में जानेका विचार स्थिर करते हैं ।। ३८६|| Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३०७ किमर्थं परगणप्रवेशं करोति इत्याशङ्कायां स्वगणावस्थाने दोषमाचष्टे सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणादी य । णिब्भयसिणेहकालुणियझाणविग्यो य असमाधी ॥३८७।। 'सगणे आणाकोवो' आत्मीये गणे आज्ञाकोपः । 'फरुसं कलहपरिदावणादो य' परुषवचनं कलहो, दुःस्वादीनि च । 'णिन्भयसिणेहकोलुणिगझाणविग्घो य' निर्भयता, स्नेहः कारुण्यं, ध्यानविघ्नः । 'असमाहो' असमाधिश्च ॥३८७॥ उड्डाहकरा थेरा कालहिया खुड्डया खरा सेहा । आणाको गणिणो करेज्ज तो होज्ज असमाही ।।३८८।। 'उड्डाहकरा थेरा' अयशः संपादकाः स्थविराः । 'कालहिगा' कलहकराः । 'खुडगा' क्षुल्लकाः । 'खरा सेहा' परुषा अमार्गज्ञाः । 'आणाकोवं गणिणो करेज्ज' आज्ञाकोपं सूरैः कुर्युः । 'तो होज्ज असमाही' तस्मादाज्ञाकोपाद्भवेदसमाधिः ॥३८८॥ स्वगणे स्थविरादिकृतमसमाधिकरमाज्ञाकोपं दर्शयति परगणवासी य पुणो अन्वावारो गणी हवदि तेसु । णत्थि य असमाहाणं आणाकोवम्मि वि कदम्मि ॥३८९॥ परगणेऽप्यमी सन्त्येव स्थविरादयस्तत्राप्यसमाधानं स्यादेवास्येति शङ्कां निरस्यति । 'परगणवासी य' यः परगणे वसति गणी सो। 'अन्वायारो'ऽव्यापारः तेषु शिक्षाव्यापाररहितः । तेन आज्ञाकोपो न विद्यते किसलिये दूसरे गणमें जाते हैं ? ऐसी आशंका होने पर अपने गणमें रहनेके दोष कहते हैं गा०-अपने गणमें रहनेपर आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दुख आदि, निर्भयता, स्नेह, करुणा, ध्यानमें विघ्न और असमाधि ये नौ दोष होते हैं । विशेषार्थ-अपने संघमें रहने पर किसी को आज्ञा दे और वह न माने तो परिणामोंमें क्रोधभाव हो जाय । जो कोई गलती करे तो उसे अपना जान कठोर वचन वोला जाय । किसीको हितकी प्रेरणा करें और वह न माने तो कलह पैदा हो जाय । किसीको दोष करते देखकर मनमें संताप पैदा हो सकता है। रोगवश अपने ही परिणाम बिगड़ जाये तो किसीका भय न होनेसे अयोग्य आचरण भी कर सकता है। मरते समय परिचित साधुओंमें स्नेह भाव आ सकता है। या किसी को दुःखी देखकर करुणा भाव हो सकता है। ध्यानमें वाधा पड़ सकती है और समाधि नहीं बन सकती । ये दोष अपने गणमें रहकर समाधि करने में हैं ।।३८७।। गा०तथा अपने गणमें ही रहे तो किसी भी बातको लेकर वृद्ध मुनि अपयश कर सकते है। किसीको शिक्षा देनेपर क्षुद्र अज्ञानी कलह करते हैं। मार्गको नहीं जानने वाले और कठोर स्वभाववाले मुनि आचार्यकी आज्ञा न माने तो आचार्यको कोप उत्पन्न होनेसे समाधि बिगड़ जाती है ॥३८८॥ . . गा०-दूसरे गणमें भी ये वृद्ध मुनि आदि होते ही है, अतः वहाँ भी उनकी असमाधि हो सकती है, इस शंका को दूर करते हैं जो आचार्य अपना गण त्यागकर दूसरे गणमें रहता है उसे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ भगवती आराधना आज्ञाभङ्गो नास्तीत्यर्थः । 'णस्थि य असमाधाणं' नास्ति च असमाधिः । 'आण.कोम्मि वि कदम्मि' आज्ञाभङ्गे कृतेऽपि ममानुपकारिणो वचनमिमे किमर्थं कुर्वन्ति इति चेतः प्रणिधानात् ।।३८९।। ___ आज्ञाकोपदोषं अभिधाय द्वितीयं व्याचष्टे खुड्डे थेरे सेहे असंवुडे दट्टण कुणइ वा परुसं । ममिकारेण भणेज्जो भणिज्ज वा तेहिं परुसेण ॥३९०॥ __'खुड्डे थेरे सेहे' क्षुल्लकान्स्थविरानमार्गज्ञांश्चः । 'असंवुडे' असंवृतान् असंयतान् । 'विठूण' दृष्ट्वा । 'कुणदि वा परुसं' करोति वा परुषं । 'ममिकारेण भणेज्जो' ममत्वेन वदेद्वा परुषं । 'भणिज्ज वा तेहिं परुसेण' भण्येत वा गणी तैः परुषं वचः ॥३९०॥ कलहं पूर्वान व्याचष्टे पडिचोदणासहणदाए होज्ज गणिणो वि तेहिं सह कलहो । परिदावणादिदोसा य होज्ज गणिणो व तेसिं वा ॥३९॥ 'पडिचोदणासहणादाए' गुरुशिक्षासहनेन । 'होज्ज कलहो तेहि गणिणो वि' भवेत्कलहरतैः क्षुल्लकादिभिः सह गणिनः । 'परिदावणाविदोसा होज्ज' दुःखादिदोषा भवेयुः । 'गणिणो व तेसिं च' गणिनस्तेषां क्षुल्लकादीनां वा कलहः ।।३९१॥ ___ कलहपरिदावणादीय इत्येतत्सूत्रपदं प्रकारान्तरेणापि व्याचष्टे कलहपरिदावणादी दोसे व अमाउले करतेसु । गणिणो हवेज्ज सगणे ममत्तिदोसेण असमाधी ।।३९२॥ 'कलहपरिदावणादी दोसे व' कलहं परितापादिदोषं वा। 'अमाकुले करतेसु' गणेन सह कुर्वत्सु क्षुल्लकादिषु । 'गणिणो हवेज्ज सगणे ममत्तिदोसेण असमाधी' गणिनो भवेन्ममतादोषेण असमाधिः ॥३९२॥ वहाँ शिक्षा आदि देनेका काम नहीं रहता। इससे वहाँ आज्ञा भंगका प्रश्न नहीं रहता। आज्ञा भंग होने पर भी वह मनमें विचारता है कि मैंने इनका कोई उपकार तो किया नहीं, तब ये मेरी आज्ञाका पालन क्यों करेंगे? अतः आज्ञा भंग होने पर भी असमाधि नहीं होती ॥३८९|| आज्ञाकोप दोषको कहकर दूसरे दोषको कहते हैं गा०-गुणोसे हीन क्षुद्र मुनियों, तपसे वृद्ध स्थविरों और रत्नत्रय रूप मार्गको न जानने वालोंको असंयमरूप प्रवृत्ति करते हुए देखकर 'ये हमारे शिष्य हैं, संघके हैं। इस प्रकारके ममत्व भावसे उनके प्रति कठोर वचन कहा जाये अथवा वे क्षुद्र आदि उन्हें कठोर वचन कहें, यह दूसरा दोष है ।।३९०॥ पूर्वार्द्धसे कलह दोष कहते हैं गा०-गुरुकी शिक्षाको सहन न करनेसे आचार्यकी भी उन क्षुद्र आदिके साथ कलह हो सकती है। और उससे आचार्यको अथवा उन क्षुद्र आदि मुनियोंको दुःख आदि दोष होते हैं ॥३९१॥ 'कलहपरिदावणीदीय' इस गाथाका प्रकारान्तरसे कथन करते हैं गा०-वे क्षुद्र आदि गणमें कलह परिताप आदि दोष करें तो उसे देखकर ममत्व भावसे आचार्यकी असमाधि हो सकती है ॥३९२।। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका परितावणादि इत्येतत्सूत्रपदं अन्यथा व्याचष्टे रोगादंकादीहिं य सगणे परिदावणादिपत्तेसु । गणिणो हवेज्ज दुक्खं असमाही वा सिणेहो वा ॥३९३॥ 'रोगातकादीहिं य' अल्पैर्महद्भिाध्यादिभिः । 'परिदावणादिपत्तेसु' परितापनादिप्राप्तेषु । 'सगणे' आत्मीयशिष्यवर्गे । 'गणिणो हवेज्ज दु:क्सा' आचार्यस्य भवेदुःखं । 'असमाही वा सिणेहो वा' असमाधिर्वा स्नेहो वा ॥३९३॥ तण्हादिएसु सहणिज्जेसु वि सगणम्मिणिब्भओ संतो। जाएज्ज व सेएज्ज व अकप्पिदं कि पि वीसत्थो ॥३९४॥ 'तण्हादिएसु सहणिज्जेसु वि' पिपासादिकेषु परीषहेषु सहनीयेष्वपि । 'सगणम्मि णिन्भओ संतो' स्वगणे निर्भयः सन । 'जाएज्ज व सेवज्ज व' याचते वा सेवते वा । 'अकप्पियं' अयोग्यं किञ्चित्प्रत्याख्यातमशनं पानं वा। 'वीसत्थो' विश्वस्तः भयलज्जाविरहितः ॥३९४|| सिणेह इत्यस्य व्याख्या उढ्ढे सअंकवदिढय बाले अज्जाउ तह अणाहाओ । पासंतस्स सिणेही हवेज्ज अच्चंतियविओगे ॥३९५॥ उड्ढे सअंकड्ढिय इत्यादिका वृद्धान्यतीन्स्वांकद्धितबालान् यतींस्तथा आयिकाः, अनाथाः पश्यतः स्नेहो भवेदात्यन्तिके वियोगे ॥३९५॥ कोलुगिण इत्येतद्व्याचष्टे खड्डा य खड्डियाओ अज्जाओ वि य करेज्ज कोलणियं । तो होज्ज ज्झाणविग्यो असमाधी वा गणधरस्स ॥३९६॥ 'परितावणादि' इस गाथा पदको दूसरे प्रकारसे कहते हैं गा०-अपने शिष्य वर्गके छोटी बड़ी व्याधियोंसे पीड़ित होने पर आचार्यको दुःख हो सकता है । अथवा स्नेह पैदा हो सकता है और उससे समाधिकी हानि हो सकती है ।।३९३॥ . गा०-अपने गणमें रहकर समाधि करने पर प्यास आदि की परीषह सहने योग्य होने पर भी निर्भय होकर और भय तथा लज्जा को त्याग अयोग्य की भी याचना अथवा सकता। जो त्याग दिया है खानपान, उसको भी मांग सकता है या उसका सेवन कर सकता है, क्योंकि वहाँ उसे कोई भय नहीं है सब उसीके शिष्यगण हैं ॥३९४।। स्नेह का कथन करते हैं गा०-वृद्ध यतियोंको, जिन्हें बचपनसे अपनी गोदमें बैठाकर पाला है उन बाल यतियोको, आर्यिकाओंको अनाथ होते देखकर मरते समय सर्वदाके लिए वियोग होने पर स्नेह पैदा हो सकता है ॥३९५॥ 'कोलुगिण' पदका व्याख्या न करते हैं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'खुड्डा य खुड्डियाओ' क्षुल्लका, क्षुल्लिक्यः आर्याः कुर्युरारटनं । ततो ध्यानविघ्नोऽसंमाधिर्वा गणधरस्य भवतीति ॥ ३९६ ॥ ३१० कारुण्यं विवृणोति - भत्ते वा पाणे वा सुस्साए व सिस्सवग्गम्मि । कुव्वतम्मि पमादं असमाधी होज्ज गणवदिणो ॥ ३९७ || 'भत्तं वा पाणे वा' भक्ते पाने वा शुश्रूषायां वा प्रमादं शिष्यवर्गे कुर्वति गणपतेरसमाधिर्भवति ॥ ३९७ ॥ दे दोसा गणिणो विसेसदो होंति सगणवासिस्स । भिक्खुस्स वि तारिसयस्स होंति पाएण ते दोसा ||३९८ || 'एदे दोसा गणिणो विसेसदो होंदि' एते दोषा विशेषतो भवन्ति स्वगणे वसतः । 'भिक्खस्स वि तारिसयस्स' भिक्षोरपि तादृशस्स उपाध्यायस्य, प्रवर्तकस्य वा भवन्ति प्रायेण ते दोषाः || ३९८॥ एदे सव्वे दोसा न होंति परगणणिवासिणो गणिणो । तम्हा सगणं पहिय वच्चदि सो परगणं समाधीए || ३९९ ।। एदे सव्वे दोसा ण होंदि' एते सर्वे दोषा न भवन्ति । 'परगणणिवासिणो गणिणो' परगणनिवासिनो गणधरस्य । तस्मात्स्वगणं परित्यज्य व्रजति परगणं समाधये ।। ३९९ ।। संते सगणे अहं रोचेदूणागदो गणमिमोति । सव्वादरसत्तीए भत्तीए वट्टइ गणो से || ४००॥ 'संते सगणे' सत्यपि स्वगणे अस्मद्गणे जातरुचिरागतो गणमिममिति सर्वादरेण भक्त्या च गणो वर्तते ॥४०० || गा० - क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएँ अर्थात् बालमुनि और आर्यिका भी गुरुका वियोग होते देख रो पड़ते हैं तो आचार्यके ध्यानमें विघ्न और असमाधि होती है ||३९६ || गा० - खानपान और सेवा टहलमें शिष्यवर्ग के प्रमाद करने पर आचार्यकी असमाधि हो सकती है । अर्थात् आचार्यको यह विकल्प पैदा हो सकता है कि हमने इनका उपकार किया और यह हमारी सेवा भी नहीं करते। इससे ध्यानमें विघात होनेसे समाधि बिगड़ सकती है || ३९७|| गा०-- ये दोष विशेष रूपसे अपने गणमें रहकर समाधि करनेवाले आचार्यके होते हैं । अन्य भी जो भिक्षु उपाध्याय या प्रवर्तक अपने गणमें रहकर समाधि मरण करते हैं उनके भी प्रायः ये दोष होते हैं ॥ ३९८ ॥ गा० – ये सब दोष दूसरे गणमें निवास करनेवाले आचार्यके नहीं होते । इसीलिए वह अपना गण छोड परगण में समाधिके लिए जाता है || ३९९|| गा० - अपने गणके होते हुए यह हमारे गणमें रुचि रखकर यहाँ आया है ऐसा मानकर दूसरा गण पूर्ण आदरके साथ शक्ति और भक्तिसे उसकी सेवामें लगता है ||४०० ॥ . Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३१.१ गीदत्थो चरणत्थो पच्छेदूणागदस्स खवयस्स । सव्वादरेण जु णिज्जवगो होदि आयरिओ ।।४०१॥ 'गोवत्यो चरणत्यो' गृहीतार्थः ज्ञानी चरणस्थः । 'पच्छेदूणागदस्स' प्रार्थयित्वागतस्य । ‘खवगस्स' क्षपकस्य । 'सव्वादरेण जुत्तो' सर्वादरेण युक्तः 'णिज्जवगो होइ आयरिओं' निर्यापको भवत्याचार्यः ।।४०१॥ संविग्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्स विहरंतो। . जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी ॥४०२॥ 'संविग्गवज्जभोरुस्स' संसारभीरोः, पापकर्मभीरोश्च तस्य गुरोः पादमूले वर्तमानो जिनवचनसर्वसारस्य भवत्याराधकः । 'तादि' यतिः । 'संते सगणे', 'गीदत्थो', 'सविग्गवज्जभीरु' इत्येतत्सूत्रत्रयेण परगणे चर्यायां गुणो व्याख्यातः । परगणचर्या ॥४०२।। . मार्गणानिरूपणार्थमुत्तरप्रवन्धः- . पंचच्छसत्तसदाणि जोयणाणं तदो य अहियाणि । णिज्जावयमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु ॥४०३॥ पंचच्छसत्तसदाणि पञ्चषट्सप्तयोजनशतानि ततोऽभ्यधिकानि वा गत्वा अन्वेषते निर्यापकं । शास्त्रणअनुज्ञातं समाधिकामो यतिः ॥४०३।। स्पष्टार्थोत्तरगाथा एक्कं व. दो व तिणि य वारसवरिसाणि वा अपरिदंतो। 'णिज्जवयमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु ॥४०४।। ... गा०-उस प्रार्थना पूर्वक आये हुए क्षपकका निर्यापक आचार्य ज्ञानी, चारित्र निष्ठ तथा उस क्षपकके प्रति पूर्ण आदर भावसे युक्त होता है ॥४०१॥ .. . 'गा-संसार और पापकर्मसे डरने वाले उस निर्यापक आचार्यके चरणों में विहार करता हुआ वह क्षपक यति समस्त जिनागमके सार रूप आराधनाका आराधक होता है ।।४०२॥ - 'संते सगणे', 'गीदत्थो', 'संविग्गवज्जभोरु' इन तीन गाथा सूत्रोंके द्वारा परगणमें चर्या करनेका गुण कहा है। इस प्रकार परगणमें चर्या करनेका गुण कहा है ॥४.२।। आगे मार्गणाका कथन करते हैं गा०--समाधिका इच्छुक यति पाँच सौ, छह सौ, सात सौ योजन अथवा उससे अधिक जाकर शास्त्रसम्मत निर्यापकको खोजता है ॥४०३॥ गा०-समाधिका इच्छुक यति एक अथवा दो अथवा तीन आदि बारह वर्ष पर्यन्त खेदखिन्न न होता हुआ जिनागम सम्मत निर्यापकको खोजता है ।।४०४॥ १. पंचच्छ सत्त जोयण सदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतु। णिज्जावगमण्णे सदि समाधिकामो अणुण्णाद-आ० मु०। २. जिणवयणम-आ० मु० । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ भगवती आराधना निर्यापकान्वेषणार्थ गच्छतः क्रममुदाहरति गच्छेज्ज एगरादियपडिमा अज्झयणपुच्छणाकुसलो । थंडिल्लो संभोगिय अप्पडिबद्धो य सव्वत्थ ॥४०॥ 'गच्छेज्ज एगरादियपडिमा अज्झेण पुच्छणाकुसलो' गच्छेदेकरात्रिभवावग्रहे अध्ययने परप्रश्ने च कुशलः । एकरात्रिभवा भिक्षुप्रतिमा निरूप्यते । उपवासत्रयं कृत्वा चतुर्थ्यां रात्रौ ग्रामनगरादेर्बहिर्देशे श्मशाने वा प्राङ्मुखः, उदङ्मुखश्चैत्याभिमुखो वा भूत्वा चतुरङ्गुलमात्रपदान्तरो नासिकाग्रनिहितदृष्टिस्त्यक्तकायस्तिष्ठेत् । सुष्ठ प्रणि हितचित्तः चतुर्विधोपसर्गसहः न चलेन्न पतेत यावत्सर्य उदेति । स्वाध्यायं कृत्वा गव्यतिद्वयं गत्वा गोचरक्षेत्रवसतिं गत्वा तिष्ठति । यत्र विप्रकृष्टो मार्गस्तत्र सूत्रपौरुष्यामर्थपौरुष्यां वा मंगलं कृत्वा याति एवं स्वाध्यायकशलता। प्रश्नकूशलतोच्यते-चंत्यसंयतानार्यिकाः श्रावकांश्च, बालमध्यमवद्धांश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति इति प्रश्नकुशलः । यत्र भिक्षा कृता तत्र स्थण्डिलान्वेषणं कुर्यात् । कायशोधनाथं संभोगयोग्यं, यति, संघाटकत्वेन गृह्णीयात् । स्वयं वा तस्य संघाटको भवेत् । एवं स्थण्डिलांन्वेषणं संभोगयोग्ययतिना सहवृत्ती च यो यत्नपरः स्थंडिलसंभोगी य इत्युच्यते । अंतरालग्रामनगरादिसन्निवेशस्थयतिगृहिसत्कारसन्मानप्राघूर्णकभक्तादो सर्वत्र अप्रतिबद्धत्वात् 'अप्पडिबद्धो य सम्वत्थ' इत्युच्यते ॥४०५॥ निर्यापकको खोजनेके लिए जाते हुए क्षपकका क्रम कहते हैं गा.--एक रात्रि प्रतिमामें, अध्ययन में और दूसरेसे प्रश्न करनेमें कुशल वह क्षपक स्थंडिलसंभोगी और सर्वत्र अप्रतिबद्ध होता है ।।४०५।। टो०-एक रात्रिक भिक्षु प्रतिमाको कहते हैं। तीन उपवास करके चतुर्थ रात्रिमें ग्रामनगर आदिके बाहर वनमें अथवा स्मशानमें पूरब अथवा उत्तर अथवा जिनप्रतिमाकी ओर मख करके, दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रखकर, अपनी दृष्टि नाकके अग्रभाग पर रखते हुए शरीरसे ममत्व त्याग कर स्थित होवे। अपने चित्तको अच्छी तरहसे समाहित करते हुए चार प्रकारके उपसर्गको सहकर जब तक सूर्यका उदय न हो तब तक न विचलित हो, न पतित हो। फिर स्वाध्याय करके दो गव्यू तिप्रमाण गमन करके भिक्षाके क्षेत्रकी वसतिमें जाकर ठहरे। जहाँ मार्ग दूर हो वहाँ सूत्रपौरुषी अथवा अर्थपौरुषीमें मंगलाचरण करके गमन करता है । अर्थात् एक रात्रिक भिक्षु प्रतिमाकी समाप्ति पर स्वाध्याय करके भिक्षाके लिए गमन करता है। यदि भिक्षाका स्थान दूर हो तो स्वाध्यायको स्थापना करके केवल मंगलाचरण करके भिक्षा स्थानके लिए गमन करता है यह उसकी स्वाध्याय कुशलता है । आगे प्रश्नकुशलता कहते हैं -जिनालयमें स्थित संयमियों, आर्यिका और श्रावकोंसे तथा बाल, प्रौढ़ और वृद्ध पुरुषोंसे भिक्षास्थान ज्ञात करके गमन करता है यह उसकी प्रश्न कुशलता है। जहाँ भिक्षा ग्रहण की वहीं मलत्यागके लिए स्थंडिल भूमिकी खोज करे। जिस यतिके साथ सामाचारी की जा सकती है ऐसे यतिको सहायक रूपसे ले ले या स्वयं उसका सहायक हो जावे। इस प्रकार स्थंडिल भूमिकी खोजमें और सामाचारीके योग्य यतिके साथ रहने में जो प्रयत्नशील होता है उसे स्थंडिल सम्भोगी कहते है । तथा वह क्षपक रास्ते में आनेवाले ग्रामनगर आदिमें बने स्थानोंमें ठहरे हुए यति, गृहस्थ, उनके सत्कार, सम्मान और अतिथि भोजन आदिमें सर्वत्र अप्रतिबद्ध होता है। उनमें उसकी अनासक्ति २. संभोगी यतिरित्यु-आ० मु० । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ विजयोदया टीका आलोयणापरिणदो सम्मं संपत्थिदो गुरुसयासं । जदि अंतरा हु अमुहो हवेज्ज आराहओ होज्ज ॥४०६।। 'आलोयणापरिणदो' रत्नत्रयातिचारान्मनोवाक्कायविकल्पान्मदीयान्गुरी निवेदयिष्यामीति कृतसंकल्पः । सम्म आलोचनादोषान्परित्यज्य 'संपत्थिदो' यातुमुद्यतः । 'गुरुसगासं' गुरुसमीपं । 'जदि अंतरा खु' यद्यन्तराल एव । 'अमुहो हवेज्ज' पतितजिह्रो भवेत् । 'आराहवो होज्ज' आराधको भवति ॥४०६।। आलोचणापरिणदो सम्मं संपच्छिओ गुरुसयासं । जदि अंतरम्मि कालं करेज्ज आराहओ होइ ॥४०७।। 'आलोचणापरिणदो' स्वापराधकथनावहितचित्तः गुरुसमीपमागच्छतो यद्यन्तराल एव कालं कुर्यात् । 'आराधगो होइ' आराधको भवति ॥४०७॥ आलोयणापरिणदो सम्मं संपच्छिदो गुरुसयासं । जदि आयरिओ अमुहो हवेज्ज आराहओ होइ ।।४०८।। तथा आलोचनापरिणतः गुर्वन्तिकं प्रस्थितः आराधको भवति । यद्याचार्यो वक्तुमशक्तो जातः ॥४०८॥ आलोयणापरिणदो सम्मं संपच्छिदो गुरुसयासं । जदि आयरिओ कालं करेज्ज आराहओ होइ ॥४०९॥ आचार्यकालकरणेऽप्याराधको भवति इति सूत्रार्थः ॥४०९॥ . कथं भाराधकता तस्य ? न कृता आलोचना नाचरितं गुरूपदिष्टं प्रायश्चित्तमित्यारेकायागचष्टे सल्ल उद्धारदुमणो संवेगुव्वेगतिव्वसड्ढाओ। जं जादि सुद्धिहेदु सो तेणाराहओ होइ ॥४१०।। होती है ॥४०५॥ गा०-'मन वचन कायके विकल्प रूप रत्नत्रयमें लगे अतिचारोंको, आलोचनाके दोषोंको त्यागकर मैं सम्यग् रूपसे गुरुसे निवेदन करूँगा' ऐसा संकल्प करके जो गुरुके समीप जानेके लिए निकला, वह यदि मार्गमें ही अपनी बोलनेकी शक्ति खो बैठे तो भी वह आराधक होता है ।।४०६।। गा०—मैं गुरुके पास जाकर अपने दोषोंकी सम्यक् आलोचना करूँगा, यह संकल्प करके जो गुरुके पास जानेके लिए निकला है वह यदि मार्गमें ही मर जाय तो भी आराधक है ।।४०७|| ___ गा०-आलोचना करनेका संकल्प करके जो गुरुके पास जाने के लिए चला है। यदि आचार्य बोलने में असमर्थ हों तो भी वह आराधक है ।।४०८।। गा०-जो गुरुके सन्मुख अपना अपराध निवेदन करनेके लिए गुरुके पास जानेके लिए निकला है, यदि आचार्य मर जायें तो भी वह आराधक है ।।४०९।। जिसने गुरुके सन्मुख अपने अपराधको आलोचना नहीं की और न गुरुके द्वारा कहा गया प्रायश्चित्त ही किया वह कैसे आराधक होता है ? इस शंकाका समाधान करते हैं गा०-टी०-किये गये अपराधकी आलोचना न करने पर मायाशल्य होता है। और माया४० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना सल्लं उद्धरिदुमणो कृतापराधाऽनालोचनायां मायाशल्यं भवति । सति मायाशल्ये न रत्नत्रयशुद्धिरिति मत्वा शल्यमुद्धर्तुमनाः । 'संवेगुब्वेगतिव्त्रसड्ढाओ' संसारभीरुता संवेगः शरोरस्याशुचितामसारतां, दुःखदातृतां चावलोक्य, तथेन्द्रियसुखानामतृप्तिकारितां, तृष्णाभिवृद्धिनिमित्ततां च तत्रोद्व ेगः । तो संवेगो गौ, तीव्रा मरणकाले रत्नत्रयाराधना श्रद्धा च यस्य विद्यते स उच्यते संवेगुब्वेगतिव्वसड्ढाओ इति । अथवा संवेगोद्व ेगाभ्यां प्रवर्तिता तीव्रा श्रद्धा यस्य रत्नत्रयाराधनायां स एव भण्यते । 'जं जादि सुद्धिहेदु" यस्माच्छुद्धिनिमित्तं याति 'सो तेण आराहओ होवि' स तेन आराधको भवति ॥ ४१० ॥ निर्यापक सूर्यन्वेषणार्थ गच्छतो गुणमाचष्टे ३१४ आयारजीदक पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा । अज्जवमद्दवलाघवतुट्टी पल्हादणं च गुणा ॥ ४११ ॥ 'आयारजीद कष्पगुणदीवणा' आचारस्य जीदसंज्ञितस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि निरतिचाररत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति । तदर्थमेवान्वेषकः प्रयतते । 'अत्तसोधि' आत्मनः शुद्धिः । णिज्झंझा संक्लेशाभावः । न हि संश्लेशवानित्थं दूरं प्रयातुमीहते । स्वदोषप्रकटनान्माया त्यक्ता भवत्येव, तत एव माननिरासो मार्दवं । शरीरपरित्यागाहितबुद्धितया लाघवं । कृतार्थोऽस्मीति तुष्टिर्भवति । प्रस्थितस्य प्रल्हादनं हृदयसुखं च स्वपरोपकाराभ्यां गमितः कालः इत उत्तरं मदीय एव कार्ये प्रधाने उद्युक्तो भविष्यामि इति चिन्तया ||४११॥ इत्थं गुर्वन्वेषणार्थमायातं दृष्ट्वा तद्गणवासिनां सामाचारक्रमं व्याहरतिआएसं एज्जंतं अब्भुट्ठिति सहसा हु दट्ठूण | आणा संग हवच्छल्लदाए चरणे य णादु जे ||४१२ ॥ शल्य के होने पर रत्नत्रयमें शुद्धि नहीं होती। ऐसा मानकर जो शल्यको निकालनेका भाव रखता है । तथा संसारसे भयभीत होनेको संवेग कहते हैं । और शरीरकी अशुचिता, असारता और दुःखदायकताको देखकर तथा इन्द्रियजन्य सुखोंको अतृप्ति करनेवाले तथा तृष्णाको बढ़ानेवाले जानकर उनमें विरक्ति होना उद्वेग है । जिसके संवेग और उद्व ेग होते हैं तथा मरणकालमें रत्नत्रयकी तीव्र आराधना और श्रद्धा होती है उसे 'संवेग उद्व ेग तीव्र श्रद्धावाला' कहते हैं । अथवा संवेग और उद्वेग द्वारा जिसकी रत्नत्रयकी आराधनामें तीव्र श्रद्धा होती है वह संवेग उद्वेग तीव्र श्रद्धावाला होता है। ऐसा वह क्षपक शुद्धिके लिए गुरुके पास जाता है इससे वह आराधक होता हैं ॥ ४१० ॥ गा० टी० –निर्यापक आचार्यकी खोज में जाते हुए क्षपकके गुण कहते हैं- आचार और जीतकल्प (आचार विशेषका प्रतिपादक ग्रन्थ) के गुणों का प्रकाशन होता है । ये शास्त्र निरतिचार रत्नत्रय को ही बतलाते हैं । उसीके लिए क्षपक निर्यापककी खोज करता है । आत्माकी शुद्धि होती है । संक्लेशका अभाव होता है क्योंकि जो संक्लेश परिणाम वाला होता है वह इस प्रकार दूर गमन नहीं करता । तथा गुरुके पास जाकर अपने दोषोंको प्रकट करनेसे मायाचारका त्याग होता ही है । इसीसे मानका निरास मार्दव भी होता है | शरीरको त्यागनेका भाव होनेसे लाघव होता है । मैं कृतार्थ हूँ इस प्रकार सन्तोष होता है । 'मैंने अपने और परके उपकारमें समय बिताया । अब आगे अपने ही कार्यमें प्रधान रूपसे उद्यत रहूँगा' ऐसे विचारसे हृदय में सुख होता है । इस प्रकार गुरुके पास जानेके गुण हैं ||४११॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'आएसं' प्राचूर्णकं । एज्जंतं' आयान्तं । 'दट्ठूण' दृष्ट्वा । 'सहसा अब्भुट्ठति' शीघ्रमभ्युत्थानं कुर्वन्ति यतय: । 'आगासंगहवच्छल्लदाए' अन्भुट्ठयो समणो सुप्तत्थविसारदो उवासेज्ज' इति जिनाज्ञासंपादनार्थं आगच्छन्तं संग्रहीतुं । वत्सलतया च तस्मि 'श्चरणे य णादुज्ज' चरित्रं समाचारक्रमं तदीयं ज्ञातुं च अभ्युत्थानं कुर्वन्ति । क्वचित्पाठः " चरणे य णामेदु" इति च चर णावगमनार्थं इति तत्रा ग्राह्यम् ॥ ४१२॥ आगंतु गवच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं । अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेदु परिक्खंति || ४१३।। 'आगंतुगवच्छन्वा' आगन्तुको वास्तव्याश्च । 'पडिलेहाहि तु' दृष्ट्वा । 'अण्णमण्णेहिं' अन्योन्यं । 'अण्णोष्णकरणचरणं' अन्योन्यस्य चरणं करणं वा । 'परिक्खन्ति' परीक्षन्ते । किमर्थं । ' जाणण हेदु' ज्ञातु ं । समितयो गुप्तयश्चरणशब्देनोच्यन्ते करणमित्यावश्यकानि गृहीतानि । आचार्याणामुपदेशभेदात्सामाचारोऽनेकप्रकारो दुरवगमः तं ज्ञातु सहावस्थानयोग्यो न वायमिति ज्ञातु ं वा ॥४१३॥ क्व परीक्ष्यन्ते इत्यत्राह - ३१५ आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे । सज्झाए य विहारे भिक्खरगहणे परिच्छंति ॥ ४१४ ॥ 'आवासगठाणादिसु' अवश्यमेव संवरनिर्जरार्थिभिः कर्तव्यानि सामायिकादीनि आवश्यकान्युच्यन्ते तेषां इस प्रकार गुरुकी खोज में आये हुए क्षपकको देखकर उस गणके वासी साधुओंकी सामाचारीका क्रम कहते हैं गा० अतिथिको आता हुआ देखकर यतिगण शीघ्र खड़े हो जाते हैं । जिनागमकी आज्ञाका पालन करने के लिए, आने वालेको ग्रहण करनेके लिए और वात्सल्य भावके लिए तथा उसका कैसा आचारादि है यह जाननेके लिए वे उठकर खड़े होते हैं । कहीं पर 'चरणे य णामेदुं' पाठ है । उसका अर्थ होता है—‘अतिथि के चरणोंमें नमन करने के लिए खड़े होते हैं । यह यहाँ ग्रहण करने योग्य नहीं है ||४१२॥ गा० - टी० आने वाला मुनि और उस गणके वासी मुनि प्रतिलेखनाके द्वारा देखकर परस्पर में एक दूसरेके चरण और करणको जाननेके लिए परीक्षा करते हैं । यहाँ चरण शब्दसे समिति और गुप्ति कही हैं । और करण शब्दसे आवश्यकोंका ग्रहण किय। है । आचार्योंके उपदेश में भेद होनेसे साधुओंका समाचार अनेक प्रकारका है। इससे वह दुरवगम है। उसका जानना कठिन है उसको जानने के लिए वे परस्पर में परीक्षा करते हैं । अथवा यह हमारे साथ रहनेके योग्य है अथवा नहीं, यह जाननेके लिए परीक्षा करते हैं ||४१३ || कैसे परीक्षा करते हैं, यह कहते हैं गा०—आवश्यक स्थान आदिमें, प्रतिलेखन, वचन, ग्रहण, निक्षेप, स्वाध्याय, बिहार और भिक्षाग्रहण में परीक्षा करते हैं ||४१४ ॥ टो० - संवर और निर्जराके इच्छुकोंको अवश्य ही करने योग्य सामायिक आदिको आव १. चरणे व णामेदु चरणावनमनार्थ- मूलारा० । २. तत्र ग्राह्यम् - मु० । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना स्थानं स्थितिः आवश्यकपरिणतिकालः । 'दुऊणदं जहाजादं बारसास्तव च । चदुस्स तिसुद्ध'-(मूलाचार ७४१०४) मित्यादिका क्रिया आदिशब्देन गहीता। तेष आवश्यकस्थानादिष । 'पडिलेहणवयणगहः गणिक्खेवे' प्रतिलेखने चक्षुषा उपकरणेन वा, वचने, उपकरणानां ग्रहणे निक्षेपे, च 'सज्झाए' स्वाध्याये, 'विहारे' जंघाविहारे, 'भिक्खग्गहगे' भिक्षाग्रहणे च 'परिक्खंति' परीक्षन्ते । किमयं सामायिकादीन्यावश्यकानि करोति ? कुर्वन्नपि वा यथाकालं करोति न वा? किं वा द्रव्यसामायिकादी प्रवर्तते उत भावसामायिकादौ ? द्रव्यसामायिकादिकं भवति सामायिकादिकं पठतः, कायेन चोक्ता क्रियां कुर्वतः । सावद्ययोगप्रत्याख्याने, तीर्थकृद्गुणानुस्मरणे, आचार्योपाध्यायादीनां वा गुणानुस्मृतौ, स्वातिचारनिन्दागहयोः, प्रत्याख्येयप्रत्याख्याने, शरोरममतानिरासे वा, परिणतिर्भावसामायिकादिकं । तत्र प्रवृत्तो न वेति परीक्षा । चक्षुषा पूर्वमिदं प्रतिलेखनं योग्यं न वेति कि पश्यति न वा। उपकरणेत मदना लघुना प्रमार्जनं किं करोति न करोति वा । अथवा त्वरितं प्रमार्जयति, अवपीडयति, दूरा'दस्थानात् पातयति, प्रमार्जनेन विरोधिनो जीवान्मिश्रयति । आहाराभिमुखान्, आहारग्राहिणो गृहीताण्डकान्, स्वनिवासदेशस्थान्, मूर्छामुपगतान्प्रमार्जयति न वेति परीक्षा । वचने परीक्षा-परुषं वचः, परनिन्दात्मप्रशंसाप्रवृत्तं, आरम्भपरिग्रहयोः प्रवर्तकं, मिथ्यात्वसंपादकं, मिथ्याज्ञानकारि, व्यलीकं, गृहस्थानां वचो वा वदति न वेति । यतो यदादेयं यद्वा यत्र निक्षिपति तदभयप्रमार्जनपूर्वक किं गृह्णाति निक्षिपति वा नेति परीक्षा। कालादिशुद्धि कृत्वा पठति किं वा न, अथवा इमं ग्रन्थं पठति, श्यक कहते हैं। उनका स्थान अर्थात् स्थिति यानो आवश्यक रूप परिणतिका काल । आदि शब्दसे 'दो बार नमस्कार, यथाजात, बारह आवर्त, चार बार सिरका नमन, मन वचन कायकी शुद्धि' इत्यादि क्रिया ग्रहण की हैं । चक्षु अथवा उपकरणसे प्रतिलेखना करने पर, वार्तालापमें उपकरणोंके ग्रहण और रखनेमें, स्वाध्यायमें, पैदल चलनेमें, और भिक्षा ग्रहणमें परीक्षा करते हैं कि यह सामायिक आदि करता है या नहीं ? करता है तो समय पर करता है या नहीं? अथवा द्रव्य सामायिक आदि करता है या भाव सामायिक आदि करता है। सामायिक आदि गाठ पढ़ते हए और शरीरसे उक्त क्रिया करते हए द्रव्य सामायिक आदि होते हैं। सावध योगका त्याग करनेपर, तीर्थकरके गणोंका स्मरण करनेपर, अथवा आचार्य उपाध्याय आदिके गणोंका स्मरण करनेपर, अपने अतिचारोंकी निन्दा गर्दा करनेपर, त्यागने योग्यका त्याग करनेपर, अथवा शरोरसे ममत्वको दूर करनेपर भाव सामायिक आदि होते हैं। उसमें प्रवृत्त होता है या नहीं, यह परीक्षा है। यह प्रतिलेखन योग्य है या नहीं? ऐसा आँखोंसे पहले देखता है या नहीं, कोमल हल्के उपकरणसे प्रमार्जन करता है या नहीं ? अथवा क्या जल्दीमें प्रमार्जन करता है । क्या जीवोंको पीड़ा पहुँचाता है ? क्या दूर स्थानसे उपकरणादि गिराता है ? क्या प्रमार्जनके द्वारा विरोधी जीवोंको मिलाता है ? जो जीव आहारमें लगे हैं, या आहार ग्रहण कर रहे हैं, जिन्होंने मुहमें अण्डे लिए हुए हैं, जो अपने निवास देशमें स्थित हैं, मूर्छाको प्राप्त हैं ऐसे जीवोंका प्रमार्जन-रक्षण करता है या नहीं, यह परीक्षा है । वचन परीक्षा-कठोर वचन, परकी निन्दा अपनी प्रशंसा करने वाले वचन, आरम्भ और परिग्रहमें प्रवृत्ति कराने वाले वचन, मिथ्यात्वके सम्पादक वचन, मिथ्याज्ञान कराने वाले वचन, झूठे वचन अथवा गृहस्थोंके योग्य वचन बोलता है क्या ? जहाँसे जो ग्रहण करता है अथवा जहाँ जो रखता है उन दोनोंके प्रमार्जन पूर्वक ग्रहण और निक्षेप करता है या नहीं, यह परीक्षा है । कालादिकी शुद्धि पूर्वक ग्रन्थ पढ़ता है या नहीं ? अथवा किस ग्रन्थको पढ़ता १. दूरावस्थानात्-आ० । दूरावस्थान्-मु० । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३१७ कथं वास्यार्थ व्याचष्टे । स्वनिवासदेशाद्दूरे हस्तमात्रादिपरिमाणे स्थण्डिले, निर्जन्तुके निश्छिद्रे, समे, अविरोधे मार्गजनेनानवलोक्ये कि स्वशरीरमलं त्यजति उतातो विपरीते इति विहारे परीक्षा | भिक्षाग्रहणे परीक्षा नाम भ्रामयाँ यां काञ्चिभिक्षां गृह्णाति लब्धामुत नवकोटिपरिशुद्धामिति ॥४१४॥ आगन्तुको यतिगुरुमुपाश्रित्य सविनयं संघाटकदानेन भगवन्ननुग्राह्योऽस्मीति विज्ञापनां करोति । ततो गणधरेणापि समाचारज्ञो दातव्यः संघाटक इति निगदति आएसस्स तिरत्तं णियमा संघाडओ दु दादव्यो । सेज्जा संथारो वि य जइ वि असंभोइओ होइ ॥४१५।। ‘आएसस्स तिरत्तं' प्राघूर्णकस्य च त्रिरात्रं । "णियमा संघाडओ दु दावव्वो' निश्चयेन संघाटको दातव्य एव । 'सेज्जा संथारो विय' वसतिः संस्तरश्च दातव्यः । 'जवि वि असंभोइओ होइ' । यद्यप्यपरीक्षित्वात्सहानाचरणीयो भवति । तथापि संघाटको दातव्यो भवति । युक्ताचारश्चेत्संगृह्यते ॥४१५॥ दिनत्रयोत्तरकालं किं कार्य गुरुणेत्याशङ्कायां वदति तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाडओ द दादव्वो । सेज्जा संथारो वि य गणिणा अवि जुत्तजोगिस्स ॥४१६॥ 'तेण गणिणा' तेन गणिना। 'पर' दिनत्रयात् । 'अवियाणिय' अविचार्य । स्वदत्तसंघाट यतिवचन लं। त शब्द एवकारार्थे प्रवर्तते स च दादवो इत्येतस्मात्परतो द्रष्टव्यः । न दातव्य एव संघाटकः । 'सेज्जा संथारो वा' वसतिः संस्तरो वा न दातव्यः । जुत्तजोगिस्सवि युक्ताचारस्यापि न है और कैसे उसका अर्थ करता है ? अपने निवास देशसे दूर, एक हाथ आदि प्रमाण, जन्तुरहित, छिद्ररहित, सम और जिसमें किसीका विरोध नहीं, रास्ता चलते लोग जिसे देख नहीं सकते ऐसे स्थंडिल प्रदेशमें यह अपने शरीर मलको त्यागता है या इससे विपरीतमें त्यागता है यह बिहारकी परीक्षा है। भिक्षाग्रहणमें परीक्षाका मतलब है कि भ्रामरीमें यह जैसी तैसी भिक्षा ग्रहण करता है या नौ कोटिसे शद्ध भिक्षा ग्रहण करता है।।४१४॥ आने वाला यति गुरुके पास सविनय उपस्थित होकर निवेदन करता है कि भगवान् साहाय्य प्रदान करके मुझपर अनुग्रह करें। उसके पश्चात् आचार्यको भी आचारके ज्ञाता उस आगन्तुक यतिको साहाय्य देना चाहिए। ऐसा कहते हैं गा०-उस आगन्तुक यतिको नियमसे तीन रात तक साहाय्य देना चाहिए। तथा रहनेको वसति और संस्तर देना चाहिए । यद्यपि अभी उसकी परीक्षा नहीं ली है इससे वह साथमें आचरण करने योग्य नहीं है फिर भी यदि उसका आचार उचित है तो उसे साहाय्य देना चाहिए ॥४१५॥ गा०-तीन दिनके पश्चात् गुरु क्या करे, यह कहते हैं-तीन दिनके पश्चात् उस आचार्यको उस यतिके वचनको सुननेके पश्चात् जो साहाय्य दिया था वह साहाय्य बिना विचार नहीं देना चाहिए। 'दु' शब्दका अर्थ एवकार (ही) है और उसे 'दादव्वो' के आगे रखना चाहिए। अतः उसे साहाय्य नहीं ही देना चाहिए, वसति अथवा संस्तर नहीं देना चाहिए। उसका आचार उचित भी हो तो भी उसे परीक्षा किये बिना साहाय्य आदि नहीं देना चाहिए । जब युक्ताचारको १. 'अविजुत्तजोगिस्स'-आ० मु० । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ भगवती आराधना दातव्यः संघाटकादिः परीक्षामन्तरेण किं पुनरितरस्येत्याशयः ॥४१६।। अविचार्य तेन सहावस्थानेको दोषो येनैवं यत्नः क्रियते इत्यारेकायां दोषमाचटे-उगम उप्पादणे सणासु सोधी ण विज्जदे तस्स । अणगारमणालोइय दोसं संभुज्जमाणस्स || ४१७॥ 'उगम उप्पादणे सणासु उद्गमोत्पादनंषणादोषपरिहारो न विद्यते तस्य गणिनः । 'अणगारं' यति । 'अणालोइय दोसं' अनालोचितदोषं । 'संभुज्जमाणस्स' संगृहृतः । उद्गमादिदोषोपहतमाहारं वसति, उपकरणं वा सेवते यः यतिः तेन सह संवासात् संवासानुमति कुर्वता नानुमतिस्त्यक्ता भवति इति ॥४१७॥ उव्वादो तद्दिवसं विस्सामित्ता गणिमुवट्ठादि । उद्धरिदुमणोसल्लं विदिए तदिए व दिवसम्मि ||४१८ || 'उठबावो' श्रान्तः स्थित्वा । तं दिवसं आगतदिनं । 'विस्समित्ता' विश्राम्य । 'गणिमुवट्ठादि' आचार्य ढौकते । 'उद्धरिदुमणो सल्लं' उद्धतु मनःशल्यं अतिचारं । 'विदिए तदिए व दिवसम्मि' द्वितीये तृतीये वा दिने । मार्गणापुरस्सरा क्रिया सर्वा मार्गणेत्युपन्यस्ता ||४१८|| कीदृग्गुणः सूरिरनेनोपाश्रित इत्याचष्टे आयारखं च आधारखं च ववहारवं पकुव्वीय । आयवायविदसी तहेव उप्पीलगो चेव ॥ ४१९ ॥ 'आयारवं च' आचारवान् । 'आधारवं च' आधारवान् । 'ववहारवं च' व्यवहारवान् । 'पकुव्वोय कर्ता । 'तहेव आयापायविदंसी' तथा आयापायदर्शनोद्यतः । 'उप्पीलगो चेव' अवपीडकः ॥ ४१९ || भी नहीं देना चाहिए तब अन्यकी तो बात ही क्या है, यह इसका अभिप्राय है || ४१६।। यहाँ कोई शङ्का करता है कि विना विचारे उसके साथ रहने में क्या दोष है जो इतनी सावधानी करते हैं, इसका उत्तर देते हैं गा०---जो यति अपने दोषोंकी आलोचना नहीं करता, तथा जो उद्गम आदि दोषोंसे दूषित आहार, वसति अथवा उपकरणका सेवन करता है, उसके साथ संवास करनेसे उस आचार्य - के उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंका परिहार रूप शुद्धि नहीं होगी । यदि वह आचार्य अन्य मुनियोंको उसके साथ रहनेकी अनुमति देता है तो भी उसकी अनुमोदनाका भागी होता है ॥ ४१७॥ गा० - मार्गके श्रमसे थका हुआ वह आगन्तुक मुनि अपने आनेके दिन तो विश्राम लेता है और दूसरे दिन मनमें शल्यकी तरह चुभने वाले दोषों को दूर करनेके लिये आचार्यके समीप जाता है । गुरुकी मार्गणा अर्थात् खोज पूर्वक की जानेवाली सब क्रियाएँ मार्गणा कही जाती हैं इसलिये यहाँ उनका मार्गणारूपसे कथन किया हैं ||४१८ || गा० - वह आगन्तुक किन गुणोंसे युक्त आचार्यका आश्रय लेता है, यह कहते हैं-आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, तथा रत्नत्रयके लाभ और विनाश को दिखाने वाला और अवपीडक ||४१९।। १. एस-आ० मु० । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका अपरिस्साई णिव्वावओ य णिज्जावओ पहिद कित्ती । णिज्जवणगुणोवेदो एरिसओ होदि आयरिओ ||४२०॥ 'अपरिस्साई' अपरिस्रावी । 'णिव्वावओ' निर्वापकः । 'पहिद कित्ती' प्रथितकीर्तिः । 'णिज्जवण गुणोवेदो' निर्यापनगुणसमन्वितः । 'एरिसओ होदि आयरिओ' ईदृग्भवत्याचार्यः ॥४२० ॥ आचारवत्त्वव्याख्यानायागता गाथा आयारं पंचविहं चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं । उवदिसदि य आयारं एसो आयारखं नाम ||४२१ ॥ 'आयारं पंचविहं' पञ्चप्रकारं आचारं । 'चरदि' विनातिचारं चरति । परं वा निरतिचारे पञ्चविधे आचारे प्रवर्तयति । 'उवदिसदि य आयारं' उपदिशति च आचारं । 'एसो आयारवं नाम' एष आचारवान्नाम । एतदुक्तं भवति - आचाराङ्गं स्वयं वेत्ति ग्रन्थतोऽर्थतश्च स्वयं पञ्चविधे आचारे प्रवर्तते प्रवर्तयति च । पाचारवान् इति । पञ्चविधे स्वाध्याये वृत्तिर्ज्ञानाचारः । जीवादितत्त्वश्रद्धानपरिणतिः दर्शनाचारः । हिंसादिनिवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः । चतुविधाहारत्यजनं, न्यूनभोजनं वृत्तेः परिसंख्यानं, रसानां त्यागः, काय सन्तापनं विविक्तावास इत्येवमादिकस्तपः संज्ञित आचारः । स्वशक्त्यनिगूहनं तपसि वीर्याचारः । एते पञ्चविधा आचाराः ॥४२१ ॥ प्रकारान्तरेण आचारवत्त्वं कथयति ३१९. दसविहठिदिकप्पे वा हवेज्ज जो सुट्ठिदो सयायरिओ । आयावं खु एसो पवयणमादासु आउत्तो ||४२२|| 'दसविहठिदिकप्पे वा' दशविधे स्थितिकल्पे वा । 'हवेज्ज जो सुट्ठिदो सया' भवेद्यः सुस्थितः सदा । गा० - अपरिस्रावी, निर्वापक, निर्यापक, प्रसिद्ध कीर्तिशाली और निर्यापन गुण से युक्त ऐसा आचार्य होता है ||४२० ॥ आगे उक्त गुणोंमें से आचारवत्त्व गुणका व्याख्यान करते हैं गा०—पाँच प्रकारके आचारका जो अतिचार लगाये बिना पालन करता है तथा दूसरों को पाँच प्रकार के आचारके निरतिचार पालनमें लगाता है, और आचारका उपदेश देता है यह आचारवान् नामक गुण है || ४२१ || टी०- To- इसका अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ रूपसे और अर्थरूपसे स्वयं आचारांगको जानता है | स्वयं पाँच प्रकारके आचारका पालन करता है और दूसरोंसे पालन कराता है इस तरह पाँच आचारवान् है । पाँच प्रकारके स्वाध्यायमें लगना ज्ञानाचार है, जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानरूप परिणत होना दर्शनाचार है । हिंसादिसे निवृत्ति रूप परिणति चारित्राचार है । चार प्रकारके आहारका त्याग, भूखसे कम भोजन करना, भिक्षाके लिये जाते समय गृह आदिका परिमाण करना, रसोंका त्याग, कायक्लेश, एकान्तमें निवास इत्यादि तप नामक आचार है, 'तपमें अपनी शक्तिको न छिपाना वीर्याचार है । पाँच प्रकारके आचार हैं ||४२१ || दूसरे प्रकारसे आचारवत्त्वको कहते हैं— गा०—जो आचार्य सदा दस प्रकारके स्थितिकल्पमें सम्यक् रूपसे स्थित है वह आचार Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० भगवती आराधना 'आयरिओ' आचार्यः । 'आयारवं ख' आचारवान् । 'एसो' एषः । 'पवयणमादासु आउत्तो' प्रवचनमातृकासु समितिषु गुप्तिषु च आयुक्तः ॥४२२॥ अभिहितकल्पनिर्देशार्था गाथा आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे । वदजेट्ठपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥४२३।। 'आचेलक्कुट्टेसिय' चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते । दशविघे धर्मे त्यागो नाम धर्मः । त्यागश्च सर्वसंगविरतिरचेलतापि सैव । तेनाचेलो यतिस्त्यागाख्ये धर्म प्रवृत्तो भवति । अकिंचनाख्ये अपि धर्मे समुद्यतो भवति निष्परिग्रहः । परिग्रहार्था ह्यारम्भप्रवृत्तिनिष्परिग्रहस्यासत्यारम्भे कुतोऽसंयमः । तथा सत्येऽपि धर्मे समवस्थितो भवति । परं परिग्रहनिमित्तं व्यलोकं वदति । असति बाह्य क्षेत्रादिके अभ्यन्तरे च रागादिके परिग्रहे न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य । ततो व वन्ने अवोति । लाघवं च अचेलस्य भवति । अदत्तविरतिरपि संपूर्णा भवति । परिग्रहाभिलाषे सति अदत्तादाने प्रवर्तते नान्यथेति । अपि च रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशद्धतमं भवति । संगनिमित्तो हि क्रोधस्तदभावे चोत्तमा क्षमा व्यवतिष्ठते । सुरूपोऽहमाढ्य इत्यादिको दर्पस्त्यक्तो भवति अचेलेनेति मार्दवमपि तत्र सन्निहितं । 'अजिह्मभावस्य स्फुटमात्मीयं भावमादर्शयतोऽचेलस्यार्जवता च भवति मायाया मूलस्य परिग्रहस्य त्यागात् । चेलादिपरिग्रहपरित्यागपरो यस्मात् विरागभावमुपगतः शब्दादिविषयेष्वसक्तो भवति । वान् है । वह आचार्य प्रवचनकी माता समिति और गुप्तियोंमें तत्पर रहता है ।।४२२।। दस कल्पोंका कथन करते हैं गा०-आचेलक्य, औद्देशिकका त्याग, शय्या गृहका त्याग, राजपिण्डका त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मास और पर्युषणा ये दस कल्प है ।।४२३।। टो०-चेल वस्त्रको कहते हैं । चेलका ग्रहण परिग्रहका उपलक्षण है। अतः समस्त परिग्रह के त्यागको आचेलक्य कहते हैं। दस धर्मोंमें एक त्याग नामक धर्म है। समस्त परिग्रहसे विरति को त्याग कहते है वही अचेलता भी है । अतः अचेल यति त्याग नामक धर्ममें प्रवृत्त होता है । जो निष्परिग्रह है वह अकिंचन नामक धर्ममें तत्पर होता है। परिग्रहके लिये हो आरम्भमें प्रवृत्ति होती है । जो परिग्रहका त्याग कर चुका वह आरम्भ क्यों करेगा। अतः उसके असंयम कैसे हो सकता है ? तथा जो परिग्रह रहित है वह सत्य धर्ममें भी सम्यक् रूपसे स्थित होता है । क्योंकि परिग्रहके निमित्त ही दूसरेसे झूठ बोलना होता है। बाह्य परिग्रह क्षेत्र आदि और अभ्यन्तर परिग्रह रागादिके अभावमें झूठ बोलनेका कारण नहीं है। अतः बोलनेपर अचेल मुनि सत्य ही बोलता है । अचेलके लाघव भी होता है। अचेलके अदत्तका त्याग भी सम्पूर्ण होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होनेपर बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है। अन्यथा नहीं होती । तथा रागादिका त्याग होने पर भावोंकी विशुद्धि रूप ब्रह्मचर्य भी अत्यन्त विशुद्ध होता है। परिग्रहके निमित्त से क्रोध होता है । परिग्रहके अभावमें उत्तम क्षमा रहती है। मैं सुन्दर हूँ, सम्पन्न हूँ इत्यादि मद अचेलके नहीं होता अतः उसके मार्दव भी होता है । अचेल अपने भावको विना किसी छल कपट के प्रकट करता है अतः उसके आर्जव धर्म भी होता है, क्योंकि मायाके मूल परिग्रहका उसने त्याग किया है। यतः वस्त्र आदि परिग्रहके त्यागमें तत्पर मुनि विराग Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३२१ ततो विमुक्तश्च शीतोष्णदंशमशकादिपरिश्रमाणामरोदानात. निश्चेलतामभ्युपगच्छता तपोऽपि घोरमनुष्ठितं भवति । एवमचेलत्वोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण ।। अथवान्यथा प्रक्रम्यते अचेलतागुणप्रशंसा। संयमशद्धिरेको गणः । स्वेदरजोमलावलिप्ते चेले तद्योनिकास्तदाश्रयाश्च त्रसाः सूक्ष्माः स्थूलाश्च जीवा उत्पद्यन्ते, ते वाध्यन्ते चेलग्राहिणा । संसक्तं वस्त्रं तावत्स्थापयतीति चेत्तहि हिंसा स्यात । विवेचने च ते म्रियन्ते तत्र संसक्तचेलवतः स्थाने. शयने, निषद्यायां. पाटने, छेदने, बन्धने, वेष्टने, प्रक्षालने, संघटने, आतपप्रक्षेपणे च जीवानां बाधेति महानसंयमः । अचेलस्यैवंविधासंयमाभावात् संयमविशुद्धिः । इन्द्रियविजयो द्वितीयः। सपाकूले बने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि यतते । अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति । कषायाभावश्च गुणोऽचेलतायाः । स्तेनभयाद्गोमयादिरसेन लेपं कुर्वन्तिगृहयित्वा कथंचिन्मायां करोति । उन्मार्गेण वा स्तेनवश्चनां कतुं यायात् । गुल्मवल्ल्याद्यन्तहितो वा स्यात् । चेलादिममास्तीति मानं चोदहते । बलादपहरणात्तेन सह कलहं कुर्यात् । लाभाद्वा लोभः प्रवर्तते । इति चेलग्राहिणाममी दोपाः । अचेलतायां पुनरित्थंभृतदोषानुत्पत्तिः ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च । सूचीसूत्रकर्पटादिपरिमार्गणसीवनादिव्याक्षेपेण तयोविघ्नो भवति । निःसंगस्य तथाभूतव्याक्षेपाभावात् । सूत्रार्थपौरुषीपु निर्विघ्नता, स्वाध्यायस्य ध्यानस्य च भावना । ग्रन्थत्यागश्च गुणः । भावको प्राप्त होकर शब्द आदि विषयोंमें आसक्त नहीं होता । तथा परिग्रहसे मुक्त होने से शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि परीषहोंको सहता है। अतः वस्त्र त्यागको स्वीकार करनेसे घोर तप भी होता है। इस प्रकार अचेलताके उपदेशसे संक्षेपसे दस प्रकारके धर्मो का कथन होता है । अथवा अचेलता गुणकी प्रशंसा अन्य प्रकारसे कहते हैं । अचेलतामें संयम की शुद्धि एक गुण है । पसीना, धूलि और मैलसे लिप्त वस्त्रमें उसी योनि वाले और उसके आश्रयसे रहने वाले त्रस जीव तथा सूक्ष्म और स्थूल जीव उत्पन्न होते हैं, वस्त्र धारण करनेसे उनको बाधा पहुँचती है । यदि कहोगे कि ऐसे जीवोंसे संबद्ध वस्त्रको अलग कर देंगे तो उनकी हिंसा होगी, क्योंकि उन्हें अलग कर देनेसे वे वहाँ मर जायेंगे । जीवोंसे संसक्त वस्त्र धारण करने वालेके उठने, वैठने, सोने, वस्त्र को फाड़ने, काटने, वाँधने, वेष्ठित करने, धोने, कूटने, और धूपमें डालने पर जीवोंको वाधा होनेसे महान् असंयम होता है । जो अचेल है उसके इस प्रकार का असंयम न होनेसे संयम की विशुद्धि होती है। दूसरा गुण है इन्द्रियोंको जीतना । जैसे सोसे भरे जंगलमें विद्या मंत्र आदिसे रहित पुरुष दृढ़ प्रयत्न-खूब सावधान रहता है उसी प्रकार जो अचेल होता है वह भी इन्द्रियोंको वशमें करनेका पूरा प्रयत्न करता है। ऐसा न करने पर शरीरमें विकार हआ तो लज्जित होना इता हैं। अचेलता का तीसरा गण कषाय का अभाव है। चोरोंके डरसे वस्त्रको गोबर आदिके रससे लिप्त करके छिपानेपर कथंचित् मायाचार करना होता है अथवा चोरोंको धोखा देनेके लिए कुमार्गसे जाना पड़ता है या झाड़ झंखाड़में छिपना होता है। मेरे पास वस्त्र हैं ऐसा अहंकार होता है। यदि कोई बलपूर्वक वस्त्र छीने तो उसके साथ कलह करता है । वस्त्रलाभ होनेसे लोभ होता है । इस प्रकार वस्त्र धारण करने वालोंके ये दोष हैं। वस्त्रत्यागकर अचेल होनेपर इस प्रकारके दोष उत्पन्न नहीं होते और ध्यान तथा स्वाध्यायमें किसी प्रकारका विघ्न नहीं होता । सुई धागा, वस्त्र आदिकी खोज तथा सीने आदिमें लगनेसे स्वाध्याय और ध्यानमें १. माः सुरासुरोदीर्णाः सोढाश्चोपसर्गाः नि-आ० मु० । २. संसक्ताः चे-आ० मु० । ३. णात्स्तेनेन-मु० । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना बाह्यचेलादिग्रन्थत्यागोऽभ्यन्तरपरिग्रहत्यागमूलः । यथा तुषनिराकरणमभ्यन्तरमल निरासोपायः अतुषं धान्यं नियमेन शुद्धयति । भाज्या तु ह्यसतुषस्य शुद्धिः । एवमचेलवति नियमादेव भाज्या सचेले । वीतरागद्वेषता च गुणः । सचेलो हि मनोज्ञे वस्त्रे रक्तो भवति । दुष्यत्यमनोज्ञे । वाह्यद्रव्यालम्बनौ हि रागद्वेषौ तावसति परिग्रहे न भवतः । किं च शरीरे अनादरो गुणः शरीरगतादरवशेनैव हि जनोऽसंयमे परिग्रहे च वर्तते । अचेलेन तु तदादरस्त्यक्तः, वातातपादिबाधासहनात् । स्ववशता च गुणः देशान्तरगमनादौ सहायाप्रतीक्षणात् । पिच्छमात्रं गृहीत्वा हि त्यक्तसकलपरिग्रहः पक्षीव यातीति । सचेलस्तु सहायपरवशः चौरभयात् भवति परवशमानसश्च कथं संयमं पालयेत् । चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायां । कौपीनादिना प्रच्छादयतो भावशुद्धिर्न ज्ञायते । निश्चेलस्य तु निर्विकारदेहतया स्फुटा विरागता । निर्भयता च गुणः । ममेदं किमपहरन्ति चौरादयः, किं ताडयन्ति बघ्नन्तीति वा भयमुपैति सचेलो नाचेलो, भयातुरो वा किं न कुर्यात् । सर्वत्र विश्रब्धता च गुणः । निष्परिग्रहः न किंचनापि शङ्कते । सचेलस्तु प्रतिमार्गयायिनं अन्यं वा दृष्ट्वा न तत्र विश्वासं करोति । को वेत्ययं किं करोति इति । अप्रतिलेखनता च गुणः । चतुर्दशविधं उपधि गृहृतां बहुप्रतिलेखनता न तथाचेलस्य । परिकर्मवर्जनं च गुणः । उद्व ेष्टनं, मोचनं, सीवनं, बंधनं, रंजनं इत्यादिकमनेकं परिकर्म ३२२ विघ्न होता है । जो निःसंग है उसके इस प्रकारकी बाधा नहीं होती। सूत्र पौरुषी और अर्थपौरुषी में निर्विघ्नता रहती है तथा स्वाध्याय और ध्यान की भावना होती है । है अचेलता में एक गुण परिग्रहका त्याग है । बाह्य वस्त्र आदि परिग्रहका त्याग अभ्यन्तर परिग्रहके त्यागका मूल है। जैसे धानके छिलकेको दूर करना उसके अभ्यन्तर मलको दूर करनेका उपाय है | बिना छिलकेका धान्य नियमसे शुद्ध होता है । किन्तु जिसपर छिलका लगा है उसकी शुद्धि नियमसे नहीं होती । इसी प्रकार जो अचेल है उसकी अभ्यन्तर शुद्धि नियमसे होती है किन्तु जो सचेल है उसकी शुद्धि भाज्य है । अचेलता में रागद्वेषका अभाव एक गुण है जो वस्त्र धारण करता है वह मनको प्रिय सुन्दर वस्त्रसे राग करता है और मनको अप्रिय वस्त्रसे द्वेष करता है | राग और द्वेष बाह्य द्रव्यके अवलम्बनसे होते हैं । परिग्रहके अभाव में राग द्वेष नहीं होते । तथा शरीरमें अनादर भी अचेलताका गुण हैं । शरीरमें आदर होनेसे मनुष्य असंयम और परिग्रहमें प्रवृत्ति करता है । जो अचेल होता है उसका शरीरमें आदरभाव नहीं होता । तभी तो वह वायु धूप आदिका कष्ट सहता है । अचेलता में स्वाधीनता भी एक गुण क्योंकि देशान्तर में जाने आदिमें सहायकी प्रतीक्षा नहीं करनी होती । समस्त परिग्रहका त्यागी पीछी मात्र लेकर पक्षी की तरह चल देता है । जो सचेल होता है वह सहायके परवश होता है तथा चोरके भयसे उसका मन भी परवश होता है वह संयमको कैसे पाल सकता है । तथा अचेलता में चित्तकी विशुद्धिको प्रकट करने का भी गुण है । लंगोटी वगैरहसे ढाँकनेसे भावशुद्धिका ज्ञान नहीं होता । किन्तु वस्त्र रहित के शरीर के विकार रहित होनेसे विरागता स्पष्ट दीखती है । अचेलता में निर्भयता गुण है। चोर आदि मेरा क्या हर लेंगे, क्यों वे मुझे मारेंगे या बाँधेंगे। किन्तु सवस्त्र डरता है और जो डरता है वह क्या नहीं करता । सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। जिसके पास कोई परिग्रह नहीं वह किसी पर भी शंका नहीं करता । किन्तु जो सवस्त्र है वह ता मार्ग में चलने वाले प्रत्येक जन पर अथवा अन्य किसी को देखकर उस पर विश्वास नहीं करता । यह कौन है क्या करता है यह शंका होती है । अचेलता में प्रतिलेखनाका न होना भी एक गुण है । चौदह प्रकारकी परिग्रह रखनेवालों को बहुत प्रतिलेखना करना होती है, अचेलको वैसी प्रतिलेखना नहीं करना पड़ती । परिकर्मका नहीं होना भी एक गुण अचेलका है । सवस्त्रको लपेटना, छोड़ना, Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३२३ सचैलस्य । स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालनं सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्च्छा च । लाघवं च गुणः । अचेलोऽल्पोपधिः स्थानासनगमनादिकासु क्रियासु वायुवदप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः । तीर्थकराचरितत्वं च गुणः - संहननवलसमग्रा मुक्तिमार्ग प्रख्यापनपरा जिनाः सर्व एवाचेला भूता भविष्यंतश्च । यथा मेर्वादिपर्वतगताः प्रतिमास्तीर्थकर मार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽव्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेलत्वं । चेलपरिवेष्टिताङ्गो न जिनसदृशः । व्युत्सृष्टप्रलम्बभुजो निश्चेलो जिनप्रतिरूपतां धत्ते । अनिगूढबलवीर्यता च गुणः । परीषहसहने शक्तोऽपि सचेलो न परीषहान्सहते इति । एवमेतद्गुणावेक्षणादचेलता जिनोपदिष्टा । चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्यं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ? वयमेव न ते निर्ग्रन्था इति वाङ्मात्रं नाद्रियते मध्यस्थैः । इत्थं चेले दोषा अचेलतायां वा अपरिमिता गुणा इति अचेलता स्थितिकल्पत्वेनोक्ता । अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथा ह्याचारप्रणिधी भणितं ' - " पडिलेखे पात्रकंबलं तु ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते ।" आचारस्यापि द्वितीयाध्यायो लोकविचयो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तं — पडलेह पादपुखणं, उग्गहं, कडासणं, अण्णदरं सीना, बाँधना, रंगना इत्यादि अनेक परिकर्म करने होते हैं। अपने वस्त्र, ओढ़ने वगैरह को स्वयं धोना, सीना ये कुत्सित कर्म तथा शरीरको भूषित करना ममत्व आदि परिकर्म करने होते हैं । लाघव गुण भी अचेलता में हैं । अचेलके पास थोड़ा परिग्रह होता है । उठना बैठना जाना आदि क्रियाओं में वह वायुको तरह बेरोक और लघु होता है, सवस्त्र ऐसा नहीं होता । तीर्थंकरोंके मार्ग का आचरण करना भी अचेलताका गुण है । संहनन और बलसे पूर्ण तथा मुक्तिके मार्गका उपदेश देने में तत्पर सभी तीर्थंकर अचेल थे तथा भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिन प्रतिमा और तीर्थंकरोंके मार्गके अनुयायी गणधर भी अचेल होते हैं । उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं। इस प्रकार अचेलता सिद्ध होती है । जिसका शरीर वस्त्रसे वेष्ठित है वह तीर्थंकरके समान नहीं है । जो दोनों भुजाओंको लटका कर खड़ा है और वस्त्र रहित है वह जिनके समान रूपका धारी होता है । अपने बल और वीर्यको न छिपाना भी अलताका गुण है । सवस्त्र परीषहोंको सहने में समर्थ होते हुए भी परीषहों को नहीं सहता । इस प्रकार उक्त गुणोंके कारण अचेलता जिनदेवके द्वारा कही गई है। जो अपने शरीरको वस्त्र वेष्टित करके अपनेको निर्ग्रन्थ कहता है उसके अनुसार अन्य मतानुयायी साधु निर्ग्रन्थ क्यों नहीं हैं । हम ही निर्ग्रन्थ हैं वे निर्ग्रन्थ नहीं हैं यह तो कहना मात्र है । मध्यस्थ पुरुष इसे नहीं मानते । इस प्रकार वस्त्र में दोष और अचेलतामें अपरिमित गुण होनेसे अचलताको स्थितिकल्परूपसे कहा है । यदि आप मानते हैं कि पूर्व आगमोंमें वस्त्र पात्र आदिके ग्रहणका उपदेश है । जैसे आचार प्रणिधिमें कहा है - ' पात्र और कंबलकी प्रतिलेखना अवश्य करना चाहिये ।' यदि पात्रादि नहीं. होते तो उनकी प्रतिलेखना आवश्यक कैसे की जाती । आचारांगका भी दूसरा अध्याय लोक विचय नामक है । उसके पाँचवें उद्देशमें कहा है- 'प्रतिलेखना, पैर पूछना, उग्गह ( एक उपकरण ), १. प्रतिलिखे - मु० । २. 'वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहणं च कडासणं एएसु चैव जाणिज्जा' | आचा० २/५/१०/ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ भगवती आराधनां उवधि पावेज्ज इति । तथा वत्थसणाए वुत्तं 'तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं, तत्थ एसे जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासएस (अणहिवासए) तओ वत्थाणि धारेज्ज पडिलोहणं चउत्थं ।" तथा पादेसणाए कथितं "हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पादचारित्तए इति" । पुनश्चोक्तं तत्रैव-"अलाबुपत्तं वा, दारुगपत्त वा मट्टिगपतं वा अप्पपाणं, अप्पबीजं अप्पसरिदं तथा अप्पकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिस्सामीति"। वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्य कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते । भावनायां चोक्तं-"बरिसं चीवरधारि तेन परमचेलके तु जिणे" इति । तथा सूत्रकृतस्य पुंडरीके अध्याये कथितं 'ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति । निसेवेप्युक्तं-"कसिणाइ3 वत्थकंवलाई जो भिक्खु पडिग्गहिदि आपज्जदि मासिगं लहुगं' इति । एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इत्यत्रोच्यते-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया । भिक्षूणां हीमानयोग्य शरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्वमाननवीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति । कटासन (चटाई) इनमेंसे कोई एक उपधि पाता है। तथा वस्त्रषणामें कहा है-'जो लज्जाशील हो वह एक वस्त्र धारण करे, दूसरा प्रतिलेखना। देश विशेष में दो वस्त्र धारण करे, तीसरा प्रतिलेखना धारण करे। जो परीषह सहने में असमर्थ हो वह तीन वस्त्र और चतुर्थ प्रतिलेखना धारण करे।' तथा पात्रषणामें कहा है-'जो लज्जाशील आदि है और पादचारी है उसके लिये वस्त्रादि योग्य हैं।' पुनः उसीमें कहा है 'तुम्बीका पात्र, लकड़ीका पात्र अथवा मिट्टीका पात्र, पात्रलाभ होनेपर ग्रहण करूँगा जो अल्पबीज आदि हो। यदि वस्त्र पात्र ग्रहण करने योग्य न होते तो ये सूत्र कैसे होते ? भावनामें कहा हैभगवान् जिनने एक वर्ष तक देव दृष्य वस्त्र धारण किया। उसके पश्चात् अचेलक (निर्वस्त्र) रहे। तथा सूत्र कृतांगके पुण्डरीक अध्ययनमें कहा है-'वस्त्र पात्र आदिकी प्राप्तिके लिये धर्मकथा नहीं कहनी चाहिये ।' निशीथ सूत्र में कहा है-'जो भिक्षु पूर्ण वस्त्र कम्बल ग्रहण करता है वह मासिक लघु प्रायश्चित्त के योग्य है।' इस प्रकार सूत्र ग्रन्थोंमें चेलका निर्देश होते हुए अचेलता कैसे संभव है ? इसका उत्तर देते हैं-कारणकी अपेक्षा आर्यिकाओंको आगममें वस्त्रकी अनुज्ञा है। भिक्षुओंमेंसे यदि किसीके शरीरका अवयव लज्जा योग्य हो, अथवा लिंगके मुंह पर चर्म न हो या अण्डकोष लम्बे हों, अथवा परीषह सहने में असमर्थ हो तो वह वस्त्र ग्रहण करता है। आचारांग में कहा है 'आयुष्मान्' मैंने सुना, भगवान्ने ऐसा कहा। यहाँ संयमके अभिमुख स्त्री पुरुष दो प्रकार के होते हैं-एक सर्वश्रमणागत, एक नो सर्वश्रमणागत । उनमेंसे जो सर्वश्रमणागत, स्थिर अंग हाथ-पैरवाले तथा सब इन्द्रियोंसे पूर्ण होते हैं उनको एक भी वस्त्र धारण करना योग्य नहीं है केवल एक पीछी रखते हैं। तथा कल्प सूत्रमें कहा है-'लज्जाके कारण और शरीरके अंगके ग्लानियुक्त होने पर तथा परीषहोंको सहने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण करे ।' १. वद्धसणाए अ० आ० । २. जुग्गिदे दे-मु० । ३. जे भिक्खकसिणाई वत्थाई घरेइं धरेतं वा सातिज्जति ||-निशीथसू० १२३ । य Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३२५ wwwwwwwwwwwwwwan ~~~ ~ तथा चोक्तमाचारांगे 'सुदं मे आउस्सत्तो भगवदा एवमक्खादं । इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थीपु रिसा जदा भवंति। तं जहा-सव्वसमणागदे णोसमणागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमगदे थिरांगहत्थपाणिपादे सम्वदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ धारिउ एव परिहिउ एक अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति" । तथा चोक्तं कल्पे-'हिरिहेतुकं व होइ देहदुगुति देहे जुग्गिदगे। धारेज्ज सिया वत्थं परिस्सहाणं चण विहासीति (वसहई)" द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं आचारे विद्यते--"अहं पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंतेहिं सुपडिवणे से अथापडिजुण्णमुवधि पदि छावेज्ज'' इति । हिमसमये शीतबाधासहः परिगृह्य चेलं तस्मिन्निष्क्रान्ते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति कारणापेक्षं ग्रहणमाख्यातं । परिजीर्णविशेषोपादानाढ्ढानामपरित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः । प्रक्षालनादिक संस्कारविरहात्परिजीर्णता वस्त्रस्य कथिता न तु दृढ़स्य (स्या) त्यागकथनार्थ । पात्रप्रतिष्ठापना सूत्रेणोक्तेति संयमाथं पात्रग्रहणं सिध्यति इति मन्यसे नैव, अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्याग सिद्ध एवेति । तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणं । यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहण विधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम् । तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रषु बहपु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । यच्च भावनायामुक्तं-वरिसं चीवरधारी तेण परमेचलगो जिणोत्ति ।-तदुक्तं विप्रतिपत्ति बहुलत्वात् । कथं ? केचिद्वदन्ति 'तस्मिन्नेव दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति' । अन्ये 'षण्मासाच्छिन्नं तत्कण्टकशाखादिभिरिति' । 'साधिकेन आचारांगमें दूसरा सूत्र भी कारणकी अपेक्षा वस्त्र ग्रहणका साधक है-- 'यदि ऐसा जाने हेमन्त बीत गया, ग्रीष्म ऋतु आ गई और वस्त्र जीर्ण नहीं हुआ तो स्थापित कर दे ।' अर्थात् ठंडके समय शीतकी बाधा न सहने पर वस्त्र ग्रहण कर ले। उसके चले जाने पर और ग्रीष्मके आनेपर वस्त्रको कहीं रख दे। इस प्रकार कारणकी अपेक्षा वस्त्रका ग्रहण कहा है। शङ्का-जीर्ण विशेषण देनेसे दृढ़ वस्त्र हो तो न छोड़े ? समाधान-तब तो अचेलता कथनके साथ विरोध आता है। धोना आदि संस्कार न किये जानेसे वस्त्रको जीर्ण कहा है, मजबूत वस्त्रका त्याग न करनेके लिए नहीं कहा । शङ्का-सूत्रके द्वारा पात्रकी प्रतिष्ठापना कही है। अत: संयमके लिए पात्रका ग्रहण सिद्ध होता है ? समाधान-नहीं, अचेलताका अर्थ है परिग्रहका त्याग । और पात्र परिग्रह है अत: उसका भी त्याग सिद्ध ही है। अतः कारणकी अपेक्षा वस्त्र पात्रका ग्रहण कहा है। और जो उपकरण कारणकी अपेक्षा ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण ग्रहणकी विधि और गृहीत उपकरणका त्याग अवश्य कहना ही चाहिए । इसलिए बहुतसे (श्वेताम्बरीय) सूत्रोंमें जो अर्थाधिकारकी अपेक्षा वस्त्र पात्रका कथन किया है वह कारण विशेषकी अपेक्षा कहा है-ऐसा ग्रहण करना चाहिये । और जो भावनामें कहा है कि 'जिन एक वर्षतक वस्त्रधारी रहे उसके बाद अचेलक रहे।' उसमें बहुत विवाद हैं। कोई कहते हैं कि उसी दिन वह वस्त्र वीर भगवान्के किसी व्यक्तिने ले लिया था। दूसरोंका कहना है कि वह वस्त्र छह मासमें काँटे शाखा आदिसे छिन्न हो गया। १. जादा आ० मु० । २. 'अह पुणं एवं जाणिज्जा-उवाइक्कते हेमंते गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुन्नाई। वत्थाई परिविज्जा'-आचारा० ७।४।२०९ । Main Education International Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ भगवती आराधना वर्षेण तद्वस्त्रं खंडलकब्राह्मणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति । केचिदातेन पतितमुपेक्षितं जिनेनेति । अपरे वदन्ति 'विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति' । एवं विप्रतिपत्तिबाहुल्यान्न दृश्यते तत्त्वं । सचेललिङ्गप्रकटनार्थं यदि चेलग्रहणं जिनस्य कथं तद्विनाश इष्ट: । सदा तद्धारयितव्यम् । किं च यदि नश्यतीति ज्ञातं निरर्थकं तस्य ग्रहणं । यदि न ज्ञातमज्ञानमस्य प्राप्नोति । अपि च चेलप्रज्ञापना वाञ्छिता चेत् "आचेल'क्को धम्मो पुरिमचरिमाणं" इति वचो मिथ्या भवेत् । तथा नवस्थाने यदुक्तं "यथाहमचेली तथा होउ पच्छिमो इदि होक्खवित्ति" तेनापि विरोधः । किं च जिनानामितरेषां वस्त्रत्यागकाल: वीरजिनस्येव किन निदिश्यते, यदि वस्त्रं तेषामपि भवेत । एवं तु युक्तं वक्तं 'सर्वत्यागं कृत्वा स्थिते जिने केनचिदसं वस्त्रं निक्षिप्तं उपसागस इति । इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीपहसूत्रेप। न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते । इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति 'परिणत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए ।' अचेलपवरे भिक्खू जिणस्वधरे सदा ॥ सचेलगो सुखी भवदि असुखी चावि अचेलगो । अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खू ण चितए ॥ कोई कहते हैं कि एक वर्षसे कुछ अधिक होने पर उस वस्त्रको खंडलक नामके ब्राह्मणने ले लिया था। कुछ कहते हैं कि हवासे वह वस्त्र गिर गया और जिनदेवने उसकी उपेक्षा कर दी। अन्य कहते हैं कि उस पुरुषने उस वस्त्रको वीर भगवान्के कन्धेपर रख दिया। इस प्रकार बहुत विवाद होनेसे इसमें कुछ तत्त्व दिखाई नहीं देता। यदि वीर भगवान्ने सवस्त्र वेष प्रकट करनेके लिए वस्त्र ग्रहण किया था तो उसका विनाश इष्ट कैसे हुआ। सदा उस वस्त्रको धारण करना चाहिये था । तथा यह वस्त्र विनष्ट होने वाला है ऐसा उन्हें ज्ञात था तो उसका ग्रहण निरर्थक था। यदि उन्हें यह ज्ञात नहीं था तो वीर भगवान् अज्ञानी ठहरते हैं। तथा यदि चेलप्रज्ञापना इष्ट थी तो 'प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करका धर्म अचेल था' यह वचन मिथ्या ठहरता है। तथा नव स्थानमें कहा है-'जैसे मैं अचेल हुआ वैसे ही अन्तिम तीर्थङ्कर अचेल होंगे।' उससे भी विरोध आता है। तथा अन्य तीर्थङ्करोंने भी वस्त्र धारण किया था तो वीर भगवान् की तरह उनका भी वस्त्र त्यागनेके कालका निर्देश क्यों नहीं है ? इसलिए ऐसा कहना युक्त है कि जब वीर भगवान् सर्वस्व त्याग कर ध्यानमें लीन हुए तो किसीने उनके कन्धे पर वस्त्र रख दिया। यह तो उपसर्ग हुआ। परीषहोंका कथन करनेवाले सूत्रोंमें जो शीत, डांस-मच्छर, तृणस्पर्श परीषहोंके सहनेका कथन है वह अचेलताको सिद्ध करता है । वस्त्रधारीको शीत आदि वाधा नहीं पहुँचाते । तथा ये सूत्र भी अचेलताको बतलाते हैं-'वस्त्रोंका त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करता। सदा भिक्षु अचेल होकर जिनरूपको धारण करता है । भिक्षु ऐसा विचार नहीं करता कि सवस्त्र सुखी होता है और अवस्त्र दुःखी होता है इसलिए मैं वस्त्र धारण करूंगा।' वस्त्र रहित साधुको कभी शीत सताता है तो वह घामको चिन्ता नहीं करता, आलस त्याग सहन करता है। मेरे १. 'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्य पच्छिमस्स य जिणस्स ।' बृ, कल्पम् भा० गा० ६३६९ । २. द्वस्त्रं वस्तुं नि-आ० मु० । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३२७ अचेलग सलूहस्स (स्प लहुअस्स) सीदं भवदि एगदा । णात से विचितेज्जो अधिसिज्ज अलाइसो (?) ॥ ण मे णिवारणं अत्थि छाइयं ताण विज्जदि । अहं तावग्गि सेवामि इति भिक्ख ण चितए । अचेलगाण लहस्स संजदस्स तवस्सिणो। तणेस असमागस्त णं ते होदि विराधिदो॥ एगेण ताव कप्पेण संवडंगतिणं सित । दंसावाए जो संपसिद्धं किमंगं पुण दोहकप्पेहिं ॥ एतान्युत्तराध्ययने आचेलक्को य जो धम्मो जो वायं सणरुत्तरो। देसिदो वड्ढमाणेण पासेण अ महप्पणा ॥ एगधम्मे पवत्ताणं दुविधा लिंगकप्पणा । उभएसि पदिट्ठाणमहं संसयमागदा ॥ इति वचनाच्चरमतीर्थस्यापि अचेलता सिद्धयति । जग्गस्स य मुंडस्स य दीहलोमणखस्स य । ... मेहणादो विरत्तस्स कि विभूसा करिस्सदि ॥ इति दशवकालिकायामुक्तं । एवमाचेलक्यं स्थितिकल्पः । श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकं उद्देसिगमित्युच्यते । तच्च षोडशविध आधाकर्मादिविकल्पेन । तत्परिहारों द्वितीयः स्थितिकल्पः । तथा चोक्तं कल्पे-- - सोलस विधमुद्देसं वज्जेदव्वंति पुरिमचरिमाणं । तित्थगराण तित्थे ठिदिकप्पो होदि विदिओ हु॥ सेज्जाधरशब्देन त्रयो भण्यन्ते वसति यः करोति । कृतां वा वसतिं परेण भग्नां पतितैकदेशां वा पास शीत दूर करनेका कोई साधन नहीं है न काई छाजन ही है। मैं आगका सेवन करूं' ऐसा भिक्षु विचार नहीं करता। जो तपस्वो अचेल होनेसे भारमुक्त है वह संयमकी विराधना नहीं करता। उत्तराध्ययन सूत्रमें केसी गौतमसे प्रश्न करता है-जो यह वर्धमान भगवान्ने अचेलक धर्म कहा है और भगवान् पार्श्वने 'सान्तरोत्तर धर्म कहा है। एक ही धर्मके मानने वालोंमें दो प्रकारके लिंगकी कल्पनासे मैं संशयमें पड़ा हूँ। इस कथनसे अन्तिम तीर्थकी भी अचेलता सिद्ध होती है। दशवैकालिक सूत्रमें कहा है-नग्न, मुण्डित और दीर्घ नख और रोम वाले तथा मैथुनसे विरक्त साधुको आभूषणोंसे क्या प्रयोजन है । इस प्रकार आचेलक्य स्थितिकल्प है। . २. श्रमणोंके उद्देशसे बनाये गये भोजनादिको औद्देशिक कहते हैं । अधःकर्म आदिके भेदसे उसके सोलह प्रकार हैं। उसका त्याग दूसरा स्थितिकल्प हैं। कल्पमें कहा है-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरोंके तीर्थमें सोलह प्रकारका उद्दिष्ट छोड़ने योग्य है । यह दूसरा स्थितिकल्प है। ३. 'शय्याधर' शब्दसे तीन कहे जाते हैं-जो वसति बनाता है, दूसरेके द्वारा बनाई गई Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ भगवती आराधना संस्करोति, यदि वा न करोति न संस्कारयति केवलं प्रयच्छत्यत्रास्वेति । एतेषां पिण्डो नामाहारः, उपकरणं वा प्रतिलेखनादिकं शय्याधरपिण्डस्तस्य परिहरणं तृतीयः स्थितिकल्पः । सति शय्याधरपिण्डग्रहेण'प्रच्छन्नमयं योजयेदाहारादिकं । धर्मफललोभाद्यो वा आहारं दातुमक्षमो दरिद्रो लुब्धो वा न चासौ वसतिं प्रयच्छेत् । संति वसती आहारादाने लोको मां निन्दति-स्थिता वसतावस्य३ यतयो न चानेन मन्दभाग्येन तेषां आहारो दत्त इति । यतेः स्नेहः स्यादाहारं वसतिं च प्रयच्छति तस्मिन् बहूपकारितया । तत्पिण्डाग्रहणे तु नोक्तदोषसंस्पशंः । राजपिण्डाग्रहणं चतुर्थः स्थितिकल्पः । राजशब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाताः । राजते प्रकृति रञ्जयति इति वा राजा राजसदशो महद्धिको भण्यते । तस्य पिण्डः तत्स्वामिको राजपिण्डः । स त्रिविधो भवति । आहारः, अनाहारः, उपधिरिति । तत्राहारश्चतुर्विधो अशनादिभेदेन । तणफलकपीठादिः अनाहारः, उपधिर्नाम प्रतिलेखनं वस्त्रं पात्रं वा । एवंभूतस्य राजपिण्डस्य ग्रहणे को दोषः इति चेत् अत्रोच्यते-द्विविधा दोषा आत्मसमुत्थाः परकृताश्चेति । द्विविधा परसमुत्थाः मनुजतिर्यक्कृत विकल्पेनेति । तिर्यक्कृता द्विविधा ग्रामारण्यपशुभेदात् । ते द्विप्रकारा अपि द्विभेदा दुष्टा भद्राश्चेति। हया, गजा, गावो, महिषा, मेण्डाः, श्वानश्च ग्राम्याः दुष्टाः । वसतिको टूटने पर या उसका एक हिस्सा गिर जाने पर जो उसकी मरम्मत कराता है, जो न करता है न मरम्मत कराता है केवल देता है कि यहाँ ठहरिये । उनका पिण्ड अर्थात् भोजन, उपकरण अथवा प्रतिलेखना आदि शय्याधर पिण्ड कहाता है। उसका त्याग तीसरा स्थितिकल्प है। शय्याधरका पिण्ड ग्रहण करने पर वह धर्मके फलके लोभसे छिपाकर आहार आदिकी योजना कर सकता है। अथवा जो दरिद्र या लोभी होनेसे आहार देने में असमर्थ है वह ठहरनेका स्थान नहीं देगा क्योंकि वसतिम ठहराकर आहार न देने पर लोक मेरी निन्दा करेंगे कि इसकी वसतिमें य और इस अभागेने उन्हें आहार नहीं दिया। तथा आहार और वसति देने वाले पर यतिका स्नेह हो सकता है कि इसने हमारा बहुत उपकार किया है । किन्तु शय्याधरका आहार ग्रहण न करने पर उक्त दोष नहीं होते। ४ राजपिण्डका ग्रहण न करना चतर्थ स्थितिकल्प है। राज शब्दसे इक्ष्वाकु आदि कुलमें उत्पन्न हुओंका ग्रहण किया जाता है। जो 'राजते' शोभित होता है या जनताका रंजन करता है वह राजा है। राजाके समान सम्पत्तिशाली भी राजा कहलाता है । उसका पिण्ड अर्थात् जिस पिण्डका वह स्वामी होता है, वह राजपिण्ड है। उसके तीन भेद हैंआहार, अनाहार और उपधि । अशन आदिके भेदसे आहारके चार भेद हैं। तृणोंका फलक, आसन आदि अनाहार है । प्रतिलेखन, वस्त्र पात्रको उपधि कहते हैं । शङ्का--इस प्रकारके राजपिण्डके लेने में क्या दोष है ? समाधान-दो प्रकारके दोष हैं एक आत्मसमुत्थ-स्वयं किया, और दूसरा परसमुत्थ । परसमुत्थ के दो भेद हैं-एक मनुष्यकृत और एक तिर्यञ्चकृत । तिर्यञ्चकृतके दो भेद हैं-एक ग्रामीण पशुके द्वारा किया गया और एक जंगलो पशुके द्वारा किया गया । इन दोनों प्रकारोंके भी दो भेद हैं-दुष्टके द्वारा और भद्रके द्वारा किया गया। गाँवके घोड़े, हाथी, गाय, भैंस, मेढे, कुत्ते दुष्ट होते हैं । दुष्टोंसे संयमियोंका उपघात होता है । भद्र हुए तो संयमीको देखकर भागने पर गिरकर १. पिंडधरन-अ० आ० । २. फलेभाद्ये वा-अ० । फलेभोद्यो वा-आ० । ३. वसताववसा यत-अ० । वसत्यवसत्यवसाधते-आ० । ४. वा राज्ञा सदृशः अ० । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३२९ दुष्टेभ्यः संयतोपघातः । भद्राः पलायमानाः स्वयं दुःखिताः पातेन अभिघातेन वा वतिनो मारयन्ति वा धावनोल्ल धनादिपराः प्राणिनः। आरण्यकास्तु व्याघ्रक्रव्यादद्वीपिनो, वानरा वा राजगृहे बन्धनमुक्ता यदि क्षद्रास्तत आत्म विपत्तिर्भद्राश्चेत्तत्पलायने पूर्वदोषः । मानुषास्तु ईश्वराः तलवरा म्लेच्छाः, भटाः, प्रेष्याः, दासाः दास्यः, इत्यादिकाः । तैराकुलत्वात् दुःप्रवेशनं राजगृहं प्रविशन्तं मत्ताः, प्रमत्ताः, प्रमुदिताश्च दासादयः उपहसन्ति, आक्रोशन्ति वारयन्ति उल्लङ्घयंति वा । अवरुद्धा याः स्त्रियो मैथुनसंज्ञया बाध्यमानाः पुत्रार्थिन्यो वा बलात्स्वगृहं प्रवेशयन्ति भोगार्थम् । विप्रकीर्णं रत्नसुवर्णादिकं परे गृहीत्वा अत्र संयता आयाता इति दोषमध्यारोपयन्ति । राजा विश्वस्तः श्रमणेषु इति श्रमणरूपं गृहीत्वागत्य दुष्टाः खलीकुर्वन्ति । ततो रुष्टा अविवेकिनः दूषयन्ति श्रमणान्मारयन्ति बध्नन्ति । वा एते परसमुद्भवा दोषाः । आत्मसमुद्भवास्तूच्यन्ते । राजकुले आहारं न शोधयति अदृष्टमाहृतं च गृह्णाति । विकृतिसेवनादिंगालदोषः, मन्दभाग्यो वा दृष्ट्वानय॑ रत्नादिकं गृह्णीयाद्वामलोचना वा 'सुरूपाः समवलोक्यानुरक्तस्तासु भवेत् । तां विभूति, अन्तःपुराणि, पण्याङ्गना वा विलोक्य निदानं कुर्यात् । इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो न सर्वत्र प्रकल्प्यते । ग्लानार्थ राजपिण्डोऽपि दुर्लभं द्रव्यं । अगाढकारणे वा श्रुतस्य व्यवच्छेदो माभूदिति ।। ___ चरणरथेनापि विनयो गुरूणां महत्तराणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पञ्चमः कृतिकर्मसंज्ञितः स्थितिकल्प' । या चोट खाकर स्वयं दुःखी होते हैं अथवा दौड़ते हुए व्रतियोंको मारते हैं । जंगलके रहने वाले व्याघ्र, सिंह, बन्दर यदि राजाके आँगनमें खुले घूमते हों और क्षुद्र हों तो उनसे अपने पर विपत्ति आ सकती है । यदि भद्र हुए तो यतिको देखकर दौड़ने पर स्वयं चोट खा सकते हैं या यतियोंको चोट पहुंचा सकते हैं । मनुष्य स्वामी, कोतवाल, म्लेच्छ, योद्धा, सेवक दास दासी आदि अनेक हैं । राजाका घर इन सबसे भरा होनेसे उसमें प्रवेश करना कठिन है। मत्त, प्रमत, और हर्षसे उत्फुल्ल दास आदि यतिको देखकर हँसते हैं, चिल्लाते हैं, रोकते हैं, अवज्ञा करते हैं। कामसे पीड़ित स्त्रियाँ अथवा पुत्र प्राप्तिकी इच्छुक स्त्रियाँ बलपूर्वक भोगके लिए साधुको अपने घरमें ले जाती हैं । राजगृहमें पड़े हुए रत्न सुवर्ण आदिको दूसरे ग्रहण करके यह दोष लगा सकते हैं कि यहाँ साधु आये थे। राजाका श्रमणों पर विश्वास है ऐसा जानकर दुष्ट लोग श्रमणका रूप रखकर दष्ट काम कर सकते हैं। तब रुष्ट होकर अविवेकी पुरुष श्रमणोंको दोष देते हैं, उन्हें मारते और बाँधते हैं। ये परसे उत्पन्न हए दोष हैं। . अब आत्मासे हुए दोष कहते हैं-राजकुलमें आहारका शोधन नहीं होता, बिना देखा और छीना हुआ आहार ग्रहण करना होता है। सदोष आहार लेनेसे इंगाल दोष होता है। कोई अभागा साधु बहुमूल्य रत्नादि देखकर उठा सकता है अथवा सुन्दर स्त्रियोंको देखकर उनपर अनुरक्त हो सकता है । उस विभूति, अन्तःपुर और बाजारू स्त्रियोंको देखकर निदान कर सकता है कि मुझे भी ये वस्तुएँ प्राप्त हों । इस प्रकारके दोष जहाँ संभव हों वहाँ राजाका आहार नहीं लेना चाहिए । सर्वत्र लेनेका निषेध नहीं है । रोगीके लिए राजपिण्ड भी दुर्लभ होता है। अथवा कोई ऐसा कारण उपस्थित हो कि साधका मरण बिना भोजनके होता हो और साधके मरनेसे श्रुतका विच्छेद होता हो तो राजपिण्ड ले सकते हैं कि श्रुतका विच्छेद न हो। ५ चारित्रमें स्थित साधुके द्वारा भी महान् गुरुओंकी विनय सेवा करना पाँचवाँ कृतिकर्म नामक स्थितिकल्प है। १. वानुरूपाः आ० मु० । २. गीतार्थे-आ० । ४२ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० भगवती आराधना ज्ञातजीवनिकायस्य दातव्यानि नियमेन व्रतानि इति षष्ठः स्थितिकल्पः । अचेलतायां स्थितः उद्देशिकराजपिण्डपरिहरणोद्यतः गुरुभक्तिकृद्विनीतो व्रतारोपणार्हो भवति । उक्तं च-- आचेलक्के य ठिदो उद्देसादी य परिहरदि दोसे । गरुभत्तिको विणीओ होदी वदाणं सया अरिहो ॥ [ ] इति व्रतदानक्रमोऽयं स्वयमासीनेषु गुरुषु, अभिमुखं स्थिताभ्यो विरतिभ्यः, श्रावकश्राविकावर्गाय च व्रतं प्रयच्छेत् । स्वयं स्थितः सूरिः स्ववामे देशे स्थिताय विरताय व्रतानि दद्यात् । उक्तं च विरदी सावगवग्गं च णिविटुं ठविय तं च सपडिमुखे। विरदं च ठिदो वामे ठवियं गणिदो उपट्ठाघो उवट्ठवेज्ज ॥ [ ] इति ज्ञात्वा श्रद्धाय पापेभ्यो विरमणं व्रतं वृत्तिकरणं छादनं संवरो विरतिरित्येकार्थाः । उक्तं च णाऊण अब्भुवेच्चय पावाणविरमण वदं होई। विदिकरणं छादणं संदरो विरदित्ति एगट्ठो ॥ [ ] इति । आद्यपाश्चात्त्यतीर्थयो रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि पंच महाव्रतानि । तत्र प्राणवियोगकरणं प्राणिनः प्रमत्तयोगात्प्राणवधस्ततो विरतिरहिंसाव्रतं । यलोकभाषणेन दुःखं प्रतिपद्यन्ते जीवाः इति मत्वा दयावतो यत्सत्याभिधानं तद्वितीयं व्रतं । ममेदमिति संकल्पोपनीतद्रत्यवियोगे दुःखिता भवन्ति इति तद्दयया .६ जीवोंके भेद-प्रभेदोंको जानने वालेको ही नियमसे व्रत देना चाहिए। यह छठा स्थितिकल्प है। जो अचेलतामें स्थित हो, उद्दिष्ट और राजपिण्डका त्याग करनेमें तत्पर हो, गुरुकी भक्ति करने वाला हो, विनयी हो, वही व्रत देनेके योग्य होता है। कहा है ___ 'जो अचेलकपने में स्थित है और उद्दिष्ट आदि दोषोंका सेवन नहीं करता, गुरुका भक्त । और विनीत है वह सदा व्रतोंको धारण करनेका पात्र होता है।' यह व्रत देनेका क्रम है- गुरुजनोंके स्वयं रहते हुए आचार्य स्वयं स्थित होकर सामने स्थित विरत स्त्रियोंको श्रावक श्राविका वर्गको व्रत प्रदान करे । तथा अपने वाम देशमें स्थित विरतोंको व्रत प्रदान करे । कहा है ___ 'विरत स्त्रियोंको और श्रावक वर्गको अपने सामने स्थित करके और विरत पुरुषोंको अपने वाम भागमें स्थापित करके गणि व्रत प्रदान करें।' इस प्रकार जानकर तथा श्रद्धा करके पापोंसे विरत होना व्रत है। वृत्तिकरण छादन, संवर और विरति, ये सब शब्द एकार्थक हैं। कहा है-'जानकर और स्वीकार करके पापोंसे विरत होना व्रत है। वृत्तिकरण, छादन, संवर, विरति ये सब एकार्थक है।' प्रथम और अन्तिम तीर्थ करके तीर्थमें रात्रिभोजन त्यागनामक छठे व्रतके साथ पाँच महाव्रत होते हैं। प्रमादयुक्तभावके सम्बन्धसे प्राणिके प्राणोंका वियोग करना हिंसा है और उससे विरति अहिंसा व्रत है। झूठ बोलनेसे जोव दुःखो होते हैं ऐसा मानकर दयालु पुरुषका सत्य बोलना दूसरा व्रत है। जिसमें 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प है उस द्रव्यके चले जानेपर जीव दुःखी होते हैं। इसलिए उसपर दया करके बिना दी हुई वस्तुके ग्रहणसे विरत होना तीसरा व्रत है। १. स्थितेभ्यो-अ० । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३३१ अदत्तस्यादानाद्विरमणं तृतीयं व्रतम् । सर्षपपूर्णायां नाल्यां तप्तायसशलाकाप्रवेशनवद्योनिद्वारस्थानेकजीवपीडासाधनप्रवेशेनेति तद्वाधापरिहारार्थं तीवो रागाभिनिवेशः कर्मबन्धस्य महतो मूलं इति ज्ञात्वा श्रद्धावतः मैथुनाद्विमरणं चतुर्थ व्रतम् । परिग्रहः षड्जीवनिकायपीडाया मूलं मूर्छानिमित्तं चेति सकलग्रन्थत्यागो भवति इति पञ्चमं व्रतम् । तेषामेव पंचानां व्रतानां पालनार्थ रात्रिभोजनविरमणं षष्ठं व्रतम् । सर्वजीवविषयमहिंसावतं अदत्तपरिग्रहत्यागौ सर्वद्रव्यविषयौ द्रव्यैकदेशविषयाणि शेषव्रतानि । उक्तं च-- 'पढमम्मि सव्वजीवा तदिये चरिमे य सव्वदम्वाइं। सेसा महव्वदा खलु तदेकदेसम्मि दन्वाणं ॥ [आवश्यक ७९१ गा०] पञ्चमहाव्रतधारिण्याश्चिरप्रजिताया अपि ज्येष्ठो भवति अधुनाप्रवजितः पुमान् इत्येष सप्तमः स्थितिकल्पः पुरुषज्येष्ठत्वं । पुरुषत्वं नाम संग्रहं उपकारं, रक्षां च कर्तु समर्थः। पुरुषप्रणीतश्च धर्मः इति तस्य ज्येष्ठता। ततः सर्वाभिः संयताभिः विनयः कर्तव्यो विरतप्य । येन च स्त्रियो लघ्व्यः परप्रार्थनीयाः, पररक्षापेक्षिण्यः, न तथा पुमांस इति च पुरुषस्य ज्येष्ठत्वं । उक्तं च जेणित्थीह लघुसिगा परप्पसज्झा य पच्छणिज्जाय । भीरु अरक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो ॥ [ ] अचेलतादिकल्पस्थितस्य यद्यतिचारो भवेत् प्रतिक्रमणं कर्तव्यमित्येषोऽष्टमः स्थितिकल्पः । नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन षड्विधं प्रतिक्रमणं । भट्टिणी भट्टदारिगा इत्याद्ययोग्यनामोच्चारणं कृतवतस्तत्परि सरसोंसे भरी हुई नलीमें तपाई हुई लोहको कोलके प्रवेशकी तरह योनिद्वारमें स्थित अनेक जीवोंको लिंगके प्रवेशसे पोड़ा होती है। उस पोड़ाको दूर करनेके लिए 'रागका तीन अभिनिवेश महान् कर्मबन्धका मूल है' ऐसा जानकर और श्रद्धा करके मैयुनसे विरत होना चतुर्थ व्रत है। परिग्रह छहकायके जोवोंको पोड़ा पहुंचानेका मूल है और ममत्वभावमें निमित्त है ऐसा जानकर समस्त परिग्रहका त्याग पाँचवाँ व्रत है । उन्हीं पाँच व्रतोंका पालन करनेके लिए रात्रि भोजनका त्याग छठा व्रत है। अहिंसावतका विषय सब जीव हैं अर्थात् सब जीवोंकी हिंसाका त्याग उसमें है। विना दी हुई वस्तुका त्याग और परिग्रहका विषय भी सब द्रव्य हैं। अर्थात् अचौर्यव्रती विना दिया हुआ कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं लेता जिसका कोई स्वामी है। परिग्रहका त्यागी भी सब द्रव्योंका त्याग करता है। किन्तु शेष व्रत द्रव्योंके एकदेशको विषय करते हैं। कहा है __ 'प्रथम व्रतमें सब जीव, तीसरे और अचौर्यव्रतमें सब द्रव्य तथा शेष महाव्रत द्रव्योंके एकदेशमें होते हैं।' ७. चिरकालसे दीक्षित और पाँच महाव्रतोंकी धारी आर्यिकासे तत्काल दीक्षित भी पुरुष ज्येष्ठ होता है । इस प्रकार पुरुषको ज्येष्ठता सातवाँ स्थितिकल्प है। पुरुषत्व कहते हैं संग्रह, उपकार और रक्षा करने में समर्थ होना । धर्म पुरुषके द्वारा कहा गया है इसलिए पुरुषकी ज्येष्ठता है। इसलिए सब आर्यिकाओंको साधुकी विनय करनी चाहिए। यतः स्त्रियाँ लघु होती है, परके द्वारा प्रार्थना किये जाने योग्य होती हैं । दूसरेसे अपनी रक्षाकी अपेक्षा करती हैं। पुरुष ऐसे नहीं होते इसलिए पुरुषको ज्येष्ठता है। कहा है-'यतः स्त्री लघु होती है, दूसरेके द्वारा प्रसाध्य होती है, प्रार्थनीय होती है, डरपोक होती है, अरक्षणीय होती है इसलिए पुरुष ज्येष्ठ होता है।' ८. अचेलता आदि कल्पमें स्थित साधुके यदि अतिचार लगता है तो उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह आठवाँ स्थितिकल्प है। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे छह Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ भगवती आराधना हरणं नामप्रतिक्रमणं । असंयतमिथ्यादृष्टिजीवप्रतिबिंबपूजादिषु प्रवृत्तस्य तत्प्रतिक्रमणं स्थापनाप्रतिक्रमणं । सचित्तमचित्तं मिश्रमिति त्रिविकल्पं द्रव्यं तस्य परिहरणं द्रव्यप्रतिक्रमणं । त्रसस्थावरबहलस्य स्वाध्यायध्यानविघ्नसंपादनपरस्य वा परिहरणं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । संध्यास्वाध्यायाकालादिषु गमनागमनादिपरिहारः कालप्रतिक्रमणं । मिथ्यात्वासंयमकषाययोगेभ्यो निवृत्तिर्भावप्रतिक्रमणं । प्रतिक्रमणसहितो धर्मः आद्यपाश्चात्ययोजिनयोः जातापराधप्रतिक्रमणं मध्यवतिनो जिना उपदिशन्ति ।' 'आलोयणादिवसिग राविग इत्तिरियभिक्खचरियाय। पक्खिय चाउम्मासिय संवच्छर उत्तमद्वेय ॥ एते आलोचनाकल्पाः ।' पडिकमणं रादिग देवसिगं इत्तिरियभिक्खचरिया य । पक्खिय चाउम्मासिय संवच्छर उत्तमठ्ठय य॥ [ ] अमी प्रतिक्रमणभेदा आद्यन्ततीर्थकरप्रणीते पंचयमे धर्मे, इतरत्र च चतुर्यमें प्रतिक्रमणस्य कालनियम उक्तः । यदायमतिचारं प्राप्तस्तदा प्रतिक्रमणमध्यात्मिकं दर्शनं । उक्तं च 'खमगो याणेसणो विय दूरायादो य सम्वसमणो वि । सुमणे वि यदि य सदो जागरमाणो वि अगदो वि ॥ ठावाणिओ आयरियं गावज्जामित्ति मज्झिमजिणेसु । ण पडिक्कमयं तेण दु जे णातिक्कमदि सो व ॥ [ ] प्रकारका प्रतिक्रमण होता है। भट्टिणी, भतृ दारिका इत्यादि अयोग्य नामका उच्चारण करनेपर उसका परिहार करना नाम प्रतिक्रमण है। असंयत मिथ्यादृष्टि जीवके प्रतिबिम्बकी पूजा आदि करनेवाला जो उसका प्रतिक्रमण करता है वह स्थापना प्रतिक्रमण है। सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका द्रव्य होता है उसका परिहार द्रव्य प्रतिक्रमण है। जो क्षेत्र त्रस और स्थावर जोवोंसे भरा है, स्वाध्याय और ध्यान में विघ्न करनेवाला है उसका परिहार क्षेत्र प्रतिक्रमण है। सन्ध्याके समय, स्वाध्यायके समय तथा असमयमें गमन आगमन आदिका परिहारकालप्रतिक्रमण है। मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योगसे निवृत्ति भावप्रतिक्रमण है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरका धर्म प्रतिक्रमण सहित है अर्थात् प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। और मध्यके बाईस तीर्थ कर दोष लगनेपर ही प्रतिक्रमणका उपदेश करते हैं। आलोचना दैवसिक, रात्रिक, इत्तिरिय, भिक्षाचर्या, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सावत्सरिक, उत्तमार्थ-ये दस आलोचनाकल्प हैं। दैवसिक प्रतिक्रमण, रात्रिक प्रतिक्रमण, इत्तिरिय, भिक्षाचर्या, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ ये प्रतिक्रमणके भेद हैं । आदि और अन्तिम तीर्थकरके द्वारा कहे पाँच महाव्रतरूप धर्ममें और अन्य तीर्थंकरोंके द्वारा कहे चार यमरूप धर्ममें प्रतिक्रमणके कालका नियम कहा है । जब साधु अतिचार लगाता है तब प्रतिक्रमण आध्यात्मिक दर्शन है । कहा है [इन गाथाओंका शुद्धपाठ न मिलनेसे अर्थका स्पष्टीकरण नहीं हो सका हैं ।। चौबीस तीर्थकरोंमेंसे मध्यके बाईस तीर्थंकरोंके साधुओंके लिए प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं है। दोष १. पडिकमणं देवसि राइरं च इत्तरिअभावकहियं च । पक्खिअ चाउम्मासिअ संवच्छरि उत्तमद्वेअ ।।-आव० ४ अ० । (अभि० रा०, पडिक्क०) २. सुमिणतियं दियसर्ध । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३३३ सददादिसु वि पवित्ती आदिय अंतम्मि सो पडिक्कमदि । मज्झिमगा मण्णेति य अमज्झमाणे हवे उभयं ।। इरियं गोयर सूमिणादि सव्वमाचर मा व आचरदु । पुरिम चरिमेसु सव्वो सव्वं णियमा पडिक्कमदि ॥ [मूलाचार ७।३१] मध्यमतीर्थकरशिष्या दृढबुद्धयः, एकाग्रचित्ताः, अमोघलक्ष्यास्तस्माद्यदाचरितं तद्गहया शुद्धयति । इतरे तु चलचित्ता न लक्षयन्ति स्वापराधास्तेन सर्वं प्रतिक्रमणं उपदिष्टं जिनाभ्यां अंधघोटकदृष्टान्तन्यायेन । ऋतुपु षट्सु एककमेव मासमेकत्र वसतिरन्यदा विहरति इत्ययं नवमः स्थितिकल्पः । एकत्र चिर; कालावस्थाने नित्यमुद्गमदोषं च न परिहत्तु क्षमः । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, अलसता, सौकुमार्यभावना, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषाः । पज्जोसमणकल्पो नाम दशमः । वर्षाकालस्य चतुषु मासेषु एकत्रैवावस्थान भ्रमणत्यागः । स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा क्षितिः । तदा भ्रमणे महानसंयमः वाटचा शीतवातपातेन च वात्मविराधना । पतेद् वाप्यादिषु स्थाणुकण्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नजलेन कमेन वा बाध्यत इति विंशत्यधिक लगनेपर ही प्रतिक्रमण करते हैं। इसी वातको इन गाथाओंमें कहा है) शब्दादि विषयोंमें प्रवृत्ति होनेपर आदि और अन्तिम तीर्थंकरोंके साधु प्रतिक्रमण करते ही हैं। मध्यम तीर्थ करोंके साधु करते भी हैं और नहीं भी करते । __ . . ईर्यासमिति, गोचरी और स्वप्न आदिमें अतिचार लगे या न लगे। किन्तु प्रथम तीर्थ कर और अन्तिम तीर्थंकरके शिष्य सब प्रतिक्रमण दण्डकोंको पढ़ते हैं अर्थात् अतिचार नहीं लगनेपर भी उन्हें प्रतिक्रमण करना होता है।' - ' मध्यम बाईस तीर्थंकरोंके शिष्य दृढ़ बुद्धिवाले, एकाग्रचित्त और अव्यर्थ लक्षवाले होते हैं। इसलिए अपने आचरणकी गर्दा करनेसे शुद्ध होते हैं। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके शिष्य चंचल चित्त होनेसे अपने अपराधोंको लक्षमें नहीं लेते। इसलिए प्रथम और अन्तिम तीर्थकरने सबके लिए प्रतिक्रमण करनेका उपदेश दिया है। इसमें अन्ध घोड़ेका दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे घोड़ेके अन्धे होनेपर अनजान वैद्यपुत्रने अपने पिताके अभावमें उसपर सब दवाइयोंका प्रयोग किया तो घोड़ा ठीक हो गया। इसी तरह अपने दोषोंसे अनजान साधु भी प्रतिक्रमणसे शुद्ध होता है। ९. छह ऋतुओंमें एक-एक महीना ही एक स्थानपर रहना और अन्य समयमें विहार करंना नवम स्थितिकल्प है। एक स्थानमें चिरकाल ठहरनेपर नित्य ही उद्गमदोष लगता है। उसे टाला नहीं जा सकता। तथा एक ही स्थानमें बहुत समयतक रहनेसे क्षेत्रसे बँध जानेका, सुखशीलता, आलसीपना, सुकुमारताको भावना तथा जाने हुएसे भिक्षा ग्रहण करनेके दोष लगते हैं। ......१०. पज्जोसमण नामक दसवाँ कल्प है। उसका अभिप्राय है वर्षाकालके चारमासोंमें भ्रमण त्यागकर एक ही स्थानपर निवास करना। उस कालमें पृथिवी स्थावर और जंगम जीवोंसे व्याप्त रहती है । उस समय भ्रमण करनेपर महान् असंयम होता है । तथा वर्षा और शीतवायुके बहनेसे आत्माकी विराधना होती है। वापी आदिमें गिरनेका भय रहता है। जलादिमें छिपे Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ भगवती आराधना दिवसरात एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गः । कारणापेक्षया तु हीनमधिकं वावस्थानं, संयतानां आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थानं । वृष्टिबहुलतां श्रुतग्रहणं शक्त्यभाववैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टः कालः । मार्यां, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलेन वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशातरं याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषाढ्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विशतिदिवसा एतदपेक्ष्य होनता कालस्य । एष दशमः स्थितिकल्पः । हुए ठूंठ, कण्टक आदिसे अथवा जल कीचड़ आदिसे कष्ट पहुँचता है । इसलिए एक सौ बीस दिनतक एकस्थानपर रहना उत्सर्गरूप नियम है । कारणवश कम या अधिक दिन भी ठहरते हैं । आषाढ़ शुक्लादशमीको ठहरनेवाले साधु आगे कार्तिककी पूर्णमासीके पश्चात् तीस दिन ठहर सकते हैं । वर्षाकी अधिकता, शास्त्रपठन, शक्तिका अभाव, वैयावृत्य करनेके उद्देश से एकस्थानपर ठहरनेका यह उत्कृष्टकाल है । इस बीचमें यदि मारी रोग फैल जाये, दुर्भिक्ष पड़ जाये या गच्छका विनाश होने के निमित्त मिल जायें तो देशान्तर चले जाते हैं क्योंकि वहाँ ठहरनेपर भविष्य में रत्नत्रयकी विराधना हो सकती है । आषाढ़ी पूर्णमासी बीतने पर प्रतिपदा आदिके दिन देशान्तर गमन करते हैं । इस तरह बीस दिन तक कम होते हैं । इस अपेक्षा कालकी हीनता होती है । यह दसवाँ स्थितिकल्प है । विशेषार्थ - श्वेताम्बर परम्परामें भी ये ही दस कल्प माने गये हैं । किन्तु उनमें से चार स्थितकल्प हैं और छह अस्थितकल्प हैं । शय्यात्तर पिण्ड, चातुर्याम, पुरुषकी ज्येष्ठता और कृतिकर्म ये चार कल्प स्थित हैं । अर्थात् मध्यम बाईस तीर्थंकरोंके साधु और महा विदेहोंके साधु शय्यातर पिण्ड ग्रहण नहीं करते, चतुर्याम रूप धर्मका पालन करते हैं, पुरुषकी ज्येष्ठता पालते हैं अर्थात् चिरदीक्षित आर्यिका भी उसी दिनके दीक्षित साधुको नमस्कार करती है । तथा सब कृति - कर्म करते हैं । आचेलक्क, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिण्ड, मास और पर्युषण ये छह कल्प मध्यम तीर्थंकरोंके तथा महाविदेहके साधुओंके लिए अनवस्थित हैं । यदि वस्त्र धारण करनेसे वस्त्रको लेकर रागद्व ेष उत्पन्न होता है तो अचेल रहते हैं अन्यथा सचेल रहते हैं । साधुओं उद्देशसे बनाया भोजन उद्दिष्ट होनेसे सदोष होता है । किन्तु उक्त तीर्थंकरों और महाविदेहोंके साधु अपने उद्देशसे बना भोजन नहीं लेते । अन्य साधुओंके उद्देशसे बना भोजन ले लेते हैं । प्रतिक्रमण भी दोष लगने पर करते हैं, अन्यथा नहीं करते । राजपिण्डमें यदि कहे गये दोष होते हैं तो ग्रहण नहीं करते । यदि एक क्षेत्र में रहने पर दोष न हो तो पूर्वकोटी काल भी रहते हैं । दोष हो तो मास पूर्ण नहीं होने पर भी चल देते हैं । पर्युषणामें भी यदि वर्षामें विहार करने पर दोष हो तो एक क्षेत्रमें रहते हैं दोष न हो तो वर्षाकालमें भी विहार करते हैं । श्वेताम्बर पर - म्परामें प्राकृतमें दसवें कल्पका नाम 'पज्जोसवणा' है उसका संस्कृत रूप पर्युषणाकल्प है । इसीसे भादोंके दश लक्षण पर्वको पर्युषण पर्व भी कहते हैं । श्वेताम्बर परम्परामें भी इसका उत्कृष्ट काल आसाढ़ी पूर्णिमासे कार्तिकी पूर्णिमा तक चार मास है । जघन्य काल सत्तर दिन है । भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिककी पूर्णिमा तक सत्तर दिन होते हैं । सम्भवत: इसीसे दिगम्बर परम्परा में पर्युषण पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमीसे प्रारम्भ होता है । इस कालमें साधु विहार नहीं करते । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ विजयोदया टीका एदेसु दससु णिच्चं समाहिदो णिच्चवज्जभीरू य । खवयस्स विसुद्धं सो जधुत्तचरियं उवविधेदि ॥४२४॥ 'एदेसु दससु णिच्च' एतेषु दशस्थितिकल्पेषु नित्यं । 'समाहिदो' समाहितः । 'णिच्चवज्जभीरू य' नित्यं पापभीरुः । 'खवगस्स' क्षपकस्म । 'विसुद्धं जधुत्तचरियं' यथोक्तां चर्या । 'सो उवविधेदि' स विदधाति ॥४२४॥ निर्यापकस्य सूरेराचारवत्त्वे क्षपकस्य गुणं व्याचष्टे पंचविधे आयारे समुज्जदो सव्वसमिदचेट्ठाओ। सो उज्जमेदि खवयं पंचविधे सुठ्ठ आयारे ॥४२५॥ 'पंचविधे आयारे समुज्जदो' पंचप्रकारे आचारे समुद्यतः । 'समिदसत्वचेढाओ' सम्यक् प्रवृत्ताः सर्वाश्चेष्टा यस्य सः । 'सुटठु उज्जमेदि' सुष्ठ उद्योगं कारयति । 'खवर्ग' क्षपकं । क्व ? 'पंचविधे' आचारे ॥४२५।। यः आचारवान्न भवति तदाश्रयणे दोषमाचष्टे. सेज्जोवधिसंथारं भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकप्पिज्ज असुद्धं पडिचरए वा असंविग्गे ॥४२६॥ 'सेज्ज' वसतिं । 'उवधि' उपकरणं । 'संथारभत्तपाणं च' संस्तरं भक्तपानं च । 'असुद्ध' उद्गमादिदोषोपहतं । 'उवकप्पेज्ज' उपकल्पयेत् । कः 'चयणकप्पगदो' ज्ञानाचारादिकादोषच्च्यवनमुपगतः 'पडिचरए वा' प्रतिचारकान्वा योजयेत । 'असंविग्गे' असंविग्नान । एवमसंयमे कृते महान्कर्मबन्धो भविष्यति ततोऽस्माकं महती संसृतिरनेकापन्मूलेति भयरहितान् ।।४२६।। सल्लेहणं पयासेज्ज गंधं मल्लं च समणुजाणिज्जा । अप्पाउग्गं व कधं करिज्ज सइरं व जंपिज्ज ॥४२७॥ 'सल्लेहणं पगासेज्ज' सल्लेखनां प्रकाशयेत् लोकस्य । 'गंध मल्लं च समणुजाणेज्ज' गन्धं माल्यं वानुजानीयात् । गन्धमाल्यानयनमभ्युपगच्छेत् । 'अप्पाउग्गं व कहं कहेज्ज' अप्रयोग्यां वा कथां कथयेत गा०-इन दस कल्पोंमें जो सदा समाधान युक्त रहता है और नित्य पापसे डरता है वह आचार्य क्षपक ऊपर कहे विशुद्ध आचरणको पालन कराता है ॥४२४॥ निर्यापकाचार्यके आचारवान होने पर क्षपकका लाभ बतलाते हैं गा०–जो आचार्य पाँच प्रकारके आचारमें तत्पर रहता है और जिसकी सब चेष्टाएँ सम्यग्रूपसे होती हैं वह क्षपकसे पाँच प्रकारके आचारमें उद्योग कराता है ॥४२५।। जो आचार्य आधारवान नहीं होता, उसका आश्रय लेनेमें दोष कहते हैं गा०-ज्ञानाचार आदिसे थोड़ा सा च्युत हुआ आचार्य उद्गम आदि दोषोंसे दूषित अशुद्ध वसति, उपकरण, संस्तर और भक्तपानकी व्यवस्था करेगा। तथा ऐसे परिचारक मुनियोंको नियुक्त करेगा जिन्हें यह भय नहीं है कि इस प्रकारका असंयम करने पर महान् कर्मबन्ध होगा और उससे हमारा संसार बढ़ेगा जो अनेक आपत्तियोंका मूल है ।।४२६।। गा०-तथा वह क्षपककी सल्लेखनाको लोगों पर प्रकाशित कर देगा। सुगंध माला आदि सेवनकी अनुमति दे देगा। क्षपकके अशुभ परिणाम करने वाली अयोग्य कथा वार्ता करेगा। और Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना क्षपकस्याशुभपरिणामविधायिनीं । 'सइरं वा' स्वैरं वा । 'जंपेज्ज' जल्पेत् । आराधकस्याग्रत इदं युक्त, न वेत्यविचार्य वदेवा ॥४२७॥ ण करेज्ज सारणं वारणं च खवयस्स चयणकप्पगदो। उद्देज्ज वा महल्लं खवयस्स वि किंचणारंभं ॥४२८।। 'ण करेज्ज' न कुर्यात् । किं 'सारणं' रत्नत्रये वृत्तिं । 'वारणं च' निषेधं न कुर्यात् । तेभ्यः प्रच्यवमानस्य । 'खवगस्स' क्षपकस्य । कः ? 'चयणकप्पगदो च्यवनकल्पगतः । 'उज्ज वा महल्लं' आरम्भ कारयेद्वा महान्तं आरम्भं पट्टशालां, पूजा, विमानं वा । ‘खवगस्स वि' क्षपकस्यापि कंचन ॥४२८॥ आयारस्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि । तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ ।।४२९।। 'आयारत्यो पुण' आचारस्थः पुनः सूरिः तान्सर्वान्वर्जयति दोषान् । 'तम्हा' तस्मात् । गुणेषु प्रवर्तमानो दोषेभ्यो व्यावृत्तश्च । 'आयारत्वो आयरिओ णिज्जवओ होदि आचारस्थ एवाचार्यों निर्यापको भवति नापरः । व्याख्यातमाचारवत्त्वम् ॥४२९॥ आधारवत्त्वव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धः चोदसदसणवपुव्वी महामदी सायरोव्व गंभीरो । कप्पववहारधारी होदि हु आधारवं णाम ।।४३०॥ 'चोद्दसदसणवपुन्वी' चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी वा । 'महामदी' महामतिः । 'सायरोव्व गंभीरो सागर इव गम्भीरः । 'आधारवं णाम कप्पववहारधारो वा' कल्पव्यवहारज्ञो वा आधारवान् ज्ञानी । दुष्परिणामा एते मनोवाक्कायविकल्पाः, शुभा वा पुण्यास्रवभूताः । शुद्धा वा शुभाशुभकर्मसंवरहेतवः, इति बोधयति । यह उचित है या नहीं यह विचार किये बिना क्षपकके आगे स्वच्छन्दता पूर्वक बात करेगा ॥४२७।। गा० तथा स्वयं आचार च्युत आचार्य क्षपकके रत्नत्रयसे डिगने पर रत्नत्रयमें प्रवृत्ति और रत्नत्रयसे च्युत होनेका निषेध नहीं करेगा । तथा क्षपकसे कोई महान् आरम्भ पूजा, विमानयात्रा, पट्टकशाला आदि करायगा ।।१२८॥ गा०—किन्तु आचारवान् आचार्य इन सब दोषोंको नहीं करता। इसलिए जो गुणोंमें प्रवत्ति करता है और दोषोंसे दूर रहता है ऐसा आचारवान् आचार्य ही निर्यापक होता है, दूसरा नहीं । इस प्रकार आचारवत्त्वका कथन किया ॥४२९।। आगे आधारवत्त्वका कथन करते हैं गा०-टी०-जो चौदह पूर्व, दस पूर्व अथवा नौ पूर्वका धारी हो, महाबुद्धिशाली हो, सागर की तरह गम्भीर हो, कल्प व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता हो वह ज्ञानी आधारवान् होता है। वह समझाता है कि मन वचन कायके विकल्प रूप ये परिणाम अशुभ हैं, शुभ परिणाम पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं और शुद्ध परिणाम शुभ और अशुभ कर्मोके संवरमें कारण हैं । तथा वह रात दिन श्रुतका उपदेश करते हुए शुभ और शुद्ध परिणामोंमें क्षपकको लगाता है । इसलिए वह दर्शन, चारित्र और तपका आधारवाला होनेसे आधारवान होता है। ज्ञान आधार है और Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३३७ शुभेषु शुद्धेषु वा प्रवर्तयति श्रुतमनारतमुपदिशन्नतोऽसौ दर्शनस्य, चारित्रस्य तपसश्च आधारवत्त्वात् । ज्ञानमाधार 'स्तद्वानाधारवान् ॥४३०|| यस्तु ज्ञानवान्न भवति तदाश्रयणे दोषान्व्याचष्टे 'णासेज्ज अगीदत्थो चउरंगं तस्स लोगसारंगं । टुम्मि य चउरंगे ण उ सुलहं होइ चउरंगं ॥ ४३१ || 'णासेज्ज अगीदत्थो' नाशेयदगृहीतसूत्रार्थः । ' तस्स' तस्य क्षपकस्य । 'चउरंगं' चत्वारि ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि अङ्गानि यस्य मोक्षमार्गस्य तं चतुरङ्गं । लोके यत्सारं निर्वाणं तस्याङ्गं उपकारकं । चतुरङ्गं यदि नाम नष्टं तथापि तच्चतुरङ्गं पुनर्लभ्येत इति शङ्कामिमां निरस्यति । 'नट्टम्मि य चउरंगे' नष्टे इह जन्मनि चतुरङ्गे मुक्तिमार्गे । 'ण उ सुलहं होदि चउरंग' नैव सुखेन लभ्यते तच्चतुरङ्गं । विनाशितचतुरङ्गो मिथ्यात्वपरिणतः कुयोनिमुपगतः कथमिव लभते चतुरङ्ग इत्यभिप्रायः ॥ ४३१ ॥ क्षपकस्य चतुरङ्गं कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्यमसौ नाशयतीति दर्शयतिसंसारसायरम्मिय अनंतबहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि । संसरमाणो दुक्खेण लहदि जीवो मणुस्सत्तं ||४३२|| तह चैव देसकुलजाइरूवमारोग्गमाउगं बुद्धिं । सवणं गहणं सड्ढा य संजमो दुल्लहो लोए || ४३३॥ जो ज्ञानवान् है वह आधारवान् है ॥४३० ॥ जो ज्ञानवान् नहीं है उसका आश्रय लेनेमें दोप कहते हैं गा० - टी० -- जिसने सूत्रके अर्थको ग्रहण नहीं किया है ऐसा आचार्य उस क्षपकके चतुरंगको नष्ट कर देता है | ज्ञान दर्शन चारित्र तप ये चार अंग जिस मोक्षमार्गके होते हैं वह चतुरंग है । लोक में जो सारभूत निर्वाण है उसका चतुरंग - मोक्षमार्ग उपकारक है । वह नष्ट कर देता है । शायद कोई कहें कि यदि चतुरंग नष्ट हुआ तो पुनः प्राप्त हो जायेगा ? इस शंकाका निरास करते हैं- हैं - इस जन्ममें चतुरंग मोक्षमार्गके नष्ट होने पर चतुरंग सुलभ नहीं है - सुखसे नहीं मिलता । क्योंकि जो चतुरंगको नष्ट कर देता है वह मिथ्यात्व रूप परिणत होकर कुयोनिमें चला जाता है । तब वह कैसे चतुरंगको प्राप्त कर सकता है यह उक्त कथनका अभिप्राय है || ४३१|| सूत्र के अर्थको ग्रहण न करने वाला आचार्यं क्षपकके चतुरंगको कैसे नष्ट करता है ? ऐसी आशंका करने पर बतलाते हैं कि वह इस प्रकार नष्ट करता है गा०—जिसमें अनन्त अत्यन्त तीव्र दुःखरूप जल भरा है उस संसार सागर में भ्रमण करते हुए जीव बड़े कष्टसे मनुष्य भव प्राप्त करता है ||४३२ || गा० - उस संसार में देश, कुल, जाति, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, धर्मका सुनना, उसे ग्रहण करना, उस पर श्रद्धा होना तथा संयम ये सब दुर्लभ हैं || ४३३|| - १. स्तद्वानाधारवान् श्रद्धानाधारवान् आ० मु० । २ इयं गाथा व्यवहारसूत्रे ( उ०३, गा० ३७७ ) अस्ति । ४३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ भगवती आराधना एवमवि दुल्लहपरंपरेण लघृण संजमं खवओ । ण लहिज्ज सुदी संवेगकरी अबहुसुयसयासे ।।४३४।। सम्म सुदिमलहंतो दीहद्धं मुत्तिमुवगमित्ता वि । परिवडइ मरणकाले अकदाधारस्स पासम्मि ॥४३५॥ सक्का वंसी छेत्तु तत्तो उक्कड्ढिओ पुणो दुक्खं । इय संजमस्स वि मणो विसएसुक्कडिदुदुक्खं ॥४३६।। आहारमओ जीवो आहारेण य विराघिदो संतो। अट्टदहट्टो जीवो ण रमदि णाणे चरित्ते य ॥४३७।। सुदिपाणयेण अणुसट्ठिभोयणेण य पुणो उवग्गहिदो । तण्हाछुहाकिलंतो वि होदि झाणे अवक्खित्तो ॥४३८।। पढमेण व दोवेण व वाहिज्जंतस्स तस्स खवयस्स । ण कुणदि उवदेसादिं समाधिकरणं अगीदत्थो ।।४३९।। 'पढमेण वा' क्षधा। 'दोवेण वा' पिपासया वा । 'बाधिज्जंतस्स तस्स' वाध्यमानस्य तस्य । 'खवयस्स' क्षपकस्यः। 'न कुणदि उवदेसादि' न करोत्युपदेशादि । 'समाधिकरणं' समाधिः क्रियते येनोपदेशादिना तं । 'अगोदत्यो' अगृहीतार्थः ॥४३९॥ __ गा०—इस प्रकार परम्परा रूपसे दुर्लभ संयमको पाकर क्षपक अल्पज्ञानी आचार्यके पासमें वैराग्य करने वाली देशना नहीं प्राप्त करता ॥४३४।। गा०-सम्यक् उपदेश प्राप्त न करनेसे चिरकाल तक असंयमके त्यागपूर्वक संयमको धारण करके आधारवत्त्व गुणसे रहित आचार्यके पासमें मरते समय संयमसे गिर जाता है ।।४३५।। गा०-जैसे छोटेसे बाँसको छेदना शक्य है। किन्तु बाँसोंके झाड़मेंसे खींचकर निकालना बहुत कठिन है । इसी तरह संयमीका भी मन विषयोंसे हटाना अल्प ज्ञानी गुरुके लिए कठिन है । आशय यह है कि यद्यपि क्षपकने रागद्वषको जीतनेकी प्रतिज्ञा की तथापि शरीरकी सल्लेखना रनपर जब भूख प्यासको परोषह सताती है तो वह श्रुतज्ञानमें उपयोग लगाये विना अल्पज्ञ आचार्यके पासमें राग-द्वषमें पड़कर चारित्रका आराधक नहीं रहता ॥४३६।। गा०—यह जीव आहारमय है, अन्न ही इसका प्राण है। आहारके न मिलनेपर आर्त और रौद्रध्यानसे पीड़ित होकर ज्ञान और चारित्रमें मन नहीं लगाता ॥४३७|| गा०-किन्तु ज्ञानी आचार्यके द्वारा श्रुतका पान करानेसे और योग्य शिक्षारूप भोजनसे उपकृत होनेपर भूख प्याससे पीड़ित होते हुए भी ध्यानमें स्थिर होता है ॥४३८|| __ गा०-भूख और प्याससे पीड़ित उस क्षपकको अल्पज्ञानी आचार्य समाधिके साधन उपदेश आदि नहीं करता ।।४३९।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ३३९ सो तेण विडझंतो पप्पं भावस्स भेदमप्पसुदो । कलुणं कोलुणियं वा जायणकिविणतणं कुणइ ।।४४०॥ 'सो तेण विडझंतो' स क्षपकस्तेन प्रथमेन द्वितीयेन वा । “विडशंतो' विविधं दह्यमानः । 'पप्पं भावस्स भेदमप्पसुदो' प्राप्य शुभपरिणामस्य भेदं "विडझंतो' 'अप्पसुदो' अल्पश्रुतः । 'कलुणं कोलुणियं च कुणदि' यथा शृण्वतां करुणा भवति तथा करोति । 'जायणं च कुणदि' याञ्चां वा करोति । 'किविणत्तणं कुणदि' दीनतां वा करोति ॥४४०॥ उक्कूवेज्ज व सहसा पिएज्ज असमाहिपाणयं चावि । गच्छेज्ज व मिच्छत्तं मरेज्ज असमाधिमरणेण ॥४४१॥ “उक्कूवेज्ज व सहसा' पूत्कुर्याद्वा सहसा । 'पिएज्ज' पिबेद्वा । 'असमाधिपाणगं चावि' असमाधिपानकमुच्यते यत्स्वयं स्थित्वा स्वहस्ताभ्यां काले प्रायोग्यपानं ततोऽन्यदस्थित्वा अकाले च यत्पानं तदसमाधिपानकमच्यते । 'गच्छज्ज व मिच्छत्तं' मिथ्यात्वं वा गच्छेत । कष्टोऽयं धर्मः किमनेन श्रमविधायिनेति निन्दापरेण चेतसा । 'मरेज्ज असमाधिमरणेण'मृतिमुपेयात् असमाधिना ।।४४१॥ । संथारपदोसं वा णिब्भच्छिज्जंतओ णिगच्छेज्जा । कुव्वंते उड्डाहो णिच्चुभते विकिंते वा ॥४४२।। 'संथारपदोस वा कुणदि' इति शेषः, संस्तरं वा दुष्यति । 'णिन्भच्छिकज्जंतगो णिगच्छेच्च' रोदनं प्रत्कारं वा कुर्वन्तं यदि निभर्स्यन्ति निर्यायात् । 'कुम्वंते' पूत्कुर्वति सति क्षपके । 'उड्डाहो' भवति । "णिच्चुभंते' बहिनिःसरणे । 'विकिते वा' पृथक्करणे वा । 'उड्डाहो होदि' धर्मदूषणो भवति । एवमगृहीतार्थः प्रतिकारानभिज्ञो नाशयति क्षपकम् ।।४४२॥ गृहीतार्थः पुनः किं करोतीति चेदाह गीदत्थो पुण खवयस्स कुणदि विधिणा समाधिकरणाणि । कण्णाहुदीहिं उव-गहिदो य पज्जलइ ज्झाणग्गी ॥४४३॥ गा०-वह अल्पज्ञानी क्षपक भूख प्याससे पीड़ित हो शुभभावको छोड़ देता है और ऐसा रुदन करता है कि सुननेवालोंको दया आती है, याचना करता है और दीनता प्रकट करता है ।।४४०।। गा०-अथवा सहसा चिल्लाने लगता है अथवा असमाधिपानक पीता है। स्वयं खड़े होकर अपने दोनों हाथोंसे भोजनके कालमें जो योग्यपान किया जाता है उससे अन्य विना खड़े हुए अस पयमें जो पान किया जाता है उसे असमाधिपानक कहते हैं। तथा यह धर्म कष्टदायक है इससे केवल श्रम ही होता है ऐसे निन्दायुक्त चित्तसे मिथ्यात्वको प्राप्त होता है असमाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होता है ।।४४१॥ ___गा०-अथवा वह संस्तरको दोष देता है । रोने चिल्लानेपर उसका तिरस्कार करो तो बाहर भाग जायेगा। उसके रोने चिल्लानेपर, या बाहर निकल जानेपर अथवा संघसे निकाल देनेपर धर्ममें दूषण लगता है। इस प्रकार अज्ञानी आचार्य प्रतीकार न जानता हुआ क्षपकका जीवन नष्ट कर देता है ।।४४२॥ गृहीतार्थज्ञानी आचार्य क्या करता है यह कहते हैं१. उवढोइदो आ० मु० । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० भगवती आराधना . 'गीदत्थो पुण' गृहीतार्थः पुनः । 'खवगस्स' क्षपकस्य । 'कुणदि' करोति । 'विधिणा' क्रमेण । 'समाधिकरणाणि' समाधानक्रियाः । 'कण्णाहुदीहिं' कर्णाहुतिभिः । 'उवगहिदो' उपगृहीतः । 'पज्जलदि' प्रज्वलति । 'ज्झाणग्गी' ध्यानाग्निः ॥४४३।। खवयस्सिच्छासंपादणेण देहपडिकम्मकरणेण । अण्णेहिं वा उवाएहिं सो हु समाहिं कुणइ तस्स ॥४४४।। 'खवयस्सिच्छासंपादणेण समाधि कुणदि' क्षपकस्येच्छासम्पादनेन समाधिं करोति । यदिच्छत्यसो तद्दत्वा 'समाधि' रत्नत्रये समवधानं तस्य करोति इति यावत् । 'देहपडिकम्मकरणेण' शरीरवाधाप्रतिकारक्रियया । 'अण्णेहि वा उवाएहि 'अन्यैर्वा सामवचनोपकरणदानचिरंतनक्षपकोपाख्यानादिभिरुपायैः समाधि करोति ॥४४४॥ णिज्जूढं पि य पासिय मा भीही देइ होइ आसासो । संधेइ समाधि पि य वारेइ असंवुडगिरं च ॥४४५॥ 'णिज्जूढं पि य पासिय' निर्यापर्यतिभिः परित्यक्तं दृष्ट्वा किं भवता परीषहासहनेन चलचित्तेनास्माकं ? त्यक्तोऽस्यस्माभिरिति । 'मा भीहि देइ' मा भैषीरित्यभयं ददाति । 'होदि' भवति । 'च आसासो' आश्वासः । 'संधेइ' संधत्ते 'समाधिं पि य' रत्नत्रयैकाग्यमविच्छिन्नं । 'वारेदि असंवुडगिरं च' वारयत्यसंवृतानां वचनं नैवं वक्तव्यो भवद्भिरयं महात्मा। को हि नामायमिव शरीरं आहारं दुस्त्यजं त्यक्तुं क्षम इति प्रोत्साहयन् ॥४४५॥ जाणदि फासुयदव्यं -उवकप्पेद तहा उदिण्णाणं । जाणइ पडिकारं वादपित्तसिंभाण गीदत्थो ।।४४६।। 'जाणवि य' जानाति च । 'फासुयदव्वं' योग्यं द्रव्यं । 'उवकप्पेदु' विधातुं । 'तहा उदिण्णाणं' तथो गा०-किन्तु गृहीतार्थ आचार्य विधिपूर्वक क्षपकका समाधान करनेकी क्रिया करता है। उसके कानोंमें धर्मोपदेशकी आहुति देता है उससे उपगृहीत होकर ध्यानरूपी अग्नि भड़क उठती है ।।४४३।। गा०-वह क्षपककी इच्छा पूर्ति करके-जो वह चाहता है वह देकर--समाधि करता है अर्थात् रत्नत्रयमें उसका मन स्थिर करता है । तथा शारीरिक बाधाका प्रतिकार करके और अन्य उपायोंसे जैसे शान्तिदायक वचन, उपकरणदान और प्राचीन क्षपकोंके दृष्टान्त आदिसे समाधि करता है।४४४॥. गा०–निर्यापक अर्थात् सेवा करनेवाले यतियोंने जिस क्षपकको यह कहकर 'कि आप परीषह सहन नहीं करते और आपका चित्त चंचल है हमें आपसे अब कुछ भी प्रयोजन नहीं है, छोड़ दिया है, उसको भी देखकर बहुश्रुत आचार्य 'मत डरो' इस प्रकार अभय देते हैं। आश्वासन देते हैं, और रत्नत्रयमें एकाग्रता बनाये रखते हैं । तथा असंयतवचनोंका निवारण करते हैं कि इस महात्माको आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। इनके समान कठिनतासे छोड़नेके योग्य शरीर और आहारको कौन छोड़ने में समर्थ है । इस प्रकार प्रोत्साहन देते हैं ।।४४५।। गा-शास्त्रके अर्थको हृदयंगम करनेवाले आचार्य उदीर्ण हुई भूख प्यासकी वेदनाको १. अन्य उपायैः तस्य समाधि करोति-अ० । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३४१ दीर्णानां क्षुधादीनां विनाशने समर्थ । 'जाणदि पडिगारं' जानाति प्रतिकारं । 'वादपित्तसिंभाणं' वातपित्त- . श्लेष्मणां । 'गीदत्थो' गृहीतार्थः ॥४४६॥ अहव सुदिपाणयं से तहेव अणुसिट्ठिभोयणं देइ । तण्हाछुहाकिलिंतो वि होदि ज्झाणे अवक्खित्तो ।।४४७॥ 'अहव सुदिपाणय' अथवा श्रुतिपानं । ‘से देवि' तस्मै ददाति । 'अणुसिटिभोयणं देदि' अनुशासनभोजनं वा। तेन पानेन भोजनेन च । 'तण्हाछुहाकिलिंतो वि' क्षुधा तृषा वा बाध्यमानोऽपि । 'झाणे अवक्खित्तो होवि' ध्याने अव्याक्षिप्तचित्तो भवति ॥४४७।। दोषान्तरमप्याचष्टे-अगृहीतार्थसकाशे वसतः क्षपकस्य संसारसागरम्मि य गते बहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि । संसरमाणो जीवो दुक्खेण लहइ मणुस्सत्तं ।। ४४८ ॥ 'संसारसागरम्मि य' संसारः सागर इव तस्मिन्संसारसागरे द्रव्यक्षेत्रकालभवभावेषु परिवर्तमानः संसारसागरः । तत्र द्रव्यसंसारो नाम शरीरद्रव्यस्य ग्रहणमोक्षणाभ्यावृत्तिरसकृत् । तद्यथा-प्रथमायां पृथिव्यां सप्तधनूंषि त्रयो हस्ता षडङ्गलाधिकाः प्रमाणं नारकाणां शरीरस्य । अधोऽधस्तद्विगुणोच्छ्रयता यावत्पञ्चधनु:शतानि । एवंविकल्पेषु शरीरेषु एकैकं शरीरमनन्तवारं गृहीतमतीते काले भव्यानां तु भाविनि काले भाज्यमनन्तवारग्रहणं । अभव्यानां तु भविष्यति कालेऽप्यनन्तानि तथाविधानि शरीराणि । एष द्रव्यसंसारः स्थूलतः। नष्ट करने में समर्थ प्रासुकद्रव्योंको देना जानते हैं। तथा बात पित्त कफका प्रकोप होनेपर उनका प्रतिकार करना भी जानते हैं ॥४४६।। गा०-अथवा वह आचार्य क्षपकको शास्त्रोपदेशरूपी पेय और अनुशासनरूप भोजन देते हैं। उस पान और भोजनसे भूख और प्याससे पीड़ित भी क्षपक ध्यानमें एकाग्रचित्त होता है ।।४४७॥ अल्पज्ञानी आचार्यके पास रहने वाले क्षपकके अन्य दोष भी कहते हैं गा०-बहत तीव्र दुःख रूपी जलसे भरे अनन्त संसार रूपी सागरमें संसरण करता हआ जीव बड़े कष्टसे मनुष्य भव प्राप्त करता है ॥४४८॥ टी०-संसारके पाँच प्रकार हैं-द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार । शरीर द्रव्यका वार-बार ग्रहण और त्याग द्रव्य संसार है । प्रथम नरकमें नारकियोंके शरीरका प्रमाण सात धनुष, तीन हाथ छह अंगुल है। नीचे-नीचेके नरकोंमें उसकी दुगुनी ऊँचाई होते होते अन्तमें पाँच सौ धनुष ऊँचाई है। इस प्रकारके भेद वाले शरीरोंमें जीवोंने अतीत कालमें एक-एक शरीर अनन्त बार ग्रहण किया । भविष्य कालमें भव्य जीवोंका अनन्तबार ग्रहण करना भाज्य है अर्थात् जो मुक्त हो जायेंगे वे अनन्त बार ग्रहण नहीं कर सकेंगे, शेष कर सकेंगे। किन्तु अभव्य जीव तो भविष्य कालमें भी उन शरीरोंको अनन्त बार ग्रहण करेंगे। यह द्रव्य संसारका कथन स्थूलरूपसे है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ भगवती आराधना क्षेत्रसंसार उच्यते-सीमन्तकादीनि अप्रतिष्ठान्तानि चतुरशीतिनरकशतसहस्राणि । तत्रककस्मिन् नरके अनन्ता जन्ममरणयोवृत्तिरतीते काले । भविष्यति तु भाज्या भव्यान्प्रति । अभव्यानां तु भविष्यत्यप्यनन्ताः। कालसंसार उच्यते-उत्सपिण्याः कस्याश्चित्प्रथमसमये प्रथमनरके उत्पन्नो, मृत्वान्यत्रोत्पन्नः, पुनः कदाचिदुत्सपिण्या द्वितीयादिसमये उत्पन्न एवं तृतीयादिसमयेषु । एवं उत्सपिणी समाप्ति नीता । तथा अवसर्पिण्यां अपि । एवमितरेष्वपि नरकेषु । एवमुत्सपिण्यवसर्पिणीकालयोरनन्तवृत्तिः । भवसंसार उच्यते प्रथमायां पृथिव्यां दशवर्षसहस्रायुर्जातः पुनः समयेनैकैकेन अधिकानि दशवर्षसहस्राणि । एवं द्विसमयाद्यधिकक्रमेण सागरोपमपयंतमायुः समाप्ति नीतम् । द्वितीयायां समयाधिकं सागरोपमादिं कृत्वा द्वितीयादिसमयाधिकक्रमेण यावत्सागरोपमत्रयपरिसमाप्तिः । तृतीयायां समयाधिकं त्रिसागरोपमादिकं कृत्वा द्वितीयादिसमयाधिकक्रमेण यावत्सागरोपमसप्तकपरिसमाप्तिः । चतुर्थ्यां समयाधिकसप्तसागरोपमादारभ्य द्वितीयादिसमयाधिकक्रमेण यावद्दशसागरोपमपरिसमाप्तिः । पञ्चम्यां समयाधिकदशसागरोपमादारभ्य द्वितीयादिसमयाधिकक्रमेण यावत्सप्तदशसागरोपमपरिसमाप्तिः । षष्ठयां समयाधिकसप्तदशसागरोपमादारभ्य द्वितीयादिसमयाधिकक्रमेण यावद्वाविंशतिसागरोपमपरिसमाप्तिः। सप्तम्यां समयाधिकद्वाविंशतिसागरोपमादारभ्य यावत्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमपरिसमाप्तिः । एवमेतेष्वायुविकल्पेषु परावृत्तिः भवसंसारः । क्षेत्र संसार कहते हैं-प्रथम नरकके सीमन्तकसे लेकर सातवें नरकके अप्रतिष्ठ विलें पर्यन्त चौरासी लाख विलें हैं। उनमें से एक-एक विलेमें अतीत कालमें अनन्त बार जन्म मरण जीवोंने किया है । भविष्यमें भव्य जीवोंका अनन्त बार जन्म मरण भाज्य है । अभव्य जीवोंका तो भविष्यमें भी अनन्त जन्म मरण होंगे। काल संसार कहते हैं-किसी उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें प्रथम नरकमें जीव उत्पन्न हुआ। मरने पर अन्यत्र उत्पन्न हुआ। फिर कभी उत्सर्पिणीके दूसरे आदि समयमें उत्पन्न हुआ। इसी तरह तीसरे आदि समयोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उत्सर्पिणी कालके सब समयोंमें जन्म लेकर उत्सपिणी समाप्त की। इसी प्रकार अवसर्पिणी भी समाप्त की। इस तरह अन्य नरकोंमें उत्पन्न हुआ । इस प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमें अनन्त बार जन्मा मरा। भव संसार कहते हैं--प्रथम नरकमें दस हजार वर्षकी आयु लेकर जन्मा और मरा। पुनः एक एक समय अधिक दस हजार वर्षको आयु लेकर जन्मा और मरा। ऐसा करते करते क्रमसे एक सागर प्रमाण आयु पूर्ण को । फिर दूसरे नरकमें एक समय अधिक एक सागरकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ मरा । इस तरह एक एक समय बढ़ाते हुए तीन सागर प्रमाण आयु पूर्ण की। तीसरे नरकमें एक समय अधिक तीन सागरकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ और एक एक समय बढ़ाते हुए सात सागरकी आयु पूर्ण की। फिर चतुर्थ नरकमें एक समय अधिक सात सागरकी आयु लेकर जन्मा मरा । फिर एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते दस सागरकी आयु पूर्ण की। फिर पाँचवें नरकमें एक समय अधिक दस सागरकी आयु लेकर जन्मा मरा। फिर एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते सतरह सागरकी आयु पूर्ण की । फिर छठे नरकमें एक समय अधिक सतरह सागरसे लेकर एक एक समय बढ़ाते-बढ़ाते बाईस सागरकी आयु पूर्ण की। फिर सातवेंमें एक समय अधिक बाईस सागरसे लेकर तैंतीस सागरकी आयु पूर्ण की' इस प्रकार इन आयुके विकल्पोंके परावर्तनको भव संसार कहते हैं । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३४३ भावसंसारस्तु सर्वजनसुखाधिगम्य इति नेह प्रतन्यते । एवंभूते संसारसागरे अनन्ते । बहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि' शारीरं, आगन्तुकं, मानसं, स्वाभाविकमिति विकल्पेन बहूनि तीव्राणि दुःखानि सलिलानि यस्मिन् तस्मिन् संसरमाणो परिवर्तमानः । जीवो 'दुवखेण' काटेन । 'लभइ' लभते । कि 'मणुस्सत्तं' मनुष्यत्वं । मनुष्यक्षेत्रस्याल्पत्वात् सर्वजगति तिरश्चामुत्पत्तेमनुजतानिर्वर्तकानां कर्मणां कारणभूता ये परिणामास्तेषां दुर्लभत्वाच्च । के ते परिणामा इत्यत्रोच्यते सर्व एव हि जीवपरिणामा मिथ्यात्वासंयमकपायाख्यास्त्रिप्रकारा भवन्ति । तीव्रो मध्यमो मन्द इति । कुतः कर्मनिमित्ता हि मिथ्यात्वादयः कर्माणि च तीव्रमध्यममन्दानुभवविशिष्टानि । तेन कारणभेदतः कार्याणां परिणामानां विचित्रता। तत्र ये हिंसादय: परिणामा मध्यमास्ते मनुजगतिनिर्वर्तकाः बालिकाराज्या, दारुणा, गोमूत्रिकया, कर्दमरागेण च समानाः यथासंख्यन क्रोधमानमायालोभाः परिणामाः । जीवघातं कृत्वा हा दुई कृतं, यथा दुःखं मरणं वास्माकं अप्रियं तथा सर्वजीवानां । अहिंसा शोभना वयं तु असमर्था हिंसादिकं परिहतु मिति च परिणामः । मृषा परदोष सूचनं, परगुणानामसहनं वञ्चनं वाऽसज्जनाचारः । साधूनामयोग्यवचने दुर्व्यापारे च प्रवृत्तानां का नाम साधुतास्माकमिति परिणामः । तथा शस्त्रप्रहारादप्यनर्थः परद्रव्यापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकलकुटुम्वविनाशो। नेतरत्र तस्माद्दुष्ट कृतं परधनहरणमिति परिणामः । परदारादिलङ्घनमस्माभिः कृतं तदतीवाशोभनं । यथास्महाराणां परग्रहणे दुःखमात्मसाक्षिकं तद्वत्तेषामिति परिणामः । यथा गङ्गादिमहानदीनां अनवरतप्रवेशेऽपि न तृप्तिः सागरस्यैवं द्रविणेनापि जीवस्य सन्तोषो नास्तीति परि भाव संसारको तो सभी सुखपूर्वक जान लेते हैं। अतः यहाँ उसका विस्तार नहीं किया। इस प्रकारके अनन्त संसार सागरमें मनुष्य पर्याय पाना दुर्लभ है। क्योंकि मनुष्य क्षेत्र अल्प है। तिर्यञ्च तो सब जगत्में उत्पन्न होते हैं। मनुष्य पर्यायमें जन्म लेनेके कारणभूत जो परिणाम हैं वे दुर्लभ हैं। वे परिणाम कौनसे हैं यह कहते हैं-मिथ्यात्व असंयम और कषाय रूप सभी जीव परिणाम तीन प्रकारके हैं-तीव्र, मध्यम, मन्द, क्योंकि मिथ्यात्व आदि परिणाम कर्मके निमित्तसे होते हैं और कर्म तीव्र मन्द और मध्यम अनुभाग शक्तिसे युक्त होते हैं। अतः कारणके भेदसे उनके कार्य परिणामोंमें भी विचित्रता होती है। उनमेंसे जो हिंसा आदि रूप परिणाम मध्यम होते हैं वे मनुष्य गतिके कारण होते हैं। ऐसे परिणाम हैं वालकी लकीरके समान क्रोध, लकड़ीके समान मान, गोमूत्रिकाके समान माया और कीचड़के रागके समान लोभ । जीवघात करके पछताना, हा बुरा किया। जैसे दुःख और मरण हमें अप्रिय हैं उस तरह सभी जीवोंको अप्रिय हैं । अहिंसा उत्तम है किन्तु हमलोग हिंसा आदिको त्यागने में असमर्थ हैं। इस प्रकारके परिणाम मनुष्यगतिके कारण हैं। दूसरेको झंठा दोष लगाना, दूसरेके गुणोंको न सहना, ठगना ये दर्जनोंके आचार हैं। साधुओंके अयोग्य वचन और खोटे व्यापारमें लगे हम लोगोंमें साधुता कैसे संभव है इस प्रकारके परिणाम मनुष्यगतिके कारण हैं । दूसरेके द्रव्यका हरण करना शस्त्र प्रहारसे भी बुरा , है । द्रव्यका विनाश समस्त कुटुम्बका विनाश है। इसलिए दूसरेका धन हरना खोटा काम है। इस प्रकारके परिणाम मनुष्यगतिके कारण हैं। हमने जो परस्त्री आदिका सेवन किया यह बुरा किया । जैसे हमारी स्त्रियोंको दूसरे पकड़ें तो हमें दुःख होता है उसी तरह दूसरोंको भी होता है। इस प्रकारके परिणाम मनुष्य गतिके कारण हैं। जैसे गंगा आदि महा नदियोंके द्वारा रात दिन जल आने पर भी सागरकी तृप्ति नहीं होती, इसी तरह धनसे भी जीवोंको सन्तोष नहीं होता। १. दोषस्तवनं-आ० । २. दुष्ट-आ० । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ भगवती आराधना णामः । एवमादिपरिणामानामसुलभता अनुभवसिद्धव । इत्थं दुर्लभमनुजत्वं साधुवदने परुषमिव वचः । धर्मरश्मिमण्डले तम इव, चण्डकोपे दयेव, लुब्धे सत्यवचनमिव, मानिनि परगुणस्तवनमिव, वामलोचनायामार्जवमिव, खलेषूपकारज्ञतेव, आप्ताभासमतेषु वस्तुतत्त्वावबोध इव । तह चेव मनुजत्वमिव । 'देसकुलरूवमांरोग्गमाउगं बुद्धी' देशः, फुलं, रूपं, आरोग्य, आयुर्बुद्धिश्च । 'सवणं गहणं सड्ढा य' संजमो श्रवणं, ग्रहणं श्रद्धा संयमश्वेत्येते 'दुल्लहा' दुर्लभा लोके । तत्र देशदुर्लभतोच्यते । कर्मभूमिजा, भोगभूमिजा अन्तर्वीपजाः सम्मूच्छिमाः इति चतुःप्रकारा मनुजाः । पञ्च भरताः, पश्चैरावताः, पञ्च विदेहाः इति पञ्चदशकर्मभूमयः । पञ्च हैमवतवर्षाः, पञ्च हरिवर्षाः, पञ्च देवकुरवः, पञ्च उत्तरकुरवः, पञ्च रम्यकाः, पञ्च हैरण्यवतवर्षाः त्रिंशद्भोगभूमयः । लवणकालोदधिसमुद्रयोरन्तरद्वीपाः । चक्रिस्कन्धावारप्रसवोच्चारभूमयः शुक्रसिंहाणकश्लेष्मकर्णदन्तमलानि चाङ्गलासंख्यातभागमात्रशरीराणां सम्मूच्छिमानां जन्मस्थानानि । तत्र भोगभूमिमन्तरद्वीपं च परिहृत्य कर्मभूमिपूत्पत्तिदुर्लभा । कर्मभूमिषु च बर्वरचिलातकपारसीकादिदेशपरिहारेण अङ्गवङ्गमगधादिदेशेषु उत्पत्तिः । लब्धेऽपि देशे चाण्डालादिकुलपरिहारेण तपोयोग्ये कुले जातौ । जातिर्मातृवंशः । सुकुलं कथं दुर्लभं इति चेदत्रोच्यते । जाति, कुलं, रूपं, ऐश्वर्य, ज्ञानं, तपो, वलं वा प्राप्य अगर्वितत्वं अन्येऽप्येतैगुणरधिकाः स्वबुद्धधानमनं, परानवज्ञाकरणं, गुणाधिकेपु नीचैवृत्तिः, परेण पृष्टस्यापि अन्यदोषाकथनं, आत्मगुणस्यास्तवनं, इत्येतैः परिणामैः उच्चैर्गोत्रं कर्म आपाद्यते तेन कुलेषु पूज्येषु जायते जन्तुरयं पुनर्न तथा प्रवर्तते जडमतिः । कित्वेतद्विपरीतेषु परिणामेषु वर्तमानो नीचैर्गोवमेव वघ्नाति असकृत्तेन पूज्यं कुलं दुर्लभं । उक्तं च इस प्रकारके परिणामोंकी दुर्लभता अनुभवसे सिद्ध है। इस प्रकार मनुष्य जन्म वैसे ही दुर्लभ है जैसे साधुके मुख में कठोर वचन. सूर्यमण्डलमें अन्धकार, प्रचण्ड क्रोधीमें दया, लोभीमें सत्यवचन, मानीमें दूसरेके गुणोंका स्तवन, स्त्रीमें सरलता, दुर्जनोंमें उपकारको स्वीकृति, आप्ताभासोंके मतों में वस्तु तत्त्वका ज्ञान दुर्लभ है । देश, कुल, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, ग्रहण, श्रवण और संयम ये लोकमें उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। ___ उनमेंसे देशकी दुर्लभता कहते हैं—मनुष्य चार प्रकारके हैं—कर्मभूमिया, भोगभूमिया, अन्तर्वीपज और सम्मूछिम । पाँच भरत, पाँच ऐरावत, पाँच विदेह ये पन्द्रह कर्मभूमिया हैं। पाँच हैमवत वर्ष, पाँच हरिवर्ष, पाँच उत्तरकुरु, पाँच देवकुरु, पाँच रम्यक, पाँच हैरण्यवत, ये तीस भोगभूमियाँ हैं । लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्रमें अन्तर्वीप हैं । चक्रवर्तीकी सेनाके निवासस्थानकी मलमूत्र त्यागनेको भूमियाँ, वीर्य, नाक, थूक, कान और दाँतका मैल, ये अंगुलके असंख्यात भाग शरीरवाले सम्मूर्छन जीवोंके जन्मस्थान हैं। उनमेंसे भोगभूमि और अन्तरद्वीपको छोड़ कर्मभूमियोंमें उत्पत्ति दुर्लभ है। कर्मभूमियोंमें वर्बर, चिलातक, पारसीक आदि देशोंको छोड़ अंग, बंग, मगध आदि देशोंमें उत्पत्ति दुर्लभ है। योग्य देश मिलनेपर भी चाण्डाल आदि कुलोंको छोड़ तपके योग्य कुल जाति मिलना दुर्लभ है । मातृवंशको जाति कहते हैं । शङ्का-सुकुल कैसे दुर्लभ है ? समाधान-जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य', ज्ञान, तप और बलको पाकर अन्य भी इन गुणोंसे अधिक है ऐसा अपनी बुद्धिसे मानकर गर्व न करना, दूसरोंकी अवज्ञा न करना, अपनेसे जो गुणोंमें अधिक हों उनसे नम्र व्यवहार करना, दूसरेके पूछनेपर भी किसीके दोष न कहना, अपने गुणोंकी प्रशंसा न करना, इस प्रकारके परिणामोंसे उच्चगोत्रका बन्ध होता है। उससे पूज्य कुलोंमें जन्म होता है। किन्तु यह अज्ञानी जीव उस प्रकारकी प्रवृत्ति नहीं करता, बल्कि उक्त Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ३४५ जात्या भत्तो यः कुलाद्वापि रूपादेश्वर्याद्वा ज्ञानतो वा बलाद्वा । प्राप्यार्थ वा यस्तपो वा परेष निन्दायक्तः स्तौति वात्मानमेव ॥१॥ अन्यावज्ञानावरातिकमाणां कर्ता मानं योऽतिमात्र बिभर्ति । 'नीचेर्गोत्रं नाम कमष बाल्यावघ्नात्यानं निन्दितं जन्मवासे ॥२॥ यस्तु प्राप्याप्यत्तमत्वं कुलाधरन्यान्बुद्धघा मन्यमानो विशिष्टान् । अन्यान्कांश्चिन्नावजानाति धोरान्नीचर्वत्या युज्यते वाषिकेषु ॥ ३ ॥ पृष्टोऽप्यन्यैर्नान्यदोषान्ब्रवीति नात्मानं वा स्तौति निमकमानः । उच्चंर्गोत्रं नाम कमव धीमान् बनातीष्टं जन्मवासे प्रजानाम् ॥ ४ ॥ इति । [ ] नीरोगतापि दुर्लभा, असकृदसवेद्यकर्मबन्धनात् । बन्धाच्छेदात्ताडनान्मारणाद्दाहाद्रोधाच्चासद्वेद्यमेव वध्नाति । तथा चाभ्यधायि अन्येषां यो दुःखमनोऽनुकम्पा त्यक्त्वा तो तीवसंक्लेशयुक्तः । बन्धच्छेदैस्ताडन रणश्च दाहै रोधश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं काङ्क्षन्नात्मनो दुष्टचित्तो नोचो नीचं कर्म कुर्वन्सदेव । पश्चात्तापं तापिना यः प्रयाति बध्नात्येषोऽसातवेधं सदैवम् ॥ इति । [ ] रोगाभिभवान्नष्टबुद्धिचेष्टः कथमिव हितोद्योगं कुर्यात् । तथा चाभाणि प्राप्नोत्युपात्तादिह जीवतोऽपि महाभयं रोगमहाशनिभ्यः । यथाशनिः खान्निपतत्यबुद्धो रोगस्तथागत्य निहन्ति देहम् ॥१॥ परिणामोंसे विपरीत परिणाम करके बार-बार नीचगोत्रका बन्ध करता है इससे पूज्य कुल दुर्लभ है। कहा है जो जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान या बलका मद करता है, धन अथवा तपको प्राप्त करके दूसरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करता है, अन्यकी अवज्ञा, अनादर और तिरस्कार करके खूब घमण्ड करता है वह बचपनसे ही नीचगोत्र नामक कर्मका बन्ध करके नीचकुलमें जन्म लेता है। और जो उत्तमकुल आदि प्राप्त करके दूसरोंको अपनेसे विशिष्ट मानता है, किसीकी भी अवज्ञा नहीं करता । अपनेसे अधिकोंमें नम्रव्यवहार करता है। पूछनेपर भी दूसरोंके दोष नहीं कहता और अपनी प्रशंसा नहीं करता । वह मानरहित व्यक्ति उच्चगोत्रका बन्ध करता है जो जनताको इष्ट है। ___ नीरोगता भी दुर्लभ है क्योंकि जीव निरन्तर असातावेदनीयकर्मका बन्ध करता है। बन्धन, छेदन, ताड़न, मारण, दाह, और रोगसे असातावेदनीय ही कर्म बंधता है। कहा हैजो अज्ञानी तीव्र संक्लेशसे युक्त हो, दया त्याग दूसरोंको बन्धन, छेदन, ताड़न, मारण, दाह और रोधसे नित्य तीव्र दुःख देता है, जो दुष्टचित्त नीच पुरुष अपनेको सुख चाहता हुआ सदैव नीचकर्म करता है और सताये हुएसे सताये जानेपर पछताता है वह सदैव असातवेदनीयको बाँधता है। रोगसे ग्रस्त होनेपर उसकी बुद्धि और चेष्टा नष्ट हो जाती है तब वह कैसे अपने हितका उद्योग कर सकता है ? कहा है इस लोकमें जीवन प्राप्त करके भी वह रोगरूपी महान् वज्रपातसे महाभयग्रस्त रहता ४४ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ भगवती आराधना बलायुषी रूपगुणाश्च तादद्यावन्न रोगः समुपैति देहम् । फलस्य' लग्नस्य हि जातु तन्तोस्तावन्न पात: श्वसनो न यावत ॥ तस्मिन्स्वदेहे परिबाधमाने श्रेयः प्रकतुं न सुखेन शक्यम् । गृहे समन्तान्न हि वह्यमाने शक्तः प्रकतुं पुरुषोऽत्र किंचित् ॥ इति । [ ] सदा परप्राणिघातोद्यतस्तदीयप्रियतमजीवितविनाशनात् प्रायेणाल्पायुरेव भवति । आयुषश्छेदने बहूनि निमितानि--जलं, ज्वलनः, मारुतः, सर्पाः, वृश्चिकाः, रोगा, उच्छ्वासनिश्वास निरोधः, आहारालाभः, वेदनेत्येवमादीनि । ततो दीर्घमायुर्न सुलभं मनुजभवे । सामान्यवचनोऽप्यायुःशब्दः दीर्घ मनुजायुषि वर्तमानो गृहीतोऽन्यथायुर्मात्रस्य संसारिणः सुलभत्वात् । लब्धेष्वपि देशादिपु बुद्धिदुर्लभा । परलोकान्वेषणपरा बुद्धिरत्र बुद्धिशब्देनोच्यते न ज्ञानमात्रवाची । तद्धि सुलभं ज्ञानावरणेनावरुद्धबोधवीर्यस्य जलधर घटावरुद्धमण्डलस्य छायामान्यमिव दिनपतेरवि वेदकं भवति ज्ञानम् । किंचिन्मिथ्यात्वोदयाद्विपर्यस्तमुदेति विज्ञानं । नैवात्मा नाम कश्चित्कर्ता शुभाशुभयोः कर्मणोः । नापि तत्फलानुभवनिरतः, नापि परलोक: प्राप्यः कर्मवशवर्तिना कश्चिदिति । तथाभ्यधायि लोको नायं नापरो नापि चात्मा धर्माधर्मों पुण्यपापे न चापि । स्वर्गो दृष्टः केन केनाथवा ते घोरा दृष्टा नारकाणां निवासाः ॥ बन्धः को वा कोऽथवा सोऽस्ति मोक्षो, मिथ्या सर्व यन्त्रणेयं निरर्था । प्राप्ताः कामाः सेवितव्या यथेष्टं दृष्टं त्यक्त्वा दूरगे कोऽभिलाषः ॥ [ 1 है। जैसे आकाशसे अचानक वज्रपात होता है वैसे रोग अचानक आकर शरीरका घात करता है। बल, आयु, रूपादिगुण तभी तक हैं जब तक शरीरमें रोग नहीं होता। पेड़की डालमें लगा फल तभी तक नहीं गिरता जब तक हवा नहीं चलती। उसे अपने शरीर में पीड़ा होने पर सुखपूर्वक कल्याण करना शक्य नहीं है। घरके चारों ओरसे न जलने पर ही पुरुष कुछ कर सकता है। घर भस्म हो जाने पर कुछ नहीं कर सकता। जो सदा दूसरे प्राणियोंके घातमें तत्पर रहता है वह उनके प्रियतम जीवनका विनाश करने से प्रायः अल्प आयु वाला होता है। आयुके नष्ट होनेके बहुतसे निमित्त हैं-जल, आग, वायु, साँप, बिच्छु, रोग, श्वासोच्छ्वासका रुकना, भोजनका न मिलना, वेदना आदि । अतः मनुष्य भवमें दीर्घ आयु सुलभ नहीं है। यह आयुशब्द सामान्य आयुका वाचक होने पर भी दीर्घ मनुष्यायुके अर्थमें ग्रहण किया है। अन्यथा आयु मात्र तो संसारी जीवोंमें सुलभ हैं। देश आदि प्राप्त होने पर भी बुद्धिकी प्राप्ति दुर्लभ है । यहाँ बुद्धि शब्दसे परलोककी खोजमें तत्पर बुद्धि ग्रहण की है, ज्ञान मात्रको वाचक बुद्धि नहीं। ज्ञानमात्र तो सुलभ है। जैसे सूर्यमण्डलके मेघकी घटासे ढक जानेपर हलकी छाया रहती है वैसे ही ज्ञान शक्तिके ज्ञानावरणसे ढक जानेपर साधारण ज्ञान रहता है। मिथ्यात्वका उदय होनेसे ज्ञान विपरीत हो जाता है। यथा-आत्मा नहीं है न कोई शुभ अशुभ कर्मका कर्ता है और न कोई उसके फलका भोक्ता है। न कोई कर्मके परवश होकर परलोक जाता है। कहा है ___ 'न कोई इह लोक है, न कोई परलोक है । न आत्मा है, न धर्म अधर्म हैं, न पुण्य पाप हैं। किसने स्वर्ग देखा है और किसने वे भयानक नारकियोंके निवास देखे हैं ? कौन बन्ध है और कौन १. फलस्य शाखा गतवृत्ततन्तो। २. रपटाव-आ० । रपप्लाव-मु० । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया इति । तथा चान्ये -- द्रष्टवधिका स्त्री विंशतिवार्षिकः पुमान् तयोः परस्परं प्रेमपूर्व हावभावविभ्रमकटाक्षकिलिकिचितादिभावपूर्वकः संयोग एव स्वर्गः नान्यः । स्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य जयिनीं सर्वार्थसंपत्करों एनां ये प्रविहाय यान्ति कुषियः स्वर्गापवर्गेच्छया । तोषविनिहत्य ते द्रुततरं नग्नीकृता मुण्डिताः केचिद्रक्तपटीकृताश्च जटिलाः कापालिकाश्चापरे । [श्रृं० श० पृ० ४५ ] तथान्यैरभिहितं --- जलबुद्बुदवज्जीवाः परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावः इति च । सत्यामपि बुद्धी समीचीन ज्ञान लोचनवता सकलप्राणिभृद्गोचरकृपापरिष्वक्तचेतसा लाभसत्कारादिनिरपेक्षेण, चतुर्गतिपरिभ्रमणप्रभवयातना सहस्रमवलोक्य प्राणभृतां परमामनुकम्पामुपगतेन हा जनो विचेतनः मिथ्यादर्शनाद्य शुभ परिणामकदम्बकमिदमस्माभिरशुभगति निर्वर्तनप्रवणमवहातव्यमित्य जानानस्तत्रैवासकृत्प्रवर्तमानो दुःख रत्नाकरमपारमुपविशत्यशरणो वराकः इति कृतसंकल्पेन यतिजनेन संसर्गो दुर्लभः । कुतः ? दर्शनमोहोदयाज्ज्ञानावरणोदयाच्च न यतिगुणान्वेति श्रद्धत्ते वा जनः । तत एव न ढौकते यतीन्न वा सुगुणमविदुषस्तदुसर्पणमुपपद्यते । अपि च चारित्रमोहोदयादसंयतै रतिरतितरां प्राणिनस्ततोऽसौ हिंसादिकं स्वयं करोति, कारयति अनुमोदते । हिंसादिषु ३४७ मोक्ष है । यह सब मिथ्या और व्यर्थकी यन्त्रणा है । जो काम भोग प्राप्त हैं उन्हें यथेष्ट सेवन करना चाहिए। सामने वर्तमानको छोड़ दूरवर्ती की अभिलाषा क्यों ? ।' तथा अन्य भी कहते हैं - सोलह वर्षकी स्त्री और बीस वर्षके पुरुषका परस्परमें प्रेमपूर्वक हाव भाव, विलास, कटाक्ष, शृङ्गारादि भावपूर्वक संयोग ही स्वर्ग है । इसके सिवाय कोई दूसरा स्वर्ग नहीं है । कहा है- 'कामदेवको जीतनेवाली और समस्त अर्थ सम्पदाको करने वाली स्त्री मुद्रा है। जो कुबुद्धि स्वर्ग और मोक्षकी इच्छासे इसे छोड़कर जाते हैं वे उसके दोषोंसे सताये जाकर जल्द ही सिर मुण्डाकर नग्न हो जाते हैं । कुछ लाल वस्त्र धारण करते हैं और कुछ जटायें बढ़ाते हैं । कुछ हाथमें मनुष्य की खोंपड़ी लेकर कापालिक हो जाते हैं ।' तथा कुछ दूसरोंने भी कहा हैजीव जलके बुलबुलेके समान हैं और जब कोई परलोकी आत्मा नहीं है तो परलोक भी नहीं है । यतिजनोंका चित्त समस्त प्राणियों पर कृपा भावसे युक्त होता है, उन्हें लाभ सत्कार पुरस्कार afrat अपेक्षा नहीं होतीं । चार गतियों में परिभ्रमण से होनेवाली हजारों यातनाओंको देखकर प्राणियों में अत्यन्त दयालु हो उन्होंने संकल्प किया- 'हा, यह अज्ञानी जन --अशुभगतिमें ले जाने में समर्थ यह मिथ्यादर्शन आदि अशुभ परिणामों का समूह हमें त्यागना चाहिए' ऐसा नहीं जानते और बार-बार उसीमें प्रवृत्ति करते हुए बेचारे अशरण होकर दुःखके अपार समुद्र में प्रवेश करते हैं । उनमें बुद्धि होते हुए भी यतिजनके साथ उनका सम्बन्ध नहीं हो पाता, क्योंकि दर्शनमोहके उदय और ज्ञानावरणके उदयसे मनुष्य यतिजनोंके गुण न तो जानता है और न उनपर श्रद्धा करता है । इसीसे न तो यतियोंकी ओर देखता है और उनके गुणोंको न जाननेसे उनके पास नहीं जाता । तथा चारित्र मोहका उदय होनेसे असंयमी जनोंके प्रति उसका अत्यधिक प्रेम होता है इससे वह प्राणियोंको स्वयं हिंसा करता है, दूसरोंसे कराता है और कोई स्वयं हिंसा करता है तो १. तथा चान्येरत आरभ्य स्त्रीमुद्रा इत्यादि श्लोक पर्यन्तं नास्ति आ० । २. संयतोऽतितरां -आ० मु० । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ . भगवंती आराधना वर्तमानेष्वेव रति बध्नाति न हिंसादिपरिहारोद्यतेषु । विना रतिं कथं तैः संसर्गस्तत्सेवा वा । सा हि संसारोच्छेदकरी प्रशमकरी ज्ञानबुद्धिवृद्धिकरी। कोतिकरी पुण्यकरी संसेवा साधुवर्गस्य ॥ दर्शनमात्रमपि सतां संसारोच्छेदने भवति बीजं । कि पुनरधिकारकृता संसेवा साधुवर्गस्य । तत्सेवा यदि न स्यान्न स्याद ज्ञानागमो विना ज्ञानात् । हितकर्मप्रतिपत्तिर्न स्यान्न स्यात्ततो मोक्षः ॥ साधूपसेवनं यदि पारपर्येण मोक्षमानयति । हानिश्रमौ च नृणां को साधून्सेवमानानाम् ॥ श्रेयाः कथं न यतयो विदुषा श्रेयोथिना मनुष्येण । अक्षयमिह ये श्रेयो मुधाश्रितेभ्यः प्रयच्छन्ति ॥ इति सततमपोह्यमानमोहाविहपरलोकहितैपिणा नरेण । जगदधिकतपोविभूतियुक्ता यतिवृषभा विनयेन सेवितव्याः ॥ यदृच्छया जातेऽपि यतिजनसंसर्गे न गुणः न चेद्धितं शृणुयात् । यथा न वर्षस्य पात एव गुणो नरस्य अपि तु भुवि बोजबापः । तदुच्छ्रवणं गुणो यतिसमीपगमनेन । तदेवं श्रवणं दुर्लभं कथय ति । समीपमुपगतोऽपि निद्रायति । समीपस्थानां वचो यत्किचित् शृणोति, न रोचते, वा तद्धर्ममाहात्म्यप्रकाशनं माहोदयात् । न जानाति उसकी अनुमोदना करता है । जो हिंसा आदिमें लगे रहते हैं उन्हींसे प्रेम करता है । जो हिंसासे बचनेमें तत्पर हैं उनमें उसकी प्रीति नहीं होती। बिना प्रीति हुए कैसे उनके साथ सम्बन्ध हो सकता है अथवा कैसे उनकी सेवा कर सकता है ? ऐसे यतिजनोंकी सेवा संसारका विनाश करती है, शान्ति प्रदान करती है, ज्ञान और बुद्धिको बढ़ाती है, यश तथा पुण्यको लाती है। सज्जनोंका दर्शनमात्र भी संसारके विनाश करने में बीज होता है फिर साधुवर्गकी अधिकार पूर्वक को गई सम्यक् सेवा का तो कहना ही क्या है ? यदि उनकी सेवा न की जाये तो ज्ञानको प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञानके बिना हितकारी कर्मोंका ज्ञान नहीं होता और हितके ज्ञान बिना मोक्ष नहीं होता। यदि साधुजनोंकी सेवा परम्परासे मोक्ष लाती है तो साधुओंकी सेवा करनेवाले मनुष्योंकी हानि और श्रम कैसे सम्भव है? कल्याणका इच्छुक ज्ञानी मनुष्य यतियोंका आश्रय क्यों न लेवे, जो निष्प्रयोजन भी आश्रय लेनेवालोंको अक्षय कल्याण प्रदान करते हैं। इसलिए इस लोक और परलोक हित चाहने वाले मनुष्यको निरन्तर मान और मोहको त्यागकर जगत्में अधिक तपकी विभूतिसे युक्त श्रेष्ठ यतियोंकी विनयपूर्वक सेवा करनी चाहिए। __ अचानक यतिजनोंका संसर्ग होनेपर भी यदि उनसे हितकी बात न सुने तो कोई लाभ नहीं है। जैसे वर्षाके होनेसे ही मनुष्यका लाभ नहीं है किन्तु जमीनमें बीज बोने पर लाभ है। उसी तरह यतिजनके समागमका लाभ उनसे हितकी बात सुननेसे है। इस प्रकार आचार्य उपदेश सुननेको दुर्लभ कहते हैं। मनुष्य समीपमें जाकर भी सोता है। समीपमें स्थित जनोंके वचन १. य महाश्रियो ये मुधा-आ० । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका वा मतिमान्द्यादत एव तत्र नानुरागोऽस्य । अन्तरेण चानुरागं कथं श्रोतुमुत्सहेत् । तथा चाभाणि 'साधनां शिवगतिमार्गदेशकानां संप्राप्तो निलयमपि प्रमाददोषात् । आस्ते यो जनवचनानि तत्र शृण्वन् गत्वासौ ह्रवमपि पङ्क एव मग्नः ॥' इति [ ] सत्यपि श्रवणे ग्रहणं विज्ञानं तन्निरूपितस्यार्थस्य दुष्करें। सौक्ष्म्याज्जीवादिवस्तुतत्त्वस्य कदाचिदप्यश्रुतत्वात् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षाभावाच्च । ज्ञाते धर्मतत्त्वे तत्र श्रद्धा दुर्लभा । सोऽयं जिनप्रणीतो धर्मः अहिंसालक्षणः, सत्याधिष्ठानः, परद्रव्यापहरणपरिवर्जनात्मकः, नवविधब्रह्मचर्यगुप्तः, परित्यक्ताशेषमूर्छः, विनयमूलः, समीचीनज्ञानपुरःसरः, क्षमामार्दवावसंतोष गुणः, नरकवर्तनीवत्रार्गलभूतः, तिर्यग्गतिलताकुठारः, कठोराशनिर्दुःखाचलशिखराणां, मोहमहामहीरहोत्पाटनपटुमातरिश्वा जरादवानलशिखामुखप्रशमनमुखरो घनाघनः, प्रावर्षकः प्रावृषेण्यः, मरणहरिणविशसनचटुलश्चण्डपुण्डरीकः, क्रूररोगोरगाणां विनतासुतः, संपत्सुरापगायां हिमाचलः, यः सेतुरगाधशोकपङ्कस्य, पिता सुभगतायाः, ऐश्वर्यरत्नानामाकरः, कुयोनिवनविप्रनष्टानां पृथुलशिवपुरं, इति श्रद्धानं अतिदुर्लभं दर्शनमोहोदयात् । उपशमात् क्षयोपशमात्, क्षयाद्वा दर्शनमोहस्य जातेऽपि श्रद्धाने संयमो दुर्लभतरः प्रत्याख्यानावरणोदयात् । उक्तं च थोड़ा बहुत सुनता है किन्तु रुचते नहीं। अथवा मोहके उदयसे उनके धर्मके महत्त्वका प्रकाशन उसे नहीं रुचता । अथवा बुद्धि की मन्दतासे समझता नहीं हैं। इसीसे उसका उस उपदेशमें अनुराग नहीं होता। और अनुरागके बिना सुननेका उत्साह कैसे हो सकता है। कहा है-'जो मोक्षमार्गके उपदेशक साधुओंके निवास स्थान पर जाकर भी प्रमादवश वहाँ लोगोंकी बातचीत सुनता हुआ बैठता है वह तालाब पर जाकर भी कीचड़ में ही फंस जाता है । _उपदेश सुनकर भी उसमें कहे गये अर्थका ग्रहण, उसका ज्ञान कठिन है; क्योंकि एक तो जीवादि वस्तु तत्त्व सूक्ष्म है, दूसरे पहले कभी सुना नहीं, तीसरे श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमका प्रकर्ष नहीं है। धर्मतत्त्वको जानने पर भी उसमें श्रद्धा दुर्लभ है। वह यह जिन भगवानके द्वारा कहा गया धर्म अहिंसा रूप है, सत्य उसका आधार है, उसमें परद्रव्यका अपहरण त्यागना होता है, नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यसे वह रक्षित है, उसमें समस्त ममत्वभाव छोड़ना होता है । विनय उसका मूल है। समीचीन ज्ञानपूर्वक वह धर्म होता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष उसके गुण हैं। नरकके मार्गके लिए वज्रकी सांकल रूप है। तिर्यञ्चगतिरूपी बेलके लिए कुठार है । दुःखरूप पर्वतोंके शिखरोंके लिए कठोर वज्र है । मोहरूपी महावृक्षको उखाड़नेमें चतुर प्रचण्ड वायु है। जरारूपी जंगलकी आगकी लपेटोंको शान्त करनेके लिए वर्षाकालीन मेघ है। मृत्युरूपी हरिणका वध करनेके लिए प्रचण्ड बाघ है। क्रूर रोगरूपी सोके लिए गरुड है। सम्पतिरूपी गंगाकी उत्पत्तिके लिए हिमवान पर्वत है। गम्भीर शोक रूपी कीचड़से पार उतरनेके लिए पुल है । सौभाग्यका पिता है। ऐश्वर्य रूपी रत्नोंकी खान है, कुयोनिरूपी वनमें भटकते हुए लोगोंके लिए विशाल मोक्ष नगर है।' इस प्रकारका श्रद्धान दर्शनमोहका उदय होनेसे अति दुर्लभ है । दर्शनमोहका उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे श्रद्धान होनेपर भी प्रत्याख्यानावरणका उदय होनेसे संयम उससे भी अधिक दुर्लभ है । कहा है १. गुणभूषणः आ० मु० । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० भगवती आराधना दुर्ज्ञेयो भवति नरेण तस्वधर्मो ज्ञात्वापि प्रयतनमत्र कष्टमेव । तज्ज्ञात्वा धृतिमुपलभ्य दृष्टतत्वः, सद्धर्मे क्षणमपि मा कृथाः प्रमादम् ॥ भूत्वायं सुकरतरोऽपि पापकार्यात् धर्मोऽभूत्क्षणमपि दुष्करो मनुष्यः । आश्चर्यं किमपि न चात्र सन्ति मूढाः स्यादेतद् ध्रुवमिह कर्मणां गुरुत्वम् ॥ काकिण्यामपि गणयन्गुणं महान्तं तद्ध ेतोः श्रममतुलं करोति यत्नात् । न त्वज्ञः सुरमनुजद्धमोक्षमूले सद्धमें हृदयमपि स्थिरीकरोति ॥ यत्पापे भृशमहिते करोति चेष्टामालस्यं परमहिते च याति धर्मे । युक्तं तद्यदि न तथा भवेत्पृथिव्यां संसारं ननु पुरुषः कथं लभेत ॥ इति । [ ] एवमपि परंपरेण' दुर्लभपरंपरया । 'लद्धण वि' लब्ध्वापि । 'संयम' संजमं । 'खवगो' क्षपकः । कि न 'लभेज्ज सुदिं' न लभते श्रुति । 'संवेगकरीं' संसारभयजननीं । 'अबहुस्सुदसकास' अवहुश्रुतस्य सूरेः पार्श्वे । तस्माच्छ्रुतवानाचार्य आश्रयणीयः इति प्रस्तुतेन संबन्धः ॥ 1 'सम्मं सुविमलभंतो' समीचीनां श्रुतिमलभमानः । कदा ? मरणकाले । 'अबहुस्सुदसगासे' अबहुश्रुतस्य पार्श्वे । 'दिग्धद्ध' चिरं कालं । 'मुत्तिमुवगमित्तावि' मुक्तिशब्देनात्र प्राणेन्द्रियविषयासंयमत्यागः परिगृह्यते । तेनायमर्थः - चिरप्रवर्तितसंयमोऽपीति । 'परिवडदि' प्रच्यवते । कुतः ? संयमात् । संयमहानिकथनेन चारित्राराधनाया अभाव आख्यायते । संयमात्प्रच्यवते कथमिति चेत्- मनोज्ञानाममनोज्ञानां च विषयाणां सर्वत्र सदा च सांनिध्यात् अभ्यन्तरकारणस्य कर्मणोऽपि रागद्वेषमोहपरिणामाः प्रादुर्भवन्तीति ते दुर्निवारा इति वदन्ति । मनुष्यके द्वारा धर्मका तत्त्व जानना कठिन है । जानकर भी उसमें प्रयत्नशीलता कष्टकर है । उस धर्मको जानकर, तत्त्व दृष्टिसे सम्पन्न मनुष्यों धैर्यं धारण करके समीचीन धर्मके विषयमें एक क्षणके लिए भी प्रमाद मत करो। पापकार्य से अति सुकर होने पर भी यह धर्म मनुष्योंको क्षणभरके लिए दुष्कर होता है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । यह निश्चय ही कर्मों की गुरुताका फल है । यह मनुष्य एक कौड़ी में भी महान् गुण मानकर उसके लिए अतुल श्रम करता है । किन्तु अज्ञानी देव और मनुष्योंकी ऋद्धि के मूल समीचीन धर्म में अपने मनको भी स्थिर नहीं करता । अत्यन्त अहितकारी पापमें तो चेष्टा करता है और परमहितकारी धर्ममें आलस्य करता है । यह ठीक ही हैं । यदि ऐसा न इस पृथिवी पर संसार कैसे पाता, कैसे सर्वत्र भ्रमण करता ।' होता तो पुरुष इस तरह उत्तरोत्तर दुर्लभ संयमको धारण करके भी क्षपक अल्पज्ञानी आचार्यके पास संसारसे भयभीत करनेवाला उपदेश नहीं प्राप्त कर सकता । इसलिए शास्त्रज्ञ आचार्यका आश्रय लेना चाहिए, ऐसा प्रस्तुत कथनके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए । अल्पज्ञानी आचार्य के पास समीचीन उपदेश न पाकर चिरकाल तक मुक्तिको - यहाँ मुक्तिशब्दसे प्राणी और इन्द्रियोंके विषय में असंयमका त्याग लिया जाता है। अतः उसका अर्थ होता है - संयमको धारण करके भी मरते समय संयमसे गिर जाता है । संयमकी हानि कहनेसे उसके चारित्र आराधनाका अभाव कहा है । संयमसे क्यों गिरता है । यह कहते हैं मनको प्रिय और अप्रिय लगनेवाले विषयोंके सदा सर्वत्र समीप रहनेसे तथा अभ्यन्तर कारण कर्मका उदय होनेसे रागद्वेष और मोहरूप परिणाम उत्पन्न होते हैं और वे दुर्निवार होते Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३५१ 'सक्कं वंसी छत्तूं' अल्पवंशः वंशीत्युच्यते गाढावलग्नता हि तत्र संभवति शक्यते वंशी च्छेत्तु। 'तत्तो' गुल्मात् 'उक्कट्ठिदु अवक्रष्टुं । 'पुणो' पश्चात् । 'दुक्ला' दुष्करं । 'इय' एवं । 'संजदस्स वि' संयतस्यापि मनः । 'विसएसु' रूपादिविषयं । 'उक्कट्ठिदु' अपक्रष्टु। 'दुक्ख' दुष्करं । रागद्वेषेभ्यो व्यावर्तयितुं अशक्यं । एतदुक्तं भवति-रागद्वेषविजये यदि नाम प्रतिज्ञा कृता तथापि कृतशरीरसल्लेखनस्य क्षुदादिपरीषहरुपद्रुत य मन्दवीर्यस्य न श्रुतज्ञानप्रणिधानन्तच्चान्तरेण रागद्वेषयोःप्रवृत्तेन चारित्राधकता स्यात् । बहुश्रुतः पुनः यथास्य रागद्व पौ न जायेत तथोपदिशति भोगनिर्वेजनी शरीरनिर्वेजनी वा कथामित्थं एकान्तदुःख निरयप्रतिष्ठा तिर्यक्ष देवेषु च मानुषेषु । क्वचित्कदाचिन्नु कथंचिदेव सौख्यस्य संज्ञात्र शरीरिणां स्यात् ।। १॥ एकेन जन्मस्वटताप्रमेयं शरीरिणा दुःखमवाप्यते यत् । अनन्तभागोऽपि न तस्य हि स्यात् सर्व सुखम् सर्वशरीरसंस्थं ॥२॥ तत्रैकजीवः सुखभागमेकं भजेत्कियन्तं जननाणवेऽस्मिन् । चंचूर्यमाणः परितो वराको वनेऽतिभीतो हरिणो यथैकः ॥ ३ ॥ भवेष्वनन्तेषु सुखे तथापि शरीरिण केन समापनोये । एकप्रसूतौ यदवाप्यते तत्कियद्भवेत्तस्य विमृश्यमाणे ॥ ४॥ अत्यल्पमप्यस्य तदस्तु तावत्तदृदुःखराशौ पतितं तदीयम् । स्यात्तसं स्वादुरसं यथाम्बु प्राप्याम्बुदानां लवणार्णवाम्बु ॥ ५ ॥ यच्चाप्यवः सौख्यमितीष्यतेऽत्र पूर्वोत्थदुःखप्रतिकार एषः।। विना हि दुःखात्रथमप्रसूतात् न लक्ष्यते किंचन सौख्यमत्र ॥ ६॥ हैं। जैसे बाँसका झुण्ड गाढरूपसे वृहद् रहता है उसमेंसे छोटा बाँस तो खींचा जा सकता है। किन्तु पीछे उसको अलग करना बहुत कठिन है । उसी तरह संयमीका भी मन रूपादिविषयोंमें फंसनेपर निकालना कठिन होता है अर्थात् रागद्वेषसे हटाना अशक्य होता है। कहनेका आशय यह है कि यद्यपि रागद्वेषको जीतनेकी प्रतिज्ञा की है फिर भी शरीरकी सल्लेखना करनेपर भूख आदिकी परीषहसे पीड़ित और मन्दशक्ति उस क्षपकके श्रुतज्ञानकी ओर उपयोग नहीं होता। और उसके विना रागद्वषमें प्रवृत्ति होनेसे चारित्रकी आराधना नहीं होती। किन्तु बहुश्र त आचार्य उसको रागद्वेष पैदा न हों इस प्रकारकी भोग और शरीरसे वैराग्य करानेवाली कथा इस प्रकार कहता है नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंमें सर्वथा दुःख ही है। उनमें प्राणियोंको सुखकी संज्ञा कभी, कहीं किञ्चित् ही होती है। एक प्राणी नाना जन्मोंमें भ्रमण करते हुए जो अपरिमित दुःख भोगता है उसका अनन्तभाग भी सब सुख सब शरीरोंमें मिलकर भी नहीं होता। तब इस जन्मरूपी समुद्रमें एक जीव उस सुखका कितना भाग भोगता है ? जैसे वनमें एक अत्यन्त डरा हुमा बेचारा हरिण सब ओरसे त्रस्त हुआ रहता है वैसी ही दशा जीवकी संसारमें है । अनन्तभवोंमें एक प्राणी के द्वारा प्राप्त सुख की जब यह स्थिति है तो उसका विचार करनेपर एक जन्ममें जो सुख प्राप्त होता है वह कितना होगा । अत्यन्त अल्प भी यह सुख दुःखके समुद्र में गिरकर दुःखरूप ही हो जाता है । जैसे मीठा भी मेघोंका पानी लवण समुद्रके जल में पड़कर खारा हो जाता है । तथा उसमें जो सुखका आभास होता है वह सुख नहीं है किन्तु पहले उत्पन्न हुए दुःखका प्रतीकार है। १. स्य श्रुतज्ञानप्रणिधानात्त-आ० । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ भगवती आराधना प्रपीयते ह्यम्बु तृषाप्रशान्त्य अन्नाशनायाशनमश्यते च । वेश्माम्बुवातातपवारणार गुह्यप्रतिच्छादनमम्बरं च ॥ ७॥ शीतापनुत्प्रावरणं च दृष्टं शय्या च निद्राश्रमनोदनाय । यानानि चाध्वधमवारणार्थ स्नानं श्रमस्वेदमलापनत्यै ॥८॥ स्थानश्रमस्यौषधमासनं च दुर्गन्धनाशाय च गन्धसेवा। वैरुप्यनाशाय च भूषणानि कलाभियोगोऽरतिबाधनाय ॥९॥ तथेह सर्व परिचिन्त्यमानं भोगाभिधानं सुरमानुषाणाम् । दुःखप्रतीकारनिमित्तमेव भैषज्यसेवेव हाहितस्य ॥१०॥ पित्तप्रकोपेन विदह्यमाने द्रव्याणि शीतानि निषेवमाणः । मन्येत भोगा इति तानि योज्ञः कुर्वीत सोऽन्नादिषु भोगसंज्ञाः ॥१६॥ यतश्च नैकान्तसुखप्रदानि द्रव्याणि तोयप्रभृतीनि लोके । अतश्च दुःलाप्रतिकारबुद्धि तेषु प्रकुर्यान्न तु भोगसंज्ञाम् ॥१२॥ क्षुधाभिभूतस्य हि यत्सुखाय तदेव तृप्तस्य विषायतेऽन्नम् । उष्णादितः काङ्क्षति यानि चेह तान्येव विद्वेषकराणि शीते ॥१३॥ किं च स्वचक्रविक्रमाकान्तदेवमानवविद्याधरचक्राणां निकटोपनिविष्टाक्षयनवनिधीनां, समधिगतचतुर्दशरत्नानां, चक्रलाञ्छनानां, दशाङ्गभोगानुभवचतुराणां तथा सुधाशनानामप्यनेकसमुद्रोपमजीविना, अप्रच्यवप्रत्यप्रयौवनानां, सहजस्वेच्छानुसारिदिव्याभरणमाल्यवसनसंपत्सौभाग्यस्कन्धेन मनोनयनवल्लभरूपप्रसूनोज्ज्वलेन पहले हए दुःखके बिना उसमें किञ्चित भी सख प्रतीत नहीं हो सकता। प्यासकी शान्तिके लिए पानी पिया जाता है और भूखको शान्तिके भोजन किया जाता है। पानी, हवा और घामसे बचनेके लिए मकान होता है और गुह्यभागको ढकनेके लिए वस्त्र होता है। ठंडसे वचनेके लिए ओढ़ना होता है। निद्रा तथा थकान दूर करनेके लिए शय्या होती है। मार्गके श्रमसे बचनेके लिए सवारी होती है। थकान, पसीना और मल दूर करनेके लिए स्नान होता है। बैठनेके श्रमका इलाज आसन है। दुर्गन्ध दूर करनेके लिए सुगन्धका सेवन होता है। विरूपताको दूर करनेके लिए आभूषण पहने जाते हैं। अरतिको दूर करनेके लिए कलाएं हैं। इस प्रकार विचार करने पर देव और मनुष्योंके जो ये भोग हैं वे सब दुःखको दूर करनेमें ही निमित्त हैं। जैसे रोगसे पीड़ित रोगी औषधिका सेवन करता है । पित्तके प्रकोपसे शरीरके जलने पर जो शीत पदार्थोके सेवनको भोग मानता है वही अज्ञानी अन्न आदिको भोग नामसे कहता है। किन्तु यतः लोकमें जल आदि पदार्थ एकान्तसे सुख देनेवाले नहीं हैं अतः उनको दुःखका प्रतीकार करनेवाला ही कहना चाहिए, भोग नामसे नहीं कहना चाहिए। जो अन्न भूखसे पीडितको सुख देता है वहो अन्न पेटभरे व्यक्तिको विषके समान लगता है । गर्मीसे पीड़ित मनुष्य जिन पदार्थों की इच्छा करता है, शीतसे पीड़ित उन्हींसे द्वष करता है। तथा अपने चक्ररत्नसे देव, मनुष्य और विद्याधरोंके समूहको वशमें करनेवाले, अक्षय नौ निधियोंके स्वामी और चौदह रत्नोंसे सम्पन्न चक्रवर्तियों की, जो दस प्रकारके भोगोंको भोगनेमें चतर हैं. भोगोंसे तप्ति नहीं होती। तथा अनेक सागरोंकी आयवाले अमतभोजी टेवोंकी अनेक सागरोंकी आयुवाले अमृतभोजी देवोंकी भी भोगोंसे तृप्ति नहीं होती जो देवांगनारूपी लताओंके वनसे घिरे रहते हैं। वे देवांगना लताएं भी कैसी हैं ? जो जन्मजात अपने इच्छानुसार दिव्य आभरण, माला, वस्त्र सम्पदारूपी सौभाग्य Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३५३ विलासपलाशेन, सौकुमार्याङ्करेण दिगङ्गनामुखवासायमानसौरभेण विद्रुमाधरपल्लवेन, निबिडोन्नतवृत्तस्तनफलेन, मनोभवदक्षिणानिलप्रेरणान्दोलितेन, ललितभुजशाखाप्रतानेन, स्फुरत्तपनीयमय रशनावेदिकापरीतकामनीरभरितविशालजघनसरोविभूषणेन, मुखरनूपुरभ्रमरकृतकलकलेन देवकन्यालतावनेन परिवृतानामपि परै गैस्तृप्तिन किं पुनरितरमानवानां । अपि च तीव्रतरपुंवेदोदयानलजनितचेतोविदाहानां नैवौषधं वामलोचनासंगमः तापप्रकर्षानुवंधत्वात् । रूपयौवनविलासचातुर्यसौभाग्यादीनां प्रकर्षापकर्षरूपेणावस्थितत्वादङ्गनासु । तास्ताः पश्यतोऽपि उत्कण्ठानुपरतमुपजायमाना विदाहमावहति दुर्वहं । तास्त्यवत्वा चेमं यान्ति मृति वा ढोकन्ते, परैर्बलिभिर्वापन्हियन्ते । स्वयं वा दुर्विमोचतमपातकयमपाशेनाकृष्यमाणो विहाय तानि विवृतमुखो, निर्मिमेषनयनो नितान्तरोदनाच्छादितलोहितलोचना जहाति । तासां तनवोऽपि स्फटिकमालेवोपाश्रितगुणग्राहिण्यः ताश्चास्थि ररागाः संध्यासमयजलदलेखेव दुर्लभाश्च । स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यादींश्च लब्धानप्य पहरन्ति वलिनः इति महद्भयं, न च तेऽर्पयन्ति । तदर्जनार्थ पटकर्मसु प्रयतितव्यं । तानि च संदिग्धफलानि बहतरायासमूलानि हिंसादिसावधक्रियापरतन्त्राणि, दुर्गतिवर्धनानि इत्येवमात्मिका भोगनिर्वजनी । शरीरं पुनरिदमशुचिनिधानं, आत्मनो महान् भारः, न चात्रास्ति किंचित्सारभूतं । सन्निहितानेकापायं व्याधिसस्यानां क्षेत्रं, जराडाकिनीपितृगृहं । कि स्कन्धवाली हैं, मन और नेत्रोंको प्रिय रूप सौन्दर्यरूपी पुष्पोंसे शोभित हैं, विलासरूपी पत्तोंसे वेष्ठित हैं, सौकुमार्य उनका अंकुर है, दिशारूपी अंगनाओंके मुखकी सुवास जैसी उनकी सुगन्ध है, मंगेके समान उनके ओष्ठरूपी पल्लव हैं, घने ऊँचे गोल स्तनरूपी फल हैं, कामदेवरूपी दक्षिण वायुकी प्रेरणासे वे हिलती हैं, ललित भुजारूपी उनका शाखाविस्तार है, चमकदार सोनेकी करधनीरूपी वेदिकासे घिरे और कामजलसे भरे विशाल जघनरूपी सरोवरसे भूषित है, बजते हुए नूपुररूपी भौरोंकी गुंजारसे गुंजित हैं। ऐसी देवांगनाओंसे घिरे हुए देवोंकी भी जव भोगोंसे तृप्ति नहीं होती तव अन्य मनुष्योंका तो कहना ही क्या है ? तथा जिनका चित्त तीव्रतर पुरुषवेदके उदयरूपी अग्निसे जल रहा है, स्त्रियोंका संगम उनकी औषधी नहीं है। उससे तो उनका सन्ताप और भी अधिक बढ़ेगा; क्योंकि स्त्रियोंमें रूप, यौवन, विलास, चतुरता, सौभाग्य आदि कमती बढ़ती पाया जाता है। उन-उन स्त्रियोंको देखकर निरन्तर उत्कण्ठा उत्पन्न होकर ऐसी दाह होती है जिसको सहना कठिन होता है। वे स्त्रियाँ पतिको छोड़कर चली जाती हैं, या मर जाती हैं अथवा दूसरे बलवान् पुरुष उन्हें हर लेते हैं । अथवा जिससे छूटना किसी भी तरह सम्भव नहीं है उस मृत्युके फन्देसे खिंचकर मनुष्य, मह खोले, आँखें पथराये हुए स्वयं, अत्यन्त रुदन करनेसे लाल आंख हुई स्त्रीको स्वयं छोड़कर चला जाता है। उन स्त्रियोंके शरीर भी स्फटिकको मालाकी तरह जो पासमें आता है उसीके गुणोंको ग्रहण करनेवाले होते हैं। जैसे सन्ध्याकालीन मेघोंका रंग अस्थिर होता है वैसे ही स्त्रियोंका अनुराग भी अस्थिर होता है। तथा वे दुर्लभ होती हैं क्योंकि स्त्री, वस्त्र, गन्धमाला आदिको बलवान् हर लेते हैं और देते नहीं हैं। इस प्रकार बड़ा भय रहता है। स्त्रीकी प्राप्तिके लिए छह कर्मोको करना पड़ता है। उनका फल संदिग्ध होता है। उनके लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता है। तथा वे षट्कर्म हिंसा आदि सावद्य क्रियाके अधीन होते हैं उनमें हिंसा आदि होती है। अतः वे दुर्गतिको बढ़ाते हैं । इत्यादि कथा भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न करती है। तथा यह शरीर अपवित्रताकी खान है, आत्माके लिए बड़ा भाररूप है । इसमें कुछ भी सार नहीं है इसके साथ अनेक संकट लगे हैं। व्याधिरूपी धानके १. प्याहर-आ० मु० । २. तर्पयन्ति आ० मु०। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ भगवती आराधना च मान्ये कुले जातो विशालकीतिः गुणवानपि प्रहीण विभवो नीचं कर्म, पुरो धावनं, प्रेषणकरणं, तदुच्छिष्टभोजनं वा करोति शरीरपोषणाय । नान्तर्गतोऽथ न बहिनं च तस्य मध्ये सारोऽस्ति येन मनसा परिगम्यमाणः। तस्मिन्नसारजनकांक्षितकामसारे कोऽन्यः करिष्यति मनः प्रतिबुद्धसारः॥ वायुप्रकोपजनितः कफपित्तजेश्च रोगः सदा दुरितः प्रविमथ्यमानः । देहोऽयमेवमतिदुःखानिमित्तभूतो नाशं प्रयाति बहुधेति कुरुष्व धर्म ॥ संघातजं प्रशिथिलास्थितरुप्रगाढं स्नायुप्रबद्धमशुभं प्रगतं शिराभिः । लिप्तं च मांसरुधिरोदककर्दमेन रोगाहतं स्पृशति को हि शरीरगेहं ॥ [ ] इत्येवमादिका शरीरनिर्वेजनी । गीदत्थपादमूले होति गुणा एवमादिया बहुगा । ण य होइ संकिलेसो ण चावि उप्पज्जदि विवत्ती ॥४४९।। 'गीदत्थपादमूले' गृहीतार्थस्य बहुश्रुतस्य पादमूले। 'होंति बहुंगा गुणा' 'गीदत्थो पुण खवगस्स' इत्येवमादिसूत्रपञ्चकनिर्दिष्टाः । 'ण य होइ संकिलेसो' नैव भवति संक्लेशः ‘ण वापि उप्पज्जइ विवत्ती' न चोत्पद्यते विपद्रत्नत्रयस्य । तस्मादाधारवानाचार्यः उपाश्रयणीयः इत्युपसंहारः इति आधारवं ।।४४९।। व्यवहारवत्त्वनिरूपणायोत्तरगाथा लिए यह खेत है। जरारूपी डाकिनीके लिए श्मसान है। मान्यकुलमें जन्म लेकर विशाल यश अर्जन करके गुणी मनुष्य भी सम्पत्ति नष्ट हो जानेपर शरीर-पोषणके लिए नीचकर्म करता है, आगे-आगे दौड़ता है, मालिकका सन्देश ले जाता है उसका जूठा भोजन करता है। कहा है___ उस शरीरके अन्दर, बाहर और मध्यमें कोई सार नहीं हैं जिससे मन उसे स्वीकार करे। रा पसन्द किये जानेवाला काम ही जिसमें सार है उस शरीरके सारको जाननेवाला कौन व्यक्ति अपना मन लगायेगा। यह शरीर वायुके प्रकोपसे उत्पन्न हुए और कफ तथा पित्तके प्रकोपसे और पापकर्मसे उत्पन्न हुए रोगोंसे सदा मथा जाता है। इस तरह यह अति दुःख का निमित्त होता और नाशको प्राप्त होता है इसलिए धर्मका आचरण करो। यह शरीररूपी घर रज और वीर्यके मेलसे बना है। इसकी अस्थियाँ ढीली ढाली हैं। स्नायुओंसे बँधा है, अशुभ है, सिराओंसे वेष्ठित है, मांस और रुधिररूपी कोचड़ तथा जलसे लीपा गया है । रोगोंसे घिरा है इसे कौन छूना पसन्द करेगा। इत्यादि कथा शरीरसे वैराग्य उत्पन्न करती है ।।४४८॥ गीतार्थ अर्थात् बहुश्रुत आचार्यके •पादमूलमें रहनेक 'गीदत्थो पुण खयगो' इत्यादि पाँच गाथासूत्रोंमें कहे गये बहुत गुण-लाभ होते हैं। उस क्षपकके परिणामों में संक्लेश नहीं होता और न रत्नत्रयको लेकर ही कोई विपत्ति आती है अर्थात् उसके रत्नत्रयका विनाश नहीं होता। अतः आधारवान् आचार्यका आश्रय लेना चाहिए। इस प्रकार आधारवत्त्व गुणका कथन हुआ ।।४४९।। आगे व्यवहारवत्त्वगुणका निरूपण करते हैं Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका पंचविहं ववहारं जो जाणइ तच्चदो सवित्थारं । बहुसो यदिकयपट्ट्वणो ववहारवं होइ ||४५० ॥ 'पंचविहं ववहारं ' पञ्चप्रकारं प्रायश्चित्तं । 'जो जाणदि तच्चदो सवित्थारं' यो जानाति तत्त्वतः सविस्तरं । 'बहुसो य दिट्ठकदपट्ठवणो' बहुशश्च दृष्टकृतप्रस्थापनः । आचार्याणां प्रायश्चित्तदानं दृष्टं, स्वयं चान्येषां दत्तप्रायश्चित्तः । 'ववहारवं होदि' व्यवहारवान् भवति । पूर्वार्द्धन प्रायश्चित्तज्ञानता दर्शिता, कर्मदर्शनं कर्माभ्यासश्च प्रख्यापितः । अशास्त्रज्ञो यत्किचिद्ददात्यात्मनोऽभिलषितं न तेन परः शुद्धयति, शास्त्रज्ञोऽप्यदृष्ट'कर्माकर्मसु विषादमेति । ततो ज्ञानं, कर्मदर्शनं, कर्माभ्यास इति त्रयो गुणाः यस्य स व्यवहारवानित्युच्यते ॥ ४५०॥ कः पञ्चविधो व्यवहारः को वा विस्तर इत्याशङ्कायां तदुभयं निरूपयति आगमसुद आणाधारणा य जीवो य हुंति ववहारा । देसि सवित्थारा परूवणा सुत्तणिदिट्ठा ॥४५१ ।। 'आगमसुद आणाधारणा य जीवो य हुँति ववहारा आगमः श्रुतं, आज्ञा, धारणा, जीव इति व्यव - हाराः पञ्च । 'एदेसि ' एतेषां आगमादीनां । परूवणा कीदृशी ? 'सवित्थारा' विस्तारसहिता । 'सुत्तणिद्दिट्ठा' सूत्रेषु चिरंतनेषु निर्दिष्टा । प्रायश्चित्तस्य सर्वजनानामग्रतोऽकथनीयत्वाच्छास्त्रान्तरे च निर्दिष्टत्वादिह नोच्यते ॥ ४५१ ॥ उक्तं च- ३५५ सव्वेण वि जिणवयणं सोदव्वं सढिदेण पुरिसेण । छेवसुदस्स हु अत्थो ण होवि सभ्वंण सोदच्वो ॥ इति ॥ [ ] गा०—जो पाँच प्रकारके व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्तको तत्त्वरूपसे विस्तारके साथ जानता है तथा जिनने अनेक आचार्योंका प्रायश्चित्त देना देखा है और स्वयं भी दूसरोंको प्रायश्चित्त दिया है वह आचार्य व्यवहारवान् होता है । गाथाके पूर्वार्द्धसे आचार्यका प्रायश्चित्तका ज्ञाता होना दर्शाया है तथा प्रायश्चित्तकर्मका दर्शन और प्रायश्चित्तकर्मका अभ्यास होना कहा है । जो प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता नहीं होता वह अपनी इच्छानुसार कुछ भी प्रायश्चित्त देता है किन्तु उससे दूसरेके दोषकी विशुद्धि नहीं होती । प्रायश्चित्तशास्त्रका ज्ञाता होते हुए भी यदि उसने अन्य आचार्योंको प्रायश्चित्त देते न देखा हो तो प्रायश्चित्त देते समय खेदखिन्न होता है ! इसलिए प्रायश्चित्तशास्त्रका ज्ञान, प्रायश्चित्तकर्मका देखना तथा प्रायश्चित्त देनेका अभ्यास ये तीन गुण जिसमें होते हैं उस आचार्यको व्यवहारवान् कहते हैं ||४५०|| पाँच प्रकारका व्यवहार कौन-सा है ? और उसका विस्तार क्या है? ऐसी आशंका होनेपर दोनोंको कहते हैं— गा० - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारण और जीव ये पाँच प्रकारका व्यवहार है । इन आगम आदिका विस्तारसे कथन प्राचीन सूत्रोंमें कहा है । प्रायश्चित्त सब जनोंके आगे नहीं कहा जाता, तथा अन्य शास्त्रोंमें उसका कथन है इसलिए यहाँ नहीं कहा । कहा है- 'समस्त श्रद्धालु पुरुषोंको जिनागम सुनना चाहिए । किन्तु छेदशास्त्रका अर्थ सबको नहीं सुनाना चाहिए' || ४५१ || १. अदृष्ट कर्मसु - आ० । २. सुट्ठिदेण-आ० । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂપદ भगवती आराधनां व्यवहारवानसी परालोचितापराधस्य कथं प्रायश्चित्तं ददातीत्याशङ्कायां प्रायश्चित्तदानक्रमनिरूपणांय गाथाद्वयम् दव्वं खेत्तं कालं भाव करणपरिणाममुच्छाहं । संघदणं परियायं आगमपुरिसं च विष्णाय ||४५२|| 'दव्वं खेत्तं कालं भावं करणपरिणाममुच्छाहं' द्रव्यमित्यादीनां विज्ञायेत्यनेन संबन्धः । तत्र द्रव्यं त्रिविधं सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । पृथिवी, आपस्तेजो वायुः, प्रत्येककायाः, त्रसाश्चेति सचित्तद्रव्यमित्युच्यते । तृणफलकादिकं जीवैरनुन्मिश्रं अचित्तं । संसवतं उपकरणं मिश्रं । एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना । वर्षासु क्रोशार्द्धगमनमिष्टं अर्धयोजनं वा । ततोऽधिकक्षेत्र गमनं क्षेत्रप्रतिसेवना । अथवा 'प्रतिषिद्धक्षेत्रगमनं, विरुद्धराज्य विशेषार्थ - पं० आशाधरजीने अपनी मूलाराधना टीकामें इनका अर्थ इस प्रकार किया है— ग्यारह अंगों में कहे गये प्रायश्चित्तको आगम कहते हैं । चौदह पूर्वोके कहेको श्रुत कहते हैं । अन्य स्थानमें स्थित अन्य आचार्यके द्वारा अन्य स्थानमें स्थित अन्य आचार्यके द्वारा आलोचित अपने गुरुके दोषको ज्येष्ठ शिष्यके हाथ भेजना आज्ञा है । कोई एकाकी मुनि पैरोंमें चलनेकी शक्ति न होनेसे दोष लगनेपर वहीं रहते हुए पूर्वनिश्चित प्रायश्चित्तको करता है यह धारणा है । बहत्तर पुरुषोंके स्वरूपको लेकर वर्तमान आचार्योंने जो शास्त्रमें कहा है वह जीत है । श्वेताम्बरीय आगमोंमें भी व्यवहारके ये ही पाँच भेद किये हैं । आगमव्यवहारी छह हैं - केवलज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दसपूर्वी और नौपूर्वी । शेष पूर्वधारी और ग्यारह अंगके धारी श्रुतसे व्यवहार करते हैं । आगमव्यवहारी आगमसे ही व्यवहार करता है अन्य से नहीं करता । यह भी चर्चा आती है कि केवलीका व्युच्छेद हो जानेपर चौदह पूर्ववरोंका भी विच्छेद हो गया अतः प्रायश्चित्तदायक न रहनेसे प्रायश्चित्तका विच्छेद हो गया । किन्तु इसका निराकरण किया है । जो व्यवहार एक बार प्रवृत्त हुआ, दुबारा और तिबारा प्रवृत्त हुआ उसे महाजन ने स्वीकार किया । वही पाँचवाँ जीतकल्प व्यवहार है । जीत अर्थात् अवश्य ही कल्पआचार जीतकल्प है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव, संहनन आदिकी हानिको लक्षमें रखकर दिया गया प्रायश्चित्त जीत है ॥४५१ ॥ 1 वह व्यवहारवान् आचार्य दूसरेके आलोचित दोषका प्रायश्चित्त कैसे देता है ? ऐसी आशंका किये जाने पर दो गाथासे प्रायश्चित्त देनेके क्रमका निरूपण करते है गा० - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करण, परिणाम, उत्साह, शरीरबल, प्रवज्याकाल, आगम और पुरुषको जानकर प्रायश्चित्त देते हैं ||४५२ || टी० -- द्रव्यके तीन भेद है- सचित्त, अचित्त और मिश्र । पृथिवी, जल, आग, वायु, प्रत्येक काय, अनन्तकाय और त्रस इन्हें सचित्त द्रव्य कहते हैं । जीवोंसे रहित तृण, फलक आदि अचित्त द्रव्य हैं । जीवोंसे सम्बद्ध उपकरण मिश्र हैं । इस प्रकार द्रव्य प्रतिसेवनाके तीन भेद हैं । वर्षामें आधा कोस अथवा आधा योजन जाना सम्मत है । उससे अधिक क्षेत्रमें जाना क्षेत्र प्रति १. प्रतिद्वेष-आ० । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३५७ गमनं, छिन्नाध्वगमनं, ततो रक्षणीयागमनं तस्या? यदा क्रान्तः । उन्मार्गेण वा गमनं । अन्तःपुरप्रवेशः । अननुज्ञातगहभूमिगमनं । इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवा । आवश्यककालादन्यस्मिन्काले आवश्यककरणं वर्षावग्रहातिक्रमः इत्यादिका कालप्रतिसेवना । दर्पः, प्रमादः, अनाभोगः, भयं, प्रदोपः इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा । एवमपराधनिदानं ज्ञात्वा अथवा प्रायश्चित्तं प्रकृतेर्द्रव्यादिकं ज्ञात्वा रसबहुलं, धान्यबहुलं, शाकबहुलं . यवागूशाकमात्र वा पानकमेव वेत्याहारे द्रव्यपरिज्ञानं । प्रायश्चित्तमाचरतः अनूपजांगलसाधारणक्षेत्रपरिज्ञानं । धर्मशीतसाधारणकालज्ञानं । क्षमामार्दवार्जवसंतोषकादिकं भावं क्रोधादिकं वा । करण परिणाम प्रायश्चित्तक्रियायां परिणामं । सहवासार्थ किमयं प्रायश्चित्ते प्रवृत्तः उत यशोथ, लाभार्थमुत कर्मनिर्जराथं इति । 'उच्छाह' उत्साहं । 'संघदणं' शरीरबलं । 'परियायं' प्रव्रज्याकालं । 'आगम' अल्पं श्रुतमस्य बहु वेति । पुरिसं . 'जादतरोभयातरंगो इत्येवमादिकं विकल्पं च ज्ञात्वा ॥४५२॥ मोत्तूण रागदोसे ववहारं पट्टवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो जिणवयणविसारदो धीरो ॥४५३।। 'मोत्तूण' त्यक्त्वा । 'रागदोसे' राग द्वेषं च मध्यस्थः सन्निति यावत् । 'ववहारं पढदि सो तस्स' प्रायश्चित्तं ददाति स सूरिस्तस्मै । 'ववहारकरणकुसलो' प्रायश्चित्तदान कुशलः । 'जिणवयणविसारदो' जिनप्रणीते आगमे निपुणः । धीरो धृतिमान् ॥४५३॥ सेवना है । अथवा वर्जित क्षेत्रमें जाना, विरुद्ध राज्यमें जाना, कटे-टूटे मार्गसे जाना, ऐसे मार्गका आधा भाग जानेपर वहाँसे अरक्षणीय मानकर लौट आना अथवा उन्मार्गसे जाना, अन्तःपुरमें प्रवेश करना, जहाँ जानेकी आज्ञा नहीं है ऐसी गृहभूमिमें जाना, इत्यादिके द्वारा क्षेत्र प्रतिसेवना करना । आवश्यककाल में छह आवश्यक न करके अन्यकालमें करना, वर्षाकालके नियमका उल्लंघन करना, इत्यादि काल प्रतिसेवना है। घमण्ड, प्रमाद, अनाभोग, भय, प्रदोष आदि परिणामोंमें प्रवृत्ति भाव सेवा है। इस प्रकार द्रव्य प्रतिसेवना आदिके द्वारा अपराधका निदान जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिए। अथवा प्रकृतिके द्रव्यादिको जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिए। आहारके सम्बन्धमें ज्ञान होना द्रव्यपरिज्ञान है, रसबहुल-जिसमें रसको अधिकता हो, धान्यबहुल-जिसमें अन्नकी अधिकता हो, शाकबहुल-जिसमें शाकसब्जीकी अधिकता हो, यवागूहलवा लपसी, शाकमात्र अथवा पानकमात्र । आहारके साथ दोषीकी प्रकृति जानकर उसे आहार बतलाना चाहिये । प्रायश्चित्त देते समय क्षेत्रका भी ज्ञान होना चाहिये कि यह क्षेत्र जलवहुल है या जलकी कमी वाला है अथवा साधारण है। कालका भी ज्ञान होना चाहिये कि यह गर्मीके दिन हैं या शीतके दिन हैं अथवा साधारण हैं । क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष आदि भाव हैं। अथवा क्रोधादि भाव है। करण परिणामका अर्थ है प्रायश्चित्त करनेके परिणाम । यह प्रायश्चित्त क्यों लेना चाहता है ? क्या यह साथ रहनेके लिए प्रायश्चित्तमें प्रवृत्त हुआ है अथवा यश, लाभ या कर्मों की निर्जराके लिए प्रवृत्त हुआ है। उसका प्रायश्चित्तमें उत्साह कैसा है, शरीरमें बल कितना है, दीक्षा लिए कितना काल हुआ है, शास्त्रज्ञान थोड़ा है या बहुत है। और वैराग्यमें तत्पर है या नहीं ॥४५२॥ गा०-प्रायश्चित्त देनेमें कुशल और जिन भगवान्के द्वारा कहे गये आगममें निपुण धीर वह आचार्य रागद्वषको त्याग अर्थात् मध्यस्थ होकर उसको प्रायश्चित्त देता है ।।४५३॥ २. जाद जाद तरो-आ० । जातादरो भयान्तरंगो-मु० । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ भगवती आराधना अज्ञात्वा प्रायश्चित्तग्रन्थं यो ददाति तस्य दोषं संकीर्तयत्युत्तरगाथया ववहारमयाणंतो ववहरणिज्जं च ववहरंतो खु । उस्सीयदि भवपके अयसं कम्मं च आदियदि ॥४५४॥ ‘ववहारं अयाणतो' प्रायश्चित्तं ग्रन्थतोऽर्थतश्च कर्मतश्चाविद्वान् । 'ववहरणिज्जं च' व्यवन्हियते अतिचारविनाशाथिनेति व्यवहरणीयमालोचनादिकं प्रायश्चित्तं इति नवधा । 'ववहरंतो' प्रयच्छन् । • उस्सीयदि अवसीदति । क्व ? 'भवपके' संसारपङ्गे। 'अजसं आदियदि' अयशः तुण्डाचार्योऽयं यत्किचन ददाति नायं परं शोधयति, संसारभीरुयतिजनं वृथैव क्लेशयति इति । 'कम्मं च आदियदि' बध्नाति कर्म दर्शनमोहनीयाख्यं उन्मार्गोपदेशात् सन्मार्गविनाशनाच्च । तस्मादज्ञो न दद्यात्प्रायश्चित्तमिति सूत्रार्थः । आचार्याणामियं शिक्षा । वयमाचार्या यदस्माभिर्दत्तं तदिदं कुर्वन्तीति यत्किचन न वक्तव्यम् । श्रुतरहस्याः प्रायश्चित्तदाने यदलमिति ।।४५४॥ जह ण करेदि तिगिच्छं वाघिस्स तिगिच्छओ अणिम्मादो । ववहारमयाणंतो ण सोधिकामं वि सुज्झेइ ॥४५५।। यदि नाम मुखरा मुग्धानेकशिष्यजनपरिवृतत्वमात्रणोपजाताहंकारा मूर्खलोकेनादृताः सन्ति सूरयस्ते भवद्धिः शुद्धयर्थं न ढोकनीयाः इति शिक्षयति- 'जह ण करेदि तिगिच्छ'-यथा न करोति चिकित्सा वाहिस्स व्याधेः । 'तिगिच्छगो' वैद्यो । 'अणिम्मादो' अनिपुणः । 'तहा' तथा । 'ववहारमजाणतो' प्रायश्चित्तमजानन्सूरिः । 'सोधिकाम' रत्नत्रयशुद्धयभिलाषं । ण सोधेदि खु न शोधयत्येव ।।४५५।।। जो प्रायश्चित्त शास्त्रको जाने विना प्रायश्चित्त देता है उसका दोष कहते हैं गा०-टो०-जो प्रायश्चित्त शास्त्रको ग्रन्थरूपसे, अर्थरूपसे और कर्मरूपसे नहीं जानता, तथा अतिचारके विनाशके इच्छुक मुनिके द्वारा जिसका व्यवहार किया जाता है वह व्यवहरणीय है । आलोचना आदि नौ प्रकारका प्रायश्चित्त, उसे जो देता है वह आचार्य संसाररूपी कीचड़में फंसकर दुःख उठाता है तथा अपयश पाता है। लोग कहते हैं यह तुण्डाचार्य है जो कुछ भी प्रायश्चित दे देता है, दूसरेके दोषकी विशुद्धि नहीं करता। संसारसे भीरु साधुओंको व्यर्थ ही कष्ट देता है । तथा उन्मार्गका उपदेश देनेसे और सन्मार्गका नाश करनेसे दर्शनमोहनीय नामक कर्मका बन्ध करता है । अतः अज्ञानीको प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिये यह इस गाथाका अभिप्राय है। यह आचार्यों की शिक्षा है। हम आचार्य हैं। हमने जो प्रायश्चित्त दिया है उसे करो, इस प्रकार जो कुछ भी नहीं बोलना चाहिये। प्रायश्चित्त शास्त्रके ज्ञाताओं ही प्रायश्चित्त देने में समर्थ होते हैं ॥४५४॥ जो वाचाल आचार्य मूढ अनेक शिष्योंसे घिरे रहने मात्रसे गर्वित हैं और मूर्ख लोग जिनका आदर करते हैं, प्रायश्चित्तके लिए उनके पास नहीं जाना चाहिये यह शिक्षा देते हैं गा०-जैसे अनिपुण वैद्य व्याधिकी चिकित्सा नहीं करता, वैसे ही प्रायश्चित्तको न जानने वाला आचार्य रत्नत्रयकी विशुद्धिके इच्छुकको शुद्ध नहीं करता ॥४५५।। १. कुर्वितीति आ० । कुर्विति मु० । २. यतध्वमिति आ० मु० । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ३५९ तम्हा णिव्विसिदव्वं ववहारविदो हु पादमूलम्मि । तत्थ हु विज्जा चरणं समाधि सोधी य णियमेण ॥४५६॥ 'तम्हा णिग्विसिदव्वं' तस्मात्स्थातव्यं । 'ववहारवदो खु' व्यवहारवतः एव । 'पादमूलम्मि' पादमूले । 'तत्थ खु' तत्र व्यवहारवित्पादमले। 'विज्जा' विद्या ज्ञानं भवति । 'चरणं समाधी य' चारित्रं समाधिश्च । 'सोधी य' शद्धिश्च । 'णियमेण' निश्चयेन भवति । ववहारबं ॥४५६।। पगुन्वी एतद्व्याचष्टे-- जो णिक्खमणपवेसे सेज्जासंथारउवधिसंभोगे । ठाणणिसेज्जागासे अगदूण विकिंचणाहारे ॥४५७॥ 'जो णिक्खमणपवेसे' यो यः सूरिः क्षपकस्य वसतेनिःक्रमणे प्रवेशे वा । 'सेज्जासंथारउवधिसंभोगे' वसतेः, संस्तरस्य, उपकरणस्य शोधने । 'ठाणणिसेज्जागासे' स्थाने, निषद्यावकाशे, 'अगदूणविकिंचणाहारे' शय्यायां, शरीरमलाहरणे, भक्तपानढोकने च ॥४५७।। अब्भुज्जदचरियाए उवकारमणुत्तरं वि कुव्वंतो । सव्वादरसत्तीए वट्टइ परमाए भत्तीए ॥४५८॥ 'अन्भुज्जदचरियाए' क्षपकस्य अभ्युद्यतचर्यया 'उपकारं' अनुग्रहं हस्तावलम्बनादिक । 'अणुत्तरं पकुव्वंतो' उत्कृष्टं प्रकुर्वन् । 'सम्वावरसत्तीए' सर्वादरशक्त्या । 'भत्तीए' भक्त्या । 'परमाए' उत्कृष्टया । 'वट्टदि' वर्तते । स प्रकुर्वकः सूरिभवति इति संबन्धः ॥४५८॥ इय अप्पपरिस्सममगणित्ता खवयस्स सव्वपडिचरणे । वटेतो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होइ ॥४५९।। 'इय' एवं । 'अप्पपरिस्सम' आत्मपरिश्रमं । 'अगणित्ता' अपरिगणय्य। 'खवयस्स' आराधकस्य । 'सव्वपडिचरणे' सर्वशुश्रूषायां । 'वटतो' वर्तमानः । 'आयरिओ' आचार्यः । 'पगुव्वगो णाम' 'प्रकारको नाम 'सो होदि' स भवति । पकुव्वी गदं ॥४५९।। इसलिये क्षपकको प्रायश्चित्तके ज्ञाता आचार्यके पादमूलमें ही ठहरना चाहिये । उनके पादमूलमें रहनेसे ज्ञान, चारित्र, समाधि और शुद्धि निश्चयसे होती है ॥४५६॥ इस प्रकार व्यवहारवान्का कथन समाप्त हुआ। प्रकुवित्व गुणका कथन करते हैं गा-जो आचार्य क्षपकके वसतिसे निकलने अथवा उसमें प्रवेश करनेमें, वसति संस्तर और उपकरणके शोधनमें, खड़े होने, बैठने, सोने, शरीरसे मल दूर करनेमें, खानपान लाने में, इन पण्डितमरण सम्बन्धी चर्या में समस्त आदर शक्तिसे और उत्कृष्ट भक्तिसे हस्तावलम्बन आदि . द्वारा उत्कृष्ट उपकार करते हैं, वह आचार्य प्रकुर्वक होते हैं ।। ४५७४५८॥ गा-इस प्रकार अपने श्रमकी परवाह न करके जो आचार्य क्षपकको सब प्रकारसे सेवा करते हैं वह प्रकारक नामसे कहे जाते हैं ।। ४५९।। १. प्रकुर्वको मु० । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० भगवती आराधना क्षपकशिक्षापरा गाथा खवओ किलामिदंगो पडिचरयगुणेण णिव्वुदि लहइ । तम्हा णिव्विसिदव्वं खवएण पकुव्वयसयासे ।।४६०॥ __ 'खवगो' क्षपकः । 'गिलामिदंगो' ग्लानशरीरः । 'पडिचरयगुणेण' शुश्रूषागुणेनैव, “णिवुदि लहदि' सुखं लभते । यस्मात् । तम्हा--तस्मान् णिग्विसिदव्वं-निष्ठव्यं । 'खवगेण' क्षपकेण । पकुव्वयसयासे विनयकारिणः समीपे । पगन्वीगदं ॥४६०॥ आयोपायविदंसीत्येतद्वयाख्यानायोत्तरप्रबन्धः खवयस्स तीरपत्तस्स वि गुरुगा होति रागदोसा हु । तम्हा छहादिएहिं य खवयस्स विसोत्तिया होइ ॥४६१।। ‘खवगस्स' क्षपकस्य । 'तोरपत्तस्स वि' तीरं प्राप्तस्यापि । 'रागदोसा गुरुगा होंति' रागद्वेषौ गुरू तीव्री भवतः । 'तम्हा' तस्मात् 'छुहादिएहि य' क्षुत्पिपासादिभिः परीषहैश्च कारणभूतैः । 'खवगस्स' क्षपकस्य 'विसोत्तिगा होइ' अशुभपरिणामो जायते ॥४६१।। थोलाइदूण पुव्वं तप्पडिवक्खं पुणो वि आवण्णो । खवओं तं तह आलोचेदुं लज्जेज्ज गारविदो ।।४६२।। 'थोलाइदूण पुवं' प्रव्रज्यादिक्रमेण तद्दिनपर्यवसानं रत्नत्रयातिचारं निवेदयामीति पूर्व प्रतिज्ञाय । 'तप्पडिवक्ख' तस्यापराधप्रत्याख्यापनस्य प्रतिपक्षेन निवेदनं । 'आवण्णो' आपन्नः प्राप्तः । 'खवगो तं तह आलोचेउ लज्जेज्ज गारविगो' क्षपकस्तमपराधं तथा त्वाचरितक्रमेण गदितु जिन्हेति संभावनागुरुः ।।४६२॥ तो सो हीलणभीरू पूयाकामो ठवेणइत्तो य । णिज्जूहणभीरू वि य खवओ वि न दोसमालावे ॥४६३।। 'तो' पश्चात् । सो' क्षपकः । 'होलणभोरू' ज्ञातमदीयापराधा इमे मामवजानन्ति इति अवज्ञाभोरुः । गा०-यतः रोगसे ग्रस्त क्षपक आचार्यके सेवागुणसे सुख प्राप्त करता है, अतः क्षपकको सेवा करनेवाले आचार्यके समीप ठहरना चाहिये ।।४६०॥ प्रकारकका कथन समाप्त हुआ। आय अपाय विदर्शित्व गुणका कथन करते हैं गा०-यद्यपि क्षपक संसार समुद्रके किनारे पहुंच जाता है फिर भी उसे तीव्र रागद्वेष होते हैं । अतः भूख प्यासकी परीषहोंके कारण क्षपकके अशुभ परिणाम होते हैं ॥४६१॥ गा०-क्षपक पूर्व में प्रतिज्ञा करता है कि दीक्षा लेनेके दिनसे समाधि धारण करनेके दिन तक रत्नत्रयमें जो दोष लगे हैं उन सबको मैं गुरुके सामने निवेदन करूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा करके भी जब अपराध निवेदनका समय आता है तो अपना बड़प्पन जानकर क्षपक उस अपराधको जिस प्रकार वह किया गया उसी प्रकारसे कहने में लज्जा करता है ।।४६२॥ गा०-पश्चात् वह क्षपक डरता है कि मेरे अपराधको जानकर ये सब मेरी अवज्ञा Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'पूजाकामो य' वन्दनाभ्युत्थानं इत्यादिकायां पूजायामभिलाषवान् । सापराधं न पूजयन्तीति । 'ठवणइत्तो य' आत्मानं सुचरितत्वे स्थापयितुकामश्च । “णिज्जूहणभीरू वि य' मामिमे सापराधं त्यजन्तीति त्यागभीरुश्च । 'खवगो वि' स्वापराधं शरीरं च क्षपयामीति प्रवृत्तोऽपि । 'गालोचेज्ज दोषं' न कथयेद् गुरोरात्मीयं दोषं ।।४६३।। तस्स अवायोपायविदंसी खवयस्स ओघपण्णवओ । आलोचंतस्स अणुज्जगस्स दंसेइ गुणदोसे ॥४६४॥ 'तस्स खवगस्स गुणदोसे दंसेदिति पदसंबन्धः । तस्य अनालोचकस्य आलोचनायां गुणमितरत्र दोषं च दर्शयति । कः ? 'आयोपायविवंसी' आयोपायविदर्शी सूरिः । अपायो रत्नत्रयस्य विनाशः उपायो लाभः । उपशब्दोऽनर्थकः इति कृत्वा रत्नत्रयस्य आउ शुद्धिाभः तदुभयदर्शी । 'ओघपण्णवगो' सामान्यं प्ररूपयन यो न कथयति स्वापराधं तस्यायं दोष इति । 'आलोचेंतस्स वि' अपि शब्दोऽत्रलप्तनिर्दिष्टोआलोचनां कुर्वतोऽपि । 'अणुज्जगस्स' मायावतः ॥४६४॥ मायायां दोषं याथात्म्यकथने गुणं च दर्शयति । एवं दोषप्रकटनं कर्तव्यमित्याचष्टे दुक्खेण लहइ जीवो संसारमहण्णवम्मि सामण्णं । तं संजमं खु अबुहो णासेइ ससल्लमरणेण ॥४६५।। 'दुक्खेण लहइ जीवो' क्लेशेन लभते जीवः । किं ? 'सामण्णं' श्रामण्यं चारित्रं संयमं । क्व ? 'संसारमहणवम्मि' चतुर्गतिपरिभ्रमणमहार्णवे दुष्प्रापपारतया संसारो महार्णव इव । 'खु' शब्दः ‘णासेइ' इत्यतः परतो अवधारणाओं द्रष्टव्यः । तं संयमं नाशयत्येव'बुधः' अविद्वान् । 'ससल्लमरणेण'-यद्यपि शल्यमनेकप्रकारं मिथ्यामायानिदानशल्यभेदेन तथापीह प्रकरणवशान्मायाशल्यं गृह्यते, मायाशल्यसहितेन मरणेनेत्यर्थः । करेंगे । उसकी अभिलाषा अपनी पूजा कराने की है कि मेरी वन्दना करें, मेरे लिए उठकर खड़े होवें । किन्तु अपराध ज्ञात होने पर तो पूजा नहीं करेंगे । वह अपनेको सम्यक् आचारमें स्थापित करना चाहता है। किन्तु अपराधी जानकर यह मुझे त्याग देंगे, इससे डरता भी है। अतः अपने अपराध और शरीरको त्यागनेके लिए तत्पर होते हुए भी वह गुरुसे अपने दोषोंको नहीं कहता ॥४६३|| गा०—उस अपने दोषोंकी आलोचना न करनेवाले अथवा आलोचना करते हुए भी मायाचार पूर्वक आलोचना करनेवाले क्षपकको आय और उपायको दिखलाने वाले आचार्य आलोचनाके गुण और आलोचना न करनेके दोष सामान्यसे बतलाते हैं कि जो अपना अपराध नहीं कहता उसको यह दोष होता है ।।४६४।। टो०-रत्नत्रयके विनाशको अपाय और रत्नत्रयके लाभको उपाय कहते हैं। 'उप' शब्द व्यर्थ है' ऐसा मानकर रत्नत्रयका 'आऊ' अर्थात् शुद्धि और लाभ दोनोंको दिखानेवाले आचार्य आयोपायविदर्शी होते हैं ॥४६४|| गा०-टी०-इस संसारका पार पाना बड़ा कठिन है इसलिये चारों गतिमें भ्रमण रूप संसारको महासमुद्रकी उपमा दी है। उसमें भ्रमण करते हुए 'श्रामण्य' अर्थात् चारित्रको-संयमको जीव बड़े कष्टसे प्राप्त करता है । अज्ञानी उस समयको सशल्य मरणसे नष्ट कर देता है । यद्यपि मिथ्यात्व, माया और निदानके भेदसे शल्यके अनेक भेद हैं। तथापि यहाँ प्रकरणवश मायाशल्य ४६ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ भगवती आराधना ननु समानतायाः प्रस्तुतत्वात सामण्णं इत्यनेन तत् परित्यज्य कथमन्यदुपन्यस्तं 'तं संजममिति' । अस्या'यमभिप्राय: श्रमणशब्दस्य द्रव्येप्रवृत्तिनिमित्तं यच्छ्रामण्यं किं च तत्संयमः । तथाहि सावधक्रियापरो नायं श्रमण इति लोको वदति । ततो युक्तमेव भावशल्यमात्मन्यवस्थितमिव दोषमावहतीति दृष्टान्तमुखेन कथयति-||४६५॥ जह णाम दव्वसल्ले अणुद्धदे वेदणुद्दिदो होदि । तह भिक्खू विं ससल्लो तिव्वदुहट्टो भयोव्विग्गो ॥४६६।। 'जह णाम' यथा नाम स्फुटं । 'दवसल्ले' शरकण्टकादौ 'अणुद्ध दे' अनुद्धृते अनिराकृते । 'वेदणुद्दिदो होदि' वेदनातॊ भवति । 'तह' तथा। "भिक्खु वि' भिक्षुरपि । 'ससल्लो' भावशल्यवान् । “तिव्वदुहिदो होदि' तीव्रदुःखितो भवति । 'भयोविग्गो' भयेन चलो भवति । एवमनुद्धृतशल्यो गमिष्यामि कां गतिमिति भयमस्य जायते । एवमथं दृष्टान्तेनाविरोधयति ॥४६६॥ कंटकसल्लेण जहा वेघाणी चम्मखीलणाली य ।। रप्फइयजालगत्तागदो य पादो पडदि पच्छा ॥४६७।। 'कंटकसल्लेण जहा' कण्टकाख्येन शल्येन करणभूतेन यथा । 'वैधाणी चम्मखोलनाली य' व्यधनचर्मकीलनालिकाश्च भवन्ति । 'रप्फइयजालगत्तागदो य' कुथितवल्मीकच्छिद्राणि प्राप्तः स पादः 'पडदि' पतति पश्चाद्यथा ॥४६७॥ एवं तु भावसल्लं लज्जागारवभएहि पडिबद्धं । __ अप्पं पि अणुद्धरियं वदसीलगुणे वि णासेइ ॥४६८।। लिया है । मायाशल्य सहित मरणसे अज्ञानी संयमको नष्ट करता है। शङ्का यहाँ तो 'सामण्ण' शब्दसे समानता ली गई है । उसे छोड़कर 'संयम' क्यों कहा ? समाधान-इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्यमें प्रवृत्ति न करने में निमित्त जो श्रामण्य है वही संयम है। लोग कहते ही हैं कि यह पापकार्यों में प्रवृत्ति करता है अतः श्रमण नहीं है । अतः आत्मामें स्थित भावशल्य दोषकारी है यह कहना उचित ही है ।।४६५।। इसे दृष्टान्त द्वारा कहते हैं गा-जैसे शरीरमें लगे बाण, काँटा आदि द्रव्यशल्यको न निकालनेपर मनुष्य कष्टसे पीड़ित होता है। उसी प्रकार भावशल्यसे युक्त भिक्षु भी तीव्र दुखित होता है और भयसे विचल होता है कि शल्यको दूर न करनेपर मैं किस गतिमें जाऊँगा। इस प्रकार दृष्टान्तसे अविरोध दिखलाया है ॥४६६।। ___ गा०-जैसे परमें काँटा घुसनेपर पहले पैरमें छिद्र होता है फिर उसमें माँसका अंकुर उग आता है और वह नाडीतक पहुंचता है। पीछे उस पैरमें साँपकी बाँबी जैसे दुर्गन्ध युक्त छिद्र हो जाते हैं ॥४६७।। १. प्रायः तदिति संजमं श्रामण्यमेवेति निरूपितं ज्ञातव्यमिति ततो युक्त-आ० । २. मिह दो-आ० । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ‘एवं तु' एवमेव । 'भावसल्लं' परिणामशल्यं । 'लज्जागारवभहिं पडिबद्धं' स्वापराधनिगृहनं लज्जातो भवति । भयेन अपराध कथिते कुप्यन्ति गुरवस्त्यजन्ति वा मां महद्वा प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्तीति । भयात् । तपस्व्ययं सुसंयत इति महती प्रसिद्धिः सा विनश्यतीति गौरवेण च प्रतिबद्धमायाशल्यं । 'अप्पं पि' अल्पमपि । शल्यं 'अणुद्धरियं' अनुद्धृतं । 'ववसीलगुणे' व्रतानि शीलानि गुणांश्च विनाशयति ॥४६८॥ तो भट्टबोधिलाभो अणंतकालं भवण्णए भीमे । जम्मणमरणावत्ते जोणिसहस्साउले भमदि ।।४६९।। 'तो' पश्चात् । 'भट्टबोधिलाभो' विनष्टदीक्षाभिमुखबुद्धिलाभः । 'अणंतकालं भमई' अनन्तकालं भ्रमति । क्व ? 'भवण्णवे' भवार्णवे । 'भीमे' भयंकरे । 'जम्ममरणावते' जन्ममरणावर्ते । 'जोणिसहस्साउले' चतुरशीतियोनिसहस्राकुले ॥४६९॥ तत्थ य कालमणंतं घोरमहावेदणासु जोणीसु । पच्चंतो पच्चंतो दुक्खसहस्साइ पप्पेदि ।।४७०। 'तत्थ य' तत्र च भवार्णवे । 'अणंतकालं दुक्खसहस्साई पप्पेदि इति पदघटना। अनन्तकालं दुःखसहस्राणि अनुभवति । 'घोरमहावेदणासु जोणीसु पच्चंतो' घोरमहावेदनासु योनिषु पच्यमानः ।।४७०॥ तं न खमं खुपमादा मुहुत्तमवि अत्थि, ससल्लेण । आयरियपादमूले उद्धरिदव्वं हवदि सल्लं ।।४७१।। 'त' तस्मात् । 'मुहुत्तमवि अत्यिदु ससल्लेण न समो खु' मुहूर्तमात्रमपि आसितुं शल्यसहितेन रत्नत्रयेण सह न शक्तः प्रमादवशाद्यतिः संसारभीरुः । 'आयरियपादमूले' उक्तगुणस्याचार्यस्य पादमूले । 'उद्धरिदव्वं हवदि सल्लं' शल्यमुद्धर्तव्यं भवति ॥४७१।।। गा०-टो०- इसी प्रकार लज्जा भय और गारवसे प्रतिबद्ध थोड़ा-सा भी भावशल्य यदि दूर न किया जाये तो व्रत शील और गुणोंको नष्ट करता है । लज्जावश साधु अपने अपराधको छिपाता है । या अपगध प्रकट करनेपर गुरुजन क्रुद्ध होंगे, मुझे त्याग देंगे अथवा बड़ा प्रायश्चित्त देंगे इस भयसे दोषको छिपाता है। अथवा मेरी जो महती प्रसिद्धि है कि यह तपस्वी उत्तम संयमी है वह नष्ट हो जायेगी इस भयसे दोषको छिपाता है। यह मायाशल्य है। इसे यदि दूर नहीं किया गया तो क्षपकके व्रत शील गुण नष्ट हो जाते हैं ।।४६८।। .... गा०-पीछे दीक्षा धारण करके जो बुद्धिलाभ किया था वह नष्ट हो जाता है और चौरासी हजार योनियोंसे भरे, और जन्ममरणरूपी भँवरोंसे युक्त भयंकर भवसमुद्रमें अनन्तकालतक भ्रमण करता है ।।४६९|| गा०-और उस भवसमुद्र में भयंकर महावेदनावाली योनियों में भ्रमण करता हुआ अनन्तकालतक हजारों दुःख भोगता है ।।४७०॥ - गा०-इसलिए संसारसे भीत यतिको प्रमादवश एक मुहर्तमात्रके लिए भी शल्यसहित रत्नत्रयके साथ रहना उचित नहीं है। उक्त गुणवाले आचार्यके पादमूलमें उसे अपने शल्यको निकाल देना चाहिए ।।४७१।। . . १. -तोति सुतपास्त्वयं सु-आ० । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ भगवती आराधना तम्हा जिणवयणरुई जाइजरामरणदुक्खवित्तत्था । अज्जवमद्दवसंपण्णा भयलज्जाउ पमोत्तूण ॥४७२।। 'तम्हा' तस्मात् । 'जिणवयणरुई' जिनागमे श्रद्धावन्तः । 'जाइजरामरणदुक्खवित्तत्था' जातिजरामरणदुःखवित्रस्ताः । 'अज्जवमद्दवसंपण्णा' आर्जवेन मार्दवेन च युक्ताः । 'भयलज्जाओ' भयं लज्जां वा। 'मोत्तूण' मुक्त्वा ॥४७२॥ उप्पाडित्ता धीरा मूलमसेसं पुणब्भवलयाए । - संवेगजणियकरणा तरंति भवसायरमणंतं ॥४७३।। 'उप्पाडित्ता' उत्पाट्य । धीराः । किं ? मूलं । कथं ? 'असे' निरवशेषं । कस्य मूलं ? 'पुणग्भवलयाए' पुनर्भवलतायाः । किं तन्मूलं ? शल्यं । 'संवैगजणियकरणा' संसारभीरुतोत्पादितक्रियाः । 'तरंति' तरन्ति । 'भवसायरमणंत' भवसागरमनन्तं ॥४७३॥ . उक्तवस्तूपसंहारार्था गाथा इय जइ दोसे य गुणे ण गुरू आलोयणाए दंसेइ । ण णियत्तइ सो तत्तो खवओ ण गुणे य परिणमइ ।।४७४।। 'इय' एवं । 'जदि गुरू ण दंसेदि' यदि गुरुर्न दर्शयेत् क्षपकस्य । किं 'आलोयणाए गुणे' स्वापराधकथनस्य गुणान् । 'दोसे य' दोषांश्च यदि न दर्शयेत् । आलोयणाए इति वाक्यशेषः । 'सो खवगो ण णियत्तदि' असौ क्षपको न निवर्तते । कुतः ? 'तत्तो' पूर्वोक्तदोषान्मायाशल्यात् । 'गुणे य ण परिणमदि' गुणे च निःशल्यत्वे न परिणमते ॥४७४॥ तम्हा खबएणाओपायविदंसिस्स पायमूलम्मि । अप्पा णिन्विसिदव्यो धुवा हु आराहणा तत्थ ।।४७५॥ 'तम्हा' तस्मात् आयोपायदर्शिनः पादमूले यस्माद्दोषान्निवर्तते क्षपको गुणे च परिणमते तदुभयार्थी च । 'तम्हा' तस्मात् ‘खवगेण' क्षपकेन 'आयोपायविदंसिस्स' गुणदोषदर्शिनः । पादमूलम्हि पादमूले । 'अप्पा णिव्वि गा-अतः जिनागमके श्रद्धालु और जन्म जरा मरणके दुःखसे भीत क्षपकको भय और लज्जाको छोड़ आर्जव और मार्दवसे युक्त होना चाहिए ॥४७२।। . गा०-धीर क्षपक पुनर्जन्मरूपी लताके मूल सम्पूर्ण शल्यको उखाड़कर संसारके भयसे उत्पन्न किये चारित्रको धारण करके अनन्तभवसागरको तिर जाते हैं ।।४७३।। उक्त कथनका उपसंहार करते हैं गा० - इस प्रकार यदि गुरु क्षपकको आलोचना अर्थात् अपने अपराधको कहनेके गुण और दोष न बतलावे तो वह क्षपक पूर्वोक्त मायाशल्य दोषसे निवृत्त न हो और निःशल्य नामक गुणसे युक्त न हो ॥४७४|| गा०—यतः आय-उपायके दर्शी आचार्यके पादमूलमें रहनेसे क्षपक दोषने निवृत्त होता Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३६५ सिदव्वो' आत्मा स्थापयितव्यः । तत्र गुणमाचष्टे 'धुवा खु आराहणा तत्थ' निश्चिता रत्नत्रयाराधना तत्र । आयोपायः ॥४७५।। अवपीडकत्वं व्याख्यातुकामः संबध्नाति पूर्वेण उपायदर्शित्वेन आलोचणगुणदोसे कोई सम्म पि पण्णविज्जंतो। तिव्वेहिं गारवादिहिं सम्म णालोचए खवए ॥४७६।। 'आलोचणगुणदोसे' आलोचनाया गुणदोषान् । 'कोई कश्चित् । 'सम्मपि पण्णविज्जंतो' सम्यगवबोध्यमानोऽपि । 'खवगो णालोचए सम्म' क्षपकः सम्यक् न कथयेत् । केन हेतुना ? 'तिम्वेहि गारवादिहि' तीवारवादिभिः आदिशब्देन लज्जाभयक्लेशासहत्वं च गृह्यते ॥४७६॥ एवमनालोचयतोऽपि भावः प्रशान्ति नेतव्यो निर्यापकेनेत्येतद्याचष्टे णिद्धं मधुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्जमेगते । तो पल्हावेदव्वो खवओ सो पण्णवंतेण ॥४७७॥ 'णिद्धं' स्नेहवत् । 'मधुरं' श्रुतिसुखं । 'हिवयंगम' हृदयानुप्रवेशि । 'पल्हादणिज्जं' सुखदं । 'एगते' एकान्ते । 'पल्हावेदव्वो' शिक्षयितव्यः । 'खवगो' क्षपकः । 'सो' सः । आत्मापराधं यो न कथयति । 'पण्णवं. तेण' प्रज्ञापयता सूरिणा। आयुष्मन् ! उपलब्धसन्मार्गरत्नत्रयनिरतिचारकरणे समाहितचित्त ! अतिचारं निवेदय लज्जां, भयं, गारवं च विहाय । गुरुजनो हि मात्रा पित्रा च सदृशः, तेषां कथने का लज्जेति । स्वदोषमिव न प्रख्यापयन्ति परेषां यतीनां । यतिधर्मस्य वा अवर्णवादं प्रयत्नेन विनाशयितुमद्यताः किमयशः प्रथयन्ति । है और गुणसे युक्त होता है। अतः क्षपकको गुणदोष दिखलानेवाले आचार्यके पादमूलमें अपनेको रखना चाहिए। ऐसा करनेसे रत्नत्रयकी आराधना होना निश्चित है ।।४७५।। आयोपायका कथन समाप्त हुआ। ___ अब अवपीडक गुणका कथन करनेकी इच्छासे उसका उक्त उपायदर्शित्व गुणके साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं गा०-कोई क्षपक आलोचनाके गुण और दोषोंको अच्छी तरह समझनेपर भी तीव्र गारव, आदिके कारण सम्यक्रूपसे अपने दोषोंको नहीं कहता। यहाँ आदि पदसे लज्जा, भय और कष्टको सहन न करना लिए गये हैं ॥४७६।। __ इस प्रकार आलोचना न करनेवाले क्षपकके भावको निर्यापक आचार्यको शान्त करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-टो-जो अपना अपराध नहीं कहता उस क्षपकको समझानेवाले आचार्यको एकान्तमें स्नेहसे भरे, कानोंको सुखकर और हृदयमें प्रवेश करनेवाले सुखदायक वचनोंसे शिक्षा देना चाहिए। प्राप्त सन्मार्ग रत्नत्रयके निरतिचार पालनमें सावधान आयुष्मन् ! लज्जा, भय और मान छोड़कर दोषोंको निवेदन करो। गुरुजन माता-पिताके समान होते हैं उनसे कहने में लज्जा कैसी ? वे अपने दोषकी तरह दूसरे यतियोंके भी दोष किसीसे नहीं कहते । जो यतिधर्म Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ भगवती आराधना समीचीनदर्शनस्य मुक्तिमार्गे प्रधानस्य मलं हि तद्यतिजने दूषणं । अतिचारहिमान्या हतं च रत्नत्रयकमलवनं न शोभते । परनिन्दा नोचैर्गोत्रस्यास्रवः । स्वयं च निन्द्यते बहषु जन्मसु निन्दकः । परस्य मनःसंतापं दुस्सहं सम्पादयतो असदुद्यकर्मबन्धः स्यात । साधजनोऽपि निन्दति स्वधर्मतनयं किमर्थमयं एवं अयशःपडून लिम्पतीति । एवमनेकानावहपरदोषप्रकटनं कः सचेतनः करोतीति ।।४७७॥ णिद्धं महुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्जमेगंते । कोइ तु पण्णविज्जंतओ वि णालोचए सम्मं ॥४७८॥ एवं प्रज्ञापनायां सत्यामपि यो नालोचयति इत्युत्तरसूत्रार्थः । तो उप्पीलेदव्वा खवयस्सोप्पीलएण दोसा से । वामेइ मंसमुदरमवि गदं सीहो जह सियालं ॥४७९।। 'तो' पश्चात । 'उप्पीलिदव्वा' अवपीडयितव्याः । के ? 'दोसा' दोषाः । कस्य ? 'से' तस्य । 'खवगस्य' क्षपकस्य । केन ? 'उप्पोलएण' अवपीडकेन-सूरिणा । अपसरास्मत्सकाशात, किमस्माभिर्भवतः प्रयोजनं ? यो हि स्वशरीरलग्नमलप्रक्षालनेच्छः स ढोकते काचच्छायानुसारिसलिलं सरः । यो वा महारोगोरगग्रस्तस्तदपनयनाभिलापवान् स वैद्यं ढोकते । एवं रत्नत्रयातिचारान्निराकतु मभिलषता समाश्रयणीयो गुरुजनः । भवतश्च रत्नत्रयशुद्धिकरणे नवादरः किमनया क्षपकत्वविडम्बनया । न चतुर्विधाहारपरित्यागमात्रायत्ता सल्लेखनेयं । पर मिथ्या दोषारोपणको नष्ट करने में तत्पर रहते हैं वे क्या अपयश फैला सकते हैं ? मोक्षमार्गमें प्रधान सम्यग्दर्शन है और यत्तिजनमें दूषण लगाना सम्यग्दर्शनका अतिचार है। रत्नत्रयरूपी कमलोंका वन यदि अतिचाररूपी हिमपातसे नष्ट हो तो वह शोभित नहीं होता। परनिन्दासे नीचगोत्र कर्मका आस्रव होता है । जो दूसरोंकी निन्दा करता है वह स्वयं अनेक जन्मोंमें निन्दाका पात्र बनता है। दूसरेके मनको असह्य सन्ताप देनेवालेके असातावेदनीयकर्मका बन्ध होता है। साधुजन भी निन्दा करते हैं कि अपने धर्मपुत्रको यह इस प्रकार अपयशरूप कीचड़से क्यों लिप्त करता है। इस तरह दूसरोंके दोषोंको प्रकट करना अनेक अनर्थोंका मूल है। कौन समझदार उसे करना पसन्द करेगा ॥४७७।। गा०---स्निग्ध, मधुर, हृदयग्राही और सुखकर वचनोंके द्वारा एकान्तमें समझानेपर भी कोई क्षपक अपने दोषोंको सम्यक्प से नहीं कहता ॥४७८।। गा०--तब जैसे सिंह स्यारके पेटमें गये मांसको भी उगलवाता है वैसे ही अवपीडक आचार्य उस क्षपकने अन्तरमें छिपे हुए मायाशल्य दोषोंको बाहर निकालता है ॥४७९।। टी०-हमारे सामनेसे दूर हो जाओ। आपको हमसे अब क्या प्रयोजन है ? जो अपने शरीरमें लगे मलको धोना चाहता है वह काचके समान निर्मल जलवाले सरोवरके पास जाता है। अथवा जो महान् रोगरूपी. सर्पसे डंसा गया है और उसे दूर करना चाहता है वह वैद्यके पास जाता है। इसी प्रकार जो रत्नत्रयमें लगे अतिचारोंको दूर करना चाहता है उसे गुरुजनके पास जाना चाहिए । आपको अपने रत्नत्रयकी शुद्धि करनेमें आदर नहीं है तब इस क्षपकका रूप धारण करनेसे क्या लाभ ?. यह सल्लेखना केवल चार प्रकारके आहारका त्याग करनेमात्रसे Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३६७ अपि तु कषायसल्लेखनायत्ता । संवरो निर्जरा च कषाया ह्यभिनवकर्मादाने, बन्धे, स्थितिविधाने चोद्यताः परिहरणीयाः । तेषु च कषायेषु मायाति निकृष्टा तिर्यग्योनि निर्वर्तनप्रवणा । तां त्यक्तुमसमर्थस्यापि प्रविष्टस्य भवतः संसारोदधेस्तिर्यग्भवावतं । ततो निःसरणमतिदुष्करं । वस्त्रमात्र परित्यागेनैव निर्ग्रन्थताभिमानोद्वहनमप्यसत्यं, सत्येवं तिर्यञ्चोऽपि निर्ग्रन्थाः स्युः । चतुर्दशप्रकारस्याभ्यन्तरपरिग्रहस्य त्यागाद्भावनैर्ग्रन्थ्यं समवतिष्ठते । तदेव हि मुक्तेरुपायः । भावनैर्ग्रन्थ्यस्य उपाय इति दशविधवाह्यग्रन्थत्याग उपयोगी मुमुक्षोः । न हि जीवपुद्गलद्रव्यसन्निधानमात्राधीनः कर्मबन्धः । अपि तु तन्निमित्तजीव परिणामालम्बनः । अतिचारवन्ति दर्शनादीनि न मुक्तेरुपायः । ' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति किन्न भवतः श्रुतिगोचरमायातं जैनं वचः ? समीचीनता हि दर्शनज्ञानचारित्राणां निरतिचारता । सा च गुरूपदिष्टप्रायश्चित्ताचरणे । गुरवोऽपि कृतालोचनायैव प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति । ततो भवान्दूरभव्यः अभव्यो वा । आसन्नभव्यत्वे सति किमेवं महामायाशल्यं भवति ? नैव यतिजनवन्दनार्होऽसि । 'समणं वंदेज्ज मेधावी संजदं सुसमाहिदं' इति वचनात् । जीवितमरणयोर्लाभालाभ योनिन्दाप्रशंसयोश्च समानचित्ततया समानो भवति । अतिचारनिवेदने मां निन्दन्ति न प्रशंसन्तीति भवता नालोच्यते । तत्कथं समानोऽसि ? कथं वा वन्द्यः ? 'सीहो जहा सियालं उदरमवि गदं पि मंस वामेदि' सिंहो यथा शृगालमुदरप्रविष्टमपि मांसमुद्गारयति तद्वन्मायाशत्यमन्तर्लीनं निस्सारयत्यवपीडकः ॥ ४७९ ॥ नहीं होती । किन्तु इसके लिए कषायको कृश करना चाहिए। तभी यह सल्लेखना होती है । तथा संवर और निर्जरा भी करना चाहिए। कषाय तो नवीन कर्मोंके ग्रहण, बन्ध और उनके स्थितिबन्धको करती है अतः वह त्यागने योग्य है । 1 उन कषायों में माया अत्यन्त खराब है वह तिर्यञ्चगतिमें ले जाती है । आप उसे छोड़ने में असमर्थ हैं अतः आप संसार समुद्र के तिर्यञ्च भवरूपी भँवरमें फँस गये हैं । वहाँसे निकलना अत्यन्त कठिन है । वस्त्रमात्रके त्यागसे अपनेको निर्ग्रन्थ माननेका अभिमान करना भी झूठा है । यदि कोई इतने से ही निर्ग्रन्थ हो तो पशु भी निर्ग्रन्थ कहे जायेंगे । चौदह प्रकारकी अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागसे भावनैर्ग्रन्थ्य होता है । वही मुक्तिका उपाय है । भावनैग्रन्थ्यका उपाय है दस प्रकारकी बाह्यपरिग्रहका त्याग | वह मुमुक्षुके लिए उपयोगी है । जीव और पुद्गलद्रव्यके सम्बन्धमात्रसे कर्मबन्ध नहीं होता, किन्तु उसके निमित्तसे होनेवाले जीवके परिणामोंके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है । अतिचार सहित सम्यग्दर्शन आदि मुक्तिके उपाय नहीं है । 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है ।' क्या यह जिनागमका वचन आपके कानों में नहीं गया ? निरतिचार होना ही दर्शन ज्ञान और चारित्रकी समीचीनता है । और वह निरतिचारता गुरुके द्वारा कहे प्रायश्चित्तको करनेपर ही होती है । गुरु भी उसीको प्रायश्चित्त देते हैं जो आलोचना करता है। अतः आप या तो दूर भव्य हैं या अभव्य हैं । यदि निकट भव्य होते तो इस प्रकारका महामायारूप शल्य क्यों होता । तुम यतिजनोंके द्वारा वन्दना करने योग्य नहीं हो । क्योंकि आगममें कहा है 'बुद्धिमानको संयमी और सम्यक्रूपसे समाहित श्रमणकी वन्दना करनी चाहिए ।' जीवनमरणमें, लाभ अलाभ में, निन्दा प्रशंसा में जिसका चित्त समान रहता है वही श्रमण या समण होता है । 'दोष कहनेपर लोग मेरी निन्दा करेंगे, प्रशंसा नहीं करेंगे' इसलिए आप आलोचना नहीं करते । तब आप कैसे समण (समान) है और कैसे वन्दनीय हैं। इस प्रकार Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना इदृगवपीडको भवतीत्याचष्टे: उज्जस्सी तेजस्सी वच्चस्सी पहिदकित्तियायरिओ। सीहाणुओ य भणिओ जिणेहिं उप्पीलगो णाम ॥४८०॥ यो यद्धितकामस्स तं बलात्तत्र प्रवर्तयति । यथा हिता माता बालं घृतपाने इत्येतदुत्तरसूत्रेणाचष्टे पिल्लेदण रडतं पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेब हिदं विचितंती ।।४८१।। 'पिल्लेदूण मुहं विदारिता घवं पज्जेदि' यथा जननी बालहितचिन्तोद्यता पूत्कुर्वन्तमपि बालं अवष्टभ्य मुखं विदार्य घृतं पाययति ॥४८॥ दार्टान्तिकेनायोजयति तह आयरिओ वि अणुज्जयस्स खवयस्स दोसणीहरणं । कुणदि हिदं से पच्छा होहिदि कडु ओसहं वत्ति ।।४८२॥ 'तह तथा । आयरिओ' आचार्योऽपि । 'अणुज्जयस्स खवगस्स' अनृजोः क्षपकस्य । 'दोसणीहरणं कुणइ' मायाशल्यनिरासं करोति । 'कडुगोसधं वत्ति' कटुकमौषधमिव । 'से' तस्य । 'पच्छाहिदं होदि' पश्चाद्धितं भवतीति ॥४८२॥ यो न निर्भर्त्सयति दोषं दृष्ट्वापि प्रियमेव वक्ति स गुरुः शोभन इति न भवद्भिर्मन्तव्यमित्युपदिशति जिन्माए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि । पाएण वि ताडितो स भददओ जत्थ सारणा अत्थि ॥४८३।। कहकर अवपीड़क आचार्य उसके मुखसे दोष उगलवाते हैं ॥४७९।। अवपीड़क आचार्य ऐसे होते हैं, यह कहते हैं गा०-जो ओजस्वी-बलवान्, तेजस्वी-प्रतापवान्, वर्चस्वी-प्रश्नोंका उत्तर देने में कुशल, प्रसिद्ध कीर्तिशाली और सिंहके समान आचार्य होते हैं उन्हें जिनभगवान्ने उत्पीड़क नामसे कहा है ।।४८०॥ जो जिसका हित चाहता है वह उसे बलपूर्वक उसमें लगाता है जैसे हित चाहनेवाली माता बालकको बलपूर्वक घी पिलाती है यह आगेकी गाथासे कहते हैं गा०-जैसे बालकके हितकी चिन्तामें तत्पर माता चिल्लाते हुए भी बालकको पकड़कर उसका मुंह फाड़कर घी पिलाती है ॥४८१।। उक्त दृष्टान्तको दान्तिके साथ जोड़ते हैं गा०-उसी प्रकार आचार्य भी कुटिल क्षपकके मायाशल्यरूप दोषको निकालते हैं। और वह कडुवी औषधिकी तरह पीछे उस क्षपकके लिए हितकारी होता है ॥४८२।। जो क्षपकके दोष देखकर भी उसका तिरस्कार नहीं करता, प्रियवचन ही बोलता है वह गुरु उत्तम है ऐसा आप न सोचना, यह उपदेश क्षपकको देते हैं Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३६९ 'जिब्भाए वि लिहंतो' जिह्वया स्वादयन्नपि 'न भहगो नैव भद्रकः । 'जत्थ सारणा णस्थि' यस्मिगरी दोषनिवारणा नास्ति । 'पाएण वि ताडितो' पादेन ताडयन्नपि 'स भगो' स सुरिभद्रकः । 'सारणा जत्थ अत्थि' सारणा यत्र गरौ विद्यते ।।४८३।। सारणकस्य सूरेभंद्रताप्रकटनाय गाथा सुलहा लोए आदट्ठचिंतगा परहिदम्मि मुक्कधुरा । - आदटुं व परटुं चिंतंता दुल्लहा लोए ।।४८४।। 'सुलभा लोए आदचितगा' सुलभाः प्रचुराः। 'लोए' लोके । 'आवचितगा' स्वकार्ये तत्पराः । पहिदम्मि मुक्कधुरा' परहितकरणे अलसाः । 'आदळं व' आत्मप्रयोजनमिव । 'परळं चितंता' परप्रयोजनचिन्तासमुद्यताः लोके दुर्लभाः ॥४८४॥ आदट्ठमेव चिंतेदुमुद्विदा जे परट्ठमवि लोगे । कडुय फरुसेहिं साहेति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।।४८५॥ 'आदट्ठमेव चितेदुमुट्ठिदा' आत्मीयमेव प्रयोजनं चिन्तयितुमुत्थिताः । 'जे' ये 'परट्ठमवि' परप्रयोजनमपि कडुगफरसेहि' कटुकैः परुषः प्रवचनैः 'सार्धति' साधयन्ति लोके । 'अतिदुल्लहा' अतीव दुर्लभाः ।।४८५।। सूरियदि नावपीडयेत् नासौ क्षपको मायाशल्यान्निवर्तते । निर्मायत्वे निरतिचाररत्नत्रये च गुणे न प्रवर्तते इति आचार्यसंपाद्यमुपकारं प्रकटोकरोति-- खवयस्स जइ ण दोसे उग्गालेइ सुहमे व इदरे वा । ण णियत्तइ सो तत्तो खवओ ण गुणे य परिणमइ ।।४८६।। 'खवगस्स ण सुहमें व इदरे वा दोसे जइ ण उग्गालेइ' क्षपकस्य सूक्ष्मान् स्थूलान्वा दोषान्यदि नोद्गारयति । 'सो खवगो तत्तो ण णियत्तई' स क्षपकस्तेभ्यः सूक्ष्मेभ्यः स्थूलेभ्यो वा दोषेभ्यो न निवर्तते । 'नव गुणे जो गुरु शिष्यके दोषोंका निवारण नहीं करता, वह जिह्वासे मधुर वोलनेपर भी भद्र नहीं है । और जो गुरु दोषोंका निवारण करता हुआ पैरसे मारता भी है वह भद्र है ।।४८३।। दोषोंका निवारण करनेवाले आचार्यको भद्रता बतलाते हैं गा०--अपने काममें तत्पर किन्तु दूसरोंका हित करने में आलसी मनुष्य लोकमें बहुत हैं । किन्तु अपने कार्यकी तरह दूसरोंके कार्यकी चिन्ता करनेवाले मनुष्य लोकमें दुर्लभ हैं ।। १८॥ गा०—जो अपने ही कार्यकी चिन्तामें तत्पर होते हुए दूसरोंके कार्यको भी कठोर और कटुकवचनोंसे साधते है वे पुरुष लोकमें अत्यन्त दुर्लभ है ।।४८५।। गा०- आचार्य यदि क्षपकको पीड़ित न करे तो वह मायाशल्यसे न निकले । और मायाशल्यसे निकले विना निरतिचार रत्नत्रय गुणमें प्रवृत्त न हो ।।४८६।। इस प्रकार आचार्यके द्वारा किये जानेवाले उपकारको प्रकट करते हैं यदि आचार्य क्षपकके सूक्ष्म अथवा स्थूल दोषोंको न उगलवाये तो वह क्षपक उन सूक्ष्म अथवा स्थूल दोषोंसे निवृत्त न हो और न गुणमें प्रवृत्त हो। और दोषोंको दूर किये विना तथा ४७ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० भगवती आराधना परिणमते' निराकृतदोषो गुणे वाऽपरिणतो कथमाराधकः स्यादाराधनार्थमायातोऽप्यसत्यवपीडके । उप्पीलत्ति गदं॥४८६॥ तम्हा गणिणा उप्पीलणेण खवयस्स सव्वदोसाहु । ते उग्गालेदव्वा तस्सेव हिदं तया चेव ॥४८७॥ उप्पीलओत्ति गदं । एवं अवपीडकतां व्याख्यायावसरप्राप्तामपरिश्रावितां व्याचष्टे लोहेण पीदमुदयं व जस्स आलोचिदा अदीचारा । ण परिस्सवंति अण्णत्तो सो अप्परिस्सवो होदि ॥४८८॥ 'लोहेण पोदमुदगं व' एवमत्र पदसंबन्धः । 'जस्स आलोइदा दोसा ण परिस्सवन्ति अण्णत्तो' यस्मै कथिता दोषा न परिस्रवन्त्यन्यतः । किमिव 'लोहेण पोदमुदगंव' लोहेन संतप्तेन पीतमिवोदकं । 'सो' सः । एवंभूतोऽपरिस्सवो होदि अपरिस्रावो भवति ॥४८८॥ दसणणाणादिचारे वदादिचारे तवादिचारे य । देसच्चाए विविधे सव्वच्चाए य आवण्णो ॥४८९॥ दसणणाणाविचारे य बदाविचारे' श्रद्धानस्यातिचारः शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः, ज्ञानस्य अतिचाराः अकाले पठनं, श्रुतस्य श्रृतधरस्य वा विनयाकरणं अनुयोगादीनां ग्रहणे तत्प्रायोग्यावग्रहाग्रहणं, उपाध्याय निह्नवः, व्यञ्जनानां न्यूनताकरणं, आधिक्यकरणं, अर्थस्य अन्यथाकथनं वा । तपसोऽनशनागुणमें लगे विना आराधक कैसे हो सकता है ? आराधनाके लिए गुरुके पास आकर भी यदि गुरु अवपीडक न हो तो उक्त बात नहीं बन सकती है ॥४८६।। गा०-इसलिए उत्पीडक आचार्यको क्षपकके सब दोष उगलवाना चाहिए। क्योंकि क्षपकका हित इसीमें है ॥४८७।। उत्पीड़क गुणका कथन समाप्त हुआ। इस प्रकार अवपीडक गुणका व्याख्यान करके अवसर प्राप्त अपरिश्रावी गुणको कहते हैं गा०-जैसे तपाये हुए लोहेके द्वारा पिया गया जल बाहर नहीं जाता वैसे ही जिस आचार्यसे कहे गए दोष अन्य मुनियोंपर प्रकट नहीं होते, वह आचार्य अपरिस्राव गुणसे युक्त होता है ॥४८८॥ गा-किसीके सम्यग्दर्शनमें अतिचार लगा हो, अथवा ज्ञानमें अतिचार लगा हो, या व्रतोंमें अतिचार लगा हो, या तपमें अतिचार लगा हो, यह एकदेशसे अथवा सर्वदेशसे अतिचार लगा हो तो ॥४८९॥ ____टो–सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा और संस्तव । ज्ञानके अतिचार हैं-असमयमें स्वाध्याय, श्रुत अथवा श्रुतके धारीकी विनय न करना, अनुयोग आदिको ग्रहण करने में उसके योग्य अवग्रह न करना, गुरुका नाम छिपाना, व्यंजन शब्द छोड़ जाना या अधिक जो उसमें नहीं हैं, बोलना, और अर्थका अन्यथा कथन Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३७१ देरतिचार:-स्वयं न भुङ्क्ते अन्यं भोजयति, परस्य भोजनमनुजानाति मनसा वचसा कायेन च, स्वयं क्षुधा पीडित आहारमभिलपति, मनसा पारणां मम कः प्रयच्छति, क्व वा लप्स्यामीति चिन्ता अनशनातिचारः । रसवदाहारमन्तरेण परिश्रमो मम नापति इति वा । षट्जीवनिकायबाधायां अन्यतमेन योगेन वृत्तिः प्रचुरनिद्रतया । संक्लेशकमनर्थमिदमनुष्ठितं मया, संतापकारीदं नाचरिष्यामि इति संकल्पः । अवमोदर्यातिचारः मनसा बहुभोजनादरः परं बहु भोजयामीति चिन्ता । भुक्ष्व यावद्भवतस्तृप्तिरिति वचनं भुक्तं मया बह्वि तमिति वा वचनं, हस्तसंज्ञया प्रदर्शनं कण्ठदेशमुपस्पृश्य । वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः गृहसप्तकमेव प्रविशामि, एकमेव पाटं दरिद्रगृहमेव । एवंभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं ग्रहीष्यामीति वा कृतसंकल्पः गृहसप्तकादिकादधिकप्रवेशः; पाटान्तरप्रवेशश्च परं भोजयामीत्यादिकः । कृतरसपरित्यागस्य रसातिसक्तिः, परस्य वा रसवदाहारभोजनं, रसवदाहारभोजनानुमननं, वातिचारः । कायक्लेशस्यातपनस्यातिचारः उष्णादितस्य शीतलद्रव्यसमागमेच्छा, सन्तापापायो मम कथं स्यादिति चिन्ता, पूर्वानुभूतशीतलद्रव्यप्रदेशानां स्मरणं, कठोरातपस्य द्वषः, शीतलादेशादकृतगात्रप्रमार्जनस्य आतपप्रवेशः, आतपसंतप्तशरीरस्य वा अप्रमृष्टगात्रस्य छायानुप्रवेशः इत्यादिकः । वृक्षस्य मूलमुपगतस्यापि हस्तेन, पादेन, शरीरेण वा वा कायानां पीडा । करना । तप अनशन आदिके अतिचार हैं-स्वयं भोजन न करते हुए भी दूसरोंको भोजन कराना, मनवचनकायसे दूसरेको भोजनको अनुमति देना, स्वयं भूखसे पीड़ित होनेपर मनसे आहारकी अभिलाषा करना, मुझे पारणा कौन करायेगा, अथवा कहाँ पारणा होगी, इत्यादि चिन्ता अनशन तपके अतिचार हैं। अथवा रसीले आहारके विना मेरी थकान दूर नहीं होती, प्रचुर निद्रामें पड़कर छहकायके जीवोंकी बाधामें मन या वचन या कायसे प्रवृत्ति होना। मैंने यह संक्लेशकारी उपवास व्यर्थ ही किया, यह सन्तापकारी है इसे नहीं करूंगा इस प्रकारका संकल्प भी अनशनका अतीचार है। अवमौदर्यतपके अतिचार-मनसे बहुत भोजनमें आदर, दूसरेको बहुत भोजन करानेकी चिन्ता, जबतक आपकी तृप्ति हो तबतक भोजन करो ऐसा कहना, 'मैंने बहुत भोजन किया' ऐसा कहनेपर 'आपने अच्छा किया' ऐसा कहना, हाथके संकेतसे कंठ देशको स्पर्श करके बतलाना कि मैंने आकण्ठ भोजन किया। वृत्तिपरिसंख्यानतपके अतिचार-सात घरमें ही प्रवेश करूगा, या एक ही मुहालमें जाऊंगा, वा दरिद्रके घर ही जाऊंगा, इस प्रकारका दाता पुरुष या दात्री स्त्रीके द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करूंगा। ऐसा संकल्प करके दूसरेको भोजन कराना है इस भावसे सात घरसे अधिक घरोंमें प्रवेश करना और एक मुहालसे दूसरे मुहालमें जाना।। रसपरित्यागतपके अतिचार- रसोमें अति आसक्ति, दूसरेको रसयुक्त आहारका भोजन कराना, अथवा रसयुक्त आहारके भोजनकी अनुमति । ये अतिचार हैं। कायक्लेशतपके अतिचार-गर्मीसे पीड़ित होनेपर शीतलद्रव्यकी प्राप्तिकी इच्छा होना, मेरा सन्ताप कैसे दूर हो यह चिन्ता होना, पूर्व में भोगे हुए शीतलद्रव्यों और शीतल प्रदेशोंको याद करना, कठोर धूपसे द्वष करना, शीतल प्रदेशसे अपने शरीरको पीछीसे शोधे विना धूपमें या गर्मस्थानमें प्रवेश करना, अथवा घामसे सन्तप्त शरीरको पीछीसे शोधे विना छायामें प्रवेश करना आदि । वृक्षके मूलमें जाकर हाथ, पैर अथवा शरीरसे जलकायिक जीवोंको पीड़ा देना, Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ भगवतो आराधना कथं ? शरीरावलग्नजलकणप्रमार्जनं. हस्तेन पादेन वा शिलाफलकादिगतोदकापनयनं मृदुकाीयां भूमौ शयनं निम्ने जलप्रवाहगमनदेशे वा अवस्थानम, अवग्राहे वर्षापातः कदा स्यादिति चिन्ता, वर्षति देवे कदास्योपरमः स्यादिति वा, छत्रकटकादिधारणं वर्षानिवारणायेत्यादिकः । तथा अभ्रावकाशस्यातिचारः सचित्तायां भूमी त्रस सहितहरिनसमुत्थितायां विवरवत्यां शयनं । अकृतभूमिशरीरप्रमार्जनस्य हस्तपादसंकोचप्रसारणे, पाश्र्वान्तरसञ्चरणं, कण्डूयनं वा । हिमसमीरणाम्यां हतस्य कदैतदुपशमो भवतीति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरिनिपतितहिमापकर्षणं, अवश्यायघट्टना वा प्रचुरवातापातदेशोऽयमिति संक्लेशः, अग्निप्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिकः । प्रायश्चित्तातिचारनिरूपणा-तत्रालोचनातिचाराः 'आकपिय अणुमाणियमित्यादिकाः। स्व भूतातिचारेऽस्य मनसा अजुगुप्सा । अज्ञानतः, प्रमादात्कर्मगुरुत्वादालस्याच्चेदं अशुभकर्मबन्धननिमित्तं अनुष्ठितं, दुष्टं कृतमिति एवमादिकप्रतिक्रमणातिचारः। उक्तोभयातिचारसमवायस्तदभयातिचारः । भा विवेकातिचारः। व्यत्सर्गातिचारः कृतः शरीरममतायां न निवत्तिः अशभध्यानपरिणतिः । कायोत्सर्गदोषाश्च तप' अतिचार उक्ताः । एवं छेदस्यातिचारः न्यूनो जातोऽहमिति संक्लेशः । भावतो रत्नत्रयानादानं मूलातिचारः। सर्वो द्विप्रकार इत्याचष्टे-'देशच्चाए विविध देशातिचारं नानाप्रकारं मनोवाक्कायभेदात्कृतकारितानुमत शरीरमें लगे जलके कणोंको हाथ वगैरहसे पोंछना, हाथ या पैरसे शिलातल आदिपर पड़े जलको दर करना. कोमल गीली भमिपर सोना, जलके बहनेके निचले प्रदेशमें ठहरना निश्चित स्थानपर रहते हुए 'कब वर्षा होगी' ऐसी चिन्ता करना अथवा वर्षा होनेपर 'कब रुकेगी' ऐसी चिन्ता करना, वर्षासे बचनेके लिए छाता आदि धारण करना ।। अभ्रावकाशके अतिचार-सचित्त भूमिपर जिसमें त्रससहित हरितकाय हो, तथा छिद्रवाली भूमिपर सोना, भूमि और शरीरको पीछीसे शुद्ध किये विना सोते हुए हाथ पैर संकोचना फैलाना, करवट लेना अथवा शरीर खुजाना | बर्फ और वायुसे पीड़ित होनेपर 'कब ये बन्द होंगे' ऐसी चिन्ता करना, बाँसके पत्ते वगैरहसे शरीरपर गिरे बर्फको हटाना, अथवा बर्फसे घट्टन करना, इस प्रदेशमें अधिक वायु चलती है ऐसा संक्लेश करना, अथवा शीत दूर करनेके साधन आग, ओढ़नेके वस्त्र आदिका स्मरण करना। प्रायश्चितके अतिचार-आलोचना प्रायश्चित्तके अतिचार 'आकम्पिय अणुमाणिय' इत्यादि आगे कहे गये हैं। अपने लगे अतिचारोंमें मनसे ग्लानिका न होना अतिचार है। अज्ञानसे. प्रमादसे, कर्मोंकी गुरुतासे, और आलस्यसे मैंने यह अशुभकर्मके बन्धमें निमित्त कार्य किया, यह बुरा किया, यह जुगुप्सा है। उसका न होना प्रतिक्रमण प्रायश्चित्तका अतिचार है। उक्त आलोचना और प्रतिक्रमणके अतिचार तदुभय प्रायश्चित्तके अतिचार हैं। भावपूर्वक विवेकका न होना विवेक प्रायश्चित्तका अतिचार है। शरीरसे ममत्व न हटना, और अशुभध्यानरूप परिणति तथा कायोत्सर्गके दोष व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तके अतिचार हैं। तपके अतिचार पहले कहे हैं। मेरी दीक्षा छेदनेसे मैं छोटा हो गया, यह संक्लेश छेदप्रायश्चित्तका अतिचार है। भावपूर्वक रत्नत्रयको ग्रहण न करना मूलनामक प्रायश्चित्तका अतिचार है। अतिचारके दो प्रकार हैं-देशातिचार और सर्वातिचार । मनवचनकाय और कृत-कारित १. मृत्तिकाा-आ० मु०। २. अभ्राबर्कशस्य-अ० । ३. त्रसरहितकायचित्तायां विव-अ० । ४. रः कृतो भवतः-आ० । ५. तप अतिचारा उक्ताः-आ० । तप अतिचारे उक्तः मु० । रः कुतो भवति मु० । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३७३ मतविकल्पाच्च । 'सव्वच्चागे य' सर्वातिचारे च 'आपन्नो' आपन्नः ।।४८९॥ । आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्खू कहेदि ‘सगदोसे । कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसिं कहेदि ते दोसे ||४९०।। 'आइरियाणं' आचार्याणां । 'भिक्खु' भिक्षुः। 'कहेदि' कथयति । 'वीसत्यदाए' विश्वासेन । कि ? 'सगदोसे' स्वातिचारान । 'कोई पुग' कश्चित्पुनराचार्यपाशः । 'णिद्धम्मो' निष्क्रान्तो बहिभूतो जिनप्रणीताद्धर्मात् । 'अण्णेसि' अन्येभ्यः । 'कहेदि ते दोसे' कथयति तान आलोचितान्दोषान । अनेन किलायमपराघः कृत इति ॥४९॥ तेण रहस्सं भिदंतएण साधू तदो य परिचत्तो । अप्पा गणो य संघो मिच्छत्ताराधणा चेव ॥४९१॥ 'तेण' तेन । 'रहस्सं भिवंतएण' प्रच्छाद्यालोचितदोषप्रकाशनकारिणा। 'साहू' साधुः । 'तदो य परिचत्तो' ततस्तु परित्यक्तः । स्वदोषप्रकाशने मया कृते लज्जावानयं दु:खितो भवति । आत्मानं वा घातयेत् । कुपितो वा रत्नत्रयं त्यजेत इति स्वचित्तेऽकूर्वता परित्यक्तो भवति । 'अप्पा परिचत्तो', 'गणो परिचत्तो, संघो परिचत्तो', इति प्रत्येकाभिसंबन्धः । 'मिच्छत्ताराहणा चेव' मिथ्यात्वाराधना दोषो भवति ॥४९१।। इत्थं साधुः परित्यक्तो भवतीत्याचष्टे लज्जाए गारवेण व कोई दोसे परस्स कहिदोवि । विपरिणामिज्ज उधावेज्ज व गच्छेज्ज वाध मिच्छतं ॥४९२।। 'लज्जाए' लज्जया। 'गारवेण व गुरुतया वा । 'कोई' कश्चित् । 'दोसे' दोषान् । 'परस्स' परस्मै । 'कहिदो वि' कथितोऽपि । 'विपरिणामेज्ज' पृथग्भवेत् । नायं मम गुरुः प्रियो यदि स्यात्कि मदीयान्दोषान्निअनुमोदनाके भेदसे देशातिचारके अनेक भेद हैं ।।४८९।। गा०-भिक्षु विश्वासपूर्वक अपने दोषोंको आचार्योंसे कहता है। कोई आचार्य जो जिन भगवान्के द्वारा कहे गये धर्मसे भ्रष्ट होता है, वह भिक्षुके द्वारा आलोचित दोषोंको दूसरोंसे कह देता है कि इसने यह अपराध किया है अर्थात् ऐसे करनेवाला आचार्य जिनधर्मसे बाह्य होता है ॥४९०॥ गा० --उस आलोचित दोषको प्रकट करनेवाले आचार्यने ऐसा करके उस साधुका ही त्याग कर दिया। क्योंकि उसने अपने चित्तमें यह विचार नहीं किया कि मेरे द्वारा इसके दोष प्रकट कर देनेपर यह लज्जित होकर दुखी होगा, अथवा आत्मघात कर लेगा, अथवा क्रुद्ध होकर रत्नत्रयको ही छोड़ देगा। तथा उस आचार्यने अपनी आत्माका त्याग किया, गणका त्याग किया, संघका त्याग किया। इतना ही नहीं, उसके मिथ्यात्वकी आराधना दोष भी होता है ।।४९१॥ . उस आचार्यने साधुका परित्याग कैसे किया, यह कहते हैं गा०–निर्यापकाचार्यके द्वारा दूसरेसे साधुके गुप्त दोष कहनेपर कोई क्षपक लज्जावश या मानकी गुरुतावश विपरीत परिणाम कर सकता है। यह मेरा गुरु नहीं है। यदि मैं इसे १. गच्छाहि वा णिज्जा-मु० । 'गच्छाहि वा णिज्जा','गच्छेज्ज मिच्छत्तमितिपाठे-मूलारा० । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ . भगवती आराधना गदति । मदीया बहिश्चराः प्राणा गुरुरयमिति या संभावना साद्य नष्टेति चिन्ता विपरिणामः 'उधावेज्ज वा' त्यजेद्वा रत्नत्रयं दोषप्रकटनेन कूपितः । 'गच्छेज्ज वा' गणान्तरं प्रविशेत् ।।४९२।। आत्मपरित्यागं व्याचष्टे कोई रहस्सभेदे कदे पदोसं गदो तमायरियं । उद्दावेज्ज व गच्छं भिंदेज्ज व होज्ज पडिणीओ ॥४९३।। 'कोई' कश्चित् । 'रहस्सभेदे कदे' रहस्यभेदे कृते । 'पदोसं गदो' प्रद्वेषं गतः । 'तमायरियं' तमाचायं । 'उद्दावेज्ज व' मारयेत् । 'गच्छभिदेज्ज' गणभेदं कुर्यात् । किमनेन सूरिणा स्नेहरहितेन, यथा ममापराधं प्रकटितवान् एवं युष्मानपि निवेदितापराधान्दूषयिष्यतीति ब्रुवन् । 'होज्ज पडिणीओ' प्रत्यनीको भवेत् ॥४९३॥ गणत्यागं कथयति जह धरिसिदो इमो तह अम्हं पि करिज्ज घरिसणमिमोत्ति । सव्वो वि गणो विप्परिणमेज्ज छंडेज्ज वायरियं ॥४९४॥ 'जह घरिसिदो इमो' यथा दुषितोऽयं । 'तह' तथा । 'अम्हं पि करेज्ज घरिसणमिमोत्ति' 'अस्मद् दूषणं कुर्यात् अयमिति । 'विप्परिणमेज्ज' पृथग्भवेत् । 'छ डेज्ज वायरियं' त्यजेद्वाचायं । 'नत्वनेन सूत्रेण गण आचार्य त्यजतीति कथ्यते तेन गणस्त्यक्त इति पूर्वसूत्रितं ततोऽनयोन संगतिरित्यत्रोच्यते । यत एव सूरिणा प्रिय होता तो यह मेरे दोष क्यों कहता। यह गुरु मेरे बाहरमें चलते-फिरते प्राण हैं ऐसा जो मैं सोचता था वह आज नष्ट हो गया, इस प्रकारको चिन्ता विपरीत परिणाम है। अथवा दोष प्रकट कर देनेसे कुपित होकर रत्नत्रयको छोड़ सकता है ।।४९२॥ उस आचार्यने आत्माका त्याग कैसे किया, यह कहते हैं गा०-रहस्यभेद करनेपर कोई क्षपक द्वषो बनकर उस आचार्यको मार सकता है। अथवा गणमें भेद डाल सकता है कि इस स्नेहरहित आचार्यसे क्या लेना देना है ? जैसे इसने मेरा अपराध प्रकट कर दिया उसी प्रकार तुम्हें भी अपराध निवेदन करने पर दोष लगायेगा। ऐसा कहकर अन्य साधुओंको विरोधी बनाकर गणमें भेद डाल सकता है। अथवा विरोधी हो सकता है ॥४९३|| उस आचार्यने गणका त्याग कैसे किया, यह कहते हैं गा०-जैसे इस आचार्यने अमुक साधुका दोष प्रकट किया उसी प्रकार यह हमारा दोष भी प्रकट कर देगा, ऐसा सोचकर समस्त गण गणसे अलग हो सकता है अथवा आचार्यका त्याग कर सकता है। टी०-शंका-इस गाथामें तो कहा है कि गण आचार्यको छोड़ देता है और पूर्व गाथा में कहा है कि आचार्यने गणका त्याग किया। इन दोनों कथनोंकी संगति नहीं बैठती ? १. 'अस्मान् दूषितान् कुर्यात्'-आ० मु० । २. बंधनेन सूत्रेण-आ० । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३७५ दोष'प्रख्यापनपरेण त्यक्तोऽसौ तत एव गणस्तं त्यजति ॥४९४।। संघस्त्यक्तो भवतीत्येतद् व्याचष्टे तह चेव पवयणं सव्वमेव विप्परिणयं भवे तस्स । तो से दिसावहारं करेज्ज णिज्जूहणं चावि ॥४९५।। 'तह चेव पवयणं सम्वमेव' तथैव प्रवचनं संघः सर्व एव प्रोच्यते रत्नत्रयं यस्मिन्निति शब्दव्युत्पत्ती संघवाची भवति प्रवचनशब्दः । 'विप्परिणदं' विरुद्धतया परिणतं प्रवृत्तं । 'हवे तस्स' भवेत्तस्य । 'तो' ततः । 'से' तस्य । 'दिसापहरणं करेज्ज' कुर्यात् आचार्या पहरणं कुर्यात् संघः "णिज्जूहणं वापि करेज्ज' इति पदसंबन्धः । परित्यागं वा कुर्यात् ।।४९५॥ मिथ्यात्वाराधनाप्रतिपादनार्था गाथा जदि धरिसणमेरिसयं करेदि सिस्सस्स चेव आयरिओ। घिद्धि अपुट्ठधम्मो समणोत्ति भणेज्ज मिच्छजणो ॥४९६।। 'जइ धरिसणमेरिसयं' यदि दूषणं एवंभूतं । 'करेदि' करोति । 'सिस्सस्स चेव' शिष्यस्यैव । कः आचार्यः। "धिद्धि अपुठ्ठधम्मो समणोत्ति भणिज्ज' धिग्धिग् अपुष्टधर्मान् श्रमणान् । इति भणेज्ज मिच्छजणे' वदेन्मिथ्यादृष्टिर्जनः ॥४९६॥ प्रस्तुतापरिश्रावितोपसंहारगाथा प्रसिद्धार्था इच्चेवमादिदोसा ण होति गुरुणो रहस्सधारिस्स । पुढेव अपुढे वा अपरिस्साइस्स धीरस्स ।।४९७॥ 'इच्चेवमादि दोसा इति' । अप्परिस्सवं तु गदं ॥४९७॥ समाधान-यतः दोषोंको प्रकट करनेवाले आचार्यने गणका त्याग किया अतः गण भी उसे छोड़ देता है ।।४९४॥ संघ कैसे त्यागा, यह कहते हैं गा०-जिसमें रत्नत्रय 'प्रोच्यते' कहा जाता है वह प्रवचन है इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रवचन शब्दका अर्थ यहाँ संघ है। सभी संघ आचार्यके विरुद्ध हो सकता है और उसके आचार्य पदको छीन सकता है अथवा उसका त्याग कर सकता है ॥४९५॥ दोष प्रकट करनेसे मिथ्यात्वकी आराधना कैसे होती है, यह कहते हैं गा०–यदि आचार्य अपने शिष्यको ही इस प्रकार दोष प्रकट करके दूषित करते हैं तो इन अपुष्ट धर्मवाले श्रमणोंको धिक्कार है ऐसा मिथ्यादृष्टि लोग कहेंगे ॥४९६।। प्रस्तुत अपरिश्रावि गुणके कथनका उपसंहार करते हैं गा०--जो आचार्य पूछनेपर अथवा बिना पूछे शिष्यके द्वारा प्रकट किये दोषोंको दूसरोंसे नहीं कहता वह रहस्यको गुप्त रखनेवाला आचार्य अपरिस्रावी होता है और उसे ऊपर कहे दोष जरा भी नहीं छूते । ४९७। अपरिस्रावी गुणका कथन पूर्ण हुआ। १. द्वेषप्रत्याख्यान मु० । दोषप्रत्याख्यान-आ। २. आचार्यत्रये हरणं-आ० । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ भगवती आराधना ‘णिव्ववगो' इत्येतत्सूत्रपदव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धःसंथारभत्तपाणे 'यस्य येनाभिसंबन्धो दूरस्थस्यापि तस्य सः' इति कृत्वा संथारभत्तपाणे अमणुण्णे वा चिरं व कीरते । पडिचरगपमादेण य सेहाणमसंवुडगिराहिं ।।४९८॥ संथारभत्तपाणे अमणुण्णे वा चिरं व कोरन्ते कुविदो हवेज्ज खवगो मेरं वा भेत्तुमिच्छेज्न । इति क्रियाभिः पदसंबन्धोऽत्र कार्यः । संस्तरे भक्तपाने वा। 'अमणुण्णे' अमनोज्ञे । 'कीरंतो' क्रियमाणे । 'कुविदो' कुपितो भवेत्क्षपकः । मेरं वा मर्यादा वा। भेत्तुमिच्छेत् । “चिरं व कोरते' चिराद्वा संस्तरकरणे भक्तपानानयने वा । 'पडिचरगपमादेण वा' निर्यापकानां वैयावृत्यकरणे यः प्रमादस्तेन वा कुपितो भवेत् । मर्यादां वा आत्मीयां भेत्तुं इच्छेत् । 'सेहाणमसंवुडगिराहि' अगृहीतार्थानां असंवृताभिः परुषाभिःप्रतिकूलाभिर्वा कुपितो भवेत् ॥४९८॥ सीदुण्हछुहातण्हाकिलामिदो तिव्ववेदणाए वा । कुविदो हवेज्ज खवओ मेरं वा भेत्तुमिच्छेज्ज ।।४९९।। 'सीदुण्हछुहातण्हा किलामिदो' शीतेनोष्णेन क्षुधा तृषया पीडितः कुपितो भवेत् । 'तिम्ववेयणाए वा' तीव्रवेदनया वा कुपितो मर्यादोल्लङ्घनेच्छुभवेत् ।।४९९॥ णिव्यवएण तदो से चित्तं खवयस्स णिव्ववेदव्वं । अक्खोभेण खमाए जुत्तेण पणट्ठमाणेण ॥५००॥ __ "णिव्ववएण' सन्तोषमुत्पादयता सूरिणा । 'तदो' ततः । 'से खवयस्स' तस्य कुपितस्य मर्यादां भेत्तमिच्छतो वा । 'चित्तं णिवदव्वं' चित्तं प्रशान्ति नेयं । 'अक्खोभेण' चलनरहितेन व्यवस्थावता । 'खमाए जुत्तेण' क्षमया युक्तेन । 'पणट्ठमाणेण' प्रनष्टमानेन । न हि रोषी मानी वा सूरिः परचित्तकलङ्क प्रशमयितुं ईहते ततो निःकषायेण भाव्यमिति भावः ॥५०॥ गाथाके 'णिव्ववगो' पदका व्याख्यान करते हैं गा०–संस्तर और भोजनपान क्षपकको मनके अनुकूल न होने पर, अथवा उसमें देरी करने पर अथवा निर्यापकोंके वैयावृत्य करने में प्रमाद करने पर अथवा सल्लेखना विधिसे अनजान नये साधुओंके कठोर और प्रतिकूल वचनोंसे क्षपक कुपित हो सकता है अथवा अपनी मर्यादाका उल्लंघन कर सकता है ।।४९८॥ गा०-अथवा शीत, उष्ण, भूख, प्याससे पीड़ित होनेसे अथवा तीव्र वेदनासे क्षपक कुपित हो सकता है और मर्यादाको तोड़नेकी इच्छा करता है ||४९९|| गा०—तब विचलित न होनेवाले, क्षमाशील और मानरहित आचार्यको सन्तोष वचन कहते हुए उस कुपित अथवा मर्यादाको तोड़नेके इच्छुक क्षपकके चित्तको शान्त करना चाहिये ।।५००। टी०-क्रोधी अथवा घमण्डी आचार्य दूसरेकी चित्तकी अशान्तिको शान्त करना नहीं पसन्द करता। इसलिए आचार्यको कषायसे रहित होना चाहिए, यह इस गाथाका भाव है ।।५००॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३७७ एवंभूतो निर्वापयतीत्येतद्वयाचष्टे अंगसुदे य बहुविधे णो अंगसुदे य बहुविधविभत्ते । रदणकरंडयभूदो खुण्णो अणिओगकरणम्मि ।।५०१।। 'अंगसुदे य' श्रुतं पुरुषः मुखचरणाद्यङ्गस्थानीयत्वादङ्गशब्देनोच्यते आचारादिकं द्वादशविधं तस्मिन्नङ्गश्रुते । 'बहुविहे' नानाप्रकारे। आचारं, सूत्रकृतं, स्थानं, समवायः, व्याख्याप्रज्ञप्तिः । 'णो अंगसुदे य' अङ्गबाह्ये वा। 'बहुविधविभत्ते' सामायिकं, चतुर्विशतिस्तवो, वन्दना, प्रतिक्रमणं, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिका उत्तराध्ययनं, कल्पव्यवहारः, कल्प्यं, महाकल्प्यं, पुण्डरीकं, महापुण्डरीकं इत्यादिना विचित्रभेदेन विभक्ते । 'रयणकरंडयभूदो' रत्नकरण्डकभूतः । 'खुग्णो अणियोगकरणम्मि' यद्यत्प्रस्तुतं च वस्तु तत्र तत्र सदादिकाद्यनुयोगयोजनायां कुशलः । अनेन ज्ञानमाहात्म्यं सूचितं ।।५०१।। वत्ता कत्ता च मुणी विचित्तसुदधारओ विचित्तकहो । तह य अपायविदण्हू मइसपण्णो महाभागो ॥५०२।। .. 'वत्ता' वक्ता । 'कत्ता य' कर्ता च विनयवैयावृत्त्ययोः । 'विचित्तसुधारगो' विचित्रं श्रुतं प्रथमानुयोगः, करणानुयोगश्चरणानुयोगो, द्रव्यानुयोग इत्यनेन विकल्पेन । 'विचित्तकहो' विचित्रायाः कथायाः निरूपणा अस्य स विचित्रकथः । ननु च 'अंगसुदे य बहुविधे णो अंगसुदे य बहुविधविभत्ते' इत्यनेनैव गतत्वात् किमनेन 'विचित्तसुदधारगो' इत्यनेन ? नैष दोषः । पूर्वसूत्रे श्रुतकेवलो निर्वापकत्वेनोक्तः । अनया तु असमस्तश्रुताचा आगे कहते हैं कि इस प्रकारका आचार्य क्षपकका चित्त शान्त करता है गा०-टी०--श्रुत एक पुरुषके समान है। आचार्य आदि बारह उस श्रुतपुरुषके मुख, पैर आदि अंगोंके स्थानापन्न होनेसे अंग शब्दसे कहे जाते हैं। आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति इत्यादिके भेदसे वह अंगश्रुत नाना प्रकारका है। नो अंगश्रुत अर्थात् अंगबाह्य भी सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन. कल्पव्यवहार. कल्प्य. महाकल्प्य पण्डरीक. महा रोक इत्यादि विचित्र भेदसे विभक्त हैं। जो आचार्य इन सब श्रुत भेदोंके लिए रत्न रखनेके पिटारेके समान हैं अर्थात् जैसे पिटारेमें रत्न सुरक्षित रहते हैं वैसे ही वह इन श्रुतरूपी रत्नोंका अभ्यास करके उन्हें अपने हृदयमें धारण करता है। तथा जो जो प्रस्तुत विषय है उस उस विषयमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व आदि अनुयोगोंकी योजना करनेमें कुशल होता है वही आचार्य क्षपककी अशान्तिको शमन कर सकता है। इससे आचार्यके ज्ञान माहात्म्यको सूचित किया है ।।५०१॥ गा०-टी०-तथा वह वक्ता अर्थात् व्याख्यान करने में कुशल, विनय और वैयावृत्यका कर्ता और प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगके भेदसे नाना प्रकारके श्रुतका धारक और विविध प्रकारका निरूपण करनेवाला तथा रत्नत्रयके अतिचारोंका ज्ञाता और स्वाभाविक बुद्धि से सम्पन्न तथा जितेन्द्रिय महात्मा होता है । शंका-पूर्व गाथामें आचार्यको अंगश्रुतका और विविध अंगबाह्यका ज्ञाता कहा ही है । फिर यहाँ विचित्र श्रुतका धारक क्यों कहा? ४८ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगवती आराधना योऽपि एवंभूतो निर्वापको भवतीत्याख्यायते तेन न पुनरुक्तता । 'तह य' तथा च । 'आपायविदहू' रत्नत्रयातिचारजः । 'मइसंपज्यो' स्वाभाविक्या बुद्धया समन्वितः । 'महाभागो' स्ववशो महात्मा ॥५०२।। पगदे हिस्सेसं गाहुगं च आहरणहेदुजुत्तं च । अणुसासेदि सुविहिदो कुविदं सण्णिव्ववेमाणो ॥५०३।। 'अघुसासेदि' अनुशास्ति । 'पगदे' वक्तुं प्रारब्धे वस्तुनि । 'णिस्सेसं गाहुगं' समस्तमववोधयत्तदनु शासनं करोति । 'महरमहेदजतं च' दष्टांतेन हेतना च यक्तं । एतस्माद्धेतोरिदमेवैतदिति यक्त्यानशास्ति 'सुविहिदों यतिः । 'कुविदं' कुपितं 'सण्णिव्ववेमाणो' सम्यक् प्रशमयन् सम्यक्प्रसादमुपनयन् ॥५०३।। णिद्धं मधुरं गंभीरं मणप्पसादणकरं सवणकंतं । देइ कहं णिव्यवगो सदीसमण्णाहरणहेउं ॥५०४॥ "णिद्ध" प्रियवचनबहुलतया स्निग्धं । 'मधुरं' अनतिकठोराक्षरतया मधुरं । 'गंभीर' अर्थगाढतया । 'मणप्पसाबकरणं' मनःप्रल्हादविधायिनी । 'सवणकतं' श्रुतिसुखं । ‘देदि कथं' कथां कथयति । "णिव्ववगो' निर्वापकः । 'सदोसमण्णाहरणहेदु" स्मृतिसमानयनकारणं । पूर्वाभ्यस्तश्रुतार्थगोचरस्मरणं इह स्मृतिरिति गृह्यते मविवचनो वा । 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम्'-[त० सू० १] इति वचनात् । तेन बुद्धिसम्पन्वयनकारणमित्यर्थः इति केचित् ॥५०४॥ विजावगो इत्येत्सूत्रपदं व्याचष्टे जह पक्खुभिदुम्मीए पोदं रदणभरिदं समुद्दम्मि । णिज्जवओ धारेदि हु जिदकरणो बुद्धिसंपण्णो ॥५०५।। 'वह पाखुभिदुम्मोए' यथा प्रचलिततरङ्गे। 'समुद्दम्मि' समुद्रे । 'पोदं' पोतं नावं । 'रदणभरिदं' रत्नभरित्नं । पिन्बवगो' निर्यापकः । 'धारेदि खु' धारयति । 'जिदकरणो' परिचितक्रियः । 'बुद्धिसंपण्णो' बुद्धिसंपचः बुद्धिमान् ॥५०५॥ समाधानपूर्व गाथामें श्रुतकेवलीको निर्वापक रूपसे कहा है और इसमें समस्त श्रुतका बो ज्चात्ता नहीं है ऐसा आचार्य भो निर्वापक होता है यह कहा हैं। इससे पुनरुक्त दोष नहीं है ॥५०२॥ गा०—जिस वस्तुका निवेदन करना प्रारम्भ करे तो उसके समस्त हेय उपादेय रूपका बोध दृष्टान्त और युकिसे करावे कि इस हेतुसे यह ऐसा ही है। ऐसा आचार्य कुपित हुए क्षपकको सम्यक् रूपसे प्रसन्न करके उसे शिक्षा देता है ॥५०३।।। मा०—निर्वापक आचार्य प्रियवचनोंकी बहुतायत होनेसे स्निग्ध, अधिक कठोर अक्षर न होनेसे मधुर, अर्थको प्रगाढता होनेसे गम्भीर, मनको प्रसन्नता और कानोंको सुख देनेवाली कथा कहते हैं जिससे क्षपकको पहले अभ्यास किये हुए श्रुतके अर्थका स्मरण होता है। यहाँ स्मृतिसे कोई व्याख्याकार मतिका ग्रहण करते हैं क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें मति, स्मृति संज्ञा, चिन्ता अभिनिबोधको अर्थान्तर कहा है। अतः वे अर्थ करते हैं कि उस कथासे क्षपकमें बुद्धि का आगमन होता है, उसकी बुद्धि जाग्रत हो जाती है ॥५०४।! आगे गाथाके णिज्जावग (निर्यापक) पदका व्याख्यान करते हैं Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ विजयोदया टीका तह संजमगुणभरिदं परिस्सहुम्मीहिं खुभिदमाइद्धं । णिज्जवओ धारेदि हु महुरेहि हिदोवदेसेहिं ॥५०६।। . 'तह संजमगुणभरिदं तथा संयमेन गुणश्च सम्पूर्ण । संयमस्य सर्वेभ्यो गुणेभ्यः प्रधानत्वात् संयमशब्दस्य पूर्वनिपातः । 'परिस्सहुम्मोहि' क्षुत्पिपासादुःखानि परीषहास्ते ऊर्मय इवानुक्रमेणोद्गच्छन्तीति ऊर्मिव्यपदेशं लभन्ते । परीषहोमिभिः 'खुभिदं' चलितं । 'आइद्ध" तिर्यग्भतं यतिपोतं । 'णिज्जवगो धारेदि खु' निर्यापकसूरिर्धारयति । 'मधुरेहि हिदोवदेसेहि' मधुरैहितोपदेशः ।।५०६।। धिदिवलकरमादहिदं महुरं कण्णाहुदि जदि ण देइ । सिद्धिसुहमावहंती चत्ता आराहणा होइ ।।५०७|| .., 'विविबलकर' धृतिबलकारिणीं। स्मृतेः स्थैर्य धृतिस्तस्या अवष्टम्भकारिणीं। 'आदहिद' आत्म हिता.। 'मधुर' मधुरां । 'कण्णाहुदि' कर्णाहुतिं । 'जदि ण देवि' यदि न दद्यात् । सिद्धिसुखमावहन्तीति । सिद्धिसुखानयनकारिणी । 'आराहणा' आराधना । 'चत्ता होदि' त्यक्ता भवति ॥५०७॥ प्रस्तुतोपसंहारगाथा इय णिव्ववओ खवयस्स होइ णिज्जावओ सदायरिओ । होइ य कित्ती पघिदा एदेहिं गुणेहिं जुत्तस्स ।।५०८।। 'इय' एवं । 'णिव्ववगो' निर्वापकः । 'खवगस्स' क्षपकस्य । "णिज्जावगो होदि' निर्यापको भवति । 'सदायरिओ' सदाचार्यः निर्यापकत्वगुणसमन्वितः क्षपकस्योपकारी भवतीत्युक्त्वा स्वार्थमपि तस्य सूरदर्शयति । 'होदि य कित्ती पधिदा' भवति च कीर्तिः प्रथिता । 'एदेहि गुणेहि जुत्तस्स' आचारवत्त्वादिभिर्गुणयुक्तस्य ।।५०८॥ गा०-जैसे नौका चलानेका अभ्यासी बुद्धिमान् नाविक तरंगोंसे क्षुभित समुद्रमें रत्नोंसे भरे जहाजको धारण करता है ।।५०५॥ गा०-वैसे ही निर्यापक आचार्य संयम और गुणोंसे पूर्ण, किन्तु परीषह रूप लहरोंसे चंचल और तिरछे हए क्षपकरूप जहाजको मधुर और हितकारी उपदेशोंसे धारण करता है उसका संरक्षण करता है ।।५०६॥ टी०- संयम सब गुणोंसे प्रधान है इसलिए संयम शब्दको गुणसे पहले रखा है। तथा भूख-प्यासका दुःख परीषह है। वे लहरोंकी तरह एकके बाद एक क्रमसे उठती हैं इसलिए परीषहोंको लहरें या तरंगें कहा है ।।५०६।। गा०-यदि आचार्य स्मृतिकी स्थिरता रूप धैर्यको बल देने वाली और आत्माका हित करनेवाली मधुर वाणी क्षपकके कानोंमें न सुनाये तो मोक्ष सुखको लानेवाली आराधनाको क्षपक छोड़ बैठे ।।५०७|| प्रस्तुत चर्चा का उपसंहार करते हैं। गा-इस प्रकार निर्यापकत्व गुणसे युक्त आचार्य क्षपकका निर्यापक होता है। वह उसका उपकारी होता है । इतना कहकर उस निर्यापकाचार्यका भी इसमें स्वार्थ बतलाते हैं कि Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना इय अद्वगुणोवेदो कसिणं आराधणं उवविधेदि । खबगो वि तं भयवदी उवगृहदि जादसंवेगो ॥५०९॥ "इस एवं ! 'अठ्ठगुणोवेदों' आचारवानित्याद्यष्टगुणोपेतः सूरिः । 'कसिणं' कृत्स्नां । 'आराधणं' बाराधना । “उवविदि' ढोकयति । 'खवगो वि' क्षपकोऽपि । 'त' तां 'भगववि' भगवतीं सकलबाधापनयनमाहात्म्यावाती। उवमूहदि' आलिंगति । 'जादसंवेगो' उत्पन्नसंसारभीरुत्वः । सुठ्ठिदं सम्मत्तम् ॥५०९।। एवा सुठ्दिं इत्येतद्वयाख्यातं, इत उत्तरं उवसम्पा इत्येतद्व्याख्यायते एवं परिमग्गित्ता णिज्जवयगुणेहिं जुत्तमायरियं । उपसंपज्जइ विज्जाचरणसमग्गो तगो साहू ॥५१०॥ "एवं परिमम्मित्ता' अन्विष्य । कं ? 'आयरियं' आचार्य । कीदृग्भूतं ? "णिज्जवयगुणेहि' निर्यापकगुपाराचाखत्वादिभिः समन्वितं । 'उवसंपज्जदि' ढोकते । कः ? 'तगों' सः । 'साहू' साधुः । 'कोदग्भूतः' ? बिचावरणसमम्मो ज्ञानेन चारित्रेण समग्रः सम्पूर्णः ॥५१०॥ गुरुकुले आत्मनिसर्गः उवसपानाम समाचारः । तत्क्रमं निरूपयति तियरणसवावासयपडिपुण्णं किरिय तस्स किरियम्मं । विणएणमंजलिकदो वाइयवसभं इमं भर्णाद ।।५११।। .. नियरबसवावासयपडिपुण्णं किरिय तस्स किरियम्म'। तस्य निर्यापकस्य सूरेः कृतिकर्म वन्दनां ला। कीदृशं विवरणसवावासगपडिपुण्णं' मनोवाक्कायात्मसर्वावश्यकप्रतिपूर्णां । सामायिकं, चतुर्विंशतिस्वयोवन्दन्ना, अतिक्रमणं, प्रत्याख्यानं, कायोत्सर्गः, इत्येते मनोवाक्कायविकल्पेन विविधाः षडावश्यकसंज्ञिताः। मामला सर्वसाबद्यायोगनिवृत्तिः, वचसा 'सव्वं सावज्जजोगं पचक्खामि' इति वचनं । कायेन सावधक्रियानन् इन चारवत्त्व बादि गुणोंसे युक्त निर्यापकाचार्यकी कीर्ति सब जगह फैलती है ॥५०८।। मा-इस प्रकार आचारवान् आदि आठ गुणोंसे सहित आचार्य समस्त आराधनाको प्राप्त होता है। थपक भी संसारसे विरक्त होकर समस्त बाधाओंको दूर करनेसे माहात्म्यशाली उस भयावती आराधनाका आलिंगन करता है उसे अपनाता है ।।२०९॥ . इस प्रकार सुस्थित गुणका व्याख्यान हुआ। इसमें आगे उपसंपदाका कथन करते हैं गा. इस प्रकार ज्ञान और चारित्रसे सम्पूर्ण क्षपक निर्यापकके आचारवत्व आदि गुणोंसे युक्त आचार्यको खोजकर उनके निकट जाता है ।।५१०॥ गुरुकुलमों आत्मोत्सर्ग करनेको 'उवसंपा' नामक समाचार कहते हैं। यहाँ उसके क्रमका कथन करते हैं मा०—मान वचन कायसे छह आवश्यकोंको पूर्णरूपसे करके निर्यापकाचार्यकी वन्दना करता है और विनयपूर्वक दोनों हाथोंको जोड़ उनकी अंजली बनाकर उन आचार्य श्रेष्ठसे इस प्रकार कहता है ॥५१शा . टी--सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक मान वचन कायके भेदसे तीन भेदरूप होते हैं । मनसे सर्व सावद्ययोगकी निवृत्ति, वचनसे Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३८१ ष्ठानं, मनसा चतुर्विशति तीर्थकृतां गुणानुस्मरणं 'लोगस्सुज्जोययरे' इत्येवमादीनां गुणानां वचनं । ललाटविन्यस्तकरमुकुलता जिनेभ्यः कायेन । वन्दनीयगणानुस्मरण मनोवन्दना । वाचा तद्गुणमाहात्म्यप्रकाशनपरवचनोच्चारणं । कायवन्दना प्रदक्षिणीकरणं कृतानतिश्च । मनसा कृतातिचारान्निवृत्तिः । हा दुष्कृतमिति वा मनःप्रतिक्रमणं । सूत्रोच्चारणं वाक्प्रतिक्रमणं । कायेन तदनाचरणं कायप्रतिक्रमणं । मनसातिचारादीन्न करिष्यामि इति मनःप्रत्याख्यानं । वचसा तन्नाचरिष्यामि इति उच्चारणं । कायेन तन्नाचरिष्यामि इत्यङ्गीकारः । मनसा शरीरे ममेदभावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। कार्य वोसरामीति वचनं वाचा कायोत्सर्गः। प्रलम्बभुजस्य, चतुरङ्गलमात्रपादान्तरस्य निश्चलावस्थानं कायेन कायोत्सर्गः । कायापायनिरासमकृत्वा एकान्ते गुरावासीने प्रसन्नचेतसि शनैरागत्य शरीरं भूमिं च प्रतिलेख्य अदूरे असमीपे आसित्वा कृताञ्जलिः भगवन्कृतिकर्मवन्दनामिच्छामीति आलोच्य अनुज्ञातः शनैरुत्थाय मूर्धन्यस्तकर अविलम्बितमनुद्रुतं सामायिकं पठेत् । सूत्रानुगतं, अविचलं, अविकृतं स्थितः कृतकायोत्सर्गश्चतुर्विंशतिस्तवमभिधाय सूरिणानुरक्तमना गुरुस्तवनं पठेत इत्येषा कृतिकर्मवन्दना। वन्दनोत्तरकालं 'विणएण' विनयेन 'अंजलिकदो' मुकुलीकृताञ्जलिः । 'वाइयवसभं' आचार्यवृषभं 'इणं' इदं । भवि ब्रवीति इति ॥५११॥ तुज्झेत्थ बारसंगसुदपारया सवणसंघणिज्जवया। तुझं खु पादमले सामण्णं उज्जवेज्जामि ॥५१२।। 'तुझेत्य' यूयमत्र । 'बारसंगसुदपारगा' द्वादश आचारादीनि अङ्गानि यस्य तत् द्वादशाङ्गं श्रुतं सांगर इव तस्य पारं गताः । 'समणसंघणिज्जवगा' श्रामयन्ति तपस्यन्ति इति श्रमणाः तेषां समुदायः श्रमणसंघः 'मैं सर्व सावद्ययोगको त्यागता हूँ' ऐसा कहना, कायसे सावध क्रियाओंका न करना। मनरो चौबीस तीर्थकरोंके गुणोंका स्मरण, वचनसे 'लोगस्सुजोयकरे' इत्यादि स्तुतिका पढ़ना, कायसे दोनों हाथ मुकुलित करके मस्तकसे लगाना। वंदनीय गुणोंका, स्मरण करना मनोवन्दना है। वचनसे उनके गुणोंके माहात्म्यको प्रकट करने वाले वचनोंका उच्चारण करना वचन वन्दना है । प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना काय वन्दना है। मनसे किये हुए दोषोंकी निवृत्ति या हा, मैंने बुरा किया' ऐसा सोचना मनःप्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण सूत्रका पढ़ना वाक् प्रतिक्रमण है । कायसे उन दोषोंका न करना काय प्रतिक्रमण है। मनसे मैं अतिचार आदि नहीं करूँगा ऐसा संकल्प मनःप्रत्याख्यान है। मैं उन्हें नहीं करूँगा ऐसा कहना वचन प्रत्याख्यान है। कायसे नहीं करूंगा ऐसा स्वीकार करना काय प्रत्याख्यान है । मनसे शरीरमें 'यह मेरा है' ऐसा भाव न होना मानस कायोत्सर्ग है। वचनसे मैं कायका त्याग करता है ऐसा कहना वचन कायोत्सग है । दोनों हाथोंको लटकाकर और दोनों पैरोंके मध्य में चार अंगलका अन्तर रखते हए निश्चल खड़ा होना कायसे कायोत्सर्ग है । कायके अपायका निरास न करके (?) जब गुरु एकान्त में बैठे हों और प्रसन्न मन हों तब धीरेसे आकर शरीर और भूमिकी प्रतिलेखना करके, गुरुसे न तो दूर और न समीप बैठकर हाथोंकी अंजलि बनाकर निवेदन करे कि भगवन् ! कृतिकर्म वन्दना करना चाहता हूँ। इस प्रकार आलोचना करके गुरुकी अनुज्ञा मिलने पर धीरेसे उठकर दोनों हाथ मस्तकसे लगा न बहुत धीरे, न बहुत जल्दीमें सामायिक पाठ पढ़े । शास्त्रके अनुसार विकार रहित निश्चल खड़े होकर कायोत्सर्ग करे। फिर चौबीस तीर्थकरोंका स्तवन करे। फिर आचार्यमें अनुराग पूर्वक गुरु स्तवन • पढ़े । यह कृतिकर्म वन्दना है । वन्दनाके अनन्तर विनयपूर्वक दोनोंहाथ जोड़ आचार्यसे इस प्रकार निवेदन करे ।।५११॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ भगवती आराधना तस्य निर्यापकाः । 'तुझं खु. पादमूले' युष्माकं पादमूले 'उज्जवेज्जामि' उद्योतयिष्यामि । 'सामण्णं' श्रामण्यं ॥५१२।। आत्मेच्छां सूरये प्रकटयति पव्यज्जादी सव्वं कादूणालोयणं सुपरिसुद्धं । दसणणाणचरित्ते णिस्सल्लो विहरिदुं इच्छे ।।५१३॥ 'पव्वज्जादी सव्वं' दीक्षाग्रहणादिकां सर्वा । 'कादूणालोयणं' कृत्वालोचनां 'सुपरिसुद्ध" दोषरहितां । 'दंसणणाणचरित' दर्शनज्ञानचरित्र। 'णिस्सल्लो' शल्यरहितो भूत्वा । 'विहरिदु' विहत्त आचरितुं । 'इच्छे' इच्छामि ॥५१३।। एवं कदे णिसग्गे तेण सुविहिदेण वायओ भणइ । अणगार उत्तमढे साधेहि तुमं अविग्घेण ॥५१४॥ ‘एवं कदे णिसग्गे' स्वभारत्यागे कृते । केण 'तेण सुविहिदेण' तेन सुचरितेन क्षपकेण । 'वायओ भणइ' वाचकः सरिर्वदति । 'अणयार' त्यक्तद्रव्यभावागारत्वादनगारः तस्य संबोधनं । 'उत्तमट्ठ' उत्तम प्रयोजनं रत्नत्रयं द्रव्यं 'साहि' साधय । 'तुम' त्वं । 'भविग्घेण' अविघ्नेन ॥५१४॥ धण्णोसि तुमं सुविहिद एरिसओ जस्स णिच्छओ जाओ। संसारदुक्खमहणी . घेत्तु आराहणपडायं ।।५१५।। 'धण्णोसि तुम' धन्योऽसि । पुण्यवानसि 'तुम' भवान् । 'सुविहिद' यते । 'एरिसओ जस्स णिच्छ ओ जाओ' । उपलक्षणपरं मनोज्ञाहारग्रहणे ईदृग्यस्य निश्चयो जातः । 'संसारदुक्ख महणो' संसारे चतुर्गतिपरिभ्रमणे यानि दुःखानि तन्मईनोद्यतां । 'घेत्तु' ग्रहीतुं । 'आहारणापडागं' आराधनापताकां । रत्नत्रयाराधनया कर्माग्यपयान्ति । सदपगमात्तदुःखनिवृत्तिः इति भावः ।।५१५।। उपसंपा। गा-आप द्वादशांग श्रुत सागरके पारगामी हो । आचार आदि बारह जिसके अंग हैं वह द्वादशांग श्रत समद्रके समान है आपने उसे पार कर लिया है। तथा जो श्राम्यन्ति अर्थात् तपस्या करते हैं वे श्रमण हैं। उनका समुदाय श्रमणसंघ है उसके आप निर्यापक हैं। मैं आपके चरणोंमें बैठकर अपने श्रामण्यको उद्योतित करूंगा ॥५१२।। गा०-अपनी इच्छा आचार्यके सामने प्रकट करता है-दीक्षा ग्रहण करनेसे लेकर जो दोष किए हैं उनको दोषरहित आलोचना करके मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्रको शल्यरहित होकर पालन करना चाहता हूँ ॥५१३।। गा०—इस प्रकार उस उत्तम चरित वाले क्षपकके द्वारा अपना भार त्यागने पर वाचक आचार्य कहते हैं-हे द्रव्य और भावरूप अगार (घर) का त्याग करने वाले अनगार ! तुम बिना किसी विघ्न बाधाके उत्तम अर्थ रत्नत्रय रूप द्रव्यकी साधना करो ॥५१४॥ गा०-हे सुविहित श्रमण ! तुम धन्य हो-पुण्यशाली हो, जो तुभने चार गतियोंमें परिभ्रमण रूप संसारमें जो दुःख हैं, उन दुःखोंको नष्ट करने पर तत्पर आराधना पताकाको ग्रहण Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ विजयोदया टीका अच्छाहि ताव सुविहिद वीसत्थो मा य होहि उव्वादो। पडिचरएहिं समंता इणमटुं संपहारेमो ॥५१६।। 'अच्छाहि ताव सुविहिद' आस्स्व तावद्यते । 'वीसत्थं' विश्वरतं । 'मा य होहि उव्वादो' व्याकुलितचित्तो मा च भूः । 'पडिचरहिं समं' प्रतिचारकैः सह । 'इणमत्थं' इदं प्रयोजनं । 'संपहारेमो' संप्रधारयामः । 'उवसंपा' निरूपिता ॥५१६॥ इत उत्तरं पडिच्छा इति सूत्रपदव्याख्या तो तस्स उत्तमढे करणुच्छाहं पडिच्छदि विदण्हू । खीरोदणदबुग्गहदुगुंछणाए समाधीए ।।५१७।। 'तो' पश्चात् । 'तस्स' तस्य क्षपकस्य । 'उत्तमट्ठकरणुच्छाह' रत्नत्रयाराधनाक्रियोत्साहं । 'पडिच्छदि' परीक्षते । 'विदह' मार्गज्ञः । कथं ! 'खोरोदणदव्वग्गहदुगंछणाए' क्षीरोदनद्रव्यग्रहणं मनोज्ञाहारग्रहणं जुगुप्सापरेण । 'समाधीए' समाधिनाहारगतं लौल्यमस्य किं विद्यते न वेति परीक्षते । इयमेका परीक्षा । समाधिणिमित्तं पडिच्छा ॥५१७॥ खवयस्सुवसंपण्णस्स तस्स आराधणा अविक्खेवं । दिव्वेण णिमित्तेण य पडिलेहदि अप्पमत्तो सो ।।५१८।। 'खवगस्स' क्षपकस्य । 'उवसंपण्णस्स' आत्मान्तिकमुपाश्रितस्य । 'तस्स' तस्य । 'आराहणा अविखेवं' आराधनाया अविक्षेपं । 'पडिलेहदि' परीक्षते । कः ? 'सो' स सूरिनिर्यापकः । 'अप्पमत्तो' प्रमादरहितः । केण ? 'दिव्वेण देवतोपदेशेन । 'णिमित्तण' निमित्तेन वा इयमेका परीक्षा ॥५१८॥ करनेका निश्चय किया। रत्नत्रयकी आराधनासे कर्मोंका विनाश होता है । उनका विनाश होनेसे दुःखसे छुटकारा होता है ॥५१५।। ___ गा-हे सुविहित ! विश्वस्त होकर तब तक बैठो। अपना चित्त व्याकुल मत करो । हम वैयावृत्य करने वालोंके साथ इस विषय पर विचार करते हैं ।।५१६॥ 'उवसंपा' का कथन पूर्ण हुआ। आगे गाथाके 'पडिच्छा' (परीक्षा) पदका व्याख्यान करते हैं गा०-उसके पश्चात् मार्गको जाननेवाले आचार्य क्षपकके रत्नत्रयकी आराधना करने में उत्साहकी परीक्षा करते हैं कि उसके आराधना करनेका उत्साह है या नहीं है। तथा दूध भात आदि द्रव्यको ग्रहण करने में इसकी लोलुपता है या ग्लानि है ऐसी परीक्षा करते हैं । यहाँ दूधभात मनोज्ञ आहारका उपलक्षण है। अतः आहारके सम्बन्धमें उसकी परीक्षा करते हैं। यह परीक्षा समाधिके निमित्त की जाती है ।।५१७।। परीक्षाका कथन समाप्त हुआ। गा०-आराधनाके निमित्तसे अपने पास आये क्षपककी आराधना नि विघ्न होनेके लिए १. ग्रहणोपलक्षणं मु० । 'खीरोदणदबुग्गहदुगुंछणाए' क्षीरोदनद्रव्यं मनोज्ञाहारोपलक्षणं तस्य अवग्रहो ग्रहणं तत्र विचिकित्सा निन्दा तया ।'-मूलारा० । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ भगवतो आराधना रज्जं खेत्तं अधिवदिगणमप्पाणं च पडिलिहिताणं । गुणसाधणो पडिच्छदि अप्पडिलेहाए बहुदोसा ॥५१९।। 'रज्जं खेत्तं अधिवदिगणमप्पाणं च' राज्यं, क्षेत्रं, देशं ग्रामनगरादिकं अधिपति गणमात्मानं च । 'पडिलिहिताणं' परीक्ष्य । 'गुणसाधगो' गुणान्सम्यक्त्वादीन् साधयति यः सूरिः स । 'पडिच्छदि' प्रतिगृह्णाति । कं । क्षपकं । अन्यत्र गुणसाधणं इति पाठः । गुणान्साधयितुं उद्यतं साधु प्रतिगृह्णाति । 'अप्पडिलेहाए' उक्ताया परीक्षाया अभावे । 'बहुवोसा' बहवो दोषा भवन्ति । के ते इति चेदुच्यन्ते । निरस्ताहारतृष्णो न वेति यदि न परीक्षितः, आहारे तृष्णावान्नक्तंदिनं तमेव चिंतयतीति कथमाराधकः । क्षुत्पिपासापरीपहावष्टम्भासहनात्पूकुर्वन् धर्मदूषणं कुर्यात् । आराधनाया व्याक्षेपो भवति न वेत्यपरीक्ष्य यदि तन त्याजयति तस्यापि न कार्यसिद्धिः स्वयं च निन्द्यते जनेन । राज्यक्षेत्रादीनां शुभाशुभपरीक्षा येन कृता सोऽशुभं चे'त्पश्यति तस्य राज्यादेश्च स राज्यक्षेत्रादिकं अन्यदुद्दिश्य तं गृहीत्वा याति । तथा च तस्योपकारको भवति । अपरीक्षायां तु राज्यादिभ्रशे स च क्षपकः स्वयं च क्लिश्यति गणस्य चोपद्रवं यदि पश्यति, आत्मनो वा न प्रारभते कार्य । अपरीक्षितकारी सुरिन तस्योपकारको न चात्मन इति दोषाः ॥५१९।। परीक्षानन्तरं आपुच्छा इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे आचार्य प्रमादरहित होकर दिव्य निमित्तज्ञानके द्वारा परीक्षा करते हैं कि इसकी आराधना निर्विघ्न होगी या नहीं होगी ।।५१८।। __ गा०-टी-सम्यक्त्व आदि गुणोंका साधक वह आचार्य राज्य, क्षेत्र, अधिपति, गण, और अपनी शरीरकी परीक्षा करके क्षपकको ग्रहण करता है। अन्यत्र 'गुणसाधणं' पाठ मिलता है। उसके अनुसार आचार्य गुणोंकी साधनाके लिए उद्यत साधुको ग्रहण करता है। उक्त परीक्षा न करनेमें वहुत दोष हैं। ___ उन्हें ही कहते हैं-क्षपककी आहार विषयक तृष्णा दूर हुई है या नहीं, ऐसी परीक्षा यदि नहीं की और क्षपक आहारमें तृष्णा रखनेवाला हुआ, तो रात दिन आहार की ही चिन्ता करनेपर कैसे आराधक हो सकता है। भूख प्यासकी परीषहों को न सहनेसे चिल्ला-चिल्लाकर धर्मको दूषित करेगा । आराधनामें विघ्न आयेगा या नहीं, इसकी परीक्षा न करके यदि उस विघ्नको दूर नहीं किया जाय तो क्षपकका भी कार्य सिद्ध न हो और स्वयं आचार्य लोगोंकी निन्दाका पात्र बने । जो आचार्य राज्य क्षेत्र आदिकी अच्छे बुरेकी परीक्षा करता है वह यदि क्षपक और राज्य आदिका अशुभ देखता है तो उस क्षपकको लेकर अन्य राज्य और अन्य क्षेत्र आदिमें चला जाता है। ऐसा करनेसे वह क्षपकका उपकार करता है। परीक्षा न करनेपर यदि राज्य आदिमें उत्पात हुआ तो क्षपक और आचार्य दोनोंको कष्ट उठाना पड़ता है। यदि गणका या अपना अनिष्ट देखता है तो आचार्य कार्यका प्रारम्भ नहीं करता। अतः विना परीक्षा किए कार्य करनेवाला आचार्य न क्षपकका उपकार करता है और न अपना उपकार करता है ॥५१९|| परीक्षाके अनन्तर 'आपृच्छा' का कथन करते हैं १. चेन्न प-आ० । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३८५ पडिचरए आपुच्छिय नेहिं णिसिटै पडिच्छदे खवयं । तेसिमणापुच्छाए असमाधी होज्ज तिण्हंपि ॥२०॥ आपुच्छा । 'पडिचरए' प्रतिचारकान्यतीन् । 'आपुच्छिय' आपृच्छ्य रत्नत्रयाराधने अस्मानयं सहायाकामयन् प्राघूर्णको यतिः साधुसमाधियावृत्त्यकरणं च तीर्थकरनामकर्मणो मूलमिति भवद्भिरिदमवगतमेव, ततो वदत किमस्माभिरयमनुग्राह्यो न वेति, परार्थवन्तः परार्थबद्धपरिकरा हि प्रायेण लौकिका अपि किमुत यतयः । सकलमासन्नभव्यलोकं संसारपङ्कादुरुत्तरादगाधादुत्तारयितुमुद्यताः । 'अप्पहियं कायव्वं जइ सक्कइ परहियं च कायस्वमिति' वचनाच्च । एतदनुग्रहोद्योगः किं कार्य इति प्रष्टव्यं इति कथयति । 'तेहि परिचारकैः । 'णिसिट्ठ' निसृष्टं अभ्युपगतं । 'पडिच्छदे' प्रतिगृह्णाति । 'खवगं' क्षपकं । 'तेसिमणापुच्छाए' परिचारकाणामपरिप्रश्ने तु । 'असमाही होज्ज तिण्हंपि' सूरेः क्षपकस्य संघस्य च असमाधिः संक्लेशो भवेत् । अस्माभिरयमपरिगृहीत इति. विनये वैयावृत्ये वा अनुद्योगादिना मम' न किञ्चित् कुर्वन्ति इति क्षपकस्य संक्लेशो भवति । गुरोरपिसंक्लेशो भवति, मयास्योपकारे प्रारब्धे सहायभावमिमे नोपयान्ति इति । परिचारकाणां च संवलेशो बहुजनसाध्यं कार्यमस्मान्गुरु नुमोदयति । न बलाबलमस्माकं परीक्षते इति ॥५२०।। पडिच्छणा इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे एगो संथारगदो जजइ सरोरं जिणोवदेसेण । एगो सल्लिहदि मुणी उग्गेहिं तवोविहाणेहिं ।।५२१ ।। 'एगो संथारगदो एकः संस्तरमारूढः । 'जजइ सरीरं' यजते शरीरं । 'जिणोवदेसेण' जिनानामुपदे 'गा०-टी०-आचार्य परिचर्या करनेवाले यतियोंसे पूछता है-यह क्षपक रत्नत्रयकी साधनामें हमारी सहायता चाहता है। साधु समाधि और वैयावृत्य करना तीर्थंकर नामकर्मके बन्धके कारण हैं यह आप जानते ही हैं। अतः कहिये, हमलोग इसपर अनुग्रह करें या न करें ? प्रायः लौकिकजन भी परोपकारी और परोपकारके लिए सदा तत्पर रहनेवाले होते हैं। तब यतिजनोंका तो कहना ही क्या है ? वे तो समस्त निकट भव्यजीवोंको गहरे संसार पंकसे निकालने में तत्पर रहते हैं। आगममें भी कहा है-'आत्माका हित करना चाहिए। यदि शक्य हो तो परहित भी करना चाहिए।' अतः क्या इसके कल्याणका उद्योग करना चाहिए या नहीं । इस प्रकार आचार्यके पूछनेपर यदि वे स्वीकार करते हैं तो आचार्य क्षपकको स्वीकार करते हैं। परिचारक यतियोंसे न पूछनेपर आचार्य, क्षपक और संघ तीनोंको ही संक्लेश होता है । हम लोगोंने इस क्षपकको स्वीकार नहीं किया ऐसा मानकर यतिगण यदि उसकी विनय या वैयावृत्य न करें तो क्षपकको संक्लेश होता है कि ये मेरा कुछ भी नहीं करते। गुरुको भी संक्लेश होता है कि मैंने इसका उपकार करना प्रारम्भ किया किन्तु वे इसमें सहायता नहीं करते । परिचारक यतियोंको भी संक्लेश होता है कि यह कार्य बहुत जनोंके करनेका है किन्तु हमारा गुरु यह नहीं मानता और न हमारे बलाबलकी परीक्षा करता है ॥५२०॥ आगे 'पडिच्छणा' पदको कहते हैंगा०-एक मुनि तो संस्तरपर चढ़कर जिनेन्द्रके उपदेशसे शरीरको आराधनामें लगाता १. मम भक्ति विकु-आ० । मम न भक्ति कु-मु०।४९ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ भगवती आराधना शेन । 'एगो सल्लिहवि मुणो' एको मुनिस्तनूकरोति शरीरं । 'उग्नेंहिं तवोविहाणेहि' उप्रैस्तपोविधानः ॥५२१॥ तदिओ णाणुण्णादो जजमाणस्स हु हवेज्ज वाघादो । पडिदेसु दोसु तीसु य समाधिकरणाणि हायन्ति ॥५२२॥ _ 'तविओ गाणुण्णादो' तृतीयो यति नुज्ञातः तीर्थकृद्भिः एकेन निर्यापकेनानुग्राह्यत्वेन । कुतो यस्मात् । 'जजमाणस्स खु हवेज्ज वाघादों' यजमानस्य भवेदेव व्याघात इति । कुतो व्याघात इत्यत्राह । 'पडिदेसु दोसु तीसु य' संस्तरे पतितयोयोस्त्रिषु च क्षपकेषु 'समाधिकरणानि हायंति' चित्तसमाधानक्रिया विनयवैयावृत्यादयो हीयन्ते यस्माद्यजमानस्य व्याघातः ॥५२२॥ यस्मादेक एव यजमानो भवति 'तम्हा पडिचरयाणं सम्मदमेयं पडिच्छदे खवयं । भणदि य तं आयरियो खवयं गच्छस्स मज्झम्मि ॥५२३।। 'तम्हा' तस्मात् । 'एग' एकं । 'पडिच्छदे' अनुजानाति । 'खवगं' क्षपकमेकं । 'पडिचरयाणं सम्मद' प्रतिचारकाणां इष्टं । 'भणवि य' भणति च । 'तं' क्षपकं । कः ? 'आयरिओ' आचा:। क्व? 'गच्छस्स मज्झम्मि' गणस्य मध्ये । क्षपकस्य शिक्षा । किमर्थ ? गणोऽपि मार्गज्ञो यथा स्यात इति । पडिच्छणेगस्स ॥५२३॥ एवमसौ क्षपकं वदतीति कथयति फासेहि तं चरित्तं सव्वं सुहसीलयं पयहिदण। सव्वं परीसहचमु अघियासंतो घिदिबलेण ॥५२४॥ 'फासेहि' प्रतिपद्यस्व । 'त' भवान् । किं ? 'चरितं' चारित्रं । 'सव्वं सुहसीलदं' सर्वां सुखशीलतां । 'पजहिण' त्यक्त्वा । सुखशीलतया हि चारित्रं मन्दं भवति पिण्डस्योपकरणस्य वसतेश्चाशोधनात् । मनोज्ञाहारहै। एक मुनि उग्रतप करके शरीरको कृश करता है ॥५२१॥ गा०-टी०–तीर्थकरने एक निर्यापक आचार्यके द्वारा अनुग्राह्य तीसरे यतिकी अनुज्ञा नहीं दी है अर्थात् एक आचार्यकी देख-रेखमें एक साथ एक दो ही मुनि सल्लेखना कर सकता है क्योंकि तपरूपी अग्नि में अपने शरीर आइति देनेवाले मनिकी समाधिमें विघ्न आता है। इसका कारण यह है कि यदि दो या तीन क्षपक संस्तर पर पड़ जायें तो चित्तको समाधान देनेवाली विनय वैयावृत्य आदिमें कमी आती है ॥५२२॥ गा०-अत. आचार्य एक ही क्षपकको स्वीकार करते हैं जो परिचर्या करनेवाले यतियोंको इष्ट होता है। तथा आचार्य गणके मध्य में क्षपकको शिक्षा देते हैं जिससे गण भी समाधिको जान जाये ॥५२३॥ गाहे क्षपक ! तुम धैर्यके बलसे सम्पूर्ण सुखशीलताको त्यागकर सम्पूर्ण परीषहोंकी सेनाको सहन करते हुए चारित्रको धारण करो। सुखशीलतासे चारित्र मन्द होता है क्योंकि १. तम्हा खवयं एयं पडिचरगणसम्मदं पडिच्छेइ । भणदि यतं आइरिओ सगच्छमज्झम्मि खवयस्स ।।-आ० । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३८७ लम्पटो न भिक्षां शोधयति नाप्युपकरणं । सुखशील उद्गमादिदोषं न परिहरति मनोज्ञोपकरणबद्धाभिलाषत्वात् । क्लेशासहो यस्य कस्यचिद्वसतावास्ते ॥५२४।। इन्द्रियजयं कषायजयं च कुर्वित्युपदिशति सद्दे रूवे गंधे रसे य फासे य णिज्जिणाहि तुमं । सव्वेसु कसाएसु य णिग्गहपरमो सदा होह ॥५२५।। 'सद्दे रूवे गंधे' इत्यनया । ननु शब्दादयो विषयास्तेषां जयो नाम कः ? तद्विषयो हि रागो बन्धहेतुत्वात् तत्प्रतिपक्षवैराग्यभावनया जेतव्यत्वेनोपदेष्टव्यः । अत्रोच्यते-सोपस्कारत्वात्सूत्राणां सर्वे, स्वे, गन्ध, रसे य फासे य रागं तुमं जिणाहि इति पदसम्बन्धः । अथवा शब्दादीनां विषयाणां वशे न स्थित इति कृत्वा जेता भण्यते । यथा पुरुषो जितोऽनयेत्युच्यते या पुरुषवशानुवतिनी न भवति । 'सम्वेसु कसाएसु य' सर्वेषु कषायेषु वा क्रोधादिषु । 'णिग्णहपरमो' निग्रहप्रधानः क्षमादिभावनया सदा भव ।।५२५॥ एवं कृतेन्द्रियकषायजयेन मया पश्चारिक कर्तव्यमित्यत्रोत्तरमाचष्टे हंतूण कसाए इंदियाणि सव्वं च गारवं हंता । तो मलिदरागदोसो करेहि आलोयणासुद्धिं ॥२६॥ सुखशील मुनि भोजन, उपकरण और वसतिका शोधन नहीं करता। जो स्वादिष्ट भोजनका लम्पट होता है न वह भिक्षाका शोधन करता है और न उपकरणका शोधन करता है। तथा सुखशील मुनि उद्गम आदि दोषका परिहार नहीं करता, उसका मन तो मनोज्ञ भोजन और उपकरणमें रहता है । कष्ट न सहकर जिस किसीकी वसतिमें ठहर जाता है ॥५२४॥ आगे इन्द्रिय और कषायोंको जीतनेका उपदेश देते हैंगा०-टी०-हे यति ! तुम शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श इन पाँच इन्द्रियोंके विषयोंको जीतो। शङ्का-शब्द आदि इन्द्रियोंके विषय हैं उनको जीतना कैसे ? उन विषयोंमें राग बन्धका कारण है। अतः उनके विरोधी वैराग्य भावनाके द्वारा उनको जीतनेका उपदेश देना चाहिए ? समाधान-सूत्र उपस्कार सहित होते हैं अतः शब्द, रूप, रस,गन्ध और स्पर्शमें जो राग है उसे तुम जीतो ऐसा पदका सम्बन्ध होता है । अथवा जो शब्दादि विषयोंके वशमें नहीं है उसे जीतनेवाला कहते हैं। जैसे जो स्त्री पुरुषको अनुगामिनी नहीं होती उसके सम्बन्धमें कहा जाता है कि इसने पुरुषको जीत लिया। __ तथा सब क्रोधादि कषायोंमें क्षमा आदि भावनाके द्वारा सदा निग्रह करनेमें तत्पर रहो ।।५२५॥ इस प्रकार इन्द्रिय और कषायको जीतनेपर मुझे क्या करना चाहिए, क्षपकके इस प्रश्नका उत्तर देते हैं १. कुशीलः उद्गमादिदोषां परिहरति--आ० । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ भगवती आराधना - 'हंतप' हत्वा । 'कसाए' कषायान् । 'इंदियाणि' इंद्रियाणि च हत्वा । 'सव्वं च गारवं हंता' सर्वच मारवं हल्या ऋद्धिरससावभेदात्त्रिविकल्पं । 'तो' पश्चात । 'मलिदरागदोसो' मदितरागद्वेषः । 'करेहि कुरु । "बातोयबासुद्धि' आलोचनाख्यां शुद्धि । रागद्वेषौ असत्यवचनस्य हेतु इति परित्याज्याविति कथितौ। रागान्न पश्यति नरो दोषान् । देषाद् गुणान्न गृह्णीते । तस्माद्रागद्वेषौ व्युदस्य कार्याणि कार्याणि ॥५२६॥ नितिचार मदीयं रत्नत्रयं ततः किं गुरोनिवेदयामीति न मन्तव्य मित्याचष्टे छत्तीसगुणसमण्णागदेण वि अवस्समेव कायव्वा । परसक्खिया विसोधी सुठुवि ववहारकुसलेण ॥५२७॥ 'छत्तीसगुनसमचागदेण वि' षट्त्रिंशद्गुणसमन्वितेनापि । 'अवस्समेव होइ कायव्वा' अवश्यमेव भवति कर्तव्या । का ? "क्सिोहों विशुद्धिः मुक्त्युपायातिचाराणामपाकृतिः ॥५२७॥ आयारवमादीया अदुगुणा दसविधो य ठिदिकप्पो । वारस तव छावासय छत्तीसगुणा मुणेयव्वा ।।५२८॥ 'सुबि क्वहारकुसलेण' सुष्ठु अपि प्रायश्चित्तकुशलेनापि । अष्टी ज्ञानाचाराः दर्शनाचाराश्चाष्टौ, तपो द्वादशविचं, पंच समितयः, तिस्रो गुप्तयश्च ट्त्रिंशद्गुणाः ॥५२८॥ मा.-कषाय और इन्द्रियोंको नष्ट करके तथा ऋद्धि, रस, और सातके भेदसे सम्पूर्ण माखको नष्ट करके, पश्चात् राग और द्वेषका मर्दन करके आलोचनाकी शुद्धि करो। राग और देष झठ बोलनेमें कारण होते हैं. इसलिए उन्हें छोडने योग्य कहा है। रागवश मनुष्य दोषोंको नहीं देखता, बौर द्वषवश गुणोंको ग्रहण नहीं करता। इसलिए रागद्वोषको दूर करके कार्य करना चाहिए ॥२६॥ __मेरे रत्नत्रय निरतिचार हैं अतः गुरुसे क्या निवेदन करूं ? ऐसा मानना योग्य नहीं, ऐसा कहते हैं __ या.-छत्तीस गुणोंके धारण और व्यवहारमें कुशल आचार्यको भी अवश्य अन्य मुनिकी साक्षीसे बपने रत्नत्रयकी विशुद्धि-अतिचारोंका शोधन करना होता है। आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, वारह प्रकारका तप, पांच समिति, तीन गुप्ति ये छत्तीस गुण हैं ॥५२७॥ मा०—बाचारवत्त्व आदि आठ गुण, दस प्रकारका स्थितिकल्प, बारह तप, छह आवश्यक, ये छत्तीस गुण जानना चाहिए ॥५२८।। विशेषार्थ-दोनों प्रतियोंमें यह गाथा इससे पूर्वकी गाथाकी विजयोदया टोकाके मध्यमें दी है। किन्तु विजयोदया टीकामें जो छत्तीस गुण गिनायें है वे इस गाथासे भिन्न हैं । दोनों प्रतियोंमें यद्यपि इसपर क्रमांक नं० ५२२ है किन्तु इससे आगेकी गाथापर भी यही नम्बर है। इससे प्रतीत होता है कि इस गाथाको मूलमें नहीं गिना गया है । पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें छत्तीस गुण संस्कृत टीकामें विजयोदयाके अनुसार बतलाकर प्राकृतटीकाके अनुसार अट्ठाईस मूलगुण और बाचारवत्त्व आदि आठ इस तरह छत्तीस बतलाए हैं। 'यदि वा' लिखकर दस आलोचना गुण, दस प्रायश्चित्त गुण, दस स्थितिकल्प, छह जीतगुण इस तरह छत्तीस गुण बतलाकर लिखा है कि यह माथा प्रक्षिप्त ही प्रतीत होती है ॥५२८॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ विजयोदया टीका सव्वे वि तिग्णसंगा तित्थयरा केवली अणंतजिणा । छदुमत्थस्स विसोधिं दिसंति ते वि य सदा गुरुसयासे ॥५२९।। सर्वेषां तीर्थकृतामियमाज्ञा-गुरोनिवेद्यात्मापराधं तदुक्तं प्रायश्चित्तं कृत्वा शुद्धिः कार्येति । 'सम्वेवि तित्थयरा' सर्वेऽपि तीर्थकराः । 'तिण्णसंगा' उल्लवितपरिग्रहागाधपङ्काः । 'सव्वे वि केवली' सर्वेऽपि केवलिनः । परिप्राप्तस्वर्गावतरणादिकल्याणत्रयाः केवलज्ञानावरणक्षयादधिगतविश्वज्ञानाः केवलिनः । 'अणंतरिणा' अनन्तसंसारकारकत्वाच्चारित्रसर्वघातिमिथ्यात्वं' सम्यग्मिथ्यात्वं द्वादशकषायाश्च अनन्तं तज्जयादनन्तजिना आचार्योपाध्यायसाधवः । तेऽपि सर्वे 'सदा गुरुसकासे सोधि दिसंति' सदा गुरुसमीपे रत्नत्रयशुद्धिं दर्शयन्ति । कस्य ? 'छदुमत्थस्स' छद्मस्थस्य सम्बन्धिनीमिति केचिद्वदन्ति । रत्नत्रयपरिणामात्मको रत्नत्रयशुद्धया शुद्धो । भवतीति छद्मस्थस्य विशुद्धिरित्युच्यते इति वाऽनया ॥५२९॥ यो न वेत्त्यतिचारजातमलनिराकरणक्रमं सोऽन्यस्मै कथयेद्यस्तु स्वयं वेत्ति स कस्मात् परस्मै कथयतितदुक्तं वाचरतीत्याह जह सुकुसलो वि वेज्जो अण्णस्स कहेदि आदुरो रोगं । वेज्जस्स तस्स सोच्चा सो वि य पडिकम्ममारभइ ॥५३०॥ __ 'जह सुकुसलो वि वेज्जो' यथा सुष्ठु कुशलोऽपि वैद्यः । व्याधिनिरासे 'आदुरो' आतुरः । 'अण्णस्स कहेइ' अन्यस्मै कथयति । 'रोग' व्याधि । एवंभूतो मम व्याधिः, चिकित्सां कुर्विति । 'वेज्जस्स तस्स सोच्चा' तस्य वैद्यस्य श्रुत्वा वचनं । 'सो वि य' सोऽपि च आतुरो३ वैद्यः । - 'पडिक्कममारभवि' प्रतिक्रियामारभते ॥५३०॥ सब तीर्थंकरोंकी यह आज्ञा है कि गुरुसे अपने अपराधको निवेदन करके, वे जो प्रायश्चित्त कहें उसे करके शुद्धि करना चाहिए । यही कहते हैं गा०-टी०-परिग्रहरूपी अथाह कीचड़को लाँघनेवाले सभी तीर्थंकर, स्वर्गसे अवतरण, जन्म और दीक्षा इन तीन कल्याणकोंको प्राप्त करके, केवलज्ञानावरणके क्षयसे समस्त विश्वको जाननेवाले केवलज्ञानी, तथा अनन्तसंसारका कारण होनेसे चारित्रका सर्वघात करनेवाले मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायको अनन्त कहा है। उनको जीतनेसे आचार्य, उपाध्याय और साधु अनन्तजिन कहे जाते हैं। ये सभी सदा गुरुके समीपमें रत्नत्रयकी शुद्धि करनेको कहते हैं । यह शुद्धि छद्मस्थ अवस्थासे सम्बन्ध रखती है ऐसा कोई कहते हैं। अथवा रत्नत्रयके परिणामवाला आत्मा रत्नत्रयको शुद्धिसे शुद्ध होता है इससे उसे छद्मस्थकी विशुद्धि कहते हैं ॥५२९॥ ___ जो मुनि अतिचारसे उत्पन्न मलको दूर करनेका क्रम नहीं जानता उसका दूसरे आचार्यादि से कहना उचित है। किन्तु जो स्वयं जानता है वह दूसरेसे क्यों कहता है और क्यों उसके कहे अनुसार आचरण करता है इस शंकाका उत्तर देते हैं गा०-जैसे अत्यन्त निपुण भी वैद्य रोगी होनेपर अपना रोग दूसरे वैद्यसे कहता है और . उस वैद्यको चिकित्सा सुनकर वह रोगी वैद्य उसका कहा इलाज प्रारम्भ करता है ॥५३०॥ १. मिथ्यात्वं द्वाद-आ०म० । २. त्रयशुद्धया भवतीति छद्मस्थस्य विशुद्धिरित्युक्तवानयं आ०म० । ३. अनातुरो आ० मु० । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० भगवती आराधना एवं जाणतेण वि पायच्छित्तविधिमप्पणो सव्वं । कादव्वादपरविसोधणाए परसक्खिगा सोधी ।।५३१।। ‘एवं जाणंतेण वि' बिजानतापि । किं ? 'पायच्छित्तविधि' प्रायश्चित्तक्रमं । 'अप्पणो' आत्मनः । 'सव्वं' सर्व। 'काववा' कर्तव्या। 'परसक्खिग्गा सोधी' शुद्धिः । 'आदपरविसोषणाए' आत्मनः परा उत्कृष्टा विशोधना यथा स्यादित्येवमथं स्वसाक्षिका परसाक्षिका च विशुद्धिरुत्कृष्टेति मन्यते । प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । 'तचित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतं ॥[ ] इति वचनात् । शुद्धिरतिचाराणां अनेन कृतेति परे मानयन्ति । निरतिचाररत्नत्रयोऽयमिति परे भव्या एतदुपदेशेनास्माभिः प्रवतितव्यमिति ढोकन्ते । अन्यथा तद्गुणातिशयानवगमनान्न तदनुयायिनो भवन्ति । ततः कथमनेन परानुग्रहः कृतः स्यात् । कर्तव्यः स्वपरानुग्रहः । तथा चोक्तं-अप्पहिवं कादव्वं जइ सक्क परहिदं च कायग्वं ॥ इति । तथापि अंयोथिना हि जिनाशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेश:-[वरांग० २१३ ] । इति । वैद्य इव । अथवा आत्मनः परस्परविशोधनार्थ परसाक्षिकं । मम शुद्धि दृष्ट्वा परोऽप्ययमेव क्रम इति परसाक्षिकायां शुद्धी प्रयतते । अन्यथा सर्वे स्वसाक्षिकामेव कुर्युः। तथा च न शुद्धयन्ति । गतानुगतिको हि प्रायेण लोकः ॥५३१॥ यस्मात्परसाक्षिका शुद्धिः प्रधाना तम्हा पन्चज्जादी दंसणणाणचरणादिचारो जो। तं सव्वं आलोचेहि णिरवसेसं पणिहिदप्पा ।।५३२।। गा-इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रायश्चित्त विधिको जानते हुए भी मुनिको अपनी उत्कृष्ट विशुद्धिके लिए परकी साक्षीपूर्वक शुद्धि करना चाहिए। क्योंकि अपनी और दूसरेकी साक्षीपूर्वक विशुद्धि उत्कृष्ट मानी जाती है। कहा है-'प्रायश्चित्त' शब्दमें प्रायका अर्थ लोक है और उसका मन चित्त उस चित्तका ग्राहक अथवा उस चित्तको शुद्ध करनेवाले कर्मको प्रायश्चित्त कहा है ॥५३१॥ टो०-प्रायश्चित्त करनेसे दूसरे मानते हैं कि इसने अतिचारोंकी शुद्धि कर ली। इसका य निरतिचार है। अन्य भव्यजीव उसके पास इस विचारसे आते हैं कि हमें भी इनके उपदेशानुसार प्रवृत्ति करना चाहिए। यदि दोषोंकी विशुद्धि साधु न करे उसके गुणोंके अतिशयको न जाननेसे भव्यजीव उसके अनुयायी नहीं होते। तब साधु कैसे दूसरोंका उपकार कर सकता है। कहा भी है कि 'अपना हित करना चाहिए। अपना हित करते हुए शक्य हो तो परका हित करना चाहिए।' तथा और भी कहा है-'कल्याणके इच्छुक जिनशासनके प्रेमीको नियमसे हितका उपदेश करना चाहिए । जैसे वैद्य दूसरोंका हित करता है। अथवा अपनी और परकी शुद्धिके लिए परकी साक्षीपूर्वक शुद्धि करना चाहिए। मेरी शुद्धिको देखकर दूसरे भी ऐसा ही करेंगे, इसलिए साधु परकी साक्षीपूर्वक शुद्धि करता है। ऐसा न करनेसे सब केवल अपनी ही साक्षीपूर्वक शुद्धि करने लगेंगे। और ऐसा करनेपर वे शुद्ध नहीं हो सकेंगे। लोग तो प्रायः देखा-देखी करनेवाले होते हैं ॥५३१।। १. चित्तशुद्धिकरं कर्म आ० मु० । २. परस्य वि-मु० । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'तम्हा' तस्मात । 'पध्वज्जादी' प्रव्रज्यादिकं । 'दसणणाणचरणाविचारो जो दर्शनज्ञानचरणातिचारो यः । 'तं सम्वं' सर्व अतिचारं । 'आलोचेहि' कथय । 'पणिहिदप्पा' प्रणिहितचित्तो भूत्वा । 'निरवसेसं' सर्वमित्यनेनैवावगतत्वात् निरवशेषमित्येतत्किमर्थ इति चेत-ज्ञानदर्शनचारित्रविषयाणामतिचाराणां कतिपयानां सामस्त्येऽपि सर्वशब्दस्य प्रवृत्तिरस्तीति निरवशेषग्रहणं प्रत्येकं ज्ञानाद्य तिचारान् ग्रहीतुमुपन्यस्तमिति तन्न दोषः ॥५३२॥ कथं निरवशेषालोचना कृता भवतीत्यारेकायामाह काइयवाइयमाणसियसेवणं दुप्पओगसंभूय । जइ अस्थि अदीचारं तं आलोचेहि णिस्सेसं ॥५३३।। 'काइयवाइयमाणसियसेवणां' कायेन, वाचा, मनसा च प्रवृत्ति प्रतिसेवनां । 'दुप्पओगसंभूया' दुःप्रयोगसंभूतां 'तं' तां । 'आलोचेहि' कथय । 'णिस्सेसं' निःशेषं । 'जइ अत्यि अदीचारों' यद्यस्त्यतिचारः ॥५३३॥ अमुगंमि इदो काले देसे अमुगत्थ अमुगभावेण । जं जह णिसेविदं तं जेण य सह सव्वमालोचे ॥५३४॥ चरणं अतिक्रम्याचरणं । 'इबो' अस्माद्दिनादतिक्रान्ते । 'अमुगम्मि काले' अमुकस्मिन्काले । 'देशे' अमुष्मिन्देशे। 'अमुगभावेण' अनेन भावेन । 'ज' यत । 'जधा णिसेविदं यथा निषेवितं । 'जेण य सह' येन च सह । 'तं सब्वमालोचे' तत्सर्व कथयेद्देशभेदात् कालभेदात् परिणामभेदात्, सहायभेदात् च दोषाणां गुरुलघुभावः । गुरुलघुभावानुसारेण वा गुरु लघु वा प्रायश्चित्तं दीयते । तत्सर्वं कथयति ॥५३४।। शिक्षयत्यालोचनाक्रम सूरि AC गा०-यतः परकी साक्षीपूर्वक की गई शुद्धि हो प्रधान है अत: दीक्षासे लेकर अबतक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें जो अतिचार लगे हैं वे सब निरवशेष सावधान चित्त होकर कहो। शङ्का-सब कहनेसे ही सबका ज्ञान हो जाता है फिर निरवशेष क्यों कहा? समाधान-ज्ञान दर्शन और चारित्रविषयक कुछ अतिचारोंको पूरी तरहसे कहने में भी सर्वशब्दकी प्रवृत्ति है, इसलिए 'निरवशेष' का ग्रहण ज्ञानादिके प्रत्येक अतिचारको ग्रहण करनेके लिए किया है । अतः कोई दोष नहीं है ॥५३२।। निरवशेष आलोचना कैसे की जाती है ? इसका उत्तर देते हैं गा०-मनवचन और कायकी प्रवृत्ति करते हुए यदि उनके दुष्प्रयोगसे अतिचार लगा हो तो उसकी पूरी तरहसे आलोचना करो ॥५३३॥ गा-इस दिनसे लेकर अमुक कालमें, अमुक देशमें, अमुक भावसे जो दोष, जिसके साथ जिस प्रकारसे किया हो वह सब कहना चाहिए। देशभेद, कालभेद, परिणामभेद, और सहायकके भेदसे दोषोंमें गुरुपना और लघुपना होता है। और दोषोंकी गुरुता और लघुताके अनुसार गुरु या लघु प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसलिए क्षपक सब कहता है ।।५३४॥ आचार्य आलोचनाके क्रमकी शिक्षा देते हैं Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ भंगवतो आराधना आलोयणा हु दुविहा ओघेण य होदि पदविभागी य । ओघेण मूलपत्तस्स पयविभागी य इदरस्स ॥५३५॥ 'आलोयणा खु दुविहा होदि' द्विप्रकारवालोचना भवति । 'ओघेण पदविभागीय' सामान्येन विशेषण च । वचो हि सामान्यं विशेषं चावलम्ब्य प्रवर्तते । कस्य सामान्यन आलोचना कस्य वा विशेषेणेत्यत आह'ओघेण मुलपत्तस्स सामान्यालोचना मूलाख्यं प्रायश्चित्तं प्राप्तस्य । 'पदविभागो' विशेषालोचना । 'इदरस्स' मूलमप्राप्तस्य ॥५३५॥ सामान्यालोचनाहं सामान्यालोचनास्वरूपं च कथयति आघेणालोचेदि हु अपरिमिदवराधिसव्वघादी वा। अज्जोपाए इच्छं सामण्णमहं खु तुच्छोत्ति ।।५३६।। 'ओघेणालोचेदि हु' सामान्येन कथयति । 'कोऽपरिमिदवराधी सव्वघादी वा' बहवो अपराधा यस्य मिथ्यात्वं व्रतभङ्गो वा । परसाक्षिकायां शुद्धौ मायाशल्यं निरस्तं भवति । मानकषायो निमूलितो भवति । गरुजनः प्रजितो भवति । तत्परतन्त्रया वतर्मार्गप्रख्यापना च कृता स्यात । 'अज्जोपाए' अद्यप्रभति । 'इच्छ सामण्णं' इच्छामि श्रामण्यं । 'अहं खु तुच्छोत्ति' अहं स्वल्पको रत्नत्रयेणेति इयं सामान्यालोचना ॥५३६॥ विशेषालोचनामाचष्टे- . गा०--आलोचना दो प्रकारकी होती है-एक सामान्यसे और दूसरी विशेष से । क्योंकि सामान्य और विशेषका अवलम्बन लेकर ही वचनकी प्रवृत्ति होती है। किस दोषकी सामान्यसे आलोचना होती है और किसकी विशेषसे होती है ? यह कहते हैं जिसको मूल नामक प्रायश्चित्त दिया जाता है वह सामान्यसे आलोचना करता है और जिसको मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता वह विशेष रूपसे आलोचना करता है ।।५३५।। विशेषार्थ--जिसकी मूलसे ही दीक्षा छेद दी जाती है वह अपने दोषोंकी सामान्य आलोचना करता है किन्तु जो सम्यक्त्व आदिमें दोष लगाता है वह अपने दोषकी विशेष आलोचना करता है। यहाँ सामान्यसे मतलब है किसी गुणविशेषमें लगे दोषकी आलोचना न करके सामान्य मुनिधर्म मात्रमें लगे दोषकी आलोचना करना, और किसी गुणविशेषमें लगे दोषकी आलोचना विशेष आलोचना है। सामान्य आलोचनाके योग्य कौन होता है और सामान्य आलोचनाका स्वरूप कहते हैं गा०--जो अपरिमित अपराधी है जिसने बहुत अपराध किए हैं या जिसने सब सम्यक्त्व व्रत आदि का घात किया है वह सामान्य आलोचना करता है। मैं आज से मुनि दीक्षा लेना चाहता हूँ। मैं रत्नत्रय से तुच्छ हूँ। यह सामान्य आलोचना का स्वरूप है। आचार्य आदिकी साक्षो पूर्वक शुद्धिमें मायाशल्य दूर होता है । मान कषाय जड़ से उखड़ जाती है । गुरुजनके प्रति आदर भाव व्यक्त होता है। उनके अधीन रह कर व्रताचरण करनेसे मोक्षमार्गकी ख्याति होती है ॥५३६॥ विशेष आलोचनाको कहते हैं Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ विजयोदया टीका पव्वज्जादी सव्वं कमेण जं जत्थ जेण भावेण । पडिसेविदं तहा तं आलोचिंतो पदविभागी ॥५३७॥ . 'पव्वज्जादी सवं' प्रव्रज्यादिकं सर्व । 'कमेण जं जत्थ जेण भावेण पडिसेविदं' क्रमेण यद्यत्र कालत्रये वा देशे येन भावेन प्रतिसेवितं । 'तहा तं' तथा तत् । आलोचितो निरूपयन्निति । यदि पदविभागी विशेषालोचना भवति ॥५३७॥ शल्यानिराकरणे दोषं शल्यापाये च गुणं दृष्टान्तेन दर्शयति जह कंटएण विद्धो सव्वंगे वेदणुधुदो होदि । तम्हि दु समुट्ठिदे सो णिस्सल्लो णिव्वदो होदि ॥५३८॥ 'जह कंटएण विद्धो' यथा कण्टकेन विद्धः । 'सव्वंगे' सर्वस्मिन् शरीरे । 'वेदणुधुदो होइ' वेदनयोपद्रुतो भवति । 'तम्हि समुट्ठिदे' तस्मिन्कण्टके उद्धृते । 'सो' दुःखितः । 'णिस्सल्लो' निःशल्यो शल्येन रहितः । 'णिव्वदो' निवृतो। 'होदि' भवतीति सुखी भवतीति यावत् ॥५३८॥ दार्शन्तिकयोजना एवमणुधुददोसो माइल्लो तेण दुक्खिदो होइ । सो चेव वंददोसो सुविसुद्धो णिव्वुदो होइ ॥५३९॥ 'एवं' कण्टकेन विद्ध इव । 'अणुधुददोसो' अनुद्धृतदोषः। 'माइल्लो' मायावान् । स्वापराधाकथनानुद्धृतदोषेण । 'दुक्खिदो होदि' दुःखितो भवति । 'सो चेव वंददोसो' स एव वान्तदोषः । 'सुविसुद्धो णिव्वुदो होदि' निर्वृतो भवति ॥५३९॥ मिच्छादसणसल्लं मायासल्लं णिदाणसल्लं च । अहवा सल्लं दुविहं दव्वे भावे य बोधव्वं ॥५४०॥ 'मिच्छादसणसल्लं' मिथ्यादर्शनशल्यं । 'मायासल्लं' मायाशल्यं । 'णिदाणसल्लं' निदानशल्यं च । 'अहवा सल्लं दुविहं' अथवा शल्यं द्विप्रकारं । 'दम्वे भावे य' द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति । 'बोधन्वं' बोद्धव्यम् ॥५४०॥ गा-दीक्षासे लेकर सब कालमें सब क्षेत्रमें जिस भावसे और जिस क्रमसे जो दोष किया हो उसकी उसी प्रकार आलोचना करना पदविभागी अर्थात् विशेष आलोचना है ।।५३७॥ शल्यको दूर न करने में दोष और दूर करने में गुण दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं गा०-जैसे कण्टकसे विधा हुआ सर्वशरीरमें पीड़ासे पीड़ित होता है और उस कण्टकके निकल जानेपर वह दुःखी मनुष्य शल्यसे रहित हो सुखी होता है ॥५३८॥ गा०-उसी प्रकार जो काँटेकी तरह दोषको नहीं निकालता वह मायावी अपने अपराधको न कहने रूप दोषसे दुःखी रहता है। और वही दोषको प्रकट करनेपर विशुद्ध होकर सुखी होता है ।।५३९॥ ___गा०-शल्यके तोन भेद हैं-मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य, अथवा शल्यके दो भेद जानना-द्रव्यशल्य और भावशल्य ।।५४०।। ५० Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ भगवती आराधना तिविहं तु भावसल्लं दसणणाणे चरित्तजोगे य । सच्चित्ते य अचित्ते य मिस्सगे वा वि दव्वम्मि ॥५४१॥ 'तिविहं तु' त्रिविधं एव । 'भावसल्लं' परिणामशल्यं । 'दसणणाणे चरित्तजोगे य' दर्शने, ज्ञाने, चारित्रयोगे वा । दर्शनस्य शल्यं शंकादि । ज्ञानस्य शल्यं अकाले पठनं अविनयादिकं च । चारित्रस्य शल्यं समितिगुप्त्योरनादरः । [ 'योगस्य तपसः प्रागुक्तानशनाद्य तिचारजातं । असंयमपरिणमनं वा । तपसश्चारित्रे अन्तर्भावविवक्षया तिविहमित्युक्तम् ] 'दक्वम्मि सल्लं तिविहं' द्रव्ये शल्यं त्रिविधं । 'सचित्त अचित्ते मिस्सगे य' सचित्तद्रव्यशल्यं दासादि । अचित्तद्रव्यशल्यं सुवर्णादि । 'मिस्सगे वा' विमिश्रद्रव्यशल्यं ग्रामादि । एतत्रिविधं द्रव्यशल्यमित्युच्यते-चारित्राचारस्य शल्यस्य कारणत्वात् ॥५४१॥ भावशल्यानुद्धरणे दोषमाचष्टे- ... एगमवि भावसल्लं अणुद्धरित्ताण जो कुणइ कालं । लज्जाए गारवेण य ण सो हु आराधओ होदि ॥५४२॥ ‘एगमवि' एकमपि भावानां रत्नत्रयाणां शल्यं । अतिचारं । 'अणुद्धरित्ताण' अनुद्धृत्य । 'जो कुणदि कालं' यः करोति मरणं । कस्मान्नोद्धरति ? 'लज्जाए' लज्जया। 'गारवेण य' गारवेण वा। 'सो ण ख आराधगो होवि' स आराधको नैव भवति । निरतिचारता हि तेषां यतीनां आराधना ॥५४२।। जाते अपराधे तदानीमेव कथितव्यं न कालक्षेपः कार्य इति शिक्षयति कल्ले परे व परदो काहं दंसणणाणचरित्तसोधित्ति । इय संकप्पमदीया गयं पि कालं ण याणंति ॥५४३॥ 'कल्ले' श्वःप्रभृतिके काले । अहं करिष्यामि 'दंसणचरित्तसोधित्ति' दर्शनज्ञानचारित्रशुद्धिमिति । ‘इय संकप्पमदीगा' एवं कृतसंकल्पमतयः । 'गदंपि कालं ण जाणंति' गतमतिक्रान्तमपि आयुःकालं नव जानन्ति । गा०-टी-भावशल्यके तीन भेद हैं-दर्शनशल्य, ज्ञानशल्य, चारित्रयोगशल्य। शंका आदि दर्शनके शल्य हैं। अकालमें पढ़ना, विनय न करना आदि ज्ञानके शल्य हैं। समिति और गुप्तिमें अनादर चारित्रके शल्य हैं। पहले कहे अनशन आदिके अतिचार अथवा असंयमरूप परिणाम योग अर्थात् तपके शल्प हैं। तपका अन्तर्भाव चारित्रमें होता है इस विवक्षासे यहाँ भावशल्य तीन कहे हैं। द्रव्यशल्य भी तीन हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । दास आदि सचित्त द्रव्यशल्य हैं। सुवर्ण आदि अचित्त द्रव्यशल्य हैं। गाँव आदि मिश्र द्रव्यशल्य हैं। इन तीनोंको द्रव्यशल्य कहते हैं क्योंकि ये चारित्राचारके शल्यके कारण हैं ।।५४१॥ भावशल्यको दूर न करने में दोष कहते हैं गा०-जो साधु लज्जा अथवा गारवसे एक भी भाव अर्थात् रत्नत्रयके शल्य अर्थात् अतिचारको निकाले विना मरण करता है, वह मुनि आराधक नहीं है । निरतिचारता ही यतियोंकी आराधना है ॥५४२॥ ___ आगे शिक्षा देते हैं कि अपराध होनेपर तत्काल कहना चाहिए, देर नहीं करना चाहिए. गा०-टी०-कल या परसों मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी शुद्धि करूँगा ! ऐसा संकल्प १. कोष्टान्तर्गत पाठो नास्ति-अ० आ० प्रत्योः । -For Private &Personal use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ विजयोदया टीका ततः सशल्यं मरणं तेषां भवति । अत एवोक्तं-'उप्पण्णाणुप्पण्णा माया अणुपुटवसो णिहंतव्वा' इति ।[मूलाचार ७१२५ ॥] व्याधयः शत्रवः । कर्माणि, चोपेक्षितानि बद्धमूलानि पुनर्न सुखेन विनाश्यन्ते । अथवा अतिचारकालं गतं चिरातिक्रान्तं नैव जानन्ति । ये हि अतिचाराः प्रतिदिनं जातास्तेषां कालं, सन्ध्या रात्रिदिनं इत्यादिकं । पश्चादालोचनाकाले गरुणा 'पष्टा वा न वक्तुं जानन्ति विस्मृतत्वाच्चिरातीतस्य । अथागतं स्वतीचारकालं तस्यातिचारस्य । अपिशब्देन क्षेत्रभावौ वातिचारस्य हेतू न जानन्ति न स्मरन्ति । सामान्यवाच्यपि जानाति । इह स्मृतिज्ञान गोचर इति केषांचियाख्या ॥५४३।। सशल्यमरणे को दोष इत्याशङ्कायामाचष्टे रागदोसाभिहदा ससल्लमरणं मरंति जे मूढा । ते दुक्खसल्लबहुले भमंति संसारकांतारे ॥५४४।। 'रागद्दोसाभिहदा' रागद्वेषाभ्यामभिहताः । 'ससल्लमरणं' सशल्यमरणं । 'मरंति' म्रियन्ते । 'जे मूढा' ये मढास्ते 'संसारकांतारे भमंति' । ते संसाराटव्यां भ्रमन्ति । कीदशि ? 'दुक्खसल्लबहुले' दुःखानि शल्यवत् दुर्द्धरत्वाच्छल्य इत्युच्यन्ते । दुःखशल्यसङ्कुले ॥५४४॥ शल्योद्धरणे गुणं व्याचष्टे तिविहं पि भावसरलं समुद्धरित्ताण जो कुणदि कालं । पव्वज्जादी सव्वं स होइ आराधओ मरणे ॥५४५।। 'तिविहंपि' त्रिविधमपि । 'भावसल्लं' भावशल्यं । 'समुद्धरित्ताण' समुद्धृत्य । 'जो कुणदि कालं' यः कालं करोति । कीदृग्भूतं ? 'पध्वजादी' प्रव्रज्यादिकं । 'सव्वं' सर्वं । 'स होदि' स भवति । 'आराधमओ' आराधको दर्शनादीनां । 'मरणे' भवपर्यायप्रच्यवे ।।५४५॥ करनेवाले बीतते हुए आयुकालको नहीं जानते। इसीसे उनका मरण शल्य सहित होता है। इसीसे कहा है-'जैसे ही मायाशल्य उत्पन्न हो, उत्पन्न होते ही उसे आनुपूर्वीक्रमसे नष्ट कर देना चाहिए।' व्याधि, शत्रु और कर्मकी यदि उपेक्षा की जाये तो उनकी जड़ जम जाती है फिर सुखपूर्वक उनका विनाश नहीं होता। अथवा अपराधकी उपेक्षा करनेवाले साधु दोष लगनेके कालको बहुत दिन बीत जानेपर भूल जाते हैं। जो अतिचार प्रतिदिन होते हैं उनका काल सन्ध्यामें अतिचार लगा था या रातमें या दिनमें, इत्यादि भूल जाते हैं। पीछे आलोचना करते समय गुरुके पूछनेपर नहीं कह पाते क्योंकि बहुत काल बीतनेसे भूल जाते हैं। अथवा बीते अतीचारके कालको और 'अपि' शब्दसे अतिचारके हेतु क्षेत्र और भावको नहीं जानते, उन्हें • उनका स्मरण नहीं होता। ऐसी किन्हींको व्याख्या है ॥५४३।। शल्यसहित मरणमें दोष कहते हैं गा०-राग और द्वेषसे पीड़ित जो मूढ़ मुनि शल्यसहित मरते हैं वे दुःखरूपी शल्योंसे भरे संसाररूपी वनमें भटकते हैं । शल्यकी तरह दुर्द्धर होनेसे दुःखोंको शल्य कहा है ॥५४४॥ शल्यको निकालने में गुण कहते हैंगाo-जो दीक्षा लेनेके दिनसे लेकर तीन प्रकारके सब भावशल्यको निकालकर मरण १. पृष्टातावन्न आ० मु० । २. ज्ञानागोच-ज्ञानागारव आ० मु० । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना जे गारवेहिं रहिदा णिस्सल्ला दंसणे चरित्ते य । विहरंति मुत्तसंगा खवंति ते सव्वदुक्खाणि ॥५४६।। 'जे गारवेहि रहिदा' ये गोरवैविरहिताः । "णिस्सल्ला दंसणे चरित्ते य' निःशल्याः सन्तो दर्शने चरित्रे च । 'विहरन्ति' प्रवर्तन्ते । 'मुत्तसंगा' निरस्तमूर्छाः । ते 'सव्वदुक्खाणि खवंति' ते सर्वाणि दुःखानि क्षपयन्ति ॥५४६॥ तं एवं जाणंतो महंतयं लाभयं सुविहिदाणं । दसणचरित्तसुद्धो णिस्सल्लो विहर तो धीर ॥५४७।। 'त' भवान् । 'एवम्' उक्तप्रकारेण । 'जाणतो' जानन् । 'महंतगं' महान्तं लाभं । 'सुविहिदाणं' सुसंयतानां । 'दसणचरित्तसुद्धो' दर्शने चारित्रे च शुद्धिं । तयोः शुद्धिर्ज्ञानदर्शनशुद्धि मन्तरेण न भवतीति त्रयाणां शुद्धि रुक्ता । 'णिस्सल्लो' शल्यरहितः सन् । "विहर' चर । 'तो' तस्माद् ‘धोर' धैर्योपेत ॥५४७॥ तम्हा सतूलमूलं अविछूढमविप्पुदं अणुव्विग्गो । णिम्मोहियमणिगूढ सम्मं आलोचए सव्वं ॥५४८॥ 'तम्हा' तस्मात् यस्मात्सशल्यमरणे दोषः । निःशल्यमरणे च सकलदुःखनिवृत्तिः दुःखकारणानां कर्मणाम भावात् । 'तम्हा' तस्मात् । 'सम्म सम्वमालोचे' सम्यक् सर्वमतिचारं कथयेत् । दुःखनिवृत्त्यर्थं मतिः । कथमालोचयेदित्याशङ्कायामालोचनाविशेषमाह-'सतूलमूलं' तूलमूलाम्यां सहितं । 'सव्वं' निरवशेषं । 'अविछूढं' अविस्मृतं । 'अविप्पुदं' अद्रुतं । 'अणुम्विग्गो' निर्भयः । 'णिम्मोहिदं' मोहरहितं । 'अणिगूढं' अनिगूढं ॥५४८॥ जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जु भणइ । तह आलोचेदव्वं मायामोसं च मोत्तूण ॥५४९।। करते हैं वे मरते समय दर्शन आदिके आराधक होते हैं ॥५४५।। गा०-जो तीन प्रकारके गारव और तीन प्रकारके शल्योंसे रहित हो ममत्वभावको त्याग दर्शन ज्ञान और चारित्रमें विहार करते हैं वे सब दुःखोंका क्षय करते हैं ।।५४६॥ गा०-हे धीर ! निरतिचार रत्नत्रयका पालन करनेवाले संयमियोंके ऊपर कहे महान् लाभको जानते हुए तुम दर्शन और चारित्रकी शुद्धि करके शल्यरहित होकर मोक्षमार्गमें प्रवर्तन करो। दर्शन और चारित्रकी शुद्धि ज्ञान और दर्शनकी शुद्धिके विना नहीं होती। इसलिए दर्शन और चारित्रकी शुद्धिसे दर्शन ज्ञान चारित्र तीनोंकी शुद्धि कही है ॥५४७॥ गा०-यतः शल्यसहित मरणमें दोष है और निःशल्य मरणमें दुःखके कारण कर्मोंका अभाव होनेसे समस्त दुःखोंसे छुटकारा होता है। इसलिए दुःखसे निवृत्तिके लिए दीक्षाके दिनसे लेकर आज तक जो अतिचार लगे हैं वे सब विना भूल किये, धीरे-धीरे, विना किसी भय और मोहके सम्यकरूपसे प्रकट करो ॥५४८॥ १. भावः-आ० मु० । २. त्यायतिः-अ० । त्यर्थं इति मु० । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ विजयोदया टोका 'जह बालों जपंतो' यथा बालो जल्पन । 'कज्जमकज्जं व कार्यमकायं वा । 'भणदि' वदति । 'उज्जगं' ऋजुना क्रमेण । 'तह' तथा । 'आलोचदव्वं' वक्तव्योऽपराधः । 'मायामोसं च मोत्तूण' मनोगतां वक्रता, वचनगतां, मृषां च मुक्त्वा ॥५४९।। उपसंहरति प्रस्तुतम् दसणणाणचरित्ते कादूणालोचणं सुपरिसुद्धं । णिस्सल्लो कदसुद्धी कमेण सल्लेहणं कुणसु ॥५५०॥ 'दसणणाणचरित्ते' दर्शनज्ञानचरित्रविषयां । 'आलोयणं कादूण' अपराधमभिधाय । 'सुपरिसुद्ध' 'णिसल्लो' मायाशल्यरहितः । 'कयसुद्धो' कृतगुरुनिरूपितप्रायश्चित्तः। 'कमेण सल्लेहणं कुणसु' क्रमेण सल्लेखनां कुरु ॥५५०॥ तो सो एवं भणिओ अब्भुज्जदमरणणिच्छिदमदीओ। सव्वंगजादहासो पीदीए पुलइदसरीरो ॥५५१॥ एवं शिक्षितोऽसौ क्षपकः 'तो' ततः । 'सो' आराधकः । ‘एवं भणिदो' एवं शिक्षितः सूरिणा । 'अब्भुज्जदमरणणिच्छिदमदीगों' अभ्युद्यते मरणे निश्चितबुद्धिः । 'सव्वंगजावहासो' सर्वांगजातहर्षः। 'पीदीए पुलगिदसरीरो' प्रीत्या पुलकितशरीरः ॥५५१।। पाचीणोदीचिमुहो चेदियहुत्तो व कुणदि एगते । आलोयणपत्तीयं काउस्सग्गं अणाबाधे ॥५५२॥ 'पाचीणोदीचिमुहो' प्राङ्मुखः उदङ्मुखः । 'चेदियहुत्तोव' चैत्याभिमुखो वा भूत्वा । 'कुणदि काउस्सग्गं' करोति कायोत्सर्ग 1 कोदृग्भूतं ? 'आलोयणपत्तीगं' आलोचनाप्रत्ययं आलोचनानिमित्तं । कायोत्सर्ग स्थित्वा दोषा यतः स्मर्यन्ते कथयितुं तस्मात्कायोत्सर्ग आलोचनाहेतुः । क्व तं करोति ? । 'एगते' एकान्ते जनरहित गा०-जैसे बालक बोलते हुए कार्य हो या अकार्य हो, सरलभावसे ही कहता है कुछ छिपाता नहीं है। वैसे ही साधुको भी मनोगत कुटिलता और वचनगत झूठको त्यागकर अपना अपराध कहना चाहिए ॥५४९।। प्रस्तुत चर्याका उपसंहार करते हैं गा०-अतः दर्शन ज्ञान और चारित्रसम्बन्धी अपने अपराधोंको कहकर, मायाशल्यसे रहित होकर, गुरुके द्वारा कहा गया प्रायश्चित्त करके क्रमसे सल्लेखना करो ।।५५०॥ गा०-इस प्रकार गुरुके द्वारा शिक्षित किया गया वह क्षपक समाधिमरण करनेका निश्चय करता है। उसके सव अंगोंमें हर्षकी लहर दौड़ती है और प्रीतिसे शरीर रोमांचित हो जाता है ।।५५१॥ गा०-टी०-वह पूरब, उत्तर या जिनबिम्बकी ओर मुख करके जनरहित एकान्त प्रदेशमें जहाँ किसी प्रकारकी बाधाकी सम्भावना नहीं है ऐसे जनरहित एकान्तमें स्थानमें आलोचनाके निमित्त कायोत्सर्ग करता है। यतः कायोत्सर्गसे खड़े होनेपर गुरुसे कहनेके लिए दोषोंका स्मरण Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ भगवती आराधना देशे । 'अणाबाघे' अमार्गे बहुजनमध्ये एकमुखं न भवति चित्तं । मार्ग स्थितः परकार्यव्याघातकृद्भवति इति मत्वा एकान्ते । अमार्गश्च कायोत्सर्गदेश आख्यातः ॥५५२।। कायोत्सर्ग किमर्थं करोति आलोचयितुकामः इत्याशङ्कायां कायोत्सर्गस्य उपयोगमाचष्टे- . एवं ख वोसरिता देहे वि उवेदि णिम्ममत्तं सो। णिम्ममदा णिस्संगो णिस्सल्लो जाइ एयत्तं ॥५५३।। ‘एवं खु' इत्यादिना । एवमित्यनन्तरसूत्रनिर्दिष्टक्रमेण । प्राङ्मुख उदङ्मुखश्चैत्याभिमुखो वा । एकान्ते मार्गे । वोसरित्ता त्यक्त्वा कि ? न हि त्याज्यमन्तरेण त्यागो युज्यते । देहमिति चेत् 'देहे वि उर्वदि णिम्ममत्तं सो' इति न घटते निर्ममतैव ननु त्यागः । भिन्नयोः पूर्वापरकालविषययोः क्रिययोर्यत्र एकः कर्ता तत्र पूर्वकालक्रियावचनात् क्त्वा विधीयते । अत्रोच्यते वचसा त्यागः 'वोसरित्ता' इत्यनेन उच्यते । मनसा ममायं न भवति देह इति त्याग पश्चात्तन्यते । तेन वाङ्मनःकरणभेदात्यागो भिद्यते । 'णिम्ममदा णिस्संगो' निर्ममतया निस्संगो निष्परिग्रहः । "णिस्सल्लो' निःपरिग्रहत्वादेव निःशल्यः । 'एकत्तं जादि' एकत्वभावनां प्रतिपद्यते ॥५५३।। होता है अतः कायोत्सर्ग आलोचनाका कारण है । बहुतसे लोगोंके मध्यमें चित्त एकाग्र नहीं होता तथा रास्तेमें खड़े होकर कायोत्सर्ग करनेसे दूसरोके कार्य में बाधा आती है। ऐसा मानकर कायोत्सर्गका स्थान एकान्त और मार्गरहित कहा है ।।५५२॥ ___ आलोचना करनेवाला कायोत्सर्ग क्यों करता है ऐसी शंका होनेपर कायोत्सर्गका उपयोग कहते हैं गा०-टो०-इस प्रकार आलोचनाके लिए एकान्त स्थानमें पूरबके सन्मुख अथवा उत्तरके सन्मुख अथवा जिनबिम्बके सन्मुख होकर 'मैं शरीरका त्याग करता हूँ' इस प्रकार वचनसे त्याग करके 'यह शरीर मेरा नहीं है। इस प्रकार मनसे त्याग करता है। अतः वचन और मनके भेदसे त्यागके दो भेद होते हैं। इस प्रकारसे शरीर ममत्व त्यागकर निर्ममत्वको प्राप्त होता है और निर्ममत्वको प्राप्त होनेसे बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहसे रहित होता है। परिग्रह रहित होनेसे ही निःशल्य होकर एकत्वभावनाको प्राप्त होता है। ___ शङ्का-'त्याज्यके विना त्याग नहीं होता। यदि देहका त्याग करता है तो देह में भी निर्ममत्व होता है' यह कथन नहीं घटता। क्योंकि शरीरमें निर्ममत्व ही शरीरका त्याग है। आगे पीछे होनेवाली दो भिन्न क्रियाओंका कर्ता जहाँ एक ही होता है वहाँ पूर्वकालको क्रियासे 'क्त्वा' (करके) प्रत्यय किया जाता है। शंकाकारका अभिप्राय यह है कि गाथामें कहा है कि देहका त्याग करके देहमें निर्ममत्व होता है। किन्तु देहका त्याग और देहमें निर्ममत्व यह भिन्न कार्य नहीं हैं निर्ममत्व ही त्याग है । अतः देहका त्याग करके देहमें निर्ममत्व होता है ऐसा कहना ठीक नहीं है। समाधान-'वोसरित्ता' शब्दसे वचनसे त्याग कहा है। उसके पश्चात् ही 'यह शरीर मेरा नहीं है' इस प्रकार मनसे त्याग होता है। अतः वचन और मनके भेदसे त्यागमें भेद होनेसे उक्त कथन घटित होता है । १. बनायां प्र-अ०। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ३९२ तो एयत्तमुवगदो सरेदि सव्वे कदे सगे दोसे । आयरियपादमूले उप्पाडिस्सामि सल्लत्ति ॥५५४॥ 'एगत्तमुवगदो' एकत्वभावनामुपगतः । निरतिचारज्ञानदर्शनचारित्राण्येवाहं । शरीरमिदमन्यदनुपकारि मम दुःखनिमित्तत्वात्, तद्विनाशे मम किं विनश्यति, क्रशयितव्योऽयमरातिरिति मन्यमानः, प्रायश्चित्ताचरणे न खिद्यते । मायां च कर्मोदयनिमित्तां हातु ईहतो मम शुद्धरूपस्येयमशुद्धिरिति । 'तो' ततः । 'सरेवि' स्मरति । 'सवे' सर्वेषां । 'कदे' कृतानां । 'सगे' स्वकानां । 'दोसे' दोषाणां। किमर्थ स्मरति ? 'आयरियपादमले' आचार्यपादमूले । 'उप्पाडिस्सामि' उत्पाटयिप्यामि । 'सल्लंति' दर्शनातिचारमिति ॥५५४|| स्मृत्वा किं करोति पश्चादित्याशङ्कायामित्याचष्टे इय उजुभावमुपगदो सव्वे दोसे सरित्तु तिक्खुत्तो । लेस्साहिं विसुझंतो उवेदि सल्लं समुद्धरिदु ॥५५५।। 'इय' एवं । 'उजुभावं उवगदो' ऋजुभावं उपगतः । 'सवे दोसे' सर्वेषां दोषाणां । 'तिक्खुत्तो सरित्तु' त्रिःस्मृत्वा । 'लेस्साहिं विसुझंतो' लेश्याभिविशुद्धाभिविशुद्धयन् । 'उवेदि' ढोकते आचार्य । 'सल्लं' शल्यं । 'समुद्धरितुं' सम्यगुद्धत्तु ॥५५५॥ आलोयणादिया पुण होइ पसत्थे य सुद्धभावस्स । पुव्वण्हे अवरण्हे व सोमतिहिरिक्खवेलाए ॥५५६॥ 'आलोयणादिका' आलोचनप्रतिक्रमणादिकाः क्रियाः । अथवा 'आलोयणं' आलोचना । 'दिया' दिवसे । 'पुण' पश्चात् । 'होई' भवति । क्व ? 'पसत्थे' प्रशस्ते क्षेत्रे । अनेन क्षेत्रशुद्धिरुक्ता । विसुद्धभावस्स विशुद्धि विशेषार्थ-इस समय मैं आलोचना करता हूँ। मेरे सम्यक्त्व आदिमें कोई भी दोष नहीं है। इस प्रकार दोषकी शंकासे मुक्त होकर मैं एक असहाय अथवा नित्य हूँ। यह शरीर मुझसे भिन्न है । दुःखका कारण होनेसे मेरा उपकारी नहीं है । मैं तो निरतिचार रत्नत्रयस्वरूप ही हूँ। अतः देहके नाशसे मेरा कुछ भी नष्ट नहीं होता। मैं तो शुद्ध चिद्रूप हूँ। इस प्रकार एकत्व भावनामय होता है ।।५५३।। गा०-टो०-एकत्व भावनामय होकर प्रायश्चित्तका आचरण करने में खिन्न नहीं होता। कर्मके उदयके निमित्तसे होनेवाली मायाको छोड़नेमें तत्पर होता है। मैं शुद्धस्वरूप हूँ। मेरी यह माया अशुद्धि है ऐसा मानता है। अतः यह सम्यग्दर्शनका अतिचार है । मैं आचार्यके पादमूलमें अपने दोषोंको जड़मूलसे दूर करूँगा, इस भावनासे अपने द्वारा किये गये सव दोषोंको स्मरण करता है ।।५५४॥ दोषोंके स्मरण करनेके पश्चात् क्या करता है यह कहते हैं- गा०-इस प्रकार सरलभावको प्राप्त हुआ क्षपक सम्पूर्ण दोषोंको तीन बार स्मरण करके लेश्याओंसे विशुद्ध होता हुआ शल्योंको दूर करनेके लिए आचार्यके पास जाता है ॥५५५॥ गा०—आलोचना प्रतिक्रमण आदि क्रिया विशुद्ध परिणामवाले क्षपकके प्रशस्त क्षेत्रमें Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४००. भगवती आराधना परिणामस्य भावशुद्धिरनेन कथिता । 'पुग्वण्हे' पूर्वाह्न । 'अवरण्हे व' अपराह्न वा । 'सोमतिहिरिक्खवेलाए' सौम्ये दिने, नक्षत्रे, वेलायां च ॥५५६।। एवमादिषु अप्रशस्तेषु देशेषु आलोचनां न प्रतीच्छेत् इति आचार्यशिक्षापरं वचनं णिप्पत्तकंटइल्लं विज्जुहदं सुक्खरुक्खकडुदढं । सुण्णधररुद्ददेउलपत्थररासिट्टियापुंज ॥५५७।। "णिप्पत्तकंटइल्लं' निष्पत्रं कण्टकाकुलं । 'विज्जुहदं' 'अशनिनाहतं । 'सुक्खरुक्खकडुदंड्ढे' शुष्कवृक्षं, कटुकरसं, 'दड्ढे' दग्धं । 'सुण्णधररुद्ददेउलपत्थररासिट्टियापुंज' शून्यं गृहं, रुद्रदेवकुलं, पाषाणराशि, इष्टकापुजं ॥५५७॥ तणपत्तकट्टछारिय असुइ सुसाणं च भग्गपडिदं वा । रुदाणं खुदाणं अधिउत्ताणं च ठाणाणि ॥५५८॥ 'तणपत्तकठ्ठछारिय असुइसुसाणं च' तृणवत्पत्रवत्काष्ठवत् यत्स्थानं । 'अशुचिसुसाणं वा' अशुचिश्मशानं वा । भग्नानि पतितानि वा भाजनानि गृहाणि वा यस्मिन् स्थाने तद्भग्नपतितं । 'अधिउत्ताणं व ठाणाणि' देवतानां स्थानानि । कीदृशीनां ? ‘रुद्दाणं' रौद्राणां । 'खुदाणं' क्षुद्राणां स्वल्पकानां ।।५५८।। अण्णं व एवमादी य अप्पसत्थं हवेज्ज जं ठाणं । आलोचणं ण पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं ॥५५९॥ 'अण्णं व अन्यद्वा स्थानं एवमादिकं । 'अप्पसत्थं' अप्रशस्तं । 'हवेज्ज' भवेत् । 'जं ठाणं' यत्स्थानं । 'तत्थ' तस्मिन्स्थाने । 'आलोयणं ण पडिच्छदि' आलोचनां न प्रतीच्छति । 'गणी' गणधरः । किमर्थं ? 'से' तस्य क्षपकस्य । 'अविग्घत्थं' अविघ्नार्थं । एतेष्वालोचनायां कृतायां प्रारब्धकार्यसिद्धिर्न भवतीति मत्वा ॥५५९॥ पूर्वाह्न अथवा अपराह्नकालमें शुभदिन, शुभनक्षत्र और शुभवेलामें होती है। यहाँ प्रशस्त क्षेत्रसे क्षेत्रशुद्धि कही है। विशुद्धपरिणामसे भावशुद्धि कही है तथा शुभदिन आदिसे कालशुद्धि कही है ॥५५६।। आगे आचार्य शिक्षा देते हैं कि इस प्रकारके अप्रशस्त देशोंमें आलोचना नहीं करनी चाहिए गा०-जहाँ वृक्ष पत्ररहित हों, कण्टक भरे हों, वज्रपात हुआ हो, सूखे वृक्ष हों, कटुक रसवाले हों, दावानलसे जल गये हों तथा शन्य घर, रुद्रदेवका मन्दिर, पत्थरों और ईंटोंका ढेर हो ॥५५७॥ गा०-तृण, पत्र और काष्टसे भरा स्थान, स्मशान, जहाँ टूटे पात्र और खण्डहर हों, चामुण्डा आदि रौद्र देवताओंका स्थान, नीचजनोंका स्थान ।।५५८॥ गा०-अन्य भी जो इस प्रकारके अप्रशस्त स्थान हों, वहाँ आचार्य उस क्षपककी निर्विघ्नताके लिए आलोचना नहीं कराते, क्योंकि इन स्थानोंमें आलोचना करनेपर प्रारब्ध कार्यकी सिद्धि नहीं होती ऐसा वे मानते हैं ॥५५९।। १. अशनेनाहतं अ०। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४०१ क्व तहि आलोचनां प्रतीच्छतीत्यत्राह अरहंतसिद्धसागरपउमसरं खीरपुप्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्खघरं ॥५६०॥ 'अरहंतसिद्धसागरपउमसरं' अर्हद्भिः सिद्धश्च साहचर्यात्स्थानं अर्हत्सिद्धशब्दाम्यामिह गृहीतं । अर्हत्सिद्धप्रतिमासाहचर्याद्वा । सागरादिसमीपं स्थानं सामीप्यात्सागरादिशब्देनोच्यते । 'खीरपुफ्फफलभरिदं' क्षीरपुष्पफलभरिततरुसामीप्यात् स्थानं क्षीरपुष्पफलभरितमित्युच्यते । 'उज्जाणभवणतोरणपासाद' उद्यानभवनं, तोरणं, प्रासादः । 'गागजक्खधरं' नागानां यक्षाणां च गृहं ॥५६०॥ अण्णं च एवमादिय सुपसत्थं हवइ जं ठाणं । आलोयणं पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं ॥५६१॥ सूरिरेवं स्थित्वा आलोचनां प्रतिगृह्णातीति कथयति पाचीणोदीचिमुहो आयदणमुहो व सुहणिसण्णो हु । आलोयणं पडिच्छदि एको एकस्स विरहम्मि ।।५६२॥ 'पाचीणोदोचिमुहो आयदणमहो व' । प्राङ्मुखः उदड्मुखः । आयतनशब्दः स्थानसामान्यवचनोऽपि जिनप्रतिमास्थानवाच्यत्र गृहीतस्तेन जिनायतनाभिमुखो वा । 'सुहणिसण्णो हु' सुखेनासीनः । 'आलोयणं' आलोचनां । 'पडिच्छवि' शृणोति । 'एक्को' एक एव सूरिरेकस्यैवालोचनां । 'विरहम्मि' एकान्ते । तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मेरुदयदिगिति उदयार्थी तद्वदस्मत्कार्याम्युदयो यथा स्यादिति लोकः प्राङ्मुखो भवति । सूरेस्तु तब कहाँ आलोचना स्वीकार करते हैं । यह कहते हैं गा०-टी०-यहाँ अरहंत और सिद्ध शब्दसे अर्हन्तों और सिद्धोंके साहचर्यसे युक्त अथवा अर्हन्त और सिद्धोंकी प्रतिमाके साहचर्यसे युक्त स्थान लिया गया है । सागर आदि शब्दसे सागर आदिके समीपका स्थान लिया गया है । क्षीर, पुष्प और फलोंसे भरे वृक्षोंके समीप होनेसे स्थानको 'क्षीर पुष्पफल भरित' कहा है । अतः अरहंतका मन्दिर, सिद्धोंका मन्दिर, समुद्रके समीप, कमलोंके सरोवरके समीप, या जहाँ दूध वाले वृक्ष हों, पुष्पफलोंसे भरे वृक्ष हों, उद्यानमें स्थित भवन हो, तोरण, प्रासाद, नागों और यक्षोंके स्थान ।।५६०॥ गा.-अन्य भी जो सुन्दर स्थान हों वहाँ आचार्य क्षपककी निर्विघ्न समाधिके लिए आलोचना स्वीकार करते हैं ।।५६१॥ आगे कहते हैं कि आचार्य इस प्रकार स्थित होकर आलोचना ग्रहण करते हैं गा०-पूरबकी ओर अथवा उत्तरको ओर अथवा जिनमन्दिरकी ओर मुख. करके सुखपूर्वक बैठकर आचार्य एकान्त स्थानमें अकेले ही एक ही क्षपककी आलोचना सुनते हैं। टो०-गाथामें आया आयतन शब्द यद्यपि स्थान सामान्यका वाची है फिर भी यहाँ जिन प्रतिमाके स्थानका वाची ग्रहण किया है। शङ्का-पूरब दिशा अन्धकारको दूर करने में तत्पर सूर्यके उदयकी दिशा है इसलिए अपने उदयका इच्छुक व्यक्ति उसीकी तरह हमारे कार्यका अभ्युदय हो इसलिए पूरबकी ओर मुख Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ भगवती आराधना कोऽभिप्रायो येन प्राङ्खो भवति । प्रारब्धपरानुग्रहणकार्यसिद्धरङ्गं तद्दिगभिमुखता तिथिवारादिवदिति । उदङ्मुखता तु स्वयंप्रभादितीर्थकृतो विदेहस्थान् चेतसि कृत्वा तदभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति । चैत्यायतनाभिमुखतापि शुभपरिणामतया कार्यसिद्धरङ्गं । निर्व्याकुलमासीनस्य यत् श्रवणं तदालोचयितुः सम्माननं । यथा कथंचिच्छवणे मयि अनादरो गुरोरिति नोत्साहः परस्य स्यात् । एक एव शृणुयात्सूरिर्लज्जापरो बहूनां मध्ये नात्मदोष प्रकटयितमीहते । चित्तखेदश्चास्य भवति, तथा कथयतः एकस्यैवालोचनां शृणयात दुरवधारत्वायुगपदनेकवचनसंदर्भस्य । तद्दोषनिग्रहं नायं वराकः 'पडिच्छदि' । प्रतीच्छति इत्यनेनैवाव गतत्वाद्विरहम्मि इति वचनं निरर्थकं । यद्यन्येऽपि तत्र स्युन एकेनैव श्रुतं स्यात । न लज्जत्ययमस्य अपराधश्चास्य अनेनावगत एवेति नान्यस्य सकाशे शृणुयात् इति एतत्सूच्यते । 'विरहम्मि' एकान्ते इति आचार्य शिक्षति ॥५६२॥ शिष्यस्य आलोचनाक्रममाचष्टे- . काऊण य किरियम्म पडिलेहणमंजलीकरणसुद्धो । आलोएदि सुविहिदो सब्वे दोसे पमोत्तूण ॥५६३॥ 'काऊण य किदिकम्म' कृतिकर्म वन्दनां पूर्व कृत्वा । 'पडिलेहणमंजलीकरणसुद्धो' प्रतिलेखनासहितः करता है। आचार्य किस अभिप्रायसे पूरबकी ओर मुख करके बैठते हैं ? समाधान-शुभ तिथि वार आदिकी तरह पूरबकी ओर मुख करना, प्रारम्भ किए गये क्षपक पर अनुग्रह करनेके कार्यकी सिद्धिका अंग है इसलिए आचार्य पूर्वाभिमुख बैठते हैं। विदेह क्षेत्र उत्तर दिशामें हैं। अतः विदेह क्षेत्रमें स्थित स्वयंप्रभ आदि तीर्थ करोंको चित्तमें स्थापित करके उनके अभिमुख होनेसे कार्यकी सिद्धि होती है इस भावनासे उत्तर दिशाकी ओर मुख करते हैं। जिनालयके अभिमुख होना भी शुभ परिणामरूप होनेसे कार्यसिद्धिका अंग है । व्याकुलता रहित हो बैठकर सुनना आलोचना करने वालेका सन्मान है । जिस किसी प्रकारसे सुननेपर क्षपक समझेगा कि गुरुका मेरे प्रति आदरभाव नहीं है, इससे उसे उत्साह नहीं होगा। आचार्यको अकेले ही सुनना चाहिए क्योंकि लज्जालु क्षपक बहुत जनोंके बीचमें अपना दोष प्रकट करना नहीं पसन्द करता। सबके सामने कहते हुए उसके चित्तको खेद भी होता है। आचार्यको एक समयमें एककी ही आलोचना सुनना चाहिए क्योंकि एक साथ अनेक क्षपकोंके वचनोंको अवधारण करना कठिन होता है । लोग कहेंगे कि गुरु इसके दोषोंका निग्रह करना नहीं चाहता। ___शंका-उक्त कथनसे ही यह ज्ञात हो जाता है कि गुरु एकाकी आलोचना सुनते हैं। फिर गाथामें 'विरहम्मि' वचन निरर्थक है ? समाधान-विरहम्मि' या 'एकान्तमें' पदसे यह सूचित किया है यदि अन्य भी वहाँ हों तो वह एकके द्वारा ही सुना गया नहीं होगा। सुनने वाले कहेंगे कि यह लज्जित नहीं होता। इसने इसका अपराध जान ही लिया। अतः अन्यके पास होते हुए आचार्यको आलोचना नहीं सुनना चाहिए ॥५६२॥ क्षपककी आलोचनाका क्रम कहते हैं - १. व गत-आ० मु०।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४०३ प्राञ्जलीकरणशुद्धः । 'आलोएदि' कथयति । 'सुविहिदो' सुचारित्रः । 'सम्वे दोसे' पूर्वदोषान् । 'पमोत्तूण' त्यक्त्वा । आलोचना ॥५६३।। आलोचनाक्रमं निरूप्य गुणदोसा इत्येतद्वचाख्यानायोत्तरप्रबन्धः आकपिय अणुमाणिय जं दिटुं बादरं च सुहुमं च । छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥५६४॥ 'आकंपिय' अनुकम्पामात्मनि सम्पाद्य आलोचना । 'अणुमाणिय' गुरोरभिप्रायमुपायेन ज्ञात्वालोचना। 'जं दिटुं' यद् दृष्टं दोषजातं परस्तस्यालोचना । 'बादरं च यत्स्थूलमतिचारजातं तस्यालोचना । 'सुहमं च' यत्सूक्ष्ममतिचारजातं तस्यालोचना । 'छण्णं' प्रच्छन्नं अदृष्टलोचना । 'सद्दाउलयं' शब्दा आकुला यस्यां आलोचनायां सा शब्दाकुला। बहजनशब्दः सामान्यविषयोऽपीह गुरुजनबाहल्ये वर्तते । गुरोरालोचनायाः प्रस्तुतत्वाद्बहूनां गुरूणां आलोचना क्रियते सा बहुजनशब्देनोच्यते । 'अन्वत्ता' अव्यक्तस्य क्रियमाणा आलोचना । 'तस्सेवी' तानात्मचरितान्दोषान्यः सेवते स तत्सेवी तस्य आलोचना । इदं सूत्रं । अस्य व्याख्यानायोत्तरप्रवन्धः ॥५६४॥ आकम्पिय इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे भत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण । अणुकंपेऊण गणिं करेइ आलोयणं कोइ ।।५६५।। 'भत्तण व पाणेण व' स्वयं भिक्षालब्धिसमन्वितत्वात्प्रवर्तको भूत्वा आचार्यस्य प्रासुकेन उद्गमादिदोष गा०-सुविहित अर्थात् सुचारित्र सम्पन्न क्षपक दक्षिण पार्श्वमें पीछीके साथ हाथोंकी अंजलिको मस्तकसे लगाकर मन वचन कायकी शुद्धि पूर्वक प्रथम गुरुकी वन्दना करके सब दोषोंको त्याग आलोचना करता है ।।५६३।। विशेषार्थ-पं० आशाधरजोने अपनी टीकामें लिखा है कि गुरुकी वन्दना सिद्धभक्ति और योगभक्तिपूर्वक की जाती है ऐसा वृद्धोंका मत है। किन्तु श्रीचन्द्राचार्य सिद्ध भक्ति, चारित्रभक्ति और शान्तिभक्ति पूर्वक कहते हैं ।।५६३॥ - आलोचनाका क्रम कहकर उसके गुण-दोष कहते हैं- ... गा०-ट्री०-१. आकम्पित-अपने पर गुरुकी कृपा प्राप्त करके आलोचना करना। २. अनुमानित-उपायसे गुरुका अभिप्राय जानकर आलोचना करना । ३. दूसरोंने जो दोष देखा उसकी आलोचना करना । ४. बादर-स्थूल अतिचारकी आलोचना करना । ५. सूक्ष्म अतिचारकी आलोचना करना। ६. छन्न-कोई न देखे इस प्रकार आलोचना करना । ७. शब्दाकुलित-शब्दोंकी भरमार होते समय आलोचना करना । ८. बहुजन शब्द सामान्य वाची होते हुए भी यहाँ गुरुजनोंकी बहुलतामें लिया गया है। गुरुसे आलोचना करनेका प्रकरण होनेसे बहुतसे गुरुओंसे आलोचना करना बहुजन है। ९. अव्यक्तसे आलोचना करना। १०. तत्सेवी-जो अपने समान दोषोंका भागी है उससे आलोचना करना । इसका व्याख्यान आगे करेंगे ।।५६४।। आकम्पित दोषको कहते हैंगा०–स्वयं भिक्षालब्धिसे युक्त होनेके कारण प्रवर्तक होकर आचार्यको उद्गम आदि Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ भगवती आराधना रहितेन भक्तेन वा पानेन वा वैयावृत्यं कृत्वा, उपकरणेण कमण्डलुपिच्छादिना । 'किदिकम्मकरणेन' कृतिकर्मवन्दनया वा । 'आकंपेदूण' अनुकम्पामुत्पाद्य । 'गणि' आचार्य ! 'कोइ आलोयणं करेइ' कश्चित्स्वापराध कथयति ॥५६५॥ तस्यालोचयतो मनोव्यापारं दर्शयति आलोइदं असेसं होहिदि काहिदि अणुग्ग'हमेत्ति । इय आलोचंतस्स हु पढमो आलोयणादोसो ॥५६६।। 'आलोइवं असेसं होहिवि' निरवशेषं आलोचितं भविष्यति । 'काहिवि' करिष्यति । 'अणुहं इमोति' अनुग्रहं ममेति । भक्तादिदानेन कृतोपकारस्य मम तुष्टो गुरुर्न महत्प्रायश्चित्तं प्रयच्छति । अपि तु स्वल्पमेव । महत्प्रायश्चित्तदानभयाभावात्स्थूलं सूक्ष्म वातिचारं सर्वं कथयामीति । 'इय' एवं । 'आलोचेंतस्स खु' एवं मनसि कृत्वा आलोचयतः । 'पढमो' प्रथमः । 'आलोयणा दोसो' आलोचनादोषः । कोऽसौ ? अविनयो नाम । यत्किचिल्लब्ध्वा गुरवस्तुष्यन्ति लघुप्रायश्चित्तदायिनो भविष्यन्तीति स्वबुद्धया असदोषाध्यारोपणान्मानसोऽविनयः । अन्ये तु वर्णयन्ति आलोचना च दोषश्च आलोचनादोषः । अशभाभिसन्धिपुरःसरा आलोचना इति यावत् ॥५६६॥ दृष्टान्तमुखेन दुष्टतामालोचनाया दर्शयति केदूण विसं पुरिसो पिएज्ज जह कोइ जीविदत्थीओ। ___ मण्णंतो हिदमहिदं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥५६७।। - 'केदूण विसं पुरिसों' इत्यादिना । 'जह कोइ पुरिसो जीविवत्थी विसं केदूण पिबेज' इति सम्बन्धः । यथा कश्चित्पुरुषो जीवितार्थी विषं कृत्वा पिबति । 'अहिवं' अहितं कृत्वा । विषपानं 'हिवं मण्णंतो' हितमिति दोषोंसे रहित प्रासुक भवतसे अथवा पानसे अथवा कमंडलु पीछी आदि उपकरणसे अथवा कृतिकर्म वन्दनासे वैयावृत्य करके अपने पर आचार्यकी कृपा उत्पन्न करके कोई साधु अपना अपराध कहता है ॥५६५॥ उसके आलोचना करते समय मनकी प्रवृत्ति दिखलाते हैं गा०-टी०-भोजन आदिके दानके द्वारा उपकार करनेसे मुझपर प्रसन्न होकर गुरु महान् प्रायश्चित्त नहीं देंगे, बल्कि थोड़ा ही देंगे । अतः महान् प्रायश्चित्तका भय न होनेसे मैं स्थूल और सूक्ष्म सब अतिचार कहूँगा। इस प्रकार मनमें विचार कर आलोचना करने वालेके अविनय नामक प्रथम आलोचना दोष होता है। जो कुछ प्राप्त करके गुरु प्रसन्न होंगे और वे लघु प्रायश्चित्त देंगे ऐसा अपनी बुद्धिसे असत् दोषका अध्यारोपण करना मानसिक अविनय है। अन्य टाकाकार कहते हैं-आलोचना और दोष आलोचना दोष है। अशुभ अभिप्रायपूर्वक आलोचना दोष है ॥५६६॥ दृष्टान्त द्वारा आलोचनाकी दुष्टता दिखलाते हैंगा०-टी०-जैसे कोई जीनेका अभिलाषी पुरुष विष खरीद कर पीता है वह अहित करके १. अणुग्गह ममेत्ति आ० । अणुग्गह मिमोत्ति-मु० मूलारा० । २. चना द्रष्टात्मालोचनादपिआ० मु०। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ४०५ मन्यमानः । 'तधिमा' तथा इयं । 'सल्लुद्धरणशोधी' मायाशल्योद्धरणशुद्धिः । सामान्यवचनोऽपि शल्यशब्दोऽत्र मायाशल्ये वृत्तः । तस्य उद्धरणं नाम स्वकृतापराधकथनं । आलोचनाशल्योद्धरणमेव शुद्धिरुच्यते ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां नर्मल्यहेतुत्वात् । जीवितार्थिनः हितबुद्धया 'गृहीताक्रीतविषपानं उपमानं तद्वतीयमालोचना । भक्तपानादिदानेन वन्दनया वा क्रीत्वा गुरुं स्वबुद्ध्या क्रियमाणा न शुद्धि सम्पादयति विषपानमिव जीवित क्रयणलब्धा च दुष्टता उपमानोपमेययोः साधारणो धर्मस्तथाप्यपमानमपमेयं तयोश्च साधारणं धर्ममाश्रित्य सर्वत्रोपमानोपमेयता। चन्द्रमुखी कन्या इत्यादौ चन्द्र उपमानं, उपमेयं मुखं, वृत्तता सर्वजनमनोवल्लभता च साधारणो धर्मः ।।५६७।। उपमानान्तरेणापि उपमेयं आलोचनां प्रथयति वण्णरसगंधजुत्तं किंपाकफलं जहा दुहविवागं । पच्छा णिच्छयकडुयं तधिमा सल्लुद्धरणसोघी ॥५६८।। वण्णरस इत्यादि । "किपाकफलं वष्णरसगंधजुत्तमवि जहा दुहविवागं' । किंपाकास्यस्य तरोः फलं । वर्णादिशून्यस्य तरोः फलस्याभावादवचनसिद्धवर्णादियुक्तवचनमतिशयितवर्णादिपरिग्रहं सूचयति । तेनायमर्थः-नयनप्रियरूपं, मधुरसयुक्तं, घ्राणसुखदं सेवितमिति वाक्यशेषः । 'दुहविपाकं' दुःखविपाकं । 'पच्छा' अनुभवोत्तरकालं । 'णिच्छयकडुगं' निश्चयेन कटुकं । 'तधिमा' तं यथा । 'सल्लुद्धरणसोधी' आलोचनाशुद्धिः विषपानको हित मानता है । वैसा ही यह माया शल्यको निकालकर शुद्धिका अभिलाषी साधु है। यद्यपि यहाँ शल्य शब्द सामान्य शल्यका वाची है फिर भी यहाँ मायाशल्यका वाचक लिया है। उसका उद्धरण अर्थात् अपने किये अपराधको कहना। शल्यका उद्धरण ही शुद्धि कहा जाता है क्योंकि वह ज्ञान दर्शन और चारित्र तपकी निर्मलतामें कारण है । जोनेके अभिलाषीने हितबुद्धिसे ग्रहण किया खरीदे हुए विषका पान उपमान है। उसीके समान यह आलोचना है । भक्त पान आदि देकर या वन्दनाके द्वारा गुरुको खरीदकर अपनी बुद्धिसे की गई आलोचना शुद्धि नहीं करती जैसे विषपान जीवन नहीं देता। खरीदकर प्राप्त करना और दुष्टता उपमान और उपमेयका साधारण धर्म है। उपमान उपमेय और उन दोषोंमें पाये जाने वाले साधारण धर्मको लेकर सर्वत्र उपमान उपमेय व्यवहार होता है। जैसे 'चन्द्रमुखी कन्या' आदिमें चन्द्र उपमान है मुख उपमेय है । और गोलपना तथा सब लोगोंके मनको प्रिय होना दोनोंका साधारण धर्म है ।।५६७|| अन्य उपमानके द्वारा उपमेय आलोचनाको कहते हैं गा०-दी-किपाक नामक वृक्षका फल वर्णरसगन्धसे युक्त होनेपर भी जैसे परिणाममें दुःख देता है। वृक्षका फल वर्ण आदिसे शून्य नहीं होता अतः उसका रूपादिमान होना सिद्ध है। फिर भी जो उसे वर्णादियुक्त कहा है वह विशिष्टरूप रसगन्ध आदिका सूचक है। अतः यह अर्थ होता है-किपाक वृक्षका फल नेत्रोंको अत्यन्त प्रियरूपवाला होता है। मधुररससे युक्तः होता है और नाकको सुखदायक होता है। परन्तु सेवन करनेपर दुःखकारी होता है उसे खानेसे मृत्यु हो जाती है। अतः सेवन करनेके पश्चात् निश्चयसे कटुक होता है। यह आलोचना शुद्धि १. गृहीता अहिता त्रीत-अ० मु०। २. जीवितविक्रयण लब्धं पानं दु-आ० मु० । १. स्याभावादवचन-आ। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधनां किंपाकफलोपसेवा उपमानं, उपमेयं आलोचना, दुःखविपाकता साधारणो धर्मः ॥५६८।। किमिरागकंबलस्स व सोधी जदुरागवत्थसोधीव । अवि सा हवेज्ज किहइ ण इमा सल्लुद्धरणसोधी ।।५६९।। "किमिरागकंबलस्स व' कृमिभुक्ताहारवर्णतन्तुभिरूतः कंवलः कृमिरागकंबलः । 'तस्स सोधी' विशुद्धिरिव पीतनीलरक्तादीनां अन्यतमवर्णस्य शुक्लतेव । 'जदुरागवच्छसोधीव' जतुवर्णवस्त्रशुद्धिरिव वा यथासौ क्लेशेन प्रवर्तमानापि न भवत्येवमियमपीति सधर्मता । 'अहवा' अथ वा । 'अपि सा' कृमिरागकम्बलशुद्धिर्जन्तुरागवस्त्रशुद्धिर्वा 'हवेज्ज' भवेत् । "इमा इयं सल्लुद्धरणसोधी मायाशल्योद्धरणशुद्धिर्न भवत्येव ॥५६९।। इति अणुकंपिय। द्वितीयमालोचनादोषमाचष्टे धीरपुरिसचिण्णाई पवददि अदिधम्मिओ व सव्वाइं । धण्णा ते भगवंता कुव्वंति तवं विकटुं जे ॥५७०।। धीरपुरिसचीण्णाई' धीरैः पुरुराचरितानि । 'पवदति' प्रवदति । 'अदिधम्मिगो व' अतीव धार्मिक इव । 'सव्वाई' सर्वाणि । 'धण्णा' धन्याः पुण्यवन्तः । 'ते भगवंता' माहात्म्यवन्तः। 'जे' ये । 'कुव्वंति' कुर्वन्ति । 'तवं' तपः । “विकट्ठ' उत्कृष्टं इति वदति ॥५७०॥ भी उसीके समान है। यहाँ किंपाकफलका सेवन उपमान है। आलोचना उपमेय है। परिणाममें दुःख होना दोनोंका साधारण धर्म है ।।५६८॥ गा०-टी०-कीड़ोंके द्वारा खाये गये आहारके रंगमें रंगे धागोंसे बने कम्बलको कृमिराग कम्बल कहते हैं। उसकी विशुद्धिकी तरह, जैसे पीला-नीला-लाल आदिमेंसे कोई एकवर्ण सफेद नहीं होता उसकी तरह कृमिराग कम्वलकी विशुद्धि नहीं होती । अथवा लाखके रंगमें रंगे वस्त्रकी शुद्धि बहुत प्रयत्न करनेपर भी नहीं होती। उसी तरह मायाशल्ययुक्त आलोचनासे भी शुद्धि नहीं होती। अथवा कृमिराग कम्बलकी शुद्धि और लाखके रंगमें रंगे वस्त्रकी शुद्धि हो भी जावे किन्तु यह मायाशल्यके निकलनेरूप शुद्धि नहीं होती ॥५६९|| विशेषार्थ-पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें कृमिराग कम्बलकी कई व्याख्या दी हैं एक तो उक्त संस्कृत टीका विजयोदया की है। दूसरी टिप्पन की है-कृमिके द्वारा त्यागे गये रक्त आहारसे रंजित तन्तुओंसे बना कम्बल कृमिरागकम्बल है। तीसरी व्याख्या प्राकृतटीका की है। उसमें कहा है-उत्तरापथमें चर्मरंग (?) म्लेच्छ देशमें म्लेच्छ जोकोंके द्वारा मनुष्यका रक्त लेकर वरतनोंमें रखते हैं। उस रक्तमें कुछ दिनोंमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं तब उससे धागोंको रंगकर कम्बल बुनते हैं। उसे कृमिरागकम्बल कहते हैं। वह अत्यन्त लाल रंगका होता है । आगमें जलानेपर भी वह कृमिराग नहीं जाता। दूसरे आलोचना दोषको कहते हैं गा०—आलोचना करनेवाला मुनि अत्यन्त धार्मिककी तरह कहता है-धीर पुरुषोंके द्वारा आचरित उत्कृष्ट तपको जो करते हैं वे धन्य हैं, माहात्म्यशाली हैं ॥५७०।। १. ण माया स-आ० । २. इण इयं । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ विजयोदया टीका थामापहारपासत्थदाए सुहसीलदाए देहेसु । वददि णिहीणो हु अहं जं ण समत्थो अणसणस्स ॥५७१॥ 'यामापहारपासत्यदाए' बलनिगृहनेन पार्श्वस्थतया च । 'सुहसीलदाए च' सुखशीलतया च । 'तदों ततः । 'सो' सः । 'वददि' कथयति । "णिहीणों' जघन्यः । 'अहं' अहकं । 'नं' यस्मात् । 'ण समत्यों' असमर्थोशक्तः । 'अणसणस्स' अनशनस्य ।।५७१॥ . जाणह य मज्झ थामं अंगाणं दुबलदा अणारोगं । णेव समत्थोमि अहं तवं विकटुं पि कादुजे ॥५७२॥ 'जाणह य' अस्मद्बलं युष्माभिरवसितमेव । 'अंगानं दुब्बलदा' उदराग्निदौर्बल्यं । 'अणारोग' रोगवत्तां च । 'अहं तवं विकळं कादु व समत्योमि' अहं तप उत्कृष्टं कर्तुं नैव समर्थोऽस्मि ॥५७२।। आलोचेमि य सव्वं जइ मे पच्छा अणुग्गहं कुणह । . तुज्झ सिरीए इच्छं सोधी जह णिच्छरेज्जामि ॥५७३॥ 'आलोचेमि य सव्वं' सर्वमतिचारजातं आलोचयामि । 'जदि पच्छा अणुग्गहं कुणह' मम यदि पश्चादनुग्रहः क्रियते भवद्भिः । 'तुज्झ सिरिए' भवतां श्रिया । 'इच्छं' इच्छामि । 'सोधी सुद्धि । 'णिच्छरेज्जामि' निस्तारयिष्याम्यात्मानं ॥५७३॥ अणुमाणेदूण गुरुं एवं आलोचणं तदो पच्छा। कुणइ ससल्लं सो से विदिओ आलोयणा दोसो ॥५७४॥ ‘एवं अणुमाणेदूण' एवं अनुमानेन ज्ञात्वा । गुरुः प्रार्थितः करिष्यति स्वल्पप्रायश्चित्तदानेन ममानुग्रहं इति । 'पच्छा आलोयणं कुणइ' पश्चादालोचनां करोति । 'ससल्लं' शल्यसहितः । 'सो' सः । 'से' तस्य । 'विदिओ द्वितीय 'आलोयणादोसो' आलोचनादोषः ।।५७४।। गुणकारि ओत्ति भुजइ जहा सुहत्थी अपच्छमाहारं । पच्छा विवायकडुगं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥५७५॥ गा०-अपनी शक्तिको छिपाने, पार्श्वस्थ मुनि होने तथा शरीरमें सुखशील होनेसे वह कहता है-मैं तो एक जघन्य प्राणी हूँ, उपवास करनेमें असमर्थ हूँ ।।५७१॥ गा०-आप मेरे बलको जानते ही हैं। यह भी जानते हैं कि मेरी उदराग्नि दुर्बल है, में रोगी हूँ । अतः मैं उत्कृष्ट तप करनेमें असमर्थ हूँ॥५७२॥ गा०-मैं समस्त अतिचारोंकी आलोचना करूं यदि आप उन्हें सुनकर मुझपर कृपा करें अर्थात् लघु प्रायश्चित्त दें। मैं आपकी कृपासे शुद्ध होना चाहता हूँ और शुद्ध होकर अपना निस्तार करूंगा ॥५७३॥ गा०-प्रार्थना करनेपर लघु प्रायश्चित्त देकर गुरु मेरेपर अनुग्रह करेंगे, ऐसा अनुमानसे जानकर पीछे वह शल्यसहित आलोचना करता है । यह दूसरा आलोचना दोष है ।।५७४॥ १. गहणिदोव्वलदंव-अ० । मूलाराध० । २. शल्य सहितं-आ० मुः ।। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ भगवती आराधना 'गुणकारिओत्ति भुजइ' गुणमुपकारं करोति इति भुङ्क्ते । 'जहा सुहत्यो' यथा सुखार्थी । 'अपच्छमाहारं' अपथ्यमाहारं । कीदृग्भूतं 'पच्छाविवागकडुगं' भोजनोत्तरकालं विपाककटुकं । 'तधिमा' तथा इमाः । 'सल्लुद्धरणसोधी' शल्योद्धरणशुद्धिः अपथ्यमाहारं स्वबुद्धया गुणकारीति संकल्प्य यदि नाम भुङ्क्ते तथापि विपाककटुक एवासी । एवं गुर्वभिप्रायानुमानेन 'प्रवृत्ता हितबुद्ध्या गृहीताप्यालोचना अनर्थावहेति । न हि संकल्पक्शाद्वस्तुनोन्यथाभावः । नापथ्यस्याहारस्य पथ्यतास्ति संकल्पमात्रेण ! अणुमाणिय ॥५७५।। जं होदि अण्णदिटुं तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि । अद्दिष्टुं गूहंतो माइल्लो होदि णायन्वो ॥५७६।। 'चं अणविद्वं होदि' यदन्यदृष्टं भवति अपराधजातं । 'तं आलोचेदि' कथयति । 'गुरुसयासंमि' गुरुसमीपे । 'अहिट्ट' परैरदृष्टं । 'गृहंतो' प्रच्छादयन् । 'माइल्लो इति णादवो होदि' मायावानिति ज्ञातव्यो भवति ॥५७६॥ दिटुं व अदिटुं वा जदि ण कहेइ परमेण विणएण । आयरियपायमूले तदिओ आलोयणादोसो ॥५७७॥ "विट्ठ व अदिट्ठ वा' परर्दृष्टमदृष्टं वापराधं । 'परमेण विणएण जदि ण कहेह' प्रकृष्टेन विनयेन यदि न कथयेत् । वव 'आयरियपादमूले' आचार्यपादमूले । 'तदिओ आलोयणादोसो' तृतीय आलोचनादोषः ॥५७७॥ जह वालुयाए अवडो पूरदि उक्कीरमाणओ चेव । तह कम्मादाणकरी इमा हु सल्लुद्धरणसुद्धी ।।५७८॥ __ 'जह बालुयाए' यथा वालुकाभिः । 'पूरदि' पूर्यते । 'अवडो' वालुकामध्यकृतो गर्तः । 'उक्कीरमाणगो चेव' उत्कीर्यमाणोऽपि सन् । 'तह कम्मादाणकरी' तथा कर्मग्रहणकारिणी । ‘इमा सल्लुद्धरणसोधी' इयमालो गा०-जैसे सुखका इच्छुक पुरुष अपथ्य भोजनको अपनी वुद्धिसे गुणकारी मानकर खाता है तथापि भोजन करनेके पश्चात् उसका परिपाक दुःखदायी होता है। उसीके समान यह अनुमानित दोषसहित शल्यको दूर करके शुद्धि करनेवाला है। अर्थात् अनुमानसे गुरुके अभिप्रायको जानकर हितबुद्धिसे की गई भी आलोचना अनर्थकारी होती है। संकल्पसे वस्तुका अन्यथाभाव नहीं होता । संकल्पमात्रसे अपथ्य आहार पथ्य नहीं हो सकता ॥५७५।। अनुमानित दोषका कथन हुआ। गा-जो अपराध दूसरे ने देख लिया है, गुरुके पासमें उसकी आलोचना करता है। और जो अपराध दूसरोंने नहीं देखा है उसे छिपाता है । वह मायावी है ऐसा जानना ॥५७६।।। गा०-दूसरेके द्वारा देखे गये अथवा न देखे गये, अपराधको यदि आचार्यके पादमूलमें अत्यन्त विनयपूर्वक नहीं कहता तो यह तीसरा आलोचना दोष है ॥५७७॥ गा-जैसे रेतके मध्यमें गढ़ा खोदने पर वह गढ़ा खोदते खोदते ही रेतसे भर जाता है, १. प्रवृतः आ०, प्रवृत्तो मु० । प्रवृत्तहित-मूला० । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४०९ चनाख्या शुद्धिः । मायाशल्य निराकरणार्थमालोचनायां प्रवृत्तोऽन्यया माययात्मानं प्रच्छादयति । यथा बालुकाविक्षेपो गर्तसंस्कारार्थो वालुकाभिरापूरयति गर्तमिति ॥ ५७८ ॥ बादरमालोचें तो जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो । सुमं पच्छादेतो जिणवयणपरंमुहो होइ ||५७९ ।। 'बादरमालोचतो' । अत्रैवं पदसम्बन्धः, ' जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो' यस्माद्यस्माद्व्रतात्प्रतिभग्नः । तत्र 'बादरं आलोचॅतो' स्थूलं कथयन् । 'सुहुमं पच्छादेतो' सूक्ष्मदोषं प्रच्छादयन् । 'जिणवयणपरं मुहो होइ' जिनवचनपराङ्मुखो भवति ।। ५७९ ।। सुमं व बादरं वा जइ ण कहेज्ज विणएण सुगुरूणं । आलोचणाए दोसो एसो हु चउत्थओ होदि ॥ ५८० ॥ स्थूलस्य सूक्ष्मस्य वातिचारजातस्थानालोचना चतुर्थो दोषः इति 'सुमं व' इत्यस्यार्थः ॥ ५८० ॥ जह कंसिय भिंगारो अंतो नीलमइलो बहिं चोक्खो । अंतो ससल्लदोसा तघिमा सल्लुद्धरणसोघी ॥ ५८१॥ बादरं ||४|| 'जह कंसिय भिंगारो' यथा कांस्यरचितो भृङ्गारः । 'अंतो' अभ्यन्तरे । 'गोलमइलो' नील: सन्मलिनः । 'बहि चोक्खो' बहिः शुद्धः । 'अंतो ससल्लदोसा' अन्तः सशल्यदोषा इमालोचना शुद्धिः ॥ ५८१ ॥ चंक्रमणे य ट्ठाणे णिसेज्जउवट्टणे य सयणे य । उल्लामास सरक्खे य गब्भिणी बालवत्थाए ||५८२ | 'चकमणे' अवश्यायबहुलेन पथा व्याकुलितचित्तो मनागीर्यायामनुपयुक्तो गतवान् । 'ठाणे णिसेज्ज उवणे य सयणे य' प्रमार्जनमकृत्वा स्थानं, निषद्या, शय्या च कृता । 'उल्लामाससरक्खे य' 'आर्द्रगात्राधिकं उसी प्रकार यह आलोचना शुद्धि कर्मोंको लाने वाली है इससे नवीन कर्मोंका बन्ध होता है । आशय यह है कि मायाशल्यके दूर करनेके लिए साधु आलोचना करता हुआ भी अन्य मायासे अपनेको आच्छादित करता है । जैसे गढ़ा बनाने के लिए उसमेंसे रेत निकाली जाती है किन्तु उसमें और रेत भर जाती है ||५७८|| गा० ० - जिन-जिन व्रतोंमें जो दोष लगे हों उनमेंसे जो साधु स्थूल दोषोंकी तो आलोचना करता है और सूक्ष्म दोषोंको छिपाता है वह साधु जिनागमसे विमुख होता है ||५७९ || गा० - यदि साधु विनयपूर्वक सुगुरुसे सूक्ष्म अथवा बादर दोषको नहीं कहता तो यह आलोचनाका चतुर्थ दोष है ||५८० ॥ गा० - जैसे काँसेका वना भृंगार अन्दरसे नीला और मलिन होता है तथा बाहरसे स्वच्छ होता है वैसे ही यह आलोचना शुद्धि मायाशल्य दोषसे युक्त होती है ॥ ५८१ ॥ मार्ग से ईर्ष्यासमितिकी ओर गा० - टी० - साधु गुरुसे निवेदन करता है— ओससे भीगे हुए ध्यान न रखते हुए मैं चला था । उस समय मेरा चित्त व्याकुल था । या प्रतिलेखना किए बिना १. आर्द्रायां गा०--आ० मु० । ५२ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० भगवती आराधना स्पृष्टं । सरक्खे ब' सचित्तधूलिसहिते स्थाने स्थितं सुप्तमासितं वा। 'गन्भिणी' गभिण्या। 'बालवत्थाए' बालबात्सया का ॥ दोयम्मानं गृहीतं इति ॥५८२॥ __ इय जो दोसं लहुगं समालोचेदि गूहदे थूलं । मयमयमायाहिदओ जिणवयणपरंमुहो होदि ॥५८३॥ "इय' एवं । 'जों यः। 'दोसं' अतिचारं । कीदृग्भूतं ? 'लहुगं' स्वल्पं । 'आलोचेदि' कथयति । विचिहदि बिन्तियति । किं ? 'यूल' स्थूलं । 'भयमयमायाहिदओ' भयमयमायासहितचित्तः । महतो दोषान्यादि बाबौम्मि महत्प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्तीति भयं, त्यजन्ति मामिति वा । वृथा निरतिचारचरित्रसर्वसमानभङ्गासह- स्थुलाम झामन्नोति वक्तुं । कश्चित्प्रकृत्यैव मायावी सोऽपि न निगदति । 'जिणवयणपरंमुहो होदि' निनावकापरामुखो भवति ॥५८३॥ सुहुमं व बादरं वा जइ ण कहेज्ज विणएण स गुरूणं । बालायणाए दोसी पंचमओ गुरुसयासे से ॥५८४।। मायाञ्चाल्ल्याल्याणस्य जिनवचनोपदर्शितस्य अकरणात् प्रसिद्धार्था ।।५८४॥ उत्तर माथा-- रसपीदयं व कडयं अहवा कवडुक्कडं जहा कडयं । बवा जदुपूरिदयं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ।।५८५॥ “रसामोदय व कडय' रसोपलेमान्मनाग्बहिः पीतवर्णकटकमिव । 'अथवा कवडुत्तरं' तनुसुवर्णपत्राच्छादितम्मिन का आन्तानिस्सारं। 'अथवा जदुपूरिदगं' अन्तरिच्छद्रं जतुपूर्णकटकमिव । पीतता रसोपलिप्तस्य सया तथाल्पा शुद्धिरिति प्रथमो दृष्टान्तः। गुरुतरपापप्रच्छादनमात्रताप्रकाशनाय द्वितीयो दृष्टान्तः । गुरुतरमैं बैठा, या सोया या खड़ा हमा। या जलादिसे मैंने शरीरको छुआ। या सचित्त धूलिसे सहित स्थानमें मैं खड़ा हुया या बैठा या सोया । अथवा आठ आदि मासका गर्भ धारण करने वाली था जिसे प्रसव किए एक माह भी नहीं बीता था ऐसी स्त्रीसे मैंने आहार ग्रहण किया ॥५८२।। मा इस प्रकार जो अपने सूक्ष्म दोषको कहता है और भय, मद, माया सहित चित्त होनेसे स्थूल दोषको छिपाता है। यदि मैं महान् दोष कहता हूँ तो गुरु मुझे महान् प्रायश्चित्त देने या मुझे ल्याण देंगे यह भय है। मेरा चारित्र निरतिचार है ऐसा गर्व करके स्थूल दोषोंको नहीं कहता। कोई स्वभावसे ही मायावी होनेसे अपने दोषोंको नहीं कहता। ऐसा करने वाला साधु जिनागमसे विमुख होता है ।।५८३।। मा०—यदि साघु विनयपूर्वक गुरुके सामने सूक्ष्म अथवा स्थूल दोषको नहीं कहता तो यह मालोचनाका पाँचवाँ दोष है क्योंकि उसने जिनागममें कहा मायाशल्यका त्याग नहीं किया ।।५८ ॥ मा-रो-जैसे सोनेके रसके लेपसे लोहेका कड़ा बाहरसे पीला दिखाई देता है। अथवा जैसे सोनेके पतले पात्रसे ढका लोहेका कड़ा अन्दरसे निःसार होता है। अथवा लाखसे भरा कड़ा चौसा होता है उन्हींके समान यह आलोचना शुद्धि है। यहाँ तीन दृष्टान्तोंके द्वारा सूक्ष्म दोषको बालोचनाको निन्दा की गई है। जैसे सोनेके रससे लिप्त कड़ा ऊपरसे पीला होता है उसी प्रकार Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका ४११ मयः प्रभृति निस्सारं वस्तु वाह्ये तु सुवर्णशकलेन प्रच्छादितं यथा तथा स्वल्पानपराधान्कथयति । पापभीरुताप्रकर्षादयं मुनिरित्थं संयतः कथं महत्यतिचारे प्रवर्तत इति प्रत्ययजननाय अंतः साररहितता तृतीयेनोच्यते । सुमं ।।५८५ ॥ दि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सह विराहणा होज्ज । पढमे विदि दिए उत्थर पंचमे च वदे || ५८६|| यदि मूलगुणे उत्तरगुणे च कस्यचिद्विद्यते मूलगुणे, चारित्रे, तपसि वा अनशनादावुत्तरगुणे अतिचारो भवेत् । अहिंसादिके व्रते ॥ ५८६ ॥ को तस्स दिज्जइ तवो केण उवाएण वा हवदि सुद्धों । इय पच्छण्णं पुच्छदि पायच्छित्तं करिस्सत्ति || ५८७ || 'को तस्स दिज्जइ तवो' किं तस्मै दीयते तपः ? 'केण उवाएण होदि वा सुद्धो केनोपायेन वा शुद्धो भवतीति । 'पच्छण्णं' प्रच्छन्नं । 'पुच्छदि' पृच्छति । आत्मानमुद्दिश्य मयायमपराधः कृतस्तस्य किं प्रायश्चित्तं इति न पृच्छति । किमर्थमेवं प्रच्छन्नं पृच्छति । ज्ञात्वा प्रायश्चित्तं करिस्संति करिष्यामि ॥ ५८७ || इय पच्छण्णं पुच्छिय साधू जो कुणइ अप्पणो सुद्धिं । तो सो जिणेहिं वुत्तो छट्टो आलोयणा दोसो || ५८८।। 'इ' एवं 'पच्छण्णं' प्रच्छन्नं । 'पुच्छिय' पृष्ट्वा । 'जो साहू' यः साधुः । 'अप्पणो सोधि कुणदि' आत्मनः शुद्धि करोति । 'सो छट्ठो आलोयणा दोसो वृत्तो जिर्णोहि' । षष्ठोऽसावालोचनादोषस्तस्य भवतीति जिनरुक्तः ||५८८ ॥ अल्प शुद्धि होती है यह प्रथम दृष्टान्तका भाव है । गुरुतर पापको ढाँकने मात्रको प्रकट करनेके लिए दूसरा दृष्टान्त है । भारी लोहा वगैरह वस्तु निस्सार होती है, बाहर में उसे सोनेके पत्रसे जैसे ढा देते हैं उसी प्रकार वह सूक्ष्म अपराधोंको कहता है । ऐसा वह यह विश्वास उत्पन्न करनेके लिए करता है कि गुरु समझें कि यह मुनि पापसे इतना भयभीत है कि सूक्ष्म पापको भी नहीं छिपाता तब बड़ा पाप कैसे कर सकता है ? तीसरे दृष्टान्तके द्वारा इसे अन्तःसार रहित कहा है ||५८५|| गा० - यदि किसीके मूलगुण चारित्र अथवा उत्तर गुण अनशन आदि तपमें या अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग व्रतमें अतिचार लग जाये || ५८६|| सत्य, गा० तो उसे कौन सा तप दिया जाता है ? वह किस उपायसे शुद्ध होता है ? ऐसा प्रच्छन्न रूपसे पूछता है । अर्थात् अपनेको लक्ष करके कि मुझसे यह अपराध हुआ है उसका क्या प्रायश्चित्त है ऐसा नहीं पूछता । किन्तु यह जानकर प्रायश्चित्त करूँगा इस भावसे पूछता है ।।५८७ ।। गा० – इस प्रकार प्रच्छन्नरूपसे पूछकर जो साधु अपनी शुद्धि करता है उसको छठा आलोचना दोष होता है ऐसा जिनदेवने कहा है ||५८८|| १. अंतस्मार - अ० । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ भगवती आराधना वादो हवेज्ज अण्णो जदि अण्णम्मि जिमिदम्म संतम्मि | तो परववदेसकदा सोघी अण्णं विसोधेज्ज || ५८९ ॥ 'घादो हवेन्ज अण्णो' तृप्तो भवेदन्यः । 'जदि अण्णम्मि जिमिदम्मि संतम्भि' यद्यन्यस्मिन्भुक्तवति सति । 'तो' ततः 1 'परववदेसकदा सोधी' परव्यपदेशकृता शुद्धिः । 'अण्णं विसोघेज्ज' अन्यं विशोधयेत् ॥ ५८९ ॥ तवसंजमम्मि अण्णेण कदे जदि सुग्गदिं लहदि अण्णो । तो परववदेसकदा सोधी सोधिज्ज अण्णंपि ॥ ५९० ॥ स्पष्टोत्तरा गाथा । मयत हादो उदयं इच्छइ चंदपरिवेसणा कूरं । जो सो इच्छइ सोघी अकहंतो अप्पणो दोसे || ५९१ || 'मयत हादो' इत्यत्र पदघटनेत्थं । 'जो अप्पणो दोसे अकयँतो सोधी इच्छइ सो मयतण्हादो उदगं इच्छ, चंदपरिवेसणे कूरं इच्छइ य' । य आत्मनो दोषाननभिधाय गुरूणां शुद्धिमिच्छति स मृगतृष्णिकात उदकं वांछति, चन्द्रपरिवेशादशनमिच्छति । निष्फलता साधर्म्यादयं दृष्टान्तदान्तिकभावः । छन्नं ॥ ५९१ ॥ पक्खियचाउम्मासिय संवच्छरिएस सोधिकालेसु । बहुजणसद्दाउलए कहेदि दोसे जहिच्छाए ।।५९२ ।। पक्तियचाउम्मासिय' पक्षाद्यतिचारशुद्धिकालेषु । 'बहुजण सद्दाउलए' बहुजनशब्दसंकटे । 'जधिच्छाए दोसे कमेदि' यथेच्छया दोषानात्मीयान्कथयति ॥ ५९२ ॥ मा०—–यदि अन्यके भोजन करनेपर अन्यको तृप्ति हो तो दूसरेके नामसे की गई विशुद्धि उससे अन्यको शुद्धि कर सकती है ||५८९|| गा०—अन्यके द्वारा तपसंयम करनेपर यदि अन्य व्यक्ति सुगतिको प्राप्त हो सकता हो तो दूसरेके नामसे किया गया प्रायश्चित्त भी दूसरेको शुद्ध कर सकता है ॥५९० ।। शुद्धि चाहता है वह मरीचिकासे जल और अर्थात् जैसे मरीचिकासे जल और चन्द्रके दोषोंको कहे विना शुद्धि नहीं होती । इस गा०—जो अपने दोषोंको न कहकर गुरुसे चन्द्रके परिवेश से भोजन प्राप्त करना चाहता है । परिवेशसे भोजन नहीं प्राप्त होता उसी तरह अपने तरह निष्फलताकी समानता होनेसे दोनों में दृष्टान्त और दाष्टन्तिकभाव है ||५९१|| विशेषार्थं चन्द्रपरिवेशसे भोजन न मिलनेका अर्थ श्रीचन्द्रके टिप्पणमें इस प्रकार किया है— राजाने चन्द्रनामक रसोइयेको निकाल दिया । यह जानकर उसके परिवारने भोजन करना छोड़ दिया । एक दिन जब राजा भोजनके लिए बैठा तो आकाशमें चन्द्रका परिवेश देखकर लोगोंने कहा चन्द्रका परिवेष ( प्रवेश) हो गया। यह सुनकर परिवारने समझा कि राजकुल में चन्द्रनामक रसोइयेका प्रवेश हो गया । वह भोजनके लिए गया किन्तु भोजन नहीं मिला ॥५९१ ॥ मुनिगण अपनेहोता है उस गा० - पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रायश्चित्तके समय जब सब अपने दोष निवेदन करते हैं और इस तरह बहुतसे मनुष्योंके शब्दों का कोलाहल समय जो मुनि अपनी इच्छानुसार दोषको कहता है ॥५९२ || Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४१३ इय अव्वत्तं जइ सावेंतो दोसे कहेइ सगुरूणं । आलोचणाए दोसो सत्तमओ सो गुरुसयासे ॥५९३।। 'जदि इय अन्वत्तं सातो दोसे कहेइ सगुरूणं' यद्येवमव्यक्तं श्रावयन्दोषान्कथयति स्वगुरुभ्यः । 'सत्तमगो आलोयणादोसो' सप्तम आलोचनादोषः । 'गुरुसयासे' गुरुसमीपे प्रवृत्तो भवति ॥५९३॥ अरहट्टघडीसरिसी अहवा चुदछदोवमा होइ । । भिण्णघडसरिच्छा वा इमा हु सल्लुद्धरणसोधी ॥५९४॥ 'अरहट्टघडीसरिसी' अरगर्तघटीसदृशी यथा घटी पूर्णाप्यपूर्णा । एवमपराधकथनं स्वमुखेन प्रवृत्तमपि अप्रवृत्तमेव गुरुणा अश्रुतत्वात् । 'अहवा चुदच्छुदोवमा होइ' अथवा मंथनचर्मपालिका इव, सा यथा मुक्तापि बध्नाति एवमियं वा मुखकूहरमक्कापि मायाशल्यसहितेति बध्नाति । 'भिन्नघडसरिच्छा वा' भिन्नघटसदशी वा । यथा भिन्नो घटो घटकार्य जलधारणं जलाद्यानयनं वा कर्तुमसमर्थ एवमियमालोचना न निर्जरां संपादयतीति साधर्म्य । सद्दाउलयं ॥५९४॥ आयरिययादमले हु उवगदो वंदिऊण तिविहेण । कोई आलोचेज्ज हु सव्वे दोसे जहावत्ते ॥५९५॥ 'आयरियपादमूले उवगदो' आचार्यपादमूलमुपगतः । 'तिविधेण वंदिगुण' मनोवाक्कायशुद्धया वन्दना कृत्वा । 'कोई' कश्चित् । 'आलोएज्ज हु' कथयेत् । 'सव्वे दोसे जहावत्ते' सर्वान्दोषान्स्थूलान्सूक्ष्मांश्च 'यथावृत्तान्मनोवाक्कायक्रियारूपान् कृतकारितानुमतभेदान् ॥५९५॥ तो दंसणचरणाधारएहिं सुत्तत्थमुव्वहंतेहिं । पवयणकुसलेहिं जहारिहं तवो तेहिं से दिण्णो ॥५९६।। गा०-यदि अपने गुरुओंको स्पष्टरूपसे सुनाई न दे इस प्रकार दोषोंको कहता है तो गुरुके निकट शब्दाकुल नामक सातवें आलोचना दोषका भागी होता है ।।५९३।। गा०-टो०-जैसे रहटमें लगी हुई पानी भरनेकी धटिकाएँ भरकर भी रीति होती जाती हैं उसी प्रकार वह आलोचना करनेवाला मनि है। वह अपने मखसे अपराध प्रकट करनेके लिए प्रवत्त हआ भी अप्रवत्त ही है क्योंकि गरुने उसे नहीं सुना। अथवा वह मन्थन चर्मपालिकाके समान है। जैसे मथानी डोरीसे छूटते हुए भी डोरीसे बँधती जाती है उसी प्रकार उसकी आलोचनावाणी मुखरूपी गर्तसे छूटकर भी मायाशल्यसे सहित होनेसे कसे बद्ध करती है। अथवा फूटे घटके समान है। जैसे फूटा घड़ा घटका कार्य जलधारण अथवा जल आदिका लाना करने में असमर्थ होता है । उसी प्रकार यह आलोचना निर्जरारूप कार्यको नही करती । यह इन दृष्टान्तोंमें और दार्टान्तमें समानता है । यह शब्दाकुलित नामक सातवाँ आलोचना दोष है ।।५९४॥ . गा०-कोई साधु आचार्यके पादमूलमें जाकर, मनवचनकायकी शुद्धिपूर्वक वन्दना करके मनवचनकाय और कृतकारित अनुमोदनाके भेदरूप सब स्थूल और सूक्ष्म दोषोंको कहता है ।।५९५॥ १. यथावृत्तं अ० । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ भगवती आराधना ____ 'तो' पश्चात् आलोचनोत्तरकालं । 'दसणचरणाधारएहि' समीचीनदर्शनचारित्रधारणोद्यतैः । 'सुत्तत्थमुव्वंहतेहि' सूत्रार्थ मुद्रहद्भिः । 'पवयणकुसलेहि' सूत्रार्थमुद्वहद्भिरित्यनेनैव गतत्वात्किमनेन 'प्रवचन कुशलैः' इति । अयमभिप्रायः-प्रायश्चित्तग्रन्थवृत्तिः प्रवचनशब्दः तेन प्रायश्चित्त कुशलैरित्यर्थः । अन्यशास्त्रज्ञोऽपि न शोधयति न चेत्प्रायश्चित्तज्ञः इति प्राधान्यकथनार्थ पृथगुपादानं । 'तेहि' तैः । 'से' तस्मै । 'जधारिहं तवो दिण्णो' अपराधानुरूपं तपो दत्तं । तपोग्रहणं प्रायश्चित्तोपलक्षणार्थ तेन प्रायश्चित्तं दत्तं इत्यर्थः ॥५९६।। रणवमम्मि य जं पुव्वे भणिदं कप्पे तहेव ववहारो । अंगेसु सेसएसु य पइण्णए चावि तं दिण्णं ॥५९७।। तेसिं असदहतो आइरियाणं पुणो वि अण्णाणं । जइ पुच्छइ सो आलोयणाए दोसो हु अट्ठमओ ॥५९८।। 'सि' तेषां । 'आयरियाणं' आचार्याणां वचनं । 'असद्दहंतो' अश्रद्दधानः । 'पुणो वि जदि' पुनरपि यदि पृच्छत्यन्यानसौ । 'अट्ठमगो आलोयणादोसो' सोऽष्टमः आलोचनादोषः ।।५९७-९८॥ पगुणो वणो ससल्लं जध पच्छा आदुरं ण तावेदि । बहुवेदणाहिं बहुसो तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥५९९।। 'पगुणो वणो' प्रगुणं वा व्रणं उपचितं । 'ससल्लं' शल्यसहितं । 'पच्छा' पश्चात् । 'आदुरं' व्याधितं । 'किमु न तावेदि' किमु न तापयति तापयत्येव । 'बहुवेदणाहि' बहीभिर्वेदनाभिः । 'बहुसो' बहुशः । 'तधिमा' गा०-टो०-आलोचनाके पश्चात् सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके धारण करने में तत्पर, सूत्रोंके अर्थको वहन करनेवाले और प्रवचन कुशल आचार्योंने उसे अपराधके अनुरूप तप दिया। यहाँ तपका ग्रहण प्रायश्चित्तके उपलक्षणके लिए है अतः आचार्योंने उसे प्रायश्चित्त दिया। शङ्का-सूत्रके अर्थको वहन करनेसे प्रवचनकुशलका भाव आ जाता है फिर उसे अलग ग्रहण क्यों किया? समाधान-इसका अभिप्राय यह है कि यहाँ प्रवचन शब्दका अर्थ प्रायश्चित्तग्रन्थ है। अतः उसका अर्थ होता है प्रायश्चित्तशास्त्रमें कुशल । अन्य शास्त्रोंका ज्ञाता होते हुए भी यदि प्रायश्चित्तका ज्ञाता नहीं है तो दोषका शोधन नहीं कर सकता। इसलिए प्रायश्चित्तकी प्रधानता कहनेके लिए 'वचनकुशल' पदका अलगसे ग्रहण किया है ।।५९६॥ गा०-प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्वमें तथा कल्प और व्यवहार नामक अंग बाह्यमें, तथा शेष अंगों और प्रकीर्णकोंमें जो प्रायश्चित्तका कथन है तदनुसार ही आचार्यने उसे प्रायश्चित्त दिया ।।५९७॥ गा०-किन्तु वह साधु उन आचार्योंके वचनोंपर श्रद्धान न करके फिर भी यदि अन्य आचार्योंसे पूछता है तो यह आलोचनाका आठवां दोष है ॥५९८॥ गा०-ऊपरसे अच्छा हुआ किन्तु भीतरमें कील सहित धाव पीछे बढ़कर क्या बहुत कष्ट १. ज्ञो न ददाति न चेत् आ० मु०। २. अ० ज० प्रति में यह गाथा नहीं है। ३. शः । यथा तथा इमा स-अ० आ० । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४१५ तथा इयं । 'सल्लुद्धरणसोधी' आलोचनाशुद्धिः। मायामृषापरित्यागेन कृत। अतिशोभना सद्वृत्ता दोषा' गुरुदत्तप्रायश्चित्ताश्रद्धानशल्यसमन्वितत्वादुःखावह त्वात् । बहुजण ॥५९९॥ आगमदो वा बालो परियाएण व हवेज्ज जो बालो । तस्स सगं दुच्चरियं आलोचेदण वालमदी ॥६००। 'आगमदो वा बालो' आगमेन ज्ञानेन वा बालः । 'परियाएण व हवेज्ज जो बालो' चारित्रवालो वा यो भवेत् । यः स 'तस्स' तस्मै । 'सगं दुच्चरिदं' आत्मीयमतिचारं । 'आलोचेदूण बालमदी' उक्त्वा बालबुद्धिः ॥६००॥ आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि । बालस्सालोचेंतो णवमो आलोचणा दोसो ॥६०१।। 'आलोचिदं' कथितं । 'असेसं सव्वं' निरवशेषं सर्व। मनोवाक्कायकृतोऽतिचारः सर्वशब्देन उच्यते । कृतकारितानुमतविकल्पा अशेषा इत्याख्यायन्ते । 'मएत्ति जाणादि' मयेति जानाति । 'बालस्सालोचतो' ज्ञानबालाय चारित्रबालाय वा कथयति । 'णवमो आलोयणादोसो' नवम आलोचनादोषः ॥६०१॥ कूडहिरण्णं जह णिच्छएण दुज्जणकदा जहा मेत्ती । पच्छा होदि अपत्थं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥६०२॥ कूडहिरणं जह पच्छा अपत्था णिच्छएण होदिति पदघटना । यथा कूटहिरण्यं धनमिति गृहीतं पश्चादपथ्यं निश्चयतो भवति अभिमतद्रव्यग्रहणे अनुपायत्वात् । एवमपि इयमपि बालस्य क्रियमाणालोचना अनुरूपप्रायश्चित्तप्राप्ती अनुपायत्वात् सदृशी । न ज्ञानबालः परार्थयोग्यप्रायश्चित्तं दातु क्षमः । 'दुज्जणकदा य मेत्ती' नहीं देता? देता ही है। उक्त आलोचना भी उसी घावकी तरह है । यद्यपि यह आलोचना माया और असत्यको त्यागकर की जानेसे अति सुन्दर है, दोष रहित है। तथापि गुरुके द्वारा दिए गये प्रायश्चित्तके प्रति अश्रद्धान रूपी शल्यसे युक्त होनेसे दुःखदायी है। यह बहुजन नामक दोष है ।।५९९॥ गा०-जो मुनि आगम अर्थात् ज्ञानसे बालक है अथवा जो चारित्रसे बालक है अर्थात् जिसे शास्त्रज्ञान भी नहीं है और चारित्र भी जिसका हीन है उसके सन्मुख जो अज्ञानी अपने दोषकी आलोचना करता है ॥६१०॥ गा०-और मैंने अपने मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनासे किए सब दोष कह दिये, ऐसा जानता है । इस प्रकार ज्ञान बालक और चारित्र बालक मुनिसे दोषोंका निवेदन करना नौवाँ आलोचना दोष है । इसे अव्यक्त दोष कहते हैं ॥६०१॥ गा०-टी०-जैसे नकली सोनेको धन समझकर ग्रहण करे तो पीछेसे वह निश्चय ही अहितकर होता है क्योंकि उससे यदि कुछ इच्छित वस्तु खरीदना चाहें तो नहीं खरीद सकते। इसी प्रकार बालमुनिके सन्मुख की गई आलोचना भी अनुरूप प्रायश्चित्तकी प्राप्तिका उपाय न होनेसे नकली सोनेके ही समान अहितकारी है। क्योंकि ज्ञानसे वालमुनि परमार्थके योग्य प्रायश्चित्त १. संहृतदोषापि-मूलारा० । २. दुःखावहा-आ० । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ भगवती आराधना जहा पच्छा होइ अपत्थं इति सम्बन्धः कार्यः । दुर्जने कृता मैत्री यथा न पथ्यं, दुःखं प्रयच्छतीति एवं चारित्रबालस्य संयमोभयविकलस्य कृतापि प्रायश्चित्तालाभमूला अनेकानर्थावहेति भावः ॥६०२॥ पासत्थो पासत्थस्स अणुगदो दुक्कडं परिकहेइ । एसो वि मज्झसरिसो सव्वत्थवि दोससंचइओ ॥६०३।। 'पासत्यो पासत्थस्स' पार्श्वस्थः पार्श्वस्थमनुगतः । 'दुक्कडं परिकहेदि' दुष्कृतं परिकथयति । 'एसो वि' एषोऽपि । 'मज्झसरिसो' मत्सदृशः । 'सव्वत्थ वि' सर्वेष्वपि व्रतेषु । 'दोससंचइओ' दोषसंचयोद्यतः ।।६०३।। जाणइ य मज्झ एसो सुहसीलत्तं च सव्वदोसे य । तो एस मे ण दाहिदि पायच्छित्तं महल्लत्ति ॥६०४॥ 'एसो मज्झ सुहसीलतं जाणदि' एष मम दुःखासहत्वं वेत्ति । "सम्वदोसे य जाणदि' सर्वांश्च व्रतातिचारानवगच्छति । 'तो' तस्मात् । 'एस मे न दाहिदि' एष मे न दास्यति । 'महल्लं पायच्छित्तंति' महत्प्रायश्चित्तमिति मत्वा कथयतीति सम्बन्धः ।।६०४॥ आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि । सो पवयणपडिकुद्धो दसमो आलोचणा दोसो ॥६०५।। स्पष्टार्था ॥६०५॥ उत्तर गाथा जह कोइ लोहिदकयं वत्थं धोवेज्ज लोहिदेणेव । ण य तं होदि विसुद्धं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥६०६॥ 'जह कोइ लोहिदकयं' करोति क्रियासामान्यवाची इह लेपे वर्तते तेनायमर्थः-यथा कश्चिल्लोहितेन लिप्तं वस्त्रं । 'धोवेज्ज' प्रक्षालयेत् । 'लोहिदेणेव' लोहितेनैव । ‘ण य तं हवदि विसुद्ध" नैतद् भवति विसुद्धं । देने में समर्थ नहीं होता । अथवा जैसे दुर्जनसे की गई मित्रता हितकर नहीं होती, दुःखदायक होती है उसी प्रकार प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमसे रहित चारित्र बालमुनिके सन्मुख की गई भी आलोचना प्रायश्चित्तका लाभ न होनेसे अनेक अनर्थोंको लानेवाली है ॥६०२॥ गा०-पार्श्वस्थमुनि पाश्र्वस्थमुनिके पास जाकर अपने दोषोंको कहता है। वह जानता है कि यह भी मेरे समान है । सब व्रतोंमें दोषोंसे भरा है ॥६०३।। गा०—यह मेरी सुखशीलताको जानता है कि मैं दुःख सहन नहीं कर सकता। मेरे सब व्रतोंके दोषोंको भी यह जानता है। अतः यह मुझे बड़ा प्रायश्चित्त नहीं देगा। यह मानकर वह उससे अपने दोष कहता है ।।६०४॥ गा०—यह पार्श्वस्थमनि मेरे द्वारा कहे सब दोषोंको जानता है ऐसा मानकर उससे प्रायश्चित लेना आगमसे निषिद्ध है । और यह आलोचनाका दसवाँ दोष है ।।६०५|| . गा०—जैसे कोई रुधिरसे सने हुए वस्त्रको रुधिरसे ही धोता है तो वह विशुद्ध नहीं होता। १. सव्वदोसे य जानाति सर्वदोषांश्च । तो-मु० । VAAAAAA Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४१७ 'तधिमा सल्लुद्धरणसोधी' आलोचनाशुद्धिः दोषं न निरस्यति । तद्विलक्षणं वस्तु यथा निर्मलजलं पङ्क वस्त्रस्य न तु लोहितेन लिप्तं वस्त्रं शोधयति तथाभूतमेव लोहितं । एवमतीचाराशुद्धिः अशुद्धरत्नत्रयोद्देशप्रवृत्तेः अशुद्धयालोचनया न निराक्रियते इति साधर्म्यनियोजना ॥६०६॥ पवयणणिण्हवयाणं जह दुक्कडपावयं करेंताणं । सिद्धिगमणमइदूरं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥६०७॥ ‘पवयणणिहृवयाणं' जिनप्रणीतवचननिह्नवकारिणां। 'दुक्कडपावगं करेंताणं' दुष्करपापकारिणां । 'जह सिद्धिगमणमइदूरं' यथा सिद्धगमनमतिदुष्करं । तस्सेवी गदं ।।६०७॥ । सो दस वि तदो दोसे भयमायामोसमाणलज्जाओ । णिज्जहिय संसुद्धो करेदि आलोयणं विधिणा ॥६०८॥ 'सो' क्षपकः । 'तो' ततः आलोचनया दुष्टया शुद्धेरभावात् । 'दोसे णिज्जूहिय' दोषांस्त्यक्त्वा । 'दस वि' दशापि । 'भयमायामोसमाणलज्जाओ' भयं मायां मनोगतां मुषां वचनगतां, मानं लज्जां च त्यक्त्वा । 'संशुद्धो' सम्यक्शुद्धः । 'विधिना आलोयणं करेदि' विधिना आलोचनां करोति ॥६०८॥ कोऽसावालोचनाविधिरित्याशंक्याहः णदृचलवलियगिहिभासमूगदद्दुरसरं च मोत्तूण । आलोचेदि विणीदो सम्म गुरुणो अहिमुहत्थो ॥६०९॥ ‘णट्टचलवलियगिहिभासमूगददुरसरं च' हस्तनतनं, भ्रू क्षेपं, चलनं गात्रस्य, वलितं, गृहिवचनं, मूकवत्संज्ञाकरणं, घर्घरस्वरं च मुक्त्वा । 'आलोचेदि' कथयति । "विणीदो' कृताञ्जलिपुटोऽवनतशिरस्कः । 'अदुदं' अद्रुतं । अविलम्बितं । स्पष्टं । 'गुरुणो महिमुहत्यो' गुरोरभिमुखः ॥६०९॥ उसी तरह यह आलोचना शुद्धि दोषको दूर नहीं करती। उसके विपरीत निर्मल जल वस्त्रमें लगे कीचड़को दूर करता है। किन्तु रुधिरसे लिप्त वस्त्रको रुधिर शुद्ध नहीं कर सकता। इसी प्रकार अशुद्ध रत्नत्रयवाले मुनिसे की गई अशुद्ध आलोचनासे अतीचार सम्बन्धी अशुद्धि दूर नहीं होती। इस प्रकार दृष्टान्त और दार्टान्तमें समानता जानना ।।६०६॥ ___ गा०-जैसे जिन भगवान्के वचनोंका लोप करनेवाले और दुष्कर पाप करनेवालोंका मुक्तिगमन अति दुष्कर है उसी प्रकार पार्श्वस्थ मुनिसे दोषोंको कहनेवालोंकी शुद्धि अति दुष्कर है । यह तत्सेवी नामक दसवें दोषका कथन हुआ ॥६०७॥ गा०–सदोष आलोचनासे शुद्धि नहीं होती, इसलिए निर्यापकाचार्यके पादमूलमें उपस्थित क्षपक दसों दोषोंको तथा भय, माया, असत्यवचन, मान और लज्जाको त्यागकर सम्यक्प्रकारसे शुद्ध होकर विधिपूर्वक आलोचना करता है ॥६०८॥ वह आलोचनाकी विधि क्या है, यह कहते हैं गा०—हाथका नचाना, भौं मटकाना, शरीरको मोड़ना, गृहस्थकी तरह बोलना, गूंगेकी तरह संकेत करना और घर्घर स्वरको त्याग कर, दोनों हाथोंकी अंजली बनाकर, सिर नवाकर गुरुके सामने उनकी बायीं ओर एक हाथ दूर गवासनसे बैठकर, न अति जल्दीमें और न अति रुकरुक कर स्पष्ट आलोचना करता है ।।६०९॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ भगवती आराधना पुढविदगागणिपवणे य बीयपत्तेयणंतकाए य । विगतिगचदुपंचिंदियसत्तारंभे अणेयविहे ।।६१०॥ 'पुढविदगागणिपवणे य' पृथिव्यामुदकेऽग्नौ पवने च । 'बीजपत्तेयणंतकाए य' बीजे प्रत्येककाये च वनस्पती । “विगतिगचदुपंचेंदियसत्तारंभे' द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसत्त्वविषये चारम्भे । 'अणेगविधै' अनेकप्रकारे । पृथिव्या मृत्तिकोपलशर्करासिकतालवणा'वजमित्यादिकायाः खननं, विलेखनं, दहनं, कुट्टनं, भञ्जनं इत्यादिकयारम्भः । उदककरकावश्यायतुषारादीनां अब्भेदानां पानं, स्नानमवगाहनं, तरणं हस्तेन, पादेन, गात्रेण वा मईनं इत्यादिकं । 'अग्निज्वाला, प्रदीपः उल्मुकं इत्यादिकस्य तेजसः उपर्युदकस्य, पाषाणस्य, मृत्तिकायाः सिकताया वा प्रक्षेपणं, पाषाणकाष्ठादिभिर्हननं इत्यादिकं । झंझामण्डलिकादी वायी वातिव्यंजनेन, तालवन्तेन, शूर्पण, चेलादिना वा समीरणोत्थापनादिकः वाते वाभिगमनं । बीजानां प्रत्येककायानां अनन्तकायानां च वृक्षवल्लीगुल्मलतातृणपुष्पफलादीनां दहनं, छेदनं, मर्दनं, भञ्जन, स्पर्शनं, भक्षणमित्यादिकः । द्वीन्द्रियादीनां मारणं, छेदन, ताडनं, बन्धनं, रोधनमित्यादिकं ॥६१०॥ पिंडोवधिसेज्जाए गिहिमत्तणिसेज्जवाकुसे लिंगे । तेणिक्कराइभत्ते मेहूणपरिग्गहे मोसे ॥६११॥ 'पिंडोवधिसेज्जाए' पिण्डे, उपकरणे, वसतौ च उद्गमोत्पादनैषणादानातिचारः । 'गिहिमत्तणिसेज्जवाकुसे लिंगों' । गृहस्थानां भाजनेषु कुम्भकरकशरावादिषु कस्यचिन्निक्षेपणं, तैर्वा कस्यचिदादानं च चारित्रातिचारः । दुःप्रतिलेख्यत्वाच्छोधयितुमशक्यत्वाच्च । पीठिकायामासन्धां, खट्वायां, मञ्चे वा आसनं निषद्यो गा०-टी०-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येककायिक वनस्पति, साधारणकायिक वनस्पति, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवसम्बन्धी अनेक प्रकारके आरम्भ की आलोचना करता है। मिट्टी, पत्थर, शर्करा, रेत, नमक इत्यादिका खोदना, हलसे जोतना, जलाना, कूटना, तोड़ना आदि पृथिवी सम्बन्धी आरम्भ हैं। जल, बर्फ, ओस, तुषार आदि पानीके भेदोंका पीना, स्नान, अवगाहन, तैरना, हाथ पैर या शरीरसे मर्दन करना आदि जलसम्बन्धी आरम्भ है। आग, ज्वाला, दीपक, उल्मुक इत्यादि आगके ऊपर पानी, पत्थर, मिट्टी, अथवा रेत फेंकना या पत्थर लकड़ी आदिसे आगको पीटना आगसम्बन्धी आरम्भ है। झंझा और माण्डलिक आदि वायुको ताड़के पत्रसे, सूपसे, लकड़ी आदिसे रोकना, या पंखे आदिसे हवा करना, वायुके सन्मुख गमन करना ये सब वायुकायसम्बन्धी आरम्भ हैं। बीज, प्रत्येक काय और अनन्तकाय वृक्ष, लता, बेल, झाड़ी, तृण, पुष्पफल आदिको जलाना, छेदना, मसलना, तोड़ना, छूना, खाना आदि वनस्पतिकाय सम्बन्धी आरम्भ हैं। दो इन्द्रिय आदि जीवोंको मारना, छेदना, पीटना, बाँधना, रोकना आदि दो इन्द्रिय आदि सम्बन्धी आरम्भ हैं । ये सब आरम्भ मुझसे हुए हैं ॥६१०॥ गा०-टी०-भोजन, उपकरण और वसतिमें उद्गम, उत्पादन और एषणासम्बन्धी अतिचार होते हैं। गृहस्थोंके पात्र घट, झारी, सकोरा आदिमें किसी वस्तुका निक्षेपण करना अथवा उनके द्वारा किसी वस्तुका ग्रहण चारित्रसम्बन्धी अतिचार हैं क्योंकि उन पात्रोंकी प्रति १. णाभ्रकमि-आ० मु० । लवणववादिकाया मूलारा० । २. अग्नेर्वाला आ० मु० । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४१९ च्यते । पीठिकादिष्वनेकच्छिद्राकुलासु दुःप्रेक्ष्याः प्राणिनो दृष्टाश्च नापकतुं शक्यन्ते । ततोऽहिंसावतातिचारः । तथा चोक्तम् पीठिकासंदपल्लंके मंचए मालए तथा । अणाचरिदमज्जाणं आसिदु सइदु पि वा ॥ गंभीरवासिणो पाणा दुप्पेक्खा दुविकिंचणा । तम्हा दुप्पडिलेहं च वज्जए पढमव्वए ॥ [ ] अथवा गोचरप्रविष्टस्य गृहेषु निषद्यायां कस्तत्र दोष इति चेत् ब्रह्मचर्यस्य विनाशः स्त्रीभिः सह संवासात् ? असकृत्तदीयकुचतटबिम्बाधरादिसमवलोकनाद् भोजनार्थिनां च विघ्नः । कथमिव यतिसमीपे भुजिक्रियां सम्पादयामः । अशुचि वेदं 'चेत्कथमस्यामासन्यां तु तावदमी इति क्रुध्यन्ति वा गृहस्थाः । किमर्थमयमत्र दाराणां मध्ये निषण्णो यतिर्भुङ्क्ते न यातीति । स्नानमुद्वर्तनं, गात्रप्रक्षालनं च वाकुसमित्युच्यते । स्नानेन उष्णोदकेन शीतजलेन सौवीरकादिना वा बिलस्था धात्रीक्षुद्रविवरस्थाः इतरेऽपि स्वल्पकायाः कुन्थुपिपीलिकादयो वा नश्यन्ति । तथा चोक्तम् सुहमा संति पाणा खु पासेसु अ बिलेसु अ । सिहायंतो यतो भिक्खू विकटेणोपपीडए ॥ ण सिण्हायंति तम्हा ते सीदुसणोदगेण वि । जावजीवं वदं घोरं अण्हाणगमधिट्ठिदं ॥ लेखना कठिन है तथा उनकी शुद्धि अशक्य होती है। पीढ़ेपर, आसनपर, खाट या मंचपर बैठना निषद्या है। अनेक छिद्रवाली पीठिका आदिमें रहनेवाले जन्तुओंको देखना अशक्य होता है और देख भी लिया जाये तो उन्हें दूर करना शक्य नहीं होता। और उससे अहिंसाव्रतमें अतिचार लगता है । कहा भी है पीढ़ा, आसंद, पलका, मंच आदि आसनोंपर स्नान न करनेवाले साधुओंका बैठना या शयन करना उचित नहीं है। गहराईमें रहनेवाले जीवजन्तु देखे नहीं जाते । उनका बचाव कष्ट साध्य होता है । इसलिए अहिंसा नामक प्रथम व्रतमें 'ठीकसे नहीं देखना' छोड़ना चाहिए। अथवा गोचरीके लिए जाकर घरमें प्रवेश करना और वहाँ वैठना निषद्या है। . शङ्का-इसमें क्या दोष है ? समाधान-स्त्रियोंके साथ रहनेसे ब्रह्मचर्यका विनाश होता है। क्योंकि बार-बार उनके कुचों और ओष्ठोंपर दृष्टि जाती है। तथा भोजन करनेके. इच्छुक गृहस्थोंको बाधा होती है । वे सोचते है-हम यतियोंके सामने कैसे भोजन करें ?. अथवा उन्हें क्रोध हो सकता है कि इस अपवित्र पलके पर ये क्यों बैठे हैं ? यह यति यहाँ स्त्रियोंके मध्यमें बैठकर क्यों भोजन करता है, जाता क्यों नहीं है। स्नान, उबटन और शरीर धोनेको वाकुस कहते हैं। गर्मजल, ठंडे जल अथवा सौवीरक आदिसे स्नान करनेसे पृथ्वीके बिलोंमें स्थित प्राणी अथवा अन्य कुन्थु चींटी आदि क्षुद्रजीव मर जाते हैं । कहा है 'बिलोंमें तथा आस-पासमें सूक्ष्मजन्तु रहते हैं। यदि भिक्षु स्नान करे तो वे पीड़ित होते हैं। इसलिए वे भिक्षु ठंडे या गर्मजलसे या कांजीसे स्नान नहीं करते। वे जीवन पर्यन्त घोर अस्नानव्रतको धारण करते हैं।' १. मंचयासालये-अ० मु०। २. वेश्मस्याद्यां अ० । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० भगवती आराधना लोध्रगन्धादिभिः उद्वर्तनं च नाचरन्ति । लिङ्गविकाशनक्रिया तात्स्थ्याल्लिङ्गशब्देनोच्यते । 'तेणिक्कारादिभत्ते' अदत्तादानं रात्रिभोजनं च । अदत्तादाने कृते तत्स्वामिनः प्राणापहार एव कृतो भवति । बहिश्चराः प्राणा धनानि प्राणभृतां राजानो दण्डयन्तीह । रात्रौ च भोजनं अनेकासंयममुलं । रात्रौ भ्रमण षड्जीवनिकायबधो। अयोग्यस्य प्रत्याख्यातस्य च भोजनं । दातपरोक्षासम्भवः । करस्य, भाजनस्योच्छिष्टनिपतनदेशस्य, दायिकागमनमार्गस्य तस्यात्मनश्चावस्थानदेशस्य अपरीक्षा । 'मेहूणपरिग्गहे चेव' मैथुनं परिग्रहश्चैव । 'मोसे' मृषा च ॥४१॥ णाणे दंसणतववीरिये य मणवयणकायजोगेहिं । कदकारिदेणुमोदे आदपरपओगकरणे य ॥६१२॥ 'माणे' ज्ञाने । 'दसणतववीरिए' श्रद्धायां तपसि वोर्ये च योऽतिचारः । 'मणवयणकायजोहि' मनो यक्रियाभिः । मनसा सम्यग्ज्ञानस्यावज्ञा. किमनेन ज्ञानेन, तपश्चारित्रमेव फलदाय्यनष्ठेयमिति । सम्यग्ज्ञानस्य वा मिथ्याज्ञानमिदमिति दूषणं । मनसा वाचा कायेन वा स्वारुचिप्रकाशनं, मुखवैवर्ण्यन नैतदेवमिति शिरःकम्पनेन वा । शङ्काकाङ्क्षादि दर्शनेऽतिचारः । तपस्यसंयमः। वीर्य स्वशक्तिगृहनं । स चातीचारः सर्वस्त्रिप्रकार इति कथयति । 'कदकारिदे अणुमोदे' कृतः, कारितोऽनुमतश्च । 'आदपरपओगकरणे य' आत्मनैव कृतः कारितोऽनुमतश्च, परयोगक्रियया कृतः कारितोऽनुमतो वा ॥६१२।। वे भिक्षु लोघ्र वगैरह सुगन्धित द्रव्योंका उबटन भी शरीरपर नहीं लगाते हैं। लिंगशब्दसे लिंगको विकसित करनेकी क्रिया ली गई है। वह भी भिक्षु नहीं करते । तेणिक्क चोरीको कहते हैं। भिक्षु विना दी हुई वस्तुका ग्रहण और रात्रिभोजन नहीं करते। विना दी हुई वस्तुका ग्रहण अर्थात् चोरी करनेपर उसके स्वामीका प्राण ही हर लिया जाता है क्योंकि धन मनुष्योंका बाहिरी प्राण होता है । इसी लोकमें राजा उसे दण्ड देते हैं। तथा रात्रि में भोजन अनेक असंयमोंका मूल है। रात्रिमें साधु भ्रमण करे तो छहकायके प्राणियोंका घात होता है। तथा रात्रिमें दृष्टिगोचर न होनेसे त्यागी हुई तथा अयोग्य वस्तु भी खाने में आ जाती है। दाताकी परीक्षा भी असम्भव होती है। हाथमें स्थित भोजन, जूठन गिरनेका स्थान, आहार देनेवालेके आने जानेका मार्ग, उसके तथा अपने खड़े होनेके प्रदेशकी परीक्षा भी रातमें नहीं होती। मैथुन, परिग्रह और असत्यके वे त्यागी होते हैं ॥६११॥ गा०-टी०-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, तप और वीर्यके सम्बन्धमें मन वचन कायकी क्रियाके द्वारा अतिचार हुए हैं मनसे सम्यग्ज्ञानकी अवज्ञा करना, इस ज्ञानसे क्या लाभ है, तप और चारित्र ही फलदायक है । उन्हें ही करना चाहिए । अथवा सम्यग्ज्ञानको यह मिथ्याज्ञान है, ऐसा दूषण लगाना। अथवा मनसे वचनसे कायसे अपनी अरुचि प्रकट करना । अथवा मुखको विरूपतासे या सिर हिलाकर 'यह ऐसा नहीं है' यह प्रकट करना सम्यग्ज्ञानके अतिचार हैं। सम्यग्दर्शनमें शंका कांक्षा आदि अतिचार कहे हैं। तपमें असंयम अतिचार है। वीर्यमें अपनी शक्तिको छिपाना अतीचार है। वह सब अतिचार कृत कारित अनुमोदनाके भेदसे तीन प्रकार है। तथा स्वयं ही करना कराना अनुमोदना करना और परके द्वारा करना, कराना, अनुमोदना करना इस तरह कृत कारित अनुमोदनाके भी दो प्रकार हैं ।।६१२।। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ विजयोदया टीका अद्धाण रोहगे जणवए य रादो दिवा सिवे ऊमे । दप्पादिसमावण्णे उद्धरदि कम अभिदंतो ।।६१३॥ 'अद्धाण रोहगे जणव यस्यावस्थिते जनपदे यावन्तो मार्गास्तेषां रोधके परचक्रे जाते यदि निस्सतुं न लभते संक्लिष्टा भिक्षा चर्या तत्र अयोग्यस्य सेवा कृता आत्मना तामपि कथयति । 'रादो दिवा' रात्री अयमतिचारो जातो दिवसे इति वा कथनं । मार्या उपदते संघे विद्यया मन्त्रण वा तन्निषेधनायामयमतिचारो जात इति वा । भिक्षे वा महति अवमोदर्यमग्नेन यदात्मना सेवितं, अन्ये वाऽयोग्यभिक्षाग्रहणे इत्थं प्रवर्तिता इति वा कथनं । 'दप्पादिसमावण्णे' दादिभिः समापन्नः । दप्पपमादअणाभोगआपगा आदुरे य तित्तिणिदा। संकिदसहसाकारे य भयपदोसे य मीमंसं ॥ अण्णाणणेहगारव अणप्पवसअलस उपधि सुमिणते । पलिकुचणं ससोधी करेंति वीसंतवे भेवे॥ इति दर्पादिः । अत्र दर्पोऽनेकप्रकारः क्रीडासंघर्षः, व्यायामकुहक, रसायनसेवा, हास्य, गीतशृंगारवचनं, प्लवनमित्यादिको दर्पः । प्रमादः पञ्चविधः-विकथाः, कषाया, इन्द्रियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । अथवा प्रमादो नाम संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्तिः, बाह्यशास्त्रशिक्षणं, काव्यकरणं, समितिष्वनुपयुक्तता । छेदनं भेदनं, पेषणमभिघातो, व्यधनं, बन्धनं, स्फाटनं, प्रक्षालनं, रञ्जनं, वेष्टनं, ग्रथनं, पूरणं, समुदायकरणं, लेपनं, क्षेपणं, आलेखनमित्यादिकं संक्लिष्टहस्तकर्म, स्त्रीपुरुषलक्षणं निमित्तं, ज्योतिर्ज्ञानं, छंदः, अर्थशास्त्रं, वैद्यं, लौकिकवैदिकसमयाश्च बाह्यशास्त्राणि । उपयुक्तोऽपि सम्यगतीचारं न वेत्ति सोऽनाभोगकृतः, व्याक्षिप्तचेतसा गा०-टी०-देशसे बाहर जानेके जितने मार्ग हैं, शत्रुसेनाके द्वारा उन सबके बन्द कर देनेपर साधु निकल नहीं पाता। उस समय परवश होकर साधुको भिक्षाचर्या करनेमें जो संक्लेश हुआ हो, अथवा अपने द्वारा अयोग्य पदार्थका सेवन हुआ है उसे भी गुरुसे कहता है। रातमें यह अतिचार हुआ, दिनमें यह अतिचार हुआ, यह भी कहता है । अथवा संघमें भारी रोगका उपद्रव होनेपर विद्या या मंत्रके द्वारा उसे रोकने में यह अतिचार लगा, यह भी कहता है। महान दुर्भिक्ष पड़नेपर अवमौदर्य तपको भंग करके स्वयंने जो सेवन किया हो, अथवा दूसरे साधुओंको अमुक प्रकारसे अयोग्य भिक्षाके ग्रहण करने में प्रवृत्त किया हो, वह भी कहता है। दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आपात, आर्तता, तित्तिणिदा, शंकित, सहसा, भय, प्रदोष, मीमांसा, अज्ञान, स्नेह, गारव, अनात्मवशता, आलस्य, उपधि, स्वप्नान्त, पलिकुंचन, और स्वयंशुद्धि ये बीस दर्पादि कहे हैं। इनका विवरण इनमेंसे दर्पके अनेक प्रकार हैं-१. खेलकूदमें संघर्ष, व्यायाम, इन्द्रजाल, रसायन सेवन, हास्य, गीत, शृङ्गार, दौड़ना, तैरना आदिको लेकर घमंड करना। २. प्रमादके पाँच भेद हैंविकथा, कषाय, इन्द्रियोंके विषयमें आसक्ति, निद्रा और प्रणय (स्नेह) । अथवा संक्लिष्ट हस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्रोंकी रचना करना, काव्यरचना और समितियोंमें उपयोग न लगाना ये पाँच प्रमाद हैं। छेदना, भेदना, पीसना, अभिघात, बींधना, खोदना, बाँधना, फाड़ना, धोना, रंगना, वेष्ठित करना, गूंथना, पूरना, समुदाय करना, लीपना, फेंकना, चित्रकारी करना ये सब संक्लिष्ट हस्तकर्म हैं। स्त्री पुरुषके लक्षण जिसमें बतलाये हों ऐसा शास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, छन्दशास्त्र, अर्थशास्त्र, वैद्यकशास्त्र तथा लौकिक और वैदिकशास्त्र बाह्यशास्त्र हैं Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ भगवती आराधना वा कृतः । नदीपूरः, अग्न्युत्थापन, महावातापातः, वर्षाभिघातः, परचक्ररोध इत्यादिका आपाताः । रोगातः, शोकार्ता, वेदनात इत्यार्तता त्रिविधा। रसासक्तता 'मुखरता चेति द्विप्रकारता तित्तिणिदा शब्दवाच्या.। सचित्तं किमचित्तमिति शङ्कित द्रव्ये भञ्जनभेदनभक्षणादिभिराहारस्योपकरणस्य, वसते उद्गमादिदोषोपहतिरस्ति न वेति शङ्कायामप्युपादानं । अशुभस्य मनसो वाचो वा झटिति प्रवृत्तिः सहसेत्युच्यते । ___एकान्तायां वसतौ व्यालमृगव्याघ्रादयस्तेना वा प्रविशन्ति इति भयेन द्वारस्थगने जातोऽतिचारस्तीव्रकषायपरिणामः प्रदोष इत्यच्यते । उदकराज्यादिसमानतया प्रत्येकं चतविकल्पाश्चत्वारः क परस्य वा बललाघवादिपरीक्षा मीमांसा तत्र जातोऽतिचारः। प्रसारितकराकृश्चितम् आकूति धनुषाद्यारोपणं उपलायुत्क्षेपणं,बाधनं, वृतिकण्टकाद्युल्लङ्घनं, पशुसादीनां मन्त्रपरीक्षणाय वा धारणं, औषधवीर्यपरीक्षणार्थमञ्जनस्य, चूर्णस्य वा प्रयोगः, द्रव्यसंयोजनया सानामेकेन्द्रियाणां च संमूर्च्छना परीक्षा । अज्ञानामाचरणं दृष्ट्वा स्वयमपि तथा चरति तत्र दोषानभिज्ञः । अथवाऽज्ञानिनोपनीतमुद्गमादिदोषोपहतं उपकरणादिकं सेवते इति अज्ञानात्प्रवृत्तोऽतीचारः । शरीरे, उपकरणे, वसती, कुले, ग्रामे, नगरे, देशे, बन्धुषु, पार्श्वस्थेषु वा ममेदंभावः स्नेहस्तेन प्रवर्तित अतीचारः। मम शरीरमिदं शीतो वातो बाधयति कटादि ३. उपयोग लगानेपर भी सम्यक्रूपसे अतीचारको नहीं जानना अथवा चित्त चंचल होनेसे अतीचारको न जानना अनाभोगकृत हैं। ४. नदीमें बाढ़ आना, आग लग जाना, महती आँधी आना, वर्षाकी अत्यधिकता, शत्रुसेनाका आक्रमण इत्यादि आपात है। ५. आर्तताके तीन प्रकार हैं-रोगसे पीडित, शोकसे पीड़ित, कष्टसे पीड़ित । ६. रसमें आसक्ति और बकवादमें आसक्ति इन दोनोंको तित्तिणदा कहते हैं । ७. यह सचित्त है या अचित्त ऐसी आशंका होनेपर भी उसको तोड़ना-फोड़ना खाना, अथवा आहार, उपकरण और वसतिमें उद्गम आदि दोष हैं या नहीं, ऐसी शंका होते हुए भी ग्रहण करना शंकित है। ८. अशुभ मन और वचनको झटपट प्रवृत्ति सहसा है। ९. एकान्त वसतिमें सिंह मृग सर्प और चोर आदि प्रवेश करते हैं इस भयसे द्वार बन्द कर देना भय है । १०. तीव्र कषाय युक्त परिणामको प्रदोष कहते हैं। क्रोध मान माया लोभ ये चार कपाय हैं इनमेंसे प्रत्येकके चार-चार भेद हैं जैसे जलकी रेखा, धूलकी रेखा, पृथ्वीकी रेखा और पत्थरकी रेखाके समान क्रोध होता है। . ११. अपने या दूसरेके बल लाघव आदिकी परीक्षाको मीमांसा कहते हैं। फैले हुए हाथको मोड़ने, मोड़े हुए हाथको फैलाने, धनुष आदिके चढ़ाने, पत्थर आदिके फेकने, दौड़ने, वाड कण्टक आदिको लांघने, मन्त्र परीक्षाके लिए पशु सर्प आदिको धारण करने, औषधकी शक्तिकी परीक्षाके लिए अंजन अथवा चूर्णका प्रयोग करने, द्रव्योंके संयोगसे त्रस जीवों और एकेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति करने आदिकी परीक्षा मीमांसा है। १२. अज्ञानी जनोंका आचरण देखकर स्वयं भी वैसा करता है उसमें दोष नहीं जानता। अथवा अज्ञानीके द्वारा लाये गये उद्गम आदि दोषोंसे दूषित उपकरण आदिका सेवन करता है। यह अज्ञानवश हुआ अतिचार है। . १३. शरीरमें, उपकरणमें, वसतिमें, कुलमें, ग्राममें, नगरमें, देशमें, बन्धुमें और पार्श्वस्थ १. सुखरतता-आ० । २. णार्थ धा-आ० मु० । ३. आचारः-मु० । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४२३ भिरन्तर्धानं. अग्निसेवा 'शीतापनोदनाथं प्रावरणग्रहणं वा, उद्वर्तनं, म्रक्षणं वा। उपकरणं विनश्यतीति तेन स्वकार्याकरणं यथा पिच्छविनाशभयादप्रमार्जनं इत्यादिकं । म्रक्षणं तैलादिना, कमण्डल्वादीनां प्रक्षालनं वा, वसतितृणादिभक्षणस्य भञ्जनादेर्वा ममतया निवारणं, बहूनां यतीनां प्रवेशनं मदीयं कुलं न सहते इति भाषणं, प्रवेशे कोपः. बहनां न दातव्यमिति निषेधनं, कुलस्यैव वैयावृत्यकरणं । निमित्ताधुपदेशश्च तत्र ममतया ग्रामे नगरे देशे वा अवस्थाननिषेधनं । यतीनां सम्बन्धिनां सुखेन सुखमात्मनो दुःखेन दुःखमित्यादिरतिचारः । पार्श्वस्थानां वन्दना, उपकरणादिदानं वा तदुल्लङ्घनासमर्थता । गुरुता ऋद्धित्यागासहता, ऋद्धिगौरवं, परिवारे कृतादरः । परकीयमात्मसात्करोति प्रियवचनेन उपकरणदानेन । अभिमतर सात्यागोऽनभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवं । निकागभोजने, निकामशयनादी वा आसक्तिः । सातगौरवं अनात्मवशतया प्रवर्तितातिचारः । उन्मादेन, पित्तेन पिशाचादेशेन वा परवशता । अथवा ज्ञातिभिः परिगृहीतस्य बलात्कारेण गन्धमाल्यादिसेवा प्रत्याख्या तभोजनं, रात्रिभोजनं मुखवासतांवूलादिभक्षणं वा स्त्रीभिर्नपुंसकैर्वा वलादब्रह्मकरणं । चतुर्यु स्वाध्यायेषु आवश्यकेषु वा आलस्यं । उवधिशब्देन मायोच्यते प्रच्छन्नमनाचारे वृत्तिः । ज्ञात्वा दातृकुलं पूर्वमन्येभ्यः मुनियोंमें ममत्वभाव स्नेह है । उससे हुआ अतीचार स्नेह कहाता है । मेरे इस शरीरको शीत कष्ट देता है। इसलिए चटाई वगैरहसे शीतको रोकना, आग तापना, शीत दूर करनेके लिए कुछ प्रावरण ग्रहण करना, उबटन लगाना, तेलकी मालिश करना। उपकरण नष्ट हो जायेगा इसलिए उससे अपना कार्य न करना, जैसे पिच्छीके नाशके भयसे उससे प्रमार्जन न करना, कमंडलु आदिको धोना । वसतिके तृण आदि खानेको अथवा उसके टूटने आदिको ममत्व भावसे रोकना, मेरे कुलमें बहुत यतियोंका प्रवेश सह्य नहीं है ऐसा कहना, प्रवेश करने पर कोप करना, बहुत यतियोंका प्रवेश देनेका निषेध करना, अपने कुलकी ही वैयावत्य करना, निमित्त आदिका उपदेश देना. ममत्व होनेसे ग्राम नगर अथवा देशमें ठहरनेका निषेध न करना, सम्बन्धी यतियोंके सुखसे अपनेको सुखी और दुःखसे दुःखी मानना इत्यादि अतिचार हैं। पार्श्वस्थ आदि मुनियोंकी वन्दना करना, उन्हें उपकरण आदि देना, उनका उल्लंघन करने में असमर्थ होना, इत्यादि अतीचारोंकी आलो. चना करता है। १४. ऋद्धिके त्यागमें असमर्थ होना ऋद्धिगारव है। मुनि परिवारमें आदरभाव होनेसे प्रिय वचन और उपकरण दानके द्वारा दूसरोंका अपनाता है। इष्ट रसका त्याग न करना और अनिष्ट रसमें अनादर होना रसगारव है । अति भोजन अथवा अतिशयनमें आसक्ति सात गौरव है। ये गारव सम्बन्धी अतिचार हैं। १५. अपने वशमें स्वयं न होनेसे अतिचार होते हैं। उन्मादसे, पित्तके प्रकोपसे अथवा पिशाच आदिके कारण परवशता होती है । अथवा जातिके लोगोंके द्वारा बलपूर्वक पकड़कर गन्ध माल्य आदिका सेवन, त्यागी हुई वस्तुका भोजन, रात्रि भोजन, मुखवास, ताम्बूल आदिका भक्षण कराया गया है। स्त्रियों अथवा नपुंसकोंके द्वारा बलपूर्वक अब्रह्म सेवन कराया गया हो। १६. चार प्रकारको स्वाध्याय अथवा आवश्यकोंमें आलस्य किया हो। १७. उपधि शब्दसे माया कही है अर्थात् छिपकर अनाचार करना। दाताका घर जानकर १. ग्रीष्मातफ्नो-आ० मु०। २. मतस्य ग्रा-आ० । भो-अ० आ० । ३, रसत्या-अ० आ० । ४. ख्यान . Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ भगवती आराधना प्रवेशः । कार्यापदेशेन यथा परे न जानन्ति तथा वा । भद्रकं भुक्त्वा विरसमशनं भुक्तमिति कथनं । ग्लानस्याचार्यादेर्वा वैयावृत्यं करिष्यामि इति किञ्चिद्गृहीत्वा स्वयं तस्य सेवा । स्वप्नेनाऽयोग्यप्रतिसेवा सुमिणमित्युच्यते । द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयेण प्रवृत्तस्यातिचारस्यान्यथा कथनं पलिकुञ्चनशब्देनोच्यते । कथं ? सचितसेवां कृत्वा अचित्तं सेवितमिति । अचित्तं सेवित्वा सचित्तं सेवितमिति वदति । तथा स्वावस्थाने कृतमध्वनि कृतमिति, सुभिक्षे कृतं दुर्भिक्षे कृतमिति, दिवसे कृतं रात्रौ कृतमिति, अकषायतया संपादितं तीव्रक्रोधादिना संपादितमिति । यथावत्कृतालोचनो यतिर्यावत्सूरिः प्रायश्चित्तं न प्रयच्छति तावत्स्वयमेवेदं मम प्रायश्चित्तं इति स्वयं गृह्णाति स स्वयं शोधकः । एवं मया स्वशुद्धिरनुष्ठितेति निवेदनं । एवमेतैर्दर्पादिभिः समापन्नोऽतिचारं 'उद्धरदि' कथयति । 'कमं' स्वकृतातिचारक्रमं । 'अभिदंतो' अनिराकुर्वन् ॥६१३ ॥ इयविभागयाए व ओघियाए व सल्लमुद्धरिय । सव्वगुण सोधिकंखी गुरूवएसं समायर || ६१४॥ 'इय' एवं पदविभागियाए व विशेषालोचनया वा । 'ओघियाए व सामान्यालोचनया वा । 'सल्लं' मायाशल्यं । 'उद्धरिय' उद्धृत्य । 'सव्वगुणसोधिकंखी' सर्वेषां गुणानां दर्शनज्ञानचारित्रतपसां शुद्धिमभिलषन् । 'गुरूari' गुरुणोपदिष्टं प्रायश्चित्तं । 'समादियादि' सम्यगादत्ते । रोषं दैन्यमश्रद्धानं च त्यक्त्वा ॥ ६१४॥ परिहार्यालोचनादोषानुक्त्वा गुरुसकाशे आलोचना निन्दना गुणवतीति वदति दूसरे साधुओंसे पहले ही किसी बहानेसे भिक्षाके लिए पहुँचना जिससे दूसरे न जान सकें । या अच्छा भोजन करके यह कहना कि मैंने नीरस भोजन किया है । मैं रोगीकी या आचार्यकी वैयावृत्य करूंगा, इस बहाने से कुछ वस्तु ग्रहण करके स्वयं उसका सेवन करना । १८. स्वप्नमें अयोग्य वस्तुके सेवनको सुमिण कहते हैं । १९. द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे हुए अतिचारको अन्य रूपसे कहना पलिकुंचन शब्द से कहा जाता है । जैसे सचित्तका सेवन करके कहना कि मैंने अचित्तका सेवन किया है । अचित्तका सेवन करके कहना कि सचित्तका सेवन किया है । तथा अपने स्थान पर किये गये दोषको 'मार्गमें किया है' ऐसा कहना । सुभिक्षमें किये गये दोषको दुर्भिक्षमें किया कहना । दिनमें किये को रात में किया कहना । अकषाय पूर्वक कियेको कषायपूर्वक किया कहना । २०. विधिपूर्वक आलोचना करके आचार्यंके प्रायश्चित्त देने से पहले स्वयं ही 'यह मेरा प्रायश्चित्त है' इस प्रकार जो स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण करता है उसे स्वयं शोधक कहते हैं । उसे आचार्य से निवेदन करना चाहिए मैंने इस प्रकार स्वयं शुद्धि की है । इस प्रकार क्षपक अपने द्वारा किये गये दोषोंके क्रमका उल्लंघन न करके दर्पादिसे हुए अतिचारोंको गुरुसे कहता है ॥६१३ || गा० - इस प्रकार विशेष आलोचना अथवा सामान्य आलोचनाके द्वारा मायाशल्यको दूर करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन सब गुणोंकी शुद्धिका इच्छुक क्षपक गुरुके द्वारा कहे प्रायश्चित्तको रोष, दीनता और अश्रद्धाको त्यागकर स्वीकार करता है ||६१४|| त्यागने योग्य आलोचना दोषोंको कहकर गुरुके समीपमें आलोचना और निन्दनाके गुण कहते हैं Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विजयोदया टीका कदपावो वि मणुस्सो आलोयणणिंदओ गुरुसयासे । होदि अचिरेण लहुओ उरुहियभारोव्व भारवहो ।।६१५॥ 'कदपावो वि मणुस्सो' कृतपापोऽपि मनुष्यः समजिताशुभकर्मसंचयोऽपि मनुष्यः । अथवा पापस्याशुभकर्मणः कारणभूताऽसंयमादिरिह पापशब्देनोच्यते, तेनायमर्थः-कदपावोऽवि कृतासंयमादिकोऽपि । 'आलोयणणिदओ' कृतालोचनः कृतनिन्दितश्च । क्व ? 'गुरुसयासे' गुरुसमीपे । 'होदि' भवति । 'अचिरेण लहुओ' लघुतमः 'उरुहियभारोव्व' अवतारितभार इव । 'भारवहो' भारस्य वोढा ॥६१५॥ भावशुद्धयर्था आलोचना असत्यां भावशुद्धौ को वा दोष इत्याह सुबहुस्सुदा वि संता जे मूढा सीलसंजमगुणेसु । ण उर्वेति भावसुद्धिं ते दुक्खणिहेलणा होति ।।६१६।। 'सुबहुस्सुदा वि संता' सुष्ठु बहुश्रुता अपि सन्तः । 'जे मूढा' ये मूढाः । 'सीलसंजमगुणेसु' शीले क्षमादिके धर्म, संयमे, व्रतेषु गुणेषु ज्ञानदर्शनतपःसु च । 'भावसुद्धि' परिणामेन शुद्धि । 'ण उर्वति' नोपयान्ति ते । 'दुक्खणिहेलणा' दुःखैनिष्पीड्या । ‘होति' भवन्ति ॥६१६॥ . कृतायामालोचनायां गुरुणा किं कर्तव्यमित्यत आह आलोयणं सुणित्ता तिक्खुत्तो भिक्खुणो उवायेण । जदि उज्जुगोत्ति णिज्जइ जहाकदं पट्ठवेदव्वं ॥६१७॥ 'आलोयणं' आलोचनां । 'सुणित्ता' श्रुत्वा । 'तिक्खुत्तो' त्रिः पृष्ट्वा । 'भिक्खुणो' भिक्षोः । 'उपायेण' उपायेन । 'जदि उज्जुगोत्ति य' यदि ऋजुरयमिति । 'णज्जई' ज्ञायते । “वचनेन आचरणेन वा ज्ञायते प्राण ऋजुता । 'जहा' यथा । 'कदं' कृतं पापं सुज्झदिति शेषः शुद्धयति तथा 'पट्ठवेदव्वं' प्रायश्चित्तं दातव्यं । गा०-'कृतपाप' अर्थात् अशुभकर्मका संचय करनेवाला भी मनुष्य । अथवा पाप अर्थात् अशुभकर्मके कारणभूत असंयम आदिको यहाँ पापशब्दसे कहा है । तब यह अर्थ होता है-असंयम आदि करनेवाला भी मनुष्य गुरुके समीप आलोचना और निन्दा करके शीघ्र ही हलका हो जाता है जैसे बोझको उतारनेपर बोझा ढोनेवाला हलका हो जाता है॥६१५॥ __भावोंकी शुद्धिके लिए आलोचना की जाती है । भावशुद्धिके अभावमें दोष कहते हैं __ गा०-जो मूढ़ मुनि बहुत अच्छे वहुश्रुत विद्वान् होकर भी क्षमा आदि धर्ममें, संयममें, व्रतोंमें, ज्ञान दर्शन और तप गुणोंमें भावशुद्धि नहीं रखते वे दुःखोंसे पीड़ित होते हैं ।।८१६॥ आलोचना करनेपर गुरुको क्या करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-आलोचना सुनकर गुरु भिक्षुसे तीन वार उपायसे पूछते हैं तुम्हारा अपराध क्या है मैं भूल गया या मैंने सुना नहीं। इत्यादि उपायसे गुरु तीन बार पूछते हैं। यदि 'वचन' कहनेके ढंगसे और आचरणसे जानते हैं कि यह सरल हृदय है तो जिस प्रकार किया पापशुद्ध हो १. ते तनुभवनेन वाचर-आ० । ५४ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ भगवती आराधना . अनृजो वशुद्धयभावान्न व्यवहारिणः प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति सूरयः । भावशुद्धिमन्तरेण पापानपायात् रत्नत्रयस्य निरतिचारत्वाभावात् ॥६१७॥ . ऋज्वी इतरा वा आलोचना कीदृशी यस्यां सत्यां प्रायश्चित्तं दीयते न च दीयते इत्यत्र आचष्टे आदुरसल्ले मोसे मालागररायकज्ज तिक्खुत्तो। आलोयणाए वक्काए उज्जुगाए य आहरणे ॥६१८॥ 'आदुरसल्ले' आतुरो व्याधितः स वैद्यन वारत्रयं पृच्छयते । किं भुक्तं ? किमाचरितं ? कीदृशी वा रोगस्य वृत्तिरिति । शल्यमपि शरीरलग्नं त्रिः परीक्ष्यते । शुद्धता व्रणस्य जाता न वेति । 'राजकज्जं तिक्खुत्तो' राज्ञा आज्ञप्तं कार्य किमेवं करिष्यामीति:त्रिः पृच्छयते । 'आलोयणाए' आलोचनायां । 'वक्काए' वक्रायाः । 'उजुगाए' ऋज्व्याश्च । 'आहरणे' दृष्टान्तः । यदि वारत्रयमप्येकरूपेण वक्ति ततो ऋग्वी अन्यथा अन्यदन्यदाचष्टे वक्रेति ग्राह्यं ॥६१८॥ पडिसेवणातिचारे जदि' णो जंपदि जधाकमं सव्वे । ण करेंति तदो सुद्धिं आगमववहारिणो तस्स ।।६१९।। 'पडिसेवणातिचारें प्रतिसेवनानिमित्तानतीचारान । तत्र प्रतिसेवा चतुर्विधा द्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन । द्रव्यप्रतिसेवा त्रि:प्रकारा सचित्तमचित्तं मिश्रमिति द्रव्यस्य त्रिविधत्वात् । चित्तं ज्ञानं तथा च प्रयोगः-चित्तमात्रं जगतत्त्वं ज्ञानमात्रमिति यावत । ज्ञानस्यात्मनः कथञ्चिदव्यतिरेकात्तात्स्थ्याद्वा चित्तशब्देनाभि उस प्रकार प्रायश्चित्त देना चाहिए। जो सरल हृदय नहीं होता उसके भावशुद्धि नहीं होती। इसलिए व्यवहार कुशल आचार्य उसे प्रायश्चित्त नहीं देते । भावशुद्धिके विना पाप दूर नहीं होता । इसलिए उसके रत्नत्रय निरतिचार नहीं होते ।।६१७|| सरल या वक्र आलोचना कैसी होती है जिसके होनेपर प्रायश्चित्त दिया जाता है या नहीं दिया जाता, यह कहते हैं गा०-टी०-वैद्य रोगीसे तीन बार पूछता है-तुमने क्या खाया था, क्या किया था, रोगकी क्या दशा है ? शरीरमें लगे घावकी भी तीन बार परीक्षा की जाती है कि घाव भरा या नहीं? चोरी होनेपर तीन बार पूछा जाता है कि क्या-क्या चोरीमें गया है, कैसे चोरी हुई है ? मालाकारसे भी तीन बार पूछा जाता है कि तेरी मालाका क्या मूल्य है। राजाने जिसे कार्य करनेकी आज्ञा दी है वह तीन बार पूछता है कि क्या इस प्रकार करूं ? इसी प्रकार आलोचनाकी परीक्षा भी तीन बार की जाती है। अपना अपराध पुनः कहो ? ये सरल और वक्र आलोचनाके सम्बन्धमें पाँच दृष्टान्त हैं। यदि तीनों बार भी एकरूपसे ही कहता है तो सरल आलोचना है। • यदि अन्य अन्यरूपसे कहता है तो वक्र आलोचना है ऐसा समझना चाहिए ।।६१८।। गा०-टी०-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे प्रतिसेवनाके चार भेद हैं। द्रव्यप्रतिसेवनाके तीन प्रकार हैं क्योंकि सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे द्रव्यके तीन प्रकार हैं। चित्त ज्ञानको कहते हैं। कहा जाता है-जगत् तत्त्व चित्तमात्र है अर्थात् ज्ञानमात्र है। ज्ञान आत्मासे १. णाउटेदि अ० । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४२७ धानं । सह चित्तेनात्मना वर्तते इति सचित्तं जीवशरीरत्वेनावस्थितं पुद्गलद्रव्यं । न विद्यते चित्तं आत्मा यस्मिन्पुद्गले तदचित्तं । मिश्रं नाम सचित्ताचित्तपुद्गलसंहतिः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः जीवपरिगृहीताः सचित्तशब्देनोच्यन्ते। अचित्तं जीवन परित्यक्तं शरीरं 'तयोरुपादाय क्षेत्रादिप्रतिसेवना च योज्या। 'जदि णो जंपदि' न कथयेदि । 'जहाकम' यथाक्रमं । 'सन्वें' सर्वान् स्थूलान्सूक्ष्मांश्चातिचारान् । 'ण करंति' न कुर्वन्ति । 'तदो' ततः । तस्स सोधि' तस्य शुद्धि । 'आगमववहारिणो' आगमानुसारेण व्यवहरन्तः । एत्थ दु उज्जुगभावा ववहरिदव्वा भवंति ते पुरिसा।। संका परिहरिदव्या सेसे पट्टहि जहिं विसुद्धा ॥ [ ] इति वचनात् सर्वमतिचार निवेदयत एव ऋजुता, तस्यैव प्रायश्चित्तदानं ॥६१९।। पडिसेवणादिचारे जदि "आजपदि जहाकम सव्वे । कुव्वंति तहो सोधिं आगमववहारिणों तस्स ॥६२०।। स्पष्टा गाथा ।।६२०॥ यतिना निर्दोषायामालोचनायां कृतायां गणिना कि कर्तव्यमित्याशङ्गिते तद्वयापारं कथयति सम्म खवएणालोचिदम्मि छेदसुदजाणगो गणी सो। तो आगममीमंसं करेदि सुत्ते य अत्थे य ॥६२१।। कथञ्चित् अभिन्न होता है अथवा आत्मामें रहता है इसलिए उसे चित्त शब्दसे कहते हैं । जो चित्त अर्थात् आत्माके साथ रहता है वह सचित्त है। अर्थात् जीवके शरीररूपसे स्थित पुद्गलद्रव्य सचित्त है । और जिस पुद्गलमें चित्त अर्थात् आत्मा नहीं है वह अचित्त है। सचित्त और अचित्त पुद्गलोंका समूह मिश्र है। जीवके द्वारा ग्रहण किये गये अर्थात् जिनमें जीव वर्तमान है उन पृथिवी, जल, आग, वायु और वनस्पतिको सचित्त कहते हैं । जीवके द्वारा त्यागे हुए शरीरको अचित्त कहते हैं। इन सचित्त अचित्तको लेकर क्षेत्र प्रतिसेवना, काल प्रतिसेवना और भाव प्रतिसेवना लगा लेना चाहिए । इन प्रतिसेवनाके निमित्तसे हुए सव सूक्ष्म और स्थूल दोषोंको यथाक्रम यदि नहीं कहता तो आगमके अनुसार व्यवहार करने वाले आचार्य उसकी शुद्धि नहीं करते । आगममें कहा है ___'जो पुरुष सरल भावसे अपने दोष कहते हैं वे प्रायश्चित्त द्वारा विशुद्धि करने योग्य होते हैं । और जिनके विषयमें शंका हो वे प्रायश्चित्त देनेके योग्य नहीं हैं।' अतः सब अतिचारोंको कहने वालेके ही सरलता होती है। उसीको प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६१९।। . गा०-प्रतिसेवना सम्बन्धी सब अतिचारोंको क्रमानुसार यदि कहता है तो आगमके अनुसार व्यवहार करने वाले आचार्य उसकी शुद्धि करते हैं ।।६२०॥ यतिके निर्दोष आलोचना करने पर आचार्यको क्या करना चाहिए ? ऐसी आशंका करने पर उसे कहते हैं १. तयोरुपादानं क्षेत्रादि प्रतिसेवना योज्या-आ० मु० । २. जदि णाकुंटिदि-अ० । ३. पादहि अ० । ४. आउंटेदि अ०। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ भगवती आराधना 'खवगेण सम्म आलोचिदम्मि' क्षपकेन सम्यगालोचिते । 'छेदसुदजाणगो गणी सो' छेदसूत्रज्ञः सूरिः सः । 'तो' पश्चात । 'आगममीमंसं' आगमविचारं । 'करेदि' करोति । कथं ? 'सुत्ते य अत्थे य' सूत्रे च अर्थे च । इदं सूत्रं अस्य चायमर्थ इति अपराधस्यैवंभूतस्य इदं प्रायश्चित्तमनेन सूत्रेण चेदं निर्दिष्टं इति प्राग्निरूपयति ॥६२१॥ परिणामश्च निरूपयितव्यस्तदीयः किमर्थमित्यत आह पडिसेवादो हाणी वड्डी वा होइ पावकम्मस्स । परिणामेण दु जीवस्स तत्थ तिव्वा व मंदा वा ॥६२२।। 'पडिसेवादो जातस्स पावकम्मस परिणामेण हाणी वड्ढी वा होदि' । कीदृशी ? तिव्वा वा मन्दा वा इति पदघटना । प्रतिसेवनातो जातस्य पापकर्मणः परिणामेन पाश्चात्येन करणेन हानि वृद्धि भवति । तीवा हानिस्तीवा वृद्धिः । मन्दा वा हानिर्मन्दा वा वृद्धिः ॥६२२।। तदुभयव्याख्यानाय गाथाद्वयमुत्तरम् सावज्जसंकिलिट्ठो गालेइ गुणे णवं च आदियदि । पुव्यकदं व दढं सो दुग्गदिभवबंधणं कुणदि ॥६२३।। 'सावज्जसंकिलिट्ठो' सावद्यसंक्लेशो द्विप्रकारः । सह अवद्येन पापेन वर्तत इति सावद्य एकः । अन्यस्तु संक्लेशश्चित्तबाधा । न तु सावद्यः । ज्ञानं विमलं कि मम न जायते. सम्पूर्ण चारित्रं शरीरं वा किमर्थमिदमति गा०-क्षपकके द्वारा सम्यक् आलोचना करने पर छेद सूत्र अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता आचार्य सूत्र और उसके अर्थको लेकर आगमका विचार करता है कि यह सूत्र है और इसका यह अर्थ है । इस प्रकारके अपराधका यह प्रायश्चित्त इस सूत्रमें कहा है, ऐसा पहले विचार करता है ॥६२१॥ दोषके अनुसार प्रायश्चित्तका विचार करने वाले आचार्यको अतिचारके समय तथा उसके बाद होने वाले क्षपकके परिणामोंका भी विचार करना चाहिए क्योंकि गा०-प्रतिसेवना अर्थात् असंयम आदिका सेवन करनेसे उत्पन्न हुए पापकर्मको पीछे हुए शुभ या अशुभ परिणामोंसे तीव्र हानि अथवा तीव्र वृद्धि, मन्द हानि अथवा मन्द वृद्धि होती है । अर्थात् असंयम सेवन करते समय जैसे तोव अशुभ परिणामसे तीव्र पाप बन्ध और मन्द अशुभ परिणामसे मन्द पापबन्ध हुआ था वैसे ही आलोचनाके पश्चात् तीव्र शुभ परिणाम होनेसे पापकी तीव्र हानि और मन्द शुभ परिणाम होनेसें पापको मन्द हानि होती है इसका विचार भी आचार्य करते हैं ।।६२२।। इन दोनों का व्याख्यान आगे दो गाथाओंसे करते हैं गा०-टी०-सावद्य संक्लेश दो प्रकारका है। एक वह जो अवद्य अर्थात् पापके साथ होता है । दूसरा संक्लेश है चित्तकी बाधा । वह सावध रूप नहीं होता। जैसे मेरा ज्ञान निर्मल क्यों १. भयवधणं-मूलारा०। २. सावद्यसंक्लेशसहितः क्लेशो-आ० । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ४२९ दुर्वलं तपोयोगासहमिति एवमादिकस्तन्निरासाय सावधविशेषणं सावद्यसंक्लिष्टः । 'गालेदि गुणे' गालयति गुणान् दर्शनज्ञानचारित्राणि । 'णवं च आदियदि' कर्म च आदत्ते अभिनवं । 'पुव्वकवं च दढं कुणदि' पूर्वाजितं च दृढीकरोति कषायपरिणामनिमित्तत्वात् स्थितिबन्धस्य । 'दुग्गदिभयकारणं' दुर्गतयः नारकत्वादयः विचित्रवेदनासहस्रसंकुलास्तासु भयं वर्द्धयति, यत्कर्माशुभं तदादत्ते स्थिरयति ॥६२३॥ पडिसेवित्ता कोई पच्छत्तावेण डज्झमाणमणो । संवेगजणिदकरणो देसं घाएज्ज सव्वं वा ॥६२४।। 'पडिसेवित्ता कोई' कश्चित्कृतासंयमादिसेवनोऽपि । 'पच्छत्तावेण डज्झमाणमणो' पश्चात्तापेन दह्यमानचित्तः । 'संवेगजणिदकरणो' संसारभीरुताजनितसंयमनक्रियः। 'देसं सम्वं वा घादेज्ज' आत्माभिनवसंचितकर्मपुद्गलस्कंधैकदेशनिर्जरां वा करोति, समस्तं वा तद् घातयेत् । यदि मध्यमो मन्दो वा परिणामो देशं घातयति । अथ तीव्रः समस्तं इति भावः ॥६२४॥ तो णच्चा सुत्तविद् णालियघमगो व तस्स परिणामं । जावदिएण विसुज्झदि तावदियं देदि जिदकरणो ॥६२५॥ 'तो' तस्मात् । 'गच्चा' ज्ञात्वा । 'सुत्तविदू' प्रायश्चित्तसूत्रज्ञः सूरिः । किं ? 'तस्स परिणाम' कृतापराधस्य परिणामं । कथं परकीयः परिणामो ज्ञायते इति चेत सहवासेन तीव्रक्रोधस्तीवमान इत्यादिकं सुज्ञातमेव तत्कार्योपलम्भात्, तमेव वा परिपृच्छय, कीदृग्भवतः परिणामोऽतिचारसमकालं वृत्त इति । किमिव ? 'गालिगधमगोव्व' नालिकया यो धमति सुवर्णकारः सोऽग्नेबलाबलं विदित्वा धमनं करोति, एवं सूरिरपि अस्य कर्म तनुतरं महद्वेति विदित्वा । 'जावदिगेण' यावता प्रायश्चित्तेन । 'विसुज्झदि' विशुद्धयति । 'तावदिगं' तावत्परिमाणं प्रायश्चित्तं अल्पं महद्वा । 'देदि' ददाति । 'जिदकरणो' परिचितप्रायश्चित्तदानक्रियः ॥६२५।। नहीं होता? या मेरे सम्पूर्ण चारित्र क्यों नहीं है ? मेरा शरीर क्यों इतना दुर्बल है कि तपोयोगको सहन नहीं करता ? इत्यादि संक्लेश चित्त बाधारूप है। उससे अलग करनेके लिए सावध विशेषण देकर 'सावध संक्लिष्ट' कहा है । यह सावद्य संक्लेश सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र गुणोंका नाश करता है । नवीन कर्मका बन्ध करता है। पूर्व संचित कर्मोंको दृढ़ करता है। क्योंकि स्थिति बन्ध कषाययुक्त परिणामके निमित्तसे होता है। नाना प्रकारके हजारों वेदनाओंसे व्याप्त नारक आदि दुर्गतियोंके भयको बढ़ाता है । अशुभ कर्मको स्थिर करता है ॥६२३।। ___ गा०-टी०-कोई असंयम आदिका सेवन करके भी पश्चात्तापके द्वारा अपने चित्तको जलाता है अर्थात् उसे अपने कर्म पर पश्चात्ताप होता है और वह संसारसे भयभीत होकर संयमका पालन करता है । तब वह अपने द्वारा संचित नवीन कर्म पुद्गल स्कन्धोंके एक देशकी निर्जरा करता है अथवा समस्त कर्म पुद्गल स्कन्धका घात करता है। यदि परिणाम मध्यम या मन्द होते हैं तब एक देशकी निर्जरा करता है। और तीव्र होते हैं तो समस्तका घात करता है ॥६२४॥ गा०-टी०-अतः प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता और प्रायश्चित्त देनेकी क्रियासे परिचित, आचार्य उस अपराधी भिक्षुके परिणामोंको जानकर जितने प्रायश्चित्तसे उसकी विशुद्धि हो उतना ही थोड़ा या बहुत प्रायश्चित्त देते हैं। जैसे सुवर्णकार आगका बलाबल जानकर तदनुसार उसे धौंकनी से धौंकता है। उसी प्रकार आचार्य भी उसका अपराध थोड़ा या बहुत है यह जानकर प्रायश्चित्त देते हैं । दूसरेके परिणाम आचार्य कैसे जानते हैं ? इसका उत्तर है कि साथ रहनेसे यह Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना आउव्वेदसमत्ती तिगिछिदे मदिविसारदो वेज्जो । रोगादंकाभिहदं जह णिरुजं आदुरं कुणइ ।।६२६॥ 'आउठवेदसमत्ती' नितिसमस्तायुर्वेदः । 'तिगिछिदें' चिकित्सायां । 'मदिविसारदो' वुद्धया निपुणः । 'वेज्जो' वैद्यः । 'रोगातकाभिहदं' महता अल्पेन वा व्याधिना पीडितं । 'आदरं' व्याधितं । 'जह' यथा । 'णिरुजं कुदि' विशुद्धं करोति ॥६२६।। एवं पवयणसारसुयपारगो सो चरित्तसोधीए । पायच्छित्तविदण्हू कुणइ विसुद्धं तयं खवयं ॥६२७।। ‘एवं पवयण सारसुयपारगो' प्रवचने यत्सारभूतं श्रुतं तस्य पारगतः । 'पायच्छित्तविदहू' प्रायश्चित्तक्रमशः । 'चरित्तसोधीए' चारित्रशुद्धया । 'तयं खवयं' तकं क्षपकं । 'विसुद्धं कुणवि' विशुद्धं करोति ॥६२॥ स्थविरे व्यावणितगुणे असत्यन्योऽपि भवति निर्यापक इति शङ्कायां कथयति एदारिसंमि थेरे असदि गणत्थे तहा उवज्झाए । होदि पवत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए ।।६२८॥ 'एदारिसम्मि' व्यावणितगुणे। 'थेरे' स्थविरे अविद्यमाने । 'गणत्थे' गणस्थे । 'तहा' तथा । 'उवज्झाए' उपाध्याये वाऽसति । 'होदि' भवति । "णिज्जवओ' निर्यापकः । 'पवत्तो' प्रवर्तकः । थेरो' स्थविरश्चिरप्रवजितो मार्गज्ञो । 'गणधरवसहो य' बालाचार्यो वा । 'जदणाए' यत्नेन प्रवर्तमानः । एवमालोचनायां गुणदोपनिरूपणा समाप्ता ॥६२८॥ सो कदसामाचारी सोज्झं कटुं विधिणा गुरुसयासे । विहरदि सुविसुद्धप्पा अन्भुज्जदचरणगुणकंखी ॥६२९॥ 'सो कदसामाचारी' स क्षपकः कृतसमाचारः । 'सोज्झं' शुद्धि । 'कटु' कृत्वा “विधिणा' विधिना । ज्ञात हो जाता है कि यह तीव्र क्रोधी या तीव्र मानी है। अथवा उसीसे पूछनेसे कि दोष करते समय आपके परिणाम कैसे थे, ज्ञात हो जाता है ॥६२५।। गा०–अथवा जैसे समस्त आयुर्वेदका ज्ञाता और चिकित्सामें निपुण बुद्धि वाला वैद्य महती अथवा अल्प व्याधिसे पीड़ित रोगीको नीरोग करता है ।।६२६।। गा०-उसी प्रकार प्रवचनके सारभूत श्रुतका पारगामी और प्रायश्चित्तके क्रमका ज्ञाता आचार्य चारित्रकी शुद्धिके द्वारा उस क्षपकको विशुद्ध करता है ।।६२७।। उक्त गुणवाला आचार्य न होने पर क्या अन्य भी निर्यापक हो सकता है ? इसका समाधान करते हैं गा०--उक्त गुणवाले आचार्यके तथा उपाध्यायके संघमें न होने पर सावधानता पूर्वक प्रवत्ति करने वाला प्रर्वतक अथवा स्थविर अथवा बालाचार्य निर्यापक होता है । जो अल्प शास्त्रज्ञ होते हुए भी सर्व संघकी मर्यादा चर्याको जानता है उसे प्रवर्तक कहते हैं। जिसे दीक्षा लिए बहुत काल बोत गया है तथा जो मार्गको जानता है उसे स्थविर कहते हैं ।।६२८।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४३१ 'गुरुसयासे' गुरुसमीपे । 'विहरदि' प्रवर्तते । 'सुविसुद्धप्पा' सुष्ठु विशुद्धात्मा । 'अन्भुज्जदचरणगुणकखी' अभ्युद्यतचारित्रगुणकांक्षासमन्वितः ॥६२९॥ एवं वासारत्ते फासेदण विविघं तवोकम्मं । संथारं पडिवज्जदि हेमंते सुहविहारम्मि ।।६३०॥ 'एवं वासारते' वर्षाकाले 'फासेदूण' स्पृष्ट्वा । 'विविधं' नानाप्रकारं । 'तवोकम्म' तपःकर्म। 'संथारं' संस्तरं । 'पडिवज्जदि' प्रतिपद्यते । 'हेमंते' शीतकाले । 'सुहविहारम्मि' सुखविहारे । अनशने समुद्यतस्य महान्परिश्रमो न भवति तत्र काले इति सुखविहारमित्युच्यते ॥६३०॥ सव्वपरियाइयस्स य पडिक्कमित्तु गुरुणो णिओगेण । सव्वं समारुहित्ता गुणसंभारं पविहरिज्जा ॥६३१।। 'सव्वपरियाइयगस्सय' सर्वस्य ज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायस्य अतिचारान् । 'पडिक्कमित्तु' प्रतिनिवृत्तो भूत्वा । 'गुरुणिओगेण' गुरूपदेशेन । 'गुणसंभारं' गुणानां समूहं । 'सव्वं' कृत्स्नं 'समारुहित्ता' सम्यगारुह्य । 'पविहरिज्ज' प्रवर्तेत । आलोचनागुणदोषाः ॥६३१॥ कीदृशी वसतिर्योग्या का वा नेत्येतद्वयाचष्टे उत्तरेण ग्रन्थेन तथा योग्यां निरूपयति गंधव्वणट्टजट्टस्सचक्कजंतग्गिकम्मफरुसे य । णत्तियरजया पाडहियडोंबणडरायमग्गे य ॥६३२।। 'गंधव्वणट्टजट्टस्सचक्कजंतग्गिकम्मफरसे य' गायकानां, नर्तकानां, गजानामश्वानां च शालायां, तिलमनकुम्भकारशालायां च यन्त्रशालायां रजकपाटहिकडोंबनटगृहाणां समीपे। राजमार्गस्य वा समीपभूतायां वसतौ ॥६३२॥ गा०-वह क्षपक सामाचारी करके विधिपूर्वक प्रायश्चित्त द्वारा अपने दोषोंकी विशुद्धि करता है । और अच्छी तरहसे आत्माको विशुद्ध करके स्वीकृत चारित्रमें गुणोंकी इच्छा करता हुआ गुरुके पासमें साधना करता है ॥६२९॥ गा०-इस प्रकार वर्षाकालमें नाना प्रकारके तप करके सुख विहार वाले हेमन्त ऋतुमें संस्तरका आश्रय लेता है । हेमन्त ऋतुमें अनशन आदि करने पर महान् परिश्रम नहीं होता, सुखपूर्वक हो जाता है इसलिए उसे सुखविहार कहा है ॥६३०॥ ___ गा.-समस्त ज्ञान दर्शन और चारित्रके अतिचारोंसे शुद्ध होकर, गुरुके उपदेशसे समस्त गुणोंके समूहको धारण करके क्षपकको समाधि मरणमें लगना चाहिए ॥६३१॥ आगे कौन वसतिका योग्य है और कौन अयोग्य है यह कहते हैं। प्रथम अयोग्यका कथन करते हैं-- ___ गा०-गायनशाला, नृत्यशाला, गजशाला, अश्वशाला, कुम्भकारशाला, यन्त्रशाला, शंख हाथी दांत आदिका काम करने वालोंका स्थान, कोलिक, धोबी, बाजा बजाने वाले, डोम, नद और राजमार्गके समीपका स्थान ॥६३२।। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ भगवती आराधना चारणकोट्टगकल्लालकरकचे पुष्फदयसमीपे य । एवंविधवधी होज्ज समाधीए वाघादो || ६३३॥ 'चारणको ट्टगकल्लालक रकचे' चारणकोट्टकशालायां, रजकशालायां, रसवणिक्शालायां । पुष्पवाटस्य वा जलाशयस्य वा समीपभूतायां । 'एवंविधवसधीए' ईदृश्यां वसतौ वसतः । 'होज्ज बाघादो' भवति व्याघातः । कस्य ? ' समाधीए' समाधेश्चित्तं काम्यस्य । इन्द्रियविषयाणां मनोज्ञानां शब्दानां रूपादीनां च सन्निधानाच्छन्दबहुलत्वाच्च ध्यानविघ्नो भवतीति प्रतिषिध्यते व्यावणिता वसतिः ॥ ६३३॥ व तर्हि कथं तिष्ठत्यस्योत्तरमाचष्टे पंचिदियप्पयारो मणसंखोभकरणो जहिं णत्थि । चिट्ठदि तहिं तिगुत्तो ज्झाणेण सुहप्पवत्तेण ||६३४|| 'पंचिदियत्पयारो' पञ्चानामिन्द्रियाणां स्वविषयाभिमुख्येनादरात् प्रकृष्टं गमनं । 'जहि' यस्यां वसतो नास्ति । कीदृगिन्द्रियप्रचारो 'मणसंखोभकरणो' मनः संक्षोभकारी । 'ताह' तस्यां वसतौ । 'चिट्ठदि' तिष्ठति । 'तिगुत्तो' कृतमनोवाक्कायसंरक्षकः । 'ज्झाणेण' ध्यानेन । 'सुहप्पवत्तेण' सुखप्रवृत्तेन ॥६३४|| मनःसंक्षोभहेतुः पञ्चानामिन्द्रियाणां प्रचारो यस्यां वसतौ नास्ति तस्यां सर्वस्यां तिष्ठति न वेत्याचष्टेउगम उप्पादण सणाविसुद्धा अकिरियाए हु | वसई असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए || ६३५ ।। 'उग्ग मउप्पादणएसणाविसुद्धाए' उद्गमोत्पादनंषणादोषरहितायां । 'अकिरियाए हु' 'आत्मानमुद्दिश्य उपलेपनमार्जन क्रियारहितायां । 'वसदि' वसति आस्ते । 'असंसत्ताए' तत्रस्थैरागन्तुकैश्च सवर्वजितायां । गा० - टी० - चारणशाला, पत्थरका काम करनेवालोंका स्थान, कलालोंका स्थान, आरासे चीरने वालोंका स्थान, पुष्पवाटिका, मालाकारका स्थान, जलाशयके समीपका स्थान वसतिके योग्य नहीं है । ऐसी वसतिका में रहनेसे समाधिका व्याघात होता है । इन्द्रियोंके विषय मनोज्ञ शब्द रूप आदिके सम्बन्धसे तथा शब्दोंकी बहुलता - होहल्लेसे ध्यान में विघ्न होता है । इसलिए ऊपर कही वसतिकाओंका निषेध किया है || ६३३ || तब कहाँ रहते हैं ? इसका उत्तर देते हैं- गा०—– जहाँ मनको संक्षोभ करने वाला पाँचों इन्द्रियोंका अपने विषयोंमें उत्सुकतापूर्वक गमन संभव नहीं है उस वसतिका में साधु क्षपक मन वचन कायको गुप्त करके, सुखपूर्वक ध्यान करता हुआ निवास करता है || ६३४ || मनको संक्षोभका कारण पांचों इन्द्रियोंका विषयोंमें गमन जहाँ नहीं है ऐसी सब वसतिकाओं में क्या निवास करता हैं ? इसका उत्तर देते हैं गा० - जो वसति उद्गम उत्पादन और एषणा दोष से रहित होती है, अपने उद्देशसे जिसमें लिपाई पुताई आदि नहीं कराई गई है जिसमें उसी वसतिका में रहने वाले तथा वाहरसे १. आत्मना उप-आ० मु० । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'fromrasगाए' संस्काररहितायां । 'सेज्जाए' वसतौ ॥ ६३५ || निर्दोषा वसतिस्तर्हि का आश्रयितव्या इत्यत्र वसतिं व्यावर्णयति - सुहणिक्खवणपवेसण घणाओ अवियडअगंधयाराओ । दो तिणि वि 'सीओ घेत्तव्वाओ विसालाओ ||६३६|| 'सुहणिक्खवणपर्व सणघणाओ' अक्लेशप्रवेशनिर्गमन घना | 'अवियड प्रणंधरयाराओ' अनन्धकाराश्च जघन्यतो द्वे शाले ग्राह्ये । एकत्र क्षपको वसति, अन्यस्यां अन्ये यतयो बाह्यजनाश्च धर्मंश्रवणार्थमायाताः । विवृतद्वारतया शीतवातादिप्रवेशात्त्वगस्थिमात्रतनोर्दुस्सहं दुःखं स्यात् । शरीरमलत्यागोऽपि कथमप्रच्छन्ने क्रियेत । अन्धकार बहुले असंयमः स्यात् । असुखनिष्क्रमणप्रवेशनायां आत्मविराधना संयमविरा अविवृतद्वारा धना च ॥ ६३६ ॥ अन्यच्चाचष्टे— घणकुड्डे सकवाडे गामबहिं बालबुढ्ढगणजोग्गे । उज्जाणघरे गिरिकंदरे गुहाए व सुण्णहरे || ६३७॥ 'घणकुड्डे' दृढकुडये । 'सकवाडे' कपाटसहिते । 'गामबह' ग्रामबाह्ये देशे । 'बालबुड्ढगणजोग्गे' बालानां वृद्धानां गणस्य चतुविधस्य योग्ये उद्यानगृहे । 'गुहाए' गुहायां । वा 'सुण्णघरे' शून्यगृहे वा । 'संथारो होदित्ति' क्रियापदाभिसम्बन्धः ।। ६३७।। आने वाले प्राणी आकर वास नहीं करते, तथा जो संस्कार रहित वसति है उसमें साधु निवास करते हैं ॥६३५॥ ४३३ तब कैसी निर्दोष वसति में रहना चाहिए, इसके उत्तर में वसतिका वर्णन करते हैं गा० - टी० - जिसमें विना कष्टके सुखपूर्वक प्रवेश और निर्गमन होता हो, जिसका द्वार खुला न हो तथा जिसमें अन्धकार न हो। ऐसी दो अथवा तीन विशालवसतिका ग्रहण करनी चाहिए । जघन्यसे दो वसति लेना चाहिए। एकमें क्षपक रहता है । दूसरीमें अन्य यति और धर्म सुनने के लिए आये बाहरके आदमी रहते हैं । [ यदि तीन ग्रहण करते हैं तो एकमें क्षपक, एकमें अन्य यति और एकमें धर्मोपदेश होता है] यदि वसतिका द्वार खुला हो तो शीतवायु आदि प्रवेशसे हाडचाममात्र शेष रहे क्षपकको दुःसह दुःख होता है । खुले स्थान में वह मलमूत्रका त्याग भी कैसे करेगा ? अन्धेरी वसति में असंयम होगा - जीवजन्तु दृष्टिगोचर नहीं होंगे। सुखपूर्वक आना जाना सम्भव न होनेसे अपनी भी विराधना होती है और संयम की भी विराधना होती है ।।६३६|| और भी कहते हैं गा० - जिसकी दीवार मजबूत हो, कपाट सहित हो, गाँव के बाहर ऐसे प्रदेश में हो जहाँ बच्चे बूढ़े और चार प्रकारका संघ जा सकता हो, ऐसी वसतिमें, उद्यानघर में, गुफामें अथवा शून्यघरमें क्षपकका संथरा होता है ||६३७|| १. शालाओ - मु० । २. मना अपि-आ० मु० । ५५ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ भगवती आराधना आगंतुघरादीसु वि कडएहिं य चिलिमिलीहिं कायव्यो । खवयस्सोच्छागारो धम्मसवणमंडवादी य ॥६३८।। 'आगंतुघरादीसु वि' आगन्तुकैः स्कन्धावारायातैः साथिकैः कृतेषु गृहादिषु 'संथारो होदित्ति' वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । उक्तानां वसतीनामलाभे 'कडएहि खवगस्सोच्छागारो कादम्वो' कटकैः क्षपकस्य अवस्थितये प्रच्छादनं कार्य। 'धम्मसवणमंडवावी य' धर्मश्रवणणमडपादिकं च । अनेन बहतरासंयमनिमित्तवसतित्यामः, संयमसाधनवसतिविकल्पश्च कथितः । सेज्जा ॥६३८।। ... एवंभूतायां वसती संस्तर इत्थंभूत इत्याचष्टे पुढवीसिलामओ वा फंलयमओ तणमओ य संथारो। होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अह व पुव्वसिरो ॥६३९।। 'पुढवीसंथारो होदि' पृथ्वीसंस्तरो भवति । 'सिलामओ वा' शिलामयो वा। ‘फलकमओ वा' फलकमयो वा । 'तणमओ वा' तृणमयो वा 'समाधिणिमित्तं' समाध्यर्थ । 'उत्तरसिरमथ पुव्वसिरं' पूर्वोत्तमांग उत्तरोत्तमांगो वा संस्तरः कार्यः । प्राची दिगम्युदयिकेषु कार्येषु प्रशस्ता । अथवोत्तरा दिक् स्वयंप्रभाद्युत्तरदिग्गततीर्थकरभक्त्यु द्देशेन ।।६३९॥ . भूमिसंस्तरनिरूपणाय गाथा अघसे समे असुसिरे अहिसुयअविले य अप्पपाणे य । असिणिद्धे घणगुत्ते उज्जोवे भूमिसंथारो ॥६४०॥ 'अघसे' अमृद्वी। 'समे' अनिम्नोन्नता । 'असुसिरे' असुषिरा 'अबिला' । 'अहिसुया' उद्देहिकारहिता। 'अप्पपाणे' निर्जन्तुका । 'असिणि?' अनार्दा । 'घणगुत्ते' घना गुप्ता । 'उज्जोवे' उद्योतवती भूमिः गा०-सेनाके पड़ावके साथ आये हुए व्यापारियोंके द्वारा बनाये गये घरोंमें और आदि शब्दसे इस प्रकारके श्रमणोंके योग्य उद्यानगृह आदिमें क्षपकका सन्थरा करना चाहिए। उक्त प्रकारकी वसतियोंके न मिलनेपर क्षपकके रहनेके लिए बाँसके पत्तोंसे आच्छादित और प्रकाशके लिए झीरी सहित घर बना देना चाहिए। तथा धर्म सुननेके लिए मण्डप आदि भी बना देना चाहिए। इससे बहुत असंयममें निमित्त वसतिका त्याग और संयममें साधन वसतिका निर्माण कहा ।।६३८।। गा०-इस प्रकारकी वसतिमें इस प्रकारका संस्तर होना चाहिए, यह कहते है-समाधिके निमित्त संथरा पृथिवीमय, या शिलामय या फलकमय-लकड़ीका, अथवा तृणोंका होता है। उसका सिर उत्तर की ओर अथवा पूरब की ओर होना चाहिए; क्योंकि लोकमें मांगलिककार्योंमें पूरब दिशा अच्छी मानी जाती है उसीमें सूर्यका उदय होता है। अथवा उत्तर दिशामें विदेह क्षेत्रमें स्थित तीर्थंकरोंके प्रति भक्ति प्रदर्शित करनेके उद्देशसे उत्तरदिशा भी शुभ मानी जाती है ॥६३९|| पृथ्वीमय संस्तरका कथन करते हैंगा०-टो०--जो भूमि कठोर हो, ऊँची नीची न हो, सम हो, छिद्र रहित हो, चींटी आदिसे Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीat 'भूमिसंथारो' भूमिसंस्तरः । मृद्वी भूमिर्बाध्यते गात्रकरचरणमर्दनेन । असमाने तदात्मनो बाधा । सुषिरे बिले वा प्रविष्टा निर्गतास्तत्रस्थाः पीडयन्ते । आर्द्रा चेदकायिकानां पीडा । अनुद्योते अपश्यतः कथमसंयमपरिहारः । अन्ये तु सप्तम्यन्ततां व्याचक्षते । अमृद्वयां अनिम्नोन्नतायामसुषिरायां इति तदयुक्तं | आधेयस्य संस्तरस्य अन्यस्याभावात् । अपि च पुढवी सिलामओ वा इति वचनेन पृथिवीरूपतया संस्तरस्योक्ते ॥ ६४० ॥ विद्धत्थो य अफुडिदो णिक्कंपो सव्वदो अससत्तो । समपट्टी उज्जोवे सिलामओ होदि संथारो || ६४१॥ विद्धत्यो य विध्वस्तः दाहात्कुट्टनाद्धर्षणाद्वा । 'अफुडिदो' अस्फुटित: । 'णिक्कंपो' निश्चलः | 'सम्वदो' समन्तात् । ' असं सत्तो' जीव रहितः । पाषाणमत्कुणादिरहित इति यावत् । 'समपट्ठी' समपृष्ठः । 'उज्जोए' उद्योते । 'सिलामओ होदि संथारो' शिलामयो भवति संस्तरः ||६४१॥ t भूमिसमरुंदलहुओ अकुक्कुचोकंग' अप्पमाणो य । अच्छिदो य अफुडिदो लन्हो वि य फलयसंथारो ||६४२ ॥ 'भूमिसमरु दलहुगो' भूम्यवलग्नः महान् लघुः । २" अकुक्कु चोगंगि अव्यमाणो य' अचलः, एकशरीरः, निर्जन्तुकः । 'अच्छिदो य' अच्छिद्रः । 'अफुडियो' अस्फुटितः । 'लण्हो' मसृणः । फलगसंथारो' फलक संस्तरः ।। ६४२ ।। रहित हो, जन्तुरहित हो, क्षपकके शरीरके बराबर प्रमाणवाली हो, गीली न हो, मजबूत और गुप्त हो, प्रकाशसहित हो वही भूमि संस्तररूप होती है । कोमल भूमि शरीर हाथ पैरके दबावसे दब जाती है । ऊँची-नीची भूमिमें क्षपकको कष्ट होता है । बिल होनेसे उनमें रहनेवाले या उनसे निकलनेवाले जीवोंको पीड़ा होती है । गीली होनेसे जलकायिक जीवोंको पीड़ा पहुँचती है । प्रकाशरहित भूमिमें कुछ दिखाई न देनेसे असंयमसे बचाव नहीं होता । अन्य व्याख्याकार उक्त शब्दोंकी सप्तमी विभत्तिपरक व्याख्या करते हैं कि कठोर भूमिमें, छिद्ररहित में संस्तर होना चाहिए आदि । किन्तु यह युक्त नहीं है क्योंकि आधेय संस्तर भूमिसे भिन्न नहीं है भूमि ही संस्तररूप होती है । तथा 'पुढवीसिलामओवा' गाथा के इस पदसे संस्तरको पृथ्वीरूप कहा है । विशेषार्थ - यदि भूमिमें चींटी आदिका वास होता है तो संन्यासकालमें वे क्षपकको काट सकती हैं । जन्तुसहित होनेपर प्राणिसंयमकी विराधना होती है । क्षपकके शरीर के प्रमाणसे अधिक होनेपर व्यर्थ प्रतिलेखना आदि करना होती है। शरीरके प्रमाणसे कम होनेपर क्षपकको शरीर संकोचनेसे दुःख होता है । यदि भूमि दृढ़ न हो तो शरीर के भारसे दबनेपर उसके अन्दर जन्तु हों तो उन्हें बाधा होती है और क्षपकको भी कष्ट होता है । प्रकट भूमि होनेपर मिथ्यादृष्टिजनों का सम्पर्क होता है || ६४० ॥ गा० - शिलामय संस्तर आगसे, कूटनेसे अथवा घिसनेसे प्रासुक हुआ हो, टूटा-फूटा न हो, निश्चल हो, सब ओरसे जीव रहित हो, अर्थात् पत्थर में रहनेवाले खटमल आदिसे रहित हो । समतल हो, ऊँचा-नीचा न हो । प्रकाशयुक्त हो । ऐसा शिलामय संस्तर होता है ।। ६४१ ।। गा०—फलकसंस्तर सब ओरसे भूमिसे लगा हो, विस्तीर्ण हो, हलका हो, उठाने लाने ले १. अकुडिलएगंगि आ० मु० । १. अवक्त एवंगंगि-आ० । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ भगवतो आराधना णिस्संधी य अपोल्लो णिरुवहदो समधिवास्सणिज्जतु । सुहपडिलेहो मउओ तणसंथारो हवे चरिमो ।।६४३।। 'णिस्संधी य' ग्रन्थिरहितः । 'अपोल्लो' अच्छिद्रः । "णिरुवहदो' निरुपहतः अचूर्णितः । समधिवास्सणिज्जन्तु मृदुस्पर्शो निर्जन्तुकश्च । 'सुहपडिलेहों सुखेन प्रतिलेखनीयः सुखेन शोध्य इति यावत् । 'मउगो' मृदुः। 'तणसंथारो हवे चरिमो' तृणसंस्तरो भवेदन्त्यः ॥६४३॥ जुत्तो पमाणरइओ उभयकालपडिलेहणासुद्धो । विधिविहिदो संथारो आरोहव्वो तिगुत्तेण ॥६४४॥ 'जुत्तो' युक्तो योग्यः । 'पमाणरइदो' प्रमाणसमन्वितः । नात्यल्पो नातिमहान् । 'उभयकालपडिलेहणासुद्धी' सूर्योदयास्तमनकालद्वये प्रतिलेखनेन शुद्धः । 'विधिविहिदो संथारो' शास्त्रनिर्दिष्टक्रम कृतसंस्तरः । 'आरोहव्वों आरोढव्यः । केन ? 'तिगुत्तेण' त्रिगुप्तेन कृताशुभमनोवाक्कायनिरोधेन ॥६४४॥ णिसिदित्ता अप्पाणं सव्वगुणसमण्णिदंमि णिज्जवए । संथारम्मि णिसण्णो विहरदि सल्लेहणाविधिणा ॥६४५॥ 'णिसिदित्ता' स्थापयित्वा त्यक्त्वा । 'अप्पाणं' आत्मानं । 'सव्वगुणसमण्गिदम्मि' सर्वगुणसमन्विते णिज्जवगे' निर्यापके । 'संथारम्मि' संस्तरे । 'णिसण्णो' निषण्णो । 'विहरदि' चेष्टते। 'सल्लेहणा विहिणा' सल्लेखना द्विप्रकारा बाह्याभ्यन्तरा चेति । द्रव्यसल्लेखना भावसल्लेखना च । आहारं परिहाय शरीरसल्लेखनां जानेमें सुकर हो, अचल हो-शब्द न करता हो, एकरूप हो, जन्तुरहित हो, छिद्ररहित हो, टूटा-फूटा न हो, चिकना हो । ऐसा फलक संस्तर होता है ।।६४२।। विशेषार्थ-पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें 'अप्पपाणो' के स्थानमें 'अप्पमाणो' पाठ रखकर उसका अर्थ पुरुष प्रमाण किया है अर्थात् फलक क्षपकके शरीरके प्रमाण होना चाहिए ॥६४२॥ गा०-तृणसंस्तर गाँठरहित तृणोंसे बना हो, तृणोंके मध्यमें छिद्र न हों, टूटे तृण न लगे हों, मृदुस्पर्शवाला हो, जन्तुरहित हो, सुखपूर्वक शुद्धि करनेके योग्य हो, और कोमल हो। ऐसा अन्तिम तृणसंस्तर होता है ।।६४३॥ विशेषार्थ-पं० आशाधरजी ने अपनी टीकामें 'समधिवास्स' का अर्थ 'सम्यक् रूपसे अधिवास करनेके योग्य' किया है अर्थात् जिसपर लेटनेसे खाज पैदा न हो ॥६४३।। . गा० - इस प्रकार संस्तर योग्य हो, प्रमाणयुक्त हो-न बहुत छोटा हो और न बहुत बड़ा हो, दोनों समय अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्तके समय प्रतिलेखना द्वारा शुद्ध किया गया हो, और शास्त्र में निर्दिष्ट क्रमके अनुसार बनाया गया हो। ऐसे संस्तर पर अशभ मन वचन कायका निरोध करके क्षपकको आरोहण करना चाहिए ॥६४४।। गा०-टो०-सर्वगुणोंसे सम्पन्न निर्यापकाचार्य पर अपनेको समर्पित करके क्षपक संस्तर पर आरोहण करता है और सल्लेखनाकी विधिसे विचरता है। सल्लेखनाके दो प्रकार हैं-बाह्य और अभ्यन्तर । अथवा द्रव्य सल्लेखना और भावसल्लेखना । आहारको त्यागकर शरीरकी सल्ले Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४३७ करोति । सम्यग्दर्शनादिभावनया मिथ्यात्वादिपरिणामांस्तनूकरोति । एवं वसतिसंस्तरोति एवं वसतिसंस्तरी निरूपितौ ॥६४५॥ निर्यापकान्निरूपयति पियधम्मा दढधम्मा संविग्गा वज्जभीरुणो धीरा ।। छंदण्हू पच्चइया पच्चक्खाणम्मि य विदण्हू ॥६४६॥ 'पियधम्मा' प्रियो धर्मो येषां ते भवन्ति प्रियधर्माणः । 'दढधम्मा' धर्मे स्थिराः । 'संविग्गा' संविग्नाः संसारभीरवः । 'वज्जभीरुणो' पापभीरवो। 'पीरा' धृतिमन्तः । 'छंदण्हू' अभिप्रायज्ञाः । 'पच्चइगा' प्रत्ययिताः । पच्चक्खाणम्मिय विदण्ह' प्रत्याख्यानक्रमज्ञाः । धर्मश्चारित्रं तेन प्रियचारित्रा यतयः । ततश्चारित्रे क्षपकमपि वर्तयितुमत्सहन्ते तत्साहाय्यतां च कर्तुं । यद्यपि चारित्रेऽनुरागवन्तः सम्यग्दृष्टितया तथापि चारित्रमोहोदयाददृढचारित्रा भवन्ति इति विशेषणमुपादत्ते दृढचारित्रा इति । अदृढचारित्रा हि न असंयम परिहरेयुः । कस्मादसंयम परिहरन्ति पापभीरवो यस्मात् ? संविग्ना विचित्रव्यसननि धानभूतचतुर्गतिभ्रमणभयव्याकुलाः । धीरा इत्यनेन परोषहसहा इत्याख्यायते । परिषहैः पराजितो न संयम परिपालयतीति मन्यते । क्षपकेण अनुक्तमपि तदिङ्गितेनावगततत्प्रयोजना वैयावृत्त्ये वर्तन्ते । नानभिप्रायज्ञा इति दर्शयितुं छन्दण्हू इत्युक्तं । प्रत्ययितव्या गुरुभिर्नामी असंयम कुर्वन्ति क्षपके वैयावृत्त्योद्यता इति साकारनिराकारप्रत्याख्यानक्रमज्ञाः ।।६४६।। खना करता है । और सम्यग्दर्शन आदि भावनासे मिथ्यात्व आदि परिणामोंको कृश करता है। इस प्रकार वसति और संस्तरका कथन किया ॥६४५।। अब निर्यापकोंका कथन करते हैं गा०-जिन्हें धर्म प्रिय है, जो धर्ममें स्थिर हैं, संसारसे भीरु हैं, पापसे डरते हैं, धैर्यवान् हैं, अभिप्रायको जानते हैं, विश्वासके योग्य हैं, प्रत्याख्यानके क्रमको जानते हैं, ऐसे यति निर्यापक होते हैं ॥६४६|| ___टो०-यहाँ धर्मसे चारित्रका अभिप्राय है। अतः निर्यापक यतियोंको चारित्र प्रिय होता है। इससे वे क्षपकको भी चारित्रमें प्रवृत्ति करनेके लिए उत्साहित करते हैं और उसकी सहायता करते हैं । यद्यपि सम्यग्दृष्टि होनेसे यति चारित्रमें अनुराग रखते हैं तथापि चारित्र मोहका उदय होनेसे चारित्रमें दृढ़ नहीं होते। इसलिए 'दृढ़ चारित्र' विशेषण दिया है। जिनका चारित्र दृढ़ नहीं होता वे असंयमका परिहार नहीं करते । पापभीरु होनेसे असंयमका परिहार करते हैं क्योंकि वे विचित्र दुःखोंकी खानरूप चार गतियोंमें भ्रमणके भयसे व्याकुल होते हैं। तथा 'धीर' पदसे परीषहोंका सहने वाले कहा है । जो परोषहोंसे हार जाता है वह संयमका पालन नहीं करता ऐसा माना जाता है। क्षपकके न कहने पर भी उसके संकेत मात्रसे उसका अभिप्राय जानकर वैयावृत्यमें प्रवृत्त होते हैं इसलिए निर्यापक अभिप्रायको न जानने वाले नहीं होते। यह बतलानेके लिए 'छंदण्हु' कहा है । तथा गुरुओंके द्वारा विश्वास योग्य होते हैं कि ये असंयम नहीं करते और क्षेपककी वैयावृत्य में तत्पर रहते हैं। वे साकार और निराकार प्रत्याख्यानके क्रमको जानते हैं। अर्थात् उक्त गुण युक्त होने पर भी जिन्होंने पहले किसी क्षपककी समाधि नहीं देखी है ऐसे यतियों १. 'एवं संस्तरोति' इति पाठो नास्ति आ० मु० । २. विधान-अ०। ३. नानाभि-अ० मु० । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ भगवती आराधना समाघिकरणुज्जुदा सुदरहस्सा | कप्पाकप्पे कुसला " गीदत्था भयवंतो अडदालीसं तु णिज्जवया || ६४७ || 'कप्पाकप्पे कुसला' योग्यमिदमयोग्यमिति भक्तपानपरीक्षायां कुशलाः । 'समाधिकरणुज्जुदा' क्षपकचित्तसमाधानकरणोद्यताः । ' सुदरहस्सा' श्रुतप्रायश्चित्तग्रन्थाः | 'गोदत्था' गृहीतसूत्रार्थाः । भगवन्ते भगवन्तः स्वपरोद्धरणमाहात्म्यवन्तः । 'अडदालीसं तु' अष्टचत्वारिंशत्संख्या | 'णिज्जवगा' निर्यापका यतयः || ६४७ || निर्यापका इमं इममुपकारं कुर्वन्तीति कथनायोत्तरप्रबन्धः आमासणपरिमासणचंकमणसयण- णिसीदणे ठाणे । उव्वत्तणपरियत्तणपसारणा - उंटणादीसु ||६४८|| 'आमासनपरिमाणचंकमणसयणणिसीयणे ठाणे' क्षपकस्य शरीरैकदेशस्य स्पर्शनं आमर्शनं, समस्तशरीरस्य हस्तेन स्पर्शनं परिमर्शनं । चंकमणमितस्तो गमनं शयनं । 'णिसोदणे ठाणे' निषद्यास्थानमित्येतेषु । 'उठवत्तणपरियत्तणपसारणाउंटणादीसु' उद्वर्त्तने पाश्र्वात्पाश्र्वान्तरसंचरणे । हस्तपादादिप्रसारणे आकुञ्चनमित्यादिषु च ॥ ६४८॥ संजदकमेण खवयस्स देहकिरियासु णिच्चमाउत्ता | चदुरो समाधिकामा अलग्गंता पडिचरंति || ६४९॥ 'संजदकमेण' प्रयत्नेनैव । 'खवगस्स' क्षपकस्य । 'देहकिरियासु' शरीरक्रियासु व्यावर्णितासु । 'णिन्वं' प्रतिदिनं । 'आजुत्ता' आयुक्ताः । 'चटुरो' चत्वारो यतयः । समाधिकामाः क्षपकस्य समाधिकरणमभिलपन्तः । 'ओलग्गंता' उपासनां कुर्वन्तः । 'पडिचरन्ति' प्रतिचारका भवन्ति ॥ ६४९॥ को गुरु क्षपककी परिचर्या में नियुक्त नहीं करते । किन्तु जो विश्वस्त होते हैं उन्हें ही नियुक्त करते हैं ॥६४६॥ गा० - जो यह योग्य है और यह अयोग्य है इस प्रकार भोजन और पानकी परीक्षामें कुशल होते हैं, क्षपकके चित्तका समाधान करनेमें तत्पर रहते हैं, जिन्होंने प्रायश्चित्त ग्रन्थोंको सुना है, जो सूत्रके अर्थको हृदयसे स्वीकार किये हैं, अपने और दूसरोंके उद्धार करनेके माहात्म्यसे शोभित हैं । ऐसे अड़तालीस निर्यापक यति होते हैं ॥ ६४७॥ निर्यापक क्या-क्या करते हैं, यह कहते हैं— गा० - क्षपकके शरीरके एकदेशके स्पर्शन करनेको आमशन कहते हैं । और समस्त शरीरका हस्तसे स्पर्शन करनेको परिमर्शन कहते हैं। इधर-उधर जानेको चंक्रमण कहते हैं । अर्थात् परिचारक मुनि क्षपकके शरीरको अपने हाथसे सहलाते हैं, दवाते हैं । चलने फिरनेमें सहायता करते हैं। सोने, बैठने, उठने में सहायता करते हैं । उद्वर्तन अर्थात् एक करवटसे दूसरी करवट लिवाते हैं । हाथ पैर फैलाने में संकोचनेमें सहायता करते है ||६४८ || गा० - चार परिचारक यति मुनिमार्ग के अनुसार क्षपककी ऊपर कही शारीरिक क्रियाओं में प्रतिदिन लगे रहते हैं । वे क्षपककी समाधिकी कामना करते हुए उपासनापूर्वक परिचर्या करते हैं ||६४९|| Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४३९ ‘चत्तारि जणा धम्मं कहंति विकथाओ वज्जित्ता' इति पदसम्बन्धः चत्वारो धर्म कथयन्ति विकथाः परित्यज्य । कास्ता विकथा भवन्ति भत्तित्थिरायजणवदकंदप्पत्थणडणट्टियकहाओ । वज्जित्ता विकहाओ अज्झप्पविराधणकरीओ ॥६५०॥ 'भत्तित्थिराय जणवदकंदप्पत्थणडणटिगकहाओ' भत्तं भज्यते सेव्यते इति भक्तं चतुर्विधाहारः । भक्तस्य, स्त्रीणां, राज्ञां, जनपदानां रागोद्रेकात्प्रहाससम्मिश्राशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः तस्य अर्थस्य, नटानां, नतिकानां च याः कथास्ताः । 'अज्झप्पविराघणकरीओ' आत्मानमधिवर्तते इत्याध्यात्मिकं । आत्मनस्तत्त्वनिश्चयनिरूपणं ध्यानं (?) तस्य 'विराधणकरीओ' विराधनाकारिणीः ॥६५०॥ कथं तहि कथयन्ति- . अखलिदममिडिदमव्वाइट्ठमणुच्चमविलंबिदममंदं । कंतममिच्छामेलिदमणत्थहीणं अपुणरुत्तं ॥६५१॥ _ 'अखलिदं' अस्खलितं अन्यथा शब्दोच्चारणं शब्दस्खलना, विपरीतार्थनिरूपणा अर्थस्खलना । 'अमिडिदं' अनादंडितं । असंमुग्धं । 'अव्वाइटठं' अव्याहतं अप्रतिहतं प्रत्यक्षादिना । 'अणुच्चं' नातिमहद्ध्वनिसमेतं । 'अविलंबितं' नातिशनैः । 'अमंद' नात्यल्पघोष । 'कंत' श्रोत्रमनोहरं । 'अमिच्छामेलिदं' मिथ्यात्वेनानुन्मिश्रं । 'अणत्यहीणं' अभिधेयशून्यं यन्न. भवतिः । 'अपुणरुत्तं' उक्तस्य अविशेषेण भूयोऽभिधानं पुनरुक्तं यथा तत्पौनरुक्तं न भवति ॥६५१॥ .. .णिद्धं मधुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्ज पत्थं च । चत्तारि जणा धम्मं कहंति णिच्चं विचित्तकहा ॥६५२।। चार परिचारक मुनि विकथा त्यागकर धर्मकथा कहते हैं ऐसा आगे कहेंगे । यहाँ विकथाओंको कहते हैं गा०-जो भोगा या सेवन किया जाता है वह भक्त है अर्थात् चार प्रकारका आहार । 'आहारकी कथा, स्त्रीकी कथा, राजाकी कथा, देशोंकी कथा । रागके उद्रेकसे हँसीसे मिश्रित अशिष्ट वचन बोलना कन्दर्प है। उसकी कथा, नटोंकी और नाचनेवालियोंकी कथा विकथा हैं । ये अध्यात्मको विराधना करती हैं। जो आत्मासे सम्बद्ध हो उसे आध्यात्मिक कहते हैं। आत्मतत्त्वके यथार्थ कथनको अध्यात्म कहते हैं । ये कथाएँ उसका विघात करती हैं ॥६५०।। गा०-टी०-वे मुनि अस्खलित धर्मकथा कहते हैं। कुछका कुछ शब्द बोलना शब्दस्खलन है । विपरीत अर्थ करना अर्थस्खलन है। इस स्खलनसे रहित कथा कहते हैं । एक बातको दुहराते नहीं। सन्देहमें डालनेवाला कथन नहीं करते। प्रत्यक्ष आदिसे अविरुद्ध कथन करते हैं। बहुत जोरसे नहीं बोलते । न बहुत रुक-रुककर बोलते हैं। बहुत मन्द आवाजसे भो नहीं बोलते । कानोंको प्रिय वचन बोलते हैं। मिथ्यात्वकी बात नहीं करते। ऐसी बात नहीं कहते जिसका कुछ अर्थ ही न हो। जो बात कही हो उसे ही पुनः कहना पुनरक्त है। वे पुनरुक्त कथन नहीं करते ॥६५१॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० भगवती आराधना "णिद्ध" प्रियं । 'मधुर' ललितपदवर्णरचनं । 'हिदयंगम' श्रोत्रहृदयानुप्रवेशि । 'पल्हादहिज्ज पत्थं च' सुखदं पथ्यं च । 'कहंति' कथयन्ति "णिच्चं' अनुपरतं । 'विचित्तकहा' विचित्रकथाः नानाकथाकुशलाः ॥६५२।। कीदृशी क्षपकस्य कथा भणितव्या इत्यत्राचष्ट खवयस्स कहेदव्वा दु सा कहा जं सुणित्तु सो खवओ । जहिदविसोतिगभावो गच्छदि संवेगणिव्वेगं ॥६५३॥ ‘खवगस्स' क्षपकस्य । 'सा कहा' सा कथा । 'कहेदव्वा' कथयितव्या । 'सो खवगो' असो क्षपकः । 'ज' यां कथां । 'सुणित्त' श्रुत्वा । 'जहिदविसोतिगभागो' त्यक्ताशुभपरिणामः । 'गच्छदि संवेगणिन्वेगं' संसारभीरुतां शरीरभोगनिर्वेदं च प्रतिपद्यते ॥६५३॥ आक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स । पावोग्गा होति कहा ण कहा विक्खेवणी जोग्गा ॥६५४॥ आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी, निर्वेजनी चेति चतस्रः कथाः । तासां मध्ये का योग्या? का वायोग्येत्यत्रोत्तरं ब्रवीति । 'आक्खेवणी य' इति आक्षेपणी, संवेजनी, निजनी च कथा क्षपकस्य श्रोतुं, आख्यान्तु च योग्या । विक्षेपणी तु कथा न योग्या इति सूत्रार्थः ।।६५४॥ तासां कथानां स्वरूपनिर्देशायोत्तरं गाथाद्वयं आक्खेवणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ । ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणी णाम ॥६५॥ :आक्खवणी कहा सा' सा आक्षेपणो कथा भण्यते । 'जत्थ' यस्यां कथायां । 'विज्जाचरणमवदिस्सदे' ज्ञानं चारित्रं चोपदिश्यते । एवंभूतानि मत्यादीनि ज्ञानानि सामायिकादीनि वा चारित्राण्यवस्वरूपाणि इति । 'ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणो णाम' या कथा स्वसमयं परसमयं वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विक्षेपणी - गा०-नाना कथाओंमें कुशल वे चार परिचारक यति प्रिय, मधुर अर्थात् ललितपद और वर्णवाली, श्रोताके हृदयमें प्रवेश करनेवाली सुखदायक हितकारी कथा निरन्तर कहते हैं ॥६५२॥ ___ गा०-क्षपकको किस प्रकारकी कथा कहनी चाहिए, यह कहते हैं-क्षपकको ऐसी कथा कहनी चाहिए जिसे सुनकर वह अशुभ परिणामोंको छोड़े और संसारसे तथा शरीरसे विरक्त होवे ॥६५॥ गा०–चार प्रकारकी कथाएँ होती हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्नेजनी । इनमेंसे कौन योग्य है और कौन अयोग्य है ? इसका उत्तर देते हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी और निर्वेजनी कथा क्षपकके सुनने और कहनेके योग्य है किन्तु विक्षेपणी कथा योग्य नहीं है ।।६५४॥ आगे दो गाथाओंसे उनका स्वरूप कहते हैं-- गा०-टी०—जिसमें ज्ञान और चारित्रका उपदेश हो उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। यथा, मति आदि ज्ञान इस प्रकारके होते हैं अथवा सामायिक आदि चारित्रोंका ऐसा स्वरूप है। १. जहदि विसूत्तिय भावं-अ० । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४४१ भण्यते । सर्वथा नित्यं सर्वथा क्षणिकं, एकमेवानेकमेव वा, सदेव असदेव वा, विज्ञानमात्रमेव । शून्यमेवे - त्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोधं प्रदर्थं कथंचिन्नित्यं कथंचिदनित्यं कथंचिदेकं कथंचिदनेकं इत्यादिस्वसमयनिरूपणा च विक्षेपणी ।। ६५५ ।। संवेणी पुण कहा णाणचरिततववीरियइडिगदा | णिवेणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य ||६५६ || 'संवेयणी पुण कहा' संवेजनी पुनः कथा । ' णाणचरित्ततववीरियइड्ढिगदा' ज्ञानचारित्रतपोभावना जनितशक्तिसम्पन्निरूपणपरा । 'णिग्वेजणी पुण कथा' निर्वेजनी पुनः कथा सा । 'सरीरभोगे भवोघे य' शरीरे, भोगे, भवसन्ततौ च पराङ्मुखताकारिणी | शरीराण्यशुचीनि रसादिसप्तधातुमयत्वात् शुक्रशोणितबीजत्वात्, अशुच्याहारपरिवद्धितत्वात् अशुचिस्थाननिर्गतत्वात् च । न केवलमशुच्यसारमपि अनित्यकायस्वभावाः प्राणभृतः इति शरीरतत्त्वश्रवणात् । तथा भोगा दुर्लभाः स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यभोजनादयो लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्ति जनयन्ति । अलाभे तेषां लब्धानां वा विनाशे शोको महानुदेति । देवमनुजभवावपि दुर्लभी, दुःखवहुली अल्पसुखौ इनि निरूपणात् । तथा ।। ६५६ ॥ विक्खेवणी अणुरदस्स आउगं जदि हवेज्ज पक्खीणं । होज्ज असमाधिमरणं अप्पागमियस्स खवगस्स ||६५७ || विक्खेवेणी अणुरदस्स' विक्षेपण्यां परसमनिरूपणायां अनुरक्तस्य । 'आउगं' आयुष्कं । 'जदि हवेंज्ज' यदि भवेत् । 'पक्खीणं' प्रक्षीणं । 'होज्ज' भवेत् 'असमाधिमरणं । 'अप्पाागमिगस्स खवगस्स' अल्पश्रुतस्य जिस कथा में स्वसमय और परसमयकी चर्चा होती है वह विक्षेपणी है । वस्तु सर्वथा नित्य है, या सर्वथा क्षणिक है, अथवा एक ही है या अनेक ही है, अथवा सत् ही है या असत् ही है, अथवा विज्ञानमात्र ही है या शून्य ही है, इत्यादि परसमयको पूर्वपक्ष बनाकर प्रत्यक्ष अनुमान और आगमसे उसमें विरोध दर्शाकर वस्तुको कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित् एक, कथंचित् अनेक इत्यादि स्वसमयका कथन करना विक्षेपणी कथा है ।। ६५५॥ गा० - टी० - ज्ञान चारित्र और तपोभावनासे उत्पन्न शक्तिसम्पदाका निरूपण करनेवाली कथा संवेजनी है । शरीर भोग और भवसन्ततिकी ओरसे विमुख करनेवाली कथा निर्वेजनी हैं । जैसे, शरीर अशुचि है क्योंकि वह रस आदि सात धातुओंसे बना है, रज और वीर्य उसके वीज हैं । अशुचि आहारसे वह बढ़ता है और अशुचि स्थानसे निकलता है । शरीर केवल अपवित्र ही नहीं है वह निस्सार भी है; क्योंकि प्राणियोंका शरीर स्वभावसे अनित्य है ऐसा शरीर के विषय में सुना जाता है । तथा स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला, भोजन आदि दुर्लभ भोग किसी तरह प्राप्त होनेपर भी तृप्ति नहीं देते। उनके प्राप्त न होनेपर अथवा प्राप्त होकर नष्ट होनेपर महान् शोक होता है । तथा देव और मनुष्यभव भी दुर्लभ हैं, दुखसे भरे हैं, सुख अल्प है । इस प्रकारका कथन निर्वेजनी कथा है ||६५६|| गा०-विक्षेपणी कथामें अनुरक्तदशा में यदि क्षपककी आयु समाप्त हो जाये तो अल्प १. तवाश्रयणात् आ० म० । ५६ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ भगवती आराधना क्षपकस्य । यदेव पूर्वपक्षीकृतं दूपणाभिधानाय तदेव तत्त्वमित्यध्यवसायादसमीचीनज्ञानदर्शनस्य रत्नत्रयकाम्यं नास्तीति मन्यते ॥ ६५७ ॥ बहुश्रुतस्य पयोगिनी विक्षेपणीतीमां शङ्कां निरस्यतिआगममाहप्पगओ विकहा विक्खेवणी अपाउग्गा । अब्भुज्जदग्मि मरणे तस्स वि एदं अणायदणं || ६५८ || 'आगममाहपदो वि' बहुश्रुतस्यापि । 'विक्खेवणी' विक्षेपणी । 'अपाउगा' अप्रायोग्या | अब्भुज्जर्दसि मरणे' रत्नत्रयाराधनपरे मरणे । 'तस्स वि' बहुश्रुतस्यापि 'एवं' एतत् । 'अणायदणं' अनायतनं अनाधारः ॥६५८॥ अभुज्जमि मरणे संथारत्थस्स चरमवेलाए । तिहिं पि कहंति कहं तिदंडपरिमोडया तम्हा || ६५९ || 'अब्भुज्जमि मरणे' निकटभूते मरणे । कस्य 'संथारत्थस्स चरिमवेलाए' संस्तरस्थस्य अन्तकाले । 'तिविहं वि' कहति कथं संवेजनीं निर्वेजनी आक्षेपणीं वा कथां कथयन्ति । 'तिदंडपरिमोडया' अशुभमनोवाक्काया दण्डशब्देनोच्यन्ते तद्भेदनकारिणः सूरयः । 'तम्हा' तस्मात् अनायतनत्वाद्विक्षेपिण्याः ॥६५९ ॥ जुत्तस्स तवधुराए अब्भुज्जदमरणवेणुसीसंमि । वह वे कहेंति घीरा जह सो आराहओ होदि ॥ ६६०|| 'जसस्स' युक्तस्य । 'तवघुराए' तपोभारेण । 'अब्भुज्जदमरण वेणुसो सम्मि' समीपीभूतमरणवंशस्य शिरसि स्थितस्य क्षपकस्य । 'ते धीरा तह कहेंति' ते धीरास्तथा कथयन्ति । 'जध सो आराधगो होवि' यथासावाराधको भवति रत्नत्रयस्य ॥ ६६० ॥ ज्ञानी क्षपकका असमाधिपूर्वक मरण होगा; क्योंकि विक्षेपणीमें दूषण देनेके लिए पहले परमतका कथन होता है । अल्पज्ञानी क्षपक उसे तत्त्व समझ बैठे तो मिथ्याज्ञान और मिथ्या श्रद्धान होनेसे रत्नत्रयकी एकाग्रता नहीं रहती || ६५७।। तो क्या बहुशास्त्राभ्यासी क्षपकके लिए विक्षेपणी कथा उपयोगी है ? इस शंकाका निरसन करते हैं गा० - बहुश्रुत भी क्षपकके लिए विक्षेपणी कथा उपयोगी नहीं है; क्योंकि मरणके समय रत्नत्रयकी आराधना में तत्पर रहना होता है । अतः उसके लिए भी यह कथा अनायतन है वह उसका आधार नहीं है ||६५८|| गा० - जब संस्तरपर स्थित क्षपकका अन्तकाल होता है और मरण निकट होता है तब अशुभ मनवचनकायको निर्मूल करनेवाले साधु संवेजनी, निर्वेजनी और आक्षेपणी इन तीन ही कथाओंको कहते हैं । अतः विक्षेपणी कथा अनायतनरूप है ||६५९|| गा०—जो तपका भार उठाये हुए है अर्थात् तपस्यामें लीन है और निकटवर्ती मरणरूपी बाँसके अग्रभागपर खड़ा है उस क्षपकको वे धीर परिचारक ऐसा उपदेश देते हैं जिसमें वह रत्नत्रयका आराधक होता है । अर्थात् क्षपककी स्थिति उस नटके समान है जो सिरपर बोझ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति अगिलाए पाओग्गं । छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा || ६६१॥ 'चत्तारि जणा' चत्वारो यतय: । 'भत्तं' अशनं । 'पाउगं' प्रायोग्यं उद्गमादिदोषानुपहतं । 'उवकप्पेंति' आनयन्ति । 'अगिलाए' ग्लानिमन्तरेण । कियन्तं कालमानयाम इति संक्लेशं विना । 'छंदियं ' क्षपकेण इष्टं अशनं पानं वा । क्षुत्पिपासापरीषहप्रशान्तिकरणक्षममित्येतावता तेनेष्टं न तु लौल्यात् । 'अवगद - दोसं' वातपित्तश्लेष्मणामजनकं । क आनयन्ति ? 'अमाइणो' मायारहिताः अयोग्यं योग्यमिति ये नानयन्ति । 'लद्धिसंपण्णा' मोहान्त रायक्षयोपशमाद्भिक्षालब्धिसमन्विताः । अलब्धिमान्क्षपकं क्लेशयति । मायावी अयोग्यं योग्यमिति कल्पयेत् ॥६६१॥ चत्तारि जणा पाणयमुवकप्पंति अगिलाए पाओग्गं । छंदमव गददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ||६६२॥ चत्तारि जणा पाणगा इति स्पष्टार्थ गाथा - सूरिणा अनुज्ञातौ निवेदितात्मानौ द्वौ द्वौ पृथग्भक्तं पृथक्पानं चानयतः ॥ ६६२॥ ४४३ चत्तारि जणा रक्खन्ति दवियमुवकप्पियं तयं तेहि । अगिला अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छति || ६६३ || तैरानीतं भक्तं पानं वा चत्वारो रक्षन्ति प्रमादरहिताः सा यथा न प्रविशन्ति, यथा वापरे न पातयन्ति ॥ ६६३ ॥ उठाये बाँसके अग्रभागपर अपनी कलाका प्रदर्शन करता है अतः परिचारक ऐसा ही प्रयत्न करते हैं जिससे वह सफल हो ॥६६०|| I गा०-चार परिचारक यति उस क्षपकके लिए उसको इष्ट खान-पान विना ग्लानिके लाते हैं । उन्हें ऐसा संक्लेश नहीं होता कि कबतक हम इसके लिए लावें । तथा खान-पान उद्गम आदि दोषोंसे रहित होता है । और वात पित्त कफको उत्पन्न करनेवाला नहीं होता । क्षपकं भी लिप्सावश आहार पसन्द नहीं करता । किन्तु भूख और प्यास परीषहको शान्त करनेमें समर्थ खान-पानकी इच्छा करता है । जो यति आहार लाते हैं मायावी नहीं होते, अयोग्य आहारको योग्य नहीं कहते । मायावी अयोग्यको योग्य कह सकता है । तथा वे मोह और अन्तरायकर्मीका क्षयोपशम होनेसे भिक्षालब्धिसे युक्त होते हैं । उन्हें भिक्षा अवश्य मिल जाती है । अलब्धिमान् मुनि भिक्षा न मिलनेपर खाली हाथ लौटकर क्षपकको कष्ट पहुँचाता है ||६६१॥ गा०—चार परिचारक मुनि क्षपकके लिए विना ग्लानिके उद्गम आदि दोषोंसे रहित, वातपित्त कफको पैदा न करनेवाला तथा क्षपककी प्यास परिषहको शान्त करनेवाला पानक लाते हैं। वे लानेवाले यति मायारहित और भिक्षालब्धिसे सम्पन्न होते हैं । आचार्यकी अनुज्ञासे स्वयं अपनेको उपस्थित करनेवाले दो-दो परिचारक भोजन और पान अलग-अलग लाते हैं ॥६६२॥ गा० - चार यति उन यतियोंके ग्लानिके प्रमादरहित होकर रक्षा करते है द्वारा लाये गये खान-पानकी विना किसी प्रकारकी कि उसमें त्रसादि न गिरे अथवा कोई उसमें सादि Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ भगवती आराधना काइयमादी सव्वं चत्तारि पदिट्ठवन्ति खवयस्स । पडिलेहंति य उवघोकाले सेज्जुवधिसंथारं ।।६६४॥ - 'काइगमादो सव्वं' पुरीषप्रभृतिकं मलं सर्वं । क्षपकस्य चत्वारः । 'पदिठिवंति' प्रतिष्ठापयन्ति । 'पडिलेहंति य' प्रतिलिखन्ति च । 'उवधो काले' उदयास्तमनकालवेलयोः। 'सेज्जवधिसंथार' वसतिमुपकरणं, संस्तरं च ॥६६४॥ खवगस्स घरदुवारं सारक्खंति जदणाए दु चत्तारि । चत्तारि समोसरणदुवारं रक्खंति जदणाए ॥६६५॥ 'खवगस्स' क्षपकस्य । 'घरदुवारं' गृहद्वारं । 'सारक्खंति' पालयन्ति । 'जदणाए' यत्नेन । 'चत्तारि' चत्वारः । असंयतान् शिक्षकांश्च निषेधुं द्वारपालायन्ते । 'चत्तारि' चत्वारः । 'समोसरणदुवारं' समवशरणद्वारं । 'जदणाए' यत्नेन । 'आरक्षं ति' पालयन्ति ॥६६५।। जिदणिद्दा तल्लिच्छा रादो जग्गंति तह य चत्तारि । चत्तारि गवेसंति खु खेत्ते देसप्पवत्तीओ ॥६६६।। "जितणिद्दा' जितनिद्राः 'तल्लिच्छा' निद्राजयलिप्सवः । 'रादो' रात्रौ । 'जग्गंति' जागरं कुर्वन्ति । 'तह य' तत्र क्षपकसकाशे। 'चत्तारि' चत्वारः । 'गवेसंति खु' परीक्षां कुर्वन्ति । 'खेत्ते' क्षेत्रे स्वाध्युषिते । 'देसपवत्तीओ' देशस्य क्षेमवाता ॥६६६।। वाहिं असद्दवडियं कहंति चउरो चदुविधकहाओ। ससमयपरसमयविदू परिसाए समोसदाए दु ॥६६७॥ जन्तु न गिरा दे। वे सब क्षपककी समाधिके इच्छुक होते हैं कि उसकी समाधि निर्विघ्न पूर्ण हो ॥६६३।। ___गा.-चार मुनि क्षपकके सब मलमूत्र उठानेका कार्य करते हैं । और सूर्य के उदय तथा अस्त होनेके समय वसति, उपकरण और संथरेकी प्रतिलेखना करते हैं ।।६६४|| गा०-चार यति सावधानतापूर्वक क्षपकके घरके द्वारकी रक्षा करते हैं । ऐसा वे असंयमी जनों और शिक्षकोंको अन्दर प्रवेश करनेसे रोकनेके लिए करते हैं। चार मुनि सावधानतापूर्वक समवसरण द्वार अर्थात् धर्मोपदेश करनेके घरके द्वारको रक्षा करते हैं ।।६६५।। गा-निद्राको जीत लेनेवाले और निद्राको जीतनेके इच्छुक चार यति रातमें क्षपकके पास जागते हैं। और चार मुनि अपने रहनेके क्षेत्रमें देशकी अच्छी बुरी प्रवृत्तियोंकी परीक्षा करते हैं। अर्थात् जिस क्षेत्रमें क्षपक समाधि मरण करता है उस देशके अच्छे बुरे समाचारोंकी खबर रखकर उनकी परीक्षा करते हैं कि समाधिमें कोई बाधा आनेका तो खतरा नहीं है ॥६६६॥ विशेषार्थ-गाथामें 'तल्लिच्छा' पाठ है और विजयोदयामें उसका अर्थ निद्राको जीतनेके इच्छुक किया है। किन्तु पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें 'तण्णिवा' पाठ रखकर उसका अर्थ क्षपककी सेवामें तत्पर किया है । जितनिद्दाके साथ यह पाठ संगत प्रतीत होता है ।।.६६।। - Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४४५ 'वाहि' बहिः क्षपकावासात् । 'असद्दपडिगं' यावत् दूरे स्थितानां शब्दो न श्रूयते तत्र स्थित्वा । 'चउरों' चत्वारः पर्यायेण । 'कथाओं' चविधाः कथाः पूर्वव्यावणिताः । कीदृग्भूतास्ते कथका अत आह'ससमयपरसमयविदू' स्वपरपक्षसिद्धान्तज्ञाः । 'परिसाए' परिषदे । 'समोसदाए' द्राक् समागतायै ॥६६७॥ . वादी चत्तारि जणा सीहाणुग तह अणेयसत्थविद् । धम्मकहयाण रक्खाहेदं विहरंति परिसाए ॥६६८॥ 'वादी' वादिनः । 'चत्तारि जणा' चत्वारः। 'सोहाणुग' सिंहसमानाः । 'अणेगसत्थविदू' अनेकशास्त्रज्ञः धम्मकहयाण धर्म कथयतां । 'रक्खाहेदु" रक्षार्थ । 'विहरंति' इततस्तो यान्ति । 'परिसाए' परिषदि ॥६६८॥ उपसंहरन्ति प्रस्तुतं एवं महाणुभावा पग्गहिदाए समाधिजदणाए । तं णिज्जवंति खवयं अडयालीसं हिं' णिज्जवया ।।६६९।। ‘एवं महाणुभावा' एवं माहात्म्यवन्तः । 'पग्गहिदाए' प्रकृष्टया । 'समाधिजदणाए' समाधौ क्षपकस्य प्रयत्नवृत्त्या। 'तं णिज्जवंति खवयं' तं निर्यापयन्ति क्षपकं । 'अडदालीसं हि' अष्टचत्वारिंशत्प्रमाणाः । 'णिज्जवगा' निर्यापकाः ॥६६९।। ___ व्यावणितगुणा एव निर्यापका इति न ग्राह्यं, किन्तु भरतैरावतयोविचित्रकालस्य परावृत्तेः कालानुसारेण प्राणिनां गुणाः प्रवर्तन्ते तेन यदा यथाभूताः शोभनगुणाः सम्भवन्ति तदा तथाभूता यतयो निर्यापकत्वेन ग्राह्या इति दर्शयति जो जारिसओ कालो भरदेवदेसु होइ वासेसु । ते तारिसया तदिया चोद्दालीसं पि णिज्जवया ॥६७०॥ गा०-क्षपकके आवासके बाहर स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तके ज्ञाता चार यति क्रमसे एक एक करके सभामें धर्म सुननेके लिए आये हुए श्रोताओंको पूर्ववणित चार कथाएँ इस प्रकार कहते हैं कि दूरवर्ती मनुष्य उनका शब्द न सुन सके । अर्थात् क्षपकको सुनाई न दे इतने धीरेसे बोलते हैं । उससे क्षपकको किसी प्रकारकी बाधा नहीं होती ॥६६७॥ गा०-अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता और वाद करनेमें कुशल चार मुनि धर्मकथा करनेवालोंकी रक्षाके लिए सभामें सिंहके समान विचरते हैं। अर्थात् धर्मकथामें कोई विवादी विवाद खड़ा कर दे तो वाद करनेमें कुशल मुनि उसका उत्तर देनेके लिए तत्पर रहते हैं ॥२६८॥ प्रस्तुत चर्चाका उपसंहार करते हैं गा०-इस प्रकार माहात्म्यशाली अड़तालीस निर्यापक यति क्षपककी समाधिमे उत्कृष्ट प्रयत्नशील रहते हुए उस क्षपकको संसार समुद्रसे निकलनेके लिए प्रेरित करते हैं ।।६६९।! ___ऊपर कहे गुणवाले यति ही निर्यापक होते हैं ऐसा अर्थ नहीं लेना। किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें कालका विचित्र परिवर्तन होता रहता है। और कालके अनुसार प्राणियोंके गुण भी बदलते रहते हैं। अतः जिस कालमें जिस प्रकारके शोभनीय गुण सम्भव हैं १. संपिणिज्ज-आ० । सं पणिज्ज-अ० । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ भगवती आराधना 'जो जारिसओ कालो इत्यादिना' यो यादृक्कालो । 'भरदेरवदेसु वासेसु' भरतरावतेषु जनपदेषु । पञ्चभरताः पञ्चरावतास्ते निर्यापकास्तारिसगा तादृग्भूताः कालानुगुणा इति यावत् । 'तइया' तस्मिन्काले ग्राह्या इत्यर्थः ।।६७०॥ एवं चदुरो चदुरो परिहावेदव्वगा य जदणाए । कालम्मि संकिलिलुमि जाव चत्तारि साधेति ।।६७१॥ णिज्जावया य दोण्णि वि होति जहण्णेण कालसंसयणा । एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुने ॥६७२।। स्पष्टार्थोत्तरगाथाद्वयमिति न व्याख्यायते । जघन्यतो द्वौ निर्यापको इति किमर्थमुच्यते । एको जघन्यतो निर्यापकः कस्मान्नोपन्यस्त इत्याशङ्कायां एकस्मिन्निपिके दोषमाचष्टे एगो जइ णिज्जवओ अप्पा चत्तो परो पवयणं च । वसणमसमाधिमरणं उड्डाहो दुग्गदी चावि ।।६७३।। एको यदि निर्यापकः । 'अप्पा चत्तो' आत्मा त्यक्तो भवति निर्यापकेण, परः क्षपकस्त्यक्तो भवति । 'पवयणं च प्रवचनं च त्यक्तं भवति । 'वसणं' व्यसनं दुःखं भवति । 'असमाधिमरणं' समाधानमन्तरेण मृतिः स्यात् । ‘उड्डाहो' धर्मदूषणा भवति । 'दुग्गदी चावि' दुर्गतिश्च भवति ॥६७३।। एवं निर्यापकेणात्मा त्यक्तो भवति, एवं क्षपक इत्येतत्कथयन्ति खवगपडिजग्गणाए भिक्खग्गहणादिमकुणमाणेण । अप्पा चत्तो तबिवरीदो खवगो हवदि चत्तो ॥६७४।। उस कालमें उन गुणवाले यति निर्यापकरूपसे ग्राह्य हैं यह कहते हैं गा०–पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रोंमें जब जैसा काल हो तब उसी कालके अनुकूल गुणवाले चवालीस निर्यापक स्थापित करना चाहिए ॥६७०|| गा.-इस प्रकार ज्यों-ज्यों काल खराब होता जाये त्यों-त्यों देशकालके अनुसार सावधानतापूर्वक चार-चार निर्यापक कम करते जाना चाहिए। अन्तमें चार निर्यापक ही समाधिमरणको सम्पन्न करते हैं। अधिक काल खराब होनेपर कमसे कम दो निर्यापक भी होते हैं । किन्तु जिनागममें किसी भी अवस्थामें एक निर्यापक नहीं कहा ॥६७१-६७२।। जघन्यसे दो निर्यापक क्यों कहे ? जघन्यसे एक निर्यापक क्यों नहीं कहा ? ऐसी आशंकामें एक निर्यापकमें दोष कहते हैं गा०-यदि एक निर्यापक होता है तो निर्यापकके द्वारा आत्माका भी त्याग होता है, क्षपकका भी त्याग होता है और प्रवचनका. भी त्याग होता है । तथा दुःख उठाना होता है। क्षपकका असमाधिपूर्वक मरण होता है, धर्ममें दूषण लगता है और दुर्गति होती है ॥६७३।। एक निर्यापकके द्वारा आत्मा और क्षपक इस प्रकार त्यक्त होते हैं, यह कहते है Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका खवगपडिजग्गणाए इत्यनया गाथया अत्रैवं पदघटना 'भिक्खग्गहणादिमकुण माणेण' भिक्षाग्रहणं, निद्रा, कायमलत्यागं वाऽकुर्वता निर्यापकेण 'खवगपडिजग्गणाए' क्षपककार्यकरणे । 'अप्पा चत्तो' आत्मा त्यक्तो भवति । अशनाग्रहणान्निद्राया अभावात् कायभलानां वाऽनिराकरणान्महती निर्यापकस्य पीडा । ' तव्विवरीदो यदि' निर्यापको भिक्षां भ्रमति निद्रातिशयशरीरमलनिरासार्थ याति, 'खवगो चत्तो भवति' क्षपकस्त्यक्तो भवति ।। ६७४ || खवयस्स अप्पणो वा चाए चत्तो हु होइ जइधम्मो | णाणस्स य वुच्छेदो पवयणचाओ कओ होदि || ६७५॥ 'खवगस्स अप्पणी वा चाए' क्षपकस्यात्मनो वा त्यागे । 'चत्तो खु होदि जइघम्मो' त्यक्तो भवति यतिधर्मः । यतेर्धर्मो वैयावृत्त्यकरणं स परित्यक्तो भवति क्षपकमपहाय गमने । अगमने तु आवश्यकानि यतिधर्मेषु व्यक्तानि भवन्ति शक्तिवैकल्यात् । ' णाणस्स य वुच्छेदो' ज्ञानस्यापि व्युच्छेदो भवति, निर्यापकेन सह मृतिमुपयाति । 'तदो' तस्मात् । 'पवयणचागो होदि' प्रवचनत्यागो भवति । प्रवचनशब्देनागम उच्यते । प्राज्ञा हि केचिदेव' भवन्तीति चेदेकका निर्यापका अनशनादिनातिखिन्ना मृतिमुपेयुः कः शास्त्राण्युपदिशेत् कश्च धारयेद्वेति प्रवचनत्यागः ॥ ६७५ ॥ व्यसनं व्याचष्टे - चायम्मि कीरमाणे वसणं खवयस्स अप्पणो चावि । खवयस्स अप्पणो वा चायम्मि हवेज्ज असमाधि || ६७६ || ४४७ 'चायम्मि कौरमाणे' त्यागे क्रियमाणे । 'वसणं खवगस्स' क्षपकस्य दुःखं भवति, प्रतिकाराभावात् । 'अप्पणी वा वसणं' निर्यापकस्य वा व्यसनं भवति अशनादित्यागात् । असमाधिमरणं व्याचष्टे – 'चागम्मि' गा० - टी० - क्षपकका कार्य करते रहनेसे निर्यापक भिक्षाग्रहण, निद्रा और मलमूत्रका त्याग नहीं कर सकता । अतः वह आत्माका त्याग करता है क्योंकि भोजन न करने से निद्रा नहीं आती । और शारीरिक मल न त्यागनेसे निर्यापकको कष्ट होता है । यदि निर्यापक भिक्षाके लिए भ्रमण करता है तथा सोता है और शरीरमल त्यागने जाता है तो क्षपकका त्याग करता है ||६७४ || गा० टी० - अपना अथवा क्षपकका त्याग करनेपर यतिधर्मका त्याग होता है । अर्थात् यतिका धर्मं वैयावृत्य करना है । क्षपकको छोड़कर जानेपर उसका त्याग होता है । न जानेपर यतिधर्म में आवश्यक प्रधान हैं उनका त्याग होता है । ज्ञानका भी व्युच्छेद होता है क्योंकि निर्यापकके साथ वह भी मर जाता है । और ऐसा होनेसे प्रवचनका त्याग होता है । यहाँ प्रवचन शब्दसे आगम कहा है । विद्वान् तो विरल ही होते हैं । अकेला निर्यापक उपवास आदिसे अतिखिन्न होकर यदि मर जाये तो कौन शास्त्रोंका उपदेश देगा और कौन शास्त्रोंको याद रखेगा । अतः प्रवचनका त्याग होता है || ६७५ || गा० - क्षपकको त्यागने पर क्षपकको दुःख होता है क्योंकि उसका कोई प्रतिकार नहीं १. देवं भणतीति चे-आ० । २. शेदवधारयेद्रं - आ० । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ भगवती आराधना त्यागे सति । 'खवगस्स असमाधि' क्षपकस्य असमाधिमरणं भवति, चित्तसमाधि कुर्वतः समीपे अभावात् । 'अप्पणो वा' निर्यापकस्य वा । 'हवेज्ज' भवेत्, असमाधिः अशनादित्यागजनितदुःखव्याकुलस्य ।।६७६।। उद्दाहो इत्येतत् सूत्रं व्याचष्टे सेवेज्ज वा अकप्पं कज्जा वा जायणाइ उड्डाहं । तण्हाछुधादिभग्गो खवओ सुण्णम्मि णिज्जवहे ॥६७७।। 'सेवेज्ज वा अकप्पं' अयोग्यसेवां कुर्यात्, अस्थितभोजनादिकं पार्श्ववर्तिन्यसति । 'कुज्जा वा' कुर्याद्वा । 'जायणाइ उड्डाहं मिथ्यादृष्टीनां गत्वा याचते क्षुधा वा तृषा वा अभिभूतोऽहं अशनं पानं वा देहीति । सुण्णम्मि णिज्जवर्ग' असति निर्यापके ॥६७७।। दुग्गदि एतद्वयाचष्टे असमाधिणा व कालं करिज्ज सो सुण्णगम्मि णिज्जवगे । गच्छेज्ज तवो खवओ दुग्गदिमसमाधिकरणेण ।।६७८।। 'असमाधिणा वा' असति निर्यापके समीपस्थे समाधिमन्तरेण कालं कुर्यात् । ततस्तेन असमाधिमरणेन । 'खवगो दुर्गाद गच्छेज्ज' क्षपको दुर्गति यायात् अशुभध्यानात् ।।६७८।। सल्लेहणं सुणित्ता जत्ताचारेण णिज्जवेज्जतं । सव्वेहिं वि गंतव्वं जदीहिं इदरत्थ भयणिज्जं ॥६७९।। 'सल्लेहणं' सल्लेखनां । 'सुणित्ता' श्रुत्वा । 'जुत्ताचारेण' युक्ताचारेण सूरिणा 'णिज्जवेज्जतं' प्रवर्त्यमानां । सर्वेरपि गन्तव्यं यतिभिरितरत्र निर्यापके सूरी मन्दचारित्रे भाज्यं । यान्ति न यान्ति वा यतयः ॥६७९।। सल्लेहणाए मूलं जो वच्चइ तिव्वभत्तिरायेण । भोत्तूण य देवसुहं सो पावइ उचमं ठाणं ॥६८०॥ है। और भोजनादि त्यागनेसे निर्यापकको दुःख है। तथा क्षपकको त्यागने पर क्षपकका असमाधिमरण होता है क्योंकि उसके समीपमें कोई चित्तको समाधान देने वाला नहीं है । अथवा निर्यापक की असमाधि होती है क्योंकि वह भोजन आदिके त्यागसे उत्पन्न दुःखसे व्याकुल होता है ॥६७६।। गा०-यदि एक निर्यापक आहारादिके लिए गया तो उसके अभावमें क्षपक अयोग्य सेवन करेगा अर्थात् बैंठकर भोजनादि करेगा। अथवा मिथ्यादृष्टियोंके पास जाकर याचना करेगा कि मैं भूख वा प्याससे पीड़ित हूँ। मुझे खानेको वा पीनेको दो ॥६७७|| ___ गा०-समीपमें निर्यापक न होने पर क्षपक समाधिके बिना मरण कर सकता है। और उस असमाधिमरणसे अशुभ ध्यानवश दुर्गतिमें जा सकता है ।।६७८॥ गा०-युक्त आचार वाले आचार्यके द्वारा क्षपककी सल्लेखना हो रही है यह सुनकर सब यतियोंको वहाँ जाना चाहिए । किन्तु यदि निर्यापक आचार्य मन्द चारित्र वाला हो तो यति चाहें तो जा सकते हैं, म.चाहें तो न जायें ।।६७९।। - 35 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ विजयोदया टीका एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो । ण हु सो हिंडदि बहुसो सचट्ठभवे पमोत्तूण ॥६८१।।। 'सोदण उत्तमट्ठस्स साधणं तिव्वभत्तिसंजत्तो । जदि णोवयादि का उत्चमट्ठमरणम्मि से भत्ती ।।६८२।। सोदूण श्रुत्वा उत्तमार्थसाधनं । तीवभक्तिसंयुक्तो यदि न गच्छेत् । नैव तस्य उत्तमार्थमरणे भक्तिः ॥६८२।। उत्तमार्थमरणभक्त्यभावे दोषमाचष्टे-- जत्थ पुण उत्तमट्ठमरणम्मि भत्ती ण विज्जदे तस्स । किह उत्तमट्ठमरणं संपज्जदि मरणकालम्मि ॥६८३।। 'जस्स पुण' यस्य पुनः उत्तमार्थमरणे भक्तिर्न विद्यते तस्य मरणकाले कथमुत्तमार्थमरणं सम्पद्यते इति दोषः सूचितः ॥६८३॥ सद्दवदीणं पासं अल्लियदु असंवुडाण दादव्वं । तेसिं असंवडगिराहिं होज्ज खगयस्स असमाधी ।।६८४।। 'असंवुडाण पासं सद्दवदीणं अल्लियदु ण दादन्वं' । असंवृतानां क्षपकसमीपं ढौकनं न दातव्यं । यावद्देशस्थानां तेषां वचो न श्रूयते । कस्मादसंवृतजनसमीपागमनं निषिध्यते इत्याचष्टे-'तेसि असंवुडगिराहिं होज्ज खवयस्स असमाधी' । तेषामसंवृताभिर्वाग्भिर्भवेत्क्षपकस्य असमाधिः । क्षीणो हि जनो यत्किचिच्छत्वा कुप्यति संक्लेशमुपयाति वा ।।६८४॥ ___ गा०-जो यति तीव्र भक्तिरागसे सल्लेखनाके स्थान पर जाते हैं वे देवगतिका सुख भोग कर उत्तम स्थान मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥६८०॥ गा-जो जीव एक भवमें समाधिमरण पूर्वक करता है वह सात आठ भवसे अधिक काल तक संसारमें परिभ्रमण नहीं करता ।।६८१।। - विशेषार्थ-इन पर टीका नहीं है । पं० आशाधरने लिखा है-यहाँ ये दो गाथा परम्परा- . से सुनी जाती हैं । इन्हें विजयोदयाके कर्ता आचार्य नहीं स्वीकार करते हैं। ____ गा०-उत्तमार्थ-समाधिका साधन कोई मुनि करता है ऐसा सुनकर भी जो तीव्र भक्तिसे युक्त होकर यदि नहीं जाता तो उसकी समाधिमरणमें क्या भक्ति हो सकती है ? ॥६८२।। समाधिमरणमें भक्ति न होने में दोष कहते हैं गा०—जिसकी समाधिमरणमें भवित नहीं है उसका मरते समय समाधिपूर्वक मरण नहीं होता ।।६८३॥ गा०-टी०-वचन गुप्ति और वचन समितिसे रहित जो हल्ला-गुल्ला करने वाले लोग हैं उन्हें क्षपकके समीप नहीं जाने देना चाहिए। यदि जावें तो वहीं तक जावें जहाँसे उनके वचन क्षपकको सुनाई न देवें । ऐसे असंवृत जनोंका क्षपकके समीप जानेका निषेध करनेका प्रयोजन यह १. एते गाथे श्री विजयो नेच्छति । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० भगवती आराधना भत्तादीणं 'तत्ती गीदत्थेहिं वि ण तत्थ कादव्वा । आलोयणा वि हु पसत्थमेव कादम्विया तत्थ ॥६८५॥ 'भत्तादोणं 'तती' भक्तादिकथा । गृहीतार्थेरपि यतिभिस्तत्र क्षपकसकाशे न कर्तव्येति । 'आलोयणा विखु आलोचनागोचराद्यतिचारविषया । 'तत्थ' क्षपकसमीपे । 'पसत्यमेव कादग्वा' यथासौ न शृणोति तथा कार्या । बहुषु युक्ताचारेषु सत्सु ॥६८५॥ पच्चक्खाणपडिक्कमणुवदेसणिओगतिविहवोसरणे । पट्ठवणापुच्छाए उवसंपण्णो पमाणं से ॥६८६॥ प्रत्याख्यानं प्रतिक्रमणादिक । कस्य सकाशे सर्व कर्तव्यमिति यावत। यदि शक्तोऽसौ, न चेत्तदनुज्ञातस्य समीपे ॥६८६।। तेल्लकायादसीहिं य बहुसो गंडूसया दु घेत्तव्वा । जिम्भाकण्णाण बलं होहिदि तुंडं च से विसदं ॥६८७।। 'तेल्लकसायादीहिं य' तैलेन कषायादिभिश्च । 'बहुसो' बहुशो । 'गंडूसगा दु' गंडूषाः । 'घेत्तव्वा' ग्राहाः । तत्र गुणं वदति-'जिन्भाकण्णाण बलं' जिह्वायाः कर्णयोश्च बलं शक्ति वचने श्रवणे च । 'होहिदि' है कि उनके मर्यादा रहित वचनोंको सुनकर क्षपककी समाधिमें बाधा हो सकती है, क्योंकि कमजोर व्यक्ति ऐसे वैसे वचन सुनकर क्रुद्ध हो सकता है अथवा संक्लेशरूप परिणाम कर सकता है॥६८॥ विशेषार्थ-टीकामें 'असंवुडाण पासं सद्दवदीणं अल्लियदु ण दादव्वं' ऐसा पाठ है। तथा 'सहवदीणं' का अर्थ नहीं किया हैं । आशाधर जीने 'शब्दपतीनां शब्दवतीनां' लिखकर उसका अर्थ 'कल-कल करने वाले' किया है। गा०-आगमके अर्थके ज्ञाता यतियोंको भी क्षपकके पासमें भोजन आदिकी कथा नहीं करनी चाहिए और आलोचना सम्बधी अतिचारोंकी भी चर्चा नहीं करनी चाहिए। यदि करना ही हो तो बहुतसे युक्त आचार वाले आचार्योंके रहते हुए प्रच्छन्न रूपसे ही करना चाहिए जिससे क्षपक उसे न सुन सके ॥६८५॥ गा०-प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, उपदेश, नियोग-आज्ञादान, जलके सिवाय तीन प्रकारके आहारका त्याग, प्रायश्चित्त, आदि सब प्रथम स्वीकार किये आचार्यके पास ही करना चाहिए, क्योंकि जिसे उस क्षपकने अपना निर्यापक बनाया है वही उसके लिए प्रमाण होता है। किन्तु वह निर्यापकाचार्य ऐसा करने में असमर्थ हो तो उसकी अनुज्ञासे अन्य भी प्रमाण होता है ।।६८६।। विशेषार्थ-युवत आचार वाले अनेक आचार्योंके होते हुए भी क्षपकको प्रत्याख्यान आदि प्रथम स्वीकार किये निर्यापकके पास ही करना चाहिए यह आशय उक्त गाथाका है । गा०–तेल और कसैले आदिसे क्षपकको बहुत बार कुल्ले करना चाहिए। इससे जीभ १. भत्ती-आ० । २. दिकं से तस्य सकाशे-आ० मु० । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ४५१ भविष्यति । 'तं च से विसदं होदित्ति' पदसम्बन्धः । तुण्डवैशा अपि क्षपकस्य भविष्यति । निर्यापकव्यावर्णना समाप्ता ॥६८७॥ णिज्जावयपगासणा इत्येतद्वदति दव्वपयासमकिच्चा जइ कीरइ तस्स तिविहवोसरणं । कझिवि भत्तविसेसंमि उस्सुगो होज्ज सो खवओ ।।६८८।। 'दश्वपगासमकिच्चा' द्रव्यस्याहारस्य प्रकाशनं तं प्रति ढोकनं अकृत्वा । 'जड़ कीरई' यदि क्रियते । 'तस्त' तस्य क्षपकस्य । 'तिविहवोसरणं' त्रिविधाहारत्यागः । 'कम्हिवि' कस्मिंश्चिदपि । 'भत्तविसेसम्मि' भक्तविशेषे । 'उस्सुगो होज्ज सो खवओ' उत्सुको भवेत्स क्षपकः । आहारोत्सुक्यं च चित्तं व्याकुलयति ॥६८८।। तम्हा तिविहं वोसरिहिदित्ति उक्कस्सयाणि दव्वाणि । सोसित्ता संविरलिय चरिमाहारं पयासेज्ज ।।६८९।। पासित्तु कोइ तादी तीरं पत्तस्सिमेहिं कि मेति । वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ॥६९०॥ 'पासित्त' दृष्ट वा आहारमुपदर्शितं । 'कोइ' कश्चित् । 'तादो' यतिः । 'तीरं पत्तस्स' तीरं प्राप्तः य । 'इमेहि' अमीभिर्मनोहराहारैः । कि मेत्ति' किं ममेति । 'वेरग्गमणुप्पत्तो' भोगवैराग्यमनुप्राप्त उपगतः । 'संवेगपरायणो होदि' संसारभयत्यागे' प्रधानो भवति ॥६९०॥ आसादित्ता कोई तीरं पत्तस्सिमे हिं कि मेत्ति । वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ॥६९१।। और कानोंको बल मिलता है और मुख साफ होता है ॥६८७।। इस प्रकार निर्यापकका कथन समाप्त हुआ। अब निर्यापकके द्वारा आहारके प्रकाशनका कथन करते हैं गा०—आहारका प्रकाशन अर्थात क्षपकके सामने विविध भोजनोंको उपस्थित न करके यदि तीन प्रकारके आहारका त्याग कराया जाता है तो क्षपक किसी भी भोजन विशेषमें उत्सुक बना रह सकता है । और आहारमें उत्सुकता चित्तको व्याकुल करती है ।।६८८।। गा०-अतः उत्तम-उत्तम भोजन पात्रोंमें अलग-अलग उसके सामने रखकर जब वह सन्तुष्ट हो जाये तो अन्तिम आहार उपस्थित करे। ऐसा करनेसे क्षपक तीनों प्रकारके आहारको छोड़ देगा ।।६८९॥ विशेषार्थ-टीकाकारने यह गाथा नहीं मानी। गा०-कोई यति दिखाये गये आहारोंको देखकर 'मरणको प्राप्त मुझे इन मनोज्ञ आहारोंसे क्या प्रयोजन' ऐसा विचार भोगोंसे विरक्त होकर संसारके भयको त्यागने में प्रमुख होता है ।।६९०॥ १. भयात्त्यागे-आ० मु० । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ भगवती आराधना देसं भोच्चा हा हा तीरं पत्तस्सिमेहि किं मेत्ति । वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ।।६९२।। सव्वं भोच्चा घिद्धी तीरं पत्तस्सिमेहिं कि मेत्ति । वरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होइ ।।६९३।। मनोज्ञविषयसेवा हि पौनःपुन्येन प्रवर्तमाना अभिलाषं जनयति जन्तोः । स चानुरागः कर्मपुद्गलादाने हेतुः, ततो भीम' भवाम्भोधिप्रवेशनं भवभृतामिति स्पष्टार्थ गांथात्रयं । उत्तर प्रकाशना समाप्ता पयासणा ॥६९३॥ हाणी इति सूत्रपदं व्याचष्टे कोई तमादइत्ता मणुण्णरसवेदणाए संविद्धो । तं चेवणुबंधेज्ज हु सव्वं देसं च गिद्धीए ॥६९४।। 'कोई' कश्चिद्यतिः । 'तं' दर्शितमाहारं । 'आदयित्ता' भुक्त्वा । 'मणुण्णरसवेदणाए' मनोज्ञरसानुभवनेन । 'संविद्धो' मूच्छितः । 'तं चेवणुबंधेज्ज हु' तमेवास्वादितं मनोज्ञाहारमनुबध्नीयात् । दर्शितेष्वेकं वा, 'गिद्धोए' गृद्धया ॥