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भगवती आराधना चारित्रतः । सर्वतीर्थेषु तीर्थतः । जन्मना त्रिंशद्वर्षाः । श्रामण्यतः एकानविंशतिवर्षाः । नवदशपूर्वधारिणः । तेजःपद्मशुक्ललेश्याः । धर्मशुक्लध्यानाः । प्रथमसंहननाः, षट्स्वन्यतरसंस्थानाः । सप्तहस्तादिपञ्चधनुःशतायामाः । भिन्नमुहूर्तादिन्यूना पूर्वकोटिः कालः । विक्रियाहारकचारणताक्षीरास्रावित्वादिकाश्च तपसा लब्धयो जायन्ते । विरागास्तु न सेवन्ते । अवधिमनःपर्ययं केवलं वा प्राप्नुवन्ति केचित् । ये केवलिनस्ते नियमतः सिध्यन्ति ।।१५७॥ एवमथालन्दादिकं प्रतिपद्य चारित्रविधि मयोत्साहः कर्तव्यः इति विचारयति
एवं विचारयित्ता सदिमाहप्पे य आउगे असदि ।
अणिमूहिंदबलविरिओ कुणदि मदिं भत्तवोसरणे ॥१५८|| _ 'एवं विचारयित्ता' एवमुक्तेन प्रकारेण । “विचारयित्ता' विचार्य । 'सदिमाहप्पे य' स्मृतिमाहात्म्ये च सति । 'आउगे असदि' आयुष्यसति दीर्घ । 'अणिगूहिदबलाविरिओ' असंवृतबलसहायं वीर्य आहारव्यायामाम्यां कृतं बलं । 'कुणई' करोति । 'मह' मति । 'भत्तवोसरणे' भज्यते सेव्यते इति भक्तं आहारः। तस्य त्यागं आहारेण समयसाधनेन शरीरस्थिति चिरं कृत्वा स्वपरोपकारः कृतः । आयुष्यल्पे न शरीरमवस्थातुमलमाहारग्रहणेऽपि । तेन त्याज्यो मयाहारः इति भावोऽस्य । अत एव सूत्रकारेणेदमुक