६९४|| तत्थ अवाओवायं दंसेदि विसेसदो उवदिसंतो। उद्धरिदु मणोसल्लं सुहुमं सण्णिव्ववेमाणो ॥६९५।। गा०-कोई क्षपक भोजनका स्वाद मात्र लेकर 'मरणको प्राप्त' मुझे इस मनोज्ञ भोजनसे क्या, ऐसा विचार विरक्त हो, संसारके भयको त्यागने में तत्पर होता है ॥६९१॥ गा०-कोई क्षपक थोड़ा सा खाकर 'मरणको प्राप्त मुझे इस मनोज्ञ आहारसे क्या' ऐसा विचार विरक्त हो संसारके भयको त्यागनेमें तत्पर होता है ।।६९२।। गा०-टो०-कोई सब आहारको भोगकर 'मुझे बार-बार धिक्कार है । मरणको प्राप्त मुझे इस मनोज्ञ आहारसे क्या प्रयोजन' इस प्रकार विरक्त हो संसारके भयसे मुक्त होने में तत्पर होता है। बार-बार मनोज्ञ विषयोंका सेवन यदि चलता रहे तो उससे जीवमें उसकी अभिलाषा बनी रहती है। और वह अनुराग कर्म पुद्गलोंके ग्रहणमें कारण होता है और उससे प्राणिगण संसार समुद्रमें पड़े रहते हैं। यह स्पष्ट करनेके लिए ये तीन गाथा कही है ॥६९३॥ । __ आहारका प्रकाशन समाप्त हुआ। हानिका कथन करते हैं गा०-कोई क्षपक उस दिखाये आहारको खाकर मनोज्ञ रसके स्वादसे मूच्छित होकर तृष्णावश उस खाये आहारमें से सबको अथवा किसी एक वस्तुको ही खानेकी इच्छा करता है ॥६९४॥ १. त्तो भोग-भ-आ० मु० । २. त्रयोत्तरं अ० । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'तत्थ' तत्राहारासको जातायां । 'अवाओपायं' इन्द्रियसंयमस्यापायं, असंयमस्य च ढौकनं । 'दंसेदि' दर्शयति । 'विसेसदो' विशेषेण । 'उवदिसंतो' उपदिशन् । 'उद्धरिदु' उद्धत्तु। 'मणोसल्लं' मनःशल्यं । 'सुहमं' सूक्ष्मं । 'सण्णिव्ववेमाणो' सम्यक् प्रशमयन् ॥६९५॥ सोच्चा सल्लमणत्थं उद्धरदि असेसमप्पमादेण । वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो खवओ ॥६९६॥ 'सोच्चा' श्रुत्वा वैराग्यकथां । 'सल्लं' शल्यं । 'उद्धरदि' उत्पाटयति । 'असेसं' अशेषं । 'अप्पमादेण' प्रमादं विना । 'वेरग्गमणुप्पत्तो' वैराग्यमनुप्राप्तः । 'संवेगपरायणः' संवेगपरः । क्षपकः शल्योद्धरणपरो भवति ॥६९६॥ अणुसज्जमाणए पुण समाधिकामस्स सव्वमुवहरिय । एक्केक्कं हावेतो ठवेदि पोराणमाहारे ॥६९७॥ 'अणुसज्जमाणए पुण' कृतेऽप्याहाराभिलाषस्य दोषोपदर्शने । 'अणुसज्जमाणगे' आहारे अनुरागवति क्षपके । 'समाधिकामस्स' समाधिमरणमिच्छतः । 'सव्वमुवहरिय' सर्वमाहारमुपसंहृत्य । कथं ? 'एक्केक्कं हावेतो' एकैकं आहारं हापयन् सूरिः । 'ठवेवि' स्थापयति क्षपकं । 'पोराणमाहारे' प्राक्तने आहारे ॥६९७।। अणुपुन्वेण य ठविदो संवटेदूण सव्वमाहारं । पाणयपरिक्कमेण दु पच्छा भावेदि अप्पाणं ॥६९८॥ 'ठविदो' स्थापितः सूरिणा प्राक्तनाहारे क्षपकः पश्चारिक करोत्यत आह-'सव्वमाहारं', अशनं स्वाद्यं, खाद्यं च । 'अणुक्कमेण' क्रमेण । 'संवट्टेदण' उपसंहृत्य । पाणगपरिक्कमेण दु' पानकास्येन परिकरेण । 'अप्पाणं' आत्मानं । 'पच्छा भावेदि' पश्चाद्भावयति । हा निर्व्याख्याता । हाणित्ति ॥६९८॥ कतिप्रकारं पानकमित्यारेकायामाचष्टे गा०-इस प्रकार आहारमें आसक्ति होने पर आचार्य उस क्षपकके मनसे सूक्ष्म शल्यको निकालनेके लिए इन्द्रिय संयमका विनाश और असंयमकी प्राप्ति बतलाते हुए विशेष रूपसे उपदेश देते हैं और इस तरह उसे सम्यक् रूपसे शान्त करते हैं ।।६९५।। गा०-वैराग्यका उपदेश सुनकर वैराग्यको प्राप्त हुआ क्षपक प्रमाद छोड़कर समस्त अनर्थकारी शल्यको निकाल देता है और संवेगमें तत्पर होता है !।६९६॥ गा.-आहारकी अभिलाषामें दोष दिखानेपर भी यदि क्षपक आहारमें अनुरागी रहता है तो आचार्य समाधिमरणके इच्छुक क्षपकको सब आहार दिखलाकर एक-एक आहार छुड़ाते हुए उसे अपने पूर्व आहार पर ले आते हैं ॥६९७।। ___गा०-आचार्यके द्वारा पूर्व आहारपर स्थापित होनेके पश्चात् क्षपक क्रमसे अशन खाद्य स्वाद्य सब आहारोंका त्याग करके पीछे अपनेको पानक आहार में लगाता है ।।६९८॥ हानिका कथन समाप्त हुआ। पानकके भेद कहते हैं१. अणुपुव्वेण अनुक्रमेण-मूलारा० । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ भगवती आराधना सत्थं वहलं लेवडमलेवडं च ससित्थयमसित्थं । छविहपाणयमेयं पाणयपरिकम्मपाओग्गं ।।६९९।। 'सत्थं' स्वच्छं एक पानकं उष्णोदकं सौवीरकं । तिन्तिणीकाफलरसप्रभृतिकं च अन्यद्वहलं । दध्यादिकं 'लेवर्ड' लेपसहितं । 'अलेवडं' अलेपसहितं यन्न हस्ततलं विलिपति । 'ससित्थगं' सिक्थसहितं, 'असिस्थगं' सिक्थरहितं । 'छद्धा' षोढा । 'पाणगमेदं' एतत्पानकं। 'पाणगपरिकम्मपाओग्गं' पानकाख्यपरिकर्मप्रायोग्यं ॥६९९॥ आयंबिलेण सिंभं खीयदि पिनं च उवसमं जादि । वादस्स रक्खणटुं एत्थ पयत्तं खु कादव्वं ॥७००॥ 'आयंबिलेण' आचाम्लेन । "सिभं खोयदि' श्लेष्मा क्षयमुपयाति । 'पित्तं च पित्तं च । 'उवसमं जादि' उपशममुपयाति । 'वादस्स' वातस्य । 'रक्खणटुं' रक्षणार्थ । 'एत्थ' अत्र । 'पयत्तं खु कादब्वं' प्रयलः कर्तव्यः ॥७००॥ पानभावनोत्तरकालभाविनं व्यापार दर्शयति तो पाणएण परिभाविदस्स उदरमलसोघणिच्छाए । मधुरं पज्जेदव्वो मंडं व विरेयणं खवओ ॥७०१॥ __'तो' पश्चात् । 'पाणगेण' पानेन । 'परिभाविदों' भावितः क्षपकः । 'मधुरं पज्जेदव्यो' मधुरं पाययितव्यः । किमर्थं ? 'उदरमलसोधणिच्छाए' उदरगतमलनिरासाय ॥७०१॥ आणाहवत्तियादीहिं वा वि कादम्बमुदरसोधणयं । वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अत्यंतयं उदरे ।।७०२॥ 'आणाहवत्तियादोहिं' अनुवासनादिभिः । 'कादन्वं' कर्तव्यं । 'उदरसोधणयं उदरस्थमलमुदरशब्देनोच्यते तस्य निराक्रिया उदरमलशोधना । किमर्थमेवं प्रयासेन महता मलं निराक्रियते इत्यत्राचष्टे । 'वेदणमुप्पादेज्ज गा०-पानकके छह भेद हैं-एक भेद स्वच्छ है । जैरो गर्मजल सौवीरक । इमली आदि फलोंके रसको बहल कहते हैं । यह दूसरा भेद है। दही आदि लेवड है जो हाथसे लिप्त हो जाता है। यह तीसरा भेद है। जो हाथसे लिप्त न हो वह चौथा भेद अलेवड है। सिक्थ सहित पेय पाँचवाँ भेद है और सिक्थरहित पेय छठा भेद है। ये छह प्रकारका पानक पानक परिकर्मके योग्य है ।।६९९॥ गा०-आचाम्लसे कफका क्षय होता है, पित्त शान्त होता है और वातसे रक्षा होती है । इसलिए आचाम्लके सेवनका प्रयत्न करना चाहिए ॥७००॥ पानककी भावनाके पश्चात्का कार्य बतलाते हैं गा--पानकका सेवन करनेवाले क्षपकको पेटके मलकी शुद्धिके लिए मांडकी तरह मधुर विरेचन पिलाना चाहिए ॥७०१॥ गा०-अनुवासन और गुदाद्वारमें वत्ती आदि चढ़ाकर पेटके मलकी शुद्धि करना चाहिए । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका खु' वेदनामुत्पादयेदेव । 'उदरे करिस्सगं' पुरीष 'अत्यंतगं' स्थितं ॥७०२॥ एवं कृतोदरशोधनस्य क्षपकस्य योग्यं व्यापारं निर्यापकसूरिसंपाद्यमादर्शयति जावज्जीवं सव्वाहारं तिविहं च वोसरिहिदित्ति । णिज्जवओ आयरिओ संघस्स णिवेदणं कुज्जा ॥७०३॥ 'जावज्जीवं' जीवितावधिकं । 'सव्वाहारं' सर्वाहारं । 'तिविहं' त्रित्रिघं अशनं, खाद्यं, स्वाद्यं च । 'वोसरिहिदित्ति' त्यजतीति । 'णिज्जवगो आयरिओ' निर्यापकः सरिः। 'संघस्स णिवेदणं कुज्जा' सचं निवेदयेत् ॥७०३॥ खामेदि तुम्ह खवओत्ति कुंचओ तस्स चेव खवगस्स । दावेदव्वो णेदूण सव्यसंघस्स वसधीसु ॥७०४॥ 'खामेदि' क्षमां ग्राहयति । 'तुम्ह' युष्मान् । 'खवगोत्ति' क्षपक इति । 'तस्स चेव खवगस्स' तस्यैव क्षपकस्य । 'कंचगों' प्रतिलेखनं। 'दावेदव्वो' दर्शयितव्यं । 'णेदुण' नीत्वा। 'सव्वसंघस्स वसदीए' सर्वसङ्घस्य वसतीषु ॥७०४॥ तेन सङ्घन ज्ञातक्षपकाभिप्रायेण कर्तव्यमित्याचष्टे आराधणपत्तीयं खवयस्स व णिरुवसग्गपत्तीयं । काओसग्गो संघेण होइ सव्वेण कादवो ॥७०५॥ 'आराधणपत्तीगं' रत्नत्रयाराधना क्षपकस्य यथा स्यादित्येवमर्थ । 'खवगस्स णिस्वसग्गपत्तोयं क्षपकस्योपसर्गा मा भूवन्नेवमथं च । 'काओसग्गो' कायोत्सर्गः । 'संघेण सम्वण' सर्वेण सधेन । 'होवि कायव्वो' कर्तव्यो भवति ॥७०५॥ गाथामें आये उदर शब्दसे पेटका मल लेना चाहिए। उसको निकालना उदरमलका शोधन है। ऐसे महान प्रयासके द्वारा पेटके मलको निकालनेका यह कारण हे कि उदरमें रहा हुआ मल कष्ट देता है ॥७०२॥ इस प्रकार क्षपकके उदरके मलकी शुद्धि हो जानेपर निर्यापकाचार्य क्षपकके योग्य जो कार्य करते हैं उसे कहते हैं गा०–निर्यापकाचार्य संघसे निवेदन करते हैं कि अब यह क्षपक जीवनपर्यन्तके लिए अशन, खाद्य और स्वाद्य तीनों प्रकारके सब आहारका त्याग करता है ॥७०३॥ गा०-तथा यह क्षपक आप सबसे क्षमा मांगता है। इसके प्रमाणके लिए आचार्य उस क्षपककी पिच्छिका लेकर सर्वसंघकी वसतियोंमें दिखलाते हैं। अर्थात् क्षपक सबके पास क्षमा माँगने स्वयं नहीं जा सकता, इसलिए उसकी पीछी सर्वत्र ले जाकर दिखलाते हैं कि वह आप सबसे क्षमा मांगता है ॥७०४|| क्षपकका अभिप्राय जानकर संघको क्या करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-क्षपककी रत्नत्रयकी आराधनापूर्ण हो और उसमें कोई विघ्न न आवे, इसके लिए सर्वसंघको कायोत्सर्ग करना चाहिए ॥७०५।। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ भगवती आराधना खवयं पच्चक्खावेदि तदो सव्वं च चदुविधाहारं । संघसमवायमज्झे सागारं गुरुणिओगेण ॥७०६॥ 'खवर्ग' क्षपकं । 'पच्चक्खावेदि' प्रत्याख्यानं कारयति, निर्यापकः सूरिः । 'तदो' पश्चात् । 'सव्वं' सवं । 'चदुविधाहारं' चतुर्विधाहारं । 'संघसमवायमझे' सधसमुदायमध्ये । 'सागारं' साकारं । 'गुरुनियोगेन' इतरं गुर्वनुज्ञया ॥७०६॥ अहवा समाधिहेदु कायन्वो पाणयस्स आहारो। तो पाणयंपि पच्छा वोसरिदव्वं जहाकाले ॥७०७।। 'अहवा' अथवा । 'समाधिहे,' समाधिश्चित्तंकाय, तदर्थ । 'कादम्वो' कर्तव्यः 'पाणगस्स आहारो' पानकस्य विकल्पः । 'तो' पश्चात् । 'पाणगंपि' पानकमपि । 'वोसरिदव्वं त्यक्तव्यं । 'जहाकाले' यथाकाले नितरां शक्तिहानिकाले। पूर्वगाथया चतुर्विधाहारत्यागः कार्य इति, योऽतिशयेन परीषहबाधाक्षमस्तं प्रयुक्तं । अनया तु यो न तथा भवति तं प्रति त्रिविधाहारत्याग इति निर्दिश्यते ॥७०७।। कीदृग्पानं तस्य योग्यमित्यत्राह जं पाणयपरियम्मम्मि पाणयं छविहं समक्खादं । तं से ताहे कप्पदि तिविहाहारस्स वोसरणे ॥७०८।। 'ज' यत् । 'पाणयपरियम्मम्मि' पानकाख्ये परिकरे । 'पाणगं' पानं । 'छविहं' षड्विधं । 'समक्खाद' समाख्यातं । सच्छं बहलमित्यादिकं । 'तं' तत्पानं । 'से' तस्य । 'ताहे' तदा । 'कप्पदि' योग्य भवति । 'तिविधाहारस्य' अशनस्य, खाद्यस्य, स्वाद्यस्य च त्यागे । पच्चक्खाणं ॥७०८॥ तो आयरियउवज्झायसिस्ससाघम्मिगे कुलगणे य । जो होज्ज कसाओ से तं सव्वं तिविहेण खामेदि ॥७०९।। 'तो' प्रत्याख्यानोत्तरकाले । 'आयरियउवज्झायसिस्ससाघम्मिगे' आचार्य, उपाध्याये, शिष्ये, सर्मिणि । 'कुलगणे' य कूले गणे च । 'जो होज्ज कसाओ' यो भवेत्कषायः क्रोधो, मानो, लोभो वा। 'तं सव्वं' निरव गा०-उसके पश्चात् निर्यापकाचार्य संघके समुदायके मध्यमें चारों प्रकारके आहारका सविकल्पक त्याग करता है और क्षपक गुरुकी आज्ञासे ऐसा करता है ॥७०६॥ गा.-अथवा समाधि अर्थात् चित्तकी एकाग्रताके लिए पानकको छोड़कर शेष सब आहारका त्याग करता है और अत्यन्त शक्तिहीन होनेपर पानकका भी त्याग करता है ॥७०७॥ विशेषार्थ-पूर्वगाथामें चार प्रकारके आहारका त्याग उस क्षपकके लिए कहा है जो अत्यन्त परीषहकी बाधाको सहने में समर्थ होता है और इस गाथासे जो ऐसा नहीं होता उमके लिए तीन प्रकारके आहारका त्याग कहा है ।।७०७।। उसके योग्य पानक किस प्रकारका है यह बताते हैं गा०-पानकके प्रकरणमें जो छह प्रकारका पानक कहा है, तीन प्रकारके आहारका त्याग करनेपर वह उस क्षपकके योग्य होता है ।।७०८।। गा-आहार त्याग करनेके पश्चात् आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मी, कुल और गणके Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४५७ शेष । 'तिविहेण' त्रिविधेन । 'खामेदि' क्षपयति निराकरोति ॥७०९॥ अब्भहियजादहासो मत्थम्मि कदंजली कदपणामो । 'खामेड् सव्वसंघं संवेगं संजणेमाणो ।।७१०।। 'अब्भहिदजादहासो' नितरामुपजातचित्तप्रसादः । कर्तव्यं मुमुक्षुणा यत्तत्सकलं मयानुष्ठितं इति । 'मत्थम्मि कदंजली' मस्तकन्यस्ताञ्जलि: । 'कदपणामो' कृतप्रमाणः । 'खामेदि' क्षमां ग्राहयति । 'सव्वसंघ' सर्व श्रमणगणं । 'संवेगं' धर्मानुरागं । 'संजणेमाणो' सम्यगुत्पादयन् सर्वस्य सङ्घस्य ।।७१०॥ मणवयणकायजोगेहिं पुरा कदकारिदे अणुमदे वा । सव्चे अवराधपदे एस खमावेमि णिस्सल्लो ॥७११॥ 'मणवयणकायजोर्योह' मनोवाक्काययोगैः । 'पुरा' पूर्व । 'कदकारिदे अणुमदे वा' कृतकारितानुमताश्च । 'सन्वे अवराधपदे' सर्वानपराधविशेषान् । 'एस' एषः । 'खमावेमि' क्षमां ग्राहयामि। "णिस्सल्लो' शल्यरहितोऽहमिति ।।७११।। अम्मापिदुसरिसो मे खमहु खु जगसीयलो जगाधारो । अहमवि खमामि सुद्धो गुणसंघायस्स संघस्स ॥७१२।। 'अम्मापिदुसरिसो' मात्रा पित्रा च सदृशो । 'मे' मम 'खमदु' क्षमा करोतु । 'जगसीदलो' जगतः सर्वप्राणिलोकस्य शीतलः । 'जगाधारो' आसन्नभव्यलोकस्य आधारः । 'अहमवि खमामि' परकृतमपराधं मनसि न करोमि । 'सुद्धो' शुद्धः क्रोधादिकलङ्कविरहात् । 'गुणसंघादस्स' गुणसमुदायस्य 'संघस्स' सङ्घस्य । खमणा ॥७१२॥ संघो गुणसंघाओ संघो य विमोचओ य कम्माणं । दंसणणाणचरित्ते संघायंतो हवे संघो ॥७१३॥ सम्बन्धमें क्षपकके अन्दर जो क्रोध, मान, माया या लोभ कषाय होती है उसे सबको वह मतवचनकायसे निकाल देता है ।।७०९।। गा०-मुमुक्षुका जो कर्तव्य है वह सब मैंने किया, इस विचारसे उस क्षपकके चित्तमें अत्यन्त प्रसन्नता होती है और धर्मानुरागको प्रकट करते हुए दोनों हाथोंकी अंजलि मस्तकसे लगाकर प्रणामपूर्वक समस्त मुनिसंघसे वह क्षमा माँगता है ।।७१०।। गा०—कि मनवचनकाय और कृतकारित अनुमोदनासे पूर्व में किये गये सव अपराधों की मैं निःशल्य होकर क्षमा माँगता हूँ ॥७११॥ गा-गुणोंका समूहरूप यह संघ समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाला है, निकट भव्यजीवोंका आधार है। वह संघ मुझे माता-पिताके समान क्षमा प्रदान करें। मैं भी क्रोधादि दोषोंसे शुद्ध होकर किये हुए अपराधको मनसे निकाल देता हूँ ।।७१२।। गा०-गुणोंके समूहका नाम संघ है । यह संघ कर्मोंसे छुड़ाता है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके मेलसे संघ होता हैं ॥७१३।। ५८ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ भगवती आराधना इय खामिय वेरग्गं अणुत्तरं तवसमाधिमारूढो । पफ्फोडितो विहरदि बहुभवबाधाकरं कम्मं ।।७१४॥ वटति अपरिदंता दिवा य रादो य सव्वपरियम्मे । पडिचरया गणहरया कम्मरयं णिज्जरेमाणा ॥७१५।। 'वति' वर्तन्ते । 'अपरिदता' अपरिधान्ताः । "दिवा य रादो य' दिने रात्रौ च । 'सव्वपरिकम्मे' सर्वपरिचरणे । 'पडिचरगा' निर्यापकाः । गणहरया गणान् धर्मस्थान धारयन्तीति गणधराः 'कम्मरयं' कर्माख्यं रजः 'णिज्जरमाणा' निर्जरयन्तः ॥७१५॥ जं बद्धमसंखेज्जाहिं रयं भवसदसहस्सकोडीहिं । सम्मत्तुप्पत्तीए खवेइ तं एयसमयेण ॥७१६॥ 'ज' यत् । 'बद्धं रयं' बद्धं रजः कर्म । यथा रजश्छादयति परस्य गुणं शरीरादेः कच्छूदद्रुप्रभृतिक दोषमावहति तद्वद्वोधादिगुणमवच्छादयति च विचित्रा विपदः तेन रज इव रज इत्युच्यते । 'भवसवसहस्स कोडीहिं' भवशतसहस्रकोटिभिः । तद्रजः 'खत्ति' क्षपयन्ति । केन ? 'सम्मत्तुप्पत्तीए' श्रद्धानोत्पत्त्या । 'एगसमयेण' एकेनैव समयेन । तथा चोक्तं-सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह क्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा इति ॥ [ तत्त्वा० ९।४५ ] ॥७१६॥ एयसमएण विधुणदि उवउत्तो बहुभवज्जियं कम्मं । अण्णयरम्मि य जोग्गे पच्चक्खाणे विसेसेण ॥७१७॥ 'एगसमयेण विधुणदि' अल्पेन कालेन निधु नाति । 'उवउत्तो' परिणतः । क्व ? 'अण्णयरम्मि जोगें' यस्मिन्कस्मिश्चित तपसि । कि? 'बहभवज्जियं' अनेकभवसंचितं । 'कम्म' कर्म । 'पच्चक्खाणे उवजुत्तो विसेसेण गा०-इस प्रकार सर्वसंघको क्षमा प्रदान करके उत्कृष्ट वैराग्यको धारणकर, तप और समाधिमें लीन हुआ क्षपक भवभवमें कष्ट देनेवाले कर्मोंकी निर्जरा करता है ।।७१४।। गा०-धार्मिकोंका संरक्षण करनेवाले निर्यापक मुनिगण रात दिन विना थके उस क्षपककी समस्त परिचर्या में लगे रहते हैं । और इस प्रकार कर्मोंकी निर्जरा करते हैं ।।७१५।। गाo.-असंख्यात लक्षकोटिभवोंमें जो कर्मरज बाँधा है उसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होनेपर एक समयमें ही जीव नष्ट कर देता है ॥७१६|| टी०-जैसे रज अर्थात् धूल शरीर आदिके सौन्दर्यको ढाँक देती है और शरीर में दाद खाज आदि दोष उत्पन्न करती है वैसे ही कर्म जीवके ज्ञानादिगुणोंको ढाँकता है और अनेक कष्ट देता है इसलिए उसे रजके समान होनेसे रज कहा है। असंख्यातभवोंमें संचित कर्मरज सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेपर एक समयमें ही निर्जीर्ण हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्रमें कहा हैसम्यग्दृष्टी, श्रावक, प्रमत्तविरत, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक, दर्शनमोहका क्षपक, उपशम श्रेणिवाला, उपशान्तमोही, क्षपकश्रेणिवाला, क्षीणमोही और अरहन्तके उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है ।।७१६।। __ गा०—जिस किसी तपमें लीन हुआ आत्मा अनेकभवोंमें संचितकर्मोको अल्पसमयमें ही Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५९ विजयोदया टीका विधुणदि' यावज्जीवं चतुर्विधाहारत्यागे परिणतः विशेषेण निरस्यति ॥७१७।। एवं पडिक्कमणाए कोउसग्गे य विणयसज्झाए । अणुपेहासु य जुत्तो संथारगओ धुणदि कम्मं ॥७१८॥ ‘एवं' उक्तेन क्रमेण । 'पडिक्कमणगे' प्रतिक्रमणे । 'काउस्सगे य' कायोत्सर्गे च । 'विणयसज्झाए' विनयस्वाध्याययोः । 'अणुपेहासु य जुत्तो' अनुप्रेक्षासु च युक्तः । 'संथारगदो' संस्तरारूढः । 'कम्मं घुपदि' कर्म क्षपयति । खवणं गदं ॥७१८।। इत उत्तरं अनुशासनं प्रक्रम्यते इति निगदति णिज्जवया आयरिया संथारत्थस्स दिति अणुसिट्टि । संवेगं णिन्वेगं जणंतयं कण्णजावं से ।।७१९॥ 'णिज्जवगा आइरिया' निर्यापकाः सूरयः । 'अणुसिटिठ दिति' श्रुतज्ञानानुसारेण शिक्षा प्रयच्छन्ति । 'संथारत्थस्स' संस्तरस्थस्य । 'संवेगं' संसारभीरुतां । 'णिवेग' वैराग्यं च । 'जणंतगं' उत्पादयन्तं । 'कन्न जावं' कर्णजापं । 'से' तस्मै क्षपकाय ।।७१९।। णिस्सल्लो कदसुद्धी विज्जावच्चकरवसधिसंथारं । उवधिं च सोधइत्ता सल्लेहण भो कुण इदाणिं ॥७२०॥ 'णिस्सल्लो' मिथ्यादर्शनं, माया, निदानं इति त्रीणि शल्यानि तेभ्यो निःक्रान्तः । तत्त्वश्रद्धानेन, ऋजुतया, भोगनिस्पृहतया वा 'कदसुद्धो' कृता शुद्धिनिर्मलता रत्नत्रये येन स कृतशुद्धिः । विज्जावच्चकरवसधिसंथारं' विविधा आपत विपत इत्युच्यते । व्याधय. उपसर्गाः. परीषहा. असंयमो. मिथ्याज्ञानं भेदेन तस्यामापदि यत्प्रतिविधानं तद्वैयावृत्त्यं तत्करोति य आत्मनः स वैयावृत्त्यकरस्तं। वसतिसंवारं निर्जीण कर देता है । और जो जीवनपर्यन्त चारों प्रकारके आहारका त्याग करता है वह विशेषरूपसे कर्मोंकी निर्जरा करता है ।।७१७।। गा०-इस प्रकार संस्तरपर आरूढ क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय और बारह भावनाओंमें लगनेपर कर्मोंकी निर्जरा करता है ।।७१८॥ आगे कहते हैं कि क्षपकको सूरि शिक्षा देते हैं गा०-निर्यापक आचार्य संस्तरपर आरूढ़ क्षपकको श्रुतज्ञानके अनुसार उसके कानमें शिक्षा देते हैं। वह शिक्षा संसारसे भय और वैराग्यको उत्पन्न करती है ।।७१९।। कानमें क्या शिक्षा देते हैं, यह कहते हैं गा०-हे क्षपक ! निःशल्य होकर, रत्नत्रयको निर्मल करके तथा वैयावृत्य करनेवाले, वसति संस्तर और पीछी आदि उपधिका शोधन करके अब सल्लेखना करो ॥७२०॥ टो०-मिथ्यादर्शन, माया, निदान ये तीन शल्य हैं। तत्त्वश्रद्धानसे मिथ्यादर्शनको, सरलतासे मायाको और भोगोंकी निस्पृहतासे निदानको दूर करके निःशल्य बनो। व्याधि, उपसर्ग, परीषह, असंयम, मिथ्याज्ञान आदिके भेदसे विविध आपदाओंको विपदा कहते हैं। उस विपदाके आनेपर उसके प्रतिकार करनेको वैयावृत्य कहते हैं। जो क्षपककी वैयावृत्य करता है Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधनों बसात्तिसांस्तरं । उपवि पिछादिकं च । 'सोधयित्ता' विशोध्य । 'सल्लेहणं' सल्लेखनां । 'कुण' कुरु । 'इदाणि' इदानों। कि? संयमासंयमविवेकज्ञाः असंयमं विधा मनोवाक्कायैः परिहरन्ति न वेति परीक्ष्य अयोग्यवैयाअल्मकराणा व्याणाः ॥ योग्यानां चानुज्ञा । पूर्वापरायोर्वसतेः, संस्तरस्योपकरणानां च शुद्धि कुरुतेति आज्ञागायत्ता लच्छद्धिः कृता भवति ॥७२०॥ मिच्छत्तस्स य वमणं सम्मत्ते भावणा परा भत्ती । मावणमोक्काररदि णाणवजुत्ता सदा कुणसु ॥७२१॥ "मिच्छत्तस्स य वमणं' मिथ्यात्वस्य वमनं । 'सम्मत्ते भावणा' तत्त्वश्रद्धाने असकृदवत्तिः । 'परा भत्ती' । उत्कृष्या भक्तिः । “मावचमोक्काररदी' नमस्कारो द्विविधः द्रव्यनमस्कारो भावनमस्कार इति। नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारण. उत्तमाङ्गावनतिः, कृताञ्जलिता च द्रव्यनमस्कारः । नमस्कर्तव्यानां गुणानुरागो भावसमस्कारस्ता रत्तिः । 'पानुवयोग' श्रुतज्ञानोपयोगं च । सदा 'कुणसु' कुर्विति । सूत्रमिदं ॥७२१॥ पंचमहन्वयरक्खा कोहचउक्कस्स णिग्गहं परमं । दुद्दतिंदियविजयं दुविहतवे उज्जमं कुणसु ॥७२२॥ "पंचमहब्बयरक्सा' पञ्चानां महाव्रतानां रक्षां । 'कोहचउक्कस्स' रोषचतुष्कस्य । “णिग्गह' निग्रहं । परवं प्रकृष्ट । “दु तबियविजयं' दुर्दातेन्द्रियविजयं । 'दुविधतवे' द्विप्रकारे तपसि । 'उज्जम' उद्योगं । "कुपान्तु कुरु ॥२२॥ 'मिच्छतास य वमणं' इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे कह बयाबृत्य करनेवाला है । हे क्षपक ! वैयावृत्य करनेवाला, वसति, संस्तर और पीछी आदिका शोधाना करके तुम सल्लेखना करो। इसका अभिप्राय यह है क्षपक यह देखे कि वैयावृत्य करनेयाले भनि संथम और असंयमके भेदको जानते हैं या नहीं? वे मनवचनकायसे असंयमका परिहार करते हैं या नहीं ? यह परीक्षा करके अयोग्य वैयावृत्य करनेवालोंको हटा दें और योग्य वैयावृत्य करनेवालोंको स्वीकार करे। पूर्वाद्धं और अपराह्नमें वसति, संस्तर और उपकरणोंकी शुद्धि करो ऐसी आज्ञा देनेपर उनकी शुद्धि मानी जाती है। इनकी शुद्धिपूर्वक तुम समाधि करो। अब तुम्हारा मारणसम्मन्य निकट है । ऐसा क्षपकके कानमें कहते हैं ॥७२०॥ ___ मा–मिथ्यात्वका त्याग करो। तत्वश्रद्धानकी भावना करो। अर्हन्त आदिमें उत्कृष्ट भाक्ति करो। भावनमस्कारमें मन लगाओ। नमस्कारके दो भेद हैं-द्रव्यनमस्कार और भावनमारस्कार । जिनदेवको नमस्कार हो इत्यादि शब्दोंका उच्चारण करना, मस्तक झुकाना, दोनों हाथ जोड़ना, ये सब द्रव्यनमस्कार हैं और नमस्कार करने योग्य अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुराग होन्ना भावनमस्कार है। उस भावनमस्कारमें मन लगाओ और सदा श्रुतज्ञानमें उपयोग लगाओ७२२॥ या-पाँच महाव्रतोंकी रक्षा करो। क्रोध आदि चार कषायोंका उत्कृष्ट निग्रह करो। दुर्दान्त इन्द्रियों को जोतो और दो प्रकारके तपमें उद्योग करो ॥७२२॥ 'मिथ्यात्वका त्याग करो' गाथाके इस पदका व्याख्यान करते हैं Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४६१ संसारमूलहेदु मिच्छत्तं सव्वधा विवज्जेहि । बुद्धी गुणण्णिदं पि हु मिच्छत्तं मोहिदं कुणदि ॥७२३।। 'संसारमूलहेदु” संसारस्य मूलकारणं । 'मिच्छत्तं' अश्रद्धानं । 'सन्वधा' मनोवाक्कायः । 'विवज्जेहि' वर्जय । 'बुद्धो' बुद्धि । 'गुणण्णिदं पि खु' गुणान्वितामपि । 'मिच्छत्तं' मिथ्यात्वं 'मोहिदं' मुग्धां । 'कुणदि' करोति । अत्रेदं विचार्यते । कथं प्रथमता मिथ्यात्वस्य ? न हीदं संभाव्यते असंयमादिभ्यो मिथ्यात्वं प्रथममपजातमिति कुतः ? यथा मिथ्यात्वं स्वनिमित्तसन्निधानाद्भवति, एवमसंयमादयोऽपीति का तस्य प्रथमता? अथ तद्धतुरेव दर्शनमोहः प्रथमं भवति पश्चाच्चारित्रमोहादीनीत्येतदपि असत् सदा कर्माष्टकसद्भावात् । 'एवं प्रामाण्यते सूत्रकारः 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इति वचने मिथ्यात्वं बन्धहेतुषु पूर्वमुपन्यस्तं बन्धपुरःसरश्च संसारः, संसारमूलहेतमिथ्यात्वमिति बुद्धि अर्थयाथात्म्यपरिच्छेदगुणसमन्वितामपि मिथ्यात्वं विपरीतां करोति । अन्ये तु वदन्ति । 'बुद्धी गुणण्णिया पि खु' शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणादयो बुद्धेर्गुणास्तीतुमपीति ॥७२३॥ अतद्रूपवस्तुनि तद्रूपावभासिता कथं विज्ञानस्येत्याशङ्कायां विपर्यस्तमपि ज्ञानमुदेति तन्निमित्तसद्भावादित्याचष्टे मयतण्हियाओ उदयत्ति मया मण्णंति जह सतण्हयगा । तह य णरा वि असद्भदं सद्भुतं ति मण्णंति मोहेण ।।७२४॥ 'मयतण्हिया' मृगतृष्णिकाशब्देन आदित्यरश्मयो भौमेनोष्मणा संपृक्ता उच्यन्ते । ता अजलभूताः । 'मया मण्णंति उदगंति' मृगा मन्यते उदकमिति । 'यथा सतण्हगा' तृष्णासंतप्तलोचनाः । 'तह य' तथैव । मृगा __गा०-मिथ्यात्व संसारका मूल कारण है उसका मनवचनकायसे त्याग करो; क्योंकि मिथ्यात्व गुणयुक्त बुद्धिको भी मूढ़ बना देता है ।।७२३॥ टी०-शङ्का-यहाँ विचारणीय यह है कि मिथ्यात्वको प्रथमस्थान क्यों दिया गया है ? असंयम आदिसे मिथ्यात्व पहले उत्पन्न हुआ है यह सम्भावना भी सम्भव वहीं है क्योंकि जैसे मिथ्यात्व अपने निमित्तके होनेपर होता है वैसे ही असंयम आदि भी होते हैं तब वह प्रथम क्यों? यदि कहोगे कि उसका हेतु दर्शनमोह पहले होता है पीछे चारित्रमोह आदि होते हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आठों कर्म सदा रहते हैं ? समाधान--सूत्रकारने तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है-'मिथ्यादर्शन अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्धके कारण हैं।' यहाँ उन्होंने बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको प्रथम स्थान दिया है और बन्धपूर्वक संसार होता है अतः संसारका मूल कारण मिथ्यात्व है। वह पदार्थको यथार्थ रूपसे जाननेका गुण रखने वाली बुद्धिको भी विपरीत कर देता है। __ अन्य आचार्य ऐसा व्याख्यान करते हैं-सुननेकी इच्छा, सुनना, ग्रहण करना और धारण करना आदि बुद्धिके गुण हैं । ऐसी गुणयुक्त बुद्धिको भी मिथ्यात्व विपरीत कर देता है ।।७२३।। . जो वस्तु जिस रूप नहीं है उसे ज्ञान उस रूप कैसे दिखलाता है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं कि मिथ्यात्व रूप निमित्तके सद्भावमें ज्ञान विपरीत भी होता है गा०—सूर्य की किरणें पृथ्वीकी ऊष्मासे मिलकर जलका भ्रम उत्पन्न करती हैं उसे मृग१. एवं सामान्यतः सू०-आ० मु० । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ भगवती आराधनां इब नरा अपि । 'असन्भूदं सम्भूदंति भण्णंति मोहेण' अतत्त्वमपि तत्त्वमित्यवगच्छन्ति दर्शनमोहेन हेतुना ।।७२४॥ परिहर तं मिच्छत्तं सम्मत्ताराहणाए दढचित्तो । होदि णमोक्कारम्मि य णाणे वदभावणासु धिया ।।७२५॥ मिथ्यात्वजन्यमोहमाहात्म्यप्रख्यापनायाह मिच्छत्तमोहणादो धत्तुरयमोहणं वरं होदि । वड्ढेदि जम्ममरणं दसणमोहो दु ण दु इदरं ।।७२६।। 'मिच्छत्तमोहणादो' मिथ्यात्वजन्यान्मोहात् । 'धत्तूरयमोहणं' उन्मत्तरससेवाजनितमोहनं । 'वरं होदि' शोभनं भवति । कथं ? 'वडढेदि' वर्धयति । 'जम्ममरणं' जन्ममरणं च विचित्रासू योनिषु । कि ? 'दसणमोहो' दर्शनमोहजन्यः कलङ्कः । 'ण दु इदरं जम्ममरणं वड्ढेदि' नैव धत्तूरकमोहनं जन्ममरणपरम्परां आनयति कतिपयदिनभाविमोहसम्पादनोद्यता-(-त) अनन्तकालतिवपरीत्यजननक्षममोहनं अतिशयेन निकृष्टमिति भावः । ततो जन्मरणप्रवाहभीरुणा भवता त्याज्यं मिथ्यात्वं इति ।।७२६।। ननु प्रागेव परित्यक्तं मिथ्यात्वं तत्कथं इदानीं तत्त्यागोपदेश इत्यत्राशङ्कायामिदमुच्यते जीवो अणादिकालं पवत्तमिच्छत्तभाविदो संतो। ण रमिज्ज हु सम्मत्ते एत्थ पयत्तं खु कादव्वं ।।७२७।। 'जीवो अणादिकालं पवत्तमिच्छत्तभाविदो सन्तो' जीवोऽनादिकालप्रवृत्तमिथ्यात्वभावितः सन् । 'ण रमिज्ज खु' नैव रमेत । 'सम्मत सम्यक्त्वे, ‘एत्थ' अत्र सम्यक्त्वे । 'पयत्तं' प्रयत्नः ‘कादव्वं खु' कर्तव्य एव । तृष्णा कहते हैं। जैसे प्याससे पीड़ित मृग उसे पानी जानते हैं वैसे ही मनुष्य भी दर्शनमोहके कारण अतत्त्वको भी तत्त्व जानता है ।।७२४॥ __गा०-अतः हे क्षपक, सम्यक्त्वकी आराधनाके द्वारा उस मिथ्यात्वको दूर कर । ऐसा करनेसे पंचपमेष्ठोके नमस्कारमें ज्ञान और व्रतोंकी भावनामें चित्त दृढ़ होता है ।।७२५।। मिथ्यात्वसे उत्पन्न हुए मोहका माहात्म्य कहते हैं गा०-टी०-मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न हुए मोहसे धतूरेके सेवनसे उत्पन्न हुआ मोह (मूर्छा) उत्तम है; क्योंकि दर्शन मोहसे उत्पन्न हुआ मोह नाना योनियोंमें जन्ममरणको बढ़ाता है किन्तु धतूरेके सेवनसे उत्पन्न हुआ मोह जन्ममरणकी परम्पराको नहीं बढ़ाता। अतः कुछ दिनोंके लिए मोह उत्पन्न करने वाले धतूरके मदसे अनन्त कालके लिए विपरीत वुद्धि उत्पन्न करने में समर्थ मिथ्यात्वका मोह अत्यन्त बुरा है। अतः जन्ममरणकी परम्परासे भीत आपको मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिए ।।७२६।। __ यहाँ यह शंका होती है कि मिथ्यात्वका त्याग तो पहले ही कर दिया यहाँ उसके त्यागका उपदेश क्यों ? इसका उत्तर देते हैं. गा०-यह जीव अनादि कालसे चले आते हुए मिथ्यात्वसे भावित होता आया है इससे Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४६३ अनन्तकाले परिभावितं मिथ्यात्वं दुस्त्यजं तदेव दुःखत्याज्यं । यथोरगश्चिरपरिचितं छिद्रं निवार्यमाणोऽपि बलात्प्रविशति इति कर्तव्यं सम्यक्त्वे दाढयं ॥७२७॥ अग्गिविसकिण्हसप्पादियाणि दोसं ण तं करेज्जण्हू । जं कुणदि महादोसं तिव्वं जीवस्स मिच्छत्तं ।।७२८।। 'अग्गिविसकिण्हसप्पादियाणि' अग्निविषं कृष्णसर्प इत्यादीनि । 'दोसं ण तं करेण्हू' दोषं तं न कुर्युः। 'जं कुणदि' यं करोति । 'महादोसं' महान्तं दोषं । 'जीवस्स' जीवस्य । “तिन्वं' तीव्र । किं ? 'मिच्छत्तं' मिथ्यात्वं अश्रद्धानं ॥७२८॥ अग्गिविसकिण्हसप्पादियाणि दोसं करंति एयभवे । मिच्छत्तं पुण दोसं करेदि भवकोडिकोडीसु ।।७२९।। अग्न्यादिभिः क्रियमाणस्य अल्पतां मिथ्यात्वेन संपाद्यस्य च महत्तां दर्शयत्युत्तरगाथया । अग्न्यादीन्येकभवदुःखदानि मिथ्यात्वं पुनर्दोषं करोति भवानां कोटाकोटीषु ।।७२९।। मिच्छत्तसल्लविद्वा तिव्वाओ वेदणाओ वेदंति । विसलित्तकंडविद्धा जह पुरिसा णिप्पडीयारा ॥७३०॥ 'मिच्छत्तसल्लविद्धा' मिथ्यात्वाख्येन शल्येन विद्धाः 'तिव्वाओ वेदणाओ' तीवा वेदनाः । 'वेदंति' अनुभवन्ति । 'विसलित्तकंडविद्धा' विषलिप्तेन शरेण विद्धाः । 'जह' यथा । 'पुरिसा' पुरुषाः । 'णिप्पडीयारा' निष्प्रतीकाराः ॥७३०॥ अच्छीणि संघसिरिणो मिच्छत्तणिकाचणेण पडिदाई । कालगदो वि य संतो जादो सो दीहसंसारे ॥७३१।। 'अच्छोणि' अक्षिणी । 'संघसिरिणो' सङ्घश्रीसंज्ञितस्य । “मिच्छत्तणिकाचणेण' मिथ्यात्वप्रकर्षण । 'पडिदाणि' पतिते । 'इहैव' जन्मनि । 'कालगदो विय संतो' मुत्वापि । 'जादो सो' जातोऽसौ । 'दीहसंसारे' - दीर्घसंसारे ॥७३१॥ सम्यक्त्वमें वह नहीं रमता । इसलिए सम्यक्त्वमें प्रयत्न करना ही चाहिए । अनन्त कालमें अच्छी भाया गया मिथ्यात्व बड़े कष्टसे छूटता है। जैसे सर्प रोकने पर भी अपने चिर परिचित बिलमें बलपूर्वक घुस जाता है । अतः सम्यक्त्वमें दृढ़ता कर्तव्य है ॥७२७॥ गा०-आग, विष, काला सर्प आदि जीवका उतना दोष नहीं करते जैसा महादोष तीव्र मिथ्यात्व करता है ॥७२८॥ ___ आगेकी गाथासे आग आदिके द्वारा किये गये दोषकी अल्पता और मिथ्यात्वके द्वारा किये गये दोषकी महत्ता बतलाते हैं • गा०-आग आदि तो एक भवमें ही दुःख देते हैं। किन्तु मिथ्यात्व करोड़ो भवोंमें दुःख देता है ॥७२९॥ गा०-मिथ्यात्व नामक शल्यसे बींधे गये जीव तीव्र वेदना भोगते हैं । जैसे विषैले बाणसे छेदे गये मनुष्योंका कोई प्रतीकार नहीं होता । अर्थात् वे अवश्य मर जाते हैं ॥७३०॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ भगवती आराधना यदि नाम उपगतमिथ्यात्वोऽस्मि तथापि दुर्धरं चारित्रमनुष्ठितं मया तदस्मान्निस्तरणे समर्थमित्याशा न कर्तव्येति निदर्शयति कडुगम्मि अणिव्वलिदम्मि दुद्धिए कडुगमेव जह खीरं । होदि णिहिदं तु णिवलियम्मि य मधुरं सुगंधं च ।।७३२॥ 'कडुगम्मि दुद्धिए' कटुकालाब्वां । 'अणिम्वलिदम्मि' अशुद्धायां । "णिहिदं खीर' निक्षिप्तं क्षीरं । 'जहा कडुगमेव होदि' यया कटुकरसमेव भवति । एवकारेण माधुर्यव्यावृत्तिः क्रियते । 'णिन्वलिदम्मि य' शुद्धायामलाब्वां । 'णिहिदं' निक्षिप्तं क्षीरं 'जह मधुरं होदि सुगंधं च यथा मधुरं भवति सुरभि च ॥७३२॥ तह मिच्छत्तकड़गिदे जीवे तवणाणचरणविरियाणि । णासंति वंतमिच्छत्तम्मि य सफलाणि जायंति ॥७३३॥ 'तह' तथा 'मिच्छत्तकडुगिदे' मिथ्यात्वेन कटूकृते जीवे । 'तवणाणचरणविरियाणि' तपो, ज्ञानं, चारित्रं: वीर्यमित्येतानि 'णासंति' नश्यन्ति 'सम्यकरूपविनाशात । समीचीनं तपो, ज्ञानं, चरणं, वीर्यानिगहनं च मक्त्यपायो न तपःप्रभतिमात्रं । स च सम्यकश्रद्धाबलेनैव नान्यथा। 'वंतमिच्छम्मि' निरस्तमिथ्यात्वे जीवे । सफलानि फलसमन्वितानि तपःप्रभृतीनि । 'जायन्ति' जायन्ते। [किर तपसः फलं? अभ्युदयसुखं, निःश्रेयससुखं वा। मिःछत्तस्स य वमणं इत्येतद्व्याख्यातं । मिच्छत्तं ] ॥७३३॥ __सम्मत्तं भावणा इत्येतद्वयाचष्टे मा कासि तं पमादं सम्मत्ते सव्वदुक्खणासयरे । सम्मत्तं खु पदिट्ठा णाणचरणवीरियतवाणं ।।७३४॥ गा०-संघश्री नामक राजमन्त्रीकी आँखें तीव्र मिथ्यात्वके कारण फूट गई और वह मर कर भी दीर्घ संसारी हुआ ॥७३१॥ शायद क्षपक विचारे कि यदि मैं मिथ्यादृष्टि हूँ तब भी मैंने दुर्धर चारित्रका पालन किया है अतः मैं संसार समुद्रको पार करने में समर्थ हूँ ? आचार्य कहते हैं कि ऐसी आशा नहीं करना गा०-जैसे अशुद्ध कडुवी तूम्बीमें रखा दूध कटुक ही होता है और शुद्ध तूम्बीमें रखा दूध मीठा तथा सुगन्धित होता है ॥७३२॥ गा०-वैसे ही मिथ्यात्वसे दूषित जीवमें तप, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, ये सब नष्ट हो जाते हैं क्योंकि सम्यक् रूप नहीं होते । समीचीन तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य मुक्तिके उपाय हैं, केवल तप आदि मात्र मुक्तिका उपाय नहीं है। और समीचीन तप आदि श्रद्धाके बलसे ही होते हैं, श्रद्धाके अभावमें नहीं होते। अतः मिथ्यात्वको दूर कर देने वाले जीवमें तप आदि सफल होते हैं। तपका फल सांसारिक सुख अथवा मोक्षका सुख है। इस प्रकार मिथ्यात्वके वमनका कथन किया । ७३३।। अब सम्यक्त्यकी भावनाका कथन करते हैं १. सम्यक्स्वरूपविनाशात्-मूलारा० मु०। २. [ ] एतदन्तर्गतः पाठः 'अ' प्रती नास्ति । ३, किं त्येतद्व्याचष्टे-अ० ! Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४६५ ' मा कासि' मा कार्षीः । 'तं' भवान् । 'पमादं' प्रमादं । 'सम्मत्ते' सम्यक्त्वे । 'सव्वदुःखणासणगे' सर्वदुःखनिर्मूलनोद्यते । कथं सम्यक्त्वं सर्वदुःखनाशकारि ? ननु ज्ञानादीन्यपि सर्वदुःखनिवृत्तिनिमित्तानि इत्यत आह- 'सम्मत्तं खु' श्रद्धानमेव तत्त्वस्य । 'पदिट्ठा' आधारः । ' णाणचरणवीरियतवाणं' ज्ञानस्य, चरणस्य, वीर्याचारस्य, तपसश्च । ननु सर्व एव परिणामः परिणामिद्रव्याधारो न परस्परमधिकरणतां याति ततः कथमुच्यते सम्यक्त्वमाधार इति । यथा परिणामिद्रव्यमन्तरेण ज्ञानादीनामनवस्थितिरेवं समीचीनता तेषां न दर्शनं विनेति दर्शनस्याधारता ||७३४ || गरस्स जह दुवारं मुहस्स चवखू तरुस्स जह मूलं । तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियतवाणं || ७३५ || 'नगरस्स जह दुवारे' नगरस्य द्वारमिव नगरप्रवेशनोपायो यथा द्वारं 'तहा' तथा 'सम्मत्तं' सम्यक्त्वं द्वारं । 'णाणचरणवीरियतवाणं' ज्ञानादीनां । एवं हि ज्ञानादीन्यनुप्रविष्टो भवति जीवो यदि परिणतो भवेत्सम्यक्त्वे तदन्तरेण सम्यग्ज्ञानाद्यनुप्रवेशस्यासंभवात् । न हि सातिशयमवध्यादि, यथाख्यातं चारित्रं, बहुतर निर्ज - रानिमित्तं वा तपः प्रतिलभते जन्तुः सम्यक्त्वं विना । 'मुहस्स चक्खू जहा' मुखस्य चक्षुर्यथा शोभाविधायि ताथ ज्ञानादीनां सम्यक्त्वं विधत्ते श्रद्धानं । 'तरुस्स मूलं यथा' तरोर्मूलं यथा स्थितिनिबन्धनं, तथा सम्यक्त्वं ज्ञानादिस्थितिनिमित्तं ॥७३५॥ भावानुरागपेमाणुरागमज्जाणुरागरत्तो ब्वा । धम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिच्चं ॥ ७३६॥ गा० - टी० - सव दुःखों को जड़मूलसे उखाड़ने में तत्पर सम्यक्त्व के विषय में आप प्रमाद न करें । 'सम्यक्त्व ही सब दुःखोंका नाश करने वाला कैसे है ? ज्ञान आदि भी तो सब दुःखोंको दूर करनेमें निमित्त हैं ? ऐसा कोई कहे तो आचार्य कहते हैं - ज्ञान, चारित्र, वीर्याचार और तपका आधार तत्त्वका श्रद्धान ही है । शंका- सब परिणाम परिणामी द्रव्यके आधार से रहते हैं । वे परस्पर में एक दूसरेंके आधार नहीं होते। तब आप सम्यक्त्वको ज्ञानादिका आधार कैसे कहते हैं ? समाधान - जैसे परिणामी द्रव्यके बिना ज्ञानादि नहीं रहते वैसे ही वे सम्यग्दर्शनके बिना समीचीन नहीं होते । इसलिए सम्यग्दर्शन उनका आधार होता है ||७३४|| गा०-टी०—जैसे नगरमें प्रवेश करनेका उपाय उसका द्वार होता है वैसे ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तपका द्वार सम्यक्त्व है । यदि जीव सम्यक्त्व रूपसे परिणत होता है तो वह ज्ञानादिमें प्रवेश कर सकता है । सम्यक्त्वके बिना ज्ञानादिमें प्रवेश सम्भव नहीं है । सम्यक्त्वके विना जीव सातिशय अवधि ज्ञान आदि, यथाख्यात चारित्र अथवा वहुत निर्जरामें निमित्त तपको प्राप्त नहीं कर सकता । तथा जैसे नेत्र मुखको शोभा प्रदान करते हैं वैसे ही सम्यक्त्वसे ज्ञानादि शोभित होते हैं । तथा जैसे जड़ वृक्षकी स्थिति में कारण है वैसे ही सम्यक्त्व ज्ञानादिकी स्थिति में निमित्त है || ७३५|| गा० - इस जगत् में लोग परपदार्थों में अनुराग रूप हैं, स्नेही जनो में प्रेमानुरागी हैं । कोई 1 ५९ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ भगवती आराधना दसणभट्टो भट्टो दंसणभट्टस्स पत्थि णिव्वाणं । सिज्झन्ति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥७३७।। दंसणभट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्टो हु । दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे ॥७३८।। 'दसणमट्टो भट्टो' दर्शनाभ्रष्टो भ्रष्टतमः । 'चरणभट्टो वि' चारित्रभ्रष्टोऽपि दर्शनादभ्रष्टः । 'ण हु' न वा । 'भट्टो होदित्ति' वाक्यशेषं कृत्वा संवन्धः । न तु तथा भ्रष्टो भवति चारित्रभ्रष्टः यथा दर्शना भ्रष्टः । 'दसणं' श्रद्धानं । 'अमुयत्तस्स' अत्यजतः । चारित्राद्धृष्टस्यापि 'परिवडणं संसारे णस्थि खु' परिपतनं संसारे नास्त्येव । असंयमनिमित्ताजितपापसंहतेरस्त्येव संसारः । किमुच्यते परिपतनं नास्तीति ? अयमभिप्रायः-परि समन्तात्सर्वासु गतिषु चतसृषु संचरणं नास्तीति । स्वल्पत्वात्संसारः सन्नपि नास्तीति व्यवहियते । तथा हि स्वल्पद्रविणोऽधन इत्युच्यते । दर्शनात्तु प्रभ्रष्टस्य अर्धपुद्गलपरिवर्तनं भवत्यतिमहत्संसार- . मिति निकृष्टतमो दर्शनाद्मष्टः ॥७३८॥ एक कस्य दर्शनस्य माहात्म्यं कथयति सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणामं । जादो दु सेणिगो आगमसिं अरुहो अविरदो वि ||७३९।। 'शुई शुद्धे । 'सम्मत्ते' सम्यक्त्वे । शङ्काद्यतिचाराभावात् । 'अविरदो वि' अप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभानामुदयात् हिंसादिनिवृत्तिपरिणामरहितोऽपि । 'तित्थयरणामकम्मं तीर्थकरत्वस्य कारणं कर्म मज्जानुरागी हैं । किन्तु तुम जिनशासनमें रहकर सदा धर्मानुरागी रहो ॥७३६।। - गा-जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट है वह भ्रष्ट है क्योंकि सम्यग्दर्शनसे भ्रष्टका अनन्तानन्त कालमें भी निर्वाण नहीं होता। जो चारित्रसे भ्रष्ट है किन्तु सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट नहीं है उसका कछ कालमें निर्वाण होगा। परन्त जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है उसका निर्वाण अनन्त कालमें भी नहीं होगा ॥७३७॥ मा०-टो०-जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट है वह अत्यन्त भ्रष्ट है । किन्तु चारित्रसे भ्रष्ट होने पर भी सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट नहीं है वह भ्रष्ट नहीं है। सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट जैसा होता है चारित्रसे भ्रष्ट वैसा नहीं होता। चारित्रसे भ्रष्ट होकर भी जो सम्यग्दर्शनको नहीं त्यागता उसका ससारमें पतन नहीं होता। शंका-असंयमके निमित्तसे उपार्जित पाप कर्मके होनेसे उसका संसार रहता ही है । आप कैसे कहते हैं कि उसका संसारमें पतन नहीं होता ? __समाधान हमारे कथनका अभिप्राय यह है कि उसका चारों गतियोंमें भ्रमण नहीं होता। यद्यपि संसार रहता है किन्तु स्वल्प रहता है अतः 'नहीं रहता' ऐसा कहने में आता है जैसे स्वल्प धन वालेको निर्धन कहा जाता है । किन्तु जो सम्यग्दर्शन पाकर उससे भ्रष्ट हो जाता है उसका संसार अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण रहनेसे महान् संसार होता है । अतः चारित्र भ्रष्टसे दर्शन भ्रष्ट अति निकृष्ट होता है ।।७३८।। गा-टो०-एकाकी सम्यग्दर्शनका माहात्म्य कहते हैं---अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४६७ अर्जयति । विनयसंपन्नतादिरपि तीर्थकरनामकर्मणो हेतुरेव ततः कोऽतिशयो दर्शनस्य इति चेत् दर्शने सत्येव तेषां तीर्थकरनामकर्मणः कारणता, नान्यथेति मन्यते । 'जादो ख' जातः खलु । 'सेणिगो' श्रेणिकः । 'आगमेसि' भविष्यति काले । अरुहो अर्हन 'अविरवो वि' असंयतोऽपि सन् । ननु श्रेणिको भविष्यत्यहन न त्वह तस्यातीतं तेन कथमुच्यते जात इति ? भविष्यदहत्त्वं न निष्पन्नं इति युक्तमुच्यते जात इति ॥७३९।। कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसद्धसम्मत्ता। सम्मसणरयणं णग्यदि ससुरासुरो लोओ ॥७४०॥ 'कल्लाणपरंपरयं' कल्याणपरम्परां इन्द्रत्वं, सकलचक्रलांछनतां, अहमिन्द्रत्वं, तीर्थकृत्त्वमित्यादिक पा: । 'विशुद्धसम्मत्ता' विशुद्धसभ्यक्त्वाः । 'सम्मइंसणरयणं' सम्यग्दर्शनरत्नं 'णग्यदि ससुरासुरो लोओ' सकलो लोको मूल्यतया दीयमानोऽपि न लभते सम्यक्त्वरत्नमित्यर्थः ।।७४०।। सम्मत्तस्स य लंभे तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो । सम्मदसणलंभो वरं खु तेलोक्कलंभादो ।।७४१।। लघृण वि तेलोक्कं परिवडदि हु परिमिदेण कालेण । लघृण य सम्मत्तं अक्खयसोक्खं हवदि मोक्खं ।।७४२।। स्पष्टार्थतया न व्याख्यायते गाथाद्वयम् अनन्तरं सम्मत्ते भावणा इत्येतद्वयाख्यातं । सम्मत्तं ॥७४२॥ माया लोभके उदयसे हिंसा आदिकी निवृत्ति रूप परिणामोंसे रहित अविरत भी शंका आदि अतिचारोंसे रहित शुद्ध सम्यक्त्वके होने पर तीर्थंकर पदके कारणभूत कर्मका उपार्जन करता है। शंका-विनय सम्पन्नता आदि भी तीर्थंकर नाम कर्मके आस्रवमें कारण होते हैं तव उनसे सम्यग्दर्शनकी क्या विशेष समाधान-सम्यग्दर्शनके होने पर ही विनय सम्पन्नता आदि तीर्थंकर नाम कर्मके कारण होते हैं, उसके अभावमें कारण नहीं होते । देखो, असंयमी भी श्रेणिक भविष्यमें तीर्थंकर हुआ। शङ्का-श्रेणिक तीर्थकर होगा, भविष्यकालमें, अभी वह हुमा नहीं है, फिर उसे 'हुआ' क्यों कहा? समाधान-श्रेणिकका अर्हन्तपना आगे होगा, अभी हुआ नहीं है इसलिए 'भविष्यमें हुआ' ऐसा कहा है ।।७३९॥ गा०—विशुद्ध सम्यग्दृष्टी जीव इन्द्रपद, चक्रवर्तिपद, अहमिन्द्रपद, तीर्थकरपद आदि कल्याणपरम्पराको प्राप्त करते हैं। मूल्यके रूपमें समस्तलोक देनेपर भी सम्यक्त्वरत्न प्राप्त नहीं होता ।।७४०|| गा०–सम्यक्त्वकी प्राप्तिके बदलेमें यदि तीनों लोक प्राप्त होते हों तो त्रैलोक्यकी प्राप्तिसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति श्रेष्ठ है ।।७४१।। गा०–तीनों लोक प्राप्त करके भी कुछ काल बीतनेपर वे छूट जाते हैं । किन्तु सम्यक्त्वको प्राप्त करके अविनाशी सुखवाला मोक्ष प्राप्त होता है ।।७४२।। सम्यक्त्वभावनाका कथन समाप्त हुआ। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना परा भत्ती इत्येतद्वचाख्यानाय प्रवन्ध उत्तरः अरहंतसिद्धचेदियपवयणआयरियसव्वसाहूसु । तिब्वं करेहि भत्ती णिन्विदिगिच्छेण भावेण ॥७४३॥ 'अरहतासिद्धचेदियपचयणआयरियसव्वसाहूसु' अर्हत्सिद्भसु तत्प्रतिबिम्बेपु, प्रवचने, आचार्येषु सर्वसाधुपु च । किव्वं अत्ति करेहि तीवां भक्ति कुर्विति । 'णिन्विदिगिछेण' विचिकित्सारहितेन । 'भावेण' परिपाामेन ॥४॥ चिनक्तिमाहात्म्यं कथयन्ति संवेगजणिदकरणा णिस्सल्ला मंदरोव्व णिक्कंपा। जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥७४४॥ 'संवेगमथिदकरणा' संसारभोरुतया उत्पादितात्मलाभा। "णिसल्ला' मिथ्यात्वेन, मायया, निदानेन, च रहिता । संदरोग्य शिक्कंप्पा' मन्दर इव निश्चला। 'जस्स दढा जिणभत्ती' यस्य दढा जिनभक्तिः । 'तस्स संसारे मयं णत्यि' तस्म संसारनिमित्तं भयं नास्ति ॥७४४॥ एया नि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेदि । पुग्णाणि य पूरेदूं आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।।७४५ ।। वह सिद्धचेदिए पवयणे य आइरियसव्वसाधूसु । भची होदि समत्था संसारुच्छेदणे तिव्वा ।।७४६॥ चिज्जा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य । किह पुण णिव्वृदिबीजं सिज्झहिदि अभत्तिमंतस्स ||७४७|| बिन्जा' विद्यापि । 'भत्तिवंतस्स' भक्तिमतः । “सिद्धिमुवयादि' सिद्धिमुपयाति । 'होदि सफला य' फलवतो च भवति । 'किव पुष' कथं पुनः । “णिव्वुदिबीज' निर्वृतेर्बीजं रत्नत्रयं 'सिज्झहिदि' सेत्स्यति । अब 'परा भक्ति' का व्याख्यान करते हैं पाo-हे क्षपक ! ग्लानिरहित भावसे अर्हन्त, सिद्ध, उनके प्रतिबिम्ब, प्रवचन, आचार्य और सर्वसाधुओंमें सोव्र भक्ति करो ॥७४३।। जिन भक्तिका माहात्म्य कहते हैं मा०—संसारके भयसे उत्पन्न हुई, मिथ्यात्व माया और निदान शल्योंसे रहित तथा सुमेरुकी तरह निश्चल दृढ़ जिनभक्ति जिसकी है उसे संसारका भय नहीं है ।।७४४।। . गा०–एक ही जिनभक्ति दुर्गतिका निवारण करने में, पुण्यकर्मोको पूर्ण करनेमें और मोक्षपर्यन्त सुखोंको परम्पराको देने में समर्थ है ।।७४५।। गा-तथा सिद्ध, परमेष्ठी; उनके प्रतिबिम्ब, प्रवचन, आचार्य और सर्वसाधुओंमें तीव्रभक्ति संसारका विनाश करनेमें समर्थ है ।।७४६।। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'अभत्तिमंतस्स' भक्तिरहितस्य क्व ? अहंदादिषु ।।७४७॥ तेसिं आराधणणायगाण ण करिज्ज जो णरो भत्ति । धत्तिं पि संजमंतो सालिं सो ऊसरे क्वदि ।।७४८॥ 'तेसि आराधणणायगाणं' अहंदादीनां आराधनाया नायकानां । 'ण करिज्ज जो गरो भत्ति' यो नरो भक्ति न करोति । सो त्ति पि संजमंतो' नितरां संयम उद्यतोऽपि शालीनषरे देशे वपति । ऊषरे शालिवपनं अफलं यथा कः करोत्येवं दुश्चरं संयमं चरत्ययं अहंदादिषु भक्तिरहितो मिथ्यादृष्टिः सन्निति भावः ॥७४८॥ बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमन्भएण विणा । आराधणमिच्छन्तो आराघणभत्तिमकरंतो ॥७४९॥ 'बोजेण विणा सस्स' शस्यमिच्छति बोजेन विना । 'वासमन्भएणविणा' वर्ष वाञ्छति अभ्रण विना । कारणेन विना कार्यमिच्छतीति यावत् । 'आराधणं" रत्नत्रयसंसिद्धि इच्छति अकुर्वन्नाराधनाभक्ति हेतुभूतां ।।७४९॥ विधिणा कदस्स सस्सस्स जहा णिप्पादयं हवदि वासं । तह अरहादिगमती णाणचरणदंसणतवाणं ॥७५०॥ 'विधिणा कदस्स' विधीयते जन्यते कार्यमनेनेति कारणसंदोहो विधिः । तेन कारणकलापेन कृतस्योप्तस्य । 'सस्सस्स' सस्यस्य । 'वासं जहणिप्पादयं हवदि' वर्ष यथा फलनिष्पत्ति करोति । 'तह तथैव । 'आराहगभत्तो' आराधकेप अहंदादिपु 'भत्ती' भक्तिः । 'णाणचरणदंसणतवाणं' ज्ञानस्य, दर्शनस्य चारित्रस्य. तपसश्च निष्पादिका भवति ।।७५०॥ गा०—विद्या भी भक्तिमानकी ही सिद्ध और सफल होती है। तब जो अर्हन्त आदिमें भक्ति नहीं रखता उसके मोक्षका बीज रत्नत्रय कैसे सिद्ध प्राप्त हो सकता है ? ॥७४७।। गा०-दर्शन आदि आराधनाओंके नायक अर्हन्त आदिकी जो मनुष्य भक्ति नहीं करता वह संयममें अत्यन्त तत्पर होते हुए भी धान्यको ऊसर भूमिमें बोता है ॥६४८॥ विशेषार्थ-इसका भाव यह है कि ऊसर भूमि में कौन धान बोता है। क्योंकि उसका कोई फल नहीं है । उसी प्रकार यह अर्हन्त आदिमें भक्ति रहित अर्थात् मिथ्यादृष्टि होते हुए कठिन संयमका आचरण करे तो वह निष्फल है ।।७४८॥ गा०–आराधनाके नायकोंकी भक्ति न करके जो आराधना अर्थात् रत्नत्रयकी सिद्धि चाहता है वह बीजके विना धान्य चाहता है और बादलोंके विना वर्षा चाहता है |७४९|| गा.---जिससे कार्य किये जाते हैं उसे विधि कहते हैं अतः विधिका अर्थ होता हैकारणोंका समूह। उस विधिसे बोये गये धान्यको वर्षा जैसे उत्पन्न करती है उसी प्रकार अर्हन्त · आदिको भक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तपकी उत्पादक होतो है ॥७५०॥ १. णिम्मावगं-अ० आ० । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना भक्तिमाहात्म्यं फलातिशयोपदर्शनेन कथयितुकामोऽथाख्यानमुपक्षिपति गाथायाम् वंदणभत्तीमित्तेण मिहिलाहिओ य पउमरहो। देविंदपाडिहेरं पत्तो जादो गणधरो य ॥७५१॥ 'वंदणभत्तीमित्तेण' वन्दनानुरागमात्रेण चैव । 'मिहिलाहिओ य पउमरहो' मिथिलानगराधिपतिः पद्मरथो नाम । 'देविंदपाडिहेरं पत्तों' देवेन्द्रकृतां पूजां प्राप्तवान् । 'जादो गणधरो य' गणधरश्च जातः । भत्ती ॥७५१॥ आराधणापुरस्सरमणण्णहिदओ विसुद्धलेस्साओ। संसारस्स खयकर मा मोचीओ णमोक्कारं ॥७५२॥ 'आराधणापुरस्सरं णमोक्कारं मा मोचीओं' आराधनाया अग्रसरं नमस्कारं मा मुश्च । कीदृग्भूतं ? 'संसारस्स खयकर' संसारस्य पञ्चविधपरिवर्तमानस्य क्षयकरं। 'अणण्णहिदओ' अनन्यगतचित्तः सन् । 'विसुद्धलेस्साओ' विशद्धलेश्यया परिणतः । तत्र नमस्कारः नामस्थापनाद्रव्यभावविकल्पेन चतुर्दा व्यवस्थितः । तत्र नाम नमस्कारो नाम यस्य कस्यचिन्नमस्कार इति कृता संज्ञा इदमस्य नामधेयं यथा स्यादिति नियुज्यमानं पदं सवं सर्वत्र प्रवर्तते । एवं नमस्करणव्यापृतो जीवस्तस्य कृताञ्जलिपुटस्य यथाभूतेनाकारेणावस्थापिता मूर्तिः स्थापनानमस्कारः । नमस्कारप्राभूतं नामास्ति ग्रन्थः यत्र नयप्रमाणनिक्षेपादिमुखेन नमस्कारो निरूप्यते, तं यो वेत्ति न च साम्प्रतं तन्निरूप्येऽर्थे उपयुक्तोऽन्यगतचित्तत्वात् स नमस्कारयाथात्म्यग्राहिश्रुतज्ञानस्य कारणत्वादागमद्रव्यनमस्कार इत्युच्यते । नो आगमद्रव्यनमस्कारस्त्रिविधः, ज्ञायकशरीरभावितद्वयतिरिक्तभेदात् । नमस्कार विशिष्ट फलके द्वारा भक्तिका माहात्म्य कहनेकी इच्छासे ग्रन्थकार उदाहरण उपस्थित करते हैं गा०–तीर्थंकरकी वन्दनाके अनुरागमात्रसे मिथिला नगरका स्वामी पद्मरथ देवेन्द्रके द्वारा पूजित हुआ और वासुपूज्य तीर्थकरका गणधर हुआ ।।७५१॥ विशेषार्थ-मिथिलाका राजा पद्मरथ भगवान् वासुपूज्य तीर्थकरकी वन्दनाके लिए गया। मार्गमें दो देवोंने उसकी परीक्षाके लिए घोर उपसर्ग किया। किन्तु वह विचलित नहीं हुआ। देवोंने उसकी दृढ़भक्तिसे प्रसन्न होकर उसकी पूजा की। और वह भगवान् वासुपूज्यके समवशरणमें जाकर दीक्षा ग्रहण करके उनका गणधर बन गया ॥७५१॥ गा०-नमस्कार मन्त्र आराधनाका अग्रेसर है, नमस्कारमन्त्रपूर्वक ही आराधना की जाती है। पाँच परावर्तनरूप संसारका क्षय करनेवाला है । सब ओरसे मनको हटाकर विशुद्ध लेश्यापूर्वक नमस्कार मन्त्रकी आराधना कर । इसे छोड़ना नहीं ।।७५२।।। टी०-नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे नमस्कार चार प्रकारका होता है। जिस किसीका नमस्कार नाम रखना नाम नमस्कार है। इसका यह नाम है इस प्रकारका व्यवहार सर्वत्र चलता है। इसी प्रकार नमस्कार करते हुए जीवकी दोनों हाथोंको जोड़े हुए आकारकी स्थापित मूर्ति स्थापना नमस्कार है। नमस्कार प्राभृत नामक ग्रन्थमें नय, प्रमाण, निक्षेप आदिके द्वारा नमस्कारका कथन है। जो उसे जानता है किन्तु वर्तमानमें उसमें कहे हुए अर्थमें उपयुक्त नहीं है, उसका मन अन्यत्र लगा है। वह व्यक्ति नमस्कारके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करनेवाले श्रुतज्ञानका कारण होनेसे आगमद्रव्य नमस्कार कहाता है। नो आगमद्रव्य नमस्कारके तीन भेद Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४७१ प्राभूतज्ञस्य यच्छरीरं त्रिकालगोचरं तदप्यन्तरेण श्रुतज्ञानं नोपजायते इति शरीरमपि कारणं तत्रापि नमस्कारशब्दो वर्तते । यत् तद् भतशरीरं त्रिविकल्पं च्युतं, च्यावितं, त्यवतमिति । आयुषो निःशेषगलनादात्मनश्च्युतं एकं । चेतनस्य वा उपसर्गस्य बलाद् च्यावितं च्यावितशब्देनोच्यते । आयुषोऽभावमवेत्य आत्मनैव यत्त्यक्तं तत्त्यक्तशब्देनोच्यते । तत्त्रिविकल्पं भक्तप्रत्याख्यानं, प्रायोपगमन, इङ्गिनीमरणं इति । तेष्वन्यतमेन त्यक्तं विधिना कायकषायसल्लेखनापुरःसरं प्रद्रज्यातःप्रभृति निर्यापकगुरुसमाश्रयण दिवसमन्त्यं कृत्वा मध्ये प्रवृत्तान् ज्ञानदर्शनचारित्राणां अतिचारानालोच्य तदभिमतप्रायश्चित्तानुसारिणः द्रव्यभावसल्लेखनामुपगतस्य त्रिविधाहारप्रत्याख्यानादिक्रमेण रत्नत्रयाराधनं भक्तप्रत्याख्यानं । इङ्गिणीमरणप्रायोपगमने वक्ष्यमाणलक्षणे। तैः परित्यक्तं त्यक्तमुच्यते । यदेव तत्सति जीवे नमस्कारोपयोगवति जीववदेव कारणमासीन्नमस्कारोपयोगस्य तदेवेदमिति तत्रापि नमस्कारशब्दः प्रवर्तते । नमस्कारोपयोगरूपेण यो भविष्यति स भावीति भण्यते । स्थापना अर्हदादीनां नो आगमद्रव्यव्यतिरिक्तनोकर्मनमस्कारशब्देनोच्यते । आगमनस्कारज्ञानं आगमभावनमस्कारः । नमस्क्रियमाणाहदादिगुणानुरागवतः मुकुलीकृतकरकमलस्य, प्रणामो नो आगमभावनमस्कार इह गृह्यते । निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानरनयोगद्वारैनिरूप्यते । अहंदादिगुणानुरागवतः आत्मनो वाक्कायक्रियास्तवनशिरोवनतिरूपो नमस्कारः। सम्यग्दृष्टिों आगमभावनमस्कारस्य स्वामीति । मतिश्रुत हैं-ज्ञायकशरीर, भावि, तद्वयतिरिक्त । नमस्कार प्राभूतके ज्ञाताका जो त्रिकालवर्ती शरीर है, उसके विना भी श्रु तज्ञान नहीं होता, इसलिए शरीर भी कारण है अतः उसे भी नमस्कार शब्दसे कहते हैं। उनमेंसे जो भूत शरीर है उसके तीन भेद हैं—च्युत, च्यावित, त्यक्त । आयुकर्मके पूर्णरूपसे समाप्त होनेपर छूटा शरीर च्युत कहाता है। उपसर्गके कारण छूटा शरीर च्यावित कहाता है। आयुका अभाव जानकर स्वयं ही त्याग किया शरीर त्यक्त कहाता है। उस त्यक्त शरीरके तीन भेद हैं-भक्तप्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, इंगिनीमरण । उनमेंसे किसी एक विधिसे शरीर और कषायकी सल्लेखनापूर्वक छोड़ा गया शरीर त्यक्त है। दीक्षा ग्रहण करनेसे लेकर निर्यापक गुरुके पास आश्रय लेनेके अन्तिम दिनतक लगे ज्ञान दर्शन और चारित्रके अतिचारोंकी आलोचना करके गरुके द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तको स्वीकार करके द्रव्यसल्लेखना और भावसल्लेखनापूर्वक तीन प्रकारके आहारके त्याग आदिके क्रमसे रत्नत्रयकी आराधना करना भक्तप्रत्याख्यान है। इंगिनीमरण और प्रायोपगमनका कथन आगे करेंगे। इन तीनोंके द्वारा त्यागा गया शरीर त्यक्त कहाता है। जब शरीरके रहनेपर जीव नमस्कारमें उपयोग लगाता था तब जीवकी तरह ही शरीर भी नमस्कारमें उपयोग लगाने में कारण था। वही यह शरीर है इस प्रकार शरीरमें नमस्कार शब्दकी प्रवृत्ति होती है। जो भविष्यमें नमस्कारमें उपयोगरूपसे परिणत होगा उसे भावि कहते हैं। अर्हन्त आदिकी स्थापनाको नोआगमद्रव्य व्यतिरिक्त नोकर्म नमस्कार शब्दसे कहते हैं। नमस्कार विषयक आगमके ज्ञानको आगमभाव नमस्कार कहते हैं। जिन अर्हन्त आदिको नमस्कार करता है उनके गुणोंमें अनुरागपूर्वक दोनों हाथोंको जोड़ नमस्कार करनेवालेका जो नमस्कार है वह नोआगमभाव नमस्कार है । ___ निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन अनुयोग द्वारोंसे नमस्कारका कथन करते हैं। अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुरागी आत्माका वचनके द्वारा स्तवन और कायके द्वारा सिरको Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ भगवती आराधना ज्ञानावरणक्षयोपशमः, दर्शनमोहोपशमः, क्षयः, क्षयोपशमश्च बाह्यं साधनं, अभ्यन्तर आत्मा प्रत्यासन्नभव्यः । आत्मनि वर्तते नमस्कारः । अन्तमुहूर्तस्थितिकः । अहंदादिनमस्कार्यभेदेन पञ्चविधः । अहंदादीनां प्रत्येकमनेक विकल्पत्वात् नमस्कारोऽपि तावद्धा भिद्यते ।।७५२।। मणसा गुणपरिणामो वाचा गुणमासणं च पंचण्हं । काएण संपणामो एस पयत्थो णमोक्कारो ॥७५३॥ अत्र नमस्कारसूत्रेण 'ण मो लोए सव्वसाधूणं' इत्यत्र लोकग्रहणं च सर्वग्रहणं प्रत्येकमभिसम्बध्यते । णमो लोए सव्वेसि अरहताणं, णमो लोए सव्वेसि सिद्धाणं, णमो लोए सव्वेसि आइरियाणं, णमो लोए सव्वेसि उवज्झायाणं' इति । अरहंताणमित्यादि बहुवचननिर्देशादेव सर्वेषामहदादीनां ग्रहणं सिद्धमतो न कर्तव्यं सर्वशब्दोपादानं इति चेत् । अर्द्धतृतीयद्वीपगतभरतेषु, ऐरावतेषु विदेहेषु च ये अर्हन्तः, सिद्धा, आचार्या, उपाध्यायाः, साधवश्वातीता, वर्तमाना, भविष्यन्तश्च तेषां ग्रहणार्थ सर्वशब्द उपात्तः । सादरविशेषख्यापनार्थ प्रत्येकं नमःशब्दोपादानं ।।७५३।। अरहंतणमोक्कारो एक्को वि हविज्ज जो मरणकाले । सो जिणवयणे दिट्ठो संसारुच्छेदणसमत्थो ॥७५४॥ 'अरहंतणमोक्कारों' अर्हतां नमस्कारः । 'जो मरणकाले भवेज्ज एक्को वि' यो मरणकाले भवेदेकोऽपि । 'सो' सः । जिणवयणे दिट्ठो' जिनवचने दृष्टः । 'संसारोच्छेदणसमत्यो' संसारोच्छेदनसमर्थः ॥७५४॥ झुकाना नमस्कार है। नोआगमभाव-नमस्कारका स्वामी सम्यग्दृष्टी होता है। मतिज्ञानावरण और श्रु तज्ञानावरणका क्षयोपशम तथा दर्शनमोहका उपशम, क्षय और क्षयोपशम उसका बाह्य साधन है और निकट भव्य आत्मा अभ्यन्तर साधन है। नमस्कार आत्मामें रहता है। उशकी स्थिति अन्तमुहूर्त है। नमस्कार करनेयोग्य अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधुके भेदसे नमस्कारके पाँच भेद हैं। अर्हन्त आदिमेसे प्रत्येकके अनेक भेद होनेसे नमस्कारके भी उतने ही भेद होते हैं ।।७५२॥ गा०–अरहन्त आदि पाँचोंका मनसे गुणानुस्मरण, वचनसे गुणानुवाद और कायसे नमस्कार यह नमस्कार पदका अर्थ है ॥७५३ टो०- नमस्कार मन्त्रमें आये 'णमो लोए सव्वसाहणं' में जो लोक और सर्वशब्दका ग्रहण किया है उन्हें प्रत्येकके साथ लगाना चाहिए। लोकके सब अर्हन्तोंको नमस्कार हो । लोकमें सब सिद्धोंको नमस्कार हो । लोकके आचार्योंको नमस्कार हो । लोकके सब उपाध्यायोंको नमस्कार हो । शङ्का-'अरहताणं' इत्यादि में बहुवचनके निर्देशसे ही सब अर्हन्तोंका ग्रहण सिद्ध है अतः सर्वशब्दका ग्रहण उचित नहीं है ? समाधान-अढ़ाईद्वीपके भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रोंमें जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु अतीतकालमें हुए, वर्तमानमें है और भविष्य में होंगे उनके ग्रहणके लिए सर्व शब्द ग्रहण किया है। और विशेष आदर बतलानेके लिए प्रत्येकके साथ 'णमो' शब्द लगाया है ।।७५३।। गा०-मरते समय यदि एक वार भी अर्हन्तोंको नमस्कार किया तो उसे जिनागममें Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि संसारमुच्छिन्दन्ति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्याशंकायामाह - जो भावनमोक्कारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा । ण हु ते होंति समत्था संसारुच्छेदणं कादु ॥७५५ || 'जो भावण मोक्कारेण विणा' यो भावनमस्कारेण विना सम्यक्त्वं ज्ञानं, चारित्रं, तपश्च । 'खु' शब्द एवकारार्थः । 'ण हु ते संसारुच्छेदणं काडु समस्या होंति' न ते संसारोच्छेदनं कर्तुं समर्था भवन्ति ।।७५५ ।। यद्येवं 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति सूत्रेण विरुध्यते । नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाशने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशङ्कायामाह - चदुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तओ होदि । तह भावणमोक्कारो मरणे तवणाणचरणाणं ॥ ७५६ ॥ 'चतुरंगाए सेणाए णायगो' चतुरङ्गायाः सेनाया नायको । 'जह पवत्तगो होज्ज' यथा प्रवर्तको भवति । 'तह भावणमोक्कारों' तथा भावनमस्कारः । ' मरणे' मरणगोचरः । 'तवणाणचरणाणं' तपोज्ञानचरणानां । क्षायिकसम्यवत्वज्ञानदर्शनवीर्यगुणात्मका अर्हन्त इत्येवं श्रद्धानात्मको भावनमस्कारः सम्यग्दर्शनत्वात् समीचीनं तपो, ज्ञानं, चारित्र च प्रवर्तयति । न ह्याप्तगुणश्रद्धानं विना शब्दश्रुतस्य प्रामाण्यमयं व्यवस्थापयितुमीशः । वक्तृप्रामाण्याद्विना वचनप्रामाण्यासिद्धेः । न 'ह्यतीन्द्रियविषयज्ञानमयथार्थमिदमेतद्यथार्थमिति वा विवेक्तु ं शक्यते अस्मदादिना । अर्थयाथात्म्यवेदिनो वीतरागद्वेषस्य च यतो वचस्ततो यथार्थमेव विज्ञानं जनयति, नायथार्थमिति समीचीनज्ञानस्य सम्यग्ज्ञानपुरस्सरतया चरणं तपश्च समीचीनं सत्कर्मापनोदे निमित्तं संसारका उच्छेद करनेमें समर्थ कहा है ||७५४ ॥ नमस्कार के विना भी सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र संसारका उच्छेद करते हैं ? ऐसी आशंका में उत्तर देते हैं ४७३ गा० - भाव नमस्कार के विना जो सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र होते हैं वे संसारका उच्छेद करने में समर्थ नहीं हैं ।। ७५५ ।। यदि ऐसा है तो 'सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र मोक्षका मार्ग है' इस सूत्र के साथ विरोध आता है क्योंकि आप नमस्कार मात्रको ही कर्मोंके विनाशका उपाय मानकर मुक्तिका एक ही मार्ग कहते हैं ? इसका उत्तर देते हैं गा० - टी० - जैसे चतुरंग सेनाका नायक प्रवर्तक होता है वैसे ही मरते समय भाव नमस्कार - क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक वीर्य गुण वाले अर्हन्त हैं' इस प्रकार श्रद्धान रूप भाव नमस्कार सम्यग्दर्शन रूप होनेसे समीचीन ज्ञान तप और चारित्रका प्रवर्तक होता है । आप्तके गुणोंके श्रद्धानके विना शब्दरूप श्रुतके प्रामाण्यकी व्यवस्था नहीं की जा सकती, क्योंकि वक्त के प्रामाण्यके विना वचनोंका प्रामाण्य सिद्ध नहीं होता । अतीन्द्रिय विषयोंका ज्ञान अयथार्थ है और 'यह' आदि ज्ञान यथार्थ है, ऐसा विवेक हम लोग नहीं कर सकते । यतः अर्थक्रे यथार्थ स्वरूपको जानने वाले और राग द्वेषसे रहित आप्तका वचन यथार्थ ज्ञानको ही उत्पन्न करता है, अयथार्थ ज्ञानको नहीं, इस प्रकारके सच्चे ज्ञानीका सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक् १. हीन्द्रिय-आ० मु० । ६० Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ भगवती आराधना नान्यथेति प्रवर्तकता भावनमस्कारस्य ततः 'प्रधानत्वाद्भाव नमस्कारः संसारोच्छेदकारीति व्यपदिश्यते ।।७५६।। आराधणापडायं गेहतरस हु करो णमोक्कारो। मल्लस्स जयपडायं जह हत्थो घेत्तुकामस्स ।।७५७।। आराधनापताकां ग्रहीतुकामस्य भावनमस्कार एव करो जयपताकां ग्रहीतुकामस्य मल्लस्य हस्त इवेत्युत्तरगाथार्थः ।।७५७॥ अण्णाणी वि य गोवो आराधित्ता मदो णमोक्कारं । चंपाए सेडिकुले जादो पत्तो य सामण्णं ॥७५८|| अर्हद्गुणज्ञानरहितोऽपि गोपी द्रव्यनमस्कारमाराध्य मृतश्चम्पापुरे श्रेष्ठिकुले जातः श्रामण्यं च प्राप्तवान् इति च द्रव्यनमस्कारोऽप्येवं विपुलं प्रयच्छति फलं किं न कुर्याद् भावनमस्कार इति भावः। भावनमस्कारो व्याख्यातः । णमोक्कारं ॥७५८।। णाणोवओगरहिदेण ण सक्को चित्तणिग्गहो काउं। णाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चित्तहत्थिस्स ॥७५९॥ णाणुवओगं इत्येतद्वयाख्यानायोत्तरः प्रबन्धः-'गाणोवोगरहिदेण' ज्ञानपरिणामरहितेन पुंसा। 'ण सक्को चित्तणिग्गहो काउ' चित्तनिग्रहः कर्तुमशक्यः । कस्मात् ज्ञानमन्तरेण न शक्यश्चित्तनिग्रहः कर्तुमित्यारेकायां-ज्ञानं निग्रहकरणे साधकतमं ततस्तदन्तरेण न भवति चित्तनिग्रह इत्याचष्टे । 'णाणं अंकुसभूदं चारित्र और सम्यक् तप विद्यमान कर्मों को दूर करने में निमित्त होता है, अन्यथा नहीं होता। इसलिए भाव नमस्कार ज्ञान चारित्र और तपका प्रवर्तक होनेसे प्रधान है और संसारका उच्छेद करने वाला कहाता है ॥७५६|| गा०-जैसे विजय पताकाको ग्रहण करनेके अभिलाषी मल्लके लिए हाथ है। हाथसे ही वह जय पताका ग्रहण करता है। वैसे ही आराधना पताका (ध्वजा) को ग्रहण करनेके इच्छुक आराधकका हाथ भाव नमस्कार है। भाव नमस्कार पूर्वक ही वह आराधनामें सफलता पाता है ॥७५७|| गा०-सुभग नामका ग्वाला अज्ञानी था, उसे अर्हन्तके गुणोंका ज्ञान नहीं था। वह द्रव्यनमस्कारकी आराधना करके अर्थात् मुखसे णमोकर मन्त्रका जप करते हुए मरा और चम्पा नगरीमें एक श्रेष्ठीके वंशमें उत्पन्न हुआ। तथा मुनि पदको धारण कर मुक्त हुआ। इस प्रकार द्रव्यनमस्कारसे भी विपुल फलकी प्राप्ति होती है। तब भावनमस्कारका तो कहना ही क्या है। इस प्रकार भावनमस्कारका कथन समाप्त हुआ ||७५८|| अब ज्ञानोपयोगका कथन करते हैंगा०-टी०-ज्ञानोपयोगसे रहित मनुष्य अपने चित्तका निग्रह नहीं कर सकता। शङ्का-ज्ञानके बिना चित्तका निग्रह क्यों नहीं कर सकता? समाधान-ज्ञान चित्तका निग्रह करनेमें साधकतम है अतः उसके विना चित्तका निग्रह १. प्रभावत्वा-आ० मु० । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४७५ मत्तस्स हु चित्तहत्यिस्स' ज्ञानमङ्कशभूतं मत्तस्य चित्तहस्तिनः । इदमत्र चोद्यते-इह चित्तशब्देन किमुच्यते ? अन्यत्र सचित्तशीतसंवृत इत्यादी चित्तं चैतन्यमिति गृहीतं । इहापि यदि तदेव तस्य निग्रहो नाम कः? अत्रोच्यते-विपर्ययज्ञानमया अशुभध्यानलेश्यातया वा परिणतिः' प्राणभृतो यस्य तस्य निरोधो यथार्थज्ञानपरिणामेन क्रियते । परिणामो हि परिणामिनं निरुणद्धि, परिणामोऽस्माद्विरुद्धस्त्वया नादातव्यः इति । यथा मत्तो हस्ती न क्वचिदवतिष्ठते बन्धनमर्दनादिकं विना तच्चित्तहस्त्यपि यत्र क्वचनाशुभपरिणामे प्रवर्तते इति ।।७५९।। विज्जा जहा पिसायं सुट्ट पउत्ता करेदि पुरिसवसं । णाणं हिदयपिसायं सुट्ट पउत्ता करेदि पुरिसवसं ।।७६०।। 'विज्जा सुट्ठ पउत्ता जहा पिसायं पुरिसवसं करेदि' विद्या सुष्ठु प्रयुक्ता सम्यगाराधिता यथा पिशाचं पुरुषस्य वश्यं करोति । 'तह णाणं सुठ्ठवजुत्तं वसं करेवि हिदयपिसायं' । तथा ज्ञानं सुष्ठु प्रयुक्तं वशं करोति किं ? हृदयपिशाचं । चित्तं पिशाचवदयोग्यकारितया ज्ञानं समीचीनं असकृत्प्रवर्तमानं शुभे शुद्ध वा परिणामे प्रवर्तयति चेतनामिति यावत् ॥७६०॥ उवसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विधिणा पउत्तेण । तह हिदयकिण्हसप्पो सुट्टवजुत्तेण गाणेण ।।७६१।। 'उवसमदि किण्हसप्पो' उपशाम्यति कृष्णसर्पः। 'जह' यथा। 'मंतेण सुप्पजुत्तेण' स्वाहाकारान्ता विद्या निःस्वाहाकारो मन्त्रशब्देनोच्यते । मन्त्रण सुष्ठु प्रयुक्तेन । 'तह' तथैव । 'हिदयकिण्हसप्पो उवसमदि' हृदयकृष्णसर्प उपशाम्यति । 'सुठ्ठवजुत्तेण णाणेण' सुष्ठु प्रवृत्तेन ज्ञानपरिणामेन । अशुभनिग्रहहेतुता ज्ञानस्य नहीं होता, यह कहते हैं-मदोन्मत चित्तरूपी हाथीके लिए ज्ञान अंकुश रूप है । शङ्का-यहाँ चित्त शब्दसे क्या लिया है ? तत्त्वार्थ सूत्रमें 'सचित्त शीत संवृत' इत्यादि सूत्रमें चित्तसे चैतन्यका ग्रहण किया है । यहाँ भी यदि चैतन्य ही लिया है तो उसका निग्रह कैसा? समाधान-जिस प्राणीकी परिणति विपरीत ज्ञान रूप या अशुभ ध्यान और अशुभ लेश्या रूप होतो है उसका निरोध यथार्थ ज्ञानरूप परिणामसे किया जाता है। परिणाम परिणामीको रोकता है जैसे तुम्हें हमारे विरुद्ध परिणाम नहीं करना चाहिए। अतः जैसे मत्त हाथी बन्धन मर्दन आदिके विना वशमें नहीं होता वैसे ही चित्तरूपी हाथी भी जिस किसी भी अशुभ परिणाम में प्रवृत्त होता है ।।७५९॥ गा०-जैसे सम्यक् रीतिसे साधी गई विद्या पिशाचको पुरुषके वशमें कर देती है। वैसे ही सम्यक् रूपसे आराधित ज्ञान हृदय रूपी पिशाचको वशमें करता है। अयोग्य काम करनेसे चित्त पिशाचके समान है। बार-बार प्रयुक्त सम्यग्ज्ञान चेतनाको शुभ अथवा शुद्ध परिणाममें प्रवृत्त करता है ।।७६०॥ गा-जैसे विधिपूर्वक प्रयोग किये गये मंत्रसे कृष्ण सर्प शान्त हो जाता है। वैसे ही अच्छी तरहसे भावित ज्ञानसे हृदयरूपी कृष्ण सर्प शान्त हो जाता है। प्रथम गाथा (७५९) से . १. तिं प्राकृत यस्य निरोधः अ० । २. स्मद्वि-अ० मु०। ३. द्या इति स्वा-आ० मु० । । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना आद्यया गाथयोक्ता। द्वितीयया चित्तस्य स्ववशकारित्वं ज्ञानभावनयोक्तं । अनया तु अशुभपरिणामप्रशान्तिकारिता ज्ञानभावनया निरूप्यते ॥७६१।। आरण्णवो वि मनो हत्थी णियमिज्जदे वरत्ताए । जह तह णियमिज्जदि सो णाणवरत्ताए मणहत्थी ।।७६२।। 'आरण्णवो वि मत्तो हत्थी' अरण्यचारी मत्तो हस्ती । "णियमिज्जदे वरत्ताए' नियम्यते निरुध्यते वरत्रेण यथा । तथा 'मणहत्थी णियमिज्जदे' मनोहस्ती नियम्यते । 'णाणवरत्ता' ज्ञानवरत्रेण । प्राणिनामहितकारितया, दुर्निवारतया च मनो हस्तीवेति मनोहस्तीति भण्यते । ज्ञानमशुभप्रवाहं निरुणद्धि । इत्यनयोच्यते ॥७६२॥ ज्ञानवरत्रानियमितस्य मनसो व्यापार निरूपयत्युत्तरगाथा जह मक्कडओ खणमवि मज्झत्थो अत्थिदु ण सक्केइ । तह खणमवि मज्झत्थो विसएहिं विणा ण होइ मणो ।।७६३।। 'मक्कडओ खणमवि मज्झत्थो अत्यिदु जहा सक्कदि' मर्कटकः क्षणमपि मध्यस्थो निर्विकारः सन् स्थातुं न शक्नोति । 'तहा मणो विसएहि विणा मज्झत्थो खणमवि ण होदि' तथा मनो विषयः शब्दादिविषयनिमित्ता रागादय इह विषयशब्दवाच्या विषयकार्यत्वात् । ततोऽयमर्थः, अत्र रागद्वेषी विना मध्यस्थं मनो भवति । ज्ञानभावनायामसत्यां रागद्वेषयोवृत्तिरेव मनसो व्यापार इत्यर्थः । एतया ज्ञानं मनसो माध्यस्थं करोतीत्याख्यायते । यस्मान्न मनसो माध्यस्थ्यमस्ति संनिहितमनोज्ञामनोज्ञविषयरागद्वेषसहचारितया ।।७६३।। तम्हा सो उड्डहणो मणमक्कडओ जिणोवएसेण । रामेदव्वो णियदं तो सो दोसं ण काहिदि से ।।७६४।। ज्ञानको अशुभका निग्रह करनेमें हेतु कहा। दूसरी गाथासे ज्ञान भावनाके द्वारा चित्त अपने वशमें होता है यह कहा। इस गाथासे ज्ञान भावनाके द्वारा अशुभ परिणामोंकी शान्ति होती है यह कहा ॥७६१॥ गा०-जैसे चमड़ेके कोड़ेसे जंगली भी मस्त हाथी वशमें किया जाता है। वैसे ही ज्ञान रूपी चर्मदण्डसे मन रूपी हाथी वशमें किया जाता है। प्राणियोंका अहितकारी तथा दुर्निवार होनेसे मनको हाथीकी तरह कहा है। ज्ञान अशुभ प्रवाहको रोकता हैं यह इस गाथासे कहा है ॥७६२।। आगे ज्ञानरूपी चर्मदण्डसे वशमें किये गये मनका व्यापार कहते हैं गा०-जैसे बन्दर एक क्षण भी निर्विकार होकर ठहर नहीं सकता, वैसे ही मन एक क्षण भी विषयोंके विना नहीं रहता। यहाँ विषय शब्दसे शब्द आदिके निमित्तसे होने वाले रागादिको लिया है क्योंकि वे विषयोंसे उत्पन्न होते हैं । इसलिए ऐसा अर्थ होता है कि रागद्वेषके विना मन मध्यस्थ नहीं होता है । अर्थात् ज्ञान भावनाके अभाव में रागद्वषमें प्रवृत्ति करना ही मन का व्यापार हैं । इस गाथासे कहा है कि ज्ञान मनको मध्यस्थ करता है। निकटवर्ती प्रिय और अप्रिय विषयोंमें रागद्वष करनेसे मन मध्यस्थ नहीं होता ॥७६३|| Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४७७ 'तम्हा' तस्मात् । 'सो मणमक्कडओ' मनोमर्कटः । 'उड्डहणो' इतस्तत उल्लंघनपरः । 'रामेदव्वो णिय' सर्वकालं रमयितव्यः । क्व 'जिणोवदेसम्मि' जिनागमे । 'तो' ततो जिनागभरतेः । 'सो' मनोमर्कटः । 'दोसं' रागद्वेषादिकं । 'ण काहिदि' न करिष्यति । 'से' तस्य ज्ञानाभ्यासकारिणः ॥७६४॥ यस्माज्ज्ञानाभ्यासे सति मनोमर्कटको दोषं अशुभपरिणामं न करोति - तम्हा णाणुवओगो खवयस्स विसेसदो सदा भणिदो । जह विघणोवओगो चंदयवेज्झं करंतस्स || ७६५ || 'तम्हा णाणुवओगो' तस्माज्ज्ञानपरिणामः । खवगस्स विसेसदों सदा भणिदो' क्षपकरय विशेषतः सदा निरूपितः । 'जह विधणोवओगो' यथा व्यधनाभ्यासो विशेषतो भणितः । कस्य ? 'चंदयवेज्झं करंतस्स' चन्द्रकवेधं कुर्वतः ।।७६५।। णापदीओ पज्जलइ जस्स हियए विशुद्धलेस्सस्स । जिमिोक्खमग्गे पणासणभयं ण तस्सत्थि ॥७६६ ॥ 'णाणपदीओ' ध्यानप्रदीपः । 'पज्जलइ' प्रज्वलति । यस्य विशुद्धलेश्यस्य हृदये । तस्य संसारावर्ते पतित्वा विनष्टोऽस्मीति विनाशभयं नास्ति । 'जिणदिट्ठमोक्खमग्गे' जिनदृष्टे श्रुते । रत्नत्रयवृत्तिरपि मोक्षमार्गशब्द इह श्रुतवृत्तिर्ग्राह्यः ॥ ७६६ ॥ ज्ञानप्रकाशमाहात्म्यं कथयति णाज्जोवो जोवो णाणुज्जोवस्स णत्थि पडिघादो | दीवेs खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं ॥ ७६७॥ 'णाणुज्जोवो' ज्ञानोद्योत एव द्योतोऽतिशयितः । कस्तस्यातिशय इत्यत्र आह- ' णाणुज्जोवस्स णत्थि पडघादो' ज्ञानोद्यतस्य नास्ति प्रतिघातः । 'दीवेदि ' प्रकाशयति । 'खेत्तमप्पं ' स्वल्पं क्षेत्रं । कः ? 'सूरो' गा० – इसलिये इधर-उधर कूदने वाले मनरूपी बन्दरको जिनागममें सदा लगाना चाहिए । जिनागममें लगे रहने से वह मनरूपी बन्दर उस ज्ञानाभ्यास करने वालेमें रागद्वेष उत्पन्न नहीं कर सकेगा ||७६४॥ गा०—यतः ज्ञानाभ्यास करने पर मनरूपी बन्दर अशुभ परिणामरूप दोष उत्पन्न नहीं करता । इसलिये क्षपकके लिये सदा ज्ञानोपयोग विशेष रूपसे कहा है । जैसे चन्द्रक यंत्रका वेध करने वालेके लिये सदा बींधनेका अभ्यास विशेष रूपसे कहा है ||७६५ || गा०-जिस विशुद्ध लेश्या वालेके हृदय में ज्ञानरूपी दीपक जलता है उसको जिन भगवान्के द्वारा कहे गये आगममें प्रवृत्त रहते हुए 'मैं संसारकी भँवर में गिरकर नष्ट होऊँगा', ऐसा भय नहीं रहता ||७६६ ॥ ज्ञानरूपी प्रकाशका माहात्म्य कहते हैं गा० - ज्ञानरूप प्रकाश ही यथार्थ प्रकाश है; क्योंकि ज्ञानरूपी प्रकाश में रहनेवालेका १. ज्ञानप्र-आ० । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ૪૮ आदित्यः । ' गाणं जगमसेसं' ज्ञानं जगदशेषं । 'दीवेदि ́ प्रकाशयति । समस्तवस्तुव्यापिज्ञानवदन्यः प्रकाशो नास्तीत्यर्थः ॥ ७६७॥ ाणं पयासओ सोधओ तवो संजमो य गुत्तियरो | तिरपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ||७६८ || 'गाणं पगासगं' ज्ञानं प्रकाशयति 'संसारं ' संसारकारणं, 'मुक्ति' मुक्तिकारणं च ॥ 'सोघवो तवो' .नर्जरानिमित्तं तपः । ' संजमो य गुत्तियरो' संयमश्च गुप्तिकरः । 'तिरहंपिं त्रयाणामपि । 'समाओगे' संयोगे । 'मोक्खो' मोक्ष: । 'जिणसासणे दिट्ठो' जिनशासने दृष्टः ||७६८॥ ाणं करणविहूणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं । संजमहीण य तवो जो कुणदि णिरत्थयं कुणदि || ७६९ || विणा जो इच्छदि मोक्खमग्गमुवगंतुं । णाज्जो गंतुं कडिल्लमिच्छदि अंघलओ अंधयारम्मि ||७७०|| 'णाणुज्जोएण विणा' ज्ञानोद्योतेन विना । 'जो इच्छदि' यो वांछति । 'मोक्खमग्गमुवगंतुं' चारित्रं तपश्च इह मोक्षमार्ग इत्युच्यते चारित्रं तपश्चोपगन्तुं । 'गंतुं कडिल्लमिच्छदि' गन्तुं दुर्गमिच्छति । कः ? 'अंधलओ' अन्धः । 'अंधयारम्मि' अन्धकारे तमसि । यथा वृक्षतृणगुल्मादिनिचिते प्रदेशे गमनं अतिदुष्करं अप्रकाशे सति । तद्वद्धिसादिपरिहारो जीवनिकायाकुले दुष्कर इति मन्यते ॥ ७७० ॥ जइदा खंडसिलोगेण जमो मरणादु फेडिदो राया । पत्तो य सामण्णं किं पुण जिणउत्तसुतेण ॥ ७७१ ॥ 'जइदा खण्डसिलोगेण' यदि तावत्खण्डेन श्लोकस्य । 'जमो राया मरणादो फेडिदो' यमो राजा मरणापतन नहीं होता । सूर्य तो अल्पक्षेत्रको ही प्रकाशित करता है किन्तु ज्ञान समस्त जगत्को प्रकाशित करता है । आशय यह है समस्त वस्तुओंमें व्याप्त ज्ञानके समान अन्य प्रकाश नहीं है ॥ ७६७॥ गा० - ज्ञान संसार संसारके कारण, मोक्ष और मोक्षके कारणोंको प्रकाशित करता है । निर्जराका कारण है । संयम गुप्तिकारक है । इन तीनोंके मिलनेपर जिनागममें मोक्ष कहा है ||७६८|| गा० - आचरणहीन ज्ञान, श्रद्धानके विना मुनि दीक्षाका ग्रहण और संयम के विना तप जो करता है वह सब निरर्थक करता है ||७६९ || गा०—ज्ञानरूप प्रकाशके विना मोक्षमार्गको जो प्राप्त करना चाहता है, यहाँ चारित्र और तपको मोक्षमार्ग कहा है अतः जो ज्ञानके विना चारित्र और तपको प्राप्त करना चाहता है वह अन्धा अन्धकारमें दुर्गपर जाना चाहता है । जैसे प्रकाशके अभावमें वृक्ष, तृण, झाड़ी आदि से भरे प्रदेश में जाना अति कठिन है वैसे ही जीवोंसे भरे प्रदेशमें हिंसा आदिका बचाव कठिन है ||७७०॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ४७९ दपसारितः । 'पत्तो य सुसामण्ण' प्राप्तश्च शोभनं श्रामण्यं । "किं पुण जिणउत्तसुत्तेण' किं पुनजिनोक्तसूत्रेण प्राप्यफले आश्चर्य । वाच्यमत्राख्यानकं च । तदुक्तं 'भवत्यन्धेनाज्ञेन जीवितार्थिना यत्किचिदुक्तं वचनं श्रुत्वा हास्यपरेण राज्ञा भाव्यमानं यद्यापदपसारणे निमित्तं विश्ववेदिनां वचो भाग्यमानं किमभिलषितं न प्रापयति ।। ७७१॥ स्वल्पस्यापि श्रुतस्य भावना मरणकाले महाफलं ददातीत्येवं तत्कथयति दढसुप्पो मूलदहो पंचणमोक्कारमेत्त सुदणाणे। उवजुत्तो कागदो देवो जावो महड्ढओ ॥७७२॥ 'दढसुप्पो सूलदहो' दृढसूर्पो नाम चौरः शूलमारूढः । 'पंचणमोक्कारमेत्त सुदणाणे उवजुत्तो कालगदो' पञ्चनमस्कार एव श्रुतज्ञाने उपयुक्तः सन् कालगतः । 'महड्ढिगो देवो जादो' महद्धिको देवो जातः ॥७७२।। ण य तम्मि देसयाले सव्वो बारसविधो सुदक्खंघो । सत्तो अणुचिंचेदु बलिणा वि समत्थचित्तेण ॥७७३।। 'सव्वो बारसविधो वि सुदक्वंधो तम्मि देसयाले ण य सक्को अणुचिते, बलिणा वि समत्थचित्तण' सर्वो द्वादशविधोऽपि श्रुतस्कंधस्तस्मिन्मरणे देशे काले च नैव शक्योऽनुस्मर्तुं नितरामपि समर्थचित्तेन । बहुश्रुतस्यापि न ध्यानालम्बनं समस्तं श्रुतं किं तु किंचिदेव सूत्रं । तथा हयुक्तं 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति' [त० सू० ९।४५] ॥७७३॥ एक्कम्मि वि जम्मि पदे संवेगं वीदरायमग्गम्मि । गच्छदि णरो अभिक्खं तं मरणंते ण मोत्तव्यं ॥७७४॥ __ गा०-टो०-यदि श्लोकके एक खण्डके पाठसे राजा यम मृत्युसे बचा और शोभनीय मुनिपदको प्राप्त हुआ तो जिनभगवान्के द्वारा प्रतिपादित सूत्रकी स्वाध्यायसे प्राप्त होनेवाले फलमें क्या आश्चर्य है । इस विषयमें हरिषेणकृत वृहत् कथाकोशमें यममुनि की कथा है । कहा भी है जीवनके अर्थी अज्ञानी अन्धेके द्वारा कहे गये अनर्गलवचनको सुनकर राजाने हँसीमें उसे ग्रहण किया और वह उसकी आपत्ति दूर करने में निमित्त हुआ तो सर्वज्ञके वचनका अभ्यास किस इच्छित वस्तुको नहीं देता ? अर्थात् सब देता है ॥७७१।। आगे कहते हैं कि थोड़े से भी शास्त्र की भावना मरते समय महाफल देती है गा०-दृढ़सूर्प नामक चोरको सूली पर चढ़ाया गया तो वह पंच नमस्कार मन्त्र-मात्र श्रु तज्ञानमें उपयोग लगाकर मरा अर्थात् पंच नमस्कार मंत्र का पाठ करते हुए मरा और मरकर महान ऋद्धिका धारी देव हुआ ॥७७२।। गा०-मरते समय बलवान भी सामर्थ्यसम्पन्न मनुष्य समस्त द्वादशांग श्रु त स्कन्धका अनुचिन्तन नहीं कर सकता । बहुत शास्त्रोंका ज्ञाता भी समस्त श्रुतका ध्यान मरते समय नहीं कर सकता। किन्तु किसी एक का ही ध्यान सम्भव है। कहा भी है-एक विषयमें चिन्ताके निरोध को ध्यान कहते हैं ॥७७३।। १. भवेत्पांथेनाज्ञेन-आ० । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० भगवती आराधना 'तेण एकम्मि वि जम्मि पवे' यस्मिन्नेकस्मिन्नपि पदे युक्तः । 'संवेगं गच्छदि' रत्नत्रये श्रद्धामुपैति । 'अभिक्रवं' पुनः पुनः । 'त' तत्पदं । 'मरणंते' शरीराद्वियोगकाले । 'ण मोत्तव्वं' न मोक्तव्यं । णाणुवंओग इत्येतद्वयाख्यातं । णाणं गदं ॥७७४॥ पञ्चमहव्वदरक्खा इत्येतद्वयाचिंख्यासुराद्यमहिंसाव्रतं पालयेति कथयति परिहर छज्जीवणिकायवहं मणवयणकायजोगेहिं । जावज्जीवं कदकारिदाणुमोदेहिं उवजुत्तो ।।७७५।। 'परिहर छज्जीवणिकायवह' षण्णां जीवनिकायानां वधं मा कृथा मनोवाक्काययोगैः प्रत्येक कृतकारितानुमतविकल्पैः । कालप्रमाणमाह-'जावज्जीव' यावज्जीवं । सर्वजीवविषयसर्वप्रकारहिंसापरिहाररूपत्वात् सर्वस्मिन्नेव भवपर्यायकाले प्रवृत्तत्वादहिंसाव्रतस्य महत्ता निवेदिता। 'छज्जीवणिकाय' इत्यत्र व्यक्तयो जीवनिकायानां परिगृहीताः । 'मणवयणकायजोगेहि कदकारिदाणुमोदेहि इत्यनेन हिंसाविकल्पा: संग्रहीताः । 'जावज्जीवमित्यनेन निरवशेषमनुजजीवितकालग्रहणं । 'उवजुत्तो समिदीसु' इति शेष उपयुक्तः समितिषु समाहितचित्तः । इह वा सावज्जकिरियापरिहारे इति शेषः । सावद्यक्रियापरिहारप्रणिहितचित्तः।।७७५।। जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिपि जाण जीवाणं । एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवेसु होदि सदा ॥७७६॥ 'जह ते ण पियं दुःवं' यथा तव न प्रियं दुःखं । 'तधेव तेसि पि जीवाणं दुःखां न पियंत्ति' तथैव तेषामपि जीवानां न दुःखं प्रियमिति । 'जाण' जानीहि । 'एवं गच्चा' एवं ज्ञात्वा । अप्पोवमिवो आत्मोपमानः । 'सदा होहि जीवेसु' सदा भव जीवेसु । परजीवदुःखाप्रियो भवेति यावत ।।७७६॥ गा०-अतः जिस एक भी पदमें मन लगानेसे मनुष्यमें रत्नत्रयके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती हैं उस पदको बार-बार विचारना चाहिये और मरते समय भी नहीं छोड़ना चाहिये ।।७७४॥ __ 'पंच महाव्रत रक्षा' का व्याख्यान करनेके इच्छुक ग्रन्थकार अहिंसावतके पालनका कथन करते हैं गा०-टी-मन वचन काय और उनमें से प्रत्येकके कृत कारित और अनुमत भेदोंके साथ छह कायके जीवों की हिंसा जीवन पर्यन्त मत करो। क्योंकि सब जीवोंको सब प्रकारकी हिंसाका त्याग अहिंसा महावत है सभी भवोंमें इसका पालन करना, आवश्यक है। इससे अहिंसावतकी महत्ता सूचित की है । 'छह जीव निकाय' पदसे जोव निकायोंके सब जोवोंका ग्रहण किया है। मन वचन काय और कृत कारित, अनुमोदनासे हिंसाके भेदोंका ग्रहण किया है अर्थात् हिंसा नौ प्रकार से होती है, 'यावज्जीवन' पदसे मनुष्यका सम्पूर्ण जीवन काल ग्रहण किया है। 'उपयुक्त' पदसे समितियों में सावधान चित्त व्यक्तिका ग्रहण किया है । जो व्यक्ति सावध कार्यों के परिहारमें दत्तचित्त है वही जीवन पर्यन्त छह काय के सब जीवोंको मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से हिंसा नहीं करता ।।७७५॥ गा०-जैसे तुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही उन जीवोंको भी दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा जानकर अपनी ही तरह सदा जीवोंमें व्यवहार करो अर्थात् किसी को दुःख मत दो ॥७७६।। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४८१ तण्हाछुहादिपरिदाविदो वि जीवाण घादणं किच्चा । पडियारं कादु जे मा तं चिंतेसु लभसु सदि ।।७७७॥ 'तण्हाछुहादिपरिदाविदो वि' तृषा, क्षुधा, रोगेण, शीतेन, आतपेन बाधितोऽपि सन् । 'जीवाणं घादणं किच्चा' जीवानामपघातं कृत्वा । 'पडिगारं काहूँ जे' तुडादीनां प्रतिकारं कर्तुं । 'तं मा चितेहि' मा कार्षीश्चित्तं । 'लभस सदि' लभस्व स्मृति । पिबामि हिमशोतलं जलं कर्पूरक्षोदवासितं । अगाधं वा सरः सुरभितरोत्पलरजोवगंठितं प्रविश्य मदान्धसिन्धुर इव निमज्जनोन्मज्जने करोमि । ललाटे, शिरसि, पृथुले चोरस्थले करकप्रकरनिपातो यदि स्याद्भद्रं भवेत् । कल्हारसिकताधिकपल्लवशयनादिलाभे वा जीवामि इति वा । आतपति वा दिवानिशं तर्ष । अपसारिततीक्ष्णकरकरनिकुरुंबमिति व्यजनतालवृन्तसमुपनीतशीतमारुतापातेन श्रममशेषमपाकुर्वन्तु भवन्तः । हिमानी पततु । वान्तु वा मातरिश्वान इति वा । भ्राष्ट्रपक्वानपूपान्सुरभिघृतार्द्वान् भक्षयामीति । सम्यक् क्वथितं क्षीरं शर्करामिथं सुखोष्णं पिबामीति वा । धगधगायमानं खादिरमग्नि कूत । शीतेन स्फुटन्ति ममाङ्गगानि इत्येवमादिका प्रतिक्रिया मनसि न कार्येत्यर्थः । असद द्योदया सनौ महति निपतति, को नु तस्य प्रतीकारः ? तदुपशमकालभाविन एव बाह्यद्रव्यसंपाद्याः प्रतीकारा इति मनो निधेहि ॥७७७॥ रदिअरदिहरिसभयउस्सुगत्तदीणत्तणादिजुत्तो वि । भोगपरिभोगहेदु मा हु विचिंतेहि जीववहं ॥७७८॥ ‘रदिअरदिहरिसभयउस्सुगत्तदोणताणादिजुत्तोऽवि' । शब्दादिविषया :प्रीती रतिः । अमनोज्ञविषयसन्निधाने या विमुखता सा अरतिः । हास्यकर्मोदयनिमित्तः परिणामो हर्षः। भयं, उत्सुकता, दीनतेत्येवमादिभिर्युक्तोऽपि । 'भोगपरिभोगहेर्नु' भोगोपभोगार्थ वा जीववधं मा कृथा मनसि ॥७७८॥ गा०-टो०-भूख, प्यास, रोग, शीत अथवा आतपसे पीड़ित होने पर भी जीवोंका घात करके प्यास आदिका प्रतीकार करनेका विचार मत करो। मैं कपूरके चूर्णसे सुवासित तथा बर्फसे शीतल जलका पान करूं? अथवा अति सुगन्धित कमलको रजसे व्याप्त गहरे तालाबमें घुसकर मदोन्मत्त हाथी की तरह डुबकियाँ लूँ। मस्तक, सिर और विशाल छाती पर यदि ओलोंकी वर्षा हो तो उत्तम हो । अथवा यदि कमल बालु और कोमल पल्लवों आदिकी शय्या मिले तो मैं जीवित रह सकूँ । रात दिन प्यास सताती है । सूर्यकी किरणेंके समूह को दूर करके पंखेकी शीतल वायु से मेरी सब थकान आप दूर करे । बर्फ गिरे। शीतल पवन बहे । सुगन्धित घीमें अंगार पर पके पुओं को खाऊँगा । अथवा सम्यक् रूपसे उबाले गये और शक्कर मिलाये तथा सुखकर उष्णता को लिये दूधको पीऊँ । खैरकी लकडीको धक् धक् करतो हुई आग जलाओ, मेरे अंग ठंडसे ठिठुर रहे हैं । इस प्रकारका प्रतिकार मनमें नहीं लाना चाहिये। यह उक्त कथनका आशय है । महान् असाता वेदनीय रूप वज्रपात होने पर उसका क्या प्रतीकार हो सकता है ? उसका उपशमन काल आने पर ही बाह्य द्रव्योंके द्वारा प्रतीकार संभव है. ऐसा मनमें विचार होना चाहिये ||७७७|| गा०-टी-शब्द आदि विषयोंमें प्रीतिको रति कहते हैं । अप्रिय विषयोंके प्राप्त होनेपर उनसे विमुख होनेको अरति कहते हैं । हास्यकर्मके उदयके निमित्तसे जो भाव होता है उसे हर्ष कहते हैं। १. दयः स नो महानिति-आ० म० । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ भगवती आराधना महुकरिसमज्जियमहुं व संजमं थोवथोवसंगलियं । तेलोक्कसव्वसारं णो वा पूरेहि मा जहसु ।।७७९।। 'महकरिसमज्जयमहुं व' मधुकरीभिः समजितं मध्विव । 'संजम' चारित्रं । 'थोवयोवसंगलिदं' स्तोकस्तोकेनोपचितं । 'तेलोक्कसव्वसारं' त्रैलोक्यस्य सर्वसारं विष्टपत्रये यदतिशयवत् स्थानं, मानं, ऐश्वर्यं सुखं वा तस्य कारणत्वात् त्रैलोक्यसर्वसारं । ‘मा जहसु' मा त्याक्षीः ॥७७९॥ दुक्खेण लभदि माणुस्सजादिमदिसवणदंसणाचरित्तं । दुक्खज्जियसामण्णं मा जहसु तणं व अगणंतो ।।७८०।। 'दुवखेण लभदि माणुस्सजादिमदिसवणदंसणचरित्तं' दुःखेन लभते मनुष्यजन्म जंतुः । सूत्रे यद्यपि मणुस्सजादिशब्दः सामान्यवाच्युपात्तस्तथापि विशेष'मत्रासो वदति इति ग्राह्यं । मनुजा हि चतुःप्रकारा: कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा । अंतरद्वीपजाश्चैव तथा सम्मच्छिमा इति ॥ असिमषिः कृषिः शिल्पं वाणिज्यं व्यवहारिता । इति यत्र प्रवर्तते नणामाजीक्योनयः॥ प्रपाल्यसंयम यत्र तपःकर्मपरा नराः। सुरसंगतीव सिद्धि प्रयांति हतशत्रवः ॥ एताः कर्मभुवो ज्ञेयाः पूर्वोक्ता दश पञ्च च । यत्र संभूय पर्याप्ति यान्ति ते कर्मभूमिजाः ॥ मद्यतूर्याम्बराहारपात्राभरणमाल्यवैः । इन रति, अरति, हर्ष, भय, उत्सुकता, दीनता आदि भावोंसे युक्त होने पर भी अपने भोग अथवा उपभोगके लिये मनमें जीव हिंसाका विचार मत करो ॥७७८॥ गा-मधु-मक्खियाँ जिस प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके मधुका संचय करती हैं उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके संचित किया गया संयम तीनों लोकोंमें जो सातिशय स्थान मान ऐश्वर्य अथवा सुख है उस सबका कारण होनेसे सारभूत है । उसे यदि पूर्ण नहीं कर सकते तो उसका त्याग तो मत करो ||७७९|| गा-टी--प्राणी बड़े दुःखसे मनुष्य जन्म पाता है। गाथामें यद्यपि मनुष्य जाति शब्द सामान्य वाची है तथापि यह विशेष मनुष्यको कहता है, ऐसा अर्थ लेना चाहिये। मनुष्य चार प्रकारके होते हैं-कर्म भूमिमें उत्पन्न हुए, भोग भूमिमें उत्पन्न हुए, अन्तर्वीपोंमें उत्पन्न हुए तथा सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न हुए। जहाँ मनुष्य असि, मषि, कृषि, शिल्प, व्यापार और सेवाके द्वारा जीवन यापन करते हैं, तथा जहाँ मनुष्य संयमका पालन करके तपस्यामें तत्पर होकर देवगति प्राप्त करते हैं अथवा कर्म शत्रुओंको मारकर मोक्ष जाते हैं वे कर्मभूमियाँ हैं। वे कर्मभूमियाँ पन्द्रह हैं। उनमें जन्म लेकर वे कर्मभूमिज मनुष्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करते हैं। और १. षमवसादयति इति आ० ।-षमवसाययति इति मु० । २. संगतिवत् सि-आ० ।-संगति वा सि-मु० । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ४८३ गहदीपज्योतिषाख्यस्तरुभिस्तत्र जीविकाः ॥ पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपाः । न कुलं कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थितिः ।। यत्र नार्यो नराश्चैव मैथुनीभूय नीरुजाः। रमन्ते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवन्तः परं फलं ॥ यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यान्ति मृता अपि । ता भोगभूमयश्चोक्तास्तत्र स्पुर्भोगभूमिजाः ॥ अभाषका एकोरुका लागलिकविषाणिकाः । आदर्शमुखाहस्त्यश्वविधुदुल्कमुखा अपि ॥ हयकर्णा गजकर्णाः कर्णप्रावरणास्तथा । इत्येवमादयो ज्ञया अन्तरद्वीपजा नराः॥ समुद्रद्वीपमध्यस्थाः कन्दमूलफलाशिनः। वेदयन्ते मनुष्यायुस्ते मृगोपमचेष्टिताः ।। कर्मभूमिषु चक्रास्त्रहलभृद्भरिभूभुजां । स्कंधावारसमूहेषु प्रस्रावोच्चारभूमिषु ।। शुक्रसिंघाणकश्लेष्मकर्णदन्तमलेषु च । अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यःसम्मुर्छनेन ये ॥ भूत्वामुलस्यासंख्येयभागमात्रशरीरकाः। आशु नश्यन्त्यपर्याप्तास्ते स्युः सम्मूच्छिमा नराः ॥ एतेषु कर्मभूमिजमानवानां एव रत्नत्रयपरिणामयोग्यता नेतरेषां इति तदेव मनुजजन्म गृह्यते । लब्धेऽपि जहाँ मनुष्य मद्य, तूर्य, वस्त्र, आहार, पात्र, आभरण, माला, घर, दीप और ज्योति प्रदान करने वाले दस प्रकारके कल्प वृक्षोंसे जीवन यापन करते हैं, जहाँ पुर ग्राम आदि नहीं होते, न राजा होते हैं न कुल, न कर्म और न. शिल्प होता है, न वर्ण और आश्रमका चलन होता है, जहाँ स्त्री और पुरुष निरोग रहकर पति पत्नी की तरह रमण करते हुए पूर्व जन्ममें किये पुण्य कर्मका फल भोगते हैं, और जो स्वभावसे ही भद्र होनेके कारण मरकर भी स्वर्गमें जाते हैं वे भोगभूमियाँ कही हैं। उनमें जन्म लेने वाले मनुष्य भोगभूमिज होते हैं। अभाषका-जो भाषा नहीं जानतेमूक रहते हैं, एकोरुका-जिनके एक पैर होता है, लांगूलिका जिनके पूछ होती है, विषाणिकाजिनके सींग होते हैं, आदर्शमुखा-जिनका मुख दर्पण की तरह होता है, हस्तिमुखा-हाथी की तरह मुख वाले, अश्वमुख-घोड़ेकी तरह मुखवाले, विद्युन्मुख, विजलीकी तरह मुखवाले, उल्कामुख, हयकर्ण-घोड़ेकी तरह कानवाले, गजकर्ण-हाथीकी तरह कान वाले, कर्ण प्रावरण-कान ही जिनका आवरण है, इत्यादि अन्तर्वीपज मनुष्य होते हैं। ये समुद्रके द्वीपोंके मध्यमें रहते हैं, कन्दमल फल खाते हैं, तथा हिरनोंकी तरह चेष्टा करते हए मनुष्याय भोगते हैं। के चक्रवर्ती, बलदेव, राजाओंकी सेनाके पड़ावोंमें मलमूत्र त्यागनेके स्थानोंमें, वीर्य, नाकके मल, कफ़, कान और दाँतोंके मलमें और अत्यन्त गन्दे प्रदेशोंमें शीघ्र ही सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न होकर तत्काल ही अपर्याप्त दशामें मरणको प्राप्त होनेवाले सम्मूर्छन मनुष्य होते हैं । उनका शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होता है । इन चार प्रकारके मनुष्योंमेंसे कर्मभूमि मनुष्योंमें ही रत्नत्रय Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ भगवतो आराधनां तस्मिन् ज्ञानावरणोदयाद्धिताहितपरीक्षायां समर्था बुद्धिर्न सुलभा । तया विना लब्धमपि मनुजजन्म विफलमेव दृष्टिरहितमिवायतं लोचनं, द्रविणसंपदं विना कुलीनत्वमिव, सुभगतासन्तरेण रूपमिव, यथार्थतारहितं वचनमिव, सत्यामपि मती यदि नाप्तानां वचः श्रुणुयात् सापि विफलैव सरोज रहिता सरसीव । इहापि श्रवणं आप्तवचनगोचरमेव गृहीतं, श्रवणमपि श्रद्धानरहितं सुलभमेव । इदं यथा येन प्रतिपादितं तथैवेति श्रद्धानं दुर्लभं दर्शनमोहोदयात् । सत्यपि श्रद्धाने चारित्रमोहोदयात् ज्ञातेऽभिरुचिते मार्गे प्रवृत्तिर्दुलभा । एवं 'दुरवज्जिदसामण्णं' दुःखेनार्जितश्रामण्यं । मा जहसु मा त्याक्षीः । 'तणं व अगणितो' तृणमिव अगणयन् ॥७८०॥ जीवघातदोषमाहात्म्यं कथयति गाथाद्वयेन तेलोक्कजीविदादो वरेहि एक्कदरमत्ति देवेहिं । भणिदो को तेलोक्कं वरिज्ज संजीविदं मुच्चा ॥७८१।। जं एवं तेलोक्कं णग्धदि. सव्वस्स जीविदं तम्हा । जीविदघादो जीवस्स होदि तेलोक्कघादसमो ॥७८२।। त्रैलोक्यजीवितयोरेकं गृहाणेति देवैश्वोदितः कस्त्रलोक्यं वृणीते 'स्वजीवितं त्यक्त्वा, जीवनमेव ग्रहीतु वाञ्छति । यस्मादेवं त्रैलोक्यस्य मल्यं जीवितं सर्वप्राणिनस्तस्माज्जीवितघातो। जीवस्य [जीवितस्य । जीवादन्यत्रावृत्तेर्जीवस्येहवचनमनर्थकमिति चेन्न, उत्तरेण सम्बन्धात् । जीवस्य हंतुस्त्रैलोक्यघातसमो महान्दोषो भवतीति यावत् ।।७८१।। रूप परिणामों की योग्यता होतो है, शेष तीन में नहीं होती। इसलिये यहाँ उसी मनुष्य जन्मका ग्रहण होता है। उस मनुष्य जन्मको प्राप्त करके भी ज्ञानावरण कर्मके उदयसे हित अहितका विचार करनेमें समर्थ बुद्धि सुलभ नहीं है। उसके विना प्राप्त भी मनुष्य जन्म उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे देखनेकी शक्तिसे रहित लम्बी आँखें, धन सम्पत्तिके बिना कुलीनता, सौभाग्यके बिना रूप, और यथार्थतासे रहित वचन व्यर्थ हैं। बुद्धिके होनेपर भी यदि आप्त पुरुषोंका वचन न सुने तो वह बुद्धि भो कमलोंसे रहित सरोवरकी तरह निष्फल ही है। यहाँ श्रवण भी आप्तके वचन विषयक ही ग्रहण किया है। श्रद्धान रहित सुनना भी सुलभ ही है । 'जिसने जैसा कहा है वैसा ही है' इस प्रकारका श्रद्धान दर्शन मोहके उदयमें दुर्लभ है। श्रद्धान होने पर भी चारित्र मोहके उदयसे जाने हुए और रुचने वाले मार्गमें प्रवृत्ति दुर्लभ है। इस प्रकार बड़े कष्टसे प्राप्त मुनिधर्मको तृणकी तरह मानकर त्यागना नहीं ॥७८०॥ टो०-आगे दो गाथाओंसे जीवघातसे हुए दोषका महत्त्व बतलाते हैं गा०-तीनों लोक और जीवनमेंसे एकको स्वीकार करो ? ऐसा देवोंके द्वारा कहे जानेपर न प्राणी अपना जीवन त्यागकर तीनों लोकोंको ग्रहण करेगा? अत: इस प्रकार सब प्राणियोंके जीवनका मूल्य तीनों लोक है अतः जीवका घात करनेवालोंको तीनों लोकोंका घात करनेके समान दोष होता है। शङ्का-जीवितपना जीवको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता अत: 'जीवस्स' यह वचन व्यर्थ है ? समाधान-गाथामें आये जीवस्सका सम्बन्ध आगेके कथनसे है-जीवके घातकको तीनों लोकोंके घातके समान दोष होता है ।।७८१-७८२।। १. ते जीवस्य जी-मु० । २. स्यैव व-अ० । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1४८५ विजयोदया टोका अहिंसाव्रतमहत्तां निवेदयन्ति णत्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि । जह जह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अस्थि ।।७८३।। 'णथि अणूदो अप्पं' नास्त्यणोरल्पं अन्यत्किचिद्रव्यं । 'आयासादो अणूणयं णत्थि' । आकाशाद्वा अन्यन्महन्नास्ति यथा तथान्यद्वतं अहिंसातो महन्नास्ति ॥७८३॥ जह पव्वदेसु मेरू उच्चावो होइ सव्वलोयम्मि । तह जाणसु उच्चायं सीलेसु वदेसु य अहिंसा ॥७८४॥ 'जह पञ्चदेसु' सर्वस्मिल्लोके पर्वतेभ्यो मेरुयंथाच्चैस्तथा अहिंसा शीलेषु व्रतेषु च उन्नततमेति जानीहि ।।७८४॥ व्रतानां, शीलानां, गुणानां च अधिष्ठानमहिंसेति वदन्ति सव्वो हि जहायासे लोगो भृमीए सव्वदीउदधी । तह जाण अहिंसाए वदगुणशीलाणि तिट्ठति ।।७८५।। यथा सर्वलोक ऊर्ध्वाधरितर्यग्विकल्पः आकाशाधिकरणः । भूमौ च समवस्थिताः सर्वे द्वीपा उदधयश्च । तथैव 'जाण' जानीहि । व्रतगुणशीलान्यहिंसायां तिष्ठन्ति इति ॥७८५।। कुव्वंतस्स वि जत्तं तुंबेण विणा ण ठंति जह अरया । अरएहिं विणा य जहा णटुं णेमी दु चक्कस्स ||७८६।। 'कुव्वंतस्स वि जत्तं' यत्नं कुर्वतोऽपि । तुम्बमन्तरेण यथा न तिष्ठन्त्यराणि । अरैविना नेम्यवस्थानं चक्रस्य यथा नास्ति ॥७८६॥ तह जाण अहिंसाए विणा ण सीलाणि ठंति सव्वाणि । तिस्सेव रक्खणठं सीलाणि वदीव सस्सस्स ।।७८७।। 'तह जाण' तथैव जानीहि । अहिंसां विना सर्वाणि शीलानि न तिष्ठन्ति इति । अहिंसाया एव रक्षार्थ शीलानि वृतिरिव सस्यस्य ॥७८७।। गा०-जैसे अणुसे छोटा कोई अन्य द्रव्य नहीं है और आकाशसे बड़ा कोई नहीं है वैसे ही अहिंसासे महान् कोई अन्य व्रत नहीं है ॥७८३।। गा०--जैसे सब लोकमें मेरु सब पर्वतोंसे ऊँचा है वैसे ही शीलों और व्रतोंमें अहिंसा सबसे ऊँची है ॥७८४॥ अहिंसा व्रतों शीलों और गुणोंका अधिष्ठान है, ऐसा कहते हैं गा०-जैसे ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोकके भेदसे सब लोक आकाशके आधार हैं और सब द्वीप और समुद्र भूमिके आधार हैं वैसे ही व्रत गुण और शील अहिंसाके आधार रहते हैं ।।७८५॥ गा०-लाख प्रयत्न करनेपर भी जैसे चकेके आरे तुम्बीके विना नहीं ठहरते और आरोंके विना नेमि नहीं ठहरती, वैसे ही अहिंसाके विना सब शील नहीं ठहरते । उसीकी रक्षाके लिए शील हैं जैसे धान्यकी रक्षाके लिए बाड़ होती है ।।७८६-७८७।। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना अहिंसाव्रतमन्तरेणेतरेषां नष्फल्यमाचष्टे शीलं वदं गुणो वा णाणं णिस्संगदा सुहच्चाओ। जीवे हिंसंतस्स हु सव्वे वि णिरत्थया होंति ॥७८८।। शीलादीनि हि संवरनिर्जरां चोद्दिश्यानुष्ठीयन्ते । हिंसायां तु सत्यां न स्तः फलभूते संवरनिर्जरे मुक्त्युपायभूते इति निष्फलता मन्यते ॥७८८।। सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं । सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु ।।७८९॥ 'सवेसिमासमाणं' सर्वेषामाश्रमाणां हृदयं शास्त्राणां गर्भः । सर्वेषां व्रतानां गुणानां च पिण्डीभूतसारो भवत्यहिंसा ॥७८९।। जम्हा असच्चवयणादिएहिं दुक्खं परस्स होदित्ति । तप्परिहारो तम्हा सव्वे वि गुणा अहिंसाए ॥७९०॥ 'जम्हा असच्चवयणादिहि' यस्मादसत्यवचनेन, अदत्तादानेन, मथुनेन, परिग्रहेण च परस्य दुःखं भवति । तस्मात्तेषां असत्यवचनादीनां परिहार इति सर्वेऽपि अहिंसाया गुणाः । गोबंभणित्थिवघमेतणियत्ति जदि हवे परमधम्मो । परमो धम्मो किह सो ण होइ जा सव्वभूददया ॥७९१॥ 'गोबंभणित्थिवधमेत्तणियत्ति' गवां, ब्राह्मणानां, स्त्रीणां च वधमात्रनिवृत्तिर्यदि भवेदुत्कृष्टो धर्मः परमो धर्मः कथं न भवति या सर्वजीवदया ।।७९१॥ हिंसानिवृत्ति उपायेन कारयन्ति कृतापकारानपि वान्धवान्स्नेहान्न मारयितुमीहते जनः। 'तवपुरसअहिंसावतके विना शील आदिकी निष्फलता बतलाते हैं गा०-जीवोंकी हिंसा करनेवालेके शील, व्रत, गुण, ज्ञान, निःसंगता और विषय सुखका त्याग ये सभी ही निरर्थक होते हैं ।।७८८॥ विशेषार्थ-शील आदि संवर और निर्जराके उद्देशसे किये जाते हैं। हिंसाके होते हुए मुक्तिके उपायभूत संवर निर्जरारूप फल नहीं होते । इसलिए निष्फल कहा है ।।७८८।। __गा०-सब आश्रमोंका हृदय, सब शास्त्रोंका गर्भ और सब व्रतों और गुणोंका पिण्डीभूत सार अहिंसा ही है ।।७८९।। गा०—यतः असत्य बोलनेसे, विना दी हुई वस्तुके ग्रहणसे, मैथुनसे, और परिग्रहसे दूसरोंको दुःख होता है । इसलिए उन सबका त्याग किया जाता है । अतः वे सब सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अहिंसाके ही गुण हैं ||७९०॥ गा०-यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्रियोंके वधमात्रसे निवृत्ति उत्कृष्ट धर्म है तो सब प्राणियोंपर दया परमधर्म क्यों नहीं है ? |७९१।। लोग सावधानीपूर्वक हिंसासे बचते हैं। अपकार करनेवाले भी बन्धु-बान्धवोंको स्नेहवश १. तव पुरस्साउधर स-आ० । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका कृज्जन्मान्तरे पितृपुत्रादिभावमुपागतानां मारणमयुक्तं इति वदति - सव्वे विय संबंधा पत्ता सव्वेण सव्वजीवेहिं । तो मारतो जीव संबंधी चैव मारेइ || ७९२ ।। 'सव्वे वि य' सर्वेऽपि च । 'संबंधा' सम्बन्धाः प्राप्ताः । 'सव्वेण' सर्वेण जीवेन । 'सव्वजीव हि' सर्व जीवै: । 'तो' तस्मात् । जीवो मारणोद्यतः सम्बन्धिन एव घातयति ॥ ७९२ ॥ तच्च सम्वन्धिननं लोके अतिनिन्दितं - जीaast अप्वहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया । विसकंटओव्a हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ॥ ७९३ ॥ 'जीववहो अप्पवहो' जीवानां घात आत्मघात एव । जीवानां क्रियमाणा दया आत्मन एव कृता भवति । सकृदेकजीवघातनोद्यतः स्वयमनेकेषु जन्मसु मार्यते । कृतैकजीवदयोऽपि स्वयमनेकेषु जन्मसु परं रक्ष्यते । इति विषलिप्तकण्टकवत् परिहार्या हिंसा दुःखभीरुणा ।।७९३ ॥ हिंसादोषमिहैव जन्मनि दर्शयति मारसीलो कुणदि हु जीवाणं रक्खसुव्व उव्वेगं । संबंधिविणय विस्संभं मारितए जंति ॥७९४ ॥ ४८७ 'मारणसीलो हु' मारणशीलः परहननोद्यतः । राक्षस इव जीवानामुद्वेगं करोति । सम्बन्धिनोऽपि न विस्रम्भं उपयान्ति तस्मिन्वधके ॥७९४॥ वघबंघरोघधणहरणजादणाओ य वेरमिह चेव । निव्विसयमभोजित्तं जीवे मारंतगो लभदि ॥ ७९५ ।। मारना नहीं चाहते । तब पूर्व नाना जन्मोंमें पिता पुत्र आदि सम्बन्ध जिनके साथ रहा है, उन जीवोंको मारना अनुचित है, यह कहते हैं गा० – सब जीवोंके साथ सब जीवोंके सब प्रकारके सम्बन्ध पूर्वभवोंमें रहे हैं । अत. उनको मारनेवाला अपने सम्बन्धीको ही मारता है और सम्बन्धीको मारना लोकमें अत्यन्त निन्दित माना जाता है ||७९२ || गा० - टी० - जीवोंका घात अपना ही घात है । और जीवोंपर की गई दया अपनेपर ही की गई दया है । जो एक बार एक जीवका घात करता है वह स्वयं अनेक जन्मोंमें मारा जाता है । और जो एक जीवपर दया करता है वह स्वयं अनेक जन्मोंमें दूसरे जीवोंके द्वारा रक्षा किया जाता है । इसलिए दुःखसे डरनेवाले मनुष्यको विषैले काँटेकी तरह हिंसा से बचना चाहिए ||७९३॥ इसी जन्म में हिंसा के दोष दिखलाते हैं गा० – जो दूसरोंका घात करनेमें तत्पर होता है उससे प्राणी वैसे ही डरते हैं जैसे राक्षससे । उस हिंसकका विश्वास सम्बन्धीजन भी नहीं करते ॥ ७९४|| Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना वध बन्ध उत्कोटकादिकं वधं बन्धं मारणं । रोधनं धनहरणं । यातनाश्च वैरं विषयाद्वाडनं अभोज्यतां च रोषाद्ब्राह्मणादिहननात् । 'मारेंतगो' हन्ता । 'लभदि' लभते ||७९५॥ रुट्ठो परं वधित्ता सयपि कालेण मरइ जंतेण । हदघादयाण णत्थि विसेसो मुत्तूण तं कालं ||७९६ | हट्ठी परं बधित्ता' - रुष्टः परं बधित्वा । स्वयमपि कालेन जन्तेण - गच्छता कालेन । मरदिनृतिमुपैति । 'हदघादगाणं' - हृतस्य घातकस्य च । णत्थि विसेसो - नास्ति विशेषः । तं कालं मुत्तूण - तं कालं मुक्त्वा । पूर्वमसौ मृतः पश्चात्स्वयमिति ॥ ७९६॥ ४८८ अप्पाउगरो गिदया विरूवदाविगलदा अवलदा य । दुम्मेहवण्णरसगंधदाय से होइ परलोए || ७९७।। 'अप्पा उगरोगिदया विरुवदाविगलदा अवलदा य' अल्पजीवितरोगिता विरूपता, विकलेन्द्रियता दुर्बलता । 'दुम्मेघवण्णरसगंधदाय' दुर्मेधता, दुर्वर्णता, दूरसदुर्गन्धता च । 'से' तस्य । 'होदि' भवति । 'परलोए' जन्मान्तरे ।।७९७ ।। मारेदि एमवि जो जीवं सो बहुसु जम्मकोडीसु । अवसो मारिज्जतो मरदि विधाणेहिं बहुएहिं ।। ७९८ । । 'मारेदि' हन्ति । ' एगमवि' एकमपि । 'जो जीवं' यो जीवं । 'सो' सः । 'बहुसु जम्मकोडीसु' बह्वीषु जन्मकोटीषु । 'अवसो मरदि मारिज्जतो' परवशो मरति मार्यमाणो । 'विधाणेहि बहुर्गोह' बहुभिः प्रकारैमर्यमाणः ॥ ७९८ ॥ जावयाई दुखाइं होंति लोयम्मि चदुगदिगदाई | सव्वाणि ताणि हिंसाफलाणि जीवस्स जाणाहि ||७९९ ।। गा० - मारनेवाला इसी जन्म में वध, बन्ध, भारण, धनहरण, अनेक यातनाएँ, बैर, देश निष्कासन तथा क्रोध में आकर ब्राह्मण आदिकी हत्या करनेपर जातिबहिष्कारका दण्ड पाता है ।।७९५|| गा० – क्रोधी मनुष्य दूसरे को मारकर समय आनेपर स्वयं भी मर जाता है | अतः मरनेवाले और मारनेवालेमें कालके सिवाय अन्य भेद नहीं है । पहले वह जिसे मारता है वह मरता है और पीछे स्वयं भी मरता है || ७९६ || गा० - हिंसक परलोक अर्थात् जन्मान्तरमें अल्पायु, रोगी, कुरूप, विकलेन्द्रिय, दुर्बल, मूर्ख, बुरेरूप, बुरेरस और दुर्गन्धयुक्त होता है ||७९७|| गा० - जो एक भी जीवको मारता है वह करोड़ों जन्मोंमें परवश होकर अनेक प्रकारसे मारा जाकर मरता है || ७९८ || १. वधं मारणं, बंधं बन्धनं, रोधं उत्कटादिकं, रोधनं धनहरणं रिक्थोद्दालनं यातनाश्च कदर्थनानि वैरं-आ० मु० 1 २. 'क्रुद्धो परं वधित्ता' क्रुद्धः सन् परमन्यं बधित्वा स्वयमपि गच्छता कालेन म्रियते हतघातकयोर्नास्ति विशेषः -आ० मु० । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४८९ 'जावदियाई' यावन्ति । 'दुक्खाई' दुःखानि । 'हृति' भवन्ति । 'चदुग्गदिगवाई' गतिचतुष्टयं गतानि । 'सव्वाणि ताणि' हिंसा फलाणि' सर्वाणि तानि हिंसाफलानि । 'जोवस्स जाणाहि' जीवस्येति जानीहि ||७९९|| का हिंसा नाम यस्या इमे दोषा निरूप्यन्ते इत्याचष्टे हिंसादो अविरमणं वहपरिणामो य होइ हिंसा हु । तम्हा पमत्त जोगो पाणव्ववरोवओ णिच्चं ॥८०० ॥ 'हिंसादो अविरमणं' हिंसातोऽविरतिहिंसेति सम्बन्धनीयं । प्राणान् प्राणिनो' न व्यपरोपयामीति संकल्पाकरणं हिंसा इत्यर्थः । 'वधपरिणामो वा' हन्मीति एवं परिणामो वा हिंसा । 'तम्हा' तस्मात् । 'पमत्तयोगो' प्रमत्तता सम्बन्धः । पाणव्ववरोवओ प्राणानपनयति । 'णिन्च' नित्यं । विकथा, कषाय इत्येवमादयः पञ्चदशपरिणामा आत्मनो भावप्राणानां परस्य च द्रव्यभावप्राणानां वियोजका इति हिंसेत्युच्यते । तथा चोक्तम् रतो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पयुंजदि पओगं । . हिंसा वि तत्थ जायदि तम्हा सो हिंसगो होइ ॥ [ ] रक्तो द्विष्टो मूढो वा सन् यं प्रयोगं प्रारभते तस्मिन्हिसा जायते । न प्राणिनः प्राणानां वियोजनमात्रेण । आत्मनि रागादीनामनुत्पादकः सोऽभिधीयते अहिंसक इति । यस्माद्रागाद्युत्पत्तिरेव हिँसा । न हि जीवान्तरगतदेशतया अन्यतमप्राणवियोगापेक्षा हिंसा, तदभावकृता वा अहिंसा, किन्तु आत्मैव हिंसा आत्मा चैव अहिंसा । प्रमादपरिणत आत्मैव हिंसा अप्रमत्त एव च अहिंसा । उक्तं च- अत्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समये य ! जो होदि अप्पमत्त अहिंसगो हिंसगो इदरी ॥ 1 गा०—इस लोकमें चारों गतियों में जितने दुःख होते है वे सब उस जीवकी हिंसाके फल जानो ॥७२९|| जिसके ये दोष कहे हैं वह हिंसा किसे कहते हैं, यह बतलाते हैं गा० - टी० – हिंसा से विरत न होना हिंसा है । अर्थात् 'मैं प्राणीके प्राणोंका घात नहीं करूँगा' ऐसा संकल्प न करना हिंसा है । अथवा 'मैं मारूं' ऐसा परिणाम हिंसा है । इसलिए प्रमादीपना नित्य प्राणोंका घातक है । अर्थात् विकथा कषाय इत्यादि पन्द्रह प्रमादरूप परिणाम अपने भाव प्राणोंके और दूसरेके द्रव्यप्राण तथा भावप्राणोंके घातक होनेसे हिंसा कहे जाते हैं । कहा भी है रागी, द्वेषी और मोही होकर जो कार्य करता है उसमें हिंसा होती है । प्राणियोंके प्राणोंका घात हो जाने मात्रसे हिंसा नहीं होती । जो अपने रागादि भावोंको नहीं करता, उसे अहिंसक कहते हैं, क्योंकि रागादिकी उत्पत्ति ही हिंसा है । अन्य जीवके किसी प्राणके घातकी अपेक्षा हिंसा और उसका घात न होना अहिंसा नहीं है । किन्तु आत्मा ही हिंसा और आत्मा ही अहिंसा है । प्रमादभावसे युक्त आत्मा ही हिंसा है और अप्रमादी आत्मा ही अहिंसा है । कहा है निश्चयसे आगममें आत्माको ही अहिंसा और आत्माको ही हिंसा कहा है। जो अप्रमादी आत्मा है वह अहिंसक है और जो प्रमादभावसे युक्त है वह हिंसा है ! १. नो व्यपरोपयामीति संकल्पक-आ० मु० । ६२ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० भगवती आराधना जीवपरिणामायत्तो बन्धो जीवो मृतिमुपैतु नोपेयादा। तथा चाभाणि 'अज्झवसिदेण बंधो सत्तो दु मरेज्ज णो मरिज्जेत्थ । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥ [-समय० २६२ ] जोवास्तदीयानि शरीराणि शरीरग्रहणस्थानं योनिसंज्ञितं यो च वरोवगो वेत्ति तत्सम्भवकालं तत्पीडापरिहारेच्छुरशठस्तपःक्रियायां लोभसत्काराद्यनपेक्ष्य प्रवृत्तो भवत्यहिंसकः । उक्तं च-- णाणी कम्मस्स खयत्थमुट्ठिदो णोठ्ठिदो य हिंसाए। अददि असढो हि यत्थं अप्पमत्तो अवधगो सो॥ [ ] शुभपरिणामसमन्वितस्याप्यात्मनः स्वशरीरनिमित्तान्यप्राणिप्राणवियोगमात्रेण बन्धः स्यान्न कस्यचिन्मुक्तिः स्यात् । योगिनामपि वायुकायिकवधनिमित्तबन्धसद्भावात् । अभाणि च जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरंगवत्थुजोगेण।। पत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवघहेदु ॥ [ ] तस्मान्निश्चयनयाश्रये ण प्राण्यन्तरप्राणवियोगापेक्षा हिंसा ॥८००॥ हिंसागतक्रियाभेदान्निरूपयति पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादाए । एदे पंचपओगा किरियाओ होंति हिंसाओ ।।८०१।। जीव मरे या न मरे, जीवके परिणामोंके अधीन बन्ध होता है कहा है जीव मरे या न मरे हिंसायुक्त परिणामसे बन्ध होता है। निश्चयनयसे यह जीवके बन्धका सार है। जीव, उनके शरीर, शरीर ग्रहण करनेके स्थान जिसे योनि कहते हैं, उनका उत्पत्तिकाल, इन सबको जो जानता है और उनकी पीडाको दूर करना चाहता है तथा लोभ सन्मान आदिको अपेक्षा न करके मायाचार रहित तपमें लीन है वह अहिंसक है । कहा है ज्ञानी कर्मके क्षयके लिए उद्यत होता है, हिंसाके लिए उद्यत नहीं होता। वह मायाचारसे रहित होता है। अतः अप्रमत्त होनेसे वह अहिंसक है। शुभपरिणामसे युक्त आत्माके भी यदि अपने शरीरके निमित्तसे अन्य प्राणियोंके प्राणोंका घात हो जानेमात्रसे बन्ध हो तो किसी मुक्ति ही न हो। क्योंकि योगियोंके भी वायुकायिक जीवोंके घातके निमित्तसे बन्धका प्रसंग आता है वे भी श्वास लेते हैं और उससे वायुकायिक जीवोंका घात होता है । कहा है यदि बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धसे शुद्धपरिणामवाले जीवके भी बन्ध होता हो तो कोई अहिंसक हो ही नहीं सकता, क्योंकि शुद्धपरिणामीके श्वाससे वायुकायिक जीवोंका बध होता है । इसलिए निश्चयनयकी दृष्टिसे दूसरे प्राणियोंके प्राणोंके घातकी अपेक्षामात्रसे हिंसा नहीं होती ।।८००॥ हिंसा सम्बन्धी क्रियाओंके भेदोंका कथन करते हैं१. अज्झवसिदो य बद्धो-आ० मु०। २. रसकृत्तपः-आ० मु० । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'पादोसियाधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादाए' पादोसिय शब्देनेष्टदारवित्तहरणादिनिमित्तः कोपः प्रटेप इत्युच्यते । प्रद्वेष एव प्राद्वेषिको यथा विनय एव वैनयिकमिति । हिंसाया उपकरणमधिकरणमित्युच्यते । हिंसोपकरणादानक्रिया आधिकरणिकी । दुष्टस्य सतः 'कायेन वा चलनक्रिया कायिकी । परितापो दुःखं दुःखोत्पत्तिनिमित्ता क्रिया पारितापिकी। आयुरिन्द्रियबलप्राणानां वियोगकारिणी प्राणातिपातिकी । 'एदे पंच पओगा' एते पञ्च प्रयोगाः । "हिंसाकिरिआओ' हिंसासम्बन्धिन्यः क्रियाः ॥८०१॥ तिहिं चदुहिं पंचहिं वा कमेण हिंसा समप्पदि हु ताहिं । बंधो वि सिया सरिसो जइ सरिसो काइयपदोसो ।।८०२॥ 'तिहिं चहि पंचहि वा' त्रिभिर्मनोवाक्कायैः, चतुभिः क्रोधमानमायालोभः, पञ्चभिः स्पर्शनादिभिरिन्द्रियैर्वा । 'कमेण हिंसा समप्पदि खु' क्रमेण हिंसा समाप्तिमुपैति । ताभिर्मनसा प्रद्वषो वचसा द्विष्टोऽस्मीति वचनं वाग्द्वपः । कायेन मुखवैवादिकरणं कायद्वषः । मनसा हिंसोपकरणादानं, वाचा शस्त्रं उपगृहामीति हस्तादिताडनं इति अधिकरणमपि त्रिविधं । मनसा उत्तिष्ठामीति चिन्ता कायक्रिया। वचसा उत्तिष्ठामि इति, हन्तुं ताडयितमिति उक्तिः । कायेन चलनं कायिकी। मनसा दुःखमुत्पादयामीति चिन्ता, दुःखं भवतः करोमि इति उक्तिर्वाचा पारितापिकी क्रिया । हस्तादिताडनेन दुःखोत्पादनं कायेन पारितापिकी क्रिया । प्राणान्वियोजयामीति चिन्ता मनसा प्राणातिपात:, हन्मीति वचः वाक्प्राणातिपातः । कायव्यापारः कायिकप्राणातिपातः क्रोधनिमित्ता कस्मेश्चिदपीति, माननिमित्ता. मायानिमित्ता, लोभनिमित्ता, क्रोधादिना शस्त्रग्रहण गा०-'पादोसिय' शब्दसे इष्ट स्त्री, धन हरने आदिके निमित्तसे होनेवाला कोप प्रद्वेष कहलाता है। प्रद्वेष ही प्राद्वेषिक है जैसे विनय ही वैनयिक है। हिंसाके उपकरणको अधिकरण कहते हैं। हिंसाके उपकरणोंका लेन-देन अधिकरणिकी क्रिया है। दुष्टतापूर्वक हलन-चलन कायिकी क्रिया है। परितापका अर्थ दःख है। द:खकी उत्पत्तिमें निमित्त क्रिया पारितापिकी है। आयु इन्द्रिय और बल प्राणोंका वियोग करनेवाली क्रिया प्राणातिपातिकी है। पाँच प्रकारकी प्रयोग हिंसासे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाएँ हैं ।।८०१॥ गा०-ट्रो०-मन वचन काय इन तीनसे, क्रोध मान माया लोभ इन चारसे और स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियोंसे क्रमसे हिंसा होती है। मनसे द्वष करना, वचनसे मैं द्वषयुक्त हूँ ऐसा कहना वचनद्वष है। शरीरसे मुखको विकृत आदि करना कायद्वष है। मनसे हिंसाके उपकरण स्वीकार करना, वचनसे मैं शस्त्र ग्रहण करता हूँ ऐसा कहना, कायसे हाथ आदि भांजना ये अधिकरणके तीन भेद हैं। मनसे विचारना 'मैं मारनेके लिए उठू' वचनसे कहना मैं मारनेके लिए उठता हूँ। और कायसे हलन-चलन ये तीन कायिकी क्रिया है। मनमें चिन्ता करना 'मैं दुःख दूं' यह मानसिक पारितापिकी क्रिया है। आपको दुःख दूं ऐसा कहना वाचनिक पारितापिकी क्रिया है । हाथ आदिके द्वारा ताड़न करनेसे दुःख देना कायिक पारितापिकी क्रिया है । मैं प्राणोंका वियोग करूँ ऐसा चिन्तन करना मानसिक प्राणातिपात है । मैं घात करता हूँ ऐसा कहना वाचनिक प्राणातिपात है । शरीरसे व्यापार करना कायिक प्राणातिपात है। यह किसीमें क्रोधके निमित्तसे, किसीमें मानके निमित्तसे, किसीमें मायाके निमित्तसे और किसीमें लोभके निमित्तसे होता है । क्रोध आदि १. काये भवा चा-आ० । २. स्त्रं नोप-अ०। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ भगवती आराधना क्रोधादिनिमित्तः कायपरिस्पन्दः । क्रोधादिनिमित्तपरपरितापकरणं, प्राणातिपातो वा क्रोधादिना भवति । स्पर्शनादीन्द्रियनिमित्तो वा प्रद्वेषः, इन्द्रियसुखार्थ वा फलपल्लवासूनादिछेदननिमित्तसाधनोपादानं, तत्सुखार्थमेव विषयप्रत्यासत्तिमभिप्रेत्य यतः कायपरिस्पन्दः । परस्य वा गाढालिङ्गगननखक्षतादिना सन्तापकरणं, मांसाद्यर्थं वा प्राणिप्राणवियोजनमिति । किमेताभिहिंसाभिः संपाद्यः कर्मबन्धः समान उत न्यूनाधिकभावो बन्धस्येत्याशङ्कायामाचष्टे 'बंधोऽपि' कर्मबन्धोऽपि 'सिया सरिसो' स्यात्सदशः । कथं ? 'जदि सरिसो' यदि सदृशः । 'कायिकपदोसो' कायिकी क्रिया प्रद्वेषश्च यदि समः स्यात्कारणसामान्यात्कार्यस्यापि बन्धस्य सादृश्यं, अन्यथा न सदशता । तीव्रमध्यमंन्दरूपाः परिणामाः तीवं, मध्यं, मन्दं च बन्धमापादयन्ति इति भावः ॥८०२॥ अधिकरणभेदं निरूपयति वीसं पलिया पंचेत्थ मोदया चारि पंच दस पलिया। तिणि चदु पंच सत्तमोदय तेसि पि समो हवे बंधो ।। : वीस: पल तिणि मोदय पण्णरह पला तहेव चचारि । बारह पलिया पंच दु तेसि पि समो हवे बंधो ॥८०३।। जीवगदमजीवगदं समासदो होदि दुविहमधिकरणं । अठ्ठत्तरसयभेदं पढमं विदियं चदुब्भेदं ।।८०४।। के वशमें होकर शस्त्र ग्रहण करना क्रोधादि निमित्तसे होने वाला काय परिस्पन्द है । क्रोध आदिके निमित्तसे दूसरोंको दुःख देना अथवा प्राणोंका घात करना क्रोध आदिसे होता है । अथवा स्पर्शन आदि: इन्द्रियोंके निमित्तसे प्रद्वष होता है । इन्द्रिय सुखके लिए फल, पत्र, फूल आदि तोड़नेके लिए उसके साधन ग्रहण किये जाते हैं। इन्द्रिय सुखके लिए ही विषयोंको स्वीकार किया जाता है, शरीरसे हलन-चलन किया जाता है, गाढ़ आलिंगन तथा नख द्वारा नोचना आदिसे दूसरोंको संताप दिया जाता है । अथवा मांस आदिके लिये प्राणीके प्राणोंका घात किया जाता है। . इस प्रकार प्रादेषिकी क्रिया, आधिकरिणिकी क्रिया, कायिको क्रिया, पारितापिकी क्रिया और प्राणातिपातिकी क्रिया मन वचन काय, क्रोध मान माया लोभ और स्पर्शन रसन घ्राण, चक्षु श्रोत्रसे होती हैं। • शङ्का-इन क्रियाओंसे होने वाला कर्मबन्ध समान होता है या हीनाधिक होता है ? समाधान-यदि कायिकी क्रिया और प्रद्वष समान होता है तो समान कर्मबन्ध होता है। क्योंकि कारणमें समानता होनेसे कार्य बन्धमें भी समानता होती है, अन्यथा समानता नहीं होती। तीव्र मध्य या मन्दरूप परिणामोंसे तीव्र मध्य या मन्द बन्ध होता है ॥८०२॥ अधिकरणके भेद कहते हैं_ [गाथा ८०३ दो रूपोंमें मिलती है किन्तु उसका भाव स्पष्ट नहीं होता। पं. सदासुखजीने भी ऐसा ही लिखा है। अतः इनका अर्थ नहीं किया। किसी टीकाकारने भी इसकी व्याख्या नहीं की।] 1] १. आ० प्रति में दोनों गाथायें हैं नं० दोनों पर ९६ ही है। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ विजयोदया टोका 'जीवगदमजीवगदं इति' जीवगत इति जीवपर्याय उच्यते । न हि जीवद्रव्यत्वमात्रमेव हिंसायां उपकरणं भवति । किन्तु जीवस्य पर्यायः आस्रवस्य हिंसादेर्जीवपरिणामो युक्तोऽभ्यन्तरकारणं । अजीवगतः पर्यायः द्रव्यत्वाख्यः सदा सन्निहितकार्यः स्यात्कादाचित्कतां कथमिव सम्पादयति । पर्यायस्तु स्वकारणसान्निध्याकदाचिदेवेति । यदा स्वयं सन्ति सन्निहितसहकारिकारणास्तदैव स्वकार्य कुर्वन्ति नान्यदेति युक्ता कादाचित्कता कार्यस्येति भावः । 'समासदो दुविधमधिकरणं संक्षेपतो द्विविधं हिंसाधिकरणं 'अठुत्तरसयभेदं' अष्टोत्तरशतभेदं । 'पढम जीवगदमधिकरणं' प्रथमं जीवगतमधिकरणं । 'विदियं' द्वितीयं अजीवगतमधिकरणं 'चदुब्भेदं' चतुर्विकल्पं ॥८०४॥ प्रथमस्य भेदान्निरूपयति- . . संरंभसमारंभारंभं जोगेहिं तह कसाएहिं । कदकारिदाणुमोदेहिं तहा गुणिदा पढमभेदा ॥८०५।। 'सरंभसमारंभारंभजोहि तह कसाएहि' प्राणव्यपरोपणादी प्रमादवतः संरम्भः। साध्याया हिंसादिक्रियायाः साधनानां समाहारः समारम्भः । सञ्चितहिंसाधुपकरणस्य आद्यः प्रक्रम आरम्भः । योगशब्देन मनोवाक्कायव्यापारा उच्यन्ते । एतैः संरम्भसमारम्भारम्भयोगः । 'तधा' तथा 'कसाएहि कषायैः 'कदकारिदाणमोदेहि' कृतकारितानुमोदितः । 'तहा गुणिदा' तथा गुणिताः। 'पढमभेदा' जीवाधिकरणभेदाः । प्रयत्नपूर्वकत्वाच्चेतनावतो व्यापारस्यादौ संरंभस्य वचनं । अनुपाया साध्यसिद्धिर्न भवति प्रयत्नवतोऽपि ततः साधनसमाहरणं प्रयत्नादनन्तरमिति समारम्भो युक्तः । साध्यं पुनः उपसाधनसंहतौ सत्यां प्रक्रमते क्रियामिति आरम्भः गा०-टो०-अधिकरणके दो भेद हैं-जीवगत और अजीवगत । जीवगतका अर्थ है जीवपर्याय । केवल जीवद्रव्य हिंसामें सहायक नहीं होता किन्तु जीवको पर्याय होती है। हिंसा आदिसे युक्त जीवका परिणाम हिंसाका अभ्यन्तर कारण होता है। इसी तरह अजीवगतसे अजीवपर्याय लेना चाहिए; क्योंकि अजीवद्रव्य तो सदा रहनेसे सदा कार्यकारी रहता है अतः कार्य सदा होता रहेगा । किन्तु पर्याय तो अपने कारणोंके होने पर ही होती है अतः कदाचित् होती है। जब सहकारी कारण होते हैं तभी अपना कार्य करते हैं, अन्य कालमें नहीं करते । अतः कार्य सदा न होकर कदाचित् होता है। इस तरह संक्षेपसे अधिकरणके दो भेद हैं। उनमेंसे प्रथम जीवाधिकरणके एक सौ आठ भेद हैं और दूसरे अजीवाधिकरणके चार भेद हैं ।।८०५।। जीवाधिकरणके भेद कहते हैं गा०-टी०-प्राणोंके घात आदिमें प्रमाद युक्त व्यक्ति जो प्रयत्न करता है वह संरंभ है। साध्य हिंसा आदि क्रियाके साधनोंको एकत्र करना समारंभ है । हिंसा आदिके उपकरणोंका संचय हो जाने पर हिंसाका आरम्भ करना आरम्भ है। योग शब्दसे मन वचन और कायका व्यापार लिया गया है । इन संरंभ, समारम्भ, आरम्भको, योग, कषाय और कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करने पर जीवाधिकरणके भेद होते हैं। चेतन जीवका व्यापार प्रयत्नपूर्वक होता है इसलिए प्रथम संरम्भ कहा है। प्रयत्न करनेपर भी उपायोंके बिना कार्यसिद्धि नहीं होती, अतः संरम्भके पश्चात् समारम्भ कहा है । साधनोंके एकत्र होनेपर कार्य प्रारम्भ होता है। अतः समारम्भके पश्चात् आरम्भको रखा है । जीवके द्वारा Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ भगवती आराधना पश्चादुपन्यस्तः । स्वातन्त्र्यविशिष्टेन आत्मना यत् क्रियते तत कृतं । परस्य प्रयोगमपेक्ष्य सिद्धिमुपयाति यत्तत्कारितं । स्वयं न करोति न च कारयति, किन्त्वभ्युपैति यत्तदनुमननं अभ्युपगमः । तत्र संरंभस्तावदुच्यते क्रोधनिमित्तं स्वतन्त्रस्य हिंसाविषयः प्रयत्नावेशः क्रोधकृतकायसंरम्भः । मानकृतकायसंरम्भः, मायाकृतकायसंरम्भः, लोभकृतकायसंरम्भः । क्रोधकारितकायसंरम्भः, मानकारितकायसंरम्भः मायाकारितकायसंरम्भः, लोभकारितकायसंरम्भः । क्रोधानुमतकायसंरम्भः, मानानुमतकायसंरम्भः, मायानुमतकायसंरम्भः, लोभानुमतकायसंरम्भः । इति द्वादशधा संरम्भः । क्रोधकृतकायसमारम्भः, मानकृतकायसमारम्भः, मायाकृतकायसमारम्भः, लोभकृतकायसमारम्भः। क्रोधकारितकायसमारम्भः, मानकारितकायसमारम्भः । मायाकारितकायसमारम्भः, लोभकारितकायसमारम्भः । क्रोधानुमतकायसमारम्भः, मानानुमतकायसमारम्भः, मायानुमतकायसमारम्भः, लोभानुमत कायसमारम्भः इति द्वादशधा समारम्भः । क्रोधकृतकायारम्भः, मानकृतकायारम्भः, मायाकृतकायारम्भः, लोभकृतकायारम्भः। क्रोधकारितकायारम्भः मानकारितकायारम्भः, मायाकारितकायारम्भः, लोभकारितकायारम्भः। क्रोधानुमतकायारम्भः, मानानुमतकायारम्भः, मायानुमतकायारम्भः, लोभानुमतकायारम्भश्च । इत्येवं आरम्भोऽपि द्वादशधा । एवं संविदिताः कायारम्भाः षट्त्रिंशत् । एते सपिण्डिताः जीवाधिकरणास्रवभेदा अष्टोत्तरशतसंख्या भवन्ति ॥८०५॥ संरंभो संकप्पो परिदावकदो हवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ सव्ववयाणं विसुद्धाणं ।।८०६।। स्वतन्त्रता पूर्वक जो किया जाता है वह कृत है। जो दूसरेके द्वारा सिद्ध होता है वह कारित है। न स्वयं करता है न कराता है किन्तु जो करता है उसे स्वीकार करता है वह अनुमत है। इनमेंसे संरम्भके भेद कहते हैं क्रोधके निमित्तसे स्वतन्त्रता पूर्वक हिंसा विषयक प्रयत्न करना क्रोध कृत काय संरम्भ है । इसी तरह मान कृत काय संरम्भ, मायाकृत काय संरम्भ, लोभकृत काय संरम्भ, क्रोध कारित काय संरम्भ. मान कारित काय संरम्भ. माया कारित काय संरम्भ, लोभ कारित काय संरम्भ । क्रोधानुमत काय संरम्भ, मानानुमत काय संरम्भ, मायानुमत काय संरभ, लोभानुमत काय संरम्भ इस तरह बारह प्रकारका संरम्भ है । क्रोधकृत काय समारम्भ, मानकृत काय समारम्भ, मायाकृत काय समारम्भ, लोभ कृत काय समारम्भ । क्रोध कारित काय समारम्भ, मान कारित काय समारम्भ, माया कारित काय समारम्भ, लोभ कारित काय समारम्भ । क्रोधानुमत काय समारम्भ, मानानुमत काय समारम्भ, मायानुमत काय समारम्भ, लोभानुमत काय समारम्भ | इस तरह बारह प्रकारका समारम्भ है । क्रोधकृत काय आरम्भ, मानकृत काय आरम्भ, मायाकृत काय आरम्भ, लोभकृत काय आरम्भ, क्रोध कारित काय आरम्भ, मान कारित काय आरम्भ, माया कारित काय आरम्भ, लोभ कारित काय आरम्भ, क्रोधानुमत काय आरम्भ, मानानुमत काय आरम्भ, मायानुमत काय आरम्भ, लोभानुमत काय आरम्भ । इस प्रकार आरम्भ भी बारह प्रकारका है। ये मिलकर कायारम्भके छत्तीस भेद होते हैं। छत्तीस ही भेद वचन सम्बन्धी आरम्भके और छत्तीस ही भेद मन सम्बन्धी आरम्भके होते हैं। ये सब मिलकर जीवाधिकरण सम्बन्धी आस्रवके एक सौ आठ भेद होते हैं ।।८०५।। गा०-संकल्पको संरम्भ कहते हैं। संताप देनेको समारम्भ कहते हैं और आरम्भ सब Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४९५ आजीवाधिकरणस्य चतुरो भेदानाचष्टे णिक्खेवो णिव्वत्ति तहा य संजोयणा णिसग्गो य । कमसो चदु दुग दुग तिय भेदा होंति हु विदियस्स ।।८०७॥ "णिक्खेवो णिव्वत्ति तहा य संजोयणा णिसग्गो य' निक्षेपो निर्वर्तना संयोजना निसर्ग इति । 'कमसो' यथासंख्येन । 'चदु दुग दुग तिय भेदा' निक्षेपश्चतुःप्रकारः । निर्वर्तना द्विप्रकारा । संयोजना द्विप्रकारा । निसर्गस्त्रिविध इति सम्बध्यते ॥८०७।। निक्षेपस्य चतुरो विकल्पानाचष्टे सहसाणाभोगिय दुप्पमज्जिद अपच्चवेक्खणिक्खेवो । देहो व दुप्पउत्तो तहोवकरणं च णिव्वत्ति ॥८०८॥ 'सहसाणाभोगियदुप्पमज्जिद अप्पच्चवेक्खणिक्खेवो' सहसानिक्षेपाधिकरणं, अनाभोगनिक्षेपाधिकरणं, दुःप्रमष्टनिक्षेपाधिकरणं, अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं चेति । निक्षिप्यते इति निक्षेपः । उपकरणं पुस्तकादि, शरीरं, शरीरमलानि वा सहसा शीघ्र निक्षिप्यमाणानि भयात् कुतश्चित्कार्यान्तरकरणप्रयुक्तेन वा त्वरितेन षड्जीवनिकायवाधाधिकरणतां प्रतिपद्यन्ते । असत्यामपि त्वरायां जीवाः सन्ति न सन्तीति निरूपणामन्तरण निक्षिप्यमाणं तदेवोपकरणादिकं अनाभोगिनिक्षेपाधिकरणमुच्यते । दुष्प्रमुष्टमुपकरणादि निक्षिप्यमाणं दुष्प्रमुष्टनिक्षेपाधिकरणं स्थाप्यमानाधिकरणं वा दुष्प्रमृष्ट निक्षेपाधिकरणं । प्रमार्जनोत्तरकाले जीवाः सन्ति न सन्तीति अप्रत्यवेक्षितं यन्निक्षिप्यते तदप्रत्यवेक्षितनिक्षपाधिकरणं । निवर्तनाभेदमाचष्टे-'देहो य दुप्पजुत्तो' दुःप्रयुक्तं शरीरं हिंसोपकरणतया निर्वय॑ते इति निर्वर्तनाधिकरणं भवति । उपकरणानि च सच्छिद्राणि यानि जीवबाधा wwwwww विशुद्ध व्रतोंका घातक है ॥८०६|| . अजीवाधिकरणके चार भेदोंको कहते हैं गा०-अजीवाधिकरणके चार भेद हैं-निक्षेप, निर्वतना, संयोजना और निसर्ग। क्रमानुसार निक्षेपके चार भेद हैं। निर्वर्तनाके दो भेद हैं। संयोजनाके दो भेद है और निसर्गके तीन भेद हैं ।।८०७|| निक्षेपके चार भेद कहते हैं गा०-टी०-निक्षेपके चार भेद हैं--सहसानिक्षेपाधिकरण, अनाभोगनिक्षेपाधिकरण, दुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण और अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण। रखनेको निक्षेप कहते हैं। उपकरण, पुस्तक आदि, शरीर अथवा शरीरके मल भयसे अथवा किसी अन्य कारणान्तरसे सहसा शीघ्र रखनेसे त्यागनेसे छहकायके जीवोंकी बाधाके आधार हो जाते है । यह सहसानिक्षेपाधिकरण है। जल्दी नहीं होनेपर भी 'पृथ्वी आदिपर जन्तु हैं या नहीं' यह देखे विना ही उपकरण आदिको रखना अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है । उपकरण आदिको असावधानतासे या दुष्टतासे साफ करके रखना अथवा जिस स्थानपर उन्हें रखना है उस स्थानकी दुष्टतासे सफाई करना, जिससे जीवोंको कष्ट पहुंचे, दुष्प्रमृष्ट निक्षपाधिकरण है। स्थानकी सफाई करनेके पश्चात् वहीं जीव हैं या नहीं यह देखे विना उपकरणादि रखना अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण है। दुष्प्रयुक्त शरीर-शरीरकी असावधानतापूर्वक प्रवृत्ति हिंसाका कारण होती है उसे निर्वतनाधिकरण कहते हैं। छिद्रवाले Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो आराधना निमित्तानि निर्वय॑न्ते तान्यपि निर्वर्तनाधिकरणं । यस्मिन्सौवीरादिभाजने प्रविष्टा नियन्ते ॥८०८॥ संजोयणमुवकरणाणं च तहा पाणभोयणाणं च। दुदृणिसिट्ठा मणवचिकाया भेदा णिसग्गस्स ॥८०९।। 'संजोजणमुवकरणाणं' उपकरणानां पिच्छादीनां अन्योन्येन संयोजना। शीतस्पर्शस्य पुस्तकस्य कमण्डल्वादेर्वा आतपादितप्तेन पिच्छेन प्रमार्जनं इत्यादिकं । 'तहा' तथा । 'पाणभोजणाणं च' पानभोजनयोश्च पानं पानेन, पानं भोजनेन, भोजनं भोजनेन, भोजनं पानेनेत्येवमादिकं संयोजनं यस्य सम्मूर्छन सम्भवति सा हिंसाधिकरणत्वेनातोपात्ता न सर्वा । 'दुणिसिट्ठा मणवचिकाया' दुष्टप्रवृत्ता मनोवाक्कायप्रभेदा निसर्गशब्देनोच्यन्ते ॥८०९।। अहिंसारक्षणोपायमाचष्टे जं जीवणिकायवहेण विणा इंदियकयं सुहं पत्थि । तम्हि सुहे णिस्संगो तम्हा सो रक्खदि अहिंसा ॥१०॥ 'जं जीवणिकायवहेण' यस्माज्जीवनिकायघातं विना । 'इंदियसुह' इन्द्रियसुखं नास्ति । स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यादिसेवा विचित्रा जीवनिकायपीडाकारिणी आरम्भेण महतोपार्जनीयत्वात् । तस्मिन्निन्द्रियसुखे । णिसंगो यस्स पात्यहिंसां नेन्द्रियसुखार्थी । तस्मान्दिन्द्रियसुखादरं मा कृथा इत्युपदिशति सूरिः ॥८१०॥ उपकरण जो जीवोंको वाधा पहुंचाते हैं उनकी निर्वर्तना-रचना करना भी निर्वर्तनाधिकरण है। जैसे कांजी आदि रखनेके ऐसे सछिद्रपात्र बनाना जिसमें प्रविष्ट जीव मर जाते हैं। विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धिमें पूज्यपाद स्वामीने निर्वर्तनाधिकरणके दो भेद कहे हैं एक मूलगुणनिर्वर्तना, एक उत्तरगुण निर्वर्तना। शरीर वचन मन, उच्छ्वास निश्वासकी रचना मूलगुण निर्वर्तना है । लकड़ीके पट्टपर चित्रकर्म आदि रचना करना उत्तर गुणनिर्वर्तना है । इन क्रियाओंसे जीवोंको कष्ट पहुँचता है । चित्रकर्ममें छेदन-भेदनकी भावना उत्पन्न होती है ।।८०८।। संयोजनाधिकरण और निसर्गाधिकरणका स्वरूप कहते हैं गा०-टी०-पिच्छी आदि उपकरणोंको परस्परमें मिलाना। जैसे शीतस्पर्शवाली पुस्तक अथवा कमंडलु आदिको धूपसे तप्त पीछीसे साफ करना उपकरण संयोजना है। एक जलमें दूसरा जल मिलाना, एक भोजनमें दूसरा भोजन मिलाना अथवा भोजनमें पेय मिलाना आदि भक्तपान संयोजना है। यहाँ इतना विशेष जानना कि जिस पेय या भोजनमें सम्मूर्छन जीव होते हैं उसे ही हिंसाका अधिकरण स्वीकार किया है, सबको नहीं। दुष्टतापूर्वक मन वचन कायकी प्रवृत्तिको निसर्गाधिकरण कहते हैं ।।८०९|| अहिंसाकी रक्षाके उपाय कहते हैं गा०-टी०-यतः छहकायके जीवोंकी हिंसाके विना इन्द्रियजन्य सुख नहीं होता। विचित्र प्रकारके स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला आदिका सेवन जीवोंको पीड़ा करनेवाला होता है क्योंकि बहुत आरम्भसे उसकी प्राप्ति होती है। अतः जो इन्द्रियजन्य सुखमें आसक्त नहीं है वही अहिंसा की रक्षा करता है। जो इन्द्रिय सुखका अभिलाषी है वह नहीं रक्षा करता। अतः आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियसुखका आदर मत करो ॥८१०॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ विजयोदया टीका. हिंसा कषायैः प्रवर्त्यते, ततोऽहिंसामिच्छता एते परिहर्तव्या इत्युत्तरसूत्रार्थम् जीवो कसायबहुलो संतो जीवाण घायणं कुणइ । सो जीववह परिहरइ सया जो णिज्जियकसाओ ।।८११।। प्रमादो हिसायाः प्रवर्तकः स परित्याज्योऽहिंसावतार्थिना इति गाथार्थ: आदाणे णिक्खेवे वोसरणे ठाणगमणसयणेसु । सव्वत्थ अप्पमत्तो दयावरो होइ हु अहिंसो ।।८१२॥ काएसु णिरारंभे फासुगभोजिम्मि णाणरइयम्मि । मणवयणकायगुत्तिम्मि होइ सयला अहिंसा हु ।।८१३।। परित्यक्तारम्भे य प्रासुकभोजिनि ज्ञानभावनावहितमनसि गुप्तित्रयोपेते सम्पूर्णा भवत्यहिंसा इति सूत्रार्थः ।।८१३॥ आरंभे जीववहो अप्पासुगसेवणे य अणुमोदो। । आरंभादीसु मणो णाणरदीए विणा चरइ ।।८१४॥ पृथिव्यादिविषयो व्यापार आरम्भः । तस्मिन्सति तदाश्रयप्राण्युपद्रव इति जीववधो भवति । उद्गमादिदोषोपहतस्य आहारस्य भोजने जीवनिकायवधानुमोदो भवति । ज्ञानरतिमन्तरेण आरम्भे कषाये च मनः प्रवर्तते ।।८१४॥ तम्हा इहपरलोए दुक्खाणि सदा अणिच्छमाणेण । उवओगो कायन्वो जीवदयाए सदा मुणिणो ॥८१५।। हिंसा कषायसे होती है। अतः अहिंसाके अभिलाषीको कषाय त्यागना चाहिए, यह कहते हैं गा०-जो जीव कषायकी अधिकता रखता है वह जीवोंका घात करता है। और जो कषायोंको जीत लेता है वह सदा जीवोंकी हिंसासे दूर रहता है। अतः प्रमाद हिंसाका कारण है । अहिंसाव्रतके अभिलाषीको प्रमादको त्यागना चाहिए ॥८११॥ गा०-उपकरणोंको ग्रहण करनेमें, रखने में, उठने बैठने, चलने और शयनमें जो दयालु सर्वत्र यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह अहिंसक होता है ।।८१२।। ___ गा० . जो आरम्भका त्यागी है, प्रासुक भोजन करता है, ज्ञानभावनामें मनको लगाता है और तीन गुप्तियोंका धारी है वही सम्पूर्ण अहिंसाका पालक है यह उक्त गाथासूत्रका अर्थ है ॥८१३।। गा०-टी०-पृथिवी आदिके विषयमें जो खोदना आदि व्यापार किया जाता है उसे आरम्भ कहते हैं । उसके करने पर पृथिवी आदिमें रहने वाले जीवोंका घात होता है। उद्गम आदि दोषोंसे युक्त आहार ग्रहण करने पर जीव समूहके वधकी अनुमोदना होती है, ज्ञानमें लीनता न होने पर आरम्भ और कषायमें मनकी प्रवृत्ति होती है ।।८१४|| Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ भगवतो आराधना तम्हा तस्मात् । आरम्भो भवता त्याज्यः, प्रासुकभोजनं भोज्यं, ज्ञाने अरतिश्च अपाकार्या इति क्षपकशिक्षा । अहिंसा जीवदया तस्याः फलमुपदर्शयति-तम्हा इत्यनया उभयलोकगतदुःखपरिहारमिच्छता दयाभावना कार्या इति कथयति क्षपकस्य ।।८१५॥ स्वल्पकालवर्त्यपि अहिंसाव्रतं करोत्यात्मनो महान्तमुपकारमित्याख्यानं कथयति पाणो वि पाडिहेरं पत्तो छूढो वि सुंसुमारहदे । एगेण एक्कदिवसकदेण: हिंसावदगुणेण ||८१६॥ 'पाणो वि' चण्डालोऽपि 'पाडिहेरं' प्रातिहायं 'पत्तो' प्राप्तः । 'सुंसुमारहदे छूढो' शिशुमाराकुले न्हदे निक्षिप्तोऽपि । 'एक्केण हिसावदगुणेण' एकेनैव अहिंसावताख्येन गुणेन । 'अप्पकालकदेन' अल्पकालकृतेन । अहिंसा ॥८१६॥ द्वितीयव्रतनिरूपणाय उत्तरप्रबन्धः परिहर असंतवयणं सव्वं पि चदुविधं पयरेण । धत्तं पि संजमित्तो भासादोसेण लिप्पदि हु ।।८१७॥ 'परिहर' परित्यज । 'असंतवयणं' असद् अशोभनं वचनं । यत्कर्मबन्धनिमित्तं वचस्तदशोभनं । तथा चोक्तं-'असदभिधानमन्तं [त. सू०७] । ननु वचनमात्मपरिणामो न भवति । द्रव्यान्तरं हि तत्पुद्गलाख्यं, आत्मपरिणामो हि परित्याज्यो यो बन्धस्य बन्धस्थितेर्वा निमित्तभूतो मिथ्यात्वमसंयमः कषायो योग इत्येवंप्रकारः। तस्मादसद्वचनपरिहारोपदेशोऽनुपयोगी कस्मात्कृत इति अत्रोच्यते- असंयमो हि त्रिप्रकारः कृतः गा०-अतः इस लोक और परलोकमें दुःखको नहीं चाहने वाले मुनिजनोंको सदा जीव दयामें उपयोग लगाना चाहिए और उसके लिए आरम्भ त्यागना चाहिए, प्रासुक भोजन करना चाहिए और ज्ञानमें मन लगाना चाहिए। आचार्य क्षपकको यह उपदेश करते हैं ।।८१५।। थोड़े समयके लिए पाला गया भी अहिंसा व्रत आत्माका महान् उपकार करता है यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं - गा०—यमपाल चण्डाल भी एक चतुर्दशीके दिन किसोको फाँसी न देनेके एक अहिंसावतके गुणसे मगरमच्छोंसे भरे तालाबमें फेक दिए जाने पर प्रातिहार्यको प्राप्त हुआ-देवोंने उसकी पूजा की ॥८१६॥ अहिंसाव्रतका कथन समाप्त हुआ। . दूसरे सत्यव्रतका कथन आगे करते हैं गा०-टी०-असत् अर्थात् अशोभन वचन मत बोलो। जो वचन कर्मबन्धमें निमित्त होता हैं उसे अशोभन कहते हैं । कहा है-असत् वचन बोलना असत्य है। . शंका-वचन आत्माका परिणाम नहीं हैं, पुद्गल नामक अन्य द्रव्य है। कर्मबन्ध या कर्म स्थितिके बन्धमें निमित्त मिथ्यात्व, असंयम, कषाय योग, इस प्रकारका आत्मपरिणाम त्यागने • योग्य है । अतः असत् वचनके त्यागका उपदेश उपयोगी नहीं है उसे क्यों कहा? Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ४९९ कारितोऽनुमतश्च । इममस्मिन्नसंयमे प्रवर्तयामि अनेन वचनेन प्रवृत्तं वानुजानामि । इत्यभिसन्धिमन्तरेण' तस्य वचनस्याप्रवत्तेस्तद्वचनकारणभूतोऽभिसन्धिरात्मपरिणामो भवति कर्मनिमित्तमिति परिहार्यस्तस्य परिहारे तत्कायं वचनमपि परिहृतं भवति । न ह्यसति कारणे कार्यप्रतिपत्तिरित्यसद्वचनपरिहारोऽनेन क्रमेणोपन्यस्त इति । स्वयमसद्वचनैकदेशपरिहारेऽप्यपहृतमसद्वचनं भवति इत्याशङ्कां परिहरति सर्वमिति चतुर्विधमिति तदीयभेदोपन्यासः । 'पयत्तेणेति' तत्र अप्रमत्ततामुपदिशति । 'धत्तं पि संजमंतो' नितरामपि संयममाचरन्नपि । 'भासादोसेण' भाषावचनं तन्निमित्तत्वाद्वाग्योगाख्य आत्मपरिणामो भाषाशब्देनोच्यते । भाषादुष्टः भाषादोषः । वाग्योगेन दुष्टेन निमित्तेन जातं यत्कर्म तेन । “लिप्पदि' लिप्यत एव संबध्यत एव आत्मा । एतेन कर्मबन्धनिमित्ततादोषकथनेन असद्वचनपरिहारे दाढयं करोति क्षपकस्य ॥८१७॥ प्रतिज्ञातं चातुर्विध्यं व्याचष्टे पढमं असंतवयणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो । पत्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जधेवमादीयं ॥८१८।। 'पढमं असंतवयणं' चतुषं आद्यमसद्वचनं 'संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो' सतोऽर्थस्य प्रतिषेधः । सतां सतो न. वचनं असद्वचनमित्येकोऽर्थः । तस्योदाहरणमाह-'पत्थि परस्स अकाले मच्चुत्ति' एवमादिकं नास्त्यकाले मनुष्यस्य मृतिरिति एवमादिकं वचनं । आयुषः स्थितिकाल : काल इत्युच्यते । तस्मात्कालादन्यः कालोऽकालः । तस्मिन्नकाले । ननु च भोगभूमिनराणामनपवर्त्यमायुरतः अकाले मरणं नास्त्येव अतो युक्तमुच्यते णत्थि णरस्स समाधान-असंयमके कृत कारित और अनुमतके भेदसे तीन प्रकार हैं। इस पुरुषको इस असंयममें प्रवत्त करता है अथवा असंयममें प्रवत्त पुरुषकी इस वचनके द्वारा अनुमोदना करता है। इस अभिप्रायके बिना उस प्रकारका वचन नहीं बोला जाता । अतः उस प्रकारके वचनमें कारणभूत आत्मपरिणाम कर्मबन्धमें निमित्त होता है अतः त्यागने योग्य है। उस परिणामके त्यागने पर उसका कार्य वचन भी त्यागा जाता है, क्योंकि कारणके अभावमें कार्य नहीं होता। इसलिए असत् वचनका त्याग कहा है । यदि कोई असत् वचनके एक देशका त्याग करे तब भी असत् वचनका त्याग हो जाता है क्या ? ऐसी आशंकाका परिहार करते हैं कि चारों ही प्रकारके असत्य वचनका त्याग प्रमाद छोड़कर करना चाहिए। क्योंकि अतिशय युक्त संयमका आचरण करता हुआ भी भाषादोषसे कर्मसे लिप्त होता है । यहाँ निमित्त होनेसे भाषा शब्दसे वचन योग रूप आत्मपरिणाम कहा है । दुष्ट भाषाको भाषा दोष कहते हैं। अतः दुष्ट वचनयोगके निमित्तसे जो कर्म बन्ध होता है उससे आत्मा लिप्त होता है। इससे असत्य वचनको कर्मबन्धमें निमित्त होनेका दोष बंतलाकर उसके त्यागमें क्षपकको दृढ़ करते हैं ।।८१७।। __ असत्य वचनके चार भेद कहते हैं गा०-टो०-चार भेदोंमें सद्भूत अर्थका निषेध करना प्रथम असत्य वचन है। जैसे मनुष्यकी अकालमें मृत्यु नहीं होती इत्यादि वचन। आयुके स्थिति कालको काल कहते हैं। उस कालसे अन्य कालको अकाल कहते हैं । उसमें मरण नहीं होता। ऐसा कहना सद्भूतका निषेध रूप . असत्यं वचन है। शङ्का-भोगभूमिके मनुष्योंकी आयु अनपवर्त्य होती है अतः मनुष्योंका अकालमें मरण १. ण वास्य-आ० मु०। २. सतां सदेतत् वचनं सद्वचनमि-आ० । सतां सतो नमस-अ० । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० भगवती आराधनां अकाले मच्चुत्ति । नरशब्दस्य सामान्यवाचित्वात्सर्वन रविषयः अकालमरणाभावोऽयुक्तः केषुचित्कर्मभूमिजेषु स्य सतो निषेधादित्यभिप्रायः ।।८१८॥ अहवा सयबुद्धीए पडिसेधे खेतकालभावेहिं । अविचारिय णत्थि इह घडोत्ति तह एवमादीयं ।।८१९।। 'अथवा विवादबुद्धीए पडिसेधे खेत्तकालभावहिं अविचारिय भावमिति शेषः' । स्वबुद्धया क्षेत्रकालभावैरभावमविचार्यमाणं अत्र नास्ति इदानीं न विद्यते, शक्लःकृष्णो न वेत्यनिरूप्य घटस्य भाव इत्थं अनेनप्रकारेण 'णत्थि घडो जह एवमादिगं नास्ति घट इत्येवमादिकं । सतो घटस्य अविशेषेण असंतवचनं असद्वचनमित्युदाहरणान्तरमिदं ॥८१९।। जं असभूदुब्भावणमेदं विदियं असंतवयणं तु । अस्थि सुराणमकाले मच्चुत्ति जहेवमादीयं ।।८२०।। _ 'जं असभूदुब्भावणमेदं विदियं असंतवयणं तु' यदसदुद्भावनं द्वितीयं असद्वचस्तस्योदाहरणमुत्तरं । 'अस्थि सुराणमकाले मच्चुत्ति जहेवमादीयं' सुराणामकाले मृत्युरस्तीत्येवमादिकं यथा असदेव अकालमरणमनेनोच्यते इत्यसद्वचनम् ।।८२०।। नहीं होता अतः उक्त कथन उचित ही है। समाधान-गाथामें आगत 'नर' शब्द सामान्यवाची होनेसे सभी मनुष्योंके अकालमरणका अभाव कहना अयुक्त है। किन्हीं कर्मभूमिज मनुष्योंमें अकाल मरण होता है अत: सत्का निषेध करनेसे उक्त कथनको असत्य कहा है ।।८१८|| गा०-अथवा क्षेत्रकालभावसे अभावका विचार न करके -घट यहाँ नहीं है, इस समय नहीं है, या सफेद अथवा कृष्णरूप नहीं है, ऐसा न विचारकर अपनी बुद्धिसे घटका सर्वथा अभाव कहना असत्य वचन है ।।८१९|| विशेषार्थ-किसी वस्तुका निषेध या विधि द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षासे होती है। न तो वस्तुका सर्वथा निषेध होता है और न सर्वथा विधि होती है। प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा अस्तिरूप है और परद्रव्य क्षेत्रकालभावकी अपेक्षा अस्तिरूप है जैसे घट अपने द्रव्यकी अपेक्षा अस्तिरूप है और अन्य घटोंकी अपेक्षा नास्तिरूप है। तथा जिस क्षेत्रमें वह घट है उस क्षेत्रमें अस्तिरूप है, अन्य घटोंके क्षेत्र में नास्तिरूप है। जिस कालमें है उस कालमें अस्तिरूप है, अन्यकालोंमें नास्तिरूप है। जिस भावमें स्थित है उस भावसे अस्तिरूप है अन्यभावकी अपेक्षा नास्तिरूप है। ऐसे द्रव्य क्षेत्र काल भावका विचार किये विना यह कह देना कि घट नहीं है यह असत्यवचनका दूसरा उदाहरण है ।।८१९|| गा०-जो नहीं है उसे 'है' कहना दूसरा असत्यवचन है। जैसे देवोंके अकालमें मरण होता है ऐसा कहना। किन्तु देवोंमें अकालमरण नहीं होता। अतः यह असत्का उद्भावन करनेसे असत्यवचन है ।।८२०।। १. शुक्ल कृष्णो भवत्यनिरूप्य-आ० । ___ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५०१ अहवा जं उब्भावेदि असंतं खेतकालभावहिं । अविचारिय अस्थि इह घडोत्ति जह एवमादीयं ।।८२१।। अथवा 'जं उम्भावेदि' यद्वचनं उद्भावयति । असन्तं घटं। कथमसन्तं ? खेत्तकालभावेहि क्षेत्रान्तरसम्बन्धित्वेन (अ) सन्तं इहत्यं घटं कालान्तरसम्बन्धन अतीते अनागते वा असन्भावान्तरसम्बन्धित्वेन कृष्णत्वादिनाऽसन्तं । 'अविचारिय' अविचार्य इत्थं सत् इत्थमसत इति अस्ति धट इत्येवमादिकं सर्वथास्तित्वमसद्भावयतीति असद्वचनं ।।८२१॥ तदियं असंतवयणं संतं जं कुणदि अण्णजादीगं । अविचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जहेवमादीयं ॥८२२॥ 'तदीयं असंतवयणं' तृतीयमसद्वचनं । 'संतं जं कुणदि अण्णजादीगं' सद्यत्करोति अन्यजातीयं । 'अविचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जहेवमादीगा'। अश्वमित्येवमादिकं । सतो बलीवईत्वात अश्वत्वं असत्तस्य वचनं ॥८२२॥ चतुर्थमसदचनमाचष्टे जं वा गरहिदवयणं जं वा सावज्जमंजुदं वयणं । जं वा अप्पियवयणं असलवयणं चउत्थं च ।।८२३॥ 'जं वा गरहिदवयणं' यद्वा गहितं वचनं । 'जं वा सावज्जसंजुदं वयणं' यद्वा सावद्यसंयुतं वचनं । 'जं वा अप्पियवयणं' यद्वा अप्रियवचनं । 'तत् चउत्थं चतुर्थ असंतवयणं असद्वचनं ॥८२३॥ तेषु वचनेषु गर्हितवचनं व्याचष्टे गा०--अथवा जो वचन क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा असत् घटका विचार न करके 'घट है' ऐसा कहता है वह असत्यवचन है ।।८२१।। विशेषार्थ-यह पहले कहा है कि कोई वस्तु न सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है । जो स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा सत् है वही पर द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा असत् है। जैसे जो घट इस क्षेत्रकी अपेक्षा सत् है वही अन्य क्षेत्रकी अपेक्षा असत् है। जो इस कालकी अपेक्षा सत् है वही अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा असत् है, जो स्वभावकी अपेक्षा सत् है वही भावान्तरकी अपेक्षा असत् है। अतः घट इस रूपसे सत् है और इस रूपसे असत् है ऐसा विचार न करके 'घट है' इस तरह घटको सर्वथा सत् कहना असत्का उद्भावन होनेसे असत्य वचन है ।।८२१।। गा०-एक जातिकी वस्तुको जन्य जातिकी कहना तीसरा असत्य वचन है। जैसे विना विचारे बैलको घोड़ा कहना ॥८२२।। . चतुर्थ असत्य वचनको कहते हैं गा०-जो गहित वचन है, सावद्ययुक्त वचन है, अप्रिय वचन है वह चतुर्थ असत्य वचन है ॥८२३॥ ___ उनमेंसे गहित वचनको कहते हैं Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ भंगवती आराधना कक्कस्सवयणं णिठुरवयणं पेसुण्णहासवयणं च । जं किंचि विप्पलावं गरहिदवयणं समासेण ।।८२४।। 'कक्कसवयणं' कर्कशवचनं नाम सगर्ववचनमिति केचिद्वदन्त्यन्ये असत्यवचनमिति । "णिठ्ठरवयणं' निष्ठुरवचनं । 'पेसुण्णहासवयणं च'परदोषसूचनपरं वचनं पैशन्यवचनं हासावहं वचनं । 'जं किंचि विप्पलावं' पत्किचित्प्रलपनं च मुखरतया । 'गरहिदवयणं' गहिंतवचनं । 'समासेण' संक्षेपेण ।।८२४।। सावधवचनं निरूपयति जत्तो पाणवधादी दोसा जायंति सावज्जवयणं च । अविचारित्ता थेणं थेणत्ति जहेवमादीयं ।।२५।। 'जत्तो पाणवधादी दोसा जायंतीति' यस्माद्वचनाद्धेतोः प्राणवधादयो दोषा जायन्ते । 'सावज्जवयणं तं' सावधं वचनं पृथिवीं खन', महिषी वोहक (?) पयसा, प्रसूनानि चिनु । इत्येवमादिकानि 'अविचारित्ता' अविचार्य किमेवं वक्तु युक्तं न वेति । अथवा दोषोऽनेन वचसा न वेति अपरीक्ष्य चौरं चौरोऽयमिति कथनं ।।८२५॥ परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च जं भयं कुणइ । उत्तासणं च हीलणमप्पियवयणं समासेण ।।८२६॥ हासभयलोहकोहप्पदोसादीहिं तु मे पयत्तण। एवं असंतवयणं परिहरिदव्वं विसेसेण ।।८२७।। 'हासभय' हास्येन, भयेन, लोभन, क्रोधेन, प्रदोषेणेत्येवमादिना कारणेन । 'एवं असंतवयणं' एतदसद्वचनं । 'तुम' त्वया । 'पत्तेण' प्रयत्नेन । 'परिहरिदव्वं' परिहर्तव्यं । 'विसेसेण' विशेषेण ।।८२७।। एवमसद्विवादं परिहार्यमुपदर्य सत्यवचनलक्षणमुक्तासद्वचनविलक्षणतया दर्शयति गा०-कर्कश वचन अर्थात् घमण्डयुक्त वचन, निष्ठुर वचन, दूसरेके दोषोंका सूचन करनेवाले वचन, हास्यवचन और जो कुछ भी बकवाद करना, ये सब संक्षेपमें गहित वचन हैं ।।८२४॥ सावद्य वचन कहते हैं गा-जिस वचनसे प्राणोंका घात आदि दोष उत्पन्न होते हैं वह सावधवचन है। जैसे पृथ्वी खोदो। नांदका पानी भैंसने पी लिया उसे पानीसे भरो। फूल चुनो आदि । अथवा ऐसा कहनेमें दोष है या नहीं, यह विचार न करके चोरको चोर कहना सावध वचन है ।।८२५।। : गा-कठोर वचन, कटुक वचन, जिस वचनसे वैर, कलह और भय पैदा हो, अति त्रास देनेवाले वचन, तिरस्कार सूचक वचन ये संक्षेपमें अप्रियवचन हैं ।।८२६।। - गा-हास्य, भय, लोभ, क्रोध और द्वषं आदि कारणोंसे बोले जानेवाले असत्य वचनोंको हे क्षपक, तुम्हें प्रयत्नपूर्वक विशेष रूपसे नहीं बोलना चाहिए ।।८२७।।। इस प्रकार असत्यवचनोंको त्यागने योग्य बतलाकर उक्त असत्यवचनोंसे विलक्षण सत्यवचनोंका लक्षण कहते हैं १. खन । प्रहिं पीतोदकं पयसा पूरय-आ० । खन । महिषीं पीतोदकां पयसा प्रपूरय, मु० । २. ममेति-आ० मु०। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५०३ तव्विवरीदं सच्चं कज्जे काले मिदं सविसए य । भत्तादिकहारहियं भणाहि तं चेव य सुणाहि ।।८२८।। 'तविवरीदं' असद्वचनविपरीतं । 'सच्च' सत्यं । 'भणाहि' भण। 'कज्जे' कार्ये ज्ञानचारित्रादि शिक्षालक्षणे, असंयमपरिहारे परस्य वा सन्मार्गस्थापनारूपे। काले आवश्यकादीनां कालादन्यः काल इत्यकालशब्देनोच्यते । अथवा कालशब्देन प्रस्ताव उच्यते । 'मिदं' परिमितं वचन । 'सविसए य' भवतो ज्ञानस्य विषये प्रवृत्तं वचनं । 'भणाहि भण । ज्ञानमेव वचनानीति यावत् । भत्तादिकथारहिदं भक्तचोरस्त्रीराजकथादिरहितं । 'तं चेव य' तथाभतमेव सत्यमेव वचनं । 'सुणाहि' श्रुणु । अयमयोग्यं न ब्रवीति एतावता सत्यव्रतं पालितमिति . आशा न कार्या। परेणोच्यमानमसद्वचनं शृण्वतो मनोऽशुभतया च कर्मबन्धो महानिति भावः ॥८२८॥ . सत्यवचनगुणं हृदयनिर्वाणं ख्यापयति गाथोत्तरा स्पष्टा जलचंदणससि मुत्ताचंदमणी तह णरस्स णिव्वाणं । ण करंति कुणइ जह अत्थज्जुयं हिदमधुरमिदवयणं ।।८२९।। न सत्यमित्येतावता वचनं वक्तव्यं, सत्यमेव सदेव वक्तव्यमेव नेति ब्रवीति अण्णस्स अप्पणो वा वि धम्मिए विद्दवंतए कज्जे । जं पि अपुच्छिज्जंतो अण्णोहिं य पुच्छिओ जंप ||८३०।। 'अण्णस्य अप्पणो वापि' अन्यस्य आत्मनो वा धार्मिके कार्ये विनश्यति सति अपृष्टोऽपि ब्रूहि । अनतिपातिनि कार्ये पृष्ट एव वद नापृष्टः इत्यर्थः ॥८.३०॥ गा०-टी०-हे क्षपक, ज्ञान चारित्र आदिकी शिक्षारूप कार्यमें, असंयमका त्याग कराने या दूसरेको सन्मार्गमें स्थापित करनेके कार्यमें, आवश्यक आदिके काल से भिन्नकालमें, और ज्ञानके विषयमें असत्यवचनसे विपरीत सत्यवचन बोलो। तथा भक्तकथा, स्त्रीकथा, चोरकथा और राजकथासे रहित वचन बोलो--इन कथाओंकी चर्चा मत करो। तथा इसी प्रकारके सत्य वचनोंको सुनो । अमुक-वक्ता अयोग्य बात नहीं बोलता अतः यह सत्यव्रतका पालक है ऐसी आशा मत करो। दूसरेके द्वारा कहे असत्यवचनको जो सुनता है उसका मन बुरा होता है और मनके बुरे होनेसे महान् कर्मबन्ध होता है ।।८२८॥ आगे सत्यवचनका गुण हृदयको सुख देना है, यह कहते हैं गा०--अर्थसे भरे हितकारी परिमित मधुर वचन इस जीवको जैसा सुख देते हैं वैसा सुख जल, चन्दन, चन्द्रमा, मोती और चन्द्रकान्तमणि भो नहीं देते ।।८२९॥ आगे कहते हैं कि सत्य होनेसे बोलना चाहिए ऐसी बात नहीं है और सदा सत्य बोलना ही चाहिए ऐसी भी बात नहीं है गा०-अपना या दूसरोंका धार्मिक कार्य नष्ट होता हो तो विना पूछे भी बोलना चाहिए। किन्तु यदि कार्य नष्ट न होता हो तो पूछनेपर ही बोलों, विना उनके द्वारा पूछे जानेपर मत बोलो ।।८३०॥ १. मुत्तामणिमाला तह-आ० । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ भगवती आराधना सच्चं वदंति रिसओ रिसीहिं विहिदाउ सव्व विज्जाओ । मिच्छस्स वि सिज्झति य विज्जाओ सच्चवादिस्स || ८३१ ॥ 'सच्चं वदंति रिसओ' सत्यं वदन्ति यतयः । 'रिसोहि विहिदाओ' यतिभिविहिताः सर्वविद्या: । 'मिच्छसवि' म्लेच्छस्यापि । 'सिज्झंति' सिध्यन्ति । 'विज्जाओ' विद्या: । 'सच्चवादिस्स' सत्यवादिनः ॥ ८३१॥ हदि अग्गी सच्चेण णरं जलं च तं ण बुड्डेइ । सच्चवलियं खु पुरिसं ण वहदि तिक्खा गिरिणदी वि || ८३२ || 'ण डहदि अग्गी णरं' न दहत्यग्निः सत्येन नरं । 'जलं च तन्न बुड्ढेदि' जलं च तन्न निमज्जति । 'सच्चबलियं' सत्यमेव बलं तद्यस्यास्ति तं 'न वहति' नाकर्षयति । तिक्खा गिरिनदीवि' तीव्रवेगा गिरिनद्यपि ||८३२ ॥ सच्चेण देवदावो णवंति पुरिसस्स ठंति य वसम्मि । सच्चेण य गहगहिदं मोएइ करेंति रक्खं च ॥ ८३३॥ 'सच्चेण देवदाओ णमंति' सत्येन देवता नमस्यन्ति । 'पुरिसस्स ठंति य वसम्मि' पुरुषस्य च वशे तिष्ठन्ति । 'गहगहिदं सच्चेण मोएइ पिशाचग्रहणं मोचयन्ति सत्येन । 'करेति सच्चेण रक्खं च कुर्वन्ति सत्येन ग्रहादिरक्षां ॥ ८३३॥ माया व होइ विस्सस्सणिज्जो पुज्जो गुरुव्व लोगस्स । पुरिसो हु सच्चवाई होदि हु 'सणियल्लओ व पिओ || ८३४ || 'मादा व होदि विस्सस्सणिज्जो' मातेव भवति विश्वसनीयः । ' पुज्जो गुरुव्व लोगस्स' पूज्यो गुरुवल्लोकस्स । कः ? 'सच्चवादी पुरिसो' सत्यवादी पुरुषः । 'पिओ होदि सणियल्लओव' प्रियो भवति बन्धुरिव ।। ८३४ || सच्चं अवगददोसं वुत्तूण जणस्स मज्झयारम्मि | पीदिं पावदि परमं जसं च जगविस्सुदं लहइ ||८३५ || गा०-- ऋषिगण सत्य बोलते है । ऋषियोंने ही सब विद्याओंका विधान किया है । सत्यवादी यदि म्लेच्छ भी हो तो उसे विद्याएँ सिद्ध होती हैं ||८३१ || " गा० -- सत्यवादी मनुष्यको आग नहीं जलाती । पानी उसे नहीं डुबाता । जिसके पास सत्यका बल है उसे तीव्र बेगवाली नदी भी नहीं बहाती ||८३२ || 10- गा०-- सत्यसे देवता नमस्कार करते हैं । सत्यसे देवता पुरुषके वशमें होते हैं । सत्यसे पिशाच पकड़ा हुआ मनुष्य भी छूट जाता है और उसकी रक्षा देव करते हैं ||८३३ || गा०-- सत्यवादी माताके समान विश्वासयोग्य, गुरुके समान पूज्य, और बन्धुके समान लोकप्रिय होता है ||८३४|| १. सुणि-आ० । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५०५ 'सच्चं वृत्तूण' सत्यवचनमुक्त्वा । कीदग्भूतं ? 'अवगववोसं' दोषरहितं । क्व? 'जणस्स मज्झयारम्मि' जनमध्ये । 'पोदि पावदि' परमां प्रीतिं प्राप्नोति, परां 'जसं लभदि' यशश्च लभते । 'जगविस्सुदं' जगति विश्रुतं ।।८३५।। सच्चम्मि तवो सच्चम्मि संजमो तह वसे सया वि गुणा । सच्चं णिबंधणं हि य गुणाणमुदधीव मच्छाणं ॥८३६॥ 'सच्चम्मि संजमो' सत्याधारी तपःसंयमी, शेषाश्च गुणाः । 'सच्चं णिबंधणं गुणाणं' गुणानां निबन्धनं सत्यं । 'मच्छाणं उदधीव' मत्स्यानामुदधिरिव ।।८३६॥ सच्चेण जगे होदि पमाणं अण्णो गुणो जदि वि से पत्थि । अदिसंजदो य मोसेण होदि पुरिसेसु तणलहुओ ॥८३७॥ 'सच्चेण जगे होदि' सत्येन जगति भवति । 'पमाणं' प्रमाणं । यद्यप्यन्यो गुणो नास्ति । अतीव संयतोऽपि सतां मध्ये तृणवल्लघुर्भवति मृषावचनेनेति गाथार्थः ।।८३७॥ होदु सिहंडी व जडी मुंडी वा जग्गओ व 'चीरधरो । जदि भणदि अलियवयणं विलंबणा तस्स सा सव्वा ॥८३८॥ . 'होदु सिहंडी' भवतु नाम शिखावान् । 'जडी मुडी वा' नग्नश्चीवरधरो वा यद्यलीकं वदति तस्य सा सर्वा विलम्बना ॥८३८।। जह परमण्णस्स विसं विणासयं जह व जोव्वणस्स जरा । . तह जाण अहिंसादी गुणाण य विणासयमसच्चं ।।८३९॥ 'जह परमण्णस्स' यथा परमान्नस्य विनाशकं विषं । यथा वा जरा यौवनस्य, तथा जानीहि अहिंसादिगुणानां विनाशकं असत्यं ।।८३९॥ गा०–जनसमुदायके बीच में दोषरहित सत्यवचन बोलनेसे मनुष्य जनताका प्रेम तथा जगत्में प्रसिद्ध उत्कृष्ट यश पाता है ।।८३५।। . गा०-तप, संयम तथा अन्यगुण सत्यके आधार हैं। जैसे समुद्र मगरमच्छोंका कारण है उसमें मगरमच्छ पैदा होते और रहते हैं वैसे ही सत्य गुणोंका कारण है ।।८३६।। - गा०-यदि मनुष्यमें अन्य गुण न हों तब भी वह एक सत्यके कारण जगमें प्रमाण माना जाता है। अति संयमी भी मनुष्य यदि असत्य बोलता है तो सज्जनोंके मध्यमें तृणसे तुच्छ होता है ।।८३७।। गा-भले ही मनुष्य शिखाधारी हो, जटाधारी हो, सिर मुड़ाए हो, नंगा रहता हो या चीवर धारण किये हो, यदि वह झूठ बोलता है तो यह सब उसकी विडम्बनामात्र है ।।८३८॥ ___ गा-जैसे विष उत्तमोत्तम भोजनका विनाशक है, बुढ़ापा यौवनका विनाशक है वैसे ही असत्य वचन अहिंसा आदि गुणोंका विनाशक है ।।८३९॥ . १. चीवर-मु० । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना मादाए वि वेसो पुरिसो अलिएण होइ एक्केण । किं पुण अवसेसाणं ण होइ अलिएण सत्त व्च ।।८४०।। 'मादाए वि य' मातुरप्यविश्वास्यो भवत्यलीकेन एकेन पुरुषः । शेपाणां पुनर्न किं भवेदलीकेन शत्रुरिव ॥८४०॥ अलियं स कि पि भणियं घादं कुणदि बहुगाण सच्चाणं । अदिसंकिदो य सयमवि होदि अलियभासणो पुरिसो ॥८४१।। 'अलियं स किपि भणियं' सकृदप्युक्तं अलोकं सत्यानि बहूनि नाशयति । अलीकवादी पुरुषः स्वयमपि शङ्कितो भवति नितरां ॥८४१।। अप्पच्चओ अकित्ती भंभारदिकलहवेरभयसोगा। वधबंधभेय' धणणासा वि य मोसम्मि सण्णिहिदा ॥८४२।। _ 'अपच्चओ' अप्रत्ययः । अकीतिः, संक्लेशः, अरतिः, कलहो, वैरं, भयं, शोकः, वधो, बन्धः, स्वजनभेदः, धननाशश्चेत्यमी दोषाः सन्निहिता मृषावचने ।।८४२॥ . पापस्सासवदारं असच्चवयणं भणंति हु जिणिंदा । हिदएण अपावो वि हु मोसेण गदो वसू णिरयं ।।८४३॥ 'पावस्सागमदारं' पापस्यागमद्वारमिति वदन्त्यसत्यं जिनेन्द्राः । हृदये अपापोऽपि मृषामात्रेण वतुर्गतो नरक इत्याख्यानकं वाच्यं ।।८४३॥ परलोगम्मि वि दोसा ते चेव हवंति अलियवादिस्स । मोसादीए दोसे जण वि परिहरंतस्स ।।८४४।। गा०-एक असत्य वचनसे मनुष्य माताका भी विश्वास-भाजन नहीं रहता। तव असत्य बोलनेसे शेषजनोंको वह शत्रुके समान क्यों नहीं प्रतीत होगा ।।८४०॥ गा०-एक बार भी बोला गया झूठ बहुत बार बोले गये सत्यवचनोंका घात कर देता है। लोग उसके सत्यकथनको भी झूठ मानने लगते हैं। झूठ बोलनेवाला मनुष्य स्वयं भी अतिभीत रहता है ।।८४१।। गा०-असत्य भाषणमें अविश्वास, अपयश, संक्लेश, अरति, कलह, वैर, भय, शोक, वध, बन्ध, कुटुम्बमें फूट, धनका नाश इत्यादि दोष पाये जाते हैं ।।८४२।। गा०—जिनेन्द्रदेव असत्यको पापास्रवका द्वार कहते हैं, उससे पापका आगमन होता है । राजा वसु हृदयसे पापी नहीं था फिर भी झूठ बोलनेसे नरकमें गया। इसकी कथा कथाकोशमें है ॥८४३।। १. यणणासा-आ० ।-भेदणाणा सब्वे मो-मु० । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका ५०७ 'परलोगम्मि वि दोसा' परभवेऽपि दोषास्त एव अप्रत्ययादय एव भवन्त्यलोकवादिनः । यत्नेनापि परिहरतः । किं ? ' मोसादिगे दोसे' मृषादिकान्दोषान् । मृषा आदिर्येषां स्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणां ते मृषादयः । अद्गुणसं विज्ञानो बहुव्रीहिरत्र ग्राह्यः । स्तेयादिदोषान्परिहरतोऽपीत्यर्थः ॥ ८४४ ॥ भवतु नाम अप्रत्ययत्वादिका मृषावादस्य दोषाः कर्कशवचनादिना परभवे इह वाथ के दोषा इत्यत्रा चष्टे दोसा जे होंति अलियवयणस्स । seite परलो कक्कसवदणादण वि दोसा ते चेव णादव्वा ||८४५ || 'इहलोगिग परलोगिग दोसा' अस्मिञ्जन्मनि परत्र च ये दोषा भवन्ति अलीकवादिनः । कर्कशवचनादीनामपि त एव दोषा इति ज्ञातव्याः ॥ ८४५ ॥ उपसंहारगाथा देसि दोसाणं मुक्की होदि अलिआदिवचिदोसे | परिहरमाणो साधू तव्विवरीदे य लभदि गुणे || ८४६ || एतेभ्यो दोषेभ्यो मुक्तो भवति व्यलीकादिवचनदोषान्यः परिहरति साधुः लभते 'नापि ? दोषप्रतिपक्षभूतान्प्रत्ययितत्वादिगुणान् । प्रत्ययः कीर्तिः, असंक्लेश, रतिः, कलहाभावः, निर्भयतादिकश्च । 'सच्चं' ||८४६॥ व्याख्याय सत्यव्रतं तृतीयव्रतं निगदति- माकुणसु तुमं बुद्धि बहुमप्पं वा परादियं घेत्तुं । दंतंतरसोधणयं कलिंदमेत पि अविदिण्णं ||८४७|| गा० - असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रहरूप दोषोंका प्रयत्नपूर्वक त्याग करनेवाले भी असत्यवादीके परलोकमें भी अविश्वास आदि दोष होते हैं । अर्थात् असत्यवादी मरकर भी इन दोषों का भागी होता है ||८४४|| असत्य भाषणसे अविश्वास आदि दोष भले ही होते हों, किन्तु कर्कश आदि वचन बोलने से इस भव या परभवमें क्या हानि है ? इसका उत्तर देते हैं गा० - इस लोक और परलोकमें असत्यवादी जिन दोषोंका पात्र होता है, कर्कश आदि वचन बोलनेवाला भी उन्हीं दोषोंका पात्र होता है || ८४५ || गा० - जो साधु असत्य भाषण आदि दोषोंको दूर कर देता है वह ऊपर कहे दोषोंसे मुक्त होता है— उसमें वे दोष नहीं होते । तथा उन दोषोंसे विपरीत विश्वास, यश, असंक्लेश, रति. कलहका अभाव, निर्भयता आदि गुणोंका भाजन होता है ||८४६ || सत्य महाव्रतका कथन समाप्त हुआ । सत्य व्रतका कथन करके तीसरे व्रतका कथन करते हैं १. ते तद्विपरीतेनेति नापि -आ० मु० । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ भंगवती आराधना 'मा कुणसु तुमं बुद्धि' मा कृथास्त्वं बुद्धिं । कीदृशीं ? 'परादियं घेतुं' परकीयं वस्तु ग्रहीतु । परकीयवस्तु विशेषणमाचष्टे-'बहुमप्पं वा' महदल्पं वा । अल्पद्रव्यपरिमाणमभिदधाति-तंतरशोधणगं कलिदमेत्तंपि' दन्तान्तरशुद्धिकारि तृणशलाकामात्रमपि । 'अविदिण्णं' अदत्त ॥८४७।। जह मक्कडओ घादो वि फलं दट्टण लोहिदं तस्स । दूरत्थस्स वि डेवदि जइ वि घित्तण छंडेदि ।।८४८॥ 'जह मक्कडगो' यथा मर्कटो वानरः । 'धादो वि' तृप्तोऽपि । 'दठूण फलं' दृष्ट्वापिं फलं । 'लोहिद' रक्तं । 'तस्स दूरत्यस्स वि डेवदि' दूरस्थमपि फलमुद्दिश्योल्लंघनं करोति । 'जवि वि चित्तूण छंडेदि' यद्यपि गृहीत्वा त्यजति ॥८४८॥ दार्टान्तिके योजयति एवं जं जं पस्सदि दव्वं अहिलसदि पाविद् तं तं । सव्वजगेण वि जीवो लोभाइट्ठो न तिप्पेदि ।।८४९॥ 'एवं जं जं पस्सदि' एवं यद्यत्पश्यति द्रव्यं । 'तं तं पाविदुमहिलसदि' तत्तद्र्व्यं प्राप्तुमभिलषति । 'सध्वजगेण वि' सर्वेणापि जगता । 'लोभाइट्ठो जीवो ण तिप्पेदि' जीवो लोभाविष्टो न तृप्यति ।।८४९।। जह मारुओ पवड्डइ खणेण वित्थरइ अन्भयं च जहा । जीवस्स तहा लोभो मंदो वि खणेण वित्थरइ ।।८५०।। 'जह मारुओ पवड्ढइ' यथा मारुतः प्रवर्द्धते । 'खण' क्षणेन । 'वित्थरदि' विस्तीर्णो भवति । 'अभयं च जहा' यथा चान। 'जीवस्स' जीवस्य । 'तह' तथा । लोभो मन्दोऽपि क्षणेनैव विस्तीर्णतामुपयाति ॥८५०॥ __ बाह्यद्रव्यसन्निधिमपपेक्ष्य लोभकर्मण उदयो जायते तस्य लोभश्च वद्धते तद्वृद्धौ चायं दोष इति व्याचष्टे लोमे पवढिदे पुण कज्जाकज्ज णरो ण चिंतेदि । तो अप्पणो वि मरणं अगणितो साहसं कुणइ ।।८५१।। गा०-हे क्षपक ! तुम पराई बहुत या अल्प वस्तुको भी ग्रहण करनेकी भावना मत करो । दाँतका मल शोधनेके लिए एक तिनका भी विना दिया मत ग्रहण करो ॥८४७|| गा०-जैसे बन्दर पेट भरा होनेपर भी लाल पके फलको देखकर दूरसे ही फल ग्रहण करनेके लिए कूदता है, यद्यपि वह उसे फिर छोड़ देता है ।।८४८।।। गा०-वैसे ही मनुष्य जो जो वस्तु देखता है उस उसको प्राप्त करनेकी इच्छा करता है । लोभसे घिरा मनुष्य समस्त जगत्को पाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता ।।८४९।। गा०---जैसे मन्द वायु बढ़कर क्षणभरमें फैल जाती है या मेघ बढ़ते-बढ़ते आकाशमें फैल जाते हैं । वैसे ही जीवका थोड़ा-सा भी लोभ क्षणभरमें बढ़ जाता है ।।८५०।। आगे कहते हैं कि बाह्य द्रव्यका सान्निध्य पाकर लोभकर्मका उदय होता है उससे मनुष्य Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका 'लोभे पड्ढिवे पुण' लोभे प्रकर्षेण वृद्धिमुपगते पुनः । 'कज्जाकजं णरो ण चिदेदि' कार्य अकार्य च न मनसा निरूपयति । इदं कर्तुं युक्तं न वेति । 'तो' ततः युक्तायुक्तविचारणाभावात् । 'अप्पणो मरणमपि अगणित्ता' आत्मनो मृत्युमप्यगणय्य । 'चोरियं कुणदि' चौयं करोति । बन्दीग्रहणतालोद्धाटनसंप्रवेशादिक च भयं मृत्योः कष्टतरमवस्थितमपि न गणयति नरश्चौर्ये प्रवृत्त इति भावः ॥८५१॥ न केवलमात्मन एवोपद्रवकारि चौर्य अपि तु परेषामपि महतीमानयति विपदमिति कथयति सव्वो उवहिदबुद्धी पुरिसो अत्थे हिदे य सव्वो वि । सत्तिप्पहारविद्धो व होदि हिययंमि अदिदुहिदो ||८५२।। 'सव्वो उहिदबुद्धी' सर्वो जनः उपहितबुद्धिः स्थापितचित्तः । क्व ? 'अत्थे' वस्तुनि इदं भवत्विति । 'अत्थे हिवे य सम्वो वि' सर्वोऽपि जनो अर्थे हृते । 'अतिहिदो' अतीव दुःखितो भवति । किमिव ? 'सत्तिप्पहारविद्धोव हिदय' शक्त्याख्येन शस्त्रेण हृदये विद्ध इव ॥८५२॥ अत्थम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगयचेयणो होदि । मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स ।।८५३।। 'अत्यम्मि हिवे' अर्थे हृते परेणात्मीये 'पुरिसो' पुरुषः । 'उम्मत्तो विगदचेयणो होवि' उन्मत्तो विगतचेतनो भवति । चेतनाविशेषे ज्ञानपर्याये चेतनाशब्दो वर्तते नष्टज्ञानो भवतीति यावत् । अन्यथा चैतन्यरय विनाशाभावात् । 'मरदि व' म्रियेत वा अर्थे हृते । अत्थे हक्कारकिदो अर्थे 'हाकारं कुर्वन् । 'अत्यो जीवं खु पुरिसस्स' पुरुषस्य जीवितमर्थः ।।८५३।। का लोभ बढ़ता है । लोभ बढ़नेपर यह दोष होता है-- गाo-टी०-लोभ बढ़नेपर मनुष्य 'यह करना योग्य है और यह योग्य नहीं है' इस प्रकार मनमें कार्य और अकार्यका विचार नहीं करता। युक्त अयुक्तका विचार न करनेसे अपनी मृत्युकी परवाह न करके चोरी करता है-ताले तोडकर घरोंमें प्रवेश करता है, जेल जाता है। इस प्रकार चोरीमें लगा मनुष्य मृत्युका कठोर भय उपस्थित होते हुए भी उसको अवहेलना करता है ॥८५१॥ __ आगे कहते हैं कि चोरी केवल चोरी करनेवालेपर ही विपत्ति नहीं लाती किन्तु दूसरोंपर भी महती विपदा लाती है गा०–सभी मनुष्य धनासक्त हैं-उनका मन धनमें लगा रहता है। अतः धन चुरानेपर सभी जन हृदयमें शक्ति नामक अस्त्रसे आघात होनेकी तरह अत्यन्त दुःखी होते हैं ।।८५२।। गा०-टी०-दूसरेके द्वारा अपना धन हरे जानेपर मनुष्य पागल हो जाता है, उसकी चेतना नष्ट हो जाती है। यहाँ चेतना शब्द चेतनाके भेद ज्ञानपर्यायमें प्रयुक्त हुआ है अतः उसका ज्ञान नष्ट हो जाता है ऐसा अर्थ लेना चाहिए, क्योंकि चेतनाका तो विनाश होता नहीं । तथा हाहाकार करके मर जाता है । ठोक ही कहा है-धन मनुष्यका प्राण है ।।८५३।। १. हारवं-आ० मु० । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० भगवती आराधना अडईगिरिदरिसागरजुद्धाणि अति अत्थलोभादो | पियबंधु चेवि जीवं पि णरा पयहंति घणहेतुं ॥ ८५४ || 'अडईगिरिवरिसागर' अटवीं, दरी, गिरि, सागरं युद्धं प्रविशन्ति अर्थ लोभात् । प्रियान्बन्धून् जीवितं च नरा जहति धननिमित्तं । सर्वेभ्यो धनं प्रियतमं यतस्तदर्थिनः सर्वं त्यजन्ति इति भावार्थो गाथायाः ।। ८५४ || अत्थे संतम्मि सुहं जीवदि सफलतपुत्तसंबंधी । अत्थं हरमाणेण य हिंदं हवदि जीविदं तेसिं ।। ८५५ ।। 'अत्थे संतम्मि सुहं' अर्थे सति सुखं 'जोवदि सकलत्तपुत्त सम्बन्धी' जीवति सह कलत्रैर्भार्याभिः पुत्रैबंधुभिश्च । अर्थं हरता तेषां कलत्रादीनां जीवितमेव हृतं भवति ॥ ८५५ ।। चोरस णत्थि oिre दया य लज्जा दमो व विस्सासो | चोरस्स अत्थहेतुं णत्थि अकादव्वयं किं पि ।। ८५६॥ 'चोरस्स णत्थि हियए' चौरस्य नास्ति हृदये । दया, लज्जा, दमो, विश्वासो वा । चौरस्य नास्ति अकर्तव्यं किचित् । अर्थार्थिन इति भावार्थः ॥ ८५६ ॥ लोगम्मि अत्थि पक्खो अवरद्धंतस्स अण्णमवराधं । यल्लया विपक्खे ण होंति चोरिक्कसीलस्स ||८५७ || 'लोयम्मि अस्थि पक्खो' लोकेऽस्ति पक्षोऽन्यमपराधं हिंसादिकं कुर्वतो बन्धवोऽपि न पक्षतां प्रतिपद्यन्ते ये चौर्यकारिणः ॥८५७॥ अणं अवरज्झतस्स दिति णियये घरम्मि ओगासं । मायाविय ओगास ण देइ चोरिक्कसीलस्स || ८५८ || 'अण्णं अवरज्झतस्स' अन्यं अपराधं कुर्वतः ददति स्वावासे अवकाशं । माताप्यवकाशं न ददाति चुरायां प्रवृत्तस्य ||८५८|| गा०—धनके लोभसे मनुष्य जंगल, पर्वत, गुफा और समुद्रमें भटकता है, युद्ध करता है । धनके लिए मनुष्य प्रियजनोंका और अपने जीवनका भी त्याग करता है । सारांश यह है कि मनुष्यको धन सबसे प्रिय है उसके लिए वह सबको छोड़ देता है || ८५४ ॥ गा० - धनके होनेपर मनुष्य स्त्री पुत्र और बन्धु बान्धवोंके साथ सुखपूर्वक जीवन यापन करता है । धनके हरे जानेपर उन स्त्री आदिका जीवन ही हर लिया जाता है ||८५५ ।। गा० - चोरके हृदय में दया, लज्जा, साहस और विश्वास नहीं होते । चोर धनके लिए कुछ भी कर सकता है उसके लिए न करने योग्य कुछ भी नहीं है ||८५६ || गा० - हिंसा आदि अन्य अपराध करनेवाले के पक्ष में तो लोग रहते है किन्तु चोरी करनेवालेके पक्षमें बन्धु बान्धव भी नहीं होते || ८५७॥ गा०—–अन्य अपराध करनेवालेको लोग अपने घरमें आश्रय देते हैं । किन्तु चोरी करनेवालेको माता भी आश्रय नहीं देती || ८५८|| - Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११. विजयोदया टीका परदबहरणमेदं आसवदारं खु उति पावस्स । सोगरियवाहपरदारिएहि चोरो हु पापदरो ॥८५९॥ 'परदव्वहरणमेदं' परद्रव्यापहरणमेतत् पापस्यास्रवद्वारं ब्रुवन्ति । शौकरिकात्, व्याधात्, परदाररतिप्रियाच्च चौरः पापीयान् ॥८५९॥ सयणं मित्तं आसयमल्लीणं पि य महल्लए दोसे । पाडेदि चोरियाए अयसे दुक्खम्मि य महल्ले ॥८६०॥ 'सयणं मित्तं' बन्धून्मित्राणि आश्रयभूतं समीपस्थं च महति दोषे बन्धवधधनापहरणादिके पातयति चौर्यं । महत्ययशसि दुःखे च निपातयति ॥८६०॥ बंधवधजादणाओ छायाघादपरिभवभयं सोयं । पावदि चोरो सयमवि मरणं सव्वस्सहरणं वा ।।८६१।। 'बंधवधजादणाओ' बन्धं, वधं, यातनाश्च, छायाघातं, परिभवं, भयं, शोकं प्राप्नोति । स्वयमपि चौरो मरणं सर्वस्वहरणं वा ।।८६१।। णिच्चं दिया य रत्तिं च संकमाणो ण णिद्दमुवलभदि । तेणं तओ समंता उब्विग्गमओ य पिच्छंतो ।।८६२॥ 'णिच्चं दिया य रत्ति च संकमाणो' नित्यं दिवारात्रि शङ्कमानः न निद्रामुपलभते चौरः । समन्तात्प्रेक्षते उद्विग्नहरिण इव ।।८६२॥ उंदुरकदपि सदं सुच्चा परिवेवमाणसव्वंगो। सहसा समुच्छिदभओ उन्विग्गो धावदि खलंतो ।।८६३॥ 'उदुरकदंपि सई' मृषकचलनकृतमपि शब्दं श्रुत्वा प्रस्फुरत्सर्वगात्रः सहसोत्यभयोद्विग्नो धावति स्खलपदे पदे ।।८६३॥ गा०-यह परद्रव्यका हरण पापके आनेका द्वार कहा जाता है। मृग पशु पक्षियोंका घात करनेवाले और परस्त्रीगमनके प्रेमीजनोंसे चोर अधिक पापी होता है ॥८५९।। गा-चोरीका. व्यसन वन्धु, मित्र, अपने आश्रित, और निकटमें रहनेवालोको भी वध, बन्ध, धनका हरना आदि दोषोंमें डाल देता है वे भी ऐसे बुरे काम करने लगते हैं। तथा वे महान् .अपयश और दुःखके भागी होते हैं ।।८६०॥ ___या०-चोर स्वयं भी बन्ध, वध, कष्ट, तिरस्कार, भय, शोक, मरण और सर्वस्व हरणका भागी होता है ।।८६१॥ १|| .. . . गा०--चोर दिन रात पकड़े जानेकी आशंकासे सोता नहीं है और भयभीत हरिनकी तरह चारों ओर देखा करता है ।।८६२॥ गा०-चूहेके द्वारा भी किये शब्दको सुनकर उसका सर्वांग थरथर काँपने लगता है, एकदम भयसे भीत हो, घबराकर दौड़ता है और पद-पदपर गिरता उठता है.॥८६३।। .... . For Private & Personal use only. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना घत्ति पि संजमंतो घेत्तूण किलिंचमेत्तमविदिण्णं । होदि हु तणं व लहुओ अप्पच्चइओ य चोरो व्व ॥ ८६४॥ 'र्धात पि संजमंतो' नितरामपि संयमं कुर्वन् । अदत्तं तृणमात्रमपि गृहीत्वा तृणवल्लघुर्भवति, अप्रत्ययितश्चोर इव ॥८६४॥ ५१२ परलोगम्मिय चोरो करेदि णिरयम्मि अप्पणो वसदि । तिव्वाओ वेदणाओ अणुभव हिदि तत्थ सुचिरंपि ||८६५ || 'परलोगम्मि य चोरो करेदि' परलोके चौरः करोत्यात्मनो नरके वसति । कीदृग्भूतो यत्र नरकेषु सुचिरं दीर्घकालं पच्यमानः तीव्रवेदना अनुभवति ||८६५ ॥ तिरियगदीए वि तहा चोरो पाउणदि तिव्वदुक्खाणि । पाएण णीयजोणीसु चैव संसरह सुचिरंपि ||८६६॥ 'तिरियगदीए वि तहा' तिर्यग्गतावपि चौरः प्राप्नोति तीव्राणि दुःखानि । प्रायेण नीचयोनिष्वेव संसरति सुचिरमपि ॥८६६ || माणुस व अत्था हिदा व अहिदा व तस्स णस्संति । णय से घणमुवचीयदि सयं च ओलदृदि घणादो || ८६७ || 'माणुसभवे वि' मनुष्यभवेऽपि तस्य अर्था नश्यन्ति हृता वा अहृता वा । न चोपयाति संचयं धनं, तस्य उपचितेऽपि धने स्वयं तस्मादपयाति धनात् ||८६७॥ परदव्वहरणबुद्धी सिरिभूदी णयरमज्झयारम्मि | हो हदो पदो पत्तो सो दीहसंसारं ॥। ८६८ ।। ‘परदव्वहरणबुद्धी' परद्रव्यहरणबुद्धिः । 'सिरिभूदी' श्रीभूतिर्नगरमध्ये ताडितः प्रहतश्च भूत्वा दीर्घसंसारं प्राप्तः ॥ ८६८॥ गा०—महान् संयमका धारी साधु भी विना दिया तृणमात्र भी ग्रहण करके अविश्वसनीय चोरकी तरह तिनकेके समान लघु हो जाता है || ८६४|| गा०-- - चोर मरकर भी नरकमें वास करता है और वहाँ चिरकालतक तीव्र कष्ट भोगता है ।।८६५।। गा० - तथा चोर तिर्यञ्चगतिमें भी तीव्र दु:ख पाता है । वह प्रायः चिरकालतक नीच योनियोंमें ही जन्ममरण करता है ||८६६ || गा०-- मनुष्यभव में भी उसका धन किसीके द्वारा हरा जाकर अथवा विना हरे नष्ट हो जाता है । वह धनका संचय नहीं कर पाता । धनका संचय हुआ भी तो वह स्वयं उस धनसे वंचित हो जाता है || ८६७|| गा०---परद्रव्यको हरनेमें आसक्त श्रीभूतिनामक ब्राह्मण नगरके मध्य में मारा गया और मरकर दीर्घ संसारी हुआ इसकी कथा कथाकोशमें है || ८६८ || Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५१३ अदत्तादानदोषानुपदर्य दत्त योग्यं गृहाणेति व्याचष्टे एदे सव्वे दोसा ण होंति परदव्वहरणविरदस्स । तव्विवरीदा य गुणा होति सदा दत्तभोइस्स ॥८६९।। देविंदरायगहवइदेवदसाहम्मि उग्गहं तम्हा । उग्गहविहिणा दिण्णं गेण्हसु सामण्णसाहणयं ।।८७०।। 'देविंदराजगहवइ' देवेन्द्राणां, राज्ञां, गृहपतीनां, राष्ट्रकूटानां, देवतानां, सधर्मणां च परिग्रहं । 'उग्गह विहिणा' अवग्राह्यविधिना । “दिण्णं' दत्तं । 'गिण्हसु' गृहाण । 'सामण्णसाहणयं' श्रामण्यसाधनं ज्ञानसंयमस्य वा साधनं । अदत्तं ।। ८७०॥ चतुर्थ व्रतं निरूपयति रक्खाहि बभचेरं अब्धंभं दसविधं तु वज्जित्ता। . __ णिच्चं पि अप्पमत्तो पंचविधे इत्थिवेरग्गे ॥८७१।। 'रक्खाहि बंभचेरं' पालय ब्रह्मचर्य। अब्रह्म दशप्रकारमपि वर्जयित्वा नित्यमप्रमत्तः पञ्चविधे स्त्रीवैराग्य ॥८७१।। ब्रह्मचर्य पालयेत्युक्तं तदेव न ज्ञायते इत्यारेकायां तद्वयाचष्टे जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। तं जाण बंभचरं विमुक्कपरदेहतत्तिस्स ।।८७२।। 'जीवो बंभा' ब्रह्मशब्देन जीवो भण्यते । ज्ञानदर्शनादिरूपेण वर्द्धते इति वा । यावल्लोकाकाशं वर्धते लोकपुरणाख्यायां क्रियायां इति वा । 'जीवम्मि चेव' ब्रह्मण्येव चर्या । जीवस्वरूपमनन्तपर्यायात्मकमेव निरूप अदत्तादानके दोष बतलाकर योग्य दत्तवस्तको ग्रहण करनेकी प्रेरणा करते हैं-- गा०--जो परद्रव्य हरनेका त्यागी होता है उसे ये सब दोष नहीं होते। तथा जो दत्तवस्तुका ही उपभोग करता है उसमें उक्त दोषोंसे विपरीत गुण सदा होते हैं ।।८६९।। गा०--हे क्षपक । देवेन्द्र, राजा, गृहपति, देवता और साधर्मी साधुओंके द्वारा विधिपूर्वक दी गई परिग्रहको, जो ज्ञान और संयमकी साधक हो, ग्रहण कर ।।८७०॥ अदत्तविरत व्रतका कथन समाप्त हुआ। चतुर्थ व्रतका कथन करते हैं गा०-हे क्षपक ! दस प्रकारके अब्रह्मको त्याग कर ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर । और पांच प्रकार के स्त्री वैराग्यमें सदा सावधान रह ।।८७१।। ब्रह्मचर्यके पालन करनेको तो कहा । किन्तु ब्रह्मचर्य क्या है यही नहीं जानते। इसके लिए कहते हैं गा०-टी०-ब्रह्म शब्दसे जीव कहा जाता है। अथवा 'बृह' धातुसे ब्रह्म शब्द बना है उसका अर्थ होता है बढ़ना। ज्ञान दर्शन आदि रूपसे बढ़नेको ब्रह्म कहते हैं। अथवा जब सयोग केवली जिन लोकपूरण समुद्धात करते हैं तो उनके आत्म प्रदेश लोकाकाश प्रमाण बढ़कर फैल Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ भगवती आराधना यतो वत्तिर्या 'तं' तां 'जाण' जानीहि। 'बंभचरियं ब्रह्मचर्य । 'विमुत्तपरदेहतत्तिस्स' विमक्तपरदेहव्यापारस्य ॥८७२॥ . मनसा वचसा शरीरेण परशरीरगोचरव्यापारातिशयं त्यक्तवतः दशविधाब्रह्मत्यागात् दशविधं ब्रह्मचर्य भवतीति वक्तुकामी ब्रह्मभेदमाचष्टे इत्थिविसयाभिलासो वत्थिविमोक्खो य पणिदरससेवा । - संसत्तदव्वसेवा तदिदियालोयणं चेव ॥८७३।। 'इथिविसयाभिलासो' स्त्रीसम्बन्धिनो ये इन्द्रियाणां विषयास्तासां रूप, तदीयोऽधररसः, तासां वक्त्रप्रभवो गन्धः तासां कलं गीतं, हासो, मधुरं वचः, मदुस्पर्शश्च तत्र अभिलाषः । आत्मस्वरूपपरिज्ञानपरिणतिलक्षणं ब्रह्मचर्य 'वहतीति आत्मा ब्रह्म ततोऽन्यो वामलोचनाशरीरगतो रूपादिपर्यायः सोऽत्र भण्यतेऽब्रह्मशब्देन तत्र चर्या नामाभिलाषपरिणतिः । 'वस्थिविमोखो मेहनविकारानिवारणं । 'पणिदरससेवा' वृष्याहारसेवना। 'संसत्तदव्वसेवा' स्त्रीभिः संसक्तानां सम्बद्धानां शय्यादीनां सेवा तदङ्गस्पर्शवदेव कामिनां तनुप्राप्तद्रव्यस्पर्शोऽपि प्रीति जनयति । 'तदिदियालोयणं चेव' तासां वराङ्गावलोकनं च ॥८७३॥ सक्कारो संकारो अदीदसुमरणमणागदभिलासो । इट्ठविसयसेवा वि य अब्बंभं दसविहं एदं ।।८७४॥ 'सक्कारो' सत्कारः सन्मानना । स च तनुरागप्रवर्तितः । 'संकारों' संस्कारः तासां वस्त्रमाल्यादिभिः । जाते हैं । इस प्रकारसे जो बढता है वह ब्रह्म जीव हैं उस ब्रह्ममें ही चर्या ब्रह्मचर्य है। पराये शरीर सम्बन्धी व्यापारसे अर्थात् स्त्री रमणादिसे विरत मुनि अनन्त पर्यायात्मक जीव स्वरूप का ही अवलोकन करते हुए जो उसीमें रमण करता है वह ब्रह्मचर्य है ॥८७२॥ मन वचन कायसे पर शरीर सम्बन्धी व्यापार विशेषको जिसने त्याग दिया है उसके दस प्रकारके अब्रह्मका त्याग करनेसे दस प्रकारका ब्रह्मचर्य होता है यह कहनेकी इच्छासे आचार्य अब्रह्मके भेद कहते हैं गा०-टी०-स्त्री सम्बन्धी जो इन्द्रियोंके विषय हैं-उनका रूप, उनके अधरका रस, उनके मुखकी सुगन्ध, उनका मनोहर गायन, हास, मधुर वचन और कोमल स्पर्श, उनकी अभिलाषा करना अब्रह्मका प्रथम भेद है । आत्माके स्वरूपको जानकर उसीमें लीन होना ब्रह्मचर्य है । उसको वहन करनेसे आत्मा ब्रह्म है। उससे अन्य स्त्रीके शरीर सम्बन्धी जो रूप रसादि हैं उन्हें यहाँ अब्रह्म शब्दसे कहा है। उसमें चर्या अर्थात् अभिलाषा रूप परिणति अब्रह्मचर्य है। लिंगमें हुए विकारको दूर न करना दूसरा अब्रह्मका भेद है। इन्द्रियमद कारक आहार करना तीसरा भेद है । स्त्रियोंसे सम्बद्ध शय्या आदिका सेवन चतुर्थ भेद है। स्त्रियोंके शरीरके स्पर्शकी ही तरह उनके शरीरसे सम्बद्ध वस्तुओंका स्पर्श भी कामी जनोंको रागकारक होता है। स्त्रियोंके उत्तम अंगोंका अवलोकन पाँचवाँ भेद है ।।८७३।। गा०-स्त्रियोंका सम्मान करना छठा भेद है। वस्त्र माला आदिसे उन्हें आभूषित करना १. विहरति-अ०। २. कारनिवा-अ० आ० । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५१५ 'अदीदसुमरणं' अतीतकालवृत्तिरतिक्रीडास्मरण । 'अणागदभिलासो' भविष्यति काले एवं ताभिः क्रीडां करि आमि इति रत्यभिलाषः । 'इट्ठविसयसेवा वि य' इष्टविषयसेवापि च । 'अब्बंभं दसविधं एवं' दशप्रकारमब्रह्मतत् । अक्षीणरागस्य परद्रव्योपयोगाद्रागद्वेषौ भवतः । तेन संवृत्त्योपयोगं, परद्रव्यालम्बनं वीतरागतादिषु चरणं ब्रह्मचर्य ततोऽन्यदिदं दशविधमब्रह्मेति निरूपितं ।।८७४।। एवं विसग्गिभूदं अब्बभं दसविहंपि णादव्वं । आवादे मधुरमिव होदि विवागे य कडुयदरं ।।८७५।। ‘एवं विसग्गिभूदं' विषाग्निना सदृशं एतदब्रह्म दशप्रकार मिति ज्ञातव्यं । आपाते मधुरमिव भवति विपाके तु कटुकतमं ।।८७५।। स्त्रीविषयो रागोऽब्रह्म स च तत्प्रतिपक्षभूतवैराग्येन नाशयितु शक्यते इति मत्वा वैराग्योपायकथनायाचष्टे कामकदा इत्थिकदा दोसा असुचित्तवुड्ढसेवा य । संसग्गादोसा वि य करंति इत्थीसु वेरग्गं ।।८७६।। 'कामकदा इत्थिकदा' कामकृताः स्त्रीकृताश्च दोषाः । अशुचित्वं, वृद्धसेवा, संसर्गदोषाश्च कुर्वन्ति स्त्रीषु वैराग्यं ॥८७६।। कामकृतदोषनिरूपणा प्रबन्धन उत्तरेण क्रियते जावइया किर दोसा इहपरलोए दुहावहा होति । सव्वे वि आवहदि ते मेहुणसण्णा मणुस्सस्स ॥८७७।। 'जावदिया किर दोसा' इत्यादिना यावन्तः किल जन्मद्वये, 'दुहावहा' दुःखावहा भवन्ति दोषा हिंसादयस्तान्सर्वानपि आवहति मैथुनसंज्ञा मनुष्यस्य ।।८७७॥ सातवा भेद है । अतीत कालमें की गई रति क्रीडाका स्मरण करना आठवाँ भेद है। भविष्य कालमें मैं उनके साथ इस प्रकार क्रीड़ा करूँगा इस प्रकार अनागत रतिमें अभिलाषा नौवाँ भेद है। इष्ट विषयोंका सेवन दसवाँ भेद है । इस प्रकार अब्रह्मके ये दस भेद हैं ।।८७४॥. गा०-इस प्रकार विष और आगके समान अब्रह्मके दस भेद जानना । यह प्रारम्भमें मधुर प्रतीत होता है किन्तु परिणाममें अत्यन्त कटु होता है ।।८७५।। स्त्री विषयक राग अब्रह्म है। वह अपने विरोधी वैराग्यसे ही नष्ट किया जा सकता है। ऐसा मानकर वैराग्यके उपायोंका कथन करते हैं गा०-काम विकारसे उत्पन्न हुए दोष, स्त्रियोंके द्वारा किये गये दोष, शरीरकी अशुचिता, वृद्ध जनोंकी सेवा, स्त्रीके संसर्गसे उत्पन्न हुए दोष, इनके चिन्तनसे स्त्रियोंमें वैराग्य उत्पन्न होता है ।।८७६॥ आगे कामजन्य दोष कहते हैंगा०-इस लोक और परलोकमें दुःखदायी जितने भी दोष हैं मनुष्यकी मैथुन संज्ञामें वे १. नं ज्ञानं श्रद्धा-आ० मु० । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ भगवती आराधना सोयदि विवदि परितपदी य कामादुरो विसीयदि य । रतििदिया य णिद्दं ण लहदि पज्झादि विमणो य || ८७८ || 'सोयदि विवदि' शोचते, विलपति । परितप्यते । 'कामादुरो विसीयदि य' कामातुरो विषीदति च । नक्तं दिनं निद्रां न लभते । पज्झादि विमनस्को भवति ॥ ८७८ ॥ सयणे जणे य सयणासणे य गामे घरे व रण्णे वा । कामपिसायग्गहिदो ण रमदि य तह भोयणादी ||८७९ || 'सयणे जणे य' स्वजने परजने, शयने, आसने, ग्रामे, गृहे, अरण्ये, भोजनादिक्रियासु च न रमते कामपिशाचगृहीतः ।।८७९॥ कामादुरस्स गच्छदि खणो वि संवच्छरो व पुरिसस्स । सीदंतिय अंगाई होदि अ उक्कंठिओ पुरिसो ||८८० || 'कामादुरस गच्छदि खणो वि' कामव्याधितस्य गच्छति क्षणोऽपि संवत्सर इव । अङ्गानि च सीदन्ति । भवत्युत्कण्ठितश्च पुरुषः ॥ ८८० ॥ पाणिदलधरिदगंडो बहुसो चिंतेदि किं पि दीणमुहो । सीदे विणिवाइज्जइ वेवदि य अकारणे अंगं ॥८८१ ॥ 'पाणिदलधरिवगंडो' पाणितलधृतगंड:, 'बहुसो चितेवि' बहुशश्चितां करोति । किमपि दीनमुखः । शीतेऽपि स्विद्यते । वेपते च अङ्गं कारणमन्यदन्तरेण ॥८८१ ॥ कामु मत्तो संतो अंतो उज्झदि य कामचिंताए । पीदो व कलकलो सो रदग्गिजाले जलंतम्मि ||८८२|| 'कामु मत्तो' कामोन्मत्तः । कामचिन्तया चिरं दह्यते । पीतताम्रद्रव इव । अरत्यग्नेज्वलासु ज्वलन्तीषु ॥८८२ ॥ सब दोष वर्तमान हैं ॥ ८७७॥ गा० - कामसे पीड़ित मनुष्य शोक करता है, विलाप करता है, परिताप करता है, विषाद करता है, रात दिन नहीं सोता । इष्ट स्त्री आदिका स्मरण करता है और अन्यमनस्क होकर धर्म कर्म भी भूल जाता है ||८७८॥ गा० - कामरूपी पिशाचके द्वारा पकड़े गये मनुष्यका मन स्वजनमें, अन्य मनुष्यों में, शयनमें, आसन में ग्राममें, घरमें वनमें और भोजन आदिमें नहीं रमता || ८७९ || गा० - कामसे पीड़ित मनुष्यका एक क्षण भी अंग वेदनाकारक होते हैं । और वह उत्कण्ठित होता है पान में नहीं लगता । वह उसे रुचता नहीं ||८८० ॥ एक वर्षकी उसका मन गा०—वह अपनी हथेलीपर गाल रखकर दीनमुखसे बहुत-सी व्यर्थं चिन्ता किया करता है । शीतकाल में भी पसीनेसे भींग जाता है । विना कारण ही उसके अंग काँपते हैं ||८८१|| तरह बीतता है । उसके उसीमें लगा रहता है खान * Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका कामादुरो णरो पुण कामिज्जते जणे हु अलहंतो । धत्तदि मरिदुं बहुधा मरुप्पवादादिकरणेहिं ॥ ८८३॥ 'कामादुरो' कामातुरो नरः । स्वाभिलषिते जने अलभ्यमाने चेष्टते बहुधा तु । पर्वतोदधिनिपातेन तरुशाखावलम्बनेन, अग्निप्रवेशादिना वा ॥८८३ ॥ | संक पंडयजादेण रागदो सचलजमलजीहेण । विसय बिलवासिणा रदिमुहेण चिंतादिरोसेण ||८८४|| 'संकप्पंडयजादेण' संकल्पाण्डप्रसूतेन । रागद्वेषचलयमलजिह्वेन । विषयविलवासिना रतिमुखेन चिन्तातिरोषेण ||८८४ | कामभुजगेण दट्ठा लज्जाणिम्मोगदप्पदाढेण । संतरा अवसा अणेयदुक्खावहविसेण ||८८५|| ५१७ 'कामभुजंगेण' कामसर्पेण । लज्जात्वक्निर्मोचनकारिसदर्पद्रष्ट्रेण दष्टा अनेकदुःखावहविषेणावशा नरा नश्यन्ति ||८८५ ॥ आसीविसेण अवरुद्धस्स वि वेगा हवंति सत्तेव । दस होंति पुणो वेगा कामभुअंगावरुद्धस्स ॥ ८६ ॥ 'आसीविसेण' आशीविषेण सर्पाग्रणिना दष्टस्यापि सप्तव वेगा भवन्ति । कामभुजङ्गेन दष्टस्य दशवेगा भवन्ति ॥८८६ ॥ तान्दशापि वेगान्क्रमेण दर्शयति- गा० - कामसे उन्मत्त पुरुष अन्तरंग में कामकी चिन्तासे जला करता है । जैसे आगसे तपा ताम्बेका द्रव पीकर मनुष्य अन्तरंग में जलता है वैसे ही वह इच्छित स्त्रीके न मिलनेपर अन्तरंगमें जलती हुई अरतिरूप आगकी ज्वालामें जलता है ||८८२ ॥ गा०-- कामसे पीड़ित मनुष्य अपनी इच्छित स्त्रीके न मिलनेपर प्रायः पर्वतसे गिरकर या समुद्रमें डूबकर या वृक्षकी शाखासे लटककर अथवा आगमें कूदकर मरनेकी चेष्टा करता है ||८८३ ॥ गा० - कामरूप सर्प मानसिक संकल्परूप अण्डेसे उत्पन्न होता है। उसके रागद्वेषरूप दो जिह्वाएँ होती हैं जो सदा चला करती हैं । विषयरूपी बिलमें उसका निवास है । रति उसका मुख है । चिन्तारूप अतिरोष है । लज्जा उसकी कांचली है उसे वह छोड़ देता है । मद उसकी दाढ़ है । अनेक प्रकारके दुःख उसका जहर हैं । ऐसे कामरूप सर्पसे डँसा हुआ मनुष्य नाशको प्राप्त होता है ||८८४-८८५ ।। गा०-- सब सर्पों में प्रमुख आशीविष सर्प होता है । उसके द्वारा इसे मनुष्यके तो सात ही वेग होते हैं । किन्तु कामरूपी सर्पके द्वारा इसे मनुष्यके दस वेग होते हैं | ८८६ ॥ उन दस वेगोंको क्रमसे कहते हैं Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ भगवती आराधना पढमे सोयदि वेगे दट्टु तं इच्छदे विदियवेगे । स्सिदि तदियवेगे आरोहदि जरो चउत्थम्मि ||८८७ || 'पढमे सोयदि वेगे' प्रथमे वेगे शोचति । द्वितीये वेगे स तं द्रष्टुमिच्छति । निःश्वसिति च तृतीये वेगे । आरोहति ज्वरश्चतुर्थे वेगे ||८८७॥ उज्झदि पंचमवेगे अंगं छट्ठे ण रोचदे भत्तं । उम्मत्तो होइ अट्टमए ||८८८|| मुच्छिज्जदि सत्तम 'उज्झदि पंचमवेगे' पञ्चमवेगेऽङ्गं दह्यते । भक्तारुचिः षष्ठे वेगे । सप्तमवेगे मूर्च्छति । उन्मत्तो भवत्यष्टमे ॥ ८८८|| नवमे ण किंचि जाणदि दसमे पाणेहिं मुच्चदि मदंधो । संकप्पवसेण पुणो वेगा तिव्वा व मंदा वा ॥ ८८९ ॥ नवमे नात्मानं वेत्ति । दशमे वेगे प्राणैविमुच्यते । मदान्धस्य संकल्पवशेन पुनस्तीव्रा मन्दा वा भवन्ति वेगाः ||८८९ || जेट्ठामूले जोहे सूरो विमले हम्मि मज्झरहे | ण डहदि तह जह पुरिसं डहदि विवंतओ कामो ॥ ८९० ॥ 'जेट्ठामूले' ज्येष्ठमासे शुक्लपक्षे विमले नभसि मध्याह्ने रविः स न दहति तथा यथा पुरुषं दहति प्रवर्द्ध मानः कामः ॥ ८९० ॥ सूरग्गी डहदि दिवा रतिं च दिया य डहह कामग्गी । सूरस अस्थि उच्छागारो कामग्गणो णत्थि ॥ ८९१ ।। 'सूरग्गी डहदि दिया' सूर्याग्निर्दहति दिवा, नक्तं दिवा दहति कामाग्निः । सूर्यस्याच्छादनकारी छत्रादिकमस्ति न कामाग्नेः ॥ ८९१ ॥ गा० – कामके प्रथम वेगमें सोचता है जिसको देखा या सुना उसके बारेमें चिन्ता करता है । दूसरे वेगमें उसे देखनेकी इच्छा करता है । तीसरे वेगमें दीर्घ निश्वास लेता है । चतुर्थ वेगमें शरीरमें ज्वर चढ़ जाता है ||८८७|| गा० - पाँचवें वेगमें अंग जलने लगते हैं। छठे वेगमें भोजन नहीं रुचता । सातवें वेगमें मूर्च्छित हो जाता है । आठवें वेगमें उन्मत्त हो जाता है ||८८८|| गा० - नौवें वेगमें अपनेको भी नहीं जानता । दसवें वेगमें मर जाता है । इस प्रकार कामान्ध पुरुषके संकल्पवश तीव्र या मन्द वेग होते हैं ॥ ८८९ ॥ गा०—ज्येष्ठमासके शुक्लपक्ष में मध्याह्नकालमें आकाशके निर्मल रहते हुए सूर्य वैसा नहीं जलाता जैसा पुरुषको प्रज्वलित काम जलाता है ||८९० ॥ -सूर्य अग्नि तो केवल दिनको ही जलाती है किन्तु कामाग्नि रात दिन जलाती है । सूर्यके तापसे बचने के उपाय तो छाता आदि हैं किन्तु कामाग्निका कोई उपाय नहीं है ||८९१ ॥ -oll Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१९ विजयोदया टीका विज्झायदि सूरग्गी जलादिएहिं ण तहा हु कामग्गी । सूरग्गी डहइ तयं अब्भंतरबाहिरं इदरो ।।८९२॥ "विज्झायदि सूरग्गी' विध्याति सूर्यजनितस्तापो जलादिभिर्न तथा जलादिभिः कामाग्निः प्रशाम्यति । सूर्यस्योष्णत्वं त्वचं दहति । कामाग्निरन्तर्बहिश्च दहति ॥८९२।। जादिकुलं संवासं धम्मं णियबंधवम्मि अगणित्ता । कुणदि अकज्ज परिसो मेहुणसण्णापसंमढो ॥८९३।। 'जादिकुलं' मातृपितृवंशं । 'संवास' 'सहवसतः । धर्म बान्धवानपि अवगणय्य पुरुषोऽकार्य करोति मैथुनसंज्ञामूढः ॥८९३॥ कामपिसायग्गहिदो हिदमहिदं वा ण अप्पणो मुणदि । होइ पिसायग्गहिदो व सदा पुरिसो अणप्पवसो ॥८९४॥ 'कामपिसायग्गहिदो' कामपिशाचगृहीतः हितमहितं वा न वेत्ति, पिशाचेन गृहीतः पुरुष इव सदा अनात्मवशो भवति ॥८९५।। णीचो व णरो बहुगं पि कदं कुलपुत्तओ वि ण गणेदि । कामुम्मत्तो लज्जालुओ वि तह होदि णिल्लज्जो ।।८९५।। 'णोचो व गरो' नीच इव नरः कृतमपि बहुमुपकारं न गणयति । कुलपुत्रोऽपि सन्कामोन्मत्तो, लज्जावानपि पूर्व विगतलज्जो भवति ।।८९५॥ कामी सुसंजदाण वि रूसदि चोरो व जग्गमाणाणं । पिच्छदि कामग्घत्थो हिदं भणंते वि सन व ।।८९६।। 'कामी सुसंजदाण वि' कामी सुसंयतानामपि रुष्यति । जाग्रतां चोर इव कामग्रस्तः, प्रेक्षते हितं प्रतिपादयतः शत्रुरिव ॥८९६॥ गा०-सूर्यसे उत्पन्न हुआ ताप तो जल आदिसे शान्त हो जाता है किन्तु कामाग्नि जलादिसे शान्त नहीं होती। सूर्यकी गर्मी तो चर्मको ही जलाती है किन्तु कामाग्नि शरीर और आत्मा दोनोंको जलाती है ॥८९२॥ गा०–मैथुन संज्ञासे मूढ़ हुआ मनुष्य मातृवंश, पितृवंश, साथमें रहनेवाले मित्रादि, धर्म, और बन्धु बान्धवोंकी भी परवाह न करके अकार्य करता है ।।८९३॥ गा०-कामरूपी पिशाचके द्वारा पकड़ा गया मनुष्य अपने हित अहितको नहीं जानता । पिशाचके द्वारा पकड़े गये मनुष्यकी तरह अपने वशमें नहीं रहता ।।८९४।। गा०--जैसे नीच मनुष्य किये गये उपकारको भुला देता है वैसे ही कुलीन वंशका भी व्यक्ति कामसे उन्मत्त होकर पूर्वमें लज्जावान होते हुए निर्लज्ज हो जाता है ॥८९५॥ गा०-जैसे चोर जागते हुए व्यक्तियोंपर रोष करता है वैसे ही कामी संयमीजनोंपर रोष १. सहवसनं-आ० मु०। संवासं सहवसतो जनान् मित्रादोन्-मूलारा० । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० भगवती आराधना आयरियउवज्झाए कुलगणसंघस्स होदि पडिणीओ । कामकणिला हु घत्थो धम्मियभावं पयहिदणं ।।८९७।। 'आयरियउवज्झावग' आचार्याणां अध्यापकानां, कुलस्य गुरुशिष्यवर्गस्य, गुरुधर्मभ्रातृशिष्याणां वा चातुर्वर्ण्यस्य वा संघस्य च भवति प्रतिकूलः कामकलिना ग्रस्तः धार्मिकत्वं विहाय ।।८९७।। कामग्धत्थो पुरिसो तिलोयसारं जहदि सुदलाभं । तेलोक्कपूइदं पि य माहप्पं जहदि विसयंधो । ८९८॥ 'कामग्घत्थो' कामग्रस्तः । त्रैलोक्यसर्वसारमपि श्रुतलाभं जहाति । त्रैलोक्येन पूजितमपि माहात्म्यं त्यजति विषयान्धः ।।८९८।। तह विसयामिसघत्थो तणं व तवचरणदंसणं जहइ । विसयामिसगिद्धस्स हु णत्थि अकायव्वयं किंचि ॥८९९।। 'तह विसयामिसघत्यो' विषयामिषलंपटः । तृणमिव तपश्चरणं दर्शनं च जहाति । विषयामिषलंपटस्य नास्त्यकार्य किञ्चित् ।।८९९॥ अरहंतसिद्ध आयरिय उवज्झाय साहु सव्ववग्गाणं । कुणदि अवण्णं णिच्चं कामुम्मत्तो विगयवेसो ॥९००॥ अरहंतसिद्धआपरिय' अर्हता, सिद्धानां, आचार्याणां, उपाध्यायानां, सर्वेषां यतीनां चावर्णवादं करोति नित्यं विकृतवेषः ॥९००। अयसमणत्थं दुःखं इहलोए दुग्गदा य परलोए । संसारं पि अणंतं ण मुणदि विसयामिसे गिद्धो ।।९०१।। करता है । तथा कामी हितकारी बात कहनेवालेको शत्रुके समान देखता है ।।८९६।। गा०-कामरूपी कलिकालसे ग्रस्त मनुष्य धार्मिक भावको त्याग आचार्य, उपाध्याय, कुल-गुरुका शिष्य समुदाय, गण-गुरुके धर्मबन्धुओंका शिष्य समुदाय और चतुर्विध संघका विरोधी बन जाता है ।।८९७|| गा०-कामसे ग्रस्त मनुष्य तीनों लोकोंके सारभूत श्रुतज्ञानके लाभको भी छोड़ देता है । वह विषयान्ध होकर तीनों लोकोंसे पूजित माहात्म्यको भी छोड़ देता है अर्थात् उसे शास्त्र स्वाध्यायमें रस नहीं रहता और कामके पीछे अपना महत्त्व भी भुला देता है ।।८९८।। गा०–तथा विषयरूपी मांसमें आसक्त होकर तप चारित्र और सम्यग्दर्शनको तिनकेकी तरह त्याग देता है । ठीक ही है विषयरूपी मांसके लोभीके लिए कुछ भी अकार्य नहीं है, वह सब कुछ अनर्थ कर सकता है ।।८९९।। गा०-कामसे उन्मत्त साधु साधुरूपको त्यागकर अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सब साधुजनोंका अवर्णवाद करता है, उनपर मिथ्या दोषारोपण करता है ॥९००॥ गा०—विषयरूपी मांसका लोभी मनुष्य अनर्थकारी अपयश, इस लोकके दुःख, परलोकमें दुर्गति और भविष्यमें संसारकी अनन्तताको नहीं जानता। अर्थात् वह इस बातको भुला देता है Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५२१ 'अयसमणत्थं' अयशः अनर्थं । दुःखं चेहलोके परलोके दुष्टां गति, संसारमप्यनन्तं भाविनं न वेत्ति विषयामिषे गृद्धः ॥९०१॥ णिच्च पि विसयहेदुं सेवदि उच्चो वि विसयलुद्धमदी । बहुगं पिय अवमाणं विसयंघो सहइ माणीवि ॥ ९०२ ॥ 'णिच्चं पि विसयहेतु' ज्ञानकुलादिभिरतीव न्यूनमपि सेवते कुलीनो बुद्धिमानपि विषयलुब्धमतिः । परिभवं महान्तमपि धनिभिः क्रियमाणं सहते विषयान्धः || ९०२ ॥ णीच पि कुणदि कम्मं कुलपुत्तदुगुंडियं विगदमाणो | 'वर ओवि कम्मं अकासि जह लंधियाहेदुं ॥९०३॥ 'णीचं पि कुणदि' नीचमपि करोति कर्म उच्छिष्टभोजनादिकं कुलीननिन्दितं विनष्टाभिमानः । वारतिगो नाम यतिरतिगर्हितं कर्म कृतवान् तथा कुलीनः स्त्रीनिमित्तं ॥ ९०३ ॥ सूरो तिक्खो मुक्खो वि होइ वसिओ जणस्स सधणस्स । विसयामिसम्म गिद्ध माणं रोसं च मोत्तूणं ॥ ९०४ ॥ 'सूरो तिक्खो मुक्खो वि होइ' सूरस्तीक्ष्णो मुख्योऽपि धनिनो जनस्य वशवर्ती भवति । विपयाभिलाषे लुब्धः गृद्धः अभिमानं रोषं मुक्त्वा ॥९०४॥ मणी व अरिस्सवि चयम्मं कुणदि णिच्चमविलज्जो । मादा पदरे दासं वायाए परस्स का तो ॥ ९०५ ॥ 'माणी वि असरिसस्स वि' मानी असदृशस्यापि चाटु करोति । वाचा आत्मीयां मातरं पितरं वा दास्यमापादयति । तवाहं दासो गृहे भवामीति वदन्परं कामयमानः ।। ९०५ ।। कि विषयासक्तिका फल संसार में अपयश, इस लोक में कष्ट, परलोकमें दुर्गति है तथा संसारका अन्त होना दुष्कर है || ९०१ || • गा० - विषयोंका लोभी मनुष्य कुलीन और वुद्धिमान् होते हुए भी विषय सेवनके लिए ज्ञान और कुल आदिसे अत्यन्तहीन की भी सेवा करता है । वह विषयान्ध धनी पुरुषोंके द्वारा किये गये महान् तिरस्कारको भी सहन करता है ||९०२ || गा० - वह अपना सन्मान खोकर कुलीन पुरुषोंके द्वारा निन्दित उच्छिष्ट भोजन आदि नीच कर्म करता है । जैसे वारत्रक नामक कुलीन यतिने नर्तकी के लिए अत्यन्त निन्दित काम किया ॥ ९०३ ॥ गा०-1 ० - विषयरूपी मांसका लोभी मनुष्य अभिमान और रोष त्यागकर सूरवीर, असहनशील और प्रमुख होते हुए भी धनी मनुष्यके वशमें हो जाता है ||९०४ || गा० - अभिमानी भी निर्लज्ज होकर अपनेसे नीच पुरुषका नित्य चाटुकर्म-पैर दबाना आदि करता है । अपने माता पिताको उसका दास दासी कहता है और कहता है कि मैं तुम्हारे १. वारत्तिओ आ० मु० । वारत्तओ वारत्रको नाम यतिः - मूलारा० । ६६ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ भगवती आराधना वयणपडिवत्तिकुसलत्तणं पि णासइ णरस्स कामिस्स । सत्थप्पहव्व तिक्खा वि मदी मंदा तहा हवदि ।।९०६।। 'वयणपडियत्तकुसलत्तणं पि' वचने प्रतिपत्तौ च कुशलतापि नश्यति कामिनो नरस्य । शास्त्र प्रहता शास्त्रे घटिता अतितीक्ष्णापि मति कुंठा भवति ॥९०६॥ होदि सचक्खू वि अचक्खु व वधिरो वा वि होइ सुणमाणो । दुट्ठकरेणुपसत्तो वणहत्थी चेव संमूढो ।।९०७।। 'होदि सचक्खू वि अचक्खु व' चक्षुष्मानपि अचक्षुरिव भवति । परं समीपस्थमपि यतो न पश्यति । 'बहिरो वा वि होदि' बधिर इव भवति । 'सुणमाणों' शृण्वन्नपि अव्यक्तश्रवणात । 'दुदु करेणुपसत्तो' दुष्टकरिणीप्रसक्तः । 'वणहत्थो चेव' वनहस्तीव । 'संमूढः ॥९०७॥ सलिलणिवढोव्व णरो बुझंतो विगयचेयणो होदि । दक्खो वि होइ मंदो विसयपिसाओवहदचित्तो ।।९०८।। 'सलिलणिवुढो बुझंतो गरोव्व' सलिलनिमग्नः प्रवाहणोह्यमानो नरो यथा । 'विगयचेयणो' विगतचैतन्यो भवति । 'दक्खो वि होदि मंदो' दक्षोऽपि सर्वकार्येषु प्रवीणोऽपि जडो भवति । 'विसयपिसाओवहदचित्तो' विषयपिशाचोपहतचित्तः विषया रूपादयश्चेतोविभ्रमहेतुत्वात्पिशाचा इवेति विषयाः पिशाचा इत्युक्ताः ॥९०८॥ बारसवासाणि वि संवसित्तु कामादुरों ण णासीय । पादंगुट्ठमसंतं गणियाए गोरसंदीवो ॥९०९।। 'बारसवासाणि' द्वादशवर्षमात्रं सहोषित्वापि । 'कामादुरोपि' कामातुरोऽपि । न ज्ञातवान्गोरसंदीपः । कि ? गणिकायाः पादांगुष्ठमसन्तं ॥९०९॥ घरमें दास बनकर रहूँगा ।।९०५।। गा०-कामी मनुष्यकी वचन. कुशलता और समझदारी नष्ट हो जाती है। शास्त्रमें प्रविष्ट अति तीक्ष्ण भी बुद्धि मन्द हो जाती है ॥९०६॥ गा०-दुष्ट हथनीमें आसक्त जंगली हाथीकी तरह मूढ़ कामी पुरुष नेत्रवाला होकर भी अन्धा होता है क्योंकि उसे समीपकी वस्तु भी नहीं दिखाई देती। तथा कानवाला होकर भी बहरा होता है ।।९०७॥ गा०-जैसे जलमें डूबा और प्रवाहमें बहता मनुष्य चेतनारहित होता है। वैसे ही जिसका चित्त विषयरूपी पिशाचके द्वारा गृहीत है वह मनुष्य सब कार्यों में प्रवीण होते हुए भी • मन्द होता है। यहाँ विषयोंको पिशाच कहा है क्योंकि रूपादि विषय चित्तको मोहमें डाल देते हैं इसलिए वे पिशाचके समान हैं ॥९.०८।। गा०-गोरसंदीप नामक कामपीड़ित मनुष्य बारह वर्ष तक गणिकाके साथ रहकर भी यह नहीं जान सका कि गणिकाके पैर में अंगूठा नहीं है ॥९०९। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका मीदं उण्हं तण्हं खुहं च दुस्सेज्ज भत्त पंथसमं । सुकुमारो वि य कामी सहइ वहइ भार मवि गरुयं ।।९१०॥ 'सीदं उण्हं तण्हं' शीतं, उष्णं, तृष्णां, क्षुधां, दुःशयनं, दुराहारं कृतं, अध्वगमनश्रमं च सहते । कामी सुकुमारोऽपि गुरुमपि भारं वहति ।।९१०।। गायदि णच्चदि धावदि कसइ ववदि लवदि तह मलेइ गरो । .. तुण्णेइ वुणइ जाचइ कुलम्मि जादो वि विसयवसो ।।९१।। 'गायदि णच्चदि' गायति, नृत्यति, धावति, कृषति, वपति, लुनाति, मई यति, सीव्यति, पट्टवस्त्रादिवयनं करोति । याचते कुलप्रसूतोऽपि सन्विषयमुपगत आत्मानं भार्या च पोषयितुं ॥९११॥ सेवदि णियादि रक्खदि गोमहिसिमजावियं हयं हत्थि । ववहरदि कुणदि सिप्पं सिणेहपासेण दढबद्धो ॥९१२।। 'सेवति णियादि' सेवति सस्यान्तर्गतं तृणादिकमेव । निजति, रक्षति गां, महिषीं, अजाः, आविर्क, हयं, हस्तिनो वा। वाणिज्यं करोति । समस्तनैपुण्यं अतीव तत्कर्मादिकं करोति कामिनीगतस्नेहभावेन दृढबद्धः ॥९१२॥ वेढेइ विसयहे, कलत्तपासेहिं दुन्विमोएहिं । कोसेण कोसियारुव्व दुम्मदी णिच्च अप्पाणं ।।९१३।। 'वेढेइ विसयहे,' वेष्टयति विषयहेतनिमित्तं । आत्मानं कलत्रपार्शर्मोचयितुमशक्यैः कोशेन कोशकारकीट इव दुर्मतिः ॥९१३॥ ___ गा०-सुकुमार भी कामी पुरुष सर्दी, गर्मी, प्यास, भूख, खोटी शय्या, खराब भोजन, मार्गमें चलनेका श्रम सहता है और भारी बोझा ढोता हैं ॥९१०॥ ___ गा०-उच्चकुलमें जन्मा भी मनुष्य विषयासक्त होकर गाता है, नाचता है, दौड़ता है, खेत जोतता है, अन्न बोता है, खेती काटता है, अनाज निकालता है, कपड़े सीता है, बुनता है ? यह सब काम विषय परवश होकर अपने और अपनी पत्नीके भरणपोषणके लिए करता है ॥९११॥ गा०-स्त्रीके स्नेहजालमें दृढ़तापूर्वक बँधा मनुष्य राजा आदिकी सेवा करता है, धानके खेतमें लगी घासको उपाडता है । गाय, भैंस, बकरी, भेड़े, घोड़ा, हाथी आदि पालता है। व्यापार करता हैं । शिल्पकर्म-चित्रकला आदि करता है ।।९१२॥ ___ गा०-जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही मुखमेंसे तार निकालकर उससे अपनेको बाँधता है। वैसे ही दुर्बुद्धि मनुष्य विषयोंके लिए स्त्रीरूप पाशके द्वारा, जिसका छूटना अशक्य है, नित्य • अपनेको बाँधता है ।।९१३।। १. -मधिगभयं अ० ज०। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ भगवंतो आराधनी रागो दोसो मोहो कसायपेसुण्ण संकिलेसो य । ईसा हिंसा मोसा सूया तेणिक्क कलहो य || ९१४ || 'रागो दोसो' रागो द्वेषः, अज्ञानं, कषायाः, परदोषसंस्तवनं संक्लेशः, ईर्ष्या, हिंसा, मृषा, परगुणासहनं, स्तन्यं कलहश्च ॥ ११४ ॥ जंपणपरिभवणियडिपरिवादरिपुरोगसोगघणणासो | विसयाउलम्मि सुलहा सव्वे दुक्खावहा दोसा ।। ९९५ ।। ‘जंपणपरिभव' जल्पनं परिभवः वंचना परोक्षेऽपवादः । शत्रुः, रोगः शोको, धननाश इत्यादयः । विसयाजलम्मि सुलहा' विषयाकुले सुलभाः सर्वेऽपि दुःखावहा दोषाः ॥ ९१५॥ न केवलमात्मन एव उपद्रवः अपि तु परोपद्रवमपि करोति कामीति वदति अवि य वहो जीवाणं मेहुणसेवाए होइ बहुगाणं । तिलणालीए तत्ता सलायवेसो व जोणीए ॥ ९१६ ।। 'अवि य वहो जीवाणं' अपि च बहूनां जीवानां वधो भवति । मैथुनसेवया । 'जोणोए' योन्यां तिलै: पूर्णायां नालिकायां तप्तायः शलाकाप्रवेश इव ।।९१६ ।। कामु मत्तो महिलं गम्मागम्मं पुणो अविण्णाय । सुलहं दुलहं इण्डियमणिच्छियं चावि पत्थेदि ॥ ९९७ ॥ 'कामु मत्तो' कामोन्मत्तो । स्त्रियः शरीरमात्मनश्च' गम्यं भोग्यं उतस्विदगम्यमभोग्यमिति अविज्ञाय इदमित्थमशुचि इति । सुलभां दुर्लभां आत्मन्यभिलाषवतीं च प्रार्थयते ॥ ९९७ ॥ गा० - राग, द्व ेष, मोह, कषाय, पैशुन्य - दूसरेके दोष कहना, संक्लेश, ईर्ष्या, हिंसा, पीठ झूठ, असूया -दूसरे के गुणों को सहना, चोरी, कलह, वृथा बकवाद, तिरस्कार, ठगना, पीछे बुराई करना, शत्रु, रोग, शोक, धननाश इत्यादि सब दुःखदायी दोष विषयासक्त व्यक्तिमें सुलभ होते हैं ॥ ९१४ -९१५॥ आगे कहते हैं कि कामी पुरुष केवल अपना ही घात नहीं करता, दूसरोंका भी घात करता है गा०-- जैसे तिलोंसे भरी नलिकामें तपाये हुए लोहेकी सलाईके प्रवेशसे तिलोंका घात होता है वैसे ही मैथुन सेवनसे योनि में स्थित बहुतसे जीवोंका घात होता है || ९१६ || गा०- कामसे उन्मत्त पुरुष यह स्त्री भोगने योग्य है या अयोग्य है, सुलभ है या दुर्लभ है, मुझे चाहती है या नहीं चाहती, इत्यादि जाने बिना उसकी याचना करता है ॥ ९९७ ॥ १. श्च गम्यं भोग्यं उतस्विदगम्यमभोग्य मिति अवि-मु० । गम्मागम्मं स्त्रियाः शरीरमात्मनश्च गम्यं भोग्यं उतस्विदगम्यमभोग्यमिति टीकाकारः । अन्ये तु गम्मागम्ममित्यपि महिलाविशेषणमाहुः । तथा च तद्ग्रन्थः 'कामोन्मत्तो गम्यामगम्यरूपां च दुर्लभां सुलभाम् । अज्ञात्वा प्रार्थयते भोक्तुं सेच्छामथानिच्छाम्' । —मूलारा० । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका . ५२५ दळूण परकलत्तं किहिदा पत्थेइ णिग्घिणो जीवो । ण य तत्थ किं पि सुक्खं पावदि पावं च अज्जेदि ।।९१८ 'दळूण परकलत्तं' परेषां कलत्रं दृष्ट्वा । कथं तावत् प्रार्थयते जीवो निरस्तलज्जो ममेयं भवतीति । एतस्यां प्रार्थनामात्राधिगतायां दुःखं प्राप्नोति । पापं नियोगेनार्जयति ।।९१८।। आहट्टिदूण चिरमवि परस्स महिलं लभित्तु दुक्खेण । उप्पित्थमवीसत्थं अणिन्वुदं तारिसं चेव ॥९१९॥ 'आहट्रिदूण चिरमवि' चिरकालमभिलष्यापि । 'परस्स महिलं' परस्य महिलां परस्य स्त्रियं । 'दुक्खेण लभित्तु' क्लेशेन लब्ध्वा । 'उप्पित्थं' व्याकुलवदविश्वस्तमनिवृतं चरणं इति क्रियाविशेषत्वेन नेयं । 'तारिसो चेव' यथा तदैवाप्राप्तेः पूर्वमतृप्तहृदयः पश्चादपि तथैवातृप्तहृदयत्वात्तादृश इत्युच्यते ॥९१९॥ कहमवि तमंघयारे संपत्तो जत्थ तत्थ वा देसे । किं पावदि रइसुक्कं भीदो तुरिदो वि उल्लावो ॥९२०॥ 'कथमपि तमंधकारे' केनचित्प्रकारेण परवञ्चनं ज्ञात्वा । अंधकारं संप्राप्तः । तां यत्र तत्र वा देशे, शून्यगृहे शून्यायतने, अटव्यां च किं प्राप्नोति ? रतिसौख्यं । प्रकाशे स्वाभिलषितानवयवांस्तस्याः पश्यतो मृदुनि शयनतले विगतमनोव्याकुलस्य सुखं भवति । नान्यथेति भावः । किं प्राप्नोति रतिसुखं भीतः सन् राजपुरुषेभ्यस्तस्य वा संबन्धिभ्यः । पश्यन्ति मां परे, बघ्नन्ति मा, परपत्नीनिवासं भाषणं अपि तया त्वरितं किं पुना रतम् ॥९२०॥ परमहिलं सेवंतो वेरं वधबंधकलहधणनासं । पावदि रायकुलादो तिस्से णीयल्लयादो वा ॥९२१।। गा०—पर स्त्रीको देखकर कामान्ध पुरुष लज्जा त्याग कैसे प्रार्थना करता है कि यह मेरी होवे : उसमें उसे कुछ भी सुख नहीं उल्टे, पापका ही उपार्जन करता है ॥९१८।। गा०-चिरकाल तक अभिलाषा करनेपर कदाचित् बड़े कष्टसे परस्त्रीका लाभ भी हो जाये तो उसके मिलनेसे पूर्व वह जैसा व्याकुल, अविश्वस्त और अतृप्त रहता है मिलनेपर भी वैसा ही रहता है ॥९१९॥ गा०-टी-किसी प्रकार दूसरोंको धोखा देकर अन्धकारमें किसी शून्य घरमें या जंगलमें उसे पाकर भी क्या रति सख पाता है वह कामी। प्रकाशमें कोमल शय्यापर मनकी व्याकुलताके अभावमें उस नारीके इच्छित अंगोंको देखते हुए सुख होता है, अन्यथा नहीं होता। किन्तु राजपुरुषोंसे अथवा उस नारीके सम्बन्धियोंसे भयके होते हुए कि मुझे कोई देखे नहीं, कोई बाँधे नहीं, कि.पर पत्नीके साथ निवास करता है, ऐसी स्थिति में भाषण करनेकी भी जल्दी रहती है, रमण करनेकी तो बात ही क्या ? तब क्या सुख मिल सकता है ? ॥९२०।। आ०-अन्नकाल ज०। ३. नीति वा १. कृत्वा-आ० । २. अन्वकालं-अ० । अन्धकालं संभा०-आ० मु०। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ • भगवती आराधना 'परमहिलं सेवंतो' परस्त्रियं सेवमानः, वैरं, वधं, वन्धं, कलह, धननाशं च प्राप्नोति 'राजमूलात् तस्याः स्वजनाद्वा ।।९२१।। जदि दा जणेइ मेहुणसेवा प्पवंस दारम्मि । अदितिव्वं कह पावं ण हुज्ज परदारसेविस्स ॥९२२।। 'जदि ता जणेइ' यदि तावज्जनयति मैथुनकमसेवा । किं ? पापं स्वभार्यायां । अतितीव्र कथं पाएंग भवेत् 'परदारसेविस्स' परस्त्रीसेविनः अदत्तादानमब्रह्मेति द्वौ यतो दोषौ ॥९२२॥ मादा धूदा भज्जा भगिणीसु परेण विप्पयम्मि कदे । जह दुक्खमप्पणो होइ तहा अण्णस्स वि णरस्स ।।९२३॥ 'मादा धूदा' मातरि दुहितरि भगिन्यां परेण विप्रिये कृते कर्मणि यथा दुःखमात्मनो भवति । तथाऽन्यस्यापि नरस्य दुःखं भवति । तन्मात्रादिविषये असद्व्यवहारे सति ॥९२३॥ एवं परजणदुक्खे हिरवेक्खो दुक्खबीयमज्जेदि । ' णीयं गोदं इत्थीणउंसवेदं च अदितिव्वं ।।९२४॥ 'एवं परजणदुःखे' एवमन्यजनदुःखे निरपेक्षः परदाररतिप्रियो दुःखबीजं संचिनोति । किं ? असद्वेद्यं कर्म, नीचैर्गोत्रं, स्त्रीत्वं, नपुंसकत्वं च ।।९२४॥ जमणिच्छंती महिलं अवसं परिभंजदे जहिच्छाए । तह य किलिस्सइ जं सो तं से परदारगमणफलं ॥९२५॥ 'जमणिच्छंती महिलं' यन्नेच्छन्ती पुमांसं स्त्रीत्वेन अवशा यथेच्छया परिभुज्यमाना यक्लिश्यति तत्तस्या जन्मान्तराचरितपरदारगमनफलं ॥९२५।। गाo-परस्त्रीका सेवन करने वाले के सव वैरी होते हैं। वह राजाके पुरुषोंसे अथवा उस स्त्रीके सम्बन्धियोंसे बध, वन्धन, कलह और धन नाशका कष्ट पाता है ।।९२१।। गा०–यदि अपनी पत्नीमें भी मैथुन सेवनसे पाप कर्मका बन्ध होता है तो परस्त्री सेवीको अति तीव्र पापका वन्ध क्यों नहीं होगा; क्योंकि उसमें चोरी और अब्रह्म सेवन दो दोष हैं ॥९२२।। गा०-अपनी माता, पुत्री और बहिनके प्रति यदि कोई अप्रिय व्यवहार करे तो जैसे हमें दुःख होता है वैसे ही दूसरोंकी माता आदिके विषयमें असद् व्यवहार करने पर दूसरों को भी दुःख होता है ।।९२३॥ ___ गा०-इस प्रकार दूसरों के दुःखका ध्यान न रखनेवाला परस्त्रीगामी पुरुष दुःखके बीज नीचगोत्र, स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका अति तीव्र बन्ध करता है ।।९२४॥ गा०—इस जन्ममें जो स्त्री परवश होकर ऐसे पुरुषके द्वारा, जिसे वह नहीं चाहती, यथेच्छ भोगी जाती और कष्ट पाती है यह उसके पूर्वजन्ममें किये गये पर स्त्री-गमनका फल है ।।९२५॥ १. राजकुलात्-आ० । २. वा पावं सगम्मि दारम्मि-आ० मु० । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५२७ महिलावेसविलंवी जणीचं कुणइ कम्मयं परिसो । तह विण पूरइ इच्छा तं से परदारगमणेफलं ॥९२६॥ 'महिलावेसविलंबी' स्त्रीवेषविलम्बनापरः पुरुषो यन्नीचं कर्म करोति । तथापि न पूर्यते इच्छा तत्तस्य पंढत्वं परदारगमनफलम् ।।९२६॥ भज्जा भगिणी मादा सुदा य बहुएसु भवसयसहस्सेसु । अयसायासकरीओ होति विसीला य णिच्चं से ॥९२७।। 'भज्जा भगिणी मादा' भार्या भगिनी माता सुता च बहुषु भवसहस्रेषु अयशः आयासं कुर्वन्त्यो भवन्ति नित्यं विशीलास्सदा तस्य ॥९२७॥ होइ सयं पि विसीलो पुरिसो अदिदुब्भगो परभवेसु । पावइ वघबंधादि कलहं णिच्चं अदोसो वि ॥९२८।। होदि सयं पि' भवति स्वयमपि विशीलः, पुरुषो दुर्भगश्च प्राप्नोति नित्यं च वधबन्धं आत्मा सकलहं च अदोषोऽपि ॥९२८॥ इहलोए वि महल्लं दोसं कामस्स वसगदो पत्तो । कालगदो वि य पच्छा कडारपिंगो गदो णिरयं ॥९२९॥ 'इहलोए वि महल्लं कडारपिंगो' इहलोकेऽपि महान्तं दोषं प्राप्तः कामवशङ्गतः। कालं कृत्वा पश्चान्नरके प्रविष्टः कडारपिङ्गः । वाच्यमत्राख्यानकम् ॥९२९॥ . एदे सव्वे दोसा ण होंति पुरिसस्स बंभचारिस्स । तविवरीया य गुणा हवंति बहुगा विरागिस्स ॥९३०॥ विशेषार्थ-पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें 'अन्ये' कहकर इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार लिखा है-जो पुरुष उसे न चाहनेवाली नारीको बलपूर्वक यथेच्छ भोगता है और भोगते हुए भी सुख नहीं पाता, यह उसके परस्त्री भोगका फल है जो कष्टरूप है ॥९२५।। गा-स्त्रीका वेश धारण करनेवाला जो पुरुष (नपुंसक) नीच कर्म करता है, और यहाँ वहाँ काम क्रीड़ा करके भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसका यह नपुंसकपना परस्त्रीगमनका फल है ।।९२६।। गा-परस्त्रीगामीकी भार्या, बहन, माता, पुत्री, लाखों जन्मोंमें अपयश और दुःख देनेवाली सदा व्यभिचारिणी होती हैं ।।९२७।। गा०-परस्त्रीगामी स्वयं भी परभवोंमें (आगामी जन्मोंमें) दुराचारी और अभागा होता है और विना अपराधके भी कलहपूर्वक नित्य बध, बन्ध आदिका कष्ट उठाता है ॥९२८॥ गा०-कामके वशीभूत होकर कडारपिंग इसी जन्ममें महान् दोषका भागी हुआ। पीछे मरकर नरकमें गया ॥९२९|| १. भवसहस्सेसु-आ० । २. परेषु-अ० आ० । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ भगवती आराधना 'एदे सवे' एते सर्वे दोषा न भवन्ति ब्रह्मचारिणः पुंसः । तद्विपरीताश्च गुणा भवन्ति बहवो विरागस्य ॥९३०॥ कामग्गिणा धगधगतेण य उज्झंतयं जगं सव्वं । पिच्छइ पिच्छयभूदो सीदीभूदो विगदरागो ॥९३१॥ 'कामग्गिणा' कामाग्निना । धगधगायमानेन दह्यमानेन । दह्यमानं जगत्सवं प्रेक्षते प्रेक्षकभूतः स्वयं विरतीभूतः । कः ? वीतरागः ॥९३१॥ इत्थिकथा इत्येतद्व्याख्यानायोत्तरः प्रबन्धः । कामकदा महिला कुलं सवासं पदि सुदं मादरं च पिदरं च । विसयंधा अगणंती दुक्खसमुद्दम्मि पाडेइ ॥९३२।। महिला दुःखसमुद्रे पातयति विषयांचा अगणयन्ती। किं ? कुलं सहवासिनः पति, सुतं, मातरं च पितरं च ॥९३२॥ माणुण्णयस्स पुरिसदुमस्स णीचो वि आरुहदि सीसं । महिलाणिस्सेणीए णिस्सेणीए व्व दीहदुमं ॥९३३॥ 'माणुग्णयस्स' मानोन्नतस्य पुरुषद्रुमस्य शिर आरोहति नीचपुरुषोऽपि महिलानिःश्रेयिण्या निश्रेण्या दीर्घमिव द्रुमं ॥९३३।। पव्वदमित्ता माणा पुंसाणं होंदि कुलबलधणेहिं । बलिएहिं वि अक्खोहा गिरीव लोगप्पयासा य ॥९३४॥ ‘पव्वदमित्ता माणा' भवन्ति मानानि पुरुषाणां कुलबलधनैः । बलिभिः अक्षोभ्याणि गिरिवल्लोके प्रकाशभूतानि च ॥९३४।। विशेषार्थ-कडारपिंगकी कथा सोमदेवके उपासकाध्ययनमें आई है। गा०-ब्रह्मचारी पुरुषके ये सब दोष नहीं होते। प्रत्युत विरागीके इन दोषोंसे विपरीत बहुतसे गुण होते हैं ।।९३०॥ गा-विरागी मुक्तात्माकी तरह प्रज्वलित कामाग्निसे जलते हुए सब जगत्को एक प्रेक्षकके रूपमें देखता है । अर्थात् वह केवल द्रष्टा ही रहता है उसके कष्टसे स्वयं पीड़ित नहीं होता ॥९ आगे 'इत्थी कथा'-स्त्री कथाका व्याख्यान करते हैं. गा०-विषयसे अन्धी हुई स्त्री किसीकी परवाह न करके अपने कुलको, साथमें रहने वाले पति, पुत्र, माता और पिताको दुःखके समुद्र में गिरा देती है ।।९३२।। गा०-जैसे नसैनीके द्वारा छोटा आदमी भी ऊँचे वृक्ष पर चढ़ जाता है वैसे ही महिला रूपी नसैनीके द्वारा नीच पुरुष भी मानसे उन्नत पुरुष रूपी वृक्षके सिर पर चढ़ जाता है अर्थात् स्त्रीके कारण नीच पुरुषके द्वारा गर्वोन्नत मनुष्यका भी सिर नीचा हो जाता है ।।९३३।। गा०-कुल बल और धनसे पुरुषोंका अहंकार सुमेरुपर्वतके समान जगत्में विख्यात है। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५२९ ते तारिसया माणा ओमच्छिज्जंति दुट्ठमहिलाहिं । जह अंकुसेण णिस्साइज्ज हत्थी अदिवलो वि ।।९३५।। 'ते तारिसणा माणा' तानि तथाभूतानि मानानि अवमथ्यन्ते दुष्टस्त्रीभिः । यथा अङ्कशेन निषद्या .कार्यते हस्तो अतिबलोऽपि ।।९३५।। .. आसीय महाजुद्धाइं इत्थिहेर्नु जणम्मि बहुगाणि । भयजणणाणि जणाणं भारहरामायणादीणि ।।९३६॥ 'आसीय महाजुद्धाणि' आसन्महायुद्धानि जगति स्त्रीनिमित्तानि बहूनि भयजननानि जनानां भारतरामायणादीनि ।।९३६।। महिलासु णत्थि वीसंभपणयपरिचयकदण्णदा हो । लहु मेव परगयमणा ताओ सकुलंपि जहति ॥९३७।। 'महिलासु' स्त्रीषु न सन्ति विस्रभः प्रणयः, परिचयः, कृतज्ञता, स्नेहश्च । सहसा परगतचित्तास्ताः स्वकुलं जहति ॥९३७॥ परिसस्स दु वीसंभं करेदि महिला बहुप्पयारेहिं । महिला वीसंमेदं बहुप्पयारेहिं वि ण सक्का ।।९३८॥ 'पुरिसस्स दु वीसंभ' पुरुषस्य विस्रम्भं जनयन्ति स्त्रियो बहुभिः प्रकारैर्युवतीविस्रम्भं नेतुं न शक्ताः पुमांसः ॥९३८॥ अदिलहुयगे वि दोसे कदम्मि सुकदस्सहस्समगणंती । पइ अप्पाणं च कुलं धणं च णासंति महिलाओ ।।९३९।। 'अदिलहुयगे वि दोसे' स्वल्पेऽपि दोषे कृते सुकृतशतमप्यगणय्य पति, आत्मानं, कुलं, धनं च नाशयन्ति युवतयः ॥९३९॥ उसे बलवान भी नहीं हिला सकते ।।९३४|| गा०—किन्तु इस प्रकारके अहंकार भी दुष्ट स्त्रियोंके द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। जैसे अंकुशसे अति बलवान हाथी भी बैठा दिया जाता है ।।९३५।। गा०-स्त्रीके कारण इस जगत्में भारत रामायण आदिमें वर्णित अनेक महायुद्ध हुए जो लोगोंके लिये भयकारक थे ।।९३६|| गा०—स्त्रियों में विश्वास, स्नेह, परिचय, कृतज्ञता नहीं है। वे पर पुरुषपर आसक्त होनेपर शीघ्र ही अपने कुलको अथवा कुलीन भी पतिको छोड़ देती हैं ।।९३७|| - गा०-स्त्री अनेक प्रकारोंसे पुरुषमें विश्वास उत्पन्न करती हैं किन्तु पुरुष अनेक उपायोंसे भी स्त्रीमें विश्वास उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता ।।९३८।। गा०-थोड़ा-सा भी अपराध होनेपर स्त्री सैकड़ों उपकारोंको भुलाकर अपना, पतिका, १. णिसियाविज्जादि-मूलारा० । २. णाओ-आ० मु० । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० भगवती आराधना आसीविसो व्व कुविदा ताओ दूरेण 'णिहुदपावाओ । रुट्ठो चंडो राया व ताओ कुव्वंति कुलधादं ॥९४०॥ 'आसोविसो व्व' आशीविष इव कुपितस्ता दूरेण ढौकितुं न शक्याः । रुष्टश्चण्डो राजेव ताः कुर्वन्ति कुलघातं ॥९४०॥ अकदम्मि वि अवराधे ताओं वीसत्थमिच्छमाणीओ। कुव्वंति वहं पदिणो सुदस्स ससुरस्स पिदुणो वा ।।९४१॥ ..'अकवम्मि वि' अकृतेऽपि । 'अवराधे' अपराधे । 'ताओ' ताः । 'वोसत्यमिच्छमाणीओ' स्वेच्छाप्रवृत्तिमभिलषन्त्यः । 'पदिणो वधं कुवंति' पत्युर्वधं कुर्वन्ति, 'सुदस्स' सुतस्य, 'ससुरस्स' श्वशुरस्यापि । “पिदुणो वा' पितुर्वा वधं कुर्वन्ति ।।९४१।। सक्कारं उवकारं गुणं व सुहलालणं च णेहो वा। मधुरवयणं च महिला परगदहिदया ण चिंतेइ ।। ९४२।। 'सक्कार' सत्कारं सन्मानं । 'उवयार' उपकारं, 'गुणं' कुलरूपयौवनादिकं गुणं च पत्युः । 'सुहलालणं' सुखेन पोषणं च । 'हो वा' स्नेहं च 'महुरवयणं च' मधुरवचनं च । 'महिला' युवतिः । ‘परगदहिदया' परपुरुषानुरक्तचित्ता। 'ण चितेइ' न चिन्तयति ॥९४२।। साकेदपराधिवदी देवरदी रज्जसुक्खपन्भट्टो । पंगुलहे, छूडो णदीए रत्ताए देवीए ॥९४३॥ 'साकेदपुराधिवदो' साकेतपुरस्य स्वामी । 'देवरवी' देवरतिसंज्ञितः । 'रज्जसोक्खपन्भट्टो' राज्येन सौख्येन च नितरां भ्रष्टः । 'पंगुलहेदु' पङ्गुलनिमित्तं गन्धर्वप्रवीणेन पङ्गुना सह जीवितुमभिलषन्त्या । 'छुडो' विक्षिप्तः । 'गदीए' नद्यां । 'रत्ताए देवीए' रक्तानामधेयया देव्या ॥९४३।। कुलका और धनका नाश कर देती है ॥९३९।। गा०-क्रुद्ध सर्पकी तरह उन स्त्रियोंको दूरसे ही त्यागना चाहिए। रुष्ट प्रचण्ड राजाकी तरह वे कुलका नाश कर देती हैं ।।९४०॥ । ___ गा०-वे स्वच्छन्द प्रवृत्तिको इच्छासे विना किसी अपराधके पति, पुत्र, श्वसुर अथवा पिताका घात कर देती हैं ॥९४१।। गा०-परपुरुषमें जिसका चित्त लग जाता है वह स्त्री अपने पतिके, सन्मान, उपकार, कुल, रूप, यौवन आदि गुण, स्नेह, सुखपूर्वक लालन-पालन और मधुर वचनोंका भी विचार नहीं करती ॥९४२॥ गा०-अयोध्या नगरीका स्वामी देव रति राज्य सुखसे वञ्चित हो गया उसको रवता नामकी रानीने गान-विद्यामें प्रवीण एक लगड़े व्यक्तिपर आसक्त होकर अपने पतिको नदीमें फेंक दिया ॥९४३।। १. दूरेण अणदिअप्पावो-अ० .. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५३१ ईसालुयाए गोववदीए 'गामकूडधूयिया चेव । छिण्णं पहदो सीसं भल्लेण पासे सीहबलो ।।९४४॥ 'ईसालुयाए' ईर्ष्यावत्या । कोववदीए' कोपवतीनामधेया तया । 'गामकूटधूदिगा एव' ग्रामकूटस्य. दुहितुः । 'सोसं छिण्णं' शिरश्छिन्नं । 'पहदो' प्रहतस्तथा । 'भल्लएण' शक्त्या। 'पासम्मि' पार्श्वदेशे । 'सीहबलो' सिंहबलसंज्ञितः ॥९४४|| वीरमदीए सूलगदचोरदट्ठोडिगाए वाणियओ। पहदो दत्तो य तहा छिण्णो ओट्ठोत्ति आलविदो ।।९४५।। 'वीरवदीए' वीरपतीसंज्ञिकया। 'सूलगदचोरट्ठोद्विगाए' शूलस्थचोरदष्टाधरया। 'वाणियगो' वणिक्सुतः । 'पहदो' प्रहतः । 'दत्तो य' दत्तश्च । 'तहा' तथा । 'छिण्णो ओट्रोत्ति' ओष्ठच्छेदोऽनेन कृतः इति च । 'आलविदो' भणितः ॥९४५॥ वग्घविसचोरअग्गीजलमत्तगयकण्हसप्पसत्तुसु । सो वीसंभं गच्छदि वीसंभदि जो महिलियासु ।।९४६।। 'वग्यविसचोरअग्गीजलमत्तगयकिण्हसप्पसत्तूसु' व्याघ्र, विणे, चोरे, अग्नी, जले, मत्तगजे, कृष्णसर्प, शत्रौ च । 'सो विस्संभं गच्छदि' स विस्रम्भं गच्छति । 'विस्संभदि जो महिलियासु' विस्रम्भं यः करोति वनितासु ।।९४६।। वग्घादीया एदे दोसो ण णरस्स तह करेज्जण्हू । जं कुणइ महादोसं दुट्ठा महिला मणुस्सस्स ।।९४७॥ गा०-ईर्ष्यालु कोपवतीने ग्रामकूटकी पुत्रीका सिर काट दिया और सिंहबलकी कोखमें भाला भोंक दिया ॥९४४।। विशेषार्थ - देवरति और सिंहबलकी कथा बृहत्कथाकोशमें ८५-८६ नम्बरपर हैं। उसमें गोमती नाम है ।।९४४।। गा०-वीरमती एक चोरसे फंसी थी। उसे सूली दी गई तो वह उससे मिलने गई। चोरने कहा-अपने मुखका पान दो। इस बहाने चोरने उसका ओठ काट लिया। उसने कहा कि मेरे पति दत्तने मेरा ओठ काट लिया ॥९४५।। विशेषार्थ-बृहत्कथाकोशमें वीरवतीकी कथाका क्रमाङ्क ८७ है ॥९४५।। गा०-जो स्त्रियोंका विश्वास करता है वह व्याघ्र, विष, चोर, आग, पानी, मत्त हाथी, कृष्ण सर्प, और शत्रुका विश्वास करता है अर्थात् स्त्रीपर विश्वास ऐसा ही भयानक है जैसा इनपर विश्वास करना भयानक है ।।९४६।। २. गोववदीए १.""गामकूडधुदिया सीसं। छिण्णं पहदो तध भल्लएण पासम्मि"-म० । गोपवती-मु० । गोववदीए गोपवती संज्ञया-मूलारा० । ३. वीरमती-आ० । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना व्याघ्रादिषु विस्रम्भगमनात्पापीयो विस्रम्भगमनं वनितास्विति कथयत्युत्तरगाथा । 'वग्घादीया' व्याघ्रविषादयः पूर्वसूत्रनिर्दिष्टा: । 'दोसं' दोषं । 'नरस्य' नरस्य । 'ण करिज्जण्हू' न कुर्युः । 'जं कुर्णादि महादोसं ' यं करोति महान्तं दोषं । 'दुट्ठा महिला' दुष्टा वनिता । 'मणुस्सस्स ' मनुष्यस्य ॥ ९४७ ॥ ५३२ पाउसकालणदीवोव्व ताओ णिच्चंपि कलुसहिदयाओ । धणहरणकदमदीओ चोरोव्व सकज्जगुरुयाओ || ९४८ ॥ 'पाउसका लणदीवोव्व' प्रावृट्कालस्य नद्य इव । 'ताओ' ताः । 'णिच्चं पि' नित्यमपि । 'कलुस्सहिदयाओ' कलुषहृदयाः । स्त्रीषु हृदयशब्देन चित्तमुच्यते । नदीष्वभ्यन्तरं । रागेण, द्वेषेण, मोहेन, ईयया, असूयया, मायया वा कलुषीकृतमेव चित्तं तासां । 'चोरोग्व' चोर इव । 'सकज्जगुरुगाओ' स्वकार्ये गुर्व्यः । 'धणहरणकदमवीओ' धनापहरणे कृतबुद्धयः । चौरा अपि कथमस्माभिरिदमेतदीयमात्मसात्कृतं भवतीति कृतबुद्धयः । ता अपि मधुरवचनेन रतिक्रीडानुकूलतया वा पुरुषस्य द्रव्यमाहत्तुमुद्यताः ॥ ९४८ ॥ रोगो दारिद्द वा जरा व ण उवेइ जाव पुरिसस्स । ताव पिओ होदि णरो कुलपुत्तीए वि महिलाए ।। ९४९ । 'रोगो दारिद्दं वा' व्याधिर्दारिद्र्यं वा । जरा वा । 'ण उवदि' न ढौकते यावत्पुरुषं । 'ताव पिओ होवि ' तावत्प्रियो भवति नरः । 'कुलपुत्तीए वि' कुलपुत्र्या अपि । महिलाए कान्तायाः । कुलपुत्रीषु वान्याः " किमस्ति साध्यो हि प्रायेण कुलपुत्र्यः पतिमेव देवतेति मन्यमानाः प्रियं त्यजन्तीति ॥ ९४९ ॥ जुण्णो व दरिदो वा रोगी सो चेव होइ से वेसो | णिप्पीलिओ उच्छू मालाव मिलाय गदगंधा ॥ ९५० ॥ व्याघ्रादिमें विश्वास करनेकी अपेक्षा स्त्रियों में विश्वास करना अधिक खतरनाक है यह कहते हैं गा० To - पूर्व गाथा में कहे गये व्याघ्र आदि मनुष्यका उतना अहित नहीं करते, जितना महान् अहित दुष्ट स्त्री करती है ||९४७ || गा० - टी० - वर्षाकालकी नदियोंकी तरह स्त्रियोंका हृदय भी नित्य कलुषित रहता है । स्त्रियोंके पक्ष में हृदय शब्दका अर्थ चित्त है और नदियोंके पक्ष में अभ्यन्तर है। राग, द्वेष, मोह, ईर्ष्या, परनिन्दा अथवा मायाचार से स्त्रियोंका चित्त सदा कलुषित रहता है । चोरकी तरह वे भो अपना कार्य करनेमें तत्पर रहती है और उनकी बुद्धि मनुष्यका धन हरनेमें रहती है। चोर भी यही विचारते रहते हैं कि कैसे हम इनका धन हरण करें। स्त्रियाँ भी मोठे वचनोंसे अथवा रतिक्रीड़ा में अनुकूल बनकर पुरुषका द्रव्य हरने में तत्पर रहती है ॥ ९४८॥ गा - कुलीन महिलाएँ प्रायः पतिको ही देवता मानकर अपने प्रियको छोड़ देती हैं । किन्तु कुलीन नारियोंका भी मनुष्य तभी तक प्रिय रहता है जब तक उसे रोग या दारिद्रय, बुढ़ापा नहीं सताता ||९४९|| १. वाच्यः ज० । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ५३३ 'जुण्णो' वृद्धो वा 'दरिद्दो' दरिद्रः । 'रोगिदो' व्याधितः । 'सो चेव' स एव युवत्वे धनित्वे नीरोगत्वे वा य: प्रियः स एव होधि' भवति । 'से' तस्याः । 'वेसो' देष्यः । गिप्पीलिदोव्व' निष्पीडित इव 'उच्छ' इक्षुः । ‘मालाव मिलाय गदगंधा' मालेव म्लाना नष्टगन्धा । अपहृतरस इक्षुः शोभारहितनिर्गन्धमाला च यथाऽप्रिया । यौवनं, धनं, शक्तिश्च पुंसोऽतिशयस्तदपाये नवासाविष्यते स्त्रीभिः ।।९५०।। महिला पुरिसमवण्णाए चेव वंचइ णियडिकवडेहिं । महिला पुण पुरिसकदं जाणइ कवडं अवण्णाए ॥९५१।। 'महिला पुरिसमवण्णाए' वनिता पुरुषमनादरेणैव वञ्चयति । निकृत्या कपटतया च स्त्रीभिः कृतां निकृति वश्चनां शठतां च न जानन्ति पुमांसः । 'महिला पुण' वामलोचना पुनः 'जाणदि' जानाति । कि ? कपटशतं 'पुरिसकदं' पुरुषेण कृतं । 'अवण्णाए' अवज्ञया औदासीन्येनैव अक्लेशेनेति यावत् ॥९५१॥ नरो ह्येवं मन्यते प्रियोऽहमेतस्या इति न' च सा इत्याचष्टे जह जह मण्णेइ गरो तह तह परिभवइ तं परं महिला । जह जह कामेइ गरो तह तह पुरिसं विमाणेइ ।।९५२।। 'जह जह मण्णेइ गरो' यथा यथा मानयति नरः तथा तथा परिभवति तं नरं युवतिः । 'जह जह कामेदि गरो' यथा यथा कामयते मनुष्यस्तथा तथा 'पुरिसं विमाणेदि' तथा तथा पुरुषं विमानयति ॥९५२॥ मत्तो गउव्व णिच्चं पि ताउ मदविभलाओ महिलाओ। दासेव सगे पुरिसे किं पि य ण गणंति महिलाओ ॥९५३॥ 'मत्तो गओव्द' मत्तगज इव । 'णिच्च' नित्यं । 'ताओ मदविभलाओ' मदेन विह्वला युवतयः । 'दासे व सगे पुरिसे' दासे वा स्वपुरुषे वा। "किंचिवि' किञ्चिदपि विशेषजातं । 'ण गणंति' नैव गणयन्ति । कुलीनोऽयं मान्यो भर्ता स्वामी मम । दास्याः पुत्रोऽयं जघन्यः अहमस्य 'स्वामिनीति विवेकं (न) करोति ॥९५३॥ गा०-टी०-युवावस्थामें, धनी अवस्थामें अथवा नीरोग अवस्थामें जो मनुष्य स्त्रियोंको प्रिय होता है वही मनुष्य वृद्ध, दरिद्र अथवा रोगी होने पर रस निकाली हुई ईखकी तरह अथवा गन्ध रहित मलिन मालाकी तरह अप्रिय होता है। अर्थात् रस निकाली हुई ईख और शोभा रहित गन्धहीन माला जैसे अप्रिय होती है वैसे ही यौवन धन और शक्ति पुरुष की विशेषताएँ हैं, उनके न रहने पर उसे स्त्रियाँ पसन्द नहीं करतीं ॥९५०॥ गा०-स्त्री पुरुषको छल कपटके द्वारा अनायास ही ठग लेती है, पुरुष स्त्रियोंके छल कपटको जान भी नहीं पाता। किन्तु पुरुषके द्वारा किये गये कपटको स्त्री तुरन्त जान लेती है उसे उसके लिये कुछ भी कष्ट उठाना नहीं होता ॥९५१।।। पुरुष समझता है कि मैं इसको प्रिय हूँ किन्तु स्त्री ऐसा नहीं समझती, यह कहते हैं गा०-जैसे जैसे पुरुष स्त्रीका आदर करता है वैसे वैसे स्त्री उसका निरादर करती है। जैसे जैसे मनुष्य उसकी कामना करता है वैसे वैसे वह पुरुषको अवज्ञा करती है ॥९५२।। गा०—मत्त हाथीको तरह स्त्रियाँ मदसे उन्मत्त रहती हैं। वे अपने दासमें और पतिमें कुछ १. न चासौ प्रिय इ-आ० म०। २. स्वामी नेति-ज० । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना अणिहुदपरगदहिदया तावो वग्धीव दुट्ठहिदयाओ । पुरिसस्स ताव सत्तू व सदा पावं विचितंति ॥९५४।। 'अणिहदपरगदहिदया ताओ' अनिभृतं परगतं हृदयमासामिति अनिभृतपरगतहृदया भवन्ति । अनिवारितपरासक्तचित्ततादोषाः । 'वग्धीव दुट्ठहिदयाओ' दुष्टहृदयमासां अकृतेऽप्यपकारे यथा व्याघ्री परं मारयितुमेव कृतचित्तेति दुष्टहृदया एवमिमा अपि । 'पुरिसस्स ताव' पुरुषस्य तावत् । 'सत्तू व सदा पावं विचितंति' शत्रुरिव सदा पापमेव अशुभमेव चेतसि कुर्वन्ति । यथा यो रिपुः कश्चित्कस्यचित्सर्वदा धनमस्य 'विनश्यतु, विपदोऽस्य भवन्त्विति चित्तं करोति तथैव ता अपि ।।९५४।। संझाव गरेसु सदा ताओ हुँति खणमेत्तरागाओ । वादोव महिलियाण हिदयं अदिचंचलं णिच्चं ॥९५५।। 'संझाव गरेसु सदा ताओ होंति' संध्या इव नरेषु सदा ता भवन्ति । 'खणमित्तरागाओ' अल्पकालरागाः । अस्थिररागता नाम दोषः प्रकटितः । यथा संध्याया रक्तता विनाशिनी। 'महिलियाणं हिदयं अदिचंचलं णिच्चं' स्त्रीणां हृदयं अतिचञ्चलं नित्यं । किमिव ? 'वादो व' वात इव ॥९५५।। जावइयाई तणाई वीचीओ वालिगाव रोमाइं । लोए हवेज्ज तत्तो महिलाचिंताई बहुगाइं ॥९५६॥ 'जावइयाई' यावन्ति तृणानि, 'वोचयः', वालुकाः, रोमाणि' च जगति ततो युवतीनां चिन्ता बढ्यः ।।९५६॥ आगास भूमि उदधी जल मेरू वाउणो वि परिमाणं । मार्नु सक्का ण पुणो सक्का इत्थीण चित्ताई ॥९५७।। भी अन्तर नहीं करतीं। यह मेरा मान्य कुलीन पति है और यह दासीका पुत्र नीच है, मैं इसकी स्वामिनी हूँ यह भेद नहीं करती ।।९५३।। गा० टी०-उनका चित्त निरन्तर पर पुरुषमें रहता है। तथा व्याघ्रीकी तरह उनका हृदय दुष्ट होता है। जैसे व्याघ्री कोई अपकार न करने पर भी दूसरेको मारनेका ही विचार रखती है उसी तरह ये स्त्रियाँ भी होती हैं। वे शत्रुके समान सदा पुरुषके अशुभका ही चिन्तन करती हैं। जैसे किसीका कोई शत्रु सदा चित्तमें सोचता रहता है-इसका धन नष्ट हो जाये, इस पर विपत्तियाँ आयें, वैसे ही स्त्रियाँ भी सदा बुरा विचारा करती हैं ।।९५४॥ गा०-सन्ध्याकी तरह स्त्रियोंका राग भी अल्प काल रहता है। जैसे सन्ध्याकी लालिमा विनाशीक है वैसी ही स्त्रियोंका अनुराग भी विनाशीक है। इससे अस्थिर रागता नामक दोष प्रकट किया है । तथा महिलाओंका हृदय वायु को तरह सदा अति चंचल होता है ॥९५५।। गा०—लोकमें जितने तृण हैं, (समुद्रमें) जितनी लहरें हैं, बालुके जितने कण हैं तथा जितने रोम हैं, उनसे भी अधिक स्त्रियोंके मनोविकल्प हैं ।।९५६।। १. विनश्यति-अ० आ० । २. भवन्तीति-अ० आ० । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५३५ 'आगासभूमि' आकाशस्य भूमेरुदधेर्जलस्य, मेरोर्वायोश्च परिमाणमस्ति । स्त्रीणां चित्तं पुनर्मातुन शक्यमस्ति ॥९५७॥ चिट्ठति जहा ण चिरं विज्जुज्जलबुव्वुदो व उक्का वा । तह ण चिरं महिलाए एक्के परिसे इवदि पीदी ॥९५८॥ 'जहा ण चिरं चिट्ठति' यथा न चिरं तिष्ठन्ति विद्युतः । जलबुद्बुदा उल्काश्च तथा वनितानां न कस्मिंश्चित्पुरुष प्रीतिश्चिरं तिष्ठति ॥९५८।। परमाणू वि कहंचिवि आगच्छेज्ज गहणं मणुस्सस्स । ण य सक्का घेत्तु जे चित्तं महिलाए अदिसण्हं ॥९५९।। परमाणुरपि कथंचिन्मनुष्यस्य ग्रहणमागच्छेत् । वनितानां चित्तं पुनः ग्रहीतुं न शक्नतिसूक्ष्म ॥९५९॥ कुविदो व किण्हसप्पो दुट्ठो सीहो गओ मदगलो वा । सक्का हवेज्ज घेत्तु ण य चित्तं दुट्ठमहिलाए ॥९६०॥ 'कुविदो व' कुपितः कृष्णसर्पः दुष्टः सिंहो, मदगजो वा ग्रहीतु शक्यते । न तु ग्रहीतुं शक्यते दुष्टवनिताचित्तम् ॥९६०॥ सक्कं हविज्ज दट्ठ विज्जुज्जोएण रूवमच्छिम्मि । ण य महिलाए चित्तं सक्का अदिचंचलं णादु ॥९६१॥ 'सक्कं हवेज्ज' विद्युद्योतेन अक्षिस्थं रूपं द्रष्टुं शक्यं न पुनयुवतिचित्तमतिचपलं अवगन्तुं शक्यम् ।।९६१॥ गा०-आकाशकी भूमि, समुद्रके जल, सुमेरु और वायुका भी परिमाण मापना शक्य है किन्तु स्त्रियोंके चित्तका मापना शक्य नहीं है ।।९५७|| गा-जैसे बिजली, पानीका बुलबुला और उल्का बहुत समय तक नहीं रहते, वैसे ही स्त्रियोंकी प्रीति एक पुरुषमें बहुत समय तक नहीं रहती ॥९५८॥ . . गा-परमाणु भी किसी प्रकार मनुष्यकी पकड़में आ सकता है। किन्तु स्त्रियोंका चित्त पकड़में आना शक्य नहीं है वह परमाणुसे भी अति सूक्ष्म है ॥९५९|| गा०-क्रुद्ध कृष्ण सर्प, दुष्ट सिंह, मदोन्मत हाथीको पकड़ना शक्य हो सकता है किन्तु दुष्ट स्त्रीके चित्तको पकड़ पाना शक्य नहीं है ॥९६०॥ .. . गा०-बिजलीके प्रकाशमें नेत्रमें स्थित रूपको देखना शक्य है किन्तु स्त्रियोंके अति चंचल चित्तको जान लेना शक्य नहीं है ॥९६१।। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ भगवती आराधना 'अणुवत्तणाए गुणवयणेहि य चित्तं हरंति पुरिसस्स । मादा व जाव ताओ रत्तं परिसं ण याणंति ॥९६२॥ अलिएहि हसियवयणेहिं अलियरुयणेहि अलियसवहेहिं । पुरिसस्स चलं चित्तं हरंति कवडाओ महिलाओ ।।९६३।। महिला पुरिसं वयणेहिं हरदि पहणदि य पावहिदएण । वयणे अमयं चिट्ठदि हियए य विसं महिलियाए ॥९६४॥ 'महिला पुरिसं वयणेहि' वनिता पुरुषं वचनहरति । हन्ति च पापेन हृदयेन । वाक्ये मधु तिष्ठति । हृदये विषं युवतीनाम् ।।९६४॥ तो जाणिऊण रत्तं पुरिसं चम्मट्टिमंसपरिसेसं । उद्दाहंति वघंति य बडिसामिसलग्गमच्छं व ॥९६५॥ उदए पवेज्ज हि सिला अग्गी ण डहिज्ज सीयलो होज्ज | ण य महिलाण कदाई उज्जुयभावो गरेसु हवे ॥९६६।। 'उदए पवेज्ज खु' उदके तरेदपि शिला, अग्निरपि न दहेत्, शीतलो वा भवेत् । नैव वनितानां कदाचिन्नरेषु ऋजु भवति मनः ।।९६६॥ उज्जयभावम्मि असनयम्मि किंध होदि तासु वीसंभो । विस्संभम्मि असंते का होज्ज रदी महिलियासु ॥९६७।। गा-जब तक वे पुरुषको अपनेमें अनुरक्त नहीं जानती तब तक वे पुरुषके अनुकूल वर्तनके द्वारा तथा प्रशंसा परक वचनोंके द्वारा पुरुषके मनको उसी प्रकार आकृष्ट करती हैं जैसे माता बालकके मनको आकृष्ट करती है ।।९६२।। गा०-बनावटी हास्य वचनोंसे, बनावटी रुदनसे, झूठी शपथोंसे कपटी स्त्रियाँ पुरुषके चंचल चित्तको हरती हैं ।।९६३॥ गा०-स्त्री वचनोंके द्वारा पुरुषको आकृष्ट करती है और पापपूर्ण हृदयसे उसका घात करती है । स्त्रीके वचनोंमें अमृत भरा रहता है और हृदयमें विष भरा होता है ॥९६४॥ गा०-जब वे जानती हैं कि हमारेमें अनुरक्त पुरुषके पास चाम हड्डी और मांस ही शेष है तो उसे वंशोमें लगे मांसके लोभसे फँसे मत्स्यकी तरह संताप देकर मार डालती हैं ॥९६५।। गा०-शिला पानीमें तिर सकती है। आग भी न जलाकर शीतल हो सकती है किन्तु स्त्रीका मनुष्यके प्रति कभी भी सरल भाव नहीं होता ॥९६६|| ___ गा०-सरल भावके अभाव में कैसे उनमें विश्वास हो सकता है। और विश्वासके अभावमें स्त्रियोमें प्रेम कैसे हो सकता है ।।९६७|| १-२. एते द्वे अपि गाथे टीकाकारो नेच्छति । ३. एतां टीकाकारो नेच्छति । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५३७ 'उज्जुगभावम्मि' ऋजुभावे असति कथं भवति तासु विस्रम्भः । असति विस्रम्भे का वनितासु रतिः ॥९६७॥ गच्छिज्ज समुद्दस्स वि पारं पुरिसो तरित्तु ओघबलो। मायाजलमहिलोदधिपारं ण य सक्कदे गंतुं ॥९६८।। 'गच्छिज्ज' गच्छेत् समुद्रस्य अपि परं पारं तीर्खा महाबलः । मायाजलवनितोदधिपारं नैव गन्तुं शक्नोति ॥९६८॥ रदणाउला सवग्धावगुहा गाहाउला च रम्मणदी। मधुरा रमणिज्जावि य सढा य महिला सदोसा य ॥९६९॥ 'रदणाउला' रत्नसंकीर्णा सव्याघ्रा गुहेव रम्या नदी ग्राहाकुलेव मधुरा रम्या शठा सदोषा च वनिता ॥९६९।। दिलृ पि सब्भावं पडिज्जदि णियडिमेव उद्देदि । गोधाणुलुक्कमिच्छी करेदि पुरिसस्स कुलजावि ।।९७०॥ 'विट्ठ पि' दृष्टमपि न प्रतिपद्यते सद्भाव निकृतिमेवोपन्यस्यति ॥९७०॥ पुरिसं वधमुवणेदित्ति होदि बहुगा णिरुत्तिवादम्मि । दोसे 'संघादिदि य होदि य इत्थी मणुस्सस्स ॥९७१।। 'पुरिसं बधमुवणेदित्ति' पुरुषं वधमुपनयतीति वधूरिति निरुच्यते। मनुष्यस्य दोषान्संहतान्करोतीति स्त्रीति निगद्यते ॥९७१।। गा०–महाबलशाली मनुष्य समुद्रको भी पार करके जा सकता है। किन्तु मायारूपी जलसे भरे स्त्रीरूपी समुद्रको पार नहीं कर सकता ॥९६८|| ___गा०–रत्नोंसे भरी किन्तु व्याघ्र के निवाससे युक्त गुफा और मगरमच्छसे भरी सुन्दर नदीकी तरह स्त्री मधुर और रमणीय होते हुए भी कुटिल और सदोष होती है ॥९६९|| गा०-दूसरेने स्त्रीमें दोष देखा हो तो भी स्त्री यह स्वीकार नहीं करती कि मेरेमें यह दोष है । प्रत्युत यही कहती है कि मेरा यह दोष नहीं है या मैंने ऐसा नहीं किया है। इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं-जैसे गोह जिस भूमिको पकड़ लेती है, बलपूर्वक छुड़ाने पर भी उसे नहीं छोड़ती। उसी प्रकार स्त्री भी अपने द्वारा गृहीत पदको नहीं छोड़ती। अन्य भी अर्थ टीकाकारोंने किया है-जैसे गोह पुरुषको देखकर उससे अपनेको छिपाती है उसी प्रकार स्त्री भी पुरुषको देखकर अपनेको छिपाती है कि यह मुझे न देख सकें। अथवा दूसरेने कोई अच्छा कार्य किया और स्त्रीने उसे देखा भी, फिर भी वह उसे स्वीकार नहीं करती, बल्कि व्यंग रूपसे उसको बुरा ही कहती है ।।९७०॥ गा०-स्त्री वाचक शब्दोंकी निरुक्तिके द्वारा भी स्त्रीके दोष प्रकट होते हैं-पुरुषका वध करती है इसलिये उसे वधु कहते हैं। मनुष्यमें दोषोंको एकत्र करती है इसलिये स्त्री कहते हैं ।।९७१।। १. संघाडेत्ति-मूलारा । ६८ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना तारिसओ णत्थि अरी णरस्स अण्णोत्ति उच्चदे णारी | पुरिसं सदा पमत्तं कुदित्ति य उच्चदे पमदा ॥ ९७२ ॥ 'तारिसओ' तादृगन्यो नरस्य नारिरस्तीति नारीत्युच्यते । पुरुषं सदा प्रमत्तं करोतीति प्रमदेति निरुच्यते ॥ ९७२ ॥ ५३८ 'गलए लायदि पुरिसस्स अणत्थं जेण तेण विलया सा | जोदि रं दुक्खेण तेण जुवदी य जोसा य ॥९७३॥ अवलति होदिजं से ण दढं हिदयम्मि घिदिवलं अस्थि । कुम्मरणोपायं जं जणयदि तो उच्चदि हि कुमारी ॥ ९७४ ॥ आलं जणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण महिला सा । एयं महिलाणामाणि होंति असुभाणि सव्वाणि ॥ ९७५ ॥ froओ कलीए अलियम्स आलओ अविणयस्स आवासो । आयसस्सावसघो महिला मूलं च कलहस्स || ९७६॥ 'जिलओ कलीए' कलेनिलयः । व्यलीकस्यालयः । अविनयस्याकरः । आयासस्यावकाशः । कलहस्य च मूलं युवतिः ॥ ९७६ ॥ सोगस्स सरी वेरस्स खणी णिवहो वि होइ कोहस्स । णिचओ णियडीणं आसवो महिला अकित्तीए ॥ ९७७ ॥ 'सोगस्स सरी' ' शोकनिम्नगाथा नदी । वैरस्य खनिः । निवहः कोपस्य । निचयो निकृतीनां । अकीर्ते राश्रयो युवतिः ॥९७७॥ गा० - मनुष्यका ऐसा 'अरि' शत्रु दूसरा नहीं है इसलिए उसे नारी कहते हैं । पुरुषको सदा प्रमत्त करती है इसलिये उसे प्रमदा कहते हैं ||९७२ ॥ गा० – पुरुषके गलेमें अनर्थ लाती है । अथवा पुरुषको देखकर विलीन होती है इसलिए विलया कहते हैं । पुरुषको दुःखसे योजित करती है इससे युवती और योषा कहते हैं ||९७३ ॥ गा०—उसके हृदयमें धैर्यरूपी बल नहीं होता अतः वह अबला कही जाती है । कुमरणका उपाय उत्पन्न करनेसे कुमारी कहते हैं || ९७४॥ गा० - पुरुष पर आल - दोषारोप करती है इसलिए महिला कहते हैं । इस प्रकार स्त्रियोंके सब नाम अशुभ होते हैं ।। ९७५ ॥ T गा० - स्त्री रागद्व ेषका घर है । असत्यका आश्रय है । अविनयका आवास है, कष्टका निकेतन है और कलहका मूल है ||९७६ || गा० - शोकको नदी है । वैरकी खान है । क्रोधका पुंज है । मायाचारका ढेर है । अपयशका आश्रय है || ९७७॥ १-२-३. एतद् गाथात्रयं टीकाकारो नेच्छति । ४. शोकस्य नदी, वैरस्यावनिः- आ० मु० । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५३९ णासो अत्थस्स खओ देहस्स य दुग्गदीपमग्गो य । आवाहो य अणत्थस्स होइ पहवो य दोसाणं ॥९७८।। 'णासो अत्थस्स' अर्थस्य नाशः । देहस्य क्षयः । दुर्गतेर्मार्गः । अनर्थस्य कुल्या । दोषाणां प्रभवः ॥९७८॥ महिला विग्यो धम्मस्स होदि परिहो य मोक्खमग्गस्स । दुक्खाण य उप्पत्ती महिला सुक्खाण य विपत्ती' ॥९७९।। 'महिला विग्यो' वनिता विघ्नो भवति । 'धम्मस्स' धर्मस्य । 'परिघों' मोक्षमार्गस्य । दुःखानां चोत्पत्तिः । सौख्यानां च विपत्तिः ॥९७९॥ पासो व बंघिदं जे छेत्तं महिला असीव पुरिसस्स । सिल्लं व विघिदुजे पंकोव निमज्जिदु महिला ॥९८०॥ 'पासो व बंधिदु जे' पाश इव बंधितु । सुगमा गाथा इति नादरो व्याख्याने ॥९८०॥ मूलो इव भित्तुं जे होइ पवोढुं तहा गिरिणदी वा । पुरिसस्स खुप्पदुकद्दमोव मचुव्व मरिदुजे ।।९८१॥ अग्गीवि य डहिदु जे मदोव पुरिसस्स मुज्झिदु महिला । महिला णिकत्तिदु करकचोव कंडूव पउलेदु ॥९८२॥ पाडेदु परसू वा होदि तह मुग्गरो व ताडेदु। अवहणणं पि य चुण्णेदु जे महिला मणुस्सस्स ॥९८३॥ ___ गा०-धनका नाश करने वाली है । शरीरका क्षय करती है । दुर्गतिका मार्ग है । अनर्थके लिए प्याऊ है और दोषोंका उत्पत्ति स्थान है ।।९७८।। गा०-स्त्री धर्ममें विघ्नरूप है। मोक्षमार्गके लिए अर्गला (साकल) है, दुःखोंकी उत्पत्तिका स्थान है और सुखोंके लिए विपत्ति है ।।९७९॥ गा०-स्त्री पुरुषको बाँधनेके लिए पाशके समान है। मनुष्यको काटनेके लिए तलवारके समान है । बीघनेके लिये भालेके समान है और डूबनेके लिये पंकके समान है ॥९८०॥ गा०-स्त्री मनुष्यके भेदनेके लिए शूलके समान है। संसार रूपी समुद्र में गिरनेके लिए नदीके समान है । खपानेके लिए दलदलके समान है। मारनेको मृत्युके समान है ।।९८१।। गा०-जलानेको आगके समान है। मदहोश करनेके लिए मदिराके समान है। काटनेके लिए आरेके समान है । पकानेके लिए हलवाईके समान है ।।९८२।। गा०—विदारण करनेके लिए फरसाके समान है। तोड़नेके लिए मुद्गरके समान है, चूर्ण करनेके लिए लुहारके घनके समान है ।।९८३।। १. विक्ती-मु०, मूलारा० । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० भंगवतो आराधना चंदो हविज्ज उण्हो सीदो सरो वि थड्डमागासं । ण य होज्ज अदोसा भद्दिया वि कुलबालिया महिला ।।९८४।। एए अण्णेय बहुदोसे महिलाकदे वि चिंतयदो । महिलाहितो विचित्तं उब्वियदि विसग्गिसरसीहिं ।।९८५।। वग्घादीणं दोसे णच्चा परिहरदि ते जहा पुरिसो । तह महिलाणं दोसे द? महिलाओ परिहरइ ॥९८६॥ महिलाणं जे दोसा ते पुरिसाणं पि हुंति णीयाणं । तत्तो अहियदरा वा तेसिं बलसचिजुत्ताणं ॥९८७।। जह सीलरक्खयाणं पुरिसाणं णिदिदाओ महिलाओ । तह सीलरक्खियाणं महिलाणं णिदिदा पुरिसा ॥९८८।। किं पुण गुणसहिदाओ इथिओ अस्थि वित्थडजसाओ । णरलोगदेवदाओ देवेहिं वि वंदणिज्जाओ ।।९८९॥ तित्थयरचक्कधरवासुदेवबलदेवगणधरवराणं । जणणीओ महिलाओ सुरणरवरेहिं महियाओ ॥९९०।। गा०-कदाचित् चन्द्रमा उष्ण हो जाय, सूर्य शीतल हो जाय, आकाश कठोर हो जाय, किन्तु कुलीन स्त्री भी निर्दोष और भद्र परिणामी नहीं होती।।९८४|| गा०-स्त्रियोंके इन तथा अन्य बहुतसे दोषोंका विचार करने वाले पुरुषोंका मन विष और आगके समान स्त्रियोंसे विमुख हो जाता है ।।९८५।। गा०-जैसे पुरुष व्याघ्र आदिके दोष देखकर व्याघ्र आदिको त्याग देता है उनसे दूर रहता है, वैसे ही स्त्रियों के दोष देखकर मनुष्य स्त्रियोंसे दूर हो जाता है ॥९८६।। गा०—स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरुषोंमें भी होते हैं अथवा मनुष्योंमें जो बल और शक्तिसे युक्त होते हैं उनमें स्त्रियोंसे भी अधिक दोष होते हैं ॥९८७॥ गा०-जैसे अपने शीलकी रक्षा करने वाले पुरुषोंके लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं। वैसे ही अपने शीलकी रक्षा करने वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं ।।९८८।। गा०-जो गुणसहित स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोकमें फैला हुआ है, तथा जो मनुष्य लोकमें देवता समान हैं और देवोंसे पूजनीय हैं उनकी जितनी प्रशंसा की जाये, कम है ।।९८९।। गा०–तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरोंको जन्म देने वाली महिलाएँ श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषोंके द्वारा पूजनीय होती है ।।९९०।। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४१ विजयोदया टोकां एगपदिव्वइकण्णावयाणि धारिति कित्तिा महिलाओ । वेधव्वतिव्वदुक्खं आजीवं णिति काओ वि ॥९९१।। सीलवदीवो सुच्चंति महीयले पत्तपाडिहेराओ । सावाणुग्गहसमत्थाओ वि य काओवि महिलाओ ॥९९२।। ओग्घेण ण बूढाओ जलंतघोरग्गिणा ण दड्ढाओ । सप्पेहिं 'सावदेहि य परिहरिदाओव काओ वि ॥९९३।। सव्वगुणसमग्गाणं साहूणं पुरिसपवरसीहाणं । चरमाणं जणणित्तं पत्ताओ हवंति काओ वि ॥९९४॥ मोहोंदयेण जीवों सव्वो दुस्सीलमइलिदो होदि । सो पुण सव्वो महिला पुरिसाणं होइ सामण्णो ॥९९५।। तम्हा सा पल्लवणा पउरा महिलाण होदि अधिकिच्चा । सीलवदीओ भणिदे दोसे किह णाम पावंति ।।९९६॥ इत्थिगदा ।।९९६।। स्त्रीगतान्दोषानभिवाद्य अशुचिनिरूपणार्थं उत्तरप्रबन्धः देहस्स बीयणिप्पत्तिखेतआहारजम्मवुड्ढीओ। अवयवणिग्गमअसुई पिच्छसु वाधी य अधुवत्तं ॥९९७।। गा०—कितनी ही महिलाएँ एक पतिव्रत और कौमार ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं। कितनी ही जीवन पर्यन्त वैधव्यका तीव्र दुःख भोगती हैं ॥९९१॥ ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवोंके द्वारा सन्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शीलके प्रभावसे शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ थीं ।।९९२।। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदीके जल प्रवाहमें भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आगमें भी नहीं जल सकी तथा सर्प व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके ।।९९३।। कितनी ही स्त्रियाँ सर्व गुणोंसे सम्पन्न साधुओं और पुरुषोंमें श्रेष्ठ चरम शरीरी पुरुषोंको जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं ।।९९४।। सब जीव मोहके उदयसे कुशीलसे मलिन होते हैं । और वह मोहका उदय स्त्री-पुरुषोंके समान रूपसे होता है ।।९९५॥ गा०-अतः ऊपर जो स्त्रियोंके दोषोंका वर्णन किया है वह स्त्री सामान्यकी दृष्टिसे किया है । शीलवती स्त्रियोंमें ऊपर कहे दोष कैसे हो सकते हैं ॥९९६।। इस प्रकार स्त्रियोंके गुण-दोषोंका वर्णन सम्पूर्ण हुआ। स्त्रियोंके दोषोंको कहनेके पश्चात् अशुचित्वका कथन करते हैं १. कित्तिमालाओ इति पाठान्तरं मूलारा० । २. सावज्जेहि वि हरिदा खद्धाण काओवि-आ०म० । ३.पण्णवणा आ० । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ भगवती आराधना देहस्य बीज इत्यादिकः । देहस्य बीजं, निष्पत्तिः, क्षेत्रं, आहारः, जन्म, वृद्धिः, अवयवः, निर्गमः, . अशुचिः, व्याधिरध्र वतेत्येतान्पश्येति सूरिब्रवीति क्षपकं ॥९९७।। देहस्य बीजमित्येतद्व्याख्यानायोत्तरगाथा देहस्स सुक्कसोणिय असुई परिणामिकारणं जम्हा । देहो वि होइ असुई अमेज्झघदपूरओ व तदो ॥९९८॥ 'देहस्य बीज' मनुजानां शुक्रशोणितं । अशुचि शुक्रं पुंसः, शोणितं च वनितायाः परिणामि कारणं । 'जम्हा' यस्मात् । परिणामिकारणं शरीरत्वेन तदुभयं परिणमति तस्मात्परिणामिकारणं । 'देहोवि असुइ' शरीरमपि अशुचि तत एव । 'अमेझघरपूरगों व' अमेध्यघृतपूरक इव । यदशुचिपरिणामि कारणं तदशुचि यथाsमेध्यघृतपूरकः अशुचिपरिणामकारणं च शरीरं इति सूत्रार्थः ॥९९८॥ दद्रुवि अमेज्झमिव विहिंसणीयं कुदो पुणो होज्ज । ओज्जिग्घिदुमालधुं परिभोत्तुं चावि तं बीयं ॥९९९।। _ 'बटुं वि य' द्रष्टुमपि । 'विहिंसणीय' जुगुप्सनीयं । 'अमेज्ममिव' अमेध्यमिव । 'कुदो पुणो होज्ज ओज्जिग्घिदु" कुतः पुनर्भवेदाघ्रातु। 'आलधु' आलिङ्गितु। 'परिभोत्तुं चावि' परिभोक्तु चापि । 'तं बीज' तत् शुक्रशोणिताख्यं बीजं । तत्परिणामत्वाच्छरीरमपि तदेव बीजमिदं शरीरमिति मत्वा बीजमिति उक्तं ॥९९९॥ परिणामिकारणशुद्धया तत्परिणामरूपं कार्य शुद्धं भवति शरीरं न तथेति कथयति समिदकदो घद्पुण्णो सुज्झदि सुद्धत्तणेण समिदस्स । असुचिम्मि तम्मि बीए कह देहो सो हवे सुद्धो ॥१०००। गा०-हे क्षपक ! ब्रह्मचर्य व्रतकी सिद्धिके लिए मनुष्योंके शरीरके बीज, उत्पत्ति, क्षेत्र, आहार, जन्म, जन्मके पश्चात् होने वाली वृद्धि, अवयव, कान आदि अंगोंसे निकलने वाला मल, अशुचिता, व्याधि और अध्रुवपनको देखो। ऐसा आचार्य कहते हैं ॥९९७|| गा०-टो०-मनुष्यों के शरीरका बीज रज और वीर्य है जो अशुचि है। वही परिणामिकारण है। पुरुषका वीर्य और स्त्रीका रज ये दोनों शरीर रूपसे परिणमन करते हैं इसलिए ये दोनों परिणामिकारण हैं। इसीसे शरीर भी अशुचि हैं जैसे मलसे बना घेवर अशुचि होता है । जिसका परिणामिकारण अशुचि होता है वह अशुचि होता है। जैसे मलिन वस्तुसे बना घेवर । शरीरका परिणामिकारण रज और वीर्य अशुचि है इसलिए शरीर अशुचि है। यह इस गाथा सूत्रका अभिप्राय है ॥९९८॥ गा-जो विष्टाकी तरह देखनेमें भी ग्लानिके योग्य है वह रज और वीर्य नामक बीज सूंघने, आलिंगन करने और भोगनेके योग्य कैसे हो सकता है ? रज और वीर्य रूप बीज शरीरका परिणामिकारण है अतः शरीरको बीज मानकर 'बीज' शब्दसे शरीरका निर्देश किया है ।।९९९।। आगे कहते हैं कि परिणामिकारणके शुद्ध होनेसे उसका परिणाम रूप कार्य शुद्ध होता हैगा०-जैसे 'समिद' अर्थात् गेहूँके चूर्णसे बना घेवर शुद्ध होता है क्योंकि उसका परिणामि Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५४३ 'समिदकदो घदपुण्णो सुज्झवि' कणिकाकृतं घृतपूर्णकं 'सुज्झदि' शुद्धयति । 'सुद्धत्तणेण' शुद्धतया । 'समिदस्स' कणिकाद्रव्यस्य । 'असुचिम्मि बीए' अशुचिबीजे तस्मिन्स्थिते । 'कह देहो सो हवे सुद्धो' देहः परिणामः कथं शुद्धयति । बीयं ॥१०००॥ शरीरनिष्पत्तिक्रमनिरूपणार्थ उत्तरप्रबन्धः कललगदं दसरत्तं अच्छदि कलुसीकदं च दसरत्तं । थिरभूदं दसरत्तं अच्छदि गब्भम्मि तं बीयं ॥१००१॥ 'कललगदं' कललत्वं नाम पर्यायः तं गतं प्राप्तं बीजं दश दिनमात्रं । 'अच्छदि' आस्ते । 'कलुसीकदं' च कलुषीकृतं च । दश रात्रमात्रं अवतिष्ठते । 'थिरभूदं दसरत्तं' स्थिरभूतं यावद्दशदिनमात्रं । 'अच्छवि' आस्ते । 'गब्भम्मि' गर्ने । 'तं बीज' तबीजं ॥१००१।। तत्तो मासं बुब्बुदभूदं अच्छदि पुणो वि घणभूदं । जायदि मासेण तदो मंसप्पेसी य मासेण ॥१००२॥ 'तत्तो' स्थिरभावोत्तरकालं । 'मासं बुबुदभूतं अच्छदि' मासमात्र बुद्बुद इव आस्ते। 'पुणो वि घणभूदं' पुनरपि धनभूतं । 'जायदि मासेण' जायते मासेन ततोऽपि धनभावादुत्तरकालं । 'मासेण' मासेन । 'मंसप्पेसीय' मांसपेशी भवति ॥१००२।। मासेण पंच पुलगा तत्तो हुँति हु पुणो वि मासेण । अंगाणि उवंगाणि य परस्स जायंति गम्भम्मि ॥१००३।। 'मासेण पंच पुलगा' मासेन पञ्च पुलका भवन्ति । 'पुणो वि मासेण' पुनरुत्तरेण मासेन । 'अंगाणि उवंगाणि य' अङ्गान्युपाङ्गानि च । 'णरस्स जायंति गन्भम्भि' नरस्य जायन्ते गर्भे ॥१००३॥ मासम्मि सत्तमे तस्स होदि चम्मणहरोमणिप्पत्ती । फंदणमट्ठममासे णवमे दसमे य णिग्गमणं ॥१००४॥ कारण गेहूँका चूर्ण शुद्ध है। किन्तु जिसका बीज अशुद्ध है उससे बना शरीर शुद्ध कैसे हो सकता है ॥१०००॥ शरीरकी रचनाका क्रम कहते हैं गा०-गर्भमें स्थित माताका रज और पिताका वीर्यरूप बीज दस दिनतक कललरूपमें रहता है । फिर दस दिन तक कालिमारूप होता है फिर दस दिन तक स्थिर रहता है ।।१००१।। गा०—स्थिर होनेके पश्चात् एक मास तक बुलवुलेकी तरह रहता है । पुनः एक मास तक धनभूत अर्थात् कठोररूप रहता है। फिर एकमासमें मांसके पिण्डरूप होता है ।।१००२।। गापाँचवें मासमें उस मांसपिण्डमेंसे दो हाथ, दो पैर और सिरके रूपमें पाँच अंकुर उगते हैं । छठे मासमें उस बालकके अंग और उपांग बनते हैं ॥१००३।। विशेषार्थ-दो पैर, दो हाथ, एक नितम्ब, एक छाती, एक पीठ, एक सिर ये आठ अंग हैं । और कान, नाक, गाल, ओठ, आँख, अँगुलि आदि उपांग हैं ॥१००३।। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ भगवती आराधना 'मासम्मि सत्तमे' सप्तमे मासे । 'तस्स' तस्य गर्भस्थस्य । 'चम्मणहरोमणिप्पत्ती होदि' चर्मनखरोमनिष्पत्तिर्भवति । 'फंदणमट्टममासे' स्पंदनमीषच्चलनं अष्टमे मासे । 'णवमे दसमे य णिग्गमणं' नवमे दशमे चोदरान्निर्गमनं भवति ॥१००४।। सव्वासु अवत्थासु वि कललादीयाणि ताणि सव्वाणि । असुईणि अमिज्झाणि य विहिंसणिज्जाणि णिच्चपि ॥१००५।। 'सव्वासु अवत्थासु.वि' सर्वास्वप्यवस्थासु शुक्रशोणितयोः । 'कललादियाणि' कललमबुदमित्यादिकानि । 'सन्वाणि असुईणि' सर्वाणि अशुचीनि । 'अमेज्झाणिव' अमेध्यमिव । 'विहिंसणिज्जाणि' जगप्सनीयानि । णिच्चं पि' नित्यमपि ॥१००५॥ णिप्पत्ति गदं। गर्भेऽवस्थानक्रम अशुभं कथयत्युत्तरगाथया आमासयम्मि पक्कासयस्स उवरि अमेज्झमज्झम्मि । वत्थिपडलपच्छण्णो अच्छइ गब्भे हु णवमासं ॥१००६॥ 'आमासयम्मि' आमाशये । आममुच्यते भुक्तमशनमुदराग्निना अपक्वं तस्य आशयः स्थानं तस्मिन् । 'पक्कासयस्स उवरि' जाठरेण अग्निना पक्व आहारः पक्वं तस्य आशयः स्थानं । तत उपरि। 'अमेज्झमज्झम्मि' अमेध्ययोः पक्वापक्कयोर्मध्ये । 'गन्भो अच्छदि' आस्ते गर्भः । कीदृक् 'वत्थिपडलपच्छण्णो' विततं मांसशोणितं जालसंस्थानीयं वत्थिपडलशब्देनोच्यते तेन प्रतिच्छन्नः । कियन्तं कालमास्ते ? णवपासं उपलक्षणं नवमासग्रहणं दशमासमात्रमप्यवस्थानात् ।।१००६।। अशुचिस्थाने अवस्थितः स्वल्पकालं यदि जुगुप्स्यते चिरकालावस्थितः कथमयं न जुगुप्सनीय इत्याचष्टे वमिदा अमेज्झमज्झे मासंपि समक्खमच्छिदो पुरिसो । होदि हु विहिंसणिज्जो जदि वि सयणीयल्लओं होज्ज ॥१००७।। गा०–सातवें मासमें उस गर्भस्थ पिण्डपर चर्म, नख और रोम बनते हैं। आठवें मासमें उसमें हलन-चलन होने लगता है । नौवें अथवा दसवे मासमें उसका जन्म होता है ।।१००४॥ गा०-रज और वीर्यकी सब अवस्थाओंमें वे सब कलिल आदि अशुचि और विष्टाकी तरह सदा ग्लानिकारक होते होते हैं ॥१००५॥ आगे गर्भका स्थान और उसकी अशुचिता कहते हैं गाo-आमाशयसे नीचे और पक्वाशयसे ऊपर इन दोनों अशुचि स्थानोंके मध्य में गर्भाशय होता है। उसमें वस्तिपटलसे वेष्ठित होकर प्राणी नौमास तक रहता है ॥१००६॥ टी०-खाया हुआ भोजन, उदराग्निके द्वारा पकता नहीं है उसे आम कहते हैं उसके स्थानको आमाशय कहते हैं । और उदराग्निके द्वारा पके आहारको पक्व कहते हैं। उसके स्थानको पक्वाशय कहते हैं। इन अपक्व और पक्वके मध्यमें गर्भस्थान होता है। उसमें शिशु नौ मास तक रहता हैं। नौ मास तो उपलक्षण है अतः दस मासमात्र भी रहता है। रुधिर और मांसके जालको वस्तिपटल कहते हैं। उससे गर्भस्थ बालक चारों ओरसे वेष्ठित रहता है ॥१००६॥ - आगे कहते हैं कि अपवित्र गन्दे स्थानमें थोड़े समयके लिए भी यदि रहना पड़े तो ग्लानि होती है तब नौ दस मास तक ऐसे स्थानमें रहनेवाला ग्लानिका पात्र क्यों नहीं है ? Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५४५ 'वमिदा अमेज्झमज्झे' वान्तस्य अमेध्यस्य च मध्ये | 'मासंपि' मासमात्रमपि 'समक्ख मच्छिदो' स्वप्रत्यक्षतया स्थितः पुरुषः । खु शब्द एवकारार्थः स च क्रियापदात्परो द्रष्टव्यः । 'विहिंसणिज्जो' इत्यतः परतः । 'विहसणीओ होदि' इति जुगुप्सनीय एव भवति नाजुगुप्स्य इति यावत् । 'जवि वि सयणीयल्लओ होज्ज' यद्यपि बन्धुर्भवेत् ।। १००७॥ किह पुण णवदसमासे उसिदो वमिगा अमेज्झमज्झमि । होज्ज ण विहिंसणिज्जो जदि वि सय णीयल्लओ होज्ज || १००८|| 'किह पुण' कथं पुनः । 'न होज्ज विहितणिज्जो' न भवेज्जुगुप्सनीयः । 'णवदसमासं उसिदो' नवमासं दशमासं वावस्थितः । 'वमिगा अमेज्झमज्झम्मि' मात्रा उपयुक्त आहारो वमिगाशब्देनोच्यते । शेषः सुगमः ॥१००८ || खित्तं गदं । येनाहारेणासावुपचितशरीरो जातस्तमाचष्टे - दंतेहिं चव्विदं वीलणं च सिंभेण मेलिदं संतं । मायाहारियमणं जुत्तं पित्तेण कडुएण || १००९॥ 'दंतेहि चव्विदं' दंतैश्चूर्णितं । 'बोलणं' पिच्छिलं । कथं 'सिंभेण मेलिदं संतं' श्लेष्मणा मिश्रितं सत् । 'मादाहारिदमणं' मात्रा भुक्तमन्नं । 'कडुएण पित्तेण जुत्तं' कटुकेन पित्तेन युक्तं । १००९॥ ani अमेझसरिसं वादविओजिदरसं खलं गन्भे । आहारेदि समंता उवरिं थिप्पंतगं णिच्चं ॥ १०१० ॥ 'वमिगं' वान्तं । 'अमिज्झसरिसं अमेध्येन सदृशं । 'वादवियोजिदरसं खलं' वातेन पृथक्कृतं रसं खलभागं । 'गब्भे आहारेदि णिन्च' नित्यं गर्भस्थो भुङ्क्ते । 'समंता' समन्तात् । 'उवरिं' उपरि । 'थिप्पंतगं' विगलद्विन्दुकं । एतेनान्तरं समाहारयतीति ज्ञायते ॥ १०१० ॥ तो सत्तमम्मि मासे उप्पलणालसरिसी हवइ णाही । तत्तो भूदि पाए वमियं तं आहारेदि नाहीए ||१०११ ।। गा०-- गन्दे वमनके मध्य में एकमास पर्यन्त प्रत्यक्षरूपसे रहनेवाला पुरुष, यदि अपना इष्टमित्र भी हो तो भी ग्लानिका ही पात्र होता है || १००७॥ गा०-तब माताके द्वारा खाये गये वमनरूप आहारको खाकर गन्दे स्थानमें नौ दस मास रहनेवाला ग्लानिका पात्र क्यों नहीं है, भले ही वह अपना निकट बन्धु हो । १००८ || उसका शरीर बना उसे कहते हैं- माता के द्वारा खाया हुआ अन्न फिर कफके साथ मिलकर चिकना हुआ फिर कटुक पित्तसे युक्त गा० - जिस आहारसे पहले दाँतों से चबाया गया । हुआ ।। १००९॥ गा० - ऐसा होनेपर वह वमनके ममान गन्दा होता है । वायुके द्वारा उसका रस भाग अलग हो जाता है और खलभाग अलग । उसमेंसे गिरती हुई बूदको सर्वागसे गर्भस्थपिण्ड नित्य ग्रहण करता है । इससे यह ज्ञात होता है कि वह अन्नका रस ग्रहण करता है ॥ १०१० ॥ २. दिमाये व-आ० । तत्तो पाए मु०, मूलारा० । १. एतेनान्नरसमाहरतीति मु०, मूलारा० । ६९ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ... तेषां मासानां 'रत्तं सत्तमम्मि मासे' रक्तं सप्तमें मासे । 'उप्पलणालसरिसी नाही हवई' उत्पलनालसदृशीनाभिर्भवति । 'ततो' नाभिनिष्पत्त्युत्तरकालं । 'वमिगं तं आहारेवि णाभोए' वान्तमाहारयति नाभ्या ॥१०११॥ वमियं व अमेझं वा आहारिदवं स किं पि ससमक्खं । होदि हु विहिंसणिज्जो जदि वि य णियल्लओं होज्ज ॥१०१२।। 'वमिगं व अमिज्झं वा' वान्तममेध्यं वा । 'आहारिदवं' भुक्तवान् । 'स किं पि' सकृदपि एकवारं । 'ससमक्खं' स्वप्रत्यक्ष । 'होदि खु विहिंसणिज्जो' भवति जुगुप्सनीयो । 'यदि वि य णियल्लिओ होज्ज' यद्यपि बन्धुर्भवेत् ।।१०१२॥ किह पुण णवदसमासे आहारेदृण तं णरो वमियं । होज्ज ण विहिंसणिज्जो जदि वि य णीयल्लओ होज्ज ॥१०१३।। स्पष्टोत्तरा गाथा । आहारगदं सम्मत्तं । आहारो निरूपितः ॥१०१३।। जन्मनिरूपणायोत्तरगाथा असुचिं अपेच्छणिज्जं दुग्गंधं मुत्तसोणियदुवारं । वोत्तु पि लज्जणिज्ज पोट्टमुहं जम्मभूमी से ॥१०१४॥ 'अशुचिं' अशुचि । 'अपेच्छणिज्ज' अप्रेक्षणीयं । 'दुग्गंध' दुर्गन्धं । 'मुत्तसोणियदुवारं' मूत्रस्य शोणितस्य च द्वारं । 'वोत्तु पि लज्जणिज्ज' वक्तुमपि स्वनाम्ना लज्जनीयं । 'पोट्टमुहं' उदरमुखं वराङ्ग । 'जम्मभूमी से' जन्मभूमिस्तस्य ॥१०१४॥ जदि दाव विहिंसज्जइ वत्थीए मुहं परस्स आलेट् टु। कह सो विहिंसणिज्जो ण होज्ज सल्लीढपोट्टमुहो ॥१०१५।। गा०-इसके पश्चात् सातवें मासमें कमलकी नालके समान नाभि होती है। नाभिके बननेके पश्चात् उस वमन किये आहारको नाभिके द्वारा ग्रहण करता है ॥१०११।। गा०-यदि कोई अपने सामने एक बार भी वमन किये गये आहारको या गन्दे विष्टाको खाता है तो अपना प्रिय बन्धु भी यदि हो तो उससे ग्लानि होती है ॥१०१२।। गा०-तब जो मनुष्य नौ दस महीने उस वमन तुल्य आहारको खाता है वह ग्लानिका पात्र क्यों नहीं होगा, भले ही वह अपना प्रियबन्धु हो ॥१०१३।। इस प्रकार आहारकी अशुचिताका कथन हुआ। आगे जन्मका कथन करते हैं गा०-उदरका मुख योनि उसका जन्मस्थान है। वहींसे उसका जन्म होता है। वह स्थान अशुचि है, देखने योग्य नहीं है, दुर्गन्धयुक्त है, मूत्र और रक्तके निकलनेका द्वार है। उसका नाम लेनेमें भी लज्जा आती है ॥१०१४।। गा०-यदि दूसरेके वस्तिमुख-गुदा अथवा योनिको देखने में भी ग्लानि होती है तो जो उसका आस्वादन करता है वह ग्लानिका पात्र क्यों नहीं है ॥१०१५।। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका ५४७ 'जदि दाव विहिंसज्जदि' यदि तावज्जुगुप्स्यते । 'वत्थीए मुहं' वस्तिमुखं । 'परस्स आलट्टु " परस्य द्रष्टुं । 'किध सो विहिंसणिज्जो ण होज्ज' कथमसो न जुगुप्सनीयो भवेत् । 'सल्लीढपोट्टमुहो ́ आस्वादितवराङ्गः ।। १०१५ ॥ जन्मवृद्धि निरूपयति बाल विहिंसणिज्जाणि कुणदि तह चेव लज्जणिज्जाणि । मेज्झामेज्झं कज्जाकज्जं किंचिवि अयाणंतो ।। १०१६ | 'बालो विहिंसणिज्जाणि कुणदि' वालो जुगुप्सनीयानि कर्माणि करोति । 'तथा चेव लज्जणिज्जाणि' तथा चैव लज्जनीयानि । 'मेज्झामेज्झं' शुच्यशुचि च । 'कज्जाकज्जं किं चि वि अयाणंतो' कार्याकार्यं किंचिदप्यजानन् ॥१०१६ ॥ अण्णस्स अप्पणी वा सिंहाणयखेलमुत्तपुरिसाणि । चम्मट्टिवसायादीणिय तुंडे सगे छुभदि ॥ १०१७।। 'अण्णस्स अप्पणो वा' अन्यस्यात्मनो वा । सिंघाणगं श्लेष्माणं । मूत्र, पुरीषं, 'चम्मट्टिवसापूर्याणि ' चर्म अस्थि वसां पूयादिकं वा । 'सगे तुंडे छुभदि' आत्मीये मुखे क्षिपति ॥ १०१७ | जं किं चि खादिजं किं चि कुणदिजं किं चिं जंपदि अलज्जो । जं किं चि जत्थ तत्थ वि वोसरदि अयाणगो वालो || १०१८ ।। 'जं किं चि खादि' यत्किचिदत्ति, यत्किचित्करोति, यत्किचिज्जल्पत्यलज्जः । 'जं किं चि जत्थ तत्य वि' यत्किचिद्यत्र तत्र वा शुचावशुचौ वा देशे । 'वोसरदि' व्युत्सृजति । 'अजाणगो बालो' बालः ॥१०१८॥ अज्ञो चालत्तणे कदं सव्वमेव जदि णाम संभरिज्ज तदो । अप्पाणम्मि विगच्छे णिव्वेदं किं पुण परंमि ॥ १०१९ || 'बालत्तणे कदं' वालत्वे कृतं । सर्वमेव यदि स्मरेत्ततः आत्मन्यपि गच्छेन्निर्वेदं कि पुनरन्यस्मिन् । उड्ढि ॥१०१९॥ जन्मके पश्चात् शरीरकी वृद्धिका कथन करते हैं गा०- बालक शुचि अशुचि और कार्य अकार्यको कुछ भी नहीं जानता । तथा निन्दनीय और लज्जा के योग्य कार्य करता है ॥ १०१६॥ गा०—अपना अथवा दूसरेका कफ, मूत्र, विष्ठा, चमड़ा, हड्डी, चर्वी, पीव, आदि अपने. मुखमें रख लेता है ॥ १०१७ || गा०—अनजान बालक जो कुछ भी खा लेता है, जो कुछ भी करता है, निर्लज्ज होकर जो कुछ भी बोलता है । जिस किसी भी पवित्र या अपवित्र स्थानमें टट्टी पेशाव कर देता है ।। १०१८ ।। गा०—यदि बचपन में किये गये सब कार्यो को याद किया जाये तो दूसरेकी तो वात ही क्या, अपने से ही वैराग्य हो जाय || १०१९ || Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ भगवती आराधनों कुणिमकुडी कुणिमेहिं य भरिदा कुणिमं च सवदि सव्वत्तो । 'ताणं व अमेज्झमयं अमेज्झभरिदं सरीरमिणं ॥१०२०॥ 'कुणिमकुडी' कुथिता कुटी, . 'कुणिमेहि भरिदा' कथितैभरिता । 'कुणिमं च सवदि सव्वत्तो' कुथितं सर्वतः स्रवति समन्तात । २ताणं व अमेज्झमयं' तार्णमिव अमेध्यमयं । 'अमेज्झभरिदं' अमेध्यपूर्ण । 'सरीरमिमं' शरीरमिदं ॥१०२०॥ वृद्धिक्रमं निरूप्य शरीरावयवानाचष्टे अट्ठीणि हुंति तिण्णि हु सदाणि भरिदाणि कुणिममज्जाए। सव्वम्मि चेव देहे संधीणि हवंति तावदिया ॥१०२१।। 'अट्ठीणि हुति तिण्णि हु सवाणि' त्रिशतान्यस्थीनि । 'भरिदाणि कुणिममज्जाए' पूर्णानि कुथितेन मज्जासंज्ञितेन । 'सम्मि चेव देहम्मि' सर्वस्मिन्नेव शरीरे । 'संधीणि हवंति तावदिगा' सन्धिप्रमाणमपि त्रिशतमेव ॥१०२१॥ ण्हारूण णवसदाई सिरासदाणि हवंति सत्तेव । देहम्मि मंसपेसीण हुंति पंचेव य सदाणि ॥१०२२।। ‘ण्हारूण णवसदाइ' स्नायनां नवशतानि । 'सिरासदाणि य हवंति सत्तेव' सिराणां सप्तशतानि । 'देहम्मि मंसपेसीण हवंति पंचेव य सदानि' पंचशतानि शरीरे मांसपेश्यः ॥१०२२॥ चत्तारि सिराजालाणि हुंति सोलस य कंडराणि तहा । छच्चेव सिराकुच्चा देहे दो मंसरज्जू य ।।१०२३॥ 'चत्तारि सिराजालाणि' चत्वारि शिराजालानि शिरासंघाताः। 'सोलस य कंडराणि तहा' षोडश कण्डरसंज्ञितानि तथा । 'छच्चेव सिराकुच्चा' षडेव शिरामूलानि । 'देहे दो मंसरज्जू य' शरीरे मांसरज्जूद्वयं ॥१०२३॥ गा०-यह शरीर कुथित अर्थात् मलिन वस्तुओंकी कुटी है और मलिन वस्तुओंसे ही भरी है। सब तरफसे महामलिन मल ही उससे बहता रहता है। मलसे भरे पात्रके समान यह शरीर मलसे भरा होनेसे मलमय ही है ॥१०२०।। शरीरकी वृद्धिका क्रम कहकर शरीरके अवयवोंको कहते हैं गा०-इस शरीरमें तीन सौ हड्डियाँ हैं जो कुथित मज्जासे भरी हैं । तथा सम्पूर्ण शरीरमें तीन सौ ही सन्धियाँ हैं ।।१०२१॥ गा०–नौ सौ स्नायु हैं । सिराएँ सात सौ हैं । पाँच सौ मांस पेशिया हैं १०२२।। गा०-चार शिराजाल हैं ! सोलह रक्तसे पूर्ण महाशिराएँ है। छह शिराओंके मूल हैं। दो मांस रज्जु है एक पीठ और एक पेटके आश्रित हैं ||१०२३।। १, २, ३. भाणं आ० । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टी सत्त तयाओ कालेज्जयाणि सत्तेव होंति देहम | देहम्मि रोमकोडीण होंति 'असीदि सदसहस्सा || १०२४ || 'सत्त तयाओ' सप्त त्वचः । 'कालेज्जगाणि सत्तेव होंति देहम्मि' सप्तैव कालेयकानि देहे । 'देहम्मि रोमकोडोण असोदि सदसहस्सा' शरीरे रोमकोटीनां अशीतिशतसहस्राणि ॥। १०२४ || पक्कामयासयत्था य अंतगुंजाओ सोलस हवंति । कुणिमस्स आसया सत्त हुंति देहे मणुस्सस्स || १०२५ ॥ 'पक्कामासयत्था' पक्वाशये आमाशये अवस्थिताः । 'अंतगुंजाओ' अन्त्रयष्टयः । 'सोलस हवंति' पोडशैव भवन्ति । 'कुणिमस्स आसया' कुथितस्य आश्रया सप्त भवन्ति देहे मनुजस्य ॥। १०२५ ।। थूणाओ तिणि देहमि होंति सत्चुत्तरं च मम्मसदं । णव होंति वणमुहाई णिच्चं कुणिमं सवंताई ॥। १०२६ ॥ 'थूणाओ तिष्णि देहम्मि होंति' स्थूणास्तिस्रो भवन्ति देहे । 'सत्तुत्तरं च मम्मसदं' मर्मणां शतं सप्ताधिकं । 'णव होति वणमुहाई' व्रणमुखानि नव भवन्ति । 'णिच्चं कुणिमं' नित्यं कुथितं स्रवन्ति यानि ॥ १०२६ ॥ देहम्मि मच्छुलिंगं अंजलि मित्तं सयप्पमाणेण । अंजलिमित्तो मेदो उज्जोवि य तत्तिओ चेव ॥ १०२७॥ 'देहम्मि' शरीरे । 'मच्छुलिंगं' मस्तिष्कं । 'अंजलि मित्तो सगप्पमाणेण' स्वाञ्जलिप्रमाणं परिच्छिन्नं । मेदोऽप्यञ्जलिप्रमाणं । 'ओजोवि तत्तिगो चेव' शुक्रमपि तावन्मात्रमेव ॥। १०२७॥ ५४९ तिणि य वसंजलीओं छच्चेव य अंजलीओ पित्तस्स । संभो पित्तसमाणो लोहिदमद्धाढगं होदि ॥। १०२८॥ 'तिष्णि य वसंजलीओ' तिस्रो वसाञ्जलयः । ' छच्चेव य अंजलीओ पित्तस्स' षड्ञ्जलयः पित्तस्य । 'सिभी पित्तसमाणी' श्लेष्मा पित्तप्रमाणः । 'लोहिदमद्धाढगं होदि' लोहितोऽप्यर्धाढकं भवति ॥ १०२८|| गा० - सात त्वचाएँ हैं । सात कालेयक मांसखण्ड हैं । और अस्सी लाख करोड़ रोम हैं ॥१०२४॥ गा० - पक्वाशय और आमाशयमें सोलह आते हैं । तथा मनुष्य के शरीर में सात मलस्थान हैं ||१०२५ || गा०—शरीरमें वात पित्त कफ ये तीन थूणाए हैं । एक सौ सात मर्मस्थान है । नौ व्रणमुख-मलद्वार हैं जिनसे सदा मल बहता रहता है ||१०२६ ॥ गा० - तथा अपनी एक अंजुलीप्रमाण मस्तिष्क है । एक अंजुलिप्रमाण मेद है और एक अंगुलिप्रमाण वीर्य हैं |१०२७॥ गाo - तीन अंजुलिप्रमाण बसा - चर्बी है। छह अंजु लिप्रमाण पित्त है । पित्त प्रमाण हो कफ़ है । रुधिर आधे आठक या बत्तीस पल प्रमाण है || १०२८॥ १. सीदि आ० मु० । २. सीदी आ० मु० । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० भगवती आराधना मुत्तं आढयमेत्तं उच्चारस्स य हवंति छप्पच्छा । वीसं णहाणि दंता बत्तीसं होंति पगदीए ॥१०२९॥ 'मुत्तं आढयमेत्तं' मूत्र आढकमात्र । 'उच्चारस्स य हवंति छप्पच्छा' षट्प्रस्थप्रमाण उच्चारः । 'वीसं णहाणि' विंशतिसंख्या नखानां । 'दंता बत्तीसं होंति' द्वात्रिंशद्भवन्ति दन्ताः । 'पगदीए' प्रकृत्या ॥१०२९।। किमिणो व वणो भरिदं सरीरं किमिकुलेहिं बहुगेहिं । सव्वं देहं अप्फदिदूण वादा ठिदा पंच ॥१०३०॥ "किमिणो व वणो' संजातक्रिमिव्रणवत् । 'बहुर्गेहि किमिकुलेहि भरिदं सरीरमिति' सम्बन्धः । बहुभिः क्रिमीणां कुलभरितं । 'सव्वं देहं अप्फंविदूण वाता ठिटा पंच' समस्तं शरीरं व्याप्य पञ्च वायवः स्थिताः ॥१०३०॥ एवं सब्वे देहम्मि अवयवा कुणिमपुग्गला चेव । एक्कं पि णत्थि अंगं पूयं सुचियं च जं होज्ज ॥१०३१॥ ‘एवं' उक्तेन प्रकारेण । 'देहम्मि सव्वे अवयवा' शरीराधाराः सर्वे अवयवाः । 'कुणिमपुग्गला चेव' अशुभपुद्गला एव । 'एक्कं पि णत्यि अंग' एकोऽपि नास्त्यवयवः । जं पूर्व सुचियं च होज्ज' योऽवयवः पूतः शुचिर्वा भवेत् ॥१०३१॥ परिदड्ढसव्वचम्मं पंडुरगत्तं मुयंतवणरसियं । सुट्ठ वि दइदं महिलं दट्ठपि णरो ण इच्छेज्ज ॥१०३२॥ 'परिदड्ढसव्वचम्म' परितो दग्धसर्वत्वक्पटलं । 'पंडुरगत्तं' पाण्डुरतर्नु । 'मयंतवणरसियं' विगलद्रसं 'सुठ्ठ वि दइदं महिलं' प्रियतमामपि वनितां । 'दडुपि गरो ण इच्छेज्ज' द्रष्टुमपि नरो न वाञ्छति ॥१०३२।। जदि होज्ज मच्छियापत्तसरसियाए णो 'थगिदं । को णाम कुणिमभरियं सरीरमालधुमिच्छेज्ज ॥१०३३।। गा०-मूत्र एक आठक प्रमाण है। विष्टा छह प्रस्थ प्रमाण है। स्वाभाविकरूपमें वीस नख और बत्तीस दाँत होते हैं ॥१०२९।। _____गा-जैसे घावमें कीड़े भरे रहते हैं वैसे ही शरीर वहुतसे कीडोंसे भरा है। समस्त शरोरको घेरे हुए पाँच वायु हैं ।।१०३०।। गा.-इस प्रकार शरीरके सब अवयव अशुभ पुद्गलरूप ही हैं। एक भी अवयव ऐसा नहीं है जो पवित्र और सुन्दर हो ॥१०३१॥ गा०—जिसकी सब चमड़ी जल जानेसे शरीर सफेद वर्णका हो गया है, और उससे पीव बहता है ऐसी नारी अतिप्रिय भी हो तो उसे मनुष्य देखना भी नहीं चाहता ।।१०३२।। १. पिहिदं-अ० आ० । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'जवि होज्ज तयाए ण थगिदं' यदि त्वचा न स्थगितं भवेत् । कीदृश्या ? 'मच्छिगापत्तसरिसियाए' मक्षिकादिति । तदा को नाम इच्छेज्ज कुणिमभरिदं सरीरं' को नाम वाञ्छेत् ? कि कुथितपूर्णं शरीरं । 'आल स्प्रष्टुं । अवयवाः ||१०३३।। hot कण्णधो जायदि अच्छी चिक्कणंसूणि । णासाधो सिंघाणयं च णासापुडेसु तहा || १०३४॥ 'कण्णे सु' कर्णयोः । ' कण्णगूधो' कर्णगूथः । 'जायदि' जायते । 'अच्छी सु' अक्ष्णोः । 'चिक्कणंसूणि' मलमश्रुबिन्दवश्च | 'णासागूघो' नासिकामलं । 'सिंघाणगं च' सिंघाणकं च 'णासापुडेसु' नासापुटयोः ॥ १०३४ ॥ खेलो पत्तो सिंभो वमिया जिन्भामलो य दंतमलो । लाला जायदि 'तुंडम्मिणिच्चं मुत्तपुरिससुक्कमुदरत्थ' ॥१०३५॥ स्पष्टार्थोत्तरगाथा - सेदो जायदि सिलेसो व चिक्कणो सव्वरोमकूवेसु । जायंति जू लिक्खा छप्पदियासो य सेदेण ॥ १०३६॥ 'सेदो जायदि' स्वेदो जायते । 'सिलेसो व चिक्कणो' चर्मकारश्लेष्मवच्चिक्कणः । 'सव्वलोमकूर्व सु' सर्वलोमकूपेषु । 'जायंति' जायन्ते । 'जूका' यूका: । 'लिक्खा' लिक्षाश्च । 'छप्पविगाओ य' चर्मयूकाश्च । 'सेवेण' स्वेदेन हेतुना । एतावता प्रबन्धेन शरीरावयवा व्याख्याताः ॥ १०३६॥ णिग्गमणं । निर्गमनव्याख्यानायाचष्टे— ५५१ arguणो भिण्णो व घडो कुणिमं समंतदो गलइ । पूदिंगालो किमिणोव वणो पूदिं च वादि सदा ||१०३७|| गा०-- यदि शरीर मक्खीके पंखके समान त्वचासे वेष्टित न हो तो मलसे भरे शरीरको कौन छूना पसन्द करेगा || १०३३ ॥ गा०—- कानोंसे कानका मल उत्पन्न होता है। आँखोंमें आँखका मल और आँसू रहते हैं। तथा नाक नाकका मल और सिंघाड़े रहते हैं ||१०३४ || -oll - मुखमें खखार, पित्त, कफ, वमन, जीभका मल, दन्तमल और लार उत्पन्न होते हैं। और उदरमें मूत्र, विष्टा तथा वीर्यं उत्पन्न होते हैं ||१०३५|| गा० - शरीर के सब रोमकूपोंसे चमारके सिरेसके समान चिपचिपा पसीना निकलता है । और पसीने के कारण लीख और जूं उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार शरीरके अवयवोंका कथन हुआ ||१०३६॥ अब मलके निकलनेका कथन करते हैं गा० - जैसे विष्टासे भरे और फूटे हुए घड़ेसे चारों ओरसे गन्दगी बहती है अथवा जैसे कृमियोंसे भरे घावसे दुर्गन्धयुक्त पीव बहती है वैसे ही शरीरसे निरन्तर मल बहता है || १०३७|| निर्गमनका कथन समाप्त हुआ । २. मिदरत्थं - ज० मृ० । इदरत्थे मेहन योनि १. म्मि मूत्त पुरिसं च सु-आ० मु० | गुदयोः - मूलारा० ! Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित ५५२ भगवती आराधना 'विठापुण्णो' विष्टाभिः पूर्णः । 'भिण्णो व घडो' भिन्नघट इव । 'कुणिम' कथितं । 'समंतदो' समन्तात् । 'गलदि' क्षरति 'पूइंगालोव्ववणो' गलत्पूतिनिचितक्रिमिव्रणवत् । 'पूदि च वादि सदा' दुरभिवाति सदा । 'णिग्गमणं सम्मत्तं' ॥१०३७॥ इंगालो धोवंते ण सुज्झदि जहा पयत्तेण । सव्वेहिं समुद्देहिम्मि सुज्झदि देहो ण धुव्वंतो ॥१०३८।। सिण्हाणुब्भंगुव्वट्टणेहिं महदंतअच्छिधुवणेहिं । णिच्चपि घोवमाणो वादि सदा पूदियं देहो ॥१०३९॥ 'सिण्हाणुन्भंगुठवट्ठणेहिं य' स्नानेन, अभ्यङ्गेन, उद्वर्तनेन । 'मुहदंतअच्छिधुवणेहि' मुखस्य दन्तानामक्ष्णोश्च प्रक्षालनेन । “णिचंपि धुव्वमाणो' नित्यमपि क्रियामाणशीचः । 'वाति सदा पूदिगं देहो' दुरभिगन्धतां न त्यजति देहः ॥१०३९।। पाहाणघादुअंजणपुढवितयाछल्लिवल्लिमूलेहिं । मुहकेसवासतंबोलगंधमल्लेहिं धूवेहिं ॥१०४०।। - पाहाणंघादुअंजणपुढवितयाछल्लिवल्लिमूहि' पाषाणशद्वेन रत्नान्युच्यन्ते । धातुर्जलं । अञ्जणं अञ्जनं मषी च । 'पुढवी' मृत्तिका । 'तया' त्वक् । 'मुखवासः' । मुखं वास्यते मुखं गन्धतां नीयते येनासो मुखवासः । केशाः सुरभितां प्राप्नुवन्ति येनासौ केशवासः, एतैः पाषाणादिभिः ॥१०४०॥ अभिभूददुन्विगंधं परिभुज्जदि मोहिएहिं परदेहं । खज्जति पूइयमं संजुत्तं जह कडुगभंडेण ॥१०४१।। _ 'अभिभूददुन्विगंधो' निरस्ताशुभगन्धः । 'परदेहं संजुत्तं' परस्य देहः संयुक्तः । 'मोहिदेहि' मूढः । परिभुज्यते । 'खज्जदि' भुज्यते। 'पूइयगं मांसं' यथा युक्तं संस्कृतं । 'कडुगभंडेण' मरिचैहिंग्वादिभिश्च ॥१०४१॥ गा-जैसे कोयलेको सब समुद्रके जलसे प्रयत्नपूर्वक धोनेपर भी वह उजला नहीं होता, उसमेंसे कालापन ही निकलता है, वैसे ही शरीरको बहुत जलादिसे धोनेपर भी वह शुद्ध नहीं होता, उसमेंसे मल ही निकलता है ॥१०३८॥ _ गा०-स्नान, इत्र फुलेल, उबटन आदिसे तथा मुख दाँत और आँखोंको धोनेसे नित्य ही स्वच्छ करनेपर भी शरीर सदा दुर्गन्ध देता है, वह उसे छोड़ता नहीं ॥१०३९।।। गा०-टी०-पाषाण शब्दसे रत्नोंको कहा है। धातुसे जल लिया है। पृथ्वीसे मिट्टीका ग्रहण किया है। त्वचासे मध्यकी त्वचा ली है और छालसे ऊपरकी छाल ली है। अतः रत्न, जल, अंजन, मिट्टी, त्वचा, छाल देल और जड़से तथा मुखको सुवासित करनेवाले ताम्बूल आदि और केशोंको सुगन्धित करनेवाले गन्धमाला धप आदिसे परके शरीरकी दुर्गन्ध दूर करके मढ़जन मोहित होकर पराये शरीरको भोगते हैं। जैसे मिर्च, हींग आदि मसालें मिलाकर, दुर्गन्धयुक्त १. जह महापयत्तेण-आ० मु० । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५५३ अब्भंगादीहिं विणा सभावदो चेव जदि सरीरमिमं । सोमेज्ज मोरदेहव्व होज्ज तो णाम से सोभा ॥१०४२।। 'अब्भंगाद्रोहिं विणा' सुगन्धतैलेन म्रक्षणं, उद्वर्तनं, स्नानमालेपनमित्यादिभिविना। 'सभावदो चेव यदि सोभेज्ज इमं शरीरं' स्वभावत एव यदि शोभेत इदं शरीरं । 'मोरदेहुन्व' मयूरदेहवत् । 'होज्ज तो णाम से सोभा' भवेत्तत् स्फुटं देहस्य शोभा ॥१०४२॥ जदि दा विहिंसदि णरो आल पडिदमप्पणो खेलं । कधदा णिपिबेज्ज बुधो महिलामुहजायकुणिमजलं ॥१०४३।। 'जदि दा विहिंसदि णरो आलधु पडिदमप्पणो खेलं' यदि तावन्नरो जुगुप्सते स्प्रष्टुमात्मनोऽपि कासं । 'कधदा णिपिवेज्ज बुधो' कथमिदानी पिवेद्बुधः । 'महिलामुहजणिदकुणिमजलं' युवतिमुखसमुद्भवमशुविजलं ।।१०४३॥ अंतो बहिं च मज्झे व कोइ सारो सरीरगे णत्थि । एरंडगो व देहो णिस्सारो सव्वहिं चेव ॥१०४४॥ 'अंतो बहिं च मज्झे' अन्तर्बर्मिध्ये । 'को वि सारो सरीरगे णत्थि' शरीरेऽङ्गे सारभूतं न किंचिदस्ति । 'एरंडको वा णिस्सारो सहिं चेव' साररहितः सर्वत्र चैव ।।१०४४।। चमरीबालं खग्गिविसाणं गयदंतसप्पमणिगादी । दिट्ठो सारो ण य अत्थि कोइ सारो मणुयस्सदेहम्मि ।।१०४५।। 'चमरीबालं' चमरीणां रोमाणि । 'खग्गिविसाणं' खङ्गिनां मृगाणां विषाणं । गजानां दन्ताः । सर्पाणां रत्नादिकं च दृष्टं सारभूतं । ‘ण य अत्थि कोइ सारो मणुस्सदेहम्मि' नास्ति किञ्चित्सारं मनुष्यदेहे ॥१०४५॥ मांसको मांसभोजी जन खाते हैं वैसे ही कामीजन स्त्रीके दुर्गन्धयुक्त शरीरको तेल फुलेल आदिसे सुवासित करके भोगते हैं ॥१०४०-१०४१॥ गा-जैसे मोरका शरीर स्वभावसे ही सुन्दर होता है वैसे ही यदि सुगन्धयुक्त तेलसे मालिश, उबटन, स्नान, आदिके विना स्वभावसे यह शरीर शोभायुक्त होता तो उसे सुन्दर कहना उचित होता ॥१०४२॥ गा०-यदि मनुष्य बाहरमें पड़े अपने कफको भी छूनेमें ग्लानि करता है तो ज्ञानीपुरुष युवती स्त्रीके मुखसे उत्पन्न हुई दुर्गन्धयुक्त लारको कैसे पीवेगा ॥१०४३॥ __गा०-अन्तरमें, बाहरमें और मध्यमें शरीरमें कुछ भी सार नहीं हैं। ऐरण्डके वृक्षकी तरह शरीर पूर्णरूपसे निःसार है ॥१०४४।। गा०-चमरी गायकी पूँछ के बाल, गैडे वा हिरनके सोंग, हाथीके दाँत, सर्पकी मणि, आदि शब्दसे मयूरके पंख, मृगकी कस्तुरी आदि अवयव तो सारभूत देखे गये हैं अर्थात् इन सबके शरीरोंमें तो कुछ सार है किन्तु मनुष्यके शरीरमें कोई सार नहीं है ॥१०४५।। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ भगवती आराधना छगलं मुत्तं दुद्धं गोणीए रोयणा य गोणस्स । सुचिया दिट्ठा ण य अस्थि किंचि सुचि मणुयदेहे ॥१०४६॥ असुइ ॥१०४६॥ व्याधि इत्यद्वयाचष्टे प्रबन्धेनोत्तरेण वाइयपित्तियसिंभियरोगा तण्हा छुहा समादी य । णिच्चं तवंति देहं अद्दहिदजलं व जह अग्गी ॥१०४७।। 'वाइयपित्तियसिभियरोगा' दोषत्रयप्रभवा व्याधयः । तृष्णाक्षुधाश्रम इत्यादयश्च । देहं नित्यं तपन्ति ज्वलितोऽग्निर्जलमिव चुल्ल्युपरिस्थितभाजनगतं ॥१०४७॥ जदिदा रोगा एक्कम्मि चेव अच्छिम्मि होति छण्णउदी। सव्वम्मि' दाई देहे होदव्वं कदिहिं रोगेहिं ।।१०४८॥ 'जदिदा रोगा एकम्मि चेव अच्छिम्मि होंति छण्णवदी' यदि तावद्रोगा एकस्मिन्नेव नेत्रे षण्णवतिसंख्या भवन्ति । 'सवम्मि दाई देहे' समस्ते इदानीं शरीरे । 'होदव्वं कदिहिं रोहिं' कतिभिर्व्याधिभिर्भवितव्यम् ॥वाधिगदं॥१०४८।। अध्रुवतामुत्तरया गाथयाचष्टे पीणत्थर्णिदुवदणा जा पुव्वं णयणदइदिया आसे । सा चेव होदि संकुडिदंगी विरसा य परिजुण्णा ॥१०४९।। 'पीणणिदुवदणा' पीनस्तनभागासम्पूर्णचन्द्रानना । 'जा पुव्वं' या पूर्व । ‘णयणदयिदिया' नयनबल्लभा गा०-बकरेका मूत्र, गायका दूध, बैलका गोरचन लोकमें पवित्र माने गये हैं परन्तु मनुष्यके शरीरमें किञ्चित् भी शुचिता नहीं है ॥१०४६।। इस तरह शरीरकी अशुचिताका कथन क्रिया, आगे व्याधिका कथन करते हैं गा०-जैसे आग चूल्हेके ऊपर स्थित पात्रके जलको तपाती है वैसे ही वात पित्त और कफसे उत्पन्न हुए रोग तथा भूख प्यास श्रम आदि शरीरको सदा तपाते हैं दुःख देते हैं ॥१०४७।। गा०-यदि एक नेत्रमें ही छियानबे रोग होते हैं तो समस्त शरीरमें कितने रोग होंगे ॥१०४८॥ आगेकी गाथासे अध्रुवत्वका कथन करते हैं गा०-इस शरीरका स्वरूप तो देखो। जो स्त्री पूर्व यौवन अवस्थामें पुष्टस्तनवाली, सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली और नेत्रोंको प्रिय थी वही स्त्री वृद्धावस्थामें संकुचित १. म्मि चेव दे-अ०। २. इस गाथाके पश्चात् आशाधरने नीचे लिखी गाथा दी है पंचेव य कोडीओ भवंति तह अट्टसट्टिलक्खाई। णवणवरिं च सहस्सा पंचसया होंति चुलसीदी ॥ पांच करोड़ अड़सठ लाख, निन्यानबे हजार पाँच सौ चौरासी रोग शरीरमें होते हैं । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका जीता । 'सा चेव होदि संकुडिदंगी' सैव भवति संकुटिततनुः । 'विरसा' कामरसरहिता । 'परिजण्णा' परितो जीर्णा जरत्कुटीव ॥१०४९।। जा सव्वसुंदरंगी सविलासा पढमजोव्वणे कंता । ‘सा चेव मदा संती होदि हु विरसा य बीभच्छा ।।१०५०॥ 'जा सव्वसुंदरंगी' यस्याः सर्वाणि अङ्गानि सुन्दराणि । 'सविलासा' विलाससहिता । 'पढमजोवणा' प्रथमयौवना । 'कता' कान्ता। 'सा चेव मदा संती' सैव मृता सती । 'होहि हु विरसा' भवति विरसा । 'बीभच्छा' जुगुप्सनीया ॥१०५०॥ शरीरसम्पदोऽध्रुवता व्याख्याता गाथाद्वयेन । दम्पत्योः संयोगस्याध्रुवतां व्याचष्टे मरदि सयं वा पुव्वं सा वा पुन्वं मरिज्ज से कंता । जीवंतस्स व सा जीवंती हरिज्ज बलिएहिं ।।१०५१।। 'मरदि सयं वा पुव्वं' म्रियते स्वयं वा पूर्व पुमान् । 'सा वा पूर्व म्रियेत' । 'से' तस्य पुनः कान्ता । 'जीवंतस्स' जीवतो वा, सा जीवन्ती ह्रियते 'बलिहि' बलिभिरपरः । इत्थं संयोगस्य बहुधाऽनित्यता ॥१०५१॥ सा वा हवे विरत्ता महिला अण्णेण सह पलाएज्ज । अपलायंती व तगी करिज्ज से वेमणस्साणि ॥१०५२॥ 'सा वा होज्ज विरत्ता' सा भवेद्विरक्ता पुरुष तथापि तयोः संगतिः । 'महिला अण्णेण वा सह पलाएज्ज' सा विरक्ता युवतिरन्येन वा सह पलायनं कुर्यात । 'अपलायन्ती' अपलायमाना था। 'तगी' सा। 'करेज्ज से वेमणस्साणि' कुर्यात्तस्य चेतोदःखानि ॥१०५२।। शरीरस्याध्रुवतामाचष्टेअंगवाली, शृङ्गार हास्य आदि काम रससे रहित अत्यन्त जीर्ण झोपड़ीकी तरह दिखाई देती है ॥१०४९।। गा०-जो स्त्री यौवनके प्रारम्भमें सर्वांगसुन्दर तथा विलाससे पूर्ण थी वही मरनेपर विरस और ग्लानियोग्य दिखाई देती है ॥१०५०॥ इस प्रकार दो गाथाओंसे शरीरकी सुन्दरताको अस्थायी कहा । अब पति-पत्नीके संयोगको अस्थायी कहते हैं गाल-पहले पति मर जाता है अथवा पहले पत्नी मर जाती है। अथवा पतिके जीवित रहते हुए अन्य बलवान् पुरुष उसकी जीवित पत्नीको हरकर ले जाते हैं। इस प्रकार पति-पत्नीसंयोग अनित्य होता है ॥१०५१।। ___गा०-अथवा पत्नी पतिसे विरक्त हो जाती है और विरक्त होकर वह दूसरेके साथ भाग जाती है। न भी भागे तो पतिके चित्तको दुःख देनेवाले कार्य करती है ।।१०५२॥ अब शरीरकी अस्थिरता बतलाते हैं Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना रूवाणि कट्ठकम्मादियाणि चिट्ठत्ति सारवेंतस्स । घणिदं पि सारवंतस्स ठादि ण चिरं सरीरमिमं ॥१०५३॥ 'रूवाणि कट्ठकम्मादियाणि' काष्ठे उत्कीर्णानि रूपाणि स्त्रीणां पुंसां अन्येषां च आदिशब्देन शिलादन्तादिरूपपरिग्रहश्चिरं 'चिठ्ठत्ति सारवत्तस्स' चिरं तिष्ठन्ति संस्कुर्वतः । 'धणिदं पिसारवेंत्तस्स' नितरामपि संस्कुर्वतः । 'ठादि ण चिरं शरीरमिमं न तिष्ठति चिरं शरीरमिदं ॥१०५३।। न च केवलं शरीरमेव अनित्यमपि त्वन्यदपि इति व्याचष्टे मेघहिमफेणउक्कासंझाजलबुब्बुदो व मणुगाणं । इंदियजोव्वणमदिरूवतेयबलवीरियमणिच्चं ॥१०५४॥ 'मेघहिमफेणउक्कासंझाजलबुब्बुदोव' मेघवद्धिमवत्फेनवदुल्कावत्सन्ध्यावज्जल बुबुदवच्च । 'मणुयाणं' मनुजानां। 'इंदियजोव्वणमदिरूवतेजबलवीरियमणिच्चं' इन्द्रियाणि, यौवनं, मतिः, रूपं तेजो, बलं वीर्य, चानित्यं ॥१०५४॥ झटिति शरीरसम्पद्वयावर्तते इत्याख्यानकं दर्शयति साधु पडिलाहेदुगदस्स सुरयस्स अग्गमहिसीए । णटुं सदीए अंग कोढेण जहा मुहुत्तेण ॥१०५५॥ 'साधु पडिलाहेदु गदस्स' साधोराहारदानाथं गतस्य । 'सुरयस्य' सुरतनामधेयस्य राज्ञः । 'अग्गमहिसीए' अग्रमहिष्याः । 'सवीए' सत्याः शोभनायाः । 'अंगं ' शरीरं नष्ट । 'कोढेण' कुष्ठेन । 'जहा महत्तेण' यथा मुहूर्तेन ॥१०५५॥ वज्झो य णिज्जमाणो जह पियइ सुरं च खादि तंबोलं । कालेण य णिज्जतां विसए सेवंति तह मूढा ।।१०५६।। . गा०-सार सम्हाल करनेपर काष्ठ, पाषाण, हाथी दाँत आदिमें अंकित किये गये स्त्री पुरुषोंके रूप चिरकाल तक रहते हैं । किन्तु यह शरीर अति सम्हाल करनेपर भी चिरकाल तक नहीं रहता ॥१०५३॥ __ आगे कहते हैं कि केवल शरीर ही अनित्य नहीं है किन्तु वस्तुएँ भी अनित्य हैं-- गा-मनुष्योंके इन्द्रियाँ, यौवन, मति, रूप, तेज, बल और वीर्य ये सब मेघ, बर्फ, फेन, उल्का, सन्ध्या और जलके बुलबुलेकी तरह अनित्य हैं ॥१०५४॥ शरीररूप सम्पदा झट नष्ट हो जाती है यह एक कथा द्वारा कहते हैं गा०-राजा सुरत साधुको आहार देने गया। इतने में ही उसकी पटरानी सतीका शरीर एक मुहूर्तमें ही कोढ़से नष्ट हो गया ॥१०५५।। गा०-जैसे मारनेके लिए कोई किसी पुरुषको ले जाये और वह पुरुष मरनेकी चिन्ता न करके शराब पिये और पान खाये । वैसे ही मूढ़ मनुष्य मृत्युकी चिन्ता न करके विषयोंका सेवन करते हैं ।।१०५६॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५५७ 'वज्झो य णिज्जमाणो' हन्तुं नियमानः । 'जह पियइ' यथा सुरां पिबति । 'खावि तंबोलं' ताम्बूलं भक्षयति । तथा 'कालेण य णिज्जंता' मृत्युना नीयमाना मूढाः। 'विसए सेवंति' विषयाननुभवन्ति ॥१०५६।। वग्धपरद्धो लग्गो मूले य जहा ससप्पबिलपडिदो । पडिदमधुबिंदुचक्खणरदिओ मूलम्मि छिज्जते ॥१०५७॥ 'वग्यपरद्धो' व्याघ्रणाभिद्रुतः । 'लग्गो' लग्नः । 'मूलम्मि' लतायाः मूले । 'ससप्पविलपडिदो' ससर्पवति बिले पतितः । 'पडिदमधुबिंदुचक्खणरदिओं' स स्वसृक्वस्थानपतितमधुबिन्द्रास्वादनरतिकः । 'मूलम्मि 'छिज्जते' मूले छिद्यमाने मूपिकाभिर्यथा ॥१०५७॥ तह चेव मच्चुवग्धपरद्धो बहुदुक्खसप्पबहुलम्मि । संसारबिले पडिदो आसामूलम्मि संलग्गो ।।१०५८।। ___'तह चेव' तथैव । 'मच्चुवग्धपरद्धो' मृत्युव्याघ्रण'उपद्रुतः । 'संसारबिले पडिदो' संसार एव बिलः तस्मिन्पतितः । कीदृग्भूते ? बहुदुःखसर्पाकुले आशामूले । 'संलग्गो' सम्यग्लग्नः ।।१०५८॥ बहुविग्घमूसएहिं आशामूलम्मि तम्मि छिज्जते । लेहदि तहवि अलज्जो अप्पसुहं विसयमधुबिंदु ॥१०५९।। 'बहुविग्घमूसहिं य' बहुभिर्विघ्नमूषकः । 'आशामूलम्मि तम्मि छिज्जते' आशाख्ये मूले तस्मिंश्च्छिद्यमाने । 'लेहदि' खादति । 'विभयविलज्जो' निर्भयो निर्लज्जश्च । 'अप्पसुहं विसयमधुबिंदु' अल्पसुखं विषयमधुबिन्दुं । अल्पसुख निमित्तत्वादल्पसुखमित्युच्यते । विषयमधुबिन्दुं विषयशब्देन रूपादय इत्युच्यन्ते । तेषु पुरोऽवस्थितं पुद्गलस्कंधस्य वर्तमानाः कतिपयाः पर्याया अतिस्वल्पास्त एव मधुविन्दवः । अधुवत्तं ॥१०५९।। गा०-टी०-जैसे पीछे लगे व्याघ्रके भयसे भागता हुआ कोई मनुष्य एक ऐसे कूपमें गिरा जिसमें सर्प रहता था। उस कूपकी दीवारमें एक वृक्ष उगा था। उसकी जड़को पकड़कर वह लटक गया। उस जड़को चूहे काट रहे थे। किन्तु उस वृक्षपर मधुमक्खियोंका एक छत्ता लगा था और उसमेंसे मधकी बँद टपककर उसके ओठोंमें आती थी। वह संकट भल उसी म बिन्दुके स्वादमें आसक्त था ॥१०५७।। गा.-उसी मनुष्यकी तरह मृत्युरूपी व्याघ्रसे भीत प्राणी अनेक दुःखरूपी सोंसे भरे संसार कूपमें पड़ा है और आशारूपी जड़को पकड़े हुए है ॥१०५८।। . गा०-टो०-किन्तु उस आशारूप जड़को बहुतसे विघ्नरूपी चूहे काट रहे हैं। फिर भी वह निर्लज्ज निर्भय होकर क्षणिक सुखमें निमित्त विषयरूपी मधुकी बूंदके आस्वादमें डूबा हुआ है। यहाँ विषय शब्दसे रूप आदिको कहा है। उसके सामने वर्तमान जो पुद्गल स्कन्धकी कुछ थोड़ी-सी पर्यायें हैं वे ही मधुकी बूंद है । उसीमें वह आसक्त है ॥१०५९॥ इस प्रकार संसारकी अनित्यताका कथन किया। १. ण अभिद्रुतः-आ० मु०। २. दि विभयविल-आ० मु० । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ भगवती आराधनां वालो अमेज्झलित्तो अमेज्झमज्झम्मि चेव जह रमदि । तह रमदि णरो मूंढो महिला मेज्झे सयममेज्झो || १०६०॥ 'बालो अमेज्झलित्तो' बालोऽमेध्येन लिप्तः । 'अमेज्झमज्झम्मि चेव' अमेध्यमध्ये एव । 'जह रमइ' यथा रमते प्रीतिमुपैति । 'तथा रमदि णरो मूढो' तथा रमते मूढः नरः । 'महिलामेज्झे' योषिदेव अनेकाशुचिपूर्णशरीरतया अमेध्यश द्वेनोच्यते । सयममेज्झो स्वयममेध्यभूतः ॥ १०६०॥ कुणिमरसकुणिमगंधं सेवित्ता महिलियाए कुणिमकुडी । जं होंति सोचयत्ता एवं हासावहं तेसिं ॥ १०६१॥ 'कुणिमरसकुणिमगंध' अशुचिरसमशुचिगन्धं । 'सेविता' सेवमानाः । 'महिलियाए' महिलाया युवत्याः । ' कुणिमकुडि' अशुचिशरीरकुटि । 'जं होदि सोयवत्ता' यद्भवन्ति शौचवन्तः । ' एवं हासावहं ' एतच्छोचवत्वं हास्यावहं । 'तेसि' तेषां ॥१०६१॥ एवं एदे अत्थे देहे चिंतंतयस्स पुरिसस्स । परदेहं परिभोत्तुं इच्छा कह होज्ज सघिणस्स || १०६२।। 'एवं एदे अत्थे' एवमेतानर्थान् । 'देहे' शरीरविषयान् । 'चिंतंतयस्य' चिन्तयतः । ' पुरिसस्स' पुरुषस्य । 'परदेहं परस्य शरीरं । 'परिभोत्त' परितो भोक्तुं । 'इच्छा किह होज्ज' इच्छा कथं भवेत् । 'सधिणस्स' लज्जावतः ॥ १०६२ ॥ एदे अत्थे सम्मं दोसं पिच्छंतओ णरो सघिणो । ससरीरे वि विरज्जइ किं पुण अण्णस्स देहम्मि || १०६३ || 'एदे अत्थे देहस्स बीजणिप्पत्तिखेत्त' इत्येतत्सूत्र निर्दिष्टानेतानर्थान् । 'देहे' शरीरे । 'पिच्छितगो' सम्यङ् निरूपयन् । ‘ससरीरे वि विरज्जइ' आत्मनोऽपि शरीरे विरक्ततामुपैति । 'किं पुण अण्णस्स देहम्मि' किं पुनरन्यशरीरे विरक्ततां नोपेयात् । 'अशुचि' अशुचित्वं व्याख्यातं ॥ १०६३॥ TITO- - जैसे मलसे लिप्त वालक मलमें ही रमता है वैसे ही मूढ़ मनुष्य स्वयं अत्यन्त मलिन है और मलिनता भरे स्त्रीके शरीरमें रमण करता है ||१०६०॥ गा० – युवतीका शरीर अशुचि रस और दुर्गन्धसे पूर्ण है । ऐसे अशुचि शरीरको सेवन करता हुआ कामी पुरुष अपनेको शुचि- पवित्र मानता है उसकी यह पवित्रता हास्यास्पद है ॥ १०६१ ॥ गा० - इस प्रकार शरीर के विषय में विचार करनेवाले पुरुषको शरीरसे ग्लानि हो जाती है तब उसे स्त्री शरीरको भोगनेकी इच्छा कैसे हो सकती है ॥ १०६२|| · गा० - शरीरका बीज, उसकी निष्पत्ति आदिको सम्यक्रूपसे निरीक्षण करनेवाला लज्जाशील मनुष्य अपने शरीरसे भी विरक्त हो जाता है तव अन्यके शरीरमें क्यों विरक्त नहीं होगा ||१०६३ || इस प्रकार शरीरकी अशुचिताका कथन हुआ । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५५९ वृद्धसेवानिरूपणाय उत्तरः प्रबन्धः थेरावा तरुणा वा इत्यादिकः । शीलवृद्धता भवति न केवलेन वयसा इत्याचष्टे थेरा वा तरुणा वा वुडढा सीलेहिं होंति वुड्ढीहिं । थेरा वा तरुणा वा तरुणा सीलेहिं तरुणेहिं ।।१०६४|| 'थेरा वा तरुणा वा' स्थविरास्तरुणाश्च । 'वुड्ढा होंति' वृद्धा भवन्ति । 'सोलेहिं वुड्ढेहि' शीलैः प्रवृद्धः । क्षमा, मार्दवं, ऋजुत्वं, सन्तोष इत्यादिकं शीलशद्वेनोच्यन्ते । 'थेरा वा तरुणा वा' स्थविरास्तरुणाश्च । तरुणा एव । 'सोलेहि तहि' तरुणः शीलैः । एतेन शीलवृद्धा इह वृद्धशब्देन गृहीताः । एतेषां सेवा वृद्धसेवेति कथितं भवति । वृद्धगुणानां सेवातः स्वयमपि गुणोत्कर्षमुपैतीति मन्यते ॥१०६४।। अपि 'चेहवत्यादिनामवयोवृद्धानामपि संसर्गो गुणवान्यतस्तेऽपि वयसैव' मन्दीभूतकामरतिदर्पक्रीडा इति वदति जह जह वयपरिणामो तह तह णस्सदि णरस्स बलरूवं । मंदा य हवदि कामरदिदप्पकीडा य लोभे य ॥१०६५।। 'जह जह वयपरिणामो' अतिक्रामति यथा यथा वयःपरिणामो युवत्वमध्यमत्वसंज्ञितः । ‘णरस्स परिणामो' प्राणिनः परिणामः नश्यति । 'तध तध से तथा तथा तस्य 'मंदा हवंति' मन्दा भवन्ति । 'कामरदिदप्पकोडा' काम्यन्त इति कामा विषयास्तत्र रतिदर्पः, क्रीडा, 'लोभो य' लोभश्च । मन्दविषयरत्यादिपरिणामेन वृद्धेन सह संवासात् स्वयमेवापि मन्दकामादिपरिणामो भवतीति भावः ॥१०६५॥ खोभेदि पत्थरो जह दहे पडतो पसण्णमवि पंकं । खोभेइ तहा मोहं पसण्णमवि तरुणसंसग्गी ॥१०६६।। आगे वृद्धसेवाका कथन करते हुए कहते हैं कि केवल अवस्थासे वृद्धता नहीं होती गा०-टो०-अवस्थासे वृद्ध हो अथवा तरुण हो, जिसके शील अर्थात् क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष आदि बढ़े हुए हैं वे वृद्ध हैं। तथा अवस्थासे वृद्ध हों अथवा तरुण हों जिनके शील तरुण हैं-वृद्धिको प्राप्त नहीं हैं वे तरुण हैं। अतः यहाँ जो शीलसे वृद्ध हैं वृद्ध शब्दसे उनका ग्रहण किया है। उनकी सेवा वृद्ध सेवा है, यह कथनका अभिप्राय है । गुणोंसे वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करने में स्वयं भी मनुष्य गुणोंमें उत्कर्षको प्राप्त होता है ।।१०६४॥ ___आगे कहते हैं कि अवस्थासे वृद्धोंका संसर्ग भी लाभकारी है क्योंकि अवस्थाके कारण ही उनका कामज्वर आदि मन्द हुआ है गा०-जैसे-जैसे मनुष्यको युवावस्था, मध्यावस्था बीतती जाती है वैसे-वैसे उसकी कामविषयक रति, मद, लोभ आदि मन्द होते जाते हैं। इसका भाव यह है कि जिसका कामभावरूप परिणाम मन्द होता है उस वृद्धके साथ रहनेसें मनुष्य स्वयं भी मन्द कामभाव आदिसे युक्त होता है ॥१०६५॥ १. चेह यत्यादीनामपि संसर्गों गुणवान्यतस्तेपि तपसव-आ० मु० । २. तपसैव सम्यग्भूत काम-ज०॥ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'खोभेदि' क्षोभयति । 'पत्थरो' शिला महती । 'जह' यथा । 'दहे' हदे 'पडतो' पतन् । 'पसण्णमवि पंक' प्रशान्तमपि पङ्कं । 'खोभेदि' चालयति । ' तथा मोहं' | 'पसण्णमवि' प्रशान्तमपि । 'तरुण संसगी' तरुणगोष्ठी ॥ १०६६ ॥ ५६० कलुसीकदपि उदगं अच्छं जह होइ कदयजोएण । कलुसो वि तहा मोहो उवसमदि हु बुड्ढसेवाए ||१०६७॥ 'कलुसीकदपि उदगं' कलुषीकृतमप्युदकं । 'कदगजोएण' कतकफलसम्बन्धेन । 'अच्छे' स्वच्छं । 'जघ होदि' यथा भवति । 'कलुसोऽपि' कलुषितोऽपि । 'मोहो' मोहः । 'उवसमदि' उपशाम्यति । 'वुड्ढसेवाए' वृद्धसेवया ॥१०६७। विमट्टिया उदीरदि जलासयेण जह गंधो । लीणो उदीरदि रे मोहो तरुणासयेण तहा || १०६८ || 'लोणो वि' लीनोऽपि । 'मट्टियाए' मृत्तिकायाः । 'गंधो' गन्धः । यथा 'जलासयेण' जलाश्रयेण । 'उदीरदि' उदयमुपैति । 'लोणो वि मोहो' लीनोऽपि नरे मोहः । 'उदीरदि' उदयमुपनीयते । 'तरुणासएण ' तरुणाश्रयेण तथा ॥ १०६८॥ संतो वि मट्टियाए गंघो लीणो हवदि जलेण विणा । जह तह गुट्ठीए विणा णरस्स लीणो हवदि मोहो । १०६९ ।। 'संतो वि' सन्नपि मृत्तिकाया गन्धः । जलेन विना लीनो भवति यथा तथा गोष्ठ्या विना मोहो नरस्य लीनो भवति ।। १०६९ ॥ तरुणो वि वुड्ढसीलो होदि णरो बुड्ढसंसिओ अचिरा । लज्जासंकामाणावमाणभयधम्मबुद्धीहिं ॥ १०७० ॥ गा०—जैसे तालाब में गिरकर पत्थर उसकी तलसे बैठी हुई पंकको उभारकर निर्मल जलको मलिन कर देता है, वैसे ही तरुणांका संसर्ग प्रशान्त पुरुषके भी मोहको उद्रिक्त कर देता है ||१०६६ || गा०-- और जैसे कतकफल डालने से गदला पानी भी निर्मल हो जाता है वैसे ही वृद्ध पुरुषों की सेवासे कलुषित मोह भी शान्त हो जाता है ||१०६७॥ गा०—जैसे मिट्टी में छिपी हुई गन्ध जलका आश्रय पाकर प्रकट हो जाती है । वैसे ही तरुणोंके संसर्गसे मनुष्य में छिपा हुआ मोह उदयमें आ जाता है ॥ १०६८ || गा०—और जैसे मिट्टीमें वर्तमान होते हुए भी गन्ध जलके बिना मिट्टी में ही लीन रहती है । वैसे ही तरुणोंके संसर्गके विना मनुष्यका मोह उसीमें लीन रहता है, बाहर में प्रकट नहीं होता ॥ १०६९ || गा० - वृद्ध पुरुषोंके संसर्गसे तरुण भी शीघ्र ही लज्जासे, शंकासे, मानसे, अपमानके भय और धर्मबुद्धिसे वृद्धशील हो जाता है ॥ १०७० ॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५६१ _ 'तरुणो वि' तरुणोऽपि । वृद्धशीलो भवति । वृद्धं संश्रितोऽचिरात् लज्जया, शंकया, मानेन, अपमानभयेन धर्मबुद्धया च ।।१०७०॥ वड्ढो वि तरुणसीलो होइ णरो तरुणसंसिओ अचिरा । वीसंभणिव्विसंकों समोहणिज्जो य पयडीए ।।१०७१।।। 'वुढ्ढो वि' वृद्धोऽपि तरुणशीलो भवति तरुणसंश्रितः क्षिप्रं । 'विस्संभणिव्विसंको' विभंभेन निविंशकः 'समोहणिज्जो य' सह मोहनीयेन वर्तमानः । 'पयडीए' प्रकृत्या ।।१०७१।। सुंडयसंसग्गीए जह पादुसुंडओऽभिलसदि सुरं । विसए तह पयडीए संमोहो तरुणगोट्ठीए ॥१०७२॥ 'सुडयसंसग्गीए' यथा शौंडगोष्ठया । 'जह पादु सुरमभिलसदि' यथा पातु सुरामभिलषति । तथा ‘पयडीए संमोहो' तथा प्रकृत्या संमोहः । 'तरुणगोट्ठीए विसए अभिलसदि' तरुणगोष्ठ्या विषयानभिलषति ॥१०७२॥ तरुणेहिं सह वसंतो चलिंदिओ चलमणो य वीसत्थो । अचिरेण सइरचारी पावदि महिलाकदं दोसं ॥१०७३।। 'तरुणेहि' तरुणैः सह वसन् चलेन्द्रियश्चलचित्तः, सुष्ठु विश्वस्तः अचिरेण स्वरचारी । 'पावदि' प्राप्नोति । 'महिलाकवं दोसं' वनिताविषयं दोषं ॥१०७३॥ पुरिसस्स अप्पसत्थो भावो तिहिं कारणेहिं संभवइ । 'विरहम्मि अंघयारे कुसीलसेवाए ससमक्खं ॥१०७४।। 'पुरिसस्स' पुरुषस्य अप्रशस्तो भावस्त्रिभिः कारणैः संभवति । एकान्ते, अन्धकारे, कुसीलसेवादर्शनेन च प्रत्यक्षम् ।।१०७४।। गा०-तथा तरुण पुरुषोंकी संगतिसे वृद्ध पुरुष भी शीघ्र ही विश्वासके कारण निर्भय होनेसे और स्वभावसे ही मोहयुक्त होनेसे तरुणशील तरुणोंके स्वभाववाला हो जाता है ।।१०७१।। गा०-जैसे मद्य पीनेवालोंके संसर्गसे मद्यपी मद्यपान करनेकी अभिलाषा करने लगता है वैसे ही स्वभावसे ही मोही जीव तरुणोंके संसर्गसे विषयोंकी अभिलाषा करता है ।।१०७२।। गा०-जो तरुणोंकी संगतिमें रहता है उसकी इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, मन चंचल होता है, और पूरा विश्वासी होता है। फलतः शीघ्र ही स्वच्छन्द होकर स्त्रीविषयक दोषोंका भागी होता है ।।१०७३॥ पुरुषमें (और स्त्रीमें भी) तीन कारणोंसे अप्रशस्तभाव अर्थात् काम सेवनकी अभिलाषा युक्तभाव होता है ___ गा०-एकान्तमें स्त्रीके साथ पुरुषका और पुरुषके साथ स्त्रीका होना, अन्धकारमें तथा स्त्री पुरुषके काम सेवनको प्रत्यक्ष देखनेपर ॥१०७४।। १. वियदम्मि मु०, मूलारा० । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ भगवती आराधना पासिय सुच्चा व सुरं पिज्जंतं सुंडओ भिलसदि जहा । विसए य तह समोहा पासिय सोच्चा व भिलस || १०७५ || 'पासिया सुच्चा व सुरं' सुरां पीयमानां दृष्ट्वा वा श्रुत्वा वा शौंडोऽभिलषति । यथा तथा समोहो विषयानभिलषति दृष्ट्वा श्रुत्वा वा ॥ १०७५ ।। जादो खु चारुदत्तो गोट्टीदोसेण तह विणीदो वि । गणियासत्तो मज्जासत्तो कुलदूसओ य तहा ||१०७६॥ 'जादो खु चारुदत्तो' विनीतोऽपि चारुदत्तो गोष्ठीदोषेण गणिकासक्तो जातः मद्यावसक्तः कुल दूषकश्च ॥ १०७६ ॥ तरुणस्स वि वेरग्गं पण्हाविज्जदि णरस्स बुद्धेहिं । पहाविज्जर पाडच्छीवि हु वच्छस्स फरुसेण ॥ १०७७॥ 'तरुणस्स वि' तरुणस्यापि वैराग्यं जन्यते ज्ञानवयस्तपोवृद्धः । वत्सस्य स्पर्शेन यथा गोः प्रस्तुतक्षीरा क्रियते ॥ १०७७ ॥ परिहरइ तरुणगोट्ठी विसं व बुढाउले य आयदणे । जो वस कुण गुरुणि सं सो णिच्छरह बंभं ॥ १०७८ ॥ 'परिहरइ तरुणगोठ्ठी' परिहरति तरुणैः सह गोष्ठीं विषमिव यः, वृद्धं राकीर्णे चायतने यो वसति । करोति च गुर्वाज्ञां स निस्तरति ब्रह्मचर्यमिति संक्षेपोपदेशः । बृद्धसेवा गता ॥ १०७८॥ स्त्रीसंसर्गकृतदोषावेक्षणं स्वमनसा संसग्गीदोसावि य इत्यस्य सूत्रपदस्यार्थः साध्याहारतया सूत्राणां पिच्छिज्जंता इति वाक्यशेषात् -- गा०- - जैसे मद्यपी किसीको मद्य पीते देखकर अथवा सुनकर मद्यपानकी अभिलाषा करता है । वैसे ही मोही मनुष्य विषयोंको देखकर अथवा सुनकर विषयों की अभिलाषा करता है ॥१०७५ ॥ गा० - विनयवान भी चारुदत्त सेठ संगतिके दोषसे गणिका में आसक्त हुआ, मद्यपान में आसक्त हुआ और अपने कुलका दूषक हुआ || १०७६ ॥ गा० - ज्ञान, वय और तपसे वृद्ध पुरुषोंकी संगति तरुणपुरुषों में भी वैराग्य उत्पन्न करती है जैसे बछड़े के स्पर्शसे गौके स्तनोंमें दूध उत्पन्न होता है || १०७७ || गा० - जो तरुणोंकी संगतिको विषकी तरह जानकर छोड़ देता है और ज्ञान तप शीलसे वृद्ध पुरुषोंके वासस्थानमें रहता है वह गुरुकी आज्ञाका पालन करता है और ब्रह्मचर्यको पालता है ॥१०७८ ॥ वृद्ध संगतिका प्रकरण समाप्त हुआ । अब स्त्रीके संसर्गसे होनेवाले दोषों को कहते हैं Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ___ ५६३ आलोयणेण हिदयं पचलदि पुरिसस्स अप्पसारस्स । पेच्छंतयस्स बहुसो इत्थीथणजहणवदणाणि ॥१०७९।। आलोगणेण आलोकनेन । 'हिदयं' हृदयं प्रचलति । 'अल्पधृतिकस्य पुंसः प्रेक्षमाणस्य बहुशो युवतीनां वदनपयोधरपृथुजघनानि ॥१०७९॥ लज्जं तदो विहिंसं परिजयमध णिव्विसंकिदं चेव । लज्जालुओ कमेणारुहंतओ होदि वीसत्थो ॥१०८०॥ 'लज्ज तदो विहिस' ततो हृदयचलनोत्तरकालं लज्जां विनाशयति । विनष्टलज्जः परिचयमुपैति । ताभिर्दर्शनसमीपगमनहसनादिकं करोतीति यावत् । पश्चाग्निविशंको भवतीति मामनया सह स्थितं पश्यन्ति इति या शंका तामपाकरोति । लज्जावानपि नरः क्रमेण अभिहिता अवस्था उपारोहन, विश्वस्तो भवति ॥१०८०॥ वीसत्थदाए पुरिसो वीसंभं महिलियासु उवयादि । वीसंभादो पणयो पणयादो रदि हवदि पच्छा ॥१०८१।। 'वीसत्यदाए' विश्वस्ततया मनसः विश्रंभमुपयाति युवतिषु । विश्रंभात्प्रणयः प्रणयाद्रतिर्भवति ॥१०८१॥ उल्लावसमुल्लावएहिं चा वि अल्लियणपेच्छणेहिं तहा । महिलासु सइरचारिस्स मणो अचिरेण खुन्भदि हु ।।१०८२।। 'उल्लावसमुल्लाहिं' संभाषणप्रतिवचनैः, ढोकनेन, प्रेक्षणेन, तथा वनिताभिः स्वेच्छाचारी तस्य शीघ्र मनश्चलति ।।१०८२॥ ठिदिगदिविलासविन्भमसहासचेट्ठिदकडक्खदिट्ठीहिं । लीलाजुदिरदिसम्मेलणोक्यारेहि इत्थीणं ॥१०८३।। गा०-युवती स्त्रियोंका मुख, स्तन और स्थूल नितम्बोंको बराबर ताकते रहनेसे चंचल चित्त मनुष्यका हृदय विचलित हो जाता है ।।१०७९।। गा०-टी-हृदयके विचलित होनेके पश्चात् उसकी लज्जा जाती रहती है। निर्लज्ज होनेके पश्चात् वह उन स्त्रियोंको देखना, उनके समीप जाना, उनसे हँसी ठठोली करना आदिके द्वारा परिचय प्राप्त करता है। पीछे उसका यह भय जाता रहता है कि लोग मुझे इनके साथ देखेंगे। इस तरह लज्जाशील मनुष्य भी क्रमसे कही गई अवस्थाओंको प्राप्त करता हुआ स्त्रियोंके विषयमें विश्वस्त हो जाता है कि यह मुझसे अनुराग करती है और किसीसे यह कहेगी नहीं आदि ॥१०८०॥ गा०-अपने मनमें ऐसा विश्वास होनेसे वह स्त्रियोंमें भी विश्वास करने लगता है और प्रेमसे आसक्ति बढ़ती है ॥१०८१।। गा०-आसक्ति बढ़नेसे परस्परमें वार्तालाप होने लगता है। बार-बार मिलना और परस्पर देखना होता है । इससे स्त्रियोंके सम्बन्धमें स्वेच्छाचारी मनुष्यका चित्त शीघ्र ही विचलित हो जाता है ।।१०८२।। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ भगवती आराधना _ 'ठिदिगदि'-स्त्रीणां स्थित्या, गत्या विभ्रमेण, नर्तनाभिप्रायेण, निगृहनेन, कटाक्षावलोकनेन, शोभया, इत्या, क्रीडया, सहगमनासनादिना उपचारेण च ।।१०८३।।। हासोवहासकीडारहस्सवीसत्थजंपिएहिं तहा । लज्जामज्जादीणं मेरं पुरिसो अदिक्कमदि ॥१०८४।। 'हासोपहासकीडा' हासेन प्रतिहासेन च, क्रीडया, एकान्ते विश्वस्तल्पितेन च लज्जामर्यादयोः सीमातिक्रमं करोति नरः ॥१०८४॥ ठाणगदिपेच्छिदुल्लावादी सव्वेसिमेव इत्थीणं । सविलासा चेव सदा पुरिसस्स मणोहरा हुंति ।।१०८५।। 'ठाणगदि' स्थानं, गतिः, प्रेक्षितमुल्लापमत्यादयः सर्वासामेव स्त्रीणां सविलासाः पुरुषस्य मनः सदापहरन्ति ।।५०८५॥ संसग्गीए पुरिसस्स अप्पसारस्स लद्धपसरस्स । अग्गिसमीवे' व घयं मणो लहुमेव हि विलाइ ॥१०८६।। 'संसग्गोए' सहगमनेन, गमनेन, आसनेन च पुरुषस्य अल्पसारस्य लब्धप्रसरस्य मनो द्रवोभवति । अग्निनिकटस्थिता लाक्षेव ॥१०८६।। संसग्गीसम्मूढो मेहुणसहिदो मणो हु दुम्मेरो । पुवावरमगणतो 'लंघेज्ज सुसीलपायारं ॥१०८७।। 'संसग्गीसम्मूढो' स्त्रीसंसर्गसंमूढः मनो मिथुनकर्मपरिणतं निमर्यादं पूर्वापरमगणयदुल्लंघयेच्छी लप्राकारं ।।१०८७॥ गा०-टो०-तथा स्त्रियोंके खड़े होने, गमन करने नेत्रोंके अनुराग, कटाक्ष क्षेप, हास्यपूर्ण चेष्टा, शोभा, कान्ति, क्रीड़ा, साथ-साथ चलना, बैठना आदि उपचारोंसे, ह्रास उपहाससे, तथा एकान्तमें विश्वासयुक्त वार्तालापसे पुरुष लज्जा और मर्यादाकी सीमाका उल्लंघन करता है ॥१०८३-१०८४॥ गा०-सब ही स्त्रियोंका विलास सहित खड़ा होना, गमन करना, देखना, वोलना आदि सदा पुरुषोंके मनको हरता है ॥१०८५॥ गा०—निर्बल चित्त और स्वेच्छाचारी मनुष्यका मन स्त्रियोंके संसर्गसे उनके साथ उठने वैठने और आने जानेसे आगके पासमें रखे घी या लाखको तरह द्रवीभूत हो जाता है ।।१०८६।। गा०-इस प्रकार स्त्रीके सहवाससे मूढ़-मोहित हुआ मन मैथुन संज्ञासे पीड़ित होकर निर्मर्याद हो जाता है और आगे पीछे न देखते हुए सुन्दर शीलरूपी परिकोटको लाँघ जाता है ॥१०८७॥ १. वे लक्खेव म-भु० । २. णिम्मेरो-मूलारा० । ३. उट्ठ वदि उल्लंघयति-मूलारा० । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका इंदियकस यसण्णागारवगुरुया सभावदो सच्वे । संसग्गिलद्धपसरस्स ते उदीरंति अचिरेण || १०८८|| 'इंदिय कसाय सण्णागार व गुरुका' इंद्रियैः कषायैः संज्ञाभिराहार भय मैथुनपरिग्रहविषयाभिः ऋद्धिरससातगौरवैश्च गुरुकाः । स्वभावात् सर्वे एव प्राणभृतः संसर्ग लब्धप्रसरस्य अतीव अशुभपरिणामा अचिरादेवीत्पद्यन्ते || १०८८ ॥ मादं सुदं च भगिणीमेगंते अल्लियंतगस्स मणो । खुम्भ रस्स सहसा किं पुण सेसासु महिलासु || १०८९ ।। स्पष्टार्था ।। १०८९ ॥ उत्तरा जुण्णं पोच्चलमडलं रोगियबीभस्सदंसणविरूवं । मेहुणपsिi पच्छेदि मणो तिरियं च खु णरस्स || १०९० ।। 'जुण्णं' जीर्णतरां । 'पोच्चलमइल' निःसारमलिनां । 'रोगिदबीभस्सदंसणविरूवं' व्याधितां वीभत्स - लोचनां विरूपामपि स्त्रियं । 'मेहुणपडिगं ' मैथुनकर्मनिमित्तं 'पच्छेदि' प्रार्थयते । 'मणो' मनः 'तिरियं खु' तिरश्चों वा दृष्ट्वा हि तीव्रकामावेशात् तिर्यक्ष्वपि नराणां प्रवृत्तिः ॥ १०९०॥ दिट्ठानुभूदसुदविसयाणं अभिलाससुमरणं सव्वं । सा वि होइ महिलासंसग्गी इत्थिविरहम्मि ।। १०९१ ॥ ५६५ 'दिट्ठाणुभूदसुदविसयाणं' दृष्टानां, अनुभूतानां श्रुतानां च विषयाणां । 'अभिलाससुमरणं' अभिलाषस्मरणं । सव्वं एसोवि होदि महिलासं सग्गी' एषोऽपि भवति युवतिसंसर्गः । ' इत्थिविर हे' स्त्रीविरहे ॥ १०९१ ॥ थेरो बहुस्सुदो' वा पच्चई ओ तह गणी तवस्सित्ति । अचिरेण लभदि दोसं महिलावग्गम्मि वीसत्थो ।। १०९२ ।। गा०—स्वभावसे ही सब प्राणी इन्द्रिय, कषाय, आहार भय मैथुन और परिग्रह विषयक संज्ञा तथा ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातगौरवसे युक्त होते हैं । अतः स्त्रीकी संगतिका साहाय्य पाकर वे इन्द्रियादिरूप अशुभ परिणाम तत्काल प्रवल हो उठते हैं | १०८८|| गा०-- एकान्त में माता, पुत्री और बहनको पाकर जब मनुष्यका मन सहसा चंचल हो उठता है तव शेष स्त्रियोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है || १०८९|| गा० - मनुष्यका मन अति वृद्धा, सारहीन, मैली, कुचैली, रोगी, देखने में भयानक कुरूप स्त्रीको भी मैथुन करनेके लिए चाहता है । तथा तीव्र कामके आवेशमें पशुओं के साथ भी मनुष्य मैथुन कर्म करता है || १०९० ॥ अन्य प्रकारसे स्त्री संसर्ग दिखलाते हैं गा०—स्त्रीके अभावमें देखे हुए, भोगे हुए, सुने हुए विषयोंकी अभिलाषा करना, स्मरण करना, ये सब भी स्त्री संसर्ग ही है ॥ १०९१ ॥ १. दो पच्चई पमाणं गणी-मु० । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'थेरो' स्थविरः, बहुश्रुतः, प्रत्ययितः, प्रमाणभूतः गणधरः, तपस्वीत्येवं प्रकारः । 'अचिरेण' चिरकालमन्तरेण | 'लभदि दोसं' अयशो लभते । 'महिलावरगम्मि' युवतिवर्गे । 'वीसत्थो' विश्वस्तः ॥१०९२॥ किं पुण तरुणा अबहुस्सुदा य सहरा य विगदवेसा य । महिलासंसग्गीए णट्ठा अचिरेण होहति ॥ १०९३ ।। ५६६ 'किं पुण तरुणा' सयौवनाः, अबहुश्रुताः, स्वैरचारिणः, विकृतवेषाश्च युवतिसंसर्गेण झटिति नष्टा न भवन्ति ? किं पुनर्भवन्त्येवेति यावत् ॥ १०९३॥ गहु इणिगाए संसग्गीए दु चरणपब्भट्ठो । गणिया संसग्गीय य कूववारो तहा णट्टो || १०९४॥ 'सगडो हुँ' सगडा नामधेयः । 'जइणिगाए संसग्गीए' जइणिगासंज्ञायाः संसर्गेण । 'चरणपन्भट्ठो' चारित्राभ्रष्टः । ' गणिकासंसग्गीए' गणिकागोष्ठधा । 'कूवयारो वि' कूपारनामक: । 'तहा गट्ठी' तथा चारित्रान्नष्टः ॥ १०९४॥ vat परासरो सच्चाईय रायरिसि देवपुत्तो य । महिलारूवालोई ट्ठा संसत्तदिट्ठीए || १०९५ ।। 'रुद्दो परासरो' रुद्रः पराशरः सात्यकिः, राजर्षिर्देवपुत्रश्च युवतिरूपावलोकिनः । संसक्तया दृष्ट्या नष्टाः ॥ १०९५ ॥ जो महिलासंसग्गी विसंव दट्ठूण परिहरइ णिच्चं । णित्थरइ बंभचेरं जावज्जीवं अकंपा सो ॥। १०९६ ॥ जो महिलायाः स्त्रीणां संसर्ग विषमिव दृष्ट्वा नित्यं परिहरति । असौ ब्रह्मचर्यं उद्वहति यावज्जीवं निश्चलः || १०९६ ॥ गा० – वृद्ध, बहुश्रुत, सबका विश्वास भाजन, सबके लिए प्राणभूत, गणधर और तपस्वी मनुष्य भी यदि स्त्रियोंके विषय में विश्वस्त है उनसे संसर्ग रखता है तो वह भी शीघ्र ही अपयशका भागी होता है ॥ १०९२|| गा० - तब जो तरुण हैं, अल्पज्ञानी हैं, स्वच्छन्द और विकार पैदा करनेवाला वेष रखते हैं वे स्त्रियोंके संसर्गसे शीघ्र ही नष्ट क्यों न होंगे ? अवश्य ही होंगे ॥। १०९३ ॥ गा०— शकट नामक मुनि जैनिका नामक ब्राह्मणी के संसर्गसे चारित्रसे भ्रष्ट हुए । और कूपार नामक मुनि वेश्याकी संगतिके कारण चारित्र से भ्रष्ट हुए ।। १०९४|| गा० - रुद्र, पाराशर ऋषि, सात्यकि मुनि, राजर्षि, और देवपुत्र ये स्त्रीके रूपको देखने में आसक्त होकर भ्रष्ट हुए । १०९५ || गा०-- जो पुरुष स्त्रीके संसर्गको विषकी तरह देखकर नित्य ही उससे बचता है वह निश्चल होकर जीवनपर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करता है ।। १०९६ || Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५६७ सव्वम्मि इंत्थिवग्गम्मि अप्पमत्तो सदा अबीभत्थो । बंभं निच्छरदि वदं चरित्तमूलं चरणसारं ।।१०९७॥ 'सव्वम्मि' सर्वस्त्रोवर्गे । अप्रमत्तः सदा अविश्वस्तः, ब्रह्मव्रतमुद्दहति चारित्रस्य मूलं सारं च ॥१०९७॥ कि मे जंपदि किं मे पस्सदि अण्णो कहं च वट्टामि । इदि जो सदाणुपेक्खइ सो दढवभव्वदो होदि ॥१०९८।। 'कि मे जंप्पदि' किं जल्पति मां जनोऽन्यः । किं पश्यति, कीदृशी वा मम वृत्तिरिति यः सदानुप्रेक्षते असौ दृढब्रह्मचर्यव्रतो भवति ।।१०९८॥ मज्झण्हतिक्खसूरं व इत्थिरूवं ण पासदि चिरं जो । खिप्पं पडिसंहरदि दिढि सो णिच्छरदि बंभं ॥१०९९।। 'मज्झण्हतिक्ससूरं व' मध्यान्हे स्थितं तीक्ष्णमादित्यमिव स्त्रीणां रूपं चिरं यो न पश्यति । क्षिप्रमुपसंहरति दृष्टि यः स निस्तरति ब्रह्मचर्य ।।१०९९॥ एवं जो महिलाए सर्वे रूवे तहेव संफासे । ___ण चिरं जस्स सज्जदि दुमणं खु णिच्छरदि सो बंभं ॥११००॥ ‘एवं जो महिलाए' एवं यो युवतिशब्दे, रूपे, संस्पर्श च चिरं मनो न संधत्तेऽसौ ब्रह्म निस्तरति । 'संसग्गी' ॥११००॥ इह परलोए जदि दे मेहुणविस्सुत्तिया हवे जण्हु । तो होहि तमुवउत्तो पंचविधे इत्थिवेरग्गे ।।११०१।। 'इह परलोए' इह परलोके च यदि मैथुनपरिणामो भवेत् । पंचविधे स्त्रीवैराग्ये त्वमुपयुक्तो भव । तदुपयोगाद्विनश्यत्यसावशुभतमः परिणाम इति सूरेरुपदेशः ॥११०१।। गा०-जो पुरुष सम्पूर्ण स्त्री वर्गमें प्रमाद रहित है और सदा स्त्रियोंका विश्वास नहीं करता। वह ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करता है जो ब्रह्मचर्य व्रत चारित्रका मूल और उसका सार है ।।१०९७।। गा०-अन्य लोग मेरे सम्बन्धमें क्या कहते हैं ? मुझे किस दृष्टिसे देखते हैं ? मेरी प्रवृत्ति कैसी है ? ऐसा जो सदा विचार करता है उसका ब्रह्मचर्यव्रत दृढ़ होता है ।।१०९८॥ गा०--जो मध्याह्नकालके तीक्ष्ण सूर्यकी तरह स्त्रीके रूपकी और देर तक नहीं देखता और शीघ्र ही अपनी दृष्टिको उसकी ओरसे हटा लेता है वह ब्रह्मचर्यका निर्वाह करता है ॥१०९९।। गा०—इस प्रकार स्त्रीके शब्द, रूप और स्पर्शमें जिसका मन चिरकाल तक नहीं ठहरता, वह ब्रह्मचर्यका पालक होता है ॥११००॥ इस प्रकार स्त्री संसर्गके दोषोंका कथन किया। गा०-टो०--हे क्षपक ! यदि इस लोक और परलोकमें तुम्हारे मैथुन सेवनके परिणाम हों तो पाँच प्रकारके स्त्री वैराग्यमें मनको लगाओ। अर्थात् स्त्रीकृत दोष, मैथुनके दोष, स्त्री Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना उदय जायवड्ढि उदएण ण लिप्पदे जहा पउमं । तह विसएहिं ण लिप्पदि साहू विसएसु उसिओ वि ।। ११०२ ।। 'उदयम्मि जायवढिय' उदके जातं परिवृद्धं च यथा पद्मं उदकेन न लिप्यते । तथा न लिप्यते विषयः साधुर्विषयेषु वर्तमानोऽपि ।। ११०२ ।। उरगाहिंतस्सुदधिं अच्छेरमणोल्लणं जह जलेण । तह विसयजलमणोमच्छेरं विसयजलहिम्मि | ११०३ ।। 'ओग्गाहंतस्सुदधि' अवगाहमानस्योदधि आश्चर्यं यथा जलेनास्पर्शनं । तथा विषयजलेनार्द्रचित्तता आश्चर्यं विषयजलधिमध्यमध्यासीनस्य ॥। ११०३ ॥ ५६८ मायागहणे बहुदोसमात्रए अलियदुमगणे भीमे । असुतपिल्ले साहू ण विष्पणस्संति इत्थवणे ||११०४ ।। 'मायागहणे' यथा गहनं परेषां दुःप्रवेशं एवं मायापि परैर्दुरधिगमेति मायापि गहनमित्युच्यते । मायागहनं यस्मिन्वने तन्मायागहनं तस्मिन् । 'बढ्दोससावदे' वहवो दोपा बहुदोपाः असूया, पिशुनता, चपलता, भीरुता, नितरां प्रमत्तता चेत्येवमादयस्ते श्वापदा यस्मिन् । 'अलिगदुमगणे' यथा द्रुमो महाननेकशाखोपशाखाकुलश्च तद्वद्व्यलीकता द्रुमगणो यस्मिन् । भीमे भयंकरे । 'अशुचित णिल्ले' अशुचितृणकुले । यतयो न विप्रणश्यन्ति स्त्रीवने ॥। ११०४ ।। सिंगारत रंगाए विलासवेगाए जोव्वणजलाए । विहसियफेणाए मुणी णारिणईए ण बुज्झति ॥ ११०५।। संसर्ग के दोष, शरीर की अशुचिता और वृद्धसेवाका चिन्तन करो। ऐसा करनेसे तुम्हारे अति अशुभ परिणाम नष्ट होंगे ॥११०१ ॥ गा० - जैसे जल में उत्पन्न हुआ और जलमें ही बढ़ा कमल जलसे लिप्त नहीं होता । वैसे ही विषयोंके मध्यमें रहते हुए भी साधु विषयोंसे लिप्त नहीं होता ।। ११०२॥ गा०—जैसे समुद्रका अवगाहन करके भी समुद्रके जलसे शरीरका निर्लिप्त रहना आश्चर्यकारी है | वैसे ही विषयरूपी समुद्रके मध्यमें रहकर विषयरूपी जलसे चित्तका न भींगना आश्चर्यकारी है ॥ ११०३ ॥ गा० - टी० - - यह स्त्री रूपी वन मायाचारसे गहन है । जैसे गहन वनमें दूसरोंका प्रवेश करना कठिन होता है वैसे ही मायाको भी जानना कठिन है इसलिए मायाको गहन कहा है । अतः स्त्रीरूपी वनमें माया ही गहनवेल आदि झाड़ियोंका समूह है । वनमें हिंसक जन्तु रहते हैं । स्त्रीरूप वनमें परनिन्दा, चुगली, चंचलता, भीरुता, प्रमत्तपना आदि बहुदोषरूपी हिंसक जन्तुओंका आवास है । वनमें वृक्ष होते हैं जो अनेक शाखा उपशाखाओंसे फैले रहते हैं । स्त्रीरूपी वनमें झूठरूपी वृक्ष अपने भेद प्रभेदोंके साथ रहता है । वनकी तरह स्त्रीरूप वन भी भयंकर है । वनमें घास फूँस रहता है । स्त्री रूपी वनमें अशुचि शरीर के अंग-उपांग ही घास फूस हैं । ऐसे स्त्रीरूपी वनमें साधु नहीं भटकता ॥ ११०४ || Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ५६९ "सिंगारतरंगाए' शृङ्गारतरङ्गया, विलासवेगया, यौवनजलया, विहसितफेनया, नारीनद्या मुनि!ह्यते ॥११०५॥ ते अदिसूरा जे ते विलाससलिलमदिचवलरदिवेगं । जोव्वणणईसु तिण्णा ण य गहिया इत्थिगाहेहिं ॥११०६।। __ 'ते अदिसूरा' ते अतिशूराः । ये विलाससलिलामतिचपलरतिवेगां यौवननदीमुत्तीणः, न च गुहीता युवतिग्राहैः ॥११०६।। महिलावाहविमुक्का विलासपुंक्खा कडक्खदिट्टि मरा । जण्ण वधंति सदा विस यवणचरं सो हवइ धण्णो ॥११०७॥ 'महिलावाहविमुक्का' युवतिव्याधविमुक्ताः । विलासपृषत्काः, कटाक्षदृष्टिशराः । यं न घ्नन्ति सदा विषयवने चरन्तं भवति स धन्यः ।।११०७॥ विव्वोगतिक्खदंतो विलास खंधो कडक्कदिविणहो । परिहरदि जोवणवणे जमित्थिवग्यो तगो घणो ॥११०८।। "विवोगतिक्खदंतो' विलासखन्धो । विभ्रमतीक्ष्णदन्तो विलासस्कन्धः कटाक्षदृष्टिनखः परिहरति यौवनवने यं युवतिव्याघ्रः स धन्यः ॥११०८॥ तेल्लोक्काड विडहणो कामग्गी विसयरुक्खपज्जलिओ । जोव्वणतणिल्लचारी जंण डहइ सो हवइ धण्णो ।।११०९।। गा०--स्त्री एक नदीके समान है। उसमें शृङ्गाररूप तरंगे हैं। विलासरूप वेग है। यौवनरूप जल है तथा मन्द-मन्द हँसना ही झाग है । ऐसी स्त्रीरूपी नदी मुनिको नहीं वहा सकती ||११०५॥ गा०--यह यौवनरूप नदी विलासरूप जलसे पूर्ण है. अति चंचल रतिरूप इसका प्रवाह है। जो इस यौवनरूप नदीको पारकर गये और स्त्रीरूपी मगरमच्छोंने जिन्हें नहीं पकड़ा वे इस जगतमें अति शूरवीर हैं अर्थात् जवानीमें भी जिन्हें स्त्रीकी चाहने नहीं घेरा वे ही सच्चे शूरवीर हैं ॥११०६|| गा०-टी०-विषयरूपी बनमें विचरण करने वाले जिस पुरुषको स्त्रीरूपी शिकारीके द्वारा छोड़े गये कटाक्षदृष्टिरूपी बाणोंने नहीं बींधा वह धन्य है। इन बाणोंमें लगा पंख स्त्रीका विलास है । विलासके साथ कटाक्ष दृष्टिरूपी बाण स्त्रीरूपी शिकारी विषयरूपी वनमें विचरण करने वालों पर चलाता है । जो उससे बचे रहते हैं वे धन्य हैं ।।११०७।।। गा०-स्त्री व्याघ्रके समान है भृकुटि विकार उसके तीक्ष्ण दाँत है। विलासरूपी कन्धा है । कटाक्षदृष्टि उसके नख है । यौवनरूपी बनमें विचरण करने वाले जिस पुरुषको यह स्त्रीरूपी व्याघ्र नहीं पकड़ता, वह धन्य है ।।११०८।। गा०–तीनों लोकरूपो बनको जलाने वाली और विषयरूपी वृक्षोंसे प्रज्वलित यह कामरूप आग यौवन रूपी तृणों पर चलने में चतुर जिस मनुष्यको नहीं जलाती वह धन्य है ॥११०४|| ७२ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० भगवती आराधना 'तेल्लोक्काडविडहणो' त्रैलोक्याटविदहनः । कामाग्निविषयवृक्षे प्रज्वलिते यौवनतणसञ्चरणचतुरं यन्न दहत्यसौ धन्यः ॥११०९।। विसयसमुदं जोव्वणसलिलं हसियगइपेक्खिदुम्मीयं । धण्णा समुत्तरंति हु महिलामयरेहिं अच्छिक्का ॥१११०॥ 'विसयसमुद्दे' विषयसमुद्रं । 'यौवनसलिलं' हसनगमनप्रेक्षणतरङ्गनिचितं । धन्याः सम्युगुत्तरन्ति युवतिमकरैरस्पृष्टाः ।। चतुर्थ व्रतं व्याख्यातं ।। चदुत्थं ॥१११०।। पञ्चममहाव्रतनिरूपणायोत्तरप्रवन्धः-- - अभंतरबाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि । कदकारिदाणुमोदेहिं कायमणवयणजोगेहिं ॥११११।। 'अन्भंतरबाहिरगे' अभ्यन्तरान्वाह्यांश्च । 'सम्वे गंथे' सर्वान्ग्रन्थान् । 'तुमं विवज्जेहि' वर्जय भवान् । 'कदकारिदाणुमोहि' कृतकारितानुमननैः । 'कायमणवयणजोहि' कायेन मनसा वाचा वा ॥११११॥ तत्राभ्यन्तरपरिग्रहभेदं निरूपयति गाथा मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया चउदस अब्भंतरा गंथा ॥१११२।। 'मिच्छत्तवेदरागा' वस्तुयाथात्म्याश्रद्धानं मिथ्यात्वं, वेदशब्देन स्त्रीपुन्नपुंसकवेदाख्यानां कर्मणां ग्रहणं । तज्जनिताः स्यादीनां अन्योन्यविषयरागाः । स्त्रियः पुंसु रागः, पुंसो युवतिषु, नपुंसकस्योभयत्र । 'हस्सादिगा य छद्दोसा' हास्य, रतिररतिः शोको, भयं जुगुप्सेति । एते पड्दोपाः । 'चत्तारि तह कसाया चोद्दस अभंतरा गंथा' चत्वारस्तथा कषायाश्चतुर्दशैते अभ्यन्तराः परिग्रहाः ॥१११२॥ बाहिरसंगा खेत्तं वत्थु घणघण्णकुप्पभंडाणि । दुपयचउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ॥१११३॥ गा०-इस विषयरूप समुद्र में यौवनरूप जल है, स्त्रीका हँसना चलना देखना उसके लहरें हैं । और स्त्रीरूप मगरमच्छ है जो इन मगरमच्छोंसे अछूते रहकर इस समुद्रको पार करते हैं वे धन्य हैं ॥१११०॥ इस प्रकार चतुर्थ ब्रह्मचर्य व्रतका व्याख्यान हुआ। पंचम महाव्रतका कथन करते हैं गा०-हे क्षपक ? कृत कारित अनुमोदना और मन वचन कायसे तुम सब अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहका त्याग करो ॥११११।। मिथ्यात्व, वेद राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषाय ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं ॥१११२।। टी०-वस्तुके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान न करना मिथ्यात्व है। वेद शब्दसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद नामक कर्मोंका ग्रहण किया है। उनके उदयसे उत्पन्न स्त्री आदिके पारस्परिक रागको यहाँ अन्तरंग परिग्रह कहा है। स्त्रियोंका पुरुषोंमें राग, पुरुषोंका स्त्रियोंमें राग और नपुंसकोंका दोनोंमें राग पारस्परिक राग है ॥१११२।। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५७१ 'बाहिरसंगा' वाह्यपरिग्रहाः । 'खेत्तं' कर्षणाद्यधिकरणं । 'वत्थु" वास्तु गहं । 'धणं' सुवर्णादि । 'धण्ण' धान्यं व्रीह्यादि । 'कुप्प' कुप्यं वस्त्रं । 'भंड' भाण्डशब्देन हिङ्गमरिचादिकमुच्यते । दुपदशब्देन दासदासीभृत्यवर्गादि । 'चउप्पय' गजतुरगादयश्चतुष्पदाः । 'जाणाणि' शिबिकाविमांनादिकं यानं । 'सयणासणे' शयनानि आसनानि च ।।१०१३।। बाह्यमलमनिराकृत्याभ्यन्तरकर्ममलं ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वचारित्रवीर्याव्याबाधत्वानामात्मगुणानां छादने व्यापृतं न निराकर्तुं शक्यते इत्येतद्दृष्टान्तमुखेनाचष्टे जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स ॥१११४॥ 'जह कंडओ ण सक्का' तुषसहितस्य तन्दुलस्यान्तर्मलं बाह्ये तुषऽनपनीते यथा शोधयितुमशक्यं । तथा बाह्यपरिग्रहमलसंसक्तस्याभ्यन्तरकर्ममलं अशक्यं शोधयितुमिति गाथार्थः । सपरिग्रहस्य कस्मान्न कर्मविमोक्षो? जीवाजीवद्रव्ये बाह्यपरिग्रहशब्दनोच्यते । तौ च सर्वदा सर्वत्र सन्निहिताविति बन्धक एवायमात्मा स्यादिति । एवं च मुक्त्यगाव इति चोदिते, न तयोः सम्बन्धहेतुरपि तु लोभादयः परिणामाः । लोभादिपरिणामहेतकं बाह्यद्रव्यग्रहणं ॥१०१४॥ अतो यो वाह्य मुपादत्तेऽभ्यन्तरपरिणाममन्तरेण नंवादत्त इति वदति- . रागो लोभी मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा । तो तइया घेत्तुजे गंथे बुद्धी गरो कुणइ ॥१११५।। गा०-खेती आदिका स्थान क्षेत्र, मकान, सुवर्ण आदि धन, जौ आदि धान्य, कुप्य अर्थात् वस्त्र, भाण्ड शब्दसे हींग मिर्च आदि, दुपद शब्दसे दास दासी सेवक आदि, हाथी घोड़े आदि चौपाये, पालकी विमान आदि यान तथा शयन आसन आदि ये दस बाह्य परिग्रह हैं ॥१११३।। वाह्य परिग्रहके त्याग किये विना ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य और अव्यावाधत्व नामक आत्म गुणोंको ढाँकने वाले अभ्यन्तर कर्ममलको दूर नहीं किया जा सकता, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं गा०-टी०-~-जैसे तुष सहित चावलका तुष दूर किये बिना उसका अन्तर्मलका शोधन करना शक्य नहीं है। वैसे ही जो बाह्य परिग्रहरूपी मलसे सम्बद्ध है उसका अभ्यन्तर कर्ममल शोधन करना शक्य नहीं है। शंका-परिग्रह सहित व्यक्तिका कर्मबन्धनसे छुटकारा क्यों नहीं होता । जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य वाह्य परिग्रह कहे जाते हैं। और वे दोनों सदा सर्वत्र जीवके समीप रहते हैं अतः आत्मा सदा कर्मका बन्धक ही रहेगा । और उसे कभी मुक्ति नहीं होगी। समाधान-ऐसा नहीं है, उन जीव द्रव्य और अजीव द्रव्यके निकट रहते हुए भी लोभादिरूप परिणाम उनसे सम्बन्धमें कारण होते हैं । लोभादिरूप परिणामोंके कारण जीव वाह्य द्रव्यको ग्रहण करता है ।।१११४॥ ___ अतः जो अभ्यन्तर लोभादि परिणामके विना बाह्य द्रव्यको ग्रहण करता है, वह ग्रहण नहीं करता, यह कहते हैं Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ भगवती आराधना रागो लोभोमोहो' ममेदं भावो रागः, द्रव्यगतगुणासक्तिर्लोभः, परिग्रहेच्छा मोहो। ममेदं भावः संज्ञा । किश्चित मम भवति शोभनमिति इच्छानुगतं ज्ञानं । तीवोऽभिलाषो यः परिग्रहगतः स गौरवशब्देनोच्यते । एते यदोदिता परिणामास्तदा ग्रन्थान्बाहान ग्रहीतुं मनः करोति नान्यथा। तस्माद्यो वाह्यं गृह्णाति परिग्रहं स नियोगतो लोभाद्यशुभपरिणामवानेवेति कर्मणां बन्धको भवति । ततस्त्याज्या परिग्रहाःः ॥१११५।। स च परिग्रहत्यागो न स्वमनीषिकाचचितोऽपि तु निश्चयेन कर्तव्य'तयोपदिष्ट इत्याचष्टे चेलादिसव्वसंगच्चाओ पढमो हु होदि ठिदिकप्पो । इहपरलोइयदोसे सव्वे आवहदि संगो हु ।।१११६॥ 'चेलादिसव्वसंगच्चागो इति' दशविधा हि स्थितिकल्पा निरूपिता अचेलतादयः । तत्र आचेलक्यं नाम चेलमात्रत्यागो न भवति । किन्तु चेलादिसर्वसंगत्यागः प्रथमः स्थितिकल्पो दशानामाधः। 'इहपरलोगिगदोसे' ऐहिकामुष्मिकांश्च दोषानावहति परिग्रहो, यस्मात्तस्माज्जन्मद्वयगतदोषपरिहारेणादरवता सकलः परिग्रहस्त्याज्यः । इति भावः ॥१११६॥ श्रुतं चेलपरित्यागमेव सूचयति आचेलक्कमिति न इतरत्यागमित्याशङ्कायामाचष्ट देसामासियसुत्त आचेलक्कंति तं खु ठिदिकप्पे । . लुत्तोत्थ आदिसहो जह तालपलंबसुत्तम्मि ।।१११७।। 'देसामासिगसुत्तं' परिग्रहैकदेशामर्शकारिसूत्रं 'आचेलपर्कति' आचे लक्यमिति । 'तं खु' तत् । 'ठिदि गा०-टी०-'यह मेरा है' ऐसे भावको राग कहते हैं। द्रव्यके गुणोंमें आसक्तिको लोभ कहते हैं। परिग्रहकी इच्छाको मोह कहते हैं। मेरे पास कुछ होता तो अच्छा होता, इस प्रकारके ममत्व भावको संज्ञा कहते हैं। परिग्रहविषयक तीव्र अभिलाषाको गारव याव्दसे कहते हैं। ये परिणाम जव उत्पन्न होते हैं तब बाह्य परिग्रहको ग्रहण करनेका मन होता है, उनके अभावमें नहीं होता । अतः जो बाह्य परिग्रह ग्रहण करता है वह नियमसे लोभ आदि रूप अशुभ परिणाम वाला होनेसे कर्मका बन्ध करता है । अतः परिग्रह त्याज्य है ।।१११५।। ____ आगे कहते हैं कि यह परिग्रह त्याग हमने अपनी बुद्धिसे नहीं कहा, किन्तु निश्चयसे आगममें इसके पालनेका उपदेश है गा०-आगममें दस प्रकारका स्थितिकल्प कहा है। उसमें पहला कल्प आचेलक्य है । आचेलक्यका अर्थ केवल वस्त्र मात्रका त्याग नहीं है किन्तु वस्त्र आदि सर्व परिग्रहका त्याग है। यह दस कल्पोंमेंसे पहला स्थितिकल्प है। यतः परिग्रह इस लोक और परलोक सम्बन्धी दोषोंको लाती है अतः जो दोनों लोक सम्बन्धी दोषोंसे बचना चाहता है उसे सब परिग्रह छोड़ना चाहिए। यह इस गाथाका भाव है ।।१११६।। कोई आशंका करता है कि आगममें वस्त्र मात्रके त्यागकी सूचना है अन्यके त्यागकी नहीं? इसका उत्तर देते हैं गा०-टी०-स्थितिकल्पका कथन करते हुए जो 'आचेलक्य' आदि सूत्र कहा है वह देशा१. व्यः तथोप-अ० आ० । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५७३ कप्पे' स्थितिकल्पे वाच्ये प्रवृत्तं सूत्रं नियोगतो मुमुक्षूणां यत्कर्तव्यतया स्थितं तत्स्थितमुच्यते स्थितकल्पः स्थितप्रकारः । एतदुक्तं भवति चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं तेन सकलग्रन्थत्याग आचेलक्यशब्दस्यार्थ इति । तापलं ण कम्पदिति सूत्रे तालशब्दो न तरुविशेषवचनः किन्तु वनस्पत्येकदेशस्तरुविशेष उपलक्षणाय वनस्पतीनां गृहीतः । तथाचोक्तं कल्पे- हरिततणोसहिगुच्छा गुम्मा वल्लीलदा य रुक्खा य । एवं वदीओ तालोसेण आदिट्ठा ॥ इति ॥ तादि दलेदित्तिव तलेव जादेत्ति उस्सिदो वत्ति । तालादिणो तरुत्तियवणप्फदीणं हवदि णामं ॥ प्रलम्बं द्विविधं मूलप्रलम्वं च, अग्रप्रलम्वं च कन्दमूलफलाख्यं, भूम्यनुप्रवेशितमूलप्रलम्बं, अंकुरप्रवालफलपत्राणि अग्रप्रलम्बानि । तालस्य प्रलम्वं तालप्रलम्बं वनस्पतेरंकुरादिकं च लभ्यते इति यथा सूत्रार्थस्तथेहापीति मन्यते । अथवा 'लुप्तोथ आदिशब्दो' लुप्तोथ सूत्रे आदिशब्दः । अचेलादित्वमिति प्राप्ते । यथा 'तालपलं - सुतfम्म' यथा तालप्रलम्बसूत्रं । तालादीति शब्दप्रयोगमकृत्वा तालपलम्वमित्युक्तं । तथाचोक्तं सिद्धान्तादिति । निश्चयेनैव सूत्रकारेण देशामर्शकसूत्रं ह्येतत्कृतं । आदिशब्दलोपोऽत्र तालप्रलभ्वसूत्रे न तु देशामर्शक भवतीति ॥ १११७॥ मर्शक है । ममुक्षुओं को जो नियमसे करना चाहिए उसे स्थित कहते हैं और उसके भेदोंको स्थितिकल्प कहते हैं । उसमें 'चेल' शब्द परिग्रहका उपलक्षण है । अतः आचेलक्य शब्दका अर्थ सर्व परिग्रहका त्याग है | जैसे 'तालपलंब ण कप्पदि' इस सूत्र में ताल शब्द वृक्ष विशेष ताड़का वाचक नहीं है, किन्तु वनस्पतिका एक देश वृक्ष विशेष सब वनस्पतियोंके उपलक्षणके लिये रखा है । कल्पसूत्रमें कहा है— 'ताल शब्द से हरित तृण, औषधि, गुच्छा, बेल, लता, वृक्ष इत्यादि वनस्पतियोंका कथन किया है ।' 'ताल शब्द तल धातुसे निष्पन्न हुआ है। तल शब्दका अर्थ ऊँचाई भी है । जो स्कन्ध रूपसे ऊँचा वृक्ष विशेष होता हैं वह ताल वृक्ष है । तालादिमें आदि शब्दसे वृक्ष फूल पत्ता आदि वनस्पति लेना चाहिए । प्रलम्बके दो प्रकार हैं— मूल प्रलम्ब और अग्रप्रलम्ब । कन्दमूल फल जो भूमिमें रहते हैं वे मूल प्रलम्ब हैं । और अंकुर, प्रवाल, फल, पत्ते अग्रप्रलम्ब हैं । तालके प्रलम्बको ताल प्रलम्ब कहते हैं। इससे वनस्पतिके अंकुर आदिका ग्रहण होता है । अतः जैसे तालप्रलम्बसूत्रमें ताल प्रलम्बसे अन्य वनस्पतियोंका ग्रहण किया है वैसे ही आचेलक्यसे अन्य परिग्रहका भी ग्रहण किया है । अथवा सूत्रमें अचेलत्वादिका आदि शब्द लुप्त हो गया है। जैसे तालप्रलम्ब सूत्र में 'तालादि' शब्दका प्रयोग न करके 'तालप्रलम्ब' कहा है । आचेलक्य आदि सूत्रको सूत्रकारने देशामर्शक सूत्ररूपसे बनाया है अर्थात् परिग्रहके एक देश वस्त्रका ग्रहण न करनेका निर्देश करके समस्त परिग्रहका त्याग बतलाया है । किन्तु ताल प्रलम्ब सूत्रमें आदि शब्दका लोप है अतः वह सूत्र - देशामर्षक नहीं है ॥ १११७ ॥ विशेषार्थ - दस स्थितकल्पों में पहला स्थितिकल्प आचेलक्य है । चेलका अर्थ वस्त्र है । अतः कोई शंका करता है कि आचेलक्यसे केवल वस्त्रका ही त्याग कहा है । सब परिग्रहका १. ताविति । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ भगवती आराधना ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं । तम्हा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं ॥१११८॥ 'ण य होदि संजदो' नैव संयतो भवति इति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः । वस्त्रादन्यः शेषः इत्युच्यते । आचेलक्कमित्यत्र चेलत्यागमात्रमेव यदि निर्दिष्टं स्याच्चेलादन्यपरिग्रहं गहन संयतः स न भवति यस्मात्तस्मादाचेलक्यं नाम सर्वसंगपरित्यागोऽत्र मन्तव्यः इति यक्तिरुपन्यस्ता चलशब्दस्य परिग्रहोपलक्षणतायां । किं च महाव्रतोपदेशप्रवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि सर्वसंगत्यागः आचेलक्कमित्यत्र निर्दिष्ट इत्यस्य ॥१११८॥ कथं यदि चेलमात्रमेव त्याज्यं स्यान्नेतरं अहिंसा दिव्रतानि न स्युः इत्येतद्वयाचष्टे उत्तरगाथायां संगणिमित्तं मारेइ अलियवयणं च भणइ तेणिक्कं । भजदि अपरिमिदमिच्छं सेवदि मेहुणमवि य जीवो ॥१११९।। 'संगणिमित्तं मारेदि' परिग्रहनिमित्तं प्राणिनो हिनस्ति षटकर्मप्रवृत्तेः । अथ द्रव्यं परकीयं ग्रहीतुकामस्तं हिनस्ति, भणत्यलोकं, करोति स्तन्यं, भजते अपरिमितामिच्छां, मैथुने च प्रवर्तते । सत्येवमहिंसादि त्याग नहीं कहा। इसके समाधानमें दो बातें कहीं हैं। प्रथम यह सूत्र देशामर्षक है-एक देश चेलके द्वारा सब परिग्रहका त्याग कहा है। दूसरे, इसमें आदि शब्दका लोप हो गया है आचेलक्यादिकी जगह आचेलक्य कहा है अतः आदि शब्दसे सब परिग्रहका त्याग बतलाया है। अपने इस कथनको पुष्टि में ग्रन्थकारने ताल प्रलम्ब सूत्रका उदाहरण दिया है। कल्पसूत्रमें पहला सूत्र है'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ।' अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु और साध्वियोंको ताल प्रलम्ब ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसके भाष्यमें कहा है कि तालवृक्षके फलको ताल कहते हैं उसे अग्रप्रलम्ब कहते हैं। और उसके आधारभूत वृक्षको तल कहते हैं। और प्रलम्ब मूलको कहते हैं। यहाँ यद्यपि सूत्रमें तालप्रलम्ब जो कच्चा हो और टूटा न हो उसके ग्रहणका निषेध किया है। तथापि तालफलसे नारियल, लकुच, कैथ, आम्र आदि सभी लिए हैं। इसी तरह आचेलक्यमें भी केवल वस्त्रका ही त्याग नहीं कहा किन्तु सर्वपरिग्रहका त्याग कहा है ।।१११७।। ___गा०-टो०-केवल वस्त्रमात्रका त्याग करनेसे और शेष परिग्रह रखनेसे साधु नहीं होता। यदि 'आचेलक्य' से वस्त्रमात्रका त्याग ही कहा होता तो वस्त्रके सिवाय अन्य परिग्रहको ग्रहण करनेवाला साधु नहीं हो सकता। अतः आचेलक्यका अर्थ सर्वपरिग्रहका त्याग मानना चाहिए। 'चेल शब्द परिग्रहका उपलक्षण है' इसके सम्बन्धमें यह युक्ति दी गई है। तथा महावतका कथ करनेवाले सूत्र इस बातके ज्ञापक हैं कि आचेलक्यमें सर्वपरिग्रहका त्याग कहा है ।।१११८।। आगे कहते हैं कि यदि साधुके लिए केवल वस्त्रमात्र ही त्याज्य है, अन्य परिग्रह त्याज्य नहीं है तो अहिंसादिव्रत नहीं हो सकते गाo-टी०-परिग्रहके लिए असि मसि कृषि आदि षट्कर्म करके मनुष्य प्राणियोंका घात करता है। पराये द्रव्यको ग्रहण करनेकी इच्छासे उसका घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५७५ व्रतानि न स्युः । परिग्रहस्य च त्यागे तिष्ठन्ति निश्चलान्यहिंसादीनि ॥१११९॥ अपि चाशभपरिणामसंवरणमन्तरेण प्रत्यग्रकर्मोपचयः कथं निवार्यते । प्रत्यग्रकर्मोपचयेन कर्मणां सैवानन्तकाला संसृतिरित्येतच्चेतसि कृत्वा परिग्रहग्रहणभाविनोऽशुभान्परिणामानाचष्टे सण्णागारवपेसुण्णकलहफरुसाणि णिट्ठरविवादा । संगणिमित्तं ईसासूयासल्लाणि जायंति ॥११२०।। 'सण्णागारवपेसुण्ण' परिग्रहसंज्ञा 'तत्सन्निधौरवं च जायते सपरिग्रहस्य । पिशुनयति सूचयति परदोषानिति पिशुनस्तस्य कर्म पैशुन्यं । परिग्रहवानात्मनैव स्वधनपरिपालनेच्छुः परस्य दोषान्प्रकाश्य तदीयं धनं हारयति, कलह वा करोति । धनार्थ पुरुषं वचो वदति विवाद वा कुर्यात्, ईष्यासूयाशल्यानि च जायन्ते । अयमेतस्मै प्रयच्छति न मह्यं इति सङ्कल्प ईर्ष्या । परस्य धनवत्तासहनमसूया ॥११२०॥ कोधो माणो माया लोभो हास रइ अरदि भयसोगा । संगणिमित्तं जायइ दुगुच्छ तह रादिभत्तं च ॥११२१।। 'तहा कोधो माणो' क्रोधः परिग्रहतरतस्य परिणामो दाने जायते । धन्योऽहमिति गवितो भवति । परो धनं दृष्ट्वा गलातीति तन्निग्रहनकरणान्माया च भवति । काकणिलाभे कापणं वाञ्छति । तल्लब्ध्या कार्षापणसहस्रादिकमिति लोभस्य हेतुर्द्रव्यलाभः । निर्द्रविणं लोको हसतीति हासस्यापि कारणं । द्रव्यमात्मीयं पश्यतः तत्रानुरागो रतिः । तद्विनाशे अरतिः । तदन्ये हरन्ति इति भयं । शोको वा। जुगुप्सते करता है, अपरिमित तृष्णा रखता है और मैथुन करता है । ऐसा करनेपर अहिंसा आदि व्रत नहीं हो सकते । किन्तु पग्रिहका त्याग करनेपर अहिंसादिव्रत स्थिर रहते हैं ॥१११९।। . ___ तथा अशुभ परिणामोंके संवरके विना नवीन कर्मोंका संचय कैसे रोका जा सकता है ? और नवीन कर्मोंका संचय होनेसे वही अनन्तकालीन संसार है। ऐसा चित्तमें स्थिर करके ग्रन्थकार परिग्रहके ग्रहणसे होनेवाले अशुभ परिणामोंको कहते हैं गा-टो०-परिग्रहीके परिग्रह संज्ञा और परिग्रहमें आसक्ति होती। वह दूसरेके दोषोंको इधर-उधर कहता है। परिग्रही पुरुष दूसरेका धन लेनेके लिए दूसरोंके दोष प्रकट करके उसका धन हरता है। कलह करता है। धनके लिए कठोर वचन बोलता है, झगड़ा करता है। ईर्षा और असूया करता है। यह व्यक्ति अमुकको तो देता है मुझे नहीं देता, इस प्रकारके संकल्पको ईर्षा कहते हैं । दूसरेके धनी होनेको न सहना असूया है ॥११२०॥ गा-टी०-दूसरेके द्वारा अपना धन ग्रहण किये जाने पर क्रोध होता है। मैं धनाढ्य है ऐसा गर्व होता है । दूसरा व्यक्ति मेरा धन देखकर उसे ले लेगा, इस भयसे उसे छिपाता है अतः माया होती है । एक कौड़ीका लाभ होने पर एक रुपया आदिका लाभ चाहता है । या धनका लाभ होनेसे लोभ होता है। धनी निर्धनको देखकर हँसता है अतः परिग्रह हास्यका भी कारण है। अपना द्रव्य देखकर उससे अनुराग होता है। अतः परिग्रह रतिका कारण है। द्रव्य का नाश होने पर अरति होती है। उसे दूसरे हर लेंगे यह भय होता है । धन हर लेने पर शोक होता है। १. संधिगौर-ज०। २. परिणामादाने ज० । परिणामोऽदाने मु० । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ भगवती आराधना वा विरूपं परिग्रहं । परिग्रहपरिपालनार्थं रात्रावपि भुङ्क्ते मदीयं भोजनं परे दृष्ट्वार्थिनो भवन्ति इति मन्यमानः ॥ ११२१ ॥ गंथो भयं नराणं सहोदरा एयरत्थजा जं ते । अण्णोष्णं मारेदु अत्थणिमित्तं मदिमकासी ॥ ११२२॥ 'गंथो भयं नराणां' ग्रन्थो नराणां भयं । ननु भयसंज्ञस्य कर्मणः उदयादुपजातः परिणाम आत्मनो भयं न वास्तुक्षेत्रादिको ग्रन्थः तथाभूतस्ततः किमुच्यते ग्रन्थो भयमिति, भयहेतुत्वाद्भयमिति न दोषः । 'सहोदरा' कोदरं प्रसवा अपि सन्तः 'एयरत्यजा' एकरध्यनगरे जाताः । 'जं' यस्मात् । 'ते अण्णोष्णं मारेदु' अन्योन्यं हन्तुं । 'अत्थणिमित्तं' वसुनिमित्तं 'मदिमकासो' बुद्धि कृतवन्तः ॥ ११२२।। अत्थनिमित्तमदिभयं जादं चोराणमेक्कमे केहि | मज्जे से य विसं संजोइय मारिया जं ते ।। ११२३।। 'अत्यणिमित्तं' धननिमित्तं । 'अदिभयं जादं' अतीव भयं जातं । 'चोराणं एक्कमेवकेहिं चौराणामन्योन्यैः सह । 'मज्जे मंसे य विसं संजोइय' मद्ये मांसे च विषं संयोज्य । 'मारिदा जं ते' यस्मात्तं मारिताः ।। ११२३॥ संगो महाभयं जं विहेडिदो सावगेण संतेण । पुत्रेण चैव अत्थे हिदम्मि णिहिदेल्लए साहुं ।।११२४॥ 'संगो महाभयं परिग्रहो महद्भयं । 'जं' यस्मात् । 'विहेडिदो' बाधितः ! 'सावगेण संतेण श्रावकेण सता । 'पुत्रेण चेव' पुत्रेणैव । 'णिहिदल्लगे अत्थे हिदंहि' निक्षिप्तेऽर्थे ते साधु ॥ ११२४ ।। विरूप परिग्रह होने पर ग्लानि होती है । मेरा भोजन देखकर दूसरे माँगेगे इसलिए रात में भी भोजन करता है । अथवा मालिककी सेवा में रहनेसे रात में भोजन करता है । इस तरह परिग्रहके कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुत्सा और रात्रि भोजन होते हैं ।। ११२१ ॥ गा० - टी० -- परिग्रह मनुष्य में भय उत्पन्न करता है । शङ्का - भय नामक कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ आत्माका परिणाम भय है। घर खेत आदि परिग्रह भय नहीं है तब आप परिग्रहको भय कैसे कहते हैं ? समाधान - परिग्रह भयका कारण होनेसे भय कही जाती हैं। एक ही माताके उदरसे उत्पन्न हुए और एक ही नगर में उत्पन्न हुए भी धनके लिए परस्परमें मारनेका भाव करते हैं ।। ११२२ ॥ गा० - धनके कारण चोरोंको परस्पर में एक दूसरेसे भय उत्पन्न हुआ । और उन्होंने मद्य और मांस में विष मिलाकर एक दूसरेको मार डाला ॥ ११२३॥ गा० - परिग्रह महाभयरूप है क्योंकि जमीन में गाड़े गये धनको अपना पुत्र ही ले गया और सत्पुरुष श्रावकको भी यह सन्देह हुआ कि मेरे इस पृथ्वीमें गड़े धनको साधु जानता था । सो कहीं इसी साधुने मेरा धन हरा हो । ऐसा सन्देह करके उस श्रावकने साधुपर कथाओंके द्वारा अपना सन्देह प्रकट किया ||११२४ ॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७७ विजयोदया टीका दओ बंभणि वग्यो लोओ हत्थी य तह य रीयसुयं । परियणरो वि य राया सुवण्णरयणस्स' अक्खाणं ॥११२६।। वण्णरणउलो विज्जो वसहो तोवस तहेव रचूदवणं ।। रुक्खसिवण्णीडुडुह मेदज्ज मुणिस्स अक्खाणं ।।११२६।। सीदुण्हादववादं वरिसं तहा छुहासमं पंथं । दुस्सेज्जं दुज्झत्त सहइ वहइ भारमवि गुरुयं ।।११२७।। गायदि णच्चइ धावइ कसइ क्वइ लवदि तह मलेइ णरो। तुण्णदि वणइ याचइ कुलम्मि जादो वि गंथत्थी ॥११२८॥ 'गायदि' गायति, नृत्यति, धावति, कृषति, वपति, कणिशच्छेदं करोति, मर्दनं करोति, सीव्यति, वयति, याचते कुले जातोऽपि परिग्रहार्थं ॥११२८॥ सेवइ णियादि रक्खइ गोमहिसिमजावियं हयं हथि । ववहरदि कुणदि सिप्पं अहो य रत्ती य गयणिदो ॥११२९।। गा०-टी०-ये कथाएँ इस प्रकार हैं। पहले श्रावक जिनदत्तने दूत और बन्दरकी कथा कही। फिर साधुने ब्राह्मणी और नेवलेकी कथा कही। फिर श्रावकने व्याघ्र और वैद्यकी कथा कही। तब साधुने बैल और लोगोंकी कही। फिर श्रावकने हाथी और तापसकी कथा कही । तब साधुने राजा और आम्रवनको कथा कही। फिर श्रावकने पार्थक मनुष्य और शिवनिवृक्षकी कथा कही । तव साधुने राजा और सर्पकी कथा कही। तब श्रावकने एक चोर और सेठकी कथा कही । अन्तमें साधुने मणिपालक और मेतार्यमुनिकी कथा कही ।।११२५-११२६।। विशेषार्थ-इन दोनों गाथाओंमें उस श्रावक और साधुके मध्यमें हुई कथाओंके पात्रोंके नाम दिये हैं। ये दस कथाएँ बृहत्कथाकोशमें जिनदत्त कथानक १०२ के अवान्तरमें दी गई हैं। दसवीं कथाके अन्तमें धन चुरानेवाला पुत्र प्रबुद्ध होकर पिताको धन अर्पित करके उन साधुके समीप दीक्षा ग्रहण करता है। इन दोनों गाथाओंपर न तो अपराजित सूरिकी टीका है। न आशाधरको और न अमितगतिके संस्कृत पद्य ही हैं ॥११२५-११२६।।। गा०-परिग्रहका इच्छुक मनुष्य गर्मी, सर्दी, घाम, वायु, वर्षा, प्यास, भूख, श्रम, मार्ग चलना आदिका दुस्सह कष्ट सहन करता है और अपनी शक्तिसे भी अधिक भार ढोता है ॥११२७॥ __ गा०–तथा श्रेष्ठकुलमें जन्म लेकर भी धनके लिए गाता है, नाचता है, दौड़ता है, खेती करता है, बीज बोता है, धान्य काटता है, मालिश करता है, कपड़े सीता है, कपड़े बुनता है, और भीख माँगता है ।।११२८॥ गा०-रात दिन न सोकर सेवा करता है, घर छोड़कर देशान्तर जाता है । गाय, भैंस, १. णरथस्स-अ० । णयारस्स-आ० मु० । २. रूववणं-अ० ज० । ३. एतां टीकाकारो नेच्छति । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना आउधवासस्स उरं देइ रणमुहम्मि गंथलोभादो । मगरादिभीमसावदबहुलं अदिगच्छदि समुद्धं ॥ ११३०॥ 'आउथवासस्स उरं देव' आयुधवर्षस्य उरो ददाति । 'रणमुहे' रणमुखे । 'गंथलोहादो' ग्रन्थलोभात् मकरादिभीमं श्वापदबहुलं प्रविशति समुद्रं ॥ ११३० ॥ ५७८ जदि सो तत्थ मरिज्जो गंथो भोगा य कस्स ते होज्ज । महिला विहिंसणिज्जो लुसिददेहो व सो होज्ज ॥ ११३१॥ 'जदि सो तत्थ मरिज्जो' यद्यसौ रणमुखे मृतिमियात् । ग्रन्था भोगाश्च ते तावत्कस्य भवेयुः । वनिताभिर्निन्द्यः विनष्टकरचरणाद्यवयवो भवेद्यद्यपि न मृतः ।।११३१ ॥ गणिमत्तमदीदिय गुहाओ भीमाओ तह य अडवीओ । गंथणिमित्तं कम्मं कुणइ अकादव्वयंपि णरो ॥ ११३२ ।। 'गंथनिमित्तमदीदिय' ग्रन्थनिमित्तं प्रविशति गुहां तथा भीमाश्चाटवीः । ग्रन्थनिमित्तं कर्म अकर्तव्यमपि करोति नरः ॥ ११३२ ॥ सूरो तिक्खो मुक्खो वि होइ वसिओ जणस्स सघणस्स । arita ass गंथणिमित्तं बहुयं पि अवमाणं ।। ११३३ ॥ 'सूरो तिक्खो मुक्खो वि' शूरस्तीक्ष्णो मूर्खश्च वशवर्ती भवति जनस्य सधनस्य । अभिमानवानपि सहते ग्रन्थनिमित्तं महान्तं अपि परिभवं ॥ ११३३॥ गंथणिमित्तं घोरं परितावं पाविदूण कंपिल्ले । लल्लक्कं संपत्तो णिरयं पिण्णागगंधो खु ।। ११३४|| 'अत्यणिमित्तं' वसुनिमित्तं महत् दुःखं प्राप्य । 'कंपिल्ये' कम्पिल्लनगरे । 'लल्लकं' लल्लकनामधेयं संप्राप्तो नरकं पिण्याकगन्धसंज्ञः ॥ ११३४॥ बकरी, भेड़, हाथी, घोड़े पालता है । लेन-देन करता है । शिल्पकर्म करता है ॥ ११२९ ॥ गा० - परिग्रह के लोभसे युद्धभूमिमें अपनी छातीपर आयुधोंकी वर्षा सहता है । मगरमच्छ आदि भयंकर जन्तुओं से भरे समुद्रमें प्रवेश करता है ||११३०॥ गा० - यदि कदाचित् धनका लोभी रणमें मर जावे तो परिग्रह और भोग कौन करेगा । यदि न भी मरे और हाथ पैर कट जाये तो भी स्त्रियोंके द्वारा तिरस्कृत होगा ॥ ११३१ ॥ गा० - परिग्रहके निमित्त भयानक गुफा में प्रवेश करता है, भयानक जंगलमें जाता है । इस प्रकार मनुष्य परिग्रहके लिए नहीं करने योग्य काम भी करता है ||११३२ || गा० - परिग्रहके निमित्त शूरवीर, असहनशील और मूर्ख पुरुष भी धनी मनुष्यके वश में होता है और अभिमानी भी बहुत अपमान सहता है ।११३३|| गा०- - परिग्रहके निमित्तसे कंपिला नगरीमें पिण्याकगन्ध नामका लोभी पुरुष घोर दुःख सहकर मरकर लल्लक नामक नरक बिलमें उत्पन्न हुआ ||११३४ || Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ विजयोदया टीका ५७९ एवं चेटुंतस्स वि संसइदो चेव गंथलाहो दु । ण य संचीयदि गंथो सुइरेणवि मंदभागस्स ।।११३५।। ‘एवं चेटुंतस्स वि' एवं चेष्टमानस्यापि संशयित एव ग्रन्थलाभः । न च संचयमुपयाति ग्रन्थः । सुचिरेणापि मन्दभाग्यस्य ॥११३५॥ जदि वि कहंचि वि गंथा संचीएजण्ह तह वि से णत्थि । तित्ती गंथेहिं सदा लोभो लामेण वडदि खु ॥११३६।। 'जदि वि' यद्यपि कथंचित्केनचित् प्रकारेण ग्रन्थाः संचयमुपेयुः । तथापि तस्य तृप्तिर्नास्ति ग्रन्थैः । सदा लोभो लाभेन वर्धते ।।११३६॥ जध इंधणेहिं अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं । तह जीवस्स ण तित्ती अत्थि तिलोगे वि लद्धम्मि ॥११३७॥ 'जघ इंधणेहि' इन्धनैर्यथाग्निः, यथा वा समुद्रो नदीसहस्रः । तथा परिग्रहर्न तृप्यति जीवस्त्रलोक्ये लब्धेऽपि ॥११३७।। पडहत्थस्स ण तित्ती आसी य महाधणस्स लुद्धस्स । संगेसु मुच्छिदमदी जादो सो दीहसंसारी ॥११३८॥ 'पडहत्थस्स' पटहस्तनामधेयस्य वणिजः न तृप्तिरासीत्तथा महाधनस्य लुब्धस्य । परिग्रह मूच्छितमतिरसौ जातो दीर्घसंसारः ॥११३८॥ तित्तीए असंतीए हाहाभूदस्स घण्णचित्तस्स । किं तत्थ होज्ज सुक्खं सदा वि पंपाए गहिदस्स ॥११३९।। "तित्तीए असंतोए' तृप्तावसत्यां । 'हाहाभूदस्य' लम्पटचित्तस्य किं तत्र सुखं भवेत् । आशया गृहीतस्य ॥११३९॥ गा०-इस प्रकार नाना चेष्टाएँ करनेपर भी परिग्रहकी प्राप्तिमें सन्देह ही रहता है। क्योंकि अभागे पुरुषको चिरकाल प्रयत्न करनेपर भी धनकी प्राप्ति नहीं होती ।।११३५॥ गा०-यदि किसी प्रकार धन मिल भी जाये तो उससे सन्तोष नहीं होता; क्योंकि धनलाभ होनेसे लोभ बढ़ता है ।।११३६॥ गा०-जैसे ईंधनसे आगकी तृप्ति नहीं होती, और हजारों नदियोंके मिलनेसे लवणसमुद्रकी तृप्ति नहीं होती। वैसे ही तीनों लोक मिल जानेपर भी जीवकी परिग्रहसे तृप्ति नहीं होती ॥११३७॥ गा०—पटहस्त नामक वणिक्के पास बहुत धन था। किन्तु वह बड़ा लोभी था। उसे सन्तोष नहीं था। अतः परिग्रहमें आसक्त रहते हुए उसका मरण हुआ और वह दीर्घसंसारी हुआ ।।११३८॥ ___गा०-परिग्रहसे तृप्ति नहीं होनेपर हाय-हाय करनेवाले परिग्रहके लम्पटीको, जो सदा तृष्णासे व्याकुल रहता है, परिग्रहसे क्या सुख हो सकता है ॥११३९।। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० भगवती आराधना हम्मदि मारिज्जदि वा बज्झदि रंभदि य अणवराधो वि । आमिसहेर्नु घण्णो खज्जदि पक्खीहिं जह पक्खी ॥११४०।। 'हम्मदि' आहन्यते । 'मारिज्जदि' मार्यते, बध्यते रुध्यते चानपराधोऽपि । आमिषनिमित्तं लम्पटः खाद्यते यथा पक्षिभिः पक्षी गृहीताहारः ।।११४०॥ । मादुपिदुपुत्तदारेसु वि पुरिसो ण उवयाइ वीसंभं । गंथणिमित्तं जग्गइ रक्खंतो सव्वरत्तीए ॥११४१।। 'मादुपिदुपुत्तदारेसु वि' विश्वसनोयेष्वपि मात्रादिषु विश्रंभं नोपयाति । जागति सर्वरात्रीः पालयन् ॥११४१॥ सव्वं पि संकमाणो गामे णयरे घरे व रणे वा । आधारमग्गणपरो अणप्पवसिओ सदा होइ ॥११४२।। 'सव्वं पि संकमाणों' सर्वमपि शङ्कमानः ग्रामे, नगरे, गृहे, अरण्ये वा, आधारान्वेषणपरोऽनात्मवशः सदा भवति ॥११४२।। गंथपडियाए लुद्धो धीराचरियं विचित्तमावसधं । णेच्छदि बहुजणमज्झे वसदि य सागारिगावसए ॥११४३।। 'गंथपडिगाए लुद्धो' ग्रन्थनिमित्तं लुब्धो धोरैर्वाचरितं विविक्तमावसथं नेच्छति । बहुजनमध्ये वसति । गृहस्थानां वा वेश्मनि ॥११४३॥ सोदूण किंचि सदं सग्गंथो होइ उढिदो सहसा । सव्वत्तो पिच्छंत्तो परिमस द पलादि मुज्झदि य ।।११४४।। गा०-जैसे मांसके लिए मांसका लोभी पक्षी दूसरे मांस ले जाते पक्षीको मारता काटता है वैसे ही लोभी धनाढ्य मनुष्य विना अपराधके ही दूसरोंके द्वारा धाता जाता है, मारा जाता है और पकड़ा जाता है ॥११४०।। गा०-परिग्रहके कारण मनुष्य माता, पिता, पुत्र और पत्नीका भी विश्वास नहीं करता। और रातभर जागकर परिग्रहकी रखवाली करता है ।।११४१।। गा०-वह सबको शंकाकी दृष्टिसे देखता है कि ये मेरा धन हरनेवाले हैं। और गाँव, नगर, घर अथवा वनमें किसीका आश्रय खोजता फिरता है इस तरह वह सदा पराधीन रहता है ॥११४२।। गा०-वह परिग्रहका लोभी धीर पुरुषोंके रहने योग्य एकान्त स्थानमें रहना पसन्द नहीं करता । वह बहुत जनसमुदायके मध्य गृहस्थोंके घरमें रहना पसन्द करता है ॥११४३।। गा० --किंचित् भी शब्द सुनकर परिग्रही एकदम उठकर सब ओर देखता है, अपने धनको टटोलता है और लेकर भागता है अथवा मूर्छित हो जाता है ॥११४४।। १. कक्खंतो-आ० मु०। २. प्रलयन्-आ० मु० । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५८१ 'सोदूण किंचि सई' श्रुत्वा कञ्चन शब्दं परिग्रहवान्सहसोत्थितः सर्वा दिशः प्रेक्षमाणः परामृशति स्वं द्रव्यं, पलायते, मुह्यति वा ॥११४४।। तेणभएणारोहइ तरुं गिरि उप्पहेण व पलादि । पविसदि य 'दहं दुग्गं जीवाण वहं करेमाणो ॥११४५॥ 'तेणभएण' स्तेनभयेन । 'आरोहदि' आरोहति तरुं गिरि वा । उन्मार्गे वा धावति । प्रविशति वा ह्रदं दुर्ग वा स्थानं जीवानां घातनं कुर्वन् ॥११४५।। तह वि य चोरा चारभडा वा गच्छं हरेज्ज अवसस्स । गेण्हिज्ज 'दाइया वा रायाणो वा विलंपिज्ज ।।११४६॥ तथापि पलायनधावनादिकं कुर्वतो द्रव्यं हरन्ति चोरा वा चारभटा वा । परवशस्य दायादाः वा गृह्णन्ति राजानो वा विलुम्पन्ति ॥११४६।। संगणिमित्तं कुद्धो कलहं रोलं करिज्ज वरं वा । पहणेज्ज व मारेज्ज व मरिजेज्ज व तह य 'हम्मेज्ज ।।११४७।। 'संगणिमित्तं कुद्धो' रुष्टः परिग्रहनिमित्तं कलई वैरं वा करोति हन्ति, ताडयति । परं स्वयं प्राणान्वियोजयति वा परेण वा ताडयते भार्यते वा परैः ॥११४७।। अहवा होइ विणासो गंधस्स जलग्गिमूसयादीहिं । णढे गंथे य पुणो तिव्वं पुरिसो लहदि. दुक्खं ॥११४८।। 'अथवा होज्ज विणासो' अथवा ग्रन्थस्य विनाशो भवेत् अग्निजलमूषकादिभिः । नष्टे पुनर्ग्रन्थे तीव्र दुःखं लभते मनुष्यः ।।११४८।। सोयइ विलवइ कंदइ णटे गंथम्मि होइ विसण्णो। पज्झादि णिवाइज्जइ वेवइ उक्कंठिओ होइ ॥११४९।। गा०-चोरके भयसे वृक्ष अथवा पहाड़पर चढ़ जाता है । अथवा मार्गसे न जाकर कुमार्गसे जाता है और जोवोंका घात करते हुए तालाब या किले में छिप जाता है ।।११४५।। गा०-इस प्रकार दौड़-धूप करनेपर भी चोर अथवा बलवान् मनुष्य उसे परवश करके उसके द्रव्यको हर लेते हैं । अथवा भाई वगैरह ले लेते हैं या राजा लूट लेता है ।।११४६।। गा०-परिग्रहके कारण मनुष्य क्रोध करता है, कलह करता है, विवाद करता है; वैर करता है, मारपीट करता है, दूसरोंके द्वारा मारा जाता है, पीटा जाता है, या स्वयं मर जाता है ।।११४७।। गा०-अथवा आगसे, जलसे और मूषकों आदिसे परिग्रहका विनाश हो जाता है तब विनाश होनेपर मनुष्यको तीव्र दुःख होता है ।।११४८।। १. हदं-मु०। २. यासिया वा-अ० । वासिया-वा० आ० । कामेज्जा-अ० आ० । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ भगवती आराधना 'सोयदि विलवदि' शोचति, विलपति, क्रन्दति नष्टे परिग्रहे विषण्णश्च भवति । चिन्तां करोति । पिबत्यन्तस्सन्तापाज्जलादिकं, वेपते उत्कण्ठितो भवति ॥११४९॥ डज्झदि अंतो पुरिसो अप्पिये गढे सगम्मि गंथम्मि । वायावि य अक्खिप्पड बुद्धी विय होइ से मूढा ॥११५०॥ 'डज्झवि' दह्यते अन्तः पुरुष आत्मीये नष्टे परिग्रहे । वागपि नश्यति बुद्धिरपि मन्दा भवति ।।११५०।। उम्मत्तो होइ णरो पडे गथे गहोवसिट्ठो वा । घट्टदि मरुप्पवादादिएहिं बहुधा गरो मरिदुं ॥११५१।। 'उम्मत्तो होइ णरो' उन्मत्तो भवति नरः। नष्टे परिग्रहे ग्रहगृहीत इव चेष्टते मरुत्प्रतापादिभिर्मतुं ॥११५१॥ चेलादीया संगा संसज्जंति विविहेहिं जंतूहिं । आगंतुगा वि जंतू हवंति गंथेसु सण्णिहिदा ।।११५२।। 'चेलादिगा' संगाश्चेलप्रावरणादयः परिग्रहाः । 'संसज्जति' सन्मूर्च्छनामुपयान्ति । 'विविहेहि जंतूहि' नानाप्रकारैर्जन्तुभिः । 'आगंतुगा वि जंतू' आगन्तुकाश्च जन्तवः । 'गंथेसु सणिहिदा भवंति' ग्रन्थेषु सन्निहिता भवन्ति यूकापिपीलिकामत्कुणादयः । धान्येषु कोटादयः गुडपूपादिषु रसजाः तेषामादाने ॥११५२॥ आदाणे णिक्खेवे 'सरेमणे चावि तेसि गंथाणं । उकस्सणे वेकसणे फालणपप्फोडणे चेव ।।११५३।। आदाने, निक्षेपे, संस्करणे, बहिर्नयने, बन्धने, मोचने, तेषां ग्रन्थानां पाटने विधूनने च ॥११५३॥ छेदणबंधणवेढणआदावणधोव्वणादिकिरियासु । संघट्टणपरिदावणहणणादी होदि जीवाणं ॥११५४।। गा०-वह शोक करता है, विलाप करता है, चिल्लाता है, खेद-खिन्न होता है । चिन्ता करता है । अन्तरंगमें सन्ताप होनेसे जलादि पीता है, काँपता है, उत्कंठित होता है ।।११४९।। गा० .. अपने परिग्रहके नष्ट होनेपर पुरुष अन्दर ही अन्दर जला करता है। उसकी वाणी नष्ट हो जाती है तथा बुद्धि भी मूढ़ हो जाती है ।।११५०।। गा-परिग्रहके नष्ट होनेपर मनुष्य पिशाचसे पकड़े हुए मनुष्यकी तरह उन्मत्त हो जाता है । और प्रायः पर्वत आदिसे गिरकर मरनेकी चेष्टा करता है ॥११५१।। गा०-वस्त्रादि परिग्रहमें नाना प्रकार सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। बाहरसे आकर भी जूं, चींटी, खटमल वगैरह बस जाते हैं। धान्यमें कीड़े लग जाते हैं। गुड़ आदि संचय करनेपर उसमें भी जीव पैदा हो जाते हैं ॥११५२।। गा०-परिग्रहके ग्रहण करने, रखने, संस्कार करने, बाहर ले जाने, बन्धन खोलने, १. पसारणे-अ० आ० । २. फंसण-अ० आ० । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५८३ छेदण छेदने, बन्धने, वेष्टने, शोषणे प्रक्षालने च। सम्मर्दने परितापनहननादिकं भवति जीवानां ॥११५४॥ जदि वि विकिंचदि जंतू दोसा ते चेव हुंति से लग्गा । होदि य विकिंचणे वि हु तज्जोणिविओजणा णिययं ॥११५५।। 'जवि वि विविचदि' यद्यपि निराक्रियन्ते जीवास्त एव संघट्टादयो दोषा भवन्ति । भवति च पृथक्करणे तेषां तद्योनिवियोजना निश्चयेन ॥११५५।। एवमचित्तपरिग्रहगतदोषमभिधाय सचित्तपरिग्रहदोषमाचष्टे सच्चित्ता पुण गंथा वघंति जीवे सयं च दुक्खंति । पावं च तण्णिमित्तं परिगिण्हंतस्स से होई ॥११५६॥ 'सच्चित्ता पुण गंथा बधंति जीवे' परिग्रहाः दासीदासगोमहिष्यादयो म्नन्ति जीवान्स्वयं च दुःखिता भवन्ति । कर्मणि नियुज्यमानाः कृष्यादिके पापं च स्वपरिगृहीतजीवकृतासंयमनिमित्तं तस्य भवति ।।११५६॥ इंदियमयं सरीरं गंथं गेण्हदि य देहसुक्खत्थं । इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणेण तो सिद्धो ॥११५७।। 'इंदियमयं सरीरं' इन्द्रियमयं शरीरं। स्पर्शनादिपञ्चेन्द्रियाधारत्वात् । परिग्रहं च चेलप्रावरणादिकं इन्द्रियसुखार्थमेव गृह्णाति वातातपाद्यनभिमतस्पर्शनिषेधाय । आत्मशरीरे वस्त्रालङ्कारादिभिरलंकृते पराभिलाषमुत्पाद्य तदङ्गासंगजनितप्रीत्यथितया अभिमत मापादयति । सेवनाद्यथं च तत् इन्द्रियसुखाभिलाषो ग्रन्थं गृह्णतः सिध्यति ॥११५७॥ फाड़ने, झाड़ने, छेदने, बाँधने, ढाँकने, सुखाने, धोने, मलने आदिमें जीवोंका घात आदि होता है ॥११५३-५४॥ ___ गा०-यदि वस्त्रादि परिग्रहसे जन्तुओंको अलग किया जाये तब भी वे ही दोष लगते हैं। क्योंकि उन जन्तुओंको दूर करनेपर उनका योनिस्थान छूट जाता है और इससे उनका मरण हो जाता है ॥११५५॥ इस प्रकार अचित्त परिग्रहके दोष कहकर सचित्त परिग्रहके दोष कहते हैं गा०-दासी-दास, गाय-भैंस आदि सचित्त परिग्रह जीवोंका घात करते हैं और स्वयं दुखी होते हैं। तथा उन्हें खेती आदि कामोंमें लगानेपर वे जो पापाचरण करते हैं उसका भागी उनका स्वामी भी होता है ॥११५६।।। ___ इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा कर्मबन्धमें निमित्त होती है अतः मुमुक्षुको उसे छोड़ना चाहिए। परिग्रह स्वीकार करनेपर इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा अवश्य होती है, यह कहते हैं गा०-टी-शरीर इन्द्रियमय है क्योंकि स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियोंका आधार है। वस्त्र ओढ़ना आदि परिग्रह मनुष्य इन्द्रियजन्य सुखके लिए ही ग्रहण करता है। ऐसा वह हवा धूप आदिके अनिष्ट स्पर्शसे बचनेके लिए करता है। तथा वस्त्र अलंकार आदिसे अपने शरीरको १. विविचदि-अ० आ० मु० । २, मतं व्याघातारः सेवना-अ० ज० । Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना स्वाध्यायध्यानाख्ययोस्तपसो विघ्नकारी परिग्रहस्तदुभयं चान्तरेण न संवरनिर्जरे । तयोरभावे कुतो निरवशेषकर्मापायो भवतीति कथयति - ५८४ गंथस्स गहणरक्खणसारवणाणि णियदं करेमाणो । विक्खित्तमणो ज्झाणं उवेदि कह मुक्कसज्झाओ ।। ११५८ ।। 'गंथस्स गणरक्खण' परिग्रहादानं, तद्रक्षणं, तत्संस्कारं च नित्यं कुर्वन् व्याक्षिप्तचित्तः कथं शुभध्यानं कुर्यात् विमुक्तस्वाध्यायः । एतदुक्तं भवति व्याक्षिप्तचित्तस्य न स्वाध्यायः असति तस्मिन्वस्तुयाथात्म्याविदुषः ध्येयैकनिष्ठं ध्यानं कथमिव वर्तते ॥ ११५८ ।। परभवव्याप्यं दोषं परिग्रहमुखायातमुपदर्शयति- थे घडिददिओ होइ दरिदो भवेसु बहुगे । होदि कुणतो णिच्चं कम्मं आहारहेदुम्मि ।। ११५९ ।। 'गंथेसु घडिदहिदओ' ग्रन्थासक्तचित्तः बहुषु भवेषु दरिद्रो भवति । आहारमात्रमुद्दिश्य नीचकर्मकारी भविष्यति । शिविकोद्वहनं, उपानद्वेचनं, पुरीषमूत्राद्यपनयनं इत्यादिकं नीचं कर्म ॥११५९।। विविहाओ जायणाओ पावदि परभवगदो वि धणहेदुं । लुद्धो पंपागहिदो हाहाभूदो किलिस्सदि य ।। ११६०॥ 'विविहाओ जायणाओ पावदि' विविधा यातनाः प्राप्स्यति । परभवगतोऽपि धननिमित्तं लुब्धः आशया भूषित करके मनुष्य दूसरेमें अभिलाषा उत्पन्न करता है और इस तरह उसके शरीरके संसर्गसे उत्पन्न अनुरागका इच्छुक होकर उसका सेवन करता है अतः परिग्रहको स्वीकार करनेवालेके इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा सिद्ध होती है ।। ११५७।। परिग्रह स्वाध्याय और ध्यान नामक तपमें विघ्न पैदा करता है तथा स्वाध्याय और ध्यानके विना संवर और निर्जरा नहीं होती । और संवर निर्जराके अभाव में समस्त कर्मो का विनाश कैसे हो सकता है ? यह कहते हैं गा० - टी० - परिग्रहको ग्रहण, रक्षण और उसके सार सम्हालमें सदा लगा रहनेवाले पुरुषका मन उसो में व्याकुल रहता है । तब वह स्वाध्याय छूट जानेसे शुभध्यान कैसे कर सकता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि जिसका चित व्याकुल रहता है वह स्वाध्याय नहीं कर सकता। और स्वाध्यायके अभाव में वस्तुके यथार्थस्वरूपको न जानते हुए ध्येयमें एकनिष्ठ ध्यान कैसे हो सकता है ।। ११५८॥ परिग्रहसे उत्पन्न हुआ दोष भव भव में दुःख देता है यह कहते हैं. गा०-जिसका चित्त परिग्रह में आसक्त होता है वह भव भव में दरिद्र होता है । केवल पेट भरने के लिए उसे पालकी उठाना, जूते बेचना, टट्टी पेशाब साफ करने आदिका नीच काम करना पड़ता है | ११५९|| गा० - परिग्रह में आसक्त पुरुष पर भव में भी धनके लिए अनेक कष्ट उठाता है । लोभके Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५८५ प्रकृष्टया गृहीतो हा मम क्लेशशतं कुर्वतोऽपि मम धनं न भवति, जातं वा नष्टमिति कृतहाहाकारः क्लिश्यति ।।११६०॥ एदेसिं दोसाणं मुचइ गंथजहणेण सव्वेसिं । तविवरीया य गुणा लभदि य गंथस्स जहणेण ।।११६१॥ 'एदेसि दोसाणं मुंचई' पूर्वोक्तान्परिग्रहग्रहणगतान्दोषानशेषांस्त्यजेदिति दोषप्रतिपक्षभूतान्गुणानपि लभते ।।११६१।। गंथच्चाओ इंदियणिवारणे अंकुसो व हथिस्स । णयरस्स खाइया वि य इंदियगुत्ती असंगत्तं ।।११६२।। 'गंथच्चाओ' ग्रन्थत्यागः। 'इंदियनिवारणे' इत्ययमिन्द्रियशब्द उपयोगेन्द्रियविषयः सप्तमी च निमित्तलक्षणा। तेनायमर्थः-इन्द्रि यज्ञानस्य रागद्वेषमूलस्य निवारणे निमित्तभूतोंऽकुश इव हस्तिनो निवारणे उत्पथयानात् । 'नगरस्स खादिगा वि य' नगरस्य खातिका इव । 'असंगत्तं' निष्परिग्रहता। 'इंदियगुत्तो' इन्द्रियगुप्तिरिन्द्रियरक्षा रागोत्पत्तिनिमित्तेन्द्रियज्ञानरक्षा ॥११६२॥ सप्पबहुलम्मि रणे अमंतविज्जोसहो जहा पुरिसो । होइ दढमप्पमत्तो तह णिग्गंथो वि विसएसु ॥११६३।। 'सप्पबहुलम्मि' सर्पबहले । 'रणे' अरण्ये । 'अमंतविज्जोसहो' मन्त्रेण, विद्यया औषधेन च रहितः पुमान् । 'दढमप्पमत्तो होदि' नितरां अप्रमत्तो भवति । तथा निर्ग्रन्थोऽपि क्षायिकश्रद्धानकेवलज्ञानयथाख्यात वशीभूत हो तृष्णामें पड़कर हाहाकार करता है कि इतना कष्ट उठानेपर भी मुझे धनकी प्राप्ति नहीं होती या प्राप्त हुआ धन भी नष्ट हो गया । और इस प्रकार दुःखी होता है ॥११६०।। __गा०-परिग्रहका त्याग करनेसे ये सब दोष नहीं होते। तथा इनके विपरीत गुणोंकी प्राप्ति होती है ।।११६१॥ गा०-टी०- 'इंदियणिवारणे' में आये इन्द्रिय शब्दका अर्थ उपयोगरूप इन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियजन्यज्ञान है । तथा सप्तमी विभक्तिका अर्थ निमित्त है । अतः उसका अर्थ होता है परिग्रहका त्याग इन्द्रियज्ञानको रोकने में निमित्त है जैसे अंकुश हाथीको रोकने में निमित्त है। अर्थात् जैसे अंकुश हाथीको उन्मार्गपर जानेसे रोकता है वैसे ही परिग्रहका त्याग इन्द्रियोंको विषयों में जानेसे रोकता है। इन्द्रियाँ ही रागद्वेषकी मूल हैं। अथवा जैसे खाई नगरको रक्षा करती है वैसे ही परिग्रहका त्याग रागकी उत्पत्तिमें निमित्त इन्द्रियोंसे रक्षा करता है ॥११६२॥ गा०-टो०-जैसे मंत्र, विद्या और औषधीसे रहित पुरुष साँसे भरे जंगल में अत्यन्त सावधान रहता है। वैसे ही निर्ग्रन्थ साधु भी जो क्षायिक सम्यग्दर्शन केवलज्ञान और यथाख्यात १. तथा निर्ग्रन्थोऽपि विषयेष्वप्रमत्तो भवति इन्द्रियजयो अप्रमत्तताया उपायः अपरिग्रहतापीत्यनेन गाथाद्वयेनाख्यातं -ज० । ७४ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना चारित्रमन्त्रविद्यषधिरहितो विषयारण्ये रागादिस बहुले सावधानोऽपि भवेत् ॥ ११६३।। रागो हवे मणुणे गंथे दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चारण पुणो रागद्दोसा हवे चत्ता ॥। ११६४ ॥ ५८६ रागद्वेषयोः कर्मणां मूलयोर्निमित्तं परिग्रहः, परिग्रहत्यागे रागद्वेषौ एव त्यक्तौ भवतः । बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यनन्त कारणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते ॥। ११६४ ॥ कर्मणां निर्जरणे उपायः परीषहसहनं । तथा चोक्तं 'पूर्वोपात्तकर्मनिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहा ः ' [त०सू० ९८] ते च परीषहाः षोढा भवन्ति ग्रन्थचेलप्रावरणादिकं त्यजतेति व्याचष्टेसी हदसमसयादियाण दिण्णो परीसहाण उरो । सीदादिनिवारणए गंथे निययं जहंतेण ॥। ११६५ ।। "सीदुण्हदं समसयादियाण' । ननु च दुःखोपनिपाते संक्लेशरहितता परीषहजयः, न तु शीतोष्णादयो । ते आत्मपरिणामाः । अनात्मपरिणामाश्च बन्धसंवर निर्जरादीनामुपायो न भवन्ति । योऽनात्मपरिणामो चारित्ररूप मंत्र विद्या और औषधिसे रहित है अर्थात् जिसे इन सबकी प्राप्ति अभी नहीं हुई है वह रागद्व ेषरूप सर्पों से भरे विषयरूप वनमें सावधान रहता है ||११६३॥ विशेषार्थ - इसका भाव यह है कि मनमें बाह्य द्रव्यके प्रति अनुराग रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाले मोहनीयकर्मका सहकारी कारण है त्याग करनेपर रागद्वेषरूप प्रवृत्ति नहीं होती । उसके अभाव में नवीन कर्मबन्ध अतः परिग्रहका त्याग ही मोक्षका उपाय है ||११६३॥ अतः उसका नहीं होता । गा० - मनोज्ञ विषय में राग होता है और अमनोज्ञ विषयमें द्व ेष होता है । अतः परिग्रहका त्याग करनेसे राग-द्वेषका त्याग हो जाता है | ११६४ || टी० - कर्मबन्धके मूल रागद्व ेष हैं और रागद्वेषका निमित्त परिग्रह है । परिग्रहको त्यागने पर रागद्वेषका त्याग हो जाता है । बाह्य द्रव्यको मनसे स्वीकार करना ही रागद्व ेषका बीज है । उस सहकारी कारणके अभाव में केवल कर्ममात्रसे रागद्व ेष नहीं होते । जैसे मिट्टी के होने पर भी दण्ड आदि सहायक कारणोंके अभाव में घटकी उत्पत्ति नहीं होती ॥। ११६४|| परीषोंका सहना कर्मोंकी निर्जराका उपाय है। कहा भी है- पूर्व में बाँधे गये कर्मोंकी निर्जराके लिए परीषह सहना चाहिए। वस्त्रादि परिग्रहका त्याग करनेसे उन परीषहोंका सहना होता है, यह कहते हैं गा० - टी० - शीत आदिका निवारण करने वाले वस्त्र आदि परिग्रहों को जो नियमसे त्याग देता है वह शीत, उष्ण, डांस मच्छर आदि परीषहोंको सहनेके लिए अपनी छाती आगे कर देता है । शंका - दुःख आने पर संक्लेश न करना परीषह जय है । शीत उष्ण आदि परीषह जय नहीं हैं, क्योंकि वे आत्माके परिणाम नहीं हैं । और जो आत्माके परिणाम नहीं हैं वे बन्ध, संवर, १. विसए आ० मु० । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ farrier tri ५८७ नासौ निर्जराहेतुः यथा पुद् गलद्रव्यगतरूपादयः । अनात्मपरिणामाश्च शीतादयः क्षुत्पिपासादयो दुःखहेतवः, न तु दुःखं, तत् किमुच्यते क्षुत्पिपासादयः परीपहा इति । नैव दोषः । क्षुदादिजन्यदुःखविषयत्वात् क्षुदादिशब्दानां । तेन क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दशमशकनाग्न्यादीनां परीषहवाचोयुक्ति नं विरुध्यते । 'सीदुण्हदं समसयादियाण' शीतोष्णदंसमशकादीनां । 'परिस्सहाणं उरो दिष्णो' परीषहाणां उरो दत्तं । केन ? 'सोदादिनिवारणगे' शीतादीनां निषेधकान् । 'गंथे नियदं जहंतेण' ग्रन्थान्नियतं त्यजता ॥। ११६५।। देह आदरः सर्वस्य हिंसादेरसंयमस्य मूलं परित्यक्तो भवति परिग्रहं त्यजते त्याचष्टे - जम्हा णिग्गंथो सो वादादवसीददंसमसयाणं । सहदि य विविधा बाघा तेण सदेहे अणादरदा ॥। ११६६ || 'जम्हा' यस्मात् । 'णिग्गंथो सो' निष्परिग्रहांऽसौ 'वादादव सोददंसमसयाणं' विविधां बाधां वातातपशीतदंशमशकानां विविधं दुःखं 'सहदि' सहते । 'तेण' सहनेन । 'सदेहे' स्वदेहे 'अणादरदा' आदराभावः । शरीरे अकृतादरश्च जहात्यशेषं हिसादिकं तपसि च स्वशक्त्यनिगूहनंन प्रयतते ॥११५६ ।। संगपरिमग्गणादी णिस्संगे णत्थि सव्वविक्खेवा | झणझणाणि तओ तस्स अविग्घेण वच्च॑ति ।। ११६७।। 'संगपरिमग्गणादी' परिग्रहान्वेपणादि परिग्रहस्य स्वाभिलषितस्य अस्तित्वगवेषणे क्लेशमस्तीति । तथा तत्स्वामिनां कोsस्य 'स्वामित्वं वा स्वासी अवतिष्ठते इति पुनर्याञ्चा ? लाभे सन्तोषां, अलाभे दीनमनस्कता, निर्जरा आदिके उपाय नहीं होते । जो आत्माका परिणाम नहीं है वह निर्जराका कारण नहीं है । जैसे पुद्गल द्रव्यके रूपादि । शीत आदि आत्माके परिणाम नहीं हैं । तथा भूख प्यास आदि दुःखके कारण हैं किन्तु स्वयं दुःखरूप नहीं हैं । तब आप कैसे कहते हैं कि भूख प्यास आदि परीषह हैं ? समाधान - उक्त दोष ठीक नहीं है क्योंकि भूख आदि शब्दोंका अर्थं भूख आदिसे होने वाला दुःख है । अत: भूख, प्यास, शीत, उष्ण, डांस-मच्छर, नाग्न्य आदिको परीषह कहने में कोई विरोध नहीं है । अतः जो इन परीषहों को दूर करनेके उपायोंको त्याग देता है वह शीत आदिका कष्ट होने पर भी अपने मनमें कोई संक्लेश नहीं करता ||१९६५ | समस्त हिंसा आदि असंयमका मूल शरीरमें आदरभाव है । परिग्रहको त्यागने पर वह भी त्याग दिया जाता है, यह कहते हैं गा०—यतः परिग्रहका त्यागी निर्ग्रन्थ वायु, धूप, शीत, डांसमच्छर आदिके अनेक कष्टोंको सहता है । उस सहनसे उसका शरीरमें अनादरभाव प्रकट होता है । और शरीरका आदर न करने वाला समस्त हिंसा आदिको छोड़ देता है और अपनी शक्तिको न छिपाकर तपका प्रयत्न करता है | ११६६ ॥ गा० - टी० -- अपनेको इष्ट परिग्रहको खोजने में उसके स्वामीको खोजनमें कष्ट होता है कि वह कहाँ १. स्वामित्व च न क्वा-अ० । कष्ट होता है । तथा वह मिल भी जाये तो रहता है । स्वामी मिल जाये तो उससे Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ भगवती आराधना तदानयनं तत्संस्करणं, तद्रक्षणं इत्यादिकं आदिशब्देन गृहीतं । 'निःसंगे' सङ्गरहिते 'णस्थि सम्वविक्खेवा' न सन्ति सर्वे व्याक्षेपाः । 'ज्झाणज्झणाणि' ध्यानं अध्ययनं च । 'तदो' व्यापाभावात चेतसि । 'तस्स' अपरिग्रहस्य । 'अविग्घेण बच्चंति' विघ्नमन्तरेण वर्तते । सर्वेषु तपस्सु प्रधानयोनिस्वाध्याययोरुपायो अपरिग्रहता इत्याख्यातमनया गाथया ॥११६७।। गंथच्चाएण पुणो भावसिसुद्धी वि दाविदा होइ । ण हु संगघडिदबुद्धी संगे जहिदुं कुणदि बुद्धी ॥११६८॥ 'संगच्चाएण पुणो' सङ्गत्यागेन पुनः । 'भावविसुद्धी वि दाविदा होदि' परिणामस्य विशुद्धिर्दाशिता भवति । 'ण है संगघडिदबुद्धी' नव परिग्रहघटितबुद्धिः । 'संगे जहिदु कुणदि बुद्धी' परिग्रहांस्त्यक्तुं करोति बुद्धि ।।११६८॥ या च प्रक्रान्ता सल्लेखना कषायविषया सा च परिग्रहत्यागमूलेति कथयति णिस्मंगो चेव सदा कसायसल्लेहणं कुणदि भिक्खू । संगा हु उदीरति कसाय अग्गीव कहाणि ।।११६९।। णिस्संगो चेव' निष्परिग्रहश्चैव सदा कषायपरिणामांस्तनन करोति न सपरिग्रहः । कथं इति तदाचष्टे-'संगा खु उदोरेंति' परिग्रहा उदीरयन्ति । 'कसाए' कषायान् । 'अग्गीव' अग्निरिव 'कट्ठाणि' काष्ठानि ॥११६९॥ सव्वत्थ होइ लहुगो रूवं विस्सासियं हवदि तस्स । गुरुगो हि संगसत्तो संकिज्जइ चावि सव्वत्थ ।।११७०।। याचना करनी होती है। याचना करने पर मिल जाये तो सन्तोष होता है, न मिले तो मनमें दीनताका भाव रहता है। मिलने पर उसको लाना, उसका संस्कार करना, उसकी रक्षा करना 'आदि' शब्दसे लिया है। इस तरह परिग्रहके निमित्त ये सब करना पड़ता है। किन्तु परिग्रहका त्याग करके निर्ग्रन्थ बन जाने पर ये सब परेशानियां नहीं होती। तब चित्त में किसी प्रकारकी आकुलता न होनेसे उस निर्ग्रन्थ साधुका ध्यान और स्वाध्याय बिना विघ्नके चलते हैं। अतः इस गाथाके द्वारा कहा है कि सब तपोंमें ध्यान और स्वाध्याय प्रधान हैं और परिग्रहका त्याग उनका उपाय है ।।११६७।। गा०-परिग्रहके त्यागसे परिणामोंकी निर्मलता भी प्रकट होती है; क्योंकि जिसकी मति परिग्रहमें आसक्त होती है वह परिग्रहको छोड़नेका विचार नहीं रखता ॥११६८।। . आगे कहते हैं कि यहाँ जिस कषाय विषयक सल्लेखनाका प्रकरण चला है उसका मूल परिग्रहत्याग ही है गा०-जो परिग्रहसे रहित है वही सदा कषाय रूप परिणामोंको कृश करता है परिग्रही नहीं । क्योंकि जैसे लकड़ी डालनेसे आग भड़कती है वैसे ही परिग्रहसे कषाय भड़कती है ॥११६९।। १. दीविदा-मु०। २. द्धिर्दीपिना दर्शिता-मु०। ३. तनूकरोति-आ० मु० । Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ विजयोदया टीका 'सव्वस्थ होइ' सर्वत्र भवति गमने आगमने च 'लघुगो' लघः । 'रूवं वेसासिगं रूपं विश्वासकारि च भवति । 'तस्स' निर्ग्रन्थस्य । वस्त्रप्रावरणादिकप्रच्छादितशस्त्रोऽस्माकमुपद्रवं करोति धनं वा स्वेन चीवरादिना प्रच्छाद्य नयतीति शङ्कां कुर्वन्ति परिग्रहं दृष्ट्वा ॥११७०॥ सव्वत्थ अप्पवसिओ णिस्संगो णिब्भओ य सव्वत्थ । होदि य णिप्परियम्मो णिप्पडिकम्मो य सव्वत्थ ॥११७१।। 'सत्वत्थ अप्पवसिगो' सर्वत्र ग्राम, नगरे, अरण्ये च आत्मवशकः । 'णिस्संगो' निष्परिग्रहः । 'सव्वत्य यणिन्भओ' सर्वत्र निर्भयश्च । 'होदि य णिप्परिकम्मो' भवति च निर्व्यापारः कृष्यादिक्रियाप्रारम्भरहितः । 'णिप्पडिकम्मा य' इदं पूर्वकृतं इदं परत्रावशिष्ट कार्यमित्येतच्चास्य न विद्यते ॥११७१॥ सुखाथिनो महत्सुखं भवति संगपरित्यागेनेति वदति भारक्कंतो पुरिसो भारं ऊरुहिय णिव्वुदो होइ ।। जह तह पयहिय गंथे णिस्संगो णिव्वुदो होइ ।।११७२।। 'भारक्कंतो पुरिसो' भाराक्रान्तः पुरुषः । 'भारं ऊरुहिय' भारमवतार्य । ‘णिव्वुदो होदि' सुखी भवति । यथा तथा 'णिस्संगो णिव्वुदो होदि' निष्परिग्रहः सुखी भवति । 'गंथे पयहिय' ग्रन्थान्परित्यज्य । बाधाभावलक्षणं हि सुखं सर्वमेव । तथाहि-अशनादिना क्षुधादावपगते जातं स्वास्थ्यमेव सुखमिति 'लोके मन्यते ॥११७२॥ यस्मादेवं परिग्रहणेऽतिबहवो जन्मद्वयभाविनो दोषाश्च तम्हा सव्वे संगे अणागए वढमाणए तीदे । तं सव्वत्थ णिवारहि करण कारावणाणुमोदेहिं ॥११७३।। गा०--अपरिग्रही सर्वत्र जाने आनेमें हल्का रहता है । उसका रूप नग्न दिगम्बर विश्वासकारी होता है । और परिग्रही परिग्रहके भारसे भारी होता है। और उसके परिग्रहको देखकर लोग शङ्का करते हैं कि यह अपने वस्त्रोंमें शस्त्र छिपाये हुए है कोई उपद्रव न करे । अथवा यह अपने चीवर आदिमें छिपाकर धन तो नहीं ले जाता ? ॥११७०।। गा०-जो अपरिग्रही होता है वह सर्वत्र गाँव, नगर और वनमें स्वाधीन रहता है । उसे किसीका आश्रय लेना नहीं होता। और वह सर्वत्र निर्भय रहता है । उसे कृषि आदि काम करना नहीं होता। तथा इतना काम पहले कर लिया, इतना करना शेष है, इत्यादि चिन्ता उसे नहीं रहती ॥११७१॥ आगे कहते हैं कि सुखके अभिलाषीको परिग्रहके त्यागसे महान् सुख होता है गा०-जैसे भारसे लदा हुआ मनुष्य भारको उतारकर सुखी होता है वैसे ही परिग्रहको त्यागकर परिग्रहरहित साधु सुखी होता है। सर्वत्र सुखका लक्षण बाधाका अभाव है। लोकमें भी भोजनके द्वारा भूख प्यास चले जाने पर उत्पन्न हुई स्वस्थताको ही सुख माना जाता है ॥११७२।। १. लोको-आ० मु० । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० भगवती आराधना __ 'तम्हा' तस्मात् । 'सन्वे संगे' सर्वान्परिग्रहान् । 'अणागदे' अनागतान् । 'वट्टमाणगे तोदे' वर्तमानानतीतांश्च 'तं' भवान् । 'सव्वत्थ णिवारेहि' सर्वथा निवारय । करणकारावणाणुष्णाहिं' कृतकारिताभ्यामनुमोदनेन । कथं अतीतो भावी वा परिग्रहो बन्धकारणं येन निवार्यते? अयमभिप्रायः अतीतस्वस्वामिसम्बंधेऽपि वस्तूनि ममेदं वस्त्वासीदिति तदनुस्मरणानुरागादिना अशुभपरिणामेन बन्धो भवतीति मा कृथास्तदनुस्मरणं अनुरागं वा । एवं भविष्यति इत्थभूतं मम द्रविणं इति ॥११७३।। जावंति केइ संगा विराधया तिविहकालसंभूदा । तेहिं तिविहेण विरदो विमुत्तसंगो जह सरीरं ॥११७४।। 'जावंति केइ संगा' यावन्तः केचन परिग्रहाः । 'विराधगा' विनाशकाः । कस्य ? रत्नत्रयस्य । 'तिविधकालसंभूदा' कालत्रयप्रवृत्ताः । 'तेहि तिविधेण विरदो' तेम्यो मनोवाक्कायविरतः सन् 'विमुत्तसंगो' विमुक्तसङ्गः । 'जह सरीरं' त्यज शरोरं ॥११७४।। एवं कदकरणिज्जो तिकालतिविहेण चेव सव्वत्थ । आसं तण्हं संगं छिंद ममत्तिं च मुच्छं च ॥११७५।। 'एवं कदकरणिज्जो' एवं कृतकरणीयः । यत्कर्तव्यमाराधनां वांछता आहारशरीरत्यागादिकं स एवं भूतः । 'तिकाले वि' कालत्रयेऽपि । 'तिविधेण' त्रिविधेन । 'सम्वत्थ' सर्वविषयां सुखसाधनगोचरां । 'आसं' आशां । 'तण्हं' तृष्णां । 'संग' परिग्रहभूतां । “छिद मत्ति' ममेदमिति संकल्पं छिद्धि । 'मुच्छं' मोहमिति यावत् ।।११७५।। गा०-टी०-यतः परिग्रह रखने पर इस लोक और परलोकमें बहुतसे दोष होते हैं अतः हे क्षपकः तुम सब अनागत, वर्तमान और अतीत परिग्रहोंको कृतकारित अनुमोदनासे सर्वथा दूर करो। शंका-अतीत और भावि परिग्रह बन्धका कारण कैसे हैं जिससे उसका त्याग कराते हो ? समाधान-इसका यह अभिप्राय है यद्यपि अतीत वस्तुके साथ जो स्वामी सम्बन्ध था वह जाता रहा, फिर भी उसमें 'मेरे पास अमुक वस्तु थी' इस प्रकारके स्मरण और अनुराग आदिरूप अशुभ परिणामोंसे बन्ध होता है इसलिए उसका स्मरण वा अनुराग मत करो। इसी प्रकार 'मेरे पास आगामीमें अमुक धन आदि होगा' ऐसा चिन्तन करनेसे भी कर्मका बन्ध होता है ।।११७३।। गा०–अतः हे क्षपक ! तीनों कालोंका जितना भी परिग्रह रत्नत्रयका विनाशक है उस सबको मन वचन कायसे छोड़कर अपरिग्रही बनो और तव शरीरका त्याग करो ॥११७४॥ ___ गा०-इस प्रकार आराधनाके इच्छुकका आहार शरीर आदिका त्याग रूप जो कर्तव्य है वह जिसने कर लिया है ऐसे तुम हे क्षपक ! तीन कालोंके परिग्रहोंमें मन वचन कायसे आशा, तृष्णा, संग, ममत्व और मूर्छाको दूर करो ॥११७५।। टी०-ये इस प्रकारके विषय मुझे चिरकाल तक प्राप्त हों यह आशा है। ये कभी भी मुझसे अलग नहीं हों इस प्रकारकी अभिलाषा तृष्णा है। परिग्रहमें आसक्ति संग है। ये मेरे भोग्य हैं में इनका भोक्ता हूं ऐसा संकल्प ममत्व है । अत्यासक्ति मूर्छा है ।।११७५॥ . Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका परिग्रहस्य त्यागजन्यसुखातिशयमिह जन्मनि प्राप्यं निर्दिशत्युत्तरगाथासव्वग्गंथ विमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य । जं पावइ पीयिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ ।। ११७६ ।। 'सव्वगंथविक्को' परित्यक्ताशेषवाह्याभ्यन्तरग्रन्थः । 'सोदीभूवो' शीतीभूतः । 'पसण्णचित्तो य' प्रसन्नचित्तः सन् । 'जं पावदि पीदिसुहं' यत्प्राप्नोति प्रीत्यात्मकं सुखं । 'न चक्कवट्टी वि तं लभदि' चक्रवर्त्यपि तन्न लभेत ।। ११७६ ॥ चक्रवर्तिसुखस्य स्वल्पतायाः कारणमाचष्टे - रागविवागसतण्णादिगिद्धि अवितित्ति चक्कवट्टिसुहं । णिस्संगणिव्वुइसुहस्स कहं अग्घइ अनंतभागं पि ।।११७७।। रागविवागसत०हाइगिद्धि अवितित्ति चक्कवट्टिसुहं । रागो विपाकः फलमस्येति रागविपाकरूपं विषयसुखमासेव्यमानं रञ्जयति विषयेष्विति रागो विपाकः फलं सुखस्येत्युच्यते । सह तृष्णया वर्तते इति सतृष्णं, अतिशयेन गृद्धि काङ्क्षां जनयति इति अतिगृद्धि । न विद्यते तृप्तिरस्मिन्नित्यतृप्ति । यदेवंभूतं चक्रवतिसुखं 'निसंगणदिसुखस्स' निःसंगस्य यन्निर्वृतिसुखं 'तस्यानन्तभागमपि न प्राप्नोति ॥ ११७७ ॥৷ महाव्रतसंज्ञा अहिंसादीनां अन्वर्था इति दर्शयति पञ्चमहव्वयं । ५९१ साधेंति जं महत्थं आयरिदाई च जं महल्लेहिं । जं च महल्लाई सयं महव्वदाई हवे ताई ॥। ११७८ ।। 'सार्धेति जं महत्थं' साधयन्ति यस्मान्महाप्रयोजनं असंयमनिमित्तप्रत्यग्रकमं कदम्बक निवारणं महत्प्रयो आगे कहते हैं कि परिग्रहके त्यागसे अतिशय सुख इसी जन्म में प्राप्त होता है गा० - समस्त बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहको त्यागकर जो शीतीभूत होता है अर्थात् परिग्रह सम्बन्धी सब प्रकारकी चिन्ताओंसे मुक्त होनेसे अत्यन्त सुखमय होता है तथा प्रसन्नचित्त होता है वह जिस प्रीतिरूप सुखको प्राप्त करता है वह सुख चक्रवर्तीको भी प्राप्त नहीं होता ॥ ११७६॥ चक्रवर्तीका सुख कम क्यों है इसका कारण कहते हैं गा० - चक्रवर्तीके सुखका फल राग है क्योंकि विषय सुखका सेवन पुरुषको विषयमें अनुरक्त करता है । तथा वह तृष्णाको बढ़ाता है । अत्यन्त गृद्धिको लम्पटताको उत्पन्न करता है । उसमें तृप्ति नहीं है । अतः चक्रवर्तीका सुख अपरिग्रहीको जो परिग्रहका त्याग करने पर सुख होता है, उसके अनन्तवें भाग भी नहीं है ॥ ११७७॥ हंसा आदिका महाव्रत नाम सार्थक है, यह कहते हैं ---- गा०-यतः ये असंयमके निमित्तसे होने वाले नवीन कर्म समूहका निवारण रूप महान् १. स्यासंख्यभा-अ० । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ भगवती आराधना जनं सम्पादयन्तीति महाव्रतानि । 'आयरिदाईच जं महल्लेहि यस्मादाचरितानि महद्धिः तस्मान्महाव्रतानि इति निरुक्तिः । 'जं च' यस्मात् 'महल्लाणि' स्वयं महान्ति ततो महाव्रतानि स्थूलसूक्ष्मभेदसकलहिंसादिविरूपतया वा महान्ति ॥११७८।। तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती । अट्टप्पवयणमादाओ भावणाओ य सव्वाओ ।। ११७९।। 'तेसिं चेव वदाणं' तेषामेवाहिंसादिव्रतानां । 'रक्खत्थं रक्षणार्थ । 'रादिभोयणणियत्ती' रात्रिभोजनान्निवृत्तिः । रात्री यदि भिक्षार्थं पर्यटति त्रसान्स्थावरांश्च हन्यादुरालोकत्वात् । न च दायकागमनमार्ग, तस्यान्नावस्थानदेशं, आत्मनो वा उच्छिष्टस्य वा निपातदेशं, दीयमानं वाहारं योग्यं न वेति विरूपयितुमयं कथं समर्थः ? दिवापि दुःपरिहारान् जानाति रससूक्ष्मानयं कथं परिहरेत् । 'कडुन्छुगं करं वा' दायिकायाः भाजनं वा कथं शोधयति । पदविभागिका वा एषणासमित्यालोचनां सम्यगपरीक्षितविषयां कुर्वतः कथमिव । सत्यव्रतमवतिष्ठते ? सुप्तेन स्वामिभतेनादत्तमप्याहारं गलतोऽदत्तादानं स्यात । क्वचिदभाजने दिवैव स्थापितं, आत्मवासे भुजानस्यापरिग्रहवतलोपः स्यात् । रात्रिभोजनात्त व्यावत्तेः सकलानि व्रतान्यवतिष्ठन्ते सम्पूर्णानि । 'अठ्ठप्पवयणमावाओ' अष्टौ प्रवचनमातृकाश्च सव्रतपरिपालनायां । एवं पञ्च समितयः तिस्रो प्रयोजनको साधते हैं, इसलिए महाव्रत हैं । यतः महान् पुरुषोंके द्वारा इनका आचरण किया जाता है इसलिए महाव्रत हैं। और यतः ये स्वयं महान् हैं-स्थल और सूक्ष्मके भेद रूप हिंसा आदिका इससे त्याग होता है अतः इन्हें महाव्रत कहते हैं ।।११७८।। विशेषार्थ-अहिंसा आदि महाव्रत हिंसा आदिसे विरतिरूप होनेसे शुद्ध चिद्रूप हैं । नोआगमभाव व्रतकी अपेक्षा चारित्रमोहके क्षयोपशम उपशम अथवा क्षयसे जीवके हिंसादि निवृत्ति रूप रिणाम-मैं जीवन पर्यन्त हिंसा नहीं करूँगा, असत्य नहीं बोलंगा, विना दी हई वस्तु ग्रहण नहीं करूँगा, मैथन नहीं करूँगा और न परिग्रह स्वीकार करूंगा. महावत हैं ॥११७८।। गा०-टी०-उन्हीं अहिंसा आदि व्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रि भोजनका त्याग कहा है। यदि मुनि रात्रिमें भिक्षाके लिए भ्रमण करता है तो त्रस और स्थावर जीवोंका घात करता है क्योंकि रात्रिमें उनको देख सकना कठिन है । देनेवालेके आनेका मार्ग, उसके अन्न रखनेका स्थान, अपने उच्छिष्ट भोजनके गिरनेका स्थान, दिया जानेवाला आहार योग्य है अथवा नहीं, ये सब वह कैसे देख सकता है ? दिनमें भी जिनका परिहार कठिन है उन रसज अतिसूक्ष्म जीवोंका परिहार रात्रिमें कैसे कर सकता है। करछल, अथवा देनेवालीका हाथ अथवा पात्रको देखे विना कैसे शोधन कर सकता है। इन सबकी सम्यक्रूपसे परीक्षा किये विना पदविभागी अथवा एषणा समिति आलोचना करनेपर साधुका सत्यव्रत कैसे रह सकता है ? दानका स्वामी सोया हुआ हो और उसके द्वारा न दिये गये आहारको किसी अन्यके हाथसे लेनेपर अदत्तादान-विना दी हुई वस्तुका ग्रहण कहलायेगा। किसी भाजनमे दिनमें लाकर रखे और रात्रिमें भोजन करे तो अपरिग्रहवतका लोप होगा। किन्तु रात्रि भोजनका त्याग करनेसे सब व्रत सम्पूर्ण रहते हैं । आठ प्रवचन माता महाव्रतकी रक्षक हैं। पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ ये आठ १. श्रुतेन अ० आ० । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ५९३ गुप्तयश्च प्रवचनमातृकाः । रत्नत्रयं प्रवचनं तस्य मातर इवेमाः । क उपमार्थः? यथा माता पुत्राणां अपायपरिपालनोद्यता एवं गुप्तिसमितयोऽपि व्रतानि पालयन्ति । 'भावणाओ य सम्वाओ' भावनाश्च सर्वाः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमचारित्रमोहोपशमक्षयोपशमापेक्षेणात्मना भाव्यतेऽसकृत्प्रवर्त्यते इति भावना। अथ किमिदं व्रतं नाम ? यावज्जीवं न हिनस्मि, नानृतं वदामि, नादत्तमाददे, न मिथुनकर्म करोमि, न परिग्रहमाददे । इत्येवंभूत आत्मपरिणाम उत्पन्नः कथंचित्तथैव अवतिष्ठते उत विनश्यति वा ? अवस्थानमनुभवविरुद्धं । जीवादितत्त्वपरिज्ञाने तस्य श्रद्धाने वा प्रवृत्तस्य इत्थमुपयोगाभावात् । अथ विनश्यति ? परिणामान्तरोत्पत्ती असति का रक्षा ? सतो झपायपरिहारो रक्षा ततः किमुच्यते व्रतानां रक्षाय रात्रिभोजनविरतिरिति । यदा न हिनस्मीत्युपयोगो न तदा नानृतं वदामीत्येवमादयः सन्ति परिणामाः । किं पुनः परिणामान्तरे वाच्यम् । अत्रोच्यते नामादिविकल्पेन चतुर्विधानि व्रतानि । तत्र नामव्रतं कस्यचिद्वतमिति कृता संज्ञा । हिंसा दिनिवृत्तिपरिणामवत आत्मनः शरीरस्य बन्धं प्रत्येकत्वात् आकारः सामायिके परिणतस्य सद्भावस्थापनावतं । भाविव्रतत्वग्राहिज्ञानपरिणतिरात्मा आगमद्रव्यवतं। व्रतज्ञस्य शरीरं त्रिकालगोचरं, ज्ञायकशरीरं व्रतं । चारित्रमोहस्य उपशमात् क्षयात्क्षयोपशमाद्वा यस्मिन्नात्मनि भविष्यन्ति विरतिपरिणामाः स भाविव्रतं । उपशमे क्षयोपशमे वावस्थितः चारित्रमोहो नो आगमद्रव्यव्यतिरिक्तं कर्म व्रतं । न हिनस्मीत्यादिको ज्ञानोपयोगो वव्रतमिति । नो आगमभावव्रतं नाम चारित्रमोहोपशमात क्षयोपशमात क्षयादा प्रवत्तो हिंसादि प्रवचन माता हैं । रत्नत्रयरूप प्रवचनकी ये माताके समान हैं। जैसे माता पुत्रोंकी रक्षा करती है वैसे ही गुप्ति और समितियां व्रतोंकी रक्षा करती हैं। तथा सब भावनाएं महाव्रतोंकी रक्षक हैं । वीर्यान्तरायका क्षयोपशम और चारित्रमोहके उपशम अथवा क्षयोपशमकी अपेक्षा जो आत्माके द्वारा भाई जाती हैं बारबार की जाती हैं वे भावना हैं । शङ्का-मैं जीवन पर्यन्त हिंसा नहीं करूंगा, झूठ नहीं बोलूंगा, विना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करूँगा, मैथुन कर्म नहीं करूँगा, न परिग्रह रखू गा, इस प्रकारका परिणाम उत्पन्न होने पर. क्या ऐसा ही बना रहता है. या नष्ट हो जाता है ? वैसा ही बना रहना तो अनुभव विरुद्ध है क्योंकि जीवादि तत्त्वोंको जानने में अथवा उनके श्रद्धानमें प्रवृत्ति करने पर इस प्रकारका उपयोग नहीं रहता। यदि नष्ट हो जाता है तो जब अन्य परिणाम उत्पन्न हुए और महाव्रत रूप परिणाम नहीं रहे तब उनकी रक्षा कैसी ? जो विद्यमान होता है उसको विनाशसे बचाना रक्षा है। तब यह कैसे कहा कि व्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रि भोजन विरति होती है। जिस समय 'मैं हिंसा नहीं करता' ऐसा उपयोग होता है उस समय 'मैं झूठ नहीं बोलता' इत्यादि परिणाम नहीं होते। तब अन्य परिणामोंके होने पर तो महाव्रत रूप परिणाम कैसे रह सकते हैं ? समाधान-नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे व्रतके चार भेद हैं । किसीका नाम व्रत होना नामव्रत है। आत्मा और शरीर पारस्परिक सम्बन्धकी दृष्टिसे एक हैं अतः हिंसा आदिसे निवृत्ति रूप परिणाम वाला आत्मा जब सामायिकमें लीन होता है तब उसका आकार सद्भाव स्थापना व्रत है । भविष्यमें व्रतको ग्रहण करने वाले ज्ञान रूपसे परिणत आत्मा आगम द्रव्य व्रत है। व्रतके ज्ञाताका त्रिकाल गोचर शरीर ज्ञायक शरीर व्रत है। चारित्र मोहके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जिस आत्मामें आगे व्रत होंगे वह आत्मा भाविव्रत है। उपशम अथवा क्षयोपशम रूप परिणत चारित्रमोह कर्म नोआगम द्रव्य व्यतिरिक्त कर्म व्रत है। 'मैं हिंसा नहीं करता' इत्यादि । रूप ज्ञानोपयोग आगमभाव व्रत है। चारित्र मोहके उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे होने वाला Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ भगवती आराधना परिणामाभावः अहिंसादिवतं । प्राणिनां वियोजने प्राणानां, असदभिधाने, अदत्तस्यादाने, मिथुनकर्मविशेषे, मूर्छायां वाऽपरिणतिरिति यावत् । तथा चोक्तं-"हिंसानूस्ततेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतमिति' [त०सू० ७।१] हिंसादयः क्रियाविशेषा आत्मनः परिणामास्तेभ्यो आत्मनो व्यावृत्तिहिंसादिष्वपरिणतिव्रतमिति सूत्रार्थः। हिंसादिव्यावृत्तत्वं नाम यदुपं जीवस्य व्रतसंज्ञितं तत्परिपाल्यते रात्रिभोजननिवृत्त्या प्रवचनमातकाभिश्च । यस्मिन्वाऽसति तद्विनश्यति सति च न विनश्यति तत्तत्पालयति यथा दुर्गो राजानं । सत्यां रात्रिभोजननिवृत्तौ प्रवचनमातृकासु भावनासु वा सतीषु हिंसादिव्यावृत्तत्वं भवति, न तास्वसतीषु इति युक्तमुक्तं सूत्रकारेण ॥११७९॥ तेसिं पंचण्हं पि य अंहयाणमावज्जणं व संका वा । आदविवत्ती य हवे रादीभत्तप्पसंगम्मि ॥११८०॥ 'तेसि पंचण्डं पिय अंहयाणमावज्जणं' तेषां पञ्चानां हिंसादीनां प्राप्तिः । 'संका वा' शङा वाम हिंसादयः किं संवृत्ता न वेति । 'हवे' भवेत् । 'रादोभत्तप्पसंगम्मि' रात्रावाहाराप्रसंगे सति न केवलं हिंसादिषु परिणतिः । 'विवत्ती य हविज्ज' आत्मनश्च यतेः स्वस्यापि विपद्भवेत् स्थाणुसर्पकण्टकादिभिः ॥११८०॥ हिंसादि परिणामोंका अभाव रूप अहिंसादि व्रत नोआगमभाव व्रत है। इसका मतलब है प्राणियों के प्राणोंके धातमें, झूठ बोलनेमें, विना दी हुई वस्तुके ग्रहणमें, मैथुन रूप विशेष कर्ममें तथा ममत्व भावमें परिणतिका न होना। तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा भी है-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे विरति व्रत है।' हिंसा आदि क्रिया विशेष आत्माके परिणाम हैं। उनसे आत्माकी निवृत्ति अर्थात् हिंसादि रूप परिणतिका न होना व्रत है। यह सूत्रका अर्थ है। जीवकी हिंसा आदिसे व्यावृत्ति रूप जो अवस्था है उसका नाम व्रत है। रात्रि भोजन त्याग और प्रवचन माताओंके द्वारा जीवके उस रूपका संरक्षण होता है। जिसके नहीं होने पर जो नष्ट हो जाता है और जिसके होने पर जो नष्ट नहीं होता वह उसका रक्षक होता है। जैसे दुर्ग राजाका रक्षक है। रात्रि भोजनसे निवृत्ति और प्रवचन माता तथा भावनाओंके होने पर हिंसादिसे निवृत्ति होती है और उनके नहीं होने पर नहीं होती है । अतः गाथा सूत्रकारने ठीक ही कहा है कि ये व्रतोंकी रक्षक हैं । आशय यह है कि जीवन पर्यन्त हिंसा आदिसे निवृत्ति रूप परिणत आत्माका कथंचित् उसी रूपसे बने रहना ही यहाँ विवक्षित है । परिणामोंमें परिवर्तन होते हुए भी निवृत्ति रूप परिणाम तदवस्थ रहता है ।।११७९|| - गा०-रात्रिमें आहार करने पर उन हिंसा आदि पांचों पापोंकी प्राप्ति होती है अथवा यह शंका रहती है कि हिंसा आदि पाप हुए तो नहीं ? इसके सिवाय साधुको स्वयं भी ढूंठ, सर्प, कण्टक आदिसे विपत्तिका सामना करना पड़ सकता है ।।११८०॥ १. इस गाथाके पश्चात् मुद्रित प्रतिमें नीचे लिखी गाथा है जिसपर आशाधरकी टीका है किन्तु यह किसी प्रतिमें नहीं है। पं० जिनदासजी ने भी न तो इसका अर्थ किया है और न इसपर पृथक् क्रमांक दिया है अण्हयदारोपरमणदरस्स गत्तीओ होन्ति तिण्णव । चेट्ठिदुकामस्स पुणो समिदीओ पंच दिट्ठाओ ॥ आस्रवके द्वारको रोकने में आसक्त भिक्षुके तीन गुप्तियां होती हैं। और गमन तथा बोलने आदिकी चेष्टा करने पर पांच समितियाँ कही Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका प्रवचनमातृकाव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धस्तत्र मनोगुप्सिं वाग्गुतिं व्याख्यातुमायातोत्तरगाथा - जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्तिं । अलियादिणियत्ती वा मोणं वा होइ वचिगुत्ती ॥११८१ ॥ 'जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुति' या रागद्वेषाभ्यां निवृत्तिर्मनसस्तां जानीहि मनोगुप्ति । अत्रेदं परीक्ष्यते । मनसो गुप्तिरिति यदुच्यते कि प्रवृत्तस्य मनसो गुप्तिरथाप्रवृत्तस्य ? प्रवृत्तं चेदं शुभं मनः तस्य का रक्षा । अप्रवृत्तं यदि तथापि असतः का रक्षा ? सतोऽप्यपायपरिहारोपयुक्ततेत्युच्यते ? किं च मनः शब्देन किमुच्यते द्रव्यमन उत भावमनः ? मनोद्रव्यवर्गणा मनश्चेत् तरय कोऽपायो नाम यस्य परिहारो रक्षा स्यात् ? किं च द्रव्यान्तरेण तेन रक्षितेनास्य जीवस्य फलं य आत्मनः परिणामोऽशुभमावहति । ततोयुक्ता रक्षात्मनः । अथ नो इन्द्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमसंजातं ज्ञानं मन इति गृह्यते तस्य अपायः कः ? यदि विनाशः स न परिहर्तुं शक्यते यतोऽनुभवसिद्धो विनाशः । अन्यथा एकस्मिन्नेव ज्ञाने प्रवृत्तिरात्मनः स्यात् । ज्ञानानीह वीचय इवानारतमुत्पद्यन्ते न चास्ति तदविनाशोपायः । अपि च इन्द्रियमतिरपि रागादिव्यावृत्तिरिष्टव किमुच्यते रागादिणियत्ती मणस्स इति । अत्र प्रतिविधीयते — नो इन्द्रियमतिरिह मनः शब्देनोच्यते । सा रागादिपरिणामैः सह एककालं आत्मनि प्रवर्तते । न हि विषयावग्रहादिज्ञानमन्तरेणास्ति रागद्वेषयोः प्रवृत्तिः, अनुभवसिद्धैवास्ति नापरा युक्तिः अनुगम्यते । वस्तुतत्वानुयायिना मानसेन ज्ञानेन समं रागद्वेषो न वर्तेते इत्येतदप्यात्मसाक्षिकमेव । तेन मनसस्त ५९५ आगे प्रवचन माताओंका व्याख्यान करते हैं । उनमें से प्रथम मनोगुप्ति और वचनगुप्तिका व्याख्यान करते हैं गा० - टी० - मनकी जो रागादिसे निवृत्ति है उसे मनोगुप्ति जानो । शंका—यहाँ यह विचार करते हैं कि यह जो आप मनकी गुप्ति कहते हैं सो यह गुप्ति प्रवृत्त की है या अप्रवृत्त मनकी है ? प्रवृत्त मन तो शुभ रूप होता है उसकी रक्षा कैसी ? यदि मन अप्रवृत्त है तो वह असत् हुआ, उसकी रक्षा कैसी । प्रवृत्त मनकी अपायसे बचाव करनेमें उपयोगिता होती है । तथा मन शब्दसे द्रव्यमन लेते हैं या भावमन ? यदि द्रव्यवर्गणा रूप मन लेते हैं तो उसका अपाय क्या, जिससे वचनेसे उसकी रक्षा हो । तथा द्रव्यवर्गणा रूप मन तो भिन्न द्रव्य है । उसकी रक्षा करनेसे इस जीवको क्या लाभ जो आत्माके अशुभ परिणाम करता है । अतः आत्माकी रक्षाकी बात युक्त नहीं है । यदि नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए ज्ञानको मन शब्दसे ग्रहण करते हैं तो उसका अपाय क्या है ? यदि अपायसे मतलब विनाश है तो उसका परिहार शक्य नहीं है क्योंकि विनाश तो अनुभवसे सिद्ध है । यदि ज्ञानका विनाश न हो तो आत्माकी प्रवृत्ति सदा एक ही ज्ञानमें रहे । किन्तु ज्ञान तो तरंगोंकी तरह निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं । उनके विनाश न होनेका कोई उपाय नहीं है । तथा इन्द्रियजन्य मतिकी भी रागादिसे व्यावृत्ति मान्य है तब 'मनकी रागादिसे निवृत्ति' क्यों कहते हैं ? समाधान- यह मन शब्द से नोइन्द्रिय जन्य मति कही है । वह आत्मामें रागादि परिमोंके साथ एक ही कालमें प्रवृत्तिशील है । विषयोंका अवग्रहादिज्ञान हुए विना रागद्वेषमें प्रवृत्ति नहीं होती, यह बात अनुभव सिद्ध है । इसमें अन्य कोई युक्ति नहीं है । जो मानस ज्ञान वस्तुतत्त्वके अनुसार होता है उस ज्ञानके साथ रागद्वेष नहीं होते यह बात आत्मसाक्षिक है । अतः तत्त्व ७५ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ भगवती आराधना त्वावग्राहिणो रागादिभिरसहचारिता या सा मनोगुप्तिः । मनोग्रहणं ज्ञानोपलक्षणं तेन सर्वो बोधो निरस्तरागद्वेषकलङ्को मनोगुप्तिरन्यथा इन्द्रियमतौ श्रुते, अवधी, मनःपर्यये वा परिणममानस्य न-मनोगुप्तिः स्यात् । इष्यते च । अथवा मनःशब्देन मनुते य आत्मा स एव भण्यते तस्य रागादिभ्यो या निवृत्तिः रागद्वषरूपेण या अपरिणतिः सा मनोगुप्तिरित्युच्यते । अथवं ब्रूषे सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः दृष्टफलमनपेक्ष्य योगस्य वीर्यपरिणामस्य निग्रहो रागादिकार्यकरणनिरोधो मनोगुप्तिः । 'अलिणाविणियत्ती वा मोणं वा होइ वचिगुत्ती' विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदुःखोत्पत्तिनिमित्तत्वाच्चाधर्माद्या व्यावृत्तिः सा वाग्गुप्तिः। ननु च वाचः पुद्गलत्वात् विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वादिभ्यो व्यावृत्तिहेतुर्वाचो धर्मो न चासौ संवरणे हेतुरनात्मपरिणामत्वात् । शब्दादिवत् । एवं तहि व्यलीकात्परुषादात्मप्रशंसापरात् परनिन्दाप्रवृत्तात्परोपद्रवनिमित्ताच्च वचसो व्यावृत्तिरात्मनस्तथाभूतस्य वचसोप्रवर्तिका वाग्गुप्तिः । यां 'वाचं प्रवर्तयन् अशुभं कर्म स्वीकरोत्यात्मा तस्या वाच इह ग्रहणं वाग्गुप्तिरित्यत्र तेन वाग्विशेषस्यानुत्पादकता वाचः परिहारो वाग्गुप्तिः । मौनं वा सकलाया वाचो या परिहृतिः सा वाग्गुप्तिः । अयोग्यवचनेप्रवृत्तिः प्रेक्षापूर्वकारितया योग्यं तु वक्ति वा न वा। भाषासमितिस्तु का ग्रहण करने वाले मनका रागादि भावके साथ साहचर्य न होना मनोगुप्ति है । 'मन' शब्द ज्ञानका उपलक्षण है । अतः रागद्वषको कालिमासे रहित ज्ञानमात्र मनोगुप्ति है। यदि ऐसा न माना जाय तो जब आत्मा इन्द्रिय ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अथवा मनःपर्ययज्ञान रूपसे परिणत हो उस समय मनोगुप्ति नहीं हो सकेगी। किन्तु उस समय भी मनोगुप्ति मानी जाती है। अथवा जो आत्मा 'मनुते' अर्थात् पदार्थों को जानता है वही मन शब्दसे कहा जाता है । उसकी जो रागादिसे निवृत्ति है अथवा रागद्वषसे परिणमन करना वह मनोगुप्ति कही जाती है। ऐसा होने पर 'सम्यक् रूपसे योगका निग्रह गुप्ति है' ऐसा कहने में भी कोई विरोध नहीं है । सम्यक् अर्थात् किसी लौकिक फलकी अपेक्षा न करके वीर्य परिणाम रूप योगका निग्रह अर्थात् रागादि कार्य करनेसे रोकना मनोगुप्ति है। __ तथा विपरीत अर्थको प्रतिपत्तिमें कारण होनेसे और दूसरोंको दुःखकी उत्पत्तिमें निमित्त होनेसे जो अधर्म मूलक वचनसे निवृत्ति है वह वचन गुप्ति है। शङ्का-वचन तो पौद्गलिक है अतः विपरीत अर्थकी प्रतिपत्तिमें हेतु आदि होनेसे व्यावृत्ति वचनका धर्म है और वह संवरमें कारण नहीं है क्योंकि वह तो पुद्गलका परिणाम है, आत्माका परिणाम नहीं है जैसे शब्द वगैरह पुद्गलके परिणाम हैं। ___ समाधान-मिथ्या, कठोर, अपनी प्रशंसा और परकी निन्दा करने वाले तथा दूसरोंमें उपद्रव कराने वाले वचनसे आत्माकी निवृत्ति, जो इस प्रकारके वचनोंकी प्रवृत्तिको रोकती है वह वचन गुप्ति है। वचन गुप्तिमें वचन शब्दसे जिस वचनको सुनकर प्रवृत्ति करता हुआ आत्मा अशुभ कर्म करता है उस वचनका ग्रहण है। अतः वचन विशेषको उत्पन्न न करना वचनका परिहार है और वही वचन गुप्ति है। अथवा समस्त प्रकारके व वनोंका परिहार रूप मौन वचनगुप्ति है। अयोग्य वचनमें अप्रवृत्ति वचनगुप्ति है। प्रेक्षापूर्वकारी होनेसे वह योग्य वचन बोले या न बोले। किन्तु योग्य वचन बोलना-उनका कर्ता होना भाषासमिति है। अतः गुप्ति और १. वाचां-अ० आ० ज०। Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ५९७ योग्यवचसः कता ततो महान्भेदो गुप्तिसमित्योः । मौनं वाग्गप्तिरत्र स्फुटतरो वचोभेदः । योग्यस्य वचसः प्रवर्तकता । वाचः कस्याश्चित्तदनुत्पादकतेति ॥११८१।। कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती । हिंसादिणियत्ती वा सरीरगुत्ती हवदि दिट्ठा ॥११८२॥ 'कायकिरियाणियत्ती' कायस्यौदारिकादेः शरीरस्य या क्रिया तस्या निवृत्तिः 'सरीरंगे गुत्ती' शरीरविषया गुप्तिः कायगुप्तिरिति यावत् । आसनस्थानशयनादीनां क्रियात्वात तासां चात्मना 'प्रवर्तित्वात् कथमात्मनः कायक्रियाभ्यो व्यावृत्तिः । अथ मतं, कायस्य पर्यायः क्रिया, कायाच्चान्तरमात्मा ततो द्रव्यान्तरपर्यायात द्रव्यान्तरं तत्परिणामशून्यं तथाऽपरिणतं व्यावृत्तं भवतीति कायक्रियानिवत्तिरात्मनो भण्यते । सर्वेषामेवात्मनामित्थं कायगुप्तिः स्यात् न चेष्टेति । अत्रोच्यते-कायस्य सम्बन्धिनी क्रिया कायशब्देनोच्यते । तस्याः कारणभूतात्मनः क्रिया कायक्रिया तस्य निवृत्तिः । 'काउस्सग्गो' कायोत्सर्गः शरीरस्याशुचितामसारतामापन्निमित्ततां चावेत्य तद्गतममतापरिहारः कायगुप्तिः । अन्यथा शरीरमायुः शृङ्खलावबद्धं त्यक्तुं न शक्यते इत्यसम्भवः कायोत्सर्गस्य । धातूनामनेकार्थत्वात् गुप्तिनिवृत्तिवचनं इहेति सूत्रकाराभिप्रायोऽन्यथा 'कायकिरियाणिवत्ती सरीरगे गुत्ती' इति कथं ब्रूयात् । कायोत्सर्गग्रहणेन निश्चलता भण्यते । यद्येवं कायकिरियाणिवत्ती इति न वक्तव्यं, कायोत्सर्गः काय समितिमें महान् अन्तर है। मौन वचन गुप्ति है ऐसा कहने पर गुप्ति और समितिका भेद स्पष्ट हो जाता है । समिति योग्य वचनमें प्रवृत्ति कराती है। और गुप्ति किसी वचनकी उत्पादक नहीं है ॥११८१॥ गा०-टो०-काय अर्थात् औदारिक आदि शरीरकी जो क्रिया है उसकी निवृत्ति कायगुप्ति है। शङ्का-बैठना, ठहरना, सोना आदि क्रियाएँ हैं । और वे क्रियाएं आत्माके द्वारा प्रवर्तित हैं। तब आत्मा कायकी क्रियाओंसे कैसे निवृत्त हो सकता है। यदि कहोगे कि क्रिया कायकी पर्याय है और कायसे आत्मा भिन्न है। अतः द्रव्यान्तर कायकी पर्यायसे द्रव्यान्तर आत्मा उस पर्यायसे रहित होनेसे कायकी पर्यायरूप परिणत नहीं होता अतः उससे वह निवृत्त है और इसीको आत्माकी कायकी क्रियाओंसे निवृत्ति कही है। तो इस प्रकारसे सभी आत्माओंके कायगुप्तिका प्रसंग आता है। __ समाधान-कायशब्दसे कायसम्बन्धी क्रिया कही है। उसकी कारणभूत आत्माकी क्रिया कायक्रिया है और उसकी निवृत्ति कायगुप्ति है। अथवा कायोत्सर्ग अर्थात् शरीरकी अपवित्रता, असारता और आपत्तिमें निमित्तपना जानकर उससे ममत्व न करना कायगुप्ति है। अन्यथा शरीर तो आयुकी सांकलसे बँधा है। जब तक आयु है शरीरका त्याग नहीं किया जा सकता। यदि शरीर त्यागको कायोत्सर्ग कहेंगे तो कायोत्सर्ग असम्भव हो जायगा। धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं अतः यहाँ गुप्तिका अर्थ निवृत्ति है ऐसा गाथासूत्रकार आचार्यका अभिप्राय है। यदि ऐसा न होता तो 'कायक्रिया निवृत्ति शरीर गुप्ति है' ऐसा कैसे कहते । १. प्रवतर्कत्वात् कथमात्मनः कार्या क्रियाम्यो-आ० मु० । Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ भगवती आराधना गुप्तिरित्येतदेव वाच्यं इति चेत् न कार्याविषयं ममेदंभावरहितत्वमात्रमपेक्ष्य कायोत्सर्गस्य प्रवृत्तेः धावनगमनलङ्घनादिक्रियासु प्रवृत्तस्यापि कायगुप्तिः स्यान्न चेष्यते । अथ कार्यक्रियानिवृत्तिरित्येतावदुच्यते मूर्च्छापरिगतस्यापि अपरिस्पन्दता विद्यते इति कायगुप्तिः स्यात् । तत उभयोपादानं व्यभिचारनिवृत्तये । कर्मादाननिमित्तसकलकायक्रियानिवृत्तिः कायगोचरममतात्यागपरा वा कायगुप्तिरिति सूत्रार्थ: । 'हिंसादिणियत्ती वा सरीरगुत्ती हवदि दिट्ठा' हिंसादिनिवृत्तीर्वा शरीरगुप्तिरिति दृष्टा जिनागमे, प्राणिप्राणवियोजनं, अदत्तादानं, मिथुनकर्म शरीरेण परिग्रहादानमित्यादिका या विशिष्टा क्रिया सेह कायशब्देनोच्यते । कायिकोपकृतेर्गुप्तिर्व्यावृत्तिः कायगुप्तिरिति व्याख्यातं सूरिणा ॥११८२ । छेत्तस्स वदी णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो । तह पावस्स गिरोहे ताओ गुत्तीओ साहुस्स ||११८३॥ 'छेत्तस्स वदी' क्षेत्रस्य वृति: 'नगरस्य खातिका अथवा पागारों अथवा प्राकारो भवति नगरस्य । 'तघा पावस्स णिरोधी' पापस्य निरोध उपाय: । 'ताओ गुत्तीओ' ता गुप्तयः साधोः ।। ११८३ । तम्हा तिविहेवि तुमं मणवचिकायप्पओगजोगम्मि | होहि सुसमाहिदमदी निरंतरं ज्झाणसज्झाए ॥। ११८४ ॥ 'तम्हा तिविधेण मणवचिकायपओगजोगम्मि' मनोवाक्कायविषये प्रकृष्टे योगे । 'तुमं' त्वं । 'सुसमा - शङ्का - यदि कायोत्सर्गसे निश्चलता कही जाती है तो 'काय क्रियानिवृत्ति कायगुप्ति है' ऐसा नहीं कहना चाहिए । किन्तु कायोत्सर्ग कायगुप्ति है ऐसा ही कहना चाहिए । समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि काय में 'यह मेरा है' इस भावके न होने मात्रकी अपेक्षासे कायोत्सर्गं शब्दकी प्रवृत्ति होती है । किन्तु यदि कायगुप्ति यही है तो दौड़ना, जाना, लांघना आदि क्रियाओंको करते हुए भी काय गुप्ति हो सकेगी। किन्तु ऐसा नहीं माना जाता । और 'कार्यक्रियाकी निवृत्ति कायगुप्ति है' इतना ही कहा जाता है तो मूर्छित अवस्था में भी काय क्रियाकी निवृत्ति होनेसे कायगुप्तिका प्रसंग आता है । इसलिए व्यभिचार दोषकी निवृत्तिके लिए दोनोंका ग्रहण गाथामें किया है । अतः कर्मके ग्रहण में निमित्त समस्त कायकी क्रियाओंसे निवृत्ति और कार्याविषयक ममत्वका त्याग काय गुप्ति है, यह गाथासूत्रका अर्थ है | अथवा आगम में हिंसा आदिसे निवृत्तिको कायगुप्ति कहा है । यहाँ काय शब्दसे प्राणियोंके प्राणों का घात, विना दी हुई वस्तुका ग्रहण, शरीरसे मैथुन कर्म और परिग्रहका ग्रहण इत्यादि विशिष्ट क्रिया कही गई है । कायिक क्रियाओंसे गुप्ति अर्थात् व्यावृत्ति काय गुप्ति है ऐसा आचार्यने व्याख्यान किया है ।। ११८२ ।। गा०—जैसे खेतकी बाड़ और नगरकी खाई अथवा चारदिवारी होती है वैसे ही पापको रोकने में साधुकी गुप्तियाँ होती हैं ||११८३ || गा० – इसलिए हे क्षपक ! तुम निरन्तर ध्यान और स्वाध्याय में लगे रहकर मन वचन काय विषयक तीन प्रकारके प्रकृष्ट योगमें सावधान रहो। क्योंकि ध्यान और स्वाध्यायके विना तयाँ नहीं ठहरतीं ॥११८४ ॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका हिवमवी होहि' सुष्टु समाहितमतिर्भव । कथं ? 'णिरंतरं ज्झाणसज्झाए' निरन्तरप्रवृत्तध्यानस्वाध्याये । न हि ध्यानस्वाध्यायावन्तरेण गुप्तयोऽवतिष्ठन्त इति भावः ॥११८४॥ समितिव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धस्तत्रैर्यासमितिनिरूपणायोत्तरा गाथा मग्गुज्जोवपओगालंबणसुद्धीहिं इरियदो मुणिणो । सुनाणुवीचि भणिदा इरियासमिदी पवयणम्मि ॥११८५।। 'मग्गुज्जोवुपओगालंबणसुद्धीहिं' मार्गशुद्धिः, उद्योतशुद्धिरुपयोगशुद्धिश्चालम्बनशुद्धिरिति चतस्रः शुद्धयस्ताभिः करणभूताभिः । 'इरियदो' गच्छतः । 'मृणिणो' मुनेः । 'सुत्ताणुवीचि' सूत्रानुसारेण । 'भणिदा' कथिता । 'इरियासमिदी' ईर्यासमितिः । 'पवयणम्मि' प्रवचने । तत्र मार्गस्य शुद्धिर्नाम अप्रचुरपिपीलिकादित्रसता, बीजाङ्करतृणहरितपलाशकर्दमादिरहितता । स्फुटतरता व्यापिता च उद्योतशुद्धिः । निशाकरनक्षत्रादीनामस्फुटः प्रकाशः, अव्यापी प्रदीपादिप्रकाशः । 'पादोद्धारनिक्षेपदेशजीवपरिहरणावहितचेतस्ता उपयोगशुद्धिः । गुरुतीर्थचैत्ययतिवन्दनादिकमपूर्वशास्त्रार्थ ग्रहणं, संयतप्रायोग्यक्षेत्रमार्गणं, वैयावृत्यकरणं, अनियतावासस्वास्थ्यासम्पादने श्रमपराजयं, नानादेशभाषाशिक्षणं, विनेयजनप्रतिबोधनं चेति प्रयोजनापेक्षया आलम्बनाशुद्धिः । किं तत् सूत्रानुसारिगमनं, अद्रुतं, नातिविलम्बितं, पुरो युगमात्रदर्शनप्रवृत्तिः, अविकृष्टचरणन्यासं, भयविस्मयावन्तरेणासलील मनत्युत्क्षेपं, परिहृतलङ्घनधावनं प्रविलम्बितभुजं, निर्विकारं, अचपलमसंभ्रान्तमनूर्ध्वतिर्यक्प्रेक्षणं, हस्तमात्रपरिहृततरुणतृणपल्लवं, अकृतपशुपक्षिमृगोद्व जनं, विरुद्धयोनिसंक्रमणजातबाधाव्युदासाय आगे समितिका व्याख्यान करते हैं। प्रथम ईर्यासमितिका कथन करते हैं गा०-टी०-मार्गशुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोगशुद्धि और आलम्बन शुद्धि, इन चार शुद्धियोंके द्वारा सूत्रके अनुसार गमन करते हुए मुनिके प्रवचनमें ईर्यासमिति कही है। मार्गमें चींटी आदि त्रस जीवोंकी अधिकताका न होना तथा बीज, अंकुर, तृण, हरे पत्ते और कीचड़ आदिका न होना मार्गशुद्धि है । सूर्यके प्रकाशका स्पष्ट फैलाव और उसकी व्यापकता उद्योतशुद्धि है। चन्द्रमा नक्षत्र आदिका प्रकाश अस्पष्ट होता है और दीपक आदिका प्रकाश व्यापक नहीं होता। पैर उठाने और रखनेके देशमें जीवोंकी रक्षामें चित्तकी सावधानता उपयोग शुद्धि है। गुरु, तीर्थ, चैत्य और यतिकी वन्दनाके लिए गमन करना आदि किसीके पास शास्त्रका अपूर्व अर्थ या अपूर्व शास्त्रके अर्थका ग्रहण करनेके लिए गमन करना, मुनियोंके योग्य क्षेत्रकी खोजके लिए गमन करना, वैयावृत्य करनेके उद्देशसे गमन करना, अनियत आवासके उद्देशसे गमन करना. स्वास्थ्य लाभके लिए गमन करना. श्रमपर विजय पानेके लिए गमन करना. नाना देशोंकी भाषा सोखनेके लिए गमन करना, शिष्य समुदायका प्रतिबोधन करनेके लिए गमन करना, इत्यादि प्रयोजनोंको अपेक्षा गमन करना आलम्बन शुद्धि है। सूत्रानुसार गमन इस प्रकार है-न बहुत जल्दी और न बहुत विलम्बसे सामने युगमात्र भूमि देखकर चलना, पादनिक्षेप अधिक दूर न करना, भय और आश्चर्यके विना गमन करना. लीलापूर्वक गमन न करना, पैर अधिक ऊँचा न उठाते हुए गमन करना, लांघना दौड़ना आदि नहीं, दोनों भुजा लटकाकर गमन करना, विकार रहित, चपलता रहित, ऊपर तिर्यक् अवलोकन १. पादोपरिवि-अ०आ० । २. मनक्षेप-अ०। मनन्यत्रक्षेपं आ० । मनत्युत्क्षपं-मुलारा० । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० भगवतो आराधना कृतासकृत्प्रतिलेखन, अप्रतिसारितप्रतिमार्गायायिसंघट्टनं दुष्टधेनुबलीवईसारमेयादिपरिहृतिचतुरं, परिहृतबुसतुषमषोभस्मागोमयतणनिचयज'लोपलफलकं, दूरीकृतचोरीकलह, अनारूढसंक्रमं निरूपयतो यतेरीर्यासमितिः ॥११८५।। भाषासमितिनिरूपणार्थोत्तरगाथा सच्चं अमच्चमोसं अलियादीदोसवज्जमणवज्जं । वदमाणस्सणुवीची भासासमिदी हवदि सुद्धा ।।११८६।। चतुर्विधा वाक्-सत्या, मृषा, सत्यसहिता मृषा, असत्यमषा चेति । सतां हिता सत्या । न सत्या न च मुषा या सा असच्चमोसा । द्विप्रकारां वाचमित्थंभतां । 'अलिगादिदोसवज्ज' व्यलीकता अर्थाभावः, पारुष्यं, पैशुन्यमित्यादिदोषरहितं । 'अणवज्ज' पापास्रवो न भवति इत्यनवद्यं । 'बदमाणस्स' व्याहरतः । 'अणुवीचि' सूत्रानुसारेण 'भासासमिदी सुद्धा हवदि' भाषासमितिः शुद्धा भवति ॥११८६।। सत्यवचनभेदं निरूपयति जणवदसंमदिठवणा णामे रुवे पडुच्चववहारे । संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण ।।११८७॥ 'जणववसंमदि' नानाजनपदप्रसिद्धा सुसंकेतानुविधायिनी वाणी जनपदसत्यं । गच्छति इति गौः, गर्ज रहित गमन करना, तरुण तृण पत्रोंसे एक हाथ दूर रहते हुए गमन करना, पशु पक्षी और मृगोंको भयभीत न करते हुए गमन करना, विरुद्ध योनिवाले जीवोंके मध्यसे जानेपर उनको होनेवाली बाधाको दूर करनेके लिए पीछीसे अपने शरीरकी बारबार प्रतिलेखना करते हुए गमन करना, सामनेसे आते हुए मनुष्योंसे न टकराते हुए गमन करना, दुष्ट गाय, दुष्ट बैल, कुत्ता आदिसे चतुरतापूर्वक बचते हुए गमन करना, भुस, तुष, मसी, गीला गोबर, तृणसमूह, जल, पाषाण और लकड़ीके तख्तसे बचकर गमन करना, चोरी और कलहसे दूर रहना और पुलपर न चढ़ना । ये सव करते हुए गमन करना ईर्यासमिति है ।।११८५।। आगे भाषासमितिका कथन करते हैं गा०-वचनके चार प्रकार हैं-सत्य, असत्य, सत्यसहित असत्य और असत्यमृषा । सज्जनोंके हितकारी वचनको सत्य कहते हैं। जो वचन न सत्य होता है और न असत्य उसे असत्यमृषा कहते हैं। इस प्रकार सत्य और असत्यमृषा वचनको बोलना तथा असत्य, कठोरता, चुगली आदि दोषोंसे रहित और अनवद्य अर्थात् जिससे पापका आस्रव न हो ऐसा वचन सूत्रानुसार बोलनेवालेके शुद्ध भाषासमिति होती है ॥११८६।। सत्यवचनके भेद कहते हैं गा०-जनपद सत्य, सम्मति सत्य, स्थापना सत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, सम्भावना सत्य, व्यवहार सत्य, भाव सत्य और उपमा सत्य इस प्रकार सत्यवचनके दस भेद हैं । टो०-विभिन्न जनपदोंमें जो उस उस जनपदके संकेतके अनुसार प्रचलित वाणी है वह १. यदलो-अ० २. अनूढ़-अ० । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६०१ तीति गज इत्येवमादिका अवयवार्थानुगमाभावेऽपि विवक्षितार्थप्रवृत्तिनिमित्तभूता । सम्मदिशब्देन संस्थानाम्युपगम उच्यते । गजेन्द्री नरेन्द्र इत्यादिकाः शब्दाः शुभलक्षणयोगात् केषाश्चित् स्वतो लक्षणत्वा'नामीश्वरत्वेनाम्युपगममाश्रित्य क्वचिद्गजे मानवे वा प्रयुज्यमानाः सम्मतिसत्यशब्देनोच्यन्ते । अहंन्निन्द्रः स्कन्दः इत्येवमादयः सद्भावासद्भावस्थापनाविषया स्थापनासत्य । अरिहननं, रजोहननं, इन्दनं इत्येवमादीनां क्रियाणां तत्राभावाव्यलीकता नाशङ्कनीया आकारमात्र परमार्थत्वात्सर्वभावानां । तस्य च स्थापनायां वस्त्वास्तित्वाद् बुद्धिपरिग्रहेण वा सद्भावात् । इन्द्रादिसंज्ञा स्वप्रवृत्तिनिमित्तजातिगुणक्रियाद्रव्यनिरपेक्षा तच्छब्दाभिधेयसम्बन्धपरिणतिमात्रेण वस्तुनः प्रवृत्ता नामसत्यं । रूपग्रहणं उपलक्षणं प्रवृत्तिनिमित्तानां नीलमुत्पलं, धवलो हि मृगलाञ्छन इत्येवमादिकं रूपसत्यं । सम्बन्ध्यन्तरापेक्षाभिव्यंग्यं च वस्तुस्वरूपालम्बनं दी? ह्रस्व इत्येवमादिकं प्रतीत्यसत्यं । वस्तुनि तथाऽप्रवृत्तेऽपि तथाभूतकार्ययोग्यतादर्शनात् सम्भावनया वृत्तं सम्भावनासत्यं । अपि दो| समुद्रं तरेत्, शिरसा पर्वतं भिन्द्यात् इत्यादि । वर्तमानकाले स परिणामो यद्यपि नास्ति तथाप्यतीतानागत जनपद सत्य है । जैसे गमन करे वह गाय है गर्जन करे वह गज-हाथी है । यद्यपि गमनरूप और गर्जनरूप अर्थ नहीं होनेपर भी इन अर्थोंकी प्रवृत्तिमें निमित्तभूत वाणी जनपद सत्य है। अर्थात् जैसे गाय और गजशब्द गमन और गर्जन अर्थको लेकर निष्पन्न हुए हैं और उनका संकेत गाय और गजमें किया गया है । गाय बैठी हो तब भी उसे गाय कहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक देशकी भाषामें शब्द जनपद सत्य हैं। सम्मति शब्दसे आकार विशेषकी स्वीकृति कहो जाती है। जैसे गजेन्द्र नरेन्द्र इत्यादि शब्द शुभलक्षणके योगसे व्यवहृत होते हैं। किन्हीं में स्वयं शुभलक्षण पाये जानेसे उन्हें इन्द्र या ईश्वरके रूपमें स्वीकार करके किसी गजको गजेन्द्र या मनुष्यको सुरेन्द्र कहना सम्मति सत्य है । किसी तदाकार या अतदाकार वस्तुमें अर्हन्त, इन्द्र या स्कन्दकी स्थापना करके उसे अर्हन्त आदि कहना स्थापना सत्य है। मूर्तिमें स्थापित अर्हन्त या इन्द्रमें अर्हन्तशब्दका अर्थ अरि-कर्मशत्रुका हनन करना या कर्मरजका हनन करना और इन्द्र शब्दका अर्थ इन्दन क्रिया नहीं पाई जाती, इसलिए उसमें असत्यपनेकी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सभी पदार्थ आकारमात्रमें परमार्थ माने जाते हैं। और वह आकार तदाकार स्थापनामें वस्तुरूपसे रहता है अथवा अतदाकार स्थापनामें उसमें उस प्रकारकी बुद्धि कर ली जाती है। ___ इन्द्रादि नामोंकी प्रवृत्तिमें निमित्त जाति, गुण, क्रिया और द्रव्यकी अपेक्षा न करके जो उस शब्दका अपने वाच्यार्थके साथ सम्बन्ध है केवल उसी दृष्टिसे रखा वस्तुका इन्द्रादि नाम नामसत्य है। रूपका ग्रहण शब्दको प्रवृत्तिके निमित्तोंका उपलक्षण है। जैसे कमलका नीला रूप देखकर नीलकमल कहना या चन्द्रमा सफेद कहना रूप सत्य है। अन्य वस्तुके सम्बन्धसे ब्यक्त होनेवाला वस्तुका स्वरूप प्रतीत्य सत्य है जैसे किसीको लम्बा या ठिगना कहना। वस्तुमें वैसा नहीं होने पर भी उस प्रकारके कार्यकी योग्यता देखकर जो संभावना मूलक वचन है वह संभावना सत्य है। जैसे कहना अमुक व्यक्ति हाथोंसे समुद्र पार कर सकता है या सिरसे पर्वत तोड़ सकता है । इत्यादि । यद्यपि वर्तमान कालमें वस्तुमें वह परिणाम नहीं है तथापि १. णत्वमो-आ० । णत्वादी-मु० । णावामी-मूलारा० । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ भगवतो आराधना परिणामा' इदमेव द्रव्यमिति कृत्वा प्रवृत्तानि वचांसि ओदनं पच, कटं कुर्वित्येवमादीनि व्यवहारसत्यं । अहिंसालक्षणो भावः पाल्यते येन वचसा तद्भावसत्यं निरीक्ष्य स्वप्रयताचारो भवेत्येवमादिकं । पल्योपमसागरोपमादिकमुपमा सत्यम् ॥११८७॥ मृषादिवचनत्रयलक्षणं कथयन्ति तन्विवरीदं मोसं तं उभयं जत्थ सच्चमोसं तं । तग्विवरीया भासा असच्चमोसा हवे दिट्ठा ॥११८८।। 'तम्विवरी' सत्यविपरीतं । 'मोसं' मृषा । 'असदभिधानमनृतं' [त० सू० ७१] इति वचनात् । मिथ्याज्ञानमिथ्यादर्शनयोरसंयमस्य वा निमित्तं वचनमसदभिधानं अप्रशस्तं तत्सत्यविपरीतं । 'तं उभयं' तत्सत्यमन। च उभयं । 'जत्थ' यस्मिन् वाक्ये । 'तं तद्वाक्यं । 'सच्चमोसं' सत्यमषेत्युच्यते । 'तन्विवरीदा भासा' सत्यादनृतान्मिश्राच्च पृथग्भूता । 'भासा' भाषा वचनं 'असच्चमोसा' असत्यमृषेति । 'हवे' भवेत् । “दिहा' दृष्टा पूर्वागमेषु । एकान्तेन न सत्या नापि मृषा नोभयमिश्रा किंतु जात्यन्तरं यथा वस्तु नैकान्तेन नित्यं नापि अनित्यं नापि सर्वथा एकान्तयोः समुच्चयं किंतु कथंचिद्रूपान्नित्यानित्यात्मकं । एवमियं भारती ॥११८८।। सा नवप्रकारा तस्याश्च भेदा इयन्त इति गाथाद्वयेनाचष्टे आमंतणि आणवणी जायणि संपुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥११८९॥ अतीत और अनागत परिणाम रूप यही द्रव्य है ऐसा मानकर किया गया वचन व्यवहार सत्य है जैसे भात पकाओ या चटाई बुनो। ये दोनों परिणाम वर्तमानमें नहीं हैं क्योंकि चावल पकने पर भात बनेगा और बुनने पर चटाई होगी। फिर भी अनागत परिणामकी अपेक्षा इनका व्यवहार होता है। जिस वचनके द्वारा अहिंसा रूप भाव पाला जाता है वह वचन भाव सत्य है। जैसे देखकर सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करो आदि । पल्योपम, सागरोपम आदिका जो कथन आगममें कहा है वह उपमा सत्य है ।।११८७।। असत्य आदि तीन वचनोंका लक्षण कहते हैं गा०-टी.-सत्यसे विपरीत वचन असत्य है। तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है 'असत् कहना झूठ है।' जो वचन मिथ्याज्ञानमें, मिथ्याश्रद्धानमें और असंयममें निमित्त होता है वह वचन असत् कथन रूप होनेसे अप्रशस्त है । अतः सत्यसे विपरीत है। जो वचन सत्य और असत्य दोनों रूप होता है वह वचन सत्यमषा है । जो वचन सत्य, असत्य और सत्य असत्यसे विपरीत होता है उसे पूर्व आगमोंमें असत्यमृषा कहा है । वह वचन न तो एकान्तसे सत्य होता है न एकान्तसे असत्य होता है और न सत्यासत्य होता है किन्तु जात्यन्तर होता है। जैसे वस्तु न तो एकान्तसे नित्य है, न अनित्य है और न सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य है, किन्तु कथंचित् नित्यानित्य है। उसी प्रकार यह असत्यमृषा वचन भी होता है ॥११८८॥ उस असत्यमृता वचनके नौ भेद दो गाथाओंसे कहते हैं१. मान्प्रति इद-मु०। भिधेयांग-आ० मु०। २. दा यत इति-प० । दा य इति-आ० । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६०३ 'आमंतणी' यया वाचा परोऽभिमुखीक्रियते सा आमन्त्रणी। हे देवदत्त इत्यादि । अगृहीतसंकेतं नाभिमुखी करोति इति न सत्यैकान्तेन गृहीतमभिमुखी करोति तेन न मृषा गृहीतागृहीतसंकेतयोः प्रतीतिनिमित्तमनिमित्तं चेति यात्मकता । स्वाध्यायं कुरुत, विरमतासंयमात् इत्यादिका अनुशासनवाणी आणवणी । चोदितायाः क्रियायाः करणमकरणं वापेक्ष्य नैकान्तन सत्या न मषैव वा। 'जायणी' ज्ञानोपकरणं पिच्छादिकं वा भवद्भिर्दातव्यं इत्यादिका याचनी । दातुरपेक्षया पूर्ववदुभयरूपा । निरोध' वेदनास्ति भवतां न वेति प्रश्नवाक् 'संपुच्छणो' । यद्यस्ति सत्या न चेदितरा इति । वेदनाभावाभावमपेक्ष्य प्रवृत्तेरुभयरूपता । 'पण्णवणी' नाम धर्मकथा । सा बहू न्निर्दिश्य प्रवृत्ता कैश्चिन्मनसि करणमितरैरकरणं चापेक्ष्य द्विरूपा। 'पच्चक्खाणी' नाम केनचिद्गुरुमननुज्ञाप्य इदं क्षीरादिकं इयन्तं कालं मया प्रत्याख्यातं इत्युक्त कार्यान्तरमुद्दिश्य तत्कुर्वित्युदितं गुरुणा प्रत्याख्यानावधिकालो न पूर्ण इति नैकान्ततः सत्यता गुरुवचनात्प्रवृत्तो न दोषायेति न मृषकान्तः । 'इच्छानुलोमा य' ज्वरितेन पुष्टं घृतशर्करामिधं क्षीरं न शोभनमिति । यदि परो ब्रूयात् शोभनमिति माधुर्यादि गा०-आमन्त्रणी, आणवणी, याचनी, संपुच्छणी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी और इच्छानुलोमा। टी०-जिस वचनसे दूसरेको बुलाया जाता है वह आमंत्रणी भाषा है। जैसे हे देवदत्त ! यह वचन जिसने संकेत ग्रहण नहीं किया उसे बुलाने वालेके अभिमृख नहीं करता अर्थात् वह बुलाने पर नहीं आता । इसलिए यह वचन सत्य भी नहीं है और जिसने सर्वथा संकेत ग्रहण किया है उसे अभिमुख करता है इसलिए असत्य भी नहीं है। इस तरह यह वचन गृहीत संकेत वालेको तो प्रतीति कराने में निमित्त होता है किन्तु जिसने संकेत ग्रहण नहीं किया उसको प्रतीति कराने में निमित्त नहीं होनेसे दो रूप है। 'स्वाध्याय करो, असंयमसे विरत होओ,' इत्यादि अनुशासन वचन आणवणी है। जो काम करनेकी प्रेरणा की गई है वह करने या करनेकी अपेक्षा यह एकान्तसे सत्य है और न एकान्तसे असत्य है। आप मुझे ज्ञानके उपकरण अथवा पीछी आदि प्रदान करें, इत्यादि वचन याचनी भाषा है। यह भी दाताकी अपेक्षा पहलेकी तरह न तो सर्वथा सत्य है और न सर्वथा असत्य है क्योंकि माँगने पर दाता दे भी सकता है और नहीं भी दे सकता। आपकी वेदना-कष्ट रुका या नहीं? या निरोध-जेलमें आपको कष्ट है या नहीं? इस प्रकार पूछना संपृच्छनी भाषा है। यदि वेदना है तो सत्य है, नहीं है तो मिथ्या है । इस प्रकार वेदनाके भाव और अभावकी अपेक्षासे प्रवृत्त होनेसे यह वचन उभयरूप है। धर्मकथाको पण्णवणी या प्रज्ञापनी कहते हैं। यह बहुतसे श्रोताओंको लक्ष करके होती है अतः कुछ तो अपने मनमें उसका पालन करनेका विचार करते हैं और कुछ नहीं करते। इस अपेक्षा यह भी उभयरूप है। प्रत्याख्यानी भाषा इस प्रकार हैं-किसीने गुरुसे निवेदन किये विना यह दूध आदि मैंने इतने कालतक त्यागा' ऐसा नियम किया। किसी अन्य कार्यको लक्ष करके गुरुने कहा ऐसा करो। उसके त्याग करनेकी मर्यादाका काल पूरा नहीं हुआ, इसलिए उसका प्रत्याख्यान सर्वथा सत्य नहीं है और गरुकी आज्ञासे उसने त्यागी हई व इसलिए दोष भी न होनेसे सर्वथा असत्य भी नहीं हैं। इच्छानुलोमा भाषा इस प्रकार है-किसी ज्वरके रोगीने पूछा-घी और शक्कर मिला १. धो वेदनाया अस्ति-आ० । निरोधो वेदनास्ति-ज० २. श्य तद्गुरुहितं-ज० श्य तरुहिवंगु - अ० । श्य तद्गहितं ग़-आ० । ३. कालेन पूर्व इति-अ । कालो न पूर्व इति-ज। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ भगवती आराधना प्रशस्यगुणसद्भावं ज्वरवृद्धिनिमित्ततां चापेक्ष्य न शोभनमिति वचो मृषकान्ततो नापि सत्यमेवेति द्वयात्मकता ॥११८९॥ संसयवयणी य तहा असच्चमोसा य अट्ठमी भासा । णवमी अणक्खरगदा असच्चमोसा हवदि णेया ॥११९०।। 'संसयवयणी' किमयं स्थाणुरुत पुरुष इत्यादिका द्वयोरेकस्य सद्भावमितरस्याभावं चापेक्ष्य द्विरूपता। 'अणक्खरगदा' अङ्गलिस्फोटादिध्वनिः कृताकृतसंकेतपुरुषापेक्षया प्रतीतिनिमित्ततामनिमित्ततां च प्रतिपद्यते इत्युभयरूपा ॥११९०॥ उग्गमउप्पायणएसणाहिं पिंडमुवघि सेज्जं च । सोधितस्स य मुणिणो विसुज्झए एसणासमिदी ॥११९१।। 'उग्गमउप्पादणएसणाहि' उद्गमोत्पादनेषणादोषरहितं भक्तमुपकरणं वसति च गृह्णत एषणासमितिर्भवतीति सूत्रार्थः । दशवकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यन्ते ॥११९१॥ आदाननिक्षेप्रणसमितिनिरूपणा गाथा-- सहसाणाभोगिददुप्पमज्जिय अपच्चवेसणा दोसो । परिहरमाणस्स हवे समिदी आदाणणिक्खेवो ॥११९२॥ 'सहसणाभोगिव' आलोकनप्रमार्जने कृत्वा आदान निक्षेप इत्येको भङ्गः। अनालोक्य प्रमार्जनं कृत्वा दूध उत्तम नहीं है ? यदि दूसरा कहे कि माधुर्य आदि प्रशस्त गुणोंकी अपेक्षा तो उत्तम है किन्तु ज्वरको बढ़ानेवाला होनेसे उत्तम नहीं है तो इस प्रकारके वचन न सर्वथा असत्य हैं और न सर्वथा सत्य हैं किन्त दोनों रूप होनेसे उभयात्मक हैं। यहाँ उभयात्मकसे इन वच असत्यरूप नहीं समझना चाहिए। किन्तु सत्य भी नहीं और असत्य भी नहीं अर्थात् अनुभयरूप समझना चाहिए ॥११८९|| गा-आठवीं असत्यमृषा भाषा संशय बचनो है। जैसे यह स्थाणु है या पुरुष । दोनोंमेंसे एकके सद्भाव और दुसरेके अभावकी अपेक्षा यह वचन उभयरूप है। और नौवीं असत्यमषा भाषा अनक्षरात्मक भाषा है। जैसे अंगुलि चटकाने आदिका शब्द । जिस पुरुषने संकेत ग्रहण किया है उसे तो ध्वनिसे प्रतीति होती है दूसरेको नहीं होती। इस तरह यह वचन उभयरूप है ॥११९०॥ अब एषणा समितिका कथन करते हैं या०-उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित भोजन, उपकरण और वसतिको ग्रहण करनेवाले मुनिकी एषणा समिति निर्मल होती है ॥११९१।।। आदाननिक्षेपण समितिका कथन करते हैंगा०-ट्री०-विना देखे और विना प्रमार्जन किये पुस्तक आदिका ग्रहण करना या रखना Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ६०५ आदानं निक्षेपो वेति द्वितीयो भङ्गः । आलोक्य दुःप्रमृष्टं इति तृतीयः । आलोकितं प्रमृष्टं च न पुनरालोकितं शुद्धं न शुद्धं वेति चतुर्थो भङ्गः । एतद्दोषचतुष्टयं परिहरतो भवति आदाननिक्षेपणसमितिः ॥११९२॥ एदेण चेव पदिट्ठावणसमिदीवि वणिया होदि । वोसरणिज्जं दव्वं थंडिल्ले वोसरितस्स ||११९३।। 'एदेण चेव' आदाननिक्ष पविषययत्नकथनेन । 'पदिट्ठावणसमिदीवि वण्णिदा होदि' प्रतिष्ठापनसमितिवणिता भवति । 'वोसरणिज्ज' परित्यक्तव्यं मूत्रपुरीषादिकं मलं । 'थंडिल्ले वोसरितस्स' स्थंडिले निर्जन्तुके, निश्च्छिद्रे, समे व्युत्सृजतः ॥११९३॥ एदाहिं सदा जुत्तो समिदीहिं जगम्मि विहरमाणो हु ।' हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीवणिकायाउले साहू ॥११९४॥ ‘एदाहिं समिदीहि' एताभिः । 'सदा जुत्तो' सदा युक्तः । 'जगम्मि विहरमाणो दु' जगति विचरन्नपि । कीदृशौ ? 'जीवणिकायाउले' षड्जीवनिकायाकीर्णे । “हिंसादोहिं' हिंसादिभिः । 'ण लिप्पदि' न लिप्यते साधुः । आदिग्रहणेन परितापनं, संघट्टनं, अङ्गन्यूनताकरणादिपरिग्रहः । समितिषु प्रवर्तमानः प्रमादरहितः । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसेत्युच्यते'। हिंसादिसहितानि कर्माणि हिंसादिशब्देनोच्यन्ते । कार्य कारणशब्दप्रवृत्तिः 'प्रतीततरत्वात् ॥११९४।। यद्यपि विवर्जननिमित्तगुणान्वितं तत्र प्रवर्तमानमपि तेन न लिप्यते यथा स्नेहगुणान्वितं तामरसपत्रं सहसा नामक प्रथम दोष है। विना देखे प्रमार्जन करके पुस्तक आदिको ग्रहण करना या रखना अनाभोगित नामक दूसरा दोष है। देखकर भी सभ्य प्रतिलेखना न करके पुस्तक आदिको ग्रहण करना या रखना दुष्प्रमृष्ट नामक तीसरा दोष है। देखा भी और प्रमार्जन भी किया किन्तु यह शुद्ध है या अशुद्ध, यह नहीं देखा यह चतुर्थ अप्रत्यवेक्षण नामक दोष है। इन चारों दोषोंको जो दूर करता है उसके आदान निक्षेपण समिति होती है ।।११९२।। प्रतिष्ठापन समिति कहते हैं गा०-आदान और निक्षेप विषयक सावधानताका कथन करनेसे प्रतिष्ठापन समितिका कथन हो जाता है । त्यागने योग्य मूत्र विष्टा आदिको जन्तुरहित और छिद्ररहित समभूमिमें त्यागना प्रतिष्ठापन समिति है ॥११९३।। गा०-टी०-इन पाँच समितियोंका सदा पालन करनेवाला मुनि छ प्रकारके जीवनिकायोंसे भरे हुए लोकमें गमनागमन आदि करता हुआ भी हिंसा आदिसे लिप्त नहीं होता। 'आदि' शब्दसे छहकायके जीवोंको कष्ट देना, उनका परस्परमें संघटन करना, उनके अंग उपांगोंको छिन्नभिन्न करना आदि पापोंसे लिप्त नहीं होता। समितियोंमें प्रवृत्ति करते हुए मुनि प्रमादसे रहित होता है । और प्रमत्तयोगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहा है। हिंसा आदिसे सहित कर्म हिंसा आदि शब्दसे कहे जाते हैं। क्योंकि कार्यमें कारणशब्दकी प्रवत्ति अति प्रसिद्ध है। आदान निक्षेपमें निमित्त गुणोंसे युक्त मुनि प्रवृत्ति करते हुए भी हिंसा आदि पापसे लिप्त नहीं होता ॥११९४।। जैसे चिक्कणगुणसे युक्त कमल नीलमणिके समान निर्मल जलमें सदा रहते हुए भी १. प्रतीतिमागच्छत् । यदपि-आ० । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना काचनीलनीरनिरन्तरवयपि नाम्बुना लिप्यते । निरन्तरनिचितजीवनिकायाकुलेऽपि जगति सञ्चरन्नपि मुनि लिप्यते' अप्रमत्ततया प्रवृत्तः पञ्चेसु समितिष्विति कथयति-- पउमणिपत्तं व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं । तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो ॥११९५॥ 'पउमणिपत्तं' इत्यनया गाथया-पद्मपत्रं यथा नोदकेन विलिप्यते स्नेहगुणसमन्वितं । तथा कायेसु शरीरेषु प्राणभृतां प्रवर्तमानोऽपि न लिप्यते साधुः समितिभिहेतुभूताभिः ॥११९५ ।। सरवासे वि पडते जह दढकवचो ण विज्झदि सरेहिं । तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो ॥११९६।। 'सरवासे वि पडते' शरवर्षेऽपि पतति सति च रणाङ्गणे यथा दृढकवचो न शरैभिद्यते, यथा समितिभिर्हेतुभूताभिनं लिप्यते कायेषु वर्तमानो मुनिः ॥११९६॥ जत्थेव चरइ बालो परिहारण्हू वि चरइ तत्थेव । बज्झदि पुण सो बालो परिहारण्हू वि मुच्चइ सो ॥११९७।। 'जत्थेव चरइ बालो' यौव क्षेत्रे चरति जीवपरिहारक्रमानभिज्ञः । परिहारहू बि' जीवबाधापरिहारक्रमज्ञोऽपि तत्रैव चरति । तथापि 'बज्झदि सो पुण बालो' बध्यते पुनरसौ ज्ञानबालश्चारिबालश्चासौ । 'परिहारण्हू' परिहारज्ञः । 'मुच्चई' मुच्यत कर्मलेपात् ॥१११७॥ उक्तमर्थमुपसंहरत्युत्तरगाथया तम्हा चेट्ठिदुकामो जइया तइया भवाहि तं समिदो। समिदो हु अण्णमण्णं णादियदि खवेदि पोराणं ॥११९८॥ जलसे लिप्त नहीं होता। पांचों समितियों में अप्रमादीरूपसे प्रवृत्ति करनेवाला मुनि भी निरन्तर जीव निकायोंसे भरे हए जगत में गमनागमन करते हुए पापसे लिप्त नहीं होता। यह कहते हैं गा०-जैसे स्नेह गुणसे युक्त कमलपत्र जलसे लिप्त नहीं होता। उसी प्रकार प्राणियोंके शरीरोंके मध्यमेंसे गमनागमन करते हुए भी साधु समितिका पालन करनेसे पापसे लिप्त नहीं होता ॥११९५॥ गा०-जैसे दृढ कवचसे युक्त योद्धा युद्धभूमिमें बाणोंकी वर्षा होते हुए भी बाणोंसे नहीं छिदता। उसी प्रकार षटकायके जीवोंके मध्यमें विचरण करता हुआ भी समितियोंके कारण हिंसा आदिसे लिप्त नहीं होता ॥११९६॥ गा०-जीवोंकी हिंसासे बचनेके उपायोंको न जाननेवाला जिस क्षेत्रमें विचरण करता है, जीवोंकी हिंसासे बचनेके उपायोंको जाननेवाला भी उसी क्षेत्रमें विचरण करता है । तथापि वह ज्ञान और चारित्रमें बालकके समान अज्ञ तो पापसे बद्ध होता है किन्तु उपायोंको जाननेवाला पापसे लिप्त नहीं होता बल्कि उससे मुक्त होता है ॥११९७।। आगे उक्त कथनका उपसंहार करते हैं१. प्यते अथ प्रमत्ततया प्रमत्तः पं-आ० ज० । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६०७ यस्मात्समितिषु प्रवर्तमानो न बध्यते, पापेन मुच्यते । असमितस्तु महता बध्यते कर्मसमूहेन 'तम्हा' तस्मात् । 'चेट्टिदुकामो' गमनभाषणाद्यभिलाषी । 'जइया तइया' यदा तदा। 'तं' भवान् 'समिदो भवाहि समितिपरो भवेति निर्यापकसूरिराह क्षपकं । 'समिदो खु' समितः सम्यक्प्रवृत्तः ईर्यादिषु । 'अण्णमण्णं कर्म' अन्यत् अन्यत् । प्रत्यग्रं । 'णादियवि' नैवादत्ते । 'स्ववेदि पोराणं' प्राक्तनं च कर्म क्षपयति निर्जरति ॥११९८॥ एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरिनं । रक्खंति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदाओ ॥११९९।। 'एदाओ अठ्ठपवयणमादागो' एता अष्टप्रवचनमातृकाः 'पयदाओ' प्रयताः । 'गाणदंसणचरित्तं रक्वंति' समीचोनज्ञानदर्शनचारित्राणि पालयन्ति सदा मुनेः । 'मादा पुत्तं व जधा' जननी पुत्रं यथा । प्रयता माता पुत्रं पालयत्यपायस्थानेभ्यः ॥११९९॥ . वतभावनानिरूपणायोत्तरप्रबन्धः । त्रयोदशा.वधं चारित्रं अखण्डमाराधयतश्चारित्राराधना। तत्र व्रतानां स्थैर्य सम्पादयित् भावना एकैकस्य पञ्च पञ्चाभिहितास्तत्रेमा अहिंसावतभावना इति बोधयति । एषणासमितिनिरूप्यते-- एसणणिक्खेवादाणिरियासमिदी तहा मणोगुत्ती । आलोयभोयणं वि य अहिंसाए भावणा होति ॥१२००।। 'एसणणिक्खेवादाणिरियासमिदी' एसणसमिदी एषणासमितिरादाननिक्षेपणासमितिः, ईर्यासमितिस्तथा मनोगुप्तिः । 'आलोयभोजणं च' आलोकभोजनं च । 'अहिंसाए' अहिंसावतस्य । 'भावणा' भावनाः । 'होति' भवन्ति । भिक्षाकालः, बुभुक्षाकालोऽवग्रहकालश्चेति कालत्रयं ज्ञातव्यं । ग्रामनगरादिषु इयता कालेन आहार गा०-टी०-यतः समितियोंका पालक पापसे लिप्त नहीं होता किन्तु उससे छूटता है और समितिका पालन न करनेवाला महान् कर्मसमूहसे बँधता है अतः जब तुम गमन करना या बोलना चाहो तो समितिमें तत्पर रहो। ऐसा निर्यापकाचार्य क्षपकसे कहते हैं। क्योंकि ईर्या आदिमें सम्यक् प्रवृत्ति करनेवाला नवीन-नवीन कर्मो का बन्ध नहीं करता और पूर्वमें बाँधे कर्मो की निर्जरा करता है ॥११९८।। गा०-जैसे सावधान माता पुत्रकी अनिष्टोंसे रक्षा करके उसका पालन करती है। वैसे करूपसे पालित ये आठ प्रवचन मातायें मुनिके सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की रक्षा करती हैं ॥११९९॥ आगे व्रतोंकी भावनाओंका कथन करते हैं । जो तेरह प्रकारके चारित्रकी निर्दोष आराधना करता है उसके चारित्राराधना होती है। उनमेंसे व्रतोंको स्थिर करनेके लिए एक-एक व्रतकी पांच-पाँच भावना कही हैं। उनमेंसे अहिंसाव्रतकी भावना कहते हैं ___ गा०-टी-एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति, ईयासमिति, मनोगुप्ति और आलोक भोजन ये पाँच अहिंसाव्रतकी भावना हैं। उनमेंसे एषणा समिति कहते हैं-भिक्षाकाल, बुभुक्षाकाल और अवग्रहकाल ये तीन काल जानना चाहिए । अमुक मासोंमें ग्राम नगर आदिमें अमुक Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ भगवती आराधना निष्पत्तिर्भवति, अमीषु मासेषु, अस्य वा कुलस्य वायं भोजनकाल इच्छायाः प्रमाणादिना भिक्षाकालोऽवगन्तव्यः । क्षुदद्य मम तीव्रा मन्दा वेति स्वशरीरव्यवस्था च परीक्षणीया । अयमवग्रहः पूर्वं गृहीतः एवंभूत आहारो मया न भोक्तव्यः इति । अद्यायमवग्रहो ममेति मीमांसा कार्या । तदनन्तरं पुरतो युगान्तरमात्रभूभागावलोकनरतः अद्रुतं, अविलम्बितं, असंभ्रान्तं व्रजेत् प्रलम्बबाहुरविकृष्टचरणन्यासो निर्विकार ईषदवनतोत्तमाङ्गः अकर्दमेनानुदकेन अत्रसहरितबहुलेन वर्त्मना । दृष्ट्वा तु खरान्, करभान्, बलोबटन्, गजान्स्तुरगान्महिषान्सारमेयान्कलहकारिणो वा मनुष्यान्दूरतः परिहरेत् । पक्षिणो मृगाश्चाहारकालोद्यता वा यथा न बिभ्यति, यथा वा स्वमाहारं मुक्त्वा न व्रजन्ति तथा यायात् । मृदुना प्रतिलेखनेन कृतप्रमार्जनो गच्छेद्यदि निरन्तरासुसमाहितफलादिकं वागतो भवेत् मार्गान्तरमस्ति भिन्नवर्णा वा भूमि प्रविशन्स्तद्वर्णभूभाग एव अङ्गप्रमार्जन कुर्यात् । तुषगोमयभस्मबुसपलालनिचयं, दलोपलफलादिकं च परिहरेत् । निन्द्यमानो न क्रुध्येत्, पूज्यमानोऽपि न तुष्येत् । न गीतनृत्यबहुलं, उछितपताकं वा गृहं प्रविशेत् । तथा मत्तानां गृहं न प्रविशेत् । सुरापण्याङ्गनालोकहितकूलं वा, यज्ञशालां, दानशालां, विवाहगृहं, वार्यमाणानि, रक्ष्यमाणानि: अमक्तानि च गृहाणि परिहरेत । दरिद्रकूलानि उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत् । ज्येष्ठाल्पमध्यानि सममेवाटेत । द्वारमर्गलं कवाट वा नोद्धाटयेत् । बालवत्सं एलकं, शुनो वा नोल्लङ्घयेत् । पुष्पः फल:जैविकीर्णा भूमि वर्जयेत् तदानीमेव अवलिप्तां । भिक्षाचरेपु परेषु लाभार्थिषु स्थितेषु तद्गेहं न प्रविशेत् । तथा कुटुम्बिषु व्यग्रविषण्णदीनमुखेषु च समय भोजन बनता है, अथवा अमुक कुलका या अमुक मुहालका अमुक समय भोजनका है। इस प्रकार इच्छाके प्रमाण आदिसे भिक्षाका काल जानना चाहिए। तथा मेरी भूख आज मन्द है या तीव्र है इस प्रकार अपने शरीरको स्थितिकी परीक्षा करनी चाहिये। मैंने पहले यह नियम लिया था कि इस प्रकारका आहार में नहीं लँगा और आज मेरा यह नियम है इस प्रकार विचार करना चाहिए | उसके पश्चात् आगे केवल चार हाथ प्रमाण जमीन देखते हुए न अधिक शीघ्रतासे, न रुक-रुककर किसी प्रकारके वेगके विना गमन करना चाहिए। गमन करते समय हाथ लटकते हुए हों, चरण निक्षेप अधिक अन्तरालसे न हो, शरीर विकाररहित हो, सिर थोड़ा झुका हुआ हो, मार्गमें कीचड़ और जल न हो तथा त्रसजीवों और हरितकायकी बहुलता न हो। यदि मार्गमें गधे, ऊंट, बैल, हाथी, घोड़े, भैंसे, कुत्ते अथवा कलह करनेवाले मनुष्य हों तो उस मार्गसे दूर हो जाये । पक्षी और खाते पीते हुए मृग भयभीत न हों और अपना आहार छोड़कर न भागें, इस प्रकारसे गमन करे । आवश्यक होनेपर पीछोसे अपने शरीरकी प्रतिलेखना करे । यदि मार्गमें आगे निरन्तर इधर उधर फलादि पड़े हों, या मार्ग बदलता हो या भिन्न वर्णवाली भूमिमें प्रवेश करना हो तो उस वर्णवाले भूमिभागमें ही पीछीसे अपने शरीरको साफ कर लेना चाहिये । तुष, गोबर, राख, भुस, और घासके ढेरसे तथा पत्ते, फल, पत्थर आदिसे बचते हुए चलना चाहिये, इनपर पर नहीं पड़ना चाहिये। कोई निन्दा करे तो क्रोध न करे और पूजा करे तो प्रसन्न न हो । जिस घरमें गाना नाचना होता हो, झण्डियाँ लगी हों उस घरमें न जावे । तथा मतवालोंके घरमें न जावे। शराबी, वेश्या, लोकमें निन्दित कुल, यज्ञशाला, दानशाला, विवाहवाला घर तथा जिन घरोंमें जानेकी मनाई हो, आगे रक्षक खड़ा हो, सब कोई न जा सकता हो ऐसे घरोंमें नहीं जाये । दरिद्रकुलोंमें और आचारहीन सम्पन्नकुलोंमें भी प्रवेश न करे। बड़े छोटे और मध्यम गृहोंमें एक साथ ही भ्रमण करे । द्वारपर यदि सांकल लगी हो या कपाट बन्द हों तो उन्हें खोलें नहीं। बालक, बछड़ा, मेढ़ा और कुत्तेको लाँघकर न जावे। जिस भूमिमें पुष्प, फल और बीज फैले हों उसपरसे न जावे । तत्कालकी लिपी भूमिपर न जावे। जिस घरपर अन्य भिक्षार्थी Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ विजयोदया टीका सत्सु नो तिष्ठेत् । भिक्षाचर भिक्षामार्गणभूमिमतिक्रम्य न गच्छेत् । याञ्चामव्यक्तस्वनं वा स्वागमननिवेदनाथं न कुर्यात् । विद्युदिव स्वां तनुं च दर्शयेत् कोऽमलभिक्षां दास्यतीति अभिसंधि न कुर्यात् । रहस्यगृहं, वनगह, कदलीलतागुल्मगृह, नाट्यगान्धर्वशालाश्च अभिनन्द्यमानोऽपि न प्रविशेत । बहजनप्रचारे प्राणिरहिते अशुच्यपरोपरोधवजिते, अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत् । समे विच्छिद्रे, भूभागे चतुरङ्गुलपादान्तरो निश्चल: कुड्यस्तम्भादिकमनवलम्ब्य तिष्ठेत् । छिद्रद्वारं कवाटं, प्राकारं वा न पश्येत् चोर इव । दातुरागमनमार्ग अवस्थानदेशं, कडुच्छकभाजनादिकं च शोधयेत् । स्तनं प्रयच्छन्त्या, गभिण्या वा दीयमानं न गृह्णीयात् । रोगिणा, अतिवृद्धेन, बालेनोन्मत्तेन, पिशाचेन, मुग्धेनान्धेन, मूकेन, दुर्बलेन, भीतेन, शङ्कितेन, अत्यासन्नेन, दूरेण, लज्जाव्यावृतमुख्या, आवृतमुख्या, उपानदुपरिन्यस्तपादेन वा जनेनोन्नतदेशावस्थितेन वा दीयमानं न गृह्णीयात् । न खण्डेन भिन्नेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं कपालोच्छिष्टभाजने पद्मकदलीपत्रादिभाजने निक्षिप्य दीयमानं वा मांसं, मध, नवनीतं, फलं अदारितं, मूलं, पत्रं, साङ्करं, कन्दं च वर्जयेत् । तत्संस्पृष्टानि सिद्धान्यपि विपन्नरूपरसगन्धानि, कथितानि, पुष्पितानि, पुराणानि, जन्तुसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत्, न स्पृशेच्च । उद्गमोत्पादनैषणादोषदुष्टं नाभ्यवहरेत् । नवकोटिपरिशुद्धाहारग्रहणमेषणासमितिः । भिक्षाके लिए खड़े हों उस घरमें प्रवेश न करे। जिस घरके कुटुम्बी घबराये हों, उनके मुखपर विषाद और दोनता हो वहाँ न ठहरे। भिक्षार्थियोंके लिए भिक्षा मांगनेकी जो भूमि हो, उस भूमिसे आगे न जावे। अपना आगमन बतलानेके लिए याचना या अव्यक्त शब्द न करे। बिजलीकी तरह अपना शरीरमात्र दिखला दे। कौन मुझे निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा भाव न करे । एकान्त घरमें, उद्यान घरमें, केले लता और झाड़ियोंसे बने घरमें, नाट्यशाला और गायनशालामें आदरपूर्वक आतिथ्य पानेपर भी प्रवेश न करे। जहाँ बहुतसे मनुष्योंका आना जाना हो, जीव हित, अपवित्रता रहित. दसरेके द्वारा रोक-टोकसे रहित तथा जाने आनेके मार्गसे रहित स्थानमें गृहस्थोंकी प्रार्थनासे ठहरे। सम और छिद्ररहित जमीनपर दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रखकर निश्चल खड़ा हो और दीवार स्तम्भ आदिका सहारा न ले। चोरकी तरह द्वारमें लगे कपाटोंके छिद्र अथवा चार दीवारीके छिद्रमेंसे न देखे । दाताके आनेके मार्ग, उसके खड़े होनेके स्थान और करछुल आदि भाजनोंकी शुद्धताकी ओर ध्यान रखे। जो स्त्री बालकको दूध पिलाती हो या भिणी हो, उसके द्वारा दिये गये आहारको ग्रहण न करे। रोगी, अतिवृद्ध, बालक, पागल, पिशाच, मूढ, अन्धा, गूंगा, दुर्बल, डरपोक, शंकालु, अति निकटवर्ती, दूरवर्ती मनुष्यके द्वारा, जिसने लज्जासे अपना मुख फेर लिया या मुखपर घूघट डाला है ऐसी स्त्रीके द्वारा, जिसका पैर जूतेपर रखा है या जो ऊँचे स्थानपर खड़ा है ऐसे व्यक्तियोंके द्वारा दिये गये आहारको ग्रहण नहीं करे । टूटे हुए या फूटे हुए करछुल आदिसे दिया हुआ आहार ग्रहण न करे। तथा कपालमें, जूठे पात्रमें, कमल केले आदिके पत्ते आदिमें रखकर दिया हुआ आहार ग्रहण न करे। मांस, मधु, मक्खन, विना कटा फल, मूल, पत्र, अंकुरित तथा कन्द ग्रहण न करे । इनसे जो भोजन छू गया हो उसे भी ग्रहण न करे। जिस भोजनका रूप गड गया हो, दर्गन्ध आती हो, फफन्द आ गई हो, पुराना हो गया हो और जीवजन्तु जिसमें पड़े हों उसे न तो किसीको देना चाहिये, न स्वयं खाना चाहिये और उसे छूनातक १. तनु न च-अ० ज०। २. न्नेन अदूरे-अ० ज० मु। ३. फलाई हरितं-अ० । ४. चराद-अ० । च दीनाद-ज० । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० भगवती आराधना यनिक्षिप्यते यत्र यदादीयते यतस्तदुभयं प्रतिलेखनायोग्यं न वेति विलोक्य पश्चात्कृतमार्जनं पुनरवलोक्य निक्षिपेद् गृहीयाहा । एषा आदाननिक्षेपणसमितिः । ईर्यासमितिनिरूपितैव तथा मनोगुप्तिश्च । स्फुटतरप्रकाशावलोकितस्य अन्नस्य भोजनमित्यहिंसावतभावनाः पञ्च ॥१२००।। द्वितीयव्रतभावना उच्यन्ते कोघभयलोभहस्सपदिण्णा अणुवीचिभासणं चेव । विदियस्स भावणाओ वदस्स पंचेव ता होति ।।१२०१।। क्रोघभयलोभहास्यानां प्रत्याख्यानानि चतस्रः । 'अणुवीचिभासणं चेव' सूत्रानुसारेण च भाषणं । सत्या, मृषा, सत्यमृषा, असत्यमृषा चेति चतस्रो वाचः । तत्र सत्या असत्यभूषा वा व्यवहरणीया नेतरदद्वयं । क्रोधादीनामप्तत्यवचनकारणानां प्रत्याख्याने असत्यावाक्परिहृता भवति नान्यथा ॥१२०१॥ तृतीयव्रतभावना उच्यन्ते अणणुण्णादग्गहणं असंगबुद्धी अणुण्णवित्ता वि । एदावंतियउग्गहजायणमध उग्गहाणुस्स ॥१२०२।। 'अणणुण्णादग्गहणं' तस्य स्वामिभिरननुज्ञातस्य अग्रहणं ज्ञानोपकरणादेः । 'असंगबुद्धी अणुण्ण वित्ता वि' परानुज्ञां सम्पाद्य गृहीतेऽपि असक्तबुद्धिता । 'एदावंतिय 'उग्गहजायणं' एतत्परिमाणमिदं भवता दातव्यमिति प्रयोजनमात्रपरिग्रहः यावद्याचितो यावद्गृह्णामि इति न बुद्धिः कार्या । 'उग्गहाणुस्स' ग्राह्यवस्तुज्ञस्य इदं नहीं चाहिये। जो भोजन उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषसे दुष्ट है उसे नहीं खाना चाहिये । इस तरह नौ कोटियोंसे शुद्ध आहार ग्रहण करना एषणा समिति हैं। जो वस्तु जिस स्थानपर रखी जाय और जो वस्तु जिस स्थानसे उठाई जाये वे दोनों प्रतिलेखनाके योग्य हैं या नहीं, यह देखनेके पश्चात् पीछीसे उनको झाड़कर पुनः देखे और तब रखे या ग्रहण करे। यह आदान निक्षेपण समिति है। ईर्यासमिति पहले कही है और मनोगुप्ति भी कही है। अति स्पष्ट प्रकाशमें देखे गये अन्नका भोजन आलोकभोजन है । ये पाँच अहिंसावतकी भावना हैं ।।१२००॥ दूसरे सत्यव्रतकी भावना कहते हैं गा०-क्रोधका त्याग, भयका त्याग, लोभका त्याग, हास्यका त्याग और सूत्रके अनुसार बोलना ये पाँच सत्यव्रतकी भावना हैं। वचनके चार भेद हैं-सत्य, असत्य, सत्य असत्य तथा न सत्य न असत्य । इनमेंसे सत्य और अनुभय वचन बोलने योग्य हैं। शेष दो नहीं बोलने चाहिये। क्रोध आदि झूठ बोलने में कारण होते हैं। उनको त्याग देने पर असत्य वचनका त्याग हो जाता है अन्यथा नहीं होता ॥१२०१।।। तीसरे व्रतकी भावना कहते हैं गा०-टो०-ज्ञानोपकरण आदिके स्वामीकी स्वीकृतिके बिना ज्ञानोपकरण आदिको स्वीकार न करना, स्वामीकी स्वीकृति मिलने पर स्वीकार की गई वस्तुमें भी आसक्ति न होना, 'आपको इतना देना चाहिये' इस प्रकार जितनेसे प्रयोजन हो उतना ही ग्रहण करना, जितना माँगा है उतना ही ग्रहण करूँगा ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिये । जो ग्रहण करने योग्य वस्तुको Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ६११ ज्ञानसंयमयोरन्यतरस्य साधनमन्तरेण ज्ञानं चारित्रं वा मम न सिध्यतीति तस्य ग्रहणं नानुपयोगि नो 'याचतश्च ते ॥१२०२॥ वज्जणमणण्णुणादगिहप्पवेसस्स गोयरादीसु । उग्गहजायणमणुवीचिए तहा भावणा तइए ॥१२०३।। 'वज्जणमणणुण्णादगिहप्पवेसस्स' गृहस्वामिभिरननुज्ञातगृहप्रवेशवर्जनं भावना। 'गोयरादीसु' गोचरादिषु इदं वेश्म प्रविश, अत्र वा तिष्ठेति योऽननुज्ञातो देशस्तस्य अप्रवेशनं । 'उग्गहजायणअणुवीचिए' अवग्रहयाचना सूत्रानुसारेण तृतीये भावनाः ॥१२०३॥ महिलालोयणपुव्वरदिसरणसंसत्तवसहिविकहाहिं । पणिदरसेहिं य विरदी भावणा पंच बंभस्स ॥१२०४॥ 'महिलालोअणपुन्वरदिसरणसंसत्तवसदिविकहाहि' स्त्रीणामालोकनं, पूर्वरतस्मरणं, स्त्रीभिराकुला या वसतिः शृङ्गारकथा इत्येतद्विरतयः । 'पणिदरसेहि य विरदो' बलदर्पकरेभ्यो विरतिश्चेति पञ्च व्रतभावना: ॥१२०४॥ अपडिग्गहस्स मणिणो सद्दफरिसरसरूवगंधेसु । रागद्दोसादीणं परिहारो भावणा हुंति ॥१२०५।। ___ 'अपरिग्गहस्स' परिग्रहरहितस्य । 'मुणिणो' मुनेः । सद्दफरिसरसरूवगंधेसु' शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु । मनोज्ञामनोज्ञेषु । 'रागद्दोसादीणं' रागद्वषयोः परिहारो विषयभेदात्पश्चप्रकारभावनाः पञ्चमस्य ।।१०२५।। जानता है कि यह वस्तु ज्ञान और संयममेंसे एककी साधन है इसके बिना मुझे ज्ञान अथवा चारित्रकी सिद्धि नहीं होगी और उसीको ग्रहण करता है, अनुपयोगी वस्तुको ग्रहण नहीं करता। उसीके ये भावना होती है ।।१२०२।। गा०-गोचरी आदिमें गृहस्वामीके द्वारा अनुज्ञा नहीं दिये घरमें प्रवेश न करना अर्थात् इस घरमें प्रवेश करें, अथवा यहाँ ठहरें इस प्रकारसे जहाँ गृहस्वामीकी अनुज्ञा प्राप्त न हो उस देशमें प्रवेश न करे और शास्त्रके अनुसार ग्रहण करने योग्य वस्तुकी याचना करना, ये पांच अदत्तादानविरमणव्रत की भावना हैं ॥१२०३।। ___गा०-स्त्रियोंकी ओर देखना, पूर्व में भोगे हुए भोगोंका स्मरण, स्त्रियोंसे युक्त वसतिका, शृङ्गारकथा और इन्द्रियोंमें मद और बल पैदा करनेवाले रस, इन सबसे विरत होना ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।।१२०४॥ ___ गा०-परिग्रह रहित मुनिका मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धमें राग और द्वेषका त्याग अर्थात् मनोज्ञसे राग और अमनोज्ञसे द्वोष न करना विषयोंके भेदसे पाँच प्रकारको भावना पाँचवें अपरिग्रह व्रत की हैं ।।१२०५।। १. नो याच्यन स्यन्ते-अ० । नो योग्य लभ्यते-जा । ग्रहणं, इत्यस्य अग्रे पाठो नास्ति आ० । ७७ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ भगवती आराधना भाव माहात्म्यं कथयति ण करेदि भावणाभाविदो खु पीडं वदाण सव्वेसि। साधू पासुत्तो समुहदो व किमिदाणि वेदंतो ॥१२०६।। 'ण करेदि खु' न करोत्येव । कः ? 'भावणाभाविदो' भावनाभिर्भावितः । 'पीडं' पीडां । 'वदाणं' व्रतानां । 'सर्वेसि' सर्वेषां । 'साधू' साधुः । 'पासुत्तो' प्रकर्षेण निद्रामुपगतः । 'समुहदो व' समुद्धातं गतो वा । 'किमिदाणि' किमिदानीं। 'वेवितो' चेतयमानः ॥१२०६॥ एदाहिं भावणाहिं हु तम्हा भावेहि अप्पमत्तो तं । अच्छिद्दाणि अखंडाणि ते भविस्संति हु वदाणि ॥१२०७॥ 'एवाहि' एताभिः । 'भावणाहिं' भावनाभिः । 'तम्हा' तस्मात् । 'भावेहि' भावय । 'अप्पमत्तो तं' अप्रमत्तस्त्वं । 'अच्छिद्दाणि' अच्छिद्राणि । नैरन्तर्येण प्रवृत्तानि । 'अखंडानि' सम्पूर्णानि तव भविष्यन्ति व्रतानि ॥१२०७॥ व्रतपरिणामोपघातनिमित्तानि शल्यानि ततस्तद्वर्जनं कार्यमित्याचष्टे. णिस्सल्लस्सेव पुणो महव्वदाइं हवंति सव्वाइं । वदमुवहम्मदि तीहिं दु णिदाणमिच्छत्तमायाहिं ॥१२०८।। "जिस्सल्लस्सेव' शल्यरहितस्यैव । शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरकण्टकादि शरीरादिप्रवेशि तेन तुल्यं यत्प्राणिनो बाधानिमित्तं, अन्तनिविष्टं परिणामजातं तच्छल्यमिह गृहीतं । 'महम्वदाइ" महाव्रतानि भवन्ति । शल्यं कस्यचिदेव व्रतस्योपघातकं, यथा एषणासमित्यभावो अहिंसाव्रतस्येत्याशङ्कां निरस्यति सर्वशब्दो । नन च महत्त्वेन व्रतमवशेष्यं । मिथ्यात्वादिशल्यं अणुव्रतान्यपि हन्त्येव । सत्यं प्रस्तुतत्वान्महाव्रतानामित्थमुक्त। भावनाका माहात्म्य कहते हैं गा०-भावनाओंसे भावित साधु गहरी नींदमें सोता हुआ भी अथवा मूर्छित हुआ भी सब व्रतोंमें दोष नहीं लगाता । तब जागते हुए की तो बात ही क्या है ॥१२०६॥ __गा०-इसलिये हे क्षपक ! तुम प्रमाद त्यागकर इन भावनाओंसे अपनेको भावित करो। इससे तुम्हारे व्रत निरन्तर बने रहेंगे और सम्पूर्ण होंगे ।।१२०७।। ___शल्य व्रतरूप परिणामोंके घातमें निमित्त होते हैं। अतः उनको त्यागना चाहिये, यह कहते हैं गा-टो०-शल्यरहितके ही सब महाव्रत होते हैं। 'शृणाति' अर्थात् जो कष्ट देता है वह शल्य हैं। जैसे शरीर आदिमें घुसनेवाला बाण, काँटा आदि। उनके समान जो अन्त परिणाम प्राणीको कष्ट पहुँचाने में निमित्त है उसे यहाँ शल्य शब्दसे कहा है। जैसे एषणासमितिका अभाव अहिंसा व्रतका घातक है वैसे ही शल्य किसी एक व्रतका घातक है क्या ? इस आशंका को दूर करनेके लिये सर्व शब्दका प्रयोग किया है। शंका-मिथ्यात्व आदि शल्य अणुव्रतोंका भी घात करते हैं । यहाँ उन्हें महाव्रतोंका घातक क्यों कहा? Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६१३ अत्र चोद्यं -- हिंसादिभ्यो विरतिपरिणाममात्राणि व्रतानि । शल्ये मिथ्यात्वादिके सति किं न भवन्ति । येनैवमुच्यते निःशल्यस्यैव महाव्रतानि भवन्ति इति ? एतत्प्रतिविधानायाह-- 'वदमुवहम्मदि' व्रतमुपहन्यते । 'तोहि टु' तिसृभिः । 'णिदाणमिच्छत्तमायाहिं' निदानमिध्यात्वमायाभिः । अल्पाच्तरत्वान्मायाशब्दस्य पूर्वनिपात इति चेन्न—मिथ्यात्वं व्रतविघातं प्रकर्षेण करोतीति प्रधानं ततो मिथ्यात्वं माया चेति द्विपदे द्वन्द्व मिध्यात्वशब्दस्य पूर्वनिपातः पश्वान्निदानशब्देन द्वन्द्वः तस्याल्पाच्तरत्वात्पूर्वनिपातः । सम्यक् चारित्रमिह मोक्षमार्गत्वेन प्रस्तुतं, तच्च नासतोः सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्भवति । सति मिथ्यात्वे विरोधिनि न ते स्तः समोचीनज्ञानदर्शने' । रत्नत्रयत्वान्मुक्तेः अनन्तज्ञानादिकाच्चान्यत्र चित्तप्रणिधानं इदमेतत्फलं स्यादिति निदानं । तच्च सम्यग्दर्शनादिपरम्परया व्रतोपघातकारि । मनसा स्वातिचारनिगूहनलक्षणा माया च व्रतमुपहन्तीति मन्यते ॥ १२०८॥ तत्थं णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्थभोगकदं । तिविधं पि तं णिदाणं परिपंथो सिद्धिमग्गस्स || १२०९ ॥ 'तत्य' तेषु शल्येषु । 'णिदाणं' निदानाख्यं शल्यं । 'तिविधं' त्रिविधं । 'होदि' भवति । 'पसत्यमप्पसत्यभोगकदं' प्रशस्त निदानमप्रशस्त निदानं, भोगनिदानं चेति । 'तिविधं पि तन्निदानं' त्रिप्रकारमपि निदानं । ' परिपंथो' विघ्नः । 'सिद्धिमग्गस्स' रत्नत्रयस्य ।।१२०९ ॥ समाधान- आपका कहना सत्य है किन्तु यहाँ महाव्रतका प्रकरण होनेसे महाव्रतोंका घातक कहा है । शंका - व्रत तो हिंसा आदिसे विरतिरूप परिणाम मात्र हैं । वे मिथ्यात्व आदि शल्यके होने पर क्यों नहीं होते, जिससे यह कहा गया है कि निःशल्यके ही महाव्रत होते हैं ? समाधान - इस शङ्काका निराकरण करनेके लिये कहते हैं-निदान, मिथ्यात्व और माया इन तीनोंके द्वारा व्रतका घात होता है । शंका- माया शब्द अल्प अच्वाला है अतः उसे पहले रखना चाहिये ? समाधान- नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व व्रतका घात प्रकर्ष रूपसे करता है अतः प्रधान है । तब 'मिथ्यात्व और माया' ऐसा द्वन्द्व समास करने पर मिथ्यात्व शब्दका पूर्व निपात होता है । फिर निदान शब्दके साथ द्वन्द्व करने पर निदान शब्दका पूर्व निपात होता है क्योंकि वह अल्प अच्वाला है । यहाँ मोक्षके मार्ग रूपसे सम्यक्चारित्रका कथन है । वह सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके अभाव में नहीं होता । क्योंकि विरोधी मिथ्यात्वके रहते हुए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन नहीं होते । रत्नत्रयरूप अथवा अनन्त ज्ञानादिरूप मुक्तिसे अन्यत्र चित्तका उपयोग लगाना कि इसका यह फल मुझे मिले, निदान है । वह सम्यग्दर्शन आदिकी परम्परासे व्रतका घातक है । तथा मनसे अपने दोषोंको छिपाने रूप माया भी व्रतका घात करती है । विशेषार्थं - निदानसे सम्यग्दर्शन में अतिचार लगता है और व्रतका मूल सम्यग्दर्शन है । तथा निदानसे व्रतोंका घात होता है || १२०८ || गा०—उन शल्यों में निदान नामक शल्यके तीन भेद हैं- प्रशस्त निदान, अप्रशस्त निदान और भोग निदान । तीनों ही प्रकारका निदान मोक्षके मार्ग रत्नत्रयका विरोधी है ।। १२०९ ।। १. र्शनचारित्ररत्न - आ० मु० । २. नानि प-आ० । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ भगवती आराधना प्रशस्तनिदाननिरूपणार्थोत्तरगाथा संजमहेदुं पुरिसत्तसबलविरियसंघदणबुद्धी। सावअबंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं ॥१२१०।। 'संजमहेदु' संयमनिमित्तं । 'पुरिसत्तसत्तबलविरियसंघडणबुद्धी' पुरुषत्वमुत्साहः, बलं शरीरगतं दाढयं, वीर्य वीर्यान्तरायक्षयोपशमजः परिणामः । अस्थिबन्धविषया वजऋषभनाराचसंहननादिः । एतानि पुरुषत्वादोनि संयमसाधनानि मम स्युरिति चित्तप्रणिधानं प्रशस्तनिदानं । 'सावयबंधुकुलादिनिदानं' श्रावकबन्धुनिदानं । 'अदरिद्रकुले, अवन्धुकुले वा उत्पत्ति प्रार्थना प्रशस्तनिदानं ॥१२१०॥ अप्रशस्तनिदानमाचष्टे माणेण जाइकुलरूवमादि आइरियगणधरजिणत्तं । । सोभग्गाणादेयं पत्थंतो अप्पसत्थं तु ।।१२११॥ 'माणेण' मानेन हेतुना । 'जातिकुलरूवमादि' जातिर्मातृवंशः, कुलं पितृवंशः, जातिकुलरूपमात्रस्य सुलभत्वात्प्रशस्तजात्यादिपरिग्रहः । इह 'आइरियगणधरजिणत्तं' आचार्यत्वं, गणधरत्वं, जिनत्वं । 'सोभग्गाणादेज्ज' सौभाग्यं, आज्ञां, आदेयत्वं च । 'पच्छेतो' प्रार्थयतः । 'अप्पसत्थं त' अप्रशस्तमेव निदानं मानकषायदूषितत्वात् ॥१२११॥ प्रशस्त निदानका कथन करते हैं गा०-संयममें निमित्त होनेसे पुरुषत्व, उत्साह, शरीरगत दृढ़ता, वीर्यान्तरायके क्षयोपशम से उत्पन्न वीर्यरूप परिणाम, अस्थियोंके बन्धन विशेष रूप वज्रऋषभनाराच संहनन आदि, ये संयम साधन मुझे प्राप्त हों, इस प्रकार चित्तमें विचार होना प्रशस्त निदान है। तथा मेरा जन्म श्रावक कुलमें हो, ऐसे कुलमें हो जो दरिद्र न हो, बन्धु बान्धव परिवार न हो, ऐसो प्रार्थना प्रशस्त निदान है ॥१२१०॥ विशेषार्थ-एक प्रतिमें दरिद्रकुल तथा एकमें बन्धुकुल पाठ भी मिलता है। दीक्षा लेनेके लिये दरिद्रकुल भी उपयोगी हो सकता है और सम्पन्न घर भी उपयोगी हो सकता है। इसी तरह बन्धु बान्धव परिवारवाला कुल भी उपयोगी हो सकता है और एकाकीपना भी। मनुष्यके मनमें विरक्ति उत्पन्न होने की बात है ॥१२१०॥ अप्रशस्त निदान कहते हैं गा०-मानकषायके वश जाति, कुल, रूप आदि तथा आचार्यपद, गणधरपद, जिनपद, सौभाग्य, आज्ञा और आदेय आदिकी प्राप्तिकी प्रार्थना करना अप्रशस्त निदान है ॥१२११।। टो०-माताके वंशको जाति और पिताके वंशको कुल कहते है। जाति कुल और रूप मात्र तो सुलभ हैं क्योंकि मनुष्य पर्यायमें जन्म लेनेपर ये तीनों अवश्य मिलते हैं। इसलिये यहाँ जाति कुल और रूपसे प्रशंसनीय जाति आदि लेना चाहिये। मान कषायसे दूषित होनेसे यह अप्रशस्त निदान है ।।१२११।। १. दरिद्रकुले-अ० । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६१५ कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पत्थेइ परवधादीयं । जह उग्गसेणघादे कदं णिदाणं वसिडेण ॥१२१२॥ 'कुद्धो वि' क्रुद्धोऽपि । 'अप्पसत्यं' परवधादिकं । 'मरणे' मरणकाले। 'पत्थेवि' प्रार्थयते । 'जधा' यथा 'उग्गसेणघावे' उग्रसेनमरणे । 'कदं णिदाणं' कृतं निदानं 'वसिट्रेण' वसिष्ठेन यतिना ॥१२१२॥ भोगनिदाननिरूपणा देविगमाणुसभोगे णारिस्सरसिद्विसत्थवाहत्तं । केसवचक्कघरत्तं पत्थंते होदि भोगकदं ॥१२१३॥ 'देविगमाणुसभोगे' देवेषु मनुजेषु च भवान्भोगान् । 'पत्थेते' अभिलषति । 'भोगकदं' भोगकृतं निदानं । 'णारिस्तरसिद्धिसत्यवाहत्तं' नारीत्वं, ईश्वरत्वं, श्रेष्ठित्वं, सार्थवाहत्वं च । 'केसवचक्कधरतं' वासुदेवत्वं सकलचक्रवर्तित्वं च वाञ्छति भोगार्थ । भोगनिदानं भवति ॥१२१३॥ संजम सहरारूढो घोरतवपरक्कमो तिगुत्तो वि ।। पगरिज्ज जइ णिदाणं सोवि य वड्ढेइ दीहसंसारं ॥१२१४॥ 'संजमसिहरारूढो' संयमः शिखरमिव दुरारोहत्वादचलत्वाद्वा । एतदुक्तं भवति । प्रकृष्टसंयमोऽपि । 'घोरतवपरकम्मो' घोरे तपसि पराक्रम उत्साहो यस्य सोऽपि दुर्घरतपोऽनुष्ठाय्यपि । 'तिगुत्तो वि' गुप्तित्रयसमन्वितोऽपि । 'पगरिज्ज जइ णिवाणं' निदानं यदि कुर्यात् । “सो विय' व्यावणितगुणोऽपि 'वड्ढेइ' वर्धयति संसारमात्मनः । किमपरस्मिन्निदानकारिणि वाच्यम् ।।१२१४॥ . जो अप्पसुक्खहे, कुणइ णिदाणमविगणियपरमसुहं । सो कागणीए विक्केइ मणिं बहुकोडिसयमोल्लं ।।१२१५॥ गा०-क्रोध कषायके वश होकर भी कोई मरते समय दूसरेका बध करनेकी प्रार्थना करता है । जैसे वशिष्ठ ऋषिने उग्रसेनका घात करनेका निदान किया था ॥१२१२।। विशेषार्थ-वशिष्टतापसने उग्रसेनको मारनेका निदान किया था। इस निदानके फलसे वह मरकर उग्रसेनका पुत्र कंस हुआ। और उसने पिताको जेल में डालकर राज्यपद प्राप्त किया। पीछे कृष्णके द्वारा स्वयं भी मारा गया ॥१२१२।। भोगानिदानका कथन करते हैं गा०-देवों और मनुष्योंमें होनेवाले भोगोंकी अभिलाषा करना तथा भोगोंके लिए नारीपना, ईश्वरपना, श्रेष्ठिपना, सार्थवाहपना, नारायण और सकल चक्रवर्तीपना प्राप्त होनेकी वांछा करना भोगनिदान है ।।१२१३।। गा०-टी०-संयम पर्वतके शिखरके समान हैं क्योंकि जैसे पर्वतका शिखर अचल और दुःखसे चढ़ने योग्य है वैसा संयम भी है। उस संयमपर जो आरूढ है अर्थात् उत्कृष्ट संयमका धारी है, घोर तप करने में उत्साही है अर्थात् दुर्धर तप करता है और तीन गुप्तियोंका धारी है, वह भी यदि निदान करता है तो अपना संसार बढ़ाता है, फिर दूसरे निदान करनेवालेका तो कहना ही क्या है ॥१२१४॥ For Private &Personal use only . Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो आराधना 'जो अप्पसुक्खहेदु' योऽल्पसुखनिमित्तं निदानं करोति परमे मुक्तिसुखे अनादरं कृत्वा । स काकण्या विक्रोणीते मणि बहुकोटिशतमल्यम् ।।१२१५।। सो भिंदइ लोहत्थं णावं भिंदइ मणि च सुत्तत्थं । छारकदे गोसीरं डहदि णिदाणं ख जो कुणदि ।।१२१६॥ 'सो भिदइ' स भिनत्ति कीललोहार्थं नावं अनेकवस्तुभृतां । भिनत्ति रत्नं च सूत्रार्थ । गोशीर्ष चन्दनं दहति भस्मार्थ यो निदानं करोति स्वल्पार्थ । सारविनाशसाधादभेदमाचष्टे-सपकारोपरि कथा यो निदानकारी, तेन नौप्रभृतिकं विनाशितं । अर्थाख्यानकानि वाच्यानि ॥१२१६॥ कोढी संतो लद्ध ण डहइ उच्छु रसायणं एसो । सो सामण्णं णासेइ भोगहेदूं णिदाणेण ।।१२१७।। 'कोढी संतो' कुष्ठी सन् रसायनभूतमिद्धं लब्ध्वा दहति यः समानतां नाशयति सर्वदुखव्याधिविनाशनोद्यतां भोगार्थनिदानेन ॥१२१७।। पुरिसत्तादिणिदाणं पि मोक्खकामा मुणी ण इच्छंति । जं पुरिसत्ताइमओ भवो भवमओ य संसारो ॥१२१८॥ 'पुरिसत्तादिणिदाणंपि' पुरुषत्वादिनिदानमपि मोक्षाभिलाषिणो मुनयो न वाञ्छन्ति । यस्मात्पुरुषत्वादिरूपो भवपर्यायः । भवात्मकश्च संसारः भवपर्यायपरिवर्तस्वरूपत्वात् ॥१२१८॥ दुक्खक्खयकम्मक्खयसमाधिमरणं च बोधिलाभो य । एयं पत्थेयव्वं ण पत्थणीयं तओ अण्णं ॥१२१९।। गा०-जो मुक्तिके उत्कृष्ट सुखका अनादर करके अल्पसुखके लिए निदान करता है वह करोड़ों रुपयोंके मूल्यवाली मणिको एक कौड़ीके बदले बेचता है ।।१२१५।। गा०-जो निदान करता है वह लोहेकी कोलके लिए अनेक वस्तुओंसे भरी नाव कोजो समुद्र में जा रही है तोड़ता है, भस्मके लिए गोशीर्षचन्दनको जलाता है और धागा प्राप्त करनेके लिए मणिनिर्मित हारको तोड़ता है। इस तरह जो निदान करता है वह थोड़ेसे लाभके लिए बहुत हानि करता है। एक सूपकारने अपनी मूर्खतासे अपनी नाव नष्ट कर डाली थी । इनकी कथाएँ ( कथाकोशोंसे ) जानना ।।१२१६|| ___ गा०—जैसे कोई कोढ़ी मनुष्य अपने रोगके लिए रसायनके समान ईखको पाकर उसे जलाकर नष्ट करता है वैसे ही भोगके लिए निदान करके मूर्ख मुनि सर्व दुःख और व्याधियोंका विनाश करनेमें तत्पर मुनि पदको नष्ट करता है ।।१२१७॥ गा०-मोक्षके अभिलाषी मुनिगण 'मैं मरकर पुरुष होऊँ' या मेरे वज्रऋषभनाराच संहनन आदि हो, इस प्रकारका भी निदान नहीं करते। क्योंकि पुरुष आदि पर्याय भवरूप है और भवपर्यायका परिवर्तन स्वरूप होनेसे संसार भवमय है। अर्थात् नाना भवधारण करने रूप ही तो संसार है ।।१२१८॥ १. सूत्रकारोन्परिथा-अ० ज० । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६१७ 'दुक्खक्खय' दुःखानां शारीराणां, आगन्तुकानां स्वाभाविकानां च क्षयो भवतु । तथा कर्मणां तत्कारणभूतानां रत्नत्रयसम्पादनपुरःसरं मरणं, दीक्षाभिमुखो बोधिलाभश्च एतत्प्रार्थनीयं नान्यत् ॥१२१९॥ पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए । आराधयस्स णियमा तदत्थमकदे णिदाणे वि ॥१२२०॥ 'पुरिसत्तादीणि' पुरुषत्वादिकं, संयमलाभश्च भविष्यति परजन्मनि । कस्य ? कृतरत्नत्रयाराधनस्य निश्चयेन । तदर्थमकृतेऽपि निदाने ॥१२२०॥ माणस्स भंजणत्थं चिंतेदव्वो सरीरणिव्वेदो । दोसा माणस्स तहा तहेव संसारणिव्वेदो ॥१२२१॥ 'माणस्स भंजणत्यं' मानभञ्जनार्थ ध्यातव्यः शरीरनिर्वेदः । तथा दोषाश्च मानस्य । तथैव संसारनिर्वेदश्च ध्यातव्य इति क्षपकं निर्यापकसरिः शिक्षयति । शरीरस्य अशुचित्वादिस्वभावचिन्तनतः । कियेतेन . शरीरेणेति शरीरे अनादरः शरीरनिर्वेदः । स कथं मानस्य भञ्जने निमित्तं । स हि शरीरानुरागमेव विहन्ति तत्प्रतिपक्षत्वात् । अत्रोच्यते-मानशब्दः सामान्यवचनोऽपि रूपाभिमानविपयो गृहीतः । स च शरीरनिदेन भज्यते । मानस्य दोषा नीचकुलेषत्पत्तिर्मान्यगणालाभः, सर्वविद्वष्यता, रत्नत्रयाद्यलाभ इत्यादिकाः । संसारस्य: द्रव्यक्षेत्रकालभावभवपरिवर्तनरूपस्य पराङ्मुखता संसारनिर्वेदः । तत्रोपयुक्तस्य अहङ्कारनिमित्तानां विनाशात्, । ____ गा०-हमारे शारीरिक, आगन्तुक और स्वाभाविक दुःखोंका नाश हो। तथा उनके कारणभूत कर्मोका क्षय हो। रत्नत्रयका पालन करते हुए मरण हो और जिनदीक्षाकी ओर अभिमुख करनेवाले ज्ञानका लाभ हो, इतनी ही प्रार्थना करने योग्य है। इनके सिवाय अन्य प्रार्थना करना योग्य नहीं है ॥१२१९।। गा०-जो रत्नत्रयकी आराधना करता है उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्ममें पुरुषत्व आदि का तथा संयमका लाभ निश्चय ही होता है ।।१२२०॥ गा-टी०–निर्यापकाचार्य क्षपकको शिक्षा देता है कि तुम्हें मानकषायका विनाश करनेके लिए शरीरसे निर्वेदका, मानके दोषों का और संसारसे निर्वेदका चिन्तन करना चाहिये। शरीरके अशुचित्व आदि स्वभावका चिन्तन करनेसे 'इस शरीरसे क्या लाभ' इस प्रकार शरीरमें अनादर होता है उसे ही शरीर निर्वेद कहते हैं। शङ्का-शरीरका चिन्तन मानकषायको दूर करनेमें निमित्त कैसे हो सकता है उससे तो शरीर में अनुराग का ही घात होता है क्योंकि शरीर निर्वेद उसका प्रतिपक्षी है ? समाधान-यद्यपि मान शब्द मानसामान्यका वाचक है तथापि यहाँ रूपविषयक अभिमान लिया है। वह शरीरके निर्वेदसे नष्ट होता है। नीच कुलोंमें जन्म, आदरणीय गुणोंका प्राप्त न होना, सबका अपनेसे द्वेष करना, रत्नत्रय आदिका लाभ न होना, ये सब मानकषायसे होनेवाले दोष हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवपरिवर्तन रूप संसारसे विमुख होना संसारनिर्वेद है। संसारनिर्वेदमें उपयोग लगानेसे अहंकारके निमित्तोंका विनाश होता है। क्योंकि १. मेवावहति-आ० मु०। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ भगवती आराधना निन्द्यानां च गुणानां वहूनां असकृत्प्रवृत्तिः अनेकप्राणिलभ्यत्वात् । स्वप्राप्तेभ्यो गुणेभ्योऽतिशयितानां गुणानामन्यरुपलम्भनात् ॥१२२१॥ कुलाभिमाननिरासोपायमाचष्टे णीचो वि होइ उच्चो उच्चो णीचत्तणं पुण उवेइ । जीवाणं खु कुलाई पधियस्स व विस्समंताणं ॥१२२२।। ‘णोचो वि होदि' स्थानमानैश्वर्यादिभिस्तिरोभूतो नीच इत्युच्यते । सोपि 'होदि' भवति । 'उच्चो' तैरेवोन्नतः। स उच्चो अतिशयितस्थानमानादिकोऽपि 'नीयत्तणं' तैय॑नतां । 'पुण उर्वदि' पुनः उपैति । 'जीवानां खु' जीवानां खलु । 'कुलाई' कुलानि । कीदृग्भूतानां ? 'विस्समत्ताणं' विश्रमतां बहूनि कुलानि कुलबहत्वप्रकटनेन कुलानित्यता दर्शिता । अनियतकुलस्य कः कूलगर्वः । 'पथिकरसव' पथिकस्य यथा विधामस्थानं न नियतमस्ति तद्वदेवास्येति भावः ॥१२२२॥ किं च गर्वो ह्यात्मनो वृद्धि परस्य वा हानि वुद्धया संक्षेपते तस्य युक्तोऽहंकारः न चास्य वृद्धिहानी स्त इति कथयति उच्चासु व णीचासु व जोणीसु ण तस्स अस्थि जीवस्स । वड्ढी वा हाणी वा सव्वत्थ वि तित्तिओ चेव ॥१२२३॥ 'उच्चासु व णीचासु व' यत्र स्थित आत्मा शरीरं निष्पादयति तद्योनिशब्देनोच्यते । न तस्य उच्चता नीचता वा तत: किमुच्यते उच्चासु व णीचासु प इति । अत्रोच्यते-योनिशब्देन कुलमेवात्रोच्यते । तेनायमर्थः। भान्ये कुले गहिर्ते वा उत्पन्नस्य न तस्य जीवस्य वृसिर्हानिर्वा सर्वत्र तत्परिमाण एव ज्ञानादिअनेक निन्दनीय गुण, जो अहंकारमें निमित्त होते हैं, अनेक प्राणियों में पाये जाते हैं। तथा अपनेको जो गुण प्राप्त हैं उनसे भी अतिशयशाली गुण दूसरोंको प्राप्त हैं। अतः उनका अभिमान कैसा ? ||१२२१|| कुलका अभिमान दूर करनेका उपाय कहते हैं गा०टी०-स्थान, मान, ऐश्वर्य आदिसे हीन व्यक्तिको नीच कहते हैं। जो स्थान, मान, ऐश्वर्य आदिसे हीन होता है वही नीच हो जाता है। जीवोंके कूल पथिकके विश्राम स्थानकी तरह हैं। जैसे पथिकके विश्राम लेनेका स्थान नियत नहीं है वैसे ही कुल भी नियत नहीं है। तब अनियत कुलका गर्व कैसा ? 'कुलानि' पद बहुवचनान्त होनेसे कुलोंकी बहुतायत प्रकट करता है। और कुलोंकी बहुतायतसे कुलोंकी अनित्यता दिखलाई है ।।१२२२१॥ आगे कहते हैं कि अपनी वृद्धि और दूसरेको हानिकी भावनासे गर्व होता है उसका अहंकार करना युक्त है किन्तु उच्च या नीच कुलमें जन्म लेनेसे आत्माकी हानि वृद्धि न गा०-टी०-शंका-जिसमें रहकर जीव अपने शरीरको रचता है उसे योनि कहते हैं । योनि तो उच्च या नीच होती नहीं। तब 'उच्चासु व नीचासु' क्यों कहा? ___समाधान–यहाँ योनि शब्दसे कुलको ही कहा है । अतः ऐसा अर्थ होता है-मान्य कुलमें अथवा निन्दनीय कुलमें उत्पन्न हुए जीवको वृद्धि या हानि नहीं होती। सर्वत्र जीवका परिमाण १. सुप्राप्येभ्यो-आ० मु०। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६१९ गुणातिशयादेव उत्कृष्टता । निन्दितगुणः कुलीनोऽपि न पूज्यतेतरामन्यैः । अमान्येऽपि कुले सम्भूतो यदि गुणी स्यात् । उक्तं च संसारवासे भ्रमतो हि जंतोर्न चात्र किंचित्कुलमस्ति नित्यं । स एव नीचोत्तममध्यजातीः स्वकर्मवश्यः समुपैति तास्ताः ॥ नृपश्च दासः श्वपचश्च विप्रो दरिद्रवंशश्च समृद्धवंश: । चोराग्निदावाहित याचिता (2) च संजायते कर्मवशात्स एव ॥ को वाधिकारः सुकुलेषु नृणां का वा विहिसान्यकुलप्रसूतौ । कार्योऽधिकारो ननु धमं एव कार्या विहिंसापि च दुष्कृतेषु ॥ [ कामतं णीचागोदो होदूण लहइ सगिमुच्चं । जोणीमिदरसलागं ताओ वि गदा अनंताओ || १२२४ || 'कालमणतं णीचागोदो होदूण' अनन्तकालं नीचैर्गोत्रो भूत्वा । 'लभदि सगिमुच्चं जोणि' लभते सकृदुच्वैर्गोत्रं । कीदृशी 'इदरसलागं' इतरशलाकां । इतरा नीचैर्योनयः शलाका यस्या उच्चैर्येनेस्तां इतरशलाकां । 'ताओ वि' ता अपि 'अन्तराले लब्धा अपि उच्चैर्योनयः । 'गदा अनंताओ' अनन्ताः प्राप्ता एकेन जीवन || १२२४॥ ] ॥१२२३॥ उतना ही रहता है । ज्ञानादि गुणोंमें अतिशय होनेसे ही उत्कृष्टता होती है । कुलीन भी यदि निन्दित गुण वाला होता है तो दूसरे उसका आदर सम्मान नहीं करते । और अनादरणीय कुलमें उत्पन्न होकर भी यदि गुणी होता है तो दूसरे उसका सन्मान करते हैं। कहा है- संसारमें भ्रमण करते हुए प्राणीका कोई कुल स्थायी नहीं है । वही जीव अपने कर्मके अधीन होकर नीच, उत्तम अथवा मध्यम कुलोंमें जन्म लेता है । वही जीव अपने कर्मके वश होकर राजा और दास, चाण्डाल या ब्राह्मण, दरिद्र वंश वाला या सम्पन्न वंश वाला होता है तथा चोर, आग और दावानलसे पीड़ित तथा माँगने वाला होता है । उच्च कुलोंमें मनुष्योंको जन्म लेनेका गर्व कैसा ? और नीच कुलोंमें जन्म लेने पर घृणा कैसी ? गर्व करना हो तो धर्ममें ही करना चाहिए और घृणा भी पापसे करनी चाहिए || १२२३|| गा० - टी० - यह जीव अनन्तकाल तक नीच गोत्रमें जन्म लेकर एक बार उच्च गोत्रमें जन्म लेता है । इस प्रकार उच्च गोत्रकी शलाका नीच गोत्र है । शलाकासे मतलब है अनन्तकाल नीच गोत्र में जन्म लेकर एक बार उच्च गोत्रमें जन्म । नीच गोत्रोंके अन्तराल में प्राप्त उच्च गोत्र भी एक जीवने अनन्त बार प्राप्त किये हैं ||१२२४ ॥ विशेषार्थ - यद्यपि यह जीव संसारमें भ्रमण करते हुए अनन्तबार नीच गोत्र में जन्म लेता है तब कहीं एक वार उच्च गोत्रमें जन्म लेता है । तथापि अनन्त बार नीच गोत्रमें जन्म लेने पश्चात् एक वार उच्च गोत्रमें जन्म लेनेकी परम्पराको भी इसने अनन्त बार प्राप्त किया है। अर्थात् इस क्रमसे इसने उच्च गोत्र में भी अनन्त बार जन्म लिया है || १२२४ || १. अन्तराले अन्तराले लब्ध्वा अपि-ज० मूलारा० । ७८ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० भगवती आराधना बहुसो वि लद्धविजडे को उच्चत्तम्मि विन्भओ णाम । बहुसो वि लद्धविजडे णीचत्ते चावि किं दुक्खं ॥१२२५।। ‘एवं बहुसो वि' बहुशोऽपि, 'लद्धविजडे' लब्धपरित्यक्ते च । 'उच्चत्तम्मि' मान्यकुलप्रसूतत्वे । 'को णाम विभओं को नाम विस्मयः । कदाचिदलब्धपूर्वमिदानीमेव लब्धमिति भवेदगर्व:। 'बहसो 'लविजडे' लब्धपरित्यक्ते । 'णीचत्ते चावि' नीचैर्गोत्रप्रसूतत्वे अपि । “कि दुक्खं' किमिदं दुःखं ॥१२२५॥ उच्चत्तणम्मि पीदी संकप्पवसेण होइ जीवस्स । णीचत्तणे ण दुक्खं तह होइ कसायबहुलस्स ॥१२२६॥ 'उच्चत्तणम्मि' मान्यकुलत्वे । 'पोवो' प्रीतिः । 'संकप्पवसेण' संकल्पवशेन 'होदि जीवस्स' भवति जीवस्य प्रशस्ते कुले जातोऽहमिति मनोनिधानात् प्रीतो भवत्यत्यर्थं जनः नेत्थंभूतं संकल्पमन्तरेण सामान्यकुलत्वे सत्यपि प्रीतिर्भवति । नीचकुलत्वमेव च न दुःखस्य निमित्तं । अपि च 'नीचत्तणे य' नीचर्गोत्रत्वे च दुःखं 'तथा होदि' तथा भवति । प्रीतिरिव परनिमित्तकं भवति । कस्य ? 'कषायबलस्स' कसायशब्दः सामा वचनोऽपि मानकषाये वर्तते । तेनायमर्थः प्रचुरमानकषायो जनयति दुःखमस्य न नीचैर्गोत्रत्वमेव ।।१२२६॥ प्रीतिपरितापौ संकल्पायत्तावित्येतत्स्पष्टयत्युत्तरगाथया उच्चत्तणं व जो णीचत्तं पिच्छेज्ज भावदो तस्स । उच्चत्तणे व णीचत्तणे वि पीदी ण किं होज्ज ॥१२२७।। 'उच्चत्तणं व' उच्च र्गोत्रत्वमिव 'जो णीचत्तं पेच्छदि' यो नीचैर्गोत्रं प्रेक्षते इदं चण्डालत्वं वरमिति । भावशब्दोऽनेकार्थवाच्यपि इह चित्तवाची। यत् येन लब्धं तत्तस्य शोभनं । अलभ्येन शोभनेनापि किं तेनेति मनसि करोति यदा तदा तत्रैव प्रीतिरस्य जायते इति वदति 'उच्चत्तणे वि' मान्यकुलत्व इव 'नीचत्तणेऽवि' नीचर्गोत्रत्वेऽपि । 'पीवी किं ण होज्ज' प्रीतिः किं न भवेत् भवत्येवेति यावत् ।।१२२७।। गा०-इस प्रकार अनन्त बार प्राप्त करके छोड़े हुए उच्च कुलमें जन्म लेनेका गर्व कैसा? गर्व तो तब होता जब अभी तक न पानेके बाद प्रथम बार ही इसे प्राप्त किया होता । तथा अनन्त बार प्राप्त करके छोड़े हुए नीच गोत्रमें जन्म लेनेका दुःख कैसा ॥१२२५।। गा०-टी.--'मैं उच्च कुलमें जन्मा हूं' ऐसा मनमें संकल्प होनेसे जीवका उच्चकुलमें अत्यन्त अनुराग होता है । इस प्रकारके संकल्पके बिना सामान्य कुलमें जन्म होने पर भी अनुराग नहीं होता । तथा नीच कुलमें जन्म लेना ही दुःखका कारण नहीं है। दुःखका कारण है मानकषायकी बहुतायत । गाथामें कषाय शब्द सामान्यवाची है तथापि यहाँ उसका अर्थ मानकषाय लेना चाहिए । मानकषायकी बहुतायत जीवको दुःख देती है, केवल नीच गोत्रमें जन्म ही दुःखका कारण नहीं होता ॥१२२६।। अनुराग और दुःख संकल्पके अधीन हैं, यह कहते हैं गा०-टी०-गाथामें आये भाव शब्दके यद्यपि अनेक अर्थ हैं तथापि यहाँ उसका अर्थ चित्त लिया है। जो मनसे उच्च गोत्रके समान नीच गोत्रको देखता है अर्थात् यह चाण्डाल कुलमें जन्म श्रेष्ठ है ऐसा मानता है। मनमें विचारता है कि जो जिसको प्राप्त है वही उसके लिए उत्तम है। जो प्राप्त नहीं है वह श्रेष्ठ भी हो तो उससे क्या? ऐसा विचार करते ही उच्च कुलके समान नीच Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ विजयोदया टीका णीचत्तणं व जो उच्चत्तं पेच्छेज्ज भावदो तस्स । णीचत्तणेव उच्चत्तणे वि दुक्खं ण किं होज्ज ॥१२२८॥ एतद्विपरोतार्थोत्तरगाथा। स्पष्टतया' वस्तुस्थिति नापेक्षते । सङ्कल्पायत्ता प्रीतिरप्रीतिर्वेत्यनुभवसिद्धमेतदखिलस्य जगत इति वदति । यस्मादुच्चगोत्रत्वेऽपि न सुखदुःखयोर्भावाभावी च भवतः संकल्पात् ।।१२२८॥ तम्हा ण उच्चणीचत्तणाइं पीदिं करेंति दुःक्खं वा। संकप्पो से पीदी करेदि दुक्खं च जीवस्स ॥१२२९।। 'तम्हा' तस्मात् । 'उच्चणीचत्तणाणि' मान्यामान्यकुलत्वानि । 'न करेंति पोदि दुक्खं वा' न कुरुतः प्रीतिं दुःखं वा । 'संकप्पो पोदि करेदि' संकल्पो 'से' अस्य जीवस्य तस्मात् प्रीतिं करोति दुखं वा । सति संकल्पे भावादसति अभावाच्च ॥१२२९॥ मानकषायसाध्योऽयं दोष इति कथयति कुणदि य माणो णीयागोदं पुरिसं भवेसु बहुएसु । पत्ता हु णीचजोणी बहुसो माणेण लच्छिमदी ॥१२३०॥ 'कुणवि य' करोति । 'माणो' अहंकारः । ‘णीयागोदं पुरिसं' नीचर्गोत्रमस्येति नीचर्गोत्रं 'पुरिसं' आत्मानं । 'भवेसु' जन्मसु । 'बहुगेषु' बहषु । 'पत्ता' प्राप्ता । 'णीचजोणी खु' नीचैर्गोत्रमेव । का? 'लन्छिमदी' लक्ष्मीमती । केन निमित्तेन ? 'माणेण' सुरूपा यौवनानु कूला कुलीना चेति गर्वेण ॥१२३०॥ कुलमें भी अनुराग क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा ॥१२२७।। आगेकी गाथा में इससे विपरीत कथन करते हैं गा-जो जीव भावसे उच्चपनेको नीचपनेकी तरह देखता है उसको नीचपनेकी तरह उच्चपनामें क्या दुःख नहीं होता? होता ही है । किसीसे प्रीति या अप्रीति तो संकल्पके अधीन है यह बात समस्त जगत्के अनुभवसे सिद्ध है। क्योंकि संकल्पसे उच्च गोत्र होते हुए भी सुखका भाव और दुःखका अभाव नहीं होता ।।१२२८।। गा०-अतः उच्च कुल या नीच कुल सुख या दुःख नहीं देता। किन्तु जीवका संकल्प सुख या दुःख करता है। संकल्पके होने पर सुख दुःख होता है और संकल्पके अभावमें नहीं होता ॥१२२९।। आगे कहते हैं कि मानकषायके कारण यह दोष होता है गा०-मानकषाय अर्थात् अहंकार पुरुषको अनेक जन्मोंमें नीच गोत्री बनाता है। देखो, लक्ष्मीमती, मैं सुन्दर हूँ, कुलीन हूँ यौवनवती हूँ इस गर्वके कारण अनेक बार नीच गोत्रमें उत्पन्न हुई ॥१२३०॥ विशेषार्थ-बृहत्कथा कोशमें १०८ नम्बरमें इसकी कथा दी है ॥१२३०॥ १. स्पष्टाया-अ०! Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ भगवती आराधना पूयावमाणरूवविरुवं सुभगत्तदुन्भगत्तं च । आणाणाणा य तहा बिधिणा तेणेव पडिसेज्ज ॥१२३१॥ 'प्रयावमाणरूवविरुवं' पूजा, अवमानं परिभवः । रूपशब्दः सामान्यवचनोऽपि शोभनाशोभनरूपविषयतया इह विरूपशब्दसन्निधाने प्रयुज्यमानोऽतिशयिते रूपे प्रवर्तते। तेन सौरूप्यं चेत्यर्थः। 'सुभगत्तदुब्भगत्तं च' सौभाग्यं दौर्भाग्यं च सर्वेषां प्रियत्वं द्वेष्यत् चेति यावत् । 'आणाणाणा य तहा' आज्ञा आदेशाप्रतिधातः अनाज्ञा च तथा। विधिना' माननिषेधप्रकारेणव । 'पडिसेज्ज' प्रतिषेध्याः । अभिधेयवशाल्लिगवचनप्रवृत्तिरिति लिंग्यन्तरेण पूजादिशब्दोपनीतेन प्रतिषेध्यशब्दस्याभिसम्बन्धः । परिभवं प्राप्तोऽपि बहशः कदाचित्पूज्यते । एवमपि प्राप्ता ह्यनन्तेषु पूजास्तत्र कोऽनुरोगोऽस्य । दुःखं वा परिभवप्राप्तौ । 'पूज्यमानोऽपि बहुषु पुनः परिभवानवाप्स्यति । न चात्मनः पूजायां काचिद् वृद्धिः परिभवे वा हानिः । सङ्कल्पवशादेवात्मनो जायेते प्रीतिपरितापी न केवलं पूजापरिभवाभ्यामेवेति । उक्तं च यः स्तूयते शुचिगुणैर्मधुरैवंचोभिः स निंद्यते च परुषर्वचनै विचित्रैः । हा चित्रतां कथमयं भवसंकटस्थः प्राप्नोत्यनेकविधिकर्मफलोपभोगं ॥ भूत्वा मनुष्यपतयः पुनरेव दासा होना भवन्ति शुचयोऽशुचयश्च भूयः। कान्त्या' च ये युवतिभिविषमानुरूपा द्वेष्या भवन्त्यसुभगत्वमुपेत्य भूयः ॥ दृष्टः क्वचित्प्रवररत्नविभूषणो यः संदृश्यते विकलपुण्यतया दरिद्रः। भूयश्च मित्रबहुबंधुजनोपगूढः संलक्ष्यते व्यसनभारभूदेक एव ॥ [ ___गा०-टी०-मानकषायका जैसे निषेध किया है वैसे ही पूजा, अपमान, सौरूप्य, वैरूप्य, सौभाग्य, दुर्भाग्य, आज्ञा अनाज्ञाका भी निषेध जानना। गाथामें आगत रूपशब्द यद्यपि सामान्यवाची होनेसे सुन्दर और असुन्दर दोनों ही प्रकारके रूपका वाचक हैं तथापि विरूप शब्दके साथमें प्रयुक्त होनेसे अतिशयरूपको कहता है। अत: उसका अर्थ सौरूप्य और वैरूप्य लिया गया है। सौभाग्यका अर्थ है सबको प्रिय होना और दुर्भाग्यका अर्थ है सबके द्वारा तिरस्कृत होना । जिसने अनेक जन्मोंमें तिरस्कार पाया है वह भी कभी पूजा जाता है। इसी प्रकार अनन्त जन्मोंमें पूजा प्राप्त करनेवाला भी तिरस्कृत होता है। अतः उनमें अनुराग कैसा और तिरस्कार पानेपर दुःख कैसा? जो बहुत जन्मोंमें पूजा जाता है वह पुनः तिरस्कारको प्राप्त करेगा। पूजा होनेपर आत्मामें वृद्धि नहीं होती और तिरस्कार होनेपर आत्मामें कोई हानि नहीं होती। संकल्पके कारण ही प्रीति और सन्ताप होते हैं केवल पूजा और तिरस्कारसे नहीं होते । कहा भी है जो मधुर वचनोंके द्वारा अपने निर्मल गुणोंके लिये संस्तुत होता है वही नाना प्रकारके कठोर वचनोंसे निन्दाका पात्र होता है। कैसा आश्चर्य है कि संसाररूपी संकटमें पड़ा हुआ यह प्राणी अनेक प्रकारके कर्मोंके फलको भोगता है। मनुष्योंका स्वामी होकर उनका नीच दास हो जाता है। पवित्र होकर पुनः अपवित्र हो जाता है। जो युवतियोंके प्रिय होते हैं वे ही दुर्भाग्य आनेपर द्वेषके पात्र बनते हैं। जो मनुष्य कभी उत्कृष्ट रत्नभूषणोंसे भूषित देखा गया है वही मनुष्य पुण्यहीन होनेपर दरिद्र देखा जाता है। जो बहुतसे मित्रों और बन्धु-वान्धवोंसे घिरा हुआ १. पूजातोऽपि-अ०। २. नर्वधित्वा-अ० ज०। ३. कान्ता च येषु युवतिः-ज० विषमाणरूपा देष्या भवत्यशुभबन्धमुपेत्य भूयः-आ० ज० । ४. क ये च-अ० । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६२३ 'इच्चेवमादि अविचिंतयदो माणो हवेज्ज पुरिसस्स । एदे सम्म अत्थे पसदो णो होइ माणो हु ॥१२३२॥ जइदा उच्चत्तादिणिदाणं संसारवड्ढणं होदि । कह दीहं ण करिस्सदि संसारं परवधणिदाणं ॥१२३३॥ 'जइदा' यदि तावत् । 'उच्चत्तादिणिदाणं' उच्चैर्गोत्रता, पुरुषत्वं, स्थिरशरीरता, अदरिद्रकुलप्रसूतिवन्धतेत्येवमादिकं मक्तः परम्परया कारणमपि चित्ते क्रियमाणमपि । 'संसारवडढणं होदि' संसारवद्धि करोति । 'किधण करिस्सवि' कथं न करिष्यति । 'दीहसंसारं' दीर्घसंसारं। 'परवणिदाणं' परवधे चित्तप्रणिधानं ॥१२३३॥ आचार्यगणधरत्वादिप्रार्थना कथमशोभना रत्नत्रयातिशयलाभप्रार्थिता हि सेत्याशङ्कायामुच्यते आयरियत्तादिणिदाणे वि कदे णत्थि तस्स तम्मि भवे । धणिदं पि संजमंतस्स सिज्झणं माणदोसेण ॥१२३४॥ 'आयरियत्तादिणिदाणे वि कदे' आचार्यत्वादिनिदानेऽपि कृते । 'पत्थि तस्स' नास्ति तस्य । 'तम्मि भवे' तस्मिन्भवे निदानकरणभवे । 'धणिदं पि संजमंतस्स' नितरामपि संयम कुर्वतः । किं नास्ति 'सिज्झणं' सेधनं मुक्तिः । केन ? 'माणदोसेण' मानकषायदोषेण । स ह्याचार्यत्वादिप्रार्थनां करोति । पृष्टो भविष्यामीति संकल्पेन, ततोऽप्यहंयुता ॥१२३४॥ भोगदोषचिन्तायां सत्यां निदानं तथा न भवति इति कथयतिहोता है, विपत्तिमें पड़नेपर वही एकाकी देखा जाता है ।।१२३१॥ गा०-इत्यादि बातोंका विचार न करनेवाले पुरुषको मान होता है। और जो इन बातोंको सम्यकपसे देखता है उसको मान नहीं होता ॥१२३२॥ गा०-उच्चगोत्र, पुरुषत्व, शरीरकी स्थिरता, अदरिद्रकुलमें जन्म, बन्धु-बान्धव आदि परम्परासे मुक्तिके कारण हैं ऐसा चित्तमें विचारकर इनका निदान करना कि ये मुझे प्राप्त हों, यदि संसारको बढ़ानेवाला है तो दूसरेके बधका चित्तमें निदान करना दीर्घ संसारका कारण क्यों नहीं है ? अवश्य है ।।१२३३॥ यहाँ कोई शंका करता है कि रत्नत्रयमें अतिशय लाभकी भावनासे मैं आचार्य गणधर आदि बनूं ऐसी प्रार्थना क्यों बुरी है ? इसका उत्तर देते हैं गा०-आचार्य पद आदिका निदान करनेपर भी जिस भवमें निदान किया है उस भवमें अत्यन्त संयमका पालन करनेपर भी मानकषायके दोषके कारण उसकी मुक्ति नहीं होती, क्योंकि वह 'मैं पूज्य होऊँ' इस संकल्पसे आचार्य आदि होनेकी प्रार्थना करता है । इससे उसका अहंकार • प्रकट होता है ॥१२३४॥ आगे कहते हैं कि भोगोंके दोषोंका चिन्तवन करनेसे भोगोंका निदान नहीं होता१. एतां टीकाकारो नेच्छति । २. हि सतीत्या-आ० । Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ भगवती आराधना भोगा चिंतेदव्या किंपागफलोवमा कडुविवागा । महुरा व मुंजमाणा पच्छा बहुदुक्खभयपउरा ।।१२३५।। 'भोगा चितेदवा' भोगाश्चिन्त्याः । 'किंपागफलोवमा' किम्पाकफलसदृशाः । 'कडुविपागा' कटु अनिष्टं विपाक: 'लं एषामिति कटुविपाकाः । 'मधुरा व' मधुरा इव । 'भुजमाणा' भुज्यमानाः । 'मझे' मध्ये । 'बहुदुक्खभयपउरा विचित्रदुःखभयाः ॥१२३५।। भोगनिदानदोषं कथयति भोगणिदाणेण य सामण्णं भोगत्थमेव होइ कदं । 'साहालंगा जह अत्थिदो वणे को वि भोगत्थं ॥१३३६।। 'भोगणिदाणेण य' भोगनिदानेन वा । 'सामण्ण' श्रामण्यं । 'भोगत्यमेव होइ कदं' भोगार्थमेव कृतं न कर्मक्षयाथं भवति । भोगनिदाने सति रागव्याकुलितचित्तस्य प्रत्यग्रकर्मप्रवाहस्वीकृती उद्यतस्य का संयतता ॥१२३६॥ आवडणत्थं जह ओसरणं मेसस्स होइ मेसादो । सणिदाणवंभचेरं अब्बभत्थं तहा होइ ॥१२३७।। _ 'आवडणत्थं' अभिघातार्थ। 'जह' यथा। 'ओसरणं' अपगमः। 'मेसस्स होदि' मेषस्य भवति । 'मेसादो' मेषात् । 'सणिवाणबंभचेरं' सनिदानस्य यतेब्रह्मचर्य। 'अब्बभत्यं' मैथुनाथ । 'तहा होदि' तथा भवति ॥१२३७॥ जह वाणिया य पणियं लाभत्थं विकिणंति लोभेण । मोगाण पणिदभूदो सणिदाणो होइ तह धम्मो ॥१२३८॥ ___ गा०-ये भोग किंपाकफलके समान हैं। जैसे किंपाकफल खाते समय मीठा लगता है किन्तु उसका परिणाम अतिकटुक होता है। उसको खानेवाला मर जाता है । उसी प्रकार इन्द्रियोंके भोग भोगने में मधुर लगते हैं किन्तु उनका फल अतिकटु होता है पीछेसे जीवको बहुत दुःख और भय भोगना पड़ता है ।।१२३५।। भोगनिदानके दोष कहते हैं गा०-टो०-मुनिपद धारण करके भोगका निदान करनेसे तो मुनिपद भोगोंके लिए ही धारण किया कहलायेगा। कर्मक्षयके लिये नहीं कहलायेगा। क्योंकि भोगका निदान करनेपर चित्त रागसे व्याकूल रहता है और ऐसा होनेसे नवीन कर्मोका बन्ध होता है तब उसके मनिपद कैसा? जैसे कोई वनमें वृक्षकी शाखामें लगे फलोंको खाने में लग जाये तो उसके अपने इच्छित स्थानपर पहुंचने में विघ्न आ जाता है वैसे ही भोगका निदान करनेवाले श्रमणकी भी दशा होती है ।।१२३६।। गा-जैसे एक मेढ़ा दूसरे मेढ़ेपर अभिघात करनेके लिये पीछे हटता है वैसे ही भोगोंका निदान करनेवाले यतिका ब्रह्मचर्य भी अब्रह्म अर्थात् मैथुनके लिए ही होता है ।।१२३७।। १. साहोलंबो-मु०, मूलारा० । साहासंगा-आ० । Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ६२५ 'जह वाणिया' यथा वणिजः । 'पणिय' पण्यं । 'लाभत्थं' लाभार्थ । 'विक्किणंति' विक्रीणन्ति । 'लोभेण' लोभेन । 'भोगाणं' भोगानां । 'पणिदो भूदो' पण्यभूतः । 'सणिदाणो' सनिदानः । 'तहा धम्मो होदि' तथा धर्मो भवति ॥१२३८॥ भोगनिदानवतः' श्रामण्यं प्रणिंद्यति सपरिग्गहस्स अब्बंभचारिणो अविरदस्स से मणसा । कारण सीलवहणं होदि हु णडसमणरूवं व ॥१२३९।। 'सपरिग्गहस्स' सपरिग्रहस्य भोगनिदानवतो वेदजनितो रागोऽभ्यन्तरः परिग्रह इति सपरिग्रहः । तस्य । 'अब्बंभचारिणों मनसा मैथुनकर्मणि प्रवत्तस्य । 'अविरवस्स' अव्यावृत्तस्य मैथनात् । 'मनसा' चित्तेन । 'से' तस्य कायेन ख शरीरेणव । 'सोलवहणं' ब्रह्मव्रतवहनं । 'होदि' भवति । 'णडसमणरूवं व' नटानां श्रमणरूपमिव । कायेन भावश्रामण्यरहितं यथा अफलमेवमिदमपि इति भावः ॥१२३९॥ रोगं इच्छेज्ज जहा पडियारसुहस्स कारणे कोई । तह अण्णेसदि दुक्खं सणिदाणो भोगतण्हाए ॥१२४०॥ 'रोगं कंखेज्ज' व्याधिमभिलषति । 'जहा कोइ' यथा कश्चित। किमर्थ ? 'पडियारसुहस्स कारणे' औषधसेवासुखाधिगमनाथं । 'तह' तथा 'अविरदस्स' अव्यावत्तस्य । 'अण्णेसदि' अन्वेषते। 'दुक्ख" दुःखं । कः ? 'सणिवाणो' सनिदानः । 'भोगतहाए' भोगतृष्णया ॥१२४०॥ खंधेण आसणत्थं वहेज्ज गरुगं सिलं जहा कोइ । तह भोगत्थं होदि हु संजमवहणं णिदाणेण ।।१२४१॥ 'खंधेण' स्कन्धेन । 'जहा कोई' यथा कश्चित् । 'गरुगं सिलं' गुर्वी शिलां । 'वहेज्ज' वहति । किमर्थं ? गा०-जैसे व्यापारी लोभवश लाभके लिये अपना माल बेचता है। वैसे ही निदान करनेवाला मुनि भोगोंके लिए धर्मको बेचता है ॥१२३८॥ भोगोंका निदान करनेवालेके मुनिपदकी निन्दा करते हैं गा०-टी०-भोगोंका निदान करनेवालोंके अभ्यन्तरमें वेदनित राग रहता है अतः वह परिग्रही है। तथा वह मनसे मैथुन कर्ममें प्रवृत्त होनेसे अब्रह्मचारी है और मनसे मैथुनसे निवृत्त न होनेसे अविरत है। वह केवल शरीरसे ब्रह्मचर्यव्रत धारण करता है अतः वह नटश्रमण है । जैसे नट श्रमणका वेश धारण करता है वैसे ही उसने भी श्रमणका वेश धारण किया है । भावश्रामण्यके विना केवल शरीरसे मुनि बनना जैसे व्यर्थ है उसी तरह उस मुनिका मुनिपद भी व्यर्थ है ।।१२३९।। गा०-जैसे कोई औषधि सेवनके सुखकी अभिलाषासे रोगी होना चाहता है वैसे ही निदान करनेवाला भोगोंकी तृष्णासे दुःख चाहता है ।।१२४०।। ___गा०–मैं इसके ऊपर सुखपूर्वक बैठेंगा, ऐसा मानकर जैसे कोई भारी शिलाको कन्धेपर उठाता है और उसके उठानेके कष्टकी परवाह नहीं करता। वैसे ही इस दुर्धर संयमको धारण १. चतः अमान्यं प्रणिगदति-आ० । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ भगवती आराधना 'आसणत्यं' आसनार्थ । अस्या उपरि सुखेनासे इति मत्वा स यथा गुरुशिलोद्वहनखेदं नापेक्षते, स्वल्पं तस्या उपर्यासनसुखमपेक्षते स्वबुद्धया । 'तह भोगत्थं खु' तथा भोगार्थमेव । 'होदि' भवति । 'संजमवहणं' दुर्वहं संयमधारणं । "णिदाणेण' निदानेन सह ॥१२४१॥ बाह्यवस्तुजनितादिन्द्रियसुखात्तन्निमित्तवस्तुविनाशे यज्जायते दुःखं तदधिकतमं अतः स्वल्पसुखनिमित्तं को नाम सचेतनो दुःखभीरुर्दुःखाब्धी पतेदिति दर्शयति भोगोवभोगसोक्खं जं जं दुक्खं च भोगणासम्मि । एदेसु भोगणासे जातं दुक्खं पडिविसिटुं ॥१२४२।। 'भोगोवभोगसोक्ख" मृष्टाशनताम्बूलादिकैः स्त्रीवस्त्रालङ्कारादिभिश्च जनितं यत्सुखं । 'भोगणासम्मि' सुखसाधनस्य वस्तुनो विनाशे च । 'जं जं दुक्ख च' यद्यदुःखं जायते । “एदेसु' एतयोः सुखदुःखयोः ‘भोगनाशे' सुखसाधनानां विनाशे च । 'जातं दुक्ख पडिविसिट्ठ अधिकतममिति यावत् ।।१२४२॥ देहे छुहादिमहिदे चले य सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं । दुक्खस्स य पडियारो रहस्सणं चेव सोक्खं खु ॥१२४३॥ 'देहे' शरीरे मनुजानां । 'छुहादिमहिदे' क्षुधा, पिपासया, शीतोष्णेन, व्याधिभिश्च मथिते । 'चले अनित्ये च । 'सत्तस्स' आसक्तस्य । "किं च सुख होज्ज' किमत्र सुखं भवेत् । 'दुक्खस्स य पडिगारों' दुःखस्य प्रतीकारः । 'रहस्सणं चेव' -हस्वकरणं एव 'सोक्ख" सौख्यं । खु शब्दः पादपूरणे दुःखप्रतीका'रोऽल्पता वा दुःखस्य सुखमित्यनेनाख्यातम् ॥१२४३॥ ___ सुखमन्तरेणापि अस्ति दुःखं, सुखं पुनरैन्द्रियकं न जायते दुःखं विना ततः सुखार्थी दुःखमेव प्रागात्मकरनेसे मुझे भोगोंकी प्राप्ति हो इस निदानके साथ जो संयम धारण करता है उसका संयम धारण भोगोंके लिये है अर्थात् स्वल्पसुखके लिए बहुत दुःख उठाता है ।।१२४१।। __ आगे कहते हैं कि बाह्य वस्तुसे उत्पन्न होनेवाले इन्द्रिय सुखसे उस सुखमें निमित्त वस्तुका विनाश होनेपर जो दुःख होता है वह अधिक है, अतः थोड़ेसे सुखके लिये कौन दुःखभीरु ज्ञानी दुःखके समुद्र में गिरना पसन्द करेगा ___ गा०-भोग अर्थात् सुस्वादु भोजन पान आदि और उपभोग अर्थात् स्त्री वस्त्र अलंकार आदिसे होनेवाला सुख तथा सुखके साधनमें निमित्त वस्तुका विनाश होनेपर होनेवाला दुःख, इन दोनों सुख और दुःखमेंसे भोगके साधनोंका विनाश होनेपर होनेवाला दुःख बहुत अधिक होता है ।।१२४२॥ ____ गा०-यह शरीर भूख, प्यास, शीत, उष्ण तथा रोगोंसे पीड़ित और विनाशशील है। इसमें जो आसक्त है उसे क्या सुख होता है ? वास्तवमें दुःखका प्रतीकार अथवा दुःखको कम करना ही सुख है। अर्थात् दुःखके प्रतीकारको या दुःखकी कमीको ही सुख मान लिया गया है। वास्तवमें सुख नहीं है ॥१२४३॥ __सुखके विना भी दुःख होता है किन्तु इन्द्रियजन्य सुख दुःखके विना नहीं होता। अतः १. कारोत्पत्तौ वा-आ० मु० । | Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६२७ नोऽभिलषति न च दुःखाभिलाषः प्राज्ञस्य युक्त इति कथयति सोक्खं अणवेक्खित्ता बाधदि दुक्खमणुगंपि.जह पुरिसं । तह अणवेक्खिय दुक्खं णत्थि सुहं णाम लोगम्मि ॥१२४४॥ 'सोक्वं' सौख्यं । 'अणवैखित्ता' अनपेक्ष्य । 'बापति दुक्खमणुगं पि' बाधते दुःखमण्वपि । 'जह पुरिसं' यथा पुरुषं । 'तह' तथा। 'अणवेक्खिय' अनपेक्ष्य । 'दुक्वं' दुःखं । 'लोगम्मि पत्थि सुह' लोके नास्ति सुखं नामन्द्रियकं । क्षुत्पिपासाम्यां पीडित एवाशनं पानं वान्वेषते । कठोरातपतप्त एव शीतं, शीतसंकुचिततनुरेव प्रावरणादिक, वातातपाम्बभिरेवोपद्रतो भवनमभिलषति । स्थानासनोपजातश्रम एव शय्यां कामयते । पादगमनजातखेदव्यपोहनायव शिबिकादिकं, वैरूप्यनिराकृतये एव वस्त्राणि भूषणानि च दोर्गन्ध्यनाशनायव तुरुष्ककालागुर्वादिकं, खेदगमनायव रमण्य इति सर्व दुःखप्रतीकारमेव । त्रिविधवेदोदयजनितः प्राणिनां लिङ्गत्रयवर्तिनां परस्पराभिलाषः । स तेषां परस्परशरीरसंसर्गे सत्यपि न विनश्यति । अभिलाषनिमित्तानां कर्मणां सद्भावात् । न हि कार्यमविकलकारणसन्निधौ न भवति । कामो हि सेव्यमानो वेदत्रयं प्रत्यग्रमाकर्षति । सतोऽप्यनुभवमुपहयते । कारणसम्पत्किार्यसम्पादो नित्यमिति निरन्तराभिलाषदहनदह्यमानचेतसो न कदाचिन्निव तिरस्ति । अपनीते तु वेदत्रये कारणाभावात कार्याभाव इति निरवशेषवेदापगमे स्वास्थ्यं यदस्य तदेव सुखमिति मन्यमानो. दृष्टान्तं दर्शयति ॥१२४४।। जो इन्द्रिय सुखका अभिलाषी है वह पहले दुःख चाहता है किन्तु विद्वानके लिए दुःखकी चाह युक्त नहीं है यह कहते हैं गा-जैसे सुखकी अपेक्षाके विना थोड़ा-सा भी दुःख पुरुषको कष्टदायक होता है वैसे ही लोकमें इन्द्रियजन्य सुख दुःखकी अपेक्षाके विना नहीं है ॥१२४४॥ टी०-भूख और प्याससे पीड़ित पुरुष ही भोजन और पेयको खोजता है। कठोर घामसे पीड़ित शीतल प्रदेश खोजता है। शीतसे जिसका शरीर ठिठुर गया है वही ओढना आदि खोजता है। वायु घाम वर्षा आदिसे पीड़ित ही मकान खोजता है। उठने बैठनेमें थका हुआ ही शय्या चाहता है। पैदल चलनेसे हुए कष्टको दूर करनेके लिए ही सवारी आदि चाहता है। विरूपता दूर करनेके लिए ही वस्त्र आभूषण चाहता है। दुर्गन्ध दूर करनेके लिए ही सुगन्धित द्रव्य लोबान आदि होते हैं। खेद दूर करनेके लिए ही सुन्दर स्त्रियाँ होती हैं। इस तरह सब दुःखके प्रतीकारके लिए हैं। स्त्री लिङ्गी, पुरुष लिङ्गी और नपुंसक लिङ्गी प्राणियोंको स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे परस्परमें रमण करनेकी अभिलाषा होती है। किन्तु वह अभिलाषा परस्परमें शारीरिक संसर्ग होनेपर भी नष्ट नहीं होती; क्योंकि उस अभिलाषामें निमित्त वेदकर्मका सद्भाव है। कारणोंके अविकल होते हुए कार्य अवश्य होता है। कामका सेवन करनेसे नवीन स्त्रीवेद पुरुषवेद या नपुंसकवेदका बन्ध होता है। तथा सत्तामें स्थित इन कर्मोके अनुभागमें वृद्धि होती है क्योंकि कारणके होनेपर कार्य नि क कारणक होनेपर कार्य नित्य ही हुआ करता है। जिनके चित्त निरन्तर अभिलाषारूप आगसे जलते हैं उन्हें कभी भी शान्ति नहीं मिलती। तीनों वेदोंके चले जानेपर कारणका अभाव होनेसे कार्यका भी अभाव होता है । अतः वेदोंका पूर्णरूपसे अभाव होनेपर जो स्वास्थ्य होता है वही सख है ॥१२४४१॥ . .... Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ भगवती आराधना जह कोडिल्लो अग्गि तप्पंतो व उवसमं लभदि । तह भोगे भुजंतो खणं पि णो उवसमं लभदि ।।१२४५॥ 'जह कोडिल्लो" यथा कुष्ठेनोपद्रुतः । 'अग्गि तप्पंतो' अग्निना दह्यमानमूर्तिरपि । 'णेव उबसमं लभवि' नैव व्याधरुपशमं लभते । न ह्यग्निरुपशामकः कुष्ठस्यापि तु वर्द्धकः । यद्यस्य वृद्धिनिमित्तं न तत्तदुपशमयति । यथा कुष्ठं नोपशमयति वह्निः । वर्धयति चाभिलाषं अबलादिसंगमः 'तह तथा । 'भोगे भुजंतो' भोगानुभवनोद्यतः । 'खणंपि णो उवसमं लभदि' क्षणमात्रमपि नोपशमं लभते भोगाभिलाषरोगस्य ॥१२४५॥ कच्छु कंडुयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे । दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण आदीहिं कुणाद तहा ॥१२४६॥ 'कच्छं' कच्छं । 'कंडुयमाणो' नखैमर्दयन् । 'सुहाभिमाणं करेइ' सुखाभिमानं करोति । 'जह दुक्ख' यथा दुःखे । 'तह मेहुण आदीहिं' तथा मैथुनादिदुःखै रभसालिङ्गने, अधरदशने, उरस्ताडने ननिशितैरङ्गच्छेदने कचाकर्षणे । उक्तं च नग्नः प्रेत इवाविष्टः स्वनन्निवि शवन्निव । श्वासायासपरिवान्तः स कामी रमते किल ॥१॥ इति ॥[ ] ॥१२४६।। घोसादकी य जह किमि खंतो मधरित्ति मण्णदि वराओ। तह दुक्खं वेदंतो मण्णइ सुक्खं जणो कामी ॥१२४७॥ 'घोसादकी' घोषातकीं। 'किमि' कृमिः । 'संतो' भक्षयन् । 'महा मधुरित्ति' यथा मधुरमिति मन्यते वराकः । 'तह तथैव । 'दुक्ख वेवंतो' दुःखमनुभवन् । 'मण्णदि सोक्खं जणो कामी' मन्यते कामिजनः सुखं ॥१२४७॥ इसे दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं गा०—जैसे कुष्ठ रोगसे पीड़ित व्यक्तिका शरीर आगमें जलने पर भी कुष्ठ रोग शान्त नहीं होता; क्योंकि आग कुष्ठ रोगको शान्त नहीं करती, बल्कि बढ़ाती है। और जो जिसको बढ़ाता है वह उसको शान्त नहीं कर सकता। जैसे आग कुष्ठ रोगको शान्त नहीं करती। उसी प्रकार स्त्रीका संगम स्त्री विषयक अभिलाषाको बढ़ाता है। अतः जो भोगोंके भोगनेमें तत्पर है उसका भोगकी अभिलाषा रूप रोग एक क्षणके लिए भी शान्त नहीं होता ॥१२४५।। गा० टी०-जैसे खाजको नखोंसे खुजाने वाला दुःखको सुख मानता है। उसी प्रकार मथुनके समय वेगपूर्वक आलिंगन, ओष्ठ काटना, छाती मसलना, तीक्ष्ण नखोंसे शरीर नोंचना, केश खीचना आदिसे होने वाले दुःखको कामी सुख मानता है। कहा भी है-कामी पुरुष पिशाचसे ग्रहीत पुरुषकी तरह नग्न होकर स्त्रीके साथ रमण करता है और श्वास तथा थकानसे पीड़ित होकर शब्द करते हुए श्वास लेता है ॥१२४६।। गा०-जैसे बेचारा कीट घोषा नामक लताको खाते हुए उसे मीठी मानता है उसी प्रकार कामी जन दुःखका अनुभव करते हुए उसे सुख मानता है ।।१२४७॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६२९ सुट्ठ वि मग्गिज्जंतो कत्थ वि कयलीए पत्थि जह सारो। तह पत्थि सुहं मग्गिज्जते भोगेसु अप्पं पि ॥१२४८॥ _ 'सुठ्ठ वि' सुष्टु अपि । 'मग्गिज्जतो' मृग्यमाणोऽपि । सारः कदल्यां क्वचिदपि मूले मध्येऽन्ते वा यथा नास्ति तथा भोगेष्वन्विष्यमाणं सुखं न विद्यते ।।१२४८॥ ण लहदि जह लेहंतो सुक्खल्लयमद्वियं रसं सुणहो। से सगतालुगरुहिरं लेहंतो मण्णए सुखं ॥१२४९।। 'जध सुणगो सुक्खल्लगमट्ठियं लेहंतो रसं जहा ण लभदि' श्वा शुष्कमस्थि लिहन् सन् यथा रसं न लभते । 'सगतालुगरुहिरं लेहंतो सो सोक्खं मण्णदे' तीक्ष्णास्थिछिन्नस्वन्तालुगलितरुधिरमास्वादयन्सुखाभिमानं करोति । 'जह तह' यथा तथा । 'पुरिसो ण किचि सुखं लभई' पुरुषो न किंचित्सुखं लभते ॥१२४९।। महिलादिभोगसेवी ण लहदि किंचिवि सुह तथा पुरिसो । सो मण्णदे वराओ सगकायपरिस्सम सुक्खं ।।१२५०।। _ 'महिलाविभोगसेवी' स्यादिभोगसेवनोद्यतः । तथा 'पुरिसो ण किंचि वि सुहं लहदि' तथा पुरुषो न किंचिदपि सुखं लभते एव । 'सो वरागो सगकायपरिस्समं सोक्सां मण्णवे' स वराकः स्वकायश्रमं सौख्यं मन्यते ॥१२५०॥ अनुभवसिद्धं सुखं कथं नास्तीति शक्यते वक्तुं इत्याशक्य असत्यपि सुखे सुखज्ञानं जगतो भवति विपर्यस्तं सुखकारणस्येति दृष्टान्तोपन्यासेन वदति दीसइ जलं व मयतण्हिया हु जह वणमयस्स तिसिदस्स । भोगा सुहव दीसंति तह य रागेण तिसियस्स ॥१२५१॥ 'दोसइ वणमयस्स तिसिवस्स जहा जलं मयतण्हिया' वने मृगेण हरिणादिना तृषाभिभूतेन जलकांक्षा गा०-जैसे अच्छी तरह खोजने पर भी केलेके वृक्षों मूल मध्य या अन्तमें कहीं भी कुछ सार नहीं है वैसे ही खोजने पर भी भोगोंमें कुछ भी सार नहीं है ॥१२४८|| गा०—जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको चबाते हुए रस प्राप्त नहीं करता। किन्तु तीक्ष्ण हड्डीके द्वारा कटे अपने तालुसे झरते हुए रक्तका स्वाद लेते हुए सुख मानता है ॥१२४९।। गा०-उसी तरह पुरुष स्त्री आदि विषयभोगमें किश्चित् भी सुख प्राप्त नहीं करता वह बेचारा अपने शरीरके श्रमको ही सुख मानता है ।।१२५०॥ विषयभोगमें सुख अनुभवसे सिद्ध है आप कैसे कहते हैं कि उसमें सुख नहीं है ऐसी आशंका करने पर दृष्टान्त द्वारा कहते हैं कि सुखके नहीं होने पर भी सुखके कारणमें विपरीत बुद्धि होनेसे जगत्को सुखका बोध होता है गा०-जैसे बनमें हरिण आदि जब प्याससे व्याकुल होकर जलकी इच्छा करते हैं तो उन्हें मरीचिका जलके समान प्रतीत होती है किन्तु हरिणके उसे जल मानने पर भी वह जल रूप नहीं होती। उसी प्रकार रागके प्यासेको भोग सुखकी तरह प्रतीत होते हैं ॥१२५१॥ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना वता जलमिव दृश्यते मृगतृष्णिका । न सा मृगेण जलतयोपलब्धेऽपि जलं भवति । तथा 'रागेण तिसिदस्स भोगा सुहं व दीसंति' रागतृषितेन भोगाः सुखमिव दृश्यन्ते ॥१२५१॥ वग्यो सुखेज्ज मदयं अवगासेऊण जह मसाणम्मि । तह कुणिमदेहसंफंसणेण अबुहा सुहायंति ।।१२५२।। 'वग्यो सुखेज्ज' श्मशाने व्याघ्रो मृतकमवग्रास्य तृप्यति यथा तथा कुथितदेहसंस्पर्शनेनाबुधा सुखाधिगमहर्षनिर्भरा भवन्ति ।।१२५२॥ भवतु नाम सुखं भोगस्तथापि तदत्यल्पमिति निवेदयति तह अप्पं भोगसुहजह घावंतस्स अठितवेगस्स । गिम्हे उण्हातत्तस्स होज्ज छायासुह अप्पं ॥१२५३।। 'तथा अप्पं भोगसुहं धावंतस्स अठितवेगस्स गिर्भ उण्हातत्तस्स जहा छायासुहं अप्पं तह अप्पं भोगसुहं' धावतोऽस्थितवेगस्य ग्रीष्मे उष्माभितप्तस्य यथा मार्गस्थकतरुच्छायासुखमल्पं भोगसुखं तथा ॥१२५३।। अहवा अप्पं आसाससुहं सरिदाए उप्पियंतस्स । भूमिच्छिक्कंगुट्ठस्स उब्भमाणस्स होदि सोत्तेण ॥१२५४।। 'अहवा' अथवा । 'अप्पं' अल्पं । 'आसाससुहं' आश्वास एव सुखं । 'सरिदाए' नद्यां । 'उप्पियंतस्स' निमज्जतः । 'भूमिच्छिक्कंगुठस्स' भूमिस्पृष्टाङ्गुष्ठस्य । 'सोत्तेण उब्भमाणस्स' स्रोतसा प्रवाहेनोह्यमानस्य । अल्पं आश्वाससुखं तद्वदिन्द्रियसुखमत्यल्पमित्यतिक्रान्तेन संबन्धः ।।१२५४।। इन्द्रियसुखानि यद्यलब्धपूर्वाणि युक्तो विस्मयस्तव तानि सर्वाणि अनन्तवारपरिभुक्तान, तेषु भुक्तेषु परित्यक्तेषु न युक्तो विस्मय इति अनादरं जनयति तेषु सूरिः जावंति केइ भोगा पत्ता सव्वे अणंतखुत्ता ते । को णाम तत्थ भोगेसु विभओ लद्धविजडेसु ।।१२५५।। गा०-जैसे स्मशानमें व्याघ्र मुर्देको खाकर सुखी होता है वैसे ही दुर्गन्धित शरीरके आलिंगनमें अज्ञानी सुख मानकर हर्षसे भर जाते हैं ॥१२५२॥ आगे कहते हैं कि भोगमें भले ही सुख हो किन्तु वह सुख अति अल्प है गा०-जैसे ग्रीष्म ऋतुमें अत्यन्त वेगसे दौड़ते हुए और मध्यकालके सूर्यको किरणोंसे संतप्त पुरुषको मार्गमें स्थित एक वृक्षकी छायामें जानेसे थोड़ा-सा सुख होता है जैसे ही भोगमें अति अल्प सुख है ॥१२५३॥ गा०–अथवा नदीमें डूबते हुए और प्रवाहके द्वारा बहाकर ले जाते हुए मनुष्यको भूमिसे अंगूठेके छू जाने पर जैसा अल्प आश्वास सुख होता है कि मैं तट पर लग जाऊँगा, उसी प्रकार इन्द्रियजन्य सुख अति अल्प होता है ।।१२५४|| गा-यदि इन्द्रिय सुख पूर्व में कभी प्राप्त न हुए होते तो उनकी प्राप्तिमें हर्ष होना १. स्मशाने मृतक शवं भुक्त्वा व्याघ्रस्तुप्यति-आ० । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'जाति के भोगा' यावन्तः केचन भोगाः। 'ते सव्वे पत्ता अणंतखुत्ता ते' सर्व प्राप्ता अनन्तवारं तव । 'को णाम तत्थ भोगेसु' को नाम तेषु भोगेषु विस्मयः लब्धपूज्झितेषु ॥१२५५।। भोगतृष्णा निरन्तरं दहति भवन्तं, सेव्यमानाः पुनर्भोगास्तामेव तृष्णां वर्द्धयन्ति ततो भोगेच्छां शिथिलतां नेयेति वदति-- जह जह भुजइ भोगे तह तह भोगेसु वड्ढदे तण्हा । अग्गीव इंधणाई तण्हं दीविति से भोगा ॥१२५६॥ 'जह जह भुजदि भोगे' यथा यथा भोगान्भुङ्क्ते । 'तह तह' तथा तथा । 'भोगेसु वड्ढदे तण्हा' भोगेष वर्धते तृष्णा । 'अग्गि व' अग्नि वा । यथा 'इंधणाई' इन्धनानि । 'दीविति' दीपयन्ति । 'तहा' तथा । 'तण्ह' तृष्णां दीपयन्ति । 'से' तस्य भोक्तुर्भोगाः । तथा चोक्तंतृष्णाचितः परिवहन्ति न शान्तिरासां । इष्टेन्द्रियाविभवः परिवृद्धिरेव ॥ [वृहत्स्वयंभू०] ॥१२५६॥ जीवस्स पत्थि तित्ती चिरं पि भोएहिं भुजमाणेहिं । तित्तीए विणा चित्तं उन्वूरं उवुदं होइ ॥१२५७॥ 'जीवस्स' जीवस्य । नास्ति तृप्तिश्चिरकालमपि भोगाननुभवतः पल्योपमत्रयं कालं भोगभूमीषु त्रयस्त्रिशत्सागरोपमकालं अमरेषु । तप्त्या च विना चित्तं । 'उग्वरं उम्बुदं' उत्पूर उच्छ्रतं भवतीति सूत्रार्थः ।।१२५७॥ जह इधणेहि अग्गी जह व समुद्दो णदीसहस्सेहिं । तह जीवा ण हु सक्का तिप्पेदु कामभोगेहिं ।।१२५८॥ 'जह इंधणेहि' यथेन्धनरग्निर्न तृप्यति । यथा वा समुद्रो नदीसहस्रः । तथा जीवो न शक्यो भोगैस्तपयितुं ॥१२५८॥ उचित था, किन्तु उन सबको तुमने अनन्त बार भोगा है। उन भोगकर छोड़े गये विषयोंमें हर्ष मानना उचित नहीं है। इस प्रकार आचार्य विषयोंके प्रति अनादर भाव उत्पन्न करते हैं-जितने संसारके भोग हैं वे सब तुमने अनन्त बार प्राप्त किये हैं उन प्राप्त करके छोड़े गये विषयोंमें आश्चर्य कैसा ? ||१२५५॥ आगे कहते हैं कि तुम्हें भोगोंकी तृष्णा निरन्तर जलाती है। भोगोंका सेवन उसी तृष्णाको बढ़ाता है अतः भोगोंकी इच्छाको कम करो गा०-जैसे जैसे भोगोंको भोगते हो वैसे वैसे भोगोंको तृष्णा बढ़ती है। जैसे इंधनसे आग प्रज्वलित होती है वैसे ही भोगोंसे तृष्णा बढ़ती है । कहा भी है-यह तृष्णारूपी ज्वाला सदा जलाती है, इष्ट इन्द्रियोंके विषयोंसे इनकी तृप्ति नहीं होती, बल्कि बढ़ती है ॥१२५६।। गा-तीन पल्य तक भोगभूमिमें, तेतीस सागर तक देवोंमें इस तरह चिरकाल तक भोगों को भोगते हुए भी तृप्ति नहीं होती और तृप्तिके विना चित्त अत्यन्त उत्कण्ठित रहता है ।।१२५७॥ ___गा०-जैसे ईधनसे आगकी तृप्ति नहीं होती। अथवा जैसे हजारों नदियोंसे समुद्रकी Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ भगवती आराधना देविंदचक्कवट्टी य वासुदेवा य भोगभूमीया । भोगेहिं ण तिप्पति हु तिप्पदि भोगेसु किह अण्णो || १२५९ || 'देविंद' देवानामधिपतयः, चक्रलाञ्छना वासुदेवा अर्धचक्रवर्तिनः, भोगभूमिजाश्च भोगेनं तृप्यन्ति । कथमन्यो जनस्तृप्तिमुपेयाद्भोगैः । सुलभामितभोगसाधना श्चिरजीविनः स्वतन्त्राश्चामी । अन्ये तु भवादृशा जठरभरणमात्रमपि कर्तुं अशक्ताः स्वल्पायुषः, पराधीनवृत्तयश्च तृप्यन्तीति का कथा ॥१२५९॥ संपत्तिविवत्तीय अज्जणरक्खणपरिग्गहादीसु । भोगत्थं होदि रो उद्घयचित्तो य घण्णो य ।। १२६० ।। 'संपत्तिविवत्तीय' सम्पत्सु विपत्सु च । 'अज्जण रक्खणपरिग्गहादीसु' द्रव्यस्थालब्धस्यार्जने', पुञ्जीकरणे, राशीकृतस्य रक्षणे । पर हस्ते विप्रकीर्णस्य ग्रहणे । आदिशब्देन तद्वययकरणे वा । भोगत्थं अनुभवार्थं । अर्जनादिषु प्रवृत्तः । 'उध्दुदचित्तो य णरो होवि' चलचित्त उत्कण्ठावांश्च भवति नरः । द्रव्यसम्पदि जातायां रागाच्चलचित्तं भवति । द्रविणादिविनाशे कथं जीवामि पुनर्द्रव्याजनं करोमीति ॥१२६०॥ उद्घयमणस्स ण सुहं सुहेण य विणा कुदो हवदि पीदी । पीदीए विणा ण रदी उद्घयचित्तस्य घण्णस्स ।।१२६१।। 'उद्धबमणस्स' व्याकुलचित्तस्य 'ण सुहं' न सुखं भवति । 'सुहेण य विणा कुवो हवदि पोदी' सुखेन विना कुतो भवति प्रीतिस्तृप्तिः । 'पीवीए विणा' प्रीत्या विना । 'ण रवी' न रतिः । 'उदूधुदचित्तस्स' व्याकुलचेतसः । ' घण्णस्स' उत्कण्ठाडाकिन्या गृहीतस्य ॥ १२६१ ॥ तृप्ति नहीं होती, वैसे ही भोगोंसे जीवकी तृप्ति नहीं होती || १२५८|| गा० - टी० – देवोंके अधिपति इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव अर्थात् अर्धचक्री और भोगभूमियाँ जीव भी भोंगों तृप्त नहीं होते । तब साधारण मनुष्य कैसे भोगोंसे तृप्त हो सकता है ? अर्थात् इनके लिए भोगोंके अपरिमित साधन सुलभ हैं, तथा इनकी आयु भी बहुत होनेसे चिरकालतक ये जीवित रहते हैं और किसीके अधीन न होनेसे स्वतन्त्र होते हैं । आप सरीखे साधारण मनुष्य तो पेट भरनेमें भी असमर्थ और थोड़ी आयुवाले तथा पराधीन होते हैं । अतः उनकी भोगों से तृप्ति होनेकी तो बात ही क्या है ? || १२५९|| गा० - सम्पत्ति होनेपर मनुष्य अप्राप्त द्रव्यके कमाने में एकत्र हुए द्रव्यके रक्षणमें, दूसरेके हाथमें गई सम्पत्तिको उससे लेनेमें और आदि शब्दसे उसे खर्च करनेमें, तथा भोगनेमें व्याकुल रहता है और विपत्तिमें अर्थात् धन आदिका विनाश होनेपर कैसे मैं जीवित रहूँगा ? कैसे पुनः द्रव्य कमाऊँगा इस उत्कण्ठासे व्याकुल रहता है | १२६० ॥ गा० - जिसका चित्त व्याकुल रहता है उसे सुख नहीं होता । सुखके विना प्रीति नहीं होती । प्रीति विना रति नहीं होती । इस तरह जिसका चित्त व्याकुल रहता है और जो उत्कण्ठारूपी डाकिनी से ग्रस्त है उसे सुख कैसे हो सकता है और सुखके विना प्रीति और प्रोतिके विना रति सम्भव नहीं है । १२६१ ॥ १. स्यावर्जनं पु० - आ० । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका जो पुण इच्छदि रमिदु अज्झप्पसुहम्मि णिव्वुदिकर म्मि | कुदि रद उवसंतो अज्झष्पसमा हु णत्थि रदी ।। १२६२ ।। 'जो पुण इच्छदि रमिदु' यः पुना रमितुं इच्छति । 'सो कुणदि रवि' स करोतु रति । क्व ? 'अज्झप्पसुखम्मि' अध्यात्मसुखे । 'णिव्वुदिकरम्मि' निवृतिकरे । 'उवसंतो' उपशान्तरागकोपः । एतदुक्तं भवति - मनोज्ञामनोज्ञविषयसन्निधाने स्वसंकल्पहेतुकौ यौ रागद्वेषो तो परित्यज्य निवृत्तितृप्तिकरे अध्यात्मसुखे रतिं करोतु । 'अज्झम्पसमा आत्मस्वरूपविषया रतिरध्यात्मशब्देनोच्यते । तया सदृशी रतिः । " णत्थि खु' न विद्यते एव । यस्मात् भोगरतिरध्यात्मनो रत्या न सदृशी ॥१२६२ ॥ कथम् ? अप्पायत्ता अज्झपरदी भोगरमणं परायतं । भोगरीए चइदो होदि ण अज्झप्परमणेण ॥ १२६३।। 'अप्पायत्ता' स्वायत्ता । 'अज्झप्परदी' आत्मस्वरूपविषया रतिः परद्रव्यानपेक्षणात् । 'भोगरमणं' भोगरतिः 'परायत्तं' परायत्ता परद्रव्यालम्बनत्वात् । तेषां च कथंचिदेव सान्निध्यं क्वचिदेव कस्यचिदेवेति । एतेन स्वायत्ततया परायत्ततया चासाम्यमाख्यातं । प्रकारान्तरेणापि वैषम्यं दर्शयति । 'भोगरदीए चइदो होदि' भोगरत्या च्युतो भवति । न प्रच्युतो भवति 'अज्झप्परमणेण' अध्यात्मरत्या ॥१२६३॥ ६३३ अनेक विघ्नसहिता विनाशिनी च भोगरतिः, अध्यात्मरतेस्तु भाविताया न नाशो नापि विघ्न इति कथयत्युत्तरगाथा- भोगरदीए णासो नियदो विग्घा य होंति अदिबहुगा । अझप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्घो वा ।। १२६४ ॥ गा० - टी० - हे क्षपक ! जो तू रमण करना चाहता है तो रागद्वेषका शमन करके परम तृप्तिकारक अध्यात्म सुखमें रति कर । कहनेका अभिप्राय यह है कि इष्ट और अनिष्ट विषयोंके प्राप्त होनेपर 'यह अच्छा है और यह बुरा है' इस प्रकारके संकल्पके कारण जो रागद्वेष होते हैं उन्हें त्यागकर तृप्तिकारक अध्यात्म सुखमें रमण कर । यहाँ अध्यात्म शब्दसे आत्मस्वरूप विषयक रति कही है । उसके समान कोई रति नहीं हैं। क्योंकि भोगसम्बन्धी रति अध्यात्म विषयक रतिके समान नहीं है ॥ १२६२|| गा० - टी० – क्योंकि आत्मस्वरूप विषयक रति अपने अधीन है उसमें परद्रव्यकी अपेक्षा नहीं है । किन्तु भोग रति पराधीन है क्योंकि उसमें परद्रव्यका अवलम्बन लेना होता है । और परद्रव्य कभी-कभी ही किसी किसीको ही थोड़े बहुत प्राप्त होते हैं । इससे स्वाधीन और पराधीन होनेसे दोनोंमें असमानता कही । अन्य प्रकारसे भी दोनोंमें विषमता बतलाते हैं— I भोग रतिसे तो मनुष्य वंचित हो जाता है किन्तु अध्यात्म रतिसे नहीं होता क्योंकि आत्म द्रव्य सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा उसके पास रहता है ।। १२६३॥ भोग रतिमें अनेक विघ्न रहते हैं और वह नष्ट होने वाली है किन्तु भावित अध्यात्म रतिका कभी नाश नहीं होता और न उसमें विघ्न आता है, यह आगे कहते हैं Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ भगवती आराधना 'भोगरवीए' भोगरत्याः। "णियवो णासों नियतो विनाशः । 'विग्घा यति' विघ्नाश्च भवन्ति । 'अविबहुगा' अतीव बहवः । 'अज्झप्परदीए' अध्यात्मरतेः । 'सुभाविदाए' सुष्ठु भावितायाः । 'णासो' नाशो, न विद्यते । “विग्धा वा' विघ्ना वा न सन्ति । नियतं नश्वरतयाऽनश्वरतया वा बहु विघ्नतया, निर्विघ्नतया च तयो रत्योर्वेषम्यमिति भावः ॥१२६४॥ इन्द्रियसुखं शत्रुतया सङ्कल्पनीयं तथा च तत्रादरो जन्तोनिवृतेः अतो अतीन्द्रियसुखत्वमेव वीतरागत्वहेतुके संवरे इति मत्वा सूरिचूलामणिराह दुक्ख उप्पादिता पुरिसा पुरिसस्स होति जदि सत्तू । अदिदुक्ख कदमाणा भोगा सत्तू किहुं ण हुंती ॥१२६५।। 'दुक्ख उप्पादिता' दुःखमुत्पाद्य । 'जदि सत्तू होति' यदि शत्रवो भवन्ति । 'पुरिसा पुरिसस्स' पुरुषाः पुरुषस्य । 'अदिदुक्ख कुणमाणा भोगा' अतीव दुःखं कुर्वन्तो भोगा इन्द्रियसुखानि । 'किप सत्तू ण हुति' कथं शत्रवो न भवन्ति भवन्त्येवेति । कथं भोगानां दुःखहेतुता एवं मन्यते ? इन्द्रियसुखं नाम स्त्रीवस्त्रगन्धमालादिपरद्रव्यसन्निधानजन्यं । तच्च स्त्र्यादिकं दुर्लभतमं निर्द्रविणस्य, तेन तदर्थ कृष्यादिकर्मणि प्रयतितव्यं । ततो महानायासः । इहैव भवानुगामी दुःखनिमित्तं च कर्म हिंसादिषु प्रवर्तमानोऽर्जयति । तदिमं दुरन्ते संसाराम्भोधौ निमज्जयति । तत्र च निमग्नेन कतमं दुःखमनेन नावाप्यते ॥१२६५।। शत्रुतमा भोगा इति कथयति इहई परलोगे वा सत्तू मित्तत्तणं पुणमुर्वेति । इहई परलोगे वा सदावि दुःखावहा भोगा ।।१२६६॥ 'इहई' अस्मिन्नेव जन्मनि । 'परलोगे वा' परजन्मनि वा । 'सत्तू' शत्रवः । 'मित्तत्तणं' मित्रतां । गा०-भोग रतिका नियमसे विनाश होता है तथा उसमें विघ्न भी बहुत हैं । किन्तु अच्छी रीतिसे भावित अध्यात्म रतिका न विनाश होता है और न उसमें कोई विघ्न आते हैं। इस तरह भोगरति नियमसे नश्वर और बहुत विघ्न वाली है तथा अध्यात्मरति निर्विघ्न और अविनाशी है इसलिए दोनोंमें कोई समानता नहीं है ।।१२६४|| ___ आचार्य कहते हैं कि इन्द्रिय सुखको शत्रुके समान मानो। ऐसा करनेसे उनमें जो आदरभाव है वह दूर होगा। तथा अतीन्द्रिय सुख ही वीतरागताका कारण होनेसे संवर रूप है ___ गा०-टी०-यदि दुःख देने वाले पुरुष पुरुषके शत्रु होते हैं तो अति दुःख देने वाले भोग अर्थात् इन्द्रिय सुख शत्रु क्यों नहीं हैं ? अवश्य हैं । भोग दुःखके कारण क्यों हैं यह विचार करें। स्त्री, वस्त्र, गन्धमाला आदि परद्रव्यके मिलनेसे जो होता है उसे इन्द्रिय सुख कहते हैं। वह स्त्री आदि धनहीनके लिए अत्यन्त दुर्लभ हैं । अतः धनकी प्राप्तिके लिए कृषि आदि कर्म करना चाहिए। उससे महान् आरम्भ होता है । हिंसा आदिमें प्रवत्ति करने में इसी भव तथा परभवमें दुःख देने वाले कर्मका उपार्जन करता है। और वह कर्म उसे ऐसे संसार समुद्र में डुबाता है जिसका पार पाना अत्यन्त कठिन है । उस संसार समुद्र में डूबकर यह जीव कौन दुःख नहीं भोगता ॥१२६५।। आगे कहते हैं कि भोग सबसे बड़े शत्रु हैंगा०-इस जन्ममें अथवा परजन्ममें शत्रु शत्रुताको छोड़कर मित्र बन जाते हैं। अर्थात् Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'पुणमुर्वेति' पुनढौंकन्ते । शत्रवः शत्रुतामपि जाः । कार्यवशात्, उपकारातिशयसम्पादनान्मित्रतां वा यान्ति च । वाचा न स्फुटतरा । इहैव तथा परलोके वा 'सव्वदा दुक्खावहा भोगा' सर्वदा दुःखावहा भोगाः। ततः शत्रुतमा इति भावनीयं ॥१२६६।। एगम्मि चेव देहे करेज्ज दुक्खं ण वा करेज्ज अरी । भोगा से पुण दुक्खं करंति भवकोडिकोडीसु ॥१२६७|| 'एगम्मि चेव देहे' एकस्मिन्नेव देहे । 'करेज्ज दुक्ख ण वा करेज्ज अरी' कुर्याद्दुःखं न वा शत्रुः । 'भोगा पुण' भोगा पुनः । 'से' तस्य । 'दुःक्ख करंति' दुःखं कुर्वन्ति । 'भवकोडिकोडीसु' अनन्तेषु भवेषु । एवं भोगदोषानवेत्यात्र निदानं त्वया न कायं इत्युपदिष्टं सूरिणा ॥१२६७।। मधुमेव पिच्छदि जहा तडिओलंबो ण पिच्छदि पपादं । तह सणिदाणो भोगे पिच्छदि ण हु दीहसंसारं ।।१२६८॥ 'मधुमेव पिच्छदि' मध्येव पश्यति यथा तटेऽवलम्बमानः । 'ण पिच्छवि' न प्रेक्षते । 'पपाद' प्रपातमात्मनः । 'तह' तथा 'सणिदाणो' निदानसहितः । 'भोगे पिच्छदि' भोगान्प्रेक्षते । 'ण हु पेच्छदि' नैव प्रेक्षते । . 'दोहसंसारं' दीर्घससारं ॥१२६८॥ जालस्स जहा अंते रमंति मच्छा भयं अयाणंता । तह संगादिसु जीवा रमंति संसारमगणंता ॥१२६९॥ 'जालस्स' जालस्य । 'अंते' मध्ये । 'जहा मच्छा रमंति' यथा मत्स्या रमन्ते । 'भयमयाणंता' भयमनवबुध्यमानाः । 'तह संगादिसु' तथा परिग्रहादिषु । 'जीवा रमंति' जीवा रमन्ते । 'संसारमगणंता' संसारमगणयन्तः ॥१२६९॥ दुक्खेण देवमाणुसभोगे लद्धण चावि परिवडिदो । णियदमदीदि कुजोणी जीवो सघरं पउत्थो वा ।।१२७०॥ उपकार आदि करनेसे प्रभावित होकर शत्रु मित्र बन जाते हैं वह भी केवल कहनेके लिए नहीं किन्तु खुले दिलसे मित्र बन जाते हैं । किन्तु भोग इस जन्ममें और परजन्ममें सदा ही दुःखदायी होते हैं । इसलिए वे शत्रुसे भी बड़े शत्रु हैं ॥१२६६।। गा०-शत्रु एक ही भवमें दुःख दे या न भी दे । किन्तु भोग तो अनन्त भवोंमें दुःख देते हैं ॥१२६७|| ___ इस प्रकार भोगोंके दोष जानकर हे क्षपकः तुम्हें निदान नहीं करना चाहिए, ऐसा आचार्य उपदेश देते हैं गा-इस प्रकार जैसे कुएंकी दीवारके एक ओर लटका हुआ मनुष्य टपकने वाले मधुकी बूंदोंको ही देखता है किन्तु अपने गिरनेको नहीं देखता । वैसे ही निदान करने वाला भोगोंको तो देखता है किन्तु अपने दीर्घ संसारको नहीं देखता ॥१२६८॥ गा०-जैसे मत्स्य भयको न जानते हुए जालके मध्यमें उछलते-कूदते हैं, वैसे ही जीव संसारकी चिन्ता न करके परिग्रह आदिमें आनन्द मानते हैं ॥१२६९।। Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ भगवती आराधना 'दुक्खेण लद्ध ण' क्लेशेन लब्ध्वा । 'देवमाणुसभोगें' दैवान्मानुषांश्च भोगान् । 'परिवडिदो' परिपतितः प्रच्युतस्ततो भोगाज्जीवः । 'कुजोणी णियदमदीदि' कुत्सितां योनि नियतमुपैति । किमिव ? 'सघरं' स्वगृह, 'पउत्थो वा' प्रवासीव ॥११७०॥ जीवस्स कुजोणिगदस्स तस्स दुक्खाणि वेदयंतस्स । किं ते करंति भोगा मदोव वेज्जो मरंतस्स ।।१२७१।। 'जीवस्स कुजोणिगदस्स' कुयोनिगतस्य जीवस्य । 'दुक्खाणि वेदयंतस्स' दुःखानि वेदयमानस्य । “कि ते करेंति भोगा' किं ते कुर्वन्ति भोगाः स्त्रीवस्त्रादयः । नैव किञ्चिदपि दुःखलवमपनेतुं क्षमाः । 'मवोव वेज्जो' वैद्यो मृतो यथा । 'मरंतस्स' म्रियमाणस्य न किञ्चित्कतुं क्षमः ॥१२७१॥ जह सुत्तबद्धसउणो दूरंपि गदो पुणो व एदि तहिं । तह संसारमदीहि हु दूरंपि गदो णिदाणगदो ॥१२७२॥ 'जह सुत्तबद्धसउणो' यथा सूत्रेण दीर्पण बद्धः पक्षी । 'दूरंपि गदो' दूरमपि गतः । 'पुणो एदि तहि' पुनरप्येति तमेव देशं । 'तह संसारमदीदि खु' संसारशब्दात्परः खु शब्दो द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः-संसारमेवाधिगच्छतीति । 'दूरं पि गदो' महद्धिक स्वर्गादिस्थानमुपगतः । "णिदाणगदो' निदानं परभवसुखातिशये मनःप्रणिधानं गतः ॥१२७२॥ __ कश्चिद्रुद्धः कारागृहे इयता कालेन तव द्रविणं दास्यामि भवदीयमेव तावत्प्रयच्छेति गृहीत्वा द्रव्यं रोधकेभ्यः प्रदाय स्वगृहे सुखं वसन्नपि पुनर्यथा तरुत्तमणैर्धार्यते तथव निदानकारी स्वकृतेन पुण्येन परिप्राप्तस्वर्गोऽपि पुनरधः पततीति निगदति इन्द्रिय सुख नियमसे कुयोनियों में भ्रमण करनेका मूल कारण है क्योंकि अत्यधिक रागद्वेषकी उत्पत्तिमें निमित्त है। उन कुयोनियोंमें उत्पन्न होकर नाना प्रकारके दुःखोंका अनुभव करने वाले जीवके दुःखोंको, देवगति आदिके भोग वस्त्र अलंकार भोजन आदि दूर करने में समर्थ नहीं हैं, ऐसा आगे कहते हैं गा०-जैसे देशान्तरमें गया व्यक्ति सर्वत्र घूमकर अपने घरको ही जाता है वैसे ही बड़े कष्टसे प्राप्त देव और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको भोगकर उन भोगोंके नष्ट हो जाने पर नियमसे कुयोनिमें जाता है ।।१२७०।। गाo-जैसे मरा हुआ वैद्य मरते हुएकी रक्षा नहीं कर सकता। वैसे ही कुयोनिमें जाकर उस दुःख भोगते हुए जीवका स्त्री वस्त्र आदि भोग क्या कर सकते हैं ? वे उसका किश्चित् भी दुःख दूर नहीं कर सकते ॥१२७१॥ गा-जैसे लम्बे धागेसे बंधा पक्षी सुदूर जाकर भी पुनः वहीं लौट आता है। वैसे ही परभव सम्बन्धी विषय सुखमें मन लगाने वाला निदानो महान् वृद्धिसे सम्पन्न स्वर्गादि स्थानोंमें जाकर भी संसारमें ही लौट आता है ॥१२७२॥ जैसे कोई जेलखानेमें पड़ा व्यक्ति, मैं इतना समय बीतने पर तुम्हारा धन तुम्हें लौटा दूंगा तुम मुझे धन दो, ऐसा वादा करके धन लेता है और वह धन जेलके रक्षकोंको देकर अपने घरमें सुखपूर्वक निवास करता है किन्तु उसे पुनः कर्ज देने वाले पकड़ लेते हैं उसी प्रकार निदान करने Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६३७ दाऊण जहा अत्थं रोधणमुक्को सुहं घरे वसइ । पत्ते समए य पुणो रुंभइ तह चेव घारांणओ ॥१२७३।। 'दाऊण' दत्वा । 'अत्यं' अर्थ । 'जह' यथा । 'रोधणमुक्को' रोधेन मुक्तः । 'सुहं घरे वसदि खु' सुखेन गृहे वसति । 'पत्ते समये य' प्राप्ते चावधिकाले । 'पुणो भइ' पश्चाच्च रुंम्यते । 'तथा चेव' पूर्ववदेव । 'धारणीओं अधमणः ॥१२७३।। दान्तिके योजयति तह सामण्णं किच्चा किलेसमुक्कं सुहं वसइ सग्गे । संसारमेव गच्छइ तत्तो य चुदो णिदाणकदो ॥१२७४॥ संभूदो वि णिदाणेण देवसुक्ख च चक्कहरसुक्ख । पत्तो तत्तो य चुदो उववण्णो 'तिरियवासम्मि ।।१२७५।। 'संभूदो वि णिदाणेण' निदानेन संभूतः कश्चित् । 'देवसुक्ख" देवसुखं । चक्कधरसोक्ख' चक्रधरसौख्यं । 'पत्तो' प्राप्तः । 'तत्तो य चुदो' तस्मात्सुखात्प्रच्युतः उत्पन्नः । 'उववण्णो' उपपन्नः । तिरियवासम्मि' उतिर्यगावासे ॥१२७४|| - णच्चा दुरंतमद्धयमत्ताणमतप्पयं अविस्सायं । भोगसुहं तो तम्हा विरदो मोक्खे मदिं कुज्जा ॥१२७६॥ 'णच्चा' ज्ञात्वा। 'दुरंत' दुरवसानदुःखफलमिति यावत् । 'अर्धवं' अनित्यं । 'अत्ताणं' अत्राणं । 'अतप्पगं' अतर्पकं । 'अविस्सायं' असकृवृत्तं । 'भोगसुखं भोज्यन्ते, सेव्यन्ते इति भोगाः स्त्र्यादयः, तर्जनितं सुखं । 'तो' पश्चात् । 'तम्हा' तस्मात् । भोगसुखात्, दुरन्तादिदुष्टदोषात् । 'विरवों' व्यावृत्तः । 'मोक्खे' मोक्षे' वाला अपने द्वारा किये गये पुण्यसे स्वर्ग प्राप्त करके भी पुनः गिरता है, यह कहते हैं ___गा०-जैसे धन देकर कारागारसे मुक्त हुआ कर्जदार सुखपूर्वक घरमें रहता है। किन्तु कर्ज चुकानेका समय आने पर पुनः पकड़कर बन्द कर दिया जाता है ।।१२७३॥ ____गा०-वैसे ही मुनिपद धारण करके निदान करने वाला स्वर्गमें क्लेश रहित सुखपूर्वक रहता है और वहाँसे च्युत होकर संसारमें ही भ्रमण करता है ।।१२७४॥ ____ गा०-संभूत नामक व्यक्ति निदानके द्वारा देवगतिके सुख और चक्रवर्तीके सुखको प्राप्त हुआ अर्थात् मरकर सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ और वहाँसे मरकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुआ । उसके पश्चात् मरकर तिर्यश्चगति (नरक गति) में उत्पन्न हुआ ॥१२७५॥ गा०-जो भोगे जाते हैं उन स्त्री आदिको भोग कहते हैं। उनसे होने वाला सुख ऐसा दुःख देता है जिसका अन्त होना दुष्कर है, तथा वह भोग जन्य सुख अनित्य है, अरक्षक है, उससे तृप्ति नहीं होती, अनादि संसारमें उसे जोवने अनेक बार भोगा है। अतः उससे मनको हटाकर समस्त कर्मोंके अपायरूप मोक्षमें मन लगाना चाहिए। अर्थात् चारित्र और तपका पालन करनेसे १-२-३. णिरय-मु०। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ भगवती आराधना निरवशेषकर्मापाये । 'मदि कुज्जा' मतिं कुर्यात्, अनुष्ठीयमानेन चारित्रेण तपसा वा कर्मक्षयोऽस्तीति मति कुर्यात्, न निदानं कुर्यादित्यर्थः ।।१२७६॥ निदानदोषं विस्तरत उपदर्य अनिदानत्वे गुणं व्याचष्टे अणिदाणो य मुणिवरो दसणणाणचरणं विसोधेदि । तो सुद्धणाणचरणो तवसा कम्मक्खयं कुणइ ।।१२७७।। 'अणिवाणो य मुणिवरो' अनिदानो यतिवृषभः, 'दंसणणाणचरणं' रत्नत्रयं, विसोधेदि' विशोधयति, निदानाभावादनतिचारं सम्यग्दर्शनं शुद्धं भवति, तस्मिन्निर्मले निर्मलं ज्ञानं, निर्मल विशुद्धज्ञानपुरोगं चारित्रं विशुद्धं भवति, 'तवसा कम्मक्खयं कुणदि' तपसा कर्माणि निरवशेषाणि वियोजयत्यात्मनः ॥१२७७॥ इच्चेवमेदमविचिंतयदो होज्ज हु णिदाणकरणमदी । इच्चेवं पस्संतो ण हु होदि णिदाणकरणमदी ॥१२७८।। 'इच्चेवमेदमविचितयदों' इत्येवमेतद्वस्तुजातं अविचिन्तयतः । 'होज्ज हु' भवेदेव, णिदाणकरणमदो' निदानकरणे बुद्धिः, 'इच्चेवं पस्संतो' इत्येवमेतत्पश्यन, 'न खु होदि' नैव भवति 'णिदाणकरणमवी' निदानकरणमतिः । णिदाणं ॥१२७८॥ मायासल्लस्सालोयणाधियारम्मि वण्णिदा दोसा । मिच्छत्तसल्लदोसा य पुन्वमुववणिया सव्वे ॥१२७९।। 'मायासल्लस्स' मायाशल्यस्य, 'आलोयणाधिकारम्मि' आलोचनाधिकारे 'वण्णिदा दोसा' वणिता दोषाः, 'मिच्छत्तसल्लदोसा' मिथ्यात्वशल्यदोषाश्च । 'सम्वे' सर्वे, 'पुन्वमुववण्णिदा' पूर्वमेव व्यावणिताः, शल्यप्रयगतदोषा भवतो व्यावणिता इत्यनेन सूरिरेतत्कथयति आबुद्धदोषेण शल्यत्रयं त्वया त्याज्यमिति ।।१२७९॥ मायाशल्यापरित्यागात्प्राप्तदोषमर्थाख्यानेन दर्शयतिकर्मक्षय होता है ऐसी मति करना चाहिए । निदान नहीं करना चाहिए ॥१२७६।। विस्तारसे निदानके दोष बतलाकर निदान न करने में गुण कहते हैं गा०—निदान न करने वाले मुनिवर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयको विशुद्ध करते हैं। अर्थात् निदान न करनेसे निरतिचार सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है। सम्यगदर्शनके निर्मल होने पर ज्ञान निर्मल होता है। और निर्मल विशुद्ध ज्ञान पूर्वक चारित्र विशुद्ध होता है। तब विशुद्ध ज्ञान चारित्रसे सम्पन्न मुनि तपके द्वारा सब कर्मोंका क्षय करता है ।।१२७७॥ __गा०-उक्त प्रकारसे जो वस्तुस्वरूपका विचार नहीं करता उसकी मति निदान करने में लगती है । और जो उसका विचार करता है उसकी मति निदान करने में नहीं लगती ॥१२७८।। . गा०-आलोचना अधिकारमें मायाशल्यके दोष कह आये हैं। और मिथ्यात्व शल्यके दोष पूर्वमें ही कहे हैं। इस प्रकार हे क्षपक ! तीनों शल्योंके दोष आपसे हमने कहे हैं। अब इन दोषोंको जानकर तुम्हें तीनों शल्योंका त्याग करना चाहिए। इससे आचार्य क्षपकके प्रति ऐसा कहते हैं ।।१२७९।। मायाशल्यका त्याग न करने से प्राप्त हुए दोषको दृष्टान्त द्वारा कहते हैं • Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका पभट्ठबोधिलाभा मायासल्लेण आसि पूदिमुही। दासी सागरदत्तस्स पुप्फदंता हु विरदा वि ।।१२८०॥ 'पन्भट्टबोधिलाभा' प्रभ्रष्टो विनष्टो दीक्षाभिमुखबुद्धिलाभो यस्याः सा प्रभ्रष्टबोधिलाभा । 'आसी' आसीत् । का ? "पूदीमुही' पूतिमुखीसंज्ञिता । 'सागरवत्तस्स दासी' सागरदत्तवैश्यस्य दासी । केन ? 'मायासल्लेण' मायाशल्येन । 'पुप्फदंता हु विरवा वि मायासल्लेण पन्भट्ठबोधिलाभा आसी' इति पदसम्बन्धाः पुष्पदत्ताख्या संयता च मायया प्रभ्रष्टबोधिलाभा आसीत् । मायाशल्यं ॥१२८०॥ मिच्छत्तसल्लदोसा पियधम्मो साधुवच्छलो संतो। बहुदुक्खे संसारे सुचिरं पडिहिंडिओ मरीची ॥१२८१।। "मिच्छत्तसल्लदोसा' मिथ्यात्वशल्यदोषात् । 'पियधम्मो' प्रियधर्मः । 'साधुवच्छल्लो संतो' साधूनां वत्सलोऽपि सन् मरीचिः । 'संसारे सुचिरं पडिहिंडिओ' संसारे सुचिरं भ्रान्तः, कीदृशे ? 'बहुदुक्ख' बहुदुःखे । मिथ्याशल्यं ॥१२८१॥ एवं निर्यापकेण सूरिणा संस्तूयमानः साधुवर्गों निर्वाणपुरं प्रविशतीति दर्शयति उत्तरप्रबन्धेन इय पन्वज्जाभंडिं समिदिबइल्लं तिगुत्तिदिढचक्कं । रादियभोयणउद्धं सम्मत्तक्ख सणाणधुरं ॥१२८२।। "इय सारमिज्जंतो साध्वग्गसत्थो साधुवणियगो संसारमहावितरदित्ति' पदघटना। व्यावणितक्रमेण संस्क्रियमाणः साधुवृन्दसार्थः संसारमहाटवीं तरति । 'पवज्जाभंडिमारुहिय पच्छिदो' प्रव्रज्याभण्डिमारुह्य प्रस्थितः, 'समिदिवइल्लं' समितिबलीवहीं, 'तिगुत्तिदिढचक्कं' त्रिगुप्तिदृढचक्रां, ‘सम्मत्तक्वं' सम्यक्त्वाक्षां, 'सणाणधुरं' समीचीनज्ञानधूर्वती ॥१२८२॥ गा०-पुष्पदन्ता नामकी आर्यिका आर्यिका होनेपर भी मायाशल्यके कारण दीक्षाके अभिमुख होनेकी बुद्धिके लाभसे भ्रष्ट होकर सागरदत्त वैश्यके घरमें पूतिमुखी नामकी दासी हुई ॥१२८०॥ विशेषार्थ-इसकी कथा वृहत्कथाकोशमें ११० नम्बरपर कही है ॥१२८०॥ मायाशल्यका वर्णन हुआ। गा०-धर्मप्रेमी और साधुओंके प्रति वात्सल्यभाव रखनेवाला मरीचिकुमार मिथ्यात्वशल्य दोषके कारण बहु दुःखपूर्ण संसारमें भ्रमता हुआ ॥१२८१।। विशेषार्थ-यह मरीचिकुमार भरतका पुत्र था जो महावीर तीर्थकर हुआ। भगवान् आदिनाथके मुखसे अपना तीर्थंकर होना सुनकर यह भ्रष्ट हो गया था ॥१२८१॥ आगे कहते हैं कि इस प्रकार निर्यापकाचार्यके द्वारा संस्तुत साधुवर्गके साथ क्षपक मोक्षनगरमें प्रवेश करते हैं गा०-इस प्रकार क्षपकसाधुरूपी व्यापारी दीक्षारूपी गाड़ीपर साधुओंके संघके साथ चढ़कर निर्वाणरूपी भाँडके लिए सिद्धिपुरीकी ओर प्रस्थान करता है। उस दीक्षारूपी गाड़ीमें १. 'इयसारमिज्जतो साधुवृन्दसार्थः संसारमहाटवीं तरति'-आ० । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना वदभंडभरिदमारुहिदसाधुसत्थेण पत्थिदो समयं । णिव्वाणभंडहेदु सिद्धपुरी साधुवाणियओ ॥१२८३।। 'ववभंडभरिवं' व्रतभाण्डपूर्ण । 'साघुसत्येण पत्थिदो समगं' साधुसार्थेन सह प्रस्थितः। किं प्रति ? सिद्धिपुरं । 'निव्वाणभंडहेर्नु' निर्वाणद्रव्यनिमित्तं । 'साधुवाणियगो' क्षपकसाधुवणिक् ॥१२८३।। आयरियसत्यवाहेण णिच्चजुत्तेण सारविज्जंतो। सो साहुवग्गसत्थो संसारमहाडविं तरहः॥१२८४॥ 'आयरियसत्थवाहेण' आचार्यसार्थवाहेन । 'णिच्चजुत्तेण' सर्वदानपायिना । 'सारविज्जतो' 'संस्र यमाणः ॥१२८४॥ तो भावणादियंतं रक्खदि तं साधुसत्थमाउत्तं । इंदियचोरेहिंतो कसायबहुसावदेहिं च ॥१२८५।। 'तो' ततः । 'भावणादियंतं रक्खदि' भावनादिभिः प्रयत्न रक्षति । 'तं साधुसत्यं' तं साधुसार्थ । 'आउतं' आयुक्तं आत्मना । कुतो रक्षति इत्याशङ्कायां उत्तरं-'इंदियचोरेहितो' इन्द्रियचौरेभ्यः । 'कसायबहुसावदेहि वा' कषायबहुश्वापदेभ्यश्च ॥१२८५॥ विसयाडवीए मज्झे ओहीणो जो पमाददोसेण । इंदियचोरा तो से चरित्तभंडं विलुपंति ॥१२८६॥ "विसयाडवीए मझे' स्पर्शरसरूपगन्धशब्दादिविषया अटवीव ते दुरतिक्रामणीयाः । तस्या विषयाटव्या मध्ये । 'जो ओहीणों' यः साधुरपसृतः । 'पमाववोसेण' प्रमादाख्येन दोषेण । 'इंदियचोरा' इन्द्रियाख्याश्चोराः । 'से' तस्यापसृतस्य साधुवणिजः । 'चरित्तभंड' चरित्रभाण्डं । "विलुपंति' अपहरन्ति । सन्निहितमनोज्ञामनोज्ञविषयजाः इन्द्रियमत्यनुयायिनो रागद्वषाश्चारित्रं विनाशयन्ति प्रमादिनः । आचार्यस्तु ध्याने स्वाध्याये प्रवर्तयन् प्रमादमपसारयतीति नेन्द्रियचौरर्बध्यते इति भावः ॥१२८६॥ समितिरूपी बैल जुड़े हैं, तीन गुप्तिरूपी उसके मजबूत चक्के हैं। रात्रि भोजनसे निवृत्तिरूप दो दीर्घ दण्डे हैं । सम्यक्त्वरूपी अक्ष है समीचीनज्ञानरूपी धुरा है ॥१२८२-८३॥ ___ गा०-आचार्य उस संघके नायक है जो निरन्तर सावधान हैं। उनके द्वारा बार-बार सन्मार्गमें लगाया गया वह आराधक साधु समुदाय संसाररूपी महावनको पार करता है ।।१२८४॥ गा०-वह संघपति आचार्य अपने द्वारा भावना आदिमें नियुक्त उस साधु समुदायकी इन्द्रियरूपी चोरोंसे और कषायरूपी अनेक जंगली हिंसक जानवरोंसे रक्षा करता है ॥१२८५।। ___ गा०-टी०-स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द आदि विषय अटवीके समान बड़े कष्टसे लांघे जाते हैं इसलिए उन्हें अटवी (घोर वन की उपमा दी है। उस विषयरूपी अटवीके म साधु प्रमाद दोषसे जाता है उसके चारित्ररूपी धनको इन्द्रियरूपी चोर चुरा लेते हैं । अर्थात् प्राप्त इष्ट अनिष्ट विषयोंको लेकर इन्द्रिय बुद्धिके अनुसार उत्पन्न हुए रागद्वेष उस प्रमादी मुनिके चारित्रको नष्ट कर देते हैं। किन्तु आचार्य ध्यान और स्वाध्यायमें लगाकर प्रमादोंको दूर करता १. संस्क्रियमाण-मु०, मूलारा० । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ विजयोदया टोका अहवा तल्लिच्छाई कूराइ कसायसावदाई तं । खज्जति असंजमदाढाहिं संकिलेसादिदंसेहिं ॥१२८७।। 'अहवा' अथवा । तल्लिच्छाई' अपसृतजनलिप्सावन्तः । 'कूराई' क्रूराः । 'कसायसावदाई' कषायव्यालमृगाः । तं अपसृतं । 'खुज्जति' भक्षयेयुः । 'असंजमवाढाहिं' असंयमदंष्ट्राभिः । 'संकिलेसादिदंसेहि' संक्लेशादिदंशश्च । इन्द्रियाणां कषायाणां वा वशे निपतत्यसति निर्यापके सूराविति भावः ॥१२८७॥ . तयोरिन्द्रियकषाययोः प्रवृत्तिरनेकदोषमूलेति कथयति ओसण्णसेवणाओ पडिसेवंतो असंजदो होइ। सिद्धिपहपच्छिदाओ ओहीणो साधुसत्थादो ॥१२८८॥ इदियकसायगुरुगत्तणेण सुहसीलभाविदों समणो । करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओं ॥१२८९।। 'इदियकसायगुरुगत्तणेण' तीवेन्द्रियकषायपरिणामतया । 'सुहसीलभाविदो समणो' सुखसमाधिभावितः श्रमणः । 'करणालसो' त्रयोदशविधासु क्रियासु अलसः । 'भवित्ता' भूत्वा । 'सेवदि' सेवते । 'ओसण्णसेवाओं' अवसन्नसेवाः भ्रष्टचारित्राणां क्रियासु प्रवर्तते इति यावत् । ओसण्णो ।।१२८९।। केई गहिदा इंदियचोरेहिं कसायसावदेहिं वा । पंथं छंडिय णिज्जंति साघुसत्थस्स पासम्मि ॥१२९०॥ _ 'केई गहिदा इंदियचोरेहि' केचिद्गृहीता इन्द्रियचौरः । 'कसायसावदेहिं तहा' तथा कषायश्वापदश्च गृहीताः । 'साधुसत्थस्स पंथं छंडिय' साधुसार्थस्य पन्थानं त्यक्त्वा । 'पासम्मि णिज्जंति' पावें यान्ति ॥१२९०॥ है इसलिए इन्द्रिय चोर नहीं सताते, यह उक्त कथनका भाव है ।।१२८६।। ___गा०-अथवा उस विषयरूपी अटवीमें फंसे हुए लोगोंको खानेके इच्छुक क्रूर कषायरूपी सिंहादि उस आगत साधुको असंयमरूपी दाढोंसे और रागद्वेष मोहरूपी दाँतोंसे खा जाते हैं। कहनेका भाव यह है कि निर्यापकाचार्यके अभावमें क्षपक इन्द्रियों और कषायोंके फन्देमें फंस जाता है ॥१२८७|| आगे कहते हैं कि इन्द्रिय और कषायकी प्रवृत्ति अनेक दोषोंका मूल है गा०-जो साधु चारित्र भ्रष्ट साधुओंकी क्रिया करता है वह असंयमी होकर साधुओंके संघसे बाहर हो जाता है और मोक्षमार्गसे दूर हो जाता है ।।१२८८॥ ____ गा०-इन्द्रिय और कषायरूप तीव्र परिणाम होनेसे सुखपूर्वक समाधिमें लगा साधु तेरह प्रकारकी क्रियाओंमें आलसी होकर चारित्र भ्रष्ट साधुओंकी क्रिया करने लगता है ऐसा साधु अवसन्न कहलाता है ।।१२८९।। गा०-कोई साधु इन्द्रियरूपी चोरों और कषायरूपी हिंसक जीवोंके द्वारा पकड़े जाकर साधु संघके मार्गको छोड़कर साधुओंके पार्श्ववर्ती हो जाते हैं । साधु संघके पार्श्ववर्ती होनेसे इन्हें पासत्थ या पार्श्वस्थ कहते हैं ।।१२९०।। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ भगवती आराधना तो साघुसत्थपंथं छंडिय पासम्मि णिज्जमाणा ते । गारवगहिणकुडिल्ले पडिदा पावेंति दुक्खाणि ॥ १२९१॥ 'तो साघुसत्यपंथं' साधुसार्थस्य पन्थानं । 'छंडिय' त्यक्त्वा । 'पासम्मि' पार्श्वे । 'णिज्जमाणा ते' नीयमानास्ते । 'गारव गहिण कुडिल्ले' चिरऋद्धिरससातगौरवसञ्छन्ने गहने । 'पडिदा' पतिताः । 'पावेति' प्राप्नुवन्ति । 'दुवखाणि' दुःखानि ॥१२९१ ॥ सल्लविसकंटएहिं विद्धा पडिदा पडंति दुक्खेसु । विसकंटय विद्धा वा पडिदा अडवीए एगागी ॥। १२९२ ।। 'सल्ल विसकंट एहि विद्धा' मिथ्यात्वमायानिदानशल्यकण्टकैर्वा विद्धाः 'पडिवा' पतिताः । 'दुक्खेसु पडंति' दुःखेषु पतन्ति । 'विसकंटयविद्धा अडवीए एगागी पडिदा इव' विषकण्टकेन विद्धा अटव्यामेकाकिनः पतिता यथा दुःखेषु पतन्ति तथैवेति दान्तिके योजना ॥१२९२ ॥ पंथं छंडिय सो जादि साघुसत्थस्स चेव 'पासाओ । जो पडि सेवदि पासत्थसेवणाओ हु णिद्धम्मो ॥१२९३ ॥ साधुसार्थस्य पन्थानं त्यक्त्वा कस्य पार्श्वे याति यस्यामी दोषा व्यावणिताः - गौरवगहने पातः शल्यविषकण्टकवेधादयश्चेत्याशङ्कायां वदति । 'पंथं छंडिय साघुसत्यस्स सो जादि' परित्यज्य साघुसार्थस्य पन्थानमसौ याति । 'पासम्म' पार्श्वे । 'जो पडिसेवदि' यः प्रतिसेवते, 'पासत्थसेवणाओ दु' पार्श्वस्थसेवनाः, 'णिद्धम्मो ' धर्मश्चारित्रं तस्मादपगतः, धर्मादपगतः सन्पार्श्वस्थाचरणीयासु क्रियासु प्रवर्तते ॥१२९३॥ सैवं कथं निर्धर्मता तस्येत्याशङ्क्य वदन्ति - इ दियकसायगरुयत्तणेण चरणं तणं व पस्संतो । द्धिम्मो हु सवित्ता सेवदि पासत्थसेवाओ ॥१२९४ ।। 'इंदियकसायगुरुगत्तणेण' इन्द्रियकषायविषयैर्गौरवाच्च रागद्वेषपरिणामयोः क्रोधादिपरिणामानां च गा०-- साधु समूहके मार्गको छोड़कर पार्श्वस्थ मुनिपनेको प्राप्त हुए वे ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातगौरवसे भरे गहन वनमें पड़कर तीव्र दुःख पाते हैं ॥१२९१ ॥ गा० - अथवा जैसे विषैले काँटोंसे बिंधे हुए मनुष्य अटवीमें अकेले पड़े हुए दुःख पाते हैं, वैसे ही मिथ्यात्व माया और निदानशल्यरूपी काँटोंसे बींधे हुए वे पार्श्वस्थ मुनि दुःख पाते हैं ॥१२९२|| गा० - वह पार्श्वस्थ मुनि साधु संघका मार्ग त्यागकर ऐसे मुनिके पास जाता है जो चारित्रसे भ्रष्ट होकर पार्श्वस्थ मुनियोंका आचरण करता है || १२९३ ।। वह मुनि चारित्र भ्रष्ट क्यों है ? इसका उत्तर देते हैं गा० - टी० - इन्द्रिय, कषाय और विषयोंके कारण रागद्वेषरूप परिणामों और क्रोधादि १. पासम्मि - ज० । Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका तीव्रत्वात् । 'चरणं' चारित्रं, 'तणं व' तृणमिव, 'पस्संतो' पश्यन् रागादयोऽप्यशुभपरिणामास्तत्त्वज्ञानस्य प्रतिबन्धकास्तेन सकलुषं ज्ञानचारित्रं निस्सारमिव पश्यति. तत एव तत्राकृतादरः चारित्रादपैतीति निर्द्धर्मतास्य । ततः पार्श्वस्थसेवासु प्रयतते । 'पासत्थो' ॥१२९४|| इदियचोरपरद्धा कसायसावदभएण वा केई । उम्मग्गेण पलायंति साधुसत्थस्स दूरेण ॥१२९५॥ 'इदियचोरपरद्धा' इन्द्रियचोरकृतोपद्रवाः । 'कसायसावदभएण वा केई' कषायव्यालमृगभयेन वा केचित् । 'उम्मगेण' उन्मार्गेण 'पलायंति' पलायनं कुर्वन्ति । 'साधुसत्थस्स दूरेण' साधुसार्थस्य दूरात् ॥१२९५॥ तो ते कुसीलपडिसेवणावणे उप्पधेण धावंता । सण्णाणदीसु पडिदा किलेससोदेण वुढ्ढंति ॥१२९६॥ 'तो' ततः साधुसार्थादूरादपसृताः, 'कुसोलपडिसेवणावणे' कुशीलप्रतिसेवनावने, 'उप्पथेण' उन्मार्गेण । 'घावंता' धावन्तः । 'सण्णाणदीसु' संज्ञानदीषु । 'पडिदा' पतिताः । 'किलेससोदेण' क्लेशस्रोतसा। वुढ्ढन्ति' ते बुडन्ति ॥१२९६॥ सण्णाणदीसु ऊढा वुढढा थाहं कहंपि अलहंता । तो ते संसारोदधिमदंति बहुदुक्खभीसम्मि ॥१२९७।। ‘सण्णाणवीसु ऊढा' संज्ञानदीभिराकृष्टाः संतो निर्मग्नाः 'थाह' अवस्थानं 'कहिपि' क्वचिदपि 'अलहंता' अलभमानाः । 'तो' पश्चात् । 'संसारोदधिमदंति' संसारसागरं प्रविशन्ति । 'बहुदुक्खभीसम्मि' बहुदुःखभीष्मं ॥१२९७॥ आसागिरिदुग्गाणि य अदिगम्म तिदंडकक्खडसिलासु । ऊलोडिदपब्भट्टा खुप्पंति अणंतयं कालं ॥१२९८॥ परिणामोंके तीव्र होनेसे वह चारित्रको तृणके समान मानता है। क्योंकि रागादिरूप अशुभ परिणाम तत्त्वज्ञानके प्रतिबन्धक होते हैं। अतः उसका ज्ञान दूषित होनेसे वह चारित्रको सारहीन मानता है । इसीसे वह उसमें आदरभाव न रखनेके कारण चारित्रसे च्युत होता है। इसीसे उसे चारित्र भ्रष्ट कहा है। चारित्र भ्रष्ट होकर वह पार्श्वस्थ मुनियोंकी सेवामें लग जाता है। यह पार्श्वस्थ मुनिका कथन है ॥१२९४।। ___ गा०-अथवा कोई मुनि इन्द्रियरूपी चोरोंसे पीड़ित होकर कषायरूप हिंसक प्राणियोंके भयसे साधु संघसे दूर होकर उन्मार्गमें चले जाते हैं ॥१२९५।। गा०–साधु संघसे दूर होकर वे मुनि कुशील प्रतिसेवनारूप वनमें उन्मार्गसे दौड़ते हुए . आहार भय मैथुन परिग्रहरूप संज्ञानदीमें गिरकर कष्टरूपी प्रवाहमें पड़कर डूब जाते हैं ।।१२९६॥ गा०-संज्ञारूप नदीमें डूबनेपर उन्हें कहीं भी ठहरनेका स्थान नहीं मिलता अत: वे बहुत दुःखोंसे भयानक संसार समुद्र में प्रवेश करते हैं ॥१२९७।। गा०-संसार समुद्रमें प्रवेश करनेपर आशारूपी पहाड़ोंको लांघते हुए मन-वचन-कायकी Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'आसागिरिदुग्गाणि य' आशागिरिदुर्गाश्च । 'अदिगम्म' अतिक्रम्य । 'तिदंडकक्कडसिलासु' त्रिदण्डकशशिलासु । 'ऊलोडिद' 'पन्भट्टा' अवलुण्ठिताः सन्तः प्रभ्रष्टाः 'खवेति' गमयन्ति । 'अनंतयं कालं' अनंतं कालं ॥१२९८ ॥ ६४४ बहुपावकम्मकरणाडवीसु महदीसु विष्पणट्टा वा । googदिपा भमंति सुचिरंपि तत्थेव ।। १२९९॥ 'बहुपावकम्मकरणाडवीसु' बहुविधान्यशुभकर्माण्येवाटव्यः तासु 'महदोसु' दीर्घासु । 'विप्पणठ्ठा' विननष्टाः । 'अद्दिवणिग्वृदिपधा' अदृष्टनिवृत्तिमार्गाः । 'भमंति' भ्रमन्ति । 'सुचिरंषि' सुचिरमपि । 'तत्थेव' तत्रैव ।।१२९९।। दूरेण साधुसत्थं छंडिय सो उपधेण खु पलादि । सेवदि कुसीलपडि सेवणाओ जो सुत्तदिट्ठाओ || १३०० || 'दूरेण साधुसत्थं' दूरात्साघुसार्थं । 'छंडिय' त्यक्त्वा । 'सो' सः । ' उप्पधेण खु' उन्मार्गेण । 'पलादि' पलायते । 'सेवदि कुसीलपडिसेवणाओ' सेवते कुशीलप्रतिसेवनाः । 'जो' यः । 'सुत्तणिदिट्ठाओ' सूत्र निर्दिष्टाः ||१३०० ॥ इ दियकसाय गुरुगत्तणेण चरणं तणं व पस्संतो । घिसो भवित्ता सेवदि हु कुसीलसेवाओ || १३०१॥ 'इ' दियकसायगुरुगत्तणेण' इन्द्रियकषायपरिणामानां गुरुत्वेन । 'चरणं तणं व पस्संतो' चरणं तृणमिव पश्यन् । 'णिद्दंधसो भवित्ता' अह्नीको भूत्वा । ' सेवदि' सेवते कुशीलसेवाः ।। कुसीला ।।१३०१ ॥ सिद्धिपुरमुवल्लीणा वि के इंदियकसायचोरेहिं | पविलुत्तचरणभंडा उवहदमाणा णिवट्ठति ।। १३०२।। दुष्प्रवृत्तिरूप शिलाओं पर लुढ़कते हुए गिरकर अनन्तकाल बिताते हैं || १२९८ ॥ विशेषार्थ - पहले वे उत्तरगुण छोड़ते हैं फिर मूलगुण और सम्यक्त्वसे भी भ्रष्ट होकर संसारमें भ्रमण करते हैं ।। १२९८ ।। गा०—अनेक प्रकारके अशुभकर्मरूप सुदीर्घ अटवीमें भटकते हुए वे निर्वाणका मार्ग कभी देखा न होनेसे चिरकालतक वहीं भ्रमण करते रहते हैं || १२९९ ॥ गा० - वे दूरसे ही साधुसंगको त्यागकर कुमार्गमें दौडते हैं । और आगममें कहे कुशील मुनि दोषों को करते हैं ।। १३०० || गा० ० - इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंकी तीव्रताके कारण चारित्रको तृणके समान मानते हैं और निर्लज्ज होकर कुशीलका सेवन करते हैं ॥१३०१ || इस प्रकार कुशील मुनिका कथन हुआ । गा० - कोई-कोई मुक्तिपुरीके निकट तक जाकर भी इन्द्रिय और कषायरूपी चोरोंके द्वारा चारित्ररूपी धन चुराये जानेपर संयमका अभिमान त्यागकर उससे लौट आते हैं ||१३०२ || Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'सिद्धिपुरमुवल्लोणा वि' सिद्धिपुरमुपलीना अपि । 'केई' केचित् । 'इंदियकसायचोरेहि' इन्द्रियकषायचोरैः । 'पविलुत्तचरणभंडा' अपहृतचारित्रभाण्डाः। 'उवहवमाणा' उपहताभिमानाः । 'निवति' निर्वतन्ते ॥१३०२॥ तो ते सीलदरिद्दा दुक्खमणंतं सदा वि पावंति । बहुपरियणो दरिदो पावदि तिव्वं जघा दुक्खं ॥१३०३।। 'तो' पश्चात् । 'ते सीलदरिदा' ते शीलदरिद्राः । 'दुक्खं' दुःखं । 'अणंत' अन्तातीतं । 'सदा वि पावंति' सदा प्राप्नुवन्ति । 'बहुंपरियणो' बहुपरिजनो। 'दरिदो' दरिद्रः । 'पाववि दुक्ख तिव्वं' प्राप्नोति दुःखं तीवं यथा ॥१३०३।। सो होदि साधुसत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो । उस्सुत्तमणुवदिटुं च जधिच्छाए विकप्पंतो ॥१३०४॥ __ 'सो होदि' स भवति । 'साधुसत्यादु णिग्गयो' साधुसान्निवृत्तः । 'जो हवे जधाछ दो' यो भवति स्वेच्छावृत्तिः । 'उस्सुत्तं' उत्सूत्रं । 'अणुवदिट्ट' अनुपदिष्टं च स्थविरैः । 'जदिच्छाए विकप्पंतो' यथेच्छया विकल्पयन् ।।१३०४॥ जो होदि जधाछंदो तस्स धणिदंपि संजमिंतस्स । पत्थि दु चरणं चरणं खु होदि सम्मत्तसहचारी ॥१३०५॥ 'जो होवि जधाई दो' यो भवति स्वेच्छावृत्तिः । 'तस्स धणिपि संजमितस्स' तस्य नितरामपि संयमे प्रवर्तमानस्य । 'णस्थि दु' नास्त्येव । 'चरणं' चारित्रं । 'चरणं खु होदि सम्मत्तसहचारी' सम्यक्त्वसहचार्येव यतेश्चारित्रं । स्वच्छन्दवृत्तस्तु यत्किचित्परिकल्पयतः सूत्रमननुसरतः नैव सम्यग्दर्शनमस्ति । तदन्तरेण सम्यक्चारित्रं नैव भवति ॥१३०५॥ इंदियकसायगुरुगत्तणेण सुत्तं पमाणमकरंतो। परिमाणेदि जिणुत्ते अत्थे सच्छंददो चेव ॥१३०६॥ गा०-पश्चात् वे शीलसे दरिद्र मुनि सदा अनन्त दुःख पाते हैं। जैसे बहुत परिवारवाला दरिद्र मनुष्य तीव्र दुःख पाता है ॥१३०३॥ अब यथाच्छन्द मुनिका स्वरूप कहते हैं गा०-साधुसंघसे निकलकर जो पूर्वाचार्योंके द्वारा नहीं कहे आगम विरुद्ध मार्गकी अपनी इच्छानुसार कल्पना करता है वह यथाच्छन्द मुनि होता है ।।१३०४|| गा०-टी०-जो स्वच्छन्दचारी मुनि होता है वह संयममें अत्यन्त प्रवृत्ति भी करे तो भी उसका चारित्र चारित्र नहीं है क्योंकि सम्यक्त्वके साथ जो चारित्र होता है वही चारित्र होता है। जो स्वच्छन्दचारी होता है वह तो जो उसकी इच्छा होती है तदनुसार आचरण करता है। आगमका अनुसरण नहीं करता, अतः उसके सम्यग्दर्शन नहीं है। और सम्यग्दर्शनके विना सम्यक्चारित्र नहीं होता ॥१३०५।। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ भगवती आराधना 'इंदियकसायगुरुगत्तणेण' कषायाक्षगुरुकृतत्वेन सूत्रमप्रमाणयन् । 'परिमाणेदि' अन्यथा गृह्णाति । "जिणुत्ते अत्थे' जिनोक्तानान् । 'सच्छंददो चेव' स्वेच्छाभिप्रायेणेव ।। जधाछौंद ॥१३०६।। इदियकसायदोसेहिं अघवा सामण्णजोगपरितंतो । जो उव्वायदि सो होदि णियत्तो साधुसत्थादो ॥१३०७।। 'इदियकसायदोसेहि' इंद्रियकषायदोषः । 'अधवा सामण्णजोगपरितंतो' अथवा सामान्ययोगेन दान्तः । 'जो उव्वायदि' यश्चारित्राच्च्यवते । 'सो होदि' स भवति । 'णयत्तो साधुसत्यावो' निवृत्तः साधुसार्थात् ॥१३०७॥ इंदियकसायवसिया केई ठाणाणि ताणि सव्वाणि । पाविज्जते दोसेहिं तेहिं सव्वेहिं संसत्ता ॥१३०८॥ 'इदियकसायवसिगा' इन्द्रियकषायवशगाः । 'केई' केचित् । 'ठाणाणि ताणि सव्वाणि' तान्यशुभस्थानपरिणामानि । 'पाविज्जति' प्राप्यन्ते । 'दोसेहि तेहिं सर्वहिं संसत्ता' दोषस्तैः सर्वैः संसक्ताः । संसत्ता ॥१३०८॥ इय एदे पंचविधा जिणेहिं सवणा दुगुंच्छिदा सुत्ते । इंदियकसायगुरुयत्तणेण णिच्चंपि पडिकुद्धा ॥१३०९।। पासत्यत्तिगदं ॥१३०९॥ दुट्टा चवला अदिदुज्जया य णिच्चं पि समणुबद्धा य । दुक्खावहा य भीमा जीवाणं इंदियकसाया ।।१३१०॥ 'दुट्ठा' दुष्टा आत्मोपद्रवकारित्वात् । 'चपला' अनवस्थितत्वात् । 'अदिदुज्जया य' अतीव दुर्जयाः अनुपलब्धचारित्रमोहक्षयोपशमप्रकर्षण जीवेन दुःखेन अभिभूयन्ते इति । “गिच्चंपि' नित्यमपि । 'समणुबद्धा य' गा०-इन्द्रिय और कषायोंकी प्रबलताके कारण वह आगमको प्रमाण नहीं मानता । और अपनी इच्छाके अनुसार जिनभगवानके द्वारा कहे गये अर्थको विपरीतरूपसे ग्रहण करता हैं ॥१३०६॥ __ गा०–इन्द्रिय और कषायोंके दोषसे अथवा सामान्य योगसे विरक्त होकर जो चारित्रसे गिर जाता है वह साधु संगसे अलग हो जाता है ॥१३०७।। अब संसक्त मुनिका स्वरूप कहते हैं गा०-इन्द्रिय और कषाओंके वशमें हुए कोई मुनि उन सब दोषोंमें संसक्त होकर उन सब अशुभ स्थान रूप परिणामोंको प्राप्त होते हैं ॥१३०८।। गा०-इस प्रकार ये पाँच प्रकारके मुनि जिन भगवान्के द्वारा आगममें निन्दनीय कहे हैं। ये इन्द्रिय और कषायोंकी प्रबलता होनेसे नित्य ही जिनागमसे विमुख रहते हैं ।।१३०९।। . गा०-टो०-इन्द्रिय और कषायरूप परिणाम बड़े दुष्ट हैं क्योंकि ये आत्मामें उपद्रव पैदा करते हैं । अनवस्थित होनेसे चपल हैं । इनको जीतना अति कठिन है क्योंकि जिस जीवके चारित्र Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६४७ सम्यगनुबद्धाश्चारित्रमोहोदयस्य स्वकारणस्य सदा सद्भावात् । नित्याश्चेत्कथं चपलाः । नित्यशब्दो ध्रौव्ये न प्रयुक्तः किंत्वभीक्ष्णे मुहुर्मुहुरनुबद्धा इत्यर्थः । चपलता तु परिणामानां अनवस्थितत्वं अतो न विरोधः । 'दुःखावहाय' दुःखावहाश्च । 'जीवाणं' जीवानां । अभिमतभोगालाभे प्राप्तस्य वाऽपाये महत् दुःखमित्यनुभवसिद्धमेव सर्वप्राणभृतां । कायास्तु क्रोधादयः कषायन्ति' हृदयं । अथवा दुःखकारणासट्टेद्यार्जन 'निमित्तत्वात् दुःखावहाः । इन्द्रियकषायवशगो जीवान् हिनस्ति । दुःखकरणेन वास्त्रवत्यसद्वेद्यं इति । यत एव दुःखावहा अतएव भीमाः । 'इ'दियकसाया' इन्द्रियकषायपरिणामाः ।। १३१०॥ मरुतेल्लंपि पितो वत्थो जह वादि पूदियं गंधं । दक्खिदो विइ दियकसायगंधं वहदि कोई ।। १३११ ॥ 'तुरुष्कतैलमपि' 'पियंतो' पिबन्, 'बत्थो' बस्तः अजपोतः । 'जह वादि पूदियं गंधं पूतिगन्धं यथा वाति । प्राकृतगन्धं यथा न जहाति संश्रियमाणोऽपि सुरभिणा द्रव्येण, 'तघ दिक्खिदो वि' तथा दीक्षितो - ऽपि परित्यक्तासंयमोऽपि । 'इंदियकषायगंधं वहदि' इन्द्रियकषाय दुर्गन्धमुद्वहति इति यावत् ।।१३११ ॥ भुजतो व सुभोयणमिच्छदि जघ सूयरो समलमेव । त दिक्खिदों व इंदियकसायमलिणो हवदि कोइ ।। १३१२ || 'भु'जंतो वि सुभोयणं' भुञ्जानोऽपि शोभनमाहारं 'सूयरो जध समलमेव इच्छदि' सूकरो यथा समलमेवाभिलषति चिरन्तनाभ्यासात् । 'तह' तथा 'दिक्खिदो वि' दीक्षितोऽपि कृतव्रतपरिग्रहसंस्कारोऽपि । 'कोइ' कश्चित् । 'इंदियकषायमलिणो हवदि इन्द्रियकषायाख्याशुभपरिणामोपनतो भवति । भव्योऽपि जनः मोहके क्षयोपशमका प्रकर्ष नहीं है वह जीव बड़े कष्टसे इन्हें वशमें कर पाता है । तथा इनका कारण चारित्रमोहका उदय सदा रहता है अतः ये नित्य बने रहते हैं । शङ्का - यदि ये नित्य हैं तो चपल कैसे हैं ? समाधान - नित्य शब्दका प्रयोग धौव्यके अर्थ में नहीं है किन्तु बार-बारके अर्थ में है । और परिणामों के स्थिर न होनेको चपलता कहते हैं अतः कोई विरोध नहीं है । तथा ये जीवोंको दुःखदायी हैं । इष्ट भोगकी प्राप्ति न होने पर अथवा प्राप्त भोगका विनाश होने पर महान् दुःख होता है यह सभी प्राणियोंको अनुभवसिद्ध है । क्रोधादि कषाय हृदयको संताप पहुंचाती है । अथवा दुःखका कारण जो असातावेदनीय कर्म है उसके बन्धमें निमित्त हैं इसलिए दुःखदायी हैं । जो इन्द्रिय और कषायके वशमें होता है वह जीवोंका घात करता है । जीवोंके दुःख देनेसे असातावेदनीय कर्मका आस्रव होता है । और यतः ये इन्द्रिय तथा कषाय दुःखदायी हैं, अतएव भयंकर हैं ॥ १३१०॥ गा०—जैसे बकरीका बच्चा सुगन्धित तेल भी पिये फिर भी अपनी पूर्व दुर्गन्धको नहीं छोड़ता । उसी प्रकार दीक्षा लेकर भी अर्थात् असंयमको त्यागने पर भी कोई कोई इन्द्रिय और कषाय रूप दुर्गन्धको नहीं छोड़ पाते || १३११॥ जैसे सुअर सुन्दर स्वादिष्ट आहार खाते हुए भी चिरंतन अभ्यास वश विष्टा ही खाना पसन्द करता है । उसी प्रकार व्रतोंको ग्रहण करके भी कोई कोई इन्द्रिय और कषायरूप अशुभ १. तपन्ति अ० । २. द्यानां नि-आ० मु० । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना गुरुपदेशादधिगतदुःखनिवृत्त्युपायतया परित्यक्तेन्द्रियकषायोऽपि गार्हस्थ्यपरित्यागकाले पुनरपि तत्रापततीति ॥१३१२ ॥ ६४८ एतद् अनेकदृष्टान्तोपन्यासेन दर्शयति सूरिरुत्तर प्रबन्धेनवाहभए पलादो जूहं दट्ठूण वागुरापडिदं । सयमेव मओ वागुरमदीदि जह जूहतण्हाए ।। १३१३ || 'वाहभएण' व्याघभयेन । 'पलादो मगो' कृतपलायनो मृगः । ' वागुरापडिडं जूहं दट्ठूण' वागुरापतितं स्वयूथं दृष्ट्वा । 'सयमेव वागुरमदीदि मगों' स्वयमेव वागुरां प्रविशति मृगः 1 'जह' यथा, कुतः । 'जूहतण्हाए' तृष्णया । ' एवं के वि गिहवासं मुच्चा' इत्यनया गाथया संबन्धः कार्यः ॥१३१३॥ पंजरमुको सउणो सुइरं आरामएस विहरंतो । सयमेव पुणो पंजरमदीदि जघ णीडतण्हाए || १३१४॥ 'पंजरमुक्को सउणो' पञ्जरान्मुक्तः पक्षी । 'सुइरं आरामएसु विहरतो' आरामेषु स्वेच्छया विहरन् । 'सयमेव' स्वयमेव । ‘पुणों' पुनः । 'पंजरमदीदि' पञ्जरमुपैति । 'जह नोडतण्हाए' यथा नीडतृष्णया ॥१३१४॥ कलभो गएण पंकादुद्धरिदो दुत्तरादु बलिएण | सयमेव पुणो पंके जलतण्हाए जह अदीदि ।। १३१५॥ 'कलभो' गजपोतः महति कर्दमे पतितः । 'गएण पंकादुद्धरिदों गजेन परेण पङ्कादुद्धृतो । 'दुत्तरावु' दुस्तरात् पङ्कात् बलिष्वतिशयवता गजेन । 'सगमेव पुणो पंकं जह अदीदि' स्वयमेव कलभो यथा प मुपैति । 'जलतण्हाए' जलतृष्णया ॥१३१५॥ अग्गिपरिक्खित्तादो सउणो रुक्खादु उप्पडित्ताणं । सयमेव तं दुमं सो णीडणिमित्तं जघ अदीदि ॥ १३१६॥ परिणाम वाले होते हैं । भव्य जीव भी गुरुके उपदेशसे गृहस्थाश्रमका परित्याग करते समय दुःखकी निवृत्तिका उपाय जानकर इन्द्रिय और कषाय रूप परिणामोंका त्याग करता है किन्तु फिर भी वह उन्हींके चक्रमें पड़ जाता है || १३१२॥ आगे आचार्य अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा इसीको दर्शाते हैं गा०—जैसे व्याधके भयसे भागा हुआ हिरन अपने झुण्डको जालमें फँसा देखकर झुण्डके मोहसे स्वयं भी जालमें फँस जाता है वैसे ही कोई मुनि गृह त्यागनेके बाद स्वयं ही उसमें फँस जाता है ॥१३१३|| गा० - जैसे पींजरेसे मुक्त हुआ पक्षी उद्यानोंमें स्वेच्छापूर्वक विहार करते हुए स्वयं ही अपने आवासके प्रेमवश पींजरेमें चला जाता है || १३१४ || गा०- — जैसे महती कीचड़में फँसा हाथीका बच्चा बलवान् हाथीके द्वारा निकाला गया । किन्तु पानीकी प्यासवश वह स्वयं ही कीचड़ में फँस जाता है || १३१५ ।। गा० - जैसे पक्षी आग से घिरे वृक्षसे उड़कर स्वयं ही अपने घोंसलेके कारण उस वृक्षपर जा पहुँचता है || १३१६।। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६४९ 'रुक्खादो सउणो उप्पडित्ताणं' वृक्षादुत्पत्य शकुनः । कीदृग्भूतात् ? 'अग्गिपरिक्खित्तादो' अग्निना समन्ताद्वेष्टितात् । 'सयमेव तं दुमं जह अदीदि' स्वयमेवासौ पक्षी अग्निपरिक्षिप्तद्रुममधिगच्छति । 'गोडणिमित्तं' स्वावासनिमित्तं ॥१३१६ ॥ लंघिज्जतो अहिणा पासुत्तो कोड़ जग्गमाणेण । उद्घविदो तं घेत्तुं इच्छदि जघ कोदुगहलेण || १३१७॥ 'लंबिज्जतो अहिणा' लङ्घ्यमानोऽहिना, 'कोइ पासुत्तो' कश्चित्प्रसुप्तः, 'जग्गमाणेण उट्ठविदो' जाग्रता उत्थापितः । 'जह तं घेत्तुमिच्छति' यथा सर्प ग्रहीतुमिच्छति, 'कोडुगहले ' कौतूहलेन ॥ १३१७॥ सयमेव वंतमसणं णिल्लज्जो णिग्घिणो सयं चेव । लोलो किविणो भुंजदि सुणहो जध असणतण्हाए ॥१३१८॥ 'सयमेव वंतमसणं' स्वयमेव वान्तमशनं । 'सुणहो पिल्लज्जो णिग्घणो' श्वा निर्लज्जः निर्घृणः । 'जहा' यथा । 'सयमेव भुजदि' स्वयमेव भृङ्क्ते । 'लोलो' आसक्तः । 'किविणों' कृपणः । असणतण्हाए' अशनतृष्णया ।। १३१८ ।। एवं केई गिवास दो समुक्का वि दिक्खिदा संता । इं दियकसाय दोसेहि पुणो ते चेव गिण्हति ।। १३१९॥ ' एवं केइ एवं केचित् । 'गिहिवास दोसमुक्का वि' गृहवासेभ्यो ये दोषास्तेभ्यो मुक्ता: । 'दिक्खिदा वि संता' दीक्षिता अपि सन्तः । 'इ'दियकसायदोसे' इन्द्रियकषायदोषान् । 'ते चेव' तांश्चैव गृहवासगतान् । 'गति' गृह्णन्ति । कीगृग्गृहवासो येन दुष्ट इति भण्यते । ममेदं भावाधिष्ठानः अनुपरतमायालोभोत्पादनप्रवीण जीवनोपायप्रवृत्तः कषायाणामाकरः परेषां पीडानुग्रहयोराबद्धपरिकरः पृथिव्यप्तेजोवायु वनस्पतिष्वनारत'वृत्तव्यापारो, मनोवाक्कायैः सचित्ताचित्ताने काणुस्थूलद्रविणग्रहणवर्द्धनोपजातायासः यत्र स्थितो जनोऽसारे सारतां, अनित्ये नित्यतां, अशरणे शरणतां, अशुचौ शुचितां दुःखे सुखितां, अहिते हिततां, असंश्रये संश्रयणीयतां, गा० - जैसे किसी सोते हुए मनुष्यपरसे सर्प जा रहा है । उसे कोई जागता हुआ मनुष्य उठाता है और वह उठकर कौतूहलवश उस सर्पको पकड़ना चाहता है ।। १३१७ || गा०---- जैसे कोई निर्लज्ज घिनावना कुत्ता अपने ही वमन किये भोजनको भोजनकी तृष्णावश लोलुपतासे खाता है ।। १३१८ ।। 10 गा० - टी० - वैसे ही गृहवासके दोषोंसे मुक्त कोई दीक्षा स्वीकार करके भी गृहवासके उन्हीं इन्द्रिय और कषायरूप दोषोंको स्वीकार करता है । गृहवासको बुरा क्यों कहा यह बतलाते हैंगृहस्थाश्रम 'यह मेरा है' इस भावका अधिष्ठान है, निरन्तर माया और लोभको उत्पन्न करनेमें दक्ष जीवनके उपायोंमें लगानेवाला है, कषायोंकी खान है, दूसरोंको पीड़ा देने और अनुग्रह करनेमें तत्पर रहता है, पृथिवी जल आग वायु और वनस्पतिमें उसका व्यापार सदा चला करता है, मन वचन कायसे सचित्त अचित्त अनेक सूक्ष्म और स्थूल द्रव्यों के ग्रहण और बढ़ाने के लिए उसमें प्रयास करना होता है । उसमें रहकर मनुष्य असारमें सारता, अनित्य में नित्यता, अशरण में शरणता, अशुचिमें शुचिता, दुःखमें सुखपना, अहितमें हितपना, १. रजवृत्तव्यावृत्तव्या-आ० मु० । Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० भगवती आराधना शत्रुभूते मित्रतां च मन्यमानः परितः परिधावति । समयसशङ्कोऽपि पदमधिगच्छति । दुरुत्तरकाललोहपञ्जरोदरगतो हरिरिव, वागुरापतितमृगकुलमिव, अन्यायकर्दमोन्मग्नो जरत्कुञ्जर इव हताशः, पाशबद्धो विहग इव, चारकावरुद्धस्तस्कर इव, व्याघ्रमध्यमध्यासीनोऽल्पबलो मृग इव, तदन्तिकोपयानजातसङ्कटः कुटपांशावकृष्टो जलचर इव, यत्रावस्थितो जनः कामबहलतमःपटलेनावियते। रागमहानागंरुपद्रुतः चिन्ताडाकिनीभिः कवलीक्रियते, शोकवरनुगम्यते, कोपपावकेन भस्मसात् क्रियते, दुराशालतिकाभिनिश्चलं बध्यते, प्रियविप्रयोगाशनिभिरनिशं शकलीक्रियते, प्रार्थितालाभशरशतैस्तूणीरतां नीयते, मायास्थविरिकया गाढमालिंग्यते, परिभवकठिनकुठारैर्विदार्यते, अयशोमलेन लिप्यते, मोहमहावनवारणेन हन्यते, पापघातकरवबोधः पात्यते, भयायःशलाकाभिस्तुद्यते, आयासवायसः प्रतिवासरं 'भक्ष्यते, ईमिष्या विरूपतां परिप्राप्यते, परिग्रहग्रहगृह्यते । यत्रावस्थितोऽसंयमाभिमुखो भवति । असूयाजायायाः प्रियतां याति, मानदानवाधिपतितां अनुभवति, विशालधवलचारित्रातपत्रत्रयछायासुखं न लभते, संसारचारकादात्मानं नापनयति, कर्मनिर्मूलनाय न प्रभवति, मरणविषपादपं न दहति, मोहघनशृङ्गलां न त्रोटयति, विचित्रयोनिमखसंचरणं न निषेधति । तत इत्थंभतादगहवासदोषात्त्यक्ता सन्तोऽपि दीक्षिता 'इदियकसायदोसे हिं' इन्द्रियकषायदोषान् । हि शब्द्रः समुच्चयार्थः । तेनैवमभिसंबध्यते 'पुणो हि' पुनरपि 'ते चैव' तानेव । 'गिडंति' गृह्णन्ति ॥१३१९॥ अनाश्रयमें आश्रयपना, शत्रुमें मित्रता मानता हुआ सब ओर दौड़ता है। भय और शंकासे युक्त होते हुए भी आश्रय प्राप्त करता है। जिससे निकलना कठिन है ऐसे कालरूपी लोहेके पीजरेके पेटमें गये सिंहकी तरह, जालमें फसे हिरणोंकी तरह, अन्यायरूपी कीचड़में फंसे बूढ़े हाथीकी तरह, पाशसे बद्ध पक्षीकी तरह, जेलमें बन्द चोरकी तरह, व्याघ्रोंके मध्यमें बैठे हुए दुर्बल हिरणकी तरह, जिसके पासमें जानेसे संकट आया है ऐसे जालमें फंसे मगरमच्छकी तरह, जिस गृहस्थाश्रममें रहनेवाला मनुष्य कालरूपी अत्यन्त गाढ़े अन्धकारके पटलसे आच्छादित हो जाता है। रागरूपी महानाग उसे सताते हैं। चिन्तारूपी डाकिनी उसे खा जाती है। शोकरूपी भेड़िये उसके पीछे लगे रहते हैं। कोपरूप आग उसे जलाकर राख कर देती है। दुराशारूपी लताओंसे वह ऐसा बँध जाता है कि हाथ पैर भी नहीं हिला पाता। प्रियका वियोगरूपी वज्रपात उसके टुकड़े कर डालता है। प्रार्थना करनेपर न मिलनेरूपी सैकड़ों बाणोंका वह तरकस बन जाता है अर्थात् जैसे तरकसमें बाण रहते हैं वैसे ही गृहस्थाश्रममें वांछित बस्तुका लाभ न होनेरूपी बाण भरे हैं। मायारूपी बुढ़िया उसे जोरसे चिपकाये रहती है। तिरस्काररूपी कठोर कुठार उसे काटते रहते हैं। अपयशरूपी मलसे धह लिप्त होता है । महामोहरूपी जंगली हाथीके द्वारा वह ता है। पापरूपी घातकोंके द्वारा वह ज्ञानशन्य कर दिया जाता है। भयरूपी लोहेकी सुइयोंसे कोचा जाता है। प्रतिदिन श्रमरूपी कौओंके द्वारा खाया जाता है। ईर्षारूपी काजलसे विरूप किया जाता है। परिग्रहरूपी मगरमच्छोंके द्वारा पकड़ा जाता है। जिस गृहस्थाश्रममें रहकर असंयमकी ओर जाता है। असूयारूपी पत्नीका प्यारा होता है। अर्थात् दूसरोंके गुणोंमें भी दोष देखता है, अपनेको मानरूपी दानवका स्वामी मानने लगता है। विशाल धवल चारित्ररूपी तीन छत्रोंकी छायाका सुख उसे नहीं मिलता। वह अपनेको संसाररूपी जेलसे नहीं छुड़ा पाता। कर्मोका जड़मूलसे विनाश नहीं कर पाता। मृत्युरूपी विषवृक्षको नहीं जला पाता। मोहरूपी मजबूत साँकलको नहीं तोड़ता। विचित्र योनियोंमें जानेको नहीं रोक पाता। दीक्षा १. भीष्यते आ० मु० । २. दोषान्मुक्ताः आ० । Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६५१ बंधणमुक्को पुनरेव बंधणं सो अचेयणोदीदि । इंदियकसायबंधणमुवेदि जो दिक्खिदो संतो ॥१३२०॥ 'बंधणमुक्को' बन्धनमुक्तः । 'पुनरेव बंधणं' पुनर्बन्धनं । 'अदीदि' प्रतिपद्यते । 'सो अचेदणो' सोऽज्ञः । कः ? 'जो दिक्खिदो संतो ईदियकसायबंधणमुवेदि' यो दीक्षितः सन्निद्रियकषायबन्धमुपैति । इन्द्रियकषायपरिणामाः कर्मबन्धनक्रियायां साधकतमतया इह बन्धनशब्देनोच्यन्ते ॥१३२०॥ मुक्को वि णरो कलिणा पुणो वि तं चेव मग्गदि कलिं सो । जो दिक्खिदो वि इंदियकसायमइयं कलिमुवेदि ।।१३२१।। प्रसिद्धार्था ॥१३२१॥ उत्तरगाथा सो णिच्छदि मोत्तुं जे हत्थगयं उम्मुयं सुपज्जलियं । सो अक्कमदि कण्हसप्पं छादं वग्धं च परिमसदि ॥१३२२।। 'सो णिच्छदि' स नेच्छति । 'मोत्तुं' मोक्तुं । कि ? 'हत्थगयं' हस्तस्थितं हस्तगतं वा । 'उम्मुक्कं संपज्जलियं' उल्मकं सुष्ठ प्रज्वलितं । 'सो कण्हसप्पमक्कमदि' स कृष्णसर्पमानामति । 'छादं वग्धं च परिमसदि' क्षुधोपद्रुतं व्याघ्रं च स्पृशति ॥१३२२॥ सो कंठोल्लगिदसिलो दहमत्थाहं अदीदि अण्णाणी। जो दिक्खिदो वि इंदियकसायवसिगो हवे साधू ॥१३२३।। 'सो कंठोल्लगिदसिलो' स कण्ठावलम्बितशिलः । 'दहमत्थाहं' हृदमगाधं । 'अदीदि' प्रविशति । 'अण्णाणी' अज्ञः । 'जो दिक्खिदो विय' यो दीक्षितोऽपि 'इदियकसायवसिगों' इन्द्रिकषायवशवर्ती सादृश्यादभेदव्यवहारः ॥१३२३॥ धारण करके इस प्रकारके गृहवास सम्बन्धी दोषोंसे मुक्त होकर भी पुनः उन्हीं दोषोंको स्वीकार करता है ॥१३१९॥ गा०-जो दीक्षित होकर इन्द्रिय और कषायोंके बन्धनमें पड़ता है वह अज्ञानी बन्धनसे मुक्त होकर पुनः बन्धनको प्राप्त होता है ॥१३२०॥ गा०-जो दीक्षित होकर भी इन्द्रिय कषायमयी कलिको स्वीकार करता है वह मनुष्य कलिकालसे मुक्त होकर भो पुनः उसो कलिको खोजता है ।।१३२१॥ गा०--जो साधु दीक्षित होकर भी इन्द्रिय और कषायोंके बन्धनमें पड़ता है वह हाथमें स्थित जलते हुए अलातको छोड़ना नहीं चाहता, वह काले साँपको लाँघता है और भूखे व्याघ्रका स्पर्श करता है ।।१३२२।। गा०-जो साधु दीक्षित होकर भी इन्द्रिय और कषायके अधीन होता है वह अज्ञानी अपने गले में पत्थर बांधकर अगाध तालाबमें प्रवेश करता है ॥१३२३।। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ भगवती आराधना इदियगहोवसिट्ठो उवसिट्ठो ण दु गहेण उवसिट्ठो । कुणदि गहो एयभवे दोसं इदरो भवसदेसु ।।१३२४॥ 'इदियगहोवसिट्ठो' इन्द्रियग्रहगृहीतः । 'उवसिट्ठो' गृहीतः । 'ण दु गहेण उवसिट्ठो' नैव ग्रहेणोपसृष्टः । कुतः ? यस्मात् । 'कुणदि गहो एयभवे दोस' एकस्मिन्नेव भवे ग्रहो बुद्धिव्यामोहलक्षणं दोषं करोति । 'इदरो भवसदेसु' इन्द्रियकषायग्रहो भवशतेषु दोषं करोति ।।१३२४॥ होदि कसाउम्मत्तो उम्मत्तो तध ण पित्तउम्मत्तो । ण कुणदि पित्तुम्मत्तो पावं इदरो जधुम्मत्तो ॥१३२५।। 'होदि कसाउम्मत्तो' अत्रैवं पदघटना । 'उम्मत्तो होदि' उन्मत्तो भवति यथा। कः ? 'कसायउम्मत्तो' कषायोन्मत्तः । यथा 'उम्मत्तो ण होदित्ति' पदघटना तथा उन्मत्तो न भवति । कः ? 'पित्तउम्मत्तो पित्तोन्मत्तः । एतेन पित्तकृतादुन्मादात् कषायकृतस्योन्मादस्य जघन्यता ख्याता । कथं? 'न कुणवि पित्तम्मत्तों पापं न करोति पित्तोन्मत्तः । 'पापं इदरो जधुम्मत्तो' कषायोन्मत्तो यथा पापं करोति, तथाभूतं न करोति । यतः एकैकोऽपि क्रोधादिः हिंसादिषु प्रवर्तयनि । कर्मणां स्थितिबन्धं दीर्धीकरोति । विवेकज्ञानमेव तिरस्करोति पित्तोन्मादः । ततोऽनयोर्महदन्तरं इति भावः ॥१३२५॥ इदियकसायमइओ णरं पिसायं करंति हु पिसाया । पावकरणवलंबं पेच्छणयकरं सुयणमझे ॥१३२६॥ 'इदियकसायमइओ' इन्द्रियकषायमयः पिशाचः । 'गरं पिसायं करेवि' नरं पिशाचं करोति । कीदृग्भतं पिशाचं करोति ? 'सुजणमझे पेच्छणयकरं' सूजनमध्ये प्रेक्षणिककारणं । 'पावकरणवलंब' हिंसादिपापक्रियाविलम्बनां प्रेक्षणीयत्वेन संपादयन्तं पिशाचं करोतीति यावत ॥१३२६।। कुलजस्स जसमिच्छंत्तगस्स णिघणं वरं खु पुरिसस्स । ण य दिक्खिदेण इंदियकसायवसिएण जेदुजे ।।१३२७।। गा०-जो इन्द्रियरूपी ग्रहसे पकड़ा हुआ है वही ग्रह पीड़ित है। जो ग्रहसे पकड़ा हुआ है वह ग्रहपीड़ित नहीं है। क्योंकि ग्रह तो एक ही भवमें कष्ट देता है किन्तु इन्द्रियरूपी ग्रह सैकड़ों भवोंमें कष्ट देता है ।।१३२४॥ गा०-टी०-जो कषायसे उन्मत्त (पागल) है वही उन्मत्त है। जो पित्तसे उन्मत्त है वह उन्मत्त नहीं है। इससे पित्तके द्वारा हए उन्मादसे कषायके द्वारा हए उन्मादको निकृष्ट बतलाया है। क्योंकि कषायसे उन्मत्त पुरुष जैसा पाप करता है पित्तसे उन्मत्त वैसा पाप नहीं करता। एक-एक भी क्रोधादि कषाय हिंसा आदिमें प्रवृत्त करता है। कर्मोके स्थितिबन्धको बढ़ाता है। किन्तु पित्तसे हुआ उन्माद केवल विवेकमूलक ज्ञानका ही तिरस्कार करता है। इसलिए इन दोनोंमें बहुत अन्तर है ॥१३२५।। गा०-इन्द्रिय और कषायमय पिशाच मनुष्यको सुजनोंके मध्यमें देखने योग्य पापक्रियाकी विडम्बनाओंको करनेवाला पिशाच बना देता है ।।१३२६।। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'कुलजस्स परिसस्स जसमिच्छंत्तगस्स' कुलप्रसूतस्य पंसः यशोऽभिलाषिणः । 'णिधणं वरं' मतिः शोभना । 'ण दु जीविजे' नव वरं जीवनं । दिक्खिदेण इंदियकसायवसिएण' दीक्षितस्येन्द्रियकषायवशवर्तिनः जीवनं न शोभनमित्यर्थः ॥१३२७॥ जध सण्णद्धो पग्गहिदचावकंडो रधी पलायंतो । णिदिज्जदि तध इंदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो ॥१३२८॥ 'यथा रधो पलायंतो णिदिज्जवि' यथा रथी पलायन्निन्द्यते । कीदृक् ? 'सण्णद्धो पग्गहिदचावकंडो' सन्नद्धः उपगृहीतचापकाण्डः । तथा 'इदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो' तथा इन्द्रियकषायवशवयपि प्रवजितो निन्द्यते ॥१३२८॥ जध भिक्खं हिंडंतो मउडादि अलंकिदो गहिदसत्थो । प्रिंदिज्जइ तघ इदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो ॥१३२९।। 'जध भिक्ख हिडतो' मुकुटादिभिरलंकृतो गृहीतशस्त्रो भिक्षां भ्रमन् निन्द्यते । तथा निन्द्यते इन्द्रियकषायवशवर्ती प्रव्रजितः ॥१३२९।। इदियकसायवसिगो मडो जग्गो य जो मलिणगत्तो । सो चित्तकम्मसमणोव्व समणरूवो असमणो हु ॥१३३०॥ 'इंदियकसायवसिगो' इन्द्रियकषायवशीकृतः, मुण्डो नग्नश्च यो मलिनगात्रः सन् । 'सो समणरूवो न समणो' स श्रमणरूपो न श्रमणः 'स चित्तकम्मसवणो व्व' स चित्रकर्मश्रमण इव । परमार्थश्रमणसदृशरूपोऽपि यथा चित्रश्रमणो न श्रमणस्तद्वदशुभपरिणामप्रवणः ॥१३३०॥ ज्ञानं नरस्य दोषानपहरति इन्द्रियकषायजयमुखेन यथा सत्त्ववतः प्रहरणमावरणं च शत्रु नाशयती गा०-कुलीन और यशके अभिलाषी पुरुषका मरना श्रेष्ठ है किन्तु दीक्षित होकर इन्द्रिय और कषायके वशमें रहकर जीना श्रेष्ठ नहीं है ॥१३२७॥ गा-जैसे धनुष बाण लेकर युद्धके लिए तैयार रथारोही यदि युद्धसे भागता है तो निन्दाका पात्र होता है। उसी प्रकार दीक्षित साधु यदि इन्द्रिय और कषायके वशमें होता है तो निन्दाका पात्र होता है ॥१३२८।। गा०-जैसे मुकुट आदिसे सुशोभित और हाथमें शस्त्र लिये हुए कोई भिक्षाके लिए घूमता है तो निन्दाका पात्र होता है। वैसे ही दीक्षित होकर इन्द्रिय और कषायके वशमें होनेवाला भी निन्दाका पात्र होता है ॥१३२९॥ __गा०-टी०-जो मुण्डित नग्न और मलिन शरीरवाला होकर भी इन्द्रिय और कषायके वशमें होता है वह चित्रमें अंकित श्रमणके समान श्रमणरूपका धारी होनेपर भी श्रमण नहीं है । अर्थात् जैसे चित्रमें अंकित श्रमण वास्तविक श्रमणके समान रूपवाला होनेपर भी श्रमण नहीं है उसी प्रकार श्रमणका वेष धारण करके भी जिसके परिणाम अशुभ हैं वह श्रमण नहीं है ।।१३३०॥ __ आगे कहते हैं कि इन्द्रिय और कषायको जीतनेके द्वारा ज्ञान मनुष्यके दोषोंको दूर करता Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ भगवंती आराधनों त्युत्तरगाथार्थः इन्द्रियकषायाजये ज्ञानं दोषापहारित्वाख्यं अतिशयनं न लभते यथा सत्त्वहीनस्यावरणसन्नाहाख्यं प्रहरणं च खड्गचक्रादिकं शत्रुजयत्वमतिशयं नासादयति णाणं दोसे णासिदि णरस्स इदियकसायविजयेण । आउहरणं पहरणं जह णासेदि अरिं ससत्तस्स ॥१३३१॥ 'णाणं' ज्ञानं 'दोसे' दोषान् । 'णासिदि' नाशयति । 'णरस्स' नरस्य । 'इदियकसायविजयेन' । 'जह' यथा । 'आउहरणं पहरणं' आयुषो हरणं प्रहरणं शस्त्रं । सह सत्त्वेन वर्तते इति ससत्त्वस्तस्य । 'अरि रिपुं । 'गासेदि' नाशयति ।।१३३१॥ णाणंपि कुणदि दोसे णरस्स इंदियकसायदोसेण । आहारो वि हु पाणो णरस्स विससंजुदो हरदि ॥१३३२।। 'णाणपि कुणदि दोंसे णरस्स' ज्ञानं दोषानपि करोति नरस्य । 'इदियकसायदोसेण' इन्द्रियकषायपरिणामदोषेण । उपकार्यपि अनुपकारितामुदहति परसंसर्गेण । यथा प्राणधारणनिमित्तोऽप्याहारो विषमिश्रः प्राणाविनाशयति ।।१३३२॥ णाणं करेदि पुरिसस्स गुणे इंदियकसायविजयेण । बलरूववण्णमाऊ करेहि जुत्तो जधाहारो ।।१३३३।। 'णाणं करेदि' ज्ञानं करोति । 'पुरिसस्स गुणे' पुरुषस्य गुणान् । कथं ? 'इदियकसायविजएण' इन्द्रियकषायविजयेन । 'बलवण्णरूवमाऊ करेदि' बलं, रूपं, तेजः, आयुश्च करोति । 'जुत्तो जधाहारो' युक्तः शोभनो यथाहारः विषेणामिश्रितः ॥१३३३॥ णाणं पि गुणे णासेदि णरस्स इंदियकसायदोसेण । अप्पवधाए सत्थं होदि हु कापुरिसहत्थगयं ।।१३३४।। है। जैसे सत्त्वसम्पन्न मनुष्यका शस्त्र और कवच शत्रुका नाश करता है। तथा इन्द्रिय और कषायको न जीतनेपर ज्ञान दोषोंको दूर करनेरूप अतिशयको प्राप्त नहीं करता। जैसे सत्त्वहीन पुरुषका कवच और तलवार चक्र आदि शस्त्र शत्रुको जीतनेरूप अतिशयको नहीं प्राप्त करता ॥१३३०॥ गा०–इन्द्रिय और कषायको जीतनेसे ज्ञान मनुष्यके दोषोंको नष्ट करता है। जैसे सत्त्वशालीका आयुको हरनेवाला शस्त्र शत्रुको नष्ट करता है ।।१३३१।। गा० इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंके दोषसे ज्ञान भी मनुष्योंमें दोष उत्पन्न करता है । दूसरेके संसर्गसे उपकारी भी अनुपकारी हो जाता है। जैसे आहार प्राण धारणमें निमित्त है किन्तु विषसे मिला आहार प्राणोंका घातक होता है ।।१३३२।। गा०-और इन्द्रिय तथा कषायोंको जीतनेसे ज्ञान पुरुषमें गुण उत्पन्न करता है। जैसे विषसे रहित उत्तम आहार बल, रूप, तेज और आयुको बढ़ाता है ।।१३३३।। गा०-इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंके दोषसे ज्ञान भी पुरुषके गुणोंको नष्ट करता है । जैसे कायर पुरुषके हाथमें गया शस्त्र उसके ही बधमें निमित्त होता है ॥१३३४॥ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ज्ञानमपि गुणान्नाशयति नरस्य इन्द्रियकषायपरिणामदोसेण । आत्मवधाय भवति शस्त्रं कापुरुषहस्तगतं इति ।।१३३४॥ उत्तरगाथार्थ: सबहुस्सुदो वि अवमाणिज्जदि इंदियकसाय'दोसेण । णरमाउधहत्थंपि हु मदयं गिद्धा परिभवंति ॥१३३५।। 'सुवहुस्सुदोवि' सुष्ठुबहुश्रुतोऽप्यवमन्यते इन्द्रियकषायदोषेण । गृहीतास्त्रमपि नरं मृतं गृद्धाः परिभवन्ति यथा ॥१३३५।। इंदियकसायवसगो बहुस्सुदो वि चरणे ण उज्जमदि । पक्खीव छिण्णपक्खो ण उप्पडदि इच्छमाणो वि ।।१३३६॥ ____ 'इंदियकसायवसगो' इन्द्रियकषायवशगः बहुश्रुतोऽपि चारित्रे नोद्यमं करोति । यथा छिन्नपक्षः पक्षी नोत्पतति इच्छन्नपि ॥१३३६ णस्सदि सगं बहुगं पि णाणमिदियकसायसम्मिस्सं । विससम्मिसिददुद्धं णस्सदि जध सक्कराकढिदं ।।१३३७।। 'णस्सदि सगं बहुगंपि णाणं' नश्यति स्वयं बह्वपि ज्ञानं इन्द्रियकषायसंमिश्रं । शर्कराक्वथितं दुग्धं विषमिश्रमिव । माधर्यात्सातिशयता दुग्धस्य शर्कराक्वथितशब्देन कथ्यते ॥१३३७।। इंदियकसायदोसमलिणं णाणं वट्टदि हिदे से । वट्टदि अण्णस्स हिदे खरेण जह चंदणं ऊढं ॥१३३८॥ ज्ञानं यदीयं तस्मै उपकारितया प्रसिद्धमपि सन्नोपकारि भवति इन्द्रियकषायमलिनं, परोपकारित भवति खरेणोढं चन्दनादिकमिवेति सूत्रार्थः ।।१३३८॥ गा०-इन्द्रिय और कषायोंके दोषसे अच्छे प्रकारसे बहुतसे शास्त्रोंका ज्ञाता भी विद्वान् अपमानका पात्र होता है। जैसे हाथमें अस्त्रके होते हुए भी मरे मनुष्यको गृद्ध खा जाते हैं ॥१३३५॥ गा०-इन्द्रिय और कषायोंके वशमें हुआ बहुश्रुत भी विद्वान् चारित्रमें उद्योग नहीं करता । जैसे जिसका पर कट गया है ऐसा पक्षी इच्छा करते हुए भी नहीं उड़ सकता ।।१३३६।। गा०-इन्द्रिय और कषायके योगसे बहुत भी ज्ञान स्वयं नष्ट हो जाता है । जैसे शक्करके साथ कढ़ा हुआ दूध विषके मिलनेसे नष्ट हो जाता है अर्थात् अपने स्वभावको छोड़ देता है। यहाँ शक्करके साथ कढ़ाया हुआ कहनेसे मिठासके कारण दूधकी सातिशयता बतलाई है। ऐसा दूध भी विषके मेलसे हानिकर होता है ।।१३३७॥ गा०—जिसका ज्ञान होता है उसीका उपकारी होता है यह बात प्रसिद्ध है किन्तु इन्द्रिय और कषायसे मलिन ज्ञान जिसका होता है उसका उपकार नहीं करता, दूसरोंका उपकार १. यजोगेण अ० । Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ भगवती आराधना ज्ञानं प्रकाशकत्वमपि स्वं जहाति इन्द्रियकषायपरिणामवशादिति निगदति-- . इदियकसायणिग्गहणिमीलिदस्स हु पयासदि ण णाणं । रत्तिं चक्खुणिमीलस्स जघा दीवो सुपज्जलिदो ॥१३३९।। 'इंदियकसायणिग्गहणिमीलिदस्स' इन्द्रियकषायनिग्रहे निमीलितस्यात्मनो ज्ञानं न प्रकाशकं । 'रत्तिय' रात्राविव । 'चक्खुणिमिलिदस्स' निमीलितचक्षुषः पुंसः । 'जह दीवो सुपज्जलिदों' यथा सुप्रज्वलितः प्रदीपः ।।१३:९॥ इंदियकसायमइलो बाहिरकरणणिहुदेण वेसेण । आवहदि को वि विसए सउणो वादंसगेणेव ।।१३४०॥ 'इंदियकसायमइलो' इन्द्रियकषायपरिणाममलिनः । 'बाहिरकरणणिहुदेण वेसेण' बाह्याया गमनागमनादिकायाः क्रियाया निभृतेन वेषेण । 'कोई विसए आवहवि' कश्चिद्विषयानावहति आत्मनो भोगाय ।।१३४०॥ घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स । बाहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स ॥१३४१॥ 'घोडलिंडसमाणस्स' घोटकलिंडसमानस्य यथा बहिर्मसृणता न तद्वदन्तर्मसृणता । तद्वत्कस्यचिद्वाचं चरणं समीचीनं नाभ्यन्तराः परिणामाः शुद्धाः । स एवमुच्यते । 'बाहिरकरणं कि काहिदि' बाह्यक्रिया अनशनादिका किं करिष्यति । 'अब्भंतरम्मि कुथिदस्स' अन्तः कुथितस्स । इन्द्रियकषायसंज्ञाऽशुभपरिणामेन नष्टाभ्यन्तरतपोवृत्तेरिति यावत् । 'बगणिहुक्करणस्स' बकवन्निभृतक्रियस्य ॥१३४१॥ करता है । जैसे गधेपर लदा चन्दन दूसरोंका उपकार करता है ॥१३३८॥ __ आगे कहते हैं कि इन्द्रिय कषायरूप परिणामोंके दोषसे ज्ञान अपने प्रकाशकत्व धर्मको भी .छोड़ देता है गा-टी-इन्द्रिय और कषायोंका निग्रह करनेमें जो अपना उपयोग नहीं लगाता अर्थात जो इन्द्रिय और कषायोंसे प्रभावित है, उसका ज्ञान वस्तस्वरूपका प्रकाशक नहीं होता। जैसे, जिसने आँखे दी है उसके लिए तीव्रतासे जलता हुआ दीपक पदार्थोंका प्रकाश नहीं करता ॥१३३९॥ गा०—जिसका परिणाम इन्द्रिय और कषायसे मलिन होता है ऐसा कोई साधु बाह्य गमन आगमन आदि क्रियाओंके द्वारा अपने वेशको छिपाकर अपने भोगके लिये विषयोंको ग्रहण करता है जैसे निश्चल बैठा पक्षी अपनी चोंचसे अपने शिकारको ग्रहण करता है ॥१३४०।। गा०-टी०-जैसे घोड़ेकी लीद ऊपरसे चिकनी और भीतरसे खुरदरी होती है वैसे ही किसीका बाह्य आचरण तो समीचीन होता है किन्तु अभ्यन्तर परिणाम शुद्ध नहीं होते। उसे घोड़ेकी लीदके समान कहा है। जिसके अभ्यन्तर परिणाम शुद्ध नहीं हैं उसकी बाह्यक्रिया अनशन आदि क्या करेगी ? अर्थात् इन्द्रिय और कषायरूप अशुभ परिणामके द्वारा अभ्यन्तर तपोवृत्ति जिसकी नष्ट हो चुकी है वह बाह्य अनशन आदि तप करे भी तो क्या लाभ है। वह तो नदीके तटपर निश्चल बैठे हुए बगुलेकी तरह है ।।१३४१।। १. षायानि-आ० । २. वीदंसगे-ज०, मु०, मूलारा० । Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६५७ बाह्य तपः करणीयतयोपदिष्टं तत्स्वफल सम्पादयत्येव किमुच्यते बाह्यक्रिया किं करोतीत्याशक्य सुरिराचष्टे बाहिरकरणविसुद्धी अब्भंतरकरणसोधणत्थाए । ___ण हु कुंडयस्स सोंघी सक्का सतुसस्स काईं जे ॥१३४२।। 'बाहिरकरणविसुद्धी' बाह्यक्रियाविशुद्धिः । 'अन्भंतरकरणशोधणत्थाए' अभ्यन्तरक्रियाणां विनयादीनां शुद्धये, अभ्यन्तरतपसां लघ्वेव बहुतरकर्मनिर्जराक्षमाणां परिवृद्धये श्रूयन्ते बाह्यान्यनशनादितपांसि । ततोऽन्वर्थतया बाह्यान्युपदिष्टानि । यद्धि यदर्थं तत्प्रधानं इति प्रधानताभ्यन्तरतपसः तच्च शुभशुद्धपरिणामात्मकं । तेन विना न निर्जरायै बाह्यमलं । उक्तं च-बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबहणार्थ । इति । ‘ण खु कुडयस्स सोधी सक्का कादं जे' नवान्तर्मलस्य शुद्धिः शक्या कर्तुं । कस्य ? 'सतुसस्स' सतुषस्य धान्यस्य ।।१३४२।। अभंतरसोधीए सुद्धं णियमेण बाहिरं करणं । अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरं दोसं ॥१३४३।। 'अन्भंतरसोधीए' अभ्यन्तरशुद्धया । 'सुद्धं णियमेण बाहिरं करणं' शुद्ध निश्चयेन बाह्य करणं । . 'अम्भंतरदोसेण खु' अन्तःपरिणामदोषेणैव इन्द्रियकषायपरिणामादिना । 'कुणदि णरो बाहिरं दोस' करोति नरो बाह्यान्दोषान्वाक्कायाश्रयान् ॥१३४३॥ लिंगं च होदि अब्भंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी । भिउडीकरणं लिंगं जह अंतोजादकोधस्स ॥१३४४॥ - लिंगं च होदि' चिह्न च भवति । 'अभंतरस्स परिणामसोधीए' अभ्यन्तरस्य परिणामस्य शुद्धः । 'बाहिरा सोधो' बाह्या शुद्धिरशनादितपोविषया । 'भिउडोकरणं लिंग' भृकुटीकरणं लिङ्गं । 'जह' यथा । यहाँ कोई शङ्का करता है कि ऊपर बाह्यतप करनेका उपदेश किया है वह अपना फल अवश्य देता है। तब आप कैसे कहते हैं कि वाह्यक्रिया क्या करेगी? इसका उत्तर आचार्य देते हैं गाo-टी०-अभ्यन्तर क्रिया विनय आदिकी शुद्धिके लिये बाह्यक्रियाकी विशुद्धि कही है । शीघ्र ही बहुतसे कर्मोंकी निर्जरामें समर्थ अभ्यन्तर तपोंकी वृद्धिके लिए बाह्य अनशन आदि तप सुने जाते हैं। इसीलिए उनका बाह्य नाम सार्थक है। जो जिसके लिये होता है वह प्रधान होता है। इसलिए अभ्यन्तर तपकी प्रधानता है। वह अभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामरूप होता है। उसके विना बाह्यतप निर्जरामें समर्थ नहीं होता। कहा भी है-'भगवन् ! आपने आध्यात्मिक तपकी वृद्धिके लिए अत्यन्त कठोर बाह्यतप किया।' ठीक ही है, क्योंकि छिलकेके रहते हुए धान्यकी अन्तः शुद्धि सम्भव नहीं है ।।१३४२।। ___ गा०-नियमसे अभ्यन्तर शुद्धिके होनेसे ही बाह्यशुद्धि होती है। इन्द्रियकषाय परिणाम आदि अन्तरंग परिणाम दोषसे ही मनुष्य वचन और कायसम्बन्धी बाह्य दोषोंको करता है ।।१३४३॥ गा०-टी०-अनशन आदि तपविषयक बाह्यशुद्धि अभ्यन्तर परिणामोंकी विशुद्धिका Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ भगवती आराधना 'अंतोजादकोधस्स' अन्तर्जातस्य कोपस्य लिङ्ग लिङ्गभावः । बाह्यानामभ्यन्तराणां चैवं भवति यदि परस्पराविनाभाविता स्यादग्निधूमयोरिव । प्रसिद्धश्च लिङ्गलिङ्गिभावः कार्येण बाह्येन कारणस्याभ्यन्तरस्येति भावार्थः ॥१३४४॥ ते चेव इंदियाणं दोसा सव्वे हवंति णादव्वा । कामस्स य भोगाण य जे दोसा पुव्वणिदिट्ठा ।।१३४५॥ 'ते चेव इंदियाणं दोसा' त एवेन्द्रियाणां सर्वेषां दोषा भवन्ति इति ज्ञातव्याः । के ? 'ये दोसा पुन्व णिहिटठा' ये दोषाः पूर्वनिदिष्टाः । 'कामस्स य भोगाण य' कामस्य भोगानां च संबन्धितया निर्दिष्टाः दोषाः ॥१३४५॥ महुलित्तं असिधारं तिक्खं लेहिज्ज जघ णरो कोई । तघ विसयसुहं सेवदि दुहावहं इहहि परलोगे ।।१३४६॥ 'मधुलित्तं' मधुना लिप्तां । 'असिधारं' असे/रां । 'तिक्स' तीक्ष्णां । 'जह गरो कोई लेहिज्ज' यथा नरः कश्चिदास्वादयति जिह्वया । 'तह विसयसुहं सेवदि' तथा विषयसुखं सेवते । 'दुहावहं इह य परलोए' दुःखावहमत्र जन्मनि परत्र च, स्वल्पसुखतया बहुदुःखतया च साम्यं दृष्टान्तदा न्तिकयोः ॥१३४६।। एकैकेन्द्रियविषयवशवर्तिभिमृगादिभिरुपद्रवो ह्याप्तः, किं पुनरशेषेन्द्रियविषयलम्पटैर्जनैः प्राप्येऽनर्थे वाच्यमिति मत्वाचष्टे सद्देण मओ रूवेण पदंगो वणगओ वि फरिसेण । मच्छो रसेण भमरो गंधेण य पाविदो दोसं ॥१३४७॥ चिह्न है। जैसे क्रोध उत्पन्न होनेका चिह्न भृकुटी चढ़ाना होता है। इस प्रकार बाह्य और अभ्यन्तरको अग्नि और धूमकी तरह परस्परमें अविनाभाविता है। अर्थात् जैसे आगके होनेपर ही धूम होता है अतः जहाँ धूम होता है वहाँ आग अवश्य होती है। इसीको अविनाभाविता कहते हैं। धूम लिंग है आग लिंगी है। इसी प्रकार बाह्य कार्यके साथ अभ्यन्तर कारणका लिंगलिंगी भाव सम्बन्ध जानना ॥१३४४॥ गा-जो दोष पहले काम और भोगके सम्बन्धमें कहे हैं वे ही सब दोष इन्द्रियोंके सम्बन्धमें जानना ॥१३४५॥ गा०-टी०-जैसे कोई मनुष्य जिह्वाके द्वारा मधुसे लिप्त तलवारको तीक्ष्ण धारको चाटता है वैसे ही मनुष्य विषय सुखका सेवन करता है जो इस जन्ममें और परजन्ममें दुःखदाया है। जैसे मधुलिप्त तलवारकी धारको जिह्वासे चाटनेसे प्रारम्भमें मधुके कारण थोड़ा सुख होता है किन्तु जीभ कट जानेपर बहुत दुःख होता है उसी प्रकार विषय भोगमें भी सुख अल्प है दुःख बहुत है ।।१४४६॥ आगे कहते हैं कि एक एक इन्द्रियके विषयमें आसक्त हिरन आदि कष्ट भोगते हैं तब समस्त इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त जनोंके द्वारा प्राप्य अनर्थका क्या कहना है-- Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ६५९ 'सद्देण मओ' शब्देन मृगः बाष्पच्छेद्यसरससुरभितृणाग्रग्रासेन, मृदुपवनानीतशैत्यस्फटिकसंकाशपानीयपानेन च पुष्टमूतिरन्तःकरणमिव लघुतरप्रयाणो हरिणो व्याधकलगीतश्रवणेन सुखाकूणितलोचनः, दुष्टयमदंष्ट्रासमाननिशितविशिखावलीभिन्नतनुर्जहाति प्रियतमान्प्राणान् । 'रूवेण पदंगो च' एककलिकाकारप्रदीपरूपेण जनितानुरागः पतंगो दीपाचिषि भस्मसाद्धावमुपयाति । 'वणगजो वि फरिसेण' वनगजश्च विलासिनीहृदयमिव दुष्प्रवेशासु, संसृतिरिव महतीषु अरण्यानीषु, विपद इव दुरतिक्रमणीयासु सल्लकीतरुणतरुशाखाहारः, रम्यगिरिनदीविपुल हदेषु, स्वेच्छापानतरुणनिमज्जनोन्मज्जनरुपगतप्रीतिः, अनुकूलाने ककरिणीकदम्बकेनानुगम्यमानो वासिताविशालजवनस्पर्शनोपनीतप्रीतिर्मदकलो विचेतनो रागबहलतिमिरपटलावगुण्ठितलोचनो महति गर्ते निपतितः परं व्यसनमवगाहते । 'मच्छो' मत्स्यः युवजनमनः 'सरोनपायिविलासिनी विलोचनविभ्रमविलम्बनोद्यतः स्वल्पाहाररसलोलुपो विपदमाश्ववशः प्रयाति । विचित्रसुरभिप्रसूनप्रकररजोऽङ्गरागो भ्रमरः विषपादपकुसुमगन्धेनापहृतप्रियतमप्राणो भवति । एवमेते दोषान्प्रापिताः ॥१३४७॥ तिरश्चां दुःखं प्रतिपाद्य विषयरागजनितं मनुजगतौ दर्शयति 'इदि पंचहि पंच हदा सदरसफरिसगंधरूवहिं । इक्को कह ण हम्मदि जो सेवदि पंच पंचेहिं ॥१३४८॥ गा०-टी०-वनमें हिरण मुखके वाष्पसे टूटनेवाले सरस सुगन्धित तृणोंके अग्रभागोंको खाकर और कोमल वायुके द्वारा शीतल किये गये स्फटिकके समान स्वच्छ जलको पीकर पुष्ट होता है। उसकी गति मनसे भी तीव्र होती है। वह व्याधके मनोहर गीतको सुनकर सुखसे अपनी आँखें मूंद लेता है। और दुष्ट यमराजकी दाढ़के समान तीक्ष्ण विशाल बाणोंके द्वारा छेदा जाकर अत्यन्त प्रिय प्राणोंको त्याग देता है। एक कलिकाके आकार दीपकके रूपसे अनुराग करनेवाला पतंगा दीपकको लौमें जलकर भस्म हो जाता है। वनका हाथी स्त्रीके हृदयकी तरह जिसमें प्रवेश करना कठिन है, जो संसारकी तरह महान् है और विपत्तिकी तरह जिसे लांघना अशक्य है ऐसे महान् वनमें सल्लकीके तरुण वृक्षोंकी शाखा खाता है, रमणीक पहाड़ी नदी और बड़े-बड़े तालाबोंमें स्वेच्छापूर्वक जल पीता है, अवगाहन करता है, डुबकी लगाता है, अनेक अनुकूल हथिनियोंका समह उसके पीछे चलता है. हथिनीके विशाल जघन भागके स्पर्शनमें अनुरक्त होकर मदमत्त हो, रागकी अधिकतारूपी अन्धकारके पटलसे आँखें बन्द कर लेता है और महान् गर्तमें गिरकर कष्ट भोगता है । युवा पुरुषोंके मनरूपी सरोवरमें विलास करनेवाली स्त्रियोंके लोचनके हावभावका अनुकरण करनेवाला मच्छ थोड़ेसे भोजनकी लोलुपतावश शीघ्र ही विपत्तिमें पड़ जाता है । अनेक प्रकारके सुगन्धित फूलोंके समूहको रजसे आवेष्ठित भौंरा विषवृक्षके फूलकी गन्धसे प्राण खो देता है। इस प्रकार एक एक इन्द्रियके वश होकर ये कष्ट उठाते हैं ॥१३४७॥ तिर्यञ्चोंका विषयरागसे उत्पन्न दुःख कहकर मनुष्य गतिमें कहते हैं गा०-इस प्रकार शब्द, रस, स्पर्श, गन्ध, रूप इन पाँच विषयोंके द्वारा पाँच जीव अपने 'प्राण गँवाते हैं। तब जो एक ही पुरुष पाँचों इन्द्रियोंके द्वारा पाँचों विषयोंका सेवन करता है वह प्राण क्यों न गंवायेगा ॥१३४८॥ १. मस्सारो-आ० । २. एतां टीकाकारो नेच्छति । ८३ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० भगवती आराधना सरजूए गंधमित्तो घाणिदियवसगदो विणीदाए । विसपुप्फगंधमग्घाय मदो णिरयं च संपत्तो ॥१३४९॥ 'सरजूए' सरय्वां नद्यां । 'गंधमित्तो' गंधमित्रो नाम भूपालः । 'मदो' मृतः । 'विणोदाए' विनीतापुरीपतिः । ‘घाणिदियवसगदो' घ्राणेन्द्रियवशंगतः । “विसगंधपुप्फमग्घाय' विषचर्णवासितपुष्पमाघ्राय । 'मदो' मृतः । गिरयं च संपत्तो नरकं च संप्राप्तः तीव्रविषयरागाज्जातेन कर्मभारेण ॥१३४९॥ पाडलिपुत्ते पंचालगीदसदेण मुच्छिदा संती । पासादादो पडिदा गट्ठा गंधव्वदत्ता वि ॥१३५०॥ पाटलिपुत्रे पांचालस्य गीतशब्देन मूर्छिता सती प्रासादात्पतिता नष्टा गन्धर्वदत्ता नामधेया गणिका ॥१३५०॥ माणुसमंसपसत्तो कंपिल्लवदी तधेव भीमो वि । रज्जब्भट्टो णट्ठो मदो य पच्छा गदो णिरयं ॥१३५१।। 'मानुसमंसपसत्तो' मानुषमांसप्रसक्तः काम्पिल्यपुराधिपो भीमो राज्यभ्रष्टो नष्टो मृतः पश्चान्नरकमुपयातः ।।१३५१॥ चोरो वि तह सुवेगो महिलारूवम्मि रत्तदिडीओ। विद्धो सरेण अच्छीसु मदो णिरयं च संपत्तो ॥१३५२।। 'चोरो वि तह सुवेगो' सुवेगनामधेयश्चौरोऽपि युवतिरूपाकृष्टदृष्टिः शरैविद्धक्षणे मृतो नरकमुपगतः ॥१३५२॥ फासिदिएण गोवे सत्ता गिहवदिपिया वि णासक्के । मारेदूण सपुत्तं धूयाए मारिदा पच्छा ।।१३५३।। ‘फासिदिएण' स्पर्शनेन्द्रियेण हेतुना । 'गोवे सत्ता' आत्मीये गोपाले आसक्ता । 'गिहवदिपिया' गा०-अयोध्यापुरीका राजा गन्धमित्र घाणेन्द्रियके वशमें होकर सरयू नदी में विषैले फूलकी गन्धको सूंघकर मरा और नरकमें गया ॥१३४९।। विशेषार्थ-उसके बड़े भाईने भयंकर विषसे फूलको सुवासित करके दिया था। इसकी कथा बृहत्कथाकोशमें ११३ नम्बर पर है। गा०-पाटलीपुत्र नगरमें गंधर्वदत्ता नामक गणिका पंचालके गीतके शब्द सुनकर मूछित हो महलसे नीचे गिरकर मर गई ॥१३५०॥ विशेषार्थ-इसकी कथा बृहत्कथाकोशमें ११४ नम्बर पर है। गा०-कंपिला नगरीका राजा भीम मनुष्यके मांसका प्रेमी था। वह राज्यसे निकाला जाकर मरकर नरकमें गया ॥१३५३।। विशेषार्थ-वृहत्कथाकोशमें ११५ नम्बर पर इसकी कथा है। १. वदि गिहिणी-अ० आ० । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६६१ राष्ट्रकूटभार्या । 'णासक्के' नासिक्ये नगरे । 'मारेदूण सपुत्तं' स्वपुत्रं हत्त्वा । 'धूदाए' दुहित्रा । 'पच्छा पश्चात् । 'मरिदा' मृति नीता ॥१३५३॥ इंदिया। एवमिन्द्रियदोषानुपदश्य कोपदोषप्रकटनार्थ प्रक्रम्यते-- रोसाइट्ठो णीलो हदप्पभो अरदिअग्गिसंसत्तो। सीदे वि णिवाइज्जदि वेवदि य गहोवसिट्ठो व ॥१३५४।। 'रोसाविट्ठो' रोषाविष्टः । नीलवर्णो भवति 'हदप्पभो' विनष्टदीप्तिः। 'अरदिअग्गिसंतत्तो' अरत्यग्निसंतप्तः । 'सोदे वि णिवाइज्जई' शोतेऽपि तृषितो भवति । 'वेवदि' वेपते च । 'गहोवसिट्ठोव' ग्रहेणोपसृष् इव ॥१३५४॥ भिउडीतिवलियवयणो उग्गदणिच्चलसुरत्तलुक्खक्खो । कोवेण रक्खसो वा णराण भीमो णरो भवदि ॥१३५५।। 'भिउडीतिवलियवयणो' भृकुटीत्रिवलितवदनो। 'उग्गदणिच्चलसुरत्तलुक्खवखो' उद्गतनिश्चलसुरक्तरूक्षेक्षणः । 'रोसेण' रोषेण हेतुना । 'रक्खसो' राक्षस इव । ‘णराण भीमो णरो होदि' नराणां भीमो भयावहो भवति नरः ॥१३५५।। जह कोइ तत्तलोहं गहाय रुट्ठो परं हणामित्ति । पुव्वदरं सो डज्झदि डहिज्ज व ण वा परो पुरिसो ॥१३५६।। 'जह कोई' यथा कश्चित् 'तत्तलोहं गहाय' तप्तलोहं गृहीत्वा । किमर्थ ? 'रुट्ठो परं हणामित्ति' गा--सुवेग नामक चोर युवती स्त्रियोंके रूपको देखनेका अनुरागी था। उसकी आँखमें बाण लगा और वह मरकर नरक गया ॥१३५२।। विशेषार्थ-बृ० क० को० में इसकी कथा ११६ वीं है। उसमें सुवेगको म्लेच्छराज कहा है ॥१३५२॥ गा०-नासिक नगर में गृहपति सागरदत्तकी भार्या नागदत्ता स्पर्शन इन्द्रियके कारण अपने ग्वाले पर आसक्त थी। उसने अपने पुत्रको मारा तो उसकी लड़कीने अपनी मांको मार दिया ।।१५५३॥ . विशेषार्थ-इसकी कथा उसी कथाकोशमें ११७ नम्बर पर है ॥१३५३॥ इस प्रकार इन्द्रियके दोष बतलाकर क्रोधके दोष बतलाते हैं गा०-टो०-जो क्रोधसे ग्रस्त होता है उसका रंग नीला पड़ जाता है, कान्ति नष्ट हो जाती है, अरतिरूपी आगसे संतप्त होता है। ठंडमें भी उसे प्यास सताती है और पिशाचसे गृहीत की तरह क्रोधसे काँपता है ।।१३५४॥ भृकुटी चढ़नेसे मस्तक पर तीन रेखाएँ पड़ जाती है, लाल लाल निश्चल आँखें बाहर निकल आती हैं । इस तरह क्रोधसे मनुष्य दूसरे मनुष्योंके लिए राक्षसकी तरह भयानक हो जाता है ॥१३५५॥ मा०-जैसे कोई पुरुष रुष्ट होकर दूसरेका घात करनेके लिए तपा लोहा उठाता है। ऐसा करनेसे दूसरा उससे जले या न जले, पहले वह स्वयं जलता है ।।१३५६॥ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना रुष्टः परं हन्मीति । 'पुन्वदरं सो डन्झदि' पूर्वतरं स एव दह्यते तेन तप्तेन लोहेन गृहीतेन । 'उज्झिज्झ परो ण वा पुरिसो' दह्यते परः पुरुषो न वा दह्यते ।।१३५६।। तध रोसेण सयं पुव्वमेव डज्झदि हु कलकलेणेव । अण्णस्स पुणो दुक्खं करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्ज ॥१३५७॥ 'तध रोसेण' तथा रोषेण स्वयं पूर्व दह्यते द्रवीकृतलोहसंस्थानीयेन । अन्यस्य पुनदुःखं कुर्यान्न वा रुष्टः ॥१३५७॥ णासेदूण कसायं अग्गी णसदि सयं जधा पच्छा । णासेदूण तध णरं णिरासवो णस्सदे कोघो ॥१३५८।। कोधो सत्तगुणकरो णीयाणं अप्पणो य मण्णुकरो। परिभवकरो सवासे रोसो णासेदि गरमवसं ॥१३५९॥ 'रोसो सत्तुगुणकरो' रोषः शत्रोर्यो गुणो धर्मोऽपकारित्वं नाम तं करोति । अथवा शत्रूणां गुणमुपकारं करोति रोषः । यतोऽस्य हि रोषदहनेन दह्यमानं तं दृष्ट्वा ते तुष्यन्ति । कथमस्य रोषमुत्पादयाम इत्येवमादतास्ते सदापीति । 'णीयाणं अप्पणो वा' बान्धवानां आत्मनश्च शोकं करोति । 'परिभवकरो सवासे' स्वनिवासस्थाने परिभवमानयति । 'रोसो णासेदि गरमवसं' रोषो नरमवशं नाशयति ॥१३५९।। ण गुणे पेच्छदि अववददि गुणे जंपदि अजंपिदव्वं च । रोसेण रुद्दहिदओ णारगसीलो गरो होदि ॥१३६०।। 'ण गुणे पेच्छदि' गुणं न पश्यति, यस्मै कुप्यति । 'अववदति' निन्दति । 'गुणे' गुणानपि तदीयान् । 'जंपदि अजंपिदव्वं च' वदत्यवाच्यमपि । 'रोसेण रुद्दहिदओ' रोषेण रौद्रचित्तः। 'णारगसीलो णरो हवदि' नारकशीलो भवति नरः ॥१३६०॥ गा०-उसी प्रकार पिघले हुए लोहेकी तरह क्रोधसे पहले वह स्वयं जलता है। दूसरेको वह दुःखी करे या न करे ॥१३५७॥ - गा०-जैसे आग ईधनको नष्ट करके पीछे स्वयं बुझ जाती है उसी प्रकार क्रोध पहले क्रोधी मनुष्यको नष्ट करके पीछे निराधार होनेसे स्वयं नष्ट हो जाता है ।।१३५८॥ गा०-टो०-क्रोध शत्रुका जो धर्म है अपकार करना, उसे करता है अथवा क्रोध शत्रुका उपकार करता है क्योंकि उसे क्रोधकी आगमें जलते हुए देखकर शत्रु प्रसन्न होते हैं। वे सदा इस प्रयत्नमें रहते हैं कि कैसे इसे क्रोध उत्पन्न करें । क्रोध अपने और बन्धु बान्धवोंको शोकमें डालता है । अपने ही घरमें अपना तिरस्कार कराता है। परवश मनुष्यका नाश करता है ।।१३५९।। गाल-क्रोधी जिसपर क्रोध करता है उसके गुणोंको नहीं देखता। उसके गुणोंकी भी निन्दा करता है । जो कहने योग्य नहीं है वह भी कहता है इस प्रकार क्रोधसे रौद्र हृदय मनुष्यका स्वभाव नारकी जैसा होता है ।।१३६०।। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका जध करिसयस्स धण्णं वरिसेण समज्जिदं खलं पत्तं । डहदि फुलिंगो दित्तो तध कोहग्गी समणसारं ॥१३६१।। 'जह करिसगस्स' यथा कर्षकस्य धान्यं वर्षेण समाजितं खलप्राप्तं दहति विस्फुलिङ्गो दीप्तस्तथा क्रोधाग्निदहति श्रमणस्य सारं पुण्यपण्यं ।।१३६१।। जध उग्गविसो उरगो दब्भतणंकुरहदो पकुप्पंतो। अचिरेण होदि अविसो तध होदि जदी वि णिस्सारो ।।१३६२।। 'जह उग्गविसो उरगो' यथोग्रविष उरगो । दर्भतृणाङ्करहतः तत्प्रकृष्टरोषवशमुपनयन् स्पष्टं तृणादिकं भक्षयित्वा झटिति निर्विषो भवति । तथा यतिरपि निस्सारो भवत्यचिरेण रत्नत्रयविनाशात् ॥१३६२।। पुरिसो मक्कडसरिसो होदि सरूवो वि रोसहदरूवो । होदि य रोसणिमित्तं जम्मसहस्सेसु य दुरूवो ॥१३६३।। 'पुरिसो मक्कडसरिसो' पुरुषो मर्कटसदृशो भवति सुरूपोऽपि सन् रोषोऽपहतरूपः । इह जन्मनि दोषानुपदर्य पारभविकमाचष्टे-'होदि' भवति । जन्मसहस्रषु दुरूप एकभवकृतात्कोपात् ॥१३६३॥ सुट्ठ वि पिओ मुहुत्तेण होदि वेसो जणस्स कोषेण । पघिदो वि जसो णस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण ॥१३६४॥ 'सुवि' नितरामपि । जनस्य प्रियो मुहूर्तमात्रेणैव द्वष्यो भवति रोषेण प्रथितमपि यशो नश्यति । कस्य ? 'कुखस्य अकज्जकरणेन' क्रुद्धस्य अकार्यकरणेन ॥१३६४॥ णीयल्लगो वि 'रुट्ठो कुणदि अणीयल्ल एव सत्त वा । मारेदि तेहिं मारिज्जदि वा मारेदि अप्पाणं ।।१३६५॥ गा०-जैसे चिनगारी एक वर्षके श्रमसे प्राप्त खलिहानमें आये किसानके धान्यको जला देती है उसी प्रकार क्रोधरूपी आग श्रमणके जीवन भरमें उपार्जित पुण्य धनको जला देती है ॥१३६१॥ ___ गा०-जैसे उग्र विषवाले सर्पको घासके एक तिनकेसे मारने पर वह अत्यन्त रोषमें आकर उस तिनके पर अपना विष वमन करके तत्काल विष रहित हो जाता है उसी प्रकार यति भी क्रोध करके अपने रत्नत्रयका विनाश करता है और शीघ्र ही निस्सार हो जाता है ।।१३६२।। गा०-सुन्दर सुरूप पुरुष भी क्रोधसे रूपके नष्ट हो जाने पर बन्दरके समान लाल मुखवाला विरूप हो जाता है। इस जन्ममें क्रोधके दोष दिखलाकर परलोकमें दिखलाते हैं एक भवमें क्रोध करनेसे हजारों जन्मोंमें कुरूप होता है ॥१३६३॥ गा०-क्रोध करनेसे अत्यन्त प्रिय व्यक्ति भी मुहूर्त मात्रमें ही द्वषका पात्र होता है। तथा क्रोधी मनुष्यके अनुचित काम करनेसे उसका फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है ।।१३६४।। १. वि कुद्धो आ० मु०। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ भगवती आराधना ‘णीयल्लगो वि 'रुट्ठो' बन्धुरपि बन्धून्करोति शत्रुवत् । हन्ति बान्धवान् । मार्यते वा स्वयं तैरात्मानं वा हन्यात् ॥१३६५॥ पुज्जो वि णरो अवमाणिज्जदि कोवेण तक्खणे चेव । जगविस्सुदं वि णस्सदि माहप्पं कोहवसियस्स ।।१३६६।। . 'पुज्जो वि' पूज्योऽपि नरो अवमन्यते रोषेण । तत्क्षण एव जगति विश्रुतमपि माहात्म्यं नश्यति रोषिणः ॥१३६६॥ हिंसं अलियं चोज्जं आचरदि जणस्स रोसदोसेण । तो ते सव्वे हिंसालिया दि दोसा भवे तस्स ॥१३६७।। "हिंसं अलियं चोज्ज' हिंसामसत्यं चौर्य वाचरति जनस्य रोषदोषेण । तस्मात्तस्य हिंसादिप्रभवा दोषा भवे भविष्यन्ति ॥१३६७।। वारवदीय असेसा दड्डा दीवायणेण रोसेण । बद्धं च तेण पावं दुग्गदिभयबंधणं घोरं ॥१३६८।। 'वारवती' द्वारवती । निश्शेषा दग्धा रुष्टेन द्वीपायनेन । घोरं च पापं बद्ध दुर्गतिभयप्रवृत्ति निमित्तं । 'कोत्ति गर्द' ॥१३६८॥ मानदोषप्रकटनार्थः प्रबन्ध उत्तरः कुलरुवाणाचलसुदलाभस्सरयत्थमदितवादीहि । अप्पाणमुण्णमंतो नीचागोदं कुणदि कम्मं ॥१३६९।। 'कुलरूवाणा' कुलेन रूपेण आज्ञया, बलेन, श्रुतेन, लाभेन, ऐश्वर्येण मत्या तपसाऽन्यश्च आत्मानमुत्कषयन्नीचैर्गोत्रं कर्म बध्नाति ॥१३६९।। ___ गा.-क्रोधी मनुष्य अपने निकट सम्बन्धियोंको भी असम्बन्धी अथवा शत्रु बना लेता है। उनको मारता है या उनके द्वारा मारा जाता है अथवा स्वयं मर जाता है ॥१३६५।। ___गा०-पूजनीय मनुष्य भी क्रोध करनेसे तत्काल अपमानित होता है। क्रोधीका जगत्में प्रसिद्ध भी माहात्म्य नष्ट हो जाता है ॥१३६६॥ " गा०-क्रोधके कारण मनुष्य लोगोंकी हिंसा करता है, उनके सम्बन्धमें झूठ बोलता है, चोरी करता है । अतः उसमें हिंसा झूठ आदि सब दोष होते हैं ॥१३६७॥ . गा०-दीपायन मुनिने क्रोधसे समस्त द्वारका नगरी भस्म कर दी। और दुर्गतिमें ले जाने वाले घोर पापका बन्ध किया ।।१३६८। क्रोध का कथन समाप्त हुआ । - आगे मानके दोष कहते हैं गा०-कुल, रूप, आज्ञा, बल, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य, तप तथा अन्य बातोंमें अपनेको बड़ा १. विकुद्धो आ० । २. लियचोज्अ समुभवा दोसा-मु० । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६६५ दण अप्पणादो हीणे मुक्खाउ विंति माणकलिं । दट्टण अप्पणादो अधिए माणं णयंति बुधा ।।१३७०।। 'दठूण अप्पणादो' आत्मनो हीनान् दृष्ट्वा मूर्खा मानकलि उद्वहन्ति । बुधाः पुनरात्मनोऽधिकान्बुद्धयावलोक्य मानं निरस्यन्ति ।।१३७०।।। माणी विस्सो सव्वस्स होदि कलहभयवेरदुक्खाणि । . पावदि माणी णियदं इहपरलोए य अवमाणं ।।१३७१।। 'माणी विस्सो सम्वस्स' मानी सर्वस्य द्वेष्यो भवति । कलहं, भयं, वैरं, जन्मान्तरानुगं दुःखं च प्राप्नोति । नियोगत इह परत्र चावमानं ॥१३७१॥ सव्वे वि कोहदोसा माणकसायस्स होदि णादव्वा । माणेण चेव मेधुणहिंसालियचोज्जमाचरदि ।।१३७२।। 'सम्वे वि कोघदोसा' क्रोधस्य वणिता दोषाः । 'न गुणे पिच्छदि' इत्येवमादिसूत्रेण ते सर्वे मानकषायस्यापि ज्ञातव्याः । मानेन मैथुने चौर्ये हिंसायामसत्याभिधाने च प्रयतते ॥१३७२।। सयणस्स जणस्स पिओ णरो अमाणी सदा हवदि लोए । णाणं जसं च अत्थं लभदि सकज्जं च साहेदि ॥१३७३।। 'सयणस्स' मानरहितः स्वजनस्य परजनस्य च सदा प्रियो जनो भवति । 'लोए' लोके । 'गाणं' ज्ञानं । 'जसं' यशः, 'अत्थं' द्रविणं लभते स्वं कार्यमन्यदपि साधयति ॥१३७३।। ण य परिहायदि कोई अत्थे मउगत्तणे पउत्तम्मि । इह य परत्त य लब्भदि विणएण हु सव्वकल्लाणं ।।१३७४॥ 'ण य परिहायदि' मार्दवे प्रयुक्ते नैव कश्चिदर्थो हीयते येनायमर्थहानिभयात् मानं कुर्यात् । मार्दवे तु प्रयुक्त इह जन्मान्तरे च लभ्यते विनयेनैव सर्वकल्याणं ॥१३७४।। मानने वाला, उनका अहंकार करनेवाला नीच गोत्र नामक कर्मका बन्ध करता है ।।१३६९।। गा०-अपनेसे हीन व्यक्तियोंको देखकर मूर्ख लोग मान करते हैं। किन्तु विद्वान् अपनेसे बड़ोंको देखकर मान दूर करते हैं ।।१३७०।। गा--मानीसे सब द्वेष करते हैं । वह कलह, भय, वैर और दुःखका पात्र होता है तथा इस लोक और परलोकमें नियमसे अपमानका पात्र होता है ।।१३७१।।। गा०-पहले जो क्रोधके दोष कहे हैं वे सब दोष मानकषायके भी जानना । मानसे मनुष्य हिंसा, असत्य बोलना, चोरी और मैथुनमें प्रवृत्ति करता है ॥१३७२।। गा०-मान रहित व्यक्ति जगत्में स्वजन और परजन सदा सबका प्रिय होता है। वह ज्ञान, यश और धन प्राप्त करता है तथा अन्य भी अपने कार्यको सिद्ध करता है ।।१३७३॥ गा०-मार्दव युक्त व्यवहार करने पर कोई धनहानि नहीं होती जिससे धनहानिके भयसे मनुष्य मान करे । विनयसे इस जन्ममें और जन्मान्तरमें सर्व कल्याण प्राप्त होते हैं ॥१३७४॥ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना सट्ठि साहसीओ पुत्ता सगरस्स रायसीहस्स । अदिबलवेगा संता णट्ठा माणस्स दोसेण || १३७५।। 'सह साहस्सीओ' सगरस्य राजसिंहस्य चक्रिणः षष्ठिसहस्रसंख्याः पुत्रा महाबलाः विनष्टा मानदोषेण ॥। १३७५ ॥ माणत्तिगदं । मायादोषनिरूपणायोत्तरगाथा ६६६ ज कोडसमिद्धो व ससल्लो ण लभदि सरीरणिव्वाणं । मायासल्लेण तहा ण णिव्वुदिं तवसमिद्धो वि ।। १३७६ ।। 'जध कोडिसमिद्धो वि' यथा कोटिसमृद्धोऽपि शरीरानुप्रविष्टशल्यो न शरीरसुखं लभते । तथा मायाशल्येन न निर्वृत्तिं लभते तपःसमृद्धोऽपि ॥ १३७६ ।। होदि य वेस्सो अप्पच्चइदो तथ अवमदो य सुजणस्स । होदि अचिरेण सत्तू णीयाणवि णियडिदोसेण || १३७८॥ 'होदि य वेस्सो' द्व ेष्यो भवत्यप्रत्ययितः तथा सुजनस्यावमतः । वान्धवानामपि शत्रुरचिरेण भवति मायादोषेण ॥ १३७७॥ पावर दोसं मायाए महल्लं लहु सगावराधेवि । सच्चाण सहस्साणि वि माया एक्का वि णासेदि ।। १३७८ || 'पावदि दोस' प्राप्नोति दोषं महान्तं अल्पापराधोऽपि मायया । एकापि माया सत्यसहस्राणि नाशयति । महादोषप्रापणं सत्यसहस्रविनाशनं च मायादोषी ॥ १३७८ ।। माया मित्तभेदे कदम्मि इधलोगिगच्छपरिहाणी | णासद मायादोसा विसजुददुद्धंव सामण्णं || १३७९।। गा०—– सगर चक्रवर्तीके साठ हजार पुत्र महाबलशाली होते हुए भी मान दोषके कारण मृत्युको प्राप्त हुए | १३७५॥ मानके दोषों का वर्णन पूर्ण हुआ । आगे मायाके दोष कहते हैं 0 गा० - जैसे एक कोटी धनका स्वामी होने पर भी यदि शरीरमें कीलकाँटा घुसा हो तो शारीरिक सुख नहीं मिलता। उसी प्रकार तपसे समृद्ध होने पर भी यदि अन्तरमें मायारूपी शल्य घुसा है तो मोक्ष लाभ नहीं हो सकता ॥ १३७६ ॥ गा० - माया दोषसे मनुष्य सबके द्वेषका पात्र होता है, उसका कोई विश्वास नहीं करता । सुजन भी उसका अपमान करते हैं । वह शीघ्र ही अपने बन्धु बान्धवोंका भी शत्रु बन जाता है ॥१३७७॥ गा० - अपने द्वारा थोड़ा सा अपराध होने पर भी मायाचारी महान् दोषका भागी बनता है । एक बारका भी मायाचार हजारों सत्योंको नष्ट कर देता है इस प्रकार महादोषका भागी होना और हजार सत्योंका विनाश ये मायाके दोष हैं ।। १३७८ ॥ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६६७ 'मायाए' मायया । 'मित्तभेदे' मैत्र्या विनाशे कृते । 'इह लोगिगच्छपरिहाणी' ऐहलौकिककार्यविनाशः । 'णासदि सामण्णं' नश्यति श्रामण्यं । 'मायादोसा' मायाख्य दोषाद्धेतोः । 'विसजुददुद्धव' विषयुतदुग्धमिव । मित्रकार्यविनाशः श्रामण्यहानिश्च मायाजनितदोषौ ॥१३७९।। माया करेदि णीचागोदं इत्थी णवंसयं तिरियं । मायादोसेण य भवसएसु डभिज्जदे बहुसो ॥१३८०॥ 'माया करेदि णीचागोद' माया करोति नीचैर्गोत्रं कर्म । नीचैर्वा गोत्रमस्य जन्मान्तरे। 'इत्यो गवंसयंतिरियं' स्त्रीवेदं, नपुंसकवेदं, तिर्यग्गत्ति च नामकर्म करोति । अथवा स्त्रीत्वं, नपुंसकत्वं, तिर्यक्त्वं वा। 'मायादोसेण' 'मायासंज्ञितेन दोषेण । 'भवसदेसु' जन्मशतेषु । 'डभिज्जदि' वंच्यते । 'बहुसो' बहुशः ॥१३८०॥ कोहो माणो लोहो य जत्थ माया वि तत्थ सण्णिहिदा । कोहमदलोहदोसा सव्वे मायाए ते होंति ॥१३८१॥ 'कोधो माणो' क्रोधमानलोभास्तत्र जीवे सन्निहिता यत्र स्थिता माया । क्रोधमानलोभजन्या दोषाः सर्वेऽपि मायावतो भवन्ति ।।१३८१॥ सस्सो य भरघगामस्स सत्तसंवच्छराणि णिस्सेसो । दड्डो डंभणदोसेण कुंभकारेण रुद्वेण ॥१३८२॥ 'सस्सो' सस्यं । 'भरधगामस्स' भरतनामधेयग्रामस्य । 'सत्तसंवच्छराणि' वर्षसप्तकं । 'णिस्सेसो बढों निरवशेषं दग्धं । 'डंभणवोसेण' मायादोषेण हेतुना । 'रुद्रुण कुभकारेण' रुष्टेन कुम्भकारेण ॥१३८२॥ मायात्तिगदा। लोभदोषानाचष्टे लोभेणासाधत्तो पावइ दोसे बहुं कुणदि पावं । णीए अप्पाणं वा लोमेण णरो ण विगणेदि ॥१३८३।। गा०-मायाचारसे मित्रता नष्ट हो जाती है और उससे इस लोक सम्बन्धी कार्योंका विनाश होता है। तथा मायादोषसे विष मिश्रित दूधकी तरह मुनि धर्म नष्ट हो जाता है। इस प्रकार मित्रता और कार्यका नाश तथा मनि धर्मकी हानि ये मायाके दोष हैं ॥१३७९॥ गा०-टो०-मायासे नीच गोत्र नामक कर्मका बन्ध होता है, जिससे दूसरे जन्ममें नीच कुलमें जन्म होता है। तथा स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और तिर्यश्चगति नाम कर्मका बन्ध करती है। अथवा मायासे स्त्रीपना, नपुंसकपना और तिर्यञ्चपना प्राप्त होता है। मायासे उत्पन्न हुए दोषसे सैकड़ों जन्मोंमें बहुत बार ठगाया जाता है अर्थात् किसीको एक बार ठगनेसे बार-बार ठगा जाता है ॥१३८०॥ गा०-जहाँ मायाचार है वहाँ क्रोध, मान लोभ भी रहते हैं। क्रोध मान और लोभसे . उत्पन्न होने वाले सब दोष मायाचारीमें होते हैं ।।१३८१।। गा०-मायाचारके दोषसे रुष्ट हुए कुम्भकारने भरत नामक गाँवका धान्य सात वर्ष तक पूर्ण रूपसे जलाया था ॥१३८२॥ १. मायासंजनितेन-मु० । ८४ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ भगवती आराधना 'लोभेण' लोभेन हेतुना । 'आसाधत्तो' ममेदंभविष्यतीत्याशया ग्रस्तः । 'पावदि दोसे' प्राप्नोति दोषान् । बहुं कुणदि पावं पापं च बह करोत्याशावान् । 'णीए' वान्धवान् । 'अप्पाणं वा' आत्मानं वा । 'लोभेण' लोभेन । णरोग विगणेदि' न विगणयति । बान्धवानपि बाधते स्वशरीरश्रमं च नापेक्षते इति यावत् ॥१३८३॥ वस्तुनः सारासारतया न कश्चित् कर्मवन्धातिशयः येन केनचिद्रव्येण जनिता मूर्छा कर्मवन्धे निमित्तं आत्मा शुभपरिणामनिमित्तत्वादिति मत्वा सूरिराचष्टे लोभो तणे वि जादो जणेदि पावमिदरस्थ किं वच्चं । 'लगिदमउडादिसंगस्स वि हु ण पावं अलोहस्स ॥१३८४।। 'लोभो तणो वि जादो' लोभस्तृणेऽपि जातो । 'जणेदि पापं' जनयति पापं । 'इदरत्य' इतरत्र सारवति वस्तुनि । 'किं वच्चं' किं वाच्यं । 'लगिदमगुडादिसंगस्स वि' स्वशरीरविलग्नमुकुटादिपरिग्रहस्यापि न पापं भवति । 'अलोहस्स' लोभकषायवजितस्य मुकुटादेः सारद्रव्यस्याति प्रत्यासत्तिर्न बन्धायेति मन्यते ।।१३८४।। साकेदपुरे सीमंधरस्स पुत्तो मियद्धओ नाम । भद्दयमहिसनिमित्तं जवराय्या केवली जादो ॥१३८५॥ तृप्तिमापादयति द्रव्यमिति योऽत्रास्यानुरागः स नास्ति द्रव्यत इत्याचष्टे विशेषार्थ-इसकी कथा वृ० क० को० में १२० नम्बर पर है उसमें गाँवका नाम भरण दिया है ।।१३८२।। लोभके दोष कहते हैं गा०-लोभसे मनुष्य 'यह वस्तु मेरी होगी' इस आशासे ग्रस्त होकर बहुत दोष करता है; बहुत पाप करता है । लोभसे अपने कुटुम्बियोंकी और अपनी भी चिन्ता नहीं करता। उन्हें भी कष्ट देता है और अपने शरीरको भी कष्ट देता है ।।१३८३।। वस्तुके सारवान या असार होनेसे कर्मबन्धमें कोई विशेषता नहीं होती। जिससे किसी द्रव्यमें उत्पन्न हआ ममत्व भाव कर्मवंधमें निमित्त होता है क्योंकि वह ममत्व अशुभ परिणाममें निमित्त होता है, ऐसा मानकर आचार्य कहते हैं गा०-तृणसे भी हुआ लोभ पापको उत्पन्न करता है तब सारवान् वस्तुमें हुए लोभका तो कहना ही क्या है ? जो लोभकषायसे रहित है उसके शरीरपर मुकुट आदि परिग्रह होनेपर भी पाप नहीं होता। अर्थात् सारवान् द्रव्यका सम्बन्ध भी लोभके अभावमें बन्धका कारण नहीं है।।१३८४|| गा०-साकेत नगरीमें सीमन्धरका पुत्र मृगध्वज नामक था। वह भद्रक नामक भैसेके निमित्तसे केवली हुआ ॥१३८५।। __विशेषार्थ-वृ. क. को. में मृगध्वजकी कथा १२१ नम्बर पर है। 'द्रव्य तृप्ति देता है' इस भावनासे मनुष्यका द्रव्यमें जो अनुराग है वह नहीं होनेसे बन्ध नहीं होता, यह कहते हैं १. रइदम-अ० आ० । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६९ विजयोदया टीका तेलोक्केण वि चित्तस्स णिव्वुदी पत्थि लोभघत्थस्स । संतुट्ठो हु अलोभो लभदि दरिदो वि णिव्वाणं ।।१३८६॥ 'तेलोक्केण वि' त्रैलोक्येनापि । 'चित्तस्स णिवुदो पत्थि' चित्तस्य निर्वृत्तिर्नास्ति । 'लोभघत्थस्स' लोभग्रस्तस्य । 'संतुट्ठो' सन्तुष्टः लब्धेन केनचिद्वस्तुना शरीरस्थितिहेतुभूतेन । 'अलोभो' द्रव्यगतमूरिहितः : 'लभदि' लभते । 'दरिदो वि' दरिद्रोऽपि । 'णिव्वाणं' निर्वाणं । सन्तोषायत्ता चित्तनिवृतिर्न द्रव्यायत्ता, सत्यपि द्रव्ये महति असन्तुष्टस्य हृदये महति दुःखासिका ॥१३८६॥ सव्वे वि गंथदोसा लोभकसायस्स हुति णादव्वा । लोमेण चेव मेहुण हिंसालियचोज्जमाचरदि ।।१३८७।। 'सम्वे वि गंथदोसा' सर्वेऽपि परिग्रहस्य ये दोषाः पूर्वमाख्यातास्ते सर्वेऽपि । 'लोभकसायस्स' लोभकषायवतः लोभः कषायोऽस्येति लोभकषाय इति गृहीतत्वात् । अथवा लोभसंज्ञितस्य कषायस्य दोषा इति सम्बन्धनीयं । 'लोभेण चेव' लोभेन चैव । मैथुनं, हिंसां, अलीक, चौर्य वाचरति । ततः सावधक्रियायाः सर्वस्या आदिमान् लोभः ॥१३८७।। रामस्स जामदग्गिस्स वच्छं चित्तण कत्तविरिओ वि । णिधणं पत्तो सकुलो ससाहणो लोभदोसेण ॥१३८८॥ 'रामस्स' रामस्य । 'जामदग्गिस्स' जामदग्न्यस्य । 'वज' व्रजं । 'धितूण' गृहीत्वा । 'कत्तविरिओ वि' कार्तवीर्योऽपि । 'णिषणं पत्तो' निधनं प्राप्तः 'सकुलो' सबन्धुवर्गः। 'ससाहणों' सबलः । 'लोभवोसेण' लोभ दोषेण ॥१३८८॥ लोभः । ण हि तं कुणिज्ज सत्तू अग्गी बग्धो व कण्हसप्पो वा । जं कुणइ महादोसं णिव्वुदिविग्धं कसायरिवू ॥१३८२।। स्पष्टा ॥१३८९॥ गा०-टी०-जो लोभसे ग्रस्त हैं उसके चित्तको तीनों लोक प्राप्त करके भी सन्तोष नहीं होता। और जो शरीरकी स्थितिमें कारण किसी भी वस्तुको पाकर सन्तुष्ट रहता है, जिरे. वस्तुमें ममत्वभाव नहीं है वह दरिद्र होते हुए भी सुख प्राप्त करता है। अतः चित्तकी शान्ति सन्तोषके अधीन है, द्रव्यके अधीन नहीं है। महान् द्रव्य होते हुए भी जो असन्तुष्ट है उस.. हृदयमें महान् दुःख रहता है ॥१३८६॥ ___गा०-पूर्व में परिग्रहके जो दोष कहे हैं वे सब दोष लोभकषायवालेके अथवा लोभ नामक कषायके जानना । लोभसे ही मनुष्य हिंसा, झूठ, चोरी और मैथुन करता है। अतः समस्त पापक्रियाओंका प्रथम कारण लोभ है ॥१३८७।। गा०--जमदग्निके पुत्र परशुरामकी गायोंको ग्रहणकर लेनेके कारण राजा कार्तवीर्य लोभदोषसे समस्त परिवार और सेनाके साथ मृत्युको प्राप्त हुआ। परशुरामने सबको मार डाला ||१३८८॥ विशेषार्थ-व. क. को. में कार्तवीर्यकी कथा १२२ नम्बर पर है। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० भगवतो आराधना उत्तरगाथा इंदियकसायदुद्दतस्सा पाडेंति दोसविसमेसु । दुःखावहेसु पुरिसे पसढिलणिव्वेदखलिया हु ॥१३९०॥ 'इंदियकसायदुइंतस्सा' इन्द्रियकषायदुर्दान्ताश्वाः । 'पार्डेति' पातयन्ति । 'दोसविसमेसु' पापविषमस्थानेषु । दुक्खावहेसु' दुःखावहेषु । 'पुरिसे' पुरुषान् । 'पसढिलणिव्वेदखलिआ' प्रशिथिलनिवेदखलिनाः॥१३९०॥ इंदियकसायदुद्दतस्सा णिव्वेदखणिलिदा संता । ज्झाणकसाए भीदा ण दोसविसमेसु पाडेति ॥१३९१।। 'इंदियकसायदुईतस्सा' इन्द्रियकषायदुर्दान्ततुरङ्गाः वैराग्यखलीननियमिताः सन्तः ध्यानकशासुभीता न दोषविषमेषु पातयन्ति ॥१३९१॥ इंदियकसायपण्णगदट्ठा बहुवेदणुदिदा पुरिसा । पन्भट्टझाणसुक्खा संजमजीयं पविजहंति ।।१३९२।। इन्द्रियकषायपन्नगदष्टाः, बहुवेदनावष्टब्धाः पुमांसः प्रभ्रष्टध्यानसुखाः संयमजीवं परित्यजन्ति ॥१३९२॥ ज्झाणागदेंहि इंदियकसायभुजगा विरागमतेहिं । णियमिजंता संजमजीयं साहुस्स ण हरंति ॥१३९३।। ध्यानागदैरिन्द्रियकषायभुजगा वैराग्यमन्त्रनियम्यमाणाः साधोः संयमजीवितं न हरन्ति ।।१३९३।। सुमरणपुंखा चिंतावेगा विसयविसलित्तरइधारा । मणधणुमुक्का इंदियकंडा विंधेति पुरिसमयं ।। १३९४।। गा०-शत्रु, आग, व्याघ्र और कृष्ण सर्प भी वह बुराई नहीं करता जो बुराई कषायरूपी शत्रु करता है । वह कषायरूप शत्रु मोक्षमें बाधारूप महादोषका कारण है ।।१३८९।। गा०-इन्द्रिय कषायरूपी घोड़े दुर्दमनीय हैं इनको वशमें करना बहुत कठिन है। वैराग्यरूपी लगामसे ही ये वशमें होते हैं। किन्तु उस लगामके ढीले होनेपर वे पुरुषको दुःखदायी पापरूपी विषम स्थानोंमें गिरा देते हैं ॥१३९०॥ गा०—किन्तु इन्द्रिय कषायरूपी दुर्दमनीय घोड़े जब वैराग्यरूपी लगामसे नियमित होते हैं और ध्यानरूपी कोड़ेसे भयभीत रहते हैं तो विषम पापस्थानमें नहीं गिराते ॥१३९१।। गा०-इन्द्रिय और कषायरूपी साँसे डसे हुए मनुष्य बहुत कष्टसे पीड़ित होकर, उत्तमध्यानरूपी सुखसे भ्रष्ट हो, संयमरूपी जीवनको त्याग देते हैं ।।१३९२।। ___ गा०—किन्तु इन्द्रिय और कषायरूपी सर्प सम्यग्ध्यानरूपी सिद्ध औषधि और वैराग्यरूपी मंत्रोंसे वशमें होनेपर साधुके संयमरूपी जीवनको नहीं हरते ।।१३९३।। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'सुमरणपुंखा' स्मरणपुन्खाः चितावेगा' विषयविषणालिप्ता रतिर्धारा येषां ते मनोधनुर्मुक्ताः इन्द्रियवाणाः पुरुषमृगं घातयन्ति ।।१३९४॥ तान्वाणान्पुरुषमृगहननोद्यतान्यतय एव वारयन्तीति कथयति धिदिखेडएहिं इदियकंडे ज्झाणवरसत्तिमंजुत्ता । वारंति समणजोहा सुणाणदिट्ठीहिं दट्टण ॥१३९५।। 'धिदिखेडएहि' धृतिखेटः इन्द्रियशरान्वारयन्ति ध्यानसत्वसमन्विताः। 'समणजोहा' श्रमणयोधाः सम्यग्ज्ञानदृष्ट्या दृष्ट्वा ॥१३९५।। गंथाडवीचरंतं कसायविसकंटया पमायमुहा । विद्धति विसयतिक्खा अधिदिदढोवाणहं पुरिसं ।।१३९६।। 'गंथाडवीचरंत' परिग्रहवने चरन्तं कपायविषकंटकाः प्रमादमुखा विध्यन्ति विषयस्तीक्ष्णा धृतिदृढोपानद्रहितं पुरुषं ॥१३९६।। संयतस्य पुनरेवंपरिकरस्य कषायविषकंटकाः किञ्चिदपि न कुर्वन्ति इत्याचष्टे सूरि-.. आइद्धधिदिदढोवाणहस्स उवओगदिद्विजत्तस्स । ण करिति किंचि दुक्खं कसायविसकंटया मुणिणो ॥१३९७।। 'आबद्धधिदिदढोवाणहस्स' आवद्धधृतिदृढोपानत्कस्य ज्ञानोपयोगसहितदृष्टेर्मुनेः स्वल्पमपि दुःखं न कुर्वन्ति कषायविषकंटकाः ॥१३९७॥ गा०-इन्द्रियाँ वाणके समान पुरुषरूपी हिरनको वींधती है। वाणमें पुंख होते हैं। भोगे हए भोगोंका स्मरण इनका पंख है। भोगोंकी चिन्ता इनका वेग है। रति इनको धारा-गति है जो विषयरूपी विषसे लिप्त है । ये इन्द्रियरूप बाण मनरूपी धनुषके द्वारा छोड़े जाते हैं ॥१३९४॥ ___ आगे कहते हैं कि पुरुषरूप मृगोंका घात करनेमें तत्पर उन बाणोंको संयमीजन ही निवारण करते हैं गा०-ध्यानरूपी श्रेष्ठ शक्तिसे युक्त श्रमण योद्धा सम्यग्ज्ञानरूप दृष्टिसे देखकर धैर्यरूप फलकके द्वारा इन्द्रियरूप वाणोंका वारण करते हैं ।।१३९५।। गा०-परिग्रहरूपी घोर वनमें कषायरूपी विषैले काँटे फैले हैं। प्रमाद उनका मुख है और विषयोंकी चाहसे वे तीक्ष्ण हैं । धैर्यरूपी दृढ़ जूतेको धारण किये विना जो उस वनमें विचरण करता है, उसे वे काँटे बींध देते हैं ॥१३९६।। आगे कहते हैं इस प्रकारके धैर्यरूपी जूता धारण करनेवाले संयमीका वे कषायरूप विषैले काँटे कुछ भी नहीं करते गा०-जिस मुनिने धैर्यरूपी दृढ़ जूता धारण किया है और जो सम्यग्ज्ञानोपयोग दृष्टिसे सम्पन्न है उसको वे कषायरूपी विषैले काँटे कुछ भी दुःख नहीं देते ॥१३९७।। १. फेडन्ति-मु० मूलारा० । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ भगवती आराधना उड्डहणा अदिचवला अणिग्गहिदकसायमक्कडा पावा । गंथफललोलहिदया णासंति हु संजमारामं ॥१३९८॥ 'उड्डहणा' असंयता अतिचपला अनिगृहीताः कषायमर्कटाः, परिग्रहफलासक्तहृदया नाशयन्ति संयमारामं ॥१३९८॥ णिच्चं पि अमज्झत्थे तिकालदोसाणुसरणपरिहत्थे । संजमरज्जहिं जदी बंधंति कसायमक्कडए ॥१३९९।। "णिच्चं पि' नित्यमपि अमाध्यस्थान्, त्रिकालविषयदोषानुसरणपटून, कपायमकर्टान्यतयः संयमरज्जूभिर्बघ्नन्ति ॥१३९९।। धिदिवम्मिएहिं उवसमसरेहिं साधूहिं गाणसत्थेहिं । इंदियकसायसत्तू सक्का जुत्ते हिं जेदुजे ॥१४००॥ "धिदिवम्मिएहि' धृतिसन्नद्धः, उपशमशरैः साधुभिर्ज्ञानशस्त्रैरुपयुक्तरिन्द्रियकषायशत्रवो जेतुं शक्याः ॥१४००। इंदियकसायचोरा सुभावणासंकलाहिं वज्झंति । ता ते ण विकुव्वंति चोरा जह संकलाबद्धा ॥१४०१॥ 'इदियकसायचोरा' इन्द्रि यकषायचौराः शुभध्यानभावशृंखलाभिर्वध्यन्ते । बन्धस्थास्ते न विकारं कुर्वन्ति शृङ्खलाबद्धचोरा इव ॥१४०१॥ इंदियकसायवग्घा संजमणरपादणे अदिपसत्ता। वेरग्गलोहदढपंजरेहिं सक्का हुणियमेदु ॥१४०२।। 'इदियकसायवग्धा' इन्द्रियकषायव्याघ्राः संयमनरभक्षणे अत्यासक्ता वैराग्यलोहदृढपञ्जरै नियन्तुं शक्याः ॥१४०२॥ NAAAAM गा०-ये कषायरूपी बन्दर असंयत हैं, अतिचपल हैं, पापी हैं, इनका हृदय परिग्रहरूपी फलमें आसक्त हैं। इनका यदि निग्रह नहीं किया तो ये संयमरूपी उद्यानका विनाश कर देते हैं ।।१३९८॥ गा०-ये कषायरूपी बन्दर, निरन्तर चपल हैं, त्रिकालवर्ती दोषोंका अनुसरण करने में चतुर हैं। इन्हें संयमी संयमरूपी रस्सीसे बाँधता है ॥१३९९।। गा०-सन्तोषरूपी कवच, उपशमरूपी बाण और ज्ञानरूपी शस्त्रोंसे सहित साधुओंके द्वारा वे इन्द्रिय और कषायरूप शत्रु जीते जा सकते हैं ।।१४००।। । गा०–इन्द्रिय और कषायरूपी चोर शुभध्यानरूप भावोंकी सांकलसे बाँधे जाते हैं। बाँधे जानेपर वे सांकलसे बँधे चोरोंकी तरह विकार नहीं करते ।।१४०१॥ गा०-इन्द्रिय और कषायरूपी व्याघ्र संयमरूपी मनुष्यको खानेके बड़े प्रेमी होते हैं। इन्हें वैराग्यरूपी लोहके मजबूत पीजरेमें रोका जा सकता है ॥१४०२।। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका इंदियात्थी वयवारिम' हीणिदा उवायेण । विणयवरत्तावद्धा सक्का अवसा वसे कादु ॥१४०३ ॥ 'इ' दियकसायहत्त्थी' इन्द्रियकपायहस्तिनः उपायेन व्रतवारीमुपनीताः विनयवरत्राबद्धा अवशा अपि शक्या वशे नेतुं ||१४०३ || इ दियकसा यहत्थी वोलेढुं सीलफलियमिच्छता । धीरेहिं रुंभिदव्वा धिदिजमलारुप्पहारेहिं ॥। १४०४ ॥ इन्द्रियकसा यहस्तिनः शीलपरिघालंघनैषिणो रोद्धव्या धीरैधृतिकर्णतोदप्रहरैः || १४०४|| ६७३ इ दियका हत्थी दुस्सीलवणं जदा अहिलसेज्ज । कुसेण तइया सक्का अवसा वसं कादूं ।। १४०५ ।। 'इंदियकसायहत्थी' इन्द्रियकषायहस्तिनः दुःशीलवनं प्रवेष्टुं यदाभिलषन्ति तदा अवशा अपि वशे कर्तुं शक्यन्ते ज्ञानां कुशेन ॥। १४०५ ।। जदि विसयगंधहत्थी अदिणिज्जदि रागदोसमयमत्ता | विण्णा'णज्झाणजोहस्स वसे णाणंकुसेण विणा || १४०६ ॥ 'जदि विसयगंध हत्थी' यद्यपि विषयगन्धहस्तिनः स्वयं ग्रन्थाटवीं प्रविशन्ति रागद्वेषमत्ता न तिष्ठेयुर्वि - ज्ञानध्यानयोधस्य वशे ज्ञानांकुशेन विना ।। १४०६॥ विसयवणरमणलोला बाला इं दियकसायहत्थी ते । पसमे रामेदव्वा तो ते दोसं ण काहिंति । १४०७॥ 'विसयवणरमणलोला' विषयवनरमणलोला: वाला इन्द्रियकषायहस्तिनः ते रतिमुपनेयाः प्रशमेन ततस्ते दोषं न कुर्वन्ति ॥ १४०७ ॥ गा० - इन्द्रिय कषायरूपी हाथी यद्यपि स्वच्छन्द है तथापि व्रतरूपी बाड़े में ले जाकर विनयरूपी रस्सीसे उपायपूर्वक बाँधे जानेपर वशमें लाये जा सकते हैं ||१४०३ || गा० - इन्द्रिय और कषायरूप हाथी शीलरूपी अर्गलाको लांघना पसन्द करते हैं । अतः धीर पुरुषों को उनके दोनों कानोंके पास धैर्यरूपी प्रहार करके रोकना चाहिए || १४०४ || गा०- - इन्द्रिय और कषायरूप हाथी जब दुःशीलरूपी वनमें प्रवेश करना चाहे तो उसे ज्ञानरूपी अंकुशसे वशमें करना शक्य है || १४०५ || गा० - यदि रागद्वेषरूपी मदसे मस्त विषयरूपी गन्धहस्ती ज्ञानाकुंशके विना विज्ञान ध्यानरूपी योधा के वशमें नहीं रहता और परिग्रहरूपी वनमें प्रवेश करता है || १४०६ || गा०- तो इन्द्रिय और कषायरूप बालहस्ती विषयरूपी वनमें क्रीड़ा करनेके प्रेमी होते हैं । उन्हें प्रशमरूपी वनमें अर्थात् आत्मा और शरीरके भेदज्ञानसे प्रकट हुए स्वाभाविक वैराग्य में रमण कराना चाहिए तब वे दोष नहीं करेंगे || १४०७ ।। १. मदीणि ज० मु०, मूलारा० । २. चेट्ठेज्ज झाण- मूलारा० । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ भगवती आराधना सद्दे रूवे गंधे रसे य फासे सुभे य असुमे य । तम्हा रागद्दोसं परिहर तं इंदियजएण ।।१४०८|| 'सद्दे स्वे गंधे रसे य' शुभाशुभेषु शब्दादिषु रागद्वेषं च निराकुरु त्वं इन्द्रियजयेनेत्युत्तरसूत्रस्यार्थः ॥१४०८॥ जह णीरसं पि कडुयं ओसहं जीविदत्थिओ पिबदि । कडुयं पि इंदियजयं णिव्वइहेतुं तह 'पिविज्ज ॥१४०९।। 'जह णोरसं पि' यथा स्वादुरहितं कटुकमप्यौषधं जीवितार्थ पिवति । तथा इन्द्रियजयं भजते कटुकमपि निर्वृतिहेतुम् ।।१४०९॥ इन्द्रियजये क उपाय इत्याशङ्कायां इन्द्रियकषायविषयाणां शुभाशुभत्वे अनवस्थिते । ये शुभास्त एवेदानी अशुभाः, अशुभा ये ते एव शुभाः । ये तु अशुभतया दोषा इदानी हरि ? से शुभा इति गृहीता न त्वशुभा जातास्त एवामी इति कथं नानुरागस्तत्र ये वाऽशुभास्तेषु कथं द्वेषः शुभतां प्रतिपत्स्यमानेषु इति निवेदयति जे आसि सुभा एण्हि असुभा ते चेव पुग्गला जादा । जे आसि तदा असुभा ते चेव सुभा इमा इहि ॥१४१०।। "जे आसि सुभा एण्हि' ये पुद्गलाः शुभा आसन्निदानी त एवाशुभा जाताः । ये चासन्तदा अशुभा ते चैव शुभा इदानीं इति तौ न युक्तौ रागद्वेषौ इति शिक्षयति ॥१४१०॥ सव्वे वि य ते भुत्ता चत्ता वि य तह अणंतखुत्तो मे । सव्वेसु एत्थ को मज्झ विभओ भुत्तविजडेसु ॥१४११॥ गा०-इसलिए हे क्षपक ! इन्द्रियको जीतकर तू शुभ और अशुभ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शमें रागद्वष मत कर ॥१४०८॥ गा०-जैसे जीवनका इच्छुक रोगी स्वादरहित कडुवी औषधी पीता है वैसे ही तू मोक्षके लिए कटुक भी इन्द्रियजयका सेवन कर ॥१४०९॥ . इन्द्रिय जयका क्या उपाय है ऐसी शंका करनेपर कहते हैं गा०-टी०-इन्द्रिय और कषायके विषयोंमें अच्छा और बुरापना स्थिर नहीं है। जो विषय आज अच्छे लगते हैं कल वे ही बुरे लगते हैं। जो आज बुरे लगते हैं कल वे ही अच्छे लगते हैं। जिन्हें अच्छा मानकर स्वीकार किया वे ही बुरा लगनेपर द्वेषके पात्र होते हैं तो उनमें अनुराग कैसा? और जो बुरे लगते हैं कल वे ही अच्छे लगनेवाले हैं अतः उनमें द्वेष कैसा? जो पुद्गल इस समय अच्छे प्रतीत होते हैं वे ही बुरे लगने लगते हैं। जो पहले बुरे प्रतीत होते थे वे ही अब अच्छे प्रतोत होते हैं इसलिए उनमें रागद्वष करना उचित नहीं है ॥१४१०॥ गा०-वे अच्छे बुरे सभी पुद्गल मैंने अनन्तवार भोगे हैं और अनन्तवार त्यागे हैं। उन भोगे और त्यागे हुए सब पुद्गलोंमें मुझे अचरज कैसा? इस प्रकार हे क्षपक ! तुम्हें विचारना चाहिए ॥१४११॥ १. भजेज्ज मु०, मूलारा० । Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६७५ 'सम्वे वि ते भुत्ता' सर्वेऽपि च ते पुद्गलाः शुभाशुभरूपा अनुभूतास्त्यक्ता अनन्तवारं मया । तेषु द्रव्येषु भुक्तत्यक्तार्थेषु को विस्मयो ममेति त्वया चिन्ता कार्या ॥१४११॥ सुखसाधनतया यदि तवानुरागो, दुःखसाधनतया च रोषः सैव सुखदुःखसाधनता शुभाशुभादीनां रूपाणां नैवास्ति सङ्कल्पमन्त रेणात्मनः इति वदति रूवं सुभं च असुभं किंचि वि दुक्खं सुहं च ण य कुणदि । संकप्पविसेसेण हु सुहं च दुःखं च होइ जए ॥१४१२।। 'रूवं सुभं च असुभं' रूपं शुभमशुभं वा किञ्चिदुःखं सुखं च नैव करोति । सङ्कल्पवशेनैव सुखं वा दुखं भवति जगति ॥१४१२॥ इह य परत्त य लोए दोसे बहुगे य आवहइ चक्खू । इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदवो हवदि चक्खू ॥१४१३॥ 'इह य परत्त य' जन्मद्वयेऽपि बहून्दोषानावहति चक्षुरित्यात्मनावगणय्य निर्जेतव्यं चक्षुः ॥१४१३॥ एवं सम्म सदरसगंधफासे विचारयित्ताणं । सेसाणि इंदियाणि वि णिज्जेदव्वाणि बुद्धिमदा ॥१४१४॥ "एवं सम्म' उभयजन्मगोचरानेकदोषावहत्वं विचार्य स्वबुद्धया शेषाण्यपीन्द्रियाणि शब्दरसगन्धस्पर्शविषयाणि निर्जेतव्यानि बुद्धिमता । 'सद्दरसगंधफासे' इति वैषयिकी सप्तमी ॥१४१४॥ क्रोधजयोपायमाचष्टे जदिदा सवदि असंतेण परो तं णत्थि मेत्ति खमिदव्वं । अणुकंपा वा कुज्जा पावइ पावं वरावोत्ति ॥१४१५॥ 'जविधा सववि असंतेण' यदि तावदसता दोषेण शपति परः स दोषो न ममास्तीति क्षमा कार्या । असद्दोषख्यापनेनास्य मम किं नष्टं इति । अथवानुकम्पां आक्रोशके कुर्याद्वराकोऽसदभिधानेन समाजयति पाप आगे कहते हैं यदि सुखका साधन होनेसे इनमें तेरा अनुराग है और दुःखका साधन होनेसे द्वष है तो अच्छे बुरे पुद्गलोंमें वही सुख-दुःख साधनता तेरे संकल्पके सिवाय यथार्थमें नहीं है गा०-कोई अच्छा या बुरा रूप सुख या दुःख नहीं करता। जगत्में संकल्पवश ही सुखदुःख होता है ॥१४१२॥ गा०-इस लोक और परलोकमें ये आँखें बहुत बुराई उत्पन्न करती हैं ऐसा जानकर चक्षु इन्द्रियको जीतना चाहिए ॥१४१३॥ गा०-इस प्रकार दोनों लोकोंमें अनेक दोष उत्पन्न करने वाली जान अपनी बुद्धिसे विचारकर शब्द, रस, गन्ध और स्पर्शको विषय करने वाली शेष इन्द्रियोंको भी बुद्धिमान् पुरुषको जीतना चाहिए ॥१४१४॥ क्रोधको जीतनेका उपाय कहते हैं गा०-टो०-यदि दूसरा व्यक्ति मेरेमें अविद्यमान दोषको कहता है तो वह दोष मुझमें नहीं है अतः उसे क्षमा करना चाहिए; क्योंकि असत् दोषको कहनेसे मेरी क्या हानि हुई ? अथवा Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ भगवती आराधना भारं अनेक दुःखावहं । मदीयैर्दोषरस्य किञ्चिन्नायाति दोषजातं । गुणा किमस्मै किञ्चिद्भवति ? प्राणिनां प्रतिनियता गणदोषास्तत्तमेव प्रति सुखदुःखयोजना'स्ततो पुरसृतो (?) मुधानेन कर्मबन्धः सम्पाद्यते इति ॥१४१५।। चिन्ता करुणात्मिका रोषं परुषमपसारयति जदि वा सवेज्ज संतेण परो तह वि पुरिसेण खमिदव्वं । सो अस्थि मज्झ दोसो ण अलीयं तेण भणिदत्ति ॥१४१६॥ ... 'जदि वा सवेज्ज' यदि वा शपेच्च सता दोषेण तथापि क्षमा कार्या। सोऽनेन कथ्यमानो दोषो ममास्ति न व्यलोकं तेनोक्तमिति सङ्कल्पतया न हि सन्तो दोषाः परे चेद् न वन्ति इति विनश्यन्ति ।।१४१६।। यो यस्य समुपकारं महान्तं चेतसि करोति स तस्यापराधं अल्पं सहते इति प्रसिद्धमेव लोके इति कथयति सत्तो वि ण चेव हदो हदो वि ण य मारिदो ति य खमेज्ज । मारिज्जंतो वि सहेज्ज चेव धम्मो ण णट्ठोत्ति ।।१४१७॥ 'सत्तो वि चेव' . शप्त एवास्मि न हतः इत्यहननं गुणं पृथु चेतसि संस्थाप्य किमनेन शपनेन मे नष्टमिति क्षन्तव्यं । एवमितरत्रापि योज्यं । हत एव न मृत्यु प्रापितः । मार्यमाणोऽपि सहेत विपन्निमूलनक्षमोऽभिलषितसुखसम्पादनोद्यतो धर्मो न विनाशित इति ॥१४१७॥ उपायान्तरमपि रोषविजये निरूपयति-- निन्दा करने वाले पर दया करना चाहिए-बेचारा झूठ बोलकर अनेक दुःख देने वाला पाप भार एकत्र करता है। मेरे दोषोंसे उसमें दोष उत्पन्न नहीं होते और न मेरे गुणोंसे ही उसका कोई लाभ होता है । प्राणियोंके अपने-अपने गुण दोष नियत हैं । उनसे होने वाला सुख-दुःख ही होता है। अतः यह व्यर्थ ही कर्मबन्ध करता है ॥१४१५॥ आगे कहते हैं दया रूप चिन्तनसे कठोर क्रोध दूर होता है गा.--यदि दूसरा मेरेमें विद्यमान दोषको कहता हैं तब भी क्षमा करना चाहिए क्योंकि वह जिस दोषको कहता है वह मेरेमें है। वह झूठ नहीं कहता। विद्यमान दोषोंको दूसरे यदि न कहें तो वे नष्ट हो जाते हैं, ऐसी बात भी नहीं है ऐसा विचार करना चाहिए ।।१४१६।। आगे कहते हैं कि जो जिसका महान् उपकार करता है वह उसके छोटेसे अपराधको सहता है यह बात लोकमे प्रसिद्ध ही है गा०—इसने मुझे अपशब्द ही कहे हैं मारा तो नहीं है, इस प्रकार उसके न मारनेके गुणको चित्त में स्थापित करके 'अपशब्द कहनेसे मेरा क्या नष्ट हआ' अतः क्षमा करना तो भी सहन करना चाहिए कि इसने विपत्तिको जड़से दूर करने में समर्थ और इष्ट सुखको देने वाले मेरे धर्मका नाश नहीं किया ।।१४१७॥ ____ क्रोधको जीतनेका अन्य उपाय कहते हैं . १. ना पर नृतो-अ० । ना पुर सूतो-आ० । ना परो सृतो-ज। २. संकल्पतयता-मु० । ३. सतो दोषान् आ० । ४. वि खमेज्ज-अ० आ० ।। मारे Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ६७७ रोसेण महाधम्मो णासिज्ज तणं च अग्गिणा सव्वो । पावं च करिज्ज महं बहुगंपि णरेण खमिदव्वं ॥१४१८॥ 'रोसेण महाधम्मो' दुरजनो दुर्लभो दुश्चरी धर्मोऽनुयायी रोषेण 'मदीयो नश्यति । अग्निना तृणमिव । तथा चाभ्यधायि अज्ञानकाष्ठजनितस्त्ववमानवातेः संघुक्षितः परुषवाग्गुरुविस्फुलिंगः । हिंसाशिस्त्रोऽपि भशमुत्थितवैरधूमः क्रोधाग्निरुद्दहति धर्मवनं नराणाम् ॥ इति॥ [ ] ॥१४१८॥ उपायान्तरमपि वदति-- पुवकदमज्झपावं पत्तं परदुःखकरणजादं मे | रिणमोक्खो मे जादो अज्जत्ति य होदि खमिदव्वं ॥१४१९।। 'पुवकदमज्झपावं' पापागमद्वारमजानता अनेनापि प्रमादिना पूर्व कृतं यत्कर्म पापं परेषां दुःखकारणं तदद्य निवतितं । ऋणमोक्षोऽद्य मम जात इति चिन्तयताऽपसारयितव्यो रोषः ।।१४१९॥ पुव्वं सयमुत्रभुत्तं काले णाएण तेत्तियं दव्वं । को घारणीओ धणियस्स दितओ दुक्खिओ होज्ज ॥१३२०।। 'पुग्वं सयमवभुत्तं' पूर्व स्वयमेव भुक्तं, अवधिकाले प्राप्ते । 'णायेण' नीत्या । द्रव्यं अधमर्ण उत्तमर्णाय प्रयच्छन् को दुःखं करोति ॥१४२०॥ गा०-टी०-आगसे तणकी तरह क्रोधसे दुःखसे उपार्जन किया गया दुर्लभ और दुश्चर मेरा धर्म नष्ट होता है। कहा भी है-यह क्रोधरूपी आग मनुष्योंके धर्मवनको जलाती है। यह क्रोधरूपी आग अज्ञानरूपी काष्ठसे उत्पन्न होती है, अपमानरूपी वायु उसे भड़काती है। कठोर वचनरूपी उसके बड़े स्फुलिंग है । हिंसा उसकी शिखा है और अत्यन्त उठा वैर उसका धूम है । तथा यह क्रोध मुझे पापका बन्ध कराता है जो अनेक भवोंमें दुःखका बीज है। इसलिये चित्तमें क्षमा धारण करना चाहिए ॥१४१८।। अन्य उपाय कहते हैं गा०-पापके आश्रवके द्वारको न जानते हुए मैंने प्रमादवश जो पूर्वमें पापकर्म किया था, जो दूसरोंके दुःखका कारण था, वह आज चला गया। आज मैं उस ऋणसे मुक्त हो गया। ऐसा विचारकर क्रोधको दूर करना चाहिए ॥१३१९॥ गा०-टी०-पूर्व जन्ममें मैंने जिसका अपराध किया था उसके द्वारा इस जन्ममें उस अपराधसे उपार्जित पापकर्मकी उदीरणा किये जाने पर उसको भोगते हुए मुझे दुःख कैसा ? साहूकार . से पहले कर्ज लेकर जिस धनको मैंने स्वयं भोगा है, उतना ही धन उस ऋणका अवधिकाल आने पर देते हुए कौन कर्जदार दुःखी होता है ।।१४२०॥ १. महानपि न-आ० । २. जनेना-ज०। Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ भगवती आराधना इह य परत्त य लोए दोसे बहुए य आवहदि कोघो । इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वो हवइ कोधों ।।१४२१।। स्पष्टा उत्तरगाथा ।।१४२१॥ क्रोधजयोपायभूतान्परिणामानुपदर्य मानप्रतिपक्षपरिणामं निरूपयति को इत्थ मज्झ माणो बहुसो णीचत्तणं पि पत्तस्स । उच्चत्ते य अणिच्चे उवडिदे चावि णीचत्ते ॥१४२२॥ 'को इत्थ मज्ज्ञ माणो' कोऽत्रासकृत्प्राप्ते 'ज्ञानादिकरुन्नतत्वे गर्वो मम बहुशो ज्ञानकुलरूपतपोद्रविणप्रभुत्वैरुन्नततां प्राप्तस्य प्राप्तेऽप्युन्नतत्वे अनवस्थायिनि सति उपस्थिते चोत्तरकालनीचत्वे ॥१४२२।। अधिगेसु बहुसु संतेसु ममादो एत्थ को महं माणो । को विब्भओ वि बहुसो पत्ते पुन्वम्मि उच्चत्ते ॥१४२३।। स्पष्टा ॥१४२३॥ उत्तरगाथा जो अवमाणणकरणं दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्तो । सो णाम होदि माणी ण दु गुणचत्तण माणेण ॥१४२४।। 'जो अवमाणणकरणं' योऽवमानकरणं दोषं परिहरति नित्यमुपयुक्तः स मानी भवति । न तु भवति मानी गुणरिक्तेन मानेन ॥१४२४॥ इह य परत्तय लोए दोसे बहुगे य आवहदि माणो। इदि अप्पणो गणित्ता माणस्स विणिग्गहं कुज्जा ॥१४२५।। गा०-क्रोध इस लोक और परलोकमें बहुत दोषकारक है ऐसा जानकर क्रोधका त्याग करना चाहिए ।।१४२१॥ क्रोधको जीतनेके उपायभूत परिणामोंको बतलाकर मानके प्रतिपक्षी परिणामोंको कहते हैं गा०-टी०-ज्ञान, कुल, रूप, तप, धन, प्रभुत्व आदिमें मैं ऊँचा भी होऊँ, तो उसका गर्व कैसा, क्योंकि अनेक बार मैं इनमें नीचा भी हो चुका हूं। उच्चता और नीचता ये दोनों अनित्य हैं ।।१४२२।। गा०-इस लोकमें बहुतसे मुझसे भी ज्ञानादिमें अधिक हैं इनका मुझे अभिमान कैसा? तथा पूर्व जन्मोंमें मैं यह उच्चता अनेक बार प्राप्त कर चुका हूँ तब इनके प्राप्त होने पर आश्चर्य कैसा? ॥१४२३।। जो सदा मन लगाकर अपमान करने रूप दोषका त्याग करता है अर्थात् किसीका अपमान नहीं करता वह मानी होता है । गुण रहित मानसे मानी नहीं होता ।।१४२४।। १. ज्ञानादेकरत्नत्रयतत्वं-आ० मु०। Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६७९ इह य परत्तय जन्मद्वये दोषान् बहूनावहति मानमिति विगणय्य माननिग्रहं कुर्यात्साधुजनः ॥१४२५।। मायाप्रतिपक्षपरिणामस्वरूपं निगदति अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेण णज्जति । मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ॥१४२६॥ 'अदिगूहिदा वि दोसा' अतीव संवृता अपि दोषा जनेन ज्ञायन्ते कालान्तरे मायया प्रयुक्तया को गुणो लब्ध इति चिन्तया निहन्ति ॥१४२६॥ परिभागम्मि असंते णियडिसहस्सेहिं गृहमाणस्स । चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ॥१४२७।। जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स । जह समलत्ति ण धिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ।।१४२८॥ 'जडपायडो वि दोसो' लोकप्रकटोऽपि दोषो दोष इति न गृह्यते भाग्यवतः । यथा समलमिति न गृह्यते लोके तटाकजलं समलमिति सदृशं । एतदुक्तं भवति पुण्यवतोऽपि मायया न किञ्चित्साध्यं । प्रकटेऽपि दोषे यतोऽसौ जगति मान्यः । दोषनिगृहनं हि मान्यताविनाशभयादिति भावः ॥१४२८॥ अथ मायां करोत्यर्थाथं तथापि सानथिकेति वदति डंभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स । हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥१४२९।। गा०—इस लोक और परलोकमें मान बहुत दोषकारी है। ऐसा जानकर अपने मानका निग्रह करना चाहिए ॥१४२५।। अब मायाके विरोधी परिणामोंका स्वरूप कहते हैं गा०- अत्यन्त छिपाकर भी की गई बुराई कालान्तरमें मनुष्योंको ज्ञात हो जाती है। तब मायाचार करनेसे क्या लाभ है । इस प्रकारके चिन्तनसे मायाको दूर करना चाहिए ॥१४२६।। गा०-भाग्य प्रतिकूल हो तो हजार छलसे छिपाया हुआ भी काम चन्द्रमाके ग्रहणकी तरह क्षणमात्रमें प्रकट हो जाता है ॥१४२७॥ गा०-टी०-और भाग्यशालीका लोकमें प्रकट भी दोष दोष नहीं माना जाता। जैसे तालाबका जल मैला हो तब भी लोग उसे मैला नहीं मानते । आशय यह है कि पुण्यशालीको मायासे कोई लाभ नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होनेपर भी वह जगत्में मान्य रहता है। मान्यताके विनाशके भयसे ही मनुष्य दोषको छिपाता है ॥१४२८॥ आगे कहते हैं कि मनुष्य धनके लिए मायाचार करता है किन्तु वह ब्यर्थ है गा०-अच्छी तरह सैकड़ों छलकपट करनेपर भी पुण्यहीनके हाथमें पुण्यशालीका धन नही आता ॥१४२९।। १. परिभोगम्भि-ज० । एतां टीकाकारो नेच्छति । Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधनां 'डंभसदेह बहुगह' दम्भशतैर्बहुभिः सुप्रयुक्तैरपि अपुण्यस्य हस्तं नायात्यर्थ: । अन्यस्मात्स पुण्यात् ।। १४२९ ॥ ६८० इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवहइ माया । इदि अपणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया || १४३० ॥ 'इह य परत य' इहपरलोकयोर्बहून्दोषानावहति माया । इति आत्मनि निरूप्य परिहर्तव्या भवति माया ।। १४३० ॥ लोक वि अत्थो ण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स । अकवि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स || १४३१॥ 'लोभे कदे' लोभे कृतेऽप्यर्थो न भवति पुरुषस्य अपुण्यस्य । अकृतेऽपि लोभेऽर्थो भवति पुण्यवतः । ततः अर्थासक्तिरर्थलाभे मम न निमित्तमपि तु पुण्यमित्यनया चिन्तया लोभो निराकार्यः ॥१४३१॥ अपि च ' अर्थप्राप्तये जनः प्रयतते अर्थाः पुनरसकृत्प्राप्तास्त्यक्ताश्च तेषु को विस्मय इति मनःप्रणिधानं कुरु लोभविजयायेति वदति सव्वे वि जए अत्था परिगहिदा ते अनंतखुत्तो मे । अत्थेसु इत्थ को मज्झ विभओ गहिदविजडेसु || १४३२ || 'सम्वे विजये अत्या' सर्वेऽपि जगत्यर्थाः परिगृहीता मयानन्तवारं ममार्थेष्वमीषु को विस्मयो गृहीतत्यक्तेषु ॥१४३२।। इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो । इदि अपणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो ॥ १४३३ ॥ इंदियकसायत्तिगदं ॥ १४३३॥ गा० - माया इस लोक और परलोकमें बहुतसे दोष लाती है ऐसा जानकर मायाका त्याग करना चाहिए || १४३०॥ गा०—लोभ करनेपर भी पुण्यहीन पुरुषके पास धन नहीं होता, और लोभ नहीं करनेपर भी पुण्यशालीके पास धन होता है । अतः धनका लोभ धनलाभमें निमित्त नहीं है किन्तु पुण्य निमित्त है ऐसा विचारकर लोभको त्यागना चाहिए || १४३१|| अर्थ प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है । किन्तु अर्थ अनेक बार प्राप्त हुआ और छोड़ा है । उसमें आश्चर्य कैसा ? इस तरह लोभको जीतनेके लिए मनमें चिन्तन करो, यह कहते हैं गा०—जगत् में जितने पदार्थ हैं वे सब मैंने अनन्तवार प्राप्त किये। उन ग्रहण किये और त्यागे हुए पदार्थोंमें आश्चर्य कैसा ? || १४३२|| गा० - लोभ इस भव और परभवमें बहुतसे दोष पैदा करता है ऐसा जानकर लोभको त्यागना चाहिए || १४३३॥ इस प्रकार इन्द्रिय और कषायोंका कथन किया । १. अप्राप्ताय - अ० । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६८१ एवमिन्द्रियकषायपरिणामनिरोधोपायभूतान्परिणामानुपदिश्य निद्राजयक्रमं निरूपयति सूरिः णि जिणाहि णिच्चं णिद्दा हु णरं अचेयणं कुणइ । वट्टिज्ज हु पासुत्तो खवओ सव्वेसु दोसेसु ॥१४३४।। 'णि जिणाहि' निद्रा जय नित्यं । अजिता सा किमपकारं करोति इत्याशय आह "णिद्दा हु णरं अचेयणं कुणाई' निद्रा नरं अचेतनं करोति । चैतन्यरहितावस्थाभावात्किमुच्यते करोतीति । अत्रोच्यते-विवेकज्ञानरहितत्वमेवात्राचेतनशब्देनोच्यते । यत एव योग्यायोग्यविवेकज्ञानरहित अत एव । 'वट्टिज्ज हु' वर्तते एव । 'पासुत्तो' प्रकर्षेण सुप्तः 'खवगो' क्षपकः । 'सन्वेसु दोसेसु' हिंसामैथुनपरिग्रहादिकेषु ।।१४३४।। निद्रा कर्मोदयवशाद्भवति कथं मयापाकर्तव्या इत्यत्राह जदि अधिवाधिज्ज तुमं णिहा तो तं करेहि सज्झायं । सुहुमत्थे वा चिंतेहि सुणसु संवेगणिव्वेगं ॥१४३५।। 'जदि अधिवाधिज्ज तुम' यद्यधिबाधेत भवन्तं निद्रा। ततस्त्वं कुरु स्वाध्यायं । 'सुहुमत्थे वा चितेहि' सूक्ष्मान्वार्थान् चिन्तय । 'सुणसु संवेगणिवेगं' शृणुष्व संवेजनीं निर्वेजनी वा कथां ॥१४३५।। प्रकारान्तरं निद्राविजयहेतुं निगदति पीदी भए य सोगे य तहा णिद्दा ण होइ मणुयाणं । एदाणि तुमं तिण्णिवि जागरणत्थं णिसेवेहिं ॥१४३६।। 'पोदी भए य सोगे' प्रीत्यां भये शोके च सति निद्रा मनुष्याणां न भवति । तेन प्रीत्यादिसेवां कुरु त्वं निद्राविजितये ॥१४३६।। इस प्रकार इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंको रोकनेके उपायरूप परिणामोंको कहकर निद्राको जीतनेका क्रम कहते हैं गा०-टी०-सदा निद्रापर विजय प्राप्त करो। नहीं जीतनेपर वह क्या बुराई करती है यह कहते हैं-निद्रा मनुष्यको अचेतन करती है। ____ शंका-चेतन मनुष्यको चैतन्यरहित अवस्था नहीं होती। तब कैसे कहते हैं कि निद्रा अचेतन करती है ? समाधान-यहाँ अचेतन शब्दसे विवेकज्ञानसे रहित होना ही कहा है । इसलिए जो गहरी नींदमें सोया है वह क्षपक योग्य अयोग्यके विवेकज्ञानसे रहित होनेसे हिंसा मैथुन परिग्रह आदि सब दोषोंमें प्रवृत्ति करता है ।।१४३४।। निद्रा कर्मके उदयसे होती है। उसे मैं कैसे दूर करूं ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं गा०-यदि तुम्हें निद्रा सताती है तो स्वाध्याय करो। या सूक्ष्म अर्थोंका विचार करो। अथवा संवेग और निर्वेदको करनेवाली कथा सुनो ।।१४३५।। निद्राको जीतनेका अन्य उपाय कहते हैं गा०-प्रीति, भय अथवा शोक होनेपर मनुष्योंको निद्रा नहीं आती। अतः तुम निद्राको जीतनेके लिए प्रीति आदिका सेवन करो ।।१४३६|| Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना प्रीतिभयशोकानां अशुभ परिणामत्वात्कर्मास्रव निमित्तता । निद्राया वा अविशिष्टत्वात् कथं संवरार्थिनो निरूप्यते प्रीत्यादिकं इत्याशङ्कायां संवरहेतुभूततया तद्व्यपदेशं प्रति नियतविषयमुपदर्शयति ६८२ भयमागच्छसु संसारादो पीदिं च उत्तमट्ठम्मि | सोगं च पुरादुच्चरिदादो णिद्दाविजयहेदुं ॥ १४३७॥ 'भयमागच्छसु' भयं प्रतिपद्यस्व । 'संसारादो' संसारात् पञ्चविधपरावर्तनरूपात् । प्रीतिं रत्नत्रयाराधनायां । शोकं उपैहि पूर्वकृतादुश्चरितात् निद्रां विजेतुं । नरकादिगतिष्वसकृत्परिवर्तमानेन शारीरमागन्तुकं, मानसं स्वाभाविकं च दुःखं विचित्रमनुभूतं तत्पुनरप्यायास्यति इति मनः प्राणिधेहि । सकलामापत्संहतिमुन्मूलयितुं, अभ्युदयनिश्रेयससुखानि च प्रापयितुं, असारशरीभारमपनेतु अनन्तावबोधदर्शनसाम्राज्यश्रियमाक्रष्टु ं कर्मविषविटपानुत्पाटयितुं क्षमामिमां अनन्तेषु भवेषु अनवाप्तपूर्वी रत्नत्रयाराधनां कर्तुं उद्यतोऽस्मीति प्रीतिर्भावनीया । हिसानृतस्ते या ब्रह्मपरिग्रहेषु मिथ्यात्वकषायेष्वशुभमनोवाक्काययोगेषु विचित्रकर्मार्जनमूलेषु चतुर्विधबन्धपर्यायनिमित्तेषु अनारतं मन्दभाग्यः प्रवृत्तोऽस्मि हिताहितविचारणाविमुग्धबुद्धितया सन्मार्गस्योपदेष्ट्रदृणामनुपलम्भात्प्रवरज्ञाना 'वरणोदयात्तदुदीरितार्थतत्त्वानवबोधात् । अवगमे सत्यप्यश्रद्धायां, चारित्रमोहोदयात्सन्मार्गेऽप्रवृत्तेश्च दुःखाम्भोधौ निमग्नोऽस्मीत्युद्विग्नचित्ततया च निद्रा प्रयाति ॥ १४३७॥ यहाँ शंका होती है कि प्रीति भय और शोक तो अशुभ परिणामरूप होनेसे कर्मोके आस्रवमें निमित्त होते हैं । अतः उनमें और निद्रामें कोई अन्तर नहीं है । तब जो संवरका इच्छुक है उसके लिए प्रीति आदि करनेको क्यों कहते हैं ? इसके उत्तर में संवरके हेतु जो प्रीति आदि हैं उनके प्रतिनियत विषयको बतलाते हैं गा० - टी० - निद्राको जीतनेके लिये पाँच प्रकारके परावर्तन रूप संसारसे भय करो । रत्नत्रयकी आराधना में प्रीति करो और पूर्व में किये दुराचरणके लिये शोक करो । नरकादि गतियों में बार-बार आने जानेसे मैंने शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक और स्वाभाविक अनेक प्रकारका दुःख भोगा । वही दुःख आगे भी भोगनेमें आवेंगे, ऐसा मनमें विचार करो । समस्त आपत्तियों के समूहका विनाश करनेके लिये, स्वर्ग और मोक्षके सुखोंको प्राप्त करनेके लिये, असार शरीरका भार उतारनेके लिये, अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन रूप साम्राज्य लक्ष्मीको आकर्षित करनेके लिये, स्वर्ग और मोक्षके सुखोंको प्राप्त करनेके लिये और कर्मरूपी विष वृक्षको उखाड़ने में समर्थ इस रत्नत्रय आराधनाको, जिसे पहले अनन्तभवों में कभी प्राप्त नहीं किया, करनेके लिये मैं तत्पर हूँ । इस प्रकार प्रीतिकी भावना करो । हिंसा झूठ चोरी अब्रह्म परिग्रह, मिथ्यात्व कषाय और अशुभ मनोयोग अशुभ वचन योग अशुभ काययोगमें, जो नाना प्रकारके कर्मोंके संचयके मूल हैं और चार प्रकारके बन्धमें निमित्त हैं, मैं अभागा निरन्तर लगा रहा, क्योंकि हित अहितके विचार में मूढ बुद्धि होनेसे तथा सन्मार्गका उपदेश देने वालोंकी प्राप्ति न होनेसे अथवा प्रबल ज्ञानावरणका उदय होनेसे उनके द्वारा कहे गये अर्थ तत्त्वको न जान सकनेसे, या जान लेने पर भी श्रद्धा न करनेसे और चारित्र मोहके उदयसे सन्मार्ग में प्रवृत्ति न करनेसे में दुःखके समुद्र में डूबा हूं । इस प्रकार चित्तके उद्विग्न होनेसे निद्रा चली जाती है ॥१४३७|| १. ज्ञानावरोधोदयात्तदुदीरितार्थान - अ० मु० | Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६८३ जागरणत्थं इच्चेवमादिकं कुण कमं सदा उचो । झाणेण विणा वंज्झो कालो हु तुमे ण कायव्वो ॥१४३८॥ जागरणार्थ निद्रानिरासार्थ एवमादिकं कुरु क्रमं सदोपयुक्तं । ध्यानेन विना बन्ध्यः कालो न कर्तव्यस्त्वया ॥१४३८॥ संसाराडविणित्थरणमिच्छदो अणपणीय दोसाहिं । सोढुं ण खमो अहिमणपणीय सोदु व सघरम्मि ।।१४३९।। 'संसाराडविणिच्छरणमिच्छदो' संसाराटविनिस्तरणमिच्छन्ननपाकृत्य दोषान् न हि स्वप्तुं क्षमः । अहिं अनपनीय स्वप्तुमिव गृहे ॥१४३९॥ को णाम 'णिरुव्वेगो लोगे मरणादिअग्गिपज्जलिदे । पज्जलिदम्मि व णाणी घरम्मि सोदु अभिलसिज्ज ।।१४४०॥ . 'को णाम णिरुव्वेगों लोगे मरणादि अग्गिपज्जलिदे' जातिजरामरणव्याधयः, शोका भयानि, प्रार्थितालाभो, अभिमतवियोग इत्यादिनाग्निना प्रज्वलिते । 'णाणी सोदुमभिलसेज्ज' ज्ञानी स्वप्तुमभिलषेत् । 'पज्जलिदम्मि घरम्मि व' प्रज्वलिते गह इव ॥१४४०।। को णाम णिरुव्वेगो सुविज्ज दोसेसु अणुवसंतेषु । गहिदाउहाण बहुयाण मज्झयोरेव सत्त णं ॥१४४१॥ 'को णाम णिरुग्वेगो' को नाम निरुद्वेगः स्वपेद्रागादिषु संसारप्रवर्द्धनेषु दोषेषु अनुपशान्तेषु गृहीतायुधानां शत्रूणां बहूनां मध्ये इव ॥१४४१॥ . णिद्दा तमस्स सरिसो अण्णो णत्थि हु तमो मणुस्साणं । इदि णच्चा जिणसु तुमं णिद्दा ज्झाणस्स विग्घयरी ॥१४४२॥ गा०-निद्राको दूर करनेके लिये इस प्रकारके चिन्तनमें सदा लगे रहो। ध्यानके विना तुम्हें एक क्षण भी नहीं गंवाना चाहिए ।।१४३८|| गा०-जैसे घरमें यदि सर्प घुसा हो तो उसे निकाले विना सोना शक्य नहीं है। उसी प्रकार जो संसार रूपी महावनसे निकलना चाहता है वह दोषोंको दूर किये विना सोनेमें समर्थ नहीं होता ॥१४३९।। गा-जलते हुए घरकी तरह लोकके जन्म, जरा, मरण, व्याधि, शोक, भय, प्रार्थितकी अप्राप्ति और इष्ट वियोग इत्यादि आगसे जलते रहने पर कौन ज्ञानी निर्भय होकर सोना चाहेगा ॥१४४०॥ गा-जैसे शस्त्रधारी बहुतसे शत्रुओंके मध्यमें कोई निर्भय होकर नहीं सो सकता, उसी प्रकार संसारको बढ़ानेवाले रागादि दोषोंके उपशान्त हुए विना कौन निर्भय होकर सो सकता है ।।१४४१॥ १. अणुविग्गो मूलारा० । २. प्रार्थितलोभो आ० । Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ भगवती आराधना 'णिद्दा तमस्स सरिसो' तमस्सदृशमन्यत्तमो नास्ति मनुजानां इति ज्ञात्वा निद्रां ध्यानस्य विघ्नकारिणी जयेति ।।१४४२॥ कुण वा णिद्दामोक्खं शिद्दामोक्खस्स भणिदवेलाए । जह वा होइ समाही खवणकिलिंतस्स तह कुणह ॥१४४३।। 'कूण वा णिहामोक्ख' कुरु वा निद्रामोक्षं । निद्रामोक्षस्य कथितायां वेलायां रात्रस्तुतीये यामे इति यावत । यथा वा समाधिर्भवति भवत उपवासपरिश्रान्तस्य तथा वा निद्रामोक्षं कुरु ॥१४४३।। णिहत्तिगदं । उक्तार्थोपसंहारं वक्ष्यमाणं वाधिकार दर्शयत्युत्तरगाथा एस उवावो कम्मासवदारणिरोहणो हवे सव्वो । पोराणयस्स कम्मस्स पुणो तवसा खओ होइ ॥१४४४।। 'एस उवाओ' कर्मणामास्रवद्वारनिरोधे उपायोऽयं सर्वोऽभिहितः । पौराणस्य कर्मणस्तपसा क्षयो भवति । संवरपूर्विका निर्जरा मुक्तये भवति न संवरहीनेति पूर्व संवरोपन्यासः ॥१४४४।। अभंतरवाहिरगे तवम्मि सत्तिं सगं अगृहंतो। उज्जमसु सुहे देहे अप्पडिबद्धो अणलसो तं ॥१४४५॥ 'अभंतरबाहिरगे' अभ्यन्तरे बाह्ये च तपस्युद्योगं कुरु स्वां शक्तिमगृहमानः । सुखे शरीरे चानासक्तिः अनालस्यः । न हि शरीरे सुखे वा आदरवांस्तत्प्रतिपक्षभूते तपसि प्रयतते । न' सालस्यः प्रवर्तते तपसि । तपसः प्रत्यहभावेन स्थितं सुखे शरीरे च प्रतिबद्धत्वमलसत्वमावेदितमनेन ।।१४४५।। गा०—निद्रा रूपी अन्धकारके समान मनुष्योंका कोई दूसरा अन्धकार नहीं है। ऐसा जानकर हे क्षपक ! तुम ध्यानमें विघ्न करने वाली निद्राको जीतो ॥१४४२।। गा०–अथवा यदि निद्राको नहीं जीत सकते हो तो आगममें निद्रा त्यागनेका जो समय रात्रिका तीसरा पहर कहा है उस समय निद्रा त्यागो । अथवा उपवाससे थके हुए आपकी समाधि जिस प्रकार हो उस प्रकार करो ।।१४४३॥ आगे उक्त कथनका उपसंहार और आगेका अधिकार कहते हैं गा०-नवीन कर्मके आनेके द्वारको रोकनेका यह सब उपाय कहा है । पूर्व संचित कर्मोंका क्षय तपसे होता है । संवर पूर्वक निर्जरा मोक्षका कारण होती है, संवरके विना निर्जरा मोक्षका कारण नहीं है । इसलिये पहले संवरका कथन किया है ॥१४४४॥ गा०-टो०-हे क्षपक ! अपनी शक्तिको न छिपाकर अभ्यन्तर और बाह्य तपमें उद्योग करो । सुखमें और शरीर में आसक्त मत होओ और न आलस्य करो। जो शरीर और सुखमें आदरभाव रखता है वह उनके विरोधी तपमें प्रयत्न नहीं करता। तथा आलसी भी तपमें प्रवृत्ति नहीं करता। इससे सुख और शरीरमें आसक्ति तथा आलस्यको तपके लिये विघ्नकारी कहा है ॥१४४५।। १. न चालस्यः-आ० । न चालस:-मु०, मूलारा० । Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६८५ सुहसीलदाए अलसनणेण देहपडिबद्धदाए य । जो सची संतीए ण करिज्ज तवं स सत्तिसमं ।।१४४६॥ ___ 'सुहसीलदाए' सुखासक्ततया, अलसतया, देहप्रतिवद्धतया वा यः शक्ती सत्यामपि तपो न करोति शक्तिसमम् ॥१४४६॥ तस्स ण भावो सुद्धो तेण पउना तदो हवदि माया । ण य होइ धम्मसढ्ढा तिव्वा सुहदेहपिक्खाए ॥१४४७।। 'तस्स ण भावो' तस्य परिणामो न शुद्धस्तस्मात्तेन शक्तिसमे तपस्यवर्तमानेन माया प्रयुक्ता भवति । यतस्ततो न भावः शद्धः, धर्म तीवा च श्रद्धा न भवति । केन ? 'सुहदेहपिक्काए' सुखे देहे च प्रेक्षया तत्र आसक्तया बुद्धया हेतुभूतया ॥१४४७॥ अप्पा य वंचिओ तेण होइ विरियं च गृहियं भवदि । सुहसीलदाए जीवो बंधदि हु असादवेदणियं ।।१४४८॥ 'अप्पा य वंचिओ' आत्मा वंचितस्तेन । शक्त्यनुरूपे तपस्यनभ्युद्यतेन शक्तिश्च प्रच्छादिता भवति । सुखासक्ततया जीवो बध्नात्यसातवेदनीयं चानेकभवेषु दुःखावहं ।।१४४८॥ आलस्यदोषमाचष्टे विरियंतरायमलसत्तणेण बंधदि चरित्तमोहं च । देहपडिबद्धदाए साधू सपरिग्गहो होइ ॥१४४९॥ विरियंतरायं वीर्यान्तरायमलसतया बघ्नाति चारित्रमोहनीयं च। शरीरासक्त्या साधुः सपरग्रहो भवति ॥१४४९॥ मायादोसा मायाए हुंति सव्वे वि पुव्वणिट्ठिा । धम्मम्मि 'णिप्पिवासस्स होइ सो दुल्लहो धम्मो ॥१४५०॥ गा०-सुखमें आसक्त होनेसे, आलस्यसे और शरीरमें प्रतिबद्ध होनेसे जो शक्ति होते हुए भी शक्तिके अनुसार तप नहीं करता ।।१४४६।। उसका परिणाम शुद्ध नहीं है। अतः शक्तिके अनुसार तपमें प्रवृत्ति न करने वाला मायाचारी है। तथा सुख और शरीरमें आसक्ति होनेसे उसको धर्ममें तीव्र श्रद्धा नहीं है ॥१४४७॥ ___गा०-जो शक्तिके अनुसार तपमें तत्पर नहीं है वह आत्माको ठगता है और अपनी शक्तिको छिपाता है। तथा सुखमें आसक्त होनेसे असातवेदनीयको बाँधता है जो अनेक भवोंमें दुःखदायी है ॥१४४८॥ आलस्यके दोष कहते हैं गा०-आलसी होनेसे वह वीर्यान्तराय और चारित्र मोहनीय कर्मका बन्ध करता है। तथा शरीर में आसक्ति रखनेसे वह साधु परिग्रही होता है ॥१४४९।। १. णिप्पिहासस्स-आ० । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'मायादोसा' मायादोषाः सर्वेऽपि पूर्वनिर्दिष्टाः । मायायां तपसि स्वशक्तिनिगूहनलक्षणायां भवन्ति कि च धम्मम्मि धर्म तपोलक्षणे। णिप्पिवासस्स अनादरस्य जन्मान्तरे दुर्लभो भवति धर्मः ॥१४५०॥ दोषान्तरमपि निगदति पुव्वत्ततवगुणाणं चुक्को जं तेण वंचिओ होइ । विरियणिगृही बंधदि मायं विरियंतरायं च ॥१४५१।। 'पुष्वृत्ततवगुणाणं' पूर्वोक्तसंवरनिर्जरा चेत्येवमादिभिस्तपःसाध्यरुपकारः। 'चुक्को' च्युतः । 'जं' यस्मात् । तेण' तेन तपःसाध्योपकारप्रच्युतत्वेन । 'वंचिदो होदि' वञ्चितो भवति । विरियणिगूही बंधदि मायं' वीर्यसंवरणपरो बध्नाति मायाकर्म 'विरियंतरायं च' वीर्यान्तरायं च ॥१४५१॥ तवमकरितस्सेदे दोसा अण्णे य होति संतस्स । होति य गुणा अणेया सत्तीए तवं कुणंतस्स ॥१४५२॥ 'तवमकरेंतस्स' तपस्यनुद्यतस्येमे दोषा अन्ये च भवन्तीति ज्ञातव्याः । भवन्ति चानेकगुणाः शक्त्या तपसि वर्तमानस्य ॥१४५२॥ तपोगुणप्रख्यापनायोत्तरप्रबन्धः इह य परत्त य लोए अदिसयपूयाओ लहइ सुतवेण । आवज्जिजंति तहा देवा वि सइंदिया तवसा ॥१४५३॥ इह जन्मनि परत्र च तपसा सम्यक् कृतेन अतिशयपूजा. लम्यते । आवय॑न्ते च तपसा देवाः सेन्द्रकाः ॥१४५३॥ अप्पो वि तवो बहुगं कल्लाणं फलइ सुप्पओगकदो । जह अप्पं वडबीअं फलइ वडमणेयपारोहं ॥१४५४॥ गा०-तपमें अपनी शक्तिको छिपाने रूप मायाचार में वे सब दोष होते हैं जो पूर्वमें मायाके दोष कहे हैं । जो धर्ममें अनादर भाव रखता है उसको दूसरे जन्ममें धर्मकी प्राप्ति दुर्लभ होती है ।।१४५०॥ अन्य दोष भी कहते हैं गा०-पूर्व में जो तपके द्वारा साध्य संवर निर्जरा इत्यादि उपकार कहे हैं उनसे च्युत होने से वह उनसे वंचित होता है। और अपनी शक्तिको छिपानेसे मायाकर्म और वीर्यान्तराय कर्मका बन्ध करता है ।।१४५१॥ गा०-जो तपमें तत्पर नहीं होता उसको ये दोष तथा अन्य दोष होते हैं और जो शक्तिके अनुसार तप करता है उसमें अनेक गुण होते हैं ।।१४५२।। __ आगे तपके गुण कहते हैं गा०-सम्यकपसे तप करनेसे इस जन्ममें और परजन्ममें सातिशय पूजा प्राप्त होती है । तथा तपसे इन्द्रसहित सब देव भी विनय करते हैं ॥१४५३।। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६८७ - 'अप्पोवि तओ अल्पमपि तपः महाकल्याणं फलति सुसंयमनिष्पन्न । सुष्ठ प्रयुज्यते प्रवर्त्यतेऽनेनेति च विग्रह संयमः सुप्रयोगशब्देनोच्यते । यथा अल्पमपि वटबीजं फलति वटमनेकप्ररोहं अल्पमपि पृथुलं फलदायितपः इत्येतदाख्यातमनया ॥१४५४।। सुट्ठु कदाण वि सस्सादीणं विग्घा हवंति अदिबहुगा । सुट्? कदस्स तवस्स पुण णत्थि कोइ वि जए विग्यो ।।१४५५।। 'सुलु कदाण वि' सम्यक् कृतानामपि शस्यादीनां अतीव विघ्ना भवन्ति । तपसः पुनः सम्यक् कृतस्य जगति न कश्चिद् विघ्नः फलदाने । निर्विघ्नफलदायित्वं तपसो माहात्म्यं कथितम् अनया ॥१४५५॥ जणणमरणादिरोगादुरस्स सुतवो वरोसधं होदि । रोगादुरस्स अदिविरियमोसघं सुप्पउत्त वा ॥१४५६।। 'जणणमरणादिरोगादुरस्स' जन्ममरणाद्यापीडितस्य सुतपो वरौषधं भवति । रोगपीडितस्य सुप्रयुक्तमतिवीर्यमौषधमिव । जननमरणादीनां विनाशकत्वं तत्कारणकर्मविनाशादनेनाख्यायते ॥१४५६।। संसारमहाडाहेण डज्झमाणस्स होइ सीयधरं । . सुतवोदाहेण जहा सीयधरं डज्झमाणस्स ॥१४५७।। 'संसारमहाडाहेण' संसारमहादाघेन दह्यमानस्स तपो भवति जलगृहं । यथा दह्यमानस्य सूर्यांशुभिर्घारागृहम् । सांसारिकदुःखनिमूलनकारिता तपसोऽनेन सूच्यते ।।१४५७॥ णीयल्लओ व सुतवेण होइ लोगस्म सुप्पिओ पुरिसो। मायाव होइ विस्ससणिज्जो सतवेण लोगस्स ।।१४५८॥ गा०-टी०-सम्यक् संयमपूर्वक किया गया थोड़ा भी तप बहुत कल्याणकारी होता है । गाथामें सुप्रयोग शब्दसे 'जिसके द्वारा सुष्ठुरूप प्रवर्तित होता है' इस विग्रहके अनुसार संयम लिया गया है। जैसे छोटा-सा भी वटबीज अनेक शाखा प्रशाखासे पूर्ण वटवृक्षरूपसे फलता है उसी प्रकार थोड़ा भो तप बहुत फल देता है। यह इस गाथाके द्वारा कहा है ।।१४५४।। ___ गा०-धान्य आदिकी खेती बहुत सावधानतासे परिश्रमपूर्वक करनेपर भी उसमें बहुत विघ्न आते हैं। किन्तु सम्यक्रूपसे किये गये तपके फल देने में कोई विघ्न नहीं आता। निर्विघ्न फल देना तपका माहात्म्य है यह इस गाथाके द्वारा कहा है ॥१४५५।। गा०-टी०-जैसे रोगसे पीड़ित पुरुषके लिए यत्नपूर्वक दी गई अति शक्तिशाली औषध होती है। उसी प्रकार जन्ममरण आदि रोगसे पीड़ितकी श्रेष्ठ औषध तप है। तप करनेसे जन्ममरणके कारण कर्मोंका विनाश होता है । इससे तपको जन्ममरण आदिका विनाशक कहा है ।।१४५६।। गा०-संसाररूपी महादाहसे जलते हुए प्राणीके लिए तप जलघर है, जैसे सूर्यको किरणोंसे जलते हुए मनुष्यके लिए धाराघर होता है। तप सांसारिक दुःखोंको निमूल करता है, यह इससे सूचित किया है ।।१४५७।। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ भगवती आराधना 'णीयल्लओव' कस्य नितरां प्रियो भवति पुरुषः । शोभनेन तपसा सर्वजगत्प्रियतां करोति तप इत्यनेन आख्यातम् । 'मावाव होइ विस्ससणिज्जो' मातेव विश्वसनीयो भवति लोकस्य । सर्वजगद्विश्वास्यत्वं तपःसम्पाद्यमनेन कथ्यते ॥१४५८॥ कल्लाणिढिसुहाइं जावदियाइ हवे सुरणराणं । जं परमणिन्वुदिसुहं व ताणि सुतवेण लब्भंति ।।१४५९॥ 'कल्लाणिढिसुहाइ” कल्याणानि स्वर्गावतरणादीनि ऋद्धयो विभूतयश्चक्रलाञ्छनानां अर्द्धचक्रवर्तिनां सुखानि च यानि देवानां मनुष्याणां च, यच्च परमनिवृतिसुख तानि शोभनेन तपसा लभ्यन्ते ।।१४५९।। कामदुहा वरघेणू णरस्स चिंतामणिव्व होइ तओ। तिलओव्व णरस्स तओ माणस्स विहूसणं सुतओ ॥१४६०॥ 'कामदुहा' कामदुधा वरधेनुः, चिन्तामणिश्च तपः यदभिलषितं तस्य दानात् । तिलकाख्यालङ्कारो नरस्य शोभनं तपः, मानस्य विभूषणं च । तपसा हि सर्वेण जगता मान्यस्य मानः शोभते इति ॥१४६०॥ होइ सुतवो य दीओ अण्णाणतमंधयारचारिस्स । सव्वावत्थासु तओ वट्ठदि य पिदा व पुरिसस्स ॥१४६१।। 'होइ सुतओ य दीओ' सम्यक्तपः प्रदीपो भवति अज्ञानतमसि महति संचरतः । एतेन जगतोऽज्ञानाख्यं तमो विनाशयति तपः इति सूचितं । सर्वावस्थासु हिते तपो वर्तते पितेव पुंसः ॥१४६१।। विसयमहापंकाउलगड्डाए संकमो तवो होइ। होइ य णावा तरिदुं तवो कसायातिचवलणदिं ॥१४६२॥ गा०–सम्यक् तप करनेसे पुरुष बन्धुकी तरह लोगोंको प्रिय होता है। इससे यह कहा है कि सम्यक् तपसे मनुष्य सब जगत्का प्रिय होता है । तथा सम्यक् तपसे मनुष्य माताकी तरह लोकका विश्वासभाजन होता है । इससे तपसे सर्वजगत्का विश्वासपात्र होना कहा है ॥१४५८॥ गा०-स्वर्गसे अवतरित होना आदि पाँच कल्याणक, चक्रवर्ती और अर्घचक्रियोंकी विभूतियाँ तथा देवों और मनुष्योंके जितने सुख हैं, तथा जो मोक्षका परम सुख है वह सब सम्यक् तपसे प्राप्त होते हैं ॥१४५९॥ गा०-टो०-जो चाहो वह तपसे मिलता है इसलिए सम्यक् तप मनुष्यके लिए कामधेनु और चिन्तामणि रत्नके समान है। तथा मनुष्यके मस्तकपर शोभित होनेवाले तिलक नामक अलंकारके समान है और मानका विशिष्ट भूषण है अर्थात् तपसे सर्वजगत्के द्वारा मान्य पुरुषका मान शोभित होता है ।।१४६०॥ गा०-अज्ञानरूपी घोर अन्धकारमें विचरण करनेवालेके लिए सम्यक तप दीपकके समान है । इससे सूचित किया है कि तप जगत्के अज्ञानरूपी अन्धकारको नष्ट करता है । तथा सम्यक तप सब अवस्थाओंमें पिताकी तरह पुरुषको हितमें लगाता है ॥१४६१। गा०-यह विषय महान् कीचड़से भरे गर्तके समान हैं क्योंकि उससे निकलना बहुत कठिन Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६८९ 'विसयमहापंकाउलगड्डाए' विषयो महापंकाकुलगत इव दुस्तरत्वात् । तस्मिन् संक्रमो भवति । तदुत्तरणहेतुर्भवति तपः। तपो नौरुल्लंघयितु कषायातिचपलनदीं ॥१४६२।। फलिहो व दुग्गदीणं अणेयदुक्खावहाण होइ तवो । आमिसतण्हाछेदणसमत्थमुदकं व होइ तवो ॥१४६३।। 'फलिहो व दुग्गदीणं' दुर्गतीनां परिघ इव । कीदृशां दुर्गतीनां ? अनेकदुःखावहांनां । किं च विषयतृष्णाच्छेदनसमर्थ च तपः उदकमिव तृष्णाच्छेदने ॥१४६३।। मणदेहदुक्खवित्तासिदाण सरणं गदी य होइ तवो। होइ य तवो सुतित्थं सव्वासुहदोसमलहरणं ॥१४६४॥ _ 'मणदेहदुक्खवित्तासिदाण' मानसानां शरीराणां दुःखानां ये वित्रस्तास्तेषां शरणं गतिश्च तपः । भवति च तपस्तीथं सर्वाशुभदोषमलनिरासकारि ॥१४६४।। संसारविसमदुग्गे तवो पणट्ठस्स देसओ होदि । होइ तवो पच्छयणं भवकंतारम्मि दिग्धम्मि ॥१४६५॥ 'संसारविसमदुग्गे' संसारो विषमदुर्ग इव दुरुत्तरणीयत्वात् । तस्मिन्प्रणष्टस्य दिङ्मूढस्य । 'तवों देसगो होदि' तप उपदेष्टा भवति । संसारविषमदुर्गमुत्तारयतीति । 'होवि तवो पच्छदणं' भवति तपः पथ्यदनं 'भवकांतारम्मि' भवाटव्यां । 'विग्धम्मि' दीर्धे ।।१४६५।। , रक्खा भएसु सुतवो अब्भुदयाणं च आगरो सुतवो। णिस्सेणी होइ तवो अक्खयसोक्खस्स मोक्खस्स ॥१४६६॥ 'रक्सा भएसु सुतवो' भयेषु रक्षा सुतपः । अभ्युदयानां वाकरः सुतपः मोक्षस्य अक्षयसुखस्य निश्रयणी भवति तपः ॥१४६६।। है। तप उससे निकलने में कारण है। तथा तप कषायरूप अति चपल नदीको पार करनेके लिए नौका है ।।१४६२।। गा०-अनेक दुःखदायी दुर्गतियोंके लिए तप अर्गलाके समान है। तथा विषयोंकी तृष्णाको नष्ट करनेके लिए जलके समान है। जैसे जलसे प्यास बुझ जाती है वैसे ही तपसे विषयोंकी प्यास बुझ जाती है ।।१४६३॥ गा०-जो मानसिक और शारीरिक दुःखोंसे पीड़ित हैं उनके लिए तप शरण और गति है । तप सर्व अशुभ दोषरूप मलको दूर करनेवाला तीर्थ है ॥१४६४॥ गाo-यह संसार विषम दुर्गके समान है क्योंकि उससे निकलना कठिन है। उस संसाररूपी दुर्गमें जो दिशा भूल गये हैं उनके लिए तप उपदेशक है अर्थात् संसाररूपी विषम दुर्गसे निकलनेका मार्ग बतलाकर उससे निकालता है। तथा सुदीर्घ भवरूपी भयानक वनमें कलेवाके समान सहायक है ।।१४६५|| गा०–सम्यक तप भयमें रक्षा करता है, अभ्युदयोंकी खान है और अविनाशी सुखस्वरूप मोक्षमें जानेके लिए नसैनी है ।।१४६६|| Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० भगवती आराधना तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा सम्मं करण पुरिसस्स । अग्गीव तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी ॥१४६७।। 'तण्णत्यि' तन्नास्ति यन्न लभ्यते तपसा सम्यक्कृतेन । तपोऽग्निः कर्मतृणं दहति तृणमिवाग्निः प्रज्वलितः ॥१४६७॥ सम्म कदस्स अपरिस्सवस्स ण फलं तवस्स वण्णेदु। कोई अस्थि समत्थो जस्स विजिब्भास यसहस्सं ॥१४६८॥ 'सम्मं कदस्स' सम्यक् कृतस्य निरास्रवस्य तपसः फलं वर्गयितुं न कश्चित्समर्थोऽस्ति जिह्वाशतसहस्रं यद्यप्यस्ति ॥१४६८॥ एवं णादूण तवं महागुणं संजमम्मि ठिच्चाणं । तवसा भावेदव्वा अप्पा णिच्चं पि जुत्तेण ।।१४६९। 'एवं णादण' एवं ज्ञात्वा तपो महोपकारि संयमे स्थित्वा तपसा भावयितव्य आत्मा नित्यमपि उपयुक्तेन ।।१४६९॥ जह गहिदवेयणो वि य अदयाकज्जे णिउज्जदे भिच्चो । तह चेव दमेयव्वों देहो मुणिणा तवगुणेसु ॥१४७०॥ 'जह गहिदवेयणो वि य' यथा गृहीतवेतनोऽपि न दयाकार्ये नियुज्यते भृतकः । तथैव दमितव्यो देहो मुनिना तपोगुणेषु । उत्तरगुणं ॥१४७०॥ इच्चेव समणधम्मो कहिदो मे दसविहो सगुणदोसो । एत्थ तुममप्पमत्तो होहि समण्णागदमदीओ ॥१४७१॥ गा०-संसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो सम्यकपसे किये गये तपके द्वारा न प्राप्त होता हो। जैसे प्रज्वलित आग तृणको जलाती है वैसे ही तपरूपी आग कर्मरूपी तृणोंको जलाती है ॥१४६७॥ गा०-सम्यक्रूपसे किये गये और कर्मास्रवसे रहित तपके फलका वर्णन करने में जिसके एक हजार जिह्वा हों वह भी समर्थ नहीं है ॥१४६८।। गा०-इस प्रकार तपको महान् उपकारी जानकर संयममें स्थित संयमीजनोंको नित्य ही उपयोग लगाकर आत्मामें तपकी भावना करनी चाहिए ॥१४६९|| ___ गा०-जैसे वेतन लेनेवाले सेवकको कार्यमें नियुक्त करते समय उसपर दया नहीं की जाती। उसी प्रकार मुनिको अपने शरीरको तपरूप गुणमें लगाना चाहिए। अर्थात् जब शरीर को भोजनरूपी वेतन दिया जाता है उसपर दया न करके उसको तपकी साधनामें लगाना चाहिए ॥१४७०॥ १ दसदी-मु० मूलारा० । Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६९१ 'इच्चेव समणधम्मो' इत्येवं श्रमणधर्मः दशविधः सगुणदोषः कथितो मया । 'एत्थ तुममप्पमत्तो होहि' अत्र दशविघे धर्मे त्वमप्रमत्तो भवः, समागतस्मृतिकः इति गणिना स्वशिक्षापरिसमाप्तिरादर्शिता ॥१४७१॥ तो खवगवयणकमलं गणिरविणो तेहिं वयणरस्सीहिं । चित्तप्पसायविमलं पफुल्लिदं पीदिमयरंदं ॥१४७२।। 'तो खवगवदणकमलं' ततः शिक्षानन्तरं तस्य क्षपकस्य वदनकमलं प्रफुल्लितं सूरिधर्मरश्मेस्तैर्वचनरश्मिभिः चित्तप्रसादविमलं प्रीतिमकरंदं ॥१४७२॥ वयणकमलेहिं गणिअभिमुहेहिं साबिंभियच्छिपत्तेहिं । सोभइ इह सूरोदयम्मि फुल्लं व णलिणिवणं ॥१४७३॥ 'वयणकमलेहि' वदनकमलैः यतीनां गणिनोऽभिमुखे विस्मिताक्षिपत्रः सा सभा शोभा वहति स्म । सूर्योदये पुष्पितनलिनवनमिव ।।१४७३।। गणिउवएसामयपाणएण पल्हादिदम्मि चित्तम्मि । जाओ य णिव्वदो सो पादणय पाणयं तिसिओ ।।१४७४।। गणिउवएसामयपाणएण' गणिनः उपदेशामृतपानकेन प्रह्लादिते चित्ते जातोऽसो क्षपकः सुष्ठुः निर्वृतः तृषितः पानकं पीत्वेव ॥१४७४॥ तो सो खवओ तं अणुसद्धिं सोऊण जादसंवेगो । उट्टित्ता आयरियं वंदइ विणएण पणदंगो ॥१४७५॥ गा०-इस प्रकार हे क्षपक ! मैंने गुणदोषोंके विवेचनपूर्वक दस प्रकारके श्रमण धर्मका कथन किया। उसको स्मरण करके तम दस प्रकारके धर्ममें अप्रमादी होआ। इस प्रकार निर्यापकाचार्यने अपनी शिक्षाकी समाप्ति सूचित को है ॥१४७१॥ गा०-इस शिक्षाके अनन्तर उस क्षपकका मुखरूपी कमल आचार्यरूपी सूर्यके वचनरूपी किरणोंसे प्रफुल्लित हो जाता है, चित्तके प्रसन्न होनेसे उस मुख कमलकी विरूपता चली जाती है और उसमेंसे प्रीतिरूपी पुष्परस झरने लगता है ॥१४७२।। गा०-जैये सूर्यके उदय होनेपर खिला हुआ कमलोंका वन शोभित होता है उसी प्रकार आचार्यके अभिमुख हुए यतियोंके मुख कमलोंसे, जो आश्चर्ययुक्त नेत्ररूपी पत्रोंसे संयुक्त होते हैं, वह मुनिसभा शोभित होती है ।।१४७३॥ गा०-आचार्यके उपदेशरूपी अमृतका पान करके चित्तके आह्लादयुक्त होनेपर क्षपक वैसा ही सुखी होता है जैसा प्यासा अमृतमय पानक पीकर होता है ।।१४७४।। गा०-उसके पश्चात् वह क्षपक आचार्यका उपदेश सुनकर वैराग्यसे भर जाता है और उठकर अंगोंको नम्र करके विनयपूर्वक आचार्यको वन्दना करता है ।।१४७५।। १. हि बिभि-आ० । सावत्थिदत्थिपत्तेहि-मु। २. सोभदि ससभा सू-मु० । ३. विस्तृताक्षि-मु० । Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ भगवती आराधना 'तो सो खवगो' ततोऽसौ क्षपकः तदनुशासनं श्रुत्वा जातसंवेग उत्थाय आचार्य वंदते विनयेन प्रणताङ्गः ॥१४७५।। भंते सम्मं गाणं सिरसा य पडिच्छिदं मए एदं । जं जह उत्तं तं तह' करेमि विणओ तदो भणइ ॥१४७६॥ 'भत्ते सम्म गाणं' भगवन् सम्यग्ज्ञानं एतच्छिरसा मया परिगृहीतं । यद्यथोक्तं भवद्भिस्तथा करिष्यामि इति वदति ॥१४७६।। अप्पा णिच्छरदि जहा परमा तुट्ठी य हवदि जह तुज्झ । जह तुज्झ य संघस्स य सफलो य परिस्समो होइ ॥१४७७॥ 'अप्पा णिच्छर दि जहा' अहं यथा निस्तीर्णो भवामि संसारात् । यथा युष्माकं परमा तुष्टिर्भवति । भवतां संघस्य चास्मदनुग्रहे प्रवृत्तानां श्रमस्य फलं भवति ॥१४७७।। जह अप्पणो गणस्य य संघस्स य विस्सुदा हवदि कित्ती । संघस्स पसायेण य तहहं आराहइस्सामि ।।१४७८।। 'जह अप्पणो गणस्स य' यथा मम गणस्य संघस्य च कीर्तिविश्रुता भवति तथाहमाराधयिष्यामि संघस्य प्रसादेन ।।१४७८॥ वीरपुरिसेहिं जं आयरियं जं च ण तरंति कापुरिसा । मणसा वि विचिंतेदुं तमहं आराहणं काहं ॥१४७९।। 3वीरपुरिसेहिं वीरैः पुरुषर्या आचरिता, यां च न शक्नुवन्ति कापुरुषा मनसापि चिन्तयितुं तादृशीमाराधनामहं करिष्यामि ॥१४७९॥ गा०-और कहता है-भगवन् ! मैंने आपके द्वारा दिया सम्यग्ज्ञान सिर नवाकर स्वीकार किया । आपने जो-जो जिस प्रकार कहा है मैं वैसा ही करूँगा ।।१४७६।। गा०—जिस प्रकारसे मैं संसारसे पार उतरूँ, जिस प्रकारसे आपको परम सन्तोष हो, मेरे कल्याणमें संलग्न आपका और संघका परिश्रम जिस प्रकारसे सफल हो ॥१४७७|| गा०—जिस प्रकार मेरी और संघकी कीर्ति फैले, मैं संघकी कृपासे उस प्रकार रत्नत्रयकी आराधना करूँगा ॥१४७८|| गा०-वीर पुरुषोंने जिसका आचरण किया है, कायर पुरुष जिसकी मनमें कल्पना भी नहीं कर सकते, मैं ऐसी आराधना करूंगा ॥१४७९।। १. तह काहेत्तिय सो तदो -मु० । २, ३, ४. धीर -मु० । Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका एवं तुझं उवएसामिदमासाइदत्तु को णाम । बीहेज्ज छहादीणं मरणस्स वि कायरो वि णरो ॥१४८०॥ 'एवं तुझं' एवं भवतामुपदेशामृतमास्वाद्य को नाम विभेति कातरोऽपि नरः क्षुधादीनां मृत्योवा ॥१४८०॥ किं जंपिएण बहुणा देवा वि सइंदिया महं विग्छ । तुम्हं पादोवग्गहगुणेण कार्यु ण अरिहंति ।।१४८१।। 'कि जंपिएण बहुणा' किंबहुना जल्पितेन देवा अपि शतमखप्रमुखा मम विघ्नं कर्तुं असमर्थाः भवत्पादोपग्रहणगुणेन ॥१४८१॥ किं पुण छुहा व तण्हा परिस्समो वादियादि रोगो वा । काहिंति ज्झाणविग्धं इंदियविसया कसाया वा ।। १४८२।। 'किं पुण' किं पुनः कुर्वन्नि ध्यानस्य विघ्नं क्षुधा, तृपा वा, परिश्रमो वा, धातिकादिरोगा वा, इन्द्रियाणां विषयाः, कपाया वा ॥१४८२॥ ठाणा चलेज्ज मेरू भूमी ओमच्छिया भविस्सिहिदि । ण य हं गच्छमि विगदि तुज्झं पायप्पसाएण ॥१४८३।। 'ठाणा चलिज्ज' स्वस्मात्स्थानाच्चलिष्यति मेरुः । भूमिः परावृतमस्तका भविष्यति । नाहं विकृति गमिष्यामि भवतां पादप्रसादेन ॥१४८३॥ 'एवं खवओ संथारगओ खवइ विरियं अगृहंतो। देदि गणी वि सदा से तह अणुसहिँ अपरिदंतो ।।१४८४॥ समाप्तमनुशासनम् ॥१४८४।। गा०-आपके इस प्रकारके उपदेशामृतको पीकर कौन कायर भी मनुष्य भूख प्यास और मृत्युसे डरेगा ॥१४८०॥ गा०-अधिक मैं क्या कहूँ, आपके चरणोंके अनुग्रहसे इन्द्रादि प्रमुख देव भी मेरी आराधनामें विघ्न नहीं कर सकते ॥१४८१।। गाo-तब भूख, प्यास, परिश्रम, वातादि जन्य रोग, अथवा इन्द्रियोंके विषय और कषाय ध्यानमें विघ्न कैसे कर सकते हैं ॥१४८२॥ गा०-सुमेरु अपने स्थानसे विचलित हो जाये और पृथ्वी उलट जाये किन्तु आपके अनुग्रहसे मैं विकारसे विचलित नहीं होऊँगा ।।१४८३।। गा०-इस प्रकार क्षपक संस्तर पर आरूढ़ होकर अपनी शक्तिको न छिपाकर पूर्वोपाजित अशुभ कर्म की निर्जरा करता है और आचार्य भी बिना विरक्त हुए उसे सदा सत् शिक्षा देता है ॥१४८४|| १. एतां टीकाकारो नेच्छति । Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ भगवती आराधना सारणेत्येतत्सूत्रपदव्याख्यानमुत्तरम् - अकडुगमतित्तयमणंविलंच अकसायमलवणममधुरं । अविरस' मदुरभिगंधं अच्छमणुण्हं अणदिसीदं ॥ १४८५ ।। 'अकडुगं' अकटुकं, अतिक्तं, अनाम्लं, अकषायं, अलवणं, अमधुरं, अविरसं अदुरभिगंधं, स्वच्छमनुष्णशीतं ॥ १४८५ ॥ पाणगमसिभलं परिपूयं खीणस्स तस्स दादव्वं । जह वा पच्छं खवयस्स तस्स तह होइ दायव्वं ॥ १४८६ ।। 'पाणगर्मासभलं' पानकमश्लेष्मकारि परिपूतं क्षीणाय क्षपकाय दातव्यं । यथाभूतं वा क्षपकस्य तस्य पथ्यं तथाभूतं दातव्यम् ॥ १४८६ ॥ संथारत्थो खवओ जड़या खीणो हवेज्ज तो तया । वोसरिदव्वोपुव्वविधिणेव सोपाणगाहारो || १४८७॥ 'संथारत्थो' - संस्तरस्थः क्षपको यदा क्षीणो भवेत्तदा व्युत्सृष्टव्योऽसौ पानकविकल्पः पूर्व विधिनैव ।। १४८७ ।। एवं संथारगदस्स तस्स कम्मोदएण खवयस्स । अंगे कथ उज्ज वेयणा ज्झाणविग्धयरी || १४८८ ।। 'एवं संथारगदस्स' एवं संस्तरगतस्य क्षपकस्य कर्मोदयेन ववचिदुद्वेदनोपजायते ध्यानविघ्नकारिणी ।। १४८८॥ अब पूर्व गाथा में आगत 'सारण' पदका व्याख्यान करते हैं गा० - टी० - क्षपकको दिया जानेवाला पानक कटुक, चरपरा, खट्टा, कसैला, नमकवाला, मीठा स्वादयुक्त और दुर्गन्ध युक्त नहीं होना चाहिये अर्थात् वह न कटुक हो, न चरपरा हो, न खट्टा हो, न कसैला हो, न नमकसे युक्त हो, न मीठा हो, तथा स्वादहीन और दुर्गन्धयुक्त भी न हो । स्वच्छ हो, न गर्म हो और न ठंडा हो || १४८५ || गा०- कफ पैदा करने वाला न हो। कपड़े से छान लिया गया हो। इस प्रकार कमजोर क्षपकको ऐसा पेय देना चाहिये जो उसके लिये पथ्य हो, अर्थात् समाधिमें विघ्न डालने वाला न हो ॥ १४८६ ॥ गा०-- जब संस्तरारूढ़ क्षपक अतिक्षीण हो जाये तब पूर्वविधिसे पानकका त्याग करा देना चाहिये || १४८७ गा० - इस प्रकार संस्तरारूढ़ क्षपकके कर्मके उदयसे किसी अंग में ध्यानमें विघ्न डालने वाली वेदना यदि उत्पन्न हो जाये || १४८८ | १. मदुव्विगन्धं मु०, मूलारा० । Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९५ विजयोदया टीका बहुगुणसहस्सभरिया जदि णावा जम्मसायरे भीमे । भिज्जदि हु रयणभरियाणावा व समुद्दमज्झम्मि ॥१४८९॥ 'बहुगुणसहस्सभरिवा' बहुभिर्गुणसहस्रः, सम्पूर्णा यतिनौर्जन्मसागरे भीमे यदि भेदमुपेयात् रत्नपूर्णा नौरिव समुद्रमध्ये ॥१४८९॥ गुणभरिदं जदिणावं दठूण भवोदधिम्मि भिज्जंतं । कुणमाणो हु उवेक्खं को अण्णों हुज्ज णिद्धम्मो ॥१४९०।। 'गुणभरिदं जदि णावं' गुणः पूर्णा यतिनावं भवसमुद्रमध्ये भिद्यमानां दृष्ट्वा यः करोत्युपेक्षां तस्माकोऽन्यो भवेद्धर्मनिःक्रान्तः ।।१४९०॥ विज्जावच्चस्स गुणा जे पुव्वं वित्थरेण अक्खादा । तेसि फिडिओ सो होइ जो उविक्खिज्ज तं खवयं ॥१४९१॥ 'वेज्जावच्चस्स गुणा' वैयावृत्तस्य गुणा ये पूर्व विस्तरेण व्याख्यातास्तेभ्यः प्रच्युतो भवति य उपेक्षते क्षपकं ॥१४९१॥ तो तस्स तिगिंछाजाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए । विज्जादेसेण व से पडिकम्मं होइ कायव्वं ॥१४९२।। 'तो तस्स' ततस्तस्य क्षपकस्य चिकित्सां जानता सर्वशक्त्या प्रतिकर्म कर्तव्यं वैद्यस्य चोपदेशेन ॥१४९२।। णाऊण विकारं वेदणाए तिस्से करेज्ज पडियारं । फासुगदव्वेहिं करेज्ज वायकफपित्तपडिघादं ॥१४९३॥ ‘णादण विकारं' ज्ञात्वा विकारं तस्या वेदनायाः ततः प्रतिकारं कुर्यात् । योग्यव्यतिकफपित्तप्रतिघातं ।।१४९३॥ गा०-समुद्रके मध्यमें रत्नोंसे भरी नावकी तरह हजारों गुणोंसे भरी यतिरूपी नौका यदि भयंकर संसारसागरमें डूबने लगे ।।१४८९|| गा-गुणोंसे भरी नावको संसार-समुद्रमें डूबते हुए देखकर यदि कोई उपेक्षा करता है तो उससे बड़ा अधार्मिक दूसरा कौन होगा ॥१४९०॥ ___ गा०-जो क्षपककी उपेक्षा करता है वह पूर्व में जो वैयावृत्यके गुण विस्तारसे कहे हैं उनसे च्युत होता है ।।१४९१|| गा-अतः उस क्षपकके रोगकी चिकित्सा जाननेवाले निर्यापकाचार्यको स्वयं अथवा वैद्यके परामर्शसे सर्वशक्तिके साथ इलाज करना चाहिये ॥१४२।। ___ गा०-उस क्षपकको वेदनाके विकारको जानकर प्रासुक द्रव्योंसे वात, पित्त और कफ़को रोकनेवाला प्रतिकार करना चाहिये ॥१४९३।। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना बच्छीहिं अवद्दवणतावणेहिं आलेवसीदकिरियाहि । अब्भंगणपरिमद्दण आदीहिं तिगिंछदे खवयं ॥१४९४॥ 'वच्छोहि' बस्तिकर्मभिः, अवद्दवणतावणेहि' ऊष्मकरणतापनः, आलेपनेन, शीतक्रियया, अभ्यङ्गपरिमर्दनादिभिश्च चिकित्सते क्षपकं ॥१४९४।। एवं पि कीरमाणो परियम्मे वेदणा उवसमो सो । खवयस्स पावकम्पोदएण तिव्वेण हु ण होज्ज ॥१४९५।। एवं पि कीरमाणे प्रतीकारे क्षपकस्य वेदनोपशमः तीव्रण पापकर्मोदयेन' नापि भवेदपि, नहि बहिर्द्रव्यमाहात्म्येनैव कर्माणि स्वफलं न प्रयच्छन्ति । तदेव हि बहिर्द्रव्यं एकस्य वेदनां प्रशमयति नापरस्येति प्रतीततरमेतद् ॥१४९५॥ अहवा तण्हादिपरीसहेहिं खवओ हविज्ज अभिभदो। उवसग्गेहिं व खवओ अचेदणो होज्ज अभिभूदो ॥१४९६।। 'भहवा तण्हादिपरीसहेहि' अथवा तृडादिभिः परीषहरभिभूतो भवेत्क्षपकः, उपसगर्वाभिभूतो निश्चेतनः स्यात् ॥१४९६॥ तो वेदणावसट्टो वाउलिदो वा परीसहादीहिं । खवओ अणप्पवसिओ सो विप्पलवेज्ज जं किं पि ॥१४९७॥ 'तो वेदणावसट्टो' ततो वेदनावशा” व्याकुलितः परीषहोपसर्गः क्षपकोऽसावनात्मवशो विप्रलपेद्यदि किञ्चित् ॥१४९७॥ गा०-वस्तिकर्म ( एनिमा ) गर्म लोहेसे दागना, पसीना लाना, लेप लगाना, प्रासुक जलका सेवन कराना, मालिश, अंगमर्दन आदिके द्वारा क्षपककी वेदना दूर करना चाहिये ।१४९४/ गा०-इस प्रकार प्रतीकार करने पर भी तीव्र पाप कर्मके उदयसे यदि क्षपककी वेदना शान्त न हो । क्योंकि केवल 'बाह्य' द्रव्यके प्रभावसे ही कर्म अपना फल न दें, ऐसी बात नहीं है। वही बाह्य द्रव्य एककी वेदना शान्त करता है दूसरेकी नहीं करता। यह तो अनुभवसिद्ध है ॥१४९५॥ गा०—अथवा क्षपक प्यास आदिकी वेदनासे अभिभूत हो जाय या उपसर्गोंसे पीड़ित होकर मूछित्त हो जाये ॥१४९६॥ ___गा०--या वेदनासे पीड़ित और परीषह उपसर्गोसे व्याकुल होकर क्षपक अपने वशमें न रहे और जो कुछ भी बकने लगे ॥१४९७|| १. येन धन वेदनापि नहि -अ० । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ६९७ उब्भासेज्ज व गुणसेढीदो उदरणबुद्धिओ खवओ । छटुं दोच्चं पढमं व सिया कुंटिलिदपदमिछंतो ॥१४९८।। 'उब्भासेज्ज' पदेद्वायोग्यं, संयमगुणश्रेणितः कृतावतरणबुद्धिः 'छ8' रात्रिभोजनं, 'दोच्चं' पाणं, दिवसे 'पढमं व' अशनं वा । 'सिया' कदाचित् । 'कुंटिलिदपदमिच्छंतो' स्खलनपदं इच्छन् ।।१४९८।। तह मुझंतो खवगो सारेदव्वो य सो तओ गणिणा । जह सो विसुद्धलेस्सो पच्चागदचेदणो होज्ज ॥१४९९।। 'तह मुझंतो खवगो' मोहमुपगच्छन् क्षपकस्तथा सारयितव्योऽसौ तेन गणिना । कथं ? यथा विशुद्धलेश्यो भवति प्रत्यागतचेतनश्च ॥१४९९।। सारणोपायं कथयति कोसि तुमं किं णामो कत्थ वससि को व संपही कालो । किं कुणसि तुमं कह वा अत्थसि किं णामगो वाहं ।।१५००॥ 'कोऽसि तुम' कस्त्वं ? किनामधेयः ? 'कत्थ वससि क्व वससि ? 'को व संपही कालो' को वेदानीं काल: ? किमयं दिवा रात्रि ? "किं कुणसि तुम' किं करोषि भवान् ? 'कथं वा अत्थसि' कथं वा तिष्ठसि ? 'कि णामगो वाह' अहं वा किनामधेयः ? ॥१५००॥ एवं आउच्छित्ता परिक्खहेदु गणी तयं खवयं । सारइ वच्छलयाए तस्स य कवयं करिस्संति ॥१५०१।। 'एवं आउच्छित्ता' एवमनुपरतं सारयति गणो तं क्षपकं । कि सचेतनो निश्चेतन इति परीक्षितुकामः वत्सलतया । यद्यस्ति चेतना कवचं करिष्यामीति मत्वा ।।१५०१॥ गा०-अयोग्य वचन कहे, या संयमगुणकी सीढ़ीसे नीचे उतरना चाहे, या निचले स्थानको चाहते हुए रात्रि भोजन या रात्रिमें पानक लेना चाहे या दिनमें असमयमें भोजन करना चाहे ॥१४९८॥ गा०-इस प्रकार जब क्षपक मोहमें पड़ जाये तो आचार्यको उसे सब पिछली बातोंका स्मरण कराना चाहिये। जिससे उसके परिणाम विशुद्ध हों और उसका यथार्थ ज्ञान लौट आवे ॥१४९९॥ उसके उपाय कहते हैं गा-तुम कौन हो ? तुम्हारा क्या नाम है ? कहाँ रहते हो? इस समय दिन है या रात है ? तुम क्या करते हो ? कहाँ बैठे हो ? मेरा क्या नाम है ॥१५०० ॥ गा०-इस प्रकार आचार्य उसकी परीक्षाके लिये कि यह सचेत अवस्थामें है या अचेत अवस्थामें है, वात्सल्य भावसे बार-बार उसे स्मरण कराते हैं। उनकी यह भावना रहती है कि यदि यह सचेत है तो उसके संयमकी रक्षा की जाये ॥१५०१॥ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ भगवती आराधना जो पुण एवं ण करिज्ज सारणं तस्स 'वियलचक्खुस्स । सो तेण होइ घिसेण खवओ परिचत्तो || १५०२ || 'जो पुण एवं ण करिज्ज' यः पुनरेवं न कुर्यात् सारणं । स्खलितचित्तवृत्तेः स क्षपकस्तेन परित्यक्तो भवति सूरिणा ।। १५०२ ॥ एवं सारिज्जतो कोई कम्मुवसमेण लभदि सदि । तह य ण लब्भिज्ज सदि कोई कम्मे उदिष्णम्मि || १५०३ || ' एवं सारिज्जन्तो' एवं सार्यमाणः कश्चित् चारित्रमोहोपशमेन असद्योपशमेन वा स्मृति योग्यायोग्यविषयां लभते । अयुक्तेयं इच्छा मम अकाले भोक्तुं पातुं वा प्रत्याख्यातं कथं कालेऽपि प्रार्थयामीति सार्यमाणोऽपि । लभते स्मृति कश्चित्कर्मण्युदीर्णे नो इन्द्रियमतिज्ञानावरणे । सारणा ।।१५०३।। सदिमलभं तस्स वि कादव्वं पडिकम्ममट्ठियं गणिणा । सो विसया से अणुलोमो होदि कायव्वो ।। १५०४ || 'सदिमलभंतस्स वि' स्मृतिमलभमानस्यापि गणिनाऽस्थितं कर्तव्यं । प्रतिकारः, उपदेशोऽपि अनुकूलः सदा तस्य कर्तव्यः ॥ १५०४ ॥ चेयंतो पिय कम्मोदयेण कोई परीसहपरद्धो । उब्भासेज्ज व उक्कावेज्ज व भिंदेज्ज आउरो पदिण्णं ।। १५०५ || 'चेदंतो पि' चेतयमानोऽपि कर्मोदयेन कश्चित्परीषहपराजितो यत्किञ्चिद्वदेत् आरटेत्, भिन्द्याद्वा स्वां प्रत्याख्यानप्रतिज्ञां ॥१५०५॥ गा० - यदि आचार्य उस चलायमान चित्तवाले क्षपकको इस प्रकारसे स्मरण नहीं करावे तो समझना चाहिये उस निर्दयीने उस क्षपकको त्याग दिया है || १५०२ ॥ गा०-- इस प्रकार स्मरण दिलाने पर कोई-कोई क्षपक चारित्र मोह अथवा असातावेदनीय का उपशम होने से योग्य अयोग्यके विचारविषयक स्मृतिको प्राप्त होते हैं कि अकालमें खाने पीने की इच्छा करना मेरे लिये योग्य नहीं है । जो मैं त्याग कर चुका उसे कालमें भी कैसे ग्रहण करू ? आदि । किन्तु कोई नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण कर्मकी उदीरणा होनेपर स्मृति प्राप्त नहीं करते || १५०३ || गा० - स्मृतिको जो प्राप्त नहीं होता, उसके प्रति भी आचार्यको निरन्तर प्रतिकार करते रहना चाहिये । तथा उसके अनुकूल उपदेश भी करते रहना चाहिये || १५०४ || गा० - कोई क्षपक चेतनाको प्राप्त करके भी कर्मके उदयसे परीषहोंसे हारकर यदि अयोग्य बचन बोले, या रुदन करे या अपनी व्रत प्रतिज्ञाको भंग करे तो भी उसके प्रति कटुक वचन १. विप्पलक्खस्स ( स्खलितचित्तवृत्तेः) । - मूलारा० । Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ण हु सो कडुवं फरुसं व भणिदव्यो ण खीसिदव्वो य । ण य वित्तासेदव्वो ण य वट्टदि हीलणं कादु ॥१५०६॥ - 'ण हु सो कडुगं' स एवं कुर्वन्क्षपकः न कर्तव्यः कटुकं परुष वा, न भर्त्सनीयं, न च त्रासं नेतन्यः, न च युक्तः परिभवः कर्तुं तस्य ॥१५०६॥ परुषवचनादिभिः को दोषो जायते इत्यत्रोच्यते फरुसवयणादिगेहिं दु माणी 'विप्फुरिओ तओ संतो। उद्धाणमवक्कमणं कुज्जा असमाधिकरणं वा ॥१५०७।। 'परुषवचणादिहि' परुषवचनादिभिर्मानी विराधितः सन् ॥१५०७।। तस्स पदिण्णामेरं भित्तुं इच्छंतयस्स णिज्जवओ। सव्वायरेण कवयं परीसहणिवारणं कुज्जा ॥१५०८॥ 'तस्स पदिण्णामेरं' तस्य स्वप्रतिज्ञाव्यवस्थां भेत्तुं वाञ्छतो निर्यापकः सूरिः कवचं कुर्यात् परीषहनिवारणक्षमं ॥१५०८॥ णिद्धं मधुरं पल्हादणिज्ज हिदयंगमं अतुरिदं वा । तो सीहावेदव्वो सो खवओ पण्णवंतेण ॥१५०९॥ 'णिद्धं' स्नेहसहितं, 'मधुरं' श्रोत्रप्रियं, हृदयसुखविधायि, हृदयप्रवेशि, · अत्वरितं असो शिक्षयितव्यः क्षपकः प्रज्ञापयता ॥१५०९॥ रोगादंके सुविहिद विउलं वा वेदणं धिदिवलेण । तमदीणमसंमूढो जिण पच्चूहे चरित्तस्स ॥१५१०॥ बोलना उचित नहीं है, न उसका तिरस्कार करना चाहिये, न उसका हास्य करना चाहिये, न उसे त्रास देना चाहिये और न उसका अनादर करना चाहिये ।।१५०५-१५०६॥ उसके प्रति कठोर वचन बोलने आदिसे क्या हानि होती है यह कहते हैं गा०-कठोर वचन आदिसे भड़ककर वह अभिमानी क्षपक संयमसे च्युत हो सकता है या दुर्ध्यानमें लग सकता है अथवा सम्यक्त्वको त्याग सकता है ॥१५०७॥ गा०-यदि वह अपनी प्रतिज्ञारूपी मर्यादाको तोड़ना चाहे तो निर्यापकाचार्य उसकी रक्षाके लिये ऐसा कवच आदरपूर्वक करे जो परीषहोंका निवारण कर सके ।।१५०८|| . गा०-आचार्यको स्नेहसहित, कानोंको प्रिय, हृदयमें सुख देनेवाले तथा हृदयमें प्रवेश करने वाले वचनोंसे क्षपकको धीरे-धीरे सम्बोधना चाहिये ।।१५०९॥ गा-हे सुन्दर आचार वाले ! तुम दीनता और मूढताको त्यागकर चारित्रमें बाधा डालनेवाली छोटी या बड़ी व्याधियोंको, महती वेदनाको धैर्यरूपी बलसे जीतो । राग और कोपका १. विप्फुरिसिदो-विराधितः -मुलारा० । Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० भगवती आराधना रोगातङ्के महतोऽल्पांश्च व्याधीन् । विपुलां वा वेदनां धृतिबलेन जय त्वमदीनोऽमूढश्च प्रत्यूहान् चारित्रस्य । वीतरागकोपतादि चारित्रं । तद्व्याधिप्रतीकारार्थेषु वस्तुषु आदरवतो व्याधिषु वेदनासु च द्वेषवतो नश्यति । ततश्चारित्रविघ्नास्त्वया जेतव्या इति भावः ॥१५१०॥ सव्वे वि य उवसग्गे परिसहे य तिविहेण णिज्जिणहि तुमं । णिज्जिणिय सम्ममेदे होहिसु आराहओ मरणे ॥१५११।। 'सव्वे वि य उवसग्गे' सवाश्चोपसर्गान् परीषहांश्च मनोवाक्कायर्जय । उपसर्गपरीषहजयदुःखाभीरुता मनसा जयः । भीतोऽयमिति दयया न दुःखानि हरन्ति । सन्निहितद्रव्यादिसहकारिकारणमसद द्यमुदयागतं अनिवार्यवीयं बलं प्रयच्छत्येवेति धृतिबलेन भावना मनसा जयः । श्रान्तोऽस्मि वेदनादुःसहात्मतां पश्यत मदीयामिमां अतिकष्टामवस्थां । दग्धोऽस्मि ताडितोऽस्मि इत्येवमादिदीनवचनानुच्चारणं । असकृदनुभूतार्थाः परीषहाः क्षुदादयः, उपसर्गाश्च पूर्व । पूत्कुर्वन्तमपि नामी मश्चन्ति । केवलं धतिरहितोऽयं वराको रारटीति निन्द्यते । न सन्मार्गात्प्रच्यावयितुं इमे क्षमा इति उदारवचनता वचनेन जयः । अदीनेक्षणमुखरागवत्ता अचलता च कायेन जयः । 'णिज्जिणिय सम्ममेदे' निजित्यवं सम्यगेतानपसर्गपरीषहान्मरणे मृतिकाले । आराधओ होहिसि' रत्नत्रयपरिणतो भविष्यसि । उपसर्गपरीषहव्याकुलितचेतसो नैवाराधकता ॥१५११।। संभर सुविहिय जं ते मज्झम्मि चदुविधस्स संघस्स । बूढा महापदिण्णा अहयं आराहइस्सामि ॥१५१२॥ 'संभर' स्मृति निधेहि । 'सुविहिद' सुचारित्र । किं स्मरामि इति चेत् 'त' तां प्रतिज्ञां यां कृतवानसि । त्याग ही चरित्र है। व्याधिको दूर करनेके उपायोंमें आदर करनेवाले तथा व्याधि और वेदनासे द्वेष करनेवालेका चारित्र नष्ट होता है। अतः तुम्हें चारित्रके विघ्नोंको जीतना चाहिये ।।१५१०।। गा०-दी. हे क्षपक ! तुम सब उपसर्गों और परीषहोंको मन वचन कायसे जीतो। उपसर्ग और परीषहोंके जीतने में जो दुःख होता है उससे न डरना मनसे जीतना है । यह डरपोक है अतः दया करके उपसर्ग परीषह उसे दुःख नहीं देंगे ऐसी बात नहीं है। द्रव्यादि सहकारी कारणोंके रहने पर असातावेदनीय कर्म उदयमें आता है और उसकी शक्तिको रोकना शक्य नहीं होता तब वह कष्ट देता ही है। धैर्यरूपी बलपूर्वक ऐसी भावना होना मनसे जीतना है । मैं थक गया हूँ, मेरी इस अतिकष्टकर और दुःसह वेदना रूप अवस्थाको देखो, मैं दुःखमें जल रहा हूं, कष्ट ने मुझे मार डाला इत्यादि दीन वचनोंका उच्चारण न करना । मैंने पूर्व में अनेक बार भूख आदि परीषहों और उपसर्गोको सहा है। चिल्लाने पर भी ये छोड़ते नहीं हैं। केवल यह बेचारा धैर्य खोकर रोता है ऐसी निन्दा करते हैं। ये मुझे सन्मार्गसे डिगानेमें समर्थ नहीं हैं। इस प्रकारके उदार वचन बोलना वचनसे जीतना है। आखोंमें और मुखपर दीनताका भाव न होना, मुखपर प्रसन्नताका रहना, विचलित न होना कायसे जीतना हैं। इस प्रकार इन परीषहों और उपसर्गोंको सम्यक् रूपसे जीतनेपर मरते समय तुम रत्नत्रयरूपसे परिणत हो सकोगे। जिसका चित्त उपसर्ग और परीषहसे व्याकुल रहता है वह आराधक नहीं हो सकता ॥१५११।। गा०-हे सुचारित्रसे सम्पन्न क्षपक ! तुमने चतुर्विध संघके मध्यमें जो महती प्रतिज्ञा की थी कि मैं आराधना करूँगा उसे स्मरण करो ॥१५१२।। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदय टीका ७०१ 'मज्झम्मि' मध्ये | कस्य ? 'चदुव्विधस्स' चतुर्विधस्य संघस्य । 'वूढा' धृता । 'महापदिण्णा' महती प्रतिज्ञा । 'अह' अहं 'आराघइस्सामि' आराधयिष्यामि इति ॥ १५१२।। को नाम भडो कुलजो माणो थोलाइदूण जणमज्झे । जुझे पलाइ आवडदमेत्ताओ चैव अरिभीदो || १५१३॥ 'को नाम भडो' कः पलायते युद्धे भटः शूरः । 'कुलजो ' मानी । 'थोलाइदूण' भुजास्फालनं कृत्वा । जनमध्ये | एवं युद्धे शत्रुपराजयं करिष्यामीति उद्घष्य 'आवडिमेत्तओ' अभिमुखायातशत्रुरेव अरिभीतः । कः पलायनं करोति ॥ १५१३ ॥ दान्ति के योजयति--- थोलादूण पुव्वं माणी संतो परीसहादीहिं । आवडिदमित्तओं चेव को विसण्णो हवे साहू || १५१४ || 'थोलाइदूण पुवं' भुजास्फालनं कृत्वा पूर्व । 'परोसहादीहिं आवडिदमेत्तगो चेव' परीषहा रातिभिरभिमुखायात एव । ' को विसण्णो हवे साहू माणी संतों' को विषण्णो भवेत्साधुवर्गो मानी सन् ॥ १५१४॥ आवडिया पडिला पुरओ चेव कर्मति रणभूमिं । अविय मरिज्ज रणे ते ण य पसरमरीण वर्द्धति ।। १५१५ ।। 'आवडिदा पडिकूला' अभिमुखायाताः शत्रवः । पुरदो चैव क्कमंति रणभूमि' पुरस्तादेवोपसर्पन्ति रणभूमि । 'अवि य मरिज्ज रणे' यद्यपि रणे म्रियन्ते । 'ण य पसरमरीण वड्ढन्ति नैव प्रसरमरीणां वर्धयन्ति ।। १५१५ ॥ तह आवइपडि कूलदाए साहवो माणिणो सूरा । अइतिव्ववेयणाओं सहंति ण य विगडिमुवयंति ।। १५१६ ।। 'तह आवइपडिकूलदाए' तथा आपत्प्रतिकूलतया । 'साधवो' मानिनः शूराः । 'अदितिब्ववे दणाओ' अतीव तीव्र वेदनाः 'सहंति' सहन्ते । 'ण य विगडिमुवयंति' नैव विकृतिमुपयति ॥१५१६॥ गा०—कौन कुलीन स्वाभिमानी शूरवीर मनुष्योंके वीचमें अपनी भुजाओं को ठोककर 'मैं युद्ध में इस प्रकार शत्रुओंको हराऊंगा' ऐसी घोषणा करके सामने आये शत्रुसे ही डरकर भागना पसन्द करेगा ।। १५१३ ॥ गा० - उसी प्रकार पूर्व में भुजाओंको ठोककर कौन स्वाभिमानी साधु परीषह आदिके सन्मुख आते ही खेदखिन्न होगा || १५१४ || गा०-जिन सुभटोंके शत्रु उनके सन्मुख आते हैं वे सुभट शत्रुओंके आनेसे पूर्व ही युद्ध भूमिमें पहुँच जाते हैं। वे युद्ध में मर जायें भले ही किन्तु शत्रुओं का उत्साह नहीं बढ़ने देते ॥१५१५॥ गा० - उसी प्रकार स्वाभिमानी शूरवीर साधु आपत्तियोंकी प्रतिकूलता में अति तीव्र कष्ट भोगते हैं किन्तु विकारको प्राप्त नहीं होते । अर्थात् दुर्भाग्यवश उपसर्ग परीषहोंके उपस्थित होनेपर रत्नत्रयकी विराधना नहीं करते || १५१६।। Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०३ भगवती आराधना १थोलाइयस्स कुलजस्स माणिणो रणमुहे वरं मरणं । ण य लज्जणयं काउं जावज्जीवं सुजणमज्झे ।।१५१७।। थोलाइयस्स कृतभुजास्फालनस्य । 'माणिणो' मानिनः । 'रणमुहे वरं मरणं' युद्धमुखे मरणं शोभनं । 'ण य वरं' नैव शोभनं । 'लज्जणयं कादु जावज्जीवं च सुजणमझे' सुजनमध्ये यावज्जीवं निंदाकरणं ॥१५१७॥ समणस्स माणिणो संजदस्स णिहणगमणं पि होइ वरं । ण य लज्जणयं कादु कायरदादीणकिविणत्तं ॥१५१८।। 'समणस्स' समानस्य श्रवणस्य वा । 'माणिणो' मानिनः, 'संजवस्स' संयतस्य । “णिधणगमणं पि होदि वरं' निधनगमनमपि भवति वरं। 'ण य लज्जणगं काहूँ' नैव लज्जनीयकरणं शोभनं । कातरता न वरं। 'दीणकिविणतं' दीनत्वं कृपणत्वं च न वरं ॥१५१८॥ एयस्स अप्पणो को जीविदहेदु करिज्ज जंपणयं । पुत्तपउत्तादीणं रणे पलादो सुजणलंछं ॥१५१९।। 'एयस्स अप्पणो' एकस्यात्मनः । 'जीविदहेढुं' जीवितनिमित्तं । 'को करिज्ज जंपणगं' कः कुर्यादपवादं । 'पुत्तपउत्तादीणं' पुत्रपौत्रादीनां । 'रणे पलादो' रणात्पलायमानः । सुजणलंछं स्वजनलांछनं ॥१५१९॥ तह अप्पणो कुलस्स य संघस्स य मा हु जीवदत्थी तं । कुणसु जणे जंपणयं किविणं कुव्वं सुगणलंछं ।।१५२०॥ 'तह तथा । 'अप्पणो जीविदत्थं' भवतो जीवितार्थ । 'कुलस्स संघस्स य मा कुणसु जणे दूसणयं' कुलस्य संघस्य च दूषणं जने मा कार्षीः। 'किविणं कुन्वं' कृपणत्वं कुर्वन् । 'सुगणलंछं' स्वगणलांछनं ॥१५२०॥ गा०-भुजा स्फालन करनेवाले कुलीन अभिमानीके लिये युद्ध में सन्मुख मरना श्रेष्ठ है किन्तु सुजनोंके मध्यमें जीवनपर्यन्त लज्जा उठाना श्रेष्ठ नहीं है ॥१५१७।। , गा०-उसी प्रकार स्वाभिमानी संयमी श्रमणका मर जाना श्रेष्ठ है किन्तु लज्जाजनक कार्य करना श्रेष्ठ नहीं है, कातरता-विपत्तियोंसे घबराना, दीनता कृपणता-कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता आदि श्रेष्ठ नहीं है ।।१५१८॥ गा०-एक अपने जीवनके लिये युद्धभूमिसे भागकर कौन अपने पुत्र पौत्र आदिके लिये अपवादका कारण बनेगा और अपने परिवारको लांछन लगायेगा ॥१५१९|| गा०-उसी प्रकार हे क्षपक ! अपने जीवनके लिये परीषह आदि आनेपर अपनी निर्बलता का परिचय देते हुए अपने कुल और संघको लोकापवादका पात्र मत बनाओ और अपने गणपर लांछन मत लगाओ ।।१५२०।। १, २. थोवाइय-अ० आ० । ३. सुणगलंछं ललाटे कुकुरदाहसमान-मूलारा० । Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०३ विजयोदया टीका गाढप्पहारसंताविदा वि सूरा रणे अरिसमक्खं । ण मुहं मंजंति सयं मरंति 'भिउडीमुहा चेव ।।१५२१।। 'गाढप्पहारसंताविदा वि' गाढप्रहारसंतापिता अपि शूरा 'रणे' युद्धे । 'सगं मुहं अरिसमक्खं ण भंजंति' स्वमुखभङ्गं अरीणां पुरतो न कुर्वन्ति । 'मरंति' म्रियते । भिगुडीए सह चेव' भ्रकुटया सह चैव ॥१५२१॥ सुटठु वि आवइपत्ता ण कायरत्तं करिति सप्पुरिसा । कत्तो पुण दीणतं किविणत्तं वा वि काहिंति ।।१५२२।। 'सुठ्ठ वि आवइपत्ता' निरन्तरमापदं प्राप्ता अपि । 'सप्पुरिसा ण कायरत्तं करंति' सत्पुरुषा न कातरतां कुर्वन्ति । 'कत्तो पुण काहिति' कुतः पुनः करिष्यन्ति । 'दीणतं किविणत चावि' दीनतां कृपणतां च ॥१५२२॥ केई अग्गिमदिगदा समंतओ अग्गिणा वि उज्झंता । जलमज्झगदा व णरा अत्थंति अचंदणा चेव ।।१५२३॥ केई अत्थंति अचेदणा चेव' केचिदासते अचेतना इव । 'अग्गिमदिगदा' अग्नि प्रविष्टाः 'समंतदो अग्गिणा वि डझंता' समन्तात् अग्निना दह्यमाना अपि । 'जलमज्झगदा व नरा इव ॥१५२३।। तत्थ वि साहुक्कारं सगअंगुलिचालणेण कुव्वंति । केई करंति धीरा उक्किटिं अग्गिमज्झम्मि ॥१५२४।। 'तत्थ वि' तत्राप्यग्निमध्ये । 'साहुक्कारं सगअंगुलिचालणेण कुठवंति' साधुकारं स्वाङ्गलिचालनया कुर्वते । 'केई अग्गिमज्झगदा धीरा' केचिदग्निमध्यगता धीराः । 'उकिट्टि करंति' उत्कृष्ट उत्क्रोशनं कुर्वन्ति ॥१५२४॥ __ गा०-युद्ध में शूरवीर पुरुष जोरदार प्रहारसे पीड़ित होनेपर भी शत्रुके सामनेसे अपना मुख नहीं मोड़ते और मुखपर भौं टेढ़ी किये हुए ही मरते हैं ॥१५२१।। गा०-उसी प्रकार सत्पुरुष अत्यन्त आपत्ति आनेपर भी कातर नहीं होते। तब वे दीनता या कायरता क्यों दिखायेंगे ? ॥१५२२॥ - गा०-कितने ही सत्पुरुष आगमें प्रवेश करके सब ओरसे आगसे जलनेपर भी जलके मध्यमें प्रविष्ट हुए मनुष्यकी तरह अथवा अचेतनकी तरह रहते हैं ।।१५२३।। गा०-तथा आगके मध्यमें भी रहते हुए अपने अगुलि संचालनके द्वारा साधुकार करते हैं कि कितना अच्छा हुआ कि मेरे अशुभ कर्म क्षय हुए। कितने ही धीर वीर पुरुष आगके मध्यमें रहकर अपना आनन्द प्रकट करते हैं ॥१५२४॥ १. भिउडीए सह-मु० । २. नरा इव अचेतना इव-आ० मु० । Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ भगवती आराधना जदिदा तह अण्णाणी संसारपवडणाए लेस्साए । तिव्वाए वेदणार सुहसाउलया करिति घिदिं ।। १५२५ ।। 'जदिदा ' यदि तावत् । 'तह' तथा 'अण्णाणी धिदि करिति तथा अज्ञानिनो धृतिं कुर्वन्ति 'संसारपवड्ढणाए लेस्साए' संसारप्रवर्द्धनकारिण्या लेश्यया । तिव्वाए वेदणाए' तीव्रायां वेदनायां सत्यां । 'सुहसाउलगा' सुखास्वादन लम्पटाः ॥ १५२५ ॥ किं पुण जदिणा संसारसव्वदुक्खक्खयं करतेण । बहुतिव्वदुक्खरसजाणएण ण घिदी हवदि कुज्जा ।। १५२६ ॥ किं पुण जदिणा ण करिज्जा हवदि 'धिदि' किं पुनर्न कार्या भवति धृतिः यतिना । कीदृशा ? संसारसग्वदुक्खक्खयं संसारसर्वदुःखक्षयं कुर्वता । 'बहुतिव्वदुक्ख रसजाणगेण' बहूनां चतुर्गतिगतानां तीव्राणां दुःखानां रसं जानता ॥ १५२६ ॥ असिवे दुब्भक्खे वा कंतारे भएव आगाढे । रोगेहिं व अभिभूदा कुलजा माणं ण विजर्हति ।। १५२७ ।। 'असिवे माय । 'दुब्भिक्खे वा' दुर्भिक्षे वा । 'कंतारे' अटव्यां वा । गाढे भये च । उपर्युपरि निपतितभये वा । 'रोगेहि व अभिभूदा' व्याधिमिर्वा अभिभूताः । 'ण विजर्हति कुलजा माणं' न जहति कुलप्रसूता मानं ॥ १५२७॥ ण पियंति सुरं ण य खंति गोमयं ण य पलंडुमादीयं । णय कुव्वंति विकम्मं तहेव अण्णंवि लज्जणयं ॥ १५२८ || 'ण पिवंति सुरं' न पिबन्ति सुरां । 'ण शंति' न च भक्षयन्ति गोमांसं । 'ण य पलंडुमादीयं न पलाण्डु प्रभृतिकं भक्षयन्ति । 'ण य कुव्वंति विकम्मं' नैव कुत्सितं कर्म परोच्छिष्टभोजनादिकं कुर्वन्ति । 'तहेव अण्णंपि लज्ज यं' तथैव नान्यदपि लज्जनीयं कुर्वन्ति ॥ १५२८ ॥ गा० - यदि संसारको बढ़ानेवाली अशुभ लेश्यासे युक्त अज्ञानी पुरुष सांसारिक सुखकी लालसासे तीव्र वेदना होते हुए भी धैर्य धारण करते हैं || १५२५|| विशेषार्थ - आग में जलकर मरनेका कथन उन धर्मवालोंके लिये किया है जो आगमें जलकर मरनेमें धर्मं मानते हैं । गा०—तो जो क्षपक साधु संसारके सब दुःखों का क्षय करना चाहता है और चारों गतियोंके तीव्र दुःखों का स्वाद जानता है वह धैर्यं धारण क्यों न करेगा ॥। १५२६ ॥ गा०-- भारी रोग में, दुर्भिक्ष में, भयानक वनमें अत्यन्त प्रगाढ़ भयमें तथा रोगोंसे ग्रस्त भी कुलीन पुरुष स्वाभिमानको नहीं छोड़ते ॥१५२७॥ गा० - वे मदिरा पान नहीं करते । गोमांस नहीं खाते। लहसुन प्याज आदि नहीं खाते । दूसरेका जूठा खाना आदि बुरे काम नहीं करते। इसी प्रकार अन्य भी लज्जास्पद काम नहीं करते ||१५२८|| Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७०५ किं पुण कुलगणसंधस्स जसमाणिणो लोयपूजिदा साधू । माणं पि जहिय काहंति विकम्मं सुजणलज्जणयं ॥१५२९।। 'किं पुण साहू वि कम्मं काहिति' किं पुनः साधवः कुत्सितं कर्म करिष्यन्ति । 'कुलगणसंघस्स जसमाणिणो' 'कुलस्य गणस्य संघस्य च यशः संपादनाहंकारवन्तः । 'लोगपजिदा साध लोके कृतपूजाः । 'माणं विजहिय' मानं त्यक्त्वा 'सुजणलज्जणय' साधुजनेन विलज्जनीयं कर्म ॥१५२९॥ जो गच्छिज्ज विसादं महल्लमप्पं व आवदिं पत्तो। तं पुरिसकादरं विंति धीरपुरिसा हु संङत्ति ।।१५३०॥ 'जो गच्छिज्ज विसाद' यो गच्छेद्विषादं । 'महल्लं अप्पं व आवई पत्तो' महतीं अल्पां वा आपदं प्राप्तः । 'तं पुरिसकातरं' पुरुषेषु कातरं । 'धोरपुरिसा संदुत्ति विति' धीराः सुपुरुषाः षण्ढ इति ब्रुवन्ति ।।१५३०॥ मेरुव्व णिप्पकंपा अक्खोभा सागरुव्व गंभीरा । धिदिवंतो सप्पुरिसा हुति महल्लावईए वि ॥१५३१॥ 'मेरुव्व णिप्पकंपा' मेरुरिव निश्चलाः । 'अक्खोभा' अकम्पाः । 'सागरोव्व' सागर इव 'घिदिवंतों सप्पुरिसा' धृतिमन्तः संतोषवंतः सत्पुरुषाः । 'महल्लावईए वि' महत्यामापदि ॥१५३१॥ केई विमुत्तसंगा आदारोविदभरा अपंडिकम्मा । . गिरिपब्भारमभिगदा बहुसावदसंकडं भीमं ॥१५३२॥ 'केई उत्तमटुं साधेति' इति वक्ष्यमाणेन संबन्धः । केचिदुत्तमं वस्तु रत्नत्रयं साधयन्ति । कीदृग्मूताः ? 'विमुत्तसंगा' निष्परिग्रहाः । 'आदारोविदभरा' आत्पारोपितभराः । 'अपडिकम्मा' निष्प्रतीकारा। 'गिरिपन्भारमभिगदा' गिरिप्राग्भारमभिगताः । कीदृशं ? 'बहुसावदसंकडं' बहुव्यालमृगाकुलं । 'भीम' भयावहं ॥१५३२॥ धिदिधणियबद्धकच्छा अणुत्तरविहारिणो सुदसहाया। साहिति उत्तमटुं सावददाढंतरगदा वि ॥१५३३॥ गा०-तब कुल गण और संघके यश सम्पादनका अहंकार करनेवाले लोकपूजित साधु स्वाभिमान त्यागकर साधुजनके लिये लज्जाके योग्य बुरा कर्म करेंगे क्या ? कभी नहीं करेंगे ॥१५२९॥ गा-जो छोटी या बड़ी विपत्ति आने पर खिन्न होता है उस कायर पुरुषको धीर पुरुष नपुंसक कहते हैं ।।१५३०॥ ___गा०-सज्जन पुरुष महती विपत्तिमें भी सुमेरुकी तरह अकम्प, सागरकी तरह गम्भीर और धैर्यशील रहते हैं ॥१५३१॥ गा०-कितने ही साधु समस्त परिग्रहको त्यागकर, अपने आत्मामें आत्माको आरोपित करके, प्रतीकार रहित होकर, बहुतसे व्याघ्र आदि हिंस्र जन्तुओंसे भरे भयंकर पर्वतोंके शिखरोंपर Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ भगवती आराधना घिदिधणियबद्धकच्छा धृत्या नितरां बद्धकक्ष्याः । 'अणुत्तरविहारिणो प्रकृष्टचारित्राः । 'सुदसहायाः' श्रुतज्ञानसहायाः । 'साधिति उत्तमट्ठ' साधयन्त्युत्तमार्थ रत्नत्रयं । 'सावददाढंतरगदा वि' श्वापददंष्ट्रामध्यगता अपि ॥१५३३॥ भल्लक्किए तिरत्तं खज्जंतो घोरवेदण'ट्टो वि । आराधणं पवण्णो ज्झाणेणावंतिसुकुमालो ॥१५३४॥ 'भल्लक्किए तिरत्तं खुज्जतो' शृगालेन तिसृषु रात्रिषु भक्ष्यमाणः । 'घोरवेदणट्टो वि' घोरवेदनाबाधितोऽपि । 'आराधणं पवण्णो ज्झाणेण' शुभघ्यानेनाराधनां प्रपन्नः । कः ? 'अवंतिसुकुमालो' अवंतिसुकुमारः ॥१५३४॥ पोग्गिलगिरिम्मि य सुकोसलो वि सिद्धत्थदइय भयवंतो। वग्घीए वि खज्जंतो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५३५॥ उपुद्गलगिरी सुकोशलोऽपि सिद्धार्थस्य पुत्रो भगवान् व्याघ्न्या जननीचर्या भक्षितः सन् प्रतिपन्नः उत्तमार्थम् ॥१५३५॥ भूमीए समं कीला कोडि ददेहो वि अल्लचम्मं व । भयवं पि गयकुमारो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५३६॥ "भूमीए समं भूमौ समं । 'कोलाकोडिददेहो' कीलोत्कृतदेहः । 'अल्लचम्मं व' आर्द्रचर्मवत् । 'भयवं पि' भगवान् गजकुमारोऽपि । उत्तमार्थ प्रतिपन्न ॥१५३६॥ . कच्छुजरखाससोसो भत्तेच्छअच्छिकुच्छिदुक्खाणि । अघियासयाणि सम्म सणक्कुमारेण वाससयं ॥१५३७।। जाकर दृढ़ धैर्यको अपनाकर, उत्कृष्ट चारित्रपूर्वक श्रुतज्ञानकी सहायतासे सिंहादिके मुँहमें जाकर भी उत्तमार्थ रत्नत्रयकी साधना करते हैं ॥१५३२-३३।। । गा०-अवन्ती अर्थात् उज्जैनी नगरीमें सुकुमार मुनि तीन रात तक शृगालीके द्वारा खाये जानेपर घोर वेदनासे पीड़ित होते हुए भी शुभध्यानके द्वारा रत्नत्रयकी आराधनाको प्राप्त हुए ॥१५३४॥ __गा०-पुद्गल या मुद्गल नामक पर्वतपर सिद्धार्थ राजाके प्रिय पुत्र भगवान् सुकौशल मुनि अपनी पूर्व जन्मकी माता व्याघ्रीके द्वारा खाये जानेपर उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५३५।। गा०—पृथ्वीके साथ गीले चमड़ेकी तरह शरीरमें कीलें ठोककर एकमेक कर देनेपर भी भगवान् गजकुमार मुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५३६।।। गा-सनत्कुमार मुनि ने सौ वर्षों तक खाज, ज्वर, खांसी, सूखापन, तीव्र उदराग्नि, नेत्रपीड़ा, उदरपीड़ा आदिके दुःख बिना संक्लेशके धैर्यपूर्वक सहन किये ॥१५३७।। १. गंगोवि अ० आ० । २-३, मोग्गिल-मु०, मूलारा० । ४. कीलाहोडिद-अ० । Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'कच्छजरखाससोसो' कच्छूज्वरका सशोषाः । ' भत्तेच्छ अच्छिकुच्छिदुक्खाणि' तीव्रो जठराग्निः अक्षिदुःखं । कुक्षिदुःखं च । 'अधियासयाणि' असंक्लेशेन धृतानि 'सणक्कुमारेण' सनत्कुमारेण । 'वाससद' वर्षशतं ॥ १५३७॥ नावाए णिव्वुडाए गंगामज्झे अमुज्झमाणमदी । आराधणं पवण्णो कालगओ एणियापुत्तो ॥ १५३८।। 'णावाए जिम्बुडाए' नावि निमग्नायां च । 'गंगामज्झे' गंगाया मध्ये । मानमतिः । 'आराधणं पवण्णो' आराधनां प्रतिपन्नः सन् । 'कालगओ' कालं गतः नामधेयो यतिः ॥ १५३८ ॥ ओमोदरि घोराए भद्दबाहू असंकिलिट्ठमदी | घोराए 'विगिंच्छाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं 'ओमोदरिए घोराए' घोरेणावमोदर्येण तपसा समन्वितः । क्लिष्टचित्तः । 'घोराए विगिच्छाए' घोरया क्षुधा बाधितोऽपि । उत्तमार्थं । १५३९॥ ।। १५३९ ।। 'अमुज्झमाणमदी' अमुह्य'एणियापुत्तों' एणिकपुत्र 'भद्दबाहू असं किलिट्ठमदी' भद्रबाहुरसं'पडिवण्णो उत्तमं ठाणं' प्रतिपन्न 'कोसंबीललियघडा बूढा इपूरएण जलमज्झे । आराधणं पवण्णा पावोवगदा अमूढमदी || १५४०॥ चंपाए मासखमणं करित्तु गंगातडम्मि तहाए । घोरा धम्मघोसो पडिवण्णो उत्तमं ठाणं ॥१५४१ ॥ ७०७ 'चंपाए' चम्पानगर्यां । 'मासखवणं करितु' मासोपवासं कृत्वा । 'गंगातडम्मि' गंगायास्तटे । 'तन्हाए घोरा' तृष्णया तीव्रया बाधितोऽपि । 'धम्मघोसो' धर्मघोषः । उत्तमार्थं प्रतिपन्नः । १५४०- १५४१॥ गा०— गंगाके मध्यमें नाव डूबनेपर एणिक पुत्र नामके मुनि मोहरहित होकर मरणको प्राप्त हुए और आराधनाके धारक हुए || १५३८॥ गio - घोर अवमोदर्य तपके धारी भद्रबाहु मुनि घोर भूखसे पीड़ित होनेपर भी संक्लेश रूप परिणाम न करके उत्तमार्थको प्राप्त हुए || १५३९ ॥ गा० - कौशाम्बी नगरीमें सुखपूर्वक पाले गये इन्द्रदत्त आदि बत्तीस श्रेष्ठ पुत्र जलके मध्यमें यमुना नदी प्रवाहके द्वारा प्रायोपगमन संन्यास पूर्वक मरणको प्राप्त हुए । उन्होंने मोह रहित होकर आराधनाको प्राप्त किया । । १५४०।। १- २. तिगिच्छाए मु० मूलारा० । ३. एतां टीकाकारो नेच्छति । ८९ गा० - चम्पा नगरी में एक मासका उपवास करते हुए धर्मघोष नामक मुनि गंगाके तटपर तीव्र प्यास से पीड़ित होकर उत्तमार्थको प्राप्त हुए ।। १५४१ || Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ भगवती आराधना सीदेण पुन्ववइरियदेवेण विकुन्विएण घोरेण । संतत्तो सिरिदत्तो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५४२।। 'सोदेण' शीतेन । 'संतत्तो' संतप्तः । 'पुव्ववहरियदेवेण विकुब्धिएण' पूर्वजन्मशत्रुणा देवेनोत्पादितेन 'सिरिदत्तः' श्रीदत्तः । उत्तमार्थमुपगतः ॥१५४२॥ उण्हं वादं उण्ड सिलादलं आदवं च अदिउण्डं । सहिदूण उसहसेणो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५४३॥ 'उण्हं वादं' उष्णं वातं, 'उण्हं सिलादलं' उष्णं शिलातलं । 'आदवं च अदिउण्हं' आतापं चात्युष्णं 'सहिदण' प्रसह्य वृषभसेन उत्तमार्थ प्रतिपन्नः ।।१५४३॥ रोहेडयम्मि सत्तीए हओ कोंचेण अग्गिदइदो वि । तं वेयणमधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५४४॥ 'रोहेडयम्मि' रोहेडगे नगरे । 'सत्तीए हओं शक्त्या हतः । 'कोंचेण' क्रोंचनामधेयेन। 'अग्गिदइदो वि' अग्निराजसुतोऽपि । 'तं वेदणमधियासिय' तां वेदना प्रसह्य । उत्तमार्थ प्रतिपन्नः ॥१५४४।। काइंदि अभयघोसो वि चंडवेगेण छिण्णसन्वंगो । तं वेयणमधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५४५।। 'काईदि अभयघोसो वि' काकन्यां नगर्या अभयघोषोऽपि । 'चंडवेगेण छिण्णसव्वंगो' चंडवेगेन छिन्नसागः ॥१५४५।। दंसेहिं य मसएहिं य खज्जंतो वेदणं परं घोरं । विज्जुच्चरोऽघियासिय पडिवण्णो उत्तमं अटुं ।।१५४६॥ 'दंसेहिं य' शर्मशकश्च भक्ष्यमाणः विद्युच्चरस्तां वेदनां अवगणय्य आराधनां प्रपन्नः ।। १५४६॥ गा०-पूर्वभवके बैरी देवके द्वारा विक्रिया पूर्वक किये गये शीत से पीड़ित होकर श्रीदत्त मुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए ।।१५४२।। गा०-गर्म वायु, गर्म शिलातल और अत्यन्त गर्म आतापको सहन करके वृषभसेन उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५४३॥ गा०-रोहतक नगरमें क्रोंच नामक राजाके द्वारा शक्ति नामक शस्त्र विशेषसे मारा गया अग्नि राजाका पुत्र उसकी वेदनाको सहकर उत्तमार्थको प्राप्त हुआ ॥१५४४|| गा०-काकन्दी नगरीमें चण्डवेगके द्वारा सब अंगोंके छेद डालनेपर अभयघोष मुनि उसकी वेदनाको सहकर उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५४५॥ गा०-डांस मच्छरोंके द्वारा खाये जानेपर विद्युच्चर मुनि अत्यन्त घोर वेदनाको सहन करके उत्तमार्थको प्राप्त हुए ।।१५४६॥ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७०९ हत्थिणपुरगुरुदत्तो संबलिथाली व दोणिमंतम्मि उज्झंतो अधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अटुं॥१५४७॥ 'हत्यिणपुरगुरुदत्तो' हास्तिनापुरवास्तव्यो गुरुदत्तः । 'संबलियालीव' हरितसंकोश निरामाख [?]. पूर्णभाजनं अर्कपत्रपिहितमिदं मुखं अधोमुखं संस्थाप्य उपरिभाजनस्य अग्निप्रक्षेपः संबलीत्युच्यते । तद्वच्छिरसि निक्षिप्ताग्निः । 'दोणिमंतम्मि' द्रोणीमत्पर्वते दह्यमानः प्रपन्नः उत्तमायं ॥१५४७।। गाढप्पहारविद्धो पूइंगलियाहिं चालणीव कदो। तध वि य चिलादपुत्तो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५४८।। 'गाढप्पहारविद्धो' नितरामायुधैर्विद्धः । 'पूइंगलियाहिं' कृष्णः स्थूलोत्तमाङ्गः पिपीलिकाभिः । 'चालणीव कदो' चालनीव कृतश्चिलातपुत्रस्तथाप्युत्तमार्थमुपगतः ॥१५४८॥ दंडो जउणावंकेण तिक्खकंडेहिं पूरिदंगो वि । तं वेयणमधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अटुं ।।१५४९।। 'दंडो' दंडनामको यतिः । 'जमुणावंकेण' यमुनावकसंज्ञितेन । “तिक्खकंडेहि' तीक्ष्णः शरैः 'पूरितांगोऽपि' रत्नत्रयं समाराधयति स्म ।।१५४९॥ अभिणंदणादिया पंचसया गयरम्मि कुंभकारकडे । आराधणं पवण्णा पीलिज्जंता वि यंतेण ॥१५५०॥ 'अभिणंदणादिगा' अभिनन्दनप्रभृतयः पञ्चशतसंख्याः, कुम्भकारकटे नगरे यंत्रेण पीड्यमाना अप्याराधनां प्राप्ताः ॥१५५०॥ गा०–हस्तिनापुर नगरके वासी गुरुदत्त मुनि द्रोणगिरि पर्वतपर संबलिथालीकी तरह जलते हुए उसकी वेदनाको सहकर उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५४७।। विशेषार्थ-एक पात्रमें उड़दकी फलिया भरकर उसे आकके पत्रोंसे ढांककर, उस पात्रका मुख नीचेको करके चारों ओर आगसे घेर देनेपर संबलिथाली कहते हैं। द्रोणगिरि पर्वतपर गुरुदत्त मुनिके सिरपर आग जला दी गई थी। बृ० क० कोषमें १३९ नम्बर पर इनकी कथा विस्तारसे दी है। गा०-चिलातपुत्र नामक मुनिका शरीर काली चीटियोंके तीव्र डंक प्रहारसे चलनीकी तरह बींध दिया गया था। फिर भी उन्होंने उत्तमार्थको प्राप्त किया ॥१५४८॥ गा०-दण्ड नामक मुनिके शरीरको यमुनावक्र नामके राजाने तीक्ष्ण बाणोंसे छेदकर भर दिया था। फिर भी वे उसकी वेदनाको सहन करके उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५४९।। विशेषार्थ-बृ० क० कोषमें मुनिका नाम धान्यकुमार दिया है उनकी कथाका क्रमांक १४१ है। गा०—कुम्भकारकट नामक नगरमें अभिनन्दन आदि पांच सौ मुनि कोल्हूमें पेल दिये जानेपर भी आराधनाको प्राप्त हुए ॥१५५०।। Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० भगवती आराधना 'गोडे पाओवगदो सुबंधुणा गोच्चरे पलिवदम्मि । उज्झंतो चाणको पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५५१।। वसदीए पलविदाए रिट्ठामच्चेण उसहसेणो वि । अराधणं पवण्णो सह परिसाए कुणालम्मि ।।१५५२॥ 'धसदीए पलविदाए' वसती दग्धायां । रिट्ठामच्चनामधेयेन वृषभसेनः सह मुनिपरिषदा प्रतिपन्न आराधनाम् ॥१५५१-१५५२।। जदिदा एवं एदे अणगारा तिव्ववेदणट्टा वि । एयागी अपडियम्मा पडिवण्णा उत्तमं अटुं ॥१५५३।। 'जदिदा' एवं यदि एदे तावदेवमेते 'अणगारा' यतयस्तीव्रवेदनापीडिता अपि एकाकिनोऽप्रतीकारा उत्तमार्थ प्रतिपन्नाः ॥१५५३॥ किं पुण अणयारसहायगेण कीरयंत पडिकम्मो । संघे ओलग्गंते आराधेदु ण सक्केज्ज ॥१५५४॥ "कि पुण अणगारसहायगेण' किं पुनर्न शक्यते आराधयितुं अनगारसहायेन भवता क्रियमाणे प्रतिकारे संघे चोपासनां कुर्वति सति ।।१५५४॥ जिणवयणममिदभूदं महुरं कण्णाहुदिं सुणंतेण । सक्का हु संघमज्जे साहेदु उत्तमं अटुं ।।१५५५।। 'जिणवयण' जिनानां वचनं । अमृतभूतं, मधुरं कर्णाहुति शृण्वता त्वया संघमध्ये शक्यमाराधयितुं ॥१५५५।। गा०-चाणक्य मुनि गोकुलमें प्रायोपगमन संन्यासमें स्थित थे। सुबन्धु नामक मंत्रीने कण्डोंके ढेरमें आग लगा दी। उसमें जलकर चाणक्य मुनि उत्तम अर्थको प्राप्त हुए ॥१५५१।। गा०---कुणालपुरीमें रिष्ट नामक मंत्रीके द्वारा वसतिकामें आग लगानेपर वृषभसेन मुनि अपने शिष्य परिवारके साथ आराधनाको प्राप्त हुए ।।१५५२॥ गा०-इस प्रकार यदि ये मुनि अकेले प्रतीकार किये बिना तीव्र वेदनासे पीड़ित होकर उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५५३।। गा०–तो तुम्हारी सहायताके लिये तो मुनि समुदाय है वह तुम्हारे कष्टका इलाज करता है, तुम्हारे साथ उपासना करता है तब तुम आराधना क्यों नहीं कर सकते ॥१५५४|| गा०-अमृतके समान मधुर जिन-वचन तुम्हारे कानोंमें जाता है। उसे सुनते हुए संघके मध्यमें तुम्हारे लिये आराधना करना सरल है ॥१५५५।। १. एतां टीकाकारो नेच्छति । २. कीरंतयम्मि पडिकम्मे -आ० म०। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७११ विजयोदया टीका णिरयतिरिक्खगदीसु य माणुसदेवत्तणे य संतेण । जं पत्तं इह दुक्खं तं अणुचिंतेहि तच्चित्तो ।।१५५६।। 'णिरयतिरिक्खगदीसु य' नरकतिर्यग्गतिषु च । 'माणुसदेवत्तणे य संतेण' मानुषत्वदेवत्वयोश्च सता यत्प्राप्तं इह सुखानन्तरं दुःखं 'तं अणुचितेहि' तद्गतचित्तस्तदनुचिन्तय ।।१५५६॥ णिरएसु वेदणाओ अणोवमाओ असादबहुलाओ। कायणि मित्तं पत्तो अणंतखुत्तो व बहुविधाओ ॥१५५७॥ 'णिरएसु' नरकेषु । 'वेदणाओ' वेदनाः । 'अणोवमाओ' अनुपमाः । तादृश्या वेदनाया जगत्यन्यस्या अभावात् । 'असादबहुलाओं' असद्वेद्यकर्मबहुलाः । कारणबहुलत्वेन कार्यानुपरतिराख्याता । 'कायणिमित्तं पत्तो' शरीरनिमित्तासंयमाजितकर्मनिमित्तत्वान्मलकारणं निर्दिष्टं कायनिमित्तमिति । 'अणंतसो''अणंतवारं। 'तं' भवान् ‘बहुविधाओ' बहुविधाः ॥१५५७॥ । उष्णनरकेषु उष्णमहत्तासूचनार्थोत्तरा गाथा जदि कोइ मेरुमत्तं लो हुण्डं पक्खिविज्ज णिरयम्मि । उण्हे भूमिमपत्तो णिमिसेण विलिज्ज सो तत्थ ॥१५५८॥ "णिरयम्मि उण्हं लोहुण्डं मेरुमत्तं जदि कोइ पक्खिवेज्ज' उष्णनरके लोहपिण्डं मेरुसमानं यदि कश्चिद्देवो दानवो वा प्रक्षिपेत् । 'सो तत्थ भूमिमपत्तो चैव विलिज्ज' ३ लोहपिण्डो भूमिमप्राप्त एव द्रवतामुपयाति । 'उण्हेण' उष्णेन नरकबिलानां ॥१५५८॥ गा०-नरकगति, तिर्यञ्चगतिमें और मनुष्य पर्याय तथा देवपर्यायमें रहते हुए तुमने जो दुःख सुख भोगा, उसमें मन लगाकर उसका विचार करो ॥१५५६।। ___ गा०-टी०-इस शरीरके निमित्त किये गये असंयमसे उपार्जित कर्मके निमित्तसे तुमने नरकोंमें अनन्तवार नाना प्रकारकी तीव्र वेदना असातावेदनीय कर्मके तीव्र उदयमें भोगी हैं। इस प्रकारकी वेदना जगत्में दूसरी नहीं है। उसका मूल कारण यह शरीर है। उसीके निमित्तसे होनेवाले असंयमके कारण असातावेदनीयका तीव्रबन्ध होकर वह नरक में प्रचुरतासे उदयमें आता रहता है। अतः कारणकी बहुलता होनेसे वेदना रूप कार्य निरन्तर हुआ करता है ।।१५५७॥ आगेकी गाथासे उष्ण नरकोंमें उष्णताको महत्ता बतलाते हैं गा. यदि कोई देव या दानव मेरुके समान लोहेके पिण्डको उष्ण नरकमें फेंके तो वह लोहपिण्ड वहाँकी भूमिको प्राप्त होनेसे ही पहले मार्गमें ही नरकविलोंकी उष्णतासे पिघल जाये ॥१५५८॥ १-२. लोहपिण्डं आ० । ३. विलाइज्ज -अ० आ० । Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ भगवती आराधना तह चेव य तदेहो पज्जलिदो सीयणिरयपक्खित्तो । सीदे भूमिमपत्तो णिमिसेण सढिज्ज लोहुण्डं ॥१५५९।। 'तह चेव' तथैव । 'तबेहो' मेरुमात्रदेहः । 'लोहुंडो' लोहपिण्डः । 'पज्जलिदो' प्रज्वलितः । 'सीदणिरयम्मि' शीतनरके । 'पक्खित्तो' प्रक्षिप्तो भूमिमप्राप्त एव । 'सोदेण सडिज्ज शीतेन विशीर्यते ॥१५५९।। शीतोष्णजनितवेदनातिशयमुद्दिश्य शारीरवेदनामाचष्टे होदि य णरये तिव्वा सभावदो चेव वेदणा देहे । चुण्णीकदस्स वा मुच्छिदस्स खारेण सित्तस्स ॥१५६०॥ 'होदि य गरये तिव्वा' भवति च नरके तीव्र वेदनाः । 'देहे' शरीरे । 'सभावदो चेव' स्वभावत एव । 'चुण्णीकदस्सेव' चूर्णीकृतस्येव । 'खारेण सित्तस्स' क्षारेण सिक्तस्य । 'अमुच्छिदस्स' अमूर्छितस्य । यादृशी वेदना तादृश्येव शरीरे वेदनेति यावत् ॥१५६०॥ णिरयकडयम्मि पत्तो जं दुक्खं लोहकंटएहिं तुमं । णेरइहिं य' तत्तो पडिओ जं पाविओ दुक्खं ॥१५६१।। 'णिरयकडयम्मि' नरकविलसमूहे-नरकस्कन्धावारे इति केचिद्वदन्ति । अन्ये तु निरयगत इति । 'पत्तो जं दुक्खां' यदुःखं प्राप्तः । 'लोहकंटहि' निशिततरलोहकण्टकैः तुद्यमानस्त्वं ॥१५६१॥ जं कूडसामलीए दुक्खं पत्तोसि जं च मूलम्मि । असिपत्तवणम्मि य जं जं च कयं गिद्धकंकेहि ॥१५६२॥ 'जं कूटसामलोहिं य' यदुःखं प्राप्तोऽसि विक्रियाजनितनिशातशाल्मलीभिः । ऊर्ध्वमुखैरधोमुखैश्चतीक्ष्णकण्टकैराकीर्णाःकूटशाल्मलीरारोहन नारकभयात् । 'जं च सूलम्मि' यच्च दुःखमवाप्नोसि शूलाग्रप्रोतः । गा०-उसी प्रकार उस पिघले हुए मेरु प्रमाण लोहपिण्डको यदि शीत नरकमें फेंका जाये तो भूमिको प्राप्त होनेसे पहले ही वह वहाँके शीतसे जमकर खण्ड-खण्ड हो जाय ॥१५५९॥ शीत और उष्णसे होनेवाली वेदनाकी महत्ता बतलाकर शारीरिक वेदना कहते हैं गा०-जैसे किसी मूर्छारहित मनुष्यके शरीरको कुचलकर उसे खारे तप्त तेलसे सींचनेपर जैसी वेदना होती है वैसी ही तीव्र वेदना नरकमें नारकीके शरीर में स्वभावसे ही होती है।।१५६०।। गा०-नरकरूपी स्कन्धावारमें अथवा गढ़ेमें नारकियोंके द्वारा लोहेके अत्यन्त नुकीले कांटोंपर घसीटे जानेसे तुमने जो दुःख भोगा उसका विचार करो ॥१५६१॥ गा०-टी०-विक्रियासे रचे गये तीक्ष्ण शाल्मली वृक्षोंपर, जो ऐसे कांटोंसे घिरे होते हैं जिनमेंसे कुछ कांटोंका मुख ऊपरकी ओर और कुछका नीचेकी ओर होता है, नारकियोंके भयसे डरकर चढ़ते हुए तुमने जो दुःख भोगा। सूलीके अग्र भागपर चढ़ाये जानेपर तुमने जो दुःख १. यदा तदेहो च्चिय प-ज०। २. य संतो पडिदो तिक्खेहिं तुइंतो' -इति अन्येषां पाठः । -मूलारा० । Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७१३ 'असिपत्तवणम्मि य जं' असय एव पत्राणि यस्मिन्वने तदसिपत्रवनं । उष्णार्दितानां पूत्कुर्वतां नारकाणां असिपत्रवनेऽनेकासुरविक्रियाविनिर्मितविचित्रायुधपत्राणि वनानि । 'जं च कयं' यच्च कृतं । 'गिद्धककेहि' गृद्धैः कङ्कश्च वज्रमयस्तुण्डैः' ते लुञ्चनैस्तुदन्ति । तीक्ष्णीकृतक्रकचसदृशैः पक्षः प्रहरन्ति नितान्तखरपरुषश्चरणाङ्कुशस्ताडयन्ति ।।१५६२॥ सामसवलेहिं दोसं वइतरणीए य पाविओ जं सि । पत्तो कयंववालुयमइगम्ममसायमतितिव्वं ॥१५६३।। 'सामसवलेहि' श्यामशबलसंज्ञितैरसुरैः। 'दोस' दोषं दण्डानां । 'वइतरणीए य पाविओ जं सि' वैतरण्यां नद्यां प्रापितो यदसि । तुडभिभूतानां जलं मृगयतां दिक्षु विन्यस्तदीनलोचनानां शुष्कतालुगलानां वैतरणीनदीमपदर्शयन्ति । रङ्गत्तरङ्गाकुलां, अगाधनीलनीरभरित हदां, विषयसुखसेवेव दुरन्ततृष्णानुबंधनोद्यता, संसृतिरिव दुरुत्तरां, आशेव विशालां, कर्मपुद्गलस्कंधसंहतिरिव विचित्रविपद्विधायिनी, तद्दर्शनाद्रादेवोपजातोत्कंठा लब्धजीवितास्संवृत्ताः स्म इति मन्यमाना द्रुततरगतयस्तामवगाहन्ते । तदवगाहनानन्तरमेव कृतांजलयः पिबन्ति ताम्रद्रवसन्निभं तदम्भः। परुषवचनमिव हृदयदाहविधायि, हा विप्रलब्धाः स्मेति करुणं रसतां शिरांसि परुषतमसमीरणप्रेरणोत्थिततरङ्गासिधारा निकृन्तन्ति करचरणानि च । तेनातिक्षारेणोष्णेन, कालकूटविषायमानेन जलेन, व्रणान्तरप्रवेशिना दह्यमाना झटिति घटितकरचरणास्तटमेव रटन्तः समारोहन्ति । तेषां च भोगा। जिस वन में तलवारकी धारके समान पत्ते होते हैं उसे असिपत्र वन कहते हैं। गर्मीस पीड़ित नारकी असिपत्र वनमें जाते हैं जो अनेक असर कमार देवोंकी विक्रियाके द्वारा निर्मित विचित्र आयध रूप पत्रोंसे यक्त होते हैं और उन आयध रूप पत्तोंके गिरनेपर उनका सर्वांग छिद जाता है । तथा गृद्ध और कङ्क पक्षि अपनी वज्रमय चोंचोंसे उन्हें नोचते हैं तीक्ष्ण आरेके समान पंखोंसे प्रहार करते हैं । अत्यन्त तीक्ष्ण कठोर चरणरूपी अंकुशोंसे मारते हैं। इन सबका जो दुःख तुमने भोगा ।।१५६२।। गा०-टो०-श्याम शवल नामक असुर कुमारोंके द्वारा वैतरणी नदीमें तुमने जो दण्ड भोगा। जब नारको प्याससे व्याकुल होकर जलकी खोजमें होते हैं और उनकी आँखें दीन तथा कण्ठ और तालु सूख जाता है तो उन्हें वैतरणी नदी दिखलाई जाती है। वह रंगीन तरंगोंसे व्याप्त और अगाध नीले जलसे भरी होती है, विषय सुख सेवनकी तरह तृष्णाकी परम्पराको बढ़ाने वाली होती है, संसारकी तरह उसे पार करना कठिन होता है, आशाकी तरह विशाल होती है, कर्मपुद्गलोंके स्कन्धोंके समूहकी तरह अनेक विपत्तियाँ लानेवाली होती है। उसको देखकर दूरसे ही उनकी उत्कण्ठा बढ़ जाती है। अब हम जी गये, ऐसा मानते हुए दौड़कर नदीमें प्रवेश करते हैं। प्रवेश करते ही हाथोंकी अंजलि बनाकर पिघले हुए तामेके समान उसके जलको पीते हैं । वह जल कठोर वचनकी तरह हृदयको जलानेवाला होता है। 'अरे हम ठगाये गये' ऐसी करुण चीतकार करते हए उनके सिर और हाथ पैरोंको अत्यन्त कठोर वायसे प्रेरित लहरें, जो तलवारकी धारके समान होती हैं, काट देती हैं। तब कालकूट विषके समान अत्यन्त खारा गर्म जल उनके घावोंमें जाता है। उससे जलते हुए वे तत्काल तटकी ओर जाते हैं। उनके कटे हाथ १. तुण्डः तरललोचन -आ० मु० । ते हि वज्रमयस्तुडैनॆत्राणि तुदन्ति । २. रन्ति नित्यं नखर -आ० मु० । Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ भगवती आराधना ग्रीवासु श्यामशबला महतीः शिलावज्रशृङ्खलाप्रोता बध्नन्ति दुर्विमोचाः। बद्ध्वा च तस्यामेवं पातयन्ति । पातितास्तत्र कृतोन्मज्जननिमज्जनानामुत्तमाङ्गानि असुरविक्रियानिमितमहामकरकरप्रहारेण जर्जरीभूय निपतन्ति । पुनश्च तटमारूढान्गच्छतस्तांस्तरूभय निश्चलं बध्नन्ति । तानपरिस्पन्दमव विध्यन्तीति निशातशरशतसहस्र: । 'पत्तो कयंबवालुगमदिगम्म' प्राप्तः कदंबप्रसूनाकारावालिका चित्तदु:प्रवेशाः, दलालंकृतखदिराङ्गारकणप्रकरोपमानाः परिप्राप्य तत्र बलात्संचार्यमाणः यत्प्राप्तवानसि दुःखं तच्चित्ते वचकुरु ॥१५६३॥ जं णीलमंडवे तत्तलोहपडिमाउले तुमे पत्तं । जं पाइओसि खारं कडुयं तत्तं कलयलं च ॥१५६४।। 'जं पत्तं तं चितेहि यत्प्राप्तं दुःखं तच्चितय । क्व ? 'णीलमंडवे' काललोहघटिते मण्डपे । 'तत्तलोहपडिमाउले' तप्तलोहप्रतिमाकुले। बलात्कारसंपाद्यमानस्तप्तलोहप्रतिमायुवत्यालिंगितो यदुःखं प्राप्तवानसि तन्मनसि निधेहि । 'जं पाइदोऽसि खारं' यत्पायितोऽसि क्षारं। 'कडुगं' कटुकं । 'तत्त' तप्तं ॥१५६४।। जं खाविओसि अवसो लोहंगारे य पज्जलंते तं । कंडुसु जं सि रद्धो जं सि कवल्लीए तलिओ सि ॥१५६५॥ _ 'जं खाविओसि' यत्खादितोऽसि । 'अवशो'ऽवशः । बलाद्यन्त्रविदारिताननः । 'लोहंगारे य पज्जलंते' तं लोहाङ्गारान्प्रज्वलतः त्वं । 'कंडसु जं सि रद्धो' कंदुकासु यन्मण्डका इव पक्वः ॥१५६५।। पैर तत्काल जुड़ जाते हैं। उनकी गर्दनोंमें भारी शिलाएँ वज्रमयी सांकलसे बाँध देते हैं जिनको खोलना अति कठिन होता है और उन्हें पुनः उसी वैतरणीमें डाल देते हैं । उसमें गिराये जानेपर वे डूबते उतराते हैं। असुर कुमारोंकी विक्रियासे बनाये गये महामच्छोंके प्रहारसे उनके मस्तक छिन्न-भिन्न होकर गिर जाते हैं। पुनः वे तट पर जाते हैं और उन्हें पुनः निश्चल वांध देते हैं। तव उन निश्चल स्थित नारकियोंको लक्ष करके लाखों तीक्ष्ण बाणोंसे बींध देते हैं। पुनः कदम्बके फूलोंके आकार वाली बाल्में, जिसमें बालिकाके चित्तकी तरह प्रवेश करना कठिन है और जो वज्रमयदलसे शोभित है तथा खैरकी लकड़ीके अंगारोंके कण समूहकी तरह गर्म है, उसमें बलपूर्वक चलाये जानेपर तुमने जो दुःख पाया है उसका विचार करो ॥१५६३।। __ गा०-काललोहसे निर्मित मण्डपमें तपाये हुए लोहेसे बनी प्रतिमारूपी युवतियोंसे बलपूर्वक आलिंगन कराये जानेपर तुमने जो दुःख पाया उसका विचार करो। तथा खारा कडुआ तपा हुआ कलकल पिलाये जानेपर जो दुःख पाया उसका चिन्तन करो ॥१५६४॥ विशेषार्थ-ताम्बा, सीसा, सज्जी, गूगल आदिको पकाकर जो काढ़ा तैयार होता है उसे कलकल कहते हैं। गा०-बलपूर्वक यंत्रके द्वारा तुम्हारा मुंह फाड़कर जो तुम्हें जलते हुए लोहेके अंगार खिलाये गये और भट्टीमें मांडकी तरह पकाया गया तथा कड़ाही में तला गया ।।१५६५।। १. ढानुगच्छतः तस्तत्र भय-अ० । ढान्क्षतः नकृभय-ज० । २.कारावलिकाबालिकाचि-ज० । राः तेषा ताः शिलाः पुनर्नि-मूलारा० । ३. तच्चितय-मु० । Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७१५ कुट्टाकुट्टि चुण्णाचुण्णि मुग्गरमुसुंढिहत्थेहिं । जं वि सखंडाखंडिं कओ तुमं जणसमूहेण ॥१५६६।। _ 'कुट्टाकुटिं बहुंशो' यत्कुट्टितश्चूर्णितः मुद्गरमुसंडिहस्तैः, यच्च जनसमूहेन भवान् असकृत्खंडितस्तदन्तःकरणे कुरु ॥१५६६॥ अनुवृत्तिक्रिया भाषा सन्नतिः सुखशीलता। त्रपा कृपा दमो दानं प्रसादो मार्दवं क्षमा ॥१॥ इत्येवमाद्याः सुगुणाः प्रशस्ता ये शरीरिणां । तेषु ते दुर्लभा नित्यं कान्तारेष्विव मानुषाः ॥२॥ शत्रुमित्रमुदासीन इत्यन्यत्र त्रिधा जनः । शत्रुरेव हि सर्वोऽत्र जनः सर्वस्य नारकः ॥३॥ कम्पनैः कणयैश्चक्रेर्नाराचैः क्रकचैनखैः । गदाभिर्मुशलः शूलैः प्राशेः पाषाणपट्टिशैः ॥४॥ मुष्टिभिर्यष्टिभिर्लोष्टः शङ्कुभिः शक्तिभिः शरैः। असिभिः क्षुरिकाभिश्च कुन्तैर्दण्डैः सतोमरैः ॥५॥ तथा प्रकारैरन्यश्च निशितै कसंस्थितैः । भस्वभावात्स्वयं जातक्रियरपि चायुधः ॥६॥ नारकास्तत्र तेऽन्योन्यं रोषवेगेन पूरिताः । पूर्ववैराण्यनुस्मृत्य वैभंगज्ञानसंभवात् ॥७॥ घ्नंति छिदति भिदंति खादंति च तदंति च । विध्यंति चामथ्नति प्रहरन्ति हरन्ति च ॥८॥ श्वशृंगालवृकव्याघ्रगृध्ररूपाणि चापरे । विकृत्य विदयं पापा बाधतेऽत्र परस्परं ॥९॥ गा०-टी०-अनेक बार हाथमें मुद्गर लेकर तुम्हें कूटा गया, मूसलोंसे जनसमूहने तुम्हें चूर्ण कर डाला । उसका मनमें विचार करो। अनुकूल क्रिया, भाषा, सज्जनता, नम्रता, सुखशीलता, लज्जा, दया, इन्द्रिय दमन, दान, प्रसन्नता, मार्दव, क्षमा आदि जो प्रशस्त सुगुण प्राणियोंमें होते हैं वे गुण नरकमें वैसे ही दुर्लभ हैं जैसे घोर वनमें मनुष्यका मिलना दुर्लभ है। अन्यत्र शत्रु, मित्र और उदासीन तीन प्रकारके लोग होते हैं। किन्तु नारकी सब सबके शत्रु ही होते हैं। नरकमें नारकी अपने विभंगज्ञानसे पूर्व जन्मके वैरोंको स्मरण करके और क्रोधसे भरकर वक्र, बाण, करोंत, नख, गदा, मूसल, शूल, भाला, पाषाणसे निर्मित अस्त्र विशेष, मुट्ठी, लकड़ी, लोष्ट, शङ्क, शक्ति, तलवार, छुरी, भाला, दण्डा, गुर्ज तथा इसी प्रकारके अन्य तीक्ष्ण अस्त्र शस्त्रोंसे जो वहाँकी पृथिवीके स्वभावसे स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं तथा विक्रियासे निर्मित आयुधसे परस्परमें मारते हैं, छेदते भेदते हैं, खाते हैं कोंचते हैं, प्रहार करते हैं, बींधते हैं। अन्य नारकी कुत्ता, सियार, भेड़िया, व्याघ्र, गृद्ध ९० Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ भगवती आराधना काष्ठशैलशिलारूपैनिपतंति च केषुचित् । पततस्तान्प्रतीच्छंति ते च शूलाग्रसंस्थिताः ॥१०॥ मज्जयंति जलीभूय वायूभूय नुदंति च । वहंति बहनीभूय न दयंति परस्परं ॥११॥ तिष्ठ दासैव हन्ति त्वां त्वं कुतस्त्यः पलायसे । निगृहसे महामोहान्मृत्युस्त्वां समुपस्थितः ॥१२॥ छिद्धि भिद्धि तुवाकर्ष रुद्धि इंधि वधान तं । बधाननं मदानाश दह च्छादय मारय ।।१३।। प्रबंधे पातयाप्येनं तुद पिंडों प्रदीपय । विशसेति च संरभ्य तं मचंति गिरोऽशुभाः ॥१४॥ जनेनेदृशा नारकेण प्रापितवेदनां बुद्धि निरूपयति जं 'अबद्धदो उप्पाडिदाणि अच्छीणि णिरयवासम्मि । अवसस्स उक्खया जं सतूलमूलाय ते जिब्भा ॥१५६७॥ 'जं अबद्धदो उपाडिदाणि' शिर:पृष्ठदेशादुत्पाटिते । 'अच्छोणि' लोचने । 'जिरयवासे य' नरकवासे च । 'अवसस्स' अवशस्य । 'उत्खाता' उत्पाटिता। 'ज' यत् । 'सतूलमूलाय ते जिब्भा' निरवशेषा ते जिह्वा ।।१५६७॥ कुंभीपाएसु तुम उक्कढिओ जं चिरं पि व सोल्लं । जं सुठिउव्व णिरयम्मि पउलिदो पावकम्मेहिं ॥१५६८॥ 'कुंभीपाएसु तुम' कुभीपाकेषु त्वं । 'उक्कड्ढिदो' उत्क्वथितः । 'जं सुट्ठिउज्व' शूलप्रोतमांसवत् । 'णिरयम्मि' नरके । 'पोलिदो' अंगारप्रकरे पक्वः । 'पावकम्मेहि' पापकर्मभिः ।।१५६८॥ आदिका रूप अपनी विक्रियासे बनाकर विस्तारपूर्वक परस्परमें कष्ट देते हैं। कुछ काष्ठ, पर्वत और शिलारूप बनकर उनपर बरसते हैं । उनको अपने ऊपर गिरते देखकर दूसरे नारकी जो सूलीके अग्र भागपर टंगे होते हैं उन्हें ग्रहण करते हैं। वे नारकी जल बनकर दूसरे नारकियोंको डुबाते हैं, वायु बनकर उड़ाते हैं । आग बनकर जलाते हैं । परस्परमें दया नहीं करते । अरे दासीपुत्र ! ठहर, कहाँ भागा जाता है। मैं तुझे मारूँगा। तेरी मृत्यु आ गई है। इसका छेदन करो, भेदन करो, पकड़ लो, खींच लो, मार डालो, जला डालो, चीर दो इत्यादि अशुभ वचन बोलते हैं ॥१५६६।। नारको जीवने इस प्रकार जो वेदना भोगी उसे कहते हैं गा०-नरकमें सिरके पिछले भागसे तेरी आँखें निकाली गई । और पराधीनतावश तेरी पूरी जिह्वा जड़मूलसे उखाड़ी गई ॥१५६७।। गा०-पापी नारकियोंके द्वारा नरकमें तुम चिरकाल तक कुम्भीपाकमें ओटाये गये। तथा सूलमें पिरोये मांसकी तरह अंगारोंपर पकाये गये ॥१५६८॥ १. आवट्ठदो मु० । अव दो मूलारा० । २. पि सोहग्गे अ० ज० । सोल्लं घृतमिश्रित तैलं वजलेप इत्यन्य:-मूलारा० । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ७१७ जं भज्जिदोसि भज्जिदगंपि व जं गालिओसि रसयं व । जं कप्पिओसि वल्लूरयं व चुण्णं व चुण्णकदो ॥१५६९॥ 'जं भज्जिदोसि' यद्भुष्टोऽसि 'भजिदपि' भज्जिदगनामधेयशाकवत् । 'जं गालिओसि रसगोव्व' यदगालितोऽसि रसवत । 'जं कप्पिदोसि' यत्कृ तितः। 'जं छिन्नो सि' यत छिन्नः । 'वल्लरयं पिव' वल्लूरवत् । 'चुण्णव' चूर्णवत् 'चुण्णकदो' चूर्णीकृतः ।।१५६९॥ चक्केहि करकचेहि य ज सि णिकत्तो विकत्तिओ जं च । परसूहिं फाडिओ ताडिओ य जं तं मुसुंढीहिं ॥१५७०॥ 'चक्केहि करकचेहि' चक्रः क्रकचैश्च । 'जं सि णिकत्तो' यदसि निकृत्तः । 'विकत्तिदो' विविधं कृत्तः । 'परसूहि फालिदों' परशुभिः पाटितः । 'ताडिदो' ताडितः । 'जं' यत् त्वं 'मुसुढोहि' मुर्दाढीभिः ॥१५७०॥ पासेहिं जं च गाढं बद्धो भिण्णो य ज सि दुघणेहिं । जं खारकद्दमे खुप्पिओ सि ओमच्छिओ अवसो ॥१५७२॥ 'पासेहि' पाशैः । 'ज' यत् । 'गाढं बद्धो' दृढं बद्धः। 'भिण्णो य' भिन्नश्च । 'जं सि' यदसि । 'घहि' घनः । 'ज' यत । 'खारकद्दमे' क्षारकर्दमे । 'खुप्पिदोसि' निखातोऽसि । 'ओमच्छिओ' अधोमस्तकः । 'अवसो' परवशः ॥१५७१॥ जं छोडिओसि जं मोडिओसि जं फाडिओसि मलिदोसि । जं लोडिदोसि सिंघाड़एसु तिक्खेसु वेएण ॥१५७२॥ यद्भग्नः, पातितः, मर्दितः, लोठितश्च तीक्ष्णेषु शृंगाटकेषु वेगेन ॥१५७२॥ विच्छिण्णंगोवंगो खारं सिच्चित्तु वीजिदो जं सि । सत्तीहिं विमुक्कीहिं य अदयाए खुचिओ जं सि ॥१५७३।। 'विच्छिन्नंगोवंगों' विच्छिन्नांगोपांगः । 'खारं सिच्चित्तु' क्षारं सिक्त्वा । 'वीजिदो जं सि' यद्वीजितः । गा०-तुम भाजीकी तरह अँजे गये हो। गुड़के रसकी तरह छाने गये हो । मांसके टुकड़ोंकी तरह काटे गये हो और चूर्णकी तरह चूर्ण किये गये हो ॥१५६९।। गा०-चक्रके द्वारा छेदे गये हो । आरेके द्वारा चीरे गये हो । परसुके द्वारा फाड़े गये हो । और मुसुंढी अस्त्र विशेषसे पीटे गये हो ॥१५७०।। गा०-पाशके द्वारा मजबूतीसे बांधे गये हो। घनोंके द्वारा छिन्न-भिन्न किये गये हो। पराधीन होकर खारी कीचड़में नीचेको मस्तक करके गाड़े गये हो ॥१५७१।। गा-जो विदारे गये हो । मोड़े गये हो, फाड़े गये हो, पैरोंसे मले गये हो, तथा वेगसे तीक्ष्ण लोहमयी सिंघाड़ोंपर घसीटे गये हो ॥१५७२।। ___ गा०- अंग उपांगके विच्छिन्न होनेपर खारे जल आदिसे सींचे गये। फिर पंखासे १. सुतिक्खीहिं आ० । Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ भगवती आराधना 'सत्तीहिं' शक्तिभिः । 'विमुक्कोहि य' अयोमयकण्टकार्दण्डः । 'अदयाए' दयामन्तरेण । 'खंचिदो' परावर्तितः ॥१५७३।। पगलंतरुधिरधारो पलंबचम्मो पभिन्नपोट्टसिरो। पउलिदहिदओ जं फुडिदच्छो पडिचूरियंगो य ।।१५७४॥ 'पगलंतरुधिरधारों' प्रगलद्रुधिरधारः। 'पलंबचम्मो' प्रलम्बत्वक् । 'पभिन्नपोट्टसिरो' प्रभिन्नोदर शिराः । 'पउलिदहिदओ' प्रतप्तहृदयः । 'ज' यत् । 'कुडिदच्छो' स्फुटितलोचनः । 'पडिचूरिदंगो य' परिचूर्णिताङ्गः ॥१५७४॥ जं 'चडवडित्तकरचरणंगो पत्तो सि वेदणं तिव्वं । णिरए अणंतखुत्तो तं अणुचिंतेहि णिस्सेसं ॥१५७५।। 'जं' यत् । 'चडवडित्तकरचरणंगो' वेपमानकरचरणाङ्गः । 'पत्तो सि वेदणं तिव्वं' प्राप्तोऽसि वेदनां तीवां । "णिरए' नरके । 'अणंतखुत्तो' अनंतवारं तत् 'अणुचितेहि' अनुक्रमेण चिन्तय । 'णिस्सेसं' निरवशेषं ॥ नरकगतिदुःखं वर्णितम् ॥१५७५।। तिरियगदि अणुपत्तो भीममहावेदणाउलमपारं । जम्मणमरणरहट्ट अणंतखुत्तो परिगदो ज॥१५७६॥ 'तिरियदि अणुपत्तो' तिर्यग्गतिमनुप्राप्तः । 'भीममहावेदनाउलमपारं' । भीममहावेदनाकुलमपारं 'जम्मणमरणरहट्ट' जन्ममरणघटीयंत्रं । 'अणंतखुत्तो' अनंतवारं । 'परिगदो' परिप्राप्तोऽसि । यत् चिंतेहि तं इति वक्ष्यमाणेन संबन्धः । तियंचो हि नानाविधाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदेन ॥१५७६।। हवा की गई जिससे वेदना बढ़े। फिर शक्ति नामक अस्त्रसे और लोहेके दण्डेसे जिसके आगे कांटे लगे हों, निर्दयतापूर्वक खोंचे गये ॥१५७३।। गा०–रुधिरकी धार बह रही है, चमड़ा लटक रहा है, उदर और सिर फट गया है, हृदय दुःखसे संतप्त है, आँखें फूट गई हैं। समस्त शरीर छिन्न-भिन्न है ॥१५७४॥ ___ गा-हाथ पैर कांपते हैं। ऐसी दशामें तुमने नरकमें जो अनन्त वार तीव्र कष्ट भोगा उस सवका क्रमसे चिन्तन करो ॥१५७५।। नरकगतिके दुःखका वर्णन समाप्त हुआ। गा-टी०-नरकसे निकलकर तुम तिर्यञ्चगतिमें आये। यह जन्म मरणरूपी घटीयंत्र (रहट) भयानक महावेदनाओंसे भरा है, इसका पार नहीं है। इसे तुमने अनन्तवार प्राप्त किया है। तिर्यञ्च पृथिवी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रसके भेदसे अनेक प्रकारके हैं ॥१५७६।। १. चडयांत-मु०, मूलारा। Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७१९ आत्मानुभूतान्यपि न स्मरन्ति दुःखानि केचिद्धि नराः प्रमत्ताः। दृष्टश्रुतान्यन्यसमुद्भवानि ते विस्मरन्तीति न विस्मयोऽत्र ॥१॥ प्रमादलोपार्थमतो नरेभ्यो ज्ञातोऽपि सोऽर्थः परिकथ्य एवं । संस्मार्यमाणे प्रभवन्ति यस्मिन्गुणा न दोषाश्च समुद्भवन्ति ॥२॥ शीते निवातं सलिलादि चोष्ण क्षेमं 'भये संश्रयितुं समर्थाः । ये जंगमास्ते न त सास्ति शक्तिरेकेन्द्रियाणां बत जीवकानां ॥३॥ सर्वोपसर्गानिह मोक्षकामा यथा विरागा मुनयः सहन्ते।' सर्वोपसर्गानवशा वराका एकेन्द्रिया ये च सवा सहन्ते ॥४॥ जात्यन्धका बधिराश्च बाला रथ्यासु रक्षाशरणप्रहीणाः । प्रमद्यमाना गजवाजियानर्यथा म्रियेरन् विवशा वराकाः ॥५॥ तथा प्रकारो विकलेन्द्रियाणां प्रवर्तते नारकदुःखतुल्यः। मत्युः समंतात् सततं सुघोरो ग्रामेष्वरण्येषु च निःशरण्यः ॥६॥ गोजाविकाचैः परिमद्यमाना यानादिचक्रः परिपिष्यमाणाः । अन्योन्यवक्त्रैः परिमृष्यमाणाः दुःवं च मृत्युं च हि ते लभन्ते ॥७॥ छिन्नैः शिरोभिश्चरणश्च भग्नरुजादितश्चावयवैस्तनूनां । चिरं स्फुरन्तः प्रतिकारहीनाः कृच्छेण केचिज्जहति स्वमायुः ॥८॥ निमज्यमाना उदबिन्दुनापि निश्वासवातैरपि चोद्यमानाः । प्रचोद्यमाना लघुनोष्मणापि नश्यन्ति ये तेषु कथा भवेत् का ॥९॥ कितने ही प्रमादी मनुष्य अपने द्वारा अनुभूत दुःखोंको भी भूल जाते हैं। तब देखे हुए, सुने हुए और दूसरोंके भोगे हुए दुःखोंको भूल जायें तो इसमें क्या आश्चर्य है । अतः मनुष्योंके द्वारा जाना हुआ भी यथार्थ प्रमाद दूर करनेके लिये कहा जाता है। जिसका स्मरण होनेपर गुण प्रकट होते हैं और दोष प्रकट नहीं होते। जो जंगम प्राणी होते हैं वे शीतमें वायु रहित स्थानमें, गर्मीमें जलादिमें, भय उपस्थित होनेपर निरापद स्थानमें आश्रय ले सकते हैं। किन्तु खेद है कि एकेन्द्रिय जीवोंमें ऐसी शक्ति नहीं होती। जैसे मोक्षके इच्छुक विरागी मनि सब उपसर्गोंको सहते हैं। पराधीन बेचारे एकेन्द्रिय भी सब उपसर्गोंको सदा सहते हैं। जैसे जन्मसे अन्धे गूंगे बहरे बालक रक्षा और शरणसे विहीन हुए बेचारे विवश होकर मार्गों में हाथी घोड़े सवारी आदिसे कुचलकर मर जाते हैं। विकलेन्द्रिय जीवोंकी भी ऐसी ही दशा है। उनका दुःख भी नारकियोंके समान है। ग्रामों और वनोंमें भी उनको शरण नहीं हैं। उनकी घोर मृत्यु सदा होती रहती है। गाय बैल, बकरा मेढा आदिके द्वारा वे कुचले जाते हैं। गाड़ी आदिके चकोंके नीचे पिस जाते हैं। परस्परमें एक दूसरेके मुखोंके द्वारा पीड़ित होकर वे दुःख और मृत्युको प्राप्त होते हैं। सिरोंके भग्न हो जानेपर, पैरोंके टूट जानेपर तथा शरीरके अवयवोंके रोगसे ग्रस्त होनेपर वे चिरकाल तक तड़फड़ाते रहते हैं, उनका कोई इलाज नहीं करता । बड़े कष्टसे वे आयु पूरी करते हैं। जो जलकी एक बूंदमें भी डूब जाते हैं, प्राणियोंके श्वासकी वायुसे भी पीड़ित होते हैं । जरा सी भी गर्मीसे पीड़ित होनेपर मर जाते हैं उनकी क्या कथा कही जाये ? १. भवे मु० । २. नियंते मु० । Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० भगवती आराधना सरः प्रविश्येह यथा नरः सन्नन्मज्जनं चैव निमज्जनं च । क्रीडाप्रसक्तो बहुशोऽपि कुर्यादनन्यकार्य स्ववशो वयस्थः ॥१०॥ प्रविश्य जन्मोदधिमध्यमेवं शरीरिणस्ते बह जन्ममृत्यून् । अन्तमहतंऽपि समाप्नुवन्ति पेपीयमानाः कटदुःखतोयम् ॥११॥ सूक्ष्मैः शरीरैरपि ते महान्ति दुःखानि नित्यं सममाप्नुवन्ति । 'स्थूलेषु देहेषु समोहितेषु दुःखोदयो देहिगणश्च दृष्टः ॥१२॥ येषां न माता न पिता न बन्धन चापि मित्रं न गुरुन नाथः । न भेषजं नाभिजनो न भक्ष्यं न ज्ञानमस्त्येव कुतः सुखं स्यात् ? ॥१३॥ मात्रा वियोगेऽपि सतीह तावत् दुःखाम्बु तत्तन जनो लभेत । मात्रा वियोगस्तु भवेन्न येषां स्थानं कथं ते न हि दुःखराशेः ॥१४॥ मा भैष्ट मा भूत्तव दुःखजालं मा विष्ट मा वेति वराककाणां। आश्वासको वाप्यनुकम्पिता वा तेषां जनः कोऽस्ति यथा नराणां ॥१५॥ तैस्तैः प्रकारैः सततं समन्ताच्छश्वद्दधाना अपि मृत्युमुग्रं ।। करोति वा को ग्रहणं निरीक्ष्य विमुच्य संबन्धविदो मनुष्यान् ॥१६॥ अन्योन्यतो मयंजनाच्च पापात् क्षुधादितश्चापि महाभयानि । पञ्चेन्द्रिया यानि समाप्नुवन्ति दुःखानि तेषामिह कोपमा स्यात् ॥१७॥ स्तनंधयान्स्वानपि भक्षयन्त श्रुतास्तिरश्चोऽपि न निष्कृपाकाः । निहत्य खावत्सु परान्परेषु तिर्यक्षु किं विस्मयनीयमस्ति ॥१८॥ जैसे कोई स्वाधीन वयस्क पुरुष क्रीड़ासक्त हो, सरोवरमें प्रवेश करके बहुत बार जलमें . डूबता और उतराता है। वैसे ही शरीरधारी प्राणी जन्मरूपी समुद्रके मध्यमें प्रवेश करके कटुक दुःखरूपी जलको पीते हुए एक अन्तर्मुहुर्तमें भी बहुत बार जन्म लेते और मरते हैं। यद्यपि उनके शरीर सूक्ष्म होते हैं फिर भी वे महान् दुःख भोगते हैं । स्थूल शरीर मिलने पर उनका दुःख अन्य प्राणी भी देख सकते हैं। जिनका न पिता है, न माता है, न बन्धु है, न मित्र है, न गुरु है, न स्वामी है, न औषध है, न वंश है, न भोजन है और न ज्ञान है उन्हें सुख कैसे हो सकता है । माताका वियोग भी होनेपर इतना दुःख होता है जिसे मनुष्य सह नहीं पाता। जिनके माता ही नहीं है उनकी दुःख राशिका तो कहना ही क्या है। तुम मत डरो, तुम्हें दुःख न हो, इस प्रकार उन बेचारोंको मनुष्योंकी तरह न कोई सान्त्वना देनेवाला है और न कोई उनपर दया करनेवाला है । विभिन्न प्रकारोंसे निरन्तर सदा चहुँ ओरसे उन मृत्युको प्राप्त उन प्राणियोंको देखकर उनके सम्बन्धमें जानने वाले मनुष्योंके सिवाय अन्य कौन उनकी सुध लेता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च परस्परमें एक दूसरेसे, पापी मनुष्योंसे भूख प्यास आदिसे जिन महाभयकारी दुःखोंको प्राप्त होते हैं उनकी कोई उपमा नहीं है। वे अपने बच्चोंको भी खा जाते हैं । तिर्यञ्च भी दयाहीन नहीं सुने गये हैं। किन्तु जो अपने ही बच्चोंको खाते हैं वे यदि दूसरोंको खा जावें तो इसमें आश्चर्य ही क्या। वे परस्परमें एक दूसरेका घात करनेके लिये प्रहार करते हैं। उनको मारनेके लिये १. स्थूलानुदेहेषु समोहितेषु सुखोदयो देहिगुणैश्च दृष्टः ।'-अ० । २. दुःख च स्या आविष्ट-अ० । ३. सुता आ० । Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७२१ अन्योन्यघातार्थमनुप्रयाति हन्तुं तमन्यः कुपणोऽनुयाति । तं कश्चिदन्यः सहसा निहंता ही धिक्ततो भीमतरं किमन्यत् ॥१९॥ अन्योन्परन्ध्रेक्षणनष्टनिद्रा अन्योन्यमाहत्य जिजीविषन्तः। स्वस्था न येऽन्योन्यभयात्स्वपन्ति किं ते भवेयुः सुखिनः कदाचित् ॥२०॥ वने मृगास्तोयतृणप्रपुष्टाः मृगीसहाया रतिमाप्नुवन्ति । व्याधादिभिर्यद्धयमाप्नुवन्ति निरेनसः कारणमत्र कर्म ॥२१॥ वियोजिता आत्मसुतश्च बालमृग्यो मृगश्चात्ममनोऽनुकूलैः । दिशस्तु दोनाक्षिभिरोक्ष्यमाणाः सुदारुणं मारणमाप्नुवन्ति ॥२२॥ स्वभावपापाः कुकवीरिताभिः प्रोत्साहिता दुःश्रुतिभिः पुनश्च । अबिभ्यतो दुर्गतितो यथेष्टं घ्नन्तोऽभ्यदंतश्च हितानुमन्यते ? ॥२३॥ वने मगेभ्यः पिशिताशनेभ्यो प्रामेष नभ्यश्च तथाविधेभ्यः । ते बिभ्यते न क्वचिदाश्वसन्तो यदृच्छया बिभ्रति जीवितानि ॥२४॥ यवकुशाविप्रहतंर्गजाश्च कशाविघातैश्च हया हताशाः । गावश्च तोत्रादिवधैः परेषां कुर्वन्ति कर्मामरणावकामा: ॥२५।। 'मत्यायुतानामलमेतदेव विरागभावप्रभवे निमित्तम् । तादृग्विधाना बहवो हि कोटयः कथं प्रकुर्वन्त्य मितेतरस्य ॥२६॥ दंदामानाश्च दवाग्निवेगैर्महाजलौघश्च समूह्यमानाः । मृगाः खगाः सर्पसरीसृपाश्च साध नियन्ते बहवो बतान्ये ॥२७॥ दूसरा पशु उसके पीछे लग जाता है। उसको भी कोई तीसरा मार देता है। धिक्कार है इसे, इससे भयानक और क्या हो सकता है। परस्परमें एक दूसरेके छिद्रोंको देखनेसे जिनकी नींद भाग जाती है, जो एक दूसरेको मारकर जीना चाहते हैं, जो परस्परमें एक दूसरेके भयसे स्वस होकर सो नहीं सकते वे कभी सुखी कैसे हो सकते हैं ? वनमें मृग जल और तृण खाकर पुष्ट होते हैं । हिरणी उनकी सहचरी होती है। परस्परमें प्रेमसे रहते हैं। बिना किसी अपराधके भी व्याघ आदिसे उन्हें भय रहता है। इसमें कारण उनका पूर्व कर्म है। उन्हें अपने बच्चोंसे वियोगका दुःख उठाना पड़ता है। अपने मनके अनुकूल मृगोंकी खोजमें दीन दृष्टिसे दिशाओंको देखा करते हैं और इस तरह भयंकर मृत्युको प्राप्त होते हैं। जो स्वभावसे ही पापी हैं, और कुकवियोंके द्वारा कही गई न सुनने योग्य कविताओंसे उत्साहित होकर, दुर्गतिसे भी नहीं डरते वे उन पशुओंको यथेच्छ मारते हैं और इसे हित मानते हैं । वनमें मांसाहारी पशुओंसे, ग्रामोंमें मांसाहारी मनुष्योंसे डरते हैं। वे कहीं भी अपनी इच्छानुसार निर्भय जीवन नहीं बिताते। हाथी अंकुश आदिके प्रहारोंसे, घोड़े कोड़े आदिकी मारसे और बैल पैनी आदिके घातसे मरणपर्यन्त दूसरोंका काम करते हैं। जो बुद्धिमान् हैं उनके वैराग्य उत्पन्न होने में यह सब ही निमित्त है। उनकी बहुतसी कोठियाँ हैं वे एक दूसरेको कष्ट कैसे दे सकते हैं। जंगलकी आगके वेगसे जलते हुए महाजलसमूहके प्रवाहसे बहाये जाते हुए मृग, पक्षी, सर्प, सरीसृप तथा अन्य भी बहुतसे जीव एक साथ मर जाते हैं ॥१५७६।। १. ही धिक्क लोभान्नितरां किमन्यत्' -आ० । २. मायुनामामल-आ० । ३. न्त्यमिते नारस्य -आ० ज०। | Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ भगवतो आराधना ताडणतासणबंधणवाहणलंछणविहेडणं" दमणं ।। कण्णच्छेदणणासावेहणेणिल्लंछणं चेव ।।१५७७॥ 'ताडणतासण' ताडनत्रासनबन्धनलाञ्छनवाहनविहेडनकर्णछेदननासिकावेधनबोजविनाशनानि ॥१५७७॥ छेदणभेदणडहणं णिपीलणं गालणं छुहातण्हा । भक्खणमद्दणमलणं विकत्तणं सीदउण्डं च ॥१५७८।। छेदनमेदनदहननिपीडनगालनानि क्षुत्तृड्बाधाभक्षणमर्दनमलनविकर्तनानि । शीतमुष्णं च ॥१५७८॥ ज अत्ताणो णिप्पड़ियम्मो बहुवेदणुद्दिओ पडिओं। बहुएहिं मदो दिवसेहिं चडयडतो अणाहों तं ॥१५७९।। 'जं अत्ताणो' यदत्राणो । 'णिप्पडियम्मो' निष्प्रतीकारः । 'बहुवेदणद्दिओ' बहुवेदनादितः । 'पडिदो' पतितः । 'वहुर्गेहिं मदो दिवसेहि' बहुभिमृतो दिवसः । 'चडडितों' स्फुरद्देहः । 'अणाहो' अनाथः । 'तं' त्वं ॥१५७९॥ रोगा विविहा बाधाओ तह य णिच्चं भयं च सव्वत्तो । तिव्वाओ वेदणाओ धाडणपादाभिघादाओ १५८०॥ 'रोगा विविहा' व्याधयो नानाप्रकाराः । 'बाधाओ' बाधाश्च । “तथा निच्चं भयं च सव्वत्तो' नित्यं भयं च सर्वतः । 'तिव्वाओ वेदणाओ' तीवा वेदना धाटनपादाभिघाताश्च ॥१५८०॥ सुविहिय अदीदकाले अणंतकायं तुमे अदिगदेण । जम्मणमरण मणंतं अणंतखुत्तो समणुभूदं ॥१५८१।। 'सुविहिद' सुचारित्र । 'अदीवकाले' अतीतकाले। 'अणंतकायं तुमे अदिगदेण' अनंतकायं त्वया प्रविष्टेन । 'जम्मणमरणमणतं' जन्ममरणं चानन्तं । 'अणंतखुत्तो' अनन्तवारं क्षिप्तः । 'समणुभूदं सम्यगनुभूतं ॥१५८१॥ गा०-लाठी आदिसे मारना. डराना. रस्सी आदिसे बांधना. बोझा लादकर देशान्तरमें ले जाना, गर्म लोहेसे दागना, पीड़ा देना, दमन करना, अण्डकोषोंको दबा देना । अंगोंको छेदना, भेदना, जलाना, दबाना, रोग आदि होनेपर रक्त निकालना, भूख प्यासकी बाधा, भक्षण, मर्दन, मलना, कान आदिको काटना, शीत उष्ण इत्यादि दुःख तिर्यञ्च गतिमें तुमने सहे हैं ।।१५७७-७८|| गा०-जहाँ कोई रक्षक नहीं, कोई प्रतीकार नहीं, बहुत कष्टसे पीड़ित होकर गिरे और अनाथ दशामें तड़फड़ाते हुए तुम बहुत दिनोंमें मरे ॥१५७९।। गा०-तिर्यञ्चगतिमें नाना प्रकारके रोग, नाना प्रकारकी बाधाएँ, सदा सब ओरसे भय, तीव्र वेदनाएँ, पैरसे मारना आदि कष्ट है ।।१५८०।। गा०-हे चारित्रसे सम्पन्न क्षपक ! अतीतकालमें तुमने अनन्तकायमें जन्म लेकर अनन्त वार अनन्त जन्म मरणोंको भोगा ॥१५८१॥ १. णं मक्ष्णं अ० । २. णेण लंछण चेच.-अ०। ३. णादंकं अणं -अ०, आ० । Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७२३ इच्चेवमादिदुक्खं अणंतखुत्तो तिरिक्खजोणीए । जं पत्तोसि अदीदे काले चिंतेहि तं सव्वं ॥१५८२॥ 'इच्चेवमादिदुक्स' इत्येवमादिदुःखं । 'अणंतखुत्तो' अनन्तवारं । 'तिरिक्खजोणीए' तिर्यग्योनौ । “जं' यत। 'पत्तोऽसि' प्राप्तोऽसि । 'अदीदकाले' अतीतकाले। 'चितेहि तं सव्वं तत्सर्वं चिन्तय । तिरियगदी ॥१५८२॥ देवत्तमाणुसत्ते जं ते जाएण सकयकम्मवसा । दुक्खाणि किलेसा वि य अणंतखुत्तो समणुभूदं ॥१५८३॥ 'देवत्तमाणुसत्ते' देवत्वमानुषत्वयोः । 'जादेण' जातेन । 'सकयकम्मवसा' स्वकृतकर्मवशात् । 'दुक्खाणि किलेसा वि य' दुःखानि क्लेशाश्च । 'अणंतखुत्तो' अनन्तवारं समनुभूताः ॥१५८३।। पियविप्पओगदुक्खं अप्पियसंवासजाददुक्खं च । 'जं वेमणस्सदुक्खं जं दुक्खं पच्छिदालामे ॥१५८४॥ 'पियविप्पओगदुक्खं' प्रियविप्रयोगजातं दुःखं । 'अप्पियसंवासजाददुक्खं च' अप्रियः सहवासेन जातं च दुःखं । येषां नामश्रवणेऽपि शिरःशूलो जायते, येषां दर्शनाद्दर्शने धूमायते । 'जं वेमणस्सदुक्का' यद्वैमनस्यदुःखं 'पच्छिदालाभे जं दुःखां' यदुःखं प्रार्थितालाभे ॥१५८४॥ परभिच्चदाए जंते असब्भवयणेहिं कडगफरुसेहिं । णिब्भत्थणावमाणणतज्जणदुक्खाइं पत्ताई ॥१५८५॥ 'परभिच्चदाए' परभृत्यतायां सत्यां 'ते' तव 'ज' यज्जातं । 'असम्भवयणेहि' अशिष्टवचनैः । 'कडुगफरसेहि' कटुकः परुषश्च । 'णिन्भत्यणावमाणणतज्जणदुक्खाइ पत्ताई' निर्भर्त्सनावमाननतर्जनदुःखानि प्राप्तानि ॥१५८५॥ दीणत्तरोसचिंतासोगामरिसग्गिपउलिदमणो जं। पत्तो घोरं दुक्खं माणुसजोणीए संतेण ॥१५८६॥ गा०-तिर्यञ्चयोनिमें तुमने अतीतकालमें अनन्तवार जो इस प्रकारके दुःख भोगे हैं उन सबका विचार करो ॥१५८२।। ___ गा०-अपने किये हुए कर्मके वशीभूत होकर तुमने देवपर्याय और मनुष्य पर्यायमें जन्म लिया और वहाँ भी अनन्तवार दुःख और क्लेशोंको भोगा ॥१५८३॥ गा०-टी०-प्रिय जनके वियोगका दुःख, अप्रियजनोंके साथमें रहनेका दुःख, जिनका नाम सुनकर भी सिरमें दर्द होता है, जिनके देखने मात्रसे आँखें लाल हो जाती हैं उन्हें अप्रिय कहते हैं । उनके साथमें रहनेका दुःख, वैमनस्यका दुःख और इच्छित वस्तुके न मिलनेका दुःख, राजा आदिकी नौकरी करनेपर अशिष्ट और कटुक वचनोंका दुःख, धिक्कार, तिरस्कार, अपमान और डांटनेका दुःख तुमने सहा है ॥१५८४-८५।। १. जं ते माणसदुक्खं -मूलारा० । ९१ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ भगवती आराधना 'दोणत्तरोसचितासोगामरिसग्गिपगुलिदमणो जं' दीनत्वरोचिंताशोकामर्षाग्निभिः संतप्तमना यत् । 'पत्तो घोरं दुक्ख' प्राप्तं घोरं दुःखं । 'माणुसजोणीए संतेण' ' मनुष्ययोनी सत्यां भवता ॥१५८६।। दंडणमुंडणताडणघरिसणपरिमोससंकिलेसा य । घणहरणदारधरिसणघरदाहजलादिधणणासं ॥१५८७।। दंडणमुडण-दण्डनमुण्डनताडणदूषणपरिमोषणसंक्लेशाः धनापहरणदारदूषणानि गृहदाहजलादिभिर्द्रविणनाशात् ॥१५८७॥ दंडकसालट्ठिसदाणि डंगुराकंटमद्दणं घोरं । कुंभीपाको मच्छयपलीवणं भत्तवुच्छेदो ॥१५८८।। 'दण्डकसालठ्ठिसदाणि' दण्डकशायष्टिशतैस्ताडनानि दण्डादिकार्यत्वाद्दण्डादिशब्देनोच्यन्ते । डंगुरा मुष्टिप्रहाराः । 'कंटमद्दणं' कण्टकानामुपरि प्रक्षिप्य मईनं घोरं । कुम्भीपाकः । 'मच्छगपलीवणं' मस्तके अग्निपज्वलनं । 'भत्तवुच्छेदो' आहारनिरोधः ।।१५८८॥ दमणं च हत्थिपादस्स णिगलअंदवरत्तरज्जहिं । बंधणमाकोडणयं ओलंवणणिहणणं चेव ॥१५८९।। 'दमणं च हस्थिपावस्स' हस्तिपादेनोन्मईनं । 'णिगलबंदूवरत्तरज्जूहि' निगलेन, अन्दुकाभिः, वरत्राभिः, ज्जूभिश्च बन्धनं । 'आकोडणयं' हस्ती पृष्ठतो नीत्वा बन्धनं । 'ओलंवणं' ग्रीवाबद्धपाशस्य तरुशाखासु लम्बनं । णिहणण' चेव गते निक्षिप्य पूरणं ॥१५८९॥ कण्णोहसीसणासाछेदणदंताण भंजणं चेव । उप्पाडणं च अच्छीणं तहा जिब्भायणीहरणं ॥१५९०।। 'कण्णोठ्ठसीसणासाछेदण' कर्णयोरोष्ठयोः, शिरसो, नासिकायाश्च छेदः । 'दंताण भंजणं चेव' दंतानां भञ्जनं । 'उप्पाडणं च अच्छीणं' अक्ष्णोरुत्पाटनं, तथा "जिम्माए णीहरणं' जिह्वानिहरणं ॥१५९०।। गा०-दीनता, रोष, चिन्ता, शोक और क्रोधरूप आगसे मनके संतप्त होनेपर तुमने मनुष्ययोनिमें रहते हुए घोर दुःख पाया है ॥१५८६॥ गा०–राजा आदिसे दण्डित होना, सिर मुण्डा करा देना, पीटा जाना, तिरस्कारपूर्वक दोष लगाया जाना, चोरी होना, राजा आदिके द्वारा धनका हरण, स्त्रियोंको दोष लगाना, घरमें आग लगाना, बाढ़ वगैरहसे संपत्तिका नष्ट होना, डण्डे कोड़े लाठी आदिसे पीटा जाना, मुट्ठीका प्रहार होना, कांटोंके ऊपर लिटाकर घोर मईन करना, कड़ाहीमें डालकर पकाना, मस्तकपर आग जलाना, आहारका रोक देना इत्यादि दुःख तुमने मनुष्यगतिमें सहे हैं ।।१५८७-८८।। गा-हाथीके पैरसे दबाया जाना, सांकल, चमड़ेकी रस्सी या साधारण रस्सीसे बांधा जाना, दोनों हाथ पीछे करके बांधना, गर्दनमें रस्सी डालकर वृक्षसे लटकाना, गड्ढे में डालकर उसे पर देना। कान, ओष्ठ और नाक काटना, दांत तोड़ना, आंखें निकाल लेना, जीभ उखाड़ लेना, इत्यादि दुःख तुमने भोगे हैं ॥१५८९-९०॥ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका अग्गिविससत्तुसप्पादिवालसत्थाभिघादघादेहिं । सीदुण्हरोगदंसमस एहिं तन्हाछुहादीहिं ।। १५९१॥ 'अग्गिविससत्तु सप्पादिवालसत्याभिधादघादेहि' अग्नेर्विषस्य, शत्रूणां सर्पादेर्व्यालमृगाणां, शस्त्र प्रहारस्य च घातैः । 'सीदुण्हरोगदंसमसएहिं शीतोष्णेन, दंशमशकः, 'तण्णाछुहादीहि' तृट्क्षुधादिभिः ॥ १५९१ ॥ जं दुक्खं संपत्तो अनंतखुत्तो मणे सरीरे य । माणुसभवेवितं सव्वमेव चिंतेहि तं धीर ! || १५९२ ।। 'जं दुक्खं संपत्तो' यदुःखं संप्राप्तः । ' अनंतखुत्तो' अनन्तवारं । 'मणे सरीरे य' मनसि शरीरे च । मानसं शारीरं च दुःखं प्राप्त: । 'माणुसभवे वि' मनुष्यभवेऽपि । 'तं सव्वमेव चितेहि' तत्सर्वमेव चिन्तय । 'तं घोर' त्वं धीर ! ।।१५९२ ।। सारादो दुक्खादु होइ देवेसु माणसं तिव्वं । दुक्खं दुस्सहमवसस्स परेण अभिजुज्जमाणस्स || १५९३।। ७२५ 'सारीरादो दुक्खादु' शारीरादुःखात् । 'होवि' भवति । 'देवेसु' देवेषु । 'माणुसं तिब्वं' मानसं तीव्र दुःखं । 'दुःसहं' सोढुमशक्यं । 'अवसस्स' अवशस्य । 'परेण' अन्येन 'अभिजुज्जमाणस्स' अभियुज्यमानस्य वाहनतां नीयमानस्य ॥१५९३ ॥ देवो माणी संतो पासिय देवे महाढिए अण्णे । जं दुक्खं संपत्तो घोरं भग्गेण माणेण ।। १५९४ ॥ 'देवो माणी संतो' देवो मानी सन् । 'पासिय देवे' देवान् दृष्ट्वा । 'महदिढए' महर्द्धिकान् । 'अण्णे' अन्यान् । 'जं दुक्ख ं संपत्तो घोरं यद्घोरं दुःखं प्राप्तः । 'भग्गेण माणेण' भग्नेन मानेन ।। १५९४ ।। दिव्वे भोगे अच्छरसाओ अवसस्स सग्गवासं च । पजहंतगस्स जं ते दुक्खं जादं चयणकाले || १५९५।। गा०-- आग, विष, शत्रु, सर्प आदि तथा सिंह, शस्त्रके प्रहारसे घात, शीत, उष्ण, डांस मच्छर, भूख प्यास, इनसे तुमने मनुष्यभवमें जो शारीरिक और मानसिक दुःख पाया है, हे धीर ! उस सबका विचार करो ।।१५९१ - १५९२॥ गा० - जब देवगति में अभियोग्य जातिका देव होकर वह परवश होकर इन्द्रादिके द्वारा वाहन बनाया जाता है तब उसे शारीरिक दुःखसे तीव्र मानसिक दुःख होता है जो असह्य होता है ।। १५९३॥ गा० - अभिमानी देव हुआ तो अन्य महद्धक देवोंको देखकर मानका भंग होनेसे जो घोर दुःख हुआ उसका विचार करो ॥१५९४॥ गा०—परवश होकर दिव्य भोग, देवांगनाएँ और स्वर्गवास त्यागनेपर स्वर्गसे च्युत होते समय जो दुःख हुआ उसको स्मरण करो ॥ १५९५॥ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ भगवती आराधना "दिव्वे भोगे' दिव्यान्भोगान् । 'अच्छरसाओ' देवकन्यकाः । 'सग्गवासं च' स्वर्गवासं च । 'पजहंतगस्स' परित्यजतः । 'अवसस्स' परवशस्य ।' 'जं ते दुक्ख जावं' यत्तव दुःखं जातं । 'चयणकाले' च्यवनकाले ॥१५९५।। जं गब्भवासकुणिमं कुणिमाहारं छुहादिदुक्खं च ।। चिंतंतगस्स यं सुचिसहिदस्स दुक्खं चयणकाले ॥१५९६।। 'जं गम्भवासकुणिम' यद्गर्भवासकुथितं । 'कुणिमाहारं' कुथिताहारं । क्षुधादिदुःखं च । 'चितंतगस्स' चिन्तयतः । 'सुचिसुहिवस्स' शुचेः सुखितस्य । 'जं दुक्ख धयणकाले' स्वर्गाच्च्यवनकाले ॥१५९६॥ एवं एदं सव्वं दुक्खं चदुगदिगदं च जं पत्तो। तत्तो अणंतभागो होज्ज ण वा दुक्खमिमगं ते ॥१५९७।। ‘एवं एवं सम्वं' एवमेतत्सवं । 'दुक्ख चदुगदिगदं' दुःखं चतुर्गतिगतं । 'जं पत्तो' यत्प्राप्तवान् । 'तत्तो' ततः । 'अणंतभागो' अनन्तभागाः । 'होज्ज ण वा' भवेद्वा न वा । 'दुक्खमिमगं ते' दुःखमिदं तव मनुजजन्मनि ॥१५९७।। संखेज्जमसंखेज्जं कालं ताई अविस्समंतेण । दुक्खाइं सोढाइं किं पुण अदिअप्पकालमिमं ॥१५९८॥ 'संखिज्जमसंखिज्जं कालं' संख्यातमसंख्यातं वा कालं। 'ताई दुक्खाइ सोढाइ' तानि दुःखानि सोढानि । 'अविस्समंतेण' विश्रामरहितेन । 'किं पुणे' किं पुनः सह्यते । 'अदिअप्पकालमिम' अत्यल्पकालमिदं दुःखं ॥१५९८॥ जदि तारिसाओ तुम्हे सोढाओ वेदणाओ अवसेण । धम्मोत्ति इमा सवसेण कहं सोढुं ण तीरेज्ज ॥१५९९।। 'जदि तारिसाओ' यदि तादृश्यः । 'तुम्हे सोढाओ वंदणाओ' त्वया सोढा वेदनाः । 'परवसेण' गा०-पवित्र और सुखी देव स्वर्गसे च्युत होते समय विचारता है कि मुझे अब दुर्गन्धयुक्त गर्भमें वहां दुगन्धित भोजन होगा। भूख प्यासकी बाधा होगी। ऐसा विचार करते समय जो दुःख होता है उसका चिन्तन करो ॥१५९६।। गा०—इस प्रकार चारों गतियोंमें तुमने जो यह सब दुःख भोगा है उसके अनन्तवें भाग दुःख इस मनुष्य जन्ममें हो न भी हो ॥१५९७।।। ____ गा०-तुमने संख्यात वा असंख्यात काल पर्यन्त बिना विश्राम लिये ये दुःख सहे हैं । तब अति अल्पकालके लिये यह थोड़ासा दुःख क्यों नहीं सहते हो ॥१५९८।। गा०-टी०-यदि तुमने परवश होकर उक्त प्रकारकी गेदनाएं सही हैं तो इस समय इस वेदनाको धर्म मानकर स्वयं अपनी इच्छासे क्यों नहीं सहते । शंका-वेदना धर्म कैसे है ? १. मिदं भवे मनु -आ० मु० । Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ওও परवेशन । 'धम्मोति' धर्म इति । 'इमा' इयं वेदना । 'सवसेण' स्ववशेन सता । 'सोदुण तोरेज्ज' सोढं न शक्यते ?। कथं वेदना धर्म: ? उत्तमक्षमामाजवादवादिभिः दशप्रकारो धर्म उच्यते । वेदनासहनं धर्म इति कृत्वा कथं न शक्यते सोढुं संबन्धोऽत्र ॥१५९९॥ 'तण्हा अणंतखुत्तो संसारे तारिसी तुम आसी । जपसमेतुं सव्वोदधीणमुदगं ण तीरेज्ज ॥१६००॥ आसी अणंतखत्तो संसारे ते यावि तारिसिया । जं पसमेतुं सव्वो पुग्गलकाओ ण तीरेज्ज ।।१६०१।। जदि तारिसया तण्डा छुधा य अवसेण ते तदा सोढा । धम्मोत्ति इमा सवसेण कधं सोढुं ण तीरेज्ज ॥१६०२।। सुइपाणएण अणुसहिभोयणेण य पुणोवगहिएण । ज्झाणोसहेण तिव्वा वि वेदणा तीरदे सहिदुं ॥१६०३।। 'सुइपाणएण' त्रिविधधर्मकथाश्रुतिपानेन । 'अणुसद्विभोयणेण य' अनुशासनभोजनेन | 'उवगहिदेण' उपगृहीतेन । 'ज्माणोसण' शुभध्यानौषधेन च । 'तिव्वा वि वेदणा' तीव्रापि वेदना । 'तोरदे सहिदुं शक्यते सोढुं ॥१६००॥१६०१॥१६०२॥१६०३॥ भीदो व अभीदो वा णिप्पडियम्मो व सपडियम्मो वा । मुच्चइ ण वेदणाए जीवो कम्मे उदिण्ण म्मि ॥१६०४॥ 'भीदो व अभीदो वा' भोतोऽभीतो वा । 'णिप्पडियम्मो सप्पडियम्मो वा' निष्प्रतिकारः सप्रतिकारो वा । 'मुच्चदि ण वेदणाए जीवो' न मुच्यते वेदनाया जीवः । 'कम्मे उदिण्णम्मि' कर्मण्यसद्वेद्ये उदीर्ण ।।१६०४॥ समाधान-उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव आदिके भेदसे दस प्रकारका धर्म कहा है अतः गेदनाको सहना भी धर्म है ॥१५९९|| ___ गा०-हे क्षपक ! संसारमें तुम्हें ऐसी प्यासकी वेदना अनन्त बार हुई है जिसको शान्त करनेके लिये सब समुद्रोंका जल भी समर्थ नहीं है ।।१६००।। ___ गा०-संसारमें तुम्हें ऐसी भूखकी वेदना अनन्त बार हुई है जिसको शान्त करनेके लिये समस्त पुद्गल काय भी समर्थ नहीं है ॥१६०१॥ गा०-यदि तुमने परवश होकर वैसी भूख प्यासकी घोर वेदनाको सहा है तो अब धर्म मानकर इस वेदनाको स्वेच्छापूर्वक क्यों नहीं सहते ॥१६०२।। गा०-तीन प्रकारकी धर्मकथाको कानोंके द्वारा पीकर, तथा गुरुकी शिक्षारूपी भोजन करके और शुभध्यानरूपी औषधको ग्रहण करके तीव्र भी वेदनाको सहा जा सकता है ।।१६०३।। ___गा०–असातावेदनीय कर्मकी उदीरणा होनेपर डरो या न डरो, प्रतीकार करो या न करो, जीव वेदनासे छुटकारा नहीं पाता ॥१६०४।। १. एतद् गाथात्रयं टीकाकारो नेच्छति । २. पुणो उवक्कमिए,-अ० । Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ भगवती आराधना पुरिसस्स पावकम्मोदएण ण करंति वेदणोवसमं । सुट्टु पत्ताणि वि ओसघाणि अदिवीरियाणी वि ।।१६०५ ।। 'पुरिसस्स पावकम्मोदयम्मि' पुरुषस्य पापकर्मोदये 'न करेंति' न कुर्वन्ति । 'वेदणोवसमं' वेदनोपशमं । 'सुठु पउत्ताणि वि' सुष्ठु प्रयुक्तान्यपि । 'ओसधाणि वि' औषधानि 'अदिवीरियाणि' अतिवीर्याण्यपि ॥। १६०५ ॥ रायादिकुडुंबीणं अदयाए असंजमं करंताणं । घणंतरी विकादु ण समत्थो वेदणोवसमं || १६०६॥ 'रायादिकुडु बीणं' राजादीनां कुटुम्बीनां अनेक द्रव्यसंपत्परिचारकसंपत्प्रख्यातानां । 'अदयाए असंजमं 'वेदणोवसमं' करेंताणं' दयामन्तरेणासंयमं कुर्वतां । ' घण्णंतरी वि कार्टु' धन्वंतरिरपि कर्तुं असमर्थः । वेदनाया उपशमं । वैद्यसंपत्ता धन्वन्तरे ग्रहणेन सूचिता || १६०६ ॥ किं पुण जीवणिकाये दयंतया जादणेण लद्धेहिं । फासुगदव्वेंहिं करेंति साहुणो वेदणोवसमं || १६०७।। ' कि पुर्ण' किं पुनः । 'जीवणिकाए' जीवनिकायान् । 'दयंतगा' दयमानाः । 'जादणेण लद्बहि' याञ्चया लब्धः । 'फासुगदव्वेहि' प्रासुकद्रव्यैः । 'करेज्ज' कुर्यात् । 'साहुणो वेदणोवसमं' साधोर्वेदनोपशमं । परिचारकसंपदभावो दश्यंते 'जोवणिकाए दयंतगा' इत्यनेन । यथा व्याघे रुपशमो भवति तथा कुर्वति परिचारकाः । अमी पुनर्यतयः षड्जीव निकायबाधापरिहारोद्यताः स्वसंयम विनाशभीरवो । 'जायणेण लद्ध हि' इत्यनेन द्रव्यसंपदभाव आख्यायते || १६०७॥ मोक्खाभिलासिणो संजदस्स णिधणगमणं पि होदि वरं । णय वेदणामित्तं अप्पासुगसेवणं काढुं ।। १६०८।। गा० - जब पुरुषके पापकर्मका उदय होता है तो अच्छी तरहसे प्रयुक्त और अतिशक्तिशाली भी औषधियाँ वेदनाको शान्त नहीं करतीं ॥। १६०५ || गा० - टी० - राजा आदि कुटुम्बी जिनके पास अनेक प्रकारकी धन-सम्पदा और सेवा करनेवाले दास-दासियोंकी प्रचुरता होती है, किन्तु जो दयाहीन होकर असंयमी जीवन बिताते हैं, उनकी वेदनाको शान्त करनेके लिये धन्वन्तरि भी समर्थ नहीं है । धन्वन्तरिपदसे वैद्यरूपी सम्पदाको सूचित किया है । अर्थात् धन्वन्तरि जैसा वैद्य भी उनकी वेदनाको दूर नहीं कर सकता ॥१६०६ ॥ गा० - टी० - तब जीवमात्रपर दया करनेवाले याचनासे प्राप्त प्रासुक द्रव्योंसे साधुकी वेदनाका उपशम कहाँ तक कर सकते हैं ? अर्थात् परिचारक साधु जहाँ तक शक्य होता है व्याधिको शान्त करनेका प्रयत्न करते हैं क्योंकि उनके पास परिचारक रूप सम्पदा - दासदासी तो हैं नहीं और यतिगण छह कायके जीवोंको बाधा न पहुँचे इसके लिये सदा तत्पर रहते हैं तथा अपने संयम विनाशसे भी भयभीत रहते हैं। साथ 'याचनासे प्राप्त' कहने से उनके पास धनसम्पदाका भी अभाव कहा है ।। १६०७॥ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७२९ 'मोक्खाभिलासिणो' निरवशेषकर्मापायाभिलाषिणः । 'संजदस्स' प्राणसंयमवतः । 'णिधणगमणं पि होदि वरं' मरणमपि वरं । 'ण य' नव वरं युक्तं । 'वंदणाणिमित्तं' वेदनोपशमार्थ । 'अप्पासुगसेवणं कादु" अयोग्यद्रव्यसेवनं कत्तुम् ।।१६०८॥ णिधणगमणं एयभवे णासो पुणो पुरिल्लजम्मेसु । णासं असंजमो पुण कुणइ भवसएसु बहुगेसु ॥१६०९।। "णिधणगमणं एपभवे' निधनगमन कभवे । 'णासो' नाशः । 'ण पुणो' न पुनर्नाशः । 'पुरिल्लजम्मेसु' भाविषु जन्मसु । 'असंजमो पुण' असंयमः पुनः । 'भवसएसु' जन्मशतेषु । 'बहुएसु' बहुषु । 'णासं कुणई' नाशं करोति । वेदना हि न संयतमनुयाति रत्नत्रयभावनोद्यतं । सा हि असातं मन्दं करोति । असंयमः पुन असद्वेद्यं प्रकष्टानुभवं करोति । उक्तं च-'दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्येति' [त० सू० ६।११] ।।१६०९॥ ण करेंति णिन्वुइं इच्छया वि देवा सइंदिया सव्वे । पुरिसस्स पावकम्मे अणक्कमग्गे उदिग्णम्मि ॥१६१०॥ 'गं करेंति णिन्वुई" न कुर्वन्ति निवृति । 'पुरिसस्स' पुरुषस्य । 'सईदिया देवा सम्धे इच्छया वि' सेन्द्रकाः सर्वे देवा इच्छन्तोऽपि । 'पावकम्म' पावकर्मणि । 'अणुक्कमर्ग' अनुक्रमके । 'उदिण्णम्मि' उदयमुपगते ।।१६१०॥ किह पुण अण्णो काहिदि उदिण्णकम्मस्स णिन्वदिं पुरिसो । हत्थीहिं अतीरंतं भंतुं भंजिहिदि किह ससओ ॥१६११।। 'किह पुण' कथं पुनः । 'अण्णो काहिदि पुरिसो' अन्यः करिष्यति पुरुषः । 'उदिण्णकम्मस्स' उदया गा-समस्त कर्मबन्धनके विनाशरूप मोक्षके अभिलाषी संयमीका मरण होना भी श्रेष्ठ है। किन्तु वेदनाकी शान्तिके लिये अप्रासुक अयोग्य द्रव्यका सेवन करना श्रेष्ठ नहीं है ।।१६०८।। गा०-टी.-मरण होना तो एक भवका ही विनाश है भावि जन्मोंका नाश नहीं है किन्तु असंयम तो सैकड़ों जन्मोंको नष्ट कर देता है । जो संयमी रत्नत्रयकी भावनामें तत्पर रहते हैं वेदना उनका पीछा नहीं करती। क्योंकि रत्नत्रयको भावना असाताके उदयको मन्द करती है । और असंयम असातावेदनीयके अनुभागको बढ़ाता है। कहा भी है दुःख, शोक, पश्चात्ताप, रुदन, वध और हृदयको व्याकुल करनेवाला रुदन स्वयं करनेसे, दूसरोंमें करनेसे या दोनोमें करनेसे अमातावंदनीयका आस्रव होता है ॥१६०९॥ ___ गा०–पुरुषके पापकर्मके अनुक्रमसे उदय आनेपर इन्द्रसहित सब देव इच्छा करनेपर भी सुखी नही कर सकते ॥१६१०॥ गा०-तब असातानेदनीय कर्मका उदय आनेपर अन्य साधारण पुरुष क्या कर सकते हैं ? जिसे महाबलशाली हाथी भी तोड़ने में असमर्थ है क्या उसे बेचारा कमजोर खरगोश तोड़ सकता है ॥१६११॥ १. अनुक्रमेण -आ० । अणवक्कमगे निष्प्रतीकारे -मूलारा० । Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० भगवती आराधना गतासद्वद्यकर्मणः । "णिवुदि' निवृति । 'हत्थोहि अतीरंतं भंतुं' हस्तिभिर्महाबलः कर्तुमशक्यं यद्भञ्जनं । 'किध ससगो भंजीहि' कथं स्वल्पप्राणो भक्ष्यति शशकः ॥१६११॥ ते अप्पणो वि देवा कम्मोदयपच्चयं मरणदुक्खं । वारेदुण समत्था घणिदं पि विकुव्वमाणा वि ॥१६१२॥ 'ते देवा अप्पणो वि कम्मोदयपच्चयं मरणदुक्खं' ते देवाः सेन्द्रकाः आत्मनोऽपि कर्मोदयहेतुकं मरणदुःखं 'वारे दूं' ण समत्था' निवारयितुन समर्थाः। 'धणिवंवि विकुम्वमाणा' नितरां विक्रियां कुर्वन्तोऽपि ॥१६१२।। "उज्झंति जत्थ हत्थी महाबलपरक्कमा महाकाया। सुत्ते तम्मि वहंते ससया ऊढेल्लया चेव ।।१६१३।। 'उज्झति' यस्मिन् स्रोतसि हस्तिनः ऊह्यंते महाबलपराक्रमा महाकायाः । तस्मिन् स्रोतसि वहन्ति शशका गता एव ॥१६१३॥ किह पुण अण्णो मुच्चहिदि सगेण उदयागदेण कम्मेण । तेलोक्केण वि कम्म अवारणिज्जं खु समुवेदं ॥१६१४॥ 'किह पुण अण्णो मुच्चहिवि' कथं पुनरन्यो मोक्ष्यते, स्वेन कर्मणा उदयागतेन । त्रैलोक्येनापि कर्मानिवार्यमेव समुपगतं ॥१६१४॥ कह ठाइ सुक्कपत्तं वारण पडतयम्मि मेरुम्मि । देवे वि य विहेडयदो कम्मस्स तुमम्मि का सण्णा ॥१६१५॥ 'कह गइ सुक्कपत्त' कथं तिष्ठेत् शुष्कपत्रं । वातेन पतति मेरौ । अणिमाद्यष्टगुणसंपन्नान्देवानपि कुत्सीकुर्वतः कर्मणो भवत्यल्पबले का संज्ञा ॥१६१५॥ गा०-वे देव कर्मके उदयके कारण होनेवाले अपने भी मरणके दुःखको दूर करने में समर्थ नहीं है यद्यपि वे दिव्यशक्तिसे सम्पन्न होनेसे अनेक प्रकारकी विक्रिया करनेमें समर्थ होते हैं ॥१६१२॥ गा०—जिस प्रवाहमें महाबली, महापराक्रमी और विशाल शरीरवाले हाथी बह जाते हैं उस प्रवाहमें बेचारे खरगोश स्वयं ही बह जाते हैं ।।१६१३॥ गा०--जब देव भी अपने उदयागत कर्मको ढालने में असमर्थ है तब अन्य साधारण प्राणी अपने उदयागत कर्मसे कैसे छूट सकता है ? उदयागत कर्मको तीनों लोक भी नहीं टाल सकते ॥१६१४॥ गा०—जिस वायुसे मेरुपर्वतका पतन हो सकता है उसके सामने सूखा पत्ता कैसे ठहर सकता है ? इसी प्रकार जो कर्म अणिमा आदि आठ गुणोंसे सम्पन्न देवोंकी भी दुर्गति कर देता है उसके सामने तुम्हारे जैसे मरणोन्मुख मनुष्यकी क्या गिनती है ॥१६१५॥ १. वुभंति-मूलारा । २. रुढिल्लिया अ० आ० ज० । बूढेल्लया मूलारा० । Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ७३१ कम्माई बलियाई बलिओ कम्मादु णत्थि कोवि जगे। सव्वबलाई कम्मं भलेदि हत्थीव णलिणिवणं ॥१६१६॥ 'कम्माई' कर्माणि बलवंति, कर्मभ्यो बलवान्नास्ति जगति । कस्माद्यस्मात्सर्वाणि बंधुविद्याद्रव्यशरीरपरिवारबलानि कर्म मई यति हस्तीव नलिनवनं ॥१६१६॥ इच्चेवं कम्मुदओ अवारणिज्जोत्ति सुट्ठ पाऊण । मा दुक्खायसु मणसा कम्मम्मि सगे उदिण्णम्मि ॥१६१७॥ 'इच्चेवं कम्मुदओ' इतिशब्दः प्रक्रांतपरिसमाप्ति सूचयति । एवं इत्युक्तपरामर्श । 'कम्मुदओ' कर्मोदयः । 'अवारणिज्जोत्ति' अनिवार्य इति । 'सुटठ णाउण' सम्यग्ज्ञात्वा । 'मा दुक्खायसु मणसा' मा कार्षीर्दुःखं मनसा । 'कम्मम्मि सगे उदिग्णम्मि' कर्मणि स्वके उदीर्णे ॥१६१७॥ पडिकूविदे विसण्णे रडिदे दुक्खाइदे किलिडे वा । ण य वैदणोवसामदि व विसेसो हवदि तिस्से ।।१६१८॥ 'पडिकूविदे' परिदेवने कृते शोके । विषादे रटने, दुःखे, संक्लेशे वा न वेदनोपशाम्यति । नापि कश्चिदतिशयो भवति वेदनायाः ॥१६१८।। अण्णो वि को वि ण गुणोत्थ संकिलेसेण होइ खवयस्स। . अटें सुसंकिलेसो ज्झाणं तिरियाउगणिमित्तं ॥१६१९॥ __ 'अण्णो वि को विण गुणोत्थ' अन्योप्यत्र गणो न कश्चिच्छोकादिना संक्लेशेन । प्रेक्षापूर्वकारिणो हि तत्कतुं प्रारंभंते यस्य साध्यं फलं अस्ति । संक्लेशेन न किंचित् अपि ममक्षोः फलं अपि तु संक्लेशपरिणामो ह्यातं ध्यानममनोज्ञविप्रयोगाख्यं तच्च तिर्यगायुषो निमित्तं । ततोऽल्पदुःखभीरुं भवंतं त्वदीयः संक्लेशो दुरुत्तरे तिर्यगावर्ते निपातयतीति भयोपदर्शनं कृतं ॥१६१९॥ गा०-कर्म बड़े बलवान हैं। जगत्में कर्मसे बलवान कोई नहीं है। जैसे हाथी कमलोंके वनको रौंद डालता है। वैसे ही कर्म बन्धु, ज्ञान, द्रव्य, शरीर और परिवार आदि सब बलोंको नष्ट कर देता है । कर्मके सामने ये सब बल क्षीण हो जाते हैं ॥१६१६।। गा०-इस प्रकार कर्मका उदय अनिवार्य है उसे रोका नहीं जा सकता इस बातको अच्छी तरहसे जानकर अपने कर्मका उदय आनेपर मनमें दुःख मत करो ॥१६१७।। गा०-रोनेपर, विषाद करनेपर, चिल्लानेपर अथवा दुःख और संक्लेश करनेपर वेदना शान्त नहीं होती और उसमें कोई विशेषता भी नहीं आती ॥१६१८॥ ___ गा०टी०-शोक आदि संक्लेश करनेसे क्षपकका कोई अन्य लाभ भी नहीं है। बुद्धिमान पुरुष उसी कार्यको करना प्रारम्भ करते हैं जिससे कोई लाभ होता है । संक्लेशसे मुमुक्षुका जरा भी लाभ नहीं है। बल्कि इष्ट वियोग नामक आर्तध्यान संक्लेश परिणामरूप होनेसे तिर्यञ्चायुके बन्धका कारण है अतः थोड़ेसे दुःखसे डरनेवाले आपको तुम्हारा संवलेश ऐसी तिर्यञ्चुगतिरूपी भँवरमें डाल देगा जिससे निकलना बहुत कठिन है ॥१६१९।। ९२ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ . भगवती आराधना ___ संक्लेशस्य नरर्थक्यप्रकटनार्थोत्तरगाथा हदमाकासं मुट्ठीहिं होइ तह कंडिया तुसा होति । सिगदाओ पीलिदाओ धुसिलिदमुदयं च होइ जहा ॥१६२०॥ 'हदमागासं' हतं मुष्टिभिराकाशं ताडितु। तुषकंडनं तंडुलायं । सिकतापीडनं तिलयंत्रे तैलार्थ । जलमंथनं च घृतार्थ यथापार्थकं तथानर्थकः संक्लेशो वेदनाकुलस्य । वेदनायाः अनिराकरणत्वान्नरर्थक्यसाम्यादभेदोपन्यासो दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकयोः ॥१६२०॥ पुव्वं सयमुवभुत्तं काले णाएण तेत्तियं दव्वं । को धारणिओ धणिदस्स देतओ दुक्खिओ होज्ज ।।१६२१॥ 'पुष्वं सयमुवभुत्त' पूर्व स्वयमुपभुक्तं । काले ‘णायेण' न्यायेन । तेत्तिगं ढव्वं' तावद्रव्यं । 'को दुक्खिओ होज्ज धारणिगो' को दुःखितो भवेदधमणः । 'पण्णिदम्मि' उत्तमणे । 'हरते' स्वं द्रव्यं हरति ।।१६२१।। तह चेव सयं पुव्वं कदस्स कम्मस्स पाककालम्मि । णायागयम्मि को णाम दुक्खिओ होज्ज जाणंतो ॥१६२२।। 'तह चेव' तथा चैव । 'सयं पुव्वं कदस्स कम्मस्स' आत्मना पूर्व कृतस्य कर्मणः । 'पाककालम्मि' फलदानकाले न्यायेनागते । 'को गाम दुक्खिदो होज्ज जाणंतो' को नाम दुःखितो भवेज्ज्ञानी ॥१६२२॥ __ इय पुवकदं इणमज्ज महं कम्माणुगत्ति णाऊण । रिणमुक्खणं च दुक्खं पेच्छसु मा दुक्खिओ होहि ॥१६२३।। ‘इय पुव्वकदं' 'इय' एवंभूतं । 'दुक्खं पुव्वकदं पूर्वकर्मणा कृतं । 'इणं' इदं दुःखं । 'अज्ज' अद्य । 'महं कम्माणुगत्ति' मम कर्मणामिति । 'णादण' ज्ञात्वा । 'रिणमुक्खणं वा' ऋणमोक्षण इव । 'दुवखं पिच्छसु' दुःखं प्रेक्षस्व । ‘मा दुक्खिदो होहि' दुःखितो मा भूः ॥१६२३।। आगे संक्लेशकी निरर्थकता बतलाते हैं गा०-जैसे मट्टियोंसे आकाशको मारना, चावलके लिये उसके छिलकोंको कूटना, तेलके लिये कोल्हूमें रेत पेलना, और घीके लिये जलको मथना निरर्थक है उसी प्रकार वेदनासे पीड़ित व्यक्तिका संक्लेश करना निरर्थक है। संक्लेश करनेसे वेदना दूर नहीं होती. है अतः निरर्थक होनेसे दृष्टान्त और दार्टान्तमें समानता है ।।१६२०।। गा०-जैसे कोई कर्जदार साहूकारसे ऋण लेकर स्वयं उसका उपभोग करता है। और ऋण चुकानेका समय आनेपर उतना ही द्रव्य देते हुए उसे दुःख नहीं होता। उसी प्रकार पूर्वमें स्वयं बांधे हुए पापकर्मका फल भोगनेवाले ज्ञानीको दुःख कैसा ? अतः पूर्वमें बांधे गये कर्मका उदयकाल आनेपर कौन ज्ञानी दुःखी होता है ।।१६२१-२२।। गा. यह दुःख मेरे पूर्व में किये गये कर्मोका ही फल है ऐसा जानकर दुःखको ऋण मुक्तिके समान देखो । दुःखी मत होओ ।।१६२३।। Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका पुचकदमज्झ कम्मं फलिदं दोसो ण इत्थ अण्णस्स । इदि अप्पणो पओगं णच्चा मा दुक्खिदो होहि ॥१६२४॥ 'पुवकदमझ कम्म' पूर्वकृतं मदीयं कर्म, 'फलिदं' फलितं । 'दोसो ण एत्थ अण्णस्स' दोषो नवान्यस्य इति । 'अप्पणो पओगं 'गच्चा' ज्ञात्वा । 'मा दुक्खिदो होहि' मा कृथा दुःखं ॥१६२४॥ जदिदा अभदपुव्वं अण्णेसिं दुक्खमप्पणो चेव । जादं हविज्ज तो णाय होज्ज दुक्खाइदुजुत्तं ।।१६२५।। 'जदिदा' यदि तावत् । दुःखमन्येषां अभूतपूर्व । 'अप्पणो चेव'. आत्मन एव 'जादं हविज्ज' 'जातं भवेत्' 'तो णाम होज्ज दुक्खाइदु जुत्तं' । ततो नाम दुःखं कर्तुं युक्तं ॥१६२५।। सव्वेसिं सामण्णं अवस्सदायव्वयं करं काले । णाएण य को दाऊण णरो दुक्खादि विलवदि वा ।।१६२६।। 'सर्वेसि सामण्णं' सर्वेषां भव्यानां श्रामण्यं । 'काले' कर्मविनाशनकाले । 'अवस्स दायव्वयं' अवश्य दातव्यं । यस्मात्तस्मात । 'करं' करशब्दवाच्यं 'दाऊण' दत्वा । 'णाएंण य' न्यायेन च 'को जरो दुक्खदि विलववि वा' को नरो दुःखं करोति विलपति वा ॥१६२६॥ सव्वेसिं सामण्णं करभूदमवस्समाविकम्मफलं । इण मज्ज मेत्ति णच्चा लभसु सदि तं घिदि कुणसु ॥१६२७।। 'सर्वसि' सर्वेषां विनेयानां । 'सामण्णं करभूदं' श्रामण्यं करभूतं । 'अवस्सभाविकम्मफलं' अवश्यभाविकर्मफलं । 'इणमज्जमेदि' इदं श्रामण्यं अद्य करभूतं ममेति । 'गच्चा' ज्ञात्वा । 'लभसु सदि' स्मृति प्रतिपद्यस्व । 'तं' त्वं 'धिवि कुणसु' धृतिं कुरु ।।१६२७॥ अरहंतसिद्धकेवलि अविउत्ता सव्वसंघसक्खिस्स । पच्चक्खाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं ॥१६२८।। गा-यह मेरे पूर्वकृत कर्मों का फल है। इसमें किसी दूसरेका दोष नहीं है। अतः इसे अपना ही प्रयोग जानकर दुःखी मत होओ ॥१६२४।। गा०-हे क्षपक ! यदि यह दुःख दूसरोंको पहिले कभी नहीं हुआ और तुमको ही हुआ होता तो दुःख करना युक्त था ॥१६२५।। गा०-कर्मो के विनाशका समय आनेपर सभी भव्य जीवोंको मुनिपद अवश्य धारण करना होता है। इसलिये इसे 'कर' कहा है । इस करको न्यायपूर्वक देकर कौन मनुष्य दुःखी होता है या विलाप करता है ।।१६२६॥ गा०-सभी मोक्षमागियोंके लिये यह श्रामण्य अवश्य भाविकर्मफल होनेसे करके समान देय है अर्थात् सभीको मुनिपद धारण करना होता है। आज यह श्रामण्य मेरे लिये करके समान देय है ऐसा जानकर अपने स्वरूपका स्मरण करो और धैर्य धारण करो ॥१६२७॥ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ भगवती आराधना 'अरहंत सिद्धकेवलि अविउत्ता सव्वसंघसक्खिस्स' । अर्हतः, सिद्धान्, केलिनः, तत्रस्था देवता सर्व च संघं साक्षित्वेनोपादाय कृतस्य । 'पच्चक्खाणस्स भंजणादो' प्रत्याख्यानस्य विनाशनात । 'वर' शोभनं 'मरणं' प्राणपरित्यागः ॥१६२८।। कथं मरणादशोभनता प्रत्याख्यानभंगस्येत्याशंकायामाचष्टे प्रबंधमुत्तरं प्रत्याख्यानभंजने दुष्टतां निवेदयितुम् आसादिदा तओ होंति तेण ते अप्पमाणकरणेण । राया विव सक्खिकदो विसंवदंतेण कज्जम्मि ।।१६२९।। 'आसादिवा' परिभूताः। 'तदो' ततः पश्चात् । प्रत्याख्यानग्रहणोत्तरकालं । तेन प्रत्याख्यानभंगकारिणा । ते अहंदादयः । 'अप्पमाणकरणेन' अप्रमाणकरणेन । तत्साक्षिक कर्म प्रतिज्ञातं विनाशयता ते अप्रमाणीकृता भवन्ति । अप्रमाणकरणेन च ते परिभता भवन्ति । 'राजा विव सक्खिकदो' राजेव साक्षीकृतः । 'कज्जम्मि विसंवंदंतेण' कार्ये विसंवदता। एतदुक्तं भवति राजसाक्षिकं प्रतिज्ञातं कर्म चान्यथा कुर्वता राजा यथा परिभूतो भवति एवमर्हदादय इति ॥१६२९।।। जइ दे कदा पमाणं अरहंतादी हवेज्ज खवएण । तस्सक्खिदं कयं सो पच्चक्खाणं ण भंजिज्ज ।।१६३०।। 'जइ दे कदा पमाणं' यदि ते कृताः प्रमाणं । 'अरहंतादी' अर्हदादयः । 'भवेज्ज' भवेयुः । 'खवएण' क्षपकेण । 'तस्सक्खिदं कवं पच्चक्लाण' तत्साक्षिकं कृतं प्रत्याख्यानं । 'सो ण भंजिज्ज' क्षपको न नाशयेत् ॥१६३०॥ सक्खिकदरायहीलणमावहइ परस्स जह महादोसं । तह जिणवरादिआसादणा वि दोसं महं कुणदि ।।१६३१।। गा०-अरहन्त, सिद्ध, केवली, उस स्थानके वासी देवता और सर्व संघको साक्षी बनाकर ग्रहण किये त्यागको तोड़नेसे मरण श्रेष्ठ है ।।१६२८॥ त्यागका भंग करना मरनेसे भी बुरा कैसे है ऐसी शंका होनेपर त्यागके भंगकी बुराई कहते हैं गा०-जैसे राजाको साक्षी बनाकर किये गये कार्यमें विसंवाद करनेवाला पुरुष राजाकी अवज्ञा करनेका दोषी होता है। वैसे ही अरहन्त आदि पंचपरमेष्ठीकी साक्षीपूर्वक स्वीकार किये गये त्यागको तोड़नेवाला मुनि अरहन्त आदिको भी प्रमाण न माननेसे उनकी अवज्ञा करनेका दोषी होता है ।।१६२९।। गा०-यदि हे क्षपक ! तुम अरहंत आदिको प्रमाण मानते हो तो तुम्हें उनकी साक्षिपूर्वक किये गये त्यागको भंग नहीं करना चाहिये ।। ६३०॥ गा-जैसे राजाको साक्षी बनाकर उनकी अवज्ञा करना मनुष्यको महादोषका भागी बनाता है वैसे ही अर्हन्त आदिको आसादना भी महादोषको करनेवाली है ॥१६३१॥ १. न अभ्यास्ये-अ० । Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७३५ 'सक्खिकदरायहीलणे' साक्षीकृतराजपरिभवः । 'आवहदि रस्स जह महादोसं' आनयति यथा नरस्य महान्तं दोषं । 'तह जिणवरादि आसादणा' तथा अहंदाद्यासादनापि । 'दोसं महं कुणदि' दोषं महान्तं करोति ॥१६३१॥ तं महान्तं दोष कथयति-- तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महड्ढीए । एदे आसादंतो पावइ पारंचियं ठाणं ॥१६३२॥ 'तित्थयरपवयणसुदे' तीर्थकरान्, रत्नत्रयं, आगमं । 'आयरिए' आचार्यान् । 'गणहरे' गणधरान् । 'महड्ढोए' महद्धिकान् । 'एदे' एतान् । 'असादेतो' असादयन् । 'पावदि' प्राप्नोति । 'पारंचियं ठाणं' पारंचियनामधेयं प्रायश्चित्तस्थानं ॥१६३२।। सक्खीकयरायासादणे हु दोसं करे हु एवभवे । भवकोडीस य दोसं जिणादि आसादणं कुणइ ।।१६३३॥ साक्षीकृतराजावमानजाताद्दोषादर्हदाद्यवमानजनितदोषो महानिति दर्शयति । स्पष्टार्था गाथा ॥१६३३॥ 'मोक्खाभिलासिणो संजदस्स णिघणगमणं पि होइ वरं । पच्चक्खाणं भजंतस्स ण वरमरहदादिसक्खिकदा ॥१६३४॥ णिघणगमणमेयभवे णासो ण पुणो पुरिल्लजम्मेसु । णासं वयभंगो पुण कुणइ भवसएसु बहुएसु ॥१६३५॥ ण त हा दोसं पावइ पच्चक्खाणमकरित्त कालगदो । जह भंजणा हु पावदि पच्चक्खाणं महादोसं ॥१६३६।। उस महान दोषको कहते हैं गा०-तीर्थङ्कर, रत्नत्रय, आगम, आचार्य और महान् ऋद्धिधारियोंकी आसादना करने वाला पारंचिक नामक प्रायश्चित्तका भागी होता है ॥१६३२।। गा०-साक्षी बनाये गये राजाकी आसादना करनेपर तो एक ही भवमें दोषका भागी होता है। किन्तु अरहन्त आदिकी आसादना करनेपर करोड़ों भवोंमें दोषका भागी होता है। अतः साक्षी बनाये गये राजाकी अवज्ञाके दोषसे अर्हन्त आदिको अवज्ञासे होनेवाला दोष महान होता है ॥१६३३।। मोक्षके अभिलाषी संयमीका मरना भी श्रेष्ठ होता है किन्तु अरहन्त आदिको साक्षी करके किये गये त्यागका भंग करना श्रेष्ठ नहीं है। मरणको प्राप्त होनेपर तो एक भवका ही विनाश होता है, आगेके भवोंका विनाश नहीं होता। किन्तु वृत्तका भंग बहुतसे भवोंमें विनाशकारी होता है ॥१६३४-३५ ।। १. एते द्वे गाथे टीकाकारो नेच्छति । Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'ण तहा बोसं पावधि' न तथा दोषं प्राप्नोति । 'पच्चक्लाणमकरित्तु' प्रत्याख्यानमकृत्वा । कालगदो मृतः । 'जह भंजतो पावदि' यथा प्रत्याख्यानभंगान्महादोषं प्राप्नोति ॥१६३४।।१६३५।।१६३६॥ प्रत्याख्याताहारसेवा हि प्रत्याख्यानभंगः स चांहारः प्रार्थ्यमानो हिंसादिदोषानखिलानानयतीति निगदति आहारत्थं हिंसइ भणइ असच्चं करेइ तेणेक्कं । रूसइ लुब्भइ मायं करेइ परिगिण्हदि य संगे ॥१६३७।। 'आहारत्थं हिंसई' आहारार्थं षड़जीवनिकायान्हिनस्ति । असत्यं भणति, स्तंन्यं करोति । रुष्यत्यलाभे, लुभ्यति लाभे, मायां करोति, परिगृण्हाति संगान् ।।१६३७।। होइ णरो णिल्लज्जो पयहइ तवणाणदंसणचरित्तं । आमिसकलिणा ठइओ छायं मइलेइ य कुलस्स ॥१६३८॥ 'होइ गरो जिल्लज्जो' निर्लज्जो भवति नरः आहारार्थ परयाञ्चाकरणात् । प्रजहाति च तपो, ज्ञानं दर्शनं चारित्रं च । आमिषाख्यन कलिनावष्टब्धः छायां कुलस्य मलिनयति परोच्छिष्टभोजनादिना ॥१६३८।। णासदि बुद्धी जिब्भावसस्स मंदा वि होदि तिक्खा वि । जो णिगसिलेसलग्गो व होइ पुरिसो अणप्पवसो ॥१६३९॥ 'णासदि बुद्धी' बुद्धिनश्यति आहारलम्पटतया युक्तायुक्तविवेकाकरणात् । कस्य ? जिह्वावशस्य तीक्ष्णा पि सती पूर्व बुद्धिः कुंठा भवति । रसरागमलोपप्लुता अर्थयाथात्म्यं न पश्यतीति पारसीकक्लेशलग्नलिंग इव भवति पुरुषोऽनात्मवशः ॥१६३९।। गा०-बिना त्याग ग्रहण किये मरनेपर इतना दोष नहीं होता जितना महादोष त्याग लेकर उसका भंग करनेपर होता है ।।१६३६।। त्यागे हुए आहारको ग्रहण करना व्रतभंग है। वह आहार हिंसा आदि सब दोषोंको लानेवाला है यह कहते हैं गा०-आहारके लिये मनुष्य छहकायके जीवोंका घात करता है। असत्य बोलता है, चोरी करता है। आहार न मिलनेपर क्रोध करता है । मिलनेपर उसका लोभ करता है। मायाचार करता है। घर पत्नी आदि परिग्रह स्वीकार करता है ॥१६३७॥ गा०–आहारके लिये मनुष्य निर्लज्ज होता है क्योंकि दूसरोंसे माँगता है। अपना तप, ज्ञान, दर्शन और चारित्र तक त्याग देता है । आहाररूपी कलिके द्वारा ग्रस्त होकर अपने कुल की छायाको मलिन करता है दूसरोंका झूठा भोजन खाता है ॥१६३८॥ . गा०-जो जिह्वाके वशीभूत है उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है क्योंकि भोजनका लम्पटो होनेसे वह भक्ष्य अभक्ष्यका विचार नहीं करता। यदि उसकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है तो वह मन्द हो जाती है क्योंकि रसोंमें रागरूपी मलसे लिप्त होनेसे बुद्धि भक्ष्य वस्तुके यथार्थ स्वरूपको नहीं १. जोणिकविलेस-अ० । Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७३७ धीरत्तणमाहप्पं कदण्णदं विणयधम्मसद्धाओ । पयहइ कुणइ अणत्थं गललग्गो मच्छओ चेव ॥१६४०॥ 'धीरत्तं' धीरत्वं, माहात्म्यं, कृतज्ञतां, विनयं, धर्मश्रद्धां च प्रजहाति । करोत्यनर्थश्रद्धां च । प्रजहाति करोत्यनर्थमात्मनः । गलावलग्नमत्स्य इव ।।१६४०॥ आहारत्थं पुरिसो माणी कुलजादि पहियकित्ती वि । भुंजंति अभोज्जाए कुणइ कम्मं अकिच्चं खु ॥१६४१।। 'आहारत्य'-आहारार्थ, भुंजते अभोज्यानि पुरुषो मानी कुलीनः, प्रथितकीर्तिरपि अकरणीयं करोति ॥१६४१॥ आहारत्थं मज्जारिसुंसुमारी अही मणुस्सी वि । दुब्भिक्खादिसु खायंति पुत्तभंडाणि दइयाणि ॥१६४२।। इहपरलोइयदुक्खाणि आवहंते णरस्स जे दोसा । ते दोसे कुणइ णरो सव्वे आहारगिद्धीए ॥१६४३॥ स्पष्टम् उत्तरगाथाद्वयम् ॥१६४२॥१६४३।। आहारलोलुपतया स्वयंभूरमणसमुद्रे तिमितिमिगिलादयो मत्स्या महाकाया योजनसहस्रायामाः षण्मासं विवृतवदनाः स्वपन्ति । निद्राविमोक्षानन्तरं पिहिताननाः स्वंजठरप्रविष्टंमत्स्यादीनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशति । तत्कर्णावलग्नमलाहाराः शालिसिक्यमात्रतनुत्वाच्च शालिसिक्थसंज्ञकाः यदीदशमस्माकं शरीरं भवेत् किं निःसतु एकोऽपि जन्तुर्लभते ? सर्वान्भक्षयामीति कृतमनःप्रणिधानास्ते तमेवावधिस्थानं प्रविशति । इति कथयति गाथयादेख पाती। तथा आहारका लम्पटी मनुष्य विषय सेवन करते हुए मनुष्यकी तरह अपने वशमें नहीं रहता ॥१६३९॥ गा०-वह धीरता, माहात्म्य, कृतज्ञता, विनय और धर्मश्रद्धाको भी आहारके पीछे छोड़ देता है और गले में फंसी मछलीकी तरह अनर्थ करता है ।।१६४०॥ . गा०-मानी, कुलीन और प्रख्यातकीर्ति वाला भी आहारके लिये अभक्ष्यका भक्षण करता है और न करने योग्य कर्म करता है ॥१६४१।। __गा.-भूखसे पीड़ित होनेपर बिल्ली, मच्छ, सपिणि और दुर्भिक्ष आदिमें मनुष्य भी अपने प्रिय पुत्रोंको खा जाते हैं ॥१६४२।। गाल-मनुष्यके जो दोष इस लोक और परलोकमें दुःखदायी हैं वे सब दोष मनुष्य आहारकी लम्पटताके कारण ही करता है ।।१६४३।। आगे कहते हैं-स्वयंभृरमण समुद्र में तिमितिमिंगल आदि महाकाय वाले महामच्छ जो एक हजार योजन लम्बे होते हैं, छह मास तक मुंह खोले सोते रहते हैं। जागने पर अपने मुख में घुसे मच्छों आदिको खाकर मरकर सातवें नरकमें जाते हैं। उसके कानमें एक सालिसिक्थ नामक मत्स्य रहता है जो उसके कानका मैल खाता है। उसका शरीर चावलके बराबर होता Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ भगवती आराधना अवधिट्ठाणं णिरयं मच्छा आहारहेदु गच्छंति । तत्थेवाहारभिलासेण गदो सालिसिच्छो वि ।।१६४४॥ अवधिट्ठाणमित्यादिका गाथा ॥१६४४॥ चक्कघरों वि सुभूमो फलरस गिद्धीए वंचिओ संतो। णट्ठी समुद्दमज्झे सपरिजणो तो गओ णिरयं ॥१६४५॥ - 'चक्कघरो वि सुभूमो' नाम चक्रलांछनः फलरसगृद्धया वंचितः समुद्रमध्ये विनष्टः सपरिजनः । पश्चाच्च नरकं गतः ।।१६४५।। आहारत्थं काऊण पावकम्माणि तं परिगओ सि । संसारमणादीयं दुक्खसहस्साणि पावंतो ॥१६४६।। आहारार्थ पापानि कर्माणि कृत्वा संसारमनादिकं प्रविष्टो भवान्दुःखसहस्राणि वेदयमानः ।।१६४६ । पुणरिव तहेव संसारं किं भमिणमिच्छसि अणंतं । जं णाम ण वोच्छिज्जइ अज्जवि आहारसण्णा ते ॥१६४७।। 'पुणरवि' पुनरपि । तथैव संसारमनंतमटितु किमिच्छसि ? यस्मादद्याप्याहारे तृष्णा न नश्यति ॥१६४७॥ जीवस्स पत्थि तित्ती चिरंपि भुंजतस्य आहारं । तित्तीए विणा चित्तं उव्वूरं उधुदं होइ ॥१६४८॥ 'जोवस्स पत्थि तित्ती' जीवस्य नास्ति तृप्तिः चिरमप्याहारं भुञ्जानस्य । तृप्त्या च विना चित्तं नितरामुच्चलं भवति ॥१६४८।। है इसलिये उसे सालिसिक्थ कहते हैं। वह कानमें बैठा हुआ मनमें, सोचा करता है कि यदि मेरा शरीर ऐसा होता तो क्या एक भी जन्तु बचकर जा सकता मैं सबको खा जाता। इसी संकल्पसे वह भी मरकर सातवें नरक जाता है गा०--महामत्स्य आहारके ही कारण सातवें नरकमें मरकर जाता है और उसी महामत्स्यके कानमें रहनेवाला सालिसिक्थ मत्स्य भी आहारके संकल्पसे मरकर सातवें नरक जाता है ॥१६४४॥ गा०-सुभौभ नामक चक्रवर्ती भी एक देवके द्वारा लाये गये फलके रसकी लम्पटताके कारण ठगा जाकर परिवारके साथ समुद्रमें डूब गया और मरकर नरकमें गया ॥१६४५॥ गा.-हे क्षपक ! पूर्वजन्मोंमें आहारके ही लिये पाप कर्म करके तुम हजारों दुःख भोगते हुए अनादि संसार में प्रविष्ट हुए ।।१६४६|| अब क्या पुनः अनन्त संसारमें भ्रमण करनेकी इच्छा है जो अभी भी तुम्हारी आहार संज्ञा नष्ट नहीं होती ॥१६४७।। गाचिरकाल तक आहार खाकर भी जीवकी तृप्ति नहीं होती। और तृप्तिके बिना चित्त अत्यन्त व्याकुल रहता है ॥१६४८।। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३९ विजयोदया टीका जह इंधणेहिं अग्गी जह य समुद्दो णदीसहस्सेहिं । आहारेण ण सक्को तह तिप्पेईं इमो जीवो ॥१६४९।। 'जह इंधणेहि अग्गो' यथेन्धनरग्निर्नदीसहस्ररुदधिस्तर्पयितुमशक्यस्तथाहारेण जीवः ।।१६४९।। देविंदचक्कवट्टी य वासुदेवा य भोगभूमा य । आहारेण ण तित्ता तिप्पदी कह भोयण अण्णो ॥१६५०॥ 'देविंदचक्कवट्टी य' देवेन्द्रा लाभान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षात् आत्मीयतनुतेजोनिमित्तेन आहारण, चक्रवर्तिनोऽपि षष्ट्यधिकत्रिशतसूपकारैर्वर्षमात्रेणकदिनाहार संस्करणोद्यतैः ढोकितेन तथार्द्धचक्रवर्तिनोऽपि । भोगभूमिजा भोजनाङ्गकल्पतरुप्रभवेन न तृप्ताः । कथमन्यो जनस्तृप्यति ॥१६५०॥ उधुदमणस्स ण रदी विणा रदीए कुदो हवदि पीदी । पीदीए विणा ण सुहं उधुदचित्तस्स घण्णस्स ॥१६५१॥ 'उद्घदमणस्स' इतो भद्रमतो भद्रमस्माच्चेदमिति परिप्लवमानचेतसो न रतिः, क्व च तया विना प्रीतिः । प्रीत्या च विना न सुखं चलचित्तस्य तत्तदाहारलम्पटस्य ॥१६५१॥ सव्वाहारविधाणेहिं तुमे ते सव्वपुग्गला बहुसो । आहारिदा अदीदे काले तित्तिं च सि ण पत्तो ।।१६५२।। 'सम्वाहरणविषाणेहि' अशनपानखाद्यलेहविकल्पैस्त्वया सर्वे पुद्गला बहुश आहारिताः अतीते काले तृप्ति च न च प्राप्तो भवान् ॥१६५२॥ गा०-जैसे इंधनसे आगकी और हजारों नदियोंसे समुद्रको तृप्ति नहीं होती वैसे ही यह जीव आहारसे तृप्त नहीं हो सकता ॥१६४९।। गा०-टो०-देवेन्द्रोंके लाभान्तरायके क्षयोपशमका प्रकर्ष होनेसे अपने शरीरके तेजके • निमित्तसे आहार प्राप्त होता है। भोजनकी इच्छा होते ही कण्ठसे अमृत झरता है। चक्रवर्तीके भी तीन सौ साठ रसोइयां : रसोइयां होते हैं और वे सब मिलकर एक वर्षका आहार एक दिन में बनाते हैं । अर्धचक्रवर्तीकी भी ऐसी स्थिति है। भोगभूमिके जीवोंको भोजनांग जातिके कल्पवृक्षोंसे यथेच्छ आहार प्राप्त होता है । फिर भी इन सबकी तृप्ति नहीं होती। तब साधारण मनुष्य भोजन से कैसे तृप्त हो सकता है ॥१६५०॥ गा०-टी०-यह आहार उत्तम है। इससे भी यह आहार उत्तम है इस प्रकारसे जिसका चित्त चंचल रहता है उसके चित्तमें अनुराग नहीं होता। अनुरागके बिना प्रीति नहीं होती। और प्रीतिके बिना सुख नहीं होता । इस प्रकार विभिन्न आहारोंके लम्पटी चंचलचित्त मनुष्यको आहारसे सुख नहीं होता ॥१६५१॥ गा०-हे क्षपक ! अतीतकालमें तुमने अन्न, पान, खाद्य और लेह्यके भेदसे चार प्रकारका आहार करके सब पुद्गलोंको बहुत बार खाया है फिर भी तुम्हारी तृप्ति नहीं हुई ॥१६५२!! Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '७४० भगवती आराधना किं पुण कंठप्पाणो आहारेदण अज्जमाहारं । लभिहिसि तित्ति पाऊणुदधिं हिमलेहणेणेव ॥१६५३।। "किं पुण' किं पुनः कण्ठप्राणोऽप्याहारं गृहीत्वा प्रीति लप्स्यसे । पीत्वोदधि न तृप्तो हि यथा हिमलेहनेन ॥१६५३॥ को एत्थ विभओ दे बहुसो आहारभुत्तपुवम्मि । जुज्जेज्ज हु अभिलासो अभुत्तपुव्वम्मि आहारे ॥१६५४॥ 'को एत्य विभओ' कोऽत्र विस्मयः। आहारे बहुशो भक्तपूर्वे । युज्यते आहारार्थे अभिलाषो ऽभुक्तपूर्वे ॥१६५४॥ आवादमेत्तसोक्खो आहारणो हु सुखमत्थ बहु अत्थि । दुःखं चेवत्थ बहुं आहटेंतस्स गिद्धीए ॥१६५५॥ 'आवादमित्तसोक्खो' जिह्वाग्रपातमात्रसुखं आहारः । न सुखमत्र बह्वस्ति । दुःखमेवात्र बहु 'अभिलषिताहारगृद्धया ॥१६५५॥ सुखस्याल्पतायाः कारणमाचष्टे जिब्भामूलं बोलेइ वेगदो वरहओव्व आहारो। तत्थेव रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो ॥१६५६।। जिह्राया मूलं वेगेनातिक्रामत्याहारः जात्यश्व इव । जिह्वामात्र एव रसं वेत्ति जीवो न आहारानुपरितः, न च पुरतोऽग्रतः । अल्पा च जिह्वा ॥१६५६॥ गा०-अब तो तुम्हारे प्राण कण्ठगत है अर्थात् तुम्हारी मृत्यु निकट है। जैसे समुद्रको पीकर जो तृप्त नहीं हुआ वह ओसको चाटनेसे तृप्त नहीं हो सकता। उसी प्रकार जब तुम समस्त पुद्गलोंको 'खाकर भी तृप्त नहीं हुए तब मरते समय आज भोजनसे कैसे तृप्त हो सकते हो ॥१६५३॥ गा-जो आहार तुमने पहले अनेक बार खाया है उसमें तुम्हारी उत्सुकता कैसी ? जो आहार पहले कभी नहीं खाया है उसमें अभिलाषा होना तो उचित है । जिसे तुम अनेक बार भोग चुके हो उसमें अभिलाषा होना ही आश्चर्यकारी है ।।१६५४॥ गाo--आहारमें बहुत सुख नहीं है केवल जिह्वाके अग्रभागमें रखनेमात्र ही सुख है। किन्तु इच्छितआहारकी लिप्सासे जो दुःख होता है वह दुःख ही बहुत है ॥१६५५|| आहारमें स्वल्पसुख होनेका कारण कहते हैं गा०-टी०-जैसे उत्तम घोड़ा बड़ा तेज दौड़ता है वैसे ही आहार भी जिह्वाके मूलको बड़े वेगसे पार करता है अर्थात् जिह्वापर ग्रास आते ही वह झट पेटमें चला जाता है। बस जिह्वापर रहते हुए ही जीवको आहारके स्वादको प्रतीति होती है, न पहले होती है और न १. लषितमाहा-अः। Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७४१ अच्छिणिमिसेणमेत्तो आहारसुहस्स सो हवइ कालो। गिद्धीए गिलइ वेगं गिद्धीए विणा ण होइ सुहं ॥१६५७॥ 'अच्छिणिमेसणमित्तो' अक्षिनिमेषणमात्रः कालः । आहाररससेवाजनितसुखस्य । गृद्धया वेगेन . निगिरति । यतो गृद्धया च विना नास्तीन्द्रियसुखं ॥१६५७॥ दुक्ख गिद्धीपत्थस्साहटेंतस्स होइ बहुगं च । चिरमाहट्टियदुग्गयचेडस्स व अण्णगिद्धीए ॥१६५८॥ 'दुक्खं गिद्धीपत्थस्स' दुःखं महद्भवति लम्पटतया ग्रस्तस्याभिलषतः । 'चिरमाहट्टियदुग्गदचेडस्स व अण्णगिद्धीए' अन्नगृद्धया चिरं व्याकुलस्य दरिद्रसंबंधिनो दासेरस्येव ॥१६५८॥ को णाम अप्पसुक्खस्स कारणं बहुसुहस्स चुक्केज्ज । चुक्कइ हु संकिलिसेण मुणी सग्गापवग्गाणं ॥१६५९॥ 'को णाम अप्पसुक्खस्स कारणं' को नामाल्पसुखनिमित्तं महतो निर्वृतिसुखात्प्रच्यवते च मुनिः संक्लेशेन स्वर्गापवर्गसुखाभ्याम् ।।१६५९॥ अहुलित्तं असिधारं लेहइ भंजइ य सो सविसमण्णं । जो मरणदेसयाले पच्छेज्ज अकप्पियाहारं ॥१६६०॥ 'महुलितं मधुना लिप्तामसिधारां आस्वादयति । सविषमशनं भुङ्क्ते यो मरणदेशकाले अयोग्याहारप्रार्थनां करोति ॥१६६०॥ बादमें । अर्थात् जब आहार जीभपर नहीं आया और जब आकर गलेमें उतरा तब स्वादकी अनुभूति नहीं होती ॥१६५६॥ गा०-इस प्रकार आहारसे होनेवाले सुखका काल एक बार पलकें बन्द करके खोलने में जितना समय लगता है उतना ही है अर्थात् क्षणमात्र है। आहारकी गृद्धि होनेसे आहार वेगसे निगला जाता है और गृद्धिके बिना सुख नहीं होता ।।१६५७।। गा०-जो आहारविषयक लम्पटताके साथ आहारकी आकांक्षा करता है उसे बहुत दुःख उठाना पड़ता है। जैसे अन्नकी गृद्धिसे चिरकालसे व्याकुल दरिद्र दासको कष्ट होता है वैसा ही कष्ट आहारकी लम्पटतावालेको होता है ।।१६५८।। गा०-टी०-कौन बुद्धिमान पुरुष थोड़ेसे सुखके लिये बहुत सुखसे वंचित होना चाहेगा। अर्थात् इस अन्तिम अवस्थामें आहारमें आसक्त होनेसे तुम बहुत सुखसे वंचित हो जाओगे। मुनि संक्लेश परिणाम करनेसे स्वर्ग और मोक्षके सुखसे वंचित हो जाता है-उसे स्वर्ग या मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती ॥१६५९॥ ___ गा०-टी०--जो क्षपक मरते समय अयोग्य आहारकी प्रार्थना करता है वह मधुसे लिप्त तलवारको धारको चाटता है और विष सहित अन्नको खाता है। अर्थात् जैसे मधुसे लिप्त तलवारकी धारको चाटनेसे तत्काल सुख होता है किन्तु जीभ कट जाती है वैसे ही मरते समय Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ भगवती आराधना असिधारं व विसं वा दोसं परिसरस कुणइ एयभवे । कुणइ दु मुणिणो दोसं अकप्पसेवा भवसएसु ॥१६६१॥ 'असिधारं व' असिधारा वा विषं वा पुरुषस्य दोषमेकस्मिन्नेव भवे करोति । अयोग्यसेवा भवयतेषु मुनेर्दोषं करोति ॥१६६१॥ जावंत किंचि दुक्ख सारीरं माणसं च संसारे । पत्तो अणतखुत्तं कायस्स ममत्तिदोसेण ॥१६६२॥ 'जावंत किचि दुक्ख' यावत्किचिदुःखं शारीरं मानसं वा संसारे त्वमनंतवारं प्राप्तवान् । तत्सर्व शरीरममतादोषेणव ।।१६६२।। इण्हि पि जदि ममत्तिं कुणसि सरीरे तहेव ताणि तुमं । दुक्खाणि संसरंतो पाविहसि अणतयं कालं ॥१६६३।। 'इण्हिं' पि इदानीमपि यदि शरीरे करोषि ममतां तथैव तानि दुःखानि चतुर्गतिषु परावर्तमानोऽनंतकालं प्राप्स्यसि ॥१६६३।। णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुःख । जम्मणमरणादकं छिण्ण ममत्तिं सरीरादो ॥१६६४॥ 'पत्थि भयं मरणसम' मरणसदृशं भयं नास्ति । कुयोनिषु जन्मसमानं दुःखं न विद्यते । जन्ममरणातंक 'छिन्न शरीरममतां ॥१६६४॥ अण्णं इमं सरीरं अण्णो जीवोत्ति णिच्छिदमदीओ। दुक्खभयकिलेसयारी मा हु ममत्तिं कुण सरीरे ।।१६६५।। यदि अर्हन्त आदिकी साक्षीपूर्वक त्यागे हुए आहारकी अभिलाषा करता है और उसे खाता है तो तत्काल उसे अपनी इच्छापूर्ति होनेसे सुख प्रतीत होगा। किन्तु उसकी सब आराधना गल जायेगी ॥१६६०॥ गा०-शहदसे लिप्त तलवार और विषमिश्रित अन्न तो पुरुषका एक भवमें ही अनर्थ करते हैं। किन्तु मुनिका अयोग्य आहारका सेवन सैकड़ों भवोंमें अनर्थकारी होता है ।।१६६१।। गा०-हे क्षपक ! इस संसारमें तुमने जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख अनन्त वार भोगा है वह सब शरीरमें ममतारूप दोषके कारण ही भोगा है। ॥१६६२।। गा०-इस समय भी यदि तुम शरीरमें ममता करते हो तो उसी प्रकार चारों गतियोंमें भ्रमण करते हुए अनन्त कालतक दुःख भोगोगे ॥१६६३।। ___ गा०-मरणके समान भय नहीं है और जन्मके समान दुःख नहीं है । तथा जन्म मरण रोगका कारण शरीरसे ममत्व है उसको तुम दूर करो ॥१६६४।। १. छिद्धिश-आ० मु० । Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७४३ 'अण्णं इमं सरीरं' अन्यदिदं शरीरं । अन्यो जन्तुरिति निश्चितमतिदुखसंक्लेशसंपादनोद्यतां मा कृथाः शरीरे ममताम् ॥१६६५।। सव्वं अधियासंतो उवसग्गविधि परीसहविधिं च । णिस्संगदाए सल्लिह असंकिलेसेण तं मोहं ॥१६६६।। 'सम्वं उवसग्गविहि' सर्व उपसर्गविकल्पं परीषहविकल्पं च सहमानो मोहं भवांस्तनूकुरु । 'णिस्संगतया' असंक्लेशेन च ॥१६६६॥ ण वि कारणं तणादोसंथारो ण वि य संघसमवाओ। साधुस्स संकिलेसंतस्स य मरणावसाणम्मि ॥१६६७|| 'ण वि कारणं तणादी' नैव कारणं तृणादिसंस्तरः सल्लेखनायां, नापि संघसमुदायः मरणावसाने संक्लिश्यतः साधोः ॥१६६७।। जह वाणियगा सागरजलम्मि णावाहिं रयणपुण्णाहिं । पट्टणमासण्णा वि हु पमादमूढा वि वज्जति ॥१६६८॥ 'जह वाणियगा' यथा वणिजो रत्नसंपूर्णाभिर्नीभिः सह विनश्यन्ति । समुद्रजलमध्ये प्रमादेन मूढाः पत्तनान्तिकमागता अपि ॥१६६८॥ सल्लेहणा विसुद्धा केई तह चेव विविहसंगेहिं । . संथारे विहरंता वि संकिलिट्ठा विवज्जंति ॥१६६९॥ 'सल्लेहणा विसुद्धा वि' शरीरसल्लेखनाभावात् । सल्लेखनया विशुद्धा अपि संतः । पूर्व केचित् विविध ' गा०-यह शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है ऐसा निश्चय करके दुःख भय और क्लेशको करनेवाली ममता शरीरमें मत कर अर्थात् शरीरसे ममत्वको त्याग, वही सब दुःखोंका मूल है ॥१६६५॥ गा०-सब उपसर्गोंके प्रकारोंको और सब परीषहके प्रकारोंको सहन करते हुए तुम निःसंगत्वभावनासे संक्लेश परिणामोंके बिना मोहको कृश करो ॥१६६६॥ गा०-टी०-यदि मरते समय साधुके परिणाम संक्लेशरूप होते हैं तो तुण आदिका संथरा या वैयावृत्य करनेवाले साधुका जमघट सल्लेखनाका कारण नहीं हो सकता । अर्थात् तृणादिके संथरा और वैयावृत्य करनेवाले साधु तो सल्लेखनाके बाह्य कारण है अन्तरंग कारण तो क्षपकका आर्त रौद्र रहित परिणाम ही है। उसके अभावमें केवल बाह्य कारणोंसे सल्लेखना नहीं हो सकती ॥१६६७॥ - गा०-जैसे वणिक रत्नोंसे भरी नावोंके साथ नगरके समीप तक आकर भी प्रमादवश मूढ होकर सागरके जलमें डूब जाते हैं ॥१६६८॥ गा-टी०-उसी प्रकार पहले विशुद्ध भावसे शरीरकी सल्लेखना करनेवाले भी कुछ क्षपक रागद्वेषादि भावरूप विविध परिग्रहोंके साथ संथरेपर आरूढ़ होते हुए भी संक्लेश परिणामों Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ भगवती आराधना संगेहिं विचित्र रागद्वेषादिभावपरिग्रहैः सह । 'संथारे विहरंता वि' संस्तरे प्रवर्तमाना अपि । 'संकिलिट्ठा विवज्जंति' संक्लिष्टपरिणता विनश्यन्ति ॥१६६९।। सल्लेहणापरिस्सममिमं कयं दुक्करं च सामण्णं । मा अप्पसोक्खहेउं तिलोगसारं वि णासेइ ॥१६७०।। 'सल्लेहणापरिस्सममिवं' शरीरसल्लेखनायां क्रियमाणायां अनशनादितपसा त्रिविधाहारत्यागेन, यावज्जीवं वा पानपरिहारेण जातं परिश्रममिदं । 'दुक्करं च कदं सामण्णं' दुष्करं कृतं च श्रामण्यं । चिरकालं त्रिलोकसारं अतिशयितस्वर्गापवर्गसुखदानात् । 'अप्पसुक्खहेदु' अल्पाहारसेवाजनितसुखनिमित्तं । 'मा विणसेहि' नैव विनाशय ॥१६७०॥ धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसणि सेवियं उवणमित्ता । धण्णा णिरावयक्खा संथारगया णिसज्जंति ॥१६७१॥ 'धीरपुरिसपण्णत्तं' उपसर्गाणां परिषहाणां चोपनिपातैः अविचलधृतयो ये धीरास्तैरुपदिष्टं तत्सर्वं । 'सप्पुरिसणिसेवियं' सत्पुरुषनिषेवितं मार्ग ‘उवगमित्ता' आश्रित्य । 'धण्णा' धन्याः पुण्यवंतः । 'णिरावयक्खा' निरपेक्षाः परित्यक्तादानाः । 'संथारगया' संस्तरारुढाः । “णिसज्जंति' शेरते ॥१६७१॥ तम्हा कलेवरकुडी पव्वोढव्वत्ति णिम्ममो दुक्खं । कम्मफलमुवेक्खंतो विसहसु णिव्वेदणो चेव ॥१६७२।। 'तम्हा' तस्मात् । 'कलेवरकुडो' शरीरकुटी । 'पव्वोढम्वत्ति' परित्याज्येति मत्वा । 'णिम्ममो' शरीरे ममतारहितो । 'दुक्ख विसहसु' दुःखं विसहस्व । 'कम्मफलवेमुक्खंतो' कर्मफलमुपेक्षमाणो। 'णिग्वेदणो चेव' निवेदनमिव ॥१६७२॥ इय पण्णविज्जमाणो सो पव्वं जायसंकिलेसादो । विणियत्तंतो दुक्ख पस्सइ परदेहदुक्ख वा ॥१६७३।। के कारण विनाशको प्राप्त होते हैं। अर्थात् प्रथम तो उनकी सल्लेखना ठीक रहती है। पीछे संक्लेश परिणाम होनेसे संथरेपर रहते हुए भी सल्लेखनासे भ्रष्ट हो जाते हैं ॥१६६९॥ गा०-टी. हे क्षपक ! अनशन आदि तपके द्वारा तथा तीन प्रकारके आहार और जीवन पर्यन्तके लिये पानका त्याग करके शरीरको कृश करनेमें तुमने जो परिश्रम किया है और यह अत्यन्त कठिन मुनिपद धारण किया है और इन सबसे तुम्हें जो स्वर्ग और मोक्षका सातिशय सुख मिलनेवाला है, इन सबको आहार सेवनसे होनेवाले थोड़ेसे सुखके लिये नष्ट मत करो ॥१६७०॥ गा०-उपसर्ग और परीषहोंके आनेपर भी जो विचलित नहीं होते उन धीर पुरुषोंके द्वारा कहे गये और श्रेष्ठ पुरुषोंके द्वारा सेवित इस मार्गको अपनाकर पुण्यशाली क्षपक, त्याग और ग्रहणसे निरपेक्ष होकर संस्तरपर आरूढ़ होकर विशुद्ध होते हैं ॥१६७१॥ गा०-अतः यह शरीररूपी कुटिया त्यागने योग्य है ऐसा मानकर शरीरसे ममत्त्व मत करो । तथा कर्मफलकी उपेक्षा करते हुए दुःखको इस प्रकार सहो मानो दुःख है ही नहीं ॥१६७२।। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७४५ 'इय' एवं । 'पण्णविज्जमाणो' प्रज्ञाप्यमानः । 'सो पुव्वं जावसंकिलेसादो' पूर्व जातसंक्लेशात् । 'विणियत्तंतो' विनिवर्त्यमानः । 'दुक्ख पस्सदि' दुःखं पश्यति । किमिव ? 'परदेहदुक्खवा' परशरीरगतमिव दुःखं ॥१६७३॥ रायादिमहड्डीयागमणपओगेण चा वि माणिस्स । माणजणणेण कवयं कायव्वं तस्स खवयस्स ॥१६७४।। 'रायाविमहड्ढीयागमणपओगेण' राजादिमहद्धिकागमनप्रयोगेण 'चावि माणिस्स' मानिनोऽपि । 'माणजणणेण' मानजननेन । 'कवयं कायव्व' कवचः कर्तव्यः । 'तस्स खवयस्स' तस्य क्षपकस्य । मम धीरतां द्रष्ट्र अमी महद्धिकाः समायाताः । अमीषां पुरस्ताद्यद्यपि प्राणा यान्ति यान्तु कामं तथापि स्वां मनस्वितां नाहं त्यजामीति मानधनो दुःखं सहते न कुरुते व्रतभङ्गम् ।।१६७४।। इच्चेवमाइकवचं खणिदं उस्सग्गियं जिणमदम्मि । अववादियं च कवयं आगाढे होइ कादव्वं ॥१६७५।। 'इच्चेवमादिकवचं भणिदं' इत्येवमादिकः कवचः कथितो जिनमते । 'उस्सग्गिगो' औत्सगिकः सामान्यभतः । 'अववादिगं च कवचं कादग्वं' विशेषरूपोऽपि कवचः कर्तव्यो भवत्यवगा मरणे ॥१६७५।। जह कवचेण अभिज्जेण कवचिओ रणमुहम्मि सत्तूर्ण । जायइ अलंघणिज्जो कम्मसमत्थो य जिणदि य ते ॥१६७६।। 'जह कवचेण' यथा कवचेन । 'अभिज्जेण' अभेद्येन । 'कवचिदों' सन्नद्धः । 'रणमुहे सत्तणमलंधिज्जो गा०-इस प्रकार उपदेश द्वारा समझानेपर वह क्षपक पूर्वमें हुए संक्लेशरूप परिणामोंसे अपनेको हटाकर अपने दुःख इस प्रकार देखता है, मानो वह दुःख उसके शरीरमें नहीं है किन्तु किसी दूसरेके शरीरमें है ॥१६७३।। ___ गाo-टो०-महान् ऐश्वर्यशाली राजा आदिको उस क्षपकके पास लाकर भी उस अभिमानीको मानदान देकर उसका कवच ( रक्षाका उपाय) करना चाहिये। उन्हें देख वह विचारता है कि मेरी सहनशीलताको देखनेके लिये ये बडे-बडे ऐश्वर्यशाली आये हए हैं। इनके सामने भले ही मेरे प्राण जायें तो चले जायें। तथापि मैं अपनी मनस्विताको नहीं छोडूंगा। इस प्रकार वह मानप्रेमी दुःख सहता है किन्तु व्रतभंग नहीं करता ॥१६७४।। गा०-इस प्रकार जिनमतमें कवचका औत्सर्गिक अर्थात् सामान्य स्वरूप कहा है। मृत्यु निकट होनेपर आपवादिक अर्थात् विशेषरूप भी कवच करना चाहिये ।।१६७५॥ विशेषार्थ-जिसका मरण अभी दूर है उसके लिये सामान्यरूपसे ऊपर कवचका कथन किया है। यहाँ निकट मरण वालेके लिये अपवादरूप विशेष कवचका कथन किया है । जिसका अभिप्राय यह है कि तत्काल उत्पन्न हुए ध्यानमें विघ्न डालने वाले भूख आदिके दुःखको दूर करनेके लिये यथायोग्य प्रयोग करना चाहिये। . गा०-जैसे अभेद्य कवचके द्वारा सुरक्षित योद्धा युद्धभूमिमें शत्रुओंके वशमें नहीं आता। तथा शत्रुपर प्रहार करने में समर्थ होता है और इस प्रकार शत्रुओंको जीत लेता है ॥१६७६।। Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ भगवती आराधना होबि' रणमुखे शत्रूणामलंध्यो भवति । 'कम्मसमत्थो य' प्रहरणादिक्रियासमर्थः । 'जिणदि य ते' जयति च तानरीन् ॥१६७६॥ एवं खवओ कवचेण कवचिओ तह परीसहरिऊणं । जायइ अलंघणिज्जो ज्झाणसमत्थो य जिणदि य ते ।।१६७७॥ ‘एवं खवगो' एवं क्षपकः कवचेनोपगृहीतः परीषहारिभिर्न लुप्यते, ध्यानसमर्थो जयति च तान्परीषहारीन् ।कवचुत्ति ॥१६७७॥ एवं अघियासेतो सम्म खवओ परीसहे एदे। ___ सव्वत्थ अपडिबद्धो उर्वदि सव्वत्थ समभावं ॥१६७८।। 'एवं अधियासेतो' एवं सहयानः सम्यक् परीषहानेतान् । सर्वत्राप्रतिबद्धः शरीरे, वसती, गणे, परिचारकेषु च सर्वत्रोपैति समचित्तताम् ॥१६७८॥ । सव्वेसु दव्वपज्जयविधीसु णिच्चं ममत्तिदो विजडो। णिप्पणयदोसमोहो उवेदि सव्वत्थ समभावं ॥१६७९।। 'सव्वेसु' सर्वेषु द्रव्यपर्यायविकल्पेषु नित्यं परित्यक्तममतादोषः ममेदं सुखसाधनं मदीयं इति वा । 'णिप्पणयदोसमोहो' निस्नेहो, निर्दोषो, निर्मोहः सर्वत्र समतामुपैति ॥१६७९।। संजोगविप्पओगेसु जहदि इट्टेसु वा अणिद्वेसु ।। रदि अरदि उस्सुगत्तं हरिसं दीणत्तणं च तहा ।।१६८०॥ संयोगे रति, विप्रयोगे अरति, इष्ट वस्तुन्युत्कण्ठां, इष्टयोगे 'रदि' रति, हर्ष, इष्टविप्रयोगे अरति दीनतां । 'उस्सुगत्तं' उत्सुकतां च तथा 'जहति' जहाति क्षपकः कवचेनोपगृहीतः ॥१६८०॥ गा०-उसी प्रकार कवचसे सुरक्षित क्षपक परीषह आदिके वशमें नहीं आता। तथा ध्यान करने में समर्थ होता है और उन परीषहरूपी शत्रुओंको जीत लेता है ॥१६७७|| गा०-इस प्रकार इन तत्काल उपस्थित हुई परीषहोंको सम्यक् रूपसे सहन करता हुआ क्षपक सर्वत्र शरीर, वसति, संघ और परिचर्या करनेवालोंमें अप्रतिबद्ध होता है-ये मेरे हैं मैं इनका हूँ ऐसा संकल्प नहीं करता। तथा सर्वत्र जीवन मरण आदिमें समभावको-रागद्वषसे रहितताको प्राप्त होता है ।।१६७८॥ गा०-द्रव्य और पर्यायके समस्त भेदोंमें नित्य ममता दोषको त्याग स्नेह रहित, दोष रहित और मोहरहित होकर सर्वत्र समभावको प्राप्त होता है अर्थात् समस्त द्रव्यों और पर्यायोंमें 'ये मेरे सुखके साधन हैं' इस प्रकारका ममत्व भाव नहीं रखता। किन्तु सबमें समभाव रखता है। न किसीसे प्रीति करता है और न किसीसे द्वष करता है ॥१६७९।। गा०-कवचसे उपकृत हुआ क्षपक संयोगमें रति, वियोगमें अरति, इष्ट वस्तुमें उत्कण्ठा, इष्ट वस्तुके संयोगमें रति तथा हर्ष और इष्ट वस्तुके वियोगमें अरति तथा दीनता नहीं करता॥१६८०॥ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७४७ मित्ते सुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चावि । रागं वा दोसं वा पुव्वं जायपि सो जहइ ॥१६८१।। 'मित्त सुयणादीसु य' मित्रेषु बन्धुषु वा। शिष्येषु च सधर्मणि कुले वा पूर्व जातं रागद्वेषं वासी जहाति ॥१६८१॥ भोगेसु देवमाणुस्सगेसु ण करेइ पत्थणं खवओ । मग्गो विराधणाए भणिओ विसयाभिलासोत्ति ॥१६८२॥ 'भोगेसु देवमाणुस्सगेसु' देवमानवगोचरभोगप्रार्थनां न करोति क्षपको व्यावर्णितकवचोपगृहीतः । विषयाभिलाषो मुक्तिमार्गविराधनाया मूलमिति ज्ञात्वा ॥१६८२॥ इढेसु अणिद्वेसु य सदफरिसरसरूवगंधेसु । इहपरलोए जीविदमरणे माणावमाणे च ॥१६८३।। सव्वत्थ णिन्विसेसो होदि तदो रागरोसरहिंदप्पा । खवयस्स रागदोसा हु उत्तमढें विणासंति ।।१६८४॥ स्पष्टं उत्तरगाथाद्वयं। ।१६८३।।१६८४॥ विशेषार्थ-इष्ट वस्तुके मिलनेपर या अनिष्ट वस्तुके बिछुड़नेपर चित्तमें प्रसन्नता होना, अनिष्टका संयोग अथवा इष्टका वियोग होनेपर अरति अर्थात् चित्तका दुःखी होना, इष्ट वस्तुमें उत्कण्ठा होना–यदि मुझे अमुक वस्तु मिल जाये तो अच्छा हो इस प्रकार हृदयमें उत्कण्ठा होना, हर्ष अर्थात् इष्टका संयोग होनेपर रोमांच, मुखकी प्रसन्नता आदिसे आनन्द व्यक्त होना, तथा इष्टका वियोग होनेपर मुखकी विरूपतासे विषाद व्यक्त होना, ये सब कवचसे उपगृहीत क्षपक छोड़ देता है। __ गा०-अथवा कवचसे उपगृहीत वह क्षपक मित्रोंमें, बन्धुबान्धवोंमें, शिष्योंमें साधर्मी जनोंमें और कुलमें, पूर्व में उत्पन्न हुए रागद्वषको छोड़ देता है अर्थात् समाधि स्वीकार करनेसे पर्वमें या दीक्षा ग्रहण करनेसे पर्व में जो रागदेब उत्पन्न आ है उसे दर कर आगे भी रागद्वष नहीं करता ॥१६८१॥ गा०–तथा ऊपर कहे गये कवचसे उपग्रहीत क्षपक यह जानकर कि विषयोंकी अभिलाषा मोक्षमार्गकी विराधनाका मूल है, देव और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंकी प्रार्थना नहीं करता ॥१६८२।। ___ गा०-टी०--कवचसे उपगृहीत होनेसे क्षपक इष्ट अनिष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धमें, • इस लोक और परलोकमें, जीवन और मरणमें, मान और अपमानमें सर्वत्र इष्ट अनिष्ट विकल्पसे - मुक्त और रागद्वेषसे रहित होता है। क्योंकि क्षपकके रागद्वेष उत्तमार्थ अर्थात् रत्नत्रय, सम्यक् ध्यान और समाधिमरणको नष्ट कर देते हैं ॥१६८३-१६८४|| १. विराधेति मु०। ९४ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ भगवती आराधना जदि वि य से चरिमंते समुदीरदि मारणंतियमसायं । सो तह वि असंमूढो उवेदि सन्वत्थ समभावं ।।१६८५॥ 'जदि वि य से' यद्यपि तस्य क्षपकस्य चरमकालान्ते मारणान्तिकं दुःखं भवेत् सो कवचेनोपगृहीतः क्षपकः तथापि असंमूढः समभावं सर्वत्रोपैति ॥१६८५।। एवं सुभाविदप्पा विहरइ सो जाववीरियं काये । उ'ट्ठाणे संवेसणे सयणे वा अपरिदंतो ॥१६८६॥ ‘एवं सुभाविवप्पा' निर्यापकेन सूरिणा गदितोर्थ एवमित्युच्यते । तेन सम्यग्भावितचित्तः सन्विहरदि प्रवर्तते अपरिश्रान्तः । 'जाववीरियं काये' यावच्छरीरे बलमस्ति उत्थाने, शयने आसने वा ॥१६८६॥ जाहे सरीरचेट्ठा विगदत्थामस्स से यदणुभूदा । देहादि वि ओसग्गं सव्वत्तो कुणइ णिरवेक्खो ॥१६८७।। 'जाहे सरीरचेवा' यदा शरीरचेष्टा विगतबलस्य तस्य स्वल्पा जाता, तदा शरीरादुत्सर्ग करोति सर्वतो मनोवाक्कार्यनिरपेक्षः ।।१६८७॥ तदेवं शरीरादिकं त्याज्यमुत्तरगाथया दर्शयति सेज्जा संथारं पाणयं च उवधि तहा सरीरं च । विज्जावच्चकरा वि य वोसरह समत्तमारूढो ।।१६८८।। 'सेज्जा' वसति । संस्तरं तृणादिकं, पानं पिच्छं, शरीरं च वैयावृत्यकरांश्च व्युत्सृजति । 'समत्तमारूढो' समाप्तं संपूर्ण रत्नत्रयमारूढः ।।१६८८।। गा०-यद्यपि उस क्षपकको अन्तिम समयमें मरण प्राप्त होनेतक दुःख होता है तथापि वह कवचसे उपगृहीत क्षपक शरीरसे भी मोह न रखता हुआ सर्वत्र समभाव धारण करता है ॥१६८५॥ गा-इस प्रकार निर्यापकाचार्यके द्वारा कहे गये पदार्थ स्वरूपसे अपने चित्तको सम्यक् रूपसे भावित करके वह क्षपक जबतक शरीरमें शक्ति रहती है तबतक बिना थके उठने बैठने और सोने में स्वयं प्रवृत्ति करता है ।।१६८६।। गा०-जब शक्तिहीन होनेपर उसकी शारीरिक चेष्टा मन्द पड़ जाती है तब वह मन वचन कायसे निरपेक्ष होकर शरीरका भी त्याग करता है ॥१६८७।। आगेकी गाथासे शरीर आदिको त्याज्य बतलाते हैं गा०-सम्पूर्ण रत्नत्रयमें आरूढ हुआ वह क्षपक वसति, तृणादि रूप संस्तर, पानक, पिच्छी, शरीर तथा वैयावृत्य करनेवालोंका भी त्याग कर देता है अर्थात् उन सबसे भी निरपेक्ष हो जाता है ॥१६८८॥ १. उट्ठाणे सयणे वा णिसीयणे -आ० मु० । Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका अवहट्ट कायजोगे व विप्पओगे य तत्थ सो सव्वे । सुद्धे मणप्पओगे होइ णिरुद्धज्झवसियप्पा ॥१६८९।। 'अवहट्टकायजोगे' वाग्योगान्काययोगांश्च सर्वान्निराकृत्य असावत्र मनोयोगे शुद्ध स्थितो भवति । विषयान्तरसंचारान्निरुद्धं अध्यवसितं च आत्मरूपं ज्ञानाख्यं यस्य सः ।।१६८९।। एवं सव्वत्थेसु वि समभाव उवगओ विसुद्धप्पा । मित्ती करुणं मुदिदमुवेक्ख खवओ पुण उवेदि ॥१६९०।। ‘एवं सव्वत्येसु वि' एवं सर्ववस्तुष समतापरिणाममुपगतो विशुद्धचित्तः, मैत्री, करुणां, मुदितामुपेक्षा च पश्चादुपैति क्षपकः ॥१६९०।। मैत्रीप्रभृतीनां चिन्तानां विषयमुपदर्शयति जीवेसु मित्तचिंता मेत्ती करुणा य होइ अणुकंपा । मुदिदा जदिगुणचिंता सुहदुक्खधियासणमुवेक्खा ॥१६९१।। 'जोवेसु मित्तचिता' अनन्तकालं चतसृषु गतिषु परिभ्रमतो घटीयन्त्रवत्सर्वे प्राणभृतोऽपि बहुशः कृतमहोपकारा इति तेषु मित्रताचिन्ता मैत्री। 'करुणा य होइ अणुकंपा' शारीरं, आगन्तुकं मानसं स्वाभाविक च दुःखमसामाप्नुवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपाजिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कन्धतदुदयोद्भवा विपदो विवशाः प्राप्नुवन्ति इति करुणा अनुकम्पा । मुदिता नाम यतिगुणचिन्ता यतयो हि विनीता, विरागा, विभया, विमाना, विरोषा, विलोभा इत्यादिकाः । सुखे अरागा दुःखे वा अद्वेषा उपेक्षेत्युच्यते ॥१६९१॥ समता गता। गा०-वह सब काययोगों और वचनयोगोंको दूरकर शुद्ध मनोयोगमें स्थिर होता है। क्योंकि वह अपने ज्ञानरूप आत्माको युक्ति और तर्क वितर्कसे निश्चित करके उसे अन्य विषयोंमें जानेसे रोकता है ॥१६८९|| गा०—इस प्रकार सब वस्तुओंमें समताभाव धारण करके वह क्षपक निर्मल चित्त हो जाता है। फिर मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावनाको अपनाता है ॥१६९०।। ___ मैत्री आदि भावनाओंको कहते हैं गा०-टी०-अनन्तकाल चारों गतियोंमें भ्रमण करते हुए घटीयंत्रकी तरह सभी प्राणियोंने मेरा बहुत उपकार किया है अतः उनमें मित्रताकी भावना होना मैत्री है। असह्य शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक और स्वाभाविक दुःखको भोगते हुए प्राणियोंको देखकर, अरे बेचारे मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और अशुभ योगसे उपार्जित अशुभ कर्मरूप पुद्गल स्कन्धोंके उदयसे उत्पन्न हुई विपदाओंको विवश होकर भोगते हैं। इस प्रकारके भावको करुणा या अनुकंपा कहते हैं । यतियोंके गुणोंके चिन्तनको मुदिता कहते हैं । यतिगण विनयी, रागरहित, भयरहित, मानरहित, रोषरहित और लोभरहित होते हैं इत्यादि चिन्तन मुदिता है। सुखमें राग और दुःखमें द्वष न करना उपेक्षा है ।।१६९१।। Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० भगवतो आराधना दसणणाणचरित्तं तवं च विरियं समाधिजोगं च । तिविहेणुवसंपज्जिय सव्वुवरिल्लं कम कुणइ ॥१६९२।। 'दसणणाणचरितं तवं विरियं समाधिजोगं च' तत्त्वश्रद्धानं तत्त्वावगम, वीतरागतां, अशनत्यागक्रियां, स्वशक्त्याऽनिगहनं चित्तकाग्रयोग । 'तिविधेणवसंपज्जिय' मनोवाक्कायः प्रतिपद्य । 'सब्ववरिल्लं' सर्वेभ्यः पूर्वप्रवृत्तदर्शनादिपरिणामेम्योऽतिशयितं कम 'कुणदि' क्रमं दर्शनादिपदन्यासं करोति ॥१६९२॥ शुभध्यानमारुरुक्षतः परिकरमाचष्टे जिदरागो जिददोसो जिदिदिओ जिदभओ जिदकसाओ । अरदिरदिमोहमहणो ज्झाणोवगओ सदा होहि ॥१६९३।। "जिदरागों' स्वतो व्यतिरिक्तेषु जीवाजीवद्रव्येषु तेषां पर्यायेषु रूपरसगंधस्पर्शशब्दाख्येषु विचित्रभेदेषु तत्संस्थानादिषु च यो रागः स जितो येन सोऽभिधीयते । तथा मनोज्ञेषु याप्रीतिः स दोष उच्यते स च जितो येन स जितदोषः । "णेहुत्तपिदगत्तस्स रेणुगो लग्गदे जहा अंगे । तह रागदोसणेहोल्लिदस्स 'कम्मासवो होदि ॥" [मूलाचार २३६] इति । जिनवचनाधिगमादुःखभीरुयंतिः सर्वदुःखानां मूलकारणभूतौ रागद्वषाविति मनसा विनिश्चित्य गा०-टी०-दर्शन अर्थात् तत्त्वश्रद्धान, तत्त्वज्ञान और चारित्र अर्थात् वीतरागता, तप अर्थात् भोजनका त्याग, वीर्य अर्थात् अपनी शक्तिको न छिपाना, तथा समाधियोग अर्थात् चित्रकी एकाग्रता, इन सबको मन वचन कायसे प्राप्त करके क्षपक पूर्वके दर्शन आदिसे विशिष्ट दर्शन आदिमें पग धरता है ॥१६९२॥ विशेषार्थ-मैत्री आदि भावनाके बलसे व्यवहार मोक्षमार्गको प्राप्त करके क्षपक परमार्थ मुक्तिमार्गपर चलनेका प्रयत्न करता है यह इस गाथाके द्वारा कहा है। यह शुभतम ध्यानके लिये प्रयत्नका प्रारम्भ है ।।१६९२॥ . आगे शुभध्यानकी सामग्री कहते हैं गा०-जो जितराग, जितद्वेष, जितेन्द्रिय, जितभय, जितकषाय और अरति रति तथा मोहका मथन करता है वह सदा ध्यानमें लीन रहता है। टो-अपनेसे भिन्न जीव अजीव द्रव्योंमें, रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्द रूप उनकी पर्यायोंमें तथा अनेक भेदवाले उनके आकारादिमें जो रागको जीतता है उसे जितराग कहते हैं। तथा अमनोज्ञ वस्तुओंमें प्रीतिका अभाव दोष है। जिसने उसे जीत लिया वह जितदोष है। 'जैसे जिसका शरीर तेलसे लिप्त होता है उसके शरीरमें धूल लगती है। उसी प्रकार जो राग द्वेष और स्नेहसे लिप्त होता है उसके कर्मोंका आस्रव होता है।' इस जिनागमको जानकर दुःखसे भीत यति 'सब दुःखोंका मूल कारण रागद्वेष है ऐसा १. कम्मं मुणेयव्वं -मूला० । Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७५१ यस्तयोर्न विपरिणमते सोऽभिधीयते जितरागद्वेषः इति । तस्योपायो जितेन्द्रियतेत्याचष्टे--जह जिदिदिओ इति वाक्यशेषं कृत्वा सम्बन्धः । 'जिदिदिओ' इन्द्रियशब्देन रूपाद्यालम्बनोपयोगः परिगृह्यते स जितो येन स उच्यते जितेन्द्रिय इति । कथमसौ मतिज्ञानोपयोगो जेतुं शक्यते इति चेत् श्रुतज्ञानोपयोगे एव वृत्तात्मनः 'सत्यां, युगपदुपयोगद्वयस्यात्मन्येकदा विरोधादप्रवृत्तः । न च बाह्यद्रव्यालम्बनमपयोगमन्तरेणास्ति संभवो रागद्वेषयोः । संकल्पपुरोगौ हि ताविति । 'जिदकसायो' क्षमामार्दवार्जवसंतोषपरिणामनिरस्तकषायपरिणामप्रसरो जितकषाय इत्युच्यते । अरते रतेश्च कर्मण उदये उपजाती रत्यरतिपरिणामी, मोहो, मिथ्याज्ञानं च सम्यग्ज्ञानभावनया मथ्नाति यः स भण्यते 'अरविरदिमोहमधणो' । एवं निरस्तध्यानप्रतिपक्षपरिणामः । 'ज्झाणोवगदो होदि' ध्यानाख्यं परिणाममाश्रितो भवति । न हि रागादिभिर्व्याकुलीकृतस्य अर्थयाथात्म्यग्नाहि भवति विज्ञानं अविचलं च नावतिष्ठते । अविचलमेव वस्तुनिष्ठं ज्ञानं ध्यानमिष्यते ॥१६९३।। धम्मं चदुप्पयारं सुक्कं च चदुविघं किलेसहरं । संसारक्खभीओ दण्णि वि ज्झाणाणि सो ज्झादि ।।१६९४।। 'धम्म चदुप्पयारं' धर्मध्यानं चतुःपकारं । धारयति वस्तुनो वस्तुतामिति धर्मः । स्वभावातिशयादेव चैतन्यादिकाज्जीवादिकं वस्तु भवति । स्वभावातिशयभावादेव वस्तु भण्यते न खरविषाणादि, तेन धर्मशब्दो मनसे निश्चित करके राग दोषरूप परिणमन नहीं करता। उस यतिको जितराग द्वेष कहते हैं । उसका उपाय है जितेन्द्रिय होना । यहाँ इन्द्रिय शब्दसे रूपादिका आलम्बन लेकर जो उपयोग होता है उसका ग्रहण किया है । उसे जो जीत लेता है वह जितेन्द्रिय है। यह जो मतिज्ञानरूप उपयोग है इसको कैसे जीता जा सकता है ? श्रुतज्ञानरूप उपयोगमें ही मनकी प्रवृत्ति होनेपर मतिज्ञानरूप उपयोग जीता जा सकता है। क्योंकि एक साथ एक आत्मामें दो उपयोगोंका विरोध होनेसे दो उपयोगोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। और जबतक उपयोगका आलम्बन बाह्य द्रव्य न हो तबतक रागद्वेष नहीं हो सकते। क्योंकि रागद्वोष संकल्पपूर्वक होते हैं। तथा जो क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष परिणामसे कषायरूप परिणामोंके प्रसारको निरस्त कर देता है उसे जितकषाय कहते हैं। अरति और रति कर्मका उदय होनेपर उत्पन्न हुए रति और अरतिरूप परिणामोंको और मोह अर्थात् मिथ्याज्ञानको जो सम्यग्ज्ञानरूप भावनासे मथता है उसे 'अरतिरति मोहमथन' कहते हैं । इस प्रकार जो ध्यानके विरोधी परिणामों को दूर करता है वह ध्यान नामक परिणामको करता है। जो रागादिसे व्याकुल रहता है उसका ज्ञान न तो अर्थके यथार्थस्वरूपको ही ग्रहण करता है और न निश्चल ही रहता है। और वस्तुनिष्ठ निश्चल ज्ञानको ही ध्यान कहते हैं ॥१६९३।। गा०-धर्मध्यान चार प्रकारका है और शुक्ल ध्यान भी चार प्रकारका है। ये ही ध्यान कष्टको हरनेवाले हैं। चतुर्गति परावर्तनरूप संसारमें जो दुःख होते हैं उनसे भीत मुनि धर्म और शुक्लध्यानोंको ध्याता है ।।१६९४।। टो०-जो वस्तुकी वस्तुताको धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। चैतन्य आदिरूप स्वभावके अतिशयसे ही जीवादि वस्तु होती है। स्वभावरूप अतिशयके होनेसे ही वस्तु कहलाती १. एव वृत्तमात्मनः सत्यं आ०-योगे आत्मनः प्रवृत्तौ सत्यां मु० । Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ भगवती आराधना वस्तुस्वआववाची। धर्माद्वस्तुस्वभावादनपेतमिति धर्म्यमित्युत्यते । यद्येवमार्तादेरपि धर्मादनपेतत्वमस्ति । सम्प्रयुक्तामनोज्ञवस्तुवियोगं, वियुक्तमनोज्ञवस्तुयोगं, रोगातङ्कादिप्रशमनं, अभिमतप्राप्ति च धर्ममाश्रित्य प्रवर्तमानत्वाद्धर्मादनपेततेति । नैष दोषः विवक्षितधर्मविशेषवृत्तिधर्मशब्दः । अत एव आज्ञापायविपाकसंस्थान मित्यादिकधर्मेयेयैरनपेतत्वाद्यद्धयानमाज्ञाविचयादिसंज्ञाभिरुच्यते। ध्येयं ज्ञेयवस्तुस्वरूपं तदविनाभावि च ज्ञानं ध्यानमिति संगतार्थं व्याख्येयं । अन्य तु व्याचक्षते-क्षमामार्दवार्जवादिकाद्धर्मादनेपतत्वाद्धयं इति । ननु च ध्यानं ध्येयाविनाभावि न च क्षमादयो धर्मा ध्येया येन तदनपेतत्वमुच्यते । अथ क्षमादिको दशविधो धर्मो ध्येयस्तस्मादनपेतस्तस्यान्यत्राप्रवृत्तेः 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यमिति सूत्र न युज्यते' । उत्तमक्षमादिधर्मपरिणतादात्मनोऽनपेतत्वात् धर्मादनपेततेति धर्म्यमित्युच्यत इति चेत शुक्लस्यापि धर्मादनपेतत्वा द्धम्यंध्यानता स्यादत्रोच्यते-रूढिशब्देषु क्वचित्संभाविनी क्रियामाश्रित्य शब्दव्युत्पत्तिमा क्रियते । न सा क्रिया तन्त्रं आशुगमनादश्व इति व्युत्पाद्यमानः स्थिते शयिते च प्रवर्तते न चाशुयायिन्यपि वैनतेयादौ प्रवर्तते । तद्वदिहापि शुक्ले न धर्मशब्दो वर्तते । धर्मादन्यत्राप्याज्ञादौ वर्तते । अथ कि ध्यानं, 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता है। इसीसे गधेके सोंग नामकी कोई वस्तु नहीं है। अतः धर्म शब्द वस्तुस्वभावका वाचक है । धर्म अर्थात् वस्तु स्वभावसे जो सहित है उसे धर्म्य कहते हैं। शंका-यदि ऐसा है तो आर्तध्यान आदि भी धर्मसे सहित है। क्योंकि प्राप्त अनिष्ट वस्तुके वियोग, वियुक्त इष्ट वस्तुके संयोग, रोग आदिकी शान्ति और इष्टको प्राप्ति आदि धर्मको लेकर आर्तध्यान होता है अतः वह भी धर्मसे युक्त होनेसे धर्मध्यान कहा जाना चाहिये ? ___ समाधान-यह दोष ठीक नहीं है। यहाँ धर्म शब्द विवक्षित धर्मविशेषको कहता है। अतः आज्ञा, अपाय, विपाक, संस्थान आदि धर्म जिसमें ध्येय होते हैं उस ध्यानको आज्ञाविचय आदि नामोंसे कहा जाता है। अन्य कुछ आचार्य क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि धर्मो से युक्त होनेसे धर्म्य कहते हैं। __ शंका०-ध्यान ध्येयका अविनाभावी है। ध्येयके बिना ध्यान नहीं होता। किन्तु क्षमा आदि धर्म ध्येय नहीं है अतः उनसे युक्त ध्यानको धर्म्य नहीं कह सकते। यदि क्षमा आदि दस प्रकारका धर्म ध्येय है और उससे सहित ध्यान धर्म्य है तो वह ध्यान अन्यत्र प्रवृत्त नहीं हो सकता। तब तत्त्वार्थ सूत्रमें जो कहा है कि आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानका चिन्तन धर्म्यध्यान है वह नहीं बनता; क्योंकि आत्मा तो उत्तम क्षमा आदि धर्मरूपसे परिणत होनेसे उनसे सहित ही है। वह उनसे हटकर अन्यमें प्रवृत्त होता नहीं । यदि कहोगे कि धर्मसे युक्तताका नाम धर्म्य है तो शुक्लध्यान भी धर्मसे युक्त होनेसे धर्म्यध्यान कहलायेगा। समाधान-रूढिशब्दोंमें कहींपर होनेवाली क्रियाको लेकर शब्दकी मात्र व्युत्पत्ति की जाती है किन्तु वह क्रिया सिद्धान्तरूप नहीं होती। जैसे आशु-शीघ्र गमन करनेसे अश्व शब्द निष्पन्न होता है। किन्तु जब वह घोड़ा बैठा होता है या सोता है तब भी उसे अश्व (घोड़ा) ही कहते हैं । तथा गरुड़ वगैरह तेज चलते हैं किन्तु उन्हें अश्व नहीं कहते । उसी तरह यहाँ भी धर्म शब्दसे शुक्लध्यान नहीं कहा जाता। तथा उत्तम क्षमा आदि धर्मो से भिन्न आज्ञाविचय आदिको धर्म्य कहा जाता है। शंका-ध्यान किसे कहते हैं ? समाधान-तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है उत्तम संहनन वालेके एकाग्रचिन्ता निरोधको ध्यान Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७५३ निरोधो ध्यानम्' [त. सू० ९।२७] इति चेत् षट्सु संहननेष्वाद्यं त्रितयं संहननं च वज्ररिषभनाराचसंहननं, वज्रनारासंहननं, नाराचसंहननमिति । तेषु त्रिषु एक संहननं यस्य स उत्तमसंहननस्तस्य एकमग्रं मुखमस्येत्येकाग्रे यश्चिन्तानिरोधः स ध्यानमित्युच्यते । ननु चिन्तानिरोधः चिन्ताया अभावस्तस्य का एकमुखता, कथं वा कर्मणां भावे अभावे च. निमित्तता । आतरौद्रयोरशुभकर्मनिमित्ततेष्यते । इतरयोस्तु शुभकर्मणां निमित्तता निर्जरायाश्च हेतुतेष्टा । अत्रोच्यते-न निरोधशब्दोऽत्राभाववाची किंतु रोधवचनो यथा मूत्रनिरोध इति । ननु च परिस्पन्दवतो निरोधो भवति । चिन्तायास्तु को निरोध इत्यत्रोच्यते । केचित्प्रवदन्ति' नानाविलम्बनेन चिन्ता परिस्पंदवती तस्या एकस्मिन्नने नियमश्चिन्तानिरोध इति त इदं प्रष्टव्याः । नानार्थाश्रया चिन्ता सा कथमेकत्रव प्रवर्तते ? एकत्रैव चेत् प्रवृत्ता नानार्थावलम्बनं परिस्पन्दं नासादयतीति निरोधवाचो युक्तिरसंगता, 'तस्मादेवमत्र व्याख्यानं चिन्ताशब्देन चैतन्यमुच्यते तच्च चैतन्यमन्यमन्यं वार्थमवगच्छता ज्ञानपर्यायरूपेण वर्तत' इति परिस्पन्दवत्तस्य निरोधो नाम एकत्रैव विषये प्रवृत्तिस्तथा हि य एकत्रव वर्तते स तत्र निरुद्ध इति भण्यते । उत्तमसंहननप्रयोगादेवातरौद्रयोरनुत्तमसंहननेषु तिर्यङ्मानवेषु प्रवृत्तिन स्यात् । तेन तद्धयानावलम्बनो गतिविभागो न स्यात्तेषामनुभवविरोधश्चेदानींतनानामपि तयोर्वत्तेः सूत्रान्तरविरोधश्च "तदविरतदेश कहते हैं। छह संहननोंमेंसे आदिके तीन संहनन वज्रर्षभ नाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन उत्तम है । इनमेंसे एक संहनन जिसके हो उसे उत्तम संहनन कहते हैं । उसके एक है अन अर्थात् मुख जिसका उस एकाग्रमें जो चिन्ताका निरोध है वह ध्यान है। शङ्का-चिन्ता निरोधका अर्थ होता है चिन्ताका अभाव । अभाव एक मुख कैसा ?' तथा अभाव कर्मो के भाव या अभावमें निमित्त कसे हो सकता है ? आगममें आर्तध्यान और रौद्रध्यानको अशुभ कर्मो के आस्रवबन्धमें निमित्त कहा है। तथा धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानको शुभ कार्यों में निमित्त कहा है तथा निर्जराका भी हेतु कहा है। समाधान-चिन्ता निरोधमें निरोध शब्दका अर्थ अभाव नहीं है किन्तु उसका अर्थ है रोकना । जैसे मूत्रनिरोध अर्थात् मूत्रको रोकना । शङ्का-जिसमें हलन चलन होता है उसका निरोध होता है चिन्ता का निरोध कैसा? समाधान-कुछ आचार्य कहते हैं, नाना अर्थों का अवलम्बन करनेसे चिन्ता हलन चलन रूप होती है । उसको एक विषयमें नियमित करना चिन्ता निरोध है। उनसे यह पूछना है कि जब चिन्ता नाना अर्थो का आश्रय लेनेवाली है तो वह एक ही स्थानमें कैसे रुक सकती है ? यदि वह एक ही स्थानमें रुक सकती है तो नाना अर्थो के अवलम्बन रूप परिस्पन्द वाली नहीं हो सकती। इसलिये उसका निरोध कहना असंगत है। इसलिये चिन्तानिरोधका अर्थ ऐसा करना चाहिये-चिति धातुसे चिन्ता शब्द बना है उसीसे चैतन्य भी बना है। अतः चिन्ता शब्दसे यहाँ चैतन्य कहा है। वह चैतन्य अन्य-अन्य पदार्थो को जानते हुए ज्ञानपर्याय रूपसे वर्तन करता है अतः वह परिस्पन्द वाला है। उसका निरोध अर्थात् एक ही विषयमें प्रवृत्ति। क्योंकि जो एक ही विषयमें प्रवृत्ति करता है उसे वहीं निरुद्ध कहा जाता है। शङ्का-ध्यानके लक्षणमें 'उत्तम संहनन' विशेषणका प्रयोग करनेसे अनुत्तम संहननवाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं हो सकेंगे। ऐसा होनेसे उन ध्यानोंको लेकर जो गतिका विभाग किया है वह नहीं बनेगा। तथा ऐसा कहना अनुभवसे भी विरुद्ध है १. सर्वार्थसिद्धि ९।२७ । २. द्रष्टव्याः अ, आ० । ३. चितिशब्देन-अ० । Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ भगवती आराधना विरतप्रमत्तसंयतानां" "हिंसान्तस्तेयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयो"रिति [ त० सू० ९।३५ ] गुणस्थानमात्राश्रयणेनैव स्वामिनिर्देशकृतत्वात् । ___ अत्र प्रतिविधीयते-निर्जराहेतुतया विकल्पे ध्यानेषु तत्प्रस्तुते युक्तं साक्षात् मुक्त्यङ्ग ध्यानं निर्देष्टुमिति मन्यमानेन उत्तमसंहननग्रहणं कृतं सूत्रकारेण । यद्येवं आर्तरौद्रधर्म्यशक्लानीति सूत्रमुत्तरं नोपपद्यते न निर्जराहेतुतास्त्यातरौद्रयोरिति । अत्रोच्यते 'उत्तमसंहननस्यकानचिन्तानिरोधो ध्यानमितीदं सूत्र" मुख्यं घ्यानं मुक्त्यङ्गमुद्दिश्य प्रवृत्तमुत्तरं तु सूत्रमार्तरौद्रधय॑शुक्लानीत्येतदेकाग्रचिन्तानिरोधसामान्यान्तर्भूतं अनभिमतमपि ध्यानं निरूपयति । प्रस्तुतस्यैव ध्यानस्य अनभिमतध्यानविविक्तरूपमधिगमयितुमतः प्रासंगिकयोः आतरौद्रयोरुत्तरन्यास इति न दोषः । अथवोत्तमसंहननग्रहणं वीर्यातिशयवत आत्मन उपलक्षणं, उत्तमसंहननस्य वीर्यातिशयवतो आत्मनो यदेकवस्तुनिष्ठं ध्यानं तत् ध्यानमिति सूत्रार्थः ॥ 'सुक्कं च चदुविधं' शुक्लं च ध्यानं चतुर्विधं ध्यानं क्लेशहरं संसारदुःखभीरुः चतुर्गतिपरावर्तनेन यानि दुःखानि तेम्यो भीतः । 'दोण्णि वि' द्वे 'झाणाणि' ध्याने धर्म्यशुक्ले 'सो' क्षपकः 'झादि' ध्यायति ॥१६९४॥ ण परीसहेहिं संताविदो वि सो झाइ अझरुद्दाणि । सुद्रुवहाणे सुद्धं पि अट्टरुद्दा वि णासंति ॥१६९५।। 'ण परिस्सहेहि' स क्षपकः 'परिस्सहेहि' परीषहैः । 'संतावियो वि' बाधितोऽपि 'अट्टाहाणि' आत्तं क्योंकि आजके मनुष्योंके भी आर्त और रौद्रध्यान होते हैं। तथा उक्त कथनका विरोध अन्य सूत्रोंसे भी होता है। क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें ही गुणस्थान मात्रका आश्रय लेकर आर्त और रौद्रध्यानके स्वामियोंका कथन किया है । यथा-आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयतों के होता है । रौद्रध्यान अविरत और देशविरतके होता है। समाधान-तत्त्वार्थसूत्रकारने नौवें अध्यायमें निर्जराके कारणोंका विवेचन करते हए जब ध्यानका वर्णन किया तो 'साक्षात् मुक्तिकारण ध्यानका निर्देश करना उचित है' ऐसा मानकर ध्यानके लक्षणमें उत्तम संहननपदका ग्रहण किया है। शंका-यदि ऐसा है तो 'आर्त रौद्र धर्म और शुक्ल' ये चार ध्यान है ऐसा सूत्र नहीं कहना चाहिये था क्योंकि आर्त रौद्र निर्जराके कारण नहीं है। समाधान–'उत्तम संहनन' इत्यादि सूत्र जो मुख्य ध्यान मुक्तिके कारण हैं उनको लक्ष्य करके रचा गया है। आगेका सूत्र, जिसमें ध्यानके चार भेदोंके नाम गिनाये हैं, एकाग्न चिन्ता निरोध सामान्यमें अन्तर्भूत सब ध्यानोंको बतलाता है। अर्थात् आर्त रौद्रमें भी ध्यान सामान्यका लक्षण घटित होता है इसलिये ध्यानके भेदोंमें उनको गिनाया है । यद्यपि वे मोक्षके कारण नहीं हैं। अतः अनिष्ट ध्यानोंसे भिन्न प्रस्तुत धर्म्य शुक्लध्यानोंका ही स्वरूप बतलानेके लिये सूत्रकारने आर्त और रौद्रध्यानोंका कथन किया है। अथवा उत्तम संहनन पद अतिशय वीर्यशाली आत्माका उपलक्षण है। उत्तमसंहनन अर्थात् अतिशय वीर्यसे विशिष्ट आत्माके जो एक वस्तुनिष्ठ ध्यान होता है वही ध्यान है, ऐसा उस सूत्रका अर्थ होता है । संसारसे भीत क्षपक धर्म्य और शुक्लध्यानोंको ध्याता है ॥१६९४|| गा०-वह क्षपक परीषहोंसे पीड़ित होनेपर भी आर्त और रौद्रध्यान नहीं करता। क्योंकि Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका रौद्रं च 'न झाई' ना घ्याति । 'सुट्ठवहाणे' सुष्ठु उपधाने । शुद्धमपि 'अट्रुद्दाणि णासंति' आर्तरौद्रध्याने नाशयतः ।। १६९५ ॥ अट्टे उप्पारे रुद्द य चउच्विधे य जे मेदा । ते सव्वे परिजादि संथारगओ तओ खवओ || १६९६ ॥ 'अट्टे चदुप्पयारे' आर्तें चतुःप्रकारे, 'जे भेदा रुद्द य चदुग्विधे' ये 'भेदाः । 'ते सध्वे परिजाणदि' तान् सर्वान् विजानाति । 'संथारगदो' संस्तरगतः । 'तओ खवगो' असौ क्षपकः । यो यत् परिहरेच्छुस्स कथं तत्तत्त्वतोऽनवबुध्यमानो नियोगतः परिहरेदिच्छेद् वार्थे आर्तरौद्रं परिहरन् तस्मात् ज्ञातव्ये ते इति दर्शयति ।। १६९६ ॥ अणुण संपओगे इट्ठविओए परिस्सहणिदाणे । अहं कसायसहियं झाणं भणियं समासेण ॥१६९७|| तेणिक्कमो सहिंसा रक्खणेसु तह चैव छव्विहारंभे । रुद्द कसायसहियं झाणं भणियं समासेण || १६९८।। अवहट्ट अरुदे महाभये सुग्गदीए पच्चूहे | धम्मे सुक्के य सदा होदि समण्णागदमदी सो || १६९९ ।। 'अवहट्ट' अपहृत्य । 'अट्टरुद्दे' आर्त्तरौद्रे । महतो भयस्य हेतुत्वान्महाभये । 'सुग्गदीए पन्चूहे ' सुगविघ्नभूते । 'धम्मे सुक्के वा' धर्म्ये शुक्ले वा ध्यानेऽसौ क्षपकः । 'समण्णागदमदी सो होदि' सम्यगनुपरतमतिर्भवति ।।१६९७।। १६९८।।१६९९।। ७५५ आर्त और रौद्र ध्यान सुष्ठु उपधान अर्थात् संक्लेशरहित परिणामोंसे, विशुद्ध अर्थात् कर्मों को निर्जीर्ण करने की शक्तिसहित भी समीचीन ध्यानको नष्ट कर देते हैं ।। १६९५ ।। गा० - आर्तध्यानके जो चार भेद हैं और रौद्रध्यानके जो चार भेद हैं। सब सस्तरपर आरूढ़ क्षपक जानता है । जो जिसको त्यागना चाहता है वह उसको यदि यथार्थरूपसे नहीं जानता तो कैसे उसका त्याग कर सकता है । अतः क्षपकको आर्त और रौद्र ध्यानोंका स्वरूप जानना चाहिये | इसलिये उनको भी बतलाते हैं ॥१६९६ ।। गा० अनिष्ट संयोग, इष्टवियोग, परीषह ( वेदना ) और निदान ये संक्षेपमें कषायसहित आर्तध्यानके चार भेद हैं ॥१६९७ ॥ गा०-- चोरी, झूठ, और हिंसाका रक्षण तथा छह प्रकारके आरम्भको लेकर संक्षेपसे कषाय सहित रौद्रध्यानके चार भेद हैं ।। १६९८|| गा० - सुगति में विघ्न डालनेवाले और महान् भयके कारण होनेसे महाभयरूप रौद्र और आर्तध्यानको त्यागकर वह सम्यक् वुद्धिसम्पन्न क्षपक धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानको ध्याता है ॥१६९९॥ १. दिच्छदि वार्य -अ० । ९५ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ भगवती आराधना किमर्थमसौ ध्यानयोः शुभयोर्वर्तत इत्याशङ्कायां ध्यानप्रवृत्ती कारणमाचष्टे इंदियकसायजोगणिरोधं इच्छं च णिज्जरं विउलं । चित्तस्स य वसियत्तं मग्गादु अविप्पणासं च ।।१७००॥ 'इंदियकसायजोगणिरोध' स्पर्शादिषपजात उपयोग इन्द्रियशब्देनोच्यते । कषायाः क्रोधादयस्तै योगः । सम्बन्धस्तस्य निरोधं निवारणामिच्छन्निरां च विपुलामिच्छन्, वस्तुयाथात्म्यसमाहितचित्तस्य नेन्द्रियविषयजन्योपयोगसंभवः, कषायाणां चोत्पत्तिः 'चित्तस्स य वसियत्तं' चित्तस्य स्ववशत्वं इच्छन् स्वेष्टे विषये चित्तमसकृत्स्थापयतोऽनिष्टाच्च व्यावर्तयतः स्ववशं भवति चित्तं । 'मग्गादो अविप्पणासंच' मार्गाद्रत्नत्रयादविप्रणाशं च वांछन्, अशुभध्यानप्रवृत्तो रत्नत्रयात्प्रच्युतो भवामीति ध्याने प्रयतते ॥१७००।। ध्यानपरिकरप्रतिपादनायोत्तरगाथा किंचिवि दिद्विमुपावत्तइत्त झाणे णिरुद्धदिट्ठीओ । अप्पाणंहि सदि संघित्ता संसारमोक्खटुं ॥१७०१॥ "किंचिवि दिट्टिमुपावत्तइत्त' बाह्यद्रव्यालोकात् किंचिच्चक्षुर्व्यावर्तयित्वा । 'झाणे णिरुद्धविट्ठीओ' एकविषये परोक्षज्ञाने निरुद्धचैतन्यः । 'दृष्टिनिमित्ते हि चैतन्ये दृष्टिशब्दोऽत्र युक्तः । 'अप्पाणंहि' आत्मनि । 'सदि' स्मृति । 'संघित्ता' संधाय । स्मृतिशब्देनात्र श्रुतज्ञानेनावगतस्यार्थस्य स्मरणमुच्यते, 'संसारमोक्खटुं' संसारविमुक्तये ॥१७०१॥ वह क्षपक किसलिये शुभ ध्यान करता है ? इस शंकाके उत्तरमें उसके कारण कहते हैं गा०-इन्द्रिय और कषायोंसे सम्बन्धको रोकने, अत्यधिक निर्जराको चाहने, चित्तको वशमें करने और रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गको नष्ट न होने देनेके लिये संपक शुभ ध्यान ही करता है ।।१७००॥ टो०-यहाँ इन्द्रिय शब्दसे स्पर्श आदिसे उत्पन्न हुआ उपयोग कहा है। कषायसे क्रोधादि लिये हैं। जिसका चित्त वस्तुके यथार्थ स्वरूपसे समाधान युक्त होता है उसकी प्रवृत्ति इन्द्रियोंके विषयसे उत्पन्न हुए उपयोगकी ओर नहीं होती और न कषायोंको उत्पत्ति होती है । तथा जो अपने इष्ट विषयमें चित्तको बार-बार स्थापित करता है और अनिष्टसे चित्तको हटाता है उसका चित्त अपने वशमें रहता है । क्षपक जानता है कि यदि मैं अशुभ ध्यानमें लगा तो रत्नत्रयसे च्युत हो जाऊँगा। इन कारणोंसे वह शुभ ध्यान करता है ॥१७००॥ आगे ध्यानकी सामग्री कहते हैं गा०-टो०-बाह्य द्रव्यको देखनेकी ओरसे आँखोंको किञ्चित् हटाकर अर्थात् नाकके अग्र भागपर दृष्टिको स्थिर करके, एक विषयक परोक्षज्ञानमें चैतन्यको रोककर शुद्ध चिद्रूप अपनी आत्मामें स्मृतिका अनुसन्धान करे । गाथामें 'निरुद्ध दृष्टि' पद है। यहाँ दृष्टि में निमित्त चैतन्यमें दृष्टि शब्दका प्रयोग किया है। और स्मृति शब्दसे श्रुतज्ञानके द्वारा जाने गये अर्थका स्मरण लिया है। अर्थात् दृष्टिको नाकके अग्रभागमें स्थापित करके किसी एक परोक्ष वस्तु विषयक १. चैतन्यदृष्टि निमित्ते शब्दोऽत्र युक्तः -अ० आ० । -चैतन्यः दृष्टिनिमित्ते चैतन्ये दृष्टिशब्दो मूलारा० । Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७५७ पच्चाहरितु विसयेहिं इंदियाइं मणं च तेहिंतो । अप्पाणम्मि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि ॥१७०२॥ 'पच्चाहरित्तु' प्रत्याहृत्य । 'विसहि' विषयेभ्यः । 'इंदियाई' इन्द्रियाणि 'मणं च' मनश्च व्यावर्त्य । 'तेहितो' विषयेभ्यः । 'मणं तं धारेदि' तन्मनो धारयति । क्व ? 'अप्पाणंहि आत्मनि । 'जोगं' योगं वीर्यान्तरायक्षयोपशमजवीर्यपरिणामं । 'पणिधाय' 'प्रणिधाय स्थाप्य । एतदुक्तं भवति वीर्यपरिणामेन नोइंद्रियमति धारयतीति ॥१७०२।। कृतमनोनिरोधः किं करोतीत्याशङ्क्याह एयग्गेण मणं रुभिऊण धम्मं चउन्विहं झादि । अणापायविवागं विचयं संठाणविचयं च ॥१७०३।। 'एयग्गेण' एकध्येयमुखतया । 'मणं भिदूण' मनो निरुध्य । 'धम्म' धम्यं वस्तुस्वभावं । 'चदुन्विहं' चतुर्विधं चतुर्विकल्पं । 'झादि' ध्यायति । अभ्यन्तरपरिकरोऽयमक्तः सूत्रकारेण । बाह्यः परिकर उच्यते । पर्वतगुहायां, गिरिकंदरे, दयाँ, तरुकोटरे, नदीपुलिने, पितृवने, जीर्णोद्याने, शून्यागारे वा व्यालमृगाणां पशूनां, पक्षिणां, मनुष्याणां वा ध्यानविघ्नकारिणां सन्निधानशून्ये, तत्रस्थैरागन्तुभिश्च जीवर्वजिते, उष्णशीतातपवातादिविरहिते, निरस्तेन्द्रियमनोविक्षेपहेतो, शुचावनुकूलस्पर्श भूभागे मन्द-मन्दं प्राणापानप्रचारः नाभेरूद्ध्वं हृदि ललाटेऽन्यत्र वा मनोवृत्ति यथापरिचयं प्रणिदधातीति बाह्यपरिकरः । 'आणापायविपाकविचये' आज्ञाज्ञानमें मनको लगाकर श्रुतसे जाने हुए विषयोंका स्मरण करते हुए आत्मामें लीन हो। यह ध्यान संसारसे छूटनेके लिये किया जाता है ॥१७०१॥ गा०-विषयोंसे इन्द्रियोंको और मनको हटाकर वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए वीर्य परिणामको स्थापित करके आत्मामें मनको लगाता है। अर्थात वीर्य परिणामरे शुद्ध आत्मामें मनको धारण करता है ॥१७०२।। मनको रोककर क्या करता है, यह कहते हैं गा०–एक विषयमें मनको रोककर आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार प्रकारके धर्मध्यानको ध्याता है ॥१७०३।। टो०-ग्रंथकारने यह ध्यानकी अभ्यन्तर सामग्री कही है। टीकाकारने बाह्य सामग्री इस प्रकार कही है पर्वतकी गुफामें, या पहाड़की कन्दरामें, या वृक्षके कोटरमें या नदीके किनारे या स्मशान में या उजड़े हुए उद्यानमें या शून्य मकानमें, जहाँ ध्यानमें विघ्न करनेवाले सर्प मृग आदि पशु पक्षी और मनुष्योंका वास न हो, तथा वहाँ रहनेवाले और इधर-उधरसे आनेवाले जीव जन्तु न हों, गर्म या सर्द, घाम और वायु आदिसे रहित हो, जहाँ इन्द्रिय और मनको चंचल करनेके साधन न हों । ऐसे स्थानमें जो जमीनका भाग साफ सुथरा हो, उसका स्पर्श अनुकूल हो, उसपर स्थित होकर धीरे-धीरे श्वास उच्छ्वास लेते हुए नाभिसे ऊपर हृदयमें या मस्तकपर अथवा अन्य स्थानमें अपने मनोव्यापारको रोकता है। यह ध्यानकी बाह्य सामग्री है। ऐसा करके चार प्रकारका धर्मध्यान करता है। उनमेंसे आज्ञाविचय नामक धर्मध्यानका स्वरूप कहते हैं Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना विचयमपायविचयं, विपाकविचयं, 'संठाणविचयं च ' संस्थानविचयं च । तत्राज्ञाविचयो निरूप्यते - कर्माणि समूलोत्तरप्रकृतीनि तेषां चतुर्विधो वन्धपर्याय उदयफलविकल्पः जीवद्रव्यं मुक्त्यवस्थे त्येवमादीनामतो न्द्रियत्वात् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षाभावात् बुद्धघतिशये असति दुरवबोधं यदि नाम वस्तुतत्त्वं तथापि सर्वज्ञज्ञानप्रामाण्यात् आगमविषयतत्त्वं तथैव नान्यथेति निश्चयः सम्यग्दर्शनस्वभावत्वान्मोक्षहेतुरित्याज्ञाविचार निश्चयज्ञानं आज्ञाविचयाख्यं धर्मध्यानं । अन्ये तु वदंति स्वयमधिगतपदार्थतत्त्वस्य परं प्रतिपादयितुं सिद्धान्तनिरूपितार्थप्रतिपत्तिहेतुभूतयुक्ति गवेषणावहितचित्ता सर्वज्ञज्ञानप्रकाशनपरा अनया युक्त्या इयं सर्वविदामाज्ञावaaf शक्येति प्रवर्तमानत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यत इति । अनादौ संसारे स्वैरंमनोवाक्कायवृत्तेर्मम अशुभमनोवाक्कायेभ्योऽपायः कथं स्यादिति अपाये विचयो मीमांसास्मिन्नस्तीत्यपाय विचयं द्वितीयं धर्मध्यानं । जात्यन्ध संस्थानीया मिथ्यादृष्टयः समीचीन मुक्तिमार्गापरिज्ञानात् दूरमेवापयन्ति मार्गादिति सन्मार्गापाये प्राणिनां विचयो विचारो यस्मिंस्तदपायविचयं इत्युच्यत इति । मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथमिमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचयः ॥ विपाकविचय उच्यते - समूलोत्तरप्रकृतीनां कर्मणामष्टप्रकाराणां चतुर्विधबन्धपर्यायाणां मधुरकटुक विपाकानां तीव्र मध्यमंदपरिणामप्रपञ्चकृतानुभवविशेषाणां द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षाणां एतासु गतिषु योनिषु वा इत्थंभूतं फलमिति विपाके कर्मफले विचयो विचारोऽस्मिन्निति विपाकविचयः । वेत्रासनझल्लरींमृदंगसंस्थानो लोक इति लोकत्रय संस्थाने विचयो विचारोऽस्मिन्निति संस्थानविचयता ॥ १७०३ ॥ ७५८ मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों सहित कर्म, उनके चार प्रकारके बन्ध, उदय और फलके भेद, जीव द्रव्य, मुक्ति अवस्था ये सब और इसी प्रकारके अन्य पदार्थ अतीन्द्रिय हैं । तथा श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमका प्रकर्ष न होनेसे विशेष बुद्धि भी नहीं है । ऐसी अवस्थामें यद्यपि वस्तु तत्त्व समझमें नहीं आता तथापि सर्वज्ञके ज्ञानके प्रमाण होनेसे आगममें तो तत्त्व जैसा कहा है, वह वैसा ही है, अन्य रूप नहीं है, इस प्रकारका निश्चय सम्यग्दर्शन रूप होनेसे मोक्षका कारण है । इस प्रकार सर्वज्ञकी आज्ञाके विचारका निश्चयरूप ज्ञान आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है अन्य कुछ आचार्य ऐसा कहते हैं- स्वयंको तो पदार्थों और तत्त्वोंका सम्यग्ज्ञान है । किन्तु दूसरोंको समझानेके लिये सिद्धान्त में कहे गये अर्थोंका ज्ञान करानेमें हेतुभूत युक्तियोंकी खोज में मनको लगाना कि इस युक्तिके द्वारा सर्वज्ञकी आज्ञाको समझाया जा सकता है, इसे भी सर्वज्ञकी आज्ञाके प्रकाशनमें संलग्न होनेसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं । इस अनादि संसारमें स्वच्छन्द मन वचन कायकी प्रवृत्तिमेंसे मेरा अशुभ मन वचन कायसे अपाय अर्थात् छुटकारा कैसे हो इस प्रकार अपायका विचय अर्थात् विचार जिसमें हो वह अपायविचय नामक दूसरा धर्मध्यान है । जन्म से अन्ये मनुष्यों के समान मिथ्यादृष्टि जीव समोचीन मोक्षमार्गको न जाननेसे मोक्षमार्गसे दूर ही रहते हैं । इस प्रकार सन्मार्गसे प्राणियोंके भटकनेका विचय अर्थात् विचार जिसमें हो उसे अपायविचय कहते हैं । अथवा संसारके ये प्राणी मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे अलग हों, कैसे उसे छोड़ें इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना अपायविचय है । विपाकविचयका स्वरूप कहते हैं - मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति सहित आठ प्रकारके कर्मोंका और उनके चार प्रकारके बन्धोंका तथा द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे तीव्र मध्य और मन्द परिणामों के विस्तारसे होनेवाले विपाकका तथा उनके मधुर और कटुक फलोंका कि इन गतियोंमें अथवा योनियोंमें इस प्रकारका फल होता है । इस तरह विपाक अर्थात् कर्मफलका विषय अर्थात् विचार जिसमें हो वह विपाकविचय धर्मध्यान है । अधोलोकका आकार वेत्रासनके समान है, मध्यलोक 1 Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७५९ धर्मध्यानस्य लक्षणं निर्दिशति धम्मस्स लक्खणं से अज्जवलहुगत्तमद्दवदेसा । उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे ॥१७०४।। 'धम्मस्स लक्खणं से' से तस्य । 'धम्मस्स' धर्मस्य ध्यानस्य । 'लक्खणं' लक्षणं । लक्ष्यते धर्म्य ध्यानं येन तल्लक्षणं । 'अज्जवलहुगत्तमद्दवमुववेसा' आकृष्टान्तद्वयतन्तुवत् कुटिलताविरह आर्जवं । 'लघुगत्तं' लघुता निस्संगता जात्याद्यष्टविधाभिमानाभावो मार्दवं । उपेत्य जिनमतं देशनं कथनमुपदेशः हितोपदेश इति यावत । आर्जवादिभिः कार्यलक्ष्यते धर्मध्यानमिति आर्जवादिकः लक्षणं । न ह्यातरौद्रे आर्जवादिकं संपादयतः । यदार्जवादिकं परिणाममात्मनः करोति तद्धर्म्यध्यानमिति लक्षणभावः । अथवा आर्जवादिपरिणामसद्भाव एव धबध्यानं प्रवर्तते नासत्यार्जवादी। नहि मानमायालोभकषायाविष्टो धर्म प्रवर्तते, तेनार्जवादिकं कारणं तेन लक्ष्यते धय॑मिति लक्षणतार्जवादीनाम् ॥१७०४॥ . आलंबणं च वायण पुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ । धम्मस्स तेण अविरुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ ॥१७०५॥ आलम्बनप्रतिपादनायोत्तरगाथा । 'आलम्बणं च'आश्रयश्च । कस्स ? 'धम्मस्स' धर्मध्यानस्य, 'वायण पुच्छण परिवठ्ठणाणुपेहाओ' वाचना प्रश्नः, परिवर्तनमनप्रेक्षेति स्वाध्यायविकल्पाः । वाचनादिस्वाध्यायाभावे का आकार झल्लरी गोल झांझके समान और ऊर्ध्वलोकका आकार मृदंगके समान है। इस प्रकार तीनों लोकोंके संस्थानका विचय अर्थात् विचार जिसमें हो वह संस्थानविचय धर्मध्यान है।।१७०३।। धर्मध्यानका लक्षण कहते हैं गा०-आर्जव, लघुता, मार्दव, उपदेश और जिनागममें स्वाभाविक रुचि ये धर्मध्यानके लक्षण हैं ॥१७०४॥ टी०-जिससे धर्मध्यानकी पहचान होती है वह उसका लक्षण है। एक धागेको दोनों ओरसे ताननेपर जैसे उसमें कुटिलता नहीं रहती, सरलता रहती है उसी प्रकारकी सरलताको आर्जव कहते हैं। लघुता अनासक्ति और निर्लोभताको कहते हैं । जाति आदि आठ बातोंका गर्व न करना मार्दव है। 'उप' अर्थात् किसीके पास जाकर 'देश' अर्थात् जिनमतका कथन करना उपदेश है अर्थात् हितोपदेश है । आर्जव आदि कार्यो से धर्मध्यान पहचाना जाता है इसलिये आर्जव आदि धर्मध्यानके लक्षण हैं। आर्त और रौद्रध्यान वालोंको आर्जव आदि नहीं होते । जो आत्माके आर्जव आदिरूप परिणाम करता है वह धर्मध्यान है । इस प्रकार आर्जवादि धर्मध्यानके लक्षण हैं। अथवा आर्जव आदि परिणामके होनेपर ही धर्मध्यान होता है, आर्जव आदिके अभावमें नहीं होता । जो मान, माया और लोभसे घिरा रहता है वह धर्ममें प्रवृत्ति नहीं करता। अतः आर्जवादिक धर्मध्यानके कारण हैं उनसे धर्मध्यानकी पहचान होती है। इसीलिये आर्जव आदि धर्मध्यानके लक्षण हैं ||१७०४|| आगेकी गाथासे धर्मध्यानके आलम्बन कहते हैं गा०-वाचना, पृच्छना, परिवर्तन और अनुप्रेक्षा ये धर्मध्यानके आलम्बन हैं। तथा सब अनुप्रेक्षा धमध्यानके अविरुद्ध हैं ॥१७०५।। Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० भगवती आराधना . वस्तुयाथात्म्यज्ञानमेव नास्तीति ध्यानाभावः । स तु स्वाध्यायो भवति ज्ञानमविचलं ध्यानसंज्ञितमित्यालम्बनता स्वाध्यायस्य। 'तेण' तेन धर्मेण ध्यानेनाविरुद्धा 'सव्वाणुपेहाओ' सर्वानुप्रेक्षाः एकदैकत्राश्रये वृत्तरविरोधः। अनित्यतादिवस्तुस्वभावानुप्रेक्षणमनुप्रेक्षासावालम्बनं ध्यानमिति । एतेनानुप्रेक्षाया ध्यानेऽन्तःपातित्वमाचक्षाणेनानुप्रक्षोपन्यासे बीजाधानं कृतम् ।।१७०५॥ पूर्वोक्तान् धर्मस्य चतुरो भेदान् व्याचष्टे चतसृभिर्गाथाभिः । तत्राज्ञाविचयं निरूपयति पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाए दव्वमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ॥१७०६॥ 'पंचेव अत्यिकाया' पञ्चास्तिकाया जीवाः पुद्गलधर्मास्तिकाया धर्मास्तिकाया अधर्मास्तिकाया आकाशमिति । तान 'छज्जीवणिकायों' षड्जीवनिकायान' 'दन्वं' कालाख्यं द्रव्यं 'अण्णे य' अन्यांश्च कर्मबन्धमोक्षादीन । 'आणागेज्झे भावे' सर्वज्ञाज्ञयागम्यान्भावान् । 'आणाविचयेण' आज्ञाविचयाख्यन धर्मध्यानेन 'विचिणादि' विचारयति । सर्वविद्भिरपास्तरागद्वेषैः परमकारुणिकैः यथामी निरूपितास्ते तथैवेति चिन्ताप्रवन्ध आज्ञाविचय इति यावत । 'आणापायविवागविचये' इत्यस्मिन्पाठे अपायविचयो नाम धर्मध्यानमिति गाथापूर्वार्धन व्याचष्टे ॥१७०६।। कल्लाणपावगाणउपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च । विचिणादि वा अवाए जीवाण सुमे य असुभे य ॥१७०७॥ 'कल्लाणपावगाण उपाय' तीर्थंकरपददायकानां दर्शनविशुद्ध्यादीनामुपायान् निःशङ्कादीन् विचिनोति टी०-वाचना, प्रश्न करना, पाठ करना, अर्थका चिन्तन करना ये सब स्वाध्यायके भेद हैं। यदि वाचना आदि स्वाध्याय न किया जाये तो उसके अभावमें वस्तुके यथार्थस्वरूपका ज्ञान ही न होनेसे ध्यानका अभाव प्राप्त होता है। वह स्वाध्याय ज्ञान रूप है और निश्चल ज्ञानका नाम ध्यान है। अतः स्वाध्याय ध्यानका आलम्बन है। तथा सब अनुप्रेक्षाएँ एक समयमें एक आश्रयमें रह सकती हैं अतः वे भी धर्मध्यानके अनुकल हैं। वस्तके अनित्य आदि स्वभावका चिन्तन अनुप्रेक्षा है अतः वे भी ध्यानकी आलम्बन हैं। इस प्रकार ग्रन्थकारने अनुप्रेक्षाओंको ध्यानमें अन्तर्भूत कहकर आगे अनुप्रेक्षाओंके कथन करनेका बीज बो दिया है ॥१७०५॥ ___आगे चार गाथाओंसे धर्मध्यानके चार भेदोंको कहते हैं। सबसे प्रथम आज्ञाविचयको कहते हैं गा०-टी०-पाँच अस्तिकाय हैं-जीव, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश। इन अस्तिकायोंको, तथा पाँच प्रकारके स्थावरकाय और त्रसकाय इन छह जीवनिकायोंको, कालद्रव्यको तथा अन्य कर्मबन्ध मोक्ष आदिको जो सर्वज्ञकी आज्ञासे ही गम्य है, आज्ञाविचय नामक धर्मध्यानके द्वारा विचार करता है। परम दयालु और राग-द्वेषसे रहित सर्वज्ञ देवने जिस रूपमें इन्हें कहा है वे उसी रूप हैं। इस प्रकारके चिन्तनको आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं ।।१७०६॥ गा०-तीर्थङ्कर पदको देनेवाले दर्शनविशुद्धि आदिके उपाय निःशंकित आदिका विचार १. यान् कालदव्वं कालाख्यं -अ० मु० । २. यथानीति -आ० । Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७६१ 'जिनमतं' जिनकथितं उपदेशं । 'विचिणादि वा अपाये जीवाणं सुभे य असुभे य' जीवानां शुभाशुभकर्मविषयानपायान् तान्विचारयति । एतदुक्तं भवति शुभाशुभकर्मणः कथमपायो भवति जीवस्य इति चिन्ताप्रवाहोऽपायविचयो नाम । स्पष्टार्थोत्तरगाथा ।।१७०७।।। १एयाणेयभवगदं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं । उदओदीरणसंकमबंधे मोक्खं च विचिणादि ॥१७०८।। अह तिरियउड्ढलोए विचिणादि सपज्जए ससंठाणे । - एत्थे व अणुगदाओ अणुपेहाओ वि विचिणादि ।।१७०९।। 'अह तिरिय उड्ढलोए' ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकान् । 'विचिणादि' विचारयति । कीदृग्भूतान् । 'सपज्जए' सपर्ययान संस्थानसहितान सपर्यायत्रिभवनसंस्थानविचारपरं संस्थानविचयाख्यं धर्मध्यानं । 'एत्थेव' अत्रैव । 'अणुगदाओ' अनुगताः । 'अणुपेक्खाओ वि' अनप्रक्षा अपि । 'विचिणादि' विचारयति । अनित्यत्वादिस्वभावविचारं करोति धर्मध्याने इति कथितं भवति ॥१७०८॥१७०९॥ कास्ता अनुप्रेक्षा इत्याशंकायामध्रुवादीननुप्रक्षान्निरूपयत्युत्तरप्रबन्धेन अधुवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोयमसुइत्तं ।। आसवसंवरणिज्जर धम्म बोधिं च चिंतिज्ज ॥१७१०॥ जिनभगवान्के द्वारा कथित उपदेशके अनुसार करता है। अथवा जीवोंके शुभ और अशुभ कर्मविषयक अपायोंका विचार करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जीव शुभ और अशुभ कर्मो से कैसे छूटे इस प्रकारका सतत चिन्तन अपायविचय है ॥१७०७॥ गा०-जीवोंके एक भव या अनेक भव सम्बन्धी पुण्यकर्म और पापकर्मके फलका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्षका विचार करता है ॥१७०८।। . टो०---कर्मो के फल, उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध तथा मोक्ष आदिका चिन्तन करना विपाकविचय धर्मध्यान है। क्रमसे कर्मों का अनुभवन होना उदय है और अक्रमसे कर्मों का फल देना उदोरणा है। अर्थात् जो कर्म उदयमें नहीं आ रहा है उसकी स्थितिको बलपूर्वक घटाकर कर्मका उदयमें लाना उदीरणा है। और एक कर्म प्रकृतिका अपनी सजातीय अन्य प्रकृतिरूप बदलना संक्रम है। इन सबका चिन्तन विपाकविचय धर्मध्यान है ॥१७०९।। गा०-पर्याय अर्थात् भेद सहित तथा वेत्रासन, झल्लरी और मृदंगके समान आकार सहित कवलोक, अधोलोक और मध्यलोकका चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। इसी संस्थानविचयमें सम्बद्ध अनुप्रेक्षाओंका भी विचार करता है अर्थात् धर्मध्यानमें संसारके अनित्यत्वादि स्वभावका विचार करता है ।।१७०९॥ आगे अध्रुव आदि अनुप्रेक्षाओंका कथन करते हैं गा०-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इन बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करना चाहिये ॥१७१०॥ १. अ० प्रती गाथेयं नास्ति । २. एतां श्रीविजयो नेच्छति । Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ भगवती आराधना लोगो विलीयदि इमो फेणोव्व सदेवमाणुसतिरिक्खो । रिद्धीओ सव्वाओ सुविणय संदंसणसमाओ ॥ १७११ ।। 'लोगो विलीयदि इमो' लोको विलयमुपयाति । किमिव ? 'फेणोव्व' फेनवत् । 'सदेवमाणुसतिरिक्खो' देवैर्मानुषैस्तिर्यग्भिश्च समन्वितः । इत्यनेन लोकत्रयस्यापि विनाशिताभिहिता । 'रिद्धीओ सव्वाओ' ऋद्धयः सर्वा: । 'सुमिणगसंदंसणसमाओ' स्वप्नज्ञानसमाः । ननु 'लोगो विलीयदि इमो' इत्यनेन सर्वस्यानित्यता व्याख्याता, ऋद्ध्यादयोऽपि लोकान्तर्भूता इति किमर्थं भेदोपन्यासः ? । अत्रोच्यते । समुदायस्यावयवात्मकस्यावयवानित्यतामन्तरेण तदनित्यता न सुखेनावगम्यत इति भिदोपन्यस्यते ॥ १७१० ॥ १७११॥ . द्रव्यगतो लोभो महान् प्राणभृतां तन्मूलत्वादिन्द्रियसुखस्य । प्राणानप्ययं त्यजति द्रव्यनिमित्तमतस्तदनित्यतामेव प्रागुपदर्शयति निस्संगतामात्मनः संपादयितुं - विज्जूव चंचलाई दिट्ठपणट्ठाई सव्वसोक्खाई । जलबुब्बुदोन्व अधुवाणि हुंति सव्वाणि ठाणाणि ।। १७१२ ॥ 'विज्जूव चंचलाई' विद्युदिव चञ्चलानि, 'दिट्ठपणट्ठाई' दृष्टप्रणष्टानि, 'सव्वसोक्खाई' सर्वाणि सुखानि अभिमतरूपादिविषयपञ्चकस्य प्रपञ्चस्य सन्निधानादुपजातानि यानि च मनः समुत्थानि सर्वेषां वा मानवानां तिरश्चां दिविजानां वा सुखानि सुखलम्पटतया जनः क्लेशाशनिशतनिपातमपि सहते, तानि च नीरभरविन'तसंभारगम्भीरधारारावनीलनी 'रदोदरपरिस्फुरत्तडिल्लतेव, एतेनानित्यतादोषोत्प्रकटनेन सांसारिकसुखपराङ्मुखतोपायो निगदितः । 'जलबुब्बुदोग्व' जलबुद्बुदवत् । 'अधुवाणि' अध्रुवाणि । 'होंति' भवन्ति । गा० - टी० – देव, मनुष्य और तिर्यञ्चों के साथ यह लोक जलके फेनके समान विनाशको प्राप्त होता है । इससे तीनों लोकोंको विनाशशील कहा है । सब ऋद्धियाँ भी स्वप्नज्ञानके समान विनाशक हैं । शङ्का- 'लोक विनाशशील है' इससे सबको अनित्य कह दिया है। ऋद्धि आदि भी लोकके अन्तर्भूत हैं । फिर अलग से उनको विनाशी कहनेका क्या प्रयोजन है ? समाधान-समुदाय अवयवात्मक है। अतः अवयवों की अनित्यताके विना समुदायकी अनित्यताका ज्ञान सुखपूर्वक नहीं होता। इससे ऋद्धियोंको अलगसे अनित्य कहा है ।। १७११ ।। प्राणियों को द्रव्यका लोभ बहुत अधिक होता है, क्योंकि इन्द्रिय सुखका मूल द्रव्य है । इसीसे वह द्रव्य के लिये प्राणों तकको त्याग देता है । अतः आत्माको निःसंग बनानेके लिये प्रथम द्रव्यकी अनित्यता ही दर्शाते हैं गा०—टी० – इष्ट रूप आदि पाँच विषयोंके समूहके सम्बन्धसे उत्पन्न तथा मनसे उत्पन्न स मनुष्यों तिर्यञ्चों और देवोंका सब सुख बिजली के समान चपल है और देखते-देखते नष्ट होनेवाला है । आशय यह है कि मनुष्य सुखका लम्पटी होनेसे सैकड़ों वज्रपातोंके गिरनेसे होनेवाले कष्टको भो सहता है । किन्तु वे सब सुख जलके भारसे नम्र हुए गम्भीर धीर शब्द करने वाले नीले बादलोंके उदरमें चमकने वाली बिजुलीकी तरह हैं । इस अनित्यता दोषको प्रकट करनेसे सांसा-रिक सुखसे विमुख होने का उपाय कहा है । तथा सब स्थान जलके बुलबुलेकी तरह अध्रुव हैं । १. नतभंभंग - अ० । २. नीरदोषपरि अ० । Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७६३ 'ठाणाणि सव्वाणि' सर्वाणि स्थानानि । तिष्ठन्त्येतेषु जीवा इति स्थानानि ग्रामनगरपत्तनादीनि । इदं मदीयं स्थानं अत्राहं वसामीति मा कृथाः संकल्पं । तानि अनित्यानि नित्यबुद्धया परिगृहीतानि विनाशे सङ्कले 'शानानयन्तीति कथितं । अथवा तिष्ठन्त्यस्मिन्स्वकृतविचित्रकर्मोदयात्प्राणभृत इतीन्द्रत्वं, चक्रलांछनत्वं, गणाधिपतित्वं वा एतानि स्थानान्यनित्यानि ॥१७१२।। णावागदाव बहुगइपधाविदा हुति सव्वसंबंधी। सव्वेसिंआसया वि अणिच्चा जह अब्भसंघाया ॥१७१३।। 'णावागदाव' जलयानपावारूढा इव 'बहुगदिपधाविदा हुति सव्वसंबंधी' विचित्रशुभाशुभपरिणामोपात्तगतिकर्मवशात्तदुपनीयमानदेवमानवनारकतियंचाख्यगतिपर्यायग्रहणाय कृतप्रयाणा बन्धवः सर्वेऽपि । एतेन बन्धुताया अनित्यतोता। उपात्तगत्यपरित्यागे बन्धुता स्थिरा भवति, उपात्ता चेत् त्यक्तान्या च गृहीता पितृपुत्रादीनां गत्यन्तरमुपगतामपि बन्धुत्वे स्वजनपरजनविवेक एव न स्यादिति मन्यते । 'सोसि आसया वि' सर्वेषामाश्रया अपि यानाश्रित्य प्राणिनो जीवितुमुत्सहन्ते तेप्याश्रयाः स्वामी भूत्यः पुत्रो भ्रातेत्येवमादयोऽनित्या यथा अन्भसंघादा अभ्रसंघाता इव ॥१७१३।। संवासो वि अणिच्चो पहियाणं पिण्डणं व छाहीए । पीदी वि अच्छिरागोव्व अणिच्चा सबजीवाणं ॥१७१४॥ 'संवासो वि' सहावस्थानमपि बन्धुभिर्मित्रः परिजनैर्वा, 'अणिच्चो' अनित्यः । 'पहियाणं पिण्डणं व जिनमें जीव ठहरते हैं उन्हें स्थान कहते हैं । वे स्थान हैं-गाँव, नगर आदि। यह मेरा स्थान हैं। मैं यहाँ रहता हूँ। ऐसा संकल्प तुम मत करो। वे स्थान अनित्य हैं। उन्हें नित्य समझकर ग्रहण करनेपर यदि वे नष्ट होते हैं तो मनमें बड़ा संक्लेश होता है। अथवा अपने किये विचित्र कर्मके उदयसे प्राणी जिनमें रहते हैं वे स्थान हैं इन्द्रपद, चक्रवर्तीपद, गणधरपद । ये सब स्थान अनित्य हैं ।।१७१२।। ___गा०-टी० -सब सम्बन्धी विचित्र शुभ या अशुभ परिणामोंसे बांधे गये गति नामकर्मके वशसे प्राप्त मनुष्यगति, देवगति, नारकगति और तिर्यञ्चगति रूप पर्यायको ग्रहण करनेके लिये जानेवाले हैं अतः वे नावपर सवार यात्रियों के समान हैं । जैसे नावपर सवार यात्री अपने-अपने स्थानपर चले जाते हैं उसी प्रकार हमारे सम्बन्धी अपने-अपने परिणामोंके अनुसार गति नामकर्मका बन्ध करके मरकर अपनी-अपनी गतिमें चले जाते हैं। इससे बन्धुताको अनित्य कहा है। जो जिस गतिमें है वह उसी गतिमें रहे, उसे छोड़े नहीं तो बन्धुपना स्थिर होता है। जिस गतिमें है उसे छोड़ अन्य गतिको ग्रहण करे तो नित्य कैसे हुई। जो पिता पुत्र आदि मरकर दूसरी गतिमें चले गये फिर भी यदि वे अपने बन्धु हैं तो अपने और परायेका भेद ही नहीं रहता। तथा जिन आश्रयोंसे प्राणी जीवित रहते हैं वे आश्रय भी, जैसे स्वामी और सेवक, पत्र, भ्राता आदि ये सब मेघपटलके समान अनित्य हैं ॥१७१३।। गा०-टो०-जैसे नाना दिशाओं और नाना देशोंसे आये हुए और भिन्न-भिन्न स्थानोंको १. शशतान्या-मु० । २. प्राणिन इ-आ० मु० । Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ भगवती आराधना छाहीए' नानादिग्देशागतानां पथिकानां भिन्नस्थानयायिनां मार्गोपकण्ठस्थितनिबिडतरपलाशालंकारविततशाखाकरशतनिवारितधर्मरश्मिप्रसरतरुवरशीतलाविरलविपुलछायायां पान्थानां समाज इव । 'पीदीवि' प्रीतिरपि । 'अच्छि रागोव्व' प्रणयकलहपांसुपातषितप्रियतमालुठत्पाठीनोदरधवललोचनान्तराग इव अनित्या सर्वजीवानां । तथाह्यप्रियाचरणविषकणिकाप्रणयलोचनप्रलयं संविदधातीति प्राणभृतामनुभवसिद्धमेव ॥१७१४॥ रत्तिं एगम्मि दुमे सउणाणं पिण्डणं व संजोगो । परिवेसोव अणिच्चो इस्सरियाणाधणारोग्गं ॥१७१५।। 'रत्ति' रात्रौ। 'एगम्मि दुमे एकस्मिन् द्रुमे । 'सगुणाणं' पक्षिणां । 'पिण्डणं व' पिण्डितमिव 'संजोगो' संयोगो यस्यामस्तद्रुमाभिमुखं तत्र वयं प्राप्स्यामोन्योन्यमित्यकृतसंकल्पानां यथाकथंचिदन्योन्यप्राप्तिरल्पकाला तथा प्राणभृतामपि समानकालकालमारुतप्रेरितानामेकस्मिन् कुलविटपिनि कतिपयदिनभावीसंप्रयोगः । 'परिवेसो व' परिवेष इव । 'अणिचं' अनित्यं । कि? 'ईसरियाणाधणारोगं' ऐश्वयं प्रभता आज्ञा धनं आरोग्यं च ॥१७१५॥ इंदियसामग्गी वि अणिच्चा संझाव होइ जीवाणं । मज्झण्हं व णराणं जोव्वणमणवट्ठिदं लोए ॥१७१६।। 'इंदियसामग्गीवि' इन्द्रियाणां सामन्यपि । 'अणिच्चा' अनित्या। अंधता बधिरता च दृश्यत एव । 'मज्झण्हं व' मध्याह्नवत, 'णराणं जोव्वणमणवद्विवं लोगे' नराणां यौवनमनवस्थितं लोके यौवनोऽहमिति जनः जानेवाले पथिक मार्गके समीपमें स्थित अत्यन्त घने पलाश आदि वृक्षोंके फैले हुए शाखाभारसे सूर्यके तेजको दूर करनेवाले वृक्षोंकी शीतल और घनी छायामें अपना समाज बनाकर बैठते हैं और धूप ढलनेपर अपने-अपने स्थानोंको चले जाते हैं। उन्हींकी तरह मित्र, बन्धु और परिजनोंके साथ सहवास भी अनित्य है। वे भी आयु पूरी होनेपर अपने-अपने स्थानोंको चले जाते हैं । तथा सब जीवोंकी प्रीति भी अनित्य है। जैसे प्रेमकलहके कारण या धूल पड़ जानेसे प्रिय स्त्रीकी क्रीड़ा करती हुई मछलियोंके उदर भागके समान श्वेत लोचनोंके कोनोंमें ललामी अनित्य है। अप्रिय आचरणरूपी विषकी कनी प्रेमरूपी नेत्रोंको नष्ट कर देती है यह बात सब प्राणियोंके अनुभवसे सिद्ध है अतः प्रीति भी अनित्य है ।।१७१४॥ गा०-जैसे पक्षो सूर्यके अस्त होनेपर हम अमुक वृक्षपर मिलेंगे, ऐसा परस्परमें संकल्प नहीं करते। फिर भी जिस किसी प्रकार कुछ समयके लिये परस्परमें मिल जाते हैं। उसी प्रकार संसारके प्राणी भी समान कालरूप वायुसे प्रेरित होकर एक कुलरूपी वृक्षपर कुछ दिनोंके लिये आ मिलते हैं। तथा ऐश्वर्य, प्रभुता, आज्ञा, धन और आरोग्य भी सूर्य की परिधिकी तरह अनित्य हैं ।।१७१५।। गा०-टी०–सन्ध्याकालकी तरह इन्द्रियोंकी सामग्री भी अनित्य है। क्योंकि लोकमें अन्धे और बहरे मनुष्य देखे जाते हैं। तथा मध्याह्न कालको तरह लोकमें मनुष्योंका यौवन भी अनव १. तरखदिरपलाशालंकारविनतशा-आ० मु०। ३. मेकैक-आ०। २. योगः सूर्यस्य अस्ते द्रुमा-आ० । . Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ७६५ श्लाघ्यते, यौवनदर्पविकारादेव बुध्यमानोऽपि धर्मे न प्रयतते तदनित्यं मध्याह्नवत् । क्षिप्रतरं व्यतिवतिनि यौवने 'का यौवनकृतोत्तीर्णमदः स्याच्च मनस्विनाम् ॥१७१६॥ चंदो हीणो व पुणो वड्ढदि एदि य उदू अदीदो वि । णदु जोव्वणं णियत्तइ णदीजलमदछिदं चेव ।।१७१७।। ___'चंदो होणोव पुणो वड्ढदि' नित्यराहुमुखकुहरप्रवेशाद्धानिमुपगतोऽपि निशानाथः कृष्णपक्षे हीयते होनो भवति । 'पुणो वड्ढदि' पुनः शुक्लपक्षे वर्द्धते । प्रतिदिनोपचीयमानकालः । 'एदि य उद्दू अदीदोवि' हिमशिशिरवसन्तादयोऽतीता अपि ऋतवः पुनरायान्ति 'न तु जोवणं णियत्तेदि' नव यौबनं निवर्ततेऽतिक्रान्तम् तस्मिन्नेव भवे 'नदीजलमदच्छिदं चेव' नदीजलमतिक्रान्तमिव न पुनरेति । तद्वदिदं यौवनमित्यनेनानित्यततातिशयो यौवनस्य दर्शितः ॥१७१७॥ घावदि गिरिणदिसोदं व आउगं सव्वजीवलोगम्मि । सुकुमालदा वि हायदि लोगे पुव्वण्हछाही व ॥१७१८।। 'धावदि गिरिणदिसोदंव' धावति गिरिनदीप्रवाह इव । किं ? 'आउगं' आयुः । 'सव्वजीवलोगंहि' सर्वस्मिन् जीवलोके । 'सुकुमालवा वि हीयदि' सुकुमारतापि हीयते । 'पुन्वण्ह छाही व' पूर्वाह्लछाया इव । यथा यथोद्गच्छति तामरसबन्धुस्तथा तथोपसंहरति छायां शरीरादीनां ।।१७१८॥ अवरोहरुक्खछाही व अद्विदं वड्डदे जरा लोगे । रूवं पि णासइ लहुँ जलेव लिहिदल्लयं रूवं ॥१७१९।। 'अवरहरुक्खछाहीव' अपराह्मवृक्षच्छायेव । 'अट्ठिवं वड्ढदे' अस्तित्वं वर्द्धते । क्रियाविशेषणत्वान्नपुं सकता । 'जरा लोगे' लोके । सौरूप्यपल्लवदवानल शिखा, सौभाग्यप्रसूनकरकावृष्टिः, युवतिहरिणालीव्याघ्री, स्थित है। मनुष्य 'मैं युवा हूं' इस प्रकारसे अपनी प्रशंसा करता है । यौवनके धमण्डसे ही जानते हुए भी धर्म में प्रयत्नशील नहीं होता। किन्तु वह यौवन मध्याह्नकालको तरह अनवस्थित है। इस प्रकार शीघ्र ही जानेवाले यौवनका मनस्वियोंको मद कैसा ? अर्थात् यौवनका मद करना उचित नहीं है ॥१७१६।। गा० टी०-प्रतिदिन राहुके मुखरूपी बिल में प्रवेश करनेसे चन्द्रमा कृष्णपक्षमें घटता है और पूनः शक्लपक्षमें प्रतिदिन बढ़ता है। तथा हेमन्त, शिशिर, वसन्त आदि ऋतुएं भी जाकर पुनः लौटती हैं। किन्तु बीता हुआ यौवन उसी भवनमें नहीं लौटता। जैसे नदीमें गया जल फिर वापिस नहीं आता। उसी प्रकार यौवन भी जाकर वापिस नहीं आता। इससे यौवनको अत्यन्त अनित्यता दिखलाई है ॥१७१७॥ गा०–सर्व जीवलोकमें आयु पहाड़ी नदीके प्रवाहकी तरह दौड़ती है। सुकुमारता भी पूर्वाह्नकी छायाके समान दौड़ती है। जैसे-जैसे सूर्य ऊपर उठता है वैसे-वैसे शरीरादिको छाया घटती जाती है। उसी तरह ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती है त्यों-त्यों सुकुमारता कम होती है ॥१७१८।। गा०-टी०-जैसे अपराह्न काल में वृक्षोंकी छाया बढ़ती है वैसे ही लोकमें एक बार १. को नृणां मदः स्याच्च -आ० । Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ भगवती आराधना ज्ञानलोचनपांशुवृष्टिस्तपस्तामरसवनस्य हिमानी, दीनताया जननी, परिभवस्य धात्रो, मृतेर्दूतो, भीतेः प्रियसखी या जरा सा वर्तते । 'रुवंपिणासदि लहू" रूपमपि विलासिनीकटाक्षेक्षणशरशततूणीरायमाणं, चेतोवलक्षसूक्ष्मवसनरञ्जने कौसुम्भरसायमानं, प्रीतिलतिकाया मूलं, सौभाग्यतरुफलं, कूलं पूज्यताया यदूपं तल्लघु विनश्यति ।। किमिव ? 'जलेव लिहिदेल्लगं रूवं' जले लिखितरूपमिव ॥१७१९॥ तेओ वि इंदघणुतेजसण्णिहो होइ सव्वजीवाणं । दिट्ठपणट्ठा बुद्धी वि होइ उक्काव जीवाणं ॥१७२०॥ 'तेजोवि इवषणुतेजसण्णिहो' शरीरस्य तेजोपि पौल.मीप्रियतमचापस्य तेज इव गर्जेज्जननयनचेतःप्रमोदादायि क्षणेन क्षयमुपव्रजति । 'विठ्ठपणट्ठा दृष्टप्रणष्टा 'बुद्धि वि' सकलवस्तुयाथात्म्यावकुण्ठ'ज्ञाज्ञानतमःपटलपाटनपटीयसी, विचित्रदुःखग्राहकदम्बकाकीर्णकुगतिविशालनिम्नगाप्रवेशनिवारणोद्यता, चारित्रनिधिप्रकटनक्षमादीपतिः, सकलसम्पदाकर्षणविद्या शिवगतिनायिकासंफली एवंभूता बुद्धिरप्युल्केवाशु नाशमुपयाति ॥१७२०॥ अदिवडइ बलं खिप्पं रूवं धूलीकदंबरछाए । वीचीव अधुवं वीरियंपि लोगम्मि जीवाणं ॥१७२१।। 'अतिवडइ बलं खिप्पं' क्षिप्रमतिपतति बलं 'रूवं धूलोकदंबरछाए' रथ्यायां पांशुरचितरूपमिव । आनेपर बुढ़ापा बढ़ता जाता है। यह बुढ़ापा सुन्दरतारूपी कोमल पत्तोंके लिये वनकी आगकी लपटके समान है। सौभाग्यरूपी पुष्पोंके लिये ओलोंकी वर्षाके समान है। तारुण्यरूपी हरिणोंकी पंक्तिके लिये व्याघ्रके समान है । ज्ञानरूपी नेत्रके लिये धूलकी वर्षाके समान है । तपरूपी कमलोंके वनके लिये बर्फ गिरनेके समान है । अर्थात् वृद्धावस्थाके आनेपर सुन्दरता, सुभगता, तारुण्य, ज्ञान और तप सब क्षीण हो जाते हैं। यह वृद्धावस्था दीनताकी माता है, तिरस्कारकी धाय है, मृत्युकी दूती है और भयकी प्रिय सखी है। तथा जलमें लिखे हुए रूपके समान रूप भी शीघ्र नष्ट हो जाता है। यह रूप सुन्दर स्त्रियोंके कटाक्षरूपी सैकड़ों बाणोंके लिये तूणीरके समान है अर्थात् पुरुषके रूपको देखकर स्त्रियाँ उसपर कटाक्षबाण चलाती हैं। चित्तरूपी सूक्ष्मवस्त्रको रंगनेके लिये कुसुम्भके रंगके समान है। प्रीतिरूपी लताका मूल है । सौभाग्यरूपी वृक्षका फल है। पूज्यताका किनारा हैं । ऐसा रूप भी शीघ्र नष्ट हो जाता है ।।१७१९॥ गा०-टी-शरीरका तेज भी इन्द्र धनुषके तेजके समान है। जैसे इन्द्रधनुषकी कान्ति मनुष्योंके नेत्रों और चित्तको आनन्दकारी होती है किन्तु क्षणभरमें नष्ट हो जाती है वही दशा शरीरकी कान्तिकी भी है। जो बुद्धि समस्त वस्तुओंके यथार्थस्वरूपको ढांकनेवाले अज्ञानरूपी अन्धकारके पटलको नष्ट करने में अतिशय दक्ष है, विचित्र दुःखरूपी मगरमच्छोंके समूहसे व्याप्त कुगतिरूपी विशाल नदीमें प्रवेश करनेसे रोकने में तत्पर है, चारित्ररूपी निधिको प्रकट करने में दीपककी बत्तीके समान है, समस्त सम्पदाओंको लानेवाली विद्यातुल्य है और मोक्षगतिरूपी नायिकाकी सखी है, ऐसी बुद्धि भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ॥१७२०॥ · गा०-जैसे मार्गमें धूलीसे रचा गया आकार शीघ्र नष्ट हो जाता है वैसे ही जीवोंका १. कुंठनाज्ञान-आ० । Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७६७ 'वीचीव' चण्डप्रभंजनाभिघातोत्थापिततरलतरंगमालेव, 'अवृधुवं' अध्रुवं । 'बीरियं' वीर्यमपि । जीवानां शरीरस्य दृढता बलं वीर्यमात्मपरिणामः ॥१७२१॥ हिमणिचओ वि व गिहसयणासणभंडाणि होति अधुवाणि । जसकित्ती वि अणिच्चा लोए संज्झन्मरागोन्व ॥१७२२॥ स्पष्टोत्तरगाथा किह दा सत्ता कम्मवसत्ता सारदियमेहसरिसमिणं । ण मुणंति जगमणिच्चं मरणभयसमुत्थिया संता ॥१७२३।। 'किह' कथं तावत् । 'अणिच्चं जगं मुणंत्ति' जगदनित्यं न जानन्ति । के ? "सत्तादो' सीदन्ति स्वकृतपापवशात्तासु तासु योनिष्विति सत्त्वाः। 'सारविगमेधसरिसमिणं' शरदृतुसमुद्गतनैकवर्णविचित्रसंस्थानजीमूतमालासदृशं । 'मरणभयसमुच्छिदा संता' मरणं विषं 'वृषतमजीवितस्य सरित्कूलं प्रियवियोगदार जलटपटलं. अयस्कान्तोपल: दःखलोहाकर्षणे. बन्धहदयोपलानां द्रावकमौषधमायतापदामायतनं एवंभूतमरणभयसमुत्थिताः सन्तः । एवमनित्यतामशेषवस्तुविषयां ध्येयीकृत्य प्रवर्तते धयं ध्यानं । अर्धव ॥१७२३॥ अशरणताकथनायोत्तरप्रबन्धः । कर्माण्यात्मपरिणामोपाजितानि कषायपरिणामोपनीतचिरकालस्थितीनि सन्निहितक्षेत्रकालभावाख्यसहकारिकारणानि यदा फलमशभं प्रयच्छति तदा तानि न निवारयितुं कश्चित्समर्थोऽस्ति तेनाशरणोऽस्म्यहमिति चिन्ताप्रबन्धः कार्य इत्याचष्टे णासदि मदी उदिण्णे कम्मे ण य तस्स दीसदि उवाओ। अमदंपि विसं सत्थं तणं पि णीया वि डंति अरी ॥१७२४॥ बल शीघ्र नष्ट हो जाता है। तथा जीवोंका वीर्य भी प्रचण्ड वायुके अभिघातसे उठी हुई चंचल तरंगमालाके समान अध्रुव है। जीवोंके शरीरकी दृढ़ताको बल और जीवोंके आत्मपरिणामको वीर्य कहते हैं । ये दोनों ही शीघ्र नष्ट होनेवाले हैं ॥१७२१॥ गा०-घर, शय्या, आसन, भाण्ड ये सब भी बर्फके समूहको तरह अब्रुव हैं। तथा लोकमें यशकी कीर्ति भी सन्ध्याके समय आकाशकी लालिमाकी तरह अनित्य है ।।१७२२॥ गा०-मरणके भयसे युक्त होनेपर भी अपने-अपने कामोंमें लीन प्राणी शरत् कालके मेघके समान इस जगतको अनित्य क्यों नहीं जानते ॥१७२३॥ टी०-अपने किये हुए पापके वशसे उन-उन योनियों में जो कष्ट उठाते हैं उन्हें सत्त्व कहते है। यह जगत् शरद् ऋतुमें उठे हुए अनेक रंग और अनेक आकार वाले मेघमालाके समान अनित्य है। तथा जिन्हें अपना जीवन प्रिय है उनके लिये मरण विषके समान है। प्रियजनके वियोगरूपी पुत्रके लिये नदीका तट है । शोकरूपी वज्रपातके लिये मेधपटल है । दुःखरूपी लोहको लानेके लिये चुम्बक पत्थर है। बन्धुओंके हृदयरूपी पत्थरको पिघलानेके लिये औषध है। मरने पर कठोर हृदय कुटुम्बियोंका भी मन पिघल जाता है। लम्बी विपत्तियोंका घर है । ऐसा मरणके भयको जानते हुए भी लोग जगत्की अनित्यताको नहीं समझते यह आश्चर्य और खेदकी बात है ॥१७२३।। १. सत्ता विदोति स्व-आ० । २. वृपतनजी-अ० । Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'णासदि मदी' नश्यति मतिः । 'उदिष्णे कम्मे उदीर्णे कर्मणि । बुद्धिद्विधा स्वाभाविकी आगमभवा च । सा द्वयी यस्यासौ हितमर्वति नेतरः । उक्तं च ७६८ द्विधेह बुद्धि प्रवदन्ति सन्तः स्वाभाविकीमागमसंभवाञ्च । बुद्धिद्वयी यस्य शरीरिणः स्याविष्टं हितं सो लभते न चान्यः ॥ १॥ स्वाभाविकी यस्य मतिविशुद्धा, तीर्थादवाप्तं न तु शास्त्रमस्ति । द्रष्टुं हितं धर्ममसौ न शक्तो भाषां विना रूपमिवाप्यनन्धः ॥ २॥ तीर्थादवाप्तं श्रुतमस्ति यस्य स्वाभाविकी नास्ति मतिविशुद्धा । श्रुतस्य नाप्नोति फलं स तस्य दीपस्य हस्तेऽपि सतो यथान्धः ॥ ३॥ कि दर्पणेनावृतलोचनस्य विवान भोगस्य धनेन वा किम् । शस्त्र ेण किं वा युषि भोरकस्य तथैव किं मन्दमतेः श्रुतेन ||४|| ईदृशी बुद्धिर्नश्यति ज्ञानावरणाख्ये कर्मण्युदयमुपागते । तच्च ज्ञानावरणं बध्नाति जन्तुर्ज्ञानिनां ज्ञानस्य ज्ञानोपकरणानां च द्वेषान्निह्नवादुपघातात् मात्सर्याद् विघ्नकरणादासादनाद् दूषणात् । ज्ञानादेनिग्रहकरणाद इस प्रकार अध्र वभावनाका कथन समाप्त हुआ । आगे अशरणभावनाका कथन करते हैंकर्मबन्ध आत्माके परिणामोंसे होता है । जीवके ही कषायरूप परिणामोंका निमित्त पाकर उन कर्मोंको दीर्घं स्थिति होती है । प्राप्त द्रव्य क्षेत्र काल और भाव उनके सहकारी कारण होते हैं। जब वे कर्म अशुभ फल देते हैं तो उनको कोई रोक नहीं सकता । अतः में अशरण हूँ ऐसा विचारना चाहिये, यह कहते हैं गा० - टी० - कर्मका उदय होनेपर बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि दो प्रकारकी होती है एक स्वाभाविक और दूसरी आगमिक । जिसके दोनों प्रकारकी बुद्धि होती है वह अपने हितको जानता है । जिसके वह बुद्धि नहीं होती वह नहीं जानता । कहा भी है सन्त पुरुष दो प्रकारकी बुद्धि कहते हैं - एक स्वाभाविक, दूसरी आगमसे उत्पन्न हुई | जिस शरीरधारीके ये दोनों बुद्धियाँ होती हैं वह अपने इष्ट हितको प्राप्त करता है। जिसके दोनों बुद्धिहीं हैं वह हितको प्राप्त नहीं कर सकता । जिसके पास स्वाभाविक विशुद्ध बुद्धि तो है किन्तु जिसने शास्त्राभ्यास करके आगमिक बुद्धि प्राप्त नहीं की है वह हितकारी धर्मको उसी प्रकार नहीं देख सकता, जैसे दृष्टिसम्पन्न पुरुष रूपको देखते हुए भी भाषाके बिना उसको कह नहीं सकता । जिसके पास गुरुसे प्राप्त शास्त्र तो है किन्तु उसे समझनेकी स्वाभाविक विशुद्ध बुद्धि नहीं है वह भी श्रुतका फल नहीं प्राप्त कर सकता । जैसे अन्धा पुरुष हाथमें दीपक होते हुए भी उसका फल नहीं पाता । जिसके लोचन मुंदे हैं उसे दर्पणसे क्या लाभ ? जो न दान देता है न भोगता है उसे धनसे क्या लाभ ? जो डरपोक है उसे युद्धमें शस्त्रसे क्या लाभ ? इसी तरह मन्दबुद्धि पुरुषको शास्त्रसे क्या लाभ ? ॥ 64 ज्ञानावरण नामक कर्मका उदय आनेपर इस प्रकारकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । ज्ञानियोंसे, ज्ञानसे और ज्ञानके उपकरणोंसे द्वेष करनेसे, ज्ञानको और ज्ञानके साधनोंको छिपानेसे, प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगानेसे, ईर्षावश किसीको ज्ञानदान न करनेसे, किसीके ज्ञानाराधनमें बाधा डालनेसे, १. ना वाचमिवा -आ० । २. स्यावि अ० । Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७६९ परेन्द्रियोपघातकारणाद्य 'दर्जितं अवग्रहेहावायधारणाविकल्पं मतिज्ञानं श्रुतादिकं वा काले पठनात् नाशयति । उक्तं च अवग्रहीतुं च तथेहितुं च सोवेहितुं धारयितुं च सम्यक् । नालं भवर्त्यजितवान्पुरा यः कर्माधमं ज्ञानवृतेनिमित्तम् ॥१॥ अन्धश्च पश्यन् बधिरश्च शृण्वन् जिह्वां विनाऽसौ रसनांस्तथाश्नन् । त्वचो विनाशे वरशीतकादि जानन्नसौ कर्मविभावबद्धः ॥२॥ घ्राणं विना गन्धमयं हि जीवों जानाति नित्यं निखिलं जगच्च । परन्तु बोधावृतिकर्म नाम्ना प्रोद्यंस्तरां न विषयेषु वेत्ति ॥३॥ एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियतां भवेषु स त्रीन्द्रियत्वं चतुरिन्द्रियत्वम् । तेनावृतः कर्म महाम्बुदेन प्राप्नोति जीवो विमनस्कतां च ॥४॥ द्रष्टुं हितं श्रोतुमथेहितुं च कर्तुं च दातुं विधिना च भोक्तुम् । स्वकर्मणा तेन नरो वृतस्सन् न बुध्यमानः पशुनैति साम्यम् ॥५॥ स्वबुद्धि मात्रामपि शक्यमाप्तुं श्रेयः समीपस्थमिहाप्यविद्वान् । सुदूरसंस्थं च श्रतोऽभिगम्यं स केन विन्द्यात् परलोकपथ्यम् ॥ ६॥ प्रशस्त ज्ञानकी प्रशंसा न करनेसे, जीव ज्ञानावरण कर्मका बन्ध करता है । तथा ज्ञानादिका निग्रह करनेसे, अकालमें स्वाध्याय करनेसे, दूसरेकी इन्द्रियों का घात करनेसे संचित मतिज्ञानका, जिसके अवग्रह ईहा अवाय और धारणा भेद हैं तथा श्रुतज्ञान आदिका नाश हो जाता है । कहा है जो पहले ज्ञानको रोकने में निमित्त नीच कर्म उपार्जित कर चुका है, वह सम्यक्रूपसे पदार्थको अवग्रहण करने में, ईहित करनेमें, अवायरूपसे जानने में तथा जाने हुएको धारण करने में समर्थ नहीं होता । अर्थात् उसे पदार्थोंका अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप ज्ञान नहीं होते । यह जीव आँखोंके बिना देखता है । कानोंके बिना सुनता है । जिह्वाके बिना रसोंका स्वाद लेता हैं। त्वचा के बिना शीत आदिका अनुभव करता है । किन्तु कर्मोसे बद्ध होनेसे ऐसा नहीं कर सकता । तथा यह जीव बिना नाकके गन्धको जानता है किन्तु ज्ञानावरण नामक कर्मका उदय होनेसे इन्द्रियों के बिना विषयोंको नहीं जानता । उस ज्ञानावरण नामक कर्मरूपी महामेघसे ढका होनेसे यह जीव एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असैनी पञ्चेन्द्रिय होता है । अपने ज्ञानावरण कर्मके उदयसे मनुष्य न हितको देखता है, न सुनता है, न हितको जाननेकी इच्छा करता है, न विधिपूर्वक धन देता है, न उसे भोगता है । इस प्रकार वह पशुके समान हो रहा है । जो अपने समीपवर्ती भी कल्याणको जो कि अपनी बुद्धिमात्र से प्राप्त करने योग्य है, नहीं जानता, वह सुदूरवर्ती और शास्त्र के द्वारा जानने योग्य परलोकमें जो हितकर है उसे कैसे जान सकता १. णादाजि - अ० । २. त्वगीतये सत्यपि विष्वगेव न यो विशेषान् विषयेषु वेत्ति ॥२॥ एकेन्द्रिय अ० मु० । ३. द्विसाव्यानपिश -आ० । ४. हास्यति - अ० । ५. च ततोऽभिगम्य सेकेन विद्या - अ० ! Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० भगवती आराधना महागुहा भीमतमः प्रवेशात् सदाप्यगाधाम्भसि मज्जनाच्च । घनाच्चिरं चारकरोधनाच्च स्याटेहिनः कष्टतरोऽज्ञभावः ॥७॥ तमःप्रवेशोऽम्भसि मज्जनं च स्याददःखकृच्चारकरोधनं च । जाताविहेकत्र भवांस्त्वनन्तानज्ञानजं दुःखमनुप्रयाति ॥८॥ नालं विशालं नयनं तृतीयं श्रुतं च मत्या रहितो गृहीतुम् । अन्धोऽपि यस्मिन् सति याति मार्गे क्षेमे शिव मोक्षमहापुरस्य ॥९॥ एवं भतामज्ञतामापादयति ज्ञानावरणं न किञ्चित्तन्निवारणक्षमं शरणमस्ति । 'ण तस्स दिस्सदि उवाओ' नव तस्य कर्मणो निवारण उपायो दृश्यते । असदवेदस्य कर्मण उदयात 'अमदं पि विसं होदि' अमृतमपि विषं भवति । 'त्रणमपि सत्थं तणमपि शस्त्रं भवति । 'णोआ वि होंति अरी' बन्धवोऽपि शत्रवो भवन्ति ॥१७२४।। ज्ञानावरणस्य तु क्षयोपशमे किं स्यादित्याह मुक्खस्स वि होदि मदी कम्मोवसमे य दीसदि उवाओ। णीया अरी वि सत्थं वि तणं अमयं च होदि विसं ॥१७२५।। 'मुक्खस्स वि होदि मदी' मूर्खस्यापि भवति मतिः । 'कम्मोवसमे य दोसदि उवाओ' कर्मोपशमे ज्ञानावरणस्य तु क्षयोपशमे सति उपायो दृश्यते सुभगत्वपुण्यकर्मोदयात । 'णीया अरी वि' शत्रवोऽपि बन्धवो भवन्ति 'सत्थं पि तणं' शस्त्रमपि तणं भवति, 'अमदं होदि विसं' विषमप्यमृतं भवति सवेद्योदये ॥१७२५॥ पाओदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स । दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण ।।१७२६॥ 'पावोदयेण' लाभान्तरायस्य कर्मण उदयेन, 'अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सवि परस्स' हस्तप्राप्तोऽप्यर्थो नश्यति पुंसः । 'दूरादो वि' दूरतोऽपि । 'सपुण्णस्स' पुण्यवतः । 'एदि अत्यो' आयान्त्यर्थाः । 'अयत्तेण' अयत्नेन ।।१७२६।। है । इस प्राणीका अज्ञानभाव महान् गुफाके भीतर भयंकर अन्धकारमें प्रवेश करनेसे, सदा अगाध जलमें डूबे रहनेसे और चिरकाल तक जेलखाने में पड़े रहनेसे भी अधिक कष्टदायी है । अन्धकारमें प्रवेश जलमें डूबना और जेलखाने में पड़े रहना तो एक ही भवमें दुःखदायो है किन्तु अज्ञानजन्य दुःख अनन्त भवोंमें दुःखदायी है । श्रुतज्ञान तीसरा विशाल नेत्र है। किन्तु बुद्धिसे रहित प्राणी उसे ग्रहण नहीं कर सकता। उस श्रुतज्ञानके होनेपर अन्धा मनुष्य भी मोक्षरूपी महानगरके कल्याणकारी मार्ग पर जाता है। ज्ञानावरण कर्म इस प्रकारकी अज्ञताको लाता है उसको निवारण करने में समर्थ कोई शरण नहीं है । उसके निवारण का कोई उपाय नहीं है । असातावेदनीय कर्मके उदयसे अमृत भो विष हो जाता है। तृण भी शस्त्र हो जाता है और बन्धु-बान्धव भी शत्रु हो जाते हैं ।।१७२४।। गा०-टी०-ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर क्या होता है, यह कहते हैं-ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर मूर्खको भी बुद्धि प्राप्त होती है। पुण्यकर्मका उदय होनेसे कर्मोके उपशमका उपाय दृष्टिगोचर होता है तथा सातावेदनोयके उदयमें शत्रु भी बन्धु हो जाते हैं, शस्त्र भी तृण हो जाता है और विष भी अमृत हो जाता है ।।१७२५।। गा०—पाप अर्थात् लाभान्तराय कमके उदयसे मनुष्यके हाथमें आया भी पदार्थ नष्ट हो Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७७१ पाओदएण सुट्ठ वि चेटुंतो को वि पाउणदि दोसं । पुण्णोदएण दुट्ठ वि चेटुंतो को वि लहदि गुणं ।।१७२७।। 'पावोदएण' अयशस्कीर्तेरुदयेन । 'सुठु वि चेठेतो' सम्यक् चेष्टमानः । 'कोवि पाउणदि दोसं' कश्चित्प्राप्नोति दोषं । 'पुण्णोदयेण' पुण्यकर्मण उदयेन । 'दुठ्ठ वि चेट्टतो' यत्किचिदकार्य कुर्वन्नपि । 'कोवि लभदि गुणं' कश्चिल्लभते गुणम् ।।१७२७॥ पुण्णोदएण कस्सइ गुणे असंते वि होइ जसकित्ती । पाओदएण कस्सइ सगुणस्स वि होइ जसघाओ ।।१७२८।। ___ 'पुण्णोदएण' पुण्यस्योदयेन । 'कस्सइ होइ जसकित्ती' कस्यचिद्भवति यशस्कीर्तिश्च । 'पावोदएण' पापस्यो दयेन । 'कस्सइ सुगुणस्स वि' कस्यचित् सुगुणवतोःपि । 'जसघादों होदि' यशोधातो भवति ।।१७२८।। णिरुवक्कमस्स कम्मस्स फले समुवट्टिदमि दुक्खंमि । जादिजरामरणरुजाचिंताभयवेदणादीए ॥१७२९॥ 'णिरुवक्कमस्स' निःप्रतीकारस्य कर्मणः। 'फले समवदिदंहि दुक्ख हि' समुपस्थिते दुःखे, 'जादिजरामरणरुजाचिताभयवेदणावीगे' जातो, जरायां, मरणे, व्याधौ, चिन्तायां, भय, वेदनादी च समुपस्थिते ॥१७२९।। जीवाण णत्थि कोई ताणं सरणं च जो हवेज्ज इधं । पायालमदिगदो वि य ण मुच्चदि सकम्मउदयम्मि ॥१७३०॥ 'जीवाण' जीवस्य । नास्ति कश्चिद्रक्षा शरणं वा। 'जो हवेज्ज' यो भवेत् । 'पादालमदिगदो वि' पातालं प्रविष्टोऽपि । ‘ण मुच्चदि' । न मुच्यते दुःखात् । 'सकम्मउदयेहि' स्वकर्मोदये सति ।।१७३०॥ गिरिकंदरं च अडवि सेलं भूमि च उदधि लोगंतं । अदिगंतूणं वि जीवो ण मुच्चदि उदिण्णकम्मेण ॥१७३१।। जाता है । और पुण्यवानको बिना प्रयत्न किये दूरसे भी पदार्थ प्राप्त होता है ।।१७२६।। गा०-पाप अर्थात् अयशःकीति नामक कर्मके उदयसे सम्यक् चेष्टा करनेवाला भी दोषका भागी होता है । और पुण्य कर्मके उदयसे न करने योग्य भी काम करनेवाला प्रशंसाका पात्र होता है ।।१७२७॥ गा०-पुण्यके उदयसे किसीमें गुण न होते भी उसका यश फैलता है। और पापके उदयसे गुणवानका भी अपयश होता है ॥१७२८॥ गा०—जिसका कोई प्रतीकार नहीं है ऐसे कर्मका उदय आनेपर जन्म, जरा, मरण, रोग, चिन्ता, भय, वेदना आदि दुःख भोगने होते हैं ।।१७२९।। __ गा०—ऐसी अवस्थामें जीवका कोई रक्षक नहीं है जिसकी वह शरणमें जाये। अपने कर्मके उदयमें पातालमें प्रवेश करनेपर भी कर्मसे छुटकारा नहीं होता ॥१७३०।। Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ भगवती आराधना "गिरिकन्दरं च' गिरिकन्दरं अटवीं शलभूमिमुधिं । लोकान्तं प्रविश्यापि जीवो न मुच्यते । उदयागतेन कर्मणा ॥१७३१॥ दुगचदुअणेयपाया परिसप्पादी य जंति भूमीओ। मच्छा जलम्मि पक्खी णभम्मि कम्मं तु सव्वत्थ ॥१७३२॥ 'दुगचदुअणेगपादा' द्विचतुश्चरणादिकाः । 'परिसप्पादी य जंति भूमीओ' परिसप्पादयश्च यान्ति भूमावेव । मत्स्या जले पक्षिणो नभसि यान्ति । कर्म सर्वत्रगं ॥१७३२॥ रविचंदवादवेउव्वियाणमगमा वि अत्थि हु पदेसा । ण पुणो अस्थि पएसो अगमो कम्मस्स होइ इह ॥१७२३॥ 'रविचंदवादवेंउम्विगाणं' सूर्येण, चन्द्रेण, वातेन, देवश्चागम्यास्सन्ति प्रदेशाः । न कर्मणामगम्योऽत्र प्रदेशोऽस्ति लोके ।।१७३३॥ विज्जोसहमंतबलं बलवीरिय अस्सहत्थिरहजोहा । सामादिउवाया वा ण होंति कम्मोदए सरणं ।।१७३४॥ 'विज्जामंतोसधिबलवीरियं' विद्या स्वाहाकारान्ता तद्रहितता मन्त्रस्य । वीर्यमात्मनः शक्यत्यतिशयः । बलमाहारव्यायामजं शरीरस्य दाढय, अनीकबन्धः । सामभेददण्डोपप्रदानाख्याश्च हेतवो न शरणं ॥१७३४।। जह आइच्चमुदितं कोई बारंतओ जगे णत्थि । तह कम्ममुदीरंतं कोई वारंतओ जगे णत्थि ॥१७३५॥ 'जह आइच्चमुदितं' यथा दिनमणिमुदयाचलचूडामणितामुपयान्तं न निवारयति कश्चित् तथा समधिगतसहकारिकारणं कर्म न निषेधुमस्ति समर्थः ॥१७३५॥ गा०-पहाड़की गुफा, अटवी, पर्वत, भूमि, समुद्र, यहाँ तक कि लोकके अन्त तक चले जानेपर भी जीव उदयप्राप्त कर्मसे नहीं छूटता ॥१७३१।। गा०-दोपाये, चौपाये और अनेक पैर वाले सर्प आदि तो भूमिपर ही जाते हैं। मच्छ जलमें जाते हैं। पक्षी आकाशमें जाते हैं किन्तु कर्म सर्वत्र पहुंचता है। उसकी गति सर्वत्र है ॥१७३२॥ गा०-लोकमें ऐसे प्रदेश हैं जो सूर्य, चन्द्र, वायु और देवोंके द्वारा अगम्य हैं अर्थात् जहाँ ये नहीं जा सकते । किन्तु ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ कर्मकी गति नहीं है ।।१७३३।। गा०-कर्मका उदय होनेपर विद्या, मंत्र, औषध, बल, वीर्य, घोड़े, हाथी, रथ, योद्धा, साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपाय शरण नहीं हैं ।।१७३४।। टी०-जिसके अन्तमें स्वाहाकार होता है उसे विद्या कहते हैं। और जिसके अन्तमें स्वाहाकार नहीं होता उसे मंत्र कहते हैं। वीर्य आत्माकी शक्तिको कहते हैं और बल आहार व्यायामसे उत्पन्न शरीरकी दृढ़ताको कहते हैं ॥१७३४॥ गा०-जैसे सूर्यको उदयाचलके मस्तकपर आनेको जगत्में कोई नहीं रोक सकता उसी Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका -७७३ रोगाणं पडिगारा दिट्ठा कम्मम्स पत्थि पडिगारो । कम्मं मलेदि हु जगं हत्थीव णिरंकुसो मत्तो ॥१७३६ । 'रोगाणं पडिगारा दिवा' व्याधीनां प्रतीकारा दृष्टा औषधादयः । कर्मणां नास्ति प्रतीकारः। जगदशेष मई यति कर्म मदगज इव निरङ्कुशो नलिनीवनं ॥१७३६॥ 'रोगाणं पडिगारो पत्थि य कम्मे णरस्स समुदिण्णे। रोगाणं पडिगारो होदि हु कम्मे उवसमंते ।।१७३७।। 'रोगाणं पडिगारों' व्याधीनां प्रतीकारो नास्ति कर्मण्यसद्वे ये प्राप्तोदये सति, पथ्यौषधादिभिरुपशमो रोगादीनां सोऽपि कर्मण्युपशमं गत एव नानुपशान्तेऽत्र ॥१७३७॥ विज्जाहरा य बलदेववासुदेवा य चक्कवट्टी वा । देविंदा व ण सरणं कस्सइ कम्मोदए होति ॥१७३८। 'विज्जाहरा य' विद्याधरादयो महाबलपराक्रमा अपि न शरणं भवन्ति कर्मोदय इति गाथार्थः ।।१७३८॥ वोल्लेज्ज च कमंतो भूमि उदधिं तरिज्ज पवमाणो । ण पुणो तीरदि कम्मरस फलमुदिण्णस्स वोले, ॥१७३९।। 'वोल्लेज्ज' उल्लङ्घयेत् गच्छन् भूमि, समुद्रं तरेत् प्लवमानः । उदीर्णस्य कर्मणः फलमुल्लङ्घयितुं न वेत्ति कोऽन्यो वा महाबलोऽपि ।।१७३९॥ सीहतिमिगिलग हिदस्स मगो मच्छो व णत्थि जह सरणं । कम्मोदयम्मि जीवस्स पत्थि सरणं तहा कोई ॥१७४०॥ 'सीहतिमिगिलगहिदस्स' सिंहेन तिमिगिलास्येन महामत्स्येन च गृहीतस्य नैव शरणं भवति अन्यो मृगो मत्स्यो वा । तथा कर्मोदये जीवस्य नास्ति कश्चिच्छरणम् ॥१७४०॥ प्रकार सहकारी कारणोंके मिलनेपर उदयमें आये कर्मको जगत्में कोई रोक नहीं सकता ॥१७३५।। गा०-रोगोंका प्रतीकार औषध आदि हैं किन्तु कर्मका कोई प्रतीकार नहीं है। जैसे निरंकुश मत्त हाथी कमलिनीके वनको उजाड़ देता है वैसे ही कर्म समस्त जगत्को मसल देता है ॥१७३६॥ 'गा०-असातावेदनीय कर्मका उदय होनेपर रोगोंका प्रतीकार नहीं है। पथ्य औषध आदिसे जो रोगोंका उपशम होता है वह भी कर्मका उपशम होनेपर ही होता है। कर्मका उपशम न होनेपर औषध आदि भी लाभकारी नहीं होती ॥१७३७॥ गा०-कर्मका उदय होनेपर विद्याधर, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती अथवा देवेन्द्र जैसे महाबली, महापराक्रमी भी किसीके शरण नहीं होते। वे भी रक्षा नहीं कर सकते ॥१७३८।। गा०-चलता हुआ प्राणी भूमिको लांघ सकता है। तैरता हुआ प्राणी समुद्रको तैर - सकता है। किन्तु उदयागत कर्मके फलको उल्लंघन कोई महाबली भी नहीं कर सकता। उसे सबको भोगना पड़ता ही है ।।१७३९|| गा०-जैसे कोई सिंह किसी मृगको पकड़ ले तो दूसरा मृग उसकी रक्षा नहीं कर सकता। १. गिलिदस्स अ०। Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ भगवती आराधना व्यावणितानामशरणत्वं मनसावधार्य इदं शरणमिति चिन्तनीयमिति कथयति दसणणाणचरित्तं तवो य ताणं च होइ सरणं च । जीवस्स कम्मणासणहेदु कम्मे उदिण्णम्मि ॥१७४१।। 'दंसणणाणचरित्तं तवो य' ज्ञानं दर्शनं चारित्रं तपश्च रक्षा शरणं च भवति । जीवस्य कर्मणां नाशहेतुः कर्मण्युदीर्णेऽप्यसद्वद्यादौ । एवमशरणानुप्रेक्षा गता ॥ असरणा ॥१७४१॥ एकत्वानुप्रेक्षा उत्तरेण प्रबन्धेनोच्यते पावं करेदि जीवो बंधवहेदुसरीरहे, च । णिरयादिसु तस्स फलं एक्को सो चेव वेदेदि ॥१७४२।। पापं करोति जीवो बान्धवनिमित्तं शरीरनिमित्तं च । बान्धवशरीरपोषणार्थ कृतस्य कर्मणः फलं नरकादिष्वेक एवानुभवति ॥१७४२।। नरकादिगतिषु प्राप्तं दुःखमपश्यंतस्तत्रासंतो बान्धवाः किं कुर्वन्तीति आशंकां निरस्यति सन्निहिताः पश्यन्तोऽप्यकिंचित्करा इति कथनेन रोगादिवेदणाओ वेदयमाणस्स णिययकम्मफलं । पेच्छंता वि समक्खं किंचिवि ण करंति से णियया ॥१७४३।। 'रोगादिवेदणाउ' रोगादिदुःखानि । “णिययकम्मफलं' निजकर्मफलं स्वयोगत्रयोपचितस्य कर्मणः फलं । 'वेदयमाणस्स' वेदयमानस्य । 'समक्वं पेच्छंतावि' प्रत्यक्षं पश्यन्तोऽपि । “णियया' निजका बान्धवाः, 'से' तस्स या तिमिंगल नामक महामत्स्य किसी मच्छको पकड़ ले तो दूसरा मच्छ उसको नहीं छुड़ा सकता। उसी प्रकार कर्मका उदय आनेपर जीवका कोई शरण नहीं होता ||१७४०।। ___ आगे कहते हैं कि ऊपर जिनका वर्णन किया है, वे शरण नहीं हैं ऐसा मनमें दृढ़ निश्चय करके आगे कहे पदार्थ शरण हैं ऐसा विचारना चाहिये गा०-जीवके असातावेदनीय आदि कर्मका उदय होनेपर कर्मोके नाशके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ही रक्षक हैं और शरण हैं ।।१७४१॥ इस प्रकार अशरणानुप्रेक्षाका कथन हुआ। आगे एकत्वानुप्रेक्षाका कथन करते हैं गा० - जीव बन्धु-बान्धवोंके निमित्त और शरीरके निमित्त पाप करता है । और बान्धवोंके तथा अपने शरीरके पोषणके लिये जो पापकर्म करता है उसका फल नरकादिमें अकेला ही भोगता है ।।१७४२।। यहाँ कोई कह सकता है कि नरकादि गतियोंमें वह जो दुःख भोगता है उसे उसके बन्धुबान्धव नहीं देखते क्योंकि वे वहाँ नहीं हैं इसीसे वे कुछ कर नहीं सकते। इसके उत्तरमें कहते हैं कि निकट रहकर देखते हुए भी वे कुछ नहीं कर सकते गा०-टो०-अपने मनोयोग, वचनयोग और काययोगसे संचित कर्मका फल जब यह जीव भोगता है तो प्रत्यक्ष देखते हुए भी उसके बन्धुगण कुछ भी उसका प्रतीकार नहीं करते । इस Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७७५ "किंचिवि ण करंति' किंचिदपि प्रतीकारजातं न कुर्वन्ति । परह वा जन्मन्येक एवानुभवति जन्तुर्न तदीयकर्मफलसंविभागकरणे समर्थः कश्चिदिति भावः ॥१७४३।। तह तथा यथा दुःखं स्वकर्मफलमेक एवानुभवति तह मरइ एक्कओ चेव तस्स ण विदिज्जगो हवइ कोई । भोगे भोत्तुं णियया विदिज्जया ण पुण कम्मफलं ॥१७४४॥ तथा स्वायुगलने । 'एक्कगो चेव मरदि' एक एव प्राणांस्त्यजति । 'ण विदिज्जगो होइ कोई' न सहायो भवति कश्चित् । तदीयं मरणं संविभज्य गृहीत्वा सहायतां न कश्चित्करोतीत्यर्थः । अन्यथा एक एव म्रियते इत्यघटमाने बहूनामप्येकदा मरणात् । 'भोगे' भुज्यन्तेऽनुभूयन्त इति भोगाः द्रव्याणि अशनवसनमुखवासादीनि । भोक्तमनभवितं निजका बान्धवाः । विदिज्जगा' सहायाः । 'ण प्रण' न पनः णीयगा विदिज्जया' तदीयकर्मफलं भोक्त्तं न बन्धवस्सहायाः ।।१७४४।। प्रकारान्तरेणकत्वभावनामाचष्टे णीया अत्था देहादिया य संगा ण कस्स इह होति । परलोंगं अण्णेत्ता जदि वि दइज्जति ते सुट्ठ ॥१७४५॥ 'णोगा अत्था' बन्धवो धनं शरीरादिकाश्च परिग्रहाः कस्यचिदपि सम्बन्धिनो न यान्ति परलोकं प्रति प्रस्थितं । यद्यपि सुष्टु काम्यन्ते परिग्रहाः । गृहीत्वा तान्यदि नामास्य गन्तुमुत्कण्ठा तथापि ते नानुगच्छन्त्येक एव यातीत्येकत्वभावना ।।१७४५।। इहलोगबंधवा ते णियया परस्स होंति लोगस्स । तह चेव धणं देहो संगा सयणासणादी य ।।१७४६।। लोक और परलोक में जीव अकेला ही भोगता है। उसके कर्मफलका बटवारा करने में समर्थ कोई भी नहीं है । यह इसका अभिप्राय है ॥ १७४३।।। गा०-टी०-जैसे यह जीव अपने कर्मफलको स्वयं ही भोगता है उसी प्रकार अपनी आयु समाप्त होनेपर अकेला ही प्राणोंको त्यागता है । दूसरा कोई भी उसका सहायक नहीं है ! अर्थात् का भागीदार बनकर कोई भी उसकी सहायता नहीं करता। यदि एक ही मरता है ऐसा न हो तो एकके साथ बहतोंको मरण प्राप्त होता है। जो भोगे जाते हैं उन्हें भोग कहते हैं। भोजन, वस्त्र, मुखको सुवासित करनेवाले द्रव्य भोग हैं । भोगोंको भोगने में तो अपने बन्धुबान्धव सहायक होते हैं। किन्तु उसके कर्मो का फल भोगने में कोई सहायक नहीं होता ॥१७४४|| प्रकारान्तरसे एकत्व भावनाको कहते हैं गा० टी०-बन्धु-बान्धव, धन और शरीर आदि परिग्रह किसीके नहीं होते। जब यह जीव परलोक जाता है तो उसके साथ नहीं जाते । यद्यपि मनुष्य परिग्रहोंसे बहुत अनुराग रखता है । वह यदि उनको पकड़कर साथ ले जाना चाहे तो भी वे उसके साथ नहीं जाते। जीव अकेला ही जाता है । यह एकत्व भावना है ॥१७४५।। Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'इहलोगबन्धवा' अस्मिन्नेव जन्मनि बान्धवाः । 'परस्स लोगस्स ण णियया होंति' अन्यस्य जन्मनो न बन्धवो भवन्ति । 'तह चैव बांधवा इव घणं देहो संगा सयणासणावी य' धनं शरीरं शयनासनादयश्च परिग्रहा इह लोके एव न परजन्मनि उपकारका भवन्ति । एवं हि ते बान्धवाः परिग्रहाश्च सहाया इति ग्रहीतुं शक्यन्ते यद्यनपायितया उपकारिणः स्युः । इह जन्मन्येव ये प्रयान्ति ते परलोकं गच्छन्तमनुसरन्तीति का प्रत्याशा ।।१७४६ ॥ ७७६ यद्यते बान्धवादयो न सहायाः कस्तहि सहाय इत्याशङ्कायामाचष्टे - जो पुणधम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइओ । सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ || १७४७॥ 'जो पुण' यः पुनः । 'जीवेण कदो धम्मो' जीवेन कृतो धर्मः, 'सम्मत्तचरण सुदमइगो' रत्नत्रयरूपो दुर्गतिप्रस्थितं जीवं धारयति धत्ते वा शुभे स्थाने इति रत्नत्रयं धर्म इत्युच्यते । 'सो' सः व्यावणितो धर्मः । 'जीवस्स' जीवस्य । 'परलोगे' परजन्मनि । गुणकारकः सहायो भवति अभ्युदयनिश्रेयससुखप्रदानात् । तथा चोकं— दत्वा द्यावापृथिव्योर्वरविषयति वीतभीशुग्विषादां कृत्वा लोकत्रयैश्यं सुरनरपतिभिः प्राप्य पूजां विशिष्टाम् । मृत्युव्याधिप्रसूतिप्रियविगमजरारोगशोकप्रहोणे मोक्षे नित्योरुसौख्ये क्षिपति निरुपमे यस्स नोऽव्यात्सुधर्मः ॥ इति ॥ १७४७॥ ननु च 'असहायत्वभावनाधिकारे सहायनिरूपणा कथमुपयुज्यते । नैष दोषः यो येन जन्तुना सहाय गा० - टी० - जो इस जन्म में बान्धव हैं वे परलोकमें बान्धव नहीं होते । बान्धवोंकी ही तरह धन, शरीर, शयन, आसन आदि परिग्रह भी इसी लोकमें काम आते है परलोकमें नहीं । यदि वे बान्धव और परिग्रह सदा रहनेवाले हों तो उन्हें सहायक कहा जा सकता है। जब वे इसी जन्म में नष्ट हो जाते हैं तो वे परलोकमें जानेपर साथमें जायेंगे, इसकी आशा कैसी ? | १७४६ ॥ यदि ये बन्धु आदि सहायक नहीं हैं तो कौन सहायक हैं ? इसका उत्तर देते हैं गा० - टी० - जीवने सम्यक्त्वचारित्र ज्ञानरूप अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्मं किया है जो दुर्गति में जानेवाले जीवका धारण करता है उसे शुभ स्थानमें धरता है वह धर्म है इस तरह रत्नत्रयको धर्म कहते हैं । वह धर्म परलोकमें जीवका गुणकारक सहायक होता है । क्योंकि उससे सांसारिक और पारमार्थिक सुख मिलता है। कहा है वह धर्म हमारी रक्षा करे जो मर्त्यलोक और स्वर्गलोकके भय, शोक और विषादसे रहित विषय सुखको देकर देवेन्द्रों और राजेन्द्रोंसे विशिष्ट रूपसे पूजित तीन लोकोंका स्वामी तीर्थङ्कर पद प्रदान करता है तथा अन्त में मृत्यु, रोग, जन्म, प्रियवियोग, जरा, व्याधि और शोकसे रहित नित्य उत्कृष्ट और अनुपम सुखवाले मोक्षमें ले जाता है । शङ्का—यह अधिकार असहाय भावनाका है कि जीवका कोई सहाय नहीं है । इसमें सहायका कथन करना कैसे उचित है ? १. असहायवचनाधिकारे -आ० । २. योज्ञेन बन्धुना -आ० । Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका त्वेनाध्यवसितो बान्धवादिरसौ सहायो न भवतीति न तत्रादरः कार्यः । सम्यक्त्वज्ञानचारित्रात्मकस्तु धर्मः । धर्मोऽपि जीवपरिणाम उपकारि सहाय इति । तत्रादरो जन्यते सूरिणा । अतिशयितधर्माख्यसहा 'यानिरूपणेन ज्ञातिधनादीनां तथाभूतसहायताभावात् प्रस्तुतैव सहायता समर्थिता भविष्यति । अत्रोच्यते । सम्यक्त्वादयः शुभपरिणामाः प्रशस्तगतिजाति गोत्रसंघात संहननायुः सद्व द्यादिकमात्मनि निधाय नश्यन्ति तेन देवो मानवः पञ्चेन्द्रियः पर्याप्तकः कुलीनः शुभनीरोगशरीरश्चिरजीवी सुखी भविष्यति । धर्मानुबन्धिनः पुण्यस्योदयात् दीक्षाभिमुखा बुद्धिनिरतिचाररत्नत्रयसंपत्तिश्च भविष्यतीति संभवत्युपकारसहायता धर्मस्य । ननु च ज्ञानपूर्वकत्वाच्चरणस्य 'सम्मत्तचरणसुदमइगो' इति कथमुपन्यस्तं ? अयमस्याभिप्रायः सत्यपि श्रुतज्ञाने असंयतसम्यग्दृष्टेश्चारित्राभावान्न महत्यौ संवरनिजरे मुख्यगुणे भवतः । तस्मान्मुख्यार्थिनश्चारित्रं प्रधानं किंच तज्ज्ञानमुपायश्चारित्रमुपेयं अतः परार्थत्वाज्ज्ञानमप्रधानं उपेयत्वाच्चरणं प्रधानमिति । 'जो पुण धम्मो जोवेण कदो' इत्यनेन धर्मस्य सर्वथा नित्यत्वं प्रतिषिद्धं फलवैचित्र्यमनुभवसिद्धं सर्वदैकरूपत्वं धर्मस्य विरुध्यते । सुखसाधनानां स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यादीनां वैचित्र्यात् तत्कार्यसुखस्याऽपि वैश्वरूप्यं नित्यत्वेपि धर्मस्य घटयेदिति चेत् अत्रोच्यते । अतिशयितानतिशयितसुखसाधनता तस्य धर्महेतुता न वेत्यत्र विकल्पद्वये धर्महेतुत्वाम्युपगमे समाधान - यह दोष उचित नहीं है क्योंकि जिस जीवने यहाँ जिस बन्धु आदिको अपना सहायक रूपसे माना हुआ है वह सहायक नहीं है इसलिये उसमें आदरभाव नहीं करना चाहिये । सम्यक्त्व ज्ञान चारित्ररूप धर्म जीवका परिणाम होनेसे उसका उपकारी सहायक है । इसलिये आचार्य उसमें आदर कराते हैं । ७७७ शङ्का - सातिशय धर्मके सहाय होनेका कथन न करके भी जाति बन्धु धन आदि उस प्रकारके सहायक नहीं होनेसे प्रस्तुत धर्मादिके ही सहायक होनेका समर्थन होता है । समाधान- सम्यक्त्व आदि शुभपरिणाम आत्मामें उत्तम गति, उत्तम जांति, उत्तम गोत्र, उत्तम संहनन, आयु, सातावेदनीय आदि कर्मों को उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं । उन कर्मों के उदयसे जीव, देव अथवा पंचेन्द्रिय पर्याप्तक कुलीन, शुभ नीरोग शरीर वाला चिरजीवी और सुखी होता है तथ धर्मानुबन्धि पुण्यके उदयसे बुद्धि मुनिदीक्षाके अभिमुखी होती है और निरतिचार रत्नत्रयरूप सम्पत्ति होती है । अतः धर्म सहायक और उपकारी है । शङ्का — चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है अतः ग्रन्थकारने 'सम्यक्त्वचारित्र श्रुतमत्तिक' कैसे कहा ? यहाँ चारित्रके पश्चात् ज्ञानका निर्देश किया है ? समाधान – इसका अभिप्राय यह है कि असंयत सम्यग्दृष्टिके श्रुतज्ञान होनेपर भी चारित्रका अभाव होनेसे बहुत अधिक संवर और निर्जरा ये दोनों मुख्य गुण नहीं होते । इसलिये जो संवर और निर्जराके अर्थी हैं उनके लिये चारित्रकी प्रधानता है । तथा ज्ञान उपाय है और चारित्र उपेय है अतः परार्थ होनेसे ज्ञान अप्रधान है तथा उपेय - उपाय द्वारा प्राप्य होनेसे चारित्र प्रधान है । 'जो धर्म जीवने किया' ऐसा कहनेसे धर्मके सर्वथा नित्य होनेका निषेध किया है । धर्मके फलकी विचित्रता अनुभव से सिद्ध है । अतः धर्मकी सर्वदा एकरूपता आगम विरुद्ध है । शङ्का - सुखके साधन स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला आदि अनेक हैं अतः उनका कार्य सुख भी अनेक रूप है । इस तरह धर्मको नित्य मानने पर भी फल की विचित्रता बन जाती है । समाधान - कुछ साधन सातिशय सुखदायक होते हैं और कुछ साधारण सुखदायक होते १. सहायनि - अ० मु० । २. वास - अ० । Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ भगवती आराधना कथं न वैचित्र्यं धर्मस्य । अथ न धर्मो हेतु: 'स्वहेतुसामान्यायत्तता सुखसाधनानां सातिशयनिरतिशयतदायत्तः फलविभाग इति धर्मस्यानर्थक्यमापद्यते । ततो न धर्मस्य सर्वथा नित्यता ॥१७४७।। शरीरद्रविणादीनां असहायताभावनां तद्गोचरानुरागनिवर्त्तनमुखेन स्थिरयत्युत्तरगाथा बद्धस्स बंधणेण व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स । विससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु तहा ।।१७४८।। 'बद्धस्स बंधणेण व ण रागो' रज्जुशृङ्खलादिभिर्बद्धस्य बन्धनक्रियासाधकतमे रज्ज्वादी दुःखहेतौ यथा न रागः । तथा 'देहम्मि होदि गाणिस्स' सुखदुःखसाधनविवेकज्ञस्य दुःखहेतावसारेऽस्थिरेऽशुचिनि काये न रागो भवति । गुणपक्षपातिनो हि प्राज्ञाः । “विससरिसेसु' विषसदृशेष्वपि 'ण रागो णाणिस्स' ज्ञानिनो नैव रागः । केषु ? 'अत्थेसु सम्वेसु' । कथमर्थानां विषसदृशतेति चेत् । यथा विषं दुःखदायि प्राणान्वियोजयति च तथार्थोऽप्यर्जनरक्षादिषु व्यापृतं दुःखेन योजयति, प्राणानां च विनाशे निमित्तं भवति । तथाहि । प्राणिनोऽर्थार्थ एव परस्परं प्रघाते प्रयतन्ते अतएव महाभयहेतुत्वान्महाभयतार्थानां सूत्रकारेणोक्ता । 'अत्थेसु महाभयेसु' इति । यद्धि यस्यानुपकारि तस्य तस्मिन्न विवेकिनः सहायबुद्धिर्यथा विषकण्टकादौ, अपकारि शरीरद्रविणादिकमिति पुनः पुनरम्यस्यतो नेतरः सहायोऽयमिति चिन्ताप्रबन्धः प्रवर्तते ।। एकत्त ॥१७४८॥ हैं । इसमें धर्म भी कारण है या नहीं ? यदि धर्म भी कारण है तो धर्ममें वैचित्र्य क्यों नहीं हुआ। यदि कहोगे कि धर्म कारण नहीं है. सखके साधन अपने सामान्य कारणोंके अधीन हैं और जो सातिशय तथा निरतिशय फलभेद पाया जाता है वह भी उन्हींके अधीन है तो धर्म निरर्थक सिद्ध होता है । अतः धर्म सर्वथा नित्य नहीं है ।।१७४७।। विशेषार्थ-यहाँ टीकाकारका धर्मसे अभिप्राय शुभ परिणार्मोसे है। शुभ परिणामोंकी हीनाधिकताके अनुसार पुण्यबन्ध में विचित्रता होती है और तदनुसार फलमें विचित्रता होती है ॥१७४७|| शरीर धन आदिमें असहायताकी भावनाको उनके विषयमें जो अनुराग है उस अनुरागको हटानेके द्वारा स्थिर करते हैं __ गा०-टी०-जैसे पुरुष रस्सी सांकल आदिसे बँधा है उसे बन्धन क्रियामें साधकतम रस्सी आदिमें राग नहीं होता क्योंकि वे उसके दुःखमें हेतु हैं, उसी प्रकार जो अपने सुख और दुःखके साधनोंमें भेदको जानता है उसे दुःखके हेतु, असार, अस्थिर अशुचि शरीरमें राग नहीं होता। विद्वान्जन गुणोंके पक्षपाती होते हैं । अतः विषके समान सब अर्थो में ज्ञानीका राग नहीं होता। शंका-सब अर्थ विषके समान कैसे हैं ? समाधान-जैसे विष दुःखदायीहै, प्राण हरण कर लेता है वैसे ही अर्थ भी जो उसके उपाजन और रक्षणमें लगता है उसे दुःख देता है। तथा प्राणोंके विनाशमें निमित्त होता है। इसका खुलासा इस प्रकार है-प्राणीगण अर्थके लिये ही परस्परमें घात करने में लगते हैं। इसीलिये ग्रंथकारने महाभयका कारण हानेसे अर्थों को महाभयरूप कहा है। जो जिसका उपकार नहीं करता, बल्कि अनुपकार करता है विवेकी पुरुष उसे अपना सहायक नहीं मानते । जैसे विषकण्टक १. सहेतु -अ० मु० । २. यत्तसु -अ० मु० । Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७९ विजयोदया टीका अन्यत्वभावनानिरूपणार्थमुत्तरःप्रबन्धः किहदा जीवो अण्णो अण्णं सोयदि हु दुक्खियं णीयं । ण य बहुदुक्खपुरक्कडमप्पाणं सोयदि अबुद्धी ॥१७४९।। 'किहदा अण्णो जीवो अण्णं णीगं किह सोयदिति' पदघटना । अन्यो जीवो नीगं स्वस्मादन्यं ज्ञातिवर्ग । 'दुक्खिदं' दुःखेनाभिभूतं, कथं तावच्छोचति । 'ण य सोचदि' नैव शोचते। कं ? 'अत्ताणं' आत्मानं ? कीदृग्भूतं 'बहुदुक्खपुरक्कडं' शारीरैरागंतुकैः, मानसः, स्वाभाविकैश्च वहुभिर्दुःखैः पुरस्कृतं । 'अबुद्धि' मयाऽतीते काले चतसृषु गतिषु विचित्रास द्योदयात् द्रव्यक्षेत्रकालभावसहकारिकारणसान्निध्यापेक्षयानुपरतमापदः प्राप्ताः पुनरप्यागमिष्यति मां खलीकत्तु। न हि कारणाभ्यासस्थितसहकारिप्रत्यये सति कार्यस्यानुद्भवो नामास्ति, यो यद्भावैपि नासादयेदुदयं स कथमिव तद्धेतुकः ? यथा सत्यपि यवबीजेऽनुपजायमानश्चूताङ्कराः । तथा सत्यसद्वद्योदये यदि न स्युर्भवन्ति च । तस्मादात्मप्रदेशावस्थितस्य दुःखबीजस्य केनोपायनापायो भविष्यतीत्यकृतबुद्धितया अबुद्धिः । एतदुक्तं भवति परस्य दुःखं आत्मन एव दुःखमिति मत्वा शोकमयमुपैति, तद्विनाशे च सततं प्रयत्नं करोति । तथा च प्रवर्तमानस्य स्वदुःखनिवृत्तये न प्रारम्भोऽस्ति । ततोयं दुःखं भोज भोज पर्यटति । न च परो दुःखात्त्रातुं शक्यते । तेन हि सञ्चितानि कर्माणि कथं फल न प्रयच्छन्ति । न हि परस्य शोकः फलदायिनां कर्मणां प्रतिबन्धकः, तथा चाभ्यधायिआदिको कोई अपना सहायक नहीं मानता। उसी प्रकार शरीर धन वगैरह भी अपकार करनेवाले हैं। इस प्रकार बार-बार अभ्यास करनेसे 'मेरा कोई अन्य सहाय नहीं है। ऐसा सतत् चिन्तन चलता है ॥१७४८॥ आगे अन्यत्व भावनाका कथन करते हैं गा०-टी०–अन्य जीव अपनेसे अन्य सम्बन्धी जनोंको दुःखसे पीड़ित देखकर कैसे शोक करता है ? किन्तु यह अज्ञानी शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक और स्वाभाविक अनेक दुःखोंसे घिरे हुए अपने आत्माको चिन्ता नहीं करता है कि अतीतकालमें मैंने चारों गतियोंमें अनेक प्रकारके असातावेदनीयके उदयसे तथा द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूप सहकारी कारणोंके मिलनेसे निरन्तर आपदाएँ भोगी और वे आपदाएँ पुनः मुझे परेशान करनेके लिये भविष्यमें आयेंगी। सहकारी कारणोंके साथ कारणके रहते हुए कार्य अवश्य उत्पन्न होता है। जो जिसके रहते हुए भी उत्पन्न नहीं होता वह उसका कारण कैसे हो सकता है ? जैसे जौ बोनेपर आमका अंकुर पैदा नहीं होता अतः आमके अंकुरका कारण जौके बीज नहीं हैं। उसी प्रकार असातावेदनीयका उदय होते हुए भी यदि दुःख नहीं होता तो असातावेदनीय दुःखका कारण नहीं हो सकता। किन्तु असातावेदनीयके उदयमें दुःख अवश्य होता है। अतः आत्माके प्रदेशोंमें जो दुःखके कारण उपस्थित हैं उनका विनाश किस उपायसे होगा, ऐसा विचार न करनेसे उसे अबुद्धि कहा है। कहनेका अभिप्राय यह है कि यह अज्ञानी जीव दूसरेके दुःखको अपना ही दुःख मानकर शोक करता है और उसके विनाशका निरन्तर प्रयत्न करता है। और ऐसा करनेसे अपने दुःखको दूर करनेका प्रारम्भ भी नहीं कर पाता । इससे दुःख भोगते-भोगते भ्रमण करता है। दूसरेको दुःखसे बचाना शक्य नहीं है। उसने जो कर्मबन्ध किया है वह उसे फल क्यों नहीं देगा ? दूसरेके शोक करनेसे फल देनेवाले कर्म रुक नहीं जाते । कहा भी है Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० भगवती आराधना प्रीति पूर्व कृतं कर्म मनोवाक्कायकर्मभि । न निवारयितुं शक्यं 'संहतत्रिदशैरपि ॥ इति । तेनान्यदुःखापेक्षः शोकोऽस्य व्यर्थः । अन्यशब्देन च स्वदुःखात्पृथक्त्वं परदुःखस्योच्यते । अन्यत्र परदुःखागतस्यानुप्रेक्षणमन्यत्वानुप्रेक्षा एव परदुःखस्यान्य तामरं प्रेक्षमाणः परदुःखस्योपहननं कर्तुं न शक्यत इति न शोचति [परदुःखं], स्वदुःखोन्मूलने प्रयतत इति भावोऽस्य सूरेः ॥१७४९॥ सर्वस्य जीवराशेरात्मनोऽन्यत्वस्यैवानुप्रेक्षणमन्यत्वानुप्रेक्षेति कथयत्युत्तरगाथा संसारम्मि अणंते सगेण कम्मेण हीरमाणाणं । को कस्स होइ सयणो सज्जइ मोहा जणम्मि जणो ।।१७५०।। 'संसारंमि अणंते' अन्तातीते पञ्चविधे संसारे परिवर्तने । 'सगेण कम्मेण' आत्मीयमिथ्यादर्शनादि परिणामोत्पादितकर्मपर्यायेण पुद्गलस्कन्धेन 'हीरमाणाणं' आकृष्यमाणानां बहविधां गति प्रति । 'को कस्स होदि सयणो' नैव कश्चित् कस्यचित्स्वजनो नाम प्रतिनियत मिति यदि यो यस्य स्वजनत्वेनाभिमतस्स तस्यैव स्वजनः सर्वदा भवेत् । परजनो वा स्वजनतां नोपेयात् । न चायमस्ति प्रतिनियमः स्वकर्म परतन्त्राणामतो न कश्चित् स्वो जनः परो वा ममास्ति । सर्वो जीवराशिमिथ्यात्वादिगणविकल्पोपनीतनानात्वोऽन्य एवेति कृतव्यवसायस्य क्वचिदेव दया प्रीतिर्वा क्वचिन्निर्दयता द्वेषोऽसमानतारूपो न प्रादुर्भवति ततो विरागद्वषस्य चारित्रमविकल्पं भवति । 'सज्जदि जणमि जणो' आसक्ति 'पूर्वमें मन, वचन, कायसे जो कर्म किये है। सब इन्द्र भी मिलकर उनका निवारण नहीं कर सकते'। इसलिये दूसरेके दुःखको देखकर इसका शोक करना व्यर्थ है । अन्य शब्दसे परके दुःखको अपने दुःखसे भिन्न कहा है। परके आगत दुःखको अपनेसे भिन्न चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार परके दुःखको अपनेसे भिन्न विचार करता हुआ जानता है कि परके दुःखका विनाश करना शक्य नहीं है इसलिये वह उसका शोक नहीं करता। और अपने दुःखके विनाशमें प्रयत्नशील रहता है । यह आचार्यका अभिप्राय है ।।१७४९।। आगे कहते हैं कि समस्त जीवराशि अपनेसे अन्य है ऐसा चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है गा०-टी०-पंचपरावर्तन रूप संसारके अनन्त होते हुए अपने मिथ्यादर्शन आदि परिणामोंसे उत्पन्न हुए पुद्गल स्कन्धरूप कर्म पर्यायके द्वारा अनेक गतियोंमें भ्रमण करते हुए जीवका कौन किसका स्वजन है ? यह स्वजन है और यह परजन है यह भेद हो सकता था यदि जो जिसका स्वजन है वह उसीका स्वजन सदा रहता और परजन कभी भी स्वजन न होता। किन्तु अपने-अपने कर्मों के अधीन जीवोंका यह नियम नहीं हो सकता। अतः न कोई मेरा स्वजन है और न कोई परजन है। मिथ्यात्त्व आदि गुणस्थानोंके भेदसे नाना भेदरूप हुई समस्त जीवराशि मुझसे भिन्न ही है ऐसा जिसने निश्चय किया है उसका किसीमें ही दया और प्रीति और किसीमें निर्दयता और द्वेष यह असामनतारूप व्यवहार नहीं बनता। इसलिये जो राग-द्वेषसे रहित है १. सहित स्त्रिदर्श -आ० । स्यानित्यतापेक्षमाणः -आ० । Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७८१ करोति जनं हि जनो ममायं भ्राता पिता पुत्रो भागिनेयो दासःस्वामीति', वा मोहाद्वस्तुतत्वस्य अन्यतामात्ररूपस्य निरस्तस्वजनत्वस्य परिज्ञानात् ॥१७५०॥ प्रकारांतरेण स्वजनपरजनविवेकाभावं दर्शयत्युत्तरगाथा सव्वो वि जणो सयणो सव्वस्स वि आसि तीदकालम्मि । एंते य तहाकाले होहिदि सजणो जणस्स जणो ॥१७५१॥ 'सव्वो वि जणो सजणो' निरवशेषो जन्तुरनन्तः स्वजनः । 'सव्वस्स वि' सर्वस्यापि प्राणभृतः । 'तीदकालंमि' अतीते काले 'आसि' आसीत् । 'एते य तथा काले' भविष्यति तथा काले । 'होहिदि' भविष्यति । 'सजणो जणस्स जणो' स्वजनो जनस्य जनः । एतदनेनास्यायते अतीते भविष्यति च काले सर्वस्य सर्वः स्वजन असीद्भविष्यति च । ततस्सर्वसाधारणत्वे स्वजनत्वस्य सति ममायं स्वजन इति मिथ्यासंकल्पः। तेऽप्यन्ये ममाप्य"न्यस्तस्य इत्येतदेव तत्त्वमित्यन्यत्वस्य स्वपरविषयस्यानुप्रेक्षणमन्यत्वानुप्रेक्षा ॥१७५१॥ रत्तिं रत्तिं रुक्खे रुक्खे जह सउणयाण संगमणं । जादीए जादीए जणस्स तह संगमो होई ।।१७५२।। 'रति रत्ति' रात्री रात्रौ । 'रुक्खे रुक्खे' वृक्षे वृक्षे । 'जह सउणयाण संगमणं' यथा पक्षिणां संगमनं । 'जादीए जादीए' जन्मनि जन्मनि । 'जणस्स' जनस्य । 'तहा' तथा । 'संगमो होदि' संगमो भवति । यथा रात्रावाश्रयमन्तरेण स्थातुमसमर्थाः पक्षिणो योग्यं वृक्षमन्विष्य ढोकते । तद्वत्प्राणिनोपि निरवशेषगलितायः पुद्गलस्कन्धाः परित्यक्तप्राक्तनशरीराः शरीरांतरग्रहणार्थिनः शरीरग्रहणयोग्यदेशं योनिसंज्ञितमास्कन्दन्ति । उसका चारित्र सर्वत्र एकरूप होता है। यह मेरा भाई, पिता, पुत्र, भानेज, दास या स्वामी है इस प्रकार आसक्ति मनुष्य मोहवश करता है। वस्तुतत्त्व तो अन्यतामात्र रूप है उसमें कोई स्वजन नहीं है ॥१७५०॥ प्रकारान्तरसे स्वजन और परजनके भेदका अभाव कहते हैं गा०-अतीतकालमें सब प्राणियोंके समस्त अनन्त जीव स्वजन थे। तथा भविष्यत् कालमें सब प्राणियोंके सब जीव स्वजन होंगे ॥१७५१।। टो-इस गाथासे यह कहा गया है कि अतीत कालमें सबके सब जीव स्वजन थे और भविष्यमें सबके सब जीव स्वजन होंगे। इस प्रकार जब सभी जीव स्वजन हैं तो यह मेरा स्वजन है इस प्रकारका संकल्प मिथ्या है। वे मुझसे अन्य हैं और मैं उनसे अन्य हूँ, इस स्वपरविषयक अन्यत्व तत्त्वका चिन्तन अन्यत्वानुप्रेक्षा है ॥१७५१।। ___ गा०-जसे प्रत्येक रात्रिमें प्रत्येक वृक्षपर पक्षियोंका संगम होता है उसी प्रकार जन्मजन्ममें मनुष्योंका संगम होता है ॥१७५२॥ टी.-जैसे रात्रिमें आश्रयके बिना रहने में असमर्थ पक्षी योग्य वृक्षको खोजकर उसपर बसेरा लेते हैं। उन्हींकी तरह संसारके प्राणी भी जब उनके आयुकर्मके पुद्गल स्कन्ध पूर्णरूपसे १. ति व्यामो० -आ० । २. जनपरि -आ० । ३. अपरिज्ञानात् इति प्रतिभाति । ४. तेनान्यो ममाप्यनस्तेन्य इत्यन्यदेव -आ०। ५ न्यस्त्यत्य इ -अ० ।। Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ विजयोदया टीका तत्र ययोः शुक्रशोणितमयमाश्रितोऽशुचितमं तौ पितराविति संकल्पयति । तथाभूतयोरेव शुक्रशोणितयोरुपात्तदेहा भ्रातर इति । 'अन्ये त एवंभूताश्च स्वजनिनोतिसुलभाः। कांतारे पक्षिणां निवासवृक्षा इवेति . भावः ॥१७५२॥ पहिया उवासये जह तहिं तहिं अल्लियंति ते य पुणो। छंडित्ता जंति णरा तह णीयसमागमा सव्वे ।।१७५३।। 'पहिया' पथिकाः । 'उवासये' उपाश्रये कस्मिश्चित् । 'जह' यथा । 'तहि तहिं' तस्मिस्तस्मिन् ग्रामनगरादौ । 'अल्लियंति' अन्योन्यं ढौकन्ते । 'ते य' ते च संगता:पथिकाः। 'पुणो' पश्चात् । 'छंडित्ता' त्यक्त्वा । 'जंति' यांति स्वाभिमतं देशं । 'तह णीयसमागमा सम्व' तथा बन्धुसमागमाः सर्वेपि च । एतेन बन्धुसमागमस्यानित्यता व्याख्याता ॥१७५३॥ भिण्णपयडिम्मि लोए को कस्स सभावदो पिओ होज्ज । कज्जं पडि संबंधं वालुयमुट्ठीव जगमिणमो ॥१७५४।। 'भिण्णपयडिम्मि लोगे' नानास्वभावे लोके । 'को कस्स सभावदो पिओ होज्ज' क: कस्य स्वभावेन प्रियो भवेत् । समानशीलतायां हि सख्यं भवति । न च सर्वबन्धवः समानशीलाः कथं तर्हि तेषां वा स बान्धवः । 'कज्जं पडि संबंधों' कार्यमेवोद्दिश्य सम्बन्धः नासति कार्यऽस्ति सम्बन्धः । 'वालुगमुट्ठीव' बालुकामुष्टिरिव । 'जगमिणमो' लोकोयं । यथा बालकानां भिन्नप्रकृतीनां द्रवद्रव्यमंतरेण न स्वाभाविकः सम्बन्धो येन संगता मुष्टिमुपेयुः । उदकादिद्रव्योपनीतैव संगतिस्तासां, एवं कार्योंपनीतव संगतिः स्वजनानां ॥१७५४॥ गल जाते हैं, और वे पूर्व शरीरको छोड़ नवीन शरीर ग्रहण करना चाहते हैं, तो वे शरीर ग्रहण करनेके योग्य देशमें, जिसे योनि कहते हैं, जाते हैं। वहां उन्हें जिनके अत्यन्त अपवित्र रजवीर्य रूपका आश्रय प्राप्त होता है उन दोनोंमें माता-पिताका संकल्प करते हैं । उसी प्रकारके रजवीर्यसे जिनके शरीर बनते हैं वे भाई होते हैं। वनमें पक्षियोंके रहनेके वृक्षोंकी तरह इस प्रकारके स्वजनवास सुलभ हैं । यह उक्त गाथाका अभिप्राय है ।।१७५२।। गा०-जैसे किसी उपाश्रयमें पथिक विभिन्न ग्राम नगर आदिमें परस्परमें मिलते हैं । पीछे वे सब उस उपाश्रयको छोड़कर अपने-अपने देशको चले जाते हैं । उसी प्रकार सब बन्धु-बान्धवोंका समागम है । इससे बन्धुसमागमको भी अनित्य कहा है ॥१७५३।। गाo-ट्री०-लोगोंके अलग-अलग स्वभाव होते हैं । ऐसे नाना स्वभाववाले लोकमें कौन किसको स्वभावसे प्रिय हो सकता है। समानशील वालोंमें ही मित्रता होती है । किन्तु सब बन्धुबान्धव तो समान शीलवाले नहीं होते। तब कैसे वह उनका बन्धु हो सकता है। कार्यको लेकर ही सम्बन्ध होता है। कार्यके न रहनेपर सम्बन्ध नहीं रहता। जैसे रेतका प्रत्येक कण अपना भिन्न स्वभाव रखता है। किसी मिलानेवाले द्रव्यके बिना उनका परस्परमें कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है। पानी आदिके सम्बन्धसे हो वे परस्परमें मिलते हैं। अन्यथा मुट्ठीमें अलग-अलग ही रहते हैं । इसी प्रकार स्वजन भी कार्यवश ही परस्परमें मिलते हैं ।।१७५४|| १. अन्यत ए-आ० । २. स्वजातयोति -आ० । Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७८३ तं च कार्यकृतं सम्बन्धं स्पष्टयत्युत्तरगाथा माया पोसेइ सुयं आधारो मे भविस्सदि इमोत्ति । पोसेदि सुदो मादं गब्भे धरिओ इमाएत्ति ।।१७५५।। 'माया पोसेदि सुदं' माता पोषयति सुतं । 'आधारो मे भविस्सदि इमोत्ति' अयं ममाधारो भविष्यतीति । 'पोसेदि सुवो मावं' पोषयति सुतो मातरं । 'गन्भे परिदो इमाएत्ति' गर्भ धारितोऽनयेति ।।१७५५।। उपकारापकारयोः प्रतिबन्धात् शत्रुता मित्रता वेति तत् कथयति होउण अरी वि पुणो मित्तं उवकारकारणा होइ । पुनो वि खणेण अरी जायदि अवयारकरणेण ।।१७५६।। 'होऊण अरी वि' शत्रुरपि भूत्वा । 'पुणो' पुनः । 'मित्तो होदि' सुहृद्भवति । स एवारिः। कुतः ? 'उपकारकरणा' उपकारकरणेन । 'पुत्तोवि खणेण अरी जायदि' पुत्रोपि क्षणेन शत्रुर्भवति, केन ? अपकारकरणन, निर्भत्सनताडनाद्यपकरणक्रियायाः । यस्मादेवं ॥१७५६।। तम्हा ण कोह कस्सइ सयणो व जणो व अत्थि संसारे । __ कज्ज पडि हुँति जगे णीया व अरी व जीवाणं ॥१७५७॥ 'तम्हा' तस्मात् । ' कोइ कस्सइ सयणो व जणो व अत्थि संसारे' नैव कश्चित्कस्यचित्स्वजनः परजनो वा विद्यते । 'कज्जं पडि होदि गीगा व अरी व जन:' कार्यमेवोपकारापकारलक्षणं प्रति बन्धवः शत्रवश्च भवंति । न स्वाभाविकी बन्धुता शत्रुता वा जीवानामस्ति उपकारापकारक्रिययोरनवस्थितत्वात्तन्मलोऽरिमित्रभावोप्यनवस्थित इति न रागद्वषो क्वचिदपि कार्यों। मत्तोऽन्ये सर्व एव प्राणभूत इति कार्यान्यत्वानुप्रेक्षेति प्रस्तुताधिकारेणाभिसम्बन्धः ॥१७५७॥ आगे उस कार्यवश हुए सम्बन्धको दृढ़ करते हैं गा०-यह मेरा बुढ़ापेमें आधार होगा इस भावनासे माता पुत्रका पालन करती है और · पुत्र माताका पालन करता है कि इसने मुझे गर्भ में धारण किया था ॥१७५५।। आगे कहते हैं कि शत्रुता और मित्रता उपकार और अपकारसे बँधे हैं गा०-शत्रु होकर भी उपकार करनेसे मित्र हो जाता है। अपकार करनेसे पुत्र भी क्षणभरमें शत्रु हो जाता है। अर्थात् यदि पुत्र माता पिताका तिरस्कार करता है उन्हें मारता है तो वह शत्रु ही प्रतीत होता है ॥१७५६।। गा०-इसलिये संसारमें कोई किसीका न स्वजन है और न परजन है। उपकार और अपकार रूप कार्यको लेकर ही जीवोंके मित्र या शत्रु बनते हैं ।।१७५७।।। टो०-जीवोंमें न तो स्वाभाविक शत्रुता है और न स्वाभाविक बन्धुता है। उपकार और अपकाररूप क्रिया भी स्थायी नहीं है इसलिये उपकार मूलन मित्रता और अपकारमूलक शत्रुता भी स्थायी नहीं है। अतः न किसीसे राग करना चाहिये और न किसीसे द्वष करना चाहिये । सभी प्राणी मुझसे अन्य है इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा करना चाहिये ॥१७५७।। Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ शत्रु मित्रयोर्लक्षणमाचष्टे भगवती आराधना जो जस्स वट्टदि हिदे पुरिसो सो तस्स बंधवो होदि । जो जस कुणदि अहिदं सो तस्स रिवृत्ति णायव्वो । १७५८ ॥ 'जो जस्स वट्टदि हिवे' यो यस्य उपकारे वर्तते । 'पुरिसो' पुरुषः । 'सो तस्स बंधवो होवि' स तस्य बन्धुर्भवति । 'जो जस कुणवि अहिवं' यो यस्य करोत्यहितं । 'सो तस्स रिउत्ति णायवो' स तस्य रिपुरिति ज्ञातव्यः ।।१७५८ ।। शत्रुलक्षणं बन्धुषु दर्शयति या करंति विग्धं मोक्खन्भुदयावहस्स धम्मस्स | कारंतिय अइबहुगं असंजम तिव्वदुक्खकरं ।। १७५९॥ 'णीया करंति विग्धं' बन्धवः कुर्वन्ति विघ्नं । कस्य ? 'धम्मस्स' धर्मस्य, 'कीदृश:' ? मोक्खन्भुदयावहस्स' निरवशेषदुःखकारिकर्मापायं सांसारिकमतिशयवत् सुखं च संप्रादयतो रत्नत्रयस्य । 'कारंति य' कारयन्ति च । किं ? ‘असंयम' हिसानृतस्तेयादिकं, 'अदिबहुगं' अतीव महान्तं । 'तिब्वदुक्खकरं दुःसहनरकादिदुःखोत्थापनोद्यतं । हितस्य विघ्नकरणादहिते च प्रवर्तनात् दर्शिता शत्रुता बन्धूनामेंतेन । अन्येषां बान्धवाद्यभिमतानां शत्रुत्वेनानुप्रेक्षणं अन्यत्वानुप्रेक्षेति कथितं भवति ॥१७५९॥ इदानीमन्यशब्देन साधवो भण्यंते तेषामुपकारकत्वरूपेणानु प्रेक्षेति चेतसि कृत्वा व्याचष्टे या सत्तू पुरिसस्स हुंति जदिधम्मविग्धकरणेण । कारेंति य अतिबहुगं असंजमं तिव्वदुःखयरं ॥१७६०॥ शत्रु और मित्रका लक्षण कहते हैं गा० - जो पुरुष जिसका उपकार करता है वह उसका बान्धव होता है । और जो जिसका अहित करता है वह उसका शत्रु होता है । यह मित्र और शत्रुका लक्षण जानना || १७५८ || आगे बन्धुओं में शत्रुका लक्षण दिखलाते हैं गा० - टी० - बन्धुगण दुःख देनेवाले सब कर्मोंका पूर्णरूपसे विनाश और संसारका सातिशय दुःख देनेवाले रत्नत्रयरूप धर्ममें विघ्न करते हैं । और दुःसह नरकादिके दुःखोंको लाने में तत्पर हिंसा, झूठ, चोरी आदि असंयम कराते हैं । अर्थात् यदि कोई जिनदीक्षा आदि लेकर आत्मकल्याणमें लगना चाहता है तो परिवारके लोग उसे रोकते हैं तथा अपने पोषणके लिये मनुष्यको बुरे कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं । तो हितसाधनमें विघ्न करनेसे और अहितमें लगानेसे बन्धु शत्रु हैं, यह इससे दिखलाया है। इसका अभिप्राय यह है कि जो अन्य बान्धव आदि रूपसे इष्ट हैं उन्हें भी शत्रु रूप से विचारना कि ये मेरे मित्र नहीं हैं, शत्रु हैं, अन्यत्वानुप्रेक्षा है ।। १७५९ ।। अब अन्य शब्दसे साधुओं को लेते हैं । उन्हें उपकारी रूपसे विचारना अन्यत्वानुप्रेक्षा है, यह कहते हैं गा०-- पुरुषके यति धर्म स्वीकार करनेमें विघ्न करनेसे बन्धुगण शत्रु होते हैं तथा वे Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८५ विजयोदया टीका 'अन्यथा यतीनां बन्धुत्वं कथं 'प्रस्तुतायां अन्यत्वानुप्रेक्षायामुपयुज्यते ॥१७६०॥ ... पुरिसस्स पुणो साधू उज्जोवं संजणंति जदिधम्मे । तध तिव्वदुक्खकरणं असंजमं परिहरावेंति ॥१७६१॥ 'पुरिसस्स' पुरुषस्य । 'पुणो साधू' साधवः पुनः 'उज्जोवं संजणंति' उद्योगं सम्यग्जनयन्ति । 'जदिधम्मे' सरिंभपरिग्रहत्यागलक्षणे यतिधर्मे, 'तघ असंजमं परिहराति' तथा असंयम परिहारयन्ति । कोदृग्भूतं ? 'तिव्वदुक्खयर' तीव्राणां दुःखानामुत्पादकं ।।१७६१।। उपसंहरति प्रस्तुतमर्थ तम्हा णीया पुरिसस्स होंति साहू अणेयसुहहेदु । संसारमदीणंता णीया य णरस्स होति अरी ॥१७६२।। 'तम्हा' तस्मात् । हिते प्रवर्तनात् अहिते निवर्तनात् । ‘णीगा पुरिसस्स' बन्धवःपुरुषस्य । के ? 'साधू' साधवः । 'अणेगसुखहेदू' इन्द्रिया तीन्द्रियसकलसुखहेतवः। 'संसारमदीणंता' संसारमपारनेकदुःखसङ्कलमवतारयन्तः । 'णीया य णरस्स होति अरों' शत्रवो भवन्ति मनुष्यस्य बन्धवः । एतेन सूत्रेण अन्येषां यतीनां बन्धूनां मित्रत्वशत्रुत्वानुप्रेक्षणं अन्यत्त्वानुप्रेक्षेति कथ्यते । एवमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मे तदुपदेशक.रिणि च यतिजने महानादरो भवति । अभिमतं सकलं सुखमुपस्थापयतो धर्मस्य विघ्नं सम्पादयत्सु चतुर्गतिघटीयन्त्रे५ दुखतारआरोहयत्सु नितरामनादरो भवति ॥१७६२॥ अण्णत्तं । संसारानुप्रेक्षा कथ्यते प्रबन्धेनोत्तरेण मिच्छत्तमोहिदमदी संसारमहाडवी तदोदीदि । जिणवयणविप्पणट्ठो महाडवीविप्पणट्ठो वा ॥१७६३॥ अत्यन्त दुःसह दुःखदायी असंयम कराते हैं इसलिये भी वे शत्रु हैं ।।१७६०॥ गा०-किन्तु साधु सर्व आरम्भ और सर्व परिग्रहके त्यागरूप मुनिधर्ममें पुरुषको तत्पर करते हैं और तीव्र दुःखदायी असंयमका त्याग कराते हैं ।।१७६१।। प्रस्तुत कथनका उपसंहार करते हैं-- गा०-टी०-अतः हितमें लगाने और अहितसे रोकनेके कारण साधुगण बन्धु हैं। वे इन्द्रियजन्य और अतीन्द्रिय सुखके कारण हैं तथा अनेक दुःखोंसे भरे अपार संसारसे पार उतारते हैं। इस गाथाके द्वारा अपनेसे अन्य साधुगणोंका मित्ररूपसे और बन्धुगणोंका शत्रुरूपसे चिन्तन करनेको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहा है। ऐसा चिन्तन करनेसे धर्ममें और धर्मका उपदेश करनेवाले साधुगणमें महान आदर होता है । और सर्व इष्ट सुखको देनेवाले धर्ममें विघ्न करनेवालोंमें और जिसपरसे उतरना दुष्कर है उस चार गतिरूपी घटीयंत्रपर चढ़ाने वालोंमें अत्यन्त अनादर होता है ॥१७६२॥ १. अन्येषां -आ० मु० । २. कथमप्र -आ० मु० । ३. असंजमं परिहरावेति तिव्वदुक्खपरं -आ० । ४. यानिन्द्रि -आ० मु० । ५. यन्त्रे दुःखभारे आ -आ० भ०। ६. आरोहत्सु -अ० मु०। Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ भगवती आराधना मिच्छत्तमोहिदमदी'. वस्तुयाथात्म्याश्रद्धानं दर्शनमोहोदयजं मिथ्यात्वं तेन मिथ्यात्वेन हेतुना मोहमुपगता मतिर्यस्यासौ । 'संसारमहाडवीं' संसारो महाटवी 'दुरुतरत्वादनेकदुःखावहत्वाद्विनाशयितुमुद्यतत्वाच्च तां संसारमहाटवीं । 'तवों तस्मात् मिथ्यात्वमढमतित्वात् । 'अदीवि' प्रविशति । ननु च मिथ्यात्वासंयमकषाययोगाश्चत्वारोऽपि संसारस्य निमित्तभूताः तत्र किमुच्यते मिथ्यात्वमूढमतिः संसारमहाटवीं प्रविशतीति । अत्रोच्यते-उपलक्षणं मिथ्यात्वग्रहणं असंयमादीनां । 'जिणवयणविप्पणछो' द्रव्यभावकर्मारातिजयात जिनास्तेषां वचनं जीवाद्यर्थयाथात्म्यप्रकाशनपट प्रत्यक्षादिप्रमाणांतराविरोधि ततो विप्रनष्टस्तदर्थापरिज्ञानात् यत्तत्वाश्रद्धानं तन्निरूपितेन मार्गेणानाचरणाच्च महाटवी महतीमटवीं प्रविशति । 'विप्पणठ्ठो वा' मार्गाद्विप्रनष्ट इव । 'संसारमहोदधिमविगम्म जीवपोतो भमदि' संसारमहासमुद्रं प्रविश्य जीवयानपात्रं भ्रमति । कीदृग्भूतं संसारमहोदधिं ॥१७६३॥ बहुतिव्वदुक्खसलिलं अणंतकायप्पवेसपादालं । चदुपरिवट्टावत्तं चदुगदिबहुपट्टमणंतं ॥१७६४।। 'बहुतिम्वदुक्खसलिलं' बहूनि तीव्राणि दुःखानि सलिलानि यस्मिन्संसारमहोदधौ तं । 'अणंतकायप्पवेस. पादालं' अनंतानां जीवानां कायः शरीरमनंतकाय अनन्तकाय प्रवेशास्ते पातालसंस्थानीया यस्य तं । अथवा न विद्यते अन्तो निश्चयोऽस्यैव जीवस्येदं शरीरमिति बहूनां साधारणत्वात् यस्मिन् काये सोऽनंतः कायोऽस्य आगे संसार अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं गा० टी०-दर्शनमोहके उदयसे जो वस्तुके यथार्थस्वरूपका अश्रद्धान है उसे मिथ्यात्व कहते हैं। उस मिथ्यात्वके कारण जिसको मति मोहित है वह मिथ्यात्वसे मोहितमति होनेसे संसाररूपी महा अटवीमें प्रवेश करता है। महाअटवीके समान ही संसारको पार करना कठिन है वह अनेक दुःखोंसे भरा है तथा प्राणीका विनाश करनेवाला है इसलिये संसारको महाटवी कहा है। शंका-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चारों भी संसारके हेतु हैं। तब यह क्यों कहा कि मिथ्यात्वसे जिसकी मति मूढ है वह संसार महाटवीमें प्रवेश करता है। समाधान-मिथ्यात्वका ग्रहण असंयम आदिका उपलक्षण है अतः मिथ्यात्वके ग्रहणसे असंयम आदिका ग्रहण हो जाता है। द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेसे जो जिन कहे जाते हैं उनके वचन जीवादि पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशनमें दक्ष हैं तथा वे प्रत्यक्ष आदि अन्य प्रमाणोंसे अविरुद्ध हैं। उन वचनोंका अर्थ न जाननेसे जो तत्त्वोंका अश्रद्धान है उससे तथा उसमें कहे गये मार्गके अनुसार आचरण न करनेसे संसाररूपी महाअटवीमें प्रवेश करता है। तथा मार्गसे भ्रष्ट होकर जीवरूपी जहाज संसाररूपी महासमुद्र में प्रवेश करके भटकता है ।।१७६३।। संसाररूपी महासमुद्र कैसा है, यह बतलाते हैं गा०-टी०-जिस संसाररूपी महासमुद्र में तीव्र दुःखरूपी जल भरा है और अनन्त जीवोंके काय अर्थात् शरीरको अनन्तकाय कहते हैं। अनन्तकायमें प्रवेश ही जिस संसार समुद्र में पाताल हैं। अथवा 'यह शरीर इसी जीवका है' ऐसा अन्त अर्थात् निश्चय जहाँ नहीं वह काय अनन्त है १. दुखात्वाद् बहुत्वा -आ० मु० । २. कायस्य प्र०, आ० । Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७८७ जीवस्येत्यनन्तकायः । अन्तरेणापि भावप्रधानो निर्देशः । तेनायमर्थः अनन्तकायत्वस्य प्रवेशः अनन्तकायप्रवेशः स पातालं यस्य तं । 'चदुपरिवट्टावत्तं' चत्वारः द्रव्यक्षेत्रकालभावाख्याः परिवर्ताः आवर्ता यस्मिस्तं । 'चदुगदिबहुपट्टणं' चतस्रो गतयो बहूनि महान्ति पत्तनानि यस्मिस्तं । 'अणंतं' अनन्तं ॥१७६४॥ हिंसादिदोसमगरादिसावदं दुविहजीवबहुमच्छं । जाइजरामरणोदयमणेयजादीसदुम्मीयं ॥१७६५॥ _ हिंसादिदोसमगरादिसावदं' हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहा हिंसादिदोषास्ते मकरादयः श्वापदा यस्मिस्तं । 'दुविहजीवबहुमच्छ' द्विविधाःस्थावरजंगमविकल्पा जीवा इति द्विविधा जीवास्ते बहवो मत्स्या यस्मिस्तं । 'जादिजरामरणोदयं' जातिरभिनवशरीरग्रहां, जरा नाम गृहीतस्थ शरीरस्य तेजोबलादिभिरूनता, मरणं शरीरादपगमः एतानि जातिजरामरणानि उदयं उद्गतिर्यस्मिस्तं । 'अणेयजादीसुदुम्मीगं' अनेकानि जातिशतानि ऊर्मयो यस्मिस्तं । एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियजातयः प्रत्येकमवान्तरभेदापेक्षया पृथिवीकायिका, अप्कायिकास्तेजस्कायिकवनस्पतिकायिका इति । एकेन्द्रियजातिरनेकप्रकारा । षड्दिशद्विकल्पा पृथिवी । आपोऽपि वर्षहिमहिमानीकरकादिभेदभिन्नाः । अग्निरपि प्रदीपोल्मकर्माचरित्यनेकभेदः । वायुरपि गुञ्जामण्डलिकादिविकल्पः । वनस्पतयोऽपि तरुगुल्मवल्लीलतातृणादिभेदास्ततो जातिशतानीत्युक्तं ॥१७६५॥ क्योंकि एक शरीरमें बहुतसे जीव समानरूपसे रहते हैं। वह अनन्तकाय जिस जीवकी है वह अनन्तकाय है। 'भाव प्रत्ययके बिना भी निर्देश भावप्रधान होता है' इस नियमके अनुसार अर्थ होता है अनन्त कायत्वका प्रवेश अनन्तकाय प्रवेश । वही जिसमें पाताल है । तथा द्रव्य क्षेत्र काल और भाव परिवर्तन रूप जिसमें चार भँवर हैं। और चारगतिरूप महान् द्वीप हैं तथा जो अनन्त है ॥१७६४|| विशेषार्थ-संसारको महासमुद्रकी उपमा दी है। समुद्र में जल होता है संसारमें दुःख ही जल है। जैसे जलका आरपार नहीं है वैसे ही संसारके दुःखका भी आदि अन्त नहीं है । समुद्रमें पाताल होते हैं जिनमें प्रवेश करके निकलना कठिन है। संसारमें जो अनन्तकाय निगोद हैं वही पाताल है उसमें प्रवेश करके निकलना कठिन है। समुद्र में भंवर होते है। संसारमें परिवर्तनरूप भँवर हैं । समुद्र में द्वीप होते हैं जहाँ कुछ समय ठहर सकते हैं। संसारमें चार गतियाँ ही द्वीप हैं। इसी प्रकार समुद्र भी अनन्त है और संसार भी ॥१७६४।। गा०-टी०-उस संसाररूपी समुद्र में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहरूपी मगर आदि क्रूर जन्तु रहते हैं। स्थावर और जंगम जीवरूप बहुतसे मच्छ हैं। जाति अर्थात् नया शरीर धारण करना, जरा अर्थात् वर्तमान शरीरके तेज बल आदिमें कमी होना, मरण अर्थात् शरीरका त्याग । ये जाति जरा और मरण उसके उठाव हैं तथा सैकड़ों जातियाँरूपी उसमें तरंगें हैं । एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पाँच जातियाँ हैं। इसमेंसे प्रत्येकके अनेक अवान्तर भेद हैं। जैसे एकेन्द्रिय जातिके पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक आदि अनेक भेद हैं। उनमेंसे भी पथिवीके छत्तीस भेद हैं। जलके भी वर्षा, हिम, ओले आदि भेद हैं। आगके भी दीपक, अंगार, लपट आदि अनेक भेद हैं। वायुके भी गुंजा, माण्डलिक आदि भेद हैं। वनस्पतिके भी वृक्ष, झाड़ी, बेल, लता, तृण आदि भेद हैं। इसीसे सैकड़ों जातियाँ कही हैं ॥१७६५।। ९९ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ भगवतीआराधना दुबिहपरिणामवादं संसारमहोदधि परमभीमं । अदिगम्म जीवपोदो भमइ चिरं कम्मभण्डभरो ॥१७६६॥ 'दुविधपरिणामवाद' द्विविधाः शुभाशुभपरिणामा वाता यस्मिस्तं । 'परमभीम' अतिभयंकरं । 'अदिगम्म' प्रविश्य । 'जीवपोदो' जीवपोतः । 'भमइ चिरं' चिरकालं भ्रमति । 'कम्मभण्डभरो' कर्मद्रविणभारः । त्रिभिः सम्बन्धः ॥१७६६॥ भवसंसार निरूपयति एगविगतिगचउपंचिंदियाण जाओ हवंति जोणीओ। सव्वाओ ताओ पत्तो अणंतखुत्तो इमो जीवो ॥१७६७।। 'एगविगतिगचउपाँचदियाण' नामकर्म गतिजात्यादिविचित्रभेदं । तत्र जातिकर्म पञ्चविकल्पं एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजातिविकल्पेन तासां जातीनामुदयात् । एकेन्द्रियतादिपर्यायभाजो जीवाः एकेन्द्रियादिशब्देनोच्यन्ते । तेषामेकेन्द्रियादीनां योनय आश्रया बादरसूक्ष्मपर्याप्तकापर्याप्तकाख्या जीवद्रव्याणामिहाश्रयत्वेन विवक्षिताः । 'सचित्तशीतसंवृता सेतरा मिश्राश्चैकशस्तधोनयः' [ त० सू० २।३२ ] इति सूत्रे ये निर्दिष्टाश्चतुरशीतिशतसहस्रविकल्पास्त इह न गृह्यन्ते । यतः सूत्रान्तरे देवत्वनारकत्वमनुष्यत्वतिर्यक्त्वाख्या भवपर्यायपरावृत्तिर्भवसंसार इत्युक्तः । गिरयादिजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लयादु गेवज्जा। मिच्छत्तसंसिदेण दु भवठ्ठिदी भज्जिदा बहुसो ।। इति वचनात् ।। योनयो न भवशब्दवाच्याः । जीवपर्यायो हि भवस्तत्र भवः संसारस्त्रिशद्विधः-पृथिव्यप्तेजोवायुवन गा०--कर्मरूपी भाण्डसे भरा हुआ जीवरूपी जहाज शुभ अशुभ परिणामरूप वायुसे युक्त अतिभयंकर संसार महासागरमें प्रवेश करके चिरकाल तक भ्रमण करता है ।।१७६६।। अब भवसंसारका कथन करते हैं गा०-टी०-नामकर्मके गतिनामकर्म जातिनामकर्म आदि अनेक भेद हैं। उनमेंसे जातिनामकर्मके पाँच भेद हैं-एकेन्द्रिय जातिनाम, दोइन्द्रिय जातिनाम, त्रीन्द्रिय जातिनाम, चतुरिन्द्रिय जातिनाम और पञ्चेन्द्रिय जातिनाम। उन जातिनाम कर्मो के उदयसे एकेन्द्रिय आदि पर्यायमें जन्म लेनेवाले जीव एकेन्द्रिय आदि शब्दसे कहे जाते हैं। उन एकेन्द्रिय आदिकी बादर सूक्ष्म पर्याप्त और अपर्याप्त योनियोंको यहाँ जीवद्रव्यका आश्रय कहा है । तत्त्वार्थ सूत्रके 'सचित्तशीतसंवृताः' इत्यादि सूत्रमें जो चौरासी लाख योनियां कही हैं, यहां उनका ग्रहण नहीं किया है। क्योंकि उसी तत्त्वार्थसूत्रके 'संसारिणो मुक्ताश्च' सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि टोकामें देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यश्च नामक भवपर्यायके परावर्तनको भवसंसार कहा है। कहा है-'इस जीवने नरकगति आदिकी जघन्य स्थितिसे लेकर उपरिम वेयक पर्यन्त अनेक भवस्थितियोंको मिथ्यात्वके संसर्गसे भोगा है।' अतः भवशब्दसे योनियां नहीं कही जातीं। जीवकी पर्यायको भव कहते हैं। भवसंसार तीस प्रकारका है-पृथिवीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकायमेंसे प्रत्येकके For Private & Personal use only Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७८९ स्पतिकायाः प्रत्येकं बादरसूक्ष्मपर्याप्तकापर्याप्तविकल्पाविंशतिविधाः । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञासंज्ञिविकल्पाः पञ्चेन्द्रियाश्च पर्याप्तापर्याप्तकविकल्पा दशविधाः। अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवं वदन्ति । नरकगतो सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः परिभ्रम्य तेनैवायुषा तत्र जायते । एवं दशवर्षसहस्राणां यावन्तः समयास्तावत्कृत्वा तत्रैव जातो मृतः । पुनरेकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गतौ अन्तर्मुहूर्तायुःसमुत्पन्नः । पूर्वोक्तेन क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य एवं मनुष्यगतो। देवगतौ भारकवत् । अयं तु विशेषः, एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि यावत्तावद्भवपरिवर्तनाः सर्वास्ता भवन्ति इति । अनन्तवारमयं प्राप्तो जीवः ॥१७६७॥ द्रव्यपरिवर्तनमुच्यते अण्णं गिण्हदि देहं तं पुण मुत्तूण गिण्हदे अण्णं । घडिजंतं व य जीवो भमदि इमो दव्वसंसारे ॥१७६८।। 'अण्णं गेण्हदि देहं' अन्यच्छरीरं गह्णाति । 'तं पुण मुत्तण' तच्छरोरं मुक्त्वा पुनरन्यद् गृह्णाति । 'घटीयंत्रमिव जीवो' घटीयन्त्रवज्जीवः । यथा घटीयन्त्रं अन्यज्जलं गृह्णाति तत त्यक्त्वा पुनरन्यदादत्ते एवमयं शरीराणि गृह्णन् मुंश्च भ्रमति । शरीराणि विचित्राणि द्रव्यशब्देनोच्यन्ते तत्स्वात्मनः परिवर्तनं बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त चार भेद होनेसे बीस भेद होते हैं। तथा दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और संजीपञ्चेन्द्रियके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद होनेसे दसभेद होते हैं। अन्य आचार्य भवपरिवर्तनका स्वरूप इस प्रकार कहते हैं___ नरकगतिमें सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है। कोई जीव उस आयुको लेकर नरकमें उत्पन्न हुआ। पुनः परिभ्रमण करके उतनी ही आयुको लेकर नरकमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्षो के जितने समय होते हैं उतनी बार दस हजार वर्षकी आयु लेकर नरकमें उत्पन्न हुआ और मरा। पुनः दस हजार वर्षको आयुमें एक-एक समय बढ़ाकर नरकमें उत्पन्न होते हुए वहाँकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण की। नरककी आयु पूर्ण करनेके पश्चात् तिर्यञ्चगतिमें एक अन्तर्मुहूर्तकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ और मरा। नरकगतिमें कहे क्रमानुसार तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य पूर्ण की। तिर्यञ्चगतिके समान मनुष्यगतिकी आय पूर्ण की और नरकगतिके समान देवगतिकी आयु पूर्ण की। किन्तु इतना विशेष है कि उपरिम ग्रेवेयककी उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर पूर्ण होने पर समस्त भवपरिवर्तन हो जाते हैं। ऐसे भवपरिवर्तन इस जीवने अनन्तवार किये हैं ॥१७६७॥ द्रव्यपरिवर्तनको कहते हैं गा०-टो०-घटीयन्त्रकी तरह जीव अन्य शरीरको छोड़कर अन्य शरीरको ग्रहण करता है। उसे भी छोड़कर अन्य शरीरको ग्रहण करता है। जैसे घटीयन्त्र नया जल ग्रहण करता है उसे निकालकर फिर नया जल ग्रहण करता है। उसी प्रकार यह जीव शरीरोंको ग्रहण करता और छोड़ता हुआ भ्रमण करता है। द्रव्यशब्दसे विचित्र शरीर कहे हैं। आत्माके शरीरोंका १. सर्वार्थसि० २।१० । Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० भगवती आराधना द्रव्यसंसार इति सूत्रकारस्यास्य व्याख्या स्थूलबुद्धीन दृिश्य । एवं तु द्रव्यपरिवर्तनं ग्राह्यं । द्रव्यपरिवर्तनं द्विविधं-नोकर्मपरिवर्तनं कर्मपरिवर्तनं चेति । तत्र नोकर्मपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एकस्मिन्समये गृहीताः स्निग्धरूक्षवर्णगन्धादिभिस्तीव्रममन्दमध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा अगृहीताननन्तवारानतीत्य, मिश्रकांश्च अनन्तवारानतीत्य मध्ये गृहीतागृहीतांश्च अनन्तवारानतीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं । कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते-एकस्मिन्समये एकेन जीवेन अष्टविधकर्मभावेन ये च गृहीताः समयाधिकावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णाः पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनं ॥१७६८॥ रंगगदणडो व इमो बहुविहसंठाणवण्णरूवाणि । गिण्हदि मुच्चदि य ठिदं जीवो संसारमावण्णो ॥१७६९।। 'रंगगदणडो व' रंगप्रविष्टनट इव । 'इमो' अयं 'बहुविहसंठाणवण्णरूवाणि' बहुविधसंस्थानवर्णस्वभावान् । 'गिण्हदि य 'मुच्चदि य अठिदं' गृह्णाति मुञ्चति च अस्थितं । क्रियाविशेषणमेतत । 'जीवो संसारमावण्णो' जीवो द्रव्यसंसारमापन्नः ॥१७६९।। क्षेत्रसंसारं निरूपयति जत्थ ण जादो ण मदो हवेज्ज जीवो अणंतसो चेव । काले तदम्मि इमो ण सो पदेसो जए अत्थि ॥१७७०।। परिवर्तन द्रव्यसंसार है । ग्रन्थकारने स्थूलबुद्धि वालोंको लक्ष करके द्रव्यसंसारका यह स्वरूप कहा है, किन्तु द्रव्यपरिवर्तन इस प्रकार लेना। द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद हैं-नोकर्म परिवर्तन और कर्म परिवर्तन । उनमेंसे नोकर्म परिवर्तन इस प्रकार है-तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य जो पुद्गल एक जीवने एक समयमें ग्रहण किये, उनमें जैसा स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण रहा हो और तीव्र, मन्द या मध्यम भावसे वे ग्रहण किये गये हों, दूसरे आदि समयोंमें उन्हें भोगकर छोड़ दिया। उसके पश्चात् अनन्तवार अगृहीतको ग्रहण करके, अनन्तवार मिश्रको ग्रहण करके, मध्यमें गृहीत और अगृहीतको अनन्तवार गृहण करके वे ही पुद्गल उसी जीवके उसी प्रकारसे जब नोकर्म रूपको प्राप्त होते हैं, उस सबको नोकर्म परिवर्तन कहते है । अब कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं-एक समयमें एक जीवने आठ कर्मरूपसे जो पुद्गल ग्रहण किये और एक समय अधिक एक आवली कालके पश्चात् द्वितीय आदि समयोंमें उन्हें भोगकर छोड़ दिया। नोकर्म परिवर्तनमें कहे क्रमके अनुसार वे ही कर्मपुद्गल उसी जीवके उसी प्रकारसे जब कर्मरूपसे आते हैं उस सबको कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं ।।१७६८।। गा०-जैसे रंगभूमिमें प्रविष्ट हुआ नट अनेक रूपोंको धारण करता हैं उसी प्रकार द्रव्यसंसारमें भ्रमण करता हुआ जीव निरन्तर अनेक आकार, रूप, स्वभाव आदिको ग्रहण करता और छोड़ता है ।।१७६९।। १. दि य ठिदं आ० । २. अवस्थितं -आ० मु० । Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ७९१ 'जत्थ ण जादो ण मदो हवेज्ज' यत्र क्षेत्र जातो मतो वा न भवेज्जीवः । 'अणंतसो चेव' अनन्तवारान् । 'कालेतीदंमि इमो' अतीते कालेऽयं । 'ण सो पदेसो जगे अस्थि' नासौ प्रदेशो जगति विद्यते । अन्ये तु क्षेत्रपरिवर्तनं-जगति सूक्ष्मनिगोदजीवो पर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेशशरीरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्यप्रदेशान् कृत्वोत्पन्नः, क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृतः, स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथा त्रिश्चतुरिति । एवं यावन्तोऽङ्गलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रेदशास्तावत्कृत्वा तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वलोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीतो भवति यावत्तावत् क्षेत्रपरिवर्तनं । उक्तं च सम्वम्मि लोगखित्ते कमसो तं त्थि जण्ण उप्पणं । ओगाहणा य बहुसो परिभमिदो खित्तसंसारे ॥ [ बा० अणु० २६ ] ॥१७७०॥ कालपरिवर्तनमुच्यते तक्कालतदाकालसमएसु जीवो अणंतसो चेव । जादो मदो य सव्वेसु इमो तीदम्मि कालम्मि ॥१७७१॥ 'तक्कालतदाकालसमयेसु' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसंज्ञितयोः कालयोयें समयास्तेषु । 'जीवो गणंतसो चेव' . जीवोऽनन्तवारान् । 'जादो मदो य सम्वेसु' जातो मृतश्च सर्वेषु समयेषु । 'इमो तोदम्मि कालम्मि' अयमतीते काले । इयमस्या गाथायाः प्रपञ्चव्याख्या-उत्सपिण्याः प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीवः स्वायुषः परिसमाप्ती मृतः, स एव पुनर्द्वितीयाया उत्सर्पिण्या द्वितीयसमये जातः स्वायुषः क्षयान्मृतः। स एव पुनस्तृतीयाया अब क्षेत्रसंसारको कहते हैं गा०-जगत्में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ यह जीव अतीत कालमें अनन्तवार जन्मा और मरा न हो ।।१७७०॥ टी०-अन्य आचार्य क्षेत्रपरिवर्तनका स्वरूप इस प्रकार कहते हैं-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव सबसे जघन्य प्रदेशवाला शरीर लेकर लोकके आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण करके एक श्वासके अठारहवें भाग समय तक जिया और मरा। वही जीव पुनः उसी अवगाहनाको लेकर उसी स्थानमें दुबारा उत्पन्न हुआ, तिबारा उत्पन्न हुआ, चौथी वार उत्पन्न हुआ। इस तरह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशमें जितने प्रदेश होते हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुनः एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते सर्वलोकको अपना जन्मक्षेत्र बनाया। इस सबको क्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। कहा भी है सर्व लोकक्षेत्रमें ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह क्रमसे उत्पन्न नहीं हुआ। अनेक अवगाहनाके साथ इस जीवने क्षेत्र संसारमें परिभ्रमण किया ॥१७७०॥ कालपरिवर्तनको कहते हैं गा०-यह जीव अतीत कालमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें अनन्त बार उत्पन्न हुआ और अनन्तबार मरा ॥१७७१।। दी-इस गाथाकी विस्तृत व्याख्या इस प्रकार है-उत्सर्पिणी कालके प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ कोई जीव अपनी आयुके समाप्त होनेपर मरा। वही जीव पुनः दूसरी उत्सर्पिणीके Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ भगवती आराधना उत्सपिण्यास्तृतीयसमये जातः । एवमनेन क्रमेण उत्सर्पिणी परिसमाप्ता तथा चावसर्पिणी। एवं जन्मनैरन्तर्यमुक्तं । मरणस्यापि नैरन्तयं तथैव ग्राह्यमेवं तावत्कालपरिवर्तनं । उक्तं च 'उवसप्पिणिअवसप्पिणिसमयावलिगासु णिरवसेसासु। जादो मदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे ॥' [ बा०, अणु० २७ ] ॥१७७१।। स्पन्दनससारं निरूपयत्युत्तरगाथा अट्टपदेसे मुत्तण इमो सेसेसु सगपदेसेसु । तत्तमिव अद्धरणं उव्वत्तपरत्तणं कुणदि ॥१७७३॥ 'भट्ठपदेसे मत्तूण' अष्टौ प्रदेशान्रुचकाकारान् मुक्त्वा । 'इमो' अयं जीवः । 'सेसेसु सगपदेसेसु' शेषेषु स्वप्रदेशेषु 'तत्तमिव अद्दहणं' तप्तजलमध्यस्थतन्दुलवत् । 'उव्वत्त परतणं कुणवि' उद्वर्तनं परावर्तनं करोति । एतया गाथया स्वप्रदेशेषु संसारनामात्मनः क्षेत्रसंसारत्वेनोच्यते ॥१७७३॥ भावसंसारोत्तरप्रतिपादनार्थे गाथा लोगागासपएसा असंखगुणिदा हवंति जावदिया । तावदियाणि हु अज्झवसाणाणि इमस्स जीवस्स ॥१७७४॥ 'लोगागासपदेसा' लोकाकाशस्य प्रदेशाः। 'असंखगुणिदा' असंख्यगुणिताः। 'हवंति जावदिया यावन्तो भवन्ति । 'तावदिगाणि ह अज्झवसाणाणि' तावदध्यवसायस्थानानि भवन्ति । 'इमस्स जीवस्स' अस्य जीवस्य । जीवस्य असंख्यातलोकप्रमाणेष्वध्यवसायसंज्ञितेषु भावेषु परावृत्तिर्भावसंसारः ॥१७७४॥ दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ और अपनी आयुके समाप्त होने पर मरा। वह जीव पुनः तीसरी उत्सर्पिणीके तीसरे समयमें उत्पन्न हआ। इस क्रमसे उसने उत्सर्पिणी समाप्त की और क्रमसे अवसर्पिणी समाप्त की। अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें क्रमसे जन्मा। तथा इसी प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयोंमें मरा भी। इस सबको काल परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है कालसंसारमें भ्रमण करनेसे यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें अनेक बार जन्मा और अनेक बार मरा ॥१७७१।। आगे क्षेत्रसंसाररूप स्पन्दन संसारको कहते हैं गा०-लोकके मध्यमें स्थित गौके स्तनके आकार आठ प्रदेशोंको छोड़कर यह जीव अपने शेष प्रदेशोंमें तप्त जलके मध्यमें स्थित चावलोंकी त्रह उद्वर्तन परावर्तन किया करता है। अर्थात् जैसे आग पर रखे गर्म जलमें पड़े हुए चावल ऊपर नीचे हुआ करते हैं उसी प्रकार आठ मध्य प्रदेशोंको छोड़कर जीवके शेष प्रदेश चल रहते हैं ।।१७७३।। भाव संसारका कथन करते हैं गा०-लोककाशके प्रदेशोंको असंख्यातसे गुणा करनेपर जितनी राशि होती है उतने ही इस जीवके अध्यवसाय स्थान होते हैं। इन असंख्यात लोक प्रमाण अध्यवसाय नामक भावोंमें जीवके परावर्तनको भाव संसार कहते हैं ॥१७७४।। Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७९३ अज्झवसाणठाणंतराणि जीवो विकुम्वइ इमो हु। णिच्चं पि जहा सरडो गिण्हदि णाणाविहे वण्णे ॥१७७५।। 'अज्झवसाणठाणंतराणि जीवो विकुम्वइ इमो खु' अध्यवसायस्थानान्तराणि जीवः परिणमत्ययं । 'निच्चंपि' नित्यमपि, 'यथा सरडोणाणाविहे वण्णे' यथा गोधा नानाविधान्वर्णानुपादत्ते । एवं संसारः ॥१७७५।। तस्य भयमुपदर्शयति-. आगासम्मि वि पक्खी जले वि मच्छा थले वि थलचारी । हिंसंति एक्कमेक्कं सव्वत्थ भयं खु संसारे ॥१७७६॥ 'आयासम्मि वि पक्खो' आकाशे संचरन्तं परकीयपक्षिणोऽपि बाधन्ते । 'जले वि मच्छा' जलेऽपि मत्स्याः । 'थले वि थलचारी' भूमावपि भूमिचारिणः । “हिसंति' बाधन्ते । 'एक्कमेक्कं' अन्योन्यं । 'सम्वत्थ भयं खु संसारे' सर्वत्र भयं संसारे ॥१६७६।। गा०-जैसे गिरगिट नित्य ही नाना प्रकारके रंग बदलता है वैसे ही यह जीव अध्यवसाय स्थानोंको धारण करता हुआ परिणमन करता है ॥१७७५।। विशेषार्थ-भावपरिवर्तनका विस्तत स्वरूप इस प्रकार है-पश्शेन्द्रिय संज्ञो पर्याप्तक मिथ्या जीव सबसे जघन्य अपने योग्य ज्ञानावरण कर्मका अन्तःकोटिकोटी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। उस जीवके उस स्थितिबन्धके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थान होते हैं। उनमेंसे सबसे जघन्य कषायाध्यवसायस्थानमें निमित्त असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषायाध्यवसाय स्थान, सबसे जघन्य ही अनुभागबन्ध स्थानको प्राप्त उस जीवके उसके योग्य सबसे जघन्य एक योगस्थान होता है । फिर उसी स्थिति, उसी कषाय स्थान और उसी अनुभागस्थानको प्राप्त उस जीवके दूसरा योगस्थान होता है जो पहलेसे असंख्यात भागवृद्धियुक्त होता है। इस प्रकार श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थानोंके समाप्त होनेपर पुनः वही स्थिति और उसी कषायाध्यवसायस्थानको प्राप्त उसी जीवके दूसरा अनुभागाध्यवसायस्थान होता है। उसके भी योगस्थान पूर्ववत् जानना चाहिये । इस प्रकार तीसरे आदि असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थानोंके समाप्त होनेपर उसी स्थितिको प्राप्त उसी जीवके दूसरा कषायाध्यवसायस्थान होता है । उसके भी अनुभागाध्यवसायस्थान पूर्ववत् जानना। इस प्रकार तीसरे आदि कषायाध्यवसायस्थानोंके समाप्त होनेपर वही जीव एक समय अधिक जघन्यस्थितिको बाँधता है। उसके भी कषायादि स्थान पूर्ववत् जानना। इसी प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे ज्ञानावरण कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पूर्ववत् बांधता है। इसी प्रकार सब मूलकों और उनकी उत्तर प्रकृतियोंकी सब स्थितियोंको उक्त प्रकारसे बांधता है। इस सबको भावपरिवर्तन कहते हैं ॥१७७५।। संसारसे भय दर्शाते हैं गा०-आकाशमें विचरण करते हुए पक्षियोंको दूसरे पक्षी बाधा देते हैं । जलमें मच्छ बाधा करते हैं। थलमें थलचारी बाधा करते हैं। इस प्रकार सर्वत्र एक दूसरेकी हिंसा करते हैं। अतः संसारमें सर्वत्र भय है ॥१७७६|| Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ भगवती आराधना ससगो वाहपरद्धो बिलत्ति णाऊण अजगरस्स मुहं । सरणत्ति मण्णमाणो मच्चुस्स मुहं जह अदीदि ॥१७७७।। 'ससगो वाहपरद्धो' शशो व्याधेनोपद्रुतः, "विलित्तिणाऊण अजगरस्य मुहं बिलमिति ज्ञात्वा अजगरस्य मुखं । 'सरणत्ति मण्णमाणो' शरणमिति मन्यमानः । 'मच्चुस्स मुहं जह अदीदि' मृत्योर्मुखं यथा प्रविशति ॥१७७७॥ तह अण्णाणी जीवा परिद्धमाणच्छुहादिबाहेहिं । अदिगच्छंति महादुहहेदु संसारसप्पमुहं ॥१७७८।। 'तह अण्णाणी जीवा' तथा अज्ञानिनो जीवाः । 'परिचमाणच्छुहादिबाहेहि' 'अनुबाध्यमानाः क्षुदादिभिः व्याधैः । 'अदिगच्छति' प्रविशन्ति । 'महादुहहेतुं' महतो दुःखस्य निमित्तं । 'संसारसप्पमुहं' संसारसर्पमुखं ॥१७७८॥ जावदियाइं सुहाइं होंति लोगम्मि सव्वजोणीसु । ताइंपि बहुविधाइं अणंतखुत्तो इमो पत्तो ॥१७७९।। 'जावदियाई' यावन्ति । 'सुहाणि होंति लोगम्मि' सुखानि भवन्ति लोके । 'सव्वजोणीसु' सर्वासु योनिषु । 'ताईपि बहुविधाई' तान्यपि बहुविधानि । 'अणंतखुत्तो इमो पत्तो' अनन्तवारमयं जीवः प्राप्तः ॥१७७९॥ दुक्खं अणंतखुत्तो पावेत्तु सुहंपि पावदि कहिं वि । तह वि य अणंतखुत्तो सव्वाणि सुहाणि पत्ताणि ||१७८०॥ - 'दुक्खं अणंतखुत्तो पावेत्तु सुहंपि पाववि कहिंवि' दुःखमपि अनन्तवारं प्राप्य सुखमपि प्राप्नोति कथंचित् । 'तघ वि य अणंतखुत्तो' तथाप्यनन्तवारं 'सव्वाणि सुखाणि पत्ताणि' सर्वाणि सुखानि प्राप्तानि गणभृतां चक्रवर्तिनां पञ्चानुत्तरविमानवासिनां लौकान्तिकानामहमिन्द्राणां च सुखानि मुक्त्वा ॥१७८०॥ गा०-जैसे खरगोश व्याधसे सताया जानेपर बिल समझकर अजगरके मुखमें प्रवेश करता है। वह उसे अपना शरण मानकर मत्यके मखमें प्रवेश करता है॥१७७७॥ गा०—उसी प्रकार अज्ञानी जीव भूख प्यास आदि व्याधोंके द्वारा पीड़ित होनेपर महान् दुःखमें निमित्त संसाररूपी सर्पके मुखमें प्रवेश करते हैं ॥१७७८।। गा०-लोकमें सब योनियोंमें जितने प्रकारके सुख होते हैं उन सब अनेक प्रकारके सुखोंको भी इस जीवने अनन्तबार भोगा है ॥१७७९।। गा०–अनन्तबार दुःखोंको प्राप्त करके कदाचित् सुखको भी प्राप्त करता है। तथापि अनन्तबार इस जीवने सब सुखोंको प्राप्त किया है ॥१७८०॥ टी०-किन्तु गणधर, चक्रवर्ती, पांच अनुत्तर विमानबासी, लौकान्तिक और अनुदिश विमानवासी देवोंका सुख इस जीवने प्राप्त नहीं किया, क्योंकि ये चक्रवर्तीको छोड़कर शेष सब नियमसे सम्यग्दृष्टि होनेसे मोक्षगामी होते हैं। और चक्रवर्ती पद बार-बार प्राप्त नहीं होता है ॥१७८०॥ १. अनुभाव्यमानाः क्षुदादिभिर्व्याघ्रः व्याधेश्च -आ० मु० । Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका करणेहिं होदि विगलो बहुसो चित्तवचिसोदणित्तेहिं । घाण य जिभाए चिट्ठाबलविरियजोगेहिं ॥ १७८१ ॥ 'करणेहि होदि विगलो' विकलेन्द्रियः क्वचिद्भवति । 'बहुसो' बहुश: । 'चित्तवचिसोदणित्तह' मनसा वचसा श्रोत्रेण नेत्रेण करणेन हीनः । स्पर्शनेन्द्रियवैकल्यासंभवात् तदनुपन्यास: । 'घाणेण य' घ्राणेन च । 'जिन्भाए' जिह्वया । 'चेट्टाबलविरियजोगेहि' चेष्टया बलेन वीर्येण च ।। १७८१ ।। जच्चधबहिरमूओ छादो तिसिओ वणे व एयाई । भइ सुचिरंप जीवो जम्मवणे णट्टसिद्धिपहो ।। १७८२ ।। 'जन्वंधवधिरमूगो' जात्यन्धो, बधिरो, मूकः । 'छावो' क्षुधा पीडितः, 'तिसिदो' तृषाभिभूतः । 'वणे व एगागी भवदि' असहायो यथा वने भ्रमति । तथा 'सुचिरं पि' चिरकालमपि । जीवो 'जम्मवणे' जन्मवने भ्रमति । 'णट्ठसिद्धिपहो' नष्टसिद्धिमार्गः । उक्तं च ७९५ कलुषचरितं नष्टज्ञानस्सुसंचितकर्मभिः, करणविकलः 'कर्मोद्यूतो भवार्णवपाततः । सुचिरमवशो दुःखार्तो निमीलितलोचनो, भ्रमति कृपणो नष्टत्राणः शुभेतरकर्मकृत् । श्रवणविकलो वाग्धीनोऽज्ञो यथावृतलोचनः, तुषितमलिनो नष्टोऽटव्यां चरेदसहायकः । असकृदसकृत् गृह्णन् मुञ्चश्चराचरवेहतां, भ्रमति सुचिरं जन्माटव्यां तथायमदेशकः ॥ इति ।। १७८२॥ इंदिये पंचविधेसु वि उत्थाणवीरियविहूणो । भमदि अनंतं कालं दुक्खसहस्साणि पावेतो ।। १७८३ ।। 'एगिदियेसु पंचविधेषु वि' एकेन्द्रियेषु पञ्च प्रकारेष्वपि । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरधारिषु । गा० - यह जीव बहुत बार मन, वचन, श्रोत्र, नेत्र, घ्राण और जिह्वा इन्द्रिय तथा चेष्टा बल और वीर्यं से हीन विकलेन्द्रिय होता है । टी० - किसी प्राणीका स्पर्शन इन्द्रियसे हीन होना तो असंभव है अतः उसका कथन नहीं किया है ।। १७८१ ।। गा० - टी० - कभी यह जीव जन्मसे ही अन्धा, बहिरा, गूँगा होता है और भूख तथा प्यास से पीड़ित होकर जैसे कोई मार्ग भूलकर वनमें अकेला भटकता है उसी प्रकार मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होकर जन्मरूपी वनमें अकेला भ्रमण करता है । कहा भी है-अपने बुरे आचरणोंसे संचित किये कर्मोंके द्वारा अपना ज्ञान खोकर यह जीव धिकलेन्द्रिय होता है तथा कर्मोंसे प्रेरित हो संसाररूपी समुद्र में गिरकर चिरकाल तक पराधीन हो, आंख बन्द करके भ्रमण करता है । उसका कोई रक्षक नहीं होता । जैसे कोई बहरा, गूँगा अन्धा मूर्ख प्राणी प्याससे व्याकुल हो, मार्ग भूलकर अकेला वनमें भटकता है । उसी प्रकार यह संसारी प्राणी मार्गदर्शकके बिना बार-बार सस्थावर पर्यायको ग्रहण करता और छोड़ता हुआ चिरकाल तक जन्मरूपी वनमें भ्रमण करता है ।। १७८२ ॥ गा० - पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिका शरीर धारण करनेवाले पाँच प्रकारके २. तयं नि - मु० । १. कर्मोभूतभ -आ० । १०० Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ भगवती आराधना 'उत्थाणवीरियविहीणो' पृथिव्यादिकायान् परित्यज्य त्रसकायप्राप्तिनिमित्तोत्थानवीर्यरहितः । 'भमदि अणतं कालं' भ्रमति अनन्तकालं । 'दुक्खसहस्साणि पावेतो' दुःखसहस्राणि प्राप्नुवन् ।।१७८३॥ बहुदुक्खावत्ताए संसारणदीए पावकलुसाए । भमइ वरागो जीवो अण्णाणनिमीलिदो सुचिरं ।।१७८४।। 'बहुदुक्खावत्ताए' बहुदुःखावर्तायां । 'संसारणदीए' संसृतिनद्यां । 'पावकलुसाए' पापकलंकसहितायां । 'वरागो जीवो भमदि' दीनो जीवो भ्रमति । 'सुचिरं अण्णाणनिमीलिदो' अज्ञानेन निमीलितः ॥१७८४।। विसयामिसारगाढं कुजोणिणेमि सुहदुक्खदढखीलं । अण्णाणतुंबधरिदं कसायदढपट्टियाबंधं ॥१७८५।। "विसयामिसारगाढं' विषयाभिलाषारंढिं स्तब्धं । 'कुजोणिणेमि सुहदुक्खुदढखोलं' कुत्सितयोनिनेमिकं सुखदुःखदृढकीलं । 'अण्णाणतुंबधरिदं' अज्ञानतुंबधारितं । 'कसायदढपट्टिगाबद्ध' कषायदृढपट्टिकाबन्धं ॥१७८५॥ ... बहुजम्मसहस्सविसालवत्तणिं मोहवेगमहिचवलं। . । संसारचकमारुहिय भमदि जीवो अणप्पवसो ॥१७८६।। 'बहुजम्मसहस्सविसालवत्तणि' अनेकजन्मसहस्रविशालमार्ग । 'मोहवेगं' मोहवेगं । 'संसारचक्कमारुहिय' एवभूतं संसारचक्रमारुह्य । 'अणप्पवसो जोवो भमदि' अनात्मवशो जीवो भ्रमति ॥१७८६।। भारं से वहतो कहिंचि विस्समदि ओरुहिय भारं । देहभरवाहिणो पुण ण लहंति खणं पि विस्समिदं ॥१७८७॥ 'भारं णरो वहतो' भारं वहन्नरः। 'कहंचि भारमोरहिय' कस्मिंश्चिद्देशे काले च भारमवतार्य । 'विस्समदि' विधाम्यतिं । 'देहभरवाहिणो पुण' देहभारोदाहिनो जीवाः पुनः । 'न लभंति खणं पि विस्समिदं' न लभन्ते क्षणमपि विश्रामं कर्तुं । औदारिकर्व क्रियिकयोविनष्टयोरपि कार्माणतैजसयोरवस्थानात् ।।१७८७।। एकेन्द्रियोंमें यह जोव हजारों कष्ट भोगता हुआ अनन्तकाल तक भ्रमण करता है। उसमें इतनी भी शक्ति नहीं होती कि पृथिवी आदि कायोंका त्याग करके त्रसकायकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न कर सके ।।१७८३।। गा०-अज्ञानमें पड़ा हुआ यह बेचारा जीव पापरूपी मैले पानीसे भरी और बहुत दुःखरूपी भंवरोंसे युक्त संसाररूपी नदीमें चिरकाल भ्रमण करता है ।।१७८४॥ . गा०—यह संसाररूपी चक्र ( पहिया) विषयोंकी अभिलाषारूपी आरोरो जकड़ा हुआ है, कुयोनिरूपी नेमि-हाल उसपर चढ़ी हुई है। उसमें सुख दुःखरूपी मजबूत कीले लगी हैं। अज्ञानरूपी तुम्बपर वह स्थित है, कषायरूपी दृढ़ पहियोंसे कसा हुआ है। अनेक हजार जन्मरूपी उसका विशाल मार्ग है। उसपर वह संसार चक्र चलता है। मोहरूपी वेगसे अतिशीघ्र चलता है। ऐसे संसाररूपी चक्रपर सवार होकर यह पराधीन जीव भ्रमण करता है ।।१७८५-८६।। गा०-टी०-भारवाही मनुष्य तो किसी देश और कालमें अपना भार उतारकर विश्राम कर लेता है। किन्तु शरीरके भारको ढोनेवाले जीव एक क्षणके लिये भी विश्राम नहीं पाते। औदारिक Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका कम्माभावदुहिदो एवं मोहंघयारगहणम्मि । अंध व दुग्गमग्गे भमदि हु संसारकंतारे || १७८८ ।। 'कम्माणुभावदुहिदो' असद्वेद्यादिपापकर्ममाहात्म्यजनितदुःखः । 'एव' मुक्तेन क्रमेण । 'संसारकंतारे भमदि' संसारकान्तारे भ्रमति । कीदृशे ? 'मोहंधयारगहणम्मि मोहान्धकारगहने । 'अंधो व दुग्गमग्गे' अंध इव दुर्गमार्गे ||१७८८|| दुक्खस्स पडिगतो सुहमिच्छंतो य तह इमो जीवो । पाणवधादीदोसे करेइ मोहेण संछण्णो || १७८९ ।। 'दुक्खस्स पडिग रेतो' दुःखस्य प्रतीकारं कुर्वन् । 'सुहमिच्छंतो य' इन्द्रियसुखमभिलषन् । 'इमो जीवो' अयं जीवः । 'पाणवधादोदोसे' हिंसादिदोषान् । 'करेदि मोहेण संछण्णो करोति मोहेन संछन्नः । एतदुक्तं 'भवति - दुःखभीरुनिरवशेषदुःखापायस्योपायं न वेत्ति । दुःखनिराकरणार्थ्यापि दुःखहेतूनेव हिंसादीन् प्रवर्तयति । इन्द्रियसुखलम्पटोऽपि तेष्वेव हिंसादिषु दुःखहेतुषु प्रवर्तते । ततोऽस्य सकलो व्यापारो दुःखस्यैव मूलमिति ।। १७८९ ॥ दोसेहिं तेहिं बहुगं कम्मं बंधदि तदो णवं जीवो । अध तेण पच्चइ पुणो पविसित्तु व अग्गिमग्गीदो ॥। १७९० ।। 'दोसेहि तह' प्राणिवधादिकैर्दोषः । 'बहुगं कम्मं बंधदि' महत्कर्म बघ्नाति । 'नवं' प्रत्ययं । 'तो' पश्चात् । 'अध' कर्मबन्धानन्तरं । 'तेण पच्चवि' तेन वन्धनेन कर्मणा पच्यते । 'पविसित्तु व' प्रविश्येव । कि ? 'अग्ग' अग्नि । 'अग्गीदो' अग्नेः । अग्नेरागत्य अग्नि प्रविश्य यथा बाध्यते एवं पूर्वैः कर्मभिर्वाधितः पुत्रः प्रत्यग्रकर्मानिलेन दह्यते इति ॥ १७९० ॥ ७९७ और वैक्रियिक शरीरोंके छूट जानेपर भी कार्मण और तैजस शरीर बराबर बने रहते हैं || १७८७|| गा० - इस प्रकार असातावेदनीय आदि पापकर्मों के प्रभावसे दुःखी जीव मोहरूपी अन्धकारसे गहन संसाररूपी वनमें उसी प्रकार भ्रमण करता है जैसे अन्धा व्यक्ति दुर्गम मार्ग में भटकता है || १७८८ || गा० टी० - मोहसे आच्छादित यह जीव दुःखसे बचनेका उपाय करता है और इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा रखता है और उसके लिये हिंसा आदि दोषों को करता है । आशय यह है कि दुःखसे डरता है किन्तु समस्त दुःखोंके विनाशका उपाय नहीं जानता । यद्यपि दुःखोंको दूर करना चाहता है किन्तु हिंसा आदि पापोंमें प्रवृत्त होता है जो दुःखके हेतु हैं । इन्द्रिय सुखका लम्पटी होते हुए उन्हीं हिंसा आदि पापोंमें लगा रहता है जो दुःखके कारण हैं । इसलिये उसका सब काम दुःखका ही मूल होता है || १७८९ || गा०-उन हिंसा आदि दोषोंको करनेसे जीव बहुत-सा नया कर्म बाँधता है । कर्मबन्धके पश्चात् उस कर्मका फल भोगता है । इस प्रकार जैसे कोई एक आगसे निकलकर दूसरी आगमें प्रवेश करके कष्ट उठाता है, वैसे ही पूर्वबद्ध कर्मोंको भोगकर पुनः नवीन कर्मरूपी आग में जलता है ।।१७९० ।। १. भीरुनरो विशेषदुःखापायस्यापायं -आ० मु० । निःशेषदुःखापायोपायं - मूलारा० । २. कर्मनिबन्धेन -आ० । Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ भगवती आराधना बंधतो मुच्चंतो एवं कम्मं पुणो पुणो जीवो। सुहकामो बहुदुक्खं संसारमणादियं भमइ ।।१७९१।। 'बंधंतो मुच्चंतो' बन्धन् मुश्चन् । 'एवं कम्मं पुणो पुणो जीवों' कर्म पुनः पुनर्जीवः दत्तफलानि मुञ्चति, कर्मफलानुभवकालोपजातरागद्वषादिपरिणामैरभिनवानि कर्माणि बध्नाति । 'सुहकामो' सुखाभिलाषवान् । 'बहुदुक्लं' विचित्रदुःखं । 'संसारमणादिगं भमदि' अनादिकं संसारं भ्रमति । संसारचिन्ता ॥१७९१॥ लोकानप्रेक्षा निरूप्यते । नामस्थापनाद्रव्यादिविकल्पेन यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यलोक एवोच्यते । कथं ? सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात् आहिंडयपुरिसस्स व इमस्स णीया तहि तहिं होति । सव्वे वि इमो पत्तो संबंधे सव्वजीवहिं ।।१७९२।। 'आहिंडगपुरिसस्स व' देशान्तरं भ्रमतः पुंस इव । । 'इमस्स गोगा तहि तहि होति' अस्य बंधवस्तत्र तत्र भवन्ति । 'सम्वेवि इमो पत्तो' सर्वानयं प्राप्तः । 'संबंध' संबन्धान् । 'सव्वजोहि' सर्वजीवः सह ।।१७९२॥ माया वि होइ भज्जा भज्जा मायत्तणं पुणमुवेदि । इय संसारे सव्वे परियट्टते हु संबंधा ॥१७९३।। 'मादा य होवि भज्जा' माता भार्या भवति । भार्या मातृतां पुनरुपैति । एवं संसारे सर्वे सम्बन्धाः परिवर्तन्ते इति गाथार्थः ॥१७९३॥ जणणी वसंततिलया भगिणी कमला य आसि भज्जाओ। घणदेवस्स य एक्कम्मि भवे संसारवासम्मि ॥१७९४॥ 'जणणी वसंततिलया' धनदेवस्य जननी वसंततिलका। कमला भगिनी । ते उभे भायें जाते गा०-इस प्रकार जीव जो कर्म फल दे लेते हैं उन्हें छोड़ देता है और कर्मोका फल भोगते समय होनेवाले राग-द्वेष रूप परिणामोंसे नवीन कर्मोंका बन्ध करता है। सुखकी अभिलाषा रखकर बहुत दुःखोंसे भरे अनादि संसारमें भ्रमण करता है ॥१७९१॥ संसार अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। अब लोकानुप्रेक्षाका कथन करते हैं। यद्यपि नाम, स्थापना, द्रव्य आदिके भेदसे लोकके अनेक भेद हैं । तथापि यहाँ लोक शब्दसे जीव द्रव्यलोक ही कहा है क्योंकि गाथामें जीवके प्रवृत्ति क्रमका कथन किया है गा०-जैसे देशान्तरमें भ्रमण करनेवाले पुरुषको सर्वत्र इष्ट-मित्र मिलते हैं उसी प्रकार इस जीवके भी जहाँ-जहाँ यह जन्म लेता है वहीं-वहीं बन्धु-बान्धव होते हैं। इस तरह इसने सब जीवोंके साथ सब सम्बन्ध प्राप्त किये हैं ॥१७९२।। गा०-जो इस जन्म माता है वही दूसरे जन्ममें पत्नी होती है और पत्नी होकर पुनः माता बन जाती है । इस प्रकार संसारमें सब सम्बन्ध परिवर्तनशील हैं ॥१७९३।। गा०-टो०-दूसरे भवोंमें सम्बन्ध बदलनेकी तो बात ही क्या है। किन्तु धनदेवकी माता वसन्ततिलका और बहन कमला, ये दोनों उसो भवमें धनदेवकी पत्नी हुईं। कहा भी है Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका धनदेवस्य तस्मिन्नेव भवे । भवान्तरेषु संबन्धान्यथाभावे किमस्ति वाच्यं ? उक्तं च यद्येकदेहवहने लभतेऽपवादं दुःखं ततो व्यथनमुग्रबलं च पापम् । नानाशरीरवहनेषु कथं न दुःखं प्राप्नोति को न विषयाजितपापकर्मा | कुर्यान्न तन्मदगजोद्धतवत्तवेगः खड्गों विकृष्टबलपाणिविसृष्टधारः । कुर्वन्ति दुःखमधिकं विषया नराणां, तस्मात्त्यजन्ति विषयान् परिदृष्टतत्वाः ॥ एवमयं कष्टो लोकधर्मः ॥ १७९४ ॥ या वि होइ दासो दासो रायत्तणं पुणमुवेदि । इसंसारे परिवते ठाणाणि सव्वाणि ॥ १७९५ ।। 'राया वि होइ दासो' राजा दासो भवति, नीचगत्रार्जनात्, दासो राजतां पुनरुपैति उच्चैर्गोत्रकर्मण उदयात् । एवं संसारे परिवर्तन्ते सर्वाणि स्थानानि ॥ १७९५ ॥ कुलरूवतेयभोगाधिगो वि राया विदेहदेसवदी । वच्चघरम्मि सुभोगो जाओ कीडो सकम्मेहिं ।। १७९६ ।। 'कुलरुवतेय भोगाधिगो वि' कुलेन रूपेण तेजसा भोगेनाधिकोऽपि । विदेहजनपदाधिपती राजा सुभोगसंज्ञः सुवर्चोगृहे कीटो जातः स्वैः कर्मभिः प्रेरितः । उक्तं च ७९९ वृष्टाः क्वचित्सुरमनुष्यगणप्रधानाः सर्वद्धदीप्तवपुषः शशिकान्तरूपाः । भ्रष्टास्तएव पुनरन्य मत प्रणुन्ना दीना भवन्ति कुलरूपधनप्रतापैः ॥ १७९६॥ यदि एक शरीर धारण करनेपर जीव अनेक अपवादों और दुःखोंको पाता है और उससे मनोवेदना और उग्र पापको बांधता है तब विषय सेवनके द्वारा पापकर्मका उपार्जन करनेवाला कौन पुरुष नाना शरीर धारण करनेपर कैसे दुःख नहीं पाता है अर्थात् अवश्य दुःख पाता है ! मदसे मत्त हाथीके द्वारा वेगपूर्वक किया गया प्रहार तथा बलशाली हाथसे छोड़ी गयी तीक्ष्ण तलवार दुःख नहीं देते। उससे भी अधिक दुःख विषय देते हैं । इसलिये तत्त्वज्ञानी जन विषयोंको त्याग देते हैं । इस प्रकार यह लोकधर्मं दुःखदायक है ॥ १७९४ ॥ गा०-नीच गोत्रका बन्ध करनेसे राजा मरकर दास होता है और उच्च गोत्रका बन्ध करनेसे दास राजा हो जाता है । इस प्रकार संसार में सब स्थान परिवर्तनशील हैं || १७९५ ॥ गा०- - विदेह देशका राजा सुभोग कुल, रूप, तेज और भोग में अधिक होते हुए भी अपने कर्मोंसे प्रेरित होकर विष्टाघरमें कीट हुआ, कहा भी है- जो देव और मनुष्योंमें प्रधान थे, जिनका शरीर सब ऋद्धियोंसे दीप्तिमान था, जिनका रूप चन्द्रमाकी तरह मनोहर था, वे भी अन्य गति में कुल, रूप, धन और प्रतापसे भ्रष्ट होकर दीन होते हैं ॥ १७९६ ॥ १. केन अ० मु० । २ न्यगतिप्रणु -आ० । -गति प्रपन्ना - मु० । Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० भगवती आराधना होउण महड्डीओ देवो सुभवण्णगंधरूवघरो। । । कुणिमम्मि वसदि गम्भे धिगत्थु संसारवासस्स ।।१७९७।। 'होऊण महड्ढीओ देवो' महद्धिको देवो भूत्वा । 'सुभवण्णगंधरूवधरों' प्रशस्ततेजोगन्धरूपान्वितः । इन्द्रचापतडिदम्बुधराणां यदाशु गंगने सहसैव । जन्म संभवति तद्वदमीषां जन्म वेद्यमशुचिप्रविमुक्तम् ॥ वातपित्तकफजैः परिमुक्तं ध्याधिभिविगतखेदमनिद्रम् । अच्युतं परमयौवनयुक्तं सर्वतोऽविकलमुत्तमकान्ति ॥ सर्वतश्च विमलाम्बरवर्णस्पर्शगन्धवरवामितहासं ।। सद्विलासगतिचेष्टित'लील ते शरीरमरमत्र लभन्ते ॥...', गीतवाद्यततितूर्यनिनादेस्तांस्तदाथ समपेत्य सहर्षाः । देवदेव वनिताः प्रणिपत्य कुर्वतेऽत्र समपासनमेषां ॥ फुल्लपङ्कजसमैरथ हस्तैदक्षिणः प्रवरलक्षणकोणः । चारचन्द्रवदना नतिमेषां स्निग्षदृष्टिहसिताः प्रतिगृह्य ॥ मृगपासनमस्तकोपविष्टान् मृगपानप्रगतानिवाचलानां । अय तानभिषेकमापयंति मुदितास्तत्र सुराः सुवर्णकुम्भः ।। "प्रविकाशय वक्त्रपङ्कजानि सुरनाथार्कगुणांशुभिः सुराणां । कुरुमः सुचिरं त्वमाधिपत्यमिति तान्वाग्भिरभिष्टुवन्ति व ॥ . गा०-टी---शुभरूप, शुभगन्ध, और प्रशस्त तेजधारी महती ऋद्धिका धारक देव भी होकर गन्दे गर्भस्थानमें वास करता है। देवोंमें उत्पत्तिका वर्णन करते हुए कहा है जैसे आकाशमें सहसा ही शीघ्रतासे इन्द्रधनुष, विजली और मेघ प्रकट होते है उसी प्रकार देवोंका जन्म होता है। उनका शरीर अपवित्र वस्तुओंसे रहित होता है, वात, पित्त और कफसे उत्पन्न होनेवाले रोगोंसे रहित होता है। खेद और नींदले. रहित होता है। उत्कृष्ट यौवनसे युक्त होता है, सब रूपसे परिपूर्ण होता है, उत्तम कान्तिसे युक्त होता है। उत्तम रूप, रस गन्धसे युक्त है। वचन-विलास, हास-विलास, गति चेष्टासे लीला सहित होता है। वे देव ऐसा शरीर तत्काल प्राप्त कर लेते हैं। उसके पश्चात् गीत वाद्योंकी पंक्ति तथा भेरोक शब्दोंके साथ देव-देवांगना बड़े हर्षके साथ उनके पास जा, नमस्कार करके उनकी सेवा करते हैं। हास सहित स्निग्ध दृष्टिसे युक्त सुन्दर चन्द्रमुखी देवांगनाएं खिले हुए कमलके समान तथा उत्तम लक्षणोंसे युक्त दक्षिण हाथोंसे उनका नमस्कार स्वीकार करती हैं। पर्वतोंके अग्रभाग पर बैठे हुए सिंहके समान सिंहासनके मस्तक पर बैठे हुए उन देवोंका वे देव प्रसन्नतापूर्वक सुवर्ण कलशोंसे अभिषेक करते हैं। हे देवेन्द्ररूपी सूर्य ! अपने गुणरूपी किरणोंसे देवोंके मुखरूपी कमलोंको विकसित करो और चिरकाल तक हमारे स्वामी रहो, इस १. शीलां आ० । २. दिव्यव -आ० । ३. तत्र सुवर्णरत्नकु -आ० । ४. कुरुत -आ० । Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका आदाय नैदाघरवि शिरःसु न्यस्तैरिवर्तेमकुटानि भूत्वा । विभूषिताश्चाभरणैरनहाराघहारांगदकुण्डलाद्यैः ॥ ज्योतिविभूषान् गगनप्रदेशान्, विद्युद्विनद्धान् रुचिराम्बुदांश्च । रत्नाचितान् हेममहागिरीश्च विशेषयन्तोऽभ्यधिकं विभान्ति ॥ विव्यवीर्यबलविक्रमायुषो दिव्यदीप्तवपुषो विशो वश । भासयंति विमलांब राकवद्दिव्यसौम्यवपुषः शशाङ्कवत् ॥ .. दूरमप्यतिपतन्ति लाघवात् गौरवाद गिरिसमा भवन्ति च । आणवादतिविशन्ति मेदिनी पार्थिवाच्च महतोऽपि रुन्धते।' काष्ठमग्निमनिलं जलं महीं संप्रविश्य च तनः शरीरिणा। निविशेषगुण काः सहासितुं ते भवन्ति सुचिरं सुशक्तयः ।। पावकाचलमुरन् वनावनीसागसंश्च सहसा निपत्य ते । स्थानमीप्सिततम श्रमाविना यान्ति चाप्रतिह'ता:समीरवत् । उत्क्षिपेयुरवनी "महाबलात् पातयेयुरपि मन्दरान्करैः। मन्दराग्रशिखरं धरास्थितास्ते स्पशेयरपि यद्यभीप्सितं ॥ ईशितु सुरनृणामयत्नतः कर्तुमात्मवशगान्मगानपि। .. रूपमात्ममनसां समीप्सितं 'स्रष्टुभग्यलममी "सहस्रधा ॥ .. प्रकार वे देव अपने वचनोंसे उनकी स्तुति करते हैं। उनके मस्तक पर मुकुट शोभित होते हैं जो मानों ग्रीष्म कालके सूर्यको ही पकड़ कर सिरों पर रख लिया है. ऐसे प्रतीत होते हैं। उन मुकुटोंसे तथा हार, अर्द्धहार, बाजूबन्द, कुण्डल आदि बहुमूल्य आभरणोंसे भूषित होकर वे देव सूर्यचन्द्रसे सुशोभित आकाशसे, बिजलीसे सम्बद्ध सुन्दर मेघोंसे और रत्नोंसे खचित स्वर्णमयी पर्वतोंसे भी अधिक सुशोभित होते हैं। दिव्य वीर्य, बल, विक्रम और आयुवाले तथा दिव्य चमकदार शरीरवाले वे देव निर्मल आकाशमें स्थित सर्य और दिव्य सौम्य शरीरवाले चन्द्रमाकी तरह दसो दिशाओंको प्रकाशित करते हैं। वे लाघवसे सुदूर तक ऊपर उठे हुए हैं और गौरवसे पर्वतके समान होते हैं। सूक्ष्म होनेसे पृथिवीमें प्रवेश करते हैं और महान् होनेसे बड़ों-बड़ोंको रोकते हैं। अर्थात् अणिमा, महिमा, लघिमा और गरिमा सिद्धिके धारी होते हैं। वे काष्ठ, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वीमें तथा प्राणियोंके शरीरमें प्रवेश करके उन्हींके समान हो जाते हैं। ऐसी उनमें शक्ति होती है। वे आग, पर्वत, पृथ्वी और सागरमें, सहसा प्रवेश करके श्रमके बिना बेरोक-टोक वायुकी तरह इच्छित स्थानको चले जाते हैं। वे महान् बलसे पृथ्वीको ऊपर उठा सकते हैं। अपने हाथोंसे मन्दराचलको गिरा सकते हैं। वे पृथ्बी पर रहकर यदि चाहें तो सुमेरुकी चोटीके अग्रभागको छू सकते हैं अर्थात् प्राप्ति और प्राकाम्य सिद्धिसे सम्पन्न होते हैं। . वे बिना प्रयत्नके देवों और मनुष्योंका स्वामित्व कर सकते हैं। मृगोंको भी अपने वश में कर सकते हैं और हजारों इच्छित रूप बना सकते हैं। अर्थात् ईशित्व और वशित्व सिद्धिसे सम्पन्न होते हैं। अपनी सुगन्धसे और मिष्ट वचनोंसे दिशाओंको पूरिता करके सन्तान आदिके १. तोऽत्यधि -आ० । २ बराः क्वचिद्दि -आ० । ३. ति विभवात् सु-आ० । ४. तां शरीर-अ० । ५. महाचलात् -अ० मु०। ६. स्पष्टुम --अ० । .9; सहस्तवाः -आ० । Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ भगवती आराधना संपूर्याशाः स्वसुरभिगन्धैर्वाग्नि मृष्ट: शुभकुसुमेश्व । संतानाविरचितमाला नित्याम्लानाः परिवहमानाः ।। माल्यर्गन्धैः सुखुमनुलिप्ता वष्र्वस्त्राण्यतिविरजांसि । रंरम्यंते रतिनिपुणाभिस्स्वाभिः साढे वरवनिताभिः । सुखेनैवं जीवन्तो यान्ति वियोगकृतं परितापं । तत्र महद्धियुता अपि देवाः स्त्रीपुरुषा विषमायुष एव ॥ प्राणभूतामिह मध्यमलोकः तीव्रतरादिकषायचतुष्कं । स्यात्सुरसंततयः समकालाः, तन्न भवंति हि कर्मवशेन ॥ अब्ध्युपमानितजीवितदेवे, स्त्री चिरजीवितवत्यपि तस्याः । पल्यमितं बत जीवितकालं तेन वियोगमितः सुरलोकः॥ .. मृत्युकृतं च विचिन्त्य सदुःखं भावि सराः परिभीतमनस्काः। तत्र भजन्ति मगा इव बद्धा व्याघ्रसमीपमपेत्य सभीकाः॥ गर्भकृतामपि ते दुरवस्था संपरिचिन्त्य पुनः समवाप्य । शोकभये विपुले परियान्ति चारकरोष इवाभ्युपयाते ॥ मूत्रपथावशुचेरतिदुःख निर्गमनं स्मरतां च शुचीनां । जन्मतयेति भयं दिविजाना, स्यावधिकं तववाप्य सख तत् ॥ तानपि चासु पतेत् क्षुदनिष्टा पश्यत सर्पवधूरिव कष्टा। वर्षसहस्रमितीह गतेऽपि कालदरो न जहात्यहाँमद्रं ।। उच्छ्वसनं श्रमजं नृपतेपि पक्षमितेविसंयवि यान्ति । कान्यसुरेषु कथा बत लोके ही सभयो जननार्णववासः ॥ सुन्दर फूलोंसे रचित माला धारण करते हैं जो कभी मुरझाती नहीं है ।। सुखपूर्वक माला और गन्धसे विलिप्त वे देव अत्यन्त स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और रतिमें निपुण अपनी देवांगनाओंके साथ रमण करते हैं । इस प्रकार सुखपूर्वक जीवन यापन करते हुए वियोगजन्य सन्तापको सहते हैं। क्योंकि स्वर्गोंमें महद्धिक भी देव-देवांगना समान आयुवाले नहीं होते। आगे-पीछे मरते हैं । मध्यलोकसे यहाँके प्राणियोंकी कषाय तीव्रतर होती है। अतः कर्मवश देव-देवांगनाओंकी आयु समान नहीं होती ॥ देवको आयु सागरप्रमाण होती है और देवांगना चिरकाल तक भी जीवित रहे तो उसकी आयु पल्यप्रमाण ही होती है इसलिये देवलोकमें वियोगजन्य सन्ताप होता है । भविष्यमें होनेवाले मृत्यु जन्य दुःखका विचार करके देव डर जाते हैं और वहाँ ऐसे भयभीत रहते हैं जैसे व्याघ्रके समीपमें बांधे गये मृग । स्वर्गलोकसे च्युत होनेपर गर्भमें होनेवाली दुरवस्थाका भी विचार करके वे महान् शोक और भयसे युक्त होते हैं जैसे कोई जेलखानेसे डरता है। पवित्र देवोंको देवलोकमें जितना सुख होता है उससे भी अधिक भय स्त्रीके अपवित्र मूत्रमार्गसे जन्म लेनेका स्मरण करके जन्मसे ही होता है। यहाँ स्वर्गमें तो हजार वर्ष बीतनेपर भी भूख नहीं सताती थी। किन्तु मनुष्य पर्यायमें जन्म लेनेपर सर्पिणीकी तरह भूख सताती है, यह भय अहमिन्द्रदेवको भी नहीं छोड़ता । स्वर्गमें तो पन्द्रह दिनमें एक बार श्वास लेनेका श्रम उठाना होता १. मृष्ट -आ० मु० । २, मा वस्त्राव -अ० । ३. तत्र सुखतोऽपि यांति -आ० । Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८०३ रोगजराविकलत्वविहीनास्तत्र पुनश्च भवम्मनुजानाम् । तत्सहितं प्रसमीक्ष्य पुरस्तात् प्राप्यमवश्यमतश्च्यतमात्रे ॥ अन्यवशादवशा विलपन्तो देशमिवान्यमुपद्रवयुक्तं । संप्रतिपत्सव उग्रभयं ते शोकवशा बहुशोऽपि भवन्ति । यत्सुरसौख्यमवाप्य विमाने भूतरुजो जगतीरपि यान्ति । तत्परिचिन्तयता कुशलानां केन सुरेषु भवेदबहमानं ॥ तेऽवधिना विधिना बहुतत्त्वं दूरगतान्यपि जानत एव । तेन भयान्यनुभूय पुरस्तावश्नुवते 'भयकृद्यदपश्चात् ॥ यः सहसा भयमभ्युपयाति पूर्वतरं न भयं स उपैति । प्राग्विदितात्मवधस्तु नरः प्राक् प्राप्य भयं वधमेति हि पश्चात् ॥ अतो न सौख्यं तदिहास्ति किंचन विमश्यमानं मनसा भवाणंवे । सुखे प्रसंक्तो विपुले पुमानयं भजेत दुःखेन विनाणुनापि यत् ॥ यथाणुकेशोपहतेऽपि भोजने न तं नरो रोचयते कुलोदितः। तथाल्पदोषेऽप्यसुखे सुखे सति न तद्बुधो रोचय कदाचन ॥ प्रपोयमानेऽम्बुनि पातितो यथा लवोऽपि मूत्रस्य तदंबु दूषयेत् । तथा लवांशोऽप्यसुखस्य सत्सुखे करोति सर्वस्य सुखस्य दूषणं ॥ किन्तु मनुष्यगतिमें तो सतत श्वास लेना होता है। हा, जन्मरूपी समुद्रका वास भयकारक है। यहाँ देवगतिमें तो रोग, बुढ़ापा आदि नहीं है । किन्तु मनुष्योंमें तो ये सब हैं। यहाँसे च्युत होने पर ये सब अवश्य प्राप्त होंगे। ऐसा देख वे देव दःखी होते हैं। जैसे कोई परवश होकर उपदनसे युक्त अन्य देशमें जानेपर विलाप करता है वैसे ही देव स्वाधीन होते हुए भी परवश होकर देवगतिसे मनुष्यगतिमें जानेका बहुत शोक करते हैं। स्वर्गके विमानोंमें देवोंका सुख प्राप्त करके भी जीवोंको पुनः इसी मनुष्यलोकमें जन्म लेना होता है ऐसा विचार करनेवाले वुद्धिमानोंको देवोंके प्रति बहुमान कैसे हो सकता है। वे देव अवधिज्ञानके द्वारा दूरवर्ती तत्त्वोंको भी जानते ही हैं। इससे पहले ही भयका अनुभव करते हैं। जो भय अचानक उपस्थित होता है उसका भय पहले से नहीं होता। किन्तु जिस मनुष्यको पहलेसे यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा वध होगा वह पहले भयभीत होता है, पीछे मारा जाता है । अर्थात् मनुष्यगतिमें तो मृत्युका बोध पहलेसे नहीं होता। किन्तु देवगतिमें तो मृत्युसे छह मास पूर्व माला मुरझा जाती है। अतः मत्य पीछे होती है और उसका भय पहले आ जाता है। अतः विचार करनेपर इस संसाररूपी समुद्र में कुछ भी सुख नहीं है। बहुत सुखमें आसक्त मनुष्य भी एक परमाणु प्रमाण दुःखके बिना सुख नहीं भोग सकता । अर्थात् संसारके सुखमें दुःखका मिश्रण रहता ही है। जैसे कुलीन मनुष्यको यदि भोजनमें जरा सा भी बाल आदि गिर जाये तो भोजन नहीं रुचता उसी प्रकार ज्ञानीको बहतसे सुखमें थोड़ा सा भी दुःख मिला हो तो वह सुख नहीं रुचता। जैसे पीनेके पानीमें मूत्रकी एक बूंद भी गिरनेपर वह पानी दूषित १. भय मप्यय पश्चात् -आ० । २. पुमानयं -आ० मु०। ३. दोपोऽय-अ० मु० । ४. प्रदीपमाने -अ० प्रा०। १०१ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ भगवती आराधना गुणैरनेकैरपि संयुतां स्त्रियं कृतापचारां सकृवप्यनिघृणः । नरो जहात्येव यथा तथा बुधो न दृष्टिदोषादिव सोमिच्छति (?) 'कुणिमम्मि वसति गम्भे' कुथितगर्भे वसति । 'धिगत्यु संसारवासस्स' धिगस्तु संसारवासस्य । उक्तं च-- त्यागाद्भोगादेव 'समुत्थं मनुजेषु गर्भस्मृत्या गर्भनिपातं च समीक्ष्य । त्रस्तादेव देहाशुचीनपि निरीक्ष्य गर्भाविष्टा दुःखमिवान्तेऽनुभवन्ति ॥१७९७॥ इध किं परलोगे वा सत्तू पुरिसस्स हुंति णीया वि । इहइं परत्त वा खाइ पुत्तमंसं णिययमादा ॥१७९८॥ 'इत्थ कि परलोगे वा' इहलोके परलोके वा, 'पुरिसस्स णीया वि सत्तू होंति' बंधवोऽपि शत्रवो भवंति पुरुषस्य । 'इहई परत्त वा खाइ' इह वा परत्र वा अत्ति, 'पुत्तमंसं णिययमादा' पुत्रस्य मांसं आत्मीया जननी अत्ति किमतः परं कष्टं ।।१७९८॥ होऊण रिऊ बहुदुक्खकारओ बंधवो पुणो होदि । . इय परिवत्तइ णीयत्तणं च सत्तुत्तणं च जये ॥१७९९।। 'होऊण रिऊ' रिपुर्भूत्वा पूर्व । 'बहुदुक्खकरो' विचित्रदुःखकारी। स एव पुणो पश्चादपि । 'पिय बन्धवो होदि' प्रियबांधवो भवति । 'इय परिवत्तदि' एवं परिवर्तते । 'णोगत्तणं च सत्तुत्तणं च' बन्धुत्वं च शत्रुत्वं च । 'जर्गे' जीवलोके ॥१७९९।। विमलाहेदं वेकेण मारिओ णिययभारियागब्भे । जाओ जाओ जार्दिभरो सुदिट्ठी सकम्मेहिं ॥१८००॥ 'विमलाहेढुं' विमलानिमित्तं । 'वकेण मारिवो' वक्राख्येन भृतकेन मारितः । कः ? 'सुदिट्ठी' सुदृष्टिहो जाता है उसी प्रकार दुःखका जरा सा भी अंश सब सुखको दूषित कर देता है। जैसे अनेक गुणोंसे युक्त स्त्री यदि एक बार भी व्यभिचार दोषसे दूषित हो जाये तो दयालु भी मनुष्य उसे त्याग देता है। उसी प्रकार ज्ञानी मनुष्य भी दुःखसे मिश्रित सुखको त्याग देता है। अतः कहा है-मनुष्योंमें गर्भका स्मरण करके तथा गर्भपातको देखकर और मनुष्योंके अपवित्र शरीरको देखकर देव दुःखी होते हैं और मरण होनेपर गर्भमें प्रवेश करके दुःख भोगते हैं ॥१७९७॥ गा०-इस लोक अथवा परलोकमें बन्धु भी मनुष्यके शत्रु हो जाते हैं। इस लोक तथा परलोकमें माता भी अपने पुत्रके मांसको खाती है इससे अधिक कष्टकी बात और क्या है ? ॥१७९८॥ गा०-बहुत दुःख देनेवाला शत्रु भी पुनः प्रिय बन्धु हो जाता है। इस प्रकार जगत्में बन्धुता और शत्रुता परिवर्तनशील है ॥१७९९।। गा-सुदृष्टि नामक रत्नपारखी मैथुन करते समय अपनी पत्नी विमलाके निमित्तसे १. समुत्थान् अ० । २. त्रस्ता देहचशुनीवि -अ० । Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८०५ नामधेयः । 'सकम्मेहि' आत्मीयः कर्मभिः । 'जादो' उत्पन्नः । क्व 'निययभारियागन्भे' निजभार्यागर्थे । 'जादिभरो जादो' जातिस्मरश्च जातः ।।१८००।। होऊण बंभणो सोत्तिओ खु पावं करित्तु माणेण । सुणगो व सूगरो वा पाणो वा होइ परलोए ॥१८०१।। 'होऊण बंभणो सोत्तिओ' श्रोत्रियो ब्राह्मणो भूत्वा । 'माणेण' जातिमदेन । गुणिजननिन्दावमानाभ्यां 'पापं करित्तु' पापं कृत्वा नोचैर्गोत्रमुपचित्य । 'सुणगो व सगरो वा पाणो वा होवि परलोए' श्वा शंकरश्चाण्डालो वा भवति परजन्मनि ।।१८०१॥ दारिद्द अड्ढित्तं जिंदं च थुदिं च वसणमब्भुदयं । पावदि बहुसो जीवो पुरिसित्थिणqसयत्तं च ।।१८०२।। 'दारिद' दारिद्रयं । 'बहुसो जीवो पावदि' बहुशः जीवः प्राप्नोति लाभान्तरायोदयात् । 'अड्ढित्तं' आयतां पूर्ववदेव सम्बन्धः । 'पावदि बहसो इमो' इत्यनेन । लाभान्तरायक्षयोपशमादीप्सितानि द्रव्याणि लभते, लब्धानि च नश्यन्ति ततः आढयतां । निंदा' श्वपाकश्चण्डाल: कुणः काणो दुर्भगो मूर्खः कृपण इत्यादिकां । 'दि च' स्तुति च कुलीनो रूपवान् वाग्मी आढयः प्राज्ञ इत्यादिका यशस्कोर्तेरुदयात् । 'एवं धसणं' दुःखं असāद्योदयात् । 'अभदयं' देवमनुजभवजं सुखं सद्वे द्योदयात् । 'पुरिसिस्थिण(सयत्तं च' पुरुषत्वं च स्त्रीत्वं च नपुंसकत्वं च बहुशः प्राप्नोति ॥१८०२॥ कारी होइ अकारी अप्पडिभोगो जणो हु लोगम्मि । कारी वि जणसमक्खं होइ अकारी सपडिभोगो ॥१८०३।। 'अकारी अपि' दोषमकुर्वन्नपि कारी भवति, 'अप्पडिभोगो जनो' पुण्यरहितो जनः । 'कारीजि हुर्दअपने सेवक बंकके द्वारा मारा गया और मरकर अपनी पत्नी विमलाके गर्भसे उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होनेपर उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया ।।१८००॥ विशेषार्थ-वृहत्कथाकोशमें १५३वें नम्बर पर इसकी कथा है । गा०-श्रोत्रिय ब्राह्मण होकर यह जीव अपनी जातिका अभिमान करके गुणी जनोंकी निन्दा और अपमानके द्वारा नीच गोत्रका बन्ध करता है और मरकर परलोकमें कुत्ता, सूकर या चण्डाल होता है ।।१८०१॥ गा० टी०-यह जीव लाभान्तरायका उदय होनेसे अनेक बार दरिद्र अवस्था पाता है। लाभान्तरायका क्षयोपशम होनेसे अनेक बार इच्छित धन पाता है। इस प्रकार अनेक बार धनीसे दरिद्र और दरिद्रसे धनी होता है। अयशकीर्तिका उदय होनेसे चण्डाल, काना, अभागा, मूर्ख, कंजूस आदि निन्दाका पात्र होता है। यशःकीर्तिका उदय होनेसे कुलीन, रूपवान, धनी, पण्डित इत्यादि स्तुतिका पात्र होता है । असातावेदनीयका उदय होनेसे दुःख उठाता है और सातावेदनीयका उदय होनेसे देव और मनुष्य भवका सुख भोगता है। इसी प्रकार अनेक बार स्त्री, पुरुष और नपुंसक होता है ।।१८०२॥ गा-पुण्यहीन मनुष्य लोकमें दोष नहीं करनेपर भी दोषका भागी होता है। और पुण्यवान अनाचार करके भी लोगोंके सन्मुख दुराचारी सिद्ध नहीं होता ।।१८०३।। Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना न्नप्यनाचारं, 'जणसमक्वं' जनानां प्रत्यक्षं 'अकारी होदि' दुराचारो न भवति । 'मडिभाग पुण्यवान् ॥१८०.३॥ सरिसीए चंदिगाए कालो वेस्सो पिओ जहा जोण्हो । सरिसे वि तहाचारे कोई वेस्सो पिओ कोई ॥१८०४॥ 'सरिसीए चंदिगाए' चंद्रिकायां समा नायामपि । 'कालो वेस्सो' कालपक्षो द्वष्यः । 'पिओ जहा जोण्हो' शुक्लपक्षो यथा प्रियः । 'सरिसे वि तहाचारे' सदृशेऽप्याचारे द्वयोः पुंसोः । 'कोई वेस्सो पिओ कोई' कश्चित् द्वष्यः कश्चित प्रियः ॥१८०४।। इय एस लोगधम्मो चिंतिज्जंतो करेइ णिव्वेदं । धण्णा ते भयवंता जे मुक्का लोगधम्मादो ॥१८०५॥ 'इय एस लोगधम्मो' अयमेष प्राणिधर्मः । चितिज्जंतो' चिन्त्यमानो। 'करेइ णिवेदं' निवेदं करोति । 'धण्णा ते भयवंता' पुण्यवन्तस्ते यतयः । 'जे मुक्का लोगधम्मादो' ये मुक्ताः प्राणिधर्माद् व्यावणितात् ॥१८०५॥ विज्ज व चंचलं फेणदुब्बलं वाघिमहियमच्चुहदं । णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खुधुदं लोगं ।।१८०६॥ 'विज्जू व चंचलं' विद्युदिव चंचलं, 'फेणदुब्बलं' फेनमिव दुर्बलं । 'वाधिमहिदमच्चुहदं' व्याधिभिमंथितं मृत्युना हतं । 'लोगं पेच्छंतो' लोकं पश्यन् । 'गाणी किध रमेज्ज' ज्ञानी कथं तत्र रति कुर्यात् । लोगधम्मचिन्ता ॥१८०६॥ अशुभत्वानुप्रेक्षा प्रक्रम्यते असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं । एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥१८०७।। 'असुहा अत्या कामा य हुति' अशुभा अर्थाः कामाश्च भवन्ति । 'देहो य सव्वमणुयाणं' देहश्च सर्व गा०-जैसे चांदकी चाँदनोके समान होनेपर भी लोग कृष्णपक्षसे द्वेष करते हैं और शुक्लपक्षसे प्रेम करते हैं। वैसे ही समान आचार होते हुए भी कोई मनुष्य लोगोंको प्रिय होता है और कोई अप्रिय होता है ।।१८०४।। गा०-इस प्रकार लोकदशाका चिन्तन करनेसे वैराग्य उत्पन्न होता है। वे पुण्यवान यतिजन धन्य हैं जो इस ऊपर कही संसारकी दशासे मुक्त हो गये हैं ॥१८०५॥ गा०-बिजलीकी तरह चंचल, फेनकी तरह दुर्बल, रोगोंसे ग्रस्त और मृत्युसे पीड़ित इस लोकको देखकर ज्ञानी इसमें कैसे अनुराग कर सकता है ।। १८०६।। इस प्रकार लोकानुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। अब अशुभत्व अनुप्रक्षाका कथन करते हैं_गा०—अर्थ, काम और सब मनुष्योंकी देह अशुभ है । एक सब सुखोंकी खान धर्म ही शुभ है । शेष सब अशुभ है ॥२८०७।। Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका मनुजानाम् । 'एक्को चेव सुभो' एक एव शुभः पुनः । सव्वसुखायरो धम्मो सर्वेषां सौख्यानामाकरो धर्मः ॥ १८०७ ॥ अर्थस्याशुभतां व्याचष्टे - इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं । अत्थो अणत्थमूलं महाभयं मुत्तिपडिपंथी || १८०८|| 'इहलोगियपरलोगियबोसे' ऐहिकान् पारलौकिकांश्च दोषान् । 'पुरिसस्स आवहइ णिच्चं पुरुषस्य आवहति नित्यं । ' अत्यो अणत्थमूलं' अर्थोऽनर्थानां मूलं, 'महाभयं' महतो भयस्य मूलत्वान्महाभयं । 'मुत्तिपडिपंथो' मुक्तेरर्गलीभूतः ॥ १८०८ || कामस्याशुभतम्तामाचष्टे कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा । उवघो लोए दुक्खावहा य ण य हुंति ते सुलहा || १८०९ ।। ८०७ 'कुणिमकुडिभवा लहूगत्तकारया' अशुचिकुटिभवाः लघुत्वकारिणः । 'अप्पकालिया कामा' अल्पकालेषु भवाः कामाः । 'उवधो लोए' लोकद्वये दुःखावहाश्च । ण य होंति ते सुलभा : ' नैव ते सुलभा भवन्ति ॥ १८०९ ॥ कामाशुभत्वमाख्याति - अट्ठिदलिया छिरावक्कवद्धिया मंसमट्टियालित्ता । बहुकुणिमभण्डभरिदा विहिंसणिज्जा खु कुणिमकुडी || १८१०|| 'अट्ठिवलिया' अस्थिदलनिष्पन्ना । 'छिरावक्कवद्धिया' शिरावत्कलवद्धा । 'मंसमट्टियालित्ता' मांस अर्थकी अशुभता बतलाते हैं गा० - टी०-धन सब अनर्थोंकी जड़ है । यह पुरुषमें इस लोक और परलोक सम्बन्धी दोष लाता है अर्थात् धन पाकर मनुष्य व्यसनोंमें फँस जाता है और उससे वह इस लोक में भी निन्दाका पात्र होता है और परलोकमें भी कष्ट उठाता है । मृत्यु आदि महान् भयोंका मूल होनेसे धन महाभय रूप है । और मोक्षमार्गके लिये तो अर्गला है । धनमें मस्त मनुष्य मोक्षकी बात भी सुनना नहीं चाहता || १८०८|| अब कामकी अशुभता बतलाते हैं गा० - यह कामभोग अपवित्र अपने और परके शरीर के संयोग से पैदा होता है । यह मनुष्यको गिराता है, उसे लोगोंकी दृष्टि में लघु करता है । यह अल्पकालके लिये होता है तथा दोनों ही लोकोंमें दुःखदायी है । तथा सुलभ भी नहीं है || १८०९|| अब शरीरकी अशुचिता कहते हैं गा०- यह शरीर रूपी कुटी हड्डी रूपी पत्तोंसे वनी है । सिराएँ रूपी बल्कल (छाल) से Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ भगवती आराधना मृत्तिकालिप्ता । 'बहुकुणिमभंडभरिदा' अनेकाशुचिद्रव्यपूर्णा । 'विहिंसणिज्जा खु कुणिमकुडो' जुगुप्सनीया अशुचिकुटी ॥१८१०॥ इंगालो धुव्वंतो ण सुद्धिमुवयादि जह जलादीहिं । तह देहो धोव्वंतो ण जाइ सुद्धिं जलादीहिं ॥१८११।। 'इंगालो धोव्वंतो' प्रक्षाल्यमाना मषो न शुद्धमुपयाति न शुक्लतामुपयाति । 'जह' यथा । 'जलादीहिं' जलादिभिः । 'तह देहो धोव्वंतो' तथा शरीरं प्रक्षाल्यमानं । 'ण जादि सुद्धि जलादीहि न याति शुद्धि जलादिभिः ॥१८११॥ सलिलादीणि अमेज्झं कुणइ अमेज्झाणि ण दु जलादीणि । भेज्झममेज्झं कुव्वंति सयमवि मेज्झाणि संताणि ॥१८१२।। 'सलिलादीणि' सलिलादीनि द्रव्याणि शुचीनि । 'अमेज्झं कुणदि' अमेध्यं करोति । 'अमेज्झाणि' अशुचीनि । 'ण दु जलादीणि मेज्झं कुणदि' नैवं जलादीनि शुचितामापादयन्तीति । 'अमेज्झाणि' अशचीनि 'सयममेज्माणि संताणि' अमेध्ययोगात् स्वयमशुचीनि सन्ति ।।१८१२॥ तारिसयममेज्झमयं सरीरयं किह जलादिजोगेण । मेझं हवेज्ज मेझं ण हु होदि अमेज्झमयघडओ ।।१८१३॥ 'तारिसयमज्झमयं' शुचीनामशुचिताकरणसमर्थाशुचिमयं शरीरकं । 'किह' कथं । 'नलाविजोगेण' जलादिसम्बन्धेन । 'मेझं हवेज्ज' शुचिर्भवेत् । 'अमेज्झमय घडगो' अमेध्यमयो घटः । न सू मेलो होदि' नैव शुचिर्भवति । यथा जलादियोगेन ॥१८१३॥ यदि शरीरमशुचि किं तर्हि शुचीत्यत्राह णवरि हु धम्मो मेज्झो धम्मत्थस्स वि णमंति देवा वि । घम्मेण चेव' जादि ख साहू जल्लोसधादीया ।।१८१४।। वाँधी हुई है। मांसरूपी मिट्टीसे लीपी गई है तथा अनेक अपवित्र वस्तुओंसे भरी हुई है। इस तरह यह शरीररूपी कुटिया घृणास्पद है ॥१८१०।। गा०-जैसे कोयलोंको जलादिसे धोनेपर भी वे सफेद नहीं होते। उसी प्रकार जलादिसे धोनेपर भी शरीरकी शुद्धि नहीं होती ।।१८११।। गा०-अपवित्र शरीर जलादिको भी अपवित्र कर देता है। अर्थात् शरीरके सम्बन्धसे निर्मल जल मैला हो जाता है। जल स्वयं मैला नहीं है, स्वयं तो निर्मल ही है किन्तु जल शरीरको पवित्र नहीं बनाता। बल्कि शरीरके संयोगसे जल ही अपवित्र हो जाता है ।।१८१२।। गा.-निर्मलको मलीन करनेवाला अपवित्र शरीर जलादिके सम्बन्धसे कैसे पवित्र हो सकता है। क्या मलसे भरा घड़ा पानोसे धोनेसे पवित्र हो सकता है ।।१८१३।। यह शरीर अपवित्र है तो पवित्र कौन है, इसका उत्तर देते हैग.-किन्तु धर्म पवित्र है क्योंकि रत्नत्रयात्मक धर्ममें स्थितको देव भी नमस्कार करते १. चेव हुँति हु साहू -अ० । Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८०९ 'णवरि हु धम्मो मेज्झो' धर्मः पुनः शुचिः । कस्मात् खुशब्दो यस्मादित्यर्थे वर्तते । 'धम्मत्थस्स वि णमंति देवा वि' यस्माद्धर्म रत्नत्रयात्मके स्थितस्य देवा अपि नमस्कारं कुर्वन्ति । धर्मेण शुचिना योगादात्मापि शुचिरिति । 'धर्मेण चेव जादि खु साधू धर्मेणव प्राप्नुवन्ति साधवः । किं ? 'जल्लोसधादीया' जल्लोषध्यादिकमृदयतिशम् ॥१८१४।। अशुभत्तं । आस्रवानुप्रेक्षा निरूप्यते जम्मसमुद्दे बहुदोसवीचिए दुक्खजलयराइण्णे । जीवस्स दु परिब्भमणम्मि कारणं आसवो होदि ॥१८१५॥ 'जम्मसमुद्दे' जन्मसमुद्रे । 'बहुदोसवोचिए' विचित्रदोषतरङ्गे । 'दुक्खजलयराकिणे' दुःखजलचरैराकीर्णे। 'जीवस्स परिब्भमणम्मि' जीवस्य परिभ्रमणे यत् कारणं तत् 'आसवो' आस्रवो भवति । ननु च कर्माणि कारणानि नत्वासवः । अत्रोच्यते । कर्मणां परिभ्रमणकारणानां कारणत्वादास्रवः कारणमित्युक्तं ॥१८१५॥ मंसारसागरे से कम्मजलमसंवडस्स आसवदि । आसवणीए णावाए जह सलिलं उदधिमज्झम्मि ।।१८१६॥ 'संसारसागरे' संसारसमुद्रे । 'से' तस्य । 'असंवुडस्स' संवररहितस्य सम्यक्त्वसंयमक्षमामार्दवाजवसंतोषपरिणामरहितस्य । 'कम्मजलमासवदि' ज्ञानावरणादिकर्मजलमास्रवत्यागच्छति । 'आसवणीए णावाए' आस्रवणशीलायां नावि यथा सलिलं प्रविशति । 'उदधिमज्झे' समुद्रमध्ये ॥१८१६।। धूली णेहुत्तुप्पिदगत्ते लग्गा मलो जहा होदि । मिच्छत्तादिसिणेहोल्लिदस्स कम्मं तहा होदि ॥१७१७।। हैं। पवित्र धके सम्बन्धसे आत्मा भी पवित्र है। धर्मसे ही साधु भी जल्लौषधी आदि ऋद्धियोंको प्राप्त करते हैं। अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्मका साधन करनेसे साधुओंके शरीरका मल भी औषधीरूप हो जाता है ।।१८१४॥ आगे आस्रवानुप्रेक्षाको कहते हैं गा०-टी०-यह जन्ममरणरूपी समुद्र विविध दोषरूपी लहरोंसे युक्त है तथा दुःखरूपी जलचर जीवोंसे भरा है। इस समुद्र में परिभ्रमणका कारण आस्रव है। शंका-संसार समुद्रमें परिम्रमणका कारण तो कर्म हैं, आस्रव नहीं है। समाधान-परिभ्रमणका कारण कर्म हैं यह ठीक है। किन्तु उन कर्मों का कारण आस्रव है । अतः आस्रवको परिभ्रमणका कारण कहा है ॥१८१५॥ गा०-जैसे समुद्रके मध्यमें छेदयुक्त नावमें जल प्रवेश करता है वैसे ही संसाररूपी समुद्र में जो जीव संवरसे रहित है अर्थात् सम्यक्त्व, संयम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष आदि रूप परिणामोंसे रहित है उसके ज्ञानावरण आदि कर्मरूप जलका आस्रव होता है ॥१८१६।। गा०---जैसे तेलसे लिप्त शरीरमें लगी हुई धूल मलरूप हो जाती है वैसे ही जो आत्मा Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० भगवती आराधना 'धूली हुत्तप्पिदा लग्गा' धूली स्नेहाम्यक्तशरीरलग्ना । 'जहा मलो होद' यथा मलं भवति । 'मिच्छत्तादिसिणेहोल्लिदस्स' मिथ्यात्वासंयमकषायपरिणामस्नेहाम्यत्तस्यात्मनः प्रदेशेष्ववस्थितं कर्मप्रायोग्यं द्रव्यं । 'तहा' तथा । 'कम्मं होदि' कर्म भवति । एतदुक्तं भवति-आत्मपरिणामान्मिथ्यात्वादिकात विशिष्टं पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन परिणमयतीति कर्मत्वपर्यायहेतुरात्मनः परिणाम आस्रव इत्यर्थः ॥१८१७॥ ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलदव्वेहिं सन्नदों लोगो। सुहमेहिं बादरेहिं य दिस्सादिस्सेहिं य तहेव ॥१८१८।। 'भोगाढगाढणिचिदो' अनुप्रवेशगाढं निचितः । 'पुग्गलदहि' पुद्गलद्रव्यः 'सव्वदो लोगो' कात्स्येन लोकः । 'सुहमेहि बादरेंहि य' सूक्ष्मः स्थूलश्च । “विस्सादिस्सेहि' चक्षुषा दृश्यरदृश्यश्च । 'तहेव' तथैव । एतया गाथया कर्मत्वपर्याययोग्यानां पुद्गलद्रव्याणां सर्वत्र लोकाकाशे बहूनामस्तित्वमाख्यातम् ॥१८१८॥ के ते आस्रवा इत्यत्राह मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य आसवा होति । अरहंतवृत्तअत्थेसु विमोहो होइ मिच्छत्तं ॥१८१९।। 'मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होत' मिथ्यात्वमसंयमः कषाययोगाश्च आस्रवा भवन्ति । आस्रवत्यागच्छन्ति कर्मत्वपर्यायं पुदगला एभिः कारणभूतैरिति मिथ्यात्वादय आम्रवशब्दवाच्याः तेष्वास्रवेषु । मिथ्यात्वस्वरूपं कथयति । 'अरहंतवृत्त अत्थेसु' अर्हदुक्तेषु अनन्तद्रव्यपर्यायात्मकेषु अर्थेषु 'विमोहो मिच्छत्तं होदि' अश्रद्धानं मिथ्यात्वं भवति ॥१८१९॥ असंयममाचष्टे अविरमणं हिंसादी पंच वि दोसा हवंति णायव्वा । कोधादीया चत्तारि कसाया रागदोसमया ॥१८२०॥ मिथ्यात्व, असंयम और कषायपरिणामरूप तैलसे लिप्त होता है उस आत्माके प्रदेशोंमें स्थित कर्मरूप होनेके योग्य पुद्गलस्कन्ध कर्मरूप हो जाते हैं। इसका आशय यह है, मिथ्यात्व आदि रूप आत्माके परिणामोंसे विशिष्ट पुद्गलद्रव्य कर्मरूपसे परिणमन करता है इसलिये कर्मरूप परिणमनमें कारण आत्माके परिणाम ही आस्रव हैं ॥१८१७।। गा०-यह लोक सर्वत्र पुद्गल द्रव्योंसे ठसाठस भरा हुआ है। वे पुद्गल सूक्ष्म भी है और बादर भी हैं। चक्षुके द्वारा दिखाई देने योग्य भी हैं और न दिखाई देने योग्य भी हैं। टो०-इस गाथाके द्वारा कर्मरूप होनेके योग्य पुद्गल द्रव्योंका सर्वत्र लोकाकाशमें अस्तित्व बतलाया है ।।१८१८॥ वे आस्रव कोन हैं यह बतलाते हैं गा०-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये आस्रव हैं। जिन कारणोंसे पुद्गल कर्मरूप होकर आते हैं उन मिथ्यात्व आदिको आस्रव कहते हैं। उनमेंसे मिथ्यात्वका स्वरूप कहते हैं-अहंन्त भगवान्के द्वारा कहे गये अनन्त द्रव्य पर्यायात्मक पदार्थों में अश्रद्धान करना मिथ्यात्व है ॥१९१९॥ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८११ विजयोदया टोका 'अविरमणं' अविरमणं नाम । “हिंसादि पंच वि दोसा' हिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाख्याः पञ्चापि दोषाः । 'हवंति णादव्वा' अविरमणं भवन्तीति ज्ञातव्याः । प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं, असदभिधानं, अदत्तादानं, मैथुनकर्म विशेषः, मूर्छा चेति एते परिणामा अविरमणशब्देनोच्यन्ते । विरमणं हि निवृत्तिस्ततोऽन्यत्वात् । प्रवृत्तिरूपा हिंसादय: अविरमणं इत्युच्यते । 'कोधादीगा' क्रोधमानमायालोभाः । 'चत्तारि' चत्वारः । 'कसाया' कषाया इत्युच्यन्ते । 'रागदोसमया' रागद्वेषात्मकाः ॥१८२०॥ रागद्वषयोर्माहात्म्यं दर्शयति किंहदा राओ रंजेदि णरं कुणिमे वि जाणुगं देहे । किहदा दोसो वेसं खणेण णीयंपि कुणइ णरं ॥१८२१।। 'किहदा राओ रंजेदि गर' कथं तावद्रागो रञ्जयति नरं । 'कुणिमे वि देहे' अशुचावपि देहे, अनुरागस्यायोग्ये । 'जाणुगं' शरीराशुचित्वं जानन्तं अज्ञं रंजयति । सारे वस्तुनि नरं रञ्जयतीति न तच्चित्रं ज्ञातारमशुचिन्यसारे शरीरे रञ्जयतीत्येतदद्भुतमिति भावः । 'दोसो' दोषः, 'किहवा वेसं कुणदि' कथं तावद्वेष्यं करोति । 'खणेण' क्षणमात्रेण । 'णीयंपि परं' बान्धवमपि नरं। अनेनापि द्वेषमाहात्म्यमाख्यायते । रागाश्रयानपि बंधून् द्वष्यान् करोतीति ।।१८२१॥ सम्मादिट्ठी वि गरो जेसिं दोंसेण कुणइ पावाणि । धित्तेसि गारविंदियसण्णामयरागदोसाणं ॥१८२२।। 'सम्मादिट्ठी वि गरों' तत्त्वज्ञानश्रद्धानसमन्वितोऽपि नरः । 'बेसि दोसेण कुणदि पावाणि' येषा दोषेण करोति पापानि । “वित्तेसिं गारवें दियसण्णामपरागदोसाणं' धिक्तान्गौरवानिन्द्रियाणि संज्ञामदान रागद्वषांश्च ॥१८२२।। असंयमका स्वरूप कहते हैं गा०-हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच दोषोंको असंयम कहते हैं ! कषाययुक्त आत्मपरिणामके योगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहते हैं। प्राणि पीड़ाकारक अप्रशस्त वचन बोलनेको असत्य कहते हैं। बिना दी हुई वस्तुके ग्रहणको चोरी कहते हैं। मैथुन कर्मको अब्रह्म कहते हैं और ममत्व भावको परिग्रह कहते हैं। ये सब परिणाम असंयम कहे जाते हैं। इन सबसे निवृत्तिको संयम कहते हैं । और प्रवृत्तिरूप हिंसादि परिणाम असंयम हैं। तथा राग-द्वेषमय चार कषाय हैं। अर्थात् हिंसादिरूप परिणाम असंयम हैं और क्रोधादि कषाय हैं इनमेंसे क्रोध और मान द्वषरूप हैं और माया, लोभ रागरूप हैं ॥१८२०॥ राग और द्वषका माहात्म्य बतलाते हैं गा०-टोoयह शरीर अशुचि है। रागके अयोग्य है। यह राग शरीरकी अशुचिताको जाननेवाले अज्ञानीको उसमें अनुरक्त करता है सारवान् वस्तुमें मनुष्यको अनुरक्त नहीं करता। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य इसमें है कि यह जाननेवालेको भी असार शरीरमें अनुरक्त करता है। तथा द्वेष क्षणमात्रमें बन्धु मनुष्यको भी द्वषका पात्र बनाता है। इससे दुषका माहात्म्य कहते हैं कि जो बन्धु राग करने योग्य हैं उन्हें भी वह द्वषका पात्र बनाता है ॥१८२१॥ गा०-तत्त्वोंके ज्ञान और श्रद्धानसे युक्त मनुष्य भी अर्थात् सम्यग्दृष्टी मनुष्य भी जिनके १०२ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ भगवती आराधना जो अभिलासो विसएसु तेण ण य पावए सुहं पुरिसो । पावदि य कम्मबंधं पुरिसो विसयाभिलासेण ।।१८२३॥ 'जो अभिलासो विसएसु' यो अभिलाषो विषयेषु स्पर्शादिषु । तेण विषयाभिलाषेण ण य पावदे सुहं पुरिसो' प्राप्नोति नैव सुखं पुरुषः । 'पावदि य कम्मबंधं प्राप्नोति च कर्मबन्धं, 'पुरिसो विसयाभिलासेण' पुरुषो विषयाभिलाषेण निमित्तेन । एतेन विषयाभिलाषपरिणामस्य प्राणिनामसकृत प्रवर्तमानस्याहितता निवेदिता, सुखं न प्रयच्छति कर्मबन्धकारणं तु भवतीति विषयाभिलाषस्यास्रवस्य स्वरूपं कथितं ॥१८२३॥ विषयाभिलाषस्य दुष्टतां प्रकारान्तरेणाचष्टे-- कोई डहिज्ज जह चंदणं णरो दारुगं च बहुमोल्लं । णासेइ मणुस्सभवं पुरिसो तह विसयलोहेण ॥१८२४।। 'कोई डहिज्ज जह चंदणं" कश्चिद्यथा दहेच्चन्दनं । 'बहुमोल्लं' महामूल्यं । 'दारुगं च' अगुर्वादिदारु च, यथा दहति भस्मादिकं स्वल्पं समुद्दिश्य । 'तहा णादि मणुस्सभवं' तथा नाशयति मानुषभवं अतीन्द्रियानन्तसुखकारणं । 'पुरिसो तह विसयलोभेण' अतितुच्छविषयगायन ।।१८२४॥ उक्तं च विषया जनितेन्द्रियोत्सवा बहुभिश्चापि समन्विता रसैः। विषगर्भसुसंस्कृतान्नवत् परिभुक्ताः परिणामदारुणाः ॥ .' विषयसुखप्रतिबद्धलोलचित्तो विषयनिमित्तमनिष्टकर्म कृत्वा । विषयसुखप्रविहीणजातिजातो विषयसुखं लभते नाना विपुण्यः ॥ दोषसे पाप करता है उन गारवोंको, इन्द्रियोंको, संज्ञामदोंको और राग द्वषको धिक्कार हो ॥१८२२।। 'गा.-विषयों में जो अभिलाषा है उसके कारण पुरुष सुख नहीं पाता विषयोंकी चाहके निमित्तसे पुरुष कर्मबन्ध करता है ॥१८२३।। ___ टी०-इससे प्राणियोंमें निरन्तर प्रवर्तमान विषयोंकी चाहरूप परिणामको अहितकारी बतलाया है। उससे सुख तो नहीं होता, किन्तु कर्मबन्ध होता है। अतः विषयोंकी अभिलाषाको आस्रवरूप कहा है ॥१८२३॥. गा०-टो-अन्य प्रकारसे विषयोंकी अभिलाषाकी दुष्टता बतलाते हैं जैसे कोई मनुष्य राख आदिके लिये बहुमूल्य चन्दनकी लकड़ीको जला देता है। वैसे ही मनुष्य अति तुच्छ विषयोंके लोभसे उस मनुष्य भवको नष्ट कर देता है जिसके द्वारा अतीन्द्रिय अनन्त सुख प्राप्त हो सकता है । कहा भी है-ये विषय इन्द्रियोंके लिये आनन्द उत्पन्न करते हैं तो बहुतसे रस उन विषयोंमें रहते हैं। किन्तु विषसे संस्कार किये गये अन्नकी तरह उनको भोगनेपर अत्यन्त भयंकर परिणाम होता है। जिसका चंचल चित्त विषय सुखमें अत्यासक्त होता है वह विषयोंकी प्राप्तिके लिये अनिष्ट कार्य करके ऐसी पर्यायमें जन्म लेता है जहाँ उसे विषयसुख मिलता ही नहीं । ठीक ही है, पुण्यहीन मनुष्य विषयसुखको नहीं पाता ॥१८२४।। Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८१३ छड्डिय रयणाणि जहा रयणद्दीवा हरेज्ज कट्ठाणि । माणुसभवे बि छड्डिय धम्म भोगे भिलसदि तहा ।।१८२५॥ 'छड्डिय रयणाणि जहा' रत्नानि त्यक्त्वा यथा, 'रयणद्दीवा हरेज्ज कहाणि' रत्नद्वीपात्काष्ठान्याहरति । 'तहा माणसभवे वि' मनष्यभवेऽपि. 'छडिडय धम्म' धर्म विहाय । 'भोगे भिलसदि' भोगान्वाञ्छति । एतदुक्तं भवति-अनेकसाररत्नास्पदं रत्नद्वीपं सुदुर्लभं प्राप्य मुधा लब्धान्यपि रत्नान्यनुपादाय असारमिन्धनं सुलभं सारबुद्धया यथा कश्चिदाहरति जडः । तथानेकगुणरत्नाकरं मनुष्यभवं दुरवापमवाप्य अतर्पकं पराधीनं अल्पकालिकं विषयसुखमभिलषति ॥१८२५॥ गंतूण णंदणवणं अमयं छंडिय विसं जह पियइ । माणुसमवे वि छड्डिय धम्मं भोगे भिलसदि तहा ।।१८२६।। 'गंतूण गंदणवणं' गत्वा नन्दनवनं । 'अमयं छड्डिय' अमृतं त्यक्त्वा । 'विसं जहा पियइ' विपं यथा पिवति कश्चित् । 'माणुसभवे वि छड्डिय' मनुष्यभवेऽपि त्यक्त्वा । 'धम्म' धर्म । 'भोगेभिलसदि तहा' भोगानाभिलषति तथा ।।१८२६॥ . . योगशब्दार्थमाचष्टे पावपओगा मणवचिकाया कम्मासवं पकुव्वंति । भुज्जंतो दुभत्तं वणम्मि जह आसवं कुणइ ॥१८२७|| 'पावपओगा' पापं प्रयुज्यते प्रवर्त्यते एभिरिति पापप्रयोगाः । 'मणवचिकाया' मनोवाक्कायाः, 'कम्मासवं पकुव्वंति' कर्मत्वपर्यायागमं पुद्गलानां कुर्वन्ति । 'भुजंतो दुभत्तं' भुञ्जमानो दुराहारं । 'वर्णमि नह आसवं कुणदि' व्रणे यथा आस्रव स्रति पूतीनां करोति ।।१८२७।। . गा०-टी०- जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीपमें जाकर रत्नोंको छोड़ लकड़ी वीनता है वैसे ही मनुष्यभवमें धर्मको छोड़ भोगोंकी अभिलाषा करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जैसे कोई मूर्ख अनेक बहुमूल्य रत्नोंसे भरे तथा. अतिदुर्लभ रत्नद्वीपमें जाकर विना प्रयत्नके ही प्राप्त भी रत्नोंको ग्रहण न करके असार और सुलभ इंधनको ही सारभूत मानकर ग्रहण करता है, उसी प्रकार जो मनुष्यभव अनेक गुणरूपी रत्नोंकी खान है, जिसका मिलना वहुत कठिन है उसे प्राप्त करके भी अज्ञानी ऐसे विषयसुखकी अभिलाषा करता है जो तृप्ति प्रदान नहीं करता तथा पराधीन है और अल्प काल ही रहता है ।।१८२५।। - गा०-जैसे कोई पुरुष नन्दन वनमें जाकर भी अमृतको छोड़ विष पीता है। वैसे ही मनुष्यभवको पाकर भी मनुष्य धर्मको छोड़ भोगोंकी अभिलाषा करता है ।।१८२६।। योगशब्दका अर्थ कहते हैं गा०-जिनके द्वारा पापमें प्रवृत्ति की जाती है वे. मन, वचन, काय, पुद्गलोंको कर्मरूपसे परिणमाते हैं। जैसे अपथ्य सेवन करनेवाला अपने घावमें पीब पैदा करता है। अर्थात् जैसे अपथ्य सेवन करनेसे घावमें पीव आता है वैसे ही मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे कर्मो का आस्रव होता है ।।१८२७॥ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ भगवतो आराधनां कर्माणि शुभाशुभरूपाणि द्विविधानि, तत्र कस्य कर्मणः क आस्रव इत्यत्राह अणुकंपासुधुवओगो वि य पुण्णस्स आसवदुवारं । तं विवरीदं आसवदारं पावस्स कम्मस्स ॥१८२८॥ 'अणुकंपा' अनुकम्पा । 'सुधुवओगों' शुद्धश्च प्रयोगः परिणामः, 'पुण्णस्स आसवदुवारं' पुद्गलानां पुण्यत्वपर्यायागमनमुखं सद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुवेदाः शुभे नामगोत्रे शुभं चायुः पुण्यं एतेभ्योन्यानि पापानि । अनुकम्पा त्रिप्रकारा। धर्मानुकम्पा मिश्रानुकम्पा सर्वानुकम्पा चेति । तत्र धर्मानुकम्पा नाम परित्यकासंयमेषु मानावमानसुखदुःखलाभालाभतृणसुवर्णादिषु समानचित्तेषु दान्तेन्द्रियान्तःकरणेषु 'जननीमिव मुक्तिमाश्रितेषु परिहृतोग्रकषायविषयेषु दिव्येषु भोगेषु दोषान्विचिन्त्य विरागतामुपगतेषु संसारमहासमुद्राद्भयेन निशास्वप्यल्पनिद्रेषु, अङ्गीकृतनिस्सङ्गत्वेषु, क्षमादिदशविधधर्मपरिणतेषु यानुकम्पा सा धर्मानुकम्पा, यया प्रयुक्तो जनो विवेकी तद्योग्यान्नपानावसथैषणादिकं संयमसाधनं यतिभ्यः प्रयच्छति । स्वामविनिगुह्य शक्ति उपसर्गदोषानपसारयति आज्ञाप्यतामिति सेवां करोति भ्रष्टमार्गाणां पन्थानमुपदर्शयति । तैः प्रसंयोगमवाप्य अहो सपुण्या वयमिति हृष्यति, सभासु तेषां गुणानुत्कीर्तयति', तान् गुरुमिव पश्यति । तेषां गुणानामाभीक्ष्णं स्मरति, महात्मभिः कदा नु मम समागम इति । तैः संयोगं समीप्सति, तदीयान् गुणान परैरभिवर्ण्यमानान्निशम्य तुष्यति । इत्थमनुकम्पापरः साधुगुणानुमननानुकारी भवति । त्रिधा च सन्तो बन्धमुपदिशन्ति, स्वयं कृतेः, कारणायाः, पुरैः कृतस्यानुमतेश्च । ततो महागुणराशिगतहर्षात् महान् पुण्यास्रवः । कर्म शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारके हैं। किससे किस कर्मका आस्रव होता है यह कहते हैं ___ गा०-अनुकम्पा और शुद्ध उपयोग पुण्य कर्मके आस्रवके द्वार हैं। और अनुकम्पा तथा शुद्ध उपयोगसे विपरीत परिणाम पाप कर्मके आस्रवके द्वार हैं ॥१८२८।।। टी०-अनुकम्पाके तीन भेद हैं-धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा, सर्वानुकम्पा । जिन्होंने असंयमका त्याग कर दिया है, मान, अपमान, सुख-दुख, लाभ-अलाभे तथा तृण-सुवर्ण आदिमें जिनका समभाव है, इन्द्रिय और मनका जिन्होंने दमन किया है, जो माताके समान मुक्तिके आश्रित हैं, जिन्होंने उन कषाय विषयोंका परित्याग किया है, दिव्य भोगोंमें दोषोंका विचार करके विरागताको अपनाया है, संसाररूपी महासमुद्रके भयसे रात्रिमें भी जो अल्प निद्रा लेते हैं, जिन्होंने निःसंगताको स्वीकार किया है और जो उत्तम क्षमा आदि दस प्रकारके धर्मो में लीन हैं उनमें जो अनुकम्पा है उसे धर्मानुकम्पा कहते हैं। उस धर्मानुकम्पासे प्रेरित होकर विवेकी जन उन मुनियोंके योग्य अन्नपान, वसतिका आदि संयमके साधन प्रदान करते हैं। अपनी शक्तिको न छिपाकर उपसर्ग और दोषोंको दूर करते हैं। हमें आज्ञा कीजिये' इस प्रकार निवेदन करके सेवा करते हैं। जो मार्गसे भ्रष्ट हो जाते हैं उन्हें सन्मार्ग दिखलाते हैं। उन मुनियोंका संयोग प्राप्त होनेपर 'अहो हम बड़े पुण्यशाली हैं।' इस प्रकार विचार कर प्रसन्न होते हैं। सभाओंमें उनके गुणोंका बखान करते हैं। उनको गुरुके समान मानते हैं। उनके गुणोंका सदा स्मरण करते हैं कि कब उनका समागम हो। उनके संयोगकी अभिलाषा रखते हैं। दूसरे द्वारा उनके गुणोंकी प्रशंसा सुनकर सन्तुष्ट होते हैं । इस प्रकार अनुकम्पामें तत्पर साधु गुणोंकी अनुमोदना करनेवाला १. मातरमिव -आ० मु० । २. ति स्वान्ते मु-आ० गु० । Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८१५ मिश्रानुकम्पोच्यते-पृथुपापकर्ममूलेभ्यो हिंसादिम्यो व्यावृत्ताः संतोषवैराग्यपरता विनीताः दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति चोपगतास्तीव्रदोषाद् भोगोपभोगान्निवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणाः पापात्परिभीतचित्ताः, विशिष्टदेशे काले च विवर्जितसर्वसावद्याः पर्वस्वारम्भयोगं सकलं विसृज्य उपवासं ये कुर्वन्ति तेषु संयतासंयतेष क्रियमाणानुकम्पा मिश्रानकम्पेत्यच्यते । जीवामि जीवेषु दयां च कृत्वा कृत्स्नामबध्यमानाः जिनसूत्राबाह्या येऽन्यपाखण्डरताविनीताः कष्टानि तपांसि कर्वनि माणानुकम्पा तया सर्वोऽपि कर्मपण्यं प्रचिनोति । देश प्रवृत्तिहिणामकृत्स्नात् मिथ्यात्वदोषोपहतोन्यधर्मः। इत्येषु मिश्रो भवतीति धर्मों मिश्रानुकम्पामवगच्छे'ज्जन्तुः॥ सदृष्टयो वापि कुदृष्टयो वा स्वभावतो मार्दवसंप्रयुक्ताः । यो कुर्वते सर्वशरीरवर्ग सर्वानुकम्पेत्यभिधीयते सा ॥ छिन्नान् बद्धान् रुद्धान् प्रहतान् विलुप्यमानांश्च मान्, सहनसो निरैनसो वा परिदृश्य मृगान्विहगान् सरीसृपान् पशूश्च मांसादिनिमित्तं प्रहन्यमानान् परलोकः परस्परं वा तान् हिंसतो भक्षयतश्च दृष्ट्वा सूक्ष्माननेकान् कुन्थुपिपीलिकाप्रभृति प्राणभृतो मनुजकरमखरशरभकरितुरगादिभिः संमृद्यमानानभिवीक्ष्य असाध्यरोगोरगदशनात् परितप्यमानान् मृतोऽस्मि नष्टोस्म्यभिधावतेति रोगानुभूयमानान्, गुरुपुत्रकलादिभिर होता है। पूर्व ज्ञानियोंने बन्धको तीन प्रकारसे कहा है। स्वयं करनेसे, दूसरोंसे करानेसे और दूसरोंके करने पर उसकी अनुमोदना करनेसे । अतः महागुणशाली मुनियोंको देखकर हर्ष प्रकट करनेसे महान् पुण्यास्रव होता है। अब मिश्रानुकम्पा कहते हैं। जो महान् पाप कर्मके मूल हिंसा आदिसे निवृत्त हैं, सन्तोष और वैराग्यमें तत्पर हैं, विनीत हैं, दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरतिको धारण किये हुए हैं, तीव्र दोषवाले भोग उपभोगोंका त्याग करके शेष भोगोंका जिन्होंने परिमाण कर लिया है, जिनका चित्त पापसे भीत रहता है, जो विशिष्ट देश और कालमें सर्व सावद्यका त्याग करते हैं अर्थात् त्रिकाल सामायिक करते हैं, पर्वके दिनोंमें समस्त आरम्भको त्याग उपवास करते हैं उन संयमासंयमियोंमें जो अनुकम्पा की जाती है वह मिश्रानुकम्पा है। मैं जिलाता हूं ऐसा मान जो जीवोंपर दया तो करते हैं किन्तु पूर्णरूपसे दयाको नहीं जानते। ऐसे जो जिनागमसे बाह्य अन्य धर्मोको माननेवाले विनयी तपस्वी हैं कष्टदायक तपस्या करते हैं उनमें अनुकम्पा भी मिश्रानुकम्पा है । उससे सब जीव पुण्य कर्मका संचय करते हैं । कहा भी है गृहस्थ एकदेशमें प्रवृत्तिशील होनेसे पूर्ण संयमका पालक नहीं होता। तथा मिथ्यात्वके दोषसे सदोष अन्य धर्मवालोंमें अनुकम्पा मिश्रानुकम्पा है। सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जो स्वभावसे ही मार्दव भावसे युक्त हैं वे जो समस्त प्राणियोंमें अनुकम्पा करते हैं उसे सर्वानुकम्पा कहते हैं। जिनके अवयव कट गये हैं, जो बांधे गये हैं, रोके गये हैं, पीटे गये हैं, खोये गये हैं ऐसे निरपराधी अथवा अपराधी मनुष्योंको देखकर तथा मृगों, पक्षियों, सरीसृपों और पशुओंको मांस के लिये दूसरे लोगोंके द्वारा मारा जाता अथवा उन्हें परस्परमें ही एक दूसरेकी हिंसा करते और एक दूसरेका भक्षण करते देखकर, तथा कुंथु चोंटी आदि अनेक छोटे जन्तुओंको मनुष्य, ऊँट, गधा, शरभ, हाथी, घोड़े आदिके द्वारा कुचले जाते देखकर, तथा असाध्य रोगरूपी सर्पके द्वारा १. 'पासवगच्छतज अ० । - Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ भगवती आराधना प्राप्तकालः सहसा वियुज्य ऊर्ध्वभुजान् विक्रोशतः, स्वाङ्गानि ध्नतश्च शोकेन, उपार्जितद्रविणर्वियुज्यमानान् कृपणान् प्रनष्टबन्धून् धैर्यशिल्पविद्याव्यवसायहीनान् या'न् प्रज्ञाप्रशक्त्या वराकान् निरीक्ष्य तद् दुःखमात्मस्थमिव विचिन्त्य स्वास्थ्यमुपशमनमनुकम्पाः । . . . सुदुर्लभं मानुषजन्म लब्ध्वा मा क्लेशपात्राणि वृथैव भूता ते यतध्वमित्येवमायरपि चोपदेशः । कृतकरिष्यमाणोपकारानपेक्षरनुकम्पा कृता भवति । . पुण्यासवं सा त्रिविधानुकम्पा सुतेषु पुत्रं जननी शुभेव । श्वेतानुकम्पा प्रभवाद्विपुण्यान्नाके मृता अभ्युपपत्तिमीयुः ।। शुद्धप्रयोगो निरूप्यते स च द्विप्रकार: यतिगृहिगोचरभेदेन । यतेः शुद्धोपयोग इत्यन्भूत :---- जीवान हन्यां न मृषा वदेयं चौयं न कुर्यान्त भजेय भोगान् । धनं न सेवेय न च सपासु भुक्षीय कुच्छेऽपि शरीरतापे ॥१॥ रोषेण मानेन च मायया च लोभेन चाहं बहदोषकेन । युञ्जय नारम्भपरिग्रहच बोशा शुभामभ्युपगम्य भूयः ॥२॥ यथा न भायान्चलमौलिमालो भिक्षां चरन्काम कबाणपाणिः । तथा न भायां यवि दीक्षितः मन् वहेय दोषानवहाय लज्जाम् ॥३॥ wwmvwwwwwwwwwww डसे जानेसे पीड़ित मैं मर गया, मैं नष्ट हो गया इत्यादि चिल्लानेवाले रोगियोंको देख तथा जिनकी अवस्था अभी मरनेकी नहीं है ऐसे गुरु, पुत्र, स्त्री आदिका सहसा वियोग हो जानेसे चिल्लाते हुए, अपने अंगोंको शोकसे पीटते हुए, कमाये हुए धनके नष्ट हो जानेसे दीन हए तथा धैर्य, शिल्प, विद्या और व्यवसायसे रहित गरीब प्राणियोंको देख उनके दुःखको अपना ही दुःख मानकर उसको शान्त करना अनुकम्पा है । 'अति दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर वृथा ही क्लेशके पात्र मत बनो। प्राणियोंके लिये कल्याणकारी धर्ममें मन लगाओ' इत्यादि उपदेशोंके द्वारा किये गये अथवा भविष्यमें किये जानेवाले उपकारकी अपेक्षाके बिना अनुकम्पा करना चाहिये । ये तीनों प्रकारको अनुकम्पा पुण्य कर्मका आस्रव करती है। वह जैसे माता पुत्रके लिये शुभ होती है उसी प्रकार शुभ है। उस अनुकम्पासे हुए पुण्यके विपाकसे मरकर स्वर्गमें देव होते हैं। ... अब शुद्ध प्रयोगका स्वरूप कहते हैं--उसके दो भेद है-एक यति सम्बन्धी शुद्धसंप्रयोग और दूसरा गृहस्थ सम्बन्धी शुद्ध संप्रयोग। यतिका शुद्ध प्रयोग इस प्रकार है-मैं जीवोंका घात नहीं करूँगा । झूठ नहीं बोलूंगा। चोरी नहीं करूंगा। भोगोंको नहीं भोगूंगा। धनका सेवन नहीं करूंगा। शरीरमें अत्यन्त कष्ट होनेपर भी रात्रि भोजन नहीं करूंगा। शुभ दीक्षा लेकर बहुदोषपूर्ण क्रोध माना माया लोभसे आरम्भ और परिग्रहसे सम्बन्ध नहीं रखूगा । जैसे कोई मनुष्य सिरपर मुकुटमाला धारण करके और हाथमें धनुष बाण लेकर भिक्षा मांगे तो शोभा नहीं देता। उसी प्रकार यदि में दीक्षा लेकर लज्जा त्याग दोषोंको वहन करू तो शोभा नहीं देता। महान् १. यं वा प्रजा प्रसत्तापकरं नि-अ०। Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका लिङ्गं गृहीत्वा महतामृषीणां, अङ्ग च बिस्रत्परिकर्महीनम् । भङ्गं व्रतानामविचिन्त्य कष्टं सगं कथं कामगुणेषु कुर्याम् ||४|| चर्यामनार्याचरितामधेय धेर्येण हीनः कृपणत्वमेत्य । कथं वृथामुण्डशिराश्चरेयं लिङ्गीभवन्नङ्गविकारयुक्तः ॥ ५॥ इत्येवमादिः शुभकर्मचता सिद्धार्हदाचार्य बहुभूतेषु । चैत्येषु संधे जिनशासने च भक्तिविरक्तिगुणरागिता च ॥ विनीतता संयम अप्रमत्तता, मृदुता, क्षमा, आर्जव:, संतोषः, संज्ञाशल्य गौरव विजयः, उपसर्गपरीषहजयः, सम्यग्दर्शनं, तत्त्वज्ञानं, सरागसंयमं दशविधधर्मध्यानं, जिनेन्द्रपूजा, पूजोपदेशः निःशंकित्वादिगुणाष्टकं, प्रशस्त रागसमेता तपोभावना, पञ्चसमितयः तिस्रो गुप्तय इत्येवमाद्याः शुद्धप्रयोगाः । गृहिणां शुद्धोपयोग उच्यते – गृहीतव्रतानां धारणपालनयोरिच्छा क्षणमपि व्रतभङ्गोऽनिष्टः, अभीक्ष्णं यतिसंप्रयोगः अन्नादिदानं श्रद्धादिविधिपुरस्सरं श्रमनोदनाय भोगान् भुक्त्वापि स्थगित 'सक्तिविगर्हणं, सदा गृहप्रमोक्षप्रार्थना, धर्मश्रवणोपलम्भात्मनसोऽतितुष्टिः भक्त्या पञ्चगुरुस्तवनप्रणमने तत्पूजा, परेषां च स्थिरीकरणमुपबृंहणं, वात्सल्यं, जिनेन्द्रभक्तानामुपकारकरणं, जिनेन्द्रशास्त्राभिगमः, जिनशासनप्रभावना इत्यादिकः । ' तव्वि वरीदं' अनुकम्पाशुद्धप्रयोगाभ्यां विपरीतः परिणामः । 'आसवदारं' आस्रवद्वारं 'पापस्स कम्मरस' अशुभस्य कर्मणः । आस्रवं । । १८२८|| ८१७ ऋषियोंका लिंग स्वीकार करके और स्नान आदिके बिना शरीर धारण करके व्रतोंके भंगका विचार न करते हुए काम सेवन आदिका संसर्ग में कैसे कर सकता हूं। मैं धैर्य खो, दोन बनकर अनार्योंके द्वारा आचरण करके योग्य चर्या कैसे कर सकता हूँ । शरीरमें विकार युक्त होकर घूमने पर साधु होकर सिर मुड़ाना व्यर्थ है । इत्यादि प्रकारसे शुभ कर्मकी चिन्ता करना, सिद्ध, अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय, प्रतिमा, संघ और जिनशासन में भक्ति, वैराग्य, गुणोंमें अनुराग, विनययुक्त प्रवृत्ति, संयम, अप्रमादीपना, परिणामों में कोमलता, क्षमा, आर्जव, सन्तोष, आहारादि संज्ञा मिथ्यात्व आदि शल्य और ऋद्धि आदिके मदको जीतना, उपसर्ग और परीषहको जीतना, सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सरागसंयम, दस प्रकारका धर्मध्यान, जिनपूजा, जिनपूजाका उपदेश, निःशंकित आदि आठ गुण, प्रशस्तराग, तपोभावना, पाँच समिति, तीन गुप्ति इत्यादि शुद्ध प्रयोग हैं । अब गृहस्थोंका शुद्ध प्रयोग कहते हैं-ग्रहण किये हुए व्रतोंके धारण और पालनकी इच्छा, एक क्षण के लिये भी व्रतभंगको इष्ट न मानना, निरन्तर यतियोंको दान देना, श्रद्धा आदि विधिपूर्व अन्न आदि देना, भोगोंको भोगकर भी थकान दूर करनेके लिये अपनी भोगासक्तिको निन्दा करना, सदा घर छोड़नेकी भावना करना, धर्मका श्रवण करनेको मिले तो मनका अतितुष्ट होना, भक्तिपूर्वक पंचपरमेष्ठीका स्तवन और प्रणाम करना, उनकी पूजा करना, दूसरोंको धर्ममें स्थिर करना, धर्मका बढ़ाना, साधर्मीवात्सल्य, जिनेन्द्रदेवके भक्तोंका उपकार करना, जिन शास्त्रोंका अभ्यास करना, जिनशासनकी प्रभावना करना आदि श्रावकों का शुद्ध प्रयोग है । अनुकम्पा और शुद्ध प्रयोगसे विपरीत परिणाम अशुभ कर्मके आस्रव के द्वार हैं ||१८२८ । १. तशक्तिवि - अ० मु० । Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ भगवती आराधना संवरानुप्रेक्षा कथ्यत । संवियन्ते निरुध्यन्तेऽभिनवाः कर्मपर्यायाः पुद्गलानां येन जीवपरिणामेन । मिथ्यात्वादिपरिणामो वा निरुध्यते स संवरः । तत्रायं सूरिमिथ्यात्वादिपरिणामसंवरात् सम्यक्त्वादीनां संवरतामाचष्टे मिच्छत्तासवदारं रुंभइ सम्मत्तदिढकवाडेण । हिंसादिदुवाराणि व दढवदफलहेहिं रुंभंति ॥१८२९॥ 'मिच्छत्तासवदारं' तत्त्वाश्रद्धानमास्रवद्वारं। हभंति' रुन्धते, 'सम्मत्तदिढकवाडेण' तत्त्वश्रद्धान कवाटेन । 'हिंसाविदुवाराणि वि' हिंसादिद्वाराण्यपि, 'दढवदफलहेहि भंति' दृढव्रतपरिघः स्थगयन्ति ।।१८२९॥ उवसमदयादमाउहकरेण रक्खा कसायचोरेहिं ।। सक्का काउं आउहकरेण रक्खाव चोराणं ॥१८३०॥ 'उवसमदयादमाउहकरेण' उपशमः कषायवेदनीयस्य कर्मणस्तिरोभवन, दया सर्वप्राणिविषया, दमः कषायदोषभावनया चित्तनिग्रहः । एते त्रय आयुधाः करे यस्य तेन । 'कसायचोरेहि' कषायचोरेभ्यः । 'रक्खा सक्का कादं' रक्षा शक्या कर्तृ, 'आयुधकरण रक्खाव चोरेहिं आयधहस्तेन चोरेभ्यो रक्षेद. कषायदोषपरिज्ञानेनासकृत् प्रवृत्तेन क्रोधादिनिमित्तवस्तुपरिहारेण तत्प्रतिपक्षक्षमादिपरिणामेन च कषायनिवारणं । उक्तं च जयेत्सदा कोषमुपाश्रितः क्षमा जयेच्च मानं समुपेत्य मावं ।। तथैव मायामपि वार्जवाब्जयेत, जयेच्च संतोषवशेन लुग्धतां ॥ जिताः कषाया यदि किन्न तेजितं कपायमूलं सकलं हि घनमिति ॥१८३०॥ मिथ्यात्वसंवरं कषायसंवरं च निरूप्य इन्द्रियसंवरं व्याचष्टे इंदियदुतस्सा णिधिप्पंति दमणाणखलिणेहिं । उप्पहगामी णिग्घिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया ।।१८३१॥ अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं। जिस जीव परिणामसे पुद्गलोंके नवीन कर्म पर्याय अथवा मिथ्यात्वादि परिणाम रुकते हैं उसे संवर कहते हैं। उनमेंसे ग्रन्थकार मिथ्यात्व आदि परिणामोंका संवर करनेसे सम्यक्त्व आदिको संवर कहते हैं -मिथ्यात्व अर्थात तत्त्वके अश्रद्धानरूप आसवका द्वार सम्यक्त्व अर्थात तत्त्वके श्रद्धान रूप दृढ़ कपाटोंके द्वारा रोका जाता है और हिंसा आदि आस्रव द्वारोंको दृढ़ व्रतरूपी अर्गलाओंसे रोका जाता है ॥१८२९।। गा०-टी०-कषायवेदनीय कर्मके तिरोभाव अर्थात् उदय अवस्थाको प्राप्त न होनेको उपसम कहते हैं। सब प्राणियोंपर दयाभाब होना दया है। कषायोंके दोषोंका विचार करके चित्तका निग्रह करना दम है । ये तीन अस्त्र जिसके पास हैं वह कषायरूप चोरोंसे अपनी रक्षा कर सकता है। जैसे जिसके हाथमें अस्त्र होता है वह चोरोंसे अपनी रक्षा कर सकता है उसी प्रकार कषायके दोषोंको जाननेसे, क्रोध आदिमें निमित्त वस्तुसे बचनेसे और कषायोंके विरोधी क्षमा आदि परिणामोंसे कषायको दूर किया जा सकता है। कहा भी है-सदा क्षमाकी उपासना करके क्रोधको जीतना चाहिये। मार्दवको धारण करके मानको जीतना चाहिये । तथा आर्जवभावसे मायाको जीतना चाहिये और सन्तोषसे लोभको जीतना चाहिये। जिसने कषायोंको जीत लिया उन्होंने क्या नहीं जीता । अर्थात् सबको जीत लिया। क्योंकि सब बन्धनका मूल कषाय है।।१८३०।। Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८१९ 'इंदियदुइतस्सा' इन्द्रियदुर्दान्ताश्वाः । "णिग्घिप्पंति' निगृह्यन्ते निरुध्यन्ते । केन ? 'दमणाणखलिणेहि दमप्रधानानि दमज्ञानानि, तान्येव खलिनानि तैः । शब्दादिषु वर्तमानानि इन्द्रियज्ञानानि रागद्वेषमूलानि तानीहेन्द्रियशब्देनोच्यन्ते । तेषां चास्रवानां निरोधस्तत्त्वज्ञानभावनया भवति । द्वयो रूपयोर्युगपदेकस्मिन्नात्मन्यप्रवृत्तः । 'उप्पथगामी' उन्मार्गयायिनः । 'जह तुरगा णिग्धिप्पंति' यथाश्वा निगृह्यन्ते । 'खलिणेहि' खरैः खलिनः ॥१८३१॥ अणिहुदमणसा इंदियसप्पाणि णिगेण्हिदुं ण तीरंति । विज्जामंतोसधहीणेण व आसीविसा सप्पा ॥१८३२।। 'अणिहदमणसा' ज्ञानेन अनिभृतचेतसा । 'इंदियसप्पाई' इन्द्रियसर्पाः। 'णिगिण्हे,' निग्रहीतुं । 'ण तीरंति' न शक्यन्ते । “विज्जामंतोसहोहोणेण व विद्यया मन्त्रेण औषधेन वा हीनेन, 'आसोविसा सप्पा' आशीविषाः सर्पा यथा न गृह्यन्ते ॥१८३२॥ प्रमादसंवरं कथयत्युत्तरगाथा पावपयोगासवदारणिरोधो अप्पमादफलिगेण । कीरइ फलिगेण जहा णावाए जलासवणिरोधो ।।१८३३।। 'पावपयोगासवदारणिरोधों' अशुभपरिणामास्रवद्वारनिरोधः। विकथादयः पञ्चदशप्रमादपरिणामाः 'पावपयोगा' इत्युच्यन्ते । तेषां निरोधः 'अप्पमादफलगेण' अप्रमादफलकेन । केन फलकेन कः 'प्रमाद उच्यते सत्यासत्यमृषाभाषा विकथा निरुणद्धि, स्वाध्यायो ध्यानं एकाग्रतेति चेति एते प्रमादविकथाप्रतिपक्षभूताः। मिथ्यात्व और कषायके संवरका कथन करके इन्द्रिय संवर कहते हैं गा०-टी०-जैसे कुमार्गमें जानेवाले दुष्ट घोड़ोंको कठोर लगामके द्वारा वशमें किया जाता है। वैसे ही दमप्रधान ज्ञानके द्वारा इन्द्रियरूपी दुर्दान्त घोड़ोंको वश में किया जाता है। यहाँ इन्द्रिय शब्दसे शब्द आदि विषयोंमें प्रवर्तमान इन्द्रिय ज्ञानको कहा है जिसका मूल राग और द्वष है। उनसे होनेवाले आस्रवोंका निरोध तत्त्वज्ञानकी भावनासे होता है क्योंकि एक आत्मामें एक साथ दो रूप-तत्त्वज्ञान भी और इन्द्रिय विषयोंमें प्रवृत्ति भी नहीं हो सकते ॥१८३१।। गा०-जैसे जिसके पास विद्या, मंत्र और औषध नहीं हैं वह सर्पो को वशमें नहीं कर सकता । उसी प्रकार जिसका मन चंचल है वह इन्द्रियरूपी सर्पो को वशमें नहीं कर सकता।।१८३२।। आगे प्रमादके संवरको कहते हैं गा०-जैसे लकड़ीके पाटिये से नावमें जलका आना रोका जाता है। वैसे ही अप्रमादरूपी पाटियेसे अशुभ परिणामोंरूपी आस्रव द्वारको रोका जाता है ।।१८३३।। टो०-किस पाटियेसे किस प्रमादको रोका जाता है यह कहते हैं-सत्य और अनुभयरूप बचन विकथा नामक प्रमादको रोकते हैं। स्वाध्याय, ध्यान, एकाग्रता ये विकथा नामक प्रमादके प्रतिपक्षी हैं। इनमें लगे रहनेसे खोटी कथाका अवसर ही नहीं मिलता। क्षमा, मार्दव, आर्जव १. दो रुध्यत इत्याह -आ० मु० । १०३ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० भगवती आराधना क्षमामार्दवार्जवसंतोषाः, कषायप्रमादस्य प्रत्यनीकभूताः। ज्ञानभावना, रागद्वषेन्द्रियविषयविविक्तदेशाव- . स्थानं ज्ञानेन मनःप्रणिधानं, इन्द्रियविषयरागद्वेषजदोषाणामनुस्मरणं, विषयोपलब्धावनादरश्चेति एते इन्द्रियप्रमादप्रतिपक्षाः । तथा चोक्तं वराङ्गनाङ्गानि च रागचोदितो यदृच्छया वा न निरीक्ष्य रज्यति । तथैव रूपाण्यशुभानि वीक्षितुं, न नेच्छति द्वेषवशप्रचोदितः ॥१॥ निरीक्ष्य न द्वेष्टि यवृच्छयापि च भवेत्स जेता पुरुषः स्वचक्षुषः । सुगीतवावित्रभवान्मनोहरान स्वरान्मनोज्ञान्युवतीरितानपि ॥२॥ न वाञ्छति श्रोतुमिहादरेण यो यदच्छया वा न निशम्य रज्यति । स्वराननेकानमनोहरानपि न नेच्छति द्वेषवशेन सेवितुं ॥३॥ निशम्य न ष्टि यदृच्छयापि च भवेत्स जेता श्रवणेन्द्रियस्य च । तुरुष्ककालागुरुकुष्ठकुकुमान् तमालपत्रोत्पलचम्पकादिकानू ॥४॥ शुभं न जिघ्रासति गन्धमादरात् यदृच्छयाघ्राय न चापि रज्यति । तथैव गन्धानशुभानपीह यो न नेच्छति भ्रातुमसूनतद्विषान् ॥५॥ निषेव्य न द्वष्टि यदृच्छयापि च भवेत्स नासेन्द्रियजिन्नरोत्तमः । न यो महामृष्टविशिष्ट भोजनप्रि'यापलेहापि मनोहरान् रसान् ॥६॥ निषेवितुं रागवशेन काङ्क्षति यदच्छया या न निषेव्य रज्यति । रसाननेकानमनोहरानपि न नेच्छति द्वषवशेन सेवितुं ॥७॥ निषेव्य न द्वेष्टि यदृच्छयापि च भवेत्स जेता रसनेन्द्रियस्य च । कषायनामक प्रमादके विरोधी हैं। ज्ञानकी भावना, रागद्वषके कारण इन्द्रिय विषयोंसे रहित देशमें रहना, ज्ञानके द्वारा मनको एकाग्र करना, इन्द्रियोंके विषयोंमें रागद्वेषसे उत्पन्न हुए दोषोंका स्मरण करना, और विषयोंकी उपलब्धिमें आदरभाव न होना, ये इन्द्रिय नामक प्रमादके विरोधी हैं। कहा भी है रागसे प्रेरित होकर अथवा स्वेच्छासे सुन्दर स्त्रीके अंगोंको देखकर राग नहीं करता। तथा द्वषसे प्रेरित होकर अशुभ रूपोंको देखनेकी इच्छा नहीं करता। जो यदृच्छासे देखकर भी द्वेष नहीं करता वह पुरुष अपनी आँखोंका विजेता है। अच्छे गीत, और वादित्रोंके मनोहर स्वरोंको तथा युवती स्त्रियोंके द्वारा कहे गये शब्दोंको भी जो आदरपूर्वक सुनना नहीं चाहता और अचानक सुनकर भी उनमें अनुराग नहीं करता। तथा द्वषवश अनेक अमनोहर स्वरोंको भी सुननेकी इच्छा नहीं करता। अचानक अमनोज्ञ स्वर सुनाई पड़ जाये तो उससे द्वेष नहीं करता, वह श्रवणेन्द्रियका जेता है। लोबान, काला अगर, कुष्ठ, कुंकुम, तमालपत्र, कमल, चम्पक आदिकी सुगन्धको आदरभावसे जो नहीं सूंघता, और अचानक सूंघनेमें आ जाये तो उसमें राग नहीं करता। उसी प्रकार जो अशुभ गन्धको भी सूंघनेसे द्वष नहीं करता। और अचानक दुर्गन्ध सूंघ ले तो उससे द्वेष नहीं करता वह श्रेष्ठ पुरुष नासा इन्द्रियको जीतनेवाला है । जो अत्यन्त मीठे विशिष्ट भोजनको और मनोहर रसोंको रागवश सेवन करना नहीं चाहता, अचानक सेवनमें आ जाये तो उसमें राग नहीं करता। तथा द्वषवश अनेक अमनोहर रसोंको भी सेवन १. प्रियः प्रलेहादिमनो मनोहरान् -आ० । Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका मनोज्ञशय्यासनकान्तयोषितां शुभांश्च यः स्पर्शविधीन् मनोहरान् ॥८॥ न सेवितुं रागवशेन वाञ्छति यदृच्छया वा न निषेव्य रज्यति । प्रमर्द्दनाच्छादन] मार्जनानि वा विलेपनाभ्यञ्जनमज्जनानि च ॥९॥ शरीरसौख्याय न यश्च सेवते विवृद्धवैराग्ययुतो महायतिः । हिमोष्णभूशैलशिलातृणादिजानशोभनान् स्पर्शविषोंश्च सर्वदा ॥ १० ॥ न नेच्छति द्व ेष्टि न वाप्युपागतान् त्वगिद्रियस्यैष भजेद्विजिष्णुतां । रणे रिपूणामिव निर्भयो जयेत् यथेन्द्रियाणां जयमास्थितो यतिरिति ॥ ११ ॥ निद्रायाः प्रतिपक्षभूतोऽप्रमादः, अनशनमवमोदर्य, रसपरित्यागः, संसाराद्भीतिनिद्रादोषचिन्ता रत्नत्रयेऽनुरागः स्वदुश्चरितानां स्मरणेन शोक इत्येवमादिकः । स्नेहप्रमादप्रतिपक्षभावनोच्यते--बन्धुताया अनवस्थितत्वभावना, तदर्थाने कारम्भपरिग्रहप्रवृत्तिचिन्ता, धर्मविघ्नता, दोषापेक्षणमित्यादिकः । एवंभूतेनाप्रमादफलकेन प्रवर्तता निरुध्यते । 'कीरदि फलगेण जहा' क्रियते फलकेन यथा । 'णावाए जलासवणिरोघो' नावः जलास्रवनिरोधः ||१८३३॥ गुत्तिपरिखाइ हि गुत्तं संजमणयरं ण कम्मरिउसेणा । बंधे ससेणा पुरं व परिखादिहिं सुगुत्तं ॥ १८३४॥ ८२१ 'गुत्तिपरिखाहिगुत्तं' गुप्तिपरिखाभिर्गुप्तं, संयमनगरं कर्मरिपुसेना न भक्तुं शक्नोति । परिखादिभिर्गुप्तं शत्रुसेवेति । गुप्तेः संवरताख्याता ॥ १८३४।। 1 न करनेकी इच्छा नहीं करता । और अचानक सेवनमें आ जाय तो द्व ेष नहीं करता, वह रसना इन्द्रियका जेता होता है । जो मनोज्ञ शय्या, मनोज्ञ आसन, सुन्दर स्त्री तथा मनोहर शुभ स्पर्शवाली वस्तुओंको रागके वशीभूत हो सेवन करनेकी इच्छा नहीं करता । अचानक सेवनमें आनेपर उनसे राग नहीं करता । तथा जो बढ़े हुए वैराग्यसे शोभित महायती शारीरिक सुखके लिये शरीरका दबाना, आच्छादन, मार्जन, लेपन, तेल, स्नान आदिका सेवन नहीं करता । तथा सर्वदा अतिशीतल या अतिउष्ण पृथ्वी, पहाड़, पत्थर, तृण आदि जन्य अप्रिय स्पर्शो को सेवन न करनेकी इच्छा नहीं करता और ऐसे अप्रिय स्पर्श प्राप्त होनेपर उनसे द्वेष नहीं करता वह स्पर्शन इन्द्रियका जीतनेवाला होता है । जैसे युद्ध में निर्भय व्यक्ति शत्रुओंको जीतता है । उसी प्रकार वह यति इन्द्रियों को जीतता है । निद्राका विरोधी है अप्रमाद, अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, संसारसे भय, निद्राके दोषोंका चिन्तन, रत्नत्रयमें अनुराग, अपने बुरे आचरणोंका स्मरण करके शोक करना आदि । स्नेह नामक प्रमादकी विरोधी भावना कहते हैं-बन्धुता अस्थिर है ऐसा विचारना जिनके प्रति स्नेह होता है उनके लिये अनेक आरम्भ परिग्रह आदिकी चिन्ता करना होती है । धर्म साधनमें विघ्न होता है । इत्यादि दोषोंका चिन्तन स्नेहका प्रतिपक्षी है । इस प्रकारके अप्रमादरूप पाटियेसे प्रमादजन्य आश्रवका संवर होता है ||१८३३|| गा० - जैसे शत्रुकी सेना परिखा आदिसे सुरक्षित नगरको नष्ट नहीं कर सकती । वैसे ही कर्मरूपी शत्रुकी सेना गुप्तिरूपी परिखा आदिसे युक्त संयमरूपी नगरको नष्ट नहीं कर सकती ।। १८३४॥ १. योषितः शुभाश्च -आ० । २. मार्जनानि अ० मु० । ३. धंसेदि -- मूलारा० । Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ गुप्तीनां संवरतामाख्याति - भगवती आराधना समिदिदिढणावमारुहिय अप्पमत्तो भवोदधिं तरदि । छज्जीवणिकायवघादिपावमगरेहिं अच्छित्तो ॥ १८३५ ॥ 'समदिविढनावमारुहिय' समितिसंज्ञितां दृढनावमारुह्य । 'अप्पमत्तो' अप्रमत्तो भवोदधि तरति षड्जीवनिकायवधादिपापमकरैरस्पृष्टः । एतेन समितेः संवरताख्याता ॥। १८३५ ॥ दारेव दारवालो हिदये सुप्पणिहिदा सदी जस्स । दोसा धंसंति ण तं पुरं सुगुत्तं जहा सत्तू ॥ १८३६ ॥ 'दारेव वारवालों' द्वारे द्वारपाल इव । हृदये सम्यक्प्रणिहिता वस्तुतत्त्वानां स्मृतिर्यस्य तं दोषा ना भिभवन्ति पुरं सुगुप्तं शत्रव इव ॥ १८३६ ॥ जो हु सदिविप्पहूणो सो दोसरिऊण गेज्झओ होइ । अंगो व चरंतो 'अरीणमविदिज्जओ चेव ।। १८३७|| 'जो खु सदिविप्पहूणो' यः स्मृतिहीनः । 'सो दोसरिऊण गेज्झओ होई' असौ दोषरिपुभिर्ग्राह्यो भवति । अरीणां मध्ये असहायोऽन्धः शत्रुग्राह्यो यथा ।। १८३७।। अमु यंतो सम्मत्तं परीसहच मुक्करे उदीरंतो । व सदी मोत्तव्वा एत्थ दु आराधणा भणिया ।। १८३८ || 'अमुयंतेण' अमुञ्चता । 'सम्मत्तं' रत्नत्रयं । 'परोस हसमोगरे' परीषहप्रकरे अभिभवत्यपि नैव स्मृतिमोक्तव्या । अत्राराधना कथिता । संवरः । ॥। १८३८ ॥ इससे गुप्तिको संवरका कारण कहा है गा० - प्रमादरहित साधु समितिरूपी दृढ़ नावपर आरूढ़ होकर छह कायके जीवोंके घातसे होनेवाले पापरूपी मगरमच्छोंसे अछूता रहकर संसार समुद्रको पार करता है ।। १८३५ ।। इससे समितिको संवरका कारण कहा है गा० - जैसे सुरक्षित नगरका शत्रु ध्वंस नहीं कर सकते, उसी प्रकार द्वारपर खड़े द्वारपालकी तरह जिसके हृदयमें वस्तु तत्त्वोंकी स्मृति बनी रहती है, दोष उसका अनिष्ट नहीं कर सकते || १८३६|| गा०-- जैसे शत्रुओंके मध्य में असहाय अन्धा व्यक्ति शत्रुओंके द्वारा पकड़ा जाता है । वैसे ही जिसे वस्तु तत्त्वोंका सतत स्मरण नहीं रहता, वह दोषरूपी शत्रुओंसे पकड़ा जाता है ।।१८३७॥ गा०-प -परीषहोंके समूह से पीड़ित होते हुए भी साधुको रत्नत्रयको न छोड़ते हुए तत्त्वोंका स्मरण नहीं छोड़ना चाहिये । सदा तत्त्वका स्मरण करते रहना चाहिये । इसीको यहाँ आराधना कहा है ||१८३८|| १. अडवीमवि - अ० आ० । संवर अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ । २. अमुयंते आ० । Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरानुप्रक्षोच्यते विजयोदया टीका इय सव्वत्थवि संवरसंवुडकम्मासवों भवित्तु मुणी | कुव्वंति तवं विविहं सुत्तुतं णिज्जराहेदुं || १८३९ ।। 'इय' एवं । 'सव्वत्यवि' उक्तः संवरप्रकारः । 'संवुडकम्मासवो भवित्तु मुणी' संवृतकर्मास्रवो भूत्वा मुनिः करोति विविधं तपः सूत्रोक्तं निर्जराहेतु ।। १८३९ ।। तवसा विणा ण मोक्खो संवरमित्तेण होइ कम्मस्स । भोगादीहिं विणा धणं ण हु खीयदि सुगुत्तं ॥१८४० ॥ 'तवसा विणा' तपसोऽन्तरेण न कर्ममोक्षो भवति संवरमात्रेण । सुरक्षितमपि धनं नैव हीयते उपभोगमन्तरेण तथा । तस्मात् तपोनुष्ठातव्यं निर्जरार्थं । का सा निर्जरा नाम ? पूर्वकृत कर्मशातनं तु निर्जरा || १८४० ॥ ८२३ पुव्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा । पढमा विवागजादा विदिया अविवागजाया य ॥। १८४१ ॥ 'पुव्वगदकम्मसडणं' पूर्वकृत कर्मपुद्गलस्कन्धावृतानामवयवानां जीवप्रदेशेभ्योऽपगमनं निर्जरा । तथा चोक्तं 'एकदेशकर्मसंक्षय लक्षणा निर्जरेति' । निर्जरा द्विविधा द्रव्यनिर्जरा भावनिर्जरा चेति । द्रव्यनिर्जरा नाम गृहीतानामशनपानादिद्रव्याणां एकदेशापगमनं वमनादिव । भावनिर्जरा नाम कर्मत्वपर्यायविगमः पुद्गलानां । सा पुनद्वविधा, आद्या विपाकजाता दत्तफलानां कर्मणां गलनं विपाकजा निर्जरा । द्वितीयाऽविपाकजाता ।। १८४१ ॥ अब निर्जरा अनुप्रेक्षाको कहते हैं गा०—इस प्रकार संवरके उक्त भेदोंके द्वारा मुनि कर्मों का आस्रव रोककर आगममें कहे अनेक प्रकारके तपोंको करता है जो निर्जराके कारण हैं ||१८३९ ॥ गा० - जैसे सुरक्षित भी धन उपभोग किये बिना नहीं घटता, उसी प्रकार तपके बिना कर्मो के संवरमात्रसे कर्मों का क्षय नहीं होता । अतः निर्जराके लिये तप करना चाहिये । पूर्व में बद्ध कर्मो के क्रमसे क्षयको निर्जरा कहते हैं ॥१८४०|| गा० - टी० - पूर्व में बांधे हुए पौद्गलिक कर्मस्कन्धोंके अवयवोंका जीवके प्रदेशोंसे अलग होना निर्जरा है । कहा भी है- 'कर्मों के एकदेशका क्षय निर्जराका लक्षण है । निर्जराके दो भेद हैं- द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा । खाये हुए भोजन पान आदि द्रव्योंके एकदेशका वमन आदिके द्वारा बाहर निकलना द्रव्यनिर्जरा है । और पुद्गलोंका कर्मरूप पर्यायको त्यागना भावनिर्जरा है । भावनिर्जराके भी दो भेद हैं- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । जो कर्म अपना फल दे चुके हैं उनकी निर्जरा सविपाक निर्जरा है और जिन कर्मों का विपाक काल नहीं आया है उन्हें तप आदिके द्वारा बलात् उदयमें लाकर खेरना अविपाक निर्जरा है || १८४१ || विशेषार्थ - द्रव्यसंग्रह आदिमें भी निर्जराके उक्त भेदोंका कथन है किन्तु उनमें फल दे चुकने वाले कर्म पुद्गलोंका जीवसे पृथक् होना द्रव्यनिर्जरा है और जीवके जिस भावसे यह द्रव्यनिर्जरा होती है उस भावको भावनिर्जरा कहा है || १८४१ ॥ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ भगवती आराधना अत्र दृष्टान्तमाचष्टे द्विविधां निर्जरामवगमयितु कालेण उवायेण य पच्चंति जहा वणप्फदिफलाई । तह कालेण तवेण य पच्चंति कदाणि कम्माणि ।।१८४२।। 'कालेण उवाएण य' यथा कालेनोपायेन च वनस्पतीनां फलानि पच्यन्ते तथा कालेन तपसा पच्यन्ते कृतानि कर्माणि ॥१८४२।। तयोनिर्जरयोः का कस्य भवतीत्याशङ्कायामाचष्टे सव्वेसिं उदयमा गदस्स कम्मस्स णिज्जरा होइ । कम्मस्स तवेण पुणो सव्वस्स वि णिज्जरा होइ ॥१८४३।। 'सवेसिमुदयसमयागदस्स' सर्वेषां समयपूर्वके तपसि वृत्तानां अवृत्तानां च अथवा मिथ्यादृष्टयादीनां सम्यग्दृष्ट्यादीनां वा उदयावलिकाप्रविष्टस्य दत्तस्य फलस्य कर्मणो निर्जरा भवति । एतेन विपाकनिर्जरा स्वल्पेत्याख्यातं भवति । कथं न सर्वाणि कर्माणि गलन्तीति चेदुच्यते-सर्वाणि कर्माणि भिन्नस्थितिकानि सहकारिकारणानां द्रव्यक्षेत्रादीनां युगपदसान्निध्यादुदयं सर्वस्य नोपवजन्ति, ततो यदयप्राप्तं तदेवागच्छति नेतरदिति । 'तवेण पुणों' तपसा पुनः । 'कम्मस्स सव्वस्स वि' कर्मणः सर्वस्यापि निर्जरा भवति ॥१८४३।। ण हु कम्मस्स अवेदिदफलस्स कस्सइ हवेज्ज परिमोक्खो। होज्ज व तस्स विणासो तवग्गिणा डज्झमाणस्स ॥१८४४।। दोनों प्रकारको निर्जराको समझानेके लिये दृष्टान्त कहते हैं गा०-जैसे वनस्पतियोंके फल अपने समयपर भी पकते हैं और उपाय करनेसे समयसे पहले भी पक जाते हैं, उसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्म भी अपनी स्थिति पूरी होनेपर अपना फल देते हैं और तपके द्वारा स्थिति पूरी होनेसे पूर्व ही फल देकर चले जाते हैं ॥१८४२।। उक्त दोनों निर्जराजोंमेंसे किसके कौन निर्जरा होती है, यह कहते हैं गा०-टी-सभी जीवोंके जो तप करते हैं या तप नहीं करते, अथवा सम्यग्दृष्टी हों या मिथ्यादृष्टी हों उन सब जीवोंके उदयावलीमें प्रवेश करके अपना फल देनेवाले कर्मो की निर्जरा होती है अर्थात् सविपाक निर्जरा तो सभी जीवोंके सदा हुआ करती हैं क्योंकि सभी जीव सदा कर्म करते हैं और सदा उनका फल भोगते हैं। इससे सविपाक निर्जरा थोड़े ही कर्मकी होती है यह सूचित होता है। शंका--सब कर्मों को निर्जरा क्यों नहीं होती ? समाधान-सब कर्मोंकी स्थिति भिन्न-भिन्न होती है । तथा सबके सहकारी कारण द्रव्य क्षेत्र आदि एक साथ नहीं मिलते अतः सब कर्म एक साथ उदयमें नहीं आते । अतः जिस कर्मका उदय होता है उसीकी निर्जरा होती है। शेषकी निर्जरा नहीं होती। किन्तु तप करनेसे सब कर्मो की निर्जरा होती है ।।१८४३॥ १. यसमयाग -आ० । २. दुदयमुपव्रजंति -अ० । Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८२५ 'कम्मरस ह हवेज्ज परिमोक्खो' अननुभतफलस्य कर्मणो नैव कस्यचित् मोक्षो भवति इति । ततः फलं प्रदायापयाति । एतेन विपाकनिर्जरोक्ता 'होज्ज व तस्स कम्मस्स विणासो' भवेद्वा तस्य कर्मणो विनाशः। 'तवग्गिणा डज्झमाणस्स' तपोऽग्निना दह्यमानस्य । एतेन कृतं कर्म तत्फलमदत्वा न निवर्तत इत्येतन्निरस्तं ॥१८४४॥ डहिऊण जहा अग्गी विद्धंसदि सुबहुगंपि तणरासी । विद्धंसेदि तवग्गी तह कम्मतणं सुबहुगंपि ॥१८४५॥ 'डहिऊण जहा अग्गो' यथाग्निर्दग्ध्वा नाशयति महांतमपि तृणराशिं तथा तपोग्निः सुमहदपि कर्मतृणं विनाशयति ॥१८४५॥ तपसः कर्मविनाशनक्रममुपदर्शयत्युत्तरगाथा कम्मं पि परिण मिज्जइ सिणेहपरिसोसएण सुतवेण । तो तं सिणेहमुक्कं कम्मं परिसडदि धूलिव्व ॥१८४६॥ 'कम्मं पि परिणमिज्जदि' 'कर्माण्यपि अभावं नीयन्ते, केण ? 'सुतवेण' ज्ञानदर्शनचरणसहभाविना तपसा । 'सिणेहपरिसोसगेण' कर्मपुद्गलगतस्नेहपरिणामविशोषणकारिणा । 'तो' पश्चात् । स्नेहपरिणामविनाशोत्तरकालं । 'कम्म परिसडदि' कर्म परितोऽपयाति, "सिणेहमुक्कं' स्नेहमुक्तं धूलीव । दृश्यते हि स्नेहाबन्धमुपागतानां ततक्षते: परस्परतो वियोगः यथा जलेनैव पिण्डतागतानां सिकतानां शुष्के जले वियोगमापद्यमानता ॥१८४६॥ गा०-टी-जिस कर्मका फल नहीं भोगा गया है उसका विनाश नही होता । अतः कर्म फल देकर जाता है। इससे सविपाक निर्जराका स्वरूप कहा। सविपाक निर्जरा उन्हीं कर्मोंकी होती है जो अपना फल दे चकते हैं। किन्त तपकी अग्निमें जलकर ऐसे कर्मो का भी विनाश होता है जिन्होंने फल नहीं दिया है । इससे जो मत ऐसा मानते हैं कि किया हुआ कर्म बिना फल दिये नहीं जाता, उनका खण्डन होता है ॥१८४४॥ गा०-जैसे आग महान् भी तृणराशिको जलाकर खाक कर देती है। उसी प्रकार तपरूपी आग महान् भी कर्मरूपी तृणोंके ढेरको जलाकर नष्ट कर देती है ।।१८४५।। __ आगे तपसे कर्मो के विनाशका क्रम दिखलाते हैं गा०-टी०-ज्ञान, दर्शन और चारित्रके साथ होनेवाला तप कर्म-पुद्गलोंमें रहनेवाले स्नेह परिणामको सोख लेता है। अतः उससे कर्मों का अभाव होता है। क्योंकि कर्मों में रहनेवाले स्नेहपरिणामका विनाश होनेके पश्चात् स्नेहरहित धूलकी तरह कर्म नष्ट हो जाते हैं। देखा जाता है जो वस्तुएँ चिक्कणता गुणके कारण परस्परमें बँधी होती हैं, उनकी चिक्कणता नष्ट होनेपर वे परस्परमें अलग हो जाती हैं. जैसे जलके संयोगसे धूल बँध जाती है और जलके सूखने पर अलग-अलग हो जाती है। इसी प्रकार कषाय आदि रूप स्नेहके कारण जो कर्मपुद्गल जीवके साथ एकरूप होते हैं, तपके द्वारा कषायके चले जानेपर वे जीवसे पृथक् हो जाते हैं ॥१८४६॥ १. कर्मापि सूतवेण शोभनेन तपसाऽन्यथाभावं नीयन्ते । केण? ज्ञान आ० । Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ भगवती आराधना धादुगदं जह कणयं सुज्झइ धम्मतमग्गिणा महदा । सुज्झइ तवग्गि'धंतो तह जीवो कम्मधादुगदो ॥१८४७|| 'धादुगदं' यथा सुवर्णपाषाणगतं कनकं महताग्निना दह्यमानं शुध्यति, मलात् पृथग्भवति तथा जीवः कर्मधातुगतस्तपोऽग्निना दह्यमानः शुध्यति ॥१८४७॥ । यद्येवं तप एवानुष्ठातव्यं किं संवरेणेति शङ्का निराकरोति तवसा चेव ण मोक्खों संवरहीणस्स होइ जिणवयणे। ण हु सोत्ते पविसंते किसिणं परिसुस्सदि तलायं ।।१८४८|| 'तवसा चेव ग मोक्खो' तपसव न सर्वकर्मापायो भवति, संवरहीनस्य जिनवचने । स्रोतसि प्रविशति न जलादिकं कृत्स्नं परिशुष्यति ॥१८४८॥ एवं पिणद्धसंवरवम्मो सम्मत्तवाहणारूढो । सुदणाणमहाधणुगो झाणादितवोमयसरेहि ।।१८४९॥ ‘एवं पिणद्धसंवरवम्मो' एवं पिनद्धसंवरकवचः, सम्यक्त्ववाहनारूढः, श्रुतज्ञानचापधरः, ध्यानादितपोमयशरैः ॥१८४९॥ संजमरणभूमीए कम्मारिचमू पराजिणिय सव्वं । पावदि संजमजोहो अणोवमं मोक्खरज्जसिरिं ॥१८५०॥ 'संजमरणभूमीए' संयमयुद्धाङ्गणे कर्मारिचमू सर्वामभिभूय प्राप्नोति संयतयोधः अनुपमा मोक्षराज्यश्रियं । निर्जरा ॥१८५०॥ गा०-जैसे सुवर्ण पाषाणको महान् अग्निसे फूंकने पर उसमेंसे सोना अलग हो जाता है । उसी प्रकार तपरूपी आगसे तपानेपर कर्मरूपी धातुसे घिरा हुआ जीव शुद्ध हो जाता है ।।१८४७।। इस परसे कोई शंका करता है कि यदि तपसे जीव शुद्ध होता है तो तप ही करना चाहिए, संवरकी क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर देते हैं गा० -जिनागममें संवरके बिना केवल तपसे ही सब कर्मो का विनाश नहीं कहा है। क्योंकि यदि तालाबमें जल आता रहता है तो तालाबको पूर्णरूपसे सुखाया नहीं जा सकता ॥१८४८॥ गा०-अतः जिसने संवररूप कवच धारण किया है, जो सम्यक्त्वरूपी रथपर सवार है, और श्रुतज्ञानरूपी धनुष लिये हुए है वह संयमरूपी योद्धा संयमरूपी रणभूमिमें ध्यान आदि तपोमय बाणोंके द्वारा समस्त कर्मरूपी शत्रुओंकी सेनाको पराजित करके मोक्षरूपी अनुपम राज्यलक्ष्मीको प्राप्त करता है ।।१८५०॥ निर्जरानुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। १. धम्मो तह -अ० आ० । Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८२७ धर्मगुणानुप्रेक्षणायोच्यते जीवो मोक्खपुरक्कडकल्लाणपरंपरस्स जो भागी। भावेणुववज्जदि सो धम्मं तं तारिसमुदारं ॥१८५१॥ 'जीवो मोक्खपुरक्कडकल्लाणपरपरस्स जो भागो' यो जीवः मोक्षावसानकल्याणपरंपराया भाजनभूतः । स धर्म भावेन प्रतिपद्यते, तं तादृशमुदारं सकलसुखसंपादनक्षमं महान्तं धर्म ॥१८५१।। धम्मेण होदि पज्जो विस्ससणिज्जो पिओ जसंसी य। सुहसज्झो य णराणं धम्मो मणणिन्वुदिकरो य ॥१८५२॥ 'धम्मेण होदि पुज्जो' धर्मेण पूज्यो भवति । विश्वसनीयः प्रियो यशस्वी च भवति, सुखेन च साध्यो नराणां धर्मः । उक्तं च-दृष्टे श्रुते च विदिते स्मृते च धर्मे फलागमो भवतीति, मनसो निर्वृत्ति च करोति ॥१८५२॥ जावदियाई कल्लाणाई' माणुस्स-देवलोगे य । आवहदि ताण सव्वाणि मोक्खं सोक्खं च वरधम्मो ॥१८५३॥ 'जावदिगाई कल्लाणाइ' यावंति कल्याणानि स्वर्ग मनुष्यलोके च तानि सर्वाण्याकर्पति धर्मो मोक्ष सुखं च ॥१८५३॥ ते धण्णा जिणधम्म जिणदिटुं सव्वदुक्खणासयरं । पडिवण्णा दिढधिदिया विसुद्धमणसा णिरावेक्खा ॥१८५४॥ 'ते घण्णा' पुण्यवन्तः । जिनदृष्टं धर्म सर्वदुःखनाशकरं प्रतिपन्नाः शुद्धेन मनसा दृढधृतिका, निर्व्याकुलाः ।।१८५४।। अब धर्मानुप्रेक्षाका कथन करते हैं गा०-जो जीव सुदेवत्व सुमानुषत्व आदि कल्याण परम्पराके साथ अन्तमें मोक्षको प्राप्त करता है वही समस्त सुख सम्पादनमें समर्थ महान् धर्मको भावपूर्वक धारण करता है । अर्थात् भावपूर्वक धर्मका पालन करनेसे सांसारिक सखके साथ मोक्षसुख प्राप्त होता है॥१८५।। गा०-धर्मसे मनुष्य पूज्य होता हैं. सबका विश्वासपात्र होता है, सबका प्रिय और यशस्वी होता है। मनुष्य धर्मको सुखपूर्वक पालन कर सकते हैं। कहा भी है-धर्मकी श्रद्धा करनेपर, धर्मको सुननेपर, धर्मको जानने और धर्मका स्मरण करनेपर फलकी प्राप्ति होती है। तथा धर्मसे मनको शान्ति मिलती है ॥१८५२॥ ___ गा०-मनुष्यलोक और देवलोकमें जितने कल्याण हैं उन सबको उत्तमधर्म लाता है और अन्तमें मोक्षसुखको भी लाता है ॥१८५३॥ गा०-जिन्होंने जिन भगवान्के द्वारा कहे गये और सब दुःखोंका नाश करनेवाले जिन धर्मको दृढ़ धैर्यके साथ निर्मल मनसे और बिना किसी प्रकारको अपेक्षाके धारण किया वे पुण्यशालो हैं ।।१८५४॥ १. इं सग्गे य मणुअलोगे य -मु० ! १०४ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ भगवती आराधना विसयाडवीए उम्मग्गविहरिदा सुचिरमिंदियस्सेहिं । जिणदिट्ठणिव्वदिपहं धण्णा ओदरिय गच्छंति ॥१८५५।। ____ "विसयाडवीए' विषयाटव्यां उन्मार्गविहारिण सुचिरमिन्द्रियाश्वबलान्नीताः सन्तः ये च जिनदृष्टनिवृत्तिमार्ग गच्छन्ति ते धन्या इन्द्रियाश्वेभ्योऽवरुह्य ॥१८५५।। रागेण य दोसेण य जगे रमंतम्मि वीदरागम्मि । धम्मम्मि णिरासादम्मि रदी अदिदुल्लहा होइ ॥१८५६॥ 'रागेण य दोसेण य जगे रमंतम्मि' रागद्वेषाभ्यां सह जगति क्रीडति । वीतरागे धर्मे निरास्वादे रतिरतीव दुर्लभा भवति । उक्तं च कुलंच रूपं च यशश्च कोतिर्धनं च विद्या चं सुखं च लक्ष्मीः । आरोग्यमाज्ञप्सितसप्रयोगो द्वेष्यवियोगोऽपि च दीर्घमायुः॥ स्वर्गश्च मोक्षश्च मयोपदिष्टा भावा इमेऽन्ये च जगत्प्रशस्ताः। धर्मेण शक्या जगतीह लब्धु, हिताय तं कतु मतोऽर्हसि त्वं' ।। [॥१८५६।। ] सहलं माणुसजम्मं तस्स हवदि जस्स चरणमणवज्जं । संसारदुक्खकारयकम्मागमदारसंरोधं ॥१८५७।। 'सहलं माणुसजम्म' तस्य मनुष्यस्य जन्म सफलं भवति यस्य चरणमनवद्यं । कीदृशं ? संसारदुःखसंपादनोद्यतकर्मागमद्वारनिरोधकारी । अनेन चारित्रमिह शब्दो धर्मत्वेनोच्यत इत्याख्यातं भवति ।।१८५७।। जह जह णिव्वेदसमं वेरग्गदयादमा पवढंति । तह तह अब्भासयरं णिव्वाणं होइ पुरिसस्स ।।१८५८॥ गा०-जो विषयरूपी वनमें इन्द्रियरूपी घोड़ोंके द्वारा बलपूर्वक ले जाये जाकर चिरकालसे कुमार्गमें विहार करते हैं और एक दिन उन इन्द्रियरूपी घोड़ेसे उतरकर जिन भगवान्के द्वारा कहे मोक्षमार्गमें चलने लगते हैं वे धन्य हैं ॥१८५५।।। ___ गा.-टी०--जो राग और द्वेषपूर्वक संसारके भोगोंमें फंसे हैं, स्वादरहित वीतराग धर्ममें उनकी रुचि होना अतिदुर्लभ है। कहा भी है-जिनेन्द्रदेवने कुल, रूप, यश, कीर्ति, धन, विद्या, सुख, लक्ष्मी, आरोग्य, इष्टसंयोग, अनिष्ट वियोग, दीर्घ आयु, स्वर्ग, मोक्ष तथा अन्य भी जगत्में प्रशस्त भाव कहे हैं । इस जगत्में उन्हें धर्मके द्वारा प्राप्त करना शक्य है। अतः तुम अपने हितके लिये धर्माचरण करो ॥१८५६।। ___ गा०-संसारके दुःखोंको करनेमें समर्थ कर्मो के आनेके द्वारको रोकनेवाला चारित्र जिसका निर्दोष है उसका मनुष्य जन्म सफल है। यहाँ धर्म शब्दसे चारित्र कहा है, इससे यह प्रकट होता है ।।१८५७॥ गाo-जैसे-जैसे मनुष्यमें वैराग्य, निर्वेद, उपशम, दया और चित्तका निग्रह बढ़ता है वैसे-वैसे मोक्ष निकट आता है ॥१८५८।। Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८२० यथा यथा निर्वेद उपशमो वैराग्यं दया चित्तनिग्रहश्च प्रवर्तते तथा तथा समीपतरं भवति निर्वाणं पुरुषस्य ।।१८५८॥ धर्म स्तौति सम्मसणतुंबं दुवालसंगारयं जिणिंदाणं । वयणेमियं जगे जयइ धम्मचक्कं तवोधारं ॥१८५९।। 'सम्मसणतुंब' सम्यग्दर्शनतुम्बं द्वादशाङ्गारकं व्रतनेमिकं तपोधारं जिनेन्द्राणां धर्मचक्रं जगति जयति ॥१८५९॥ धम्म । बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कथ्यते दंसणसुदतवचरणमइयम्मि धम्मम्मि दुल्लहा बोही । जीवस्स कम्मसत्तस्स संसरंतस्स संसारे ॥१८६०॥ 'दसणसुदतवचरणमइयम्मि' दर्शनश्रु ततपश्चरणमये धर्मे दुर्लभा वोधिर्जीवस्य कर्मसक्तस्य संसारे संसरतः ॥१८६०॥ तस्या दुर्लभतां प्रकटयत्युत्तरप्रबन्धेन संसारम्मि अणंते जीवाणं दुल्लह मणुस्सत्तं । जुगसमिलासं जोगो जह लवणजले समुद्दम्मि ।।१८६१॥ __'संसारम्मि अणते' अनन्तसंसारे जीवानां मनुष्यत्वं दुर्लभं पूर्वापरसमुद्रनिक्षिप्तयुगतत्संबंधिकाष्ठसंयोग इव ॥१८६१॥ गा०—जिनेन्द्रका धर्मचक्र जगत्में जयशील होता है। सम्यग्दर्शन उसकी नाभि है, द्वादशांग उसके अर हैं, व्रत नेमि है और तप धारा अर्थात् दूसरी नेमि है ॥१८५८॥ विशेषार्थ-जैसे गाड़ोके चक्केमें अर होते हैं, बीचमें उसकी नाभि होती है। उसी प्रकार जिनेन्द्र के धर्मचक्रकी नाभि सम्यग्दर्शन है। द्वादशांगवाणी या बारह तप उसके डण्डे हैं। और व्रत नेमि है। इनके आधारपर वह धर्मचक्र गतिशील होता है ।।१८५९॥ धर्मानुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। अब वोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं गा०-संसारमें भटकते हुए कर्मलिप्त जीवके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् तपश्चरणमयी धर्ममें बोधि अर्थात् रत्नत्रयकी प्राप्ति दुर्लभ है ।।१८६०।। आगे उसकी दुर्लभता बतलाते हैं गा०-जैसे लवणसमुद्रके पूर्व भागमें जुआ और पश्चिम भागमें उसकी लकड़ी डाल देनेपर दोनोंका संयोग दुर्लभ है। उसी प्रकार अनन्त संसारमें मनुष्य भवका पाना दुर्लभ है ॥१८६१।। Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० भगवती आराधनों मनुजताया दुर्लभत्वे कारणमाह असुहपरिणामबहुलत्तणं च लोगस्स अदिमहल्लत्तं । जोणिबहुत्तं च कुणदि सुदुल्लहं माणुसं जोणी ॥१८६२॥ 'असुहपरिणामबहुलत्तणं च' अशुभपरिणामानां मिथ्यात्वासंयमकषायप्रमादानां परिणामानां बहुत्वं मनुजयोनिदुर्लभतां करोति । मनुजरहितलोकस्यातिमहत्त्वं च तत् दुर्लभतां करोति । असंख्येया हि द्वीपसमुद्रका नारकावासाः, स्वर्गपटलानि, इतरश्च लोकाकाशमतिमहत् । योनीनां बहुत्वं चेतरासां निबन्धनं तदुर्लभतायाः ॥१८६२।। अपरामपि दुर्लभतापरम्परां दर्शयत्युत्तरगाथा "देसकुलरूवमारोग्गमाउगं बुद्धिसवणगहणाणि । लद्धे वि माणुसत्ते ण हुँति सुलभाणि जीवस्स ॥१८६३।। 'देसकुलरूवमारोग्गं' 'देशकुलरूपमारोग्यं । आयुगमायुष्कं । 'बुद्धिसवणगहणाणि' बुद्धिश्रवणग्रहणानि । लब्धेऽपि मनुष्यत्वे मनुष्यगतिनामकर्मोदयात्, जिनप्रणीतधर्मप्रगल्भमानवबहुलो देशो दुर्लभः । अन्तर्वीपानां शकयवनकिरातबर्बरपारसीकसिंहलादिदेशानां धर्मज्ञमानवरहितानामतिबहुलत्वात् । लब्धेऽपि देशे सुजनावासे मनुष्य पर्यायकी दुर्लभताका कारण कहते हैं गा०-टी०-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमादरूप अशुभ परिणामोंकी बहुतायतके कारण मनुष्य योनि दुर्लभ है । तथा मनुष्य रहित लोक अतिमहान् है इससे भी मनुष्ययोनि दुर्लभ हो क्योंकि असंख्यात द्वीप समुद्रों तक तो नरकावास है, ऊपर स्वर्गपटल । शेष लोकाकाश भी महान् है । तथा जीवोंकी योनियां बहुत हैं। इससे भी मनुष्य योनि दुर्लभ है ।।१८६२।। विशेषार्थ-लोकके मध्यमें पैतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्र ही मनुष्य लोक है। अढ़ाई द्वीपकेबाहर सब तिर्यञ्च ही रहते हैं । नारकी रहते हैं। ऊपर देव रहते हैं । तथा जीवोंका योनियाँ भी बहुत हैं इसके साथ ही अशुभ परिणामोंकी भी बहुलता है । शुभ परिणाम होनेसे ही मनुष्यगतिमें अच्छा क्षेत्र, जाति, कुल आदि उपलब्ध होते हैं तभी तो मनुष्य होकर धर्मलाभ हो सकता है। मनुष्य पर्याय भी पाई किन्तु देश, कुल, जाति ठीक नहीं मिले तो मनुष्य पर्याय पाकर भी क्या लाभ हुआ । अतः धर्मसाधनके योग्य मनुष्य पर्याय दुर्लभ है ।।१८६२।। आगे और भी दुर्लभताके कारण कहते हैं . गा०-जीवके मनुष्य पर्याय प्राप्त करने पर भी देश, कुल, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, श्रवण, ग्रहण सुलभ नहीं हैं ॥१८६३॥ टी-मनुष्यगति नाम कर्मके उदयसे मनुष्यपर्याय पानेपर भी जिन भगवान्के द्वारा कहे गये धर्ममें दक्ष मनुष्योंसे भरा हुआ देश प्राप्त होना दुर्लभ है। क्योंकि धर्मके ज्ञाता मनुष्योंसे रहित अन्तर्वीप तथा शक, यवन, किरात, बर्बर, पारसीक और सिंहल आदि देश अनेक हैं । १. 'देसकुल जाइ रूवं, आरोग्गं आउगं च पुण्णं च । बुद्धिसवणगहणाणि लद्धे णरत्तेहिं दुल्लहं होई ॥' -आ० । Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यादिकं कुलं दुरधिगमनीयं सुकुला'नामल्पत्वात् असकृन्नीचैर्गोत्रबन्धनात् । मिथ्यात्वोदयात् प्रायेण प्राणिनो गुणान् गुणिजनं च निन्दन्त्याक्रोशन्ति, निर्गुणोऽपि कुलाभिमानमतिमहदुद्वहति, तेन नीचैर्गोत्रमुपचिनोति, गुणे गुणिजने चानुरागः कुलाभिमानतिरस्करणं वा कदाचिदेव भवति इति शोभनं कुलं कदाचिदेव लभ्यते । चारित्रमोहोदयात षड़जीवनिकायबाधाकरणे सततमद्यतः तदीयरूपशोभोन्मूलनसंपादनेनोपाजितेनाशुभरूपनामकर्मणा विरूपो बहशो भवति । जीवदयां कदाचिदेव क्वचिदेव करोति । प्रशस्तरूपनामकर्मलभ्यं सौरूप्यमपि क्लेशेन लभ्यते । परजीवसंतापकरणे कृतोत्साहः सर्वदैवेति रोगी भवति बहशः, परसंतापपरिहारं वैयावृत्यं च कदाचिदेव करोति । इति नीरोगतापि कादाचित्की दुर्लभा । परेषां प्रायेणायुनिहन्तीति स्वल्पायुरेवायं जनो जायते । कदाचिदेवाहिंसावतपरिपालनाचिरंजीविता सदा न लभ्यते । समीचीनज्ञानिजनदूषणात तन्मात्सर्यात तद्विघ्नकरणात्तदासादनाच्चक्षरादीन्द्रियोपघातकरणाच्च मतिश्रुतज्ञानावरण बराको बध्नातीति दुर्मधा भवति । बहुषु जन्मशतसहस्रेषु मतिश्रु तज्ञानावरणक्षयोपशमात् शुभपरिणामोपनीतात् कदाचिदेव विवेककारिणी बुद्धिर्भवति । सत्यामपि बुद्धौ हिताहितविचारणक्षमं धर्मश्रवणमतिदुर्लभं, यतीनां विरागद्वेषाणां, समीचीनज्ञानप्रकाशनोन्मलितदुर्भेद्यमोहान्धतानां, अशेषजीवनिकायदयाक्रियोद्यतानां असौलभ्यात्, तीव्रमिथ्यादर्शनोपनीतगुणिजनद्वेषेण मिथ्याज्ञानलवलाभदुर्विदग्धतया स्वगृहीततत्त्वपरवशतया आलस्येन वा यतीनां धर्मज्ञजनोंसे बसा हुआ देश मिलनेपर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि कुल मिलना कठिन है क्योंकि अच्छे कुल बहुत कम हैं। और इसका कारण यह है कि जीवोंके निरन्तर नीच गोत्रका बन्ध हुआ करता है। मिथ्यात्वके उदयसे प्रायः प्राणी गुणों और गुणीजनोंकी निन्दा करते हैं, उनके सम्बन्धमें बका करते हैं। गुणहीन भी अपने कुलका नव अभिमान रखते हैं। उससे वे नीच गोत्रका बन्ध करते हैं । गुणोंमें और गुणीजनोंमें अनुराग तथा कुलके अभिमानका तिरस्कार कम ही देखा जाता है । इसलिये जीवोंको अच्छा कुल कम ही मिलता है। चारित्रमोहके उदयसे जीव छह कायके जीवोंको बाधा देने में निरन्तर लगे रहते हैं वे उनके रूपकी शोभाको विनष्ट करते हैं। उससे उपार्जित अशुभ नामकर्मसे जीव अधिकतर विरूप होते हैं। जीवोंपर दया कम ही लोग करते हैं । अतः प्रशस्त रूपनामकर्मके द्वारा प्राप्य सुन्दर रूप भी बड़े कष्टसे प्राप्त होता है। प्राणी सर्वदा दूसरे जीवोंको संताप देनेका उत्साह रखते हैं। इसलिये अधिकतर रोगी होते हैं । दूसरोंका कष्ट दूर करनेवालो वैयावृत्य कम ही करते हैं। इसलिये नीरोगता भी दुर्लभ है । प्राणी प्रायः दूसरोंकी आयुका घात करते हैं उन्हें मार देते हैं। इससे वे अल्प आयुवाले होते हैं । कदाचित् ही अहिंसाव्रतका पालन करनेसे चिरजीवि होते हैं, सदा चिरजीवी नहीं होते। सच्चे ज्ञानिजनोंको दूषण लगानेसे, उनसे डाह करनेसे, उनके ज्ञानाराधनमें विघ्न डालनेसे, उनकी आसादना करनेसे तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंका घात करनेसे प्राणी मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मो का बन्ध करनेसे बुद्धिहीन होते हैं । लाखों जन्मोंमेंसे कुछ ही जन्मोंमें शुभपरिणामवश मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेसे विवेकशील बुद्धि प्राप्त होती है । बुद्धि प्राप्त होनेपर भी हित अहितके विचारमें समर्थ धर्मका सुनना दुर्लभ है। क्योंकि रागद्वषसे रहित, सच्चे ज्ञानके प्रकाशनसे दुर्भेद्य मोहान्धकारका उन्मूलन करनेवाले और समस्त जीवोंपर दया करनेवाले मुनिगण दुर्लभ हैं। तथा तीव्र मिथ्यादर्शनके कारण गुणीजनोंसे द्वेष करनेवाले या थोड़ा-सा मिथ्याज्ञान प्राप्त करके अपनेको बड़ा विद्वान् माननेवाले या अपने जाने हुए तत्त्वके १. नामसुलभत्वात् -आ० । Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२ भगवती आराधना . स्वपरोद्धरणप्रवीणतापरिज्ञानाच्च न ढोकते यतिजनमिति धर्मश्रवणस्य दुर्लभता । कदाचिदेव पापोपशमाद्यतिजनानु'ढोकनेऽपि नयपुरस्सरे संप्रश्ने प्रशस्तवागनुयायिनि गुरुजने चाभिमुखे सति श्रवणं भवतीति दुर्लभता श्रवणस्य । किञ्च यतिजननिकेतनमुपगतोऽपि यदच्छया निद्राति, स्वयं परेषां यत्किचिदसारं वदति, मुग्धानां वा वचनं श्र णोति न विनयेन ढोकत इति वा दुर्लभं श्रवणं । श्रतेऽपि धर्मे तत्परिज्ञानमतिदुर्लभं श्र तज्ञानावरणोदयात् । दुःकरत्वं मनःप्रणिधानस्य कदाचिदप्यश्र तपूर्वत्वात, सूक्ष्मत्वाच्च जीवादितत्त्वस्य । श्र तज्ञानाधिकरणे क्षयोपशमे मनःप्रणिधानं वक्तुर्वचनसौष्ठवं चेति सकलमिदमसुलभमिति धर्मज्ञानं दुर्लभं । ज्ञातेऽपि धर्मे अस्ति धर्मो जीवपरिणामसम्यक्त्वज्ञानचरणतपोदानप्रजात्मकोऽभ्यदयनिश्रयसफलदायी जिनावणितरूपइति श्रद्धानं न सुखेन लभ्यते, दर्शनमोहोदयात् । उपदेशकालकरणलब्धयश्च कादाचित्का इति ।।१८६३।। लद्धेसु वि तेसु पुणो बोधी जिणसासणम्मि ण हु सुलहा । कुपधाकुलो य लोगो जं बलिया रागदोसा य ॥१८६४।। 'लद्ध सु वि तेसु पुणों' लब्धष्वपि तेषु मनुजभवादिषु बोधिर्दीक्षाभिमुखा बुद्धिर्न सुलभा प्रबलत्वात्संयमघातिकमणः । कुमार्गाकुलत्वात् लोकस्य बहूनामाचरणमेव प्रमाणयन् यत्किचनाचरति, बलवन्तश्च रागद्वषाः ज्ञानश्रद्धानोपेतमपि न सन्माग ढौकित् ददति ॥१८६४।। परवश मनुष्योंके कारण या यतिगणके आलस्यसे अथवा अपना और दूसरोंका उद्धार करने में दक्ष न होनेसे यतिजन भी नहीं आते हैं इससे भी धर्मश्रवणकी दुर्लभता है। कदाचित् पापका उपशम होनेसे यतिजनके पधारनेपर भी विनयपूर्वक प्रश्न करनेपर और प्रशस्त वचन बोलनेवाले गुरुके सन्मुख होनेपर धर्म सुननेको मिलता है इसलिये धर्मश्रवणकी दुर्लभता है । अथवा मुनिगणके वास स्थानपर जाकर भी सोता है स्वयं जो कुछ असार वचन बोलता है या मूखों के वचन सुनता है, विनय पूर्वक बर्ताव नहीं करता। इससे भी धर्म श्रवण दुर्लभ है । धर्म सुननेपर भी श्रुतज्ञानावरणका उदय होनेसे उसको समझना अतिदुर्लभ है। तथा समझनेपर भी उसमें मन लगाना दुष्कर है क्योंकि पहले कभी नहीं सुना था । तथा जीवादि तत्त्व भी सूक्ष्म है। श्रुतज्ञानका क्षयोपशम, मनका लगना, वक्ताका वचन सौष्ठव ये सब दुर्लभ होनेसे धर्मज्ञान दुर्लभ है, धर्मका ज्ञान होनेपर भी 'जिन भगवान्के द्वारा कहा हुआ स्वर्ग और मोक्षरूप फलको देनेवाला, जीवके सम्यक्त्व, ज्ञान चारित्र तप दान पूजा भावरूप धर्म है' ऐसा श्रद्धान दुर्लभ है क्योंकि जीवोंके दर्शनमोहका उदय रहता है। उपदेशलब्धि, कालब्धि और करणलब्धि भी सदा नहीं होती, कदाचित् ही होती हैं ॥१८६३।। गा०-टो०-मनुष्यभव आदिके प्राप्त होनेपर भी 'बोधि' अर्थात् जिन दीक्षाकी ओर अभिमुख बुद्धिका होना सुलभ नहीं है क्योंकि जीवोंके संयमको घातनेवाला कर्म प्रबल होता है। तथा यह लोक मिथ्यामतोंसे भरा है। अतः बहुत लोग जिस धर्मका आचरण करते हैं उसे ही प्रमाण मानकर जो कुछ मनमें आता है, करते हैं। रागद्वषके बलवान होनेसे ज्ञान और श्रद्धानसे युक्त भी मनुष्य सन्मार्गपर नहीं चलता ॥१८६४।। १. नुपढौकते विनय -आ० । Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ७३३ इय दुल्लहाए बोहीए जो पमाइज्ज कह वि लद्धाए । सो उल्लट्टइ दुक्खेण रदणगिरिसिहरमारुहिय ॥१८६५।। 'इय दुल्लहाए वोहीए' उक्तेन क्रमेण दुर्लभायां दीक्षाभिमुखायां बुद्धो लब्धायामपि यः प्रमाद्यत्यसो रत्नगिरिशिखरमारुह्य ततः पतति प्रमादी ।।१८६५।। फिडिदा संती बोधी ण य सुलहा होइ संसरंतस्स । पडिदं समुद्दमझे रदणं व तमंधयारम्मि ।।१८६६॥ 'फिडिदा संतो' बोधिविनष्टा सती दीक्षाभिमुखा बुद्धिः पुनर्न सुलभा भवति संसरतः । अन्धकारे समुद्रमध्ये पतितं रत्नमिव ॥१८६६।। ते धण्णा जे जिणवरदिटे धम्मम्मि होंति संबुद्धा ।। जे य पवण्णा धम्म भावेण उवढिदमदीया ॥१८६७।। स्पष्टोत्तरा गाथा । बोधित्ति ।।१८६७।। प्रस्तुतमर्थमुपसंहरति इय आलंबणमणुपेहाओ धम्मस्स होंति ज्झाणस्स । ज्झायंतो ण वि णस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी ॥१८६८॥ 'इय आलंबणं' एवमालम्बनं भवन्त्यनुप्रेक्षा धर्मध्यानस्य । ध्याने प्रवृत्तो न विप्रणश्यति ध्याननिमित्तालम्बनेभ्यो यतिः । यो हि यद्वस्तुस्वरूपे प्रणिहितचित्तः सततं वस्तुयाथात्म्यान्न प्रच्यवते तस्याविस्मरणात् ।।१८६८॥ गा०-इस प्रकार उक्त क्रमानुसार दीक्षाके अभिमुख दुर्लभ बुद्धि प्राप्त होनेपर भी जो प्रमाद करता है वह प्रमादी सुमेरुके शिखरपर चढ़कर भी उससे गिरता है ।।१८६५।। ___गा०—जैसे अन्धकारमें समुद्रके मध्यमें गिरा रत्न पाना दुर्लभ है वैसे ही एक बार प्राप्त होकर नष्ट हुई दीक्षाभिमुख बुद्धिरूप बोधि संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवको प्राप्त होना दुर्लभ है ॥१८६६।। गा०-जो जिन भगवान्के द्वारा उपदिष्ट धर्ममें प्रबुद्ध होते हैं वे धन्य हैं। तथा जो दीक्षाभिमुख बुद्धिको प्राप्त करके भावपूर्वक धर्मको अपनाते हैं वे तो महाधन्य हैं ।।१८६७।। बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। प्रस्तुत चर्चाका उपसंहार करते हैं गा०-इस प्रकार अनुप्रेक्षा धर्मध्यानका आलम्बन होती है। ध्यान करनेवाला साधु ध्यानमें निमित्त आलम्ब नोंका आश्रय लेनेसे ध्यानसे च्युत नहीं होता । जो जिस वस्तुके स्वरूपमें अपने मनको लगाता है वह उस वस्तुके यथार्थस्वरूपसे च्युत नहीं होता, क्योंकि वह उसे भूलता नहीं है ।।१८६८|| Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ भगवती आराधना ध्यातुरालम्बनवाहुल्यं दर्शयत्युत्तरा गाथा आलंबणं च वायण पुच्छणपरिवट्टणाणुपेहाओ । धम्मस्स तेण अविरुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ ॥१८६९।। आलंबणेहि भरिदो लोगो झाइदुमणस्स खवयस्स । जं जं मणसा पिच्छदि तं तं आलंबणं हवइ ।।१८७०।। 'धम्मस्स आलंबणेहि भरिदो' ध्यानस्यालम्बनः पूर्णो लोको ध्यातुकामस्य क्षपकस्य यद्यन्मनसा पश्यति तत्तदालम्बनं भवति ।।१८६९।।१८७०॥ धर्मध्यानं व्याख्याय ध्यानान्तरं व्याख्यातुमुत्तरप्रबन्धः इच्चेवमदिक्कंतो धम्मज्झाणं जदा हवइ खवओ। सुक्कज्झाणं झायदि तत्तो सुविसुद्धलेस्साओ ॥१८७१॥ 'इच्चेवमदिक्कतो' धर्मध्यानमेवं व्यावणितरूपमतिक्रान्तो यदा भवेत् क्षपकः शुक्लध्यानमसौ ध्याति सुविशुद्धलेश्यासमन्वितः । परिणामश्रेण्या हि उत्तरोत्तरानगणतया स्थितः क्रमेणव प्रवर्तते । न हि प्रथमे सोपानेऽस्थापितचरणः द्वितीयादिकं सोपानमारोढुं प्रभवति । एवमप्रमत्तो धर्मध्याने प्रवृत्त एव शुक्लध्यानमहतीति सूत्रेणानेन ज्ञापितं ॥१८७१।। चतुर्विधशुक्लध्यानं नामतो दर्शयति गाथाद्वयम् ज्झाणं पुषत्तसवितक्कसवीचारं हवे पढमसुक्कं । . सवितक्केक्कत्तावीचारं ज्झाणं विदियसुक्कं ॥१८७२।। आगेकी गाथासे ध्यान करनेवालेके अनेक आलम्बन बतलाते हैं गा०-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना तथा अनुप्रेक्षाएँ नामक स्वाध्याय धर्मध्यानके आलम्बन है। अतः सब अनुप्रेक्षा धर्मध्यानके अनुकूल आलम्बन हैं अर्थात् उनको लेकर धर्मध्यान किया जाता है ॥१८६९|| ध्यान करनेके इच्छुक क्षपणके लिये यह लोक आलम्बनोंसे भरा हुआ है । वह मनको जिस ओर लगाता है वही आलम्बन हो जाता है ।।१८७०।। . धर्मध्यानका कथन करके शुक्लध्यानका कथन करते हैं ___ गा०-टी०-इस प्रकार ऊपर कहे धर्मध्यानको जब क्षपक पूर्ण कर लेता है तब वह अति विशुद्ध लेश्याके साथ शुक्लध्यानको ध्याता है । क्योंकि परिणामोंकी पंक्ति उत्तरोत्तर निर्मलताको लिये हुए स्थित है अतः वह क्रमसे ही होती है। जिसने पहली सीढ़ीपर पैर नहीं रखा वह दूसरी सीढ़ीपर नहीं चढ़ सकता। अतः धर्मध्यानमें परिपूर्ण हुआ अप्रमत्त संयमी ही शुक्लध्यान करने में समर्थ होता है, यह बात इस गाथाके द्वारा कही है ॥१८७१।। आगे दो गाथाओंके द्वारा चार प्रकारके शुक्लध्यानोंके नाम कहते हैं गा०-पहला शुक्लध्यान पृथक्त्व सवितर्क सविचार नामक है। दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क एकत्व अविचार नामक है ॥१८७२।। Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३५ विजयोदया टीका 'ज्झाणं धत्तसवितक्कसवीचारं' ध्यानं पृथक्त्वसवितर्कसवीचारं प्रथमशुक्लं भवति । सवितक्कक्कत्तावोचारं' सवितर्केकत्वावीचारं द्वितीयं शुक्लध्यानं ॥१८७२॥ सुहमकिरियं तु तदियं सुक्कज्झाणं जिणेहिं पण्णत्त । वेंति चउत्थं सुक्कं जिणा समुच्छिण्णकिरियं तु ।।१८७३॥ 'सुहुमकिरियं तु तदियं' तृतीयं शुक्लध्यानं जिनः प्रज्ञप्तं सूक्ष्मक्रियमिति । 'वेति चउत्थं सुक्कं' ब्रुवते चतुर्थं शुक्लं जिनाः समुच्छिन्नक्रियं ॥१८७३॥ पृथक्त्वसवितर्कसवीचारं व्याचष्टे गाथात्रयेण दव्वाइ अणेयाइं तीहिं वि जोगेहिं जेण ज्झायंति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुत्तत्ति तं भणिया ॥१८७४॥ 'दव्वाइं अणेयाई तोहि वि जोएहि जेण ज्झायंति' द्रव्याण्यनेकानि त्रिभिर्योगः परावर्तमाना येन चिन्तयन्त्युपशान्तमोहनीयास्तेन पृथक्त्वमिति प्रथमध्यानमुक्तम्, एतदर्थं कथयति-अन्यदन्यद्रव्यमवलम्ब्य प्रवृत्तेनान्येनान्येन योगेन प्रवृत्तस्यात्मनो भवतीति पृथक्त्वव्यपदेशो ध्यानस्येति ॥१८७४॥ जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा पुन्वगदअत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सवितक्कं तेण तं झाणं ॥१८७५।। 'जम्हा सुदं वितक्क' यस्मात् श्रुतं वितकं यस्मात् पूर्वगतार्थकुशलो ध्यानमेतत्प्रवर्तयति । तेन तत् ध्यानं सवितकं । चतुर्दशपूर्वाणां श्रुतत्वात्तदुपदिष्टोऽर्थः साहचर्यात् वितर्कशब्देनोच्यते। तेन वितर्केणार्थश्रुतेन ___ गा.-जिन भगवान्ने तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्मक्रिय कहा है और चतुर्थ शुक्ल समुच्छिन्नक्रिय कहा है ॥१८७३॥ आगे तीन गाथाओंसे पृथक्त्व सवितर्क सविचारका कथन करते हैं गा०-उपशान्त मोहनीय गुणस्थानवाले यतः तीन योगोंके द्वारा अनेक द्रव्योंको बदल बदलकर ध्यान करते हैं इससे इसे पृथक्त्व कहते हैं ॥१८७४।। विशेषार्थ-प्रथम शक्लध्यानका नाम पृथक्त्व है क्योंकि इसमें योगपरिवर्तनके साथ ध्येयका भी परिवर्तन होता रहता है इसलिये इसको पृथक्त्व कहते हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यानके स्वामियोंको लेकर मतभेद पाया जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में श्रेणीसे नीचे धर्मध्यान और श्रेणीमें शुक्लध्यान कहा है । श्रेणि आठवें गुणस्थानसे प्रारम्भ होती है। अतः आठवेंसे ही पृथक्त्व शुक्लध्यान कहा है । किन्तु यहाँ ग्यारहवें गुणस्थानमें पृथक्त्व शुक्लध्यान कहा है । श्वेताम्बर परम्परामें भी ऐसा ही माना गया है। वीरसेन स्वामीने धवला टीका ( १३, पृ०७४ ) में भी ऐसा ही लिखा है। उनका कथन है कि कषायसहित जीवोंके धर्मध्यान होता है और कषायरहित जीवोंके शुक्लध्यान होता है। क्योंकि कषायका अभाव होनेसे ही उसका नाम शुक्लध्यान है । इस प्रथम शुक्लध्यानमें योगका और ध्येयका परिवर्तन होते रहनेसे इसे पृथक्त्व नाम दिया है ॥१८७४।। गा० टी०-यतः श्रुतज्ञानको वितर्क कहते है और यतः चौदह पूर्वो में आये अर्थमें कुशल १०५ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ध्येयेन सह वर्तत इति श्रुतज्ञानमेवावलम्ब्य सवितर्कमित्युच्यते । अथवा वितर्कशब्दः श्रुतं तद्धद्धतुत्वात् । श्रुतज्ञा ध्यानसंज्ञितं सह कारणेन श्रुतेन वर्तत इति सवितर्कः ॥१८७५।। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥१८७६॥ 'अत्याण वंजणाण य जोगाण य संकमो खु वीचारो' अर्थानां ये व्यञ्जनाः शब्दास्तेषामिति, वैयधिकरण्येन सम्बन्धः, न पुनरर्थानां व्यञ्जनानां चेति समुच्चयः । अर्थपृथक्त्वस्य पृथक्त्वशब्देनोपादानात् । योगानां च संक्रमो वीचारः 'तस्स य भावेण' वीचारस्य सद्भावेन । 'तयं' तद्धि शुक्लध्यानं सूत्रे सवीचारमित्युक्तं । 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला' इत्येवमा दिपरिमितानेकद्रव्यप्रत्यय परमश्रुतवाक्योद्भूतं ध्यानमिति पृथग्भूतद्रव्यालम्बनत्वेन रूपेण एकद्रव्यालम्बनात् एकत्ववितर्काद्भिद्यते योगत्रयसहायत्वादेकयोगादविचाराद्वितीयध्यानाद्भिद्यते । उपशान्तमोहनीयस्वामिकत्वात् क्षोणकषायस्वामिकाद्धयानाद्भिद्यते । सवितर्कत्वेन अवितर्काभ्यां तृतीयचतुर्थाभ्यां विलक्षणं । अत एव नामनिर्देशेनैव ध्यानान्तरविलक्षणं पृथक्त्वसवितर्कसवीचारमिति लक्षणमुक्तं ॥१८७६।। अर्थात् चौदह पूर्वो का ज्ञाता साधु ही इस शुक्लध्यानको ध्याता है इससे इस प्रथम शुक्लध्यानको सवितर्क कहते हैं। अर्थात् चौदह पूर्व श्रुतरूप होनेसे उनमें जो वस्तुविवेचन है उसको भी वितर्क शब्दसे कहते है। प्रथम शुक्लध्यानमें उस अर्थश्रुतरूप वितर्कका ध्यान किया जाता है इससे उसे सवितर्क कहते हैं । अथवा श्रुतका कारण होनेसे वितर्क शब्दका अर्थ श्रुत है । ध्यान श्रुतज्ञानकी संज्ञा है उसका कारण श्रुत है । तो अपने कारण श्रुतके साथ रहनेसे उसे सवितर्क कहते हैं।।१८७५।। गा०-टी०-तथा अर्थोके वाचक जो शब्द हैं उनके संक्रम अर्थात् परावर्तन को और योगोंके परिवर्तनको विचार कहते हैं। 'अत्थाण वंजणाण य' का अर्थ अर्थो के और व्यंजनोंके परिवर्तनको वीचार कहते हैं इस प्रकारसे समुच्चयरूप नहीं लेना चाहिये क्योंकि पृथक्त्व शब्दसे अर्थका पृथक्त्व ग्रहण किया है। इस वीचारके होनेसे इस शुक्लध्यानको आगममें सवीचार कहा है। 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' इत्यादि परिमित अनेक द्रव्योंका ज्ञान कराने में समर्थ श्रुतके वचनोंसे उत्पन्न हुआ यह ध्यान भिन्न-भिन्न द्रव्योंका आलम्बन करता है अतः एक ही द्रव्यका आलम्बन करनेवाले एकत्व वितर्क शुक्लध्यानसे भिन्न होता है। तथा पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान तीनों योगोंकी सहायतासे होता है और एकत्ववितर्क एक ही योगकी सहायतासे होता है। इससे भी वह इससे भिन्न पड़ता है। पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यानका स्वामी उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गणस्थानवर्ती होता है और एकत्ववितर्कका स्वामी क्षीणकषाय गणस्थानवर्ती होता है। इससे भी वह इससे भिन्न है। पृथक्त्ववितर्क वितर्क सहित होता है और तीसरा तथा चतुर्थ शुक्लध्यान वितर्क रहित होते हैं। अतः वह तीसरे और चतुर्थ शुक्लध्यानसे विलक्षण है। अतः पृथक्त्ववितर्क सवीचार नामसे ही अन्य ध्यानोंसे इसकी विलक्षणता प्रकट होती है। इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यानका लक्षण कहा है ।।१८७६।। १. माद्यपरि -आ० । २. यमपरशु -अ० मु० । -मादिपरिमितानेकद्रव्य प्रत्यायनपरश्रृत-मूलारा० | Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८३७ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेगेण अण्णदरगेण । खीणकसाओ ज्झायदि तेणेगत्तं तयं भणियं ॥१८७७॥ 'जेणेगमेव दव्वं जोगेणेगेण अण्णवरगेण' येनैकमेव द्रव्यं अन्यतरण योगेनैकेन सह वृत्तः, क्षीणकषायो ध्याति तेनैकत्वं तद्भणितं एकद्रव्यालम्बनत्वात् । अन्यतरयोगवृत्तेरेवात्मन उत्पत्तरेकत्वं ध्यानं क्षीणकषायस्वामिकं भवेत् ॥१८७७।। जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा पुव्वगदअत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सवितक्कं तेण तं ज्झाणं ।।१७७८॥ अत्थाण वंजणाण य जोगाणं संकमो हु वीचारो। तस्स अभावेण तयं झाणं अविचारमिति वृत्तं ॥१८७९॥ एकद्रव्यालम्बनत्वेन परिमितानेकसर्वपर्यायद्रव्यालम्बनात् प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाम्यां तृतीयचतुर्थाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्यानया गाथया निवेदिता। क्षीणकषायग्रहणेन उपशान्तमोहस्वामिकत्वात् । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाम्यां च भेदः । सवितर्कता पूर्ववदेव । पूर्वब्यावणितवीचाराभावादवीचारत्वं ॥१८७८-७९॥ विशेषार्थ-महापुराणके इक्कीसवें पर्वमें ध्यानका वर्णन करते हुए कहा है-अनेकपनेको पृथक्त्व कहते हैं और श्रुतको वितर्क कहते हैं। तथा अर्थ, व्यंजन और योगोंके परिवर्तनको वीचार कहते हैं । इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला मुनि एक अर्थसे दूसरे अर्थको, एक वाक्यसे दूसरे वाक्यको और एक योगसे दूसरे योगको प्राप्त होता हुआ इस ध्यानको ध्याता है। यतः तीनों योगोंके धारक और चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनिराज इस ध्यानको करते हैं अतः प्रथम शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार होता है। श्रुतस्कन्धरूपी समुद्र में जितना वचन और अर्थका विस्तार है वह इस शुक्लध्यान में ध्येय होता है और इसका फल मोहनीय कर्मका उपशम या क्षय है। यह ध्यान उपशान्त मोह और क्षीणमोह गुणस्थानमें तथा उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणिके शेष गुणस्थानोंमें माना गया है ।।१८७६॥ गा०-टी०-दूसरे शुक्लध्यानका नाम एकत्ववितर्क है क्योंकि इसमें एक ही. योगका अवलम्बन लेकर एक ही द्रव्यका ध्यान किया जाता है। अतः एक द्रव्यका अवलम्बन लेनेसे इसे एकत्व कहते हैं। यह ध्यान किसी एक योगमें स्थित आत्माके ही होता है । इसका स्वामी क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती मुनि होता है ॥१८७७॥ विशेषार्थ यहाँ एक शब्दका अर्थ है 'प्रधान' और समस्त छह द्रव्योंमें प्रधान एक आत्मा मदेव उपासकाध्ययन ( श्लोक ६२३ ) में कहा है-मनमें किसी विचारके न होते हए जब आत्मा आत्मामें लीन होता है उसे निर्बीजध्यान कहते हैं। यह निर्बीजध्यान एकत्ववितर्क ही है। अतः एक द्रव्य और एक योगका अवलम्बन करनेसे प्रथम शुक्लध्यानसे भिन्न है ॥१८७७॥ गा०-यतः श्रुतको वितर्क कहते हैं और यतः चौदह पूर्वगत अर्थमें कुशल मुनि ही इस ध्यानका ध्याता है। इससे दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क है। तथा अर्थ, व्यंजन और योगोंके परि १. नाप -आ० । Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ तृतीयध्यानमाचष्टे भगवती आराधना अवितक्कमवीचारं सुहुमकिरियत्तबंघणं तदियसुक्कं । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं ।। १८८० ।। 'अवितक्कमवीचारं ' श्रुतानालम्बनत्वादवितकं स्वयं श्रुतज्ञानं भवतीति वा अवितकं । पूर्वमालम्बीकृतादर्थादर्थान्तरालम्बनत्वं नाम वीचारो नास्तीत्यविचारं । 'सुहुमकिरियत्तबंधणं' सूक्ष्मक्रियास्येति सूक्ष्मक्रियः आत्मसम्बन्धनमाश्रयोऽस्येति सूक्ष्मक्रियाबन्धनः तृतीयशुक्लं । 'सुहुमम्मि काययोगे' सूक्ष्मकाययोगे सति प्रवृत्तेः भणितं सूक्ष्मक्रियमिति । 'तं सब्वभावगदं' तृतीयं शुक्लध्यानं त्रिकालगोचरानन्तसामान्य विशेषात्मक द्रव्यषट्कयुगपत्प्रकाशनस्वरूपं, द्रव्यषट्क समस्त स्वरूपयुगपत्प्रकाशनमेकमग्रं मुखमस्येति एकमुखतापि विद्यत इति ध्यानशब्दस्यार्थोऽभिमुखे विद्यते । 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमित्यत्र' सूत्रे चिताशब्दो ज्ञानसामान्यवचनः । तेन श्रुतज्ञानं क्वचिद्ध्यानमित्युच्यते, क्वचित्केवलज्ञानं क्वचिच्छुतज्ञानं क्वचिन्मतिज्ञानं मत्यज्ञानं वा यतोऽविचलत्वमेव ध्यानं, ज्ञानस्य तस्याविचलत्वं साधारणं सर्वज्ञानोपयोगानां ।। १८८० ॥ वर्तनको वीचार कहते हैं । उसके न होने से दूसरा शुक्लध्यान अवीचार कहा है ।। १८७८-७९ ॥ विशेषार्थ - प्रथम शुक्लध्यान परिमित अनेक द्रव्यों और पर्यायोंका अवलम्बन लेता है और दूसरा शुक्लध्यान एक ही द्रव्यका अवलम्बन लेता है । तथा तीसरे और चतुर्थ शुक्लध्यानोंका विषय समस्त वस्तु है क्योंकि केवलज्ञानका विषय सब द्रव्य और सब पर्याय है । अतः दूसरा शुक्लध्यान शेष तीनोंसे विलक्षण है । प्रथम शुक्लध्यानका स्वामी उपशान्तमोह होता है और दूसरेका क्षीणकषाय होता है तथा तीसरेका स्वामी सयोग केवली और चतुर्थका स्वामी अयोग केवली होता है । अतः स्वामीकी अपेक्षा भी दूसरा शुक्लध्यान शेष तीनोंसे भिन्न है । किन्तु प्रथम शुक्लध्यानकी तरह दूसरा भी सवितर्क है । और पूर्व कथित वीचारका अभाव होनेसे अवीचार ।।१८७८-७९ ।। अब तीसरे शुक्लध्यानका स्वरूप कहते हैं— गा० - टी० – तीसरे शुक्लध्यानका आलम्बन श्रुत नहीं है अथवा वह स्वयं श्रुतज्ञानरूप होता है इसलिये वितर्कसे रहित होता है । पूर्व में आलम्बन किये हुए अर्थको छोड़कर अर्थान्तरके आलम्बन करनेको वीचार कहते हैं । वह भी इसमें नहीं होता । अतः यह अवीचार है । इसमें श्वासोच्छ्वासादिक्रिया सूक्ष्म हो जाती है । तथा यह सूक्ष्मकाययोगके होनेपर होता है इसलिये इसे सूक्ष्मक्रिय कहते हैं । यह तीसरा शुक्लध्यान त्रिकालवर्ती अनन्त सामान्यविशेषात्मक धर्मो से युक्त छह द्रव्योंको एक साथ प्रकाशन करता है अंतः सर्वगत है । एक साथ समस्त छह द्रव्योंके समस्त स्वरूपको प्रकाशन करना ही इसका एकमात्र मुख होनेसे ध्यानका लक्षण 'एकाग्रचिन्ता निरोध:' इसमें रहता है । एकाग्रचिन्तानिरोध में चिन्ता शब्द ज्ञान सामान्यका वाचक है । अतः कहीं श्रुतज्ञानको ध्यान कहते हैं, कहीं केवलज्ञानको ध्यान कहते हैं, कहीं श्रुतअज्ञानको ध्यान कहते हैं, कहीं मतिज्ञान या मतिअज्ञानको ध्यान कहते हैं। क्योंकि निश्चलताका ही नाम ध्यान है । अतः ज्ञानकी निश्चलता सब ज्ञानोपयोगों में साधारण है । आशय यह है कि ज्ञानकी निश्चलताका ही नाम ध्यान है । अतः ध्यानका यह लक्षण सब निश्चल ज्ञानोपयोगों में घटित होता है । केवलीका ध्यान केवल ज्ञान मूलक होता है । अतः वह तो सर्वथा निश्चल ही होता है । इससे सूक्ष्मक्रिय नामक ध्यानमें भी ध्यानका लक्षण घटित होता है || १८८० ॥ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका सुहुमम्मि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कं । झायदि णिरुभिदु जे सुहुमत्तं कायजोगपि ॥१८८१।। 'सुहमम्मि कायजोगे' सूक्ष्मे काययोगे प्रवर्तमानः केवली तृतीयं शुक्लं ध्याति निरोर्बु तमपि सूक्ष्मं वा काययोगं ।।१८८१॥ - अवियक्कमवीचारं अणियट्टिमकिरियं च सीलेसिं । ज्झाणं णिरुद्धयोग अपच्छिम उत्तमं सुक्कं ।।१८८२।। 'अविदक्कमवीचारं' पूर्वोक्तवितर्कवीचाररहितत्वात् अवितर्कमवीचारं, 'अणियट्टि' सकलकर्मसातनमकृत्वा न निवर्तत इत्यनिवति । 'अकिरियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगपरिस्पन्दनक्रियाव्यापारत्वात् अक्रियं । 'सोलेसि' शीलानामीशः शीलेशः यथाख्यातचारित्रं । शीलेशस्य भावः शैलेश्य, तत्सहचारि ध्यानमपि शैलेश्यं । 'निरुद्धयोगं'। अपश्चिमं न विद्यते पश्चाद्धाविध्यानमस्मादित्यपश्चिमं । 'उत्तमं सुक्कं' परमं शुक्लं ॥१८८२॥ तं पुण णिरुद्धजोगी सरीरतियणासणं करेमाणो । सवण्हु अपडिवादी ज्झायदि ज्झाणं चरिमसुक्कं ॥१८८३॥ 'तं पुण' तच्चतुर्थ शुक्लध्यानं । निरुद्धयोगः सर्वज्ञः अप्रतिपातिव्यानं ध्याति 'शरीरत्रिकनाशं कुर्वन्, ____ गाo-अतः सूक्ष्मकाययोगमें स्थित केवली उस सूक्ष्म भी काययोगको रोकनेके लिये तीसरा शुक्लध्यान ध्याता है ।।१८८१॥ गा०-टी०—यह तीसरा शुक्लध्यान पूर्वोक्त वितर्क और वीचारसे रहित होनेसे अवितर्क और अवीचार होता है। समस्त कर्मो को नष्ट किये बिना समाप्त नहीं होता इसलिये अनिवति है । इसमें प्राण अपान श्वास उच्छ्वासका प्रचार, समस्त काययोग मनोयोग वचन योगरूप हलनचलन क्रियाका व्यापार नष्ट हो जाता है। इसलिये यह अक्रिय है। शीलोंके स्वामीको शीलेश कहते हैं। उसके भावको शैलेशीभाव कहते हैं वह है यथाख्यात चारित्र । उसके साथ होनेवाले ध्यानको भी शैलेशी कहा है। उससे सब कर्मो का आस्रव रुक जाता है अतः उसे निरुद्धयोग कहा है। इसके अनन्तर कोई ध्यान नहीं होता इससे इसे अपश्चिम कहा है। तथा यह परम शुक्लध्यान है ॥१८८२।। विशेषार्थ-शौलेशीभाव से यथाख्यात चारित्र लिया है किन्तु यथाख्यात चारित्र तो ग्यारहवें बारहवें गुणस्थानमें भी होता है किन्तु उसे शैलेशी नहीं कहा। क्योंकि शैलेशीपना तीसरे शुक्लध्यानकी अवस्थासे पहले नहीं होता, इसका कारण है कर्मोंका आस्रव होना । तथा तीसरेके पश्चात् भी चतुर्थ शुक्लध्यान होता है फिर भी तीसरेको विवक्षा भेदसे अपश्चिम कहा है ॥१८८२।। गा.-काययोगका निरोध करके अयोग केवली औदारिक तैजस और कार्मण शरीरों १. रक्रियना -आ० । Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० भगवती आराधना अयोगात्मपरिणामः केवलज्ञानं चतुर्थशुक्लं, तृतीयं तु सूक्ष्मकाययोगात्मपरिणामः केवलमिति भेदस्तृतीयचतुर्थयोः ।।१८८३॥ इय सो खवओ ज्झाणं एयग्गमणो समस्सिदो सम्म । विउलाए णिज्जराए वट्टदि गुणसेढिमारूढो ॥१८८४।। 'इय सो खवगो' एवमसौ क्षपकः, एकाग्रचित्तः सम्यग्ध्यानं समाश्रित्य विपुलायां कर्मनिर्जरायां वर्तते. 'गुणसेढिमारूडो' गुणश्रेणीमारूढः उपशान्तकषायादिकां ॥१८८४॥ . ध्यानमहात्म्यस्तवनार्थ उत्तरप्रबन्धः सुचिरं वि संकिलिटुं विहरंतं झाणसंवरविहूणं । ज्झाणेण संवुडप्पा जिणदि अंतोमुहुत्तेण ।।१८८५।। 'सुचिरमवि संकिलिठं विहरत' पूर्वकोटिकालं देशोनं क्लेशसहितचारित्रोद्यतं 'ज्झाणसंवरविहूणं' ध्यानाख्येन संवरेण विहीनं । 'जिणदि' जयति । कः ? ''आहोरत्तमेत्तेण झाणेण संबुडप्पा' अहोरात्रमात्रेण ध्यानेन संवृतात्मा ॥१८८५।।। एवं कसायजद्धमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं । ज्झाणविहूणो खवओ रगेव अणाउहो मल्लो ॥१८८६।। का नाश करता हुआ अन्तिम शुक्ल ध्यानको ध्याता है। सूक्ष्मकाय योग रूप आत्म परिणाम वाला सयोगकेवली तीसरे शुक्ल ध्यानको ध्याता है और अयोगरूप आत्मपरिणाम वाला अयोगकेवली चतुर्थ शुक्ल ध्यानको ध्याता है। यह तीसरे और चतुर्थ शुक्ल ध्यान में भेद है ॥१८८३।। विशेषार्थ-महापुराणमें कहा है-तीसरेके पश्चात् योगका निरोध करके आस्रव से रहित अयोगकेवली समुच्छिन्न क्रिय अनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यानको ध्याता है। एक अन्तर्मुहूर्त काल तक अतिनिर्मल उस ध्यानको करके शेष चार अघातिकर्मोंका विनाशकर मोक्षको प्राप्त होता है। अयोगकेवलीके उपान्त्य समय में बासठ और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं। उसके पश्चात् वह शुद्धात्मा ऊर्ध्वगमन स्वभावके कारण एक ही समयमें लोकके अन्त पर्यन्त जाकर सिद्धालयमें विराजमान हो जाता है ।।१८८३॥ गा०-इस प्रकार वह क्षपक एकानमन से सम्यक् ध्यान को ध्याकर उपशान्त कषाय आदि गुण स्थानों की श्रेणि पर आरूढ़ होकर विपुल कर्म निर्जरा करता है ॥१८८४॥ आगे ध्यानके माहात्म्यको कहते हैं गा०-एक अन्तमुहूर्त मात्र या एक दिन रात मात्र ध्यान रूप संवरसे युक्त मुनि, कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक ध्यानरूप संवरसे रहित तथा संक्लेशसहित चारित्र का पालन करने वाले साधुसे श्रेष्ठ है ॥१८८५॥ १. समण्णिदो-अ० । २. अहोरत्तमित्तेण अन्तोमुहूर्तेन कर्म जयति । अहोरात्रमात्रेण झाणेण संपडप्पा ध्यानेन संवृतात्मा कर्मकाण्डकोऽपि न जयति -आ० । ३. रणगोवा -आ० । जुद्धेव णिरावुधो होदि -मु० । Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८४१ ‘एवं कसायजुद्धंहि' कषायसंप्रहारे ध्यानमायुधं क्षपकस्य भवति । ध्यानहीनः क्षपकः युद्धे निरायुध इव न प्रतिपक्षं प्रहन्तुमलं । कषायविनाशकारित्वं ध्यानस्यानया कथितं ।।१८८६।। रणभूमीए कवचं व कसायरणे तयं हवे कवचं । जुद्धे व णिरावरणो झाणेण विणा हवे खवओ ।।१८८७।। 'रणभूमीए' युद्धभूमौ कवचवत्कषाययुद्धे ध्यानं कवचो भवति । एतेन कषायपीडारक्षां करोति ध्यानमित्याख्यातं । ध्यानाभावे दोषमाचष्टे । 'जुद्ध व णिरावरणों' युद्ध निरावरण इव भवति ध्यानेन विना क्षपकः ॥१८८७॥ ज्झाणं करेइ खवयस्सोवट्ठभं खु हीणचेट्ठस्स । थेरस्स जहा जंतस्स कुणदि जट्ठी उवटुंभं ॥१८८८।। 'झाणं करेदि' ध्यानं करोति क्षपकस्योपष्टम्भं हीनचेष्टस्य स्थविरस्य गच्छतो यथा करोति यष्टिरुपष्टम्भं ॥१८८८॥ मल्लस्स णेहपाणं व कुणइं खवयस्स दढबलं झाणं । झाणविहीणों खवओ रंगे व अपोसिओ मल्लो ।।१८८९।। 'मल्लस्स हपाणं व' मल्लस्य स्नेहपानमिव क्षपकस्य ध्यानं करोति। ध्यानहीनः क्षपको रङ्गे अपोषितो मल्ल इव न प्रतिपक्ष जयति ।।१८८९॥ वइरं रदणेसु जहा गोसीसं चंदणं व गन्धेसु । वेरुलियं व मणीणं तह ज्झाणं होइ खवयस्स ।।१८९०॥ गा०-टी०-इस प्रकार कषायोंके साथ युद्ध करने में अर्थात् कषायोंका संहार करने में ध्यान क्षपकके लिये आयुध होता है। अर्थात् ध्यानके द्वारा कषायोंका विनाश किया जाता है । जैसे विना अस्त्रके युद्ध में शत्रुका घात करना संभव नहीं है, उसी प्रकार ध्यान हीन क्षपक कषायों को नहीं जीत सकता। इससे ध्यानको कषायोंका विनाश करने वाला कहा है ।।१८८६|| गा०-टी०-जैसे युद्ध भूमिमें कवच होता है वैसे ही कषायोंसे युद्ध करनेमें ध्यान कवचके समान है। इससे कहा है कि ध्यान कषायसे रक्षा करता है। ध्यानके अभावमें दोष कहते हैं। जैसे युद्ध में कवचके विना योद्धा होता है वैसे ही ध्यान के विना क्षपक होता है। अर्थात् युद्धमें बिना कवचके योद्धाकी जो स्थिति है वही स्थिति ध्यानके विना क्षपक की होती है। वह भी उसी की तरह मारा जाता हैं ॥१८८७|| गा०-जैसे चलने में असमर्थ वृद्ध पुरुषको गमन करते समय लाठी सहायक होती है वैसे ही असमर्थ क्षपकका सहायक ध्यान होता है ।।१८८८॥ गा०-जैसे दुग्धपान मल्ल पुरुषके बलको दृढ़ करता हैं वैसे ही ध्यान क्षपककी शक्ति को दृढ़ करता है। जैसे अपुष्ट मल्ल अखाड़ेमें हार जाता है वैसे ही ध्यानसे रहित क्षपक कषायोंसे हार जाता है ।।१८८९।। १. कवचं होदि झाणं कसायजुद्धम्मि -मु० । Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ भगवती आराधना ____ 'वैरं रदणेसु जधा' यथा रत्नेषु वज्रं गन्धद्रव्येषु गोशीर्ष चन्दनं । मणिषु वैडूर्यमिव क्षपकस्य ध्यानं सर्वेषु दर्शनचरित्रतपस्सु सारभूतं ॥१८९०॥ झाणं किलेससावदरक्खा रक्खाव सावदभयम्मि । झाणं किलेसवसणे मित्तं मित्तेव वसणम्मि ॥१८९१॥ 'झाणं किलेससापदरक्खा' ध्यानं दुःखश्वापदानां रक्षा, श्वापदभये रक्षेव ध्यानं क्लेशव्यसने मित्रं, : व्यसने मित्रमिव ॥१८९१॥ ज्झाणं कसायवादे गब्भधरं मारुदेव गम्भघरं । झाणं कसायउण्हे छाही छाहीव उण्हम्मि ॥१८९२।। झाणं कसायडाहे होदि वरदहो दहोव डाहम्मि । झाणं कसायसीदे अग्गी अग्गीव सीदम्मि ॥१८९३॥ झाणं कसायपरचक्कभए बलवाहणड्डओ राया । परचक्कभए बलवाहणड्डओ होइ जह राया ॥१८९४॥ झाणं कसायरोगेसु होदि वेज्जो तिगिंछदे कुसलो । रोगेसु जहा वेज्जो पुरिसस्स तिगिंछओ कुसलो ॥१८९५॥ झाणं विसयछुहाए होइ य छुहाए अण्णं वा । झाणं विसयतिसाए उदयं उदयं व तण्हाए ॥१८९६।। स्पष्टार्थोत्तरगाथा ॥१८९२।।१८९३॥१८९४।।१८९५।।१८९६॥ गा०-जैसे रत्नोंमें हीरा, सुगन्धित द्रव्योंमें गोशीर्ष चन्दन और मणियोंमें वैडूर्यमणि सारभृत है । वैसे ही क्षपकके दर्शन चारित्र और तपमें ध्यान सारभूत है ॥१८९०॥ गा०-जैसे हिंसक जन्तुओंसे भय होने पर उनसे रक्षा वचाव करती है वैसे ही ध्यान दुःखरूपी हिंसक जन्तुओंसे रक्षा करता है। तथा जैसे संकट में मित्र सहायक होता है वैसे ही दुःखरूपी संकट में ध्यान सहायक होता है ।।१८९१॥ _गा०-जैसे गर्भगृह वायुसे रक्षा करता है वैसे ही ध्यान कषायरूपी वायुके लिये गर्भगृह है। जैसे घामसे बचनेके लिये छाया है वैसे ही कषायरूपी घामसे बचावके लिये ध्यान छायाके समान है ॥१८९२॥ ___ गा०-जैसे दाहके लिये उत्तम सरोवर है वैसे ही कषायरूप दाहके लिये ध्यान उत्तम सरोवर है । जैसे शीतसे बचावके लिये आग है वैसे कषायरूपी शीतसे बचावके लिये ध्यान आग के समान है ॥१८८३।। गा०-जैसे सेना और वाहनोंसे समृद्ध राजा शत्रु सेनाके आक्रमणके भयसे रक्षा करता है वैसे ही कषायरूपी शत्रु सेनाका भय दूर करनेके लिये ध्यान बल वाहनसे समृद्ध राजाके समान है ।।१८९४॥ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८४३ इय झायंतो खवओ जइया परिहीणवायिओ होइ । आराधणाए तइया इमाणि लिंगाणि दंसेई ॥१८९७।। 'इय झायंतो खवओ' एवं ध्यानेन प्रवर्तमानः क्षपकः । यदा वक्तुमसमर्थो भवति तदा 'आराधणाए' रत्नत्रयपरिणतेरात्मनो लिङ्गानीमानि दर्शयति ॥१८९७॥ हुंकारंजलिभमुहंगुलीहिं अच्छीहिं वीरमुट्ठीहिं । ... सिरचालणेण य तहा सणं दावेदि सो खवओ ।।१८९८॥ "हकारंजलिभमुहंगुलीहि अच्छोहि' हुंकारेण वा अञ्जलिरचनया, भ्रूक्षेपेण, अङ्गुलिपञ्चकदर्शनेन उपदेष्टारं प्रति प्रसन्नतया(नया) दृष्ट्या किं समाहितचित्तोऽसीत्युक्ते शिरःकम्पनेन संज्ञां दर्शयति क्षपकः ॥१८९८॥ तो पडिचरया खवयस्स दिति आराधणाए उवओगं । जाणंति सुदरहस्सा कदसण्णा कायखवएण ।।१८९९।। 'तो पडिचरगा' ततः प्रतिचारकास्तस्य क्षपकस्याराधनायामुपयोगं जानन्ति श्रुतरहस्याः क्षपकेण कृतसंकेताः । झाणत्ति ॥१८९९॥ लेश्यायां संबन्धं करोति इय समभावमुवगदो तह ज्झायंतो पसचद्माणं च । लेस्साहिं विसुझंतो गुणसेटिं सो समारुहदि ॥१९००॥ . गा०-जैसे वैद्य पुरुषके रोगों की चिकित्सामें कुशल होता है वैसे ही ध्यान कषायरूपी रोग की चिकित्सा करने में कुशलवैद्य है ।।१८९५।।। गा०-जैसे अन्त भूखको दूर करता है वैसे ही विषयोंकी भूख दूर करनेके लिये ध्यान अन्नके समान है। तथा जैसे प्यास लगने पर पानी उसे दूर करता है वैसे ही विषयरूपी प्यासके लिये ध्यान पानीके समान है ।।१८९६।। गा-इस प्रकार ध्यानमें संलग्न क्षपक जब बोलने में असमर्थ होता है तब मैं रत्नत्रयमें संलग्न हूँ यह बात आगे कहे चिन्होंसे प्रकट करता है ।।१८९७॥ गा०-निर्यापकाचार्यके पूछनेपर कि तुम्हारा चित्त सावधान है, वह क्षपक हुंकारसे, हाथों की अंजुलि द्वारा, या भौं के संचालनसे अथवा पाँचों अंगुलियोंकी मुट्ठी बनाकर या सिर हिलाकर . प्रसन्न दृष्टिसे संकेत करता है ॥१८९८॥ गा.-तब क्षपकके द्वारा पहलेसे ही संकेत ग्रहण करने वाले और आगमक रहस्यको जानने वाले परिचारक मुनिगण यह जान लेते हैं कि क्षपकका उपयोग आराधनामें है ॥१८९९॥ विशेषार्थ-क्षपक पहले ही कह रखता है या परिचारक पहले ही क्षपकसे कह देते हैं कि बोलने में असमर्थ होनेपर मैं अपनी परिणतिको हुंकार आदि संकेतोंसे कह दूंगा ।।१८९९॥ आगे क्षपककी लेश्याविशद्धिका कथन करते हैंगा०-इस प्रकार समताभावको प्राप्त वह क्षपक प्रशस्त ध्यान ध्याता है और विशुद्ध Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ भगवती आराधना 'इय समभावमुवगो' एवं, समचित्ततां गतः प्रशस्तध्यानं वर्तयेत्, लेश्याभिविशुद्धगुणश्रेणीमारोहति ॥१९००॥ जह बाहिरलेस्साओ किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स । अब्भंतरलेस्साओ तह किण्हादी य पुरिसस्स ।।१९०१॥ किण्हा णीला काओ लेस्साओ तिणि अप्पसत्थाओ। पजहइ विरायकरणो संवेगमणुत्तरं पत्तो ॥१९०२॥ जह बाहिरलेस्साओं' कृष्णनीलकापोताश्चेति तिस्रः अप्रशस्ताः प्रजहाति वैराग्यभावनावान संसारभीरुतां परामुपागतः ॥१९०१-१९०२।। लेश्यापूर्वक अर्थात् क्रमसे पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यारूप परिणमन करता हुआ गुणश्रेणिपर अर्थात् उपशम या क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता है ॥१९००॥ गा०-जैसे पुरुषके शरीरमें कृष्ण आदि द्रव्य लेश्या-शरीरका रंग काला गोरा होता है । वैसे ही अभ्यन्तरमें कृष्ण आदि भावलेश्या होती हैं ।।१९०१॥ विशेषार्थ-लेश्याके दो भेद हैं-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। मिथ्यात्व आदिके कारण जीवके जो तीव्रतम आदि भाव होते हैं वह भावलेश्या है। आगममें कहा है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगसे प्राणियोंके जो संस्कार होते हैं वह भावलेश्या है । लेश्या छह हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । इनमेंसे प्रारम्भकी तीन लेश्या अशुभ हैं और शेष तीन शुभ हैं। अशुभ लेश्याओंमें तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम रूपसे तथा शुभलेश्याओंमें मन्द, मन्दतर और मन्दतमरूपसे हानिवृद्धि होती रहती है। जैसे अशुभ लेश्याओंमें कापोत लेश्या तीव्र है, नीललेश्या तीव्रतर है और कृष्णलेश्या तीव्रतम् है.। इसी तरह शुभलेश्याओंमें पीतलेश्या मन्द, पद्मा मन्दतर और शुक्ला मन्दतम है। उदाहरणके रूपमें जो व्यक्ति फलसे भरे वृक्षको जड़से काटकर फल खाना चाहता है उसके कृष्णलेश्या है। जो जड़को छोड़ केवल तना काटकर फल, खाना चाहता है उसके नीललेश्या है। जो एक शाखा काटकर फल खाना चाहता है उसके कापोत लेश्या है। जो एक उपशाखा तोड़कर फल खाना चाहता है उसके पीतलेश्या है। जो केवल फल ही तोड़कर खाना चाहता है उसके पद्मलेश्या है। और जो जमीनपर गिरे हुए फलोंको ही उठाकर खाना चाहता है उसके शुक्ललेश्या होती है। जो रागी, द्वषी, अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभसे 'युक्त है, निर्दय है, कलहप्रिय है, मद्य मांसके सेवनमें आसक्त है वह कृष्णलेश्या वाला होता है । जो घमण्डी, मायावी, विषयलम्पट, अनेक प्रकारको परिग्रहमें आसक्त प्राणी है वह नीललेश्यावाला होता है। जो परकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करता है, अपनी प्रशंसासे प्रसन्न होता है, फिर हानि लाभको भी नहीं देखता, लड़ाई होनेपर मरने मारनेको तैयार रहता है वह कापोतलेश्या वाला है। जो सर्वत्र समदृष्टि है कृत्य अकृत्य, हित अहितको जानता है दयादानका प्रेमी है वह पीतलेश्यावाला होता है। जो त्यागशील, क्षमाशोल, भद्र और साधुजनोंकी पूजामें तत्पर रहता है वह पद्मलेश्यावाला होता है। जो माया और निदान नहीं करता, रागद्वेष नहीं करता वह शुक्ल लेश्यावाला है ॥१९०१॥ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ओ पम्मा सुक्का लेस्साओ तिणि विदु पसत्थाओ । पडिवज्जेइ य कमसो संवेगमणुत्तरं पत्तो ।। १९०३॥ 'तेओ पम्मा सुक्का' तेजःपद्मशुक्ललेश्याः प्रतिपद्यते परिपाटया ॥। १९०३ ॥ एसिं लेस्साणं विसोघणं पडि उवकमो इणमो । सव्वेसिं संगाणं विवज्जणं सव्वहा होइ ।। १९०४|| 'एदेसि लेस्साणं' एतासां शुभलेश्यानां शुद्धि प्रत्ययमुपक्रमः बाह्याभ्यन्तर सर्वपरिग्रहत्यागेः । १९०४॥ लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होइ जीवस्स । अज्झवसाणविसोधी मंदकसायस्स णादव्वा ।। १९०५ ।। 'लेस्सासोधी' लेश्यानां शुद्धि: । 'अज्झवसाणविसोधीए होदि' परिणामविशुद्धया भवति । 'अज्झवसाविसुद्धी' परिणामविशुद्धिश्च । 'मंदकसायरस' मन्दकषायस्य भवतीति ज्ञातव्या ।।१९०५ ॥ कषायाणां मन्दता कथमित्यात्राह मंदा हुंति कसाया बाहिरसंगविजडस्स सव्वस्स । गिves कसायबहुलो चैव हु सव्वंपि गंथकलिं ॥। १९०६॥ ८४५ 'मंदा हृतिकसाया' कषाया मन्दा भवन्ति कृतबाह्यसंगपरित्यागस्य । कषायबहुल एवायं सर्वो जीवः सर्वं ग्रन्थकलि गृह्णाति ॥१९०६ ॥ जह इंहिं अग्गी वढइ विज्झाइ इंधणेहिं विणा । थेहिं तह साओ इ विज्झाई तेहिं विणा || १९०७ || वही कहते हैं गा०-- क्षपक कृष्ण, नील, कापोत, इन तीन अप्रशस्त लेश्याओंको त्यागकर वैराग्य भावनासे युक्त होता है और संसारसे अत्यन्त भयभीत रहता है || १९०२॥ गा०-- तथा पीत, पद्म, शुक्ल, इन तीन प्रशस्त लेश्याओंको क्रमसे स्वीकार करके उत्कृष्ट संवेगभावको धारण करता है ।। १९०३ || गा० - इन लेश्याओं की विशुद्धिका उपक्रम यह है कि समस्त परिग्रहों का सर्वथा त्याग होता है अर्थात् परिग्रहके त्यागसे लेश्या में विशुद्धि आती हैं ।। १९०४ ॥ गा० - परिणामों की विशुद्धि होनेसे लेश्या की विशुद्धि होती है । और जिसकी कषाय मन्द है उसके परिणामोंमें विशुद्धि होती है || १९०५॥ गा० - कषायों की मन्दता कैसे होती है, यह बतलाते हैं जो बाह्य परिग्रहका त्याग करता है उसकी कषाय मन्द होती है । जिसकी कषाय तीव्र होती है वही सब परिग्रहरूप पापको स्वीकार करता है ।।१९०६ । Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ भगवती आराधना - 'जह इंधणेहिं अग्गी' इन्धनैर्यथाग्निवर्द्धते तैविना प्रशाम्यति । ग्रन्थैस्तथा कषायो वद्धते, तविना मन्दो भवति ॥१९०७॥ जह पत्थगे पडतो खोमेइ दहे पसण्णमवि पंकं । खोभेइ पसण्णमवि कसायं जीवस्स तह गंथो ।।१९०८।। 'जह पत्थरो पडतो' यथा पाषाणः पतन् ह्रदे प्रशान्तमपि पकं क्षोभयति, तथा जीवस्य कषायं ग्रन्थाः क्षोभयन्ति ॥१९०८॥ अब्भंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे चयदि । __ अभंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हु गंथे ॥१९०९।। 'अब्भंतरसोधीए' अभ्यन्तरशुद्धया नियमेन बाह्यान्परिग्रहांस्त्यजति, अभ्यन्तरमलिन एव बाह्यान् गृह्णाति परिग्रहान् ॥१९०९।। अब्भंतरसोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण । अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरे दोसे ॥१९१०।। 'अभंतरसोधीए' अभ्यन्तरशुद्धया बाह्यशुद्धिनियमेन भवति । अभ्यन्तरदोषेणैव बाह्यान्कायगतान् दोषान् करोति ॥१९१०॥ जध तंडुलस्स कोण्डयसोधी सतुसस्स तीरदि ण कादु। तह जीवस्स ण सका लिस्सासोधी ससंगस्स ॥१९११॥ 'जह तंदुलस्स' यथा तन्दुलस्य अभ्यन्तरमलशुद्धिः कर्तुं न शक्यते बाह्यतुषसहितस्य । तथा जीवस्य न शक्या लेश्याशुद्धिः कर्तुं सपरिग्रहस्य ॥१९११॥ इत उत्तरं लेश्याश्रयेणाराधनाविकल्पो निरूप्यते सुक्काए लेस्साए उक्कस्सं अंसयं परिणमित्ता। जो मरदि सो हु णियमा उक्कस्साराधओ होई ॥१९१२।। गा०-जैसे इंधनसे आग बढ़ती है और ईंधनके अभावमें बुझ जाती है वैसे ही परिग्रहसे कषाय बढ़ती है और परिग्रहके अभावमें मन्द हो जाती है ।।१९०७॥ __ गा०-जैसे जलमें पत्थर फेंकनेसे नीचे बैठी हुई कीचड़ ऊपर आ जाती है। वैसे ही परिग्रहसे जीवकी दबी हुई कषाय उदयमें आ जाती है ।।१९०८॥ गा०-अन्तरंगमें कषायकी मन्दता होनेपर नियमसे बाह्य परिग्रहका त्याग होता है। अभ्यन्तरमें मलिनता होनेपर ही जीव बाह्य परिग्रहोंको ग्रहण करता है ॥१९०९।। गा०-अभ्यन्तरमें विशुद्धि होनेपर बाह्य विशुद्धि नियमसे होती है । अभ्यन्तरमें दोष होनेसे ही मनुष्य शारीरिक दोष करता है ॥१९१०॥ गा०-जैसे बाहरमें तुष (छिलका) रहते हुए चावलकी अभ्यन्तर शुद्धि संभव नहीं है। वैसे ही परिग्रही जीवके लेश्याकी विशुद्धि संभव नहीं है ॥१९११।। Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८४७ 'सुक्काए लेस्साए' शुक्ललेश्याया उत्कृष्टांशं परिणतो यो मृतिमुपैति स नियमादुत्कृष्टाराधको भवति ॥१९१२।। खाइयदंसणचरणं खओवसमियं च णाणमिदि मग्गो । तं होइ खीणमोहो आराहिता य जो हु अरहंतो ॥१९१३।। जे सेसा सुक्काए दु अंसया जे य पम्मलेस्साए । तल्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराघणा मरणे ॥१९१४॥ 'जे सेसा सुक्काए दु अंसया' उत्कृष्टांशादन्ये ये शुक्ललेश्याया अंशा ये चापि पद्मलेश्याया अंशाः तत्र परिणामो मरणे मध्यमाराधना ॥१९१३॥१९१४॥ तेजाए लेस्साए ये अंसा तेसु जो परिणमित्ता। कालं करेइ तस्स हु जहणियाराधणा भणिदा ॥१९१५॥ 'तेजोए लेस्साए' तेजोलेश्याया ये अंशास्तेषु परिणतो यदि कालं कुर्यात् तस्य जघन्याराधना भवति ॥१९१५॥ जो जाए परिणिमित्ता लेस्साए संजुदो कुणइ कालं । - तल्लेसो उववज्जइ तल्लेसे चेव सो सग्गे ॥१९१६॥ 'जो जाए' यो यया लेश्यया परिणतः कालं करोति, स तल्लेश्य एवोपजायते, तल्लेश्यासमन्विते स्वर्गे ॥१९१६।। , अध तेउपउमसुक्कं अदिच्छिदो णाणदंसणसमग्गो । आउक्खया दु सुद्धो गच्छदि सुद्धिं चुयकिलेसो ॥१९१७॥ आगे लेश्या के आश्रयसे आराधनाके भेद कहते हैं गा०-जो क्षपक शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट अंश रूपसे परिणत होकर मरण करता है वह नियमसे उत्कृष्ट आराधक होता है ॥१९१२॥ ___ गा०-क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात चारित्र और क्षायोपशमिक ज्ञानकी आराधना करके क्षीणमोह होता है और वह बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह तदनन्तर अरहंत होता है ॥१९१३।। गा०-शक्ललेश्याके शेष मध्यम और जघन्य अंश तथा पद्मलेश्याके उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य अंश रूपसे परिणत होकर मरण करने वाला क्षपक मध्यम आराधक होता है ॥१९१४॥ गा०-तेजोलेश्याके अंशरूपसे परिणत होकर यदि मरण करता है तो वह जघन्य आराधक होता है ।।१९१५।। गा-जो क्षपक जिस लेश्यारूपसे परिणत होकर मरण करता है वह उसी लेश्यावाले स्वर्गमें उसी लेश्यावाला ही देव होता है ॥१९१६॥ गा-जो पीत पद्म और शुक्ललेश्याको भी छोड़कर लेश्यारहित अयोग अवस्थाको प्राप्त होता है वह सम्पूर्ण केवलज्ञान और केवल दर्शनसे युक्त होकर आयुका क्षय होनेपर मोक्ष प्राप्त Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ भगवती आराधना .. 'अध तेउपउमसुक्क' अथ तेजःपद्मशुक्ललेश्या अतिक्रान्तः अलेश्यतामुपगतः ज्ञानदर्शनसमग्र आयुषः क्षयात् सिद्धिं गच्छति कर्मलेपापगमाद्विशुद्धो निरस्ताशेषक्लेशः । लेस्सेत्ति ॥१९१७॥ एवं सुभाविदप्पा ज्झाणोवगओ पसत्थलेस्साओ । आराधणापडायं हरइ अविग्घेण सो खवओ ॥१९१८।। 'एवं सुभाविदप्पा' एवं सुष्ठु भावितात्मा ध्यानमुपगतः प्रशस्तश्यापरिणत आराधनापताकां हरत्यविघ्नेन ॥१९१८॥ तेलोक्कसव्वसारं चउगइसंसारदुक्खणासयरं । आराहणं पवण्णो सो भयवं मुक्खपडिमुल्लं ।।१९१९।। 'तेलोक्कसव्वसारं' त्रैलोक्ये सर्वस्मिन्सारभूतां चतुर्गतिसंसारदुःखनाशकरणीमाराधनां प्रपन्नोऽसौ भगवान् मोक्षमप्रतिमौल्यं ॥१९१९।। एवं जधाक्खादविधि संपत्ता सुद्धदंसणचरिना। केई खवंति खवया मोहावरणंतरायाणि ॥१९२०॥ ‘एवं जघाक्खादविधि' एवं यथाख्यातविधि संप्राप्ताः शुद्धदर्शनचारित्राः केचित्क्षपका घातिकर्माणि क्षपयन्ति ॥१९२०॥ केवलकप्पं लोगं संपुण्णं दव्वपज्जयविधीहिं । . ज्झायंता एयमणा जहंति आराहया देहं ॥१९२१॥ 'केवलकप्पं' केवलज्ञानस्य परिच्छेद्यत्वेन योग्यं लोकं संपूर्ण द्रव्यपर्यायविकल्पैः परिच्छिन्दन्तः जहति ते स्वदेहं ।।१९२१॥ करता है। वह समस्त कर्मलेपके चले जानेसे विशुद्ध होता है तथा समस्त क्लेशोंसे छूट जाता है ॥१९१७॥ गा०-इस प्रकार वह क्षपक अच्छी तरहसे आत्माकी भावना भाकर प्रशस्त लेश्यापूर्वक ध्यान करके, किसी विघ्न बाधाके बिना आराधना पताकाको धारण करता है ।।१९१८|| गा०-वह भगवान् तीनों लोकोंमें सारभूत तथा चार गतिरूप संसारके दुःखका नाश करनेवाली आराधनाको प्राप्त करता है जो उस मोक्षका प्रतिमूल्य है अर्थात् आराधनारूपी मूल्य प्रदान करके ही मोक्षको खरीदा जा सकता है ।।१९१९॥ गा-इस प्रकार कोई-कोई चरमशरीरी क्षपक यथाख्यात चारित्रको विधिके द्वारा शुद्ध सम्यग्दर्शन और चारित्रको प्राप्त करके मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका क्षय करते हैं ।।१९२०॥ . गा० केवलज्ञानके द्वारा जाननेके योग्य सम्पूर्ण लोकको द्रव्य पर्यायोंके भेदोंके साथ एकाग्रमनसे जानते हुए आराधक अपना शरीर छोड़ते हैं ।।१९२१॥ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४९ विजयोदया टीका सव्वुक्कसं जोगं जुजंता दंसणे चरित्ते य । कम्मरयविप्पमुक्का हवंति आराधया सिद्धा ॥१९२२।। 'सवुक्कस्सं' सर्वोत्कृष्टं दर्शनचारित्रयोर्योग प्रतिपद्यमानाः कर्मरजोभ्यो विप्रयुक्ता आराधकाः सिद्धा भवन्ति ॥१९२२॥ इयमुक्कस्सियमाराधणमणुपलित्तु केवली भविया । लोगग्गसिहरवासी हवंति सिद्धा धुयकिलेसा ॥१९२३॥ _ 'इय उक्कस्सिय' एवमुत्कृष्टामाराधनामनुपाल्य केवलिनो भूत्वा निरस्तक्लेशाः लोकाग्रशिखरवासिनः . सिद्धा भवन्ति ॥१९२३॥ अह सावसेसकम्मा मलियकसाया पणट्टमिच्छत्ता । - हासरइअरइभयसोगदुगुंछावेयणिम्महणा ॥१९२४।। 'अह सावसेसकम्पा' अथ सावशेषकर्माणो मथितकषायाः प्रणष्टमिथ्यात्वा हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सावेदत्रिकमथनाः ॥१९२४।। पंचसमिदा तिगुत्ता सुसंवुडा सव्वसंगउम्मुक्का। धीरा अदीणमणसा समसुहदुक्खा असंमूढा ।।१९२५॥ 'पंचसमिदा' समितिपंचकोपेता गुप्तित्रयोपेताः सुसंवृता अपाकृतसर्वसंगा धीरा अदीनमनसः समसुखदुःखा असंमूढाः ॥१९२५॥ सव्वसमाधाणेण य चरित्तजोगो अधिद्वदा सम्म । धम्मे वा उवजुत्ता ज्झाणे तह पढमसुक्के वा ॥१९२६॥ 'सव्वसमाधाणेण' सर्वेण समाधानेन चारित्रे सम्यगवस्थिता धर्मध्याने प्रथमशुक्ले वा उपयुक्ताः ।।१९२६॥ . गा०—सबसे उत्कृष्ट अर्थात् क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यक् चारित्रको प्राप्त करके वे आराधक कर्मरूपी रजसे अर्थात् शेष चार अघाति कर्मोंसे छूटकर सिद्ध हो जाते हैं ।।१९२२।। ..... गाo-इस प्रकार उत्कृष्ट आराधनाका पालन करके केवलज्ञानी होकर सम्पूर्ण क्लेशोंसे छूट जाते हैं और लोकके शिखर पर विराजमान होते हैं ॥१९२३॥ . . गा०-किन्तु जिनके कर्मबन्धन शेष रहता है वे मिथ्यात्वको नष्ट करके तथा कषायोंका और हास्य रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, तीनों वेदोंका मथन करके, पाँच समिति और तीन गुप्तियोंके द्वारा सम्यक् रूपसे संवर करके समस्त परिग्रहसे रहित होकर धीरतापूर्वक, मनमें दीनताका भाव नहीं लाते । मोहरहित होकर सुख और दुःखमें समभाव रखते हैं। मन, वचन, कायको समाहित करके चारित्रमें सम्यनिष्ठ रहते हैं तथा धर्मध्यान या प्रथम शुक्लध्यानमें उपयोग लगाते हैं ॥१९२४-२६|| Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५० भगवती आराधना इय मज्झिममाराघणमणुपालित्ता सरीरपजहित्ता । हुति अणुत्तरवासी देवा सुविसुद्धलेस्सा य ।।१९२७॥ 'इय मज्झिमं' एवं मध्यमाराधनामनुपालय शरीरं त्यक्त्वा विशुद्धलेश्याधरा अनुत्तरवासिनो देवा भवन्ति ।।१९२७ ॥ दंसणणाणचरिते उक्किट्ठा उत्तमोपघाणा य । इरियाव पडिवण्णा हवंति लवसत्तमा देवा ।।१९२८ ।। 'दंसणणाणचरिते' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु उत्कृष्टा उत्तमाभिग्रहा ईर्यापथं प्रपन्ना लवसत्तमा देवा भवन्ति ।।१९२८ ॥ कप्पोवगा सुरा जं अच्छरसहिया सुहं अणुहवंति । तत्तो अनंतगुणिदं सुहं दु लवसत्तमसुराणं ।। १९२९ ।। 'कप्पोवगा सुरा जं' कल्पोपपन्नाः सुराः अप्सरोभिस्सहिता यत्सुखमनुभवन्ति ततोऽप्यनन्तगुणितं लवसत्तमदेवानां ॥। १९२९ ॥ णाणम्मि दंसणम्मिय आउत्ता संजमे जहक्खादे । वड्ढिदतवोवघाणा अवहियलेस्सा सददमेव ।। १९३०॥ 'णाणम्मि दंसणम्मि य' ज्ञानदर्शनयोर्यथाख्याते च संयमे आयुक्ता वद्धिततपोऽभिग्रहाः सततं विशुद्धलेश्याः क्षपकाः । १९३० ॥ पजहिय सम्मं देहं सददं सव्त्रगुणावड्ढिदगुणड्ढा । देविंदरमठाणं लहंति आराधया खवया ॥। १९३१ ॥ 'जहिय देह' विहाय देहं सम्यक्सदा सर्वंगुणवर्धितगुणाढ्या देवेन्द्रचस्मस्थानं लभन्ते ।।१९३१॥ गा० - इस प्रकार मध्यम आराधनाका पालन करके शरीर त्याग कर विशुद्ध लेश्याके धारक अनुत्तरवासी देव होते हैं || १९२७|| गा०-- वे मध्यम आराधनाके पालक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रमें उत्कृष्ट होते हैं । अर्थात् कल्पोपपन्न देवोंमें उत्पन्न कराने वाले रत्नत्रयके आराधकोंसे उत्कृष्ट होते हैं । उनकी तपश्चर्या उत्तम होती है, वे ईर्यापथ आस्रवके धारी होते हैं अर्थात् कषायरहित कायकी क्रियासे होनेवाला शुभास्रव ही उनके होता है । वे मरकर लवसत्तम अर्थात् ग्रैवेयक या अनुदिश विमानवासी देव होते हैं || १९२८ ॥ गा० - कल्पवासी देव अपनी देवांगनाओंके साथ जिस सुखको भोगते हैं उससे अनन्तगुणा सुख अहमिन्द्रदेव भोगते हैं । १९२९ ॥ गा० - जो क्षपक ज्ञान दर्शन और यश्चाख्यात चारित्रमें लोन रहते हैं, अपनी तपश्चर्याको निरन्तर बढाते हैं, वे विशुद्ध लेश्यावाले होते हैं || १९३० ॥ गा०—वे आराधक क्षपक सम्यक् भावना पूर्वक शरीर त्यागकर अनन्तगुणी अणिमा आदि ऋद्धियोंसे सम्पन्न उपरिम स्वर्ग में स्थान प्राप्त करते हैं || १९३१ || Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५१ विजयोदया टीका सुयभत्तीए विसुद्धा उग्गतवणियमजोगसंसुद्धा ।। लोगंतिया सुरवरा हवंति आराधया धीरा ॥१९३२।। जावदिया रिद्धिओ हवंति इंदियगदाणि य सुहाणि । ताई लहंति ते आगमसिं भद्दा सया खवया ॥१९३३।। 'जावदिया रिद्धीओ' यावन्त्यः ऋद्धयो भवन्ति यावन्तीन्द्रियसुखानि च भवन्ति तानि सर्वाणि लप्स्यन्ते भद्राशयाः क्षपकाः ॥१९३२-१९३३॥ जे वि हु जहणियं तेउलेस्समाराहणं उवणमंति । ते वि हु सोघम्माइसु हवंति देवा. ण हेडिल्ला ॥१९३४॥ 'जे वि हु जहण्णिय' येऽपि जघन्यामाराधनां तेजोलेश्याप्रवृत्तामुपनमन्ति तेऽपि सौधर्मादिषु देवा भवन्ति, नाधोभाविनो देवाः ।।१९३४॥ किं जंपिएण बहुणा जो सारो केवलस्स लोगस्स । तं अचिरेण लहंते फासित्ताराहणं णिहिलं ॥१९३५॥ 'कि जपिएण बहुणा' किं बहुनोक्तेन यत्सर्वस्यास्य लोकस्य सारभूतं तदचिरेण लभन्ते आराधनां प्रपन्नाः ।।१९३५।। भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण तत्तो चुदा सुमाणुस्से। इड्ढिीमतुलं चइत्ता चरंति जिणदेसियं धम्म १९३६॥ 'भोगे अणुत्तरे' भोगानुत्कृष्टान् भुक्त्वा स्वर्गच्युता मनुष्यभवेऽपि प्राप्य सकलामृद्धि तां च त्यक्त्वा जिनाभिहितं धर्म चरन्ति ।।१९३६॥ गा० -श्रुतभक्तिसे विशुद्ध, उग्रतप, नियम और आतापन आदि योगसे शुद्ध धीर आराधक लौकान्तिक देव होते हैं ।।१९३२।। गा०—जितनी ऋद्धियाँ हैं और जितने भी इन्द्रिय सुख हैं उन सबको भद्रपरिणामी क्षपक आगामी कालमें प्राप्त करते हैं ॥१९३३।। गा०-तेजोलेश्यासे युक्त जो क्षपक जघन्य आराधना करते हैं वे भी सौधर्म आदि स्वर्गोमें देव होते हैं, नीचेके देव नहीं होते । अर्थात् भवनत्रिकमें जन्म नहीं लेते ॥ १९३४॥ गा०-अधिक कहनेसे क्या ? जो समस्त लोकका सारभूत है उस सबको आराधना करने वाले शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं ।।१९३५॥ गा०-स्वर्गोंके उत्कृष्ट भोगोंको भोगकर स्वर्गसे च्युत होनेपर मनुष्य भवमें जन्म लेते हैं और वहाँ भी समस्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। फिर उसे त्यागकर जिन भगवानके द्वारा कहे हुए धर्मका पालन करते हैं ॥१९३६।। Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५२ भगवती आराधना सदिमंतो धिदिमंतो सड्ढासंवेगवीरियोवगया। . जेदा परीसहाणं उक्सग्गाणं च अभिभविय ॥१९३७।। 'सदिमतो' स्मृतिमन्तः धृतिसमन्विताः श्रद्धासंवेगवीर्यसहिताः परीषहाणां विजेतारः उपसर्गाणामभिभवितारः ॥१९३७॥ इय चरणमधक्खादं पडिवण्णा सुद्धदंसणमुवेदा । सोधिति ज्झाणजुत्ता लेस्साओ संकिलिट्ठाओ ॥१९३८।। 'इय चरणमधक्खादं' एवं यथाख्यातचारित्रं प्रतिपन्नाः शुद्धदर्शनमुपगता ध्यानयुक्ताः संक्लिष्टलेश्या विनाशयन्ति ॥१९३८।। सुक्कं लेस्समुवंगदा सुक्कज्झाणेण खविदसंसारा। उम्मुक्ककम्भकवया उविति सिद्धिं धुदकिलेसा ॥१९३९।। 'सुक्कं लेस्समुवगदा' शुक्ललेश्यामुपगताः शुक्लध्यानेन क्षपितसंसारा उन्मुक्तकर्मकवचा दूरीकृत फ्लेशाः सिद्धिमुपयान्ति ॥१९३९॥ एवं संथारगदो विसोघइत्ता वि दसणचरित्तं । परिवडदि पुणो कोई झायंतो अझरुद्दाणि ॥१९४०॥ ‘एवं संथारगदो' उक्तेन प्रकारेण संस्तरमुपगतोऽपि कृतदर्शनचारित्रशुद्धिरपि कश्चित्कर्मगौरवादातरौद्रपरिणतः पतति । तत्र दोषमाचष्टे ॥१९४०॥ . . . .. .. . . ज्झायंतो अणगारो अट्ट रुद्द च चरिमकालम्मि । जो जहइ सयं देहं सो ण लहइ सुग्गदि खवओ ।।१९४१।। गा.-वे शास्त्रोंका अनुचिन्तन करते हैं, धैर्यशाली होते हैं, श्रद्धा, संवेग और शक्ति से युक्त होते हैं। परीषहोंको जीतते हैं और उपसर्गोंको निरस्त करते हैं, उनसे अभिभूत नहीं होते ॥१९३७|| गा०-इस प्रकार शुद्ध सम्यग्दर्शन पूर्वक यथाख्यात चारित्रको प्राप्त करके ध्यान में मग्न होकर संक्लेशयुक्त अशुभ लेश्याओंका विनाश करते हैं ।।१९३८।। गा०--शुक्ललेश्यासे सम्पन्न होकर शुक्लध्यानके द्वारा संसारका क्षय करते हैं और कर्मोंके कवचसे मुक्त हो, सब दुःखोंको दूर करके मुक्तिको प्राप्त होते हैं ।।१९३९।। गा०-इस प्रकार संस्तरपर आरूढ़ होकर और सम्यग्दर्शन तथा सम्यकचारित्रको निर्मल करके भी कोई-कोई क्षपक कर्मोंकी गुरुता होनेसे आर्तरौद्र ध्यानपूर्वक रत्नत्रय रूप आराधनासे गिर जाता है ॥१९४०॥ ___ गा०-जो क्षपक साधु मरते समय आप्रौद्र ध्यानपूर्वक अपने शरीरको छोड़ता है वह सुगति प्राप्त नहीं करता ॥१९४१।। Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८५३ 'ज्झायंतो अणगारो' मरणकाले आरौिद्रयोः परिणतो भूत्वा यः स्वदेहं जहाति नासौ क्षपकः सुगति लभते ।।१९४१॥ जदि दा सुभाविदप्पा वि चरिमकालम्मि संकिलेसेण । परिवडदि वेदणट्टो खवओ संथारमारूंढो ।।१९४२।। 'जदि दा सुभाविदप्पा वि' यदि तावत्सुभावितात्मापि संस्तरमारूढः वेदनातः क्षपकः संक्लेशेन हेतुना सन्मार्गात्परिपतति ॥१९४२।। किं पुण जे ओसण्णा णिच्चं जे वा वि णिच्चपासत्था । जे वा सदा कुसीला संसत्ता वा जहाछंदा ॥१९४३।। ..... किं पुण' किं पुनर्न परिपतन्ति ये नित्यमवसन्ना ये च नित्यं पावस्था ये वा. सदा कुशीलाः संसक्का वा स्वच्छन्दाः ॥१९४३॥ तत्र अवसन्नाः निरूप्यन्ते 'गच्छंहि केइ पुरिसा पक्खी इव पंजरंतरणिरुद्धा । सारणपंजरचकिदा ओसण्णागा पविहरंति ॥१९४४॥ यथा कर्दमे क्षुण्णः मार्गाद्धीनोऽवसन्न इत्युच्यते स द्रव्यतोऽवसन्नः । भावावसन्नः अशुद्धचरित्रः सीदति उपकरणे, वसति संस्तरप्रतिलेखने, स्वाध्याये, विहारभूमिशोधने, गोचारशुद्धौ, ईर्यासमित्यादिषु, स्वाध्यायकालावलोकने, स्वाध्यायविसर्गे, गोचारे, च अनुद्यतः, आवश्यकेष्वलसः, जनातिरिक्तो वा जनाधिकं करोति कुर्वश्च यथोक्तमावश्यक वाक्कायाभ्यां करोति न भावत एवंभूतश्चारित्रेऽवसीदतीत्यवसन्नः । पन्थानं पश्यन्नपि ___ गा०-यदि अपनी आत्माकी सम्यक् भावना करने वाले भी संस्तरपर आरूढ़ हो, संक्लेशके कारण मरते समय सन्मार्गसे गिर जाते हैं ।।१९४२।। गा०–तो जो नित्य अवसन्न, नित्य पार्श्वस्थ, सदा कुशील, संसक्त और स्वच्छन्द साधु हैं उनका कहना ही क्या है ? ॥१९४३।। गा०-टी०-अवसन्न आदिका स्वरूप कहते हैं जैसे कोई पुरुष कीचड़में फंस गया या मार्गमें थक गया तो उसको अवसन्न कहते हैं। वह द्रव्यरूपसे अवसन्न है। उसी प्रकार जिसका चारित्र अशुद्ध होता है वह भाव अवसन्न होता है। वह उपकरणमें, वसतिकामें, संस्तरके शोधनेमें, स्वाध्यायमें, विहार करनेकी भूमिके शोधने में, गोचरीकी शुद्धतामें, ईर्यासमिति आदिमें, स्वाध्यायके कालका ध्यान रखने में और स्वाध्यायकी समाप्तिमें तत्पर नहीं रहता । छह आवश्यकोंमें आलस्य करता है । या दूसरोंसे करता तो अधिक है किन्तु वचन और कायसे करता है, भावसे नहीं करता। इस प्रकार चारित्रका पालन करते हुए खेदखिन्न होता है इससे उसे अवसन्न कहते हैं। १. इस गाथा पर किसी प्रति में क्रमांक नहीं दिया है । न इस पर किसी की टीका ही है । सं० Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ . भगवती आराधना तत्समीपेऽन्येन कश्चिद गच्छति, यथासौ मार्गपावस्थः, एवं निरतिचारसंयममार्ग जानन्नपि न तत्र वर्तते, किंतु संयममार्गपार्वे तिष्ठति नैकान्तेनासंयतः, न च निरतिचारसंयमः' सोऽभिधीयते पार्श्वस्थ इति । शय्याधरपिण्डमभिहितं नित्यं च पिण्डं भुङ्क्ते, पूर्वापरकालयोतसंस्तवं करोति, उत्पादनैषणादोषदुष्टं वा भुङ्क्ते, नित्यमेकस्यां वसतौवसति, एकस्मिन्नेव संस्तरे शेते, एकस्मिन्नेव क्षेत्रे वसति । गृहिणां गृहाभ्यन्तरे निषद्यां करोति, गृहस्थोपकरणैर्व्यवहरति, दुःप्रतिलेखमप्रतिलेखं वा गृह्णाति, - सूचीकर्तरिनखच्छेदसंदंशनपट्टिकाक्षरकर्णशोधनाजिनग्राही, सीवनप्रक्षालनावधूननरञ्जनादिबहुपरिकर्मव्यापृतश्च वा पार्श्वस्थः। क्षारचूर्ण सौवीरलवणसपिरित्यादिकं अनागाढकारणेऽपि गृहीत्वा स्थापयन् पार्श्वस्थः । रात्रौ यथेष्टं शेते, संस्तरं च यथाकामं बहुतरं करोति । उपकरणबकुशो देहबकूश:-दिवसे वा शेते च यः पावस्थः । पदप्रक्षालनं म्रक्षणं वा यत्कारणमन्तरेण करोति, यश्च गणोपजीवी तृणपञ्चकसेवापरश्च पावस्थः । अयमत्र संक्षेपः-अयोग्यं सुखशीलतया यो निषेवते कारणमन्तरेण स सर्वथा पावस्थः । कुत्सितशील: कुशीलः । यद्येवं अवसन्नादीनां कुशीलत्वं प्राप्नोति, नैवं लोकप्रकटकुत्सितशील: कुशील इति विवेकोऽत्र ग्राह्यः । स च कुशीलोऽनेकप्रकारः कश्चित्कोतुकशीलः औषधविलेपनविद्याप्रयोगणव, सौभाग्यकरणं राजद्वारिककौतुकमादर्शयति यः स कौतुककुशीलः । जैसे कोई मार्गको देखते हुए भी उस मार्गसे न जाकर अन्य उसके समीपवर्ती मार्गसे जाता है, उसे मार्ग पार्श्वस्थ कहते हैं । इसी प्रकार जो निरतिचार संयमका मार्ग जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करता किन्तु संयमके पार्श्ववर्ती मार्गमें चलता है, वह न तो एकान्तसे असंयमी है और न निरतिचार संयमी है। उसे पार्श्वस्थ कहते हैं। शय्याधरपिण्डका स्वरूप पहले कहा है उस भोजनको नित्य करता है। भोजन करनेसे -पहले और भोजन करनेके पश्चात् दाताकी स्तुति करता है। अथवा उत्पादन और एषणा दोषसे दूषित भोजन करता है। नित्य एक ही वसतिकामें रहता है। एक ही संस्तरपर सोता है। एक ही क्षेत्र में रहता है। गृहस्थोंके घरके भीतर बैठता है। गृहस्थोंके उपकरणोंका उपयोग करता है। बिना प्रतिलेखनाके वस्तुको ग्रहण करता है या दुष्टता पूर्वक प्रतिलेखना करता है। सुई, कैंची, नख काटनेके लिये नहिनी, छुरा, कानका मैल निकालनेको सीक, चर्म आदि पासमें रखता है। और सीना, धोना, रंगना आदि कामोंमें लगा रहता है, वह पार्श्वस्थ है । क्षारचूर्ण, सुर्मा, नमक, घी इत्यादि बिना कारण ग्रहण करके पासमें जो रखता है वह पार्श्वस्थ है। जो रातमें मनमाना सोता है, संस्तरा इच्छानुसार लम्बा चौड़ा बनाता है वह उपकरण बकुश है। जो दिनमें सोता है वह देहवकुश है। ये भी पार्श्वस्थ हैं । जो बिना कारण पैर धोता है और तेल लगाता है तथा जो गणोपजीवि है......वह पार्श्वस्थ है । सारांश यह है कि सुखशील होनेके कारण जो बिना कारण अयोग्य का सेवन करता है वह सर्वथा पार्श्वस्थ है। ... जिसका शील कुत्सित है वह कुशील मुनि है शङ्का-यदि ऐसा है तो अवसन्न आदि भी कुशील कहलायेंगे । समाधान नहीं, क्योंकि लोकमें जिसका कुत्सित शील प्रकट है वह कुशील है, यह में भेद ग्रहण करना चाहिये। वह कुशील अनेक प्रकारका होता है। कोई कौतुक कुशील होता है जो औषध लगानेकी विद्याके प्रयोग द्वारा सौभाग्यके कारण राजद्वारमें कौतुक दिखलाता हैं। १. मः संविधीयते -अ० ।२. प्रतिक्षणं आ० । ३. त्रिण अ० । Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८५५ कश्चित् भूतिकर्मकुशीलः भूतिग्रहणमुपलक्षणं भूत्या, धूल्या, सिद्धार्थकैः, पुष्पैः, फलैरुदकादिभिर्वा मन्त्रित रक्षा वशीकरणं वा यः करोति स भूतिकुशीलः । उक्तं च भूदीयव धूलीयं वा सिद्धत्थग पुप्फफलुदकादीहिं। . रक्खं वसिगरणं वा करेदि जो भूदिगफुसीलो ॥ कश्चित्प्रसेनिकाकूशीलः, अंगुष्ठप्रसेनिका, अक्षरप्रसेनी, प्रदीपप्रसेनी, शशिप्रसेनी, सूर्यप्रसेनी स्वप्नप्रसेनीत्येवमादिभिर्जनं रञ्जयति यः सोऽभिधीयते प्रसेनिकाकुशील इति । कश्चिन्निमित्तकुशीलः विद्याभिर्मन्त्ररौषधप्रयोगैर्वा असयंत चिकित्सां करोति सोऽप्रसेनिकाकुशीलः । कश्चिन्निमित्तकुशीलः अष्टाङ्गनिमित्तं ज्ञात्वा यो लोकस्यादेशं करोति स निमित्तकूशीलः । आत्मनो जाति कुलं वा प्रकाश्य यो भिक्षादिकमुत्पादयति स आजीवकुशीलः । केनचिदुपद्रुतः परं शरणं प्रविशति, अनाथशालां वा प्रविश्य आत्मनश्चिकित्सां करोति स वा आजीवकुशील: । विद्यायोगादिभिः परद्रव्यापहरणदम्भप्रदर्शनपरः कक्वकुशीलः । इन्द्रजालादिभिर्यो जनं विस्मापयति सोऽभिधीयते कुहनकुशील इति । वृक्षगुल्मादीनां पुष्पाणां, फलानां च संभवमुपदर्शयति, गर्भस्थापनादिकं च करोति यः स संमूर्छनाकुशीलः । 'त्रसजानां, कीटादीनां, वृक्षादीनां, पुष्पफलादीनां, गर्भस्य परिशातनं आभिचारिकं च यः करोति शापं च प्रयच्छति स प्रपातनकुशीलः । उक्तं च काओतिकभूदिकम्मे पसिणा पसिणे णिमित्तमाजीवे । कक्वकुहन समुच्छण पपादणादीकुसोलो दु॥ इति ।। कोई भूतिकर्मकुशोल होता है। यहाँ भूति शब्दसे भस्म, धूल, सरसों, पुष्प, फल, अथवा जल आदिसे मंत्र पढ़कर रक्षा या वशीकरण जो करता है वह भूतिकर्म कुशील है । कहा है जो भस्म, धूल, सरसों, पुष्प, फल, जल आदिके द्वारा रक्षा या वशीकरण करता है वह भूतिकर्म कुशील है। कोई प्रसेनिकाकुशील होता है। जो अंगुष्ठप्रसेनिका, अक्षरप्रसेनिका, शशिप्रसेनिका, सूर्यप्रसेनिका, स्वप्नप्रसेनिका आदि विद्याओंके द्वारा लोगोंका मनोरंजन करता है । कोई अप्रसेनिका कुशील होता है जो विद्या, मंत्र और औषध प्रयोगके द्वारा असंयमी जनोंका इलाज करता है। कोई निमित्तकुशील होता है जो अष्टांग निमित्तोंको जानकर लोगोंको इष्ट अनिष्ट बतलाता है। जो अपनी जाति, अथवा कुल बतलाकर भिक्षा आदि प्राप्त करता है वह आजीवकुशील है । जो किसीके द्वारा सताये जानेपर दूसरेकी शरणमें जाता है अथवा अनाथशालामें जाकर अपना इलाज कराता है वह भी आजीव कुशील होता है। जो विद्या प्रयोग आदिके द्वारा दूसरोंका द्रव्य हरने और दम्भप्रदर्शनमें तत्पर रहता है वह कक्वकुशील होता है। जो इन्द्रजाल आदिके द्वारा लोगोंको आश्चर्य उत्पन्न करता है वह कुहनकुशील है। जो वृक्ष, झाड़ी, पुष्प और फलोंको उत्पन्न करके बताता है तथा गर्भस्थापना आदि करता है वह सम्मूच्छनाकुशील है। जो त्रसजातिके कीट आदिका, वृक्ष आदिका, पुष्प फल आदिका तथा गर्भका विनाश करता है, उनकी हिंसा करता है, शाप देता है वह प्रपातन कुशील है । कहा है कौतुक कुशील, भृतिकर्म कुशील, प्रसेनिका कुशील, अप्रसेनिका कुशील, निमित्तकुशील, आजीव कुशील, कक्वकुशील, कुहनकुशील, सम्मूर्च्छनकुशील, प्रपातन कुशील आदि कुशील होते १. त्रसजातीनां -आ० । २. अभिसारिकं -मु० । Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५६ भगवती आराधना .:. आदिशब्दपरिगृहीताः कुशीला उच्यन्ते-क्षेत्रं हिरण्यं 'चतुष्पदं च परिग्रहं ये गृह्णन्ति हरितकन्दफलभोजिनः कृतकारितानुमतपिण्डोपधिवसतिसेवापराः, स्त्रीकथारतयः, मैथुनसेवापरायणाः, विवेकास्रवादि अधिकरणोद्यताश्च कुशीलाः । धृष्टः प्रमत्तः विकृतवेषश्च कुशीलः । संसक्तो निरूप्यते-प्रियचारित्रे प्रियचारित्रः अप्रियचारित्रे दृष्टे अप्रियचारित्रः, नटवदनेकरूपग्राही संसक्तः । पञ्चेन्द्रियेषु प्रसक्तः त्रिविधगौरवप्रतिबद्धः, स्त्रीविपये संक्लेशसहितः, गृहस्थजनप्रियश्च संसक्तः । 'अवसण्णो' अवसन्नः 1 पार्श्वस्थसंसर्गात्स्वयमपि पार्श्वस्थः, कुशीलसंसर्गात्स्वयमपि कुशीलः, यः स्वच्छन्दसंपर्कात्स्वयमपि स्वच्छन्दवृत्तिः । यथाछन्दो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाछन्द इति । तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयमःक्षरकर्तरिकादिभिः केशापनयनप्रशंसनं आत्मविराधनान्यथा भवतीति भमिशय्या तणजे वसतः अवस्थितानामाबाधेति, उद्देशिकादिके 'जनेऽदोषः ग्राम सकलं पर्यटतो महती जीवनिकायविराधनेति, "शहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी न विद्यत इति च भाषणं एवमादिनिरूपणापरा: स्वच्छन्दा इत्युच्यन्ते ॥१९४४॥ हैं । गाथामें आये आदि शब्दसे ग्रहण किये कुशीलोंको कहते हैं—जो क्षेत्र, सुवर्ण, चौपाये आदि परिग्रहको स्वीकार करते हैं, हरे कंद, फल खाते हैं, कृत कारित अनुमोदनासे युक्त भोजन, उपधि वसतिकाका सेवन करते हैं, स्त्रीकथामें लीन रहते हैं, मैथुन सेवन करते हैं, आस्रवके अधिकरणोंमें लगे रहते हैं वे सब कुशील है। जो धृष्ट, प्रमादी और विकारयुक्त वेष धारण करता है वह . कुशील है। __ अब ससंक्तका स्वरूप कहते हैं। चारित्र प्रेमियोंमें चारित्रप्रेमी, और चारित्रसे प्रेम न करनेवालोंमें चारित्रके अप्रेमी, इस तरह जो नटकी तरह अनेक रूप धारण करते हैं वे संसक्त मनि हैं । जो पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त होते हैं, ऋद्धिगारव, सातगारव और रसगारवमें लीन होते हैं, स्त्रियोंके विषयमें रागरूप परिणाम रखते हैं, और गृहस्थजनोंके प्रेमी होते हैं वे संसक्त मुनि हैं। वे पार्श्वस्थके संसर्गसे पार्श्वस्थ, कुशीलके संसर्गसे कुशील और स्वच्छन्दके सम्पर्कसे स्वयं भी स्वच्छन्द होते हैं। ___अव यथाच्छन्दका स्वरूप कहते है-जो बात आगममें नहीं कही है, उसे अपनी इच्छानुसार जो कहता है वह यथाच्छन्द है। जैसे वर्षामें जलधारण करना अर्थात् वृक्षके नीचे बैठकर ध्यान लगाना असंयम है। छरे कैंची आदिसे केश काटनेकी प्रशंसा करना और कहना कि केशलोच करनेसे आत्माको विराधना होती है। पृथ्वीपर सोनेसे तृणोंमें रहनेवाले जन्तुओंको बाधा होती है। उद्दिष्ट भोजनमें कोई दोष नहीं है क्योंकि भिक्षाके लिये पूरे ग्राममें भ्रमण करनेसे जीव निकायकी महती विराधना होती है । घरके पात्रोंमें भोजन करने में कोई दोष नहीं है ऐसा कहना। जो हाथमें भोजन करता है उसे परिशातन दोष लगता है ऐसा कहना। आजकल आगमानुसार आचरण करनेवाले नहीं हैं ऐसा कहना । इत्यादि कहने वाले मुनि स्वच्छन्द कहे जाते हैं ।।१९४४॥ ३. अकरणो -अ०। ४. के भोजने मुः । १. च पुष्पं च-अ०। २. विवेकादि -आ० । ५. गृह मात्रासु भो-अ० आ० । Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८५७ अविसुद्धभावदोसा कसायवसगा य मंदसंवेगा। अच्चासादणसीला मायाबहुला णिदाणकदा ॥१९४५॥ 'अविसुद्धभावदोसा' भावाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामाः, तेषां दोषाः शङ्कादयः ते अविशुद्धा अनिराकृता यैस्ते अविशुद्धभावदोषाः । 'कसायवसिगा' कषायवशवर्तिनः । मन्दसंवेगाः । 'अच्चासादणसीला' गुणानां गुणिनां चापमानकारिणः । प्रचुरमायानिदानं गताः ।।१९४५॥ सुहसादा किंमज्झा गुणसायी पावसुत्तपडिसेवी । विसयासापडिबद्धा गारवगरुया पमाइल्ला ॥१९४६।। 'सुखसादा' सुखास्वादनपराः । 'किंमज्झा' किं मह्यं केनचिंदिति सर्वेषु संघकार्येष्वनादृताः । 'गुणसायो गुणेषु सम्यग्दर्शनादिषु शेरत इव निरुत्साहाः । 'पावसुत्तपडिसेवी' आत्मनः परेषां वा अशुभपरिणामस्य मिथ्यात्वासंयमकषायाणां प्रवर्तकं शास्त्रं पापसूत्रं निमित्तं, वैद्यक, कौटिल्यं, स्त्रीपुरुषलक्षणं, धातुवादः, काव्यनाटकानि, चौर शास्त्रं, शस्त्रलक्षणं, प्रहरणविद्याचित्रकलागान्धर्वगन्धयुक्त्यादिकं एतस्मिन् पापसूत्रे कृतादराभ्यासाः 'विसयासापडिबद्धा' अभिमतविषयपरिप्राप्त्यर्था या आशा तस्यां प्रतिबद्धाः, 'तिगारवगुरुका' गारवत्रयैर्गुरवः । 'पमाइल्ला' विकथादिपञ्चदशप्रमादसहिताः ।।१९४६॥ . समिदीसु य गुत्तीसु य अभाविदा सीलसंजमगुणेसु । परतत्तीसु य तत्ता अणाहिदा भावसुद्धीए ॥१९४७।। 'समिदीसु य' समितिषु गुप्तिषु च संयमगुणेषु भावनारहिताः परव्यापारेषु प्रवृत्ता' भावशुद्धाः वनादृताः ॥१९४७॥ उक्त प्रकारके क्षपक मरते समय सन्मार्गसे क्यों च्युत हो जाते हैं यह सात गाथाओंसे कहते हैं गा०-टी०-वे क्षपक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप परिणामोंके जो शंका आदि दोष हैं उन्हें दूर नहीं करते हैं. कषायोंके वशवर्ती होते हैं, उनका संवेगभाव मन्द होता है, गुणोंका और गुणीजनोंका वे अपमान करते हैं, तथा माया और निदानशल्यकी उनमें प्रचुरता होती है ।।१९४५॥ गा०-टी०-वे सुखशील होते हैं, मुझे किसीसे क्या, ऐसा मानकर वे संघके सब कार्योंमें अनादरभाव रखते हैं, सम्यग्दर्शन आदि गुणोंमें उनका उत्साह नहीं होता। अपने और दूसरोंके अशुभ परिणामको तथा मिथ्यात्व, असंयम और कषायको बढ़ानेवाला शास्त्र पापसूत्र है । निमित्त शास्त्र, वैद्यक, कौटिल्यशास्त्र ( राजनीति ), स्त्री पुरुषके लक्षण बतलानेवाला कामशास्त्र, धातुवाद ( भौतिकी ), काव्य नाटक, चोरशास्त्र, शस्त्रोंका लक्षण बतलानेवाला शास्त्र, प्रहार करनेकी विद्या, चित्रकला, गांधर्व ( नाच गाना ), गन्धशास्त्र, युक्तिशास्त्र आदि पापशास्त्रोंमें उनका आदर होता है, उसीका वे अध्ययन करते हैं। इष्ट विषयोंकी आशामें लगे रहते हैं, तीन गारवमें आसक्त होते हैं । विकथा आदि पन्द्रह प्रमादोंमें युक्त होते है ।।१९४६।।। ___ गा०-समिति, गुप्ति और शील तथा संयमके गुणोंमें भावनासे रहित होते हैं। लौकिक कार्यो में संलग्न रहते हैं भावोंकी शुद्धिकी ओर ध्यान नहीं देते ॥१९४७॥ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ भगवती आराधना गंथअणियत्ततण्हा बहुमोहा सवलसेवणासेवी । सद्दरसरूवगंधे फासेसु य मुच्छिदा 'घडिदा ॥१९४८॥ 'गंथाणियत्ततण्हा' अतृप्तपरिग्रहतृष्णा, 'बहुमोहा' अज्ञानबहुलाः। शवलसेवनापराः, शब्दादिषु विषयेषु मूर्छिताः तवघटिताः ॥१९४८॥ परलोगणिप्पिवासा इहलोगे चेव जे सुपडिबद्धा । सज्झायादीस् य जे अणुट्ठिदा संकिलिट्ठमदी ॥१९४९।। 'परलोयणिप्पिवासा' परलोकनिस्पृहाः, ऐहिकेष्वेव कार्येषु प्रतिबद्धाः, स्वाध्यायादिष्वनुद्यताः, संक्लिष्टमतयः ।।१९४९॥ सव्वेसु य मूलुचरगुणेसु तह ते सदा अइचरंता । ण लहंति खवोवसमं चरित्तमोहस्स कम्मस्स ॥१९५०॥ मूलोत्तरगुणेषु सदा सातिचारा न लभन्ते चारित्रमोहस्य क्षयोपशमं ॥१९५०॥ एवं मूढमदीया अवंतदोसा करेंति जे कालं । . ते देवदुब्भगत्तं मायामोसेण पावंति ॥१९५१।। ‘एवं मूढमदीया' एवं मूढबुद्धयो अनपास्तदोषा ये कालं कुर्वन्ति ते देवदुर्भगतां प्राप्नुवन्ति मायया ।।१९५१॥ किंमज्झ शिरुच्छाहा हवंति जे सव्वसंघकज्जेस । ते देवसमिदिवज्झा कप्पते हुंति सुरमिच्छा ।।१९५२॥ "कि मज्झणिरुच्छाहा' कि मह्यमिति ये सर्वसंघकार्येष्वनादृतास्ते देवसमितिबाह्याः कल्पानामन्ते सुरम्लेच्छा भवन्ति ॥१९५२॥ गा०-उनकी परिग्रहकी तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती। अज्ञानमें डूबे रहते हैं । गृहस्थोंके आरम्भमें फँसे होते हैं, शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्शमें ममत्वभाव रखते हैं ।।१९४८।। गा०-परलोककी चिन्ता नहीं करते । इसी लोक सम्बन्धी कार्यों में लगे रहते हैं। स्वाध्याय आदिमें उद्यम नहीं करते । उनकी मति संक्लेशमय होती है ।।१९४९॥ गा०-सदा मूलगुणों और उत्तरगुणोंमें अतिचार लगाते हैं। इससे उनके चारित्रमोहका क्षयोपशम नहीं होता. ॥१९५०॥..: . गा. इस प्रकार दोषोंको दूर न करनेवाले वे मूढ़बुद्धि जब मरते हैं तो मायाचारके कारण अभागे देव होते हैं ॥१९५१॥ . .... गा०-वे मुनि अवस्थामें "मुझे इससे क्या' ऐसा मानकर संघके सब कार्यों में अनादर १. दा वडिया -आ० । २. तपः पतिताः आ० । आस्रवटि मु० । Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका कंदप्पभावणाए देवा कंदप्पिया मदा होंति । खिभिभावणा कालगदा होंति खिम्भिसया || १९५३ ।। अभिजोगभावणाए कालगदा आभिजोगिया हुंति । तह आसुरीए जुत्ता हवंति देवा असुरकाया ॥। १९५४ । सम्मोहणा कालं करितु दुंदुगा सुरा हुंति । अण्णपि देवदुग्गइ उवयंति विराधया मरणे ॥। १९५५ ॥ स्पष्टार्थमुत्तरगाथात्रयं ।। १९५३ ।। १९५४ ।। १९५५ ।। इय जे विराधयित्ता मरणे असमाधिणा मरेज्जण्ह | तं तेस बालमरणं होइ फलं तस्स पुच्तं ॥ १९५६।। 'इय जे विराधयित्ता' एवं ये रत्नत्रयं विनाश्य मरणकाले असमाधिना मृतिमुपयान्ति तत्तेषां बालमरणं भवति । तस्य बालमरणस्य फलं पूर्वमुक्तमेव ॥ १९५६ ॥ जे सम्मत्तं खवया विराधयित्ता पुणो मरेज्जण्हू | ते भवणवा सिजो दिसभोमेज्जा वा सुरा होंति ।।१९५७॥ 'जे सम्मतं खवगा' ये क्षपकाः सम्यक्त्वं विनाश्य म्रियन्ते भवनवासिनो ज्योतिष्का व्यन्तरा वा भवन्ति ।। १९५७ ॥ दंसणणाणविहूणा तदो चुदा दुक्खवेदणुम्मीए । संसारमण्डलगदा भमंति भवसागरे मूढा || १९५८ ।। ८५९ भाव रखनेके कारण देवोंकी समितिसे बहिष्कृत सौधर्मादि कल्पोंके अन्तमें बसनेवाले चाण्डाल जातिके देव होते हैं ॥१९५२ ॥ गा० - कन्दर्प भावनासे मरकर कन्दर्प जातिके देव होते हैं । किल्विषभावनासे मरकर किल्विषक जातिके देव होते हैं ।। १९५३ ॥ गा०-आभियोग्य भावनासे मरकर आभियोग्य जातिके देव होते हैं । तथा आसुरी भावनासे मरकर असुर जातिके देव होते हैं || १९५४ || गा० - सम्मोहन भावनासे मरकर दुंदुग जातिके देव होते हैं । अन्य भी विराधना करके मरनेवाले मुनि देवगति में हीन देव होते हैं ।। १९५५ ।। गा० - इस प्रकार जो क्षपक मरते समय रत्नत्रयको नष्ट करके असमाधिपूर्वक मरते हैं उनका वह मरण बालमरण होता है और उस बालमरणका फल पूर्व में कहा है || १९५६ ॥ गा० - जो क्षपक सम्यक्त्वको नष्ट करके मरते है वे मरकर भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिषीदेव होते हैं || १९५७|| गा०—–सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे रहित वे मूढ़देव स्वर्गसे च्युत होकर दुःखको वेदनारूपी लहरोंसे भरे संसारसमुद्र में भ्रमण करते हैं ॥१९५८|| १०८ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० भगवती आराधना 'दंसणणाणविहीणा' सम्यग्दर्शनज्ञानहीनास्ततः स्वर्गाच्च्युता दुःखवेदनोर्मीके भवसागरे मुढा भ्रमन्ति, . संसारमण्डलं गताः ।।१९५८॥ जो मिच्छत्त गंतूण किण्हलेस्सादिपरिणदो मरदि । तल्लेस्सो सो जायइ जल्लेस्सो कुणदि सो कालं ।।१९५९।। 'जो मिच्छत्तं गंतूण' यः कृष्णलेश्यादिपरिणतो मिथ्यात्वं गत्वा म्रियते तल्लेश्यो जायते । परत्र च यल्लेश्यः कालं कृतवान् । फलत्ति ॥१९५९।। विजहणा निरूप्यते एवं कालगदम्स दु सरीरमंतोव्व होज्ज वाहिं वा । विज्जावच्चकरा तं सयं विकिंचंति जदणाए ॥१९६०॥ ‘एवं कालगदस्य' एवं कालगतस्य शरीरमन्तर्बहिर्वावस्थितं वैयावृत्यकराः स्वयमेवापनयन्ति यत्नेन ।।१९६०॥ समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उडुबंधे ।। पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीहिया सव्वसाधूहि ॥१९६१॥ 'समणाणं ठिविकप्पो' श्रमणानां स्थितिकल्पो वर्षावासे ऋतुप्रारम्भे च नियमेन सर्वे: साभिनिषीधिका नियमन प्रतिलेखनीया ॥१९६१॥ तस्या लक्षणमाचष्टे एगंता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसण्णा । वित्थिण्णा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ॥१९६२॥ गा०--जो क्षपक मिथ्यादृष्टि होकर कृष्ण आदि लेश्याके साथ मरता है वह जिस लेश्याके साथ मरता है उसी लेश्यावाला होकर जन्म लेता है ।।१५५९।। गा०-इस प्रकार नगर आदिके मध्य में या नगरसे बाहर मरणको प्राप्त उस क्षपकके शरीरको वैयावृत्य करनेवाले परिचारक मुनि स्वयं ही सावधानतापूर्वक हटा देते हैं ।।१९६०॥ गा०-वर्षा ऋतुके चार मासोंमें एक स्थानपर वास प्रारम्भ करते समय और ऋतुके प्रारम्भमें सब साधुओंको नियमसे निषोधिकाकी प्रतिलेखना करना चाहिये, यह साधुओंका स्थितिकल्प है ।।१९६१।। विशेषार्थ-मुमुक्षु साधुगण तो अपने शरीरमें भी निरीह होते हैं वे मृत क्षपकके शरीरको हटानेका प्रयत्न क्यों करते हैं ? ऐसी शंका होनेपर आचार्य उत्तर देते हैं कि पूर्व में साधुओंके जो दस स्थितिकल्पोंका कथन किया है, उसमें एक मास और पज्जोरावण कल्प भी हैं । उसके अनुसार जब साधु वर्षा योग धारण करते हैं या ऋतुका प्रारम्भ होता है तब उन्हें निषीधिका दर्शन करना आवश्यक होता है। जहाँ क्षपकके शरीरको स्थापित किया जाता है उस स्थानको निषीधिका कहते हैं। इसलिये निषद्याका दर्शन साधुओंका आवश्यक कर्तव्य होनेसे मुमुक्षु साधु निषद्याके निर्माणके लिये स्वयं प्रयत्न करते हैं ॥१९६१॥ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८६१ __ 'एगंता सालोगा' एकांता परैः प्रायेणादृश्या नातिदूरा नात्यासन्ना विस्तीर्णा विध्वस्ता दूरमवगाढा ॥१९६२।। 'अविसुय असुसिर अघसा सा उज्जोवा बहुसमा असिणिद्धा । णिज्जंतुगा अरहिदा अविला य तहा अणाबाधा ॥१९६३॥ जा अवरदक्षिणाए व दक्षिणाए व अहव अबराए । वसधीदो 'विरइज्जइ णिसीघिया सा पसत्थत्ति ।।१९६४।। 'जा अवरदक्षिणाए' अपरदक्षिणाशायां, दक्षिणस्यां, अपरस्यां वा दिशि वसतितः निषीधिका प्रशस्ता ।।१९६३।।१९६४।। सव्वसमाधी पढमाए दक्षिणाए दु भत्तमो सुलभं । अवराए सुविहारो होदि य से उवधिलाभो य ॥१९६५।। 'सव्वसमाधी पढमाए' सर्वेषां समाधिर्भवति 'पढमाए' अपरदक्षिणदिगवस्थितायां निषोधिकायां, दक्षिणदिगवस्थितायामाहारः सुलभः । पश्चिमायां सुखविहारः उपकरणलाभश्च ॥१९६५॥ जदि तेसिं वाघादो दट्ठव्वा पुव्वदक्खिणा होइ। __ अवरुत्तरा य पुव्वा उदीचिपुव्वुत्तरा कमसो ॥१९६६॥ 'जदि तासि वाघादो' यदि ता निषीधिका न लभ्यन्ते, पूर्वदक्षिणनिषोधिका द्रष्टव्या, अपरोत्तरा वा पूर्वा वा उदीची वा पूर्वोत्तरा वा क्रमेण ॥१९६६॥ निषधाका लक्षण कहते हैं गा०-निषीधिका एकान्त स्थानमें होना चाहिये जहाँ दूसरे लोग उसे न देख सकते हों। नगर आदिसे न अति दूर और न अति निकट होनी चाहिये। विस्तीर्ण होनी चाहिये । प्रासुक होनी चाहिये तथा अतिदृढ़ होनी चाहिये ।।१९६२।। . गा०-वह चीटियोंसे रहित होनी चाहिये । अन्दर प्रवेश कराने वाले छिद्रोंसे रहित होनी चाहिये । प्रकाशवालो होनी चाहिये । समभूमि होनी चाहिये। गीली नहीं होनी चाहिये, जन्तु रहित होनी चाहिये। तिरछे छिद्रवाली नहीं होनी चाहिये तथा बाधारहित होनी चाहिये ॥१९६३।। गा०-तथा वह निषीधिका क्षपकके स्थानसे पश्चिम-दक्षिण दिशामें या दक्षिण दिशामें या पश्चिम दिशामें हो तो उत्तम होती है ॥१९६४॥ गा०-यदि निषीधिका पश्चिम-दक्षिण दिशामें हो तो सर्व संघको समाधिलाभ होता है। यदि दक्षिण दिशामें हो तो संघको आहार लाभ सुलभ होता है। यदि पश्चिम दिशामें हो तो संघका विहार सुखपूर्वक होता है तथा उपकरणोंका लाभ होता है ॥१९६५॥ गा०-यदि उक्त दिशाओंमें निषीधिका निर्माणमें बाधा हो तो क्रमशः पूर्व दक्षिणमें, पश्चिम-उत्तरमें, पूरबमें या उत्तरमें या पूर्वोत्तर में होना चाहिये ॥९१६६।। १. एतां टीकाकारो नेच्छति । अतिसुइ-आ०, अभिसुआ-मु० । २. अहरिदा मु० । ३. अचला आ० । ४. उवणिज्जइ आ० वणिजदि -मु०। Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना एदासु फलं कमसो जाणेज्ज तुमंतुमा य कलहो य । मेदो य गिलाणं पि य चरिमा पुण कड्ढदे अण्णं ॥१९६७।। 'एवासु' एतासु निषीधिकासु फलं क्रमशो विजानीयात् । 'तुमंतुमा ' पूर्वदक्षिणस्यां स्पर्धा, अपः . त्तरस्यां कलहः, पूर्वस्यां भेदः उदीच्या व्याधिः, पूर्वोत्तरस्यां अन्योन्येनापकृष्यते ॥१९६७।। जं वेलं कालगदो भिक्ख तं वेलमेव णीहरणं । जग्गणबंधणछेदणविधी अवेलाए कादव्वा ।।१९६८।। 'जं वेलं कालगदो भिक्खू तं वेलमेव णीहरणं' यस्यां वेलायां मृतो भिक्षुः तस्यां वेलायामेवापनयनं कर्तव्यं, अवेलायां मृतश्चेत जागरणं बन्धनं छेदनं वा कर्तव्यं ।।१९६८।। के जागरणं कुर्वन्तीत्याचष्टे बाले बुड्ढे सीसे तवस्सिभीरूगिलाणए दुहिदे । आयरिए य विकिचिय धीरा जग्गंति जिदणिद्दा ॥१९६९।। 'बाले बुड्ढे' बालवृद्धान्, शिक्षकान्, तपस्विनः, भीरून्, व्याधितान्, दुःखितानाचार्यांश्च अपाकृत्य धीरा जितनिद्रा जागरणं कुर्वन्ति ।।१९६९।। के बध्नंतीत्याचष्टे गीदत्था कदकरणा महाबलपरक्कमा महासत्ता । बंधंति य छिंदंति य करचरणंगुट्टयपदेसे ॥१९७०॥ गा-किन्तु पूर्व-दक्षिण दिशामें होनेसे 'मैं ऐसा हूँ, तुम ऐसे हो', इत्यादि रूप संघर्ष होता है। पश्चिमोत्तर दिशामें होनेसे कलह होता है। पूर्व दिशामें होनेसे संघमें भेद पड़ता है। उत्तर दिशामें होनेसे व्याधि होती है। पूर्वोत्तर दिशामें होनेसे परस्परमें खींचातानी होती है। यह क्रमसे उक्त दिशाओंमें निषद्या बनानेका फल है ।।१९६७।। विशेषार्थ-पं० आशाधर जीने अपनी टीकामें लिखा है कि पूर्वोत्तर दिशामें निषद्या करनेसे दूसरे मुनिकी मृत्यु होती है ।।१९६७।। गा०—जिस समय साधु मरे उसी समय उसे वहाँसे हटा देना चाहिये । यदि असमयमें मरा हो तो जागरण, बन्धन या छेदन करना चाहिये ।।१९६८।। जागरण कौन करते हैं यह कहते हैं गाo-वालमुनि, वृद्ध मुनि, शिक्षक मुनि, तपस्वी मुनि, डरपोक मुनि, रोगी मुनि और दुखित हृदय आचार्यो के सिवाय निन्द्रा को जीतनेवाले धीर मुनि जागरण करते हैं ।।१९६९।। बाँधते कौन हैं, यह कहते हैंगा०- जो मुनि गृहीतार्थ होते हैं, जिन्होंने अनेक बार क्षपकोंका कर्म किया है, महाबल Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८६३ 'गोदत्था गृहीतार्थाः, कृतकरणा महाबलपराक्रमा महासत्त्वा बध्नन्ति छिन्दन्ति च करचरणं अष्ठप्रदेश वा ।।१९७०।। एवमकरणे को दोष इत्याशङ्कायां दोषमाचष्टे जदि वा एस ण कीरेज्ज विधि तो तत्थ देवदा कोई । आदाय तं कलेवरमुट्ठिज्ज रमिज्ज बाधेज्ज ॥१९७१।। 'जदि वा एस' यद्येष विधिर्न क्रियते कदाचिद्देवता क्रीडनशीला मृतकमादाय उत्तिष्ठेत् प्रधावेद्रमेत वा बाधयेद्वा तद्दर्शनात् वालादोनां चित्तसंक्षोभः पलायनं मरणं वा भवेत् ।।१९७१।। 'उयसयपडिदावण्णं उवण्णगहिदं तु तत्थ उवकरणं । सागारियं च दुविहं परिहारियमपरिहरियं बा ॥१९७२।। जदि विक्खादा भत्तपइण्णा अज्जा व होज्ज कालगदो । देउलसागारित्ति व सिवियाकरणं पि तो होज्ज ॥१९७३।। 'जइ विक्खादा भत्तपदिण्णा' यदि सर्वजनप्रकटा सल्लेखना आर्यिका वा भवेत् कालगता स्थानरक्षका गृहस्था वा तत्र शिविका कर्तव्या ।।१९७२।।१९७३।। तेण परं संठाविय संथारगदं च तत्थ बंधित्ता। उद्वैतरक्खणटुं गामं तत्तो सिरं किच्चा ॥१९७४।। तेन परं संस्थाप्य तेन मृतकेन संस्तरबन्धात्ततो मृतकबन्धनं कृत्वा प्रामाभिमुखं शिरः कृत्वा उत्थानरक्षणार्थ ॥१९७४।। शाली, महापराक्रमी, महासत्वशाली वे मुनि मृतकके हाथ, पैर या अंगूठेको बाँधते या छेदते हैं ।।१९७०॥ ऐसा नहीं करने में दोष कहते हैं गा०-यदि यह विधि न की जाये तो कोई मनो-विनोदी देवता मृतकको उठाकर दौड़ सकता है, क्रीडा कर सकता है, बाधा पहुँचा सकता है और उसे देखकर बालक आदि का चित्त चंचल हो सकता है, वे डरकर भाग सकते हैं और उनका मरण भी हो सकता है ।।१९७१।। क्षपकके उपचारके लिये उपकरणोंके प्रकार बतलाते हैं गा०-कुछ उपकरण तो वसतिकासे सम्बद्ध होते हैं। कुछ उपकरण गृहस्थ सम्बन्धी होते हैं । उनमेंसे कुछ त्याज्य होते हैं और कुछ त्यागने योग्य नहीं हैं ॥१९७२।। अब आर्यिकाओंकी संन्यास विधि कहते हैं गा०-यदि भक्त प्रतिज्ञा मरण करने वाली विख्यात आर्यिका हो या कोई गहस्था हो या स्थान की रक्षिका हो तो उसके लिये शिविका बनाना चाहिये ।।१९७३।। गा०—शिविका बनानेके पश्चात् उसके शवको शिविकामें रखकर संस्तरके साथ उसे १. एतां टोकाकारो नेच्छति । Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ भगवती आराधना 'व्वाभोगिय मग्गेण आसु गच्छंति तं समादाय । अदमणियत्तता य पिट्ठदो अणिभंता ॥। १९७५ ।। २' पुव्वाभोगियमग्गेण' पूर्वालोकितेन मार्गेण आशु गच्छन्ति तत्समादाय अस्थितं अनिवर्तमानाः पृष्ठत आलोकनं मुक्त्वा ॥। १९७५ ॥ कुसमुट्ठि घेत्तूणय पुरदो एगेण होइ गंतव्वं । अदिअणियत्तंतेण पिट्ठदो लोयणं मुच्चा || १९७६।। 'कुसमुट्ठ घेत्तूण' कुशमुष्टि गृहीत्वा पुरस्तादेकेन गन्तव्यं, अस्थितं अनिवर्तमानेन अपृष्ठावलोकिना । १९७६ ॥ ते कुसमुट्ठिधाराए अव्वोच्छिण्णाए समणिपादाए । संथारो कादव्व सव्वत्थ समो सगिं तत्थ ।। १९७७ ।। 'ते कुसमुट्ठिधाराए' तेन पुरस्ताद्गतेन पूर्वनिरूपित निषोधिकास्थाने कुशमुष्टिधारया अव्युच्छिन्नया समनिपातया सर्वत्र समः सस्तरः कार्यः सकृत्तत्र ॥। १९७७॥ जत् ण होज्ज ताई चुण्णेहिं वि तत्थ केसरेहिं वा ॥ संघरिदव्वा लेहा सव्वत्थ समा अवुच्छिण्णा ।। १९७८ ।। 'जत्य ण होज्ज तणाई' यत्र न लभ्यन्ते कुशतृणानि तत्र चूर्णैर्वा केसरैर्वा संस्तरः कार्यः सर्वत्र समोऽव्युच्छिन्नः ॥९९७८॥ बाँध देना चाहिये जिससे वह उठ न सके । उसका सिर गाँवकी ओर रहना चाहिये || १९७४ ॥ गा०—उस शिविकाको लेकर पहले देखे हुए मार्गसे शीघ्र जाते हैं। न तो मार्ग में रुकते हैं और न पीछेकी ओर देखते हैं ।। १९७५ ।। गा०-- उसके आगे एक मुट्ठीमें कुश लेकर कोई मनुष्य जाना चाहिये । उसको भी न तो मार्ग में रुकना चाहिये और न पीछे देखना चाहिये || १९७६ ॥ गा०-- उस आगे गये पुरुषको पहलेसे देखे गये निषीधिकाके स्थानमें जाकर लगातार मुट्ठीसे एक समान कुश डालते हुए एक संस्तर बनाना चाहिये जो सर्वत्र सम हो || १९७७ || गा०- - जहाँ कुश न मिलते हों वहाँ प्रासुक चावल आदिके चूर्णसे अथवा प्रासुक केसरसे संस्तर बनाना चाहिये जो सर्वत्र सम हो ॥ १९७८॥ विशेषार्थ - गाथामें 'लेहा' पाठ है उसका अर्थ रेखा होता है । अतः आशाधर जीने उसका यह अर्थ किया है कि चूर्ण या केसरसे मस्तकसे लेकर पैर तक समान रेखा बनाना चाहिये । हमारी समझके अनुसार यह वह क्रिया है जिसे चौक पूरना कहते हैं । जो सर्वत्र शुभ क्रिया में किया जाता है || १९७८॥ १ - २. पुन्वालोगिय -आ० । Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६५ विजयोदया टीका असमत्वे दोषमाचष्टे जदि विसमो संथारो उवरि मज्झे व होज्ज हेट्ठा वा । मरणं गिलाणयं वा गणिवसभजदीण णायव्वा ॥१९७९।। 'जदि विसमो संथारो' यदि विषमः संस्तर उपरिष्टात् मध्ये अधस्ताद्वा । उपरिवैषम्ये गणिनो मरणं व्याधिर्वा, मध्ये विषमश्चेत् वृषभस्य मरणं व्याधिर्वा, अधस्ताद्विषमत्वे यतीनां मरणं व्याधिर्वा ॥१९७९।। जत्तो दिसाए गामो तत्तो सीसं करित्तु सोवधियं । उट्ट तरक्खण? वोसरिदव्वं सरीरं तं ॥१९८०॥ 'जत्तो दिसाए गामो' यस्यां दिशि ग्रामः ततः शिरः कृत्वा सपिच्छकं शरीरं व्युत्स्रष्टव्यं, उत्थानरक्षणार्थ प्रामादिगम भिमुखतया शिरोरचना ॥१९८०॥ उपकरणस्थापनायां तत्र गुणमाचष्टे जो वि विराघिय दंसणमंते कालं करित्त होज्ज सुरो । सो वि विबुज्झदि ठूण सदेहं सोवधि सज्जो ॥१९८१॥ 'जो वि विराधिय' योऽपि दर्शनं विनाश्यान्ते कालगतस्सुरो भवेत् सोऽपि जानाति सोपकरणं स्वदेहं दृष्ट्वा प्रागहं संयत इति ॥१९८१॥ णत्ता भाए रिक्खे जदि कालगदो सिवं तु 'सव्वेंसिं । एक्को दु समे खेत्ते दिवडढखेत मरंति दुवे ॥१९८२।। संस्तरेके विषम होनेपर दोष कहते हैं गा०-यदि संस्तर ऊपर मध्यमें या नीचे विषम होता है तो ऊपरमें विषम होनेपर आचार्य का मरण या उन्हें रोग होता है। मध्यमें विषम होनेपर एलाचार्यका मरण या उन्हें रोग होता है । और नीचे पैरके पास विषम होनेपर अन्य साधुओंका मरण या उन्हें रोग होता है ।।१९७९।। विशेषार्थ-आशाधर जी ने लिखा है कि उक्त व्याख्यान टीकाकारोंका है। किन्तु टिप्पणकमें कहा है-ऊपरमें विषम होनेपर गणिका मरण होता है। मध्यमें विषम होनेपर एलाचार्यको रोग होता है और नीचेमें विषम होने पर साधुओंको रोग होता है ।।१९७९|| गा०—जिस दिशामें ग्राम हो, उस ओर सिर करके पीछीके साथ उस शवको रख देना चाहिये । शवके उठनेके भयसे उसका सिर गांवकी ओर किया जाता है ॥१९८०।। उपकरण (पीछी) स्थापित करनेके गुण कहते हैं गा०-जो सम्यक्त्वकी विराधना करके मरकर देव होता है वह भी पीछीके साथ अपना शरीर (शव) देखकर ही यह जान लेता है कि मैं भी पूर्वभवमें संयमो था ॥१५८१।। गा०-अल्पनक्षत्रमें यदि क्षपकका मरण होता है तो सबका कल्याण होता है। यदि १. सव्वेहिं -अ० आ० । २. एक्को दु सो मरिज्ज वत्ते दिहधु खित्ते मरिति दुधो -आ० । Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ भगवती आराधना सदभिसभरणा अद्दा सादा असलेस्स जिट्ट अवरवरा । रोहिणिविसाहपुणव्वसु तिउत्तरा मज्झिमा सेसा ।।१९८३।। 'णत्ता भागे रिक्खे' अल्पनक्षत्रे यदि क्षपकः कालं गतः सर्वेभ्यः शिवं भवति, मध्यमनक्षत्रे यदि मृतः अन्येष्वेको मृतिमुपैति, महानक्षत्रे यदि मृतो द्वयोर्भवति मरणं ॥१९८२-१९८३॥ गणरक्खणत्थं तम्हा तणमयपडिबिंबयं खु कादण । एक्कं तु समे खेत्ते दिवड्ढखेत्ते दुवे देज्ज ॥१९८४॥ ' 'गणरक्खणत्यं' गणरक्षणार्थ तस्मात्तृणमयं प्रतिविम्बकं कृत्वा मध्यमनक्षत्रे एकं दद्यात् । उत्तमनक्षत्रे प्रतिबिम्बद्वयं ॥१९८४॥ प्रतिबिम्बदानमाचष्टे तट्ठाणसावणं चिय तिक्खुत्तो ठविय मडयपासम्मि । विदियवियप्पिय भिक्खू कुज्जा तह विदियतदियाणं ॥१९८५।। 'तट्ठाणसावणं' मृतकपावें तत्प्रतिबिम्बं स्थाप्य त्रिकमुच्चै?षयेत्, तस्मिन्स्थाने द्वितीयोऽपित इति एकार्पणेऽयं क्रमः । द्वयोः प्रतिबिम्बयोरपणे द्वितीयततीयौ दत्ताविति त्रिः श्रावयेत ॥१९८५॥ मध्यम नक्षत्र में मरण होता है तो शेष साधुओंमेंसे एकका मरण होता है। यदि महानक्षत्र में मरण होता है तो दो का मरण होता है ॥१९८२॥ गा-शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, ज्येष्ठा ये जघन्य नक्षत्र हैं। रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरा भाद्रपद, उत्तराषाढ़ा ये उत्कृष्ट नक्षत्र हैं। शेष नक्षत्र मध्यम है ।।१९८३।। विशेषार्थ-पं० आशाधर जी ने कहा है, अल्प नक्षत्रसे मतलब है जो पन्द्रह मुहुर्त तक रहते हैं । ऐसे शतभिषक् , भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, ज्येष्ठा इन छह मेंसे एक नक्षत्र या उसके अंशमें मरण होनेपर सबका कल्याण होता है। जो नक्षत्र तीस मुहूर्त तक रहते हैं ऐसे अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा, पूर्वभाद्रपद, रेवती, इनमेंसे किसी एक नक्षत्र या उसके अंशमें मरण होनेपर एक अन्य मुनिकी भी मृत्यु होती है। जो नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त तक रहते हैं ऐसे उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखामेंसे किसी एक नक्षत्र या उसके अंशमें मरण होनेपर दो अन्य मुनियोंकी भी मृत्यु होती है ॥१९८३॥ गा०-इस लिये संघकी रक्षाके अभिप्रायसे तृणोंका पुतला बनाकर यदि मध्यम नक्षत्रमें मरण हुआ है तो उसके साथ एक पुतला देवे । यदि उत्तम नक्षत्रमें मरण हुआ तो उसके साथ दो पुतले देवें ॥१९८४॥ गा०-टी०-मृतकके पासमें उस पुतलेको स्थापित करके तीन बार उच्च स्वरसे घोषणा करे कि मैंने उस दूसरेके स्थानमें यह दूसरा स्थापित किया है। जिसके स्थानमें यह पुतला स्थापित १, एषा गाथा नास्ति 'आ' प्रती। Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८६७ असदि तणे चुण्णेहिं च केसरच्छारिट्टियादिचुण्णेहिं । कादम्बोथ ककारो उवरिं हिट्ठा 'तकारो से ।।१९८६॥ 'असदि तणे' प्रतिबिम्बकरणार्थमसति तृणे चूर्णे: पुष्पकेसरैर्वा भस्मना इश्टका चूर्ण उपरि ककार लिखित्वा तस्याधस्तात् 'तकारं कुर्यात् क्त इति लिखेदित्यर्थः ।।१९८६॥ । उवगहिदं उवकरणं हवेज्ज जं तत्थ पाडिहरियं तु । पडिबोधित्ता सम्म अप्पेदव्वं तयं तेसिं ।।१९८७।। 'उवगहिदं उवकरणं' मृतकशयने यद्गृहीतमुपकरणं वस्त्रकाष्ठादिकं गृहस्थयाञ्चां कृत्वा तत्रोपकरेण यत्प्रतिनिवर्तनीयं वस्त्रादिकं तत्पाडिहारिकमित्युच्यते । तदर्पयितव्यं तेषां गृहस्थानां सम्यक्प्रतिबोध्य ॥१९८७।। आराधणपत्तीयं काउसग्गं करेदि तो संघो । अधिउत्ताए इच्छागारं खवयस्स वसधीए ।।१९८८॥ 'आराधणपत्तीयं' आराधनास्माकमित्येवं यथा स्यादिति संघः कायोत्सर्ग करोति, क्षपकस्य वसतौ अधियुक्तदेवतां प्रति इच्छाकारः कार्यः युष्माकमिच्छया संघोऽत्रासितुमिच्छतीति ॥१९८८।। सगणत्थे कालगदे खमणमसज्झाइयं च तदिवसं । ण ज्झाइ परगणत्थे भयणिज्ज खमणकरणंपि ।।१९८९।। सगणत्थे कालगदे' आत्मीयगणस्थे यतौ कालं गते उपवासः कार्यः स्वाध्यायश्च न कर्तव्यस्तस्मिन किया है वह चिरकाल तक जीवित रहकर तपस्या करे। यह एक पुतला देनेका विधान है। दो पुतले स्थापित करने पर तीन वार घोषणा करे कि मैंने दूसरा और तीसरा पुतला स्थापित किया है । ये दोनों जिनके बदले में स्थापित किये हैं वे दोनों साधु चिरकाल तक जीवित रहकर तप करें ॥१९८५।। गा०-यदि पुतला बनानेके लिये तृण न हों तो ईंट पत्थर आदिके चूर्णसे अथवा, केशर, क्षार वगेरहसे ऊपर ककार लिखकर उसके नीचे तकार लिखे। इस प्रकार 'क्त' अक्षर लिखे ॥१९८६॥ गा०-टी०-मृतकको शय्याके निर्माणके लिये गृहस्थोंसे जो वस्त्र काष्ठ आदि लिया गया हो, उनमेंसे जो लौटा देने योग्य हो उसे पाडिहारिक कहते हैं। उस पाडिहारिकको गृहस्थोंको सम्यक् रोतिसे समझा बुझाकर लौटा देना चाहिये ।।१९८७॥ गा०-हमें भी इसी प्रकार आराधनाकी प्राप्ति हो इस भावनासे संघ एक कायोत्सर्ग करे । तथा क्षपककी वसतिकाकी जो अधिष्ठात्री देवता हो उसके प्रति इच्छाकार करे कि आपकी इच्छासे संघ इस स्थानपर बैठना चाहता है ॥१९८८।। गा०-टी०-अपने संघके साधुका स्वर्गवास होनेपर उस दिन उपवास करना चाहिये और १-२. य कारो आ० मु० । ३. त काय इति -आ० मु० । ४, सज्झाइ -मु० । Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना ८६८ दिने । परगणस्थे कालं गते पठन्ति उपवासकरणमपि भाज्यं । अन्ये तु पठन्ति, 'ण ज्झाइ परगणत्थे' 'स स्वाध्यायः कर्तव्यः परगणस्थे मृते उपवासकरणीयं भाज्यमिति तेषां व्याख्या ।। १९८९ ॥ एवं डिट्ठवित्त पुणो वि तदियदिवसे उवेक्खति । संघस्स सुहविहारं तस्स गदी चेव णादुं जे ॥१९९० ॥ 'एवं पडिट्ठवित्ता' उपतेन क्रमेण क्षपकशरीरं प्रतिष्ठाप्य पुनस्तृतीये दिवसे गत्वा पश्यन्ति, संघस्य सुखविहारं तस्य च गतिं ज्ञातुं ॥। १९९० ॥ जदि दिवसे संचिट्ठदि तमणालद्धं च अक्खदं मडयं तदिवासाणि सुभिक्खं खेमसिवं तम्हि रज्जम्मि ।।१९९१ ॥ 'जदि दिवसे' यावन्तो दिवसाः न वृकादिभिरस्पृष्टमक्षतं च तन्मृतकं 'तदिवासाणि' तावन्ति वर्षाणि सुभिक्षं क्षेमं शिवं च तस्मिन् राज्ये ॥। १९९१ ॥ जं वा दिसमुवणीदं सरीरयं खगचदुप्पदगणेहिं । खेमं सिवं सुभिक्खं विहरिज्जो तद्दिसं संघो । १९९२ ।। 'जं वा दिसमुवणीदं' यां वा दिशमुपनीतं शरीरं पक्षिभिश्चतुष्पदेर्वा तां दिशं संघो विहरेत् क्षेमादिकं तत्र ज्ञात्वा ॥ १९९२ ॥ जदि तस्स उत्तमंगं दिस्सदि दंता च उवरिगिरिसिहरे । कम्ममलविप्पक्को सिद्धिं पत्तोत्ति णादव्वो ।।१९९३ ।। 'जदि तस्स उत्तमंग' यदि तस्य शिरो दृश्यते दन्ता वा गिरिशिखरस्योपरि कर्ममलविप्रमुक्तः सिद्धिमसौ प्राप्त इति ज्ञातव्यः ।।१९९३ ।। स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । दूसरे संघके साधुका मरण होनेपर स्वाध्याय नहीं ही करना चाहिये । उपवास कर भी सकते हैं, नहीं भी करते । अन्य ऐसा पढ़ते हैं कि दूसरे संघके साधुका मरण होनेपर स्वाध्याय करना चाहिये । उपवास कर भी सकते हैं नहीं भी करते || १९८९|| गा०—उक्त प्रकारसे क्षपकका शरीर स्थापित करके तीसरे दिन जाकर देखते हैं कि संघका विहार सुखपूर्वक होगा या नहीं । तथा मृतककी गति अच्छी हुई या बुरी || १९९० ॥ गा०-जितने दिनों तक वह शव गीदड़ आदिसे सुरक्षित रहता है उतने वर्षों तक उस राज्य में सुभिक्ष और शान्ति रहती है ।। २९९१ ॥ गा०—अथवा पक्षी और पशुओंके द्वारा वह शरीर जिस दिशामें ले जाया गया हो क्षेमसुभिक्ष आदि जानकर उसी दिशा में संघको विहार करना चाहिये || १९९२|| गा० - यदि उसका सिर और दांत पर्वतके शिखरके ऊपर दिखाई दे तो वह मुक्तिको प्राप्त हुआ है, ऐसा जानना चाहिये || १९९३॥ १. न स्वा -आ० मु० । Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६९ विजयोदया टीका वेमाणिओ थलगदो समम्मि जो दिसि य वाणविंतरओ । गड्डाए भवणवासी एस गदी से समासेण ॥१९९४।। 'वेमाणिओ थलगदो' वैमानिको देवो जात उत्तमभूमिस्थे उत्तमाङ्गे, समभूमिदेशे यदि दृश्यते ज्योतिष्को व्यन्तरो जातः, गर्ते यदि दृश्यते भवनवासी देवो जातः, एपा गतिस्तस्य संक्षेपेण निरूपिता । विजहणत्ति सत्रपदं गतं । विजहणा ||१९९४॥ आराधकस्तवनमुत्तरं ते सूरा भगवंतो ते सूरा भयवंतो आहच्चइदण संघमज्झम्मि । आराधणापडाया चउप्पयारा धिदा जेहिं ॥१९९५।। 'ते सूरा भगवंतः आहच्चइदूण' प्रतिज्ञां कृत्वा संघमध्ये चतुष्प्रकाराधना पताका यैरागृहीता ॥१९९५।। ते धण्णा ते णाणी लद्धो लाभो य तेहिं सव्येहिं । आराधणा भयवदी पडिवण्णा जेहिं संपुण्णा ।।१९९६।। 'ते धण्णा' पुण्यवन्तः । ते ज्ञानिनः, ते लव्धलाभाः, सर्वेभ्यो यैराराधना भगवती संपूर्णा प्रतिपन्ना ॥१९९६॥ किं णाम तेहिं लोगे महाणभावहिं हुज्ज ण य पत्तं । आराधणा भगवदी सयला आराधिदा जेहिं ।।१९९७।। _ कि णाम तेहिं लोगे' किनाम तैर्लोके महानुभागेरप्राप्तं पराराधिता सकला आराधना भगवती ॥१९९७॥ विशेषार्थ-आशाधरजी ने 'कर्ममल विप्रमुक्त' का अर्थ मिथ्यात्व आदि स्तोक कर्मो से मुक्त किया है। तथा लिखा है कि जयनन्दिके टिप्पणमें 'सिद्धि' का अर्थ सवार्थसिद्धि किया है। किन्तु प्राकृतटीकामें सिद्धिका अर्थ निर्वाण किया है ।।१९९३॥ गा०-टी०- यदि मृतकका मस्तक उन्नत भूमिभागमें दिखाई दे तो वह मरकर वैमानिक देव हुआ जानना। यदि सम भूमिभागमें दिखाई दे तो वह ज्योतिष्क देव या व्यन्तर हुआ जानना। यदि गढ़ेमें दिखाई दे तो वह भवनवासी देव हुआ जानना। इस प्रकार यह उसकी गति संक्षेपमें कही है ॥१९९४॥ आगे आराधक क्षपकका स्तवन करते हैं गा०-जिन्होंने संघके मध्यमें प्रतिज्ञा करके चार प्रकारकी आराधना रूप पताकाको ग्रहण किया वे शूरवीर और पूज्य हैं ॥१९९५॥ गा०-जिन्होंने भगवती आराधनाको सम्पूर्ण किया वे पुण्यशाली और ज्ञानी हैं और उन्होंने जो प्राप्त करने योग्य था उसे प्राप्त कर लिया ।।१९९६।। गा०—जिन्होंने सम्पूर्ण भगवती आराधनाका आराधन किया उन महानुभावोंने लोकमें क्या प्राप्त नहीं किया ॥१९९७।। Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७० भगवती आराधना निर्यापकस्तवनमुत्तरं ते वि य महाणुभावा धण्णा जेहिं च तस्स खवयस्स । सव्वादरसत्तीए उवविहिदाराधणा सयला ॥१९९८।। 'ते वि य महाणुभावा' तेऽपि च महाभागा धन्या यस्तथा तस्य क्षपकस्य सर्वादरेण शक्त्या च सकलाराधना उपविहिता ॥१९९८॥ निर्यापकानां फलमाचष्टे जो उवविधेदि सव्वादरेण आराधणं खु अण्णस्स । संपज्जदि णिविग्धा सयला आराधणा तस्स ।।१९९९।। 'जो उवविधेदि' यो ढोकयति सर्वादरेण अन्यस्याराधना तस्य आराधना सकला निर्विघ्ना संपद्यते ॥१९९९।। ये क्षपकप्रेक्षणाय यान्ति तानपि स्तौति ते वि कदत्था धण्णा य हुँति जे पावकम्ममलहरणे । पहायति खवयतित्थे सव्वादरभत्तिसंजुत्ता ।।२०००। 'ते पिकवत्था' तेऽपि कृतार्थाः धन्याश्च भवन्ति ये क्षपकतीर्थे पापकर्ममलापहरणे सर्वादराभियुक्ताः स्नान्ति ॥२०००। क्षपकस्य तीर्थतां व्याचष्टे गिरिणदियादिपदेसा तित्थाणि तवोधणेहिं जदि उसिदा । तित्थं कधं ण हुज्जो तवगुणरासी सयं खवउ ।॥२००१।। आगे निर्यापकको प्रशंसा करते हैं गाल-वे महानुभाव भी धन्य हैं जिन्होंने सम्पूर्ण आदर और शक्तिसे उस क्षपककी आराधना सम्पन्न की ||१९९८॥ निर्यापकोंको प्राप्त होनेवाले फलको कहते हैं गा०-जो निर्यापक सम्पूर्ण आदरके साथ अन्यकी आराधना कराता है-उसको समस्त आराधना निर्विघ्न पूर्ण होती है ।।१९९९।। जो क्षपकको देखने जाते हैं उनकी भी प्रशंसा करते हैं गा०-टी०-क्षपक एक तीर्थ हैं क्योंकि संसारसे पार उतारनेमें निमित्त है। उसमें स्नान करनेसे पापकर्म रूपी मल दूर होता है। अतः जो दर्शक समस्त आदर भक्तिके साथ उस महातीर्थमें स्नान करते है वे भी कृतकृत्य होते हैं तथा वे भी सौभाग्यशाली हैं ।।२०००। क्षपकके तीर्थ होनेका समर्थन करते हैं गा०-यदि तपस्वियोंके द्वारा सेवित पहाड़ नदी आदि प्रदेश तोर्थ होते हैं तो तपस्यारूप गुणोंकी राशि क्षपक स्वयं तीर्थ क्यों नहीं है ॥२००१।। Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८७१ 'गिरिणदियादिपदेसा' गिरिनद्यादिप्रदेशा यदि तपोधनैरुषितानि तीर्थानि तीर्थ स्वयं कथं न भवेत् क्षपकस्तपोगुणराशिः ॥२००१॥ पुवरिसीणं पडिमाओ वंदमाणस्स होइ जदि पुण्णं । खवयस्स बंदओ किह पुण्णं विउलं ण पाविज्ज ॥२००२॥ 'पुव्वरिसीणं पडिमाउ' पूर्वेषां ऋषीणां प्रतिमा वंदमानस्य यदि पुण्यं भवति क्षपके वन्दनोद्यतः कथं विपुलं पुण्यं न प्राप्नुयात् ।।२००२॥ जो ओलग्गदि आराधयं सदा तिव्वभत्तिसंजुत्तो। संपज्जदि णिव्विग्धा तस्स वि आराहणा सयला ||२००३।। 'जो ओलग्गदि आराधयं' यस्सेवते आराधकं सदा तीव्रभक्तिसंयुक्तः, संपद्यते निर्विघ्ना तस्याप्याराधना सकला ॥२००३॥ सविचारभत्तवोसरणमेवमुववण्णिदं सवित्थारं । अविचारभत्तपच्चक्खाणं एत्तो परं वच्छं ॥२००४॥ 'सविचारभत्तवोसरणं' सविचारभक्तप्रत्याख्यानमेवमुपवणितं सविस्तरं अविचारभक्तप्रत्याख्यानं अतः परं प्रवक्ष्यामि ॥२००४॥ तत्थ अविचारभत्तपइण्णा मरणम्मि होइ आगाढो । अपरक्कम्मस्स मुणिणो कालम्मि असंपुहुत्तम्मि ॥२००५।। 'तत्थ अविचारभत्तपदिण्णा' अविचारभक्तप्रत्याख्यानं सहसोपस्थिते मरणे भवति । अपराक्रमस्य यतेः सविचारभक्तप्रत्याख्यानस्य काले असति ॥२००५॥ तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं । तदियं परमणिरुद्धं एवं तिविधं अवीचारं ।।२००६॥ 'तत्थ पढम णिरुद्ध' तत्र अवीचारभक्तप्रत्याख्याने प्रथमं निरुद्ध, द्वितीयं निरुद्धतरकं, तृतीयं परमनिरुद्ध एवं त्रिविधमवीचारभक्तप्रत्याख्यानं ॥२००६॥ गा०-यदि प्राचीन ऋषियोंकी प्रतिमाओंकी वन्दना करनेवालेको पुण्य होता है तो क्षपक की वन्दना करने वालोंको विपुल पुण्य क्यों नहीं प्राप्त होगा ॥२००२।। गा०-जो तीव्र भक्तिपूर्वक क्षपककी सेवा करता है उसकी भी सम्पूर्ण आराधना सफल होती है ।।२००३।। गा०--इस प्रकार विस्तारसे विचारपूर्वक किये गये भक्तप्रत्याख्यानका कथन किया। आगे अविचार भक्तप्रत्याख्यानका कथन करते हैं ।।२००४।। गा०-जब विचार पूर्वक भक्तप्रत्याख्यान करनेका समय न रहे, और सहसा मरण उपस्थित हो जाये तो कुछ करने में असमर्थ मुनि अविचार भक्त प्रत्याख्यान स्वीकार करता है ।।२००५।। गा०-अविचार भक्तप्रत्याख्यानके तीन भेद हैं-प्रथम निरुद्ध, दूसरा निरुद्धतर और तीसरा परमनिरुद्ध ||२००६|| Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ भगवती आराधना निरुद्धमेवंभूतस्य भवतीत्याचष्टे तस्स णिरुद्धं भणिदं रोगादंकेहिं जो समभिभूदो । जंघाबलपरिहीणो परगणगमणम्मि ण समत्थो ॥२००७।। 'तस्स णिरुद्ध भाणदं' तस्य निरुद्धमुक्तं रोगेण आतङ्केन वा यस्समभिभूतः जङ्घाबलपरिहीनो वा परगणगमनासमर्थो यः ॥२००७॥ जावय बलविरियं से सो विहरदि ताव णिप्पडीयारो । पच्छा विहरदि पडिजग्गिज्जंतो तेण सगणेण ।।२००८॥ 'जावय बलविरियं' यावद्वलवीयं चास्ति । 'से' तस्य । 'सो विहरात' स तावद्गणे प्रवर्तते निष्प्रतीकारः यदा शक्तिस्तीव्रन्यूना तदा पश्चाद्विहरति तेन स्वगणेन क्रियमाणोपकारः ।।२००८।। इय सण्णिरुद्धमरणं भणियं अणिहारिमं अवीचारं । सो चेव जधाजोग्गं पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स ॥२००९।। __ 'इय सण्णिरुद्धमरणं भणिदं' एवं सन्निरुद्धमरणं भणितं, जनाबलपरिहोनतया व्याध्यभिभवेन वा स्वस्मिन्गणे निरुद्धो यस्तस्य मरणं निरुद्धमरणं । 'अणिहारिम' सविचारभक्तप्रत्याख्यानोक्तपरित्यागाभावात्, परित्यागहीनं अनियतविहारादिविधिविचारणाभावादवीचारं। आत्मीय एव गणे आचार्यस्य समीपे प्रव्रज्यातीचारं उक्त्वा निन्दागर्हापरः कृतप्रतिक्रमः कृतप्रायश्चित्तो यावद्वीर्यमस्ति तावन्निष्प्रतीकारो विहरति, यदा' हीनसर्वचेष्टस्तदा परैरनुगृह्यमाणो विहरति ॥२००९॥ निरुद्ध किसके होता है, यह कहते हैं गा०—जो रोगसे ग्रस्त है, पैरोंमें चलनेकी शक्ति न होनेसे दूसरे संघमें जाने में असमर्थ है उसके निरुद्ध नामक अविचार प्रत्याख्यान होता है ॥२००७॥ गा०-जबतक उसमें शक्ति रहती है तबतक वह अपने संघमें रहते हुए किसीसे परिचर्या नहीं कराता। पीछे शक्तिहीन होनेपर अपने संघके द्वारा परिचर्या कराता हुआ विहरता है ॥२००८॥ __ गा०-टी०-पैरोंमें चलनेकी शक्ति न होनेसे तथा रोगसे ग्रस्त होनेके कारण जो अपने ही संघमें निरुद्ध है-रुका है उसके मरणको निरुद्धमरण कहते हैं। इस प्रकार निरुद्धमरणका स्वरूप कहा है। सविचार भक्तप्रत्याख्यानमें जिस प्रकार संघ आदिका त्याग किया जाता है वह इसमें संभव न होनेसे यह मरण परित्यागसे रहित है। और इसमें अनियत विहार आदि विधिका विचार न होनेसे यह अवीचार है। अर्थात् अपने ही संघमें आचार्यके समीपमें दीक्षा लेकर उनसे अपने दोष कहकर अपनी निन्दा और गर्दा करता है, प्रतिक्रमण करता है, प्रायश्चित्त लेता है। और जब तक शक्ति रहती है तब तक दूसरेकी सहायताके विना अपनी आराधना करता है। जब शक्ति अत्यन्त हीन हो जाती है तब दूसरोंसे सहायता लेकर अपनी आराधनाओंका पालन करता है ।।२००९।। Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८७३ दुविधं तं पि अणीहारिमं पगासं च अप्पगामं च । जणणादं च पगासं इदरं च जणेण अण्णादं ॥२०१०॥ 'दुविधं तं पि अणीहारिमं' द्विविधं तदपि अणीहारसंज्ञितं भक्तप्रत्याख्यानं प्रकाशरूपमप्रकाशरूपमिति । ज्ञातं प्रकाशरूपमितरदप्रकाशात्मकं ॥२०१०॥ खवयस्स चित्तसारं खित्तं कालं पडुच्च सजणं वा । अण्णम्मि य तारिसयम्मि कारणे अप्पगासं तु ।।२०११॥ 'खवगस्स चित्तसारं' क्षपकस्य वृद्धि, बलं, क्षेत्र, कालं, स्वजनं वा प्रतिपद्य अन्यस्मिन्वा तादृशे कारणे जाते अप्रकाशभक्तप्रत्याख्यानं, यदि क्षपकः क्षुदादिपरीषहासहः, वसतिर्वा अविविक्ता, कालो वा अतिरूक्षो, बंधवो वा यदि परित्यागविघ्न कुर्वन्ति न प्रकाशः कार्य: । णिरुद्धगदं ॥२०११॥ निरुद्धतरगं व्याचष्टे बालग्गिवग्घमहिसगयरिंछपडिणीय तेण मिच्छेहि । मुच्छाविसूचियादीहिं होज्ज सज्जो हु वावत्ती ।।२०१२।। 'वालग्गिवग्घमहिस' व्यालेनाग्निना, व्याघ्रण, महिषेण, गजेन, ऋक्षेण, शत्रुणा, स्तेनेन, म्लेच्छेन, मूर्च्छया, विसूचिकादिभिर्वा सद्यो व्यापत्तिर्भवेत् ॥२०१२।। जाव ण वाया क्खियदि बलं च विरियं च जाव कायम्मि । तिव्वाए वेदणाए जाव य चित्तं ण विक्खित्तं ॥२०१३।। 'जाव ण वाया खियदि' यावद्वाग्न विनश्यति बलं वीर्यं च यावदस्ति काये तीनया वेदनया यावच्चित्तं न व्याक्षिप्तं भवति तावत ॥२०१३।। गा०-टो०-वह अनिहार नामक भवतप्रत्याख्यान, जिसमें अपना संघ नहीं छोड़ा जाता है, और इसीलिये जिसे स्वगणस्थ भी कहा जाता है, दो प्रकार है--एक प्रकाशरूप और दूसरा अप्रकाशरूप । जो लोगोंके द्वारा ज्ञात होता है वह प्रकाशरूप है और जिसकी लोगोंको खबर नहीं होती, वह अप्रकाशरूप है ।।२०१०॥ गा०-टी०-क्षपकके मनोबल, क्षेत्र, काल अथवा स्वजन तथा इस प्रकारके अन्य कारणके होनेपर उसे दृष्टि में रखकर अप्रकट भक्तप्रत्याख्यान होता है। अर्थात् यदि क्षपक भूख प्यास आदिकी परीषह सहने में असमर्थ होता है, या, वसति एकान्तमें नहीं होती, या ग्रीष्म आदि ऋतु होती हैं, या परिवारके लोग विघ्न कर सकते हैं तो समाधिको प्रकट नहीं किया जाता ॥२०११।।. अब निरुद्ध समाधिकी विधि कहते हैं गा०-सर्प, आग, व्याघ्र, भंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर, म्लेच्छ, मूर्छा या विसूचिका आदि रोगसे तत्काल यदि मरण उपस्थित हो ॥२०१२॥ गा०-तो जब तक बोलो बन्द न हो, जब तक शरीरमें बल और शक्ति रहे, और जब तक तीव्र वेदनाके कारण चित्त व्याकुल न हो ॥२०१३।। Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ भगवती आराधना णच्चा संवट्टिज्जंतमाउगं सिग्यमेव तो भिक्खू । गणियादीणं सण्णिहिदाणं आलोचए सम्मं ॥२०१४।। ‘णच्चा संवट्टिज्जतं आउगं' ज्ञात्वा संह्रियमाणमायुः शीघ्रमेव ततो भिक्षुराचार्यादीनां सन्निहितानामालोचनां सम्यक् कुर्यात् रत्नत्रयाराधनायां परिणतः । व्युत्सृजेत् वसति, संस्तरमाहारमुपधिं शरीरं परिचारकान्, बलवीर्य हानेः परगणगमनासमर्थाः 'निरुद्धाः प्रदेशाः प्रकर्पण निरुद्धतरक इत्युच्यते ।।२०१४।। एवं णिरुद्धदरयं विदियं अणिहारिमं अवीचारं । सो चेव जधाजोगं पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स ॥२०१५॥ स्पष्टार्थगाथा । निरुद्धरं ॥२०१५।। वालादिएहिं जइया अक्खित्ता होज्ज भिक्खुणो वाया । तइया परमणिरुद्धं भणिदं मरणं अवीचारं ॥२०१६॥ 'वालादिएहि' व्यालादिभिः पूर्वोक्तः यदोपहृतस्य वाग्विनष्टा तदा परिमनिरुद्धमरणं । वाग्निरोधोऽत्र परमशब्देनोच्यते ॥२०१६॥ णच्चा संवट्टिज्जंतमाउगं सिग्यमेव तो भिक्खू । अरहंतसिद्धसाहूण अंतिगं सिग्घमालोचे ॥२०१७।। 'णच्चा संविट्टिज्जतं आउगं' ज्ञात्वोपसंव्हियमाणमायुः अर्हतां सिद्धानां साधूनां चान्तिके शीघ्र मालोचनाः कुर्यात् ।।२०१७।। गा०-साधु, अपनी आयुको शीघ्र ही समाप्त होती हुई जानकर जो निकटवर्ती आचार्य आदि हों, उनके सन्मुख अपने दोषोंकी सम्पपसे आलोचना करे। तथा रत्नत्रयकी आराधनामें तत्पर होता हुआ वसति, संस्तर, आहार, उपधि, शरीर और परिचारकोंसे ममत्वका त्याग कर दे। बल और वीर्यके क्षीण होनेसे जिनके प्रदेश अन्य संघमें जानेमें अत्यन्त असमर्थ होते हैं उन्हें निरुद्धतरक कहते हैं ।।२०१४|| गा०-इस प्रकार विहार रहित अत्यन्त निरोध रूप अविचार भक्तप्रत्याख्यानके दूसरे भेद निरुद्धतरका कथन किया। पूर्व में भक्त प्रत्याख्यानकी जो विधि कही है वही विधि यथायोग्य यहाँ भी जानना ॥२०१५|| गा०-जब पूर्वोक्त सर्प आदिसे डसे जानेके का.ण क्षपककी वाणी नष्ट हो जाती है, वह .बोल नहीं सकता तब उसके परम निरुद्ध नामक अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है । यहाँ परम शब्दसे वाणीका रुकना कहा है ॥२०१६॥ गा०-तब वह साधु शीघ्र ही अपनी आयुको समाप्त होती हुई जान अर्हन्तों, सिद्धों और साधुजनोंके पासमें तत्काल आलोचना करे ॥२०१७॥ १. द्धा प्रदेशं प्रकर्षण निरुद्ध इति निरुद्धतरक इत्युच्यते -अ० । Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ८७५ आराधणाविधी जो पुव्वं उववण्णिदो सवित्थारों । सो चेव जज्जमाणों एत्थ विही होदि णादव्वो ॥२०१८॥ 'आराधणाविधी' आराधनाया विधेर्यः पूर्व विस्तारो व्यावर्णितः स एवात्रापि युज्यमानो ज्ञातव्यः ॥२०१८॥ एवं आसुक्कारमरणे वि सिझंति केइ धुदकम्मा । आराधयित्त केई देवा वेमाणिया होति ॥२०१९।। ‘एवं आसुक्कारमरणे वि' एवं सहसा मरणेऽपि सिध्यन्ति विधुतकर्मसंहतयः । केचिदाराध्य वैमानिका देवा भवन्ति ।।२०१९॥ आराधणाए तत्थ दु कालस्स बहुत्तणं ण हु पमाणं । बहवो मुहुत्तमत्ता संसारमहण्णवं तिण्णा ।।२०२०॥ कथमल्पेन कालेन निर्वृतिर्मान्येत्याशङ्का न कार्यति वदति-'आराधणाए तत्थ दु"तस्यामाराधनायां कालस्य बहुत्वं न प्रमाणं । वहवो मुहूर्तमात्रेणाराध्य संसारमहार्णवं तीर्णाः ॥२०२०॥ खणमेत्तेण अणादियमिच्छादिट्ठी वि वद्धणो राया। उसहस्स पादमूले संबुज्झित्ता गदो सिद्धिं ।।२०२१।। 'खणमेत्तेण' क्षणमात्रेणानादिमिथ्यादृष्टिरपि वर्द्धननामधेयो राजा ऋषभस्य पादमूले संबुद्धो गतः सिद्धि ॥२०२१॥ 'सोलसतित्थयराणं तित्थप्पण्णस्स पढमदिवसम्मि । सामण्णणाणसिद्धी भिण्णमुहुत्तेण संपण्णा ॥२०२२।। परमणिरुद्ध ॥२०२२॥ गा०-पूर्वमें जो आराधनाकी विधि विस्तार पूर्वक कही हैं वही यहाँ भी यथायोग्य जामना ॥२०१८॥ गा०-इस प्रकार सहसा मरण होनेपर भी कोई-कोई मुनि कर्मोंको नाश करके मुक्त होते हैं और कोई आराधना करके वैमानिक देव होते हैं ॥२०१९।। गा०-थोड़े ही समयमें मोक्ष कैसे हो सकता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आराधनामें कालका बहुतपना प्रमाण नहीं है। बहुतसे मुनि एक मुहूर्त मात्रमें आराधना करके संसारसमुद्रको पार कर गये हैं ॥२०२०॥ गा०-अनादि मिथ्यादृष्टि भी वर्द्धन नामका राजा. भगवान् ऋषभदेवके पादमूलमें बोध को प्राप्त होकर मोक्षको गया ॥२०२१॥ ____ गा०-भगवान् ऋषभदेवसे शान्तिनाथ तीर्थकर पर्यन्त सोलह तीर्थकरोंके तीर्थकी उत्पत्ति होनेके प्रथम दिन ही बहुतसे साधु दीक्षा लेकर एक अन्तमुहूर्तमें केवलज्ञानको प्राप्तकर मुक्त हए ॥२०२२॥ १. एतां टीकाकारो नेच्छति । ११० Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ भगवती आराधना एसा भत्तपइण्णा वाससमासेण वण्णिदा विधिणा । इत्तो इंगिणिमरणं वाससमासेण वण्णेसिं ॥२०२३।। 'एसा भत्तपदिण्णा' एतद्भक्तप्रत्याख्यानं व्यासेन संक्षेपेण च वणितं । अत ऊद्धर्व सांन्यासिकमिगिणीमरणं व्याससमासाभ्यां वर्णयिष्यामि ॥२०२३॥ जो भत्तपदिण्णाए उवक्कमो वण्णिदो सवित्थारो । सो चेव जधाजोग्गं उवक्कमो इंगिणीए वि ॥२०२४ । 'जो भत्तपदिण्णाए' यो भक्तप्रत्याख्यानस्य उपक्रमो व्यावर्णितः सविस्तारः स एव यथासंभवमुपक्रमो इंगिणीमरणेऽपि ॥२०२४॥ पव्वज्जाए सुद्धो उवसंपज्जित्तु लिंगकप्पं च । पवयणमोगाहित्ता विणयसमाधीए विहरित्ता ॥२०२५।। 'पव्वज्जाए सुद्धों' प्रव्रज्यायां शुद्धो दीक्षाग्रहणयोग्य इत्यर्थः । एतेन अर्हता निरूपिता । 'उवसंपज्जित्त' प्रतिपद्य । लिंगकप्पं च' योग्यं लिङ्ग लिगं' इत्यनेन सूचितम् । 'पवयणमोगाहित्ता' श्रु तमवगाह्य एतेन शिक्षा उपन्यस्ता । 'विणयसमाधोए विहरित्ता' विनयसमाधौ विहृत्य ।।२०२५।। णिप्पादित्ता सगणं इंगिणिविधिसाधणाए परिणमिया । सिदिमारुहित्तु भाविय अप्पाणं सल्लिहिताणं ।।२०२६।। 'णिप्पादित्ता सगणं' योग्यं कृत्वा स्वगणं । इंगिणीविधिसाधनाय परिणतो भूत्वा, सिदिमारुहित्त' परिणामश्रेणिमारुह्य । 'भाविय' भावनां प्रतिपद्य । 'अप्पाणं सल्लिहिताणं' आत्मानं संलेख्य ॥२०२६॥ गा०-इस भक्तप्रत्याख्यानका विस्तार और संक्षेपसे विधिपूर्वक कथन किया। आगे इगिनीमरण का विस्तार और संक्षेपसे वर्णन करेंगे ॥२०२३।। गा०-जो भक्त प्रत्याख्यानकी विधि विस्तारसे कही है वही विधि इंगिनीमरणको यथायोग्य जाननी चाहिये ॥२०२४॥ वही विधि कहते हैं गा-जो दीक्षा ग्रहणके योग्य है वह निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके श्रुतका अभ्यास करे तथा विनय और समाधिमें विहार करे ।।२०२५।। विशेषार्थ-दीक्षा ग्रहण योग्यसे अर्हत्ताका कथन किया है, लिंगसे लिंगकी सूचना की है। और श्रुताभ्याससे शिक्षाका ग्रहण किया है। इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यानमें जो कहा था उसीको यहाँ कहा है ॥२०२५।। गा०-अपने संघको इंगिणीमरणकी विधिकी साधनामें योग्य करके अपने चित्तमें यह निश्चय करे कि मैं इंगिणीमरणको साधना करूंगा। फिर शुभ परिणामोंकी श्रेणि पर आरोहण करके तप आदिकी भावना करे और अपने शरीर और कषायोंको कृश करे ।।२०२६।। Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७७ विजयोदया टीका परियाइगमालोचिय अणजाणित्ता दिसं महजणस्स । तिविधेण खमावित्ता सवालवुड्डाउलं गच्छं ।।२०२७।। 'परियाइगमालोचिय' क्रमेण रत्नत्रयाचारमालोच्य । 'अणुजाणित्ता' अनुज्ञाय । "दिसं' गणधरं । 'महजणस्स' महाजनस्य चतुविधसंघस्येत्यर्थः । 'तिविधेण खमावित्ता' त्रिविधेन क्षमां ग्राहयित्वा । सबालवृद्धाकुलं गच्छं ॥२०२७।। अणुसर्टि दादण य जावज्जीवाय विप्पओगच्छी । अब्भदिगजादहासो णीदि गणादो गुणसमग्गो ।।२०२८॥ 'अणुसद्धिं दादूण य' शिक्षां दत्वा गणपतेर्गणस्य च । 'जावज्जीवाय विप्पओगच्छो' यावज्जीवं विप्रयोगार्थी । 'अन्भदिगजावहासो' कृतार्थोऽस्मीति जातहर्षः । ‘णोदि गणादो' निर्याति यतिगणात् । 'गुणसमग्गो' संपूर्णगुणः ॥२०२८॥ एवं च णिक्कमित्ता अंतो बाहिं व थंडिले जोगे । पुढवीसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एक्को ।।२०२९।। __"एवं च णिक्कमित्ता' एवं विनिष्क्रम्य । 'थंडिले जोगे' समे समुन्नते कठिने जीवरहिततया योग्ये । 'अंतो वाहि व' अंतर्बहिर्वा । 'पुढवीसिलामए वा' पृथ्वीसंस्तरे शिलामये वा । 'अप्पाणं णिज्जवे एक्को' आत्मानं निर्जयेद् देहसहायः ॥२०२९॥ पुव्वुत्ताणि तणाणि य जाचित्ता थंडिलम्मि पुव्वत्ते । जदणाए संथरित्ता उत्तरसिरमधव पुन्वसिरं ॥२०३०॥ 'पुग्वत्ताणि तणाणि य' पूर्वोक्तानि तृणानि निस्संधि निःछिद्रजंतुरहितानि शरीरस्थितिसाधनमात्राणि मृदूनि प्रतिलेखनायोग्यानि ग्राम नगरं वा प्रविश्य याञ्चया गृहीतानि पूर्वोक्ते स्थण्डिले कोऽसौ सालोकः गा०-रत्नत्रयमें लगे दोषोंकी क्रमसे आलोचना करे और अपने स्थान पर अन्य आचार्यकी स्थापना करके उन्हें सब बतला दे। तथा चतुर्विध वृद्ध मुनियोंसे भरे अपने गच्छको शिक्षा देकर जीवनपर्यन्तके लिये संघसे अलग होनेकी इच्छा करता हुआ प्रसन्न होता है कि मैं कृतार्थ हुआ और इस प्रकार वह सम्पूर्ण गुणोंसे विशिष्ट होकर मुनिसंघसे चला जाता है ॥२०२७-२८॥ गा०-इस प्रकार संघसे निकलकर गुफा आदिके अन्दर या बाहर जीवरहित तथा समान रूपसे ऊँचे कठिन भूमिप्रदेशमें पृथ्वीरूप संस्तर पर या शिलामय संस्तर पर एकाको आश्रय लेता है। अपने शरीरके सिवाय उसका अन्य कोई सहायक नहीं होता ॥२०२९।। ___गा०-टो०-वह गाँव या नगरमें जाकर तृणोंकी याचना करता है जो तृण छिद्ररहित, जन्तुरहित, कोमल तथा शरीरकी स्थितिके लिये साधन मात्र और प्रतिलेखनाके योग्य होने चाहियें उन तृणोंको वह उक्त भूमि प्रदेश पर प्रतिलेखनापूर्वक सावधानतासे पृथक्-पृथक् करके १. येदसहायः आ० मु० । Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७८ भगवती आराधना विस्तीर्णो विध्वस्तः असुषिरोऽबिल: निर्जन्तुकस्तस्मिस्थण्डिले । 'जदणाए संथरित्ता' यत्नेन संस्तरं कृत्व! .' यत्नः ? तृणानां पृथक्करणं संस्तरभूमिप्रतिलेखनं, 'उत्तरसिरमधव पुन्वसिरं संथारं संथरित्ता य' पूर्वत्तिमाङ्गमुत्तरोत्तमाङ्ग वा संस्तरं संस्तीर्य शिरःप्रभृति कायं पादौ च यत्नेन प्रमाज्यं ॥२०३०।। पाचीणाभिमुहो वा उदीचिहुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा । सीसे कदंजलिपुडो भावेण विसुद्धलेस्सेण ।।२०३१।। 'पाचीणाभिमुखो वा उदीचिहुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा' प्राङ्मुखो उदङ्मुखो वा भूत्वा तत्र संस्तरे संस्थित्वा । 'सीसे कदंजलिपुडो' मस्तके न्यस्तकृताञ्जलिः । 'भावेण विसुद्धलेस्सेण' विशुद्धलेश्यासमन्वितेन भावेन ॥२०३॥ अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं । दंसणणाणचरित्तं परिसारेदूण णिस्सेसं ॥२०३२।। 'अरहादिअंतियं अईदाद्यन्तिकं । 'तो' पश्चात आलोचनां कृत्वा सुपरिसद्ध 'दंसणणाणचरित्तं पडिसारेदूण' दर्शनज्ञानचारित्राणि संस्कृत्य निरवशेष ॥२०३२।। सव्वं आहारविधि जावज्जीवाय वोसरित्ताणं । वोसरिदूण असेसं अब्भंतरवाहिरे गंथे ।।२०३३।। सर्व आहारविधि सर्व आहारविकल्प । यावज्जीवं परित्यज्य बाह्याभ्यन्तरानशेषान् परिग्रहांश्च त्यक्त्वा ।।२०३३॥ सव्वे विणिज्जिणंतो परीषहे धिदिबलेण संजुत्तो । लेस्साए विरुज्झंतो धम्मं ज्झाणं उवणमित्ता ।।२०३४।। 'सव्वे विणिज्जिणंतो' सर्वांश्च जयन् परिषहान् धृतिबलसमन्वितः लेश्याभिविशुद्धः सन् धर्मध्यानं प्रतिपद्य ॥२०३४॥ फैला देता है। वह भूमिप्रदेश भी प्रकाश सहित, विस्तीर्ण, छिद्ररहित तथा जन्तुरहित होना चाहिये । उसपर संस्तर ऐसा होना चाहिये जिसमें सिर पूर्वदिशा या उत्तर दिशाकी ओर रहे । तब सिरसे लेकर पैर तक शरीरका सावधानीसे परिमार्जन करके पूरब या उत्तरकी और मुख करके उस संस्तर पर बैठता है और हाथोंकी अंजली बनाकर मस्तकसे लगाता है तथा विशुद्ध लेश्या पूर्वक अर्हन्त आदिके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को पूर्ण रूपसे निर्मल करता है ॥२०३०-२०३२।। गा-समस्त प्रकारके आहारके विकल्पको जीवनपर्यन्तके लिये त्याग देता है तथा समस्त अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहको त्याग देता है ॥२०३३।। ___ गा०-धैर्यके बलसे युक्त वह क्षपक सब परीषहोंको जीतता है और लेश्या विशुद्धिसे सम्पन्न हो, धर्मध्यान करता है ।।२०३४।। Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७९ विजयोदया टीका ठिच्चा णिसिदित्ता वा तुवट्टिदण व सकायपडिचरणं । सयमेव णिरुवसग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयवं ॥२०३५।। सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। उच्चारादीणि तधा सयमेव विकिंचिदे विधिणा ।।२०३६।। जाधे पुण उवसग्गा देवा माणुस्सिया व तेरिच्छा । ताधे णिप्पडियम्मो ते अधियासेदि विगदभओं ।।२०३७॥ आदितियसुसंघडणो सुभसंठाणो अभिज्जधिदिकवचो । जिदकरणो जिदणिदो ओघबलो ओघसूरो य ।।२०३८।। "ठिच्चा' स्थित्वा आसित्वा शयनं वा कृत्वा स्वकायपरिकरं स्वयमेव निरुपसर्गे विहारे करोति । स्वमेवात्मनः करोत्याङ्कचनादिकाः क्रियाः उच्चारकादिकं च निराकारोऽति प्रतिष्ठापनासमितिसमन्वितः । यदि पुण उवसग्गा' यदा पुनरुपसर्गा दवमनुष्यतिर्यक्कृता भवन्ति तदा निष्प्रतीकारस्तान् सहते विगतभयः । 'मादितिगसुसंघडणो' आद्येषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमसंहननः शुभसंस्थानोऽभेद्यधृतिकवचो जितकरणो जितनिद्रो महाबलो नितरां शूरः ॥२०३५-२०३८।। बीभत्थभीमदरिसणविगुविदा भूदरक्खसपिसाया । खोभिज्जो जदि वि तयं तधवि ण सो संभम कुणइ ॥२०३९।। 'वोसत्यभीमदंसणविगुन्विदा' वीभत्सभीमदर्शनविक्रिया भूतराक्षसपिशाचा यद्यपि क्षोभं कुर्वन्ति तथा प्यसौ न संभ्रमं करोति ॥२०३९।। इढिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसदेवकण्णाओ। 'लोलंति जदिवि तगं तधवि ण सो विम्भयं जाई ॥२४०॥ गा०-वह कायोत्सर्गसे स्थित होकर अथवा पर्यङ्कासन आदिसे बैठकर अथवा एक पार्श्वसे शयन करते हए धर्मध्यान करता है। तथा उपसर्गरहित दशामें स्वयं ही अपने शरीरकी परिचर्या-हाथ-पैरोंका संकोचन, फैलाना आदि करता है। स्वयं ही प्रतिष्ठापना समितिपूर्वक शौच आदि करता है। यदि देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यञ्चकत उपसर्ग होता है तो उसका प्रतिकार नहीं करता है और निर्भय होकर उसे सहन करता है। क्योंकि उसके आदिके वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच नामक तीन शुभ संहननोंमेंसे कोई एक संहनन होता है, समचतुरस्र संस्थान होता है। न भेदने योग्य धैर्यरूपो कवच होता है। वह इन्द्रियों और निद्रा पर विजय प्राप्त करता है । महाबली और शूरवीर होता है ॥२०३५-३८॥ गा०-यदि अत्यन्त भयंकर विक्रियाके द्वारा भूत, राक्षस और पिशाच जातिके व्यन्तरदेव उसे डरावें तो भी वह विचलित नहीं होता ।।२०३९।। । १. लालेति -मूलारा० । Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० भगवती आराधना 'इडिढमतुलं विगुश्विय' ऋद्धिमतुलां विकृत्य किन्नरकिंपुरुषादिदेवकन्या यद्यप्युपलालनं कुर्वन्ति तदाप्यसो न विस्मयं याति ॥२०४०।। सव्वो पोग्गलकाओ दुक्खत्ताए जदिवि तमुवणमेज्ज । तधवि य तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोत्तिया को वि ॥२०४१॥ 'सम्वो पोग्गलकाओ' सर्व पुद्गलद्रव्यं दुःखतया यदि तमभिहन्ति तथापि तस्य न जायते ध्यानस्यान्यथावृत्तिः ॥२०४१॥ सव्वो पोग्गलकाओ सोक्खत्ताए जदि वि तमुवणमेज्ज । तघ वि हु तस्स ण जायदि उझाणस्स विसोत्तिया को वि ।।२०४२।। स्पष्टोत्तरगाथा ॥२०४२।। . सच्चित्ते साहरिदो तत्थ उवेक्खदि वियत्तसव्वंगो । उवसग्गे य पसंते जदणाए थंडिलमुवेदि ॥२०४३।। 'सच्चित्ते साहरिदो' व्याघ्रादिभिः सचित्ते निक्षिप्तः स तत्रैवोपेक्षते त्यक्तसर्वाङ्गः । उपसर्गे प्रशांते यत्नेन स्थण्डिलमुपैति ॥२०४३।। एवं उवसग्गविधि परीसहविधिं च सोधिया संतो। . मणवयणकायगुत्तो सुणिच्छिदो णिज्जिदकसाओ ॥२०४४॥ 'एवं उवसग्गविधि' एवमुपसर्गान् परिषहांश्च सहमानस्त्रिगुप्तः सुनिश्चितो निजितकषायः ॥२०४४॥ इहलोए परलोए जीविदमरणे सुहे य दुक्खे य । णिप्पडिबद्धो विरहदि जिददुक्खपरिस्समो धिदिमं ॥२०४५।। गा०—किन्नर किंपुरुष जातिके व्यन्तर देवोंकी देवांगनाएँ अतुल ऋद्धिरूप विक्रियाके द्वारा यदि उसे लुभाती हैं तो भी वह उनके लोभमें नहीं आता ॥२०४०॥ गा०-यदि तीन लोकवर्ती समस्त पुद्गल द्रव्य दुःखरूप परिणत होकर उसे दुःखी करें तब भी वह ध्यानसे विचलित नहीं होता ॥२०४१।। गा०.-तथा तीन लोकवर्ती समस्त पुद्गलद्रव्य सुखरूप परिणत होकर उसे सुखी करें तब भी वह ध्यानसे विचलित नहीं होता ॥२०४२॥ गा०-यदि व्याघ्र आदिके द्वारा वह हरित तृणोंसे भरे हुए प्रदेशमें डाल दिया जाता है तो अपने शरीरका मोहत्याग शान्तभावसे वहीं स्थिर रहता है और उपसर्ग दूर होनेपर सावधानता पूर्वक तृणरहित भूमिप्रदेश में चला आता है ।।२०४३।। गा०-इस प्रकार उपसर्गों और परीषहोंको सहन करते हुए वह मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्तिका पालन करता है । तथा स्थिरतापूर्वक कषायोंको जीतता है ।।२०४४।। गा०-दुःख और परिश्रमपर विजय प्राप्त करने वाला वह धीर वीर क्षपक इस लोक, Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८८१ 'इहलोगे परलोगे' इह परत्र च जीविते मरणे सुखे दुःखे च अप्रतिबन्धो विहरति जित दुःखपरिश्रमः घृतिमान् ॥२०४५ ।। वायणपरियदृणपुच्छणाओ मोचूण तघय धम्मथुदिं । सुत्तत्थ पोरिसीसु विसरेदि सुत्तत्थमेयमणो ||२०४६ ॥ 'वायणपरियहणपुच्छणाओ' वाचनां परिवर्तनं, प्रश्नं च मुक्त्वा च तथा धर्मोपदेशं सूत्रस्यार्थस्य वा स्मरत्येकचित्तः || २०४६ ॥ एवं अट्ठवि जामे अनुवट्टो तच्च ज्झादि एयमणो । जदि आधच्चा णिद्दा हविज्ज सो तत्थ अपदिण्णों ॥। २०४७ || 'एवं अट्ठवि जामे' एवमेवाष्टसु यामेषु निरस्तशयन क्रियो घ्यात्येक चित्तः, यद्याहत्य निद्रा भवेत् तत्र अप्रतिज्ञोऽसौ || २०४७॥ सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओं । जम्हा मसाणमज्झे तस्स य झाणं अपडिसिद्ध ॥२०४८|| 'सज्झायका ? पडिलेहणादिकाओ' स्वाध्यायकाल प्रतिलेखनादिकाः क्रिया न सन्ति यस्मात् श्मशानमध्येऽपि तस्य ध्यानं न प्रतिषिद्धं । २०४८ ॥ आवासगं च कुणदे उवधोकालम्मि जं जहिं कमदि । उवकरणंपि पडिलिहइ उवधोकालम्मि जदणाए || २०४९ ।। 'आवासगं च कुणदे' आवश्यकं च करोति कालद्वयेऽपि यस्मिन्काले प्रवर्तते, उपकरणप्रतिलेखनमपि यत्नेन कालद्वये करोति ॥ २०४९|| परलोक, जीवन, मरण, सुख और दुःखमें रागद्व ेष रहित होकर विहरता है अर्थात् न जीवन आदिसे राग करता है और मरण आदिसे द्वेष करता है || २०४५।। गा॰—स्वाध्यायके पाँच भेदोंमेंसे वाचना, आम्नाय, पृच्छना और धर्मोपदेशको त्यागकर वह अस्वाध्यायकालमें भी एकाग्रमनसे सूत्रके अर्थका ही अनुचिन्तन करता है । अर्थात् सतत अनुप्रेक्षारूप स्वाध्यायमें ही लीन रहता है || २०४६|| गा० - इस प्रकार वह दिन रातके आठों पहरोंमें निद्राको त्यागकर एकाग्र मनसे ध्यान करता है । यदि कभी बलात् निद्रा आ जाती है तो सो लेता है || २०४७|| गा० - अन्य मुनियोंकी तरह न तो उनका स्वाध्यायकाल ही नियत होता है और न उन्हें प्रतिलेखना आदि क्रिया करना ही आवश्यक होता है । उनके लिये स्मशानमें भी ध्यान करना निषिद्ध नहीं है || २०४८|| गा०- - किन्तु दिन रातमें जब जो आवश्यक करनेका विधान है वह अवश्य करते हैं और सावधानता पूर्वक दोनों कालोंमें अपने उपकरणोंकी प्रतिलेखना भी करते हैं || २०४९|| Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ भगवती आराधना सहसा चुक्करकलिदे णिसीधियादीसु मिच्छकारे सो। आसिअणिसीधियाओ णिग्गमणपवेसणे कुणइ ॥२५००। 'सहसा चुक्करकलिदे' सहसा स्खलने जाते मिथ्या मया कृतमिति ब्रवीति, निष्क्रमणप्रवेशयोः आसिकानिषीधिकाशब्दप्रयोगं करोति ।।२०५०॥ पादे कंटयमादि अच्छिम्मि रजादियं जदावेज्ज । गच्छदि अघाविधिं सो परणीहरणे य 'तुण्हिक्कों ॥२०५१।। ‘पादे कंटयमादि' पादयोः कंटकप्रवेशे नेत्रयोः रजःप्रभृतिप्रवेशेऽपि तूष्णीमास्ते, परनिराकरणेऽपि स तूष्णीमास्ते ॥२०५१॥ वेउव्वणमाहारयचारणखीरासवादिलद्धीसु । तवसा उप्पण्णासु वि विरागभावेण सेवदि सो ॥२०५२।। 'वेउव्वणमाहारय' विक्रियाऋद्धौ आहारकऋद्धौ चारणऋद्धो क्षीरास्रवादिलब्धिषु वा तपसोत्पन्नास्वपि विरागतया न किंचित्सेवते सः ॥२०५२॥ मोणाभिग्गहणिरदो रोगादंकादिवेदणाहेदु । ण कुणदि पडिकारं सो तहेव तण्हाछुहादीणं ॥२०५३।। 'मोणाभिग्गहणिरदो' मौनव्रतोपपन्नः रोगातङ्कादिवेदनानिमित्तं प्रतीकारं न करोति तथैव तृडादीनामपि ॥२०५३।। उवएसो पुण आइरियाणं इंगिणिगदो वि छिण्णकघो। देवेहिं माणुसेहिं व पुट्ठो धम्म कधेदित्ति ।।२०५४॥ गा०-यदि उसमें क्वचित् चूक जाते हैं तो 'मेरा दोष मिथ्या हो' 'मैंने गलत किया ऐसा बोलते हैं। तथा बाहर जाने और भीतर प्रवेश करनेपर 'आसही, निसही' शब्दोंका उच्चारण भी करते हैं ॥२०५०॥ गा०-यदि पैरमें काँटा घुस जाता है या आँखमें धूल आदि चली जाती है तो चुप रहते हैं स्वयं उसे दूर नहीं करते । यदि दूसरा दूर करता है तब भी चुप ही रहते हैं ।।२०५१।। गा०-यदि तपके प्रभावसे उन्हें विक्रिया ऋद्धि, आहारक ऋद्धि या चारण ऋद्धि अथवा क्षीरास्रव आदि ऋद्धियाँ प्रकट होती हैं तो विरागी होनेसे उनका किञ्चित् भी सेवन नहीं करते ॥२०५२॥ गा०-वह मौनका पालन करनेमें लीन रहते है, रोग आदिसे होनेवाले कष्टको दूर करनेका प्रयत्न नहीं करते। इसी प्रकार भूख प्यास आदिका भी प्रतीकार नहीं करते ॥२०५३॥ १. तुसिणीओ -मु० । Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८८३ 'उवएसो पुण आइरियाण' उपदेशः पुनः आचार्याणां इङ्गिणीगतोऽपि धर्म कथयति देवमनुष्यैर्वा पृष्टः । कथं कथयति छिन्नकथं प्रवर्तनेन महता ॥२०५४॥ एवमधक्खादविधिं साधित्ता इंगिणी धुदकिलेसा । सिझंति केइ केई हवंति देवा विमाणेसु ॥२०५५।। 'एवमक्खादविधि' एवं यथाख्यातक्रमेण इङ्गिणी प्रसाध्य निरस्तक्लेशाः केचित्सिध्यन्ति, केचिद्वैमानिकदेवा भवन्ति ॥२०५५।। एदं इंगिणिमरणं वाससमासेण वण्णिदं विधिणा । पाओगमरणमित्तो समासदो चेव वण्णेसिं ॥२०५६॥ स्पष्टार्था गाथा । इङ्गिणी ॥२०५६।। पाओवगमणमरणस्स होदि सो चेव उवक्कमो सव्वो। वुत्तो इंगिणिमरणस्सुक्कमो जो सवित्थारो ॥२०५७।। स्पष्टार्थः ।।२०५७॥ णवरिं तणसंथारो पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो । आदपरपओगेण य पडिसिद्ध सव्वपरियम्मं ॥२०५८॥ 'गरि तणसंथारो' णवरं तृणसंस्तरः प्रायोपगमनगतस्य प्रतिषिद्धः, आत्मपरप्रयोगेण यस्मात्प्रतिषिद्धः सर्वः प्रतीकारः । स्वपरसंपाद्यप्रतीकारापेक्षः भक्त.प्रत्याख्यानविधिः, परनिरपेक्षमात्मसंपाद्यप्रतीकारर्मिगिणीमरणं, सर्वप्रतीकाररहितं प्रायोपगमनमित्यमीषां भेदः ॥२०५८॥ गा०-अन्य आचार्यो का मत है कि इंगिणीमरण करते हुए भी क्षपक देवों या मनुष्योंके द्वारा पूछे जानेपर थोड़ासा धर्मोपदेश भी करता है किन्तु अधिक नहीं करता ॥२०५४॥ गा०-इस तरह ऊपर कहे अनुसार इंगिणीमरणकी साधना करके कोई तो समस्त क्लेशोंसे छूटकर मुक्त हो जाते हैं और कोई मरकर वैमानिकदेव होते हैं ॥२०५५।। गाo-इस इंगिणीमरणका विस्तार और संक्षेपसे विधिपूर्वक कथन किया। आगे प्रायोपगमनका संक्षेपसे कथन करेंगे ॥२०५६।। गा०-ऊपर इंगिणीमरणकी जो विस्तारसे विधि कही है वही सब विधि प्रायोपगमन मरणकी होती है ॥२०५७|| गा०—किन्तु इतना विशेष है कि प्रायोपगमनमें तृणोंके संथरेका-तृणशय्याका निषेध है । क्योंकि उसमें स्वयं अपनेसे और दूसरोंसे भी सब प्रकारका प्रतीकार करना कराना निषिद्ध हैं ।।२०५८॥ टी० - भक्तप्रत्याख्यानमें तो अपनी सेवा स्वयं भी कर सकता है और दूसरोंसे भी करा सकता है । इंगिणीमें अपनी सेवा स्वयं कर सकता है, दूसरोंसे नहीं करा सकता। किन्तु १. छिन्नकथं प्रवर्तितेन -आ। Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना सो सल्लेहिददेहो जम्हा पाओवगमणमुवजादि । उच्चारादिविकिंचणमवि पत्थि पओगदो तम्हा ॥२०५९।। 'सो सल्लेहिददेहो' स सम्यक्तनूकृतशरीरो यस्मात्प्रायोपगमनमुपयाति तस्मादुच्चारादिनिराकरणमपि नास्ति प्रयोगतः ॥२०५९।। पुढवी आऊतेऊवणप्फदितसेसु जदि वि साहरिदो । वोसचत्तदेहो अधाउगं पालए तत्थ ।।२०६०॥ 'पुढवी आऊतेऊवणप्फदितसेसु जवि वि साहरिदो' पृथिव्यादिषु जीवनिकायेषु यद्यपि केनचिदाकृष्टस्तथापि व्युत्सृष्टशरीरसंस्कारस्त्यक्तदेहः स्वमायुः पालयेत् ।।२०६०॥ मज्जणयगंधपुप्फोवयारपडिचारणे वि कीरंते । वोसट्टचत्तदेहो अघाउगं पालए तघवि ।।२०६१॥ 'मज्जणयगंधपुप्फोवयारपडिचारणे वि कोरंतो' यद्यपि कश्चिदभिषेचयेत् गन्धपुष्पादिभिर्वा संस्तुयात् तथापि व्युत्सृष्टत्यक्तशरीरो न रुष्यति न तुष्यति न निवारयति ॥२०६१।। वोसट्टचत्तदेहो दुणिक्खिवेज्जो जहिं जघा अंगं । जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंगं ण चालेदि ॥२०६२।।। 'वोसट्टचत्तदेहो' व्यत्सृष्टत्यक्तशरीरो निक्षिपेत् कश्चिदन्यस्मिन्यथाङ्गं यावज्जीवं स्वयं तस्मिस्तदङ्ग न वालयति ॥२०६२॥ एवं णिप्पडियम्म भणंति पाओवगमणमरहंता । णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुवसग्गे ।।२०६३।। प्रायोपगमनमें अपनी सेवा न स्वयं करता है और न दूसरोंसे कराता हैं। यही इन तीनोंमें भेद है ।।२०५८॥ गा०-यतः जो अपने शरीरको सम्यकपसे कृश करता है अर्थात् अस्थि चर्ममात्र शेष रहता है वही प्रायोपगमन मरण करता है। अत: मल मूत्रके स्वयं या दूसरेके द्वारा त्याग करानेका प्रश्न ही नहीं रहता ।।२०५९|| गा०-यदि कोई उन्हें पृथ्वी, जल, तेज, वनस्पति और त्रस आदि जीवनिकायोंमें फेंक देता है तो शरीरसे ममत्व त्यागकर अपनी आयुके समाप्त होने तक वहीं पड़े रहते हैं ।।२०६०॥ · गाoयदि कोई उनका अभिषेक करे या गन्ध पुष्प आदिसे पूजा करे तब भी शरीरसे ममत्व त्यागकर न रोष करते हैं, न प्रसन्न होते हैं और न उसे ऐसा करनेसे रोकते हैं ॥२०६१|| गा०-शरीरसे ममत्वका त्याग करने वाला वह प्रायोपगमनका धारी क्षपक जिस क्षेत्रमें जिस प्रकारसे शरीरका कोई अंग रखा गया हो, उसको वैसा ही पड़ा रहने देता है, स्वयं अपने अंगको हिलाता डुलाता नहीं है ॥२०६२॥ गा०-इस प्रकार अरहंतदेव प्रायोपगमनको स्व और परकृत प्रतीकारसे रहित कहते है । Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका 'एवं णिप्पडियारं' एवं स्वपरकृतप्रतीकाररहितं प्रायोपगमनं जिना वदन्ति, निश्चयेन तत्प्रायोपगमनमनोहारमचलं स्याच्चलमपि उपसर्गे परकृतं चलनमपेक्ष्य ॥२०६३॥ एतदेवोत्तरगायया स्पष्टयति उवसग्गेण वि साहरिदो सो अण्णत्थ कुणदि जं कालं । तम्हा वृत्तं णीहारमदो अण्णं अणीहारं || २०६४।। एतदेव स्पष्टयति ॥ २०६४ || पडिमा पडिवण्णा वि ह करंति पाओवगमणमप्पेगे | दीद्ध विहरता इंगिणिमरणं च अप्पेगे || २०६५|| 'पडिमा पडिवण्णा विदु' प्रतिमाप्रतिपन्ना अपि एके प्रायोपगमनं कुर्वन्ति, एके इङ्गिणिमरणं । पाउगं ॥२०६५ ॥ आगाढे उवसग्गे दुब्भिक्खे सव्वदो विदुत्तारे || कदजोगि समधियासिय कारणजादेहिं वि मरंति || २०६६ || 'आगाढे उवसग्गे' उपसर्गे महति दुर्भिक्षे वा दुरुत्तरे जाते कृतयोगिनः परीपहसहाः कारणजातमाश्रित्य मरणे कृतोत्साहा भवन्ति । तस्यैव वस्तुन उदाहरणानि उत्त रगाथाभिस्सूच्यन्ते ॥२०६६॥ ८८५ निश्चयसे प्रायोपगमन अचल होता है । किन्तु उपसर्ग अवस्थांमें मनुष्यादिके द्वारा चलायमान किये जानेपर चल भी होता है अर्थात् स्वयं शरीरको न हिलानेसे तो अचल हो हैं किन्तु दूसरे के द्वारा हिलाने पर चल होता है ||२०६३।। आगेकी गाथासे इसीको स्पष्ट करते हैं— गा०—उपसर्गं अवस्था में एक स्थानसे उठाकर दूसरे स्थान में डाल दिये जाने पर यदि वह वहीं मरण करता है तो उसे नीहार कहते हैं, और ऐसा नहीं होनेपर पूर्व स्थानमें ही मरण हो तो वह अनीहार कहाता है || २०६४ || गा० - जिनकी आयुका काल अल्पशेष रहता है वे प्रतिमा योग धारण करके प्रायोपगमन करते है । और कुछ दीर्घकाल तक विहार करते हुए इंगिनीमरण करते है || २०६५ || विशेषार्थ - आशाधर जी ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है—कुछ तो सल्लेखना न करके ही कायोत्सर्ग पूर्वक प्रायोपगमन करते हैं और कोई चिरकाल तक उपवास करके प्रायोपगमन करते हैं । इसी प्रकार इंगिणी भी जानना । अर्थात् उन्होंने दोनों मरणोंके दो-दो प्रकार कहे हैं। ऊपर के अर्थ के अनुसार अल्प आयु वाले प्रायोपगमम करते हैं इसीसे वे अपने शरीरकी सेवा न स्वयं करते हैं न दूसरेसे कराते हैं । दीर्घ आयु शेष रहने वाले इंगिनीमरण करते हैं अतः वे अपने शरीरकी सेवा स्वयं तो करते हैं दूसरेसे नहीं कराते । उन्हें स्वयं मलमूत्रादि का त्याग तो करना होता ही है || २०६५ || गा० – महान् उपसर्ग अथवा भयानक दुर्भिक्ष होनेपर परीषहोंको सहन करनेमें समर्थ मुनि अल्प भी मरणके कारण उपस्थित होनेपर उत्साहपूर्वक मृत्युका आलिंगन करते हैं ॥२०६६॥ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ भगवती आराधना कोसलय धम्मसीहो अटुं साधेदि गिद्धपुढेण । णयरम्म य कोल्लगिरे चंदसिरिं विप्पजहिदूण ॥२०६७।। . पाडलिपुत्ते धूदाहेदुं मामयकदम्मि उवसग्गे । साधेदि उसभसेणो अटुं विक्खाणसं किच्चा ।।२०६८।। अहिमारएण णिवदिम्मि मारिदे गहिदसमणलिंगेण । उहाहपसमणत्थं सत्थग्गहणं अकासि गणी ॥२०६९।। सगडालएण वि तथा सत्तग्गहणेण साधिदो अत्थो । वररुइपओगहेदुं रुढे गंदे महापउमे ॥२०७०॥ एवं पण्डियमरणं सवियप्पं वण्णिदं सवित्थारं । वुच्छामि बालपंडियमरणं एत्तो समासेण ॥२०७१।। आगेकी गाथाओंसे इसीके समर्थक उदाहरण देते हैं गा०-अयोध्या नगरीमें धर्मसिंह नामक राजाने अपनी चन्द्रश्रो नामक पत्नीको त्यागकर दीक्षा धारण की। और अपने श्वसुरके भयसे कोल्लगिरि नगरमें हाथीके कलेवरमें प्रवेश करके आराधनाकी साधना की ॥२०६७।। विशेषार्थ-वृ० क० कोशमें इसकी कथाका नम्बर १५४ है । गा०-पाटलीपुत्र नगरमें ऋषभसेन नामक श्रेष्ठीने अपनी पत्नीको त्यागकर दीक्षा ली। अपनी पुत्रोके स्नेहवश श्वसुरके द्वारा उपसर्ग किये जानेपर ऋषभसेनने श्वास रोककर साधना की ॥२०६८॥ विशेषार्थ-इसकी कथाका क्रमांक १५५ है । गा०-श्रावस्ती नगरीके राजा जयसेनने वौद्धधर्म त्यागकर जैनधर्म धारण किया था। इससे कुपित होकर अहिमारक नामक बौद्धने उसे उस समय मार डाला जब वह आचार्य यतिवषभको नमस्कार कर रहा था। तव मुनिने अपना अपवाद दूर करनेके लिये शस्त्रसे अपना घात करते हुए साधना की ॥२०६९।। विशेषार्थ-इसकी कथाका क्रमांक १५६ है । गा-पाटलीपुत्रमें नन्दराजाका मंत्री शकटाल था। उसने महापद्म सूरिसे जिन दीक्षा ग्रहण की। उसके विरोधी वररुचिने राजा महापद्मको रुष्ट करके शकटालको मारनेका प्रयत्न किया तो शकटाल मुनिने पञ्च नमस्कार मंत्रका ध्यान करते हुए छुरीसे अपना पेट फाड़ डाला और इस प्रकार आराधनाकी साधना की ।।२०७०।। विशेषार्थ-इसकी कथाका नम्बर १५७ है।" गा०-इस प्रकार भेद सहित पण्डितमरणका विस्तारसे कथन किया। आगे संक्षेपसे बाल १. वेघाणसं अ० । णिव्वाणसं आ० । Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८८७ पंडितमरणं । एवं पण्डितमरणं सविकल्पं सविस्तरं व्यावणितं वक्ष्यामि बालपण्डितमरणमित ऊर्ध्वं संक्षेपेण ।।२०६७ - २०७१ ॥ देसेक्कसविरदो सम्भादिट्ठी मरिज्ज जो जीवो । तं होदि बालपंडिदमरणं जिणसासणे दिडं ||२०७२॥ 'देसिक्कदेसंविरदो' सर्व्वा संयम प्रत्याख्यानस्यासमर्थः हिंसाद्येक देशाद्विरतः स्थूलभूत प्राणातिपातादिपञ्चकाद्देशविरत इत्युच्यते । एकदेशविरतो नाम देशविरमणेऽपि एकदेशाद्व्यावृत्तः सम्यग्दृष्टिय म्रियते तस्य तद्वालपण्डितमरणं ॥ २०७२ ॥ एतदेव स्पष्टयति पंचय अणुव्वदा सत्तयसिक्खाउ देसजदिधम्मो | सव्वेण य देसेण य तेण जुदो होदि देसजदी ||२०७३॥ 'पंच य अणुब्वाई' पञ्चाणुव्रतानि शिक्षाव्रतानि वा सप्त प्रकाराणि देशयतेर्धर्मः । तेन समस्तेन धर्मेण युतः स्वशक्त्या वा तदेकदेशेन युतोऽपि देशयतिरेव । द्वादशविधगृहिधर्मप्रत्यायनपराणि सूत्राण्युत्तराणि प्रसिद्धार्थानि ||२०७३॥ पाणवघमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहिं । अपरिमिदिच्छादो वि अ अणुव्वयाई विरमणाई || २०७४ || जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडेहिं जं च वेरमणं । देसावगासियं पिय गुणव्वयाइं भवे ताई || २०७५।। पण्डितमरणका कथन करेंगे || २०७१ || गा०-टी० – जो समस्त असंयमका त्याग करनेमें असमर्थ है स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह आदि पाँच पापोंका त्याग करता है उसे देशविरत कहते हैं । और जो देशविरंति के भी एक देशसे विरत होता है अर्थात् अपनी शक्तिके अनुसार हिंसादिका त्याग करता है ऐसा सम्यग्दृष्टि एक देशविरत कहा जाता है । इस प्रकार जो समस्त या एकदेश गृहस्थ धर्मका पालक श्रावक होता है उसके मरणको जिनागम में वालपंडितमरण कहा है ||२०७२ || उसीको स्पष्ट करते है गा०-- पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ये देशसंयमी श्रावकका धर्म है । जो उस सम्पूर्ण श्रावक धर्मका पालक है अथवा अपनी शक्तिके अनुसार उसके एक देशका पालक है वह भी देशसंयमी ही है ||२०७३|| आगे वारह प्रकारके गृहीधर्मको कहते हैं जो प्रसिद्ध हैं गा - हिंसा, असत्य, बिना दी हुई वस्तुका ग्रहण, पर स्त्री गमन और इच्छाका अपरिमाण इनसे विरतिरूप पांच अणुव्रत हैं ||२०७४ || गा०-दिग्विरति, अनर्थदण्डविरति, देशावकाशिक ये तीन गुणव्रत हैं ||२०७५।। Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८८ भगवती आराधना भोगाणं परिसंखा सामाइयमतिहिसंविभागो य । पोसहविधि य सव्वो चदुरो सिक्खाउ वृत्ताओ ।।२०७६।। आसुक्कारे मरणे अव्वोच्छिण्णाए जीविदासाए । णादीहि वा अमुक्को पच्छिमसल्लेहणमकासी ॥२०७७।। 'आसुक्कारे मरणे' सहसा मरणे अच्छिन्नायां जीविताशायां बन्धुभिर्वा न मुक्तः पश्चिमसल्लेखनामकृत्वा कृतालोचनो निश्शल्यः स्वगृह एव संस्तरमारुह्य देशविरतस्य मृतिर्बालपण्डितमित्युच्यते ॥२०७४-७७॥ आलोचिदणिस्सल्लो सघरे चेवारुहितु संथारं । जदि मदि देसविरदो तं वृत्तं बालपंडिदयं ॥२०७८॥ जो भत्तपदिण्णाए उवक्कमो वित्थरेण णिहिट्ठो। सो चेव बालपंडिदमरणे णेओ जहाजोग्गो ।।२०७१।। वेमाणिएसु कप्पोवगेसु णियमेण तस्स उववादो। णियमा सिज्झदि उक्कस्सएण वा सत्तमम्मि भवे ॥२०८०॥ इय बालपंडियं होदि मरणमरहंतसासणे दिटुं । एत्तो पंडिदपंडिदमरणं वोच्छं समासेण ।।२०८१।। स्पष्टार्था त्रयो गाथाः। बालपंडिदं ।।२०७८-२०८१।। गा०-भोगपरिमाण, सामायिक, अतिथिसंविभाग और प्रोषधोपवास ये चार शिक्षाव्रत कहे हैं ॥२०७६।। गा०-सहसा मरण उपस्थित होनेपर, जीवनकी आशा रहनेपर, अथवा परिजनोंके द्वारा मुक्त न किये जानेपर अन्तिम सल्लेखना धारण न करके, अपने दोषोंको आलोचना पूर्वक शल्य रहित होकर अपने घरमें ही संस्तरपर स्थित होकर देशविरत श्रावकके मरणको बालपण्डित मरण कहते हैं ।।२०७७॥ गा०-विधिपूर्वक आलोचना करके, माया मिथ्यात्व और निदान शल्यसे मुक्त होकर में संस्तरपर आरूढ़ होकर यदि श्रावक देशविरत मरता है तो उसे बालपण्डित मरण कहा है ॥२०५८॥ __ गा०-भक्तप्रत्याख्यानमें जो विधि विस्तारसे कही है वही सब विधि बालपण्डितमरणमें यथायोग्य जानना ॥२०७९॥ गा०-वह श्रावक मरकर नियमसे सौधर्मादि कल्पोपपन्न वैमानिक देवोंमें उत्पन्न होता है और नियमसे अधिक से अधिक सात भवोंमें मुक्त होता है ।।२०८०॥ गा. इस प्रकारके मरणको अरहन्त भगवान्के धर्ममें बालपण्डित कहा है । आगे संक्षेपसे पण्डित पण्डितमरणको कहते हैं ।।२०८१॥ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका साहू जहुत्तचारी वट्टतो अप्पमत्तकालम्मि | ज्झाणं उवेदि धम्मं पविट्टुकामो खवगसेटिं || २०८२॥ 'साहू जहुत्तचारी' शास्त्रोक्तेन मार्गेण प्रवर्तमानस्साधुरप्रमत्तगुणस्थानकाले धर्म्यं ध्यानमुपैति क्षपकश्रेण प्रवेष्टुकामः ॥२०८२ ॥ ध्यानपरिकरं बाह्यं प्रतिपादयति सुचि समे विवित्ते देसे णिज्जंतुए अणुण्णाए । उज्जुअआयददेहो अचलं बंधेत्तु पलिअंकं ।।२०८३।। 'सुचिए समे' शुचौ समे एकान्तदेशे निर्जन्तुके अनुज्ञाते तत्स्वामिभिः ऋज्वायतदेहः पल्यङ्कमचलं बद्ध्वा ॥२०८३ ॥ वीरासणमादीयं आसण समपादमादियं ठाणं । सम् अधिट्ठिो वा सिज्जमुत्ताणसयणादि || २०८४|| 'वीरासणादिगं' वीरासनादिकमासनं बद्ध्वा समपादादिना स्थितो वा अथवा उत्तानशयनादिना वा वृत्तः || २०८४॥ ८८९ पुव्वभणिदेण विघिणा ज्झादि ज्झाणं विसुद्धलेस्साओ । पवयणसंभिण्णमदी मोहस्स खयं करेमाणो || २०८५ || 'पुव्वभणिदेण विधिणा' पूर्वोक्तेन क्रमेण ध्याने प्रवर्तते विशुद्धलेश्यः । प्रवचनार्थमनुप्रविष्टमतिः मोहनीयं क्षयं नेतुमुद्यतः ।। २०८५ ॥ संजोयणाकसाए खवेदि झाणेण तेण सो पढमं । मिच्छत्तं सम्मिस्सं कमेण सम्मत्तमवि य तदो || २०८६ ॥ ' संजोयणाकसाए' अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति ध्यानेन तेनासौ प्रथमं मिथ्यात्वं, गा० - शास्त्रोक्त मार्गसे प्रवृत्ति करता हुआ साधु क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ होनेकी इच्छासे अप्रमत्त गुणस्थान में धर्मध्यान करता है ॥२०८२॥ ध्यानकी बाह्य सामग्री कहते हैं गा० -- पवित्र और जन्तुरहिन एकान्त प्रदेश में, उस स्थानके स्वामीकी आज्ञा प्राप्त करके, समभूमिभाग में शरीरको सीधा रखते हुए पल्यंकासन बांधकर अथवा वीरासन आदि लगाकर, अथवा दोनों पैरोंको समरूपसे रखते हुए खड़े होकर अथवा ऊपरको मुखकर शयन करते हुए या एक करवटसे लेटकर पूर्व में कही विधिके अनुसार विशुद्ध लेश्यापूर्वक मोहनीय कर्मका क्षय करनेमें तत्पर होता हुआ ध्यान करता है तथा चतुर्दश पूर्वो का अर्थ श्रवण करनेसे उसकी बुद्धि निर्मल होती है अर्थात् उसके श्रुतज्ञानावरणका प्रबल क्षयोपशम होता है ॥२०८३ - २०८५॥ गा० - प्रथम ही वह उस ध्यानके द्वारा अनन्तानुवन्धी क्रोध मान माया लोभका क्षय Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९० भगवती आराधना सम्यङ्मिथ्यात्वं, सम्यक्त्वं च क्रमेण एवं प्रकृतिसप्तकं विनाश्य क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा क्षपकश्रेण्यधिरोहणा• भिमुखोऽधःप्रवृत्तकरणं अप्रमत्तस्थाने प्रतिपद्य ॥२०८६॥ अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुव्वकरणं सो। होइ तमपुवकरणं कयाइ अप्पत्तपुव्वंति ॥२०८७।। 'अध खवगसेढिमधिगम्म' अथ क्षपकश्रेणीमधिगम्य करोति साधुरपूर्वकरणमसौ। किं तदपूर्वकरणमित्याशङ्कायामुच्यते । 'होवि तमपुवकरणं' भवति तदपूर्वकरणं, 'कदाइ अप्पत्तपुवंति' कदाचिदप्राप्तपूर्वमिति ॥२०८७॥ अणिवित्तिकरणणामं णवमं गुणठाणयं च अधिगम्म । णिद्दाणिद्दा पयलापयला तघ थीणगिद्धिं च ॥२०८८॥ 'अणियट्टिकरणणामं गवमं गुणठाणमधिगम्म' अनिवृत्तिगुणस्थानमुपगम्य 'णिद्दाणिद्दा पयलापयला निद्रानिद्रां प्रचलाप्रचलां स्त्यानगृद्धि च ॥२०८८॥ णिरयगदियाणुपुचि णिरयगदिदं थावरं च सुहुमं च । साधारणादवुज्जोवतिरयगदि आणुपुन्वीए ॥२०८९।। 'णिरयगदियाणुपुटिव' नरकगत्यानुपूर्वि, नरकगति, स्थावरं, सूक्ष्म, साधारणं, आतपं, उद्योतं तिर्यग्गत्यानुपूर्वि ॥२०८९॥ करता है फिर मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यदृष्टि होकर क्षपक श्रेणिके अभिमुख होनेके लिये अप्रमत्त गुणस्थानमें अधःप्रवृत्तकरण करता है ॥२०८६॥ टो०-अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यात्वको अनन्त कहते हैं। उसके साथ बन्धनेसे अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि चार यहाँ संयोजना शब्दसे लिये गये हैं । मिथ्या पदार्थो के अभिनिवेशमें जो निमित्त होता है वह मिथ्यात्व नामक दर्शन मोहनीय है। जिस मिथ्यात्वका स्वरस अर्धशुद्ध हो जाता हैं उसे सम्यक् मिथ्यात्व कहते हैं। और जिस मिथ्यात्वका शुभ परिणामके द्वारा स्वरस क्षीण हो जाता है उसे सम्यक्त्व दर्शन मोहनीय कहते हैं। इसके उदय रहते हुए भी तत्त्वार्थका श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन होता है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन इन सातोंके अभावमें ही होता है। और क्षायिक सम्यग्दृष्टी ही क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता है ॥२०८६|| । गा०-क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर वह क्षपक श्रेणिपर आरोहण करके प्रथम अपूर्वकरण करता है। उसे अपूर्वकरण इसलिये कहते हैं कि उसने इस प्रकारके परिणाम कभी भी नीचेके गुणस्थानोंमें प्राप्त नहीं किये थे ॥२०८७।। गा०-उसके पश्चात् वह साधु अनिवृत्ति करण नामक नवम गुणस्थानको प्राप्त करके निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९१ विजयोदया टोका इगविगतिगचदुरिंदियणामाई तय तिरिक्खगदिणामं । खवयित्ता मज्झिल्ले खवेदि सो अट्ठवि कसाए ॥२०९०॥ 'इगविग' एकद्वित्रिचतुरिंद्रियजातीः, तिर्यग्गति, अप्रत्याख्यानचतुष्कं, प्रत्याख्यानचतुष्कं च क्षपयति ॥२०९०॥ तत्तो णपुंसगित्थीवेदं हासादिछक्कपुंवेदं । कोचं माणं मायं लोमं च खवेदि सो कमसो ॥२०९१॥ 'तत्त. गपुंसं' ततो नपुंसक वेदं, स्त्रीवेदं, हास्यादिषट्कं, पुंवेदं, संज्वलनक्रोधमानमाया:क्षपयति । पश्चाल्लोभसंज्वलनं ॥२०९१॥ अध लोभसुहुमकिट्टि वेदंतो सुहुमसंपरायत्तं । पावदि पावदि य तधा तण्णामं संजमं सुद्धं ॥२०९२॥ 'अघ लोभसुहमकिट्टि' अथ पश्चाद्वादरकृष्टेरुत्तरकालं लोभसूक्ष्मकृष्टि वेदयमानः । 'सुहमसंपरायत्तं पावदि' सूक्ष्मसापरायतां प्राप्नोति । 'पावदि य तधा' प्राप्नोति च तथा तन्नामकं संयमं शुद्धं सूक्ष्मसांपरायतां अधिगच्छति ॥२०९२॥ तो सो खीणकसाओ जायदि खीणासु लोभकिट्टीसु । एय'त्तवितक्कावीचारं तो ज्झादि सो ज्झाणं ॥२०९३॥ आतप, उद्योत, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, दो इन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गति, इन सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करके मध्यकी आठ कषाय अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभका क्षय करता है ।।२०८८-२०९०॥ गा-फिर क्रमसे उसी नवम गुणस्थानमें नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा, पुरुषवेद और संज्वलन, क्रोध मान मायाका क्षय करता है। अन्तमें संज्वलन लोभका क्षय करता है ।।२०९१।। विशेषार्थ-क्षयका क्रम इस प्रकार है-हास्यादि छह नोकषायोंको पुरुषवेदमें क्षेपण करके नष्ट करता है । पुरुषवेदको क्रोध संज्वलन में क्षेपण करके क्षय करता हैं। इसी प्रकार क्रोध संज्वलनको मान संज्वलनमें मानसंज्वलनको माया संज्वलनमें और माया संज्वलनको लोभसंज्वलनमें क्षेपण करके क्षय करता है। अन्तमें बादर कृष्टिके द्वारा लोभसंज्वलन को कृश करके सूक्ष्म लोभ संज्वलन कषाय शेष रहती है ॥२०९१।। गा-बादर कृष्टिके पश्चात् सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभका वेदना करता हुआ दसवे सूक्ष्मसाम्पराय नामक गुणस्थानको प्राप्त करता है और वहाँ उसी सूक्ष्मसाम्पराय नामक संयमको प्राप्त करता है ।।२०९२।। १. एयत्तं सवियक अविचारं सो वहिं झादि-अ० आ० । ११२ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९२ भगवती आराधना _ 'तो सो खीणकसाओ जायदि' ततः सूक्ष्मसंपरायत्वादनंतरं 'खोणकसाओ जायदि' क्षीणकषायो जायते । 'खोणासु लोभकिट्टीसु' संज्वलनलोभसूक्ष्मकृष्टिषु क्षीणासु । 'तो' ततः 'एकत्तवित्तक्कावीचारझाणं तो झादि' एकत्ववितर्कावीचारं ध्यानं ध्याति ॥२०९३।।। झाणेण य तेण अधक्खादेण य संजमेण घादेदि। . सेसा घादिकम्माणि 'समं अवरंजणाणि तदो ॥२०९४॥ 'झाणेण य तेण' तेन ध्यानेन । 'तो' तेनैकत्ववितर्काविचारेण यथाख्यातेन चारित्रेण शेषघातिकर्माणि समकालमेव क्षपयति । 'अवरंजणाणि' जीवस्यान्यथाभावकारणानि ॥२०९४।। मत्थयसूचीए जघा हदाए कसिणो हदो भवदि तालो । कम्माणि तधा गच्छंति खयं मोहे हदे कसिणे ॥२०९५॥ 'मत्थयसूचीए जघा हदाए' मस्तकसूच्यां यथा हतायां । 'कसिणो तालो हदो भवति' कृत्स्नस्तालद्रुमो हतो भवति । 'कम्माणि तधा' कर्माण्यपि तथैव ‘खयं गच्छंति' क्षयमुपयांति । 'मोहे हदे कसिणे' मोहे हते कृस्ने ॥२०९५॥ णिद्दापचलाय दुवे दुचरिमसमयम्मि तस्स खीयांत । सेसाणि घादिकम्माणि चरिमसमयम्मि खीयंति ।।२०९६।। "णिद्दा पचला य दुवे' निद्राप्रचला च द्वे तस्य क्षीणकषायस्य उपांत्यसमये नश्यतः । 'सेसाणि घादिकम्माणि' अवशिष्टानि घातिकर्माणि त्रीणि तस्य चरमसमये नश्यंति, पंच ज्ञानावरणानि, चत्वारि दर्शनावरणानि, पंचांतरायाश्च ॥२०९६॥ . तत्तो णंतरसमए उप्पज्जदि सव्वपज्जयणिबंधं । । केवलणाणं सुद्धं तध केवलदसणं चेव ।।२०९७।। MAMA गा०—सूक्ष्म लोभकृष्टिका क्षय होनेपर सूक्ष्म साम्परायके पश्चात् क्षीण कषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती होता है। वहाँ वह एकत्व वितर्क विचार नामक ध्यानको ध्याता है ।।२०९३।। गा०-उस ध्यान तथा यथाख्यात चारित्रके द्वारा वह जीवके अन्यथाभावमें कारण शेष घातिकर्मोंका एक साथ क्षय करता है ।।२०९४।। गा०-जैसे ताड़के वृक्षकी मस् क सूची, ऊपरका शाग्वाभार टूट जानेपर समस्त ताड़वृक्ष ही नष्ट हो जाता है वैसे ही समस्त मोहनीय कर्मके नष्ट होनेपर कर्म नष्ट हो जाते हैं ॥२०९५|| गा०—उस क्षीणकषाय गुणस्थानके उपान्त्य समयमें निद्रा प्रचला नष्ट होती हैं। और शेष घातिकर्म-पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय अन्तिम समयमें नष्ट होते हैं ।।२०९६॥ १. समयमव-मु०, मूलारा० । Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ८९३ ततो ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयात अनंतरसमये उत्पद्यते केवलज्ञानं सर्वपर्याय निबद्धं, सर्वेषां द्रव्याणां त्रिकालगोचरा ये पर्याया विशेषरूपाणि तत्र प्रतिबद्धं परिच्छेदकत्वेन ज्ञानस्यातिशयो वस्तुगतविशेषरूप परिच्छेदो नाम सामान्यरूपस्य सुगमत्वादित्याख्यातं भवति । केवलं इंद्रियसहायानपेक्षत्वात् केवलमसहायं ज्ञानं रागादिमलाभावात् शुद्ध तथा केवलदर्शनं च ॥२०९७।। अन्वाघादमसंदिद्धमुत्तमं सव्वदो असंकुडिदं । एयं सयलमणंतं अणियत्तं केवलं जाणं ॥२०९८॥ 'अव्वाघादं' न विद्यते प्रत्ययांतरेण व्याघातो बाधास्येत्यव्याघातं । निश्चयात्मकत्वादसंदिग्धं । सर्वेभ्यो ज्ञानेभ्य उत्तम प्रधानं श्रुतादिभिरिदं केवलं साध्यत इति । 'असंकुडिवं' न मत्यादिवदल्पविषयमिति । 'एक्क' एकस्मिन्नात्मनि स्वयमेव प्रवर्तत इति । 'सकलं' संपूर्णमात्मनःस्वरूपमिति । मत्यादीनि यथाऽसंपूर्णानि न तथेदं । 'अणंतं अनंतप्रमाणावच्छेद्यं । 'अणियत्तं' न विद्यते निवृत्तिविनाशोऽस्येत्यनिवृत्तं केवलज्ञानं ॥२०९८॥ चित्तपड व विचित्तं तिकालमाहिदं तदो जगमिणं सो । सव्वं जुगवं पस्सदि सव्वमलोगं च सव्वत्तो ॥२०९९।। 'चित्तपडं व विचित्तं' चित्रपटवद्विचित्र विचित्रद्रव्यपर्यायरूपेण प्रत्यवभासनात् । 'तिकाल सहिद' कालत्रयसहितं 'जगदिदं', ततः तेन रूबलज्ञानेन सर्वं युगपत्पश्यत्यलोकं कृत्स्नं 'सर्वतः' समंतात् ॥२०९९॥ बीरियमणंतराय होइ अणंतं तधेव तस्स तदा । कप्पातीदस्य बहामुणिस्स विग्धम्मि खीणम्मि ॥२१००॥ गा.-टी०-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होनेके अनन्तर समयमें शुद्ध केवलज्ञान और शुद्ध केवल दर्शन उत्पन्न होता है। वह केवल ज्ञान सब द्रव्योंको त्रिकालगोचर सव पर्यायोंको जानता है। वस्तुगत विशेषरूपको जानना ही ज्ञानका अतिशय है सामान्यरूपको जानना तो सुगम है। इसीसे केवल ज्ञानको सर्वपर्यायनिबद्ध कहा है। केवलका अर्थ है असहाय । केवल ज्ञान इन्द्रियोंकी सहायतासे रहित है इसीसे उसका नाम केवल है। तथा रागादिमलसे रहित होनेसे शद्ध है। व्याघातसे रहित है क्योंकि कोई अन्य ज्ञान उसमें बाधा नहीं डाल सकता। निश्चयात्मक होनेसे सन्देह रहित है। श्रुत आदि अन्य सब ज्ञानोंमें प्रधान होनेसे उत्तम है। सब द्रव्य और पर्यायोंमें प्रवर्तमान होनेसे मतिज्ञान आदिकी तरह उसका विषय अल्प नहीं है। तथा एक आत्मामें स्वयं ही होनेसे एक है । सम्पूर्ण आत्मस्वरूप होनेसे सकल हैं। जैसे मति आदि ज्ञान असम्पूर्ण है उस तरह वह सम्पूर्ण नहीं है । अनन्त प्रमाण वाला होनेसे अनन्त है । अविनाशी है, उसका कभी विनाश नहीं होता। विचित्र द्रव्य पर्यायरूपसे प्रतिभासमान होनेसे चित्रपटकी तरह विचित्र-नानारूप है। उस केवलज्ञानसे वह तीन काल सहित इस समस्त जगतको और सर्व अलोकको एक साथ जानता है ॥२०९७-२०९९।। - गा०-छमस्थ अवस्थासे रहित उस महामुनिके अन्तराय कर्मका विनाश होनेपर अन्तराय १. सव्वण्हू -अ० । Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ भगवती 'वारियमणंतरायं होदि' नितिन कोर्स पिये सति विघ्नो भवति, न तथा तस्य निरवशेषक्षयं । 'अनंत' कपातीनां अतीत महामुनेविघ्ने विनष्टे ॥ २१००|| तो सो वेदयमाणो विहरइ सेसाणि ताव कम्माणि । जावस मत्ती वेदिज्जमा णस्साउगस्स भवे ॥ २१०१ ॥ 'तो सो वेदयमाणो' केवलज्ञानादिपरिप्राप्त्यनंतरकालं वेदयमानो विहरति, 'सेसाणि ताव कम्माणि अवशिष्टानि तावत्कर्माणि । 'जावसमत्ती' यावत्परिसमाप्तिः । 'वेदिज्जमाणस्स आउगस्स भवे' अनुभूयमानस्य मनुष्वायुषो भवेत् ॥ २१०१ ॥ दंसणणाणसमग्गो विरहदि उच्चावयं तु परियायं । जोगणिरोधं पारभदि कम्मणिल्लेवणट्ठाए ॥२१०२ ।। 'दंसणणाणसमग्गो' क्षायिकेन ज्ञानेन दर्शनेन च समग्रो, विहृत्य 'उच्चावयं परयायं' उच्चावचं पर्यायं, चारित्रमभिवर्द्धयन् योगनिरोधं प्रारभते, कर्मणामघातिनामपहरणार्थः ॥ २१०२ ॥ उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्म केवली जादा | वच्चति समुग्धादं सेसा भज्जा समुग्धादे || २१०३॥ 'उक्कस्सगेण' उत्कर्षेण षण्मासावशेषे आयुषि जाते केवलिनो जातास्ते समुद्धातमुपयाति । शेषाः समुद्धाते भाज्याः || २१०३ ॥ रहित अनन्तवीर्य होता है । अर्थात् क्षयोपशमिक वीर्य में तो वीर्यान्तरायका उदय होनेपर विघ्न आ जाता है । किन्तु समस्त वीर्यान्तरायका क्षय होनेपर प्रकट हुए अनन्त वीर्यं में कोई विघ्न नहीं आता ।।२१०० ॥ गा०—केवल ज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर जबतक शेष कर्मों की तथा अनुभूयमान मनुष्यायुकी समाप्ति नहीं होती तब तक वह केवल ज्ञानी विहार करता ।।२१०१ ।। गा० - क्षायिक ज्ञान और क्षायिक दर्शनसे परिपूर्ण वह केवल ज्ञानी चारित्रको बढ़ाता हुआ उत्कृष्ट कुछ कम एक पूर्वकोटि तक और जधन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र काल तक विहार करता है । फिर अघातिकर्मो को नष्ट करनेके लिये सत्यवचन योग, अनुभयवचन योग, सत्यमनोयोग अनुभय मनोयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग तथा कार्मण काययोगका निग्रह प्रारम्भ करता है ॥२१०२|| गा० 10 – उत्कर्ष से छह मास आयु शेष रहनेपर जो केवल ज्ञानी होते हैं वे अवश्य समुद्धातजीवके प्रदेशोंका शरीरसे बाहर दण्ड आदिके आकार रूपसे निकलना - करते हैं । शेष समुद्धात करते भी हैं और नहीं भी करते, उनके लिये कोई नियम नहीं है ॥२१०३ ॥ १. माण आउस्स कम्मस्स -अ० आ० । Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेसि आउसमा केपी । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसि ॥२१०४|| 'जेसि आउसमाई' येषामपि आयुःसमानि शेषाण्यघातिकर्माणि तेऽकृतसमुद्धाता एव शैलेश्यं प्रतिपद्यते ॥२१०४॥ जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि । ते दु कदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसिं ॥२१०५।। ठिदिसंतकम्मसमकरणत्थं सन्वेसि तेसि कम्माणं । अंतोमुहत्त सेसे जंति समुग्धादमाउम्मि ।।२१०६॥ "ठिदिसत्तकम्म' सत्कर्मणां स्थिति समीकर्तुं चतुर्णा अंतर्मुहूतविशेषे आयुषि समुद्धातं यांति ॥२१०५-२१०६॥ ओल्लं संतं वत्थं विरल्लिदं जह लहु विणिव्वादि । संवेढियं तु ण तथा तधेव कम्मं पि णादव्वं ॥२१०७॥ 'मोल्लं संत' आई सद्यथा वस्त्रं विप्रकीर्ण लघु शुष्यति न तथा संवेष्टितं एवमेव कर्मापि ज्ञातव्यम् ।।२१०७॥ ठिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स । सडदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्टिदी होदि ।।२१०८॥ 'ठिदिबंधस्स' स्थितिबन्धस्य स्नेहो हेतुविनश्यति। समुद्धातं गते 'सटति' च क्षीणस्नेहं शेषं कर्माल्पस्थितिकं भवति ॥२१०८॥ गा०—जिनके नामकर्म, गोत्रकर्म, वेदनोयकर्मकी स्थिति आयुकर्मके समान होती है वे सयोगकेवली जिन समुद्धात किये बिना शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं ।।२१०४॥ गा०—किन्तु जिनकी आयुकी स्थिति कम होती है और नामगोत्र और वेदनीय कर्मो की स्थिति अधिक होती है वे सयोगकेवली जिन समुद्धात करके ही शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं अर्थात् अयोगकेवली होते हैं ॥२१०५॥ गा०–अन्तमुहूर्त आयु शेष रहनेपर चारों कर्मो की स्थिति समान करनेके लिये समुद्धात करते हैं ॥२१०६॥ गा०-जैसे गीला वस्त्र फैला देनेपर वह शीघ्र सूख जाता है उतनी शीघ्र इकट्ठा रखा हुआ नहीं सूखता । कर्मो की भी वैसी ही दशा जानना । आत्म प्रदेशोंके फैलावसे सम्बद्ध कर्मरजकी स्थिति बिना भोगे घट जाती है ।।२१०७।। गा०–समुद्धात करनेपर स्थितिबन्धका कारण जो स्नेहगुण है वह नष्ट हो जाता है। और स्नेहगुणके क्षीण होनेपर शेष कर्मो की स्थिति घट जाती है ।।२१०८|| १. एतां टीकाकारो नेच्छति । Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९६ भगवती आराधना चदुहिं समएहिं दंड-कवाड-पदरजगपूरणाणि तदा । कमसो करेदि तह चेव णियत्तीदि चदुहिं समएहिं ॥२१०९।। 'चहि' चतुभिस्समयदण्डादिकं कृत्वा क्रमशो निवर्तते चतुभिरेव समयैः ।।२१०९।। काउणाउसमाईणामागोदाणि वेदणीयं च । सेलेसिमब्भुवेतो जोगणिरोधं तदो कुणदि ॥२११०॥ 'काऊण' नामगोत्रवेदनीयानां आयुषा साम्यं कृत्वा मुक्तिमभ्युपनयन् योगनिरोधं करोति ॥२११०॥ योगनिरोधक्रममाचष्टे बादरवाचिगजोगं बादरकायेण बादरमणं च । बादरकायंपि तधा रुंभदि सुहुमेण काएण ।।२१११।। वादरौ वाङ्मनोयोगी बादरकायेन रुणद्धि । बादरकाययोगं सूक्ष्मेण काययोगेन ॥२१११॥ तध चेव सुहुममणवचिजोगं सुहुमेण कायजोगेण । रुभित्तु जिणो चिट्ठदि' सो सुहुमकायजोगेण ॥२११२।। 'तध चैव' तथैव सूक्ष्मवाङ्ननोयोगी सूक्ष्मकाययोगेन रुणद्धि ॥२११२॥ सुहुमाए लेस्साए सुहमकिरियबंधगों तगो ताधे । काइयजोगे सुहुमम्मि सुहुमकिरियं जिणो झादि ।।२११३।। गा०-टी-~सयोगकेवली जिन चार समयोंमें दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धात करके क्रमसे चार ही समयोंमें उसका संकोच करता है अर्थात् प्रथम समयमें दण्डाकार, दूसरे समयमें कपाटके आकार, तीसरे समयमें प्रतर रूप और चतुर्थ समयमें समस्त लोकमें व्याप्त हो जाते हैं। पांचवे समयमें पुनः प्रतररूप, छठे समयमें कपाटरूप, सातवें समयमें दण्डाकार आठवें समयमें मूल शरीरकार आत्म प्रदेश हो जाते हैं ।।२१०९।। गा-इस प्रकार नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति आयुके समान करके मुक्तिकी ओर बढ़नेवाले सयोगकेवली जिन योगोंका निरोध करते हैं ।।२११०॥ ___ योगनिरोधका क्रम कहते हैं गा०-स्थूल काययोगमें स्थित होकर बादर वचनयोग और बादर मनोयोगको रोकते है और सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर स्थूल काययोगको रोकते हैं ।।२१११।। ___ गाo---उसी प्रकार सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोगको रोककर सयोगकेवली जिन सूक्ष्म काययोगमें स्थित होते हैं ॥२११२।। १. दि सुहमेण कायजोगेण -आ० । दि सो सुहुमे काइए जोगे -मु० । Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९७ विजयोदया टीका सूक्ष्मया लेश्यया सूक्ष्मक्रियया बन्धकस्तदासौ सूक्ष्मक्रियं ध्यानं ध्याति ॥२११३॥ सुहुमकिरिएण झाणेण णिरुद्ध सुहुमकायजोगे वि। सेलेसी होदि तदो अबंधगो णिच्चलपदेसो ॥२११४॥ 'सुहुमकिरियेण' तेन ध्यानेन निरुद्धे सूक्ष्मकाययोगे निश्चलप्रदेशोऽबन्धको भवति । बंधनिमित्तानामभावात् ॥२११४॥ माणसगदितज्जादि पज्जत्तादिज्जसुभगजसकित्तिं । अण्णदरवेदणीयं तसबादरमुच्चगोदं च ।।२११५॥ . माणुसर्गाद' मनुष्यगति पञ्चेन्द्रियजाति, पर्याप्तिमादेयसुभगं, यशस्कीर्तिमन्यतरवेदनीयं, त्रसवादरं, उच्चर्गोत्रं च वेदयते ॥२११५॥ मणुसाउगं च वेदेदि अजोगी होदण चेव तक्कालं । तित्थयरणामसहिदो' ताओ वेदेदि तित्थयरो ॥२११६॥ मनुष्यायुश्च वेदयते अयोगी भूत्वा तीर्थकरनामसहितास्तीर्थकरो वेदयते ।।२११६।। देहतियबंधपरिमोक्खत्थं तो केवली अजोगी सो । उवयादि समुच्छिण्णकिरियं तु झाणं अपडिवादी ॥२११७|| देहतिय देहत्रिबन्धपरिमोक्षार्थं समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिध्यानं ध्याति ॥२११७॥ सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिमज्झाणेण । . अणुदिण्णाओ दुचरिमसमये सव्वाओ पयडीओं ॥२११८॥ ___ गा०-सूक्ष्म लेश्याके द्वारा सूक्ष्मकाययोगसे वह सातावेदनीय कर्मका बन्ध करता है तथा सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरे शुक्लध्यानको ध्याता है ॥२११३॥ गा०-उस सूक्ष्मक्रिय नामक शुक्लध्यानके द्वारा सूक्ष्म काययोगका निरोध करके वह शीलोंका स्वामी होता है तथा आत्माके प्रदेशोंके निश्चल हो जानेसे उन्हें कर्मबन्धन नहीं होता, क्योंकि कर्मबन्धके निमित्तोंका अभाव है ॥२११४|| गा०-उस समय अयोगकेवली होकर वह मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जगति, पर्याप्ति, आदेय, सुभग, यशःकीति, साता या असातावेदनीय, त्रस, बादर, उच्चगोत्र और मनुष्यायु इन ग्यारह कर्म प्रकृतियोंके उदयका भोग करते हैं। और यदि तीर्थंकर होते हैं तो तीर्थंकर सहित बारह प्रकृतियोंका अनुभवन करते हैं ।।२११५-१६।। गा०-उसके पश्चात् अयोगकेवली परम औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंके बन्धनसे छूटनेके लिये समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपातो नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं इसका दूसरा नाम व्युपरतक्रिया निवर्ती है ॥२११७॥ १.-दो जातो जो वेदि तित्थयरो-आ०, अ०। Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९८ भगवती आराधना __'सो तेण' स तेन पञ्चमात्राकालेनानेन ध्यानेन क्षपयति द्विचरमसमये अनुदीर्णाः सर्वाः प्रकृतीः ॥२११८॥ चरिमसमयम्मि तो सो खवेदि वेदिज्जमाणपयडीओ। बारस तित्थयरजिणो एक्कारस सेस सव्वण्हू ।।२११९॥ 'चरिमसमयम्मि' अंत्ये समये क्षपयति वेद्यमानाः प्रकृतीदिश तीर्थङ्करजिनः । शेषसर्वज्ञः एकादश । 'नामक्खएण' नाम्नो विनाशेन तेजसशरीरबन्धो नश्यति । आयुषः क्षयेण औदारिकबन्धनाशः ॥२११९।। णामक्खएण तेजोसरीरबंधो वि 'हीयदे तस्स । .. आउक्खएण ओरालियस्स बंधो वि हीयदि से ।।२१२०॥ तं सो बंधणमुक्को उड्ढं जीवो पओगदो जादि । जह एरण्डयबीयं बंधणमुक्कं समुप्पददि ।।२१२१॥ स्पष्टोतरगाथाद्वयं ॥२१२०-२१२१।। संग विजहणेण य लहुदयाए उड्ढं पयादि सो जीवो । जध आलाउ अलेओ उप्पददि जले णिबुड्डो वि ॥२१२२॥ 'संगजहणेण' संगत्यागाल्लघुतयोर्द्ध प्रयाति जलनिमग्ननिर्लेपालाबुवत् ॥२१२२॥ झाणेण य तह अप्पा पओगदो जेण जादि सो उड्ढं । वेगेण पूरिदो जह ठाइदुकामो वि य ण ठादि ॥२१२३॥ 'झाणेण य' ध्यानेनात्मा प्रयुक्तो यात्यूध्वं वेगेन पूरितो यथा न तिष्ठति स्थातुकामोपि ।।२१२३॥ गा०-टी०-इस ध्यानका काल 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच मात्राओंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतना है। इतने कालवाले उस अन्तिम ध्यानके द्वारा अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें बिना उदीरणाके सब ७२ कर्म प्रकृतियोंको खपाते हैं, उनका क्षयकर देते हैं, और अन्तिम समयमें तीर्थंकर केवली बारह प्रकृतियोंका क्षय करते हैं तथा सामान्य केवली ग्यारह प्रकृतियोंका क्षय करते हैं ॥२११८-१९।। गा०-उनके नामकर्मका क्षय होनेसे तैजस शरीर बन्धका भी क्षय हो जाता है। और आयुकर्मका क्षय होनेसे औदारिक शरीर बन्धका क्षय हो जाता है ॥२१२०॥ गा०-इस प्रकार बन्धनसे मुक्त हुआ वह जीव वेगसे ऊपरको जाता है जैसे बन्धनसे मुक्त हुआ एरण्डका बीज ऊपरको जाता है ॥२१२१॥ गा०-समस्त कर्म नोकर्मरूप भारसे मुक्त होनेके कारण हल्का हो जानेसे वह जीव ऊपर को जाता है। जैसे मिट्टीके लेपसे रहित तूम्बी जलमें डूबनेपर भी ऊपर ही आती है ॥२१२२।। गा०-जैसे वेगसे पूर्ण व्यक्ति ठहरना चाहते हुए भी नहीं ठहर पाता है वैसे ही ध्यानके १, खीयदे मु० । २. खीयदि -मु० । ३. संगस्स विजणेण -आ० । . Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९२ विजयोदया टोका जह वा अग्गिस्स सिहा सहावदो चेव होहि उड्ढगदी । जीवस्स तह सभावो उड्ढगमणमप्पवसियस्स ॥२१२४॥ स्पष्टोत्तरगाथा ॥२१२४॥ तो सो अविग्गहाए गदीए समए अणंतरे चेव । पावदि जयस्स सिहरं खित्तं कालेण य फुसंतो ॥२१२५॥ 'तो सो अविगहाए' ततोऽसावविग्रहया गत्या अनंतरसमय एव जगतश्थिखरं प्राप्नोति ॥२१२५।। एवं इहइं पजहिय देहतिगं सिद्धखेत्तमुवगम्म । सव्वपरियायमुक्को सिज्झदि जीवो सभावत्थो ॥२१२६॥ ‘एवं इहई' एवमिह देहत्रिकं विहाय सिद्धक्षेत्रमुपगम्य सर्वप्रचारविमुक्तः सिध्यति जीवः स्वभावस्थः ॥२१२६॥ तस्याधःस्थानमाचष्टे ईसिप्पन्भाराए उवरिं अत्थदि सो जोयणम्मि सीदाए । धुवमचलमजरठाणं लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो ॥२१२७॥ 'ईसिप्पन्भाराए' ईषत्प्राग्भाराया उपरि न्यनयोजने ध्रुवमचलं स्थानं लोकशिखरमास्थितः सिद्धः ॥२१२७॥ प्रयोगसे आत्मा ऊपरको जाता है ॥२१२३॥ गा०–अथवा जैसे आगकी लपट स्वभावसे ही ऊपरको जाती है वैसे ही कर्मरहित स्वाधीन आत्माका स्वभाव ऊर्ध्वगमन है ॥२१२४॥ ___ गा०-कर्मों का क्षय होते ही वह मुक्त जीव एक समयवाली मोड़े रहित गतिसे सात राजुप्रमाण आकाशकं प्रदेशोंका स्पर्श न करते हुए अर्थात् अत्यन्त तीव्रवेगसे लोकके शिखरपर विराजमान हो जाता है ॥२१२५॥ गा०-इस प्रकार इसी लोकमें तैजस, कार्मण और औदारिक शरीरोंको त्यागकर सब प्रकारके प्रचारसे मुक्त हुआ जीव, सिद्धिक्षेत्रमें जाकर अपने टंकोत्कीर्ण ज्ञापक भाव स्वभावमें स्थित होकर मुक्त हो जाता है ।।२१२६।। गा०-उस सिद्धिक्षेत्रके नीचे स्थित आठवीं पृथिवीको कहते हैं-ईषत्प्राग्भार नामकी आठवीं पृथ्वीके कुछ ऊपर एक योजन पर लोकका शिखर स्थित है जो ध्रुव, अचल और अजर है । उसपर सिद्ध जीव तिष्ठता है ॥२१२७॥ विशेषार्थ-आठवीं पृथिवीका नाम ईषत्प्राग्भार है। मध्यमें उसका बाहुल्य आठ योजन है । दोनों ओर क्रमसे हीन होता गया है। अन्तमें अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अत्यन्त सूक्ष्म बाहुल्य रह जाता है । इस तरह ऊपरको उठे हुए विशाल गोल श्वेत छत्रके समान उसका आकार है। उसका विस्तार पैंतालीरा लाख योजन है। उसके ऊपर तीन वातवलय हैं। उनमेंसे तीन Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती बाराधना घम्मामावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण । गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं च॥ २१२८॥ 'धम्मामावेष दु धर्मास्तिकायस्यामावे लोकाने प्रतिहन्यते अलोकेन, यतो जीवपुद्गलानां गतरूपकारको धर्मः स चोपरि नास्ति ।।२१२८॥ जं जस्स दु संठाणं चरिमसरीरस्स जोगजहणम्मि । तं संठाणं तस्स दु जीवघणो होइ सिद्धस्स ।।२१२९।। दसविधपाणाभावो कम्माभावेण होइ अच्वंतं । अच्चंतिगो य सुहदुक्खामावो विगददेहस्स ॥२१३०॥ दविधानां प्राणानामत्यंतामावेन भवति वात्यंतिकश्च सुखदुःखाभावः ॥२१२९-२१३०॥ जं पत्थि बंधहेतुं देहग्गहणं ण तस्स तेण पुणो। कम्मकलुसो हु जीवो कम्मकदं देहमादियदि ॥२१३१।। 'संपत्ति बंधहेर्दु' यन्नास्ति बंधकारणं तेन न मुक्तस्य देहग्रहणं, कर्मकलुषीकृतो हि जीवः कर्मकृतदेहमादते ॥२१३१॥ ....कज्जाभावेण पुणो अच्चं णत्थि फंदणं तस्स । __ण पओगदो वि फंदणमदेहिणो अस्थि सिद्धस्स ।।२१३२।। कोस विस्तार वाले दो वातवलयोंके ऊपर एक हजार पांच सौ पिचहत्तर धनुष विस्तार वाला तीसरा तनुवातवलय है। उसके पांच सौ पच्चीस धनुष मोटे अन्तिम भाग में सिद्ध भगवान विराजते हैं ।।२१२७॥ गा०-धर्मद्रव्य लोकके अग्रभाग तक ही है । अतः मुकजीव लोकानसे बागे अलोकमें नहीं बाता, क्योंकि धर्मद्रव्य गति करते हुए जीवों और पुद्गलोंको गतिमें उपकार करता है ।।२१२८।। गा-मन वचन काययोगोंका त्याग करते समय अयोगी गुणस्थानमें जैसा अन्तिम शरीरका आकार रहता है। उस याकाररूप जीवके प्रदेशोंका, घनरूप सिद्धोंका आकार होता है ।।२१२९॥ गा०—सिद्ध भगवानके कर्मोंका अभाव होनेसे दस प्रकारके प्राणोंका सर्वथा अभाव है। तथा शरीरका अभाव होनेसे इन्द्रिय जनित सुखदुःखका अभाव है ।।२१३०॥ गा-मुक्तजीवके कर्मबन्धका कारण नहीं है । अतः वह पुनः शरीर धारण नहीं करता। क्योंकि कर्मो से बद्ध जीव ही कर्मकृत शरीरको धारण करता है ।।२१३।। • गा–सिद्ध जीवोंको कुछ करना शेष न होनेसे उनमें हलन चलनका अत्यन्त अभाव है। १. एतां टीकाकारो नेच्छति । २. स होदि पुणो -अ०, मा० । Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ९०१ 'कज्जाभावेण पुणों' कार्याभावेन तत्स्पंदनं नास्ति तस्य न च परप्रयोगगतमपि स्पंदनमस्त्यदेहस्य सिद्धस्य ॥२१३२॥ कालमणंतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढो । सो' उवकारो इट्टो ठिदिसभावो ण जीवाणं ॥२१३३॥ 'कालमणंतं' अनन्तकालं अधर्मास्तिकायोपगृहीतः गगनमनुप्रविष्टः तिष्ठति । 'उवकारो इद्वो' अधर्मास्तिकायेन संपाद्यउपकारः अवस्थानलक्षण इष्टो यस्मान्न जीवस्य स्थितिस्वभावश्चैतन्यादिवत् ।।२१३३॥ तेलोक्कमत्थयत्थो तो सो सिद्धो जगं णिरवसेसं । सव्वेहिं पज्जएहिं य संपुण्णं सव्वदव्वेहिं ।।२१३४।। 'तेलोक्कमत्ययत्यो' त्रैलोक्यमस्तकस्थः ततोऽसौ जगन्निरवशेष सर्वेःपर्यायस्सर्वैर्द्रव्यस्संपूर्ण ॥२१३४॥ पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे । तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो ॥२१३५॥ 'पस्सदि जाणदि' पश्यति जानाति च कालत्रये पर्यायसहितानशेषांस्तथा चालोकमशेषं पश्यति भगवान् विगतमोहः ॥२१३५।। भावे सगविसयत्थे सूरो जगवं जहा पयासेइ । सव्वं वि तथा जुगवं केवलणाणं पयासेदि ॥२१३६॥ .. 'भावे सगविसयत्थे' आत्मगोचरस्थान् भावान् सूर्यो युगपद्यथा प्रकाशयति तथा सर्वमपि ज्ञेयं युगपत्केवलज्ञानं प्रकाशयति ।।२१३६॥ गदरागदोसमोहो विभओ विमओ णिरुस्सओ विरओ। बुधजणपरिगीदगुणो णमंसणिज्जो तिलोगस्स ॥२१३७॥ और वे शरीर रहित हैं । अतः वायु आदिके प्रयोगसे भी उनमें हलन चलन नहीं होता ॥२१३२।। गा-सिद्ध जीव जो अनन्तकाल तक आकाशके प्रदेशोंको अवगाहित करके ठहरा रहता है सो यह अवस्थान रूप उपकार अधर्मास्तिकायका माना गया है। क्योंकि जैसे जीवका स्वभाव चैतन्य आदि है उस प्रकार जीवका स्वभाव स्थिति नहीं है ॥२१३३॥ गा०–तीनों लोकोंके मस्तकपर विराजमान वह सिद्ध परमेष्ठी समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायोंसे सम्पूर्ण जगतको जानते देखते हैं। तथा वे मोहरहित भगवान् पर्यायोंसे सहित तीनों कालोंको और समस्त अलोकको जानते हैं ॥२१३४-३५॥ जैसे सूर्य अपने विषयगोचर सब पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करता है वैसे ही केवल ज्ञान सब पदार्थोंको एक साथ प्रकाशित करता है ॥२१३६॥ १. उवकारो इट्ठो जं ठि -अ० आ० । Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०२ भगवती आराधना 'गदरागदोसमोहो' दूरीकृतरागद्वेषमोहः, "विभो' विगतभयः 'विमओ' विगतमदः, क्वचिदप्यनुत्सुका, निरस्तकमरजःपटलः, बुधजनपरिगीतगुणः विष्टपत्रयेण नमस्करणीयः ॥२१३७ णिव्वावइत्तु संसारमहग्गि परमणिव्वुदिजलेण ! णिव्वादि सभावत्थो गदजाइजरामरणरोगो ॥२१३८।। "णिव्वावइत्तु' क्षयमुपनीय संसारमहाग्नि परमनिर्वृतिजलेन तृप्यति स्वरूपस्थो विनष्टजातिजरामरणरोगः ॥२१३८॥ जावं तु किंचि लोए सारीरं माणसं च सुहदुक्खं । तं सव्वं णिज्जिण्णं असेसदो तस्स सिद्धस्स ।।२१३९।। 'जावं तु किंचि लोए' यावत् किंचिल्लोके शारीरं मानसं वा यत्सुखं दुःखं च तत्सर्व निर्जीणं निरवशेषं । प्रकारकाय॑निरासार्थमशेषग्रहणं ॥२१३९॥ जं णत्थि सव्वबाधाओ तस्स सव्वं च जाणइ जदो से । जं च गदज्झवसाणो परमसुही तेण सो सिद्धो ।।२१४०॥ 'जंत्यि सम्वबाधाओ' यन्न सन्ति सर्वबाधाः, सर्व च यतो जानाति, यच्चापगताध्यवसानः, तेनासौ सिद्धः परमसुखी भवति ॥२१४०॥ परमिड्ढिपत्ताणं मणुगाणं णत्थि तं सुहं लोए । अव्वाबाधमणोवमपरमसुहं तस्स सिद्धस्स ।।२१४१।। ___परमिड्ढिपत्ताणं' परमामृद्धिं चक्रलांछनतादिकां प्राप्तानामपि मनुजानां नास्ति तत्सुखं लोके यदनुपमं तस्य सिद्धस्य सुखमव्याबाधम् ॥२१४१।। aaaaaaaaaaaaa गा०-जिन्होंने रागद्वेष मोहको दूरकर दिया है, जो भय रहित, मदरहित, उत्कण्ठा रहित और कर्मरूप धूलिपटलसे रहित हैं तथा ज्ञानीजन जिनका गुणगान करते हैं वे सिद्ध भगवान तीनों लोकोंके द्वारा वन्दनीय हैं ॥२१३७॥ गा०-परम निर्वृतिरूप जलसे संसाररूपी महान् अग्निको बुझाकर तथा जन्म-जरा-मरण रोगोंको नष्ट करके अपने स्वरूपमें स्थित मुक्तात्मा निर्वाणको प्राप्त करते हैं ॥२१३८।। गा०-संसारमें जितना भी शारीरिक और मानसिक सुखदुःख है वह सब पूर्णरूपसे उस सिद्ध परमेष्ठीके नष्ट हो चुका है ॥२१३९।।। ___गाल-क्योंकि सिद्ध परमेष्ठीके समस्त बाधाएँ नहीं हैं, और वह समस्त वस्तुओंको जानते हैं तथा अध्यवसान-विकल्पवासनासे रहित हैं । अतः वे परमसुखी हैं ॥२१४०।। गा०-उन सिद्धोंके जो बाधा रहित अनुपम परम सुख है वह सुख इस लोकमें परमऋद्धि चक्रवर्तित्व आदिको प्राप्त मनुष्योंके भी नहीं है ॥२१४१।। Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टोका ९०३ देविंदचक्कवट्टी इंदियसोक्खं च जं अणुहवंति । सदरसरूवगंधप्फरिसप्पयमुत्तमं लोए ॥२१४२।। 'देविंदचक्कवट्टी' देवेंद्राश्चक्रवर्तिनश्च यदिद्रियसुखमनुभवंति शब्दरसरूपगंधस्पर्शात्मकं लोके प्रधानं ॥२१४२।। अव्वाबाधं च सुहं सिद्धा जं अणुहवंति लोगग्गे । तस्स हु अणंतभागो इंदियसोक्खं तयं होज्ज ॥२१४३।। 'अव्वाबाधं सुहे' अव्याबाधात्मकं सुखं यत्सिद्धा लोकाग्रेऽनुभवंति तस्यानंतभागो भवति तदिद्रियसुखं पूर्वव्यावर्णितम् ।।२१४३॥ जं सव्वे देवगणा अच्छरसहिया सुहं अणुहवंति । तत्तो वि अणंतगुणं अव्वाबाहं सुहं तस्स ॥२१४४॥ 'जं सव्वे देवगणा' यत्सुखमनुभवंति साप्सरोगणाः सर्वे देवास्ततोऽप्यनंतगुणं तस्य सिद्धस्यायाबाधसुखम् ॥२१४४|| तीसु वि कालेसु सुहाणि जाणि माणुसतिरिक्खदेवाणं । सव्वाणि ताणि ण समाणि तस्स खणमित्तसोक्खेण ॥२१४५।। 'तीसु वि कालेसु' त्रिष्वपि कालेषु यानि मानवानां, तिरश्चां, देवानां च सुखानि सर्वाणि तानि न समानि सिद्धस्य क्षणमात्रेण सुखेन ॥२१४५॥ ताणि हु रागविवागाणि दुक्खपुवाणि चेव सोक्खाणि । ण हु अत्थि रागमवहत्थिदण किं चि वि सुहं णाम ॥२१४६।। 'ताणि रागविपाकाणि' तानि रागविपाकानि रागस्य दुःखहेतोर्जनकानि, एतेन दुःखानुबंधित्वं गा०—इस लोकमें देवेन्द्र और चक्रवर्ती शब्द रस रूप गन्ध और स्पर्श जन्य जिस उत्तम इन्द्रिय सुखको भोगते हैं, तथा लोकके अग्रभागमें स्थित सिद्ध जिस बाधा रहित सुखको भोगते हैं उसके सामने वह इन्द्रिय सुख उसका अनन्तवाँ भाग भी नहीं है ।।२१४२-४३॥ गा०-अप्सराओंके साथ सब देवगण जिस सुखको भोगते हैं उससे भी अनन्तगुण बाधा रहित सुख सिद्धोंको होता है ॥२१४४।। गा०-सब मनुष्यों तिर्यञ्चों और देवोंको तीनों कालोंमें जितना सुख होता है वह सब सुख सिद्धोंके एक क्षणमात्रमें होनेवाले सुखके भी बराबर नहीं है ।।२१४५।। गा० --मनुष्यादिके होनेवाला सुख रागका जनक है और राग दुःखका कारण है अतः १. मवदुज्झिऊण -अ० आ० । अवहत्थिदूण -मूलारा० । Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना नामेंद्रियसुखानां दोषोऽभिहितः । दुःखपूर्वाणि न हि क्षुधादिदुःखमंतरेण अशनादिकं प्रीति जनयति । न चास्ति रागमनपाकृत्य सुखं नाम किंचित् ॥ २१४६|| इन्द्रियसुख स्वरूपमभिधाय अनिद्रियसुखं व्यावर्णयति ९०४ अणुवमममेयमक्खयममलमजरमरुजमभयमभवं च । एयंतियमच्चंति यमव्वाबाधं सुहमजेयं ॥ २१४७॥ 'अणुपमममेयं' तत्समानस्य तदधिकस्याभावात् सुखस्य तदनुपमं छद्यस्थज्ञानैर्मातुमशक्यत्वादमेयं, प्रतिपक्षभूतस्य दुःखस्याभावादक्षयं रागादिमलाभावादमलं, जरारहितत्वादजरं, रोगाभावादरुजं, भयाभावादभयं भवाभावादभवं, ऐकांतिकं दुःखस्य सहायस्याभावाद कांतिकमसहायं अन्याबाधरूपं तत्सुखं ॥ २१४७ ॥ विसएहिं से ण कज्जं जं णत्थि छुदादियाओ बाधाओ । रागादिया य उवभोग हेदुगा णत्थि जं तस्स ।। २१४८।। 'विसएहि से ण कज्जं' शब्दादिभिर्विषयैः न कार्यं यतः सिद्धस्य न संति क्षुधादिका वाधाः, रागादरच विषयोपभोगहेतवो न संति यस्मात्तस्य ॥ २१४८ ॥ एदेण चैव भणिदो भासणचंकमणचितणादीणं । . चाणं सिद्धम्म अभावो हदसव्वकरणम्मि ॥ २१४९ ॥ 'एदेण चैव भणिदो' एतेनैवोक्तः भाषण- चंक्रमण - चितनादीनां चेष्टानामभावः सिद्धे हतसर्वक्रिये ॥ २१४९ ॥ इन्द्रियसुख दुःखको लानेवाला है तथा दुःखपूर्वक होता है । अर्थात् पहले दुःख होता है तब वह सुख होता है क्योंकि भूख प्यास आदिका दुःख हुए बिना भोजनादि प्रिय नहीं लगते । रागभावके बिना संसार में किञ्चित् भी सुख नहीं है ॥ २१४६|| इन्द्रिय सुखका स्वरूप कहकर अतीन्द्रिय सुखको कहते हैं गा० - टी० - उसके समान या उससे अधिक सुखका अभाव होनेसे अतीन्द्रिय सुख अनुपम है । छद्मस्थ जीवोंके ज्ञानके द्वारा उसका माप करना अशक्य होनेसे अमेय है । उसके विरोधी दुःखका अभाव होनेसे वह अक्षय है-उसका कभी नाश नहीं होता । उसमें रागादिमलका अभाव होनेसे वह अमल है । उसमें जरा रोगका भय न होनेसे वह अजर है । रोगका अभाव होनेसे अरुज है । भयका अभाव होनेसे अभय है पुनर्भव न होनेसे अभव है । उसके साथमें दुःख न होनेसे ऐकान्तिक है । अनन्तकाल तक रहनेसे आत्यन्तिक है - ऐसा वह अव्याबाधरूप सुख होता है ।।२१४७|| । गा० - सिद्धों में शब्दादि विषयोंसे कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि सिद्धोंको भूख प्यास आदि बाधा नहीं होती तथा विषयोंके उपभोगके कारण राग आदि भी नहीं है || २१४८|| गा० – इसीसे सब प्रकारकी क्रियाओंसे रहित सिद्धों में बोलना, चलना-फिरना तथा विचारना आदि भी नहीं है || २१४९ ॥ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०५ विजयोदया. टीका इय सो खाइयसम्मचसिद्धदाविरियदिट्ठिणाणेहिं । अच्चंतिगेहिं जुत्तो अव्वाबाहेण य सुहेण ॥२१५०॥ 'इय सो साइय' एवमसौ क्षायिकेण सम्यक्त्वेन सिद्धतया वीर्येण अनंतज्ञानाद्यनंतदर्शनेन चात्यन्तिकेन युक्तोऽत्र्याबाधेन सुखेन ॥२१५०॥ अकसायत्तमवेदत्तमकारकदा विदेहदा चेव । अचलतमलेवत्वं च इंति अच्चंतियाई से ॥२१५१।। 'बकसायत्वं' अकषायत्वं, अवेदत्वमकारकता विदेहता बचलत्वमलेपत्वं च आत्यंतिकं तस्य भवति । क्रोधादिनिमित्तानां कर्मणां प्राक्तनानां विनाशादमिनवानां वाऽभावादकषायत्वमात्यन्तिकं एवमेवावेदत्वं । साध्यस्यापरस्याभावादकारकत्वं । प्राक्तनस्य शरीरस्य विलीनत्वाद्देहान्तरकारिणःकर्मणोऽभावाद्विदेहतया अवस्थान्तरप्राप्तिनिमित्तांतरामावादचलत्वं । कर्मनिमित्तपरिणामाभावात् प्राक्तनानां च कर्मणां विनाशादलेपत्वमप्यात्यन्तिकम् ।।२१५१॥ जम्मणमरणजलोघं दुक्खपरकिलेससोगवीचीयं । इय संसारसमुद्द तरंति चदुरंगणावाए ।।२१५२॥ 'चम्मलमरगनलोघं जन्ममरणजलौघं दुःखसंक्लेश्शशोकवीचिकं संसारसमुद्रं सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रतपस्संजितचतुरङ्गनावा तरन्ति ।।२१५२॥ एवं पण्डिदपण्डिदमरणेण करंति सव्वदुक्खाणं । अंतं णिरंतराया णिव्वाणमणुचरं पत्ता ।।२१५३।। गा-इस प्रकार वह सिद्ध परमेष्ठी क्षायिक सम्यक्त्व, सिद्धत्व, अनन्तवीर्य, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अव्याबाध सुखसे युक्त होते हैं । ये सब आत्यन्तिक होते हैं, इनका कभी विनाश नहीं होता ।।२१५०॥ गा०-टो०-क्रोध आदिमें निमित्त पूर्व कर्मोका विनाश होनेसे और नवीन कर्मों का अभाव होनेसे सिद्धोंमें आत्यन्तिक अकषायत्व हैं। इसी प्रकार आत्यन्तिक अवेदत्व है। उनके लिये कोई करने योग्य कार्य शेष न रहनेसे अकारकत्व भी सदा रहता है। पूर्व शरीरका विनाश होनेसे और नवीन शरीरको उत्पन्न करनेवाले कर्मका अभाव होनेसे सिद्धोंमें सदा विदेहता है । अन्य अवस्थाको प्राप्त होनेमें निमित्तका अभाव होनेसे सदा अचल हैं। उनके कर्मके निमित्तसे होनेवाले परिणामोंका अभाव होनेसे तथा पूर्वके कर्मोका विनाश होनेसे वे सदा लेपरहित होते हैं ॥२१५१॥ गा०—जिसमें जन्म मरणरूपी जलका समूह भरा है, दुःख संक्लेश और शोकरूपी लहरें उठा करती हैं; उस संसाररूपी समुद्रको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तपरूपी नावसे पार करते हैं ॥२१५२॥ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 'एवं पण्डितपण्डित मरणेण' एवमुक्तेन क्रमेण पण्डितपण्डितमरणेण सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति । निरन्तराया निर्विघ्ना निर्वाणमनुत्तरं प्राप्ताश्च । एतेन पण्डित - पण्डितमरणं व्याख्यातं । ' पंडितपंडितमरणं गदं' ॥२१५३॥ ९०६ एवं आराधित्ता उक्कस्साराहणं चदुक्खंधं । कम्मरयविप्यमुक्का तेणेव भवेण सिज्झंति || २०५४ || 'एवं आराधित्ता' एवमाराध्य । 'उक्कस्साराघणं' उत्कृष्टाराधनां । 'चदुक्खं घं' समीचीनदर्शनज्ञान चरणतपोभिधानं चतुष्कत्वं । 'कम्मरजविष्पमुक्का' कर्मरजोविप्रमुक्तास्तेनैव भवेन सिध्यन्ति ॥ २१५४॥ आराधयित्तु धीरा मज्झिममाराहणं चदुक्खंधं । कम्मरयविमुक्का तदिएण भवेण सिज्यंति ॥ २१५५ ।। आराधयित्तु धीरा जहण्णमाराहणं चदुक्खंधं । कम्मरयविमुक्का सत्तमजम्मेण सिज्झति ।।२१५६ ॥ 'आराधयित्तु घोरा' आराध्य घीरा जघन्यामाराधनां चतुष्कंधां कर्मरजोविप्रमुक्ताः सप्तमेन जन्मना सिध्यन्ति ॥ २१५५-२१५६ ।। एवं एसा आराधना समेदा समासदो वृत्ता । आराघणाणिबद्ध सव्वंपि हु होदि सुदणाणं ॥ २१५७ ॥ 'एवं एसा' एवमेषा आराधना सप्रभेदा समासतो निरूपिता । आराधनायामस्यां निबद्ध सर्वमपि श्रुतज्ञानं भवति ॥ २१५७॥ आराघणं असेसं वण्णेदु होज्ज को पुण समत्थो । सूदकेवली व आराघणं असेसं ण वणिज्ज ॥ २१५८॥ गा०—इस प्रकार वे क्षपक पण्डितपण्डितमरणसे सब दुःखोंका अन्त करते हैं और बिना बाधा उत्कृष्ट निर्वाणको प्राप्त करते हैं ॥ २१५३ ॥ गा० - इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तपरूप चार प्रकारकी उत्कृष्ट आराधनाकी आराधना करके कर्मरूपी धूलिसे छूटकर उसी भवसे मुक्ति प्राप्त करते हैं ।। २१५४॥ गा०—उक्त चार भेदरूप मध्यम आराधनाकी आराधना करके धीर पुरुष कर्मरूपी धूलिसे छूटकर तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त करते हैं ॥ २१५५ ॥ गा०—उक्त चार भेदरूप जघन्य आराधनाकी आराधना करके धीर पुरुष कर्मरूपी धूलिसे छूटकर सातवें भवमें मुक्ति प्राप्त करते हैं ॥ २१५६ ॥ गा० - इस प्रकार इस भेदसहित आराधनाका संक्षेपसे कथन किया । इस आराधनामें जो कुछ कहा गया है वह सब श्रुतज्ञान है || २१५७ ॥ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया टीका ९०७ आराधणं असेसं निरवशेषामाराधनां वर्णयितुं कस्समर्थो भवेत्, श्रुतकेवल्यपि निरवशेष न वर्णयेत् ॥२१५८॥ अज्जजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणंदीणं । . अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च ॥२१५९॥ 'अजजिणणंदि' आचार्यजिननंदिगणिनः, सर्वगुप्तगणिनः, आचार्यमियनंदिनश्च पादमूले सम्यगर्थ श्रुतं वावगम्य ॥२१५९॥ पुवायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराधणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ।।२१६०॥ 'पुव्वायरिय' पूर्वाचार्यकृतामिव उपजीव्य इयं आराधना स्वशक्त्या शिवाचार्येण रचिता पाणितलभोजिना ॥२१६०॥ छदुमत्थदाए एत्थ दु जं बद्ध होज्ज पवयण विरुद्ध। सोधेतु सुगीदत्था पवयणवच्छलदाए दु ॥२१६१॥ 'छदुमत्थदाए' छद्यस्थतया यदत्र प्रवचनंनिदर्शनवद्ध (विरुद्धं) भवेत् तत्सुगृहीतार्थाः शोधयंतु प्रवचनवत्सलतया ॥२१६१॥ आराघणा भगवदी एवं भत्तीए वण्णिदा संती। संघस्स शिवजस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ ॥२१६२।। 'आराधणा भगवदी' आराधना भगवती एवं भक्त्या कीर्तिता सव्वंगुप्तगणिनः संघस्य शिवाचार्यस्य च विपुला सकलजनप्रार्थनीयां अव्यावाधसुखां सिद्धि प्रयच्छतु ॥२१६२॥ - गा०—मेरे समान कौन अल्पश्रुतज्ञानी सम्पूर्ण आराधनाका वर्णन करनेमें समर्थ हो सकता है। श्रुतकेवली भो सम्पूर्ण आराधनाको नहीं कह सकते। अर्थात् भगवान सर्वज्ञ ही आराधनाका सर्वस्व वर्णन कर सकते हैं ।।२१५८॥ गा०-आर्य जिननन्दिगुणि, सर्वगुप्त गणि, और आर्य मित्रनन्दीके पादमूलमें सम्यकपसे ध्रुत और उसके अर्थको जानकर पूर्वाचार्यके द्वारा रची गई आराधनाको आधार बनाकर हस्तपुटमें आहार करनेवाले मुझ शिवाचार्यने अपनी शक्तिसे इस आराधना ग्रन्थको रचा ॥२१५९-६०।। गा०-छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानी होनेसे इसमें जो कुछ आगमके विरुद्ध लिखा गया हो; उसे आगमके अर्थको सम्यक्प से ग्रहण किये हुए ज्ञानोजन सुधारनेकी कृपा करें ॥२१६१।। गा०-इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णनको हुई भगवती आराधना सर्वगुप्त गणीके संघको तथा रचयिता शिवार्यको समस्त जनोंसे प्रार्थनीय अव्याबाध सुखरूप सिद्धिको प्रदान करें अर्थात् उसके प्रसादसे हम सबको शुक्लध्यानकी प्राप्ति हो ॥२१६२।। ११४ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०८ भगवती आराधना असुरसुरमणुयकिण्णररविससिकिंपुरिसमहियवरचरणो । दिसउ मम बोहिलाहं जिणवरवीरो तिहुवर्णिदो ।। २१६३ ।। खमदमणियमघराणं धुदरयसुहदुक्खविप्पजुत्ताणं । णाणुज्जोदिय सल्लेहणम्मि सुणमों जिणवराणं ॥ २१६४॥ गा० - जिनके पूजनीय चरणोंको असुर, सुर, मनुष्य, किन्नर, सूर्य, चन्द्र, और किम्पुरुष जाति व्यन्तर पूजते हैं वे तीनों लोकोंके स्वामी वीर जिनेन्द्र मुझे बोधिलाभ प्रदान करें ॥ २१६३॥ गा०-- जिन्होंने स्वयं क्षमा, इन्द्रियदमन और नियमोंको धारण करके कर्ममलको नष्ट किया, तथा सांसारिक सुख दुःखसे रहित हुए और अपने ज्ञानके द्वारा सल्लेखनाको प्रकाशित किया उन जिन देवोंको नमस्कार हो ॥ २१६४॥ भगवती आराधना समाप्त हुई । श्रीमदपराजितसूरेष्टीका कृतः प्रशस्तिः नमः सकलतत्वार्थप्रकाशन महौजसे । भव्यचक्रमहाचूडारत्नाय सुखदायिने || १ || श्रुतायाज्ञानतमसः प्रोद्यद्धर्मांशवे तथा । केवलज्ञानसाम्राज्यभाजे भव्यैकबंधवे ॥२॥ चन्द्रनन्दिमहाकर्मप्रकृत्याचार्यप्रशिष्येण आरातीयसूरिचूलामणिना नागनन्दिगणिपादपमोपसेवाजातमतिलवेन वलदेवसूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरेण लब्धयशःप्रसरेण अपराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिनावचोदिनेन रचिता आराधनाटीका श्रीविजयोदयानाम्ना समाप्ता । टीकाकार अपराजित सूरिकी प्रशस्ति जो समस्त तत्त्वार्थको प्रकाशित करनेके लिये महान् प्रकाशरूप है, भव्य समुदाय के लिये महान् शिरोमणि है, जिसे वे सिरपर धारण करते हैं, सुखको देनेवाला है, अज्ञानरूपी अन्धकारके लिये उगती हुई प्रकाश किरण है, जिसके द्वारा केवल ज्ञानरूपी साम्राज्य प्राप्त होता है तथा जो भव्य जीवोंका एकमात्र बन्धु है उस श्रुतको नमस्कार हो । जो चन्द्रनन्दि नामक महाकर्म प्रकृति आचार्यके प्रशिष्य हैं, आरातीय आचार्यों के चूड़ामणि हैं, नागनन्दि गणिके चरण कमलोंकी सेवा के प्रसादसे जिन्हें ज्ञानका लेश प्राप्त हुआ, जो बलदेव सूरिके शिष्य हैं और जिन शासनका उद्धार करनेमें धीरवीर हैं, जिनका यश सर्वत्र फैला है; उन अपराजित सूरिने श्रीनन्दिगणिको प्रेरणा से श्री विजयोदया नामक आराधना टीका रची । १. श्री नागनन्दि - मु० । Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका अ हारं अकडुगमतित्तयमणं अकदम्मि वि अवराधे अकसायत्तमवेदत्त अखलिदममिडिदमव्वा अग्गिपरिक्खित्तादो अग्गिविसकिण्हसप्पा अग्गिविसकिण्हसप्पा अग्गिविससत्तुसप्पा अग्गी वि य डहिदु जे अघसे समे अससिरे अच्चेलक्क लोचो अच्छाहि ताव सुविहिद अच्छिणिमेसणमित्तो अच्छीणि संघसिरिणो अज्ज जिणनंदिगणि अज्झवसाणट्ठाणंत अज्झवसाणविसुद्धीए अज्झवसाणविसुद्धी अट्टे चउप्पयारे अट्ठपदेसे मुत्तूण अद्विदलिया छिरावक्क अट्ठीणि होति तिण्णि हु अडई गिरि दरि सागर अणणुण्णादग्गहणं अणसण अवमोयरियं । अणिगूहिद बलविरिया अणिदाणो य मुणिवरो अणिवित्तिकरणणामं अणिहुदपरगदहिदया अणिहुदमणसा इंदिय पृ० गा. ६९४ १४८५ अणुकंपा सुद्धवओगो ५३० ९४१ अणुपालिदा य आणा ___ ९०५ २१५१ अणुपालिदो य दोहो ४३९ ६५१ अणुपुव्वेण य ठविदो ६४८ १३१६ ४६३ ७२८ अणुबद्धरोसविग्गह ४६३ ७२९ अणुमाणेदूण गुरुं ७२५ १५९१ अणुलोमा वा सत्तू ५३९ ९८२ अणुवत्तणाए गुणवयणेहि ४३४ ६४० अणुवमममेयमक्खय ११४ ७९ अणुसज्जमाणए पुण ३८३ ५१६ ७४१ १६५७ अणुसुरी पडिसूरि . ४६३ ७३१ अण्णम्मि चावि एदा ९०७ २१५९ अण्णस्स अप्पणो वा ७९३ १७७५ अण्णस्स अप्पणो वा २६१ २५९ अण्णं अवरज्झंतस्स २६१ २६१ अण्णं इमं सरीरं ७५५ १६९६ अण्णं गिण्हदि देह ७९२ १७७३ अण्णं च एवमादी य ८०७ १८१० अण्णं पि तहा वत्थु ५४८ १०२१ अण्णं व एवमादी । ५१० ८५४ अण्णाणी वि य गोवो ६१० १२०२ अण्णो वि को वि ण गणो २३६ २१० अत्थणिमित्तमदिभयं २८१ ३०९ अत्थम्मि हिदे पुरिसो ६३८ १२७७ अत्थाण वंजणाण य ८९० २०८८ अत्थाण वंजणाण ५३४ ९५४ अत्थे संतम्हि सुहं ८१९ १८३२ अदिगूहिदा वि दोसा पृ० गा० ८१४ १८२८ २८९ ३२८ १९७ १५६ ४५३ ६९८ २५७ २४९ २२३ १८५ ४०७ ५७४ ११० ७१ ५३६ ९६२ ९०४ २१४७ ४५३ ६९७ ८७७ २०२८ २४२ २२४ ११३ ७३ ५०३ ८३० ५४७ १०१७ ५१०८५८ ७४२ १६६५ ७८९ १७६८ ४०१ ५६१ २९३ ३४० ४०० ५५९ ४७४ ७५८ ७३११६१९ ५७६ ११२३ ५०९ ८५३ ८३७ १८७९ ८३६ १८७६. ५१० ८५५ ६७९ १४२६ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१० भगवंता आराधनां अदिलहुयगे वि दोसे अदिवडइ बलं खिप्पं अदिसयदाणं दत्तं अदिसंजदो वि दुज्जण अद्धा णतेण-सावय अद्धाणरोहणे जण अद्धाणसणं सव्वा अर्धवमसरणमेगत्त अध खवगसेढि अघ तेउ-पम्म-सुक्कं अध-लोह सुहुमकिट्टि अधिगेसु बहुसु संतेसु अपरिग्गहस्स मुणिणो अपरिस्साइ णिव्वावओ भपरिस्साइ सम्म अप्पच्चओ अकित्ती अप्पपरियम्म उवधि अप्पपसंसं परिहरह अप्पाउगरोगिदया अप्पा णिच्छरदि जहा अप्पा दमिदो लोएण अप्पायत्ता अज्झप्प अप्पा य वंचिओ तेण अप्पो वि तवो बहुगं अप्पो वि परस्स गुणो अबलत्ति होदि जं से अन्भहियजादहासो अभंगादीहि विणा अभंतरवाहिरए अभंतर बाहिरगे अभंतरसोधीए अभंतरसोधीए अभंतर सोधीए अब्भावगाससयणं पृ० गा० ५२९ ९३९ अब्भुजदचरियाए ७६६ १७२१ अब्भुज्जदम्मि मरणे २९० ३२९ अब्भुट्ठाणं च रादो २९६ ३५० अब्भुट्ठाणं किदियम्म २८० ३०८ अभिजोगभावणाए ४२१ ६१३ अभिणंदणादिया पंच २३६ २११ अभिभूददुव्विगंधं ७६१ १७१० अमणुण्ण संपओगे ८९० २०८७ अमुगम्मि इदो काले ८४७ १९१७ अमुयंतो सम्मत्तं ८९१ २०९२ अम्मापिदुसरिसो मे ६७८ १४२३ अम्हे वि खमा वेमो ६११ १२०५ अयसमणत्थं दुःखं ३१९ ४२० अरसं च अण्णवेला २७३ २९६ अरहघडी सरिसी ५०६ ८४२ अरहंतणमोकारो २११ १६५ अरहंतसिद्ध आइरिय २९९ ३६१ अरहंतसिद्धकेवलि ४८८ ७९७ अरहंतसिद्धचेइय ६९२ १४७७ अरहंतसिद्धचेदिय १२४ ९० अरहंतसिद्धभत्ती ३३३ १२६३ अरहंतसिद्धसागर ६८५ १४४८ अरिहादि अंतिगंती ६८६ १४५४ अरिहे लिंगे सिक्खा ३०४ ३७५ अलिएहि हसियवयणेहि ५३८ ९७४ अलियं स किपि भणियं ४५७ ७१० अवधिट्ठाणं णिरयं ५५३ १०४२ अवरण्ह रुक्खछाही ५७० ११११ अववादियलिंगकदो . ६८४ १४४५ . अवहट्ट अट्टरुद्दे ६५७ १३४३ अवहट्ट कायजौगे ८४६ १९०९ अविकत्थंतो अगुणो ८४६ १९१० अविगटुं वि तवं जो २४४ २२८ अवितक्कमवीचारं पृ० गा० ३५९ ४५८ ४४२ ६५९ २४४ २२९ १६५ १२१ ८५९ १९५४ ७०९१५५० ५५२ १०४१ ७५५ १६९७ ३९१ ५३४ ८२२ १८३८ ४५७ ७१२ ३०५ ३८० ५२० ९०१ २४० २१८ ४१३ ५९४ ४७२ ७५४ ५२० ९०० ७३३ १६२८ ८३ ४५ ४६८ ७४३ २८५ ३१९ ४०१ ५६० ८७८ २०३२ १०५ ६६ ५३६ ९६३ ५०६ ८४१ ७३८ १६४४ ७६५ १७१९ १२१ ८६ ७५५ १६९९ ७४९ १६८९ ३०१ ३६६ २६१ २६० ८३८ १८८० Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९११ पृ० गा० आ अवियक्कमवीचारं अवि य वहो जीवाणं अविरद सम्मादिठी अविरमणं हिंसादी अविसुद्ध भावदोसा अविसुय असुसिर अव्वाघादमसंदिद्ध अव्वाबाधं च सुहं अव्वोच्छित्तिणिमित्तं असदि तणे चुण्णेहि असमाधिणा व कालं असिधारं व विसं वा असिवे दुब्भिक्खे वा असुचि अपेच्छणिज्जं असुरसुरमणुसकिण्णर असुरपरिणामबहुलत्त असुहा अत्था कामा अह तिरियउड्ढलोए अहव सुदिपाणयं से अहवा अप्पं आसा अहवा चारित्तारा अहवा जं उम्भावेदि अहवा तण्हादिपरी अहवा तल्लिच्छाइ अहवा दसणाणच अहवा समाधिहेंदूं अहवा सयबुद्धोए अहवा सरीरसेज्जा अहवा होइ विणासो अह सावसेसकम्मा अहिमारएण णिवदिम्मि अंगसुदे य बहुविधे अंतो बहि व मज्झे अंधलयबहिरमूतो गाथा नुक्रमणिका पृ०. गा. ८३९ १८८२ ५२४ ९१६ आइरिय पादमूले ६५ २९ आउधवासस्स उरं आउव्वेदसमत्ती ८१० १८२० आएसस्स तिरत्तं ८५७ १९४५ ८६१ १९६३ आएसं एज्जतं ८९३ २०९८ आकंपिय अणुमाणिय ९०३ २१४३ आक्खेवणी कहा सा आक्खेवणी य संवे २६७ २७७ आगमदो जो बालो ८६७ १९८६ 'आगम माहप्पगओ ४४८ ६७८ आगम सुदाणाधा ७४२ १६६१ आगंतुगवच्छव्वा ७०४१५३७ आगंतुधरादीसु वि ५४६ १०१४ आगाढे उवसग्गे ६०८ २१६३ आगासभूमिउदधी ८३० १८६२ आगासम्मि वि पक्खी ८०६ १८०७ आचेलक्कुद्दे सिय ७६१ १७०९ आणक्खिदाय लोचेण ३४१ ४४७ आणाभिकंखिणावज्ज ६३० १२५४ आणा संजम साखिल्लदा २४, ८ आणा हवत्तियादीहिं ५०१ ८२१ आदट्ठमेव चिते ६९६ १४९६ आदपरसमुद्धारो ६४१ १२८७ आदहिदपइण्णा भाव २१३ १६९ आदहिदमयाणतो ४५६ ७०७ आदा कुलं गणो ५०० ८१९ आदाणे णिक्खेवे २१५ १७१ आदाणे णिक्खेवे ५८१ ११४८ आदितिय सुसंघडणो ८४९ १९२४ आदुर सल्ले मोसे ८८६ २०६९ आपुच्छा य पडिच्छण ३७७ ५०१ आबद्धधिदिदढो वा ५५३ १०४४ आमासण परिभासण १७५ १३७ आमंतणि आणवणी ४१३ ५९५ ५७८ ११३० ४३० ६२६ ३१७ ४१५ ३१४ ४१२ ४०३ ५६४ ४४० ६५५ ४४० ६५४ ४१५ ६०० ४४२ ६५८ ३५५ ४५१ ३१५ ४१३ ४३४ ६३८ ८८५ २०६६ ५३४ ९५७ ७९३ १७७६ ३२० ४२३ १२५ ९१ २३९ २१६ २८२ ३१२ ४५४ ७०२ ३६९ ४८५ १४२ ११० १३२ ९९ १३५ १०१ २५५ २४४ ४९७ ८१२ ५८२ ११५३ ८७९ २०३८ ४२६ ६१८ १०७ ६८ ६७११३९७ ४३८ ६४८ ६०२११८९ : Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१२ आमंतेऊण गणि आमासयम्मि पक्का आयरिय उवज्झाए आयरियत्तादिणिदाणे आयरियधारणाए आयरियपादमूले आयरियसत्थवाहेण आयरियाणं वीसत्वदाए आयंविलणिव्वियणी आयंविलेण सिंभ आयापायविदण्ड आयार-जीद-कप्पगु आयार-जीद-कप्पगु आयारत्थो पुण से आयारवमादोया आयारवं च आधाआयारं पंचविहं आयासवेरभयदुक्ख आरण्णओ वि मत्तो आरंभे जीववहो आराधणपत्तीयं आराधणपत्तीयं आराधणं असेसं आराधणाए तत्थ दु आराधणापडायं आराधणापुरस्सर आराधणाविधी जो आराधयित्तु धीरा आराधयित्तु धीरा आराहणाए कज्जे आराहणा भगवदी आलं जणेदि पुरुसस्स आलंबणं च वायण आलंबणं च वायण भगवती आराधना पृ० गा० '२६७ २७८ आलंबणेहि भरिदो ५४४ १००६ आलोइदं असेसं । ५२० ८९७ आलोचण गुणदोसे ६२३ १२३४ आलोयणाए सेज्जा २८८ ३२५ आलोयणापरिणदो ४१३ ५९५ आलोयणापरिणदो ६४० १२८४ आलोयणापरिणदो ३७३ ४९० आलोयणा हु दुविहा २६० २५६ आलोचिदणिस्सल्लो ४५४ ७०० आलोचिदं असेसं १३८ १०५ आलोचिदं असेसं ३१४ ४११ आलोचेमि य सव्वं १७१ १३२ आलोयणं सुणित्ता ३३६ ४२९ आलोयणादिया पुण ३८८ ५२८ आलोयणापरिणदो ३१८ ४१९ आलोयणेण हिदयं ३१९ ४२१ आवडणत्थं जह ओ३०३ ३७२ आवडिया पडिकला ४७६ ७६२ आवसधे वा अप्पा ४९७ ८१४ आवादमेत सोक्खो ४५५ ७०५ आवासयठाणादिसु ८६७ १९८८ आवासयं च कुणदे ९०६ २१५८ आसयवसेण एवं ८७५ २०२० आसव संवर णिज्जर ४७४ ७५७ आसागिरिदुग्गाणिय ४७० ७५२ आसादित्ता कोई ८७५ २०१८ आसादिदा तओ होंति ९०६ २१५५ आसी अणंतखुत्तो ९०६ २१५६ आसीय महाजुधाई ४१ १९ आसीविसेण अवरुद्धस्स ९०७ २१६२ आसीविसोव्व कुविदा ५३८ ९७५ आसुक्कारे मरणे ७५९ १७०५ आहट्टिदूण चिरमवि ८३४ १८६९ आहारत्थं काऊण पृ० गा० ८३४ १८७० ४०४ ५६६ ३६५ ४७६ २१२ १६८ ३१३ ४०७ ३१३ ४०८ ३१३ ४०९ ३९२ ५३५ ८०८ २०७८ ४१५ ६०१ ४१६ ६०५ ४०७ ५७३ ४२५ ६१७ ३९८ ५५६ ३१३ ४०६ ५६३ १०७९ ६२४ १२३७ ७०१ १५१५ ११४ ७८ ७४० १६५५ ३१५ ४१४ ८८१ २०४९ २९८ ३५८ ७४ ३७ ६४३ १२९८ ४५१ ६९१ ७३४ १६२९ ७२७ १६०१ ५२९ ९३६ ५१७ ८८६ ५३० ९४० ८८८२०७७ ५२५ ९१९ ७३८ १६४६ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका ९१३ आहारत्थं परिसो आहारत्थं मज्जा आहारत्थं हिंसइ आहारमओ जोवो आहिंडय पुरिसस्स य har इगविगतिगचउरिदिय इच्चेवमदिक्कतो इच्चेवमाइ कवचं इच्चेवमादि अविचितयदो इच्चेवमादि दुक्खं इच्चेवमादि दोसा इच्चेवमादि विणओ इच्चेवमादि विविहो इच्चेवमेदमविचिं इच्चेव समणधम्मो इच्चेव कम्मुदओ इठेसु अणिठेसु य इड्ढिमतुलं विउन्विय इहि पि जदि ममति इत्तिरियं सव्वगणं इत्थि विषयाभिलासो इत्थी वि य जं लिंग इदि पंचहि पंचहदा इध किं पर लोगे वा इय अट्ठगुणो वेदो इय अप्प परिस्सममग इय अव्वत्तं जइ सा इय आलंबण मणुपेहा इय उजुभावमुवगदो इय एदे पंचविधा इय एस लोगधम्मो इय एसो पच्चक्खो इय खामिय वेरग्गं पृ० गा० ७३७ १६४१ इय चरणमधक्खादं ७३७ १६४२ इय जइ दोसे य गुणे ७३६ १६३७ इय जो दोसं लहुगं ३३८ ४३७ इय जे विराधयित्ता ७९८ १७९२ इय झायंतो खवओ इय णिव्ववओ खवयस्स इय दढ़ गुणपरिणामो ८९१ २०९० इय दुट्ठयं मणं जो ८३४ १८७१ इय दुल्लहाए बोहीए ७४५ १६७५ इय पच्छण्णं पुच्छिय ६२३ १२३२ इय पण्णविज्जमाणो ७२३ १५८२ इय पयविभागयाए ३७५ ४९७ इय पब्धज्जा भंडि १६७ १२४ इय पुव्वकदं इणमज्ज २४० २१९ इय बालपंडियं होदि ६३८ १२७८ इय मज्झिममाराधण ६९०१४७१ श्य मुकस्सियमारा ७३१ १६१७ इय समभावमुवगदो ७४७ १६८३ इय सव्वसमिदकरणो ८७९ २०४० इय संणिरुद्धमरणं ७४२ १६६३ इय सामण्णं साहू २२० १७९ इय सो खवओ ज्झाणं ५१४ ८७३ इय सो खाइयसम्मत्त ११५ ८० इय सव्वत्थवि संवर ६५९ १३४८ इय सल्लीण मुवगदो ८०४ १७९८ इरियादाणणिखेवे ३८० ५०९ इहई परलोगे वा ३५९ ४५९ इह परलोइय दुक्खाणि ४१३ ५९३ इह परलोए जदि दे ८३३ १८६८ इह य परत्त य लोए ३९९ ५५५ इय य परत्त य लोए ६४६ १३०९ इह य परत्त य लोए ८०६ १८०५ इह य परत्त य लोए १६९ १२८ इह य परत्त य लोए ४५८ ७१४ इह य परत्त य लोए पृ० गा० ८५२ १९३८ ३६४ ४७४ ४१० ५८३ ८५९ १९५६ ८४३ १८९७ ३७९ ५०८ २८३ ३१६ १७७ १४१ ८३३ १८६५ ४११ ५८८ ७४४ १६७३ ४२४ ६१४ ६३९ १२८२ ७३२ १६२३ ८८८ २०८१ ८५०१९२७ ६४९ १९२३ ८४३ १९०० १२१ ८५ ८७२ २००९ ४२ २१ ८४०१८८४ ९०५ २१५० ८२३ १८३९ २४९ २३५ १२९ ९५ ६३४ १२६६ ७३७ १६४३ ५६७ ११०१ ६७५ १४१३ ६७८ १४२१ ६७८ १४२५ ६८० १४३० ६८० १४३३ ६८६१४५३ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१४ पृ० .गा० ७६४१७१६ २२७ १९१ ई ८९९ २१२७ ५३१ ९४४ इह लोइय परलोइय इह लोए परलो ए इह लोए वि महल्लं इहलोग बंधवा ते इहलोगिय परलोगिय इंगालो धोव्वंते इंगालो धुव्वंते इंदियकसाय उवधीण इंदियकसायगुरुगत्त इंदियकसायगुरुगत्त इंदियकसायगुरुगत्त इंदियकसायगुरुगत्त इंदियकसायचोरा इंदियकसायजोगणि इंदियकसायणिग्गह इंदियकसायदुद्दतस्सा इंदियकसायदोसेहिं इंदियकसायदोस इदियकसायदुद्दत्तस्सा इंदियकसायपणिधा इंदियकसायपण्णग इंदियकसायमइला इंदियकसायमइओ इंदियकसायवसगो इंदियकसायवसगो इंदियकसायवसिया इंदियकसायसण्णा इंदियकसायहत्थी इदियकसायहत्थी इंदियकसायहत्थी इदियकसायवग्घा इदियगहोवसिट्ठो इदियचोरपरद्धा इदियदुद्दत्तस्सा इदियमयंसरीरं भगवती आराधना पृ९ गा० ५०७ ८४५ इदिय सामग्गीवि ८८० २०४५ इदियसुह साउलओ ५२७ ९२९ ७७५ १७४६ ८०७ १८०८ ईसप्पन्भाराए ५५२ १०३८ ईसालुयाए गोवव । ८०८ १८११ २१४ १७० ६४१ १२८९ उक्कूवेज्ज व सहसा ६४२ १२९४ उक्कस्सएण छम्मासाउग ६४४१३०१ उक्कस्सएण भत्तप ६४५ १३०६ उक्कस्सा केवलिणो ६७२ १४०१ उग्गम उप्पादण एसणा ७५६ १७०० उग्गम उप्पादणेसणा ६५६ १३३९ उग्गम उप्पादणएसण ६७० १३९१ उग्गम उपायणए ६४६ १३०७ उग्गाहिंतस्सुधिं ६५५ १३३८ उच्चत्तणम्मि पीदी ६७० १३९० उच्चत्तणं व जो णीच १४६ ११४ उच्चासु व णीचासु व ६७० १३९२ उज्जस्सी तेजस्सी ६५६ १३४० उज्जय भावम्मि असत्त ६५२१३२६ उज्जोवणमुज्जवणं ६१३ १३३० उज्झंति जत्य हत्थी ६५५ १३३६ उड्डहणा अदिचवला ६४६ १३०८ उड्डाहकरा थेरा ५६५ १०८८ उड्ढे सअंकवड्ढिय ६७३ १४०३ उण्हं वादं उण्हं ६७३ १४०४ उत्तरगुण उज्जमणे ६७३ १४०५ उदए पवेज्जहि सिला ६७२ १४०२ उदयम्मि जायवढिय ६५२ १३२४ उद्धदमणस्स ण रदी ६४३ १२९५ उद्धयमणस्स ण सुहं ८१८ १८३१ उप्पाडित्ता धीरा ५८३ ११५७ उन्भासेज़्ज व गुणसे ३३९ ४४१ ८९४ २१०३ २५१ २५४ ९५ ५० २४५ २३२ ३१८ ४१७ ४३२ ६३५ ६०४ ११९१ ५६८११०३ ६२० १२२६ ६२० १२२७ ६१८ १२२३ ३६८ ४८० ५३६ ९६७ ७३०१६१३ ६७२ १३९८ ३०७ ३८८ ३०९ ३९५ ७०८ १५४३ १५० ११८ ५६८११०२ ७३९१६५१ ६३२ १२६१ ३६४ ४७३ ६९७१४९८ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१५ उम्मग्गदेसणो मग्ग उम्मत्तो होइ णरो उयसय पडिदावण्णं उल्लाव समुवल्लावहिं उल्लीणोल्लीहिं उवएसो पुण आयरि उवगहिदं उवकरण उवगृहण ठिदिकरणं उवगृहणादिया पुव्वुत्ता उवसग्गेण वि साहरिदो उवसमइ किण्ह सप्पा उवसम दयादमाउह उवसतवयणमगिहत्थ उव्वादो तदिवसं उस्सग्गियलिंगकदस्स उस्सरइ जस्स चिरमवि उंदुरकर्दपि सई गाथानुक्रमयिका पृ० गा. २२४ १८६ एदाओ पंच वि वज्जिय ५८२ ११५१ एदारिसम्मि थेरे ८६३ १९७२ एदासु फलं कमसो ५६३ १०८२ एदाहि भावणाहिं य २५६ २४८ एदाहि भावणाहि हु ८८२ २०५४ एदाहि सदा जुत्तो ८६७ १९८७ एदे अत्थे सम्म ८१ ४४ एदे गुणा महल्ला १४६ ११३ एदेण चेव भणिदो ८८५ २०६४ एदेण चेव पदिट्ठा ४७५ ७६१ एदे दोसा गणिणो ८१८ १८३० एदे सव्वे दोसा १६८ १२६ एदे सव्वे दोसा ३१८ ४१८ एदे सव्वे दोसा ११३ ७६ एदेसि दोसाणं १११ ७४ ___ एदेसि दोसाणं ५११ ८६३ एदेसि लेस्साणं एदेसु दससु णिच्चं एवं इंगिणि मरणं ७९५ १७८३ एयग्गेण मणं ५४० ९८५ एयत्त भावणाए ५४१ ९९१ एयसमएण विधुणदि ४७९ ७७४ एयस्स अप्पणो को १०२ ६१ एयाए भावणाए ३११ ४०४ एयाणेयमवगदं ३९४ ५४२ एया वि सा समत्था ६३५ १२६७ एवमणुद्धददोसो ७८८ १७६७ एवं जधाक्खादविधि ४४९ ६८१ एवमधवखादविधि ८६० १९६२ एवमवलायमाणो २३८ २१४ एवमवि दुल्लहपरं ४४६ ६७३ एवं अट्ठवि जामे ३८५ ५२१ एवं अधियासेतो २८२ ३१४ एवं आउच्छित्ता F०७ ११९९ एवं आउच्छित्ता पृ० गा० २२५ १८८ ४३० ६२८ ८६२ १९६७ २१५ १८७ ६१२१२०७ ६०५ ११९४ ५५८ १०६३ २९० ३३१ ९.४२१४९ ६०५ ११९३ ३१० ३९८ ३१० ३९९ ५१३ ८६९ ५२७ ९३० ५०७ ८४६ ५८५ ११६१ ८४५ १९०४ ३३५ ४२४ ८८३ २०५६ ७५७ १७०३ २३३ २०२ ४५८ ७१७ ७०२ १५१९ २३५ २०६ ७६१ १७०८ ४६८ ७४५ ३९३ ५३९ ८४८ १९२० ८८३ २०५५ २५० २३७ ३३८ ४३४ ८८१ २०४७ ७४६ १६७८ ३०६ ३८६ ६९७ १५०१ एइंदियेसु पंच वि एए अण्णे य बहु एक पदिव्वइ कण्णा एकम्मि वि जम्मि पदे एक्कं पि अक्खरं जो एक्कं व दो व तिण्णि य एगमवि भावसल्लं एकम्मि चेव देहे एगविगतिगचउ एगम्मि भवग्गहणे एगतां सालोगा एगुत्तरसेढीए एगो जइ णिज्जवओ एगो संथारगदो एदम्मि णवरि मुणिणो एदाउ अट्ठ पवगण ११५ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१६ भगवती आराधना पु० गा० ८८६ २०७१ ६९६ १४९५ ८२६ १८४९ २३५ २०७ एवं आराधित्ता एवं आसुक्कारमरणे एवं इहइपयहिय एवं उग्गम उप्पाद एवं उवसग्गविधि एवं एदं सव्वं एवं एदे अत्थे एवं एसा आराधणा एव कदकरणिज्जो एवं कदपरियम्मो एवं कदे णिमग्गे एव कसायजुद्धम्मि एवं कालगदस्स दु एवं केई गिहिवा एवखवओ कवचेण एवं खवओ संथारगओ एवखु वोसरिता एव च णिक्कमित्ता एव चदुरो चदुरो एवं चेट्टतस्सवि एवजं जं पस्सदि एव जाणतेण वि एव जो महिलाए एवणादूण तव एवणिप्पडियम्म एवणिरुद्धदरयं एवं तुझं उवएसेण एव तु भावसल्लं एव दंसणमाराहतो एवं पडिकमणाए एवं पडिट्ठवित्ता एव परजणदुक्खे एवं परिमग्गित्ता एवौंपवयणसारसुएव' पंडिदपंडिद पृ० गा० ९०६ २१५४ एब पंडियमरणं ८७५ २०१९ एवपि कीरमाणो ८९९ २१२६ एवं पिणद्धसंवर २५६ २४७ एव भाव माणो ८८० २०४४ एवौं महाणुभावा ७२६ १५९७ एवमूढमदीया ५५८१०६२ एवं वासारत्ते ९०६ २१५७ एवं विचारयित्ता ५९० ११७५ एव विसग्गिभूदं २६५ २७२ एवं सदि परिणामो ३८२ ५१४ एवं सम्मं सद्दरस ८४० १८८६ एव सरीरसल्ले ८६० १९६० एवं सव्वत्थेसु वि ६४९ १३१९ एवं सव्वे देहम्मि ७४६ १६७७ एवं संथारगदस्स ६९३ १४८४ एवं संथारगदो ३९८ ५५३ एवं सारिज्जंतो ८७७ २०२९ एव सुभाविदप्पा ४४६ ६७१ एव सुभाविदप्पा ५७९ ११३५ एस अखंडियसीलो ५०८ ८४९ एस उवाओ कम्मा ३९० ५३१ एसणणिक्खेवादा ५६७ ११०० एसा गणधरथेरा ६९० १४६९ एसा भत्तपइण्णा ८८४ २०६३ एसो सव्वसमासो ८७४ २०१५ ६९३ १४८० ३६२ ४६८ ओगाढ़गाढ़णिचिदो ओग्घेण ण बूढ़ाओ ४५९ ७१८ ओघेणालोचेदि हु ८६८ १९९० ओमोदरिए घोराए ५२६ ९२४ ओल्लं संतं वत्थं ३८० ५१० ओसण्ण सेवणाओ ४३० ६२७ ९०५ २१५३ कक्कसवयणं णिछुर ८५८ १९५१ ४३१ ६३० २०६ १५८ ५१५ ८७५ २१० १६३ ६७५ १४१४ २६० २५८ ७४९१.९० ५५०१०३१ ६९४१४८८ ८५२ १९४० ६९८ १५०३ ८४८ १९१८ ७४८१६८६ ३०४ ३७७. ६८४ १४४४ ६०७१२०० २७२ २९२ ८७६ २०२३ ३०४ ३७६ ओ ८१० १८१८ ५४१ ९९३ ३९२ ५३६० ७०७ १५३९. ८९५ २१०७ ६४१ १२८८ ५०२ ८२४ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१७ कच्छुजर-खास-सोसो कच्छुकंडुयमाणो कज्जाभावण पुणो कडुगम्मि अणिव्वलिदम्मि कण्णेसु कण्णगूधो कण्णोठ्ठसीसणासा कदजोगदाददमणं कदपावो वि मणुस्सो कप्पाकप्पे कुसला कप्पोवगा सुरा जं कम वि परिणमिज्जड कम्माई बलियाई कम्माणुभावदुहिदो करणेहिं होदि विगलो कलभो गएण पंका कललगदं दसरत्तं कलह परिदावणादी कलहो बोलो झंझा कलुसी कदंपि उदगं कल्लाणपरंपरयं कल्लाणपावगाण कल्लाणिढिसुहाइ कल्ले परे व परदो कसिणा परीसहचमू कह ठाइ सुवकपत्त कहमवि तमंधयारे कंटकसल्लेण जहा कंठगदेहि वि पाणेहिं कंदप्पकुक्कुआइय कंदप्पदेवखिब्भिस कंदप्प भावणाए काइयमादी सव्व काइयवाइय माणसिओ काइय वाइय माणसिय काइ दि अभयघोसो गाथानुक्रमणिका पृ० गाथा ७०६ १५३७ काऊण य किरियम्म ६२८ १२४६ काऊणाउ समाई ९०० २१३२ काएसु णिरारंभे ४६४ ७३२ कामकदा इत्थीकदा ५५१ १०३४ कामग्गिणा धगधगतेण ७२४ १५९० कामग्घत्थो पुरिसो २५३ २४२ कामदुहा वरघेणू ४२५ ६१५ __ कामपिसायग्गहिदो ४३८ ६४७ __ कामभुजगेण दट्ठा ८५० १९२९ कामादुरस्स गच्छदि ८२५ १८४६ कामादुरो णरो पुण कामी सुसंजदाण वि ७९७१७८८ कामुम्मत्तो महिलं ७९५ १७८१ कामुम्मत्तो संतो ६४८ १३१५ कायकिरियाणियत्ती ५४३ १००१ कायव्वमिणमकायव्व ३०८ ३९२ कारी होइ अकारी २४९ २३४ कालमणंतमधम्मो ५६० १०६७ कालमणंतं णीचा ४६७ ७४० कालं संभावित्ता ७६० १७०७ कालेण उवाएण य ६८८१४५९ काले विणए उवधाणे ३९४ ५४३ किच्चा परस्स मिदं २३५ ३०४ ७३० १६१५ किण्ण अधालंद विधी ५२५ ९२० किण्हा णीला काओ ३६२ ४६७ कित्ती मेत्ती माणस्स १९५ १५३ किमिणो व वणो भरिदं २२२ १८२ किमिरागकंबलस्स व २२१ १८१ किह दा जीवो अण्णो ८५९ १९५३ किह दा राओ रंजेदि ४४४ ६६४ किह दा सत्ता कम्म१६४ १२० किह पुण अण्णो काहिदि ३९१ ५३३ किह पुण अण्णो मुच्चहि ७०८ १५४५ किह पुण णवदसमासे पृ० गाथा ४०२ ५६३ ८९६ २११० ४९७ ८१३ ५१५ ८७६ ५२८ ९३१ ५२० ८९८ ६८८ १४६० ५१९ ८९४ ५१७ ८८५ ५१६ ८८० ५१७ ८८३ ५१९ ८९६ ५२४ ९१७ ५१६ ८८२ ५९७ ११८२ २७ ९ ८०५१८०३ ९०१२१३३ ६१९१२२४ २६६ २७५ ८२४ १८४२ १४३ ११२ ३०३ ३७३ १९७ १५७ ८४४ १९०२ १७२ १३३ ९५० २०३० ४०६ ५६९ ७७९ १७४९ ८१११८२१ ७६७ १७२३ ७२९ १६११ ७३० १६१४ ५४६ १०१३ Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ किह पुण णवदसमासे किंचि व दिठिमुपावत्त कि जंपिएण बहुणा किं जंपिएण बहुणा किं णाम तेंहि लोगे किं पुण अणयार सहा कि पुण अवसेसाणं किं पुण कंठपाणो किं पुण कुलगण संघस्स किं पुण गुणसहिदाओ किं पुण छुहा व तण्हा किं पुण जदिणा संसाकिं पुण जीवणिकाये किं पुण जे ओसण्णा किं पुण तरुणो अबहुस्सु किं पुण तरुणो अबहुस्सु कि मज्झ णिरुच्छाहा कि मे जपंदि कि मे कुट्टाकुट्टि चुण्णाचुणि कुणदि य माणो णीचा कुण वा णिद्दामोक्खं कुणह अपमादमावासएसु कुणिमकुडिभवा लहुगत्त कुणिमकुडी कुणिमेहिं य कुणिमरस कुणिमगंधं कुद्धो वि अप्पसत्थं कुलगामणयररज्ज कुलजस्स जसमिच्छतं कुलरूवतेयभोगा कुलरूवाणाबलसुद कुविदो व किण्हसप्पो कुव्वंतस्स वि जत्तं कुसमुठिं घेत्तू ण य कुसुममगंधमवि जहा कुंभीपाएसु तुमं भगवती आराधना पृ० गाथा ५४५ १००८ कूड हिरण्णं जह णिच्छएण ७५६ १७०१ केई गहिदा इंदिय चोरेहि ६९३ १४८१ केई अग्गीमदिगदा ८५१ १९३५ केई विमुत्तसंगा ८६९ १९९७ केदूण विसं पुरिसो ७१० १५५४ केवलकप्पं लोगं २७८ ३०५ केसा संसज्जति हु ७४० १६५३ कोई डहिज्ज जह चंदनं ७०५ १५२९ कोई तमादयित्ता ५४० ९८९ कोई रहस्सभेदे ६९३ १४८२ को इत्थ मज्झ माणो ७०४ १५२६ को एत्थ विभओ दे ७२८ १६०७ कोढ़ी संतो लद्ध ण ८५३ १९४३ को णाम अप्पसुखस्स ५६६ १०९३ को णाम णिरुव्वेगो २९१ ३३४ को णाम णिरुव्वेगो ८५८ १९५२ को णाम भडो कूलजो ५६७१०९८ को तस्स दिज्जइ तवो ७१५ १५६६ कोध भय लोभ हस्स ६२१ १२३० कोधं खमाए माणं ६८४ १४४३ कोधो माणो माया २७४ २९८ कोधा सत्तुगुणकरा ८०७१८०९ कोसंवी ललिय घडा ५४८ १०२० कोसलय धम्मसीहो ५५८ १०६१ कोसि तुमं किं णामो ६१५ १२१२ कोहस्स य माणस्स य २७३ २९५ कोहो माणो लोभो ६५२१३३७ ७९९ १७९६ खणणुत्तावणवालण ६६४ १३६९ खणमेत्तेण अणादिय ५३५ ९६० खमदमणियमधराणं ४८५ ७८६ खवओ गिलामिदंगो ८६४१९०६ खवग पडिजग्गणाए २९७ ३५३ खवगस्स घरदुवारं ७१६ १५६८ खवयस्स अप्पणो वा पृ० गाथा ४१५ ६०२ ६४१ १२९० ७०३ १५२३ ७०५ १५३२ ४०४ ५६७ ८४८ १९२० १२२ ८७ ८१२ १८२४ ४५२ ६९४ ३७४ ४९३ ६७८१४२२ ७४० १६५४ ६१६ १२१७ ७४१ १६५९ ६८३ १४४० ६८३ १४४१ ७०११५१३ ४११ ५८७ ६१० १२०१ २६२ २६२ ५७५ ११२१ ६६२ १३५९ ७०७ १५४० ८८६ २०६७ ६९७ १५०० २६२ २६३ ६६७ १३८१ २३१ २०० ८७५ २०२१ ९०८ २१६४ ३६० ४६० ४४६ ६७४ ४४४ ६६५ ४४७ ६७५ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवयस्स कव्वा खवयस्स चित्तसारं खवयस्स जइ ण दोसे खवयस्स तीरपत्तस्स खवयरिसच्छा संपा खवयस्सुवसंपण्णस्स खवयं पञ्चवखावेदि खंण आसणत्थं खाइयदंसण चरणं खामेदि तुम्ह खवओ खीर- दधि-सप्पि-तेल्ल खुड्डा खुड्डियाओ खड्डे वेरे से खेल पडिदमप्पाणं खेलो पित्तो सिंभो खोभेदि पत्थरो जह गच्छहि केइ पुरिसा गच्छाणुपालणत्थं गच्छज्ज समुद्दस्स वि गच्छेज्ज एगरादिय गण रक्खत्यं तम्हा गणि वसामय पा गणणा सह संलाओ गत्तापच्चागदं उज्जु गदरागदोसमोहो गलए लाएदि पुरिसस्स तूण गंदणवणं गंथच्चाएण पुणो गंथच्चाओ इंदिय गंथच्चाओ लाघव गंथनिमित्तमदीदिय गंथणिमित्तं घोरं थपडियाए लुद्धो गंथस्स गहण रक्खण ग triक्रमणिका पृ० गा० ४४० ६५३ ८७३ २०११ ३६९ ४८६ ३६० ४६१ ३४० ४४४ ३८३ ५१८ ४५६ ७०६ ६२५ १२४१ ८४७ १९१३ ४५५ ७०४ २३९ २१७ ३०९ ३९६ ३०८ ३९० २९३ ३३८ ५५११०३५ ५५९१०६६ गंथाडवी च रंतं अणियत्तता गंथेसु घडिदहिदओ गंथो भयं णराणं गंधव्व नट्टजट्टस्स गाढप्पहारविद्धां गाढप्पहार संताविदा गायदि णच्चदि धावदि गावइ णच्चइ धावइ गिरिकंदरं च अडवि गिरिणदियादिपदेसा गिहिदत्थो संविग्गो गीदत्थ पादमूले गीदत्था कदकरणा गीदत्थो चरणत्थो गीदत्यो पुण खवयस्स गुणकारिओत्ति भुंजइ ८५३ १९४४ गुणपरिणामादीहिं गुणपरिणामादी गुणपरिणाम सड्ढा गुणभरिदं जदि णावं २६६ २७६ गुत्ति परिखाइहि गुत्तं गोट्ठे पाओवगदो गोबंभणित्थिवधमेत्त ५३७ ९६८ ३१२ ४०५ ८६६ १९८४ ६९१ १४७५ २१९ १७६ २४० २२० ९०१२१३७ ५३८ ९७३ ८१३ १८२६ ५८८ ११६८ ५८५११६२ ११७ ८२ ५७८ ११३२ ५७८ ११३४ ५८७ ११४३ ५८४११५८ घणकुड्डे सकवाडे घोडगलिंडसमाणस्स घोसादकीय जह किमि च चक्कधरो वि सुभूमो चक्केहिं करकचेहिं य चक्खुस्स दंसणस्स य चक्खुं व दुव्वलं जस्स चत्तारि जणा पाणय चत्तारि जणा भत्तं घ ९१९ गा० पृ० ६७१ १३९६ ८५८ १९४८ ५८४११५९ ५७६ ११२२ ४३१. ६३२ ७०९ १५४८ ७०३१५२१ ५२३ ९११ ५७७ ११२८ ७७११७३१ ८७० २००१ ७१ ३४ ३५४ ४४९ ८६२१९७० ३११ ४०१ ३३९ ४४३ ४०७ ५७५ २८९ ३२७ २९० ३३० २८१ ३११ ६९५ १४९० ८२११८३४ ७१० १५५१ ४८६७९१ ४३३ ६३७ ६५६ १३४१ ६२८ १२४७ ७३८ १६४५ ७१७१५७० ३४ १२ १११ ७२ ६६२ ६६१ ४४३ ४४३ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२० पृ० गा० ५८२ ११५४ ७२२ १५७८ चत्तारि जणा रक्खंति चत्तारि महावियडीओ चत्तारि सिराजालाणि चदुरंगाए सेणाए चदुहिं समएहिं . चमरीबालं खग्गिवि चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो चरमसमम्मि तो सो चरिएहि कत्थमाणो चरिया छुहाव तण्हा चंकमणे य ठाणे चंदो हविज्ज उण्हो चंदो हीणो य पुणो चंपाए मासखमणं चायम्मि कीरमाणे चारणकोट्टगकल्लाल चालणिगयं व उदयं चिट्ठति जहा ण चिरं चित्तपडं व विचित्तं चित्तं समाहिदं जस्स चेयंतो वि य कम्मोदएण चेलादि सव्वसंगच्चाओ चेलादीया संगा चोदसदसणवपुची चोरस्स णत्थि हियए चोरो वि तह सुवेगो भगवती आराधना पृ० गा० ४४३ ६६२ छेदणवंधणवेडण २३८ २१५ छेदणभेदणडहणं ५४८ १०२३ ४७३ ७५६ जइ कहवि कसायग्गी ८९६ २१०९ जइदा उच्चतादी णिदाणं ५५३ १०४५ जइदा खंडसिलोगेण जइ दे कदा पमाणं ८९८ २११९ जइ भाविज्जइ गंधेण ३०२ ३७० - जच्चंधबहिरमूओ १९१ १४९ जणण मरणादि रोगा ४०९ ५८२ जणणी वसंततिलया ५४० ९८४ जणपायडो वि दोसो ७६५ १७१७ जणवदसम्मदि ठवणा ७०७ १५४१ जत्तो दिसाए गामो ४४७ ६७६ जत्तासाधणचिह्नकरण ४३२ ६३३ जत्तो पाणबधादी १७४ १३५ जत्थ ण जादो ण मदो ५३५ ९५८ जत्थ ण विसोत्तिग अत्थि दु ८९३ २०९५ जत्थ ण होज्ज तणाई १७३ १३४ जत्थेव चरइ बालो जदणाए जोग्गपरिभाविदस्स ६९८ १५०५ ५७२ १११६ जदि अधिबाधिज्ज तुम ५८२ ११५२ जदि कोइ मेरुमत्तं ३३६ ४३० जदि तस्स उत्तमंगं जदि तारिसिया तण्हा ६६० १३१२ जदि तारिसाओ तुम्हे जदि तेसिं बाधादो जदि दा अभूतपुत्वं १४१ १०८ जदि दा एवं एदे २५९ १५३ जदि दा जणेइ मेहुण ८१३, १८२५ जदि दा तह अण्णाणी ३८८ ५२७ जदि दा रोगा एक्कम्मि ९०७ २१६१ जदि दाव विहिंसज्जइ ५५४ १०४६ जदि दा विहिंसदि णरो ५९८ ११८३ जदि दा सवदि असंतेण २६२ २६५ ६२३ १२३३ ४७८ ७७१ ७३४ १६३० २९४ ३४४ ७९५ १७८२ ६८७ १४५६ ७९८ १७९४ ६७९१४२८ ६७० ११८७ ८६५ १९८० ११६ ८१ ५०२ ८२५ ७९० १७७० २४४ २३० ८६४ १९७८ ६०६ ११९७ २२९ १९७ ६८१ १४३५ ७१११५५८ ८६८ १९९३ ७२७ १६०२ ७२६ १५९९ ८६१ १९६६ ७३३ १६२५ ७१० १५५३ ५२६ ९२२ ७०४ १५२५ ५५४ १०४८ ५४६ १०१५ ५५३ १०४३ ६७५ १४१५ छठ्ठट्ठमदसमदुवा छठ्ठठ्ठमदसमदुवा छड्डिय रयणाणि जहा छत्तीसगुणसमण्णा छदुमत्थदाए एत्थ दु छगलं मुत्तं दुद्धं छेत्तस्स वदी णयरस्स Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जदिदा सुभाविदप्पा जदि दिवसे संचिट्ठदि जदि धरिसण मेरिसयं जदि पवयणस्स सारो जदि मूलगुणे उत्तर जदि वा एसण कीरेज्ज जदि वा सवेज्ज संतेण जदि वि कहंचि वि गंथा जदि विक्खादा भत्तप जदि वि य से चरिमंते जदि वि विकिचदि जंतू जदि विसमो संथारो जदि विसयगंधहत्थी जदि विसयं थिरबुद्धी जदि सो तत्थ मरिज्जो जदि होज्ज मच्छियापत्त हि अग जध उग्गविसा उरगो जध करिसयस्स धण्णं ज कोडिसमिद्धो वि ज तंडुलस को ध भिक्खं हिडंतो जध सण्णद्घो पग्गहिद जमणिच्छंती महिलं जम्मण अभिणिक्खवणे जम्मणमरणजलोघं जम्मसमुद्दे बहुदोसवीचिए जम्हा असच्चवयणादिएहि जम्हा चरित्तसारो जम्हा णिग्गंथो सो जम्हा सुदं वित्तक्कं जम्हा सुदं वितक्कं जहिय वारिदमेत्ते जलचंदणससिमुत्ता गाथानुक्रमणिका पृ० गा० ८५३ १९४२ ८६८ १९९१ ३७५ ४९६ ૪૦ १८ ४११५८६ ८६३ १९७१ ६७६ १४१६ ५७९ ११३६ ८६३ १९७३ ७४८ १६८५ ५८३ ११५५ ८६५ १९७९ ६७३ १४०६ २९२ ३३५ ५७८ ११३१ ५५० १०३३ ५७९ ११३७ ६६३ १३६२ ६६३ १३६१ ६६६ १३७६ ८४६ १९११ ६५३ १३२९ ६५३ १३२८ ५२६ ९२५ १८२ १४५ ९०५२१५२ ८०९१८१५ ४८६ ७९० ३५ १४ ५८७ ११६६ ८३५ १८७५ ८३७ १८७८ १७७ १४० ५०३ ८२९ जलिदो ह कसायग्गी जल्लविलित्तो देहो जस्स पुण उत्तमट्ठम जस्स पुण मिच्छदिट्ठिस्स जस्स य कदेण जीवा जस्स वि अन्वभिचारी जह अप्पणो गणस्स य जह आइच्चमुदितं जह इंधणेहि अग्गी जह इंधणेहि अग्गी जह इधणेहि अग्गी जह कवचेण अभिज्जेण जह कंटएण विद्धो जह कंसिय भिंगारो जह कुंडओ ण सक्को जह कोइ तत्तलोहं जह कोई लोहिदकयं जह कोडिल्लो अग्गि जह गहिदवेयणो विय जह जह गुणपरिणामो जह जह णिव्वेदसमं जह जह भुंजइ भोगे जह जह मण्णेt णरो जह जह वयपरिणामो जह जह सुदमोग्गाहदि जहण करेदि तिगिछं जह णाम दव्वसल्ले जहीरपि कडु पियं दुक्खं जहदि व णिययं दोसं जह धरिसिदो इमो तह जह पक्खुभिदुम्मीए जह पत्थरो पडतो जह परमण्णस्स विसं ९२१ पृ० गा० २६४ २६८ १२८ ९४ ४४९ ६८३ १०२ ६० १७७ १३९ ११३ ७७ ६९२ १४७८ ७७२ १७३५ ६३१ १२५८ ७३९१६४९ ६४५ १९०७ ७४५ १६७६ ३९३ ५३८ ४०९ ५८१ ५७११११४ ६६१ १३५६ ४१६ ६०६ ६२८ १२४५ ६९० १४७० २८४ ३१७ ८१८१८५८ ६३१ १२५६ ५३३ ९५२ ५५९१०६५ १३७ १०४ ३५८ ४५५ ३६२ ४६६ ६७४ १४०९ ४८० ७७६ २९६ ३५२ ३७४ ४९४ ३७८ ५०५ ८४६ १९०८ ५०५ ८३९ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२२ भगवती आराधना जह पव्वदेसु मेरु जह बालो जंप्पतो जह बाहिरलेस्साओ जह भेषजं पि दोसं जह मक्कडओ खणमवि जह मक्कडओ घादो जह मारुओ पवड्ढइ जह रायकुलपसूओ जह वा अग्गिस्स सिहा जह वाणियग्ग सागर जह वाणिया य पणियं जह बालुयाए अवडो जह सीलरक्खयाणं जह सुकुसुलो वि वेज्जो जह सुत्तबद्ध सउणो र्ज अण्णाणी कम्म जं असभूदुब्भावण जं अत्ताणो णिप्पडियम्मो जं अबद्धदो उप्पाडिदाणि जं एवं तेल्लोकं जं किंचि खादि जं कि जं कूडसामलीए दुक्खं जं खाविओ सि अवसो जं गब्भवासकुणिम जं चडवडित्तकरचरणंगो जंच दिसावेरमणं जं छोडिओ सि जं मोडिओसि जं जस्स दु संठाणं जं जीवणिकायवहेण जं णत्थि सव्वबाधा जं णिज्जरेदि कम्म जंणीलमडवतत्तलोह जं दुक्खं संपत्तो जं दीहकालसंवासदाए पृ० गा. ४८५ ७८४ __ जंपणपरिभवणियडिप३९६ ५४९ जं पाणयपरिम्मम्मि ८४४ १९०१ जं वद्धमसंखेज्जाहि १०० ५७ जं भज्जिदोसि भज्जिदगंपि ४७६ ७६३ जंवा गरहिदवयणं ५०८ ८४८ जं वा दिसमुवणीदं ५०८ ८५० ज बेलं कालगदो ४१ २० जं सब्वे देवगणा ८९९ २१२४ जं होदि अण्णदिटठं ७४३ १६६८ जा अवरदक्खिणाए ६२४ १२३८ जा उवरि उवरि गुणपडिवत्ती ४०८ ५७८ जागरणत्थं इच्चेवमादिकं ५४० ९८८ जाणदि फासुयदव्वं ३८९ ५३० जाणह य मज्झ थाम ६३६ १२७२ जाणं तस्मादहिदं १४१ १०७ जाणइय मज्झ एसो ५०० ८२० जादिकुलं संवासं ७२२ १५७९ जादो ख चारदत्तो ७१६ १५६७ जाधे पुण उवसग्गे ४८४ ७८२ जा रायादिणियत्ती . ५४७ १०१८ जालस्स जहा अंते ७१२ १५६२ जावइयाई तणाइ. ७१४ १५६५ जावइयाइ दुक्खाइ ७२६ १५९६ नावइया किर दोसा ७१८ १५७५ जावज्जीवं सव्वाहारं ८८७ २०७५ जाव ण वाया खियदि ७१७ १५७२ जावदियाइं कल्लाणाई २१२९ जावदियाई सुहाई। ४९६ ८१० जावदिया रिद्धीओ ९०२ २१४० जाव य खेमसुभिक्खं २४९ २३६ जाव य सदी ण णस्सदि ७१४ १५६४ जावय बलविरियं से ७२५ १५९२ जावंति किंचि दुक्खं २६७ २७९ जावंति केइ भोगा पृ० गा० ५२४ ९१५ ४५६ ७०८ ४५८ ७१६ ९१७१५६९ ५०१८२३ ८६८ १९९२ ८६२ १९६८ ९०३ २१४४ ४०८ ५७६ ८६१ १९६४ २१७ १७३ ६८३ १४३८ ३४० ४४६ ४०७ ५७२ १३५ १०२ ४१६ ६०४ ५१९ ८९३ ५६२ १०७६ ८७९ २०३७ ५९५ १९८१ ६३५ १२६९ ५३४ ९५६ ४८८ ७९९ ५१५ ८७७ ४५५ ७०३ ८७३ २०१३ ८२७ १८५३ ७९४ १७७९ ८५१ १९३३ २०८ १६१ २०७ १६० ८७२ २००८ ७४२ १६६२ ६३० १२५५ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२३ पृ० गा० जावंति केइ संगा जावंतु किंचि लोए जावंति केइ संगा जावंतु केइ संगा जा सव्वसुंदरंगी जाहे सरीरचेट्ठा जिणपडिरूवं विरियारो जिणवयणममिदभूदं जिण-सिद्ध-साहु-धम्मा जिदणिद्दा तल्लिच्छा जिदरागो जिददोसो जिन्भाए वि लिहतो जिब्भामूलं वोलेइ जीवगदमजीवगदं जीववहो अप्पवहो जीवस्स कुजोणिगदस्स जीवस्स पत्थि तित्ती जीवस्स पत्थि तित्ती जीवाण णत्थि कोई जीव सु मित्त चिंता जीवो अणादिकालं जीवो कसायबहुलो संतो जीवो बंभा जीवम्मि जीवो मोक्खपुरक्कड जुण्णं पोच्चल मइलं जुण्णो व दरिदो वा जुत्तस्स तवधुराए जुत्तो पमाणरइओ जूगाहिं य लिक्खाहिं जे आसि सुभा एण्हि जे गारवे हि रहिदा जेट्ठामूले जोण्हे जेणेगमेव दव्वं जे पुण सम्मत्ताओ गाथानुक्रमणिका पृ० गा० ५९० ११७४ जे वि अहिंसादिगुणा ९०२ २१३९ जे वि हु जहणियं तेउ२६३ २६६ जेसिं आउसमाई २२१ १८० जेसि हवंति विसमाणि जे सेसा सुक्काए ५५५ १०५० 1१४८ १६८७ जो अप्प सुक्खहेर्दू ११९ ८४ जो अभिलासो वसएसु जो अवमाणणकरणं दोसं ७१० १५५५ जो उवविधेदि सव्वा २८७ ३२४ जो ओलग्गदि आरा जो हु सदिविप्पहूणो ७५० १६९३ जो गच्छिज्ज विसाद ३६८ ४८३ जोगाभाविदकरणो ७४० १६५६ जोगेहिं विचित्तेहिं दु ४९२ ८०४ जोग्गमकारिज्जंतो ४८७ ७९३ जोग्गं कारिज्जंतो ६३६ १२७१ जो जस्स वट्टदि हिदे ६३१ १२५७ जो जाए परिणमित्ता ७३८ १६४८ जो जारिसओ कालो ७७१ १७३० जो जारिसीय मेत्ती ७४९१६९१ जो णिक्खवणपवेसे ४६२ ७२७ जो पुण इच्छदि रमिदं जो पुण एवं ण करिज्ज जो पुण धम्मो जीवेण ८२७ १८५१ जो पुण मिच्छादिट्ठी ५६५ १०९० जो भत्तपदिण्णाए ५३२ ९५० जो भत्तपदिण्णाए ४४२ ६६० जो भावणमोक्कारेण जो महिलासंसग्गी विसंव १२३ ८८ जो मिच्छत्तं गंतूण ६७४ १४१० जो विय विणिप्पडतं ३९६ ५४६ जो वि य विराधियदंसण ५१८ ८९० जो सघरं पि पलित्तं ८३७ १८७७ जो सम्मत्तं खवया ९७ ५३ जो होदि जधाछंदो ८५१ १९३४ ८९५ २१०४ ८९५ २१०५ ८४७ १९१४ ६१५ १२१५ ८१२ १८२३ ६७८ १४२४ ८७० १९९९ ८७१ २००३ .८२२ १८३७ ७०५ १५३० ४५ २२ २५९ २५५ २२७ १९२ २२८ १९४ ७८४ १७५८ ८४७ १९१६ ४४५ ६७० २९५ ३४५ ३५९ ४५७ ६३३ १२६२ ६९८ १५०२ ७७६ १७४७ ९७ ५४ ८७६ २०२४ ८८८ २०७९ ४७३ ७५५ ५६६ १०९६ ८६० १९५९ १७९ १४२ ८६५ १९८१ २७० २८६ ८५९ १९५७ ६४५ १३०५ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२४ झाणं करेइ खवयस्सो झाणं कसाया झाणं कसायपरचक्क झाणं कसायरोगेसु झाणं कसायवादे झाणं किलेससावद झाणं पुधत्तसवितवक झाणं विसयछुहाए झाणागदेहि इंदिय झाणेण य तह अप्पा झाणेण य तेण अधक्खा झायंतो अणगारो ज्झदि अंतो पुरिसो डज्झदि पंचमवेगे seऊण जहा अग्गी सहि बहु झ ठाणगदिपेच्छिदुल्ला ठाणा चलेज्ज मेरू ठिच्चा णिसिदित्ता वा ठिंदि-गदि-विलास - विम्भम ठिदिबंधस्स सिणेहो ठिदि संतकम्म समकर नगरस्स जह दुवारं गुणे पेच्छदि णच्चा दुरंतमद्धय च्चा संवट्टिज्जं चट्ट 이 ण ण करेज्ज सारणं वारणं ण करेदि भावणाभा विदो ण करेंति णिव्वुई ड भगवती आराधना पृ० गाथा ८४११८८८ चलवलियगिहिभास ण हृदि अग्गी सच्चेण ८४२१८९३ ण तहा दोसं पावइ त्ताभाए रिक्खे अणूदो अप् णत्थि भयं मरणसमं णाणादेसे कुसलो ण परीसहेहि संताविदो वि नियंतिसुरांणय ण य जायंति असंता णय तम्मि देसयाले णय परिहायदि कोई णय होदि संजदो लहदि जह लेहंतो वमम्मिय जं पुव्वे णवमेण किंचि जाणदि वरि हु धम्मो मेज्झो णवर तणसंथारो ण वि कारणं तणादी सदि सगं पि बहुगं ण हि तं कुणिज्ज सत्तू हु कम्मस्स अवेदिदफलस्स सो. कडुगं फरसं णाऊण विकारं गाणपदीओ पज्जलइ णाणम्मि दंसणम्मि य णाणम्मि दंसणम्मि य णाणम्मि दंसणम्मि य णाणस्स केवलीणं णाणस्स दंसणस्स य सारो गाणं करणविहू गाणं करेदि पुरुसस्स ८४२१८९४ ८४२१८९५ ८४२१८९२ ८४२१८९१ ८३४ १८७२ ८४२ १८९६ ६७० १३९३ ८९८ २१२३ ८९२२०९४ ८५२ १९४१ ५६४ १०८५ ६९३ १४८३ ८७९२०३५ ५६३ १०८३ ८९५२१०८ ८९५ २१०६ ५८२ ११५० ५१८ ८८८ ८२५१८४५ ६७९१४२९ ३३६ ४२८ ६१२ १२०६ ७२९१६१० ४६५ ७३५ ६६२ १३६० ६३७ १२७६ ८७४२०१४ ८७४२०१७ गाणं दोसे णासिदि गाणं पयासओ सो गाणं पि कुणदि दोसे पृ० गा० ४१७ ६०९ ५०४ ८३२ ७३५ १६३६ ८६५ १९८२ ४८५ ७८३ ७४२ १६६४ १९२१५० ७५४ १६९५ ७०४१५२८ ३०१ ३६४ ४७९ ७७३ ६६५ १३७४ ५७४१११८ '६२९ १२४९ ४१४ ५९७ ५१८८८९ ८०८१८१४ ८८३ २०५८ ७४३ १६६७ ६५५ १३३७ ६६९ १३८९ ८२४ १८४४ ६९९ १५०६ ६९५ १४९३ ४७७ ७.६ २७१ २८८ २७१ २८९ ८५० १९३० २२२ १८३ ३१ ११ ४७८ ७६९ ६५४ १३३३ ६५४ १३३१ ४७८ ७६८ ६५४ १३३२ Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२५ णाणं पि गुणे णासेदि णाणादेसे कुसलो णाणुज्जोएण विणा णाणस्य केवलोणं णाणुज्जोओ जोओ णाणे दंसणतववीरिये णाणण सव्वभावा णाणोवओगरहिदेण णामक्खयेण तेजो णावाए णिव्वुडाए णावागदाव बहुगइ णासदि बुद्धी जिब्भावसस्स णासदि मदी उदिण्णे णासेज्ज अगीदत्थो णासेदूण कसायं णासो अत्थस्स खओ णिउणं विउलं सुद्धं णिक्खवणपवेसादिसु णिक्खेवो णिव्वत्ती णिग्गहिदिदियदारा णिग्गंथं पन्वयणं णिच्चं दिया य रत्ति णिच्चं पि अमज्झत्थे णिज्जवया आयरिया णिज्जावया य दोण्णिवि णिज्जूढं पि य पासिय णिदं जिणाहि णिच्वं णिद्दजओ य दढझाणदा णिद्दा तमस्स सरिसो णिद्दा पचला य दुवे णिद्धं मधुरं गभीरं णिद्धं मधुरं पल्हादणिज्ज णिद्ध महुरगभीरं णिद्धं महुरं हिदयं गाथानुक्रमणिका पृ० गा० ६५४ १३३४ णिद्धौं महुरं हिदयं १९२ १५० णिधणगमणमेयभवे ४७८ ७७० णिद्ध मधुरं हिदयंगमं २२२ १८३ णिच्चं पि विसयहेदु ४७७ ७६७ णिधणगमणं एयभवे ४२० ६१२ णिप्पत्त कंटइल्लं १३३ १०० णिप्पादित्ता सगणं ४७४ ७५९ णिरएसु नेदणाओ ८९८ २१२० णिरयकडियम्मि पत्तो ७०७ १५३८ णिरयगदियाणुपुब्धि ७६३ १७१३ णिरयतिरक्खगदीसु य ७३६ १६३९ णिरुवक्कमस्स कम्मस्स ७६७ १७२४ णिलओ कलीए अलियस्स ३३७ ४३१ णिवदि विहूणं खेत्तं ६६२ १३५८ णिव्ववएण तदो से ५३९ ९७८ णिव्वाणस्स य सारो १३० ९८ णिव्वावइत्तु संसार णिसिदित्ता अप्पाणं ४९५ ८०७ णिस्सल्लस्सेव पुणों २८३ ३१५ णिस्सल्लो कदसुद्धी ७८ ४२ णिस्संगो चेव सदा ५११ ८६२ णिस्संधी य अपोल्लो ६७२ १३९९ णीचत्तणं व जो उच्चत्तं णीचं ठाणं णीचं ४४६ ६७२ णीचो व णरो बहुगं ३४० ४४५ णीचं पि कुणदि कम्म ६८१ १४३४ णीचो वि होइ उच्चो २५४ २४३ णीयल्लवो व सुतवेण ६८३ १४४२ णीयल्लगोवि रुट्टो ८९२ २०९६ णीया अत्था देहादिया ३७८ ५०४ णीया करंति विग्धं ६९९ १५०९ णीया सत्तू पुरिसस्स २६९ २८२ णोइंदिय पणिधाणं ३६५ ४७७ हारूण णवसदाई पृ० गा० ३६६ ४७८ ७३५ १६३५ ४३९ ६५२ ५२१ ९०२ ७२९ १६०९ ४०० ५५७ ८७६ २०२६ ७११ १५५७ ७१२ १५६१ ८९० २०८९ ७१११५५६ ७७१ १७२९ ५३८ ९७६ २७३ २९७ ३७६ ५०७ ३५ १३ ९०२ २१३८ ४३६ ६४५ ६१२ १२०८ ४५९ ७२० ५८८ ११६९ ४३६ ६४३ ६२१ १२२८ १६५ १२२ ५१९ ८९५ ५२१ ९०३ ६१८ १२२२ ६८७ १४५८ ६६३ १३६५ ७७५ १७४५ ७८४ १७५९ ७८४ १७६० १५० ११७ ५४८ १०२२ P Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२६ ส तक्काल तदाकाल तट्ठाणसावणं चिय तण-पत-कट्ठछारिय तन्हा अनंतखुत्तो तहा छुहादि- परिदाविदो तन्हा दिसु सहणिज्जेसु तत्तोपुंसगित्वेदं तत्तो नंतरसमए तत्तो दुक्खे पंथे तत्तो मासं बब्बुदभूदं तत्थ अवाओवायं तत्थ अविचारभत्तप तत्य णिदाणं तिविहं तत्थ पढमं णिरुद्ध तत्थ य कालमणतं तत्थ वि साहुक्का तत्थोव समियसम्मत्तं दिओ णाणुणादो तदियं असंतवयणं तध चैव सुहुममणवचि तध रोसेण सयं पुव्वमेव तम्हा इह-परलोए तम्हा कलेवरकुडी तम्हा खवणाओपाय तम्हा गणिणा उप्पीलणेण तम्हा चेट्ठिदु कामो तम्हा जिणवयणरुई तम्हा ण उच्चनीचत्तणाई तम्हाण कोइ कस्सइ तम्हा णाणुवओगो तम्हा णिव्विसिदव्वं तम्हाणीया पुरिसस्स तम्हा हु कसायग्गी भगवती आराधना पृ० गा० तम्हा तिविहं वोसरि ७९१ १७७१ तम्हा तिविहेवि तुमं ८६६ १९८५ तम्हा पडिचरियाण ४०० ५५८ ७२७ १६०० ४८१ ७७७ ३०९ ३९४ ८९१ २०९१ ८९२ २०९७ ८७१ २००५ ६१३ १२०९ ८७१ २००६ ३६३ ४७० ७०३ १५२४ ६६ ३० ३८६ ५२२ ५०१ ८२२ ८९६ २११२ ६६२ १३५७ ४९७ ८१५ ७४४ १६७२ ३६४ ४७५ तम्हा पव्वज्जादी तम्हा सतूलमूलं तम्हा सव्वे संगे १७६ १३८ तरुणेहि सह वसंतो ५४३ १००२ ४५२ ६९५ ३७० ४८७ ६०६ ११९८ ३६४ ४७२ ६२१ १२२९ ७८३ १७५७ ४७७ ७६५ ३५९ ४५६ ७८५ १७६२ २६४ २६९ तम्हा सा पल्लवणा तम्हा सो उड्ढहणो तरुणस्स वि वेरग्गं तरुणोवि वुड्ढसीलो तवभावणाए पंचेदियाणि तव भावणा य सुदसत्त तवमर्कारितस्सेदे दोसा तवसंजमम्मि अण्णेण तवसा चेव ण मोक्खो तवसा विणा ण मोक्खो तव्विवरीदं मोसं तव्विवरीदं सव्व तस्स अवाओपायविंदंसी तस्स ण कप्पदि भत्त तस्स णिरुद्धं भणिदं तण भावो सुद्धो तस्स पदिण्णामेर तह अण्णाणी जीवा तह अप्पणो कुलस्स य तह अप्पं भोगसुहं तह आयरिओ वि तह आवइपडिकूलदाए तह चेव णोकसाया तह चेव देसकुलजाइ तह चेव पवयणं सव्वमेव तह चेव मच्चुवग्घपरद्धो तह चैव यतद्द हो पृ० गा० ४५१ ६८९ ५९८ १.१८४ ३८६ ५२३ ३९० ५३२ ३९६ ५४८ ५८९ ११७३ ५४१ ९९६ ४७६ ७६४ ५६२ १०७७ ५६१ १०७३ ५६० १०७० २२६ १९० २२५ १८९ ६८६ १४५२ ४१२ ५९० ८२६ १८४८ ८२३ १८४० ६०२ ११८८ ५०३ ८२८ ३६१ ४६४ ११२ ७५ ८७२ २००७ ६८५ १४४७ ६९९ १५०८ ७९४ १७७८ ७०२ १५२० ६३० १२५३ ३६८ ४८२ ७०१ १५१६ २६४ २७० ३३७ ४३३ ३७५ ४९५ ५५७ १०५८ ७१२ १५५९ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह चेव सयं पुव्वं तह जाण अहिंसाए तह भाविद सामण्णो तह मरइ एक्कओ चेव तह मिच्छत्त कडुगिगे तह-मुज्झंतो खवगो तह वि य चोरा चारभडा तह विसयामिसघत्थो तह संजमगुणभरिदं तह सामण्णं किच्चा तह सिद्ध चेदिए पवयणे तं एवं जाणतो तं णत्थि जंण लब्भइ तं ण खमं खु पमादा तं पुण णिरुद्ध जोगो तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तं वत्थु मोत्तव्य तं सो बंधणमुक्को ताडण तासण बंधण ताणि हु रागविवागाणि तारिसओ णत्थि अरी तारिसयममेझमयं ताव खमं में कादु तिण्णि य वसंजलीओ तित्तीए असंतोए तित्थयरचक्कधरवासुदेव तित्थयर पवयणसुदे तित्थयराणां कोवो तित्थयरो चदुणाणी तियरण सव्वावासय तिरियगदि अणुपत्तो तिरियगदीए वि तहा तिविहं तु भावसल्लं तिविहं पि भावसल्लं गाथानुक्रमणिका पृ० गा. ७३२ १६२२ तिविहा सम्मत्ताराहणा ४८५ ७८७ तिहिं चदुहिं पंचहिं वा ४५ २३ तीसु वि कालेसु सुहाणि ७७५ १७४४ तुज्झेत्थ बारसंगसुद ४६४ ७३३ तुरुतेल्लंपि पियंतो ६९७ १४९९ ते अदिसूरा जे ते ५८१ ११४६ ते अप्पणो वि देवा ५२० ८९९ तेओ वि इंदधणु तेज ३७९ ५०६ तेओ पम्मा सुक्का ६३७ १२७४ ते चेव इंदियाणं ४६८ ७४६ तेजाए लेस्साए ३९६ ५४७ तेण कुसमुट्ठिधाराए ६९० १४६७ तेण परं अवियाणिय ३६३ ४७१ तेण परं संठाविय ८३९ १८८३ तेण भयेणारोहइ ९८ ५५ तेण रहस्सं भिंदतएण २६२ २६४ तेणिक्कमोसहिंसारक्ख ८९८ २१२१ ते तारिसया माणा ७२२ १५७७ ते धण्णा जे जिणवर ९०३ २१४६ ते धण्णा जिणधम्म ५३८ ९७२ ते धण्णा ते णाणी ८०८ १८१३ तेलोक्केण वि चित्तस्स २०९ १६२ तेलोक्कजीविदादो ५४९ १०२८ तेलोक्कमत्थयत्थो ५७९ ११३९ तेलोक्क सव्वसारं ५४० ९९० तेल्लकसायादीहिं य ७३५ १६३२ तेल्लोक्काडविंडहणो २८१ ३१० ते वि कदत्था धण्णा २७८ ३०४ ते वि य महाणुभावा ३८० ५११ तेसिं असद्दहतो ७१८ १५७६ तेसि आराधणणायगाण ५१२ ८६६ तेहि चेव वदाणं ३९४ ५४१ तेसिं पंचण्हं पि य ३९५ ५४५ ते सूरा भयवंता ९२७ पृ० गा० ९४ ४८ ४९१ ८०२ ९०३ २१४५ ३८१ ५१२ ६४७ १३११ ५६९ ११०६ ७३० १६१२ ७६६ १७२० ८४५ १९०३. ६५८ १३४५ ८४७ १९१५ ८६४ १९७७ ३१७ ४१६ ८६३ १९७४ ५८१ ११४५ ३७३ ४९१ ७५५ १६९८ ५२९ ९३५ ८३३ १८६७ ८२७ १८५४ ८६९ १९९६ ६६९ १३८६ ४८४ ७८१ ९०१ २१३४ ८४८ १९१९ ४२० ६८७ ५६९ ११०९ ८७० २००० ८७० १९९८ ४१४ ५९८ ४६९ ७४८ ५९२ ११७९ ५९३ ११८० ८६९ १९९५ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२८ भगवती आराधना पृ० गा. ते आयरिय उवझ्झाय तो उप्पीलेदव्वा तो एयत्तमुवगदो तो खवगवयण कमलं तो जाणिऊण रत्तं तो णच्चा सुत्तविद् तो तस्स उत्तमढे तो तस्स तिगिच्छा जाणएण तोते कुसोलपडिसेवणा तो ते सीलदरिद्दा तो दंसणचरणाधारएहि तो पच्छिमंमि काले तो पडिचरिया खवयस्स तो पाणएण परिभाविदस्स तो भट्टबोधिलाभो तो भावणादियंतं तो वेदणावसट्टो तो सत्तमम्मि मासे तो साधु सत्थ पंथं तो सो अविग्गहाए तो सो एवं भणिओ तो सो खवओ तं अणुसद्धि तो सो खीणकसाओ तो सो वेदयमाणो तो सो हीलणभीरू थामापहार पासत्थदाए थूणाओ तिण्णि देहम्मि थेरस्स वि तवसिस्सवि थेरा वा तरुणा वा थेरो बहुस्सुदो वा पच्चई थोलाइदूण पुव्वं थोलाइदूण पुन्व माणी थोवाइयस्स कुलजस्स पृ० गा० ४५६ ७०९ दछु वि अमेज्झमिव ३९९ ५५४ दठूण अण्णदोसं ६९१ १४७२ दळूण अप्पणादो ५३६ ९६५ दठूण परकलत्तं ४२९ ६२५ दढ़सुप्पो सूलदहो ३८३ ५१७ दमणं च हत्थिपादस्स ६९५ १४९२ दव्वपयासमकिच्चा ६४३ १२९६ दव्वसिदि भावसिदि ६४५ १३०३ दव्व खेत्तं कालं ४१३ ५९६ दव्वाइअणेयाइ २२० १७८ दसविध पाणाभावो ८४३ १८९९ दसविहठिदिकप्पे वा दंडकसालट्ठिसदाणि ३६३ ४६९ दंडण-मुंडण-ताडण ६४० १२८५ दंडो जउणावक्केण ६९६ १४९७ दंताणि इदियाणि य ५४५ १०११ दंतेहि चव्विदं वीलणं ६४२ १२९१ दंसणणाणचरित्तं दसणणाणचरित्तं ८९९ २१२५ दसणणाण चरित्ते ३९७ ५५१ ६९१ १४७५ दसणणाणचरिते ८९१ २०९३ दसणाणादिचारे ८९४ २१०१ दसणणाणविहूणा दंसणणाणसमग्गो ३६७ ४६३ दसणणाणे तवसंजमे ४०७ ५७१ दसणभट्ठो भठ्ठो ५४९ १०२६ दंसणभठ्ठो भट्ठो २९१ ३३३ दसणमाराहंतेण ५५९ १०६४ दसणसुदतवचरण ५६५ १०९२ दसण सोधी ठिदिकरण ३६० ४६२ दंसेहि य मसएहि य ७०१ १५१४ दाऊण जहा अत्थं ७०२ १५१७ दारिदं अड्ढित्तं ५४२ ९९९ ३०३ ३७४ ६६५ १३७० ५२५ ९१८ ४७९ ७७२ ७२४ १५८९ ४५१ ६८८ २१८ १७५ ३५६ ४५२ ८३५ १८७४ ९०० २१३० ३१९ ४२२ ७२४ १५८८ ७२४ १५८७ ७०९ १५४९ २५१ २४० ५४५ १००९ ७७४ १७४१ ७५० १६९२ ८५० १९२८ ३९७ ५५० ३७० ४८९ ८५९ १९५८ ८९४ २१०२ २८७ ३२२ ४६६ ७३७ ४६६ ७३८ १२४ .८२९ १८६० १८१ १४४ ७०८ १५४६ ६३७ १२७३ ८०५ १८०२ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२९ पृ० गा० ६३२ १२५९ ९०३ २१४२ ५१३ ८७० २३० १९८ ७२५ १५९४ ८३० १८६३ ४५२ ६९२ ५७२ १११७ ८८७ २०७२ ८९७ २११७ ५४९ १०२७ ५४१ ९९७ २५५ २४६ ५४२ ९९८ ६२६ १२४३ ७९७ १७९० दारेव दारवालो दासं व मणं अवसं दिहें पि ण सम्भावं दिहें व अदिळं वा दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी दिट्ठाणुभूदसुदविसयाणं दिवसेण जोयणसयं दिव्वे भोगे अच्छरसाओ दीणत्त रोसचित्ता दीसइ जलं व मयतण्हिया दुक्खक्खय कम्मक्खय दुक्खस्स पडिगरेंतो दुक्खं उप्पादिता दुक्खं गिद्धोधत्थस्सा दुक्खं च भाविदं होदि दुक्खं अणंतखुत्तो दुक्खेण देवमाणुसभोगे दुक्खेण लभदि माणुस्स दुक्खेण लहइ जीवो दुगचदुअणेयपाया दुज्जणसंसग्गीए दुज्जणसंसग्गीए दुज्जणसंसग्गीएवि दुट्ठा चवला अदि दुविधं तं पि अणीहा दुविह-परिणामवादं दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणं दुविहा पुण जिणवयणे दुस्सहपरीसहेहिं य दूओ बंभणिवग्धो दूरेण साधुसत्थं देवत्त माणुसत्तेज ते देविगमाणुसभोगे देविंद चक्कवट्टी गाथानुक्रमणिका पृ०. गा० ८२२ १८३६ देविंद चक्कवट्टी १८० १४३ देविंद चक्कवटी ५३७ ९७० देविंद रायगहवइ ४०८ ५७७ देवेहिं भीसिदो वि हु देवो माणी संतो ५६५ १०९१ देसकुलरूवमारोग्ग १०१ ५८ देसं भोच्चा हा हा ७२५ १५९५ देसामासिय सुत्तं ७२३ १५८६ देसेक्क देसविरदो ६२९ १२५१ देहतियबंधपरिमोक्खत्थं ६१६ १२१९ देहम्मि मच्छुलिंगे ७९७ १७८९ देहस्स बीयणिप्पत्ति ६३४ १२६५ देहस्स लाघवं णेहसंवेगो ७४१ १६५८ देहस्स सुक्कसोणिय २५२ २४१ देहे छुहादिमहिदे ७९४ १७८० दोसेहिं तेहिं बहुगं ६३५ १२७० ४८२ ७८० धणिदपि संजमंतो ३६१ ४६५ धण्णा हु ते मणुस्सा ७७२ १७३२ धण्णो सि तुमं सुविहिद २९५ ३४६ त्ति पि संजमंतो २९५ ३४८ धम्मस्स लक्खणं से २९६ ३५१ धम्म चदुप्पयारं ६४६ १३१० धम्माधम्मागासाणि ८७३ २०१० धम्माभावेण दु लोगग्गे ७८८ १७६६ धम्मेण होदि पुज्जो १०४ ६४ घादुगद जह कणयं १० ३ धादो हवेज्ज अण्णो २७७ ३०३ धावदि गिरिणदिसोद ५७७ ११२५ धिदिखेडएहि इदियकंडे ६४४ १३०० धिदिध दबद्धकच्छो ७२३ १५८३ धिदिधणिय बद्धकच्छा ६१५ १२१३ धिदिबलकरमादहिदं ७३९ १६५० धिदिवम्मिएहि उवसम २७५ ३०१ ३८२ ५१५ ५१२ ८६४ ७५९ १७०४ ७५१ १६९४ ९०० २१२८ ८२७ १८५२ ८२६ १८४७ ४१२ ५८९ ७६५ १७१८ ६७१ १३९५ २३५ २०५ ७०५ १५३३ ३७९ ५०७ ६७२ १४०० Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३० भगवती आराधना पृ० गा. घोरत्तणमाहप्पं धीर पुरिस चिण्णाइ धीरपुरिसपण्णत्तं धूलो हुत्तुप्पिगत्ते पउमणिपत्तं व जहा पक्कामयासयत्था पक्खिय चाउम्मासिय पगदे णिस्सेसं गाहुए पगलंत रुधिरधारो पगुणो वणो ससल्लं पच्चक्खाणपडिक्कमणु पच्चक्खाणं खामणं पच्चाहरित्तु विसयेहि पजहिय सम्म देहं पडहत्थस्स न तित्ती पडिकूबिदे विसण्णे पडिचरए आपुच्छिय पडिचोदणा सहणदाए पडिचोदणा सहणवाय पडिमापडिवण्णा वि हु पडिरूवकायसंफासणदा पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ पडिसेवणादिचारे पडिसेवणादिचारे पडिसेवादो हाणी पडिसेवित्ता कोई पढमं असंतवयणं पढमेण व दोवेण व पढमे सोयदि वेगे पणिधाणं पि य दुविहं पत्तस्स दायगस्स य पत्थं हिदयाणिळं पत्थं हिदयाणिठें पदमक्खरं च एक्कं ७३७ १६४० ४०६ ५७० पन्भट्ठ वोधिलाभा परगणवासी य पुणो ७४४ १६७१ ८०९ १८१७ परदव्वहरणबुद्धी परदव्वहरणमेद परदोसगहणलिच्छो ६०६ ११९५ परभिच्चदाए जं ते ५४९ १०२५ परमिडिंढ पत्ताणं ४१२ ५९२ परमहिलं सेवंतो ३७८ ५०३ परलोगणिप्पिवासा ७१८ १५७४ परलोगम्मि य चोरो परलोगम्मि वि दोसा ४५७ ६८६ परिदड्ढसव्वचम्म १०७ ६९ परिभागम्मि असंते ७५७ १७०२ परमाणू वि कहंचिवि परियाइगमा लोचिय ८५० १९३१ परिवढिदोवधाणो ५७९ ११३८ परिहर असंतवयणं ७३१ १६१८ परिहरइ तरुणगोट्ठी ३८५ ५२० परिहर छज्जीवणिकायवहं ३०८ ३९१ परिहर तं मिच्छतं २६४ २६७ परसवयणादिगेहि ८८५ २०६५ परुसं कडुयं वयणं १६६ १२३ पवयणणिण्हवयाणं १२९ ९६ पव्वज्जाए सुद्धो ४२६ ६१९ पव्वज्जादी सव्व ४२७ ६२० पव्वज्जादी सव्व ४२८ ६२२ पव्वदमित्ता माणा ४२९ ६२४ पस्सदि जाणदि य तहा ४९९ ८१८ पहिया उवासये जह ३३८ ४३९ पंचच्छ सत्तसदाणि जोयणाणं ५१८ ८८७ पंचमहब्वयजुत्तो . १५० ११५ पंचमहव्वयरक्खा २४२ २२३ पंच य अणुब्वदाई २९९ ३५९ पंचविधै आयारे २९९ ३६० पंचविहं जे सुद्धि पृ० गा. ७६ ३८ ६३९ १२८० ३०७ ३८९ ५१२ ८६८ ५११ ८५९ २९६ ३४९ ७२३ १५८५ ९०२ २१४१ ५२५ ९२१ ८५८ १९४९ ५१२ ८६५ ५०६ ८४४ ५५० १०३२ ६७९ १४२७ ५३५ ९५९ ८७७ २०२७ २६५ २७१ ४९८ ८१७ ५६२ १०७८ ४८० ७७५ ४६२ ७२५ ६९९ १५०७ ५०२ ८२६ ४१७ ६०७ ८७६ २०२५ ३९३ ५३७ ३८२ ५१३ ५२८ ९.४ ९०१ २१३५ ७८२ १७५३ ३११ ४०३ २८६ ३२१ ४६० ७३२ ८८७ २०७३ ३३५ ४२५ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका ९३१ ३६८ पंचविहं जे सुद्धि पंचविघं ववहारं पंचसमिदा तिगुत्ता पंचेव अस्थिकाया पंचेदियप्पयारो पंजरमुक्को सउणो पंडिदपंडिदमरणं पंडिदपंडिदमरणे पंथ छंडिय सो जादि पाउसकालणदीवोव्व पाओदएण अत्थो पाओदएण सुट्ठवि पाओवगमणमरणस्स पाचीणाभिमुहो वा पाचीणोदीचिमुहो पाचीणोदीचीमुहो पाडयणियंसभिक्खा पाडलिपुत्ते धूदाहेर्दू पाडलिपुत्ते पंचालगीदपाडेदु परसू वा पाणगभसिंभलं परिपूयं पाणिदलधरिदगंडो पाणवधमुसावादा पाणो वि पाडिहेरं पादे कंटयमादि पादोसिय अधिकरणिय पापविसोत्तिग परिणाम पापस्सासवदारं पायोपगमणमरणं पावइ दोसं मायाए पावपओगा मणवचिकाया पावपयोगासवदार पावं करेदि जीवो पासत्थसदसहस्सादो ११७ पृ० गा० २१२ १६७ पासत्थादीपणयं ३५५ ४५० पासत्थो पासत्थस्स ८४९ १९२५ पासित्तु कोइतादी ७६० १७०६ पासिय सुच्चा व सुरं ४३२ ६३४ पासेहि जं च गाढं ६४८ १३१४ पासो व बंधिदुजे ६० २६ पाहाडधादु अंजन ६१ २७ पियधम्मवज्ज भीरु ६४२ १२९३ पियधम्मा दढ़धम्मा ५३२ ९४८ पियविप्पओग दुक्खं पिल्लेदूण रडतं ७७० १७२६ पिण्डं उवहिं सेज्जं ७७१ १७२७ पिंड उवधि सेज्जं ८८३ २०५७ पिंड उवधि सेज्जा ८७८ २०३१ पिंडोवधि सेज्जाए ४०१ ५६२ पीणत्थर्णिदुवदणा ३९७ ५५२ पीदी भए य सोगे २४१ २२१ पुज्जो वि णरो ८८६ २०६८ पुढविदगागणिपवणे ६६० १३५० पुढवी आऊ तेक ५३९ ९८३ पुढवी सिलामो वा १४८६ पुणरवि तहेव तं संसारं ५१६ ८८१ ८ पुण्णोदएण कस्सइ ८८७ २० २०७४ पुरिसत्तादिणिदाणं ४९८ ८१६ पुरिसत्तादीणि पुणो ८८२ २०५१ पुरिसस्स अप्पसत्थो ४९० ८०१ पुरिसस्स दु वीसंभं १६८ १२७ पुरिसस्स पावकम्मोदएण ५०६ ८४३ पुरिसस्स पुणो साधू ६४ २८ पुरिसं वधमवणेदि ति ६६६ १३७८ पुरिसो मक्कडिसरिसो ८१३ १८२७ पुव्वकदकम्म सडणं ८१९ १८३३ पूव्वकदमज्झकम्म ७७४ १७४२ पुव्वकदमज्झपावं २९८ ३५६ पुव्वभणिदेण विधिणा पृ० गा० २९३ ३४१. ४१६ ६०३ ४५१ ६९० ५६२ १०७५ ७१७ १५७१ ९३९ ९८० ५५२ १०४० १९० १४७ ४३७ ६४६ ७२३ १५८४ ४८१ २७१ २९० २७२ २९१ २७३ २९९ ४१८ ६११ ५५४ १०४९ ६८१ १४३६ ६६४ १३६६ ४१८ ६१० ८८४ २०६० ४३४ ६३९ ७३८ १६४७ ७७१ १७२८ ६१६ १२१८ ६१७ १२२० ५६१ १०७४ ५२९ ९३८ ७२८ १६०५ ७८५ १७६१ ५३७ ९७१ ६६३ १३६३ ८२३ १८४१ ७३३ १६२४ ६७७ १४१९ ८८९ २०८५ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ भगवती आराधना पुव्वमकारिदजोग्गो पुव्वमभावितजोग्गो पुवरिसीणं पडिमाओ पुव्वं कारिदजोगो पुव्वं ता वणेसि पुव्वं सयमुवभुत्तं पुव्वं सयमुवभुत्तं पुव्वाभोगियमग्गेण पुवायरियणिबद्धा पुवुत्त तवगुणाणं पुन्वुत्ताणण्णदरे पुवुत्ताणि तणाणिय पूयावमाणरूव विरुवं पृयावयणं हिदभासणं च पोग्गलगिरिम्मिय पृ० गा० २२७ १९३ बंधंतो मुच्चंतो ४८ २४ बाढत्ति भाणिदणं ८७१ २००२ बादरमालोचेंतो २२८ १९५ बादर वाचिग जोगं १०३ ६३ बारस वासाणि वि ६७७ १४२० बारस विहम्मि वि तवे बालग्गिवग्घ-महिस-गय ८६४ १९७५ बालत्तणे कदं सव्वमेव ९०७ २१६० बालमरणाणि साह ६८६ १४५१ बालादिएहि जइया २०७ १५९ बाले बुड्ढे सीसे ८७७ २०३० बालो अमेज्झलित्तो ६२२ १२३१ बालो विहिंसणिज्जाणि १६७ १२५ बाहिर करणविसुद्धी ७०६ १५३५ बाहिरतवेण होदि हु बाहिर संगा खेत्तं ६८९ १४६३ बाहिं असद्दवडियं ६६० १३५३ बीएण विणा सस्सं ३८६ ५२४ बीभत्थभीमदरिसण ८३३ १८६६ पृ० गा. ७९८ १७९१ ३०४ ३७८ ४०९ ५७९ ८९६ २१११ ५२२ ९०९ १३९ १०६ ८७३ २०१२ ५४७ १०१९ २३१ २०१ ८७४ २०१६ ८६२ १९६९ ५५८ १०६० ५४७ १०१६ ६५७ १३४२ २५१ २३९ ५६९ १११३ ४४४ ६६७ ४६.९ ७४९ ८७९ २०३९ फलिहो व दुग्गदीणं फासिदिएण गोवे सत्ता फासेहिं तं चरित्तं फिडिंदा संती बोधी बत्तीसं किर कवला बद्धस्स बंधणे बहुगाणं संवेगो जायदि बहुगुणसहस्सभरिया बहुजम्मसहस्सविसाल बहुतिव्वदुःखसलिलं बहुदुक्खावत्ताए बहुपावकम्मकरणाडवीसु बहुविग्घमूसिएहि बहुसो वि जुद्धभावणाए बहुसो वि लद्धविजडे बंधणमुक्को पुणरेव बंधवधजादणाओ भगवं अणुग्गहो मे २३७ २१३ भज्जा भगिणी मादा ७७८ १७४८ भत्तं खेतं कालं २५५ २४५ भत्तादीणं तत्ती ६९५ १४८९ भत्तित्थि राय जणवद ७९६ १७८६ भत्ती तवोधिगंमि य ७८६ १७६४ भत्ती पूया वण्णजणणं ७९६ १७८४ भत्तण व पाणेण व ६४४ १२९९ भत्ते वा पाणे वा ५५७ १०५९ भयणीए विधम्मिजंतीए २३० १९९ भयमागच्छसु संसारादो ६२० १२२५ भल्लकिए विरत्तं ६५१ १३२० भंते सम्म णाणं ५११ ८६१ भारक्कंतो पुरिसो ३०५ ३७९ ५२७ __९२७ २६० २५७ ४५० ६८५ ४३९ ६५० १६४ ११९ ८७ ४६ ४०३ ५६५ ३१० ३९७ २३४ २०३ ६८२ १४३७ ७०६ १५३४ ६९२ १४७६ ५८९ ११७२ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारं णरो वहतो भावाणुरागपेमाणुराग भावे सगविसयत्थे भिउडी तिवलियवयणो भिण्ण पयडिम्मि लोए भीदो व अभीदो वा भुंजतो वि सुभोयण भूमि समरुद लहुओ भूमीए समं कीला भोगणिदाणेण य सामण्णं भोगरदीए णासो भोगा चितेदव्वा भोगाणं परिसंखा भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण भोगेसु देवमाणुस्सगेसु भोगोवभोगसोक्खं गाथानुक्रमणिका ९३३ पृ० गा. पृ० गा० ७९६ १७८७ महिलादिभोगसेवी ६२९ १२५० ४६५ ७३६ महिला पुरिसमवण्णाए ५३३ ९५१ ९०१ २१३६ महिला पुरिसं वयणेहि ५३६ ९६४ ६६१ १३५५ महिलालोयण पुव्वरदिसरणं ६११ १२०४ ७८२ १७५४ ५६९ ११०७ ७२७ १६०४ महिला विग्घो धम्मस्स ५३९ ९७९ ६४७ १३१२ महिलावेसविलंबी ५२७ ९२६ ४३५ ६४२ महिलासु णत्थि वीसंभ ५२९ ९३७ ७०६ १५३६ महुकरि समाज्जियमहुँ ४८२ ७७९ ६२४ १२३६ ६३३ १२६४ महुलित्तं असिधारं ६५८ १३४६ ६२४ १२३५ महुलित्तं असिधारं ७४१ १६६० ८८८ २०७६ मंताभिओगकोदुग २२३ १८४ ८५१ १९३६ मंदा हुंति कसाया ८४५ १९०६ ७४७ १६८२ मा कासि तं पमादं ४६४ ७३४ ६२६ १२४२ मा कुणसु तुमं बुद्धि ५०७ ८४७ माणस्स भंजणत्थं ६१७ १२२१ माणी वि असरिस्स वि ५२१ ९०५ ५९९ ११८५ ८८४ २०६१ माणी विस्सो सव्वस्स ६६५ १३७१ २६९ २८५ माणुण्णयस्स पुरिसदुमस्स ५२८ ९३३ ५६७ १०९९ माणुसगदितज्जादि ८९७ २११५ ६८९ १४६४ माणुसभवे वि अत्था. ५१२ ८६७ ४५७.७११ माणुसमंसपसत्तो ६५० १३५१ ४७२ ७५३ माणेण जाइ कुलरूव ६१४ १२११ ८९७ २११६ मादं सुदं च भगिणी ५६५ १०८९ ५३३ ९५३ मादाए वि य वेसो ५०६ ८४० ८९२ २०९५ मादा धूदा भज्जा ५२६ ९२३ ६३५ १२६८ मादु-पिदु-पुत्त-दारेसु ५८७ ११४१ ४१२ ५९१ मायाए मित्तभेदे ६६६ १३७९ ४६१ ७२४ माया करेदि णीचा ६६७ १३८० ४९ २५ मायागहणे बहुदोस ५६८ ११०४ ५५५ १०५१ मायादोसा मायाए ६८५ १४५० ८४१ १८८९ माया पोसेइ सुयं ७८३ १७५५ ५२८ ९३२ माग व होइ विस्सस्सणिज्जो । ५०४ ८३४ ५४० ९८७ माया वि होइ भज्जा ७९८ १७९३ मग्गुज्जोवपओगा मज्जणय गंध पुप्फो मज्जार रसिद सरिसोवमं मज्झण्ह तिक्खसूरं मणदेह दुक्ख वित्तासिदाण मणवयणकायजोगेहिं मणसा गुणपरिणामो मणुसाउगं च वेदेदि मत्तो गउव्व णिच्चं मत्थयसूचीए जधा मधुमेव पिच्छदि जहा मयतण्हादो उदयं मयतण्हियाओ उदय त्ति मरणाणि सत्तरस देसिदाणि मरदि सयं वा पुव्वं मल्लस्स णेहपाणं महिलाकुलसंवासं महिलाणं जे दोसा Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३४ मायासल्लस्सालोयणा मारसीलो कुणदि हु मारेदि एवमवि जो मासम्म सत्तमे तस्स मासेण पंच पुलगा मिच्छत्तमोहणादो मिच्छत्त मोहिदमदी मिच्छत्त वेदरागा मिच्छत्त सल्लदोसा मिच्छत्त सल्लविद्धां मिच्छत्तस्स य वमणं मिच्छत्तं अविरमणं मिच्छतं वेदंतो मिच्छत्तासवदारं मिच्छादंसणसल्लं मित्सुयणादी य मुक्को विरो कलिणा मुक्खस्स वि होदि मदी मुत्तं आढयमेत्तं मेघहिमफेण उक्का मेरुव्व णिप्पकंपा मोक्खाभिलासिणो मोक्खाभिलासिणो मोणाभिग्गहणिरदो मोतूण रामदोसे मोहग्गणादिमहा मोहोदयेण जीवो मोहोदयेण जीवो रक्खा भएसु सुतवो रक्खाहि बंभचेरं रज्जं खेत्तं अधिवदि रणभूमी कवचं राम दु भगवती आराधना पृ० गा० ६३८ १२७९ ४८७ ७९४ ४८८ ७९८ ५४३ १००४ ५४३ १००३ ४६२ ७२६ ७८५ १७६३ ५७० १११२ ६३९ १२८१ ४६३ ७३० ४६० ७२१ ८१० १८१९ ७७ ४० ८१८ १८२९ ३९३ ५४० ७४७ १६८१ ७६ ३९ ५४१ ९९५ रति रति रुक्खे रदणाउला सवग्धा रदि- अरदि- हरिस-भय रयसेदाणमगहणं रवि - चंद-वाद- वेडव्वियाण रसपीदयं व कडयं रंगगदण्डो व इमो राइणिय अराइणीएसु गोसाभिदा रागविवागसतहा रागेण य दोसेण य रागो दोसो मोहो ६५१ १३२१ ७७० १७२६ रायादिमहड्डीयागमण या वि होइ दासो ५५० १०२९ ५५६ १०५४ रुद्दो परासरो सच्चई य ७०५ १५३१ रुट्ठी परं बधित्ता रूवं सुभं च असुभं रुवाणि कट्ठकम्मादियाणि ७३५ १६३४ ७२८ १६०८ ८८२ २०५३ ३५७ ४५३ २८२ ३१३ ६८९ १४६६ ५१३ ८७१ ३८४ ८४११८८७ ७६४ १७१५ रांगो लोभो मोहो रागो हवे मणे रामस्स जामदग्गस्स यदि कुडु रोगं इच्छेज्ज जहा रोगाणं पडिगारो णत्थि गाणं पडिगारा दिट्ठा रोगादंकादीहिं य रोगा के सुविहिद रोगादिवेदणाओ रोगा विविहा बाधाओ रोगो दारिद्द वा ५१९ रोसाइट्ठो णीलो रोसेण महाधम्मो रोहेडम्म सत्तीए पृ० गाथा ७८१ १७५२ ५३७ ९६९ ४८१ ७७८ १३० ९.७ ७७२ १७३३ ४१० ५८५ ७९० १७६९ १६९ १२९ ३९५ ५४४ ५९१ ११७७ ८२८ १८५६ ५२४ ९१४ ५७१ १११५ ५८६ ११६४ ६६९ १३८८ ७२८ १६०६ ७४५ १६७४ ७९९ १७९५ ५६६ १०९५ ४८८ ७९६ ६७५ १४१२ ५५६ १०५३ ६२५ १२४० ७७३ १७३७ ७७३ १७३६ ३०९ ३९३ ६९९ १५१० ७७४ १७४३ ७२२ १५८० ५३२ ९४९ ६६१ १३५४ ६७७ १४१८ ७०८ १५४४ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लज्जं तदो विहंसं लज्जं तदो विहंसं लज्जाए गारवेण व लद्धण य सम्मत्तं लभ्रूण वि तेलोक्कं लद्ध सु वि तेसु पुणो लंधिज्जंतो अहिणा लिंगं च होदि अब्भंतरस्स लीणो वि मट्टियाए लेस्सासोधी अज्झवसाण लोगम्मि अत्थि पक्खो लोगागासपएसा लोगो विलीयदि इमो लोचकदे मुडत्तं लोभे कए वि अत्थो लोभेणासाधत्तो पावइ दोसे लोभो तणे वि जादो लोहेण पीदमुदयं व लोभे पड्ढिदे पुण गाथानुक्रमणिका पृ० गा० वड्ढंतओ विहारो २९४ ३४२ वण्णरणउलो विज्जो ५६३ १०८० वण्णरसगंधजुत्तं ३७३ ४९२ वत्ता कत्ता य मुणी ९७ ५२ वदभंडभरिदमारुहिद ४६७ ७४२ वधबन्धरोधधणहरण ८३२ १८६४ वमिगं अमेज्झसरिसं ६४९ १३१७ वमिदा अमेज्झमज्झे ६५७ १३४४ वमियं व अमेज्झं वा ५६० १०६८ वयणकमलेहि गणिअभि ८४५ १९०५ वयणपडिवत्ति कुसलत्तणं ५१० ८५७ ववहारमयाणंतो ७९२ १७७४ वसदीए पलिविदाए ७६२ १७११ वसधीसु य उवधीसु य १२३ ८९ वंदणभत्तीमित्तेण ६८० १४३१ वाइय-पित्तिय-सिभिय ६६७ १३८३ वादी चत्तारि जणा ६६८ १३८४ वादुब्भामो व मणो ३७० ४८८ वायणपरियट्ठण पुच्छणाओ ५०८ ८५१ वायाए अकहता वायाए जं कहणं वारवदी य असेसा ८४१ १८९० ५५७ १०५७ वाहभयेण पलादो ५३१ ९४६ वाहिन्व दुप्पसज्झा ५४० ९८६ विक्खेवणी अणुरदस्स ५३१ ९४३ विच्छिण्णंगोवंगो ६३० १२५२ विज्जा जहा पिसायं ६९६ १४९४ विज्जा वि भत्तिवंतस्स ६११ १२०३ विज्जावच्चस्स गणा १२७ ९३ विज्जाहरा य बलदेव २९१ ३३२ विज्जू व चंचले फेण २७० २८७ विज्जू व चंचलाई ५५६ १०५६ विज्जो सहमंतबलं ४५८ ७१५ विज्झायदि सूरग्गी पृ० गा. २६९ २८३ ५७७ ११२६ ४०५ ५६८ ३७७ ५०२ ६४० १२८३ ४८७ ७९५ ५४५ १०१० ५४४ १००७ ५४६ १०१२ ६९१ १४७३ ५२२ ९०६ ३५८ ४५४ ७१० १५५२ १९६ १५५ ४७० ७५१ ५५४ १०४७ ४४५ ६६८ १७५ १३६ ८८१ २०४६ ३०२ ३६८ ३०१ ३६७ ६६४ १३६८ ६४८ १३१३ १०८ ७० ४४१ ६५७ ७१७ १५७३ ४७५ ७६० ४६८ ७४७ ६९५ १४९१ ७७३ १७३८ ८०६ १८०६ ७६२ १७१२ ७७२ १७३४ ५१९ ८९२ वइरंरदणेसु जहा वग्घपरद्धो लग्गो वग्धविसचोरअग्गि वग्घादीणं दोसे वग्घादीया एदे वग्यो सुखेज्ज मदयं वच्छीहिं अवदवणता वज्जणमणणुण्णादगिह वज्जेदि बंभचारी वज्जेह अप्पमत्ता वज्जेहि चयणकप्पं वज्झो य णिज्जमाणो वटॅति अपरिदंता Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३६ पृ० गा० २६५ २७३ ७७३ १७३९ ८८४ २०६२ २६८ २८० विट्ठापुण्णो भिण्णो विणएण विप्पहूणस्स विणओ पुण पंचविहो विणओ मोक्खारं विद्धत्थो य अफुडिदो विधिणा कदस्स सस्सस्स विमलाहेदु वंकेण वियडाए अवियडाए विरियंतरायमलसत्तणेण विवहाहिं एसणाहिं य विविहाओ जायणाओ विव्वोगतिक्खदंतो विसएहिं से ण कज्जं विसयमहापंकाउल विसयवणरमणलोला विसयसमुई जोव्वण विसयाडवीए उम्मग विसयाडवीए मज्झे विसयाभिसारगाढं विस्साकरं रूवं वीरपुरिसेहिं जं वीरमदीए सूलगद वीरासणमादीयं वीरासणं च दण्डाय वीरियमणंतराय वीसत्थदाए पुरिसो वीसंपलिया पंचेत्थ वीसपलतिण्णिमोदय वुड्डो वि तरुणसीलो वेउव्वणमाहारय वेज्जावच्चकरो पुण वेढेइ विसयहेदु वेमाणिएसु कप्पोवगेसु वेमाणिओ थलगदो भगवती आराधना पु० गा. ५५१ १०३७ वोढुं गिलादि देह १७० १३० वोलेज्ज चंकमंतो १४२ १११ वोसट्रचत्तदेहो १७० १३१ ___ वंदिय णिसुडिय पडिदो व ४३५ ६४१ ४६९ ७५० सक्कं हविज्ज दठ्ठ ८०४ १८०० सक्कारं उवकारं २४५ २३१ सक्कारो संकारो ६८५ १४४९ सक्का वंसी छेत्तु २५७ २४९ सक्खीकदराय हीलण ५८४ ११६० सक्खीकदरायासादणे ५६९ १.०८ सगडालएण वि तधा ९०४ २१४८ सगडो हु जइणिगाए ६८८ १४६२ सगणत्थे कालगदे ६७३ १४०७ सगणे आणाकोवो ५७० १११० सगणे व परगणे वा ८२८ १८५५ सगुणम्मि जणे सगुणो| ६४० १२८६ सच्चम्मि तओ सच्चम्मि . ७९६ १७८५ सच्चं अवगददोसं ११८ ८३ सच्चं असच्चमोसं ६९२ १४७९ सच्चं वदंति रिसओ ५३१ ९४५ सच्चित्ता पुण गंथा ८८९ २०८४ सच्चित्ते साहरिदो २४३ २२७ सच्चेण जगे होदि पमाणं ८९३ २१०० सच्चेण देवदाओ ५६३ १०८१ सज्झायकाल पडिलेहणादि ४९२ ८०३ सज्झायभावणाए ४९२ ८०३ सज्झायं कुव्वंतो ५६१ १०७१ सदि साहस्सीओ ८८२ २०५२ सड्ढाए वढिदाए २८७ ३२३ सण्णाउ कसाए वि ५२३ ९१३ सण्णा-गारव-पेसुण्ण ८८८ २०८० सण्णाणदीसु ऊढा ८६९ १९९४ सत्त तयाओ कालेज्ज ५३५ ९६१ ५३० ९४२ ५१४ ८७४ ३३८ ४३६ ७३४ १६३१ ७३५ १६३३ ८८६ २०७० ५६६ १०९४ ८६७ १९८९ ३०७ ३८७ ३०३ ३७१ ३०२ ३६९ ५०५ ८३६ ५०४ ८३५ ६०० ११८६ ५०४ ८३१ ५८३ ११५६ ८८० २०४३ ५०५ ८३७ ५०४ ८३३ ८८१ २०४८ १४१ १०९ १३६ १०३ ६६६ १३७५ . २८४ ३१८ २७४ ३०० ५७५ ११२० ६४३ १२९७ ५४९ १०२४ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तीए भत्तीए सत्तो वि ण चैव हदो सत्थं वहलं लेवड सदभिस भरणी अद्दा सदिआउगे सदिबले सदिमलभतस्स वि कादव्वं सदिमंतो धिदीमंतो सद्दसरूवगंधे सद्दवदीणं पासं सण मओ रूवेण सद्दे रूवे गंधे सद्द रूवे गंधे सपरिग्गहस्स अब्बंभ सप्प बहुलम्म रणे समणाणं ठिदिकप्पो समणस्स माणिणो समिदकदो धदपुण्णो समिदा पंचसु समिदीसु समिदि दिढणावमा रुहिय समपलियं कणिसेज्जा समिदीय गुत्ती य समिदीय गुत्ती य सम्मत्तस्स य लंभे सम्मत्तादीचारा सम्म सणतुम्ब सम्मं कदस्स अपरिस्सवस्स सम्मं खवएणालोचिदम्मि सम्मं सुदिमहंतो सम्मादिवि सम्मादिट्ठी विरो सम्मादिट्ठी जीवो सम्मोहणा काल सयणस्स जणस्स पिओ सयणं मित्तं आसय गाथानुक्रमणिका पृ० गाथा २८० ३०६ ६७६ १४१७ ४५४ ६९९ ८६६ १९८३ २५७ २५१ ६९८ १५०४ ८५२ १९३७ सरजूए गंधमित्तो सरवासेवि पडते सरसीए चंदिगाए सलिलादीणि अमेज्झं सलिलणिवुढोव्व १५० ११६ ४४९ ६८४ सल्लविसकंट एहि ६५८ १३४७ ३८७ ५२५ ६७४ १४०८ ६२५ १२३९ सयणे जणे य सयणा सयमेव अप्पणो सो सयमेव वंतमसणं ६९० १४६८ ४२७ ६२१ ३३८ ४३५ २२ ७ ८११ १८२२ ५८५ ११६३ ८६० १९६१ ७०२ १५१८ ५४२ १००० २७४ २९९ ८२२ १८३५ २४३ २२६ सल्लेहणा सरीरे ३७ १६ ८५७ १९४७ ४६७ ७४१ सव्वगुण समग्गाणं ७९ ४३ सव्वग्गंथविमुक्को ८२९१८५९ सव्वजगजीव दिए सव्वजयजी वहिदए सव्वत्तो वि विमुत्तो सव्वत्थ अप्पवसिओ सव्वत्थ इत्थवग्गम्मि सव्वत्थ णिव्विसेसो सव्वत्थ णिव्विसेसो ६८ ३१ ८५९ १९५५ ६६५ १३७३ ५११ ८६० सल्लं उद्धरिदुमणो सल्लेहणं करेंतो सल्लेहणं करेंतो सल्लेहणं पयासेज्ज सल्लेहणं सुणित्ता सल्लेहणाए मूल सल्लेहणा दिसा खामणा सल्लेहणा परिस्सममिमं सल्लेहणा यदुविहा सल्लेहणा विसुद्धा सविचारभत्त पच्चवखाण सविचारभत्तवोसरण सव्वत्थ दव्वपज्जय सव्वत्थ होइ लहुग सव्वपरियाइयस्सय ९३७ पृ० गाथा ५१६ ८७९ ८७९ २०३६ ६४९ १३१८ ६६० १३४९ ६०६ ११९६ ८०६ १८०४ ८०८१८१२ ५२२ ९०८ ६४२ १२९२ ३११ ४१० २६६ २७४ २१७ १७४ ३३५ ४२७ ४४८ ६७९ ६८० ४४८ १०६ ६७ ७४४ १६७० २३६ २०८ ७४३ १६६९ २५८ २५२ १०४ ६५ ८७१ २००४ ५४१ ९९४ ५९१ ११७६ ३०६ ३८३ ३०५ ३८२ २९२ ३३७ ५८९ ११७१ २९२ ३३६ २१६ १७२ ७४७ १६८४ २१६ १७२ ५८८ ११७० ४३१ ६३१ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३८ पृ० गा० ८२८ १८५७ ४९५ ८०८ ८८२ २०५० ६०४ ११९२ ३०५ ३८१ ५१७ ८८४ २६९ २८४ सव्वम्मि इत्थवम्गम्मि सव्वसमाधाणेण य सव्वसमाधि पढमाए सव्वस्स दायगाणं सव्वं अधियासंतो सव्व आहारविधि सव्व पि संकमाणो सव्व भोच्चा धिद्धी सव्वासु अवत्थासु वि सव्वाहारविधाणेहिं सबुक्कस्सं जोगं सव्व रसे पणीदे सव्व वि कोहदोसा सव्वे वि गंथदोसा सव्वे वि जये अत्था सवे विणिज्जणंतो सव्वे वि तिण्णसंगा सव्वे वि य उवसग्गे सव्वे विय ते भुत्ता सव्वे वि य संबंधा सव्वेसिमासमाणं सव्वेसि उदय समागदस्स सव्वेसि सामण्णं सव्वेसिं सामण्णं सव्वेसु दव्व पज्जय सव्वेसु य मुलुत्तर गुणेसु सव्वो उवहिदबुद्धी सव्वो पोग्गलकाओ सव्वो पोग्गलकाओ सव्वो वि जणणे सयणो सव्वो वि जहायासे ससगो वाह परद्धो सस्सो य भरधगामस्स भगवती आराधना पृ० गा० ५६७ १०९७ सहलं माणुसजम्म ८४९ १९२६ सहसाणाभोगिय दुप्प ८६१ १९६५ सहसा चुक्कर कलिद ३०६ ३८५ सहसाणाभोगिद दुप्प ७४३ १६६६ सहिदय सकण्णयाओ ८७८ २०३३ संकप्पंडय जादेण ५८० ११४२ संखित्ता वि य पवहे ४५२ ६९३ संखेज्जमंसंखेज्जगणं ५४४ १००५ संखेज्जमसंखेज्जं ७३९ १६५२ संखेज्जा संखेज्जाणंता ८४९ १९२२ संगावि जहणेण व लहुदयाए २३६ २७९ संगणिमित्तं कुद्धो संगणिमित्तं मारेइ ६६५ १३७२ संग परिमग्गणादी ६६९ १३८७ संगो महाभ्यं जं ६८० १४३२ संघो गुणसंघाओ ८७८ २०३४ संजदकमेण खवयस्स ३८९ ५२९ संजदजणस्स य जम्हि ७०० १५११ संजदजणावमाणं ६७४ १४११ ४८७ ७९२ संजमरण भूमीए संजमसाधणमेत्तं ४८६ ७८९ संजमसिहरारूढो ८२४ १८४४ संजममाराहतेण ७३३ १६२६ संजमहेदुं पुरिसत्त ७३३ १६२७ संजोगविप्पओगेसु ७४६ १६७९ संजोयणमुवकरणाणं ८५८ १९५० संजोयणा कसाये ५०९ ९५२ संभाव णरेसु सदा ८८० २०४१ संतं सगुणं कित्तिज्जंतं ८८० २०४२ संते सगणे अम्हं ७८१ १७५१ __ संता वि गुणा अहितयस्स ४८५ ७८५ संता वि गुणा कत्थंतयस्स ७९४ १७७७ संतो वि मट्टियाए ६६७ १३८३ संथारपदोसं वा ७२६ १५९८ १०२ ६२ ८९८ २१२२ ५८१ ११४७ ५७४ १११९ ५८७ ११६७ ५७६ ११२४ ४५७ ७१३ ४३८ ६४९ १९६ १५४ २९८ ३५७ ८२६ १८५० २१० १६८ ६१५ १२१४ ६१४ १२१० ७४६ १६८० ४९६ ८०९ ८८९ २०८६ ५३४ ९५५ ३०१ ३६५ ३१० ४०० ३०० ३६३ ३०० ३६२ ५६० १०६९ ३३९ ४४२ . Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९३९ पृ० गा० ६६८ १३८५ २४३ .२२५ २८८ ३२६ ५५६ १०५५ २९३ ३३९ ५९१ ११७८ ७१३ १५६३ ७२५ १५९३ ४२८ ६२३ ५५५ १०५२ ८८९ २०८२ १२६ ९२ ५५२ १०३९ २१९ १७८ ६४४ १३०२ संथारभत्तपाणे संपत्ति विवत्तीसु य सपलियंक णिसेज्जा संभर सुविहिय जं ते संभूदो वि णिदाणेण संरभसमारंभारंभ संरंभो संकप्पो संवासो वि.अणिच्चो संविग्गदरे पासिय. संविग्गवज्जभीरुस्स संविग्गस्सवि संसग्गीए संविग्गं संविग्गाणं संविग्गाणं मज्झे संविग्गो वि य संविग्गदरो संवेगजणिय करणा संवेगजणिदकरणा संवेगजणिय हासो संवेयणी पुण कहा संसग्गीए पुरिसस्स संसग्गी संमूढो संसयवयणीय तहा संथारत्थो खवओ संसार महाडाहेण संसारमूलहेदूं संसारम्मि अणंते संसारम्मि अणंते संसार विसमदुग्गे संसार समावण्णा संसारसागरम्मि य संसारसागरम्मि य संसारसागरे से संसाराडवि णित्थर संसिठ्ठ फलिह परिखा साकेदपुराधिवदी ११८ गाथानुक्रमणिका पृ० गा० ३७६ ४९८ साकेदपुरे सीमंधरस्स ६३२ १२६० साधारणं सवीचारं २४३ २२६ साधुस्स धारणाए वि ७०० १५१२ साधु पडिला हेदूं ६३७ १२७५ साधुस्स पत्थि लोए ४९३ ८०५ साधेति जं महत्थं ४९४ ८०६ साम सबलेहि दोसं ७६३ १७१४ सारीरादो दुक्खादो १९० १४८ सावज्ज संकिलिट्ठो . ३११ ४०२ सा वा हवे विरत्ता २९४ ३४३ साहू जधुत्तचारी १८९ १४६ सिण्हाणभंगुव्वट्ठ २९७ ३५५ सिण्हाणभंगुव्वट्टणेहिं २९७ ३५५ सिदिमारुहित्तु कारण २८६ ३२० सिद्धपुरमुवल्लीणा ४६८ ७४४ सिद्धे जयप्पसिद्ध २६८ २८१ सिंगार तरंगाए ४४१ ६५६ सोंदं उण्हं तण्हं ५६४ १०८६ सीदावेइ विहारं ५६४ १०८७ सीदुण्ह छुहा तण्हा ६०४ ११९० सीदुण्ह दंसमसयादि ६९४ १४८७ सीदुण्हादववाद ६८७ १४५७ सीदेण पुव्व इरियदेवेण ४६१. ७२३ सीलढ्ढगुणहिंदु ७८० १७५० सीलवदीओ सुच्चंति ८२९. १८६१ सीलं वदं गुणो वा ६८९ १४६५ सीह तिमिगिल गिलिदस्स ७२ ३६ सुइपाणएण अणुसट्टि ३३७ ४३२ सुक्कं लेस्समुवगदा ३४१ ४४८ सुक्काए लेस्साए ८०९ १८१६ सुचिए समे विचित्ते ६८३ १४३९ सुचिरमवि णिरदिचारं २४१ २२२ सुचिरंवि संकिलिलैं ५३. ९४३ सुजणो वि होइ लहुओ ५६८ ११०५ ५२३ ९१० २७२ २९३ ३७६ ४९९ ५८६ ११६५ ५७७ ११२७ ७०८ १५४९ ३०६ ३८४ ५४१ ९९२ ४८६ ७८८ ७७३ १७४० ७२७ १६०३ ८५२ १९३९ ८४६ १९१२ ८८९ २०८३ ३६ १५ ८४० १८८५ २९५ ३४७ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० भगवती आराधना सुठुकदाणवि सस्सादीणं सुट्ठवि आवइपत्ता सुठ्ठ वि पिओ मुहुत्तेण सुठ्ठ वि मग्गिज्जतो सुंडय संसग्गीए सुण्णघर गिरिगुहा रुक्ख सुत्तत्थथिरीकरणं सुत्तं गणहरगथिदं सुत्तादो तं सम्म सुदभावणाए णाणं सुदिपाणएण अणुसट्ठि सुद्धणया पुण गाणं सुद्धे सम्मत्ते अविरदो सुबहुस्सुदा वि संता सुबहुस्सुदो वि अवमा सुमरणपुखा चिंतावेगा सुयभत्तीए विसुद्धा सुलहा लोए आदछ सुविहिय अदीदकाले सुविहियमिमं पवयणं सुस्सूसया गुरुण सुहणिक्खवणपवेसण सुहसीलदाए सुहुमं व बादरं वा सुहुमं व बादरं वा सुहुसादा कि मज्झा सुहसीलदाए अलभत्त सुहम किरिएण झाणेण सुहुम किरियं खु तदियं सुहमम्मि कायजोगे सुहुमाए लेस्साए सुंडय संसंग्गीए सूहग्गी डहदि दिवा सूरो तिक्खो मुक्खो पृ० गा० ६८७ १४५५ सूरो तिक्खो मुक्खो ७०३ १५२२ सूलो इव भेत्तुं जे ६६३ १३६४ सेज्जा संथारयं पाणयं च ६२९ १२४८ सेज्जागासणिसेज्जा ५६१ १०७२ सेज्जोवधिसंथारं २४८ २३३ सेदो जायदि सिलेसो १९२ १५१ सेवइ णियादि रक्खइ ६९ ३३ सेवदि णिवादि रक्खदि ६९ ३२ सेवेज्ज वा अकप्पं २२८ ९६ सेसा य हुँति भवा सत्त ३३८ ४३८ सो कदसामाचारी १७ ५ सो कंठोल्लगिदसिलो ४६६ ७३९ सोक्ख अणपाक्खत्ता ४२५ ६१६ सोगस्स सरी वेरस्स ६५५ १३३५ __ सोच्चा सल्लमणत्थं ६७० १३९४ सो णाम बाहिरतओ ८५१ १९३२ सो णिच्छदि मोत्तुं जे ३६९ ४८४ सो तेण पंचमत्ताकालेण ७२२ १५८१ सो तेण विडज्झंतो ७७ ४१ सो दस वि तदो दोसे २७५ ३०२ सोदण उत्तमट्ठस्स ४३३ ६३६ सोदूण किंचि सई ६८. १४४६ सो भिंदइ लोहत्थं ४०९ ५८० सोयइ विलपइ कंदइ ४१० ५८४ सोयदि विलपदी परितप्पदि सोलस तित्थयराणं ८५७ १९४६ ६८५ ११४६ सो सल्लेहिद देहो ८९७ २११४ सो होदि साधु सत्थादु ८३५ १८७३ ८३९ १८८१ हत्थिणापुर गुरुदत्तो ८९६ २११३ हंतूण कसाए इंदियाणि ५६१ १०७२ हदमाकासं मुट्ठीहिं १५८ ८९ हम्मदि मारिज्जदि ५२१ ९०४ हास-भय-लोह-कोहप्प . पृ० गा० ५७८ ११३३ . ५३९ ९८१ ७४८ १६८८ २८० ३०७ ३३५ ४२६ ५५१ १०३६ ५७७ ११२९ ५२३ ९१२ ४४८ ६७७ ९४ ४९ ४३० ६२९ ६५१ १३२३ ६२७ १२४४ ५३८ ९७७ ४५३ ६९६ २५० २३८ ६५१ १३२२ ८९७ २११८ ३३९ ४४० ४१७ ६०८ ४४९ ६८२ ५८० ११४४ ६१६ १२१६ ५८१ ११४९ ५१६ ८७८ ८७५ २०२२ ८८४ २०५९ ६४५ १३०४ ७०९ १५४७ ३८७ ५२६ ७३२ १६२७ ५८० ११४० ५०२ ८२७ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हासोवहासकीडा हिमणिचओ वि व गिहसय हिंस अलियं चोज्जं हिंसादि दोस मगरादि हिंसादो अविरमणं हुंकारंजलि भमुहंगुलीहिं होइ चउत्थं छटुट्ठमाइ होइ णरो णिल्लज्जो होइ सयं पि विसीलो होइ सुतवो य दीवो गाथानुक्रमणिका पृ० गा० ५६४ १०८४ होऊण अरी वि पुणो ७६७ १७२२ होऊण बंमणो सोत्तिओ ६६४ १३६७ होऊण महड्ढीओ ७८७ १७६५ होऊण रिऊ बहुदुक्खकारओ ४८९ ८०० होदि कसाउम्मत्तो ८४३ १८९८ होदि य णरये तिव्वा २३७ २१२ होदि सचवखू वि अचक्खु व ७३६ १६३८ होदु सिहंडी व जडी ५२७ ९२८ होदि य वेस्सो ६८८ १४६१ ९४१ पृ० गा० ७८३ १७५६ ८०५ १८०१ ८०० १७९७ ८०४ १७९९ ६५२ १३२५ ७१२ १५६० ५२२ ९०७ ५०५ ८३८ ६६६ १३७८ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयोदया में आगत पद्यों और वाक्यों की अनुक्रमणी आचेलक्को धम्मो [वृ० कल्पभा० गा० ६३६९] ३२६ आचेलक्को य जो धम्मो [उत्तरा० २३।२९] ३२७ आज्ञापायविपाकविचयाय धर्म्यम् [त० सू० ९।३६ ] आत्मानुभूतान्यपि न स्मरन्ति आदाय नैदाघव शिरःसु आदावणादिजोग अचेलगस्स लूहस्स अचेलगाण लूहस्स अजीव काया धर्माधर्म [त० सू०५/१] अज्झवसिदेण बंध [समय० २६२ ] अज्ञानकाष्ठजनितस्तव अण्णाणगेहगारव अतो न सौख्यं तदिहास्ति अत्ता चेव अहिंसा अत्यल्पमप्यस्य तदस्तु अत्थं कहति अरुहा अनुवृत्ति क्रिया भाषा अन्धश्च पश्यन् बधिरश्च अन्यावज्ञादरातिक्रमाणं अन्येषां यो दुःखमज्ञो अन्योन्यघातार्थमनुप्रयाति अन्योन्यतो मर्त्यजनाच्च अन्योन्यरन्ध्रेक्षणनष्टनिद्रा अदुभाज अहि कादव्वं अब्ध्युपमानितजीवितदेवे अभाषका एकोरुका अ आउगवसेण जीवो आचेलक्के य ठिदो अरसमरूवमगन्धं [ समय ० ४९ गा० ] अलाम्बुपत्तं वा दारुगपत्तं अवग्रहीतुं च तथेहितुं च असदभिधानमनृतम् [त० सू० ७१४] असिषिः कृषिः शिल्पं अह पुण एवं जाणिज्जा [आचारा० ७|४|२०९] मा ३२७ ३२७ ३६ ४९० ६७७ ४२१ ८०३ ४८९ ३५१ ७० ७१५ ७६९ ३४५ ३४५ ७२१ ७२० ७२१ ३८ १९७, ३८५, ३९० ८०२ ४८३ १४ ३२४ ७६९ ४९८ ४८२ ३२५ ५० ३३० आर्त रौद्रधर्म्यशुक्लानि [त० सू० ९१२८] आलोयणा ह दिवसिग इ इदं सद वंदियाणं [ पञ्चास्ति० १] इति सततमपोह्यमान इत्येवमादिः शुभकर्मचिन्ता इत्येवमाद्याः सुगुणा इन्द्रचापतडिदम्बुधराणां इरियं गोयर सुमिणादि ईशितु सुरनृणामयत्नतः उ उच्छ्वसनं श्रमजं नृपतेऽपि उत्क्षिपेयुरवनीं महाबलात् उत्तम संहननस्यैकाग्र [त० सू० ९ ४५ ] उपपत्तिबलादर्थपरिच्छेदो नयः ए एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् [त० सू० ९|५] एकेन्द्रियद्वीन्द्रियतां भवेषु एकान्तदुःखं निरयप्रतिष्ठा एकेन जन्मस्वटता प्रमेयं ७५२ ७१९ ८०१ १०९ ७५४ ३३२ ३ ३४८ ८१७ ७१५ ८०० ३३३ ८०१ ८०२ ८०१ ३९५ उप्पण्णाप्पण्णा [मूलाचार ७।१२५] उवसप्पणी अवसप्पिणी [सर्वार्थ • में उधृत] ७९२ ७५२ १७ ४३९ ७६९ ३५१ ३५१ Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ विजयोदया में आगत पद्यों और वाक्यों की अनुक्रमणी एगधम्मे पवत्ताणं [उत्त०२३३०] ३२७ गोऽजाविकाद्यैः परिमर्घमाना एगेण ताव कप्पेण ३२७ गम्भीरवासिणो पाणा एताः कर्मभुवो ज्ञेयाः ४८२ एत्थ दु उज्जुगभावा । घ्नन्ति छिन्दति भिन्दन्ति एस सुरासुर [प्रव० सा० १] ३ घ्राणं विना गन्धमयो हि . ४२७ ७६९ ८१७ ७१५ ४८३ २९१ ७१९ १३३ कप्पठिदोऽणुकंपी २०३ चर्यामनार्याचरितामधैर्या कप्पठिदो भुंजदि २०४ चारित्तं खलु धम्मो [प्रव० सा० ११७] कप्पठिदं भुंजदि २०४ कम्पनैः कणयैश्चक्र कर्मभूमिषु चक्रास्र छिद्धि भिद्धि तुदाकर्ष कर्मभूमि समुत्पन्नाश्च ४८२ छिन्नैः शिरोभिश्चरणैश्च भग्नै ७१९ कलुषचरितैनष्टज्ञान ७९५ कसिणाइंवत्थ कंबलाई [निशीथ] ३३४ जदि सुद्धस्स य बंधो ४९० काओतिक भूदिकम्मे ८५५ जम्हा विणेदि कम्म १४३ काकिण्यामपि गणयन् ३५० जात्या मतो यः कुलाद्वापि ३४५ काये पातिनि का रक्षा जात्यन्धमूका बधिराश्च बाला काष्ठमग्निमनिलं जलं ६२१ जादं सयं समत्तं [प्रव० सा० ११५९] काष्ठशैलशिलारूप ७११ जीवाजीवास्रवबन्ध [त० सू० ११४] किं दर्पणेनावृतलोचनस्य ७६८ जीवान्न हन्यां न मृषा वदेयं ८१६ कुर्यान्न तन्मदगजोधृतदत्तवेगः ७९९ जे णित्थ हु लघुसिगा ३३१ कुलं च रूपं च यशश्च ८८८ ज्योतिर्विभूषान् गगनप्रवेशान् ज्य ८०१ कोऽधिकारः सुकुलेषु ६१९ क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः ठावणिओ आयरिय ३३२ क्षुधाभिभूतस्य हि ३५२ खमणो याणेसणो ण कहेज्जो धम्मकहं खंती मद्दव अज्जव णग्गस्स मुंडस्स य [दवै०]] ३२७ ण सिण्हायंति तम्हा ते ४१९ गइ इंदिये च काये [मूला० ११९७] । १८ ण मे णिवारणं ३२७ गदिमधिगदस्स देहो [पञ्चास्ति० १२९] १३७ णाकण अब्भुवेच्च ३३० गर्भकृतामपि ते दुरवस्था णाण सणचरित्त गारत्थी अण्णतिथि २०४ णाणी कम्मस्स खयत्थ ४९० गीतवाद्यततितूर्यनिनादै - ८०० णिद्द व बहु मण्णेज्ज २७७ गुणैरनेकैरपि संयुतां स्त्रियं ८०४ णिरयादि जहण्णादिसु [बा• अणु० २८] ७८८ गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा [त० सू० ९।२] १२५ णेहुत्तुपिदगत्तस्स [मूलाचार० २३६] ७१० २९९ ३३२ الله الل له لم لم ه الله الله ८६ Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४४ भगवती आराधना दृष्टः क्वचित्प्रवररत्नविभूषणो ६२२ ९९, १८१ दृष्टाः क्वचित्सुरमनुष्यगणप्रधानाः ७९९ ३२४ दृष्टान्तसिद्धावुभयोविवादे [स्व० स्तो० ५४] ४१ ३५१ दृष्टु हितं श्रोतुमथेहितं च ७६९ १४९ द्विधेह बुद्धि प्रवदन्ति ७६८ ३४८ ७१९ ७५४ १०६ तत्त्वार्थश्रद्धानं [त०सू० १२] तत्थ एसे हिरिमणे तत्र कजीवः सखभागमेकं तत्स्थैयाथं भावना तिसू० ७.३] तत्सेवा यदि न स्यान्न तथा प्रकारो विकलेन्द्रियाणां तथा प्रकारैरन्यैश्च तथेह सर्व परिचिन्त्यमानं तदविरतदेशविरत [त सू० ९।३४] तद्भावः परिणामः [त सू० ५।४२] तमःप्रवेशोऽम्भसि मज्जनं तस्मिन् स्वदेहे परिबाध्यमाने तानपि चासु पतेत् क्षुदनिष्ठा तालेदि दलेदित्ति व तलेव [कल्प०] तिष्ठ दासेव हन्ति त्वां तीर्थादवाप्तं श्रुतमस्ति यस्य तेऽवधिना विधिना बहु तैस्तैः प्रकारैः सततं समन्ता त्यागाद्भोगादेव समुत्थं त्रिलोकमल्लाः ३४६ ७२० ४२० न केवलं ते परलोक २७१ ७१५ न खु तिविधं तिविधेण १६० ३५२ नग्नः प्रेत इवाविष्ट: ६२८ न नेच्छति द्वष्टि न ८२१ न वाञ्छति श्रोतुमिहादरेण ८२० ৩৩০ न सेवितुं रागवशेन वाञ्छति ८२१ नान्तर्गतोऽथ न बहि ३५४ ८०२ नारकास्तत्र तेऽन्योन्यं ७१५ ५७३ नालं विशालं नयनं तृतीयं ७७० ७१६ निमज्यमाना उदबिन्दुनापि ७१९ ७६८ निरीक्ष्य न द्वेष्टि ८०३ निशम्य न द्वष्टि यदृच्छयापि ८२० निषेव्य न द्वेष्टि यदृच्छयापि ८०४ निषेव्य न द्वेष्टि यदृच्छयापि ८२० निषेवितुरागवशेन कांक्षति ८२० नृपश्च दासः श्वपश्च विप्रो ६१९ २०४ ७७६ पडिकमणं गदिय ३३२ ४२१ पडिलेखं पात्रकंबलं ३२३ ३४८ पडिलेहण पादपुंछन [आचा० २।५] ३२३ पढमम्मि सव्वजीवा [आव० सूगा० ९१] ३३० ८०१ परमचिय विगलिंदिय १५४ - परिचत्तेसु वत्थेसु ३२६ ३५० पावकाचलमुरन् वनावनी ८०१ १६० पासत्थो सच्छदो . ८०१ पित्तप्रकोपेन विदह्यमाने ३५२ ८१५ पीठिका संदपल्यंके ४९ पुण्यास्रवं सा त्रिविधानुकम्पा ७२१ पुरग्रामादयो यत्र ४८३ २७१ १३४ दठूण व सोदूण दत्वा द्यावापृथिव्यो दप्प पमाद अणाभोग दर्शनमात्रमपि सतां दानेन तिष्ठन्ति दिव्यवीर्यबलविक्रमायुषो दुउणदं जहाजादं [मूला० ७१०४] दुर्जेयो भवति नरेण दुविधं पुण तिविहेण दूरमप्यतिपतन्ति लाघवात् देशप्रवृत्तिर्गृहिणामकृत्स्नात् देहो भवोत्ति वुच्चदि दंदह्यमानाश्च दवाग्निवेगैः ४१९ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४५ ८०२ ७१५ ९ ३५१ ३५२ ३५० ३५२ اس س ال ३४५ اس २९० ام w_MAA विजयोदया में आगत पद्यों और वाक्यों की अनुक्रमणी पुव्वगहिदं पि णाणं १३९ माल्यर्गन्धः सुखमनुलिप्ता पृथिव्यप्तेजो ___ ५ मिथ्यादर्शनाविरति [त.सू० ८।१] पृष्टोऽप्यन्यै ३४५ मुष्टिभिर्यष्टिभिर्लोष्ठः पंचवदाणि जदीणं १५९ मूत्रपथादशुचेरतिदुःखं प्रपाल्य संयमं यत्र ४८२ मृगपासनमस्तकोप प्रपीयमानेऽम्बुनि पातितो ८०३ मृत्युकृतं च विचिन्त्य प्रबन्धे पातयाम्येनं ७१६ प्रमत्तयोगात् प्राणव्य [त सू० ७१३] ६०५ यच्चापदः सौख्यमितीष्यतेऽत्र प्रमादलोपार्थमतो नरेभ्यो यतश्च नकान्तसुखप्रदानि प्रमीयते ह्यम्बु तृषाप्रशान्त्य यत्पापे भृशमहिते करोति प्रविकाशय वक्त्रपङ्कजानि ८०० यत्र नार्यो नराश्चैव प्रविश्य जन्मोदधिमध्यमेवं ७२० प्राणभृतामिह मध्यमलोकैः यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् ८०२ यत्सरसौख्यमनाप्य विभावे प्राप्नोत्युपात्तादिह प्राय इत्युच्यते लोक यथाणुकेशोपहतेऽपि भोजने यथा न भायाच्चलमौलिमालो यथाहमचेली फुल्लपङ्कजसमैरथ हस्तै यदि सन्ति गुणास्तस्य यदशादिप्रहतैर्गजाश्च बन्धः को वा कोऽथवा ३४६ यद्येकदेहवहने लभतेऽपवाद बलायुषी रूपगुणाश्च ३४६ यस्य गुणस्य भावाद् बुद्धि तव विगुव्व ७० येषां न माता न पिता यस्तु प्राप्याप्यु भवेष्वनन्तेषु सुखे तथापि ३५१ यः सहसा भयमभ्युपायि भूदीय व धूलीयं वा ८५५ भूत्वामुलस्यासंख्येय ४२३ भूत्वाऽयं सुन्दरतरोपि रत्तो वा दुट्ठो वा ३५० रूपरसगन्ध भूत्वा मनुष्यपतयः रोगजरादिविकलत्वविहीना रोषेण मानेन च मायया च मज्जयंती जलीभूय ७१६ मतिः स्मृतिः संज्ञा [त०सू० १११३] ३७८ मत्यायुतानामलमेतदेव ७२१ लिङ्गं गृहीत्वा महतामृषीणां लोको नाऽयं नापरो नापि चात्मा मद्यतूर्याम्बराहार ૪૮૨ महागुहा भीमतमः प्रवेशात् ७७० मात्रावियोगेऽपि सतीह ७२० वने मृगास्तोयतृणप्रपुष्टाः मा भैष्ट मा भूत्तव दुःखजातं ७२० वने मृगेभ्यः पिशिताशनेभ्यो ३२६ ३०१ ७२१ ७९९ ७२० ३४५ ८०३ ४८९ २२ ८०३ ८१६ ८१७ ३४६ ७२१ ७२१ Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१९ ८०० . ७९१ ३५४ ८०२ २७४ ३४८ ६१९ ३४९ ३४८ श ९४६ भगवती आराधना वराङ्गनाङ्गानि व रागचोदितो ८२० सर्वोपसर्गानिह मोक्षकामा वरिसं चीवरधारी [भावना] ३२४ सर्वतश्च विमलाम्बर वर्ण ववहारे सम्मत्ते ६१ सव्वम्मि लोगखित्ते [ वा० अणु० २६ ] वातपित्तकफजैः परिमुक्तं ८०० संघातजं प्रशिथिलास्थि वायुप्रकोपजनितैः कफपित्तजैश्व ३५४ संपूर्याशाः स्वसुरभिगन्धे विघ्नकरणमन्तरायस्य [त. सू० ६।२७] २ संवासवेदणोपाद वियोजिता आत्मसुतैश्च बाल १२१ संसारोच्छेदकरी विरदी सावगवग्गं च ३३० संसारवासे भ्रमतो हि विषयसुखप्रतिबद्धलोलचित्तो ८१२ साधूनां शिवगतिमार्ग विषया जनितेन्द्रियोत्सवा ८१२ साधूपसेवनं यदि सिद्धं सिद्धढाणं [ सन्मति० ११ ] शङ्काकांक्षा विचिकित्सा [त० स० ७।२३) ३८ सुखेनैवं जीवन्तो शत्रुमित्रमुदासीन ७१५ सुदृष्टयो वापि कुदृष्टयो वा शरीरसौख्याय न यश्च सेवते ८२१ सुदुर्लभं मानुषजन्म - शीतापनुत्प्रावरणं च दृष्ट ३५२ सुहमा सन्ति पाणा शीते निवातं सलिलादि ७१९ सूक्ष्मैः शरीरैरपि ते शुक्र सिंघाणक श्लेष्म ४८२ सेसे पुण तित्थयरे [प्रव० सा० १।२] शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः [त. सू० ९।३७] १३७ सोलसविधमुद्दशं [कल्प.] शुभं न जिघ्रासति ८२० सौख्यं वांछन्नात्मनो श्रवणविकलो वाग्धीनोज्ञो स्तनंधयान्स्वानपि भक्षयन्तः श्रेयोऽर्थिना हि जिनशासन [वराङ्ग १११३) ३९० स्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य [शृ०श०] श्रेयाः कथं न यतयो ३४८ स्थानश्रमस्यौषधमासनं च श्वशृगालवृकव्याघ्र ७१५ स्वबुद्धिमात्रामपि स्वभावपापाः कुकवीरिताभिः सचेलगो सुखी होदि ३२६ स्वाभाविकी यस्य मतिविशुद्धा सद्दादिसु वि पवित्ती ३३३ स्वर्गश्च मोक्षश्च मयोपदिष्टा समणं वंदेज्ज मेधावी ३६७ समुद्रद्वीपमध्यस्था ४८३ हयकर्णा गजकर्णा सम्मत्त णाण दंसण[ ] हरिततणोसहिगुच्छा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि [ त० सू० ११ ]३६७ ।। हिरिमणे वा जुग्गिदे सम्यग्दृष्टि श्रावक विरता [त० सू० ९।४५] ४७ हिरि हेतुकं व होइ सरः प्रविश्येह यथा नरः ७२० हिंसानृतस्तेयविषय [त सू० ९.३५] ७२० ३२७ ७९५ ७२० ३४७ ३५२ ७६९ ७२१ ७६८ ८२८ १५ ४८३ ५७३ ३२८ ३२५ ७५४ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रमणी १५२ ५,८५८ २४६ १९७ २३७ ४७१ ८६ १९ २४७ ८५५ २३६ आगमभाव सामायिक आगमभाव सिद्ध आगमभाव अर्हन् आगमभाव नमस्कार आचार्य आजीव (दोष) आजीव कुशील (मुनि) आज्ञाविचय आदान निक्षेप समिति आद्यन्तमरण आधा कर्म आलोचना आवीचिमरण आसुरी भावना ०९ ७५८ ८१ २४६ ५३ २४५ ५३ ७५८ ११३ २२३ २४५ अच्छेज्ज ( दोष) अथालन्द विधि अद्धानशन अद्धायु अनशन अनशन के भेद अनभिगृहीत मिथ्यात्व अनायतन अनिसृष्ट (दोष) अनुभवावीचिकामरण अपायविचय (ध्यान) अपवादिक लिंग अप्रशस्त राग अब्भोवब्भ (दोष) अभिगृहीत मिथ्यात्व अभिन्न दसपूर्वी अभियोग्य भावना अभ्याहिड (दोष) अर्थशुद्धि अर्हन्त अवर्णवाद अवधिमरण अवमोदर्य सन्न (मुनि) आ आक्षेपणी कथा आगमद्रव्य नमस्कार आगमद्रव्य प्रतिक्रमण आगमद्रव्य सिद्ध आगमद्रव्य अर्हन आगमभाव नमस्कार आगमभाव प्रतिक्रमण २४८ ८७६ १४७ १५८ ५३ १६२ १६२ इंगाल (दोष) इंगिनी मरण इन्द्रिय २२३ २४६ ईर्यासमिति १४५ उत्तर गुणप्रत्याख्यान उत्थित निषण्ण ( कायोत्सर्ग) १९, २३७ उत्थितोत्थित ( कायोत्सर्ग) ८५३ उद्गम दोष उद्देसिग ४४० उत्पादन दोष ४७० उद्भिन्न ( दोष) उद्यवन उद्योतन ८४ उन्मिश्र दोष ४७१ उपकरणवकुश १५६ उपाध्याय २४५ २४५ २४६ २४६ २४८ ८५४ ८६ Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४८ भगवती आराधना प० उभय शुद्धि उपमा सत्य उवसंपा समाचार २०१ ३८० ३७,१४७ एकत्व वितर्क अवीचार एकत्व भावना एकान्त मिथ्यात्व एषणा समिति ८६,३७९ २४७ ओसण्ण मरण पृ० १४५ ग ६०२ गच्छ प्रतिबद्ध अथालन्दक गिद्धपुट्ठ मरण गुप्ति ८३७ ८३४ चारित्र ४६ चारित्राचार ६०४ चिकित्सा दोष चैत्य अवर्णवाद चैत्य वर्ण जनन च्यावित . ११३ च्युत ( शरीर ) ६७ छेद (प्रायश्चित्त) ५५ जनपद सत्य जिन कल्प जिन वचन जीवाधिकरण ज्ञायक शरीर अर्हन्नाम १५५ ज्ञानाचार ३५७ ८८ ४७१ ४७० औत्सर्गिक लिंग औपशमिक सम्यक्त्व २०५ २२२ १४७ १९,२४२ ४९४ ८४ ~ ८६,३१९ 10 १५८ ठविद १४१ कक्व कुशील कन्दर्प भावना कषाय कायक्लेश कायगुप्ति कायोत्सर्ग काल प्रतिक्रमण काल प्रतिसेवना काल प्रत्याख्यान काल संसार किल्विष भावना कुशील मुनि कुहन कुशील कौतुक कुशील (मुनि) क्षायिक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व क्षेत्र प्रतिक्रमण क्षेत्र प्रतिसेवना क्षेत्र प्रत्याख्यान क्षेत्र संसार ३४२,७९१ २२२ तद्भव मरण ८५४ तद्वयतिरिक्त द्रव्याहन ८५५ तपाचार ८५४ त्यक्त (शरीर) ८४ ८६, ३१९ ४७१ ६७ दर्शनाचार १५५ दायक दोष १५६ दूत कर्म दोष १५८ देह बकुश ३४२,७९० द्रव्य क्रीत २४८ २४७ ८४४ २४६ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिकशब्दानुक्रमणी पृ० द्रव्य पूजा द्रव्य प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिसेवना द्रव्य प्रत्याख्यान द्रव्य प्राण द्रव्य शल्य द्रव्य श्रिति द्रव्य संसार धर्म धर्म अवर्ण वाद धर्म वर्ण जनन धर्मानुकम्पा धर्मध्यान धात्रोदोष धूम दोष धृतिबल भावना २४८ ८७. निस्तरण नो आगम द्रव्य नमस्कार ४७० नो आगम द्रव्य व्यतिरिक्त कर्म प्रतिक्रमण १५६ नो आगम द्रव्य प्रतिक्रमण १५६ नो आगम द्रव्य तद्वयतिरक्त कर्मसामायिक १५३ ३९४ नो आगरा नो आगम द्रव्य सामायिक १५३ २१७. नो आगम द्रव्य सिद्ध ५,८५ ३४१,७८९ नो आगम भाव चतुर्विंशतिस्तव , १५४ नो आगम भाव नमस्कार नो आगम भाव प्रतिक्रमण १५६ नो आगम भाव सामायिक १५३ नो आगम भाव सिद्ध ८१४ ७६९ पण्डित मरण २४७ परियट्ट २,२४६ २०१ . परिहार संयम विधि २३४ पादुकार २४६ पादोपगमन मरण पार्श्वस्थमुनि ८५४ ४७० पाहुडिंग २४६ पामिच्छ (दोष) २४६ १५७ प्रायोग्यगमन मरण ६०१ पिहिता (दोष) २४८ १५३ पूतिक (दोष) २४५ ४,८४ पृथक्त्व वितर्कवीचार ८३५ २४८ प्रतिक्रमण २०, ३०, १५५, १५७ प्रतिष्ठापना समिति ६०५ २४७ प्रतीत्यसत्य ६०१ ८५५ प्रत्याख्यान १५७ प्रदेश वीचिकामरण ३३ प्रपातन कुशील ८५५ ४४० प्रयोग विनय १५५ प्रमाणातिरेक दोष २४८ १६३ प्रवचन माता ८३ १५५ नाम अर्हन् नाम नमस्कार नाम प्रतिक्रमण नाम प्रत्याख्यान नाम सत्य नाम सामायिक नाम सिद्ध निक्षिप्ता ( बसति) निदान निमित्त दोष निमित्त कुशील निर्वहण निर्वाण निर्वेजनी कथा निःशल्य निषण्ण-निषण्ण ( कायोत्सर्ग) ५३ ६०७ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५० भगवती आराधना पृ० प्रशस्तराग प्रसेनिका कुशील ९५ ८५५ __ यथाच्छन्द मुनि योग ४४ बलायमरण बाल पण्डितमरण बाल मरण ५७ रस परित्याग ३ रूपसत्य १९, २३८ ६०१ ५९५ २४७ १५४ २४६ ५७ भक्त प्रत्याख्यान भक्ति भव संसार भवायु भाव क्रीत भाव पूजा भाव प्रत्याख्यान भाव प्राण भाव शल्य भाव श्रिति भाव सत्य भाव संसार भावि प्रतिक्रमण भावि सामायिक भावि सिद्ध भाषा समिति भूति कुशील (मुनि) ४४० २०, ३० ४७ ७५८ २०, २४४ २७ २१४ १५६ विकार १५८ वचन गुप्ति ८७ वणिगवा दोष ३४२ वन्दना ४९ वर्ण जनन वसट्टमरण ८७ विक्षेपणी कथा १५८ विनय विपरीत मिथ्यात्व ३९४ विपाक विचय २१७ विप्पाणस मरण ६०१ विविक्त शय्यासन ३४१, ७९२ विवेक विवेक (के भेद) १५३ वीतरागसम्यग्दर्शन ५, ८५ वीर्याचार ६०० वृत्तिपरिसंख्यान वैयावृत्य व्यञ्जनशुद्धि व्यवहार सत्य २४६ २४५ शङ्कित दोष ८१५ शुद्धनय २७ श्रुत २४७ श्रुत अवर्णवाद १५८ श्रुत भावना २४७ श्रुत वर्णजनन ८६, ३१९ १९, २४० १४४ ६०१ ५९५ २४७ मनोगुप्ति मालारोह मिश्र (दोष) मिश्रानुकम्पा मूल (प्रायश्चित्त) मूल कर्म दोष मूल गुण प्रत्याख्यान म्रक्षित दोष Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिकशब्दानुक्रमणी प० 3 ५५ १९३ २४८ ९२ १५०, १५५ संभावनासत्य संमूर्छनाकुशील संमोह भावना संयोजना संवेजनी कथा संशय मिथ्यात्व संसक्त (मुनि) संस्तव दोष संस्थान विचय सत्त्वभावना समिति सम्मति सत्य सराग सम्यक्त्व सर्वानशन सर्वानुकम्पा सर्वावधिमरण सशल्यमरण ८५५ सामाचारी २२४ साहारण दोष ४९५ साधु अवर्णवाद ४४१ साधु वर्णजनन ४७. सामायिक ८५६ सिद्ध अवर्णवाद २४७ सिद्ध वर्णजनन ७५८ सूक्ष्मक्रिय ध्यान २३१ स्थापना प्रतिक्रमण ३७, १४८ स्थापना प्रत्याख्यान ६०१ स्थापना सत्य ९६ स्थापना सिद्ध २३७ स्थापना सामायिक ६१४ स्वाध्याय ८८ ८३८ १५५ १५८ ६०१ ५, ८४ १५३ १७८ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धि-शुद्धि पत्रक पृ० पं० अशुद्धि शुद्धि पृ० पं० अशुद्धि शुद्धि २ १० रस प्रकषः रस प्रकर्षः ४४९ ८ जत्थ जस्स ७ ४ चर्चितमि चचितमिति ४५० १० तेल्लकायादसीहिं तेल्लकसायादीहिं १० २ चरितमि चरित्तंमि ४६८ २ शीलं सीलं १४ १३ ज्ञानभे ज्ञानभेदे ४९६ १४ तस्मान्दि तस्मादि ४७ १० वस्तुस्वरूपाव- वस्तुस्वरूपानव ५०२ १ कक्कस्स कक्कस ५९ ११ गिद्धतुट्ठ गिद्धपुट्ट ५३७ ११ दिट्टंपि दिटुंपि ण ७२ ६ आकशं आकाशं ५६५ १ इंदियकसय । इंदियकसाय १६७ ४ इच्चेवमानि इच्चेबसादि ६०६ ७ पडते पडते १६७ ८ पूयावयण पूयावयणं ६२८ १२ स्वनन्निवि स्वनन्निव १७१ ४ आयारजीव आयारजीद ६३३ ९ अज्झपरदी अज्झप्परदी २५५ १४ लाघव लाघवं ६४७ ७ मरु २९८ ३ वासत्थ पासत्थ ६७१ १३ आइद्ध आबद्ध ३०० १० संतो संता ६९९ १ कडुबं ३०४ १ वरस्स परस्स ७१६ ९ पातयाप्येनं पातयाम्येनं ३१३ १७ सल्ल उद्धारदु सल्लं उद्धरिदु । ७२३ १५ जंते जं ते ३२६ ८ उपसर्गस उपसर्गः स ७३८ ११ पुणरिव पुणरवि ३६० २ किलामिदंगो गिलामिदंगो ७४१ १ णिमिसेण णिमेसण ३७७ ११ मइसपण्णो मइसंपण्णो ७८३ १२ कोह कोइ ३९२ ८ आघेण ओघेण ८६९ ७ भयवंतो भयवंता ४०२ १० किरियम्म किरियम्म ३ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६४४४.४ १३ तुरु * . . . . . . * • कडुगं Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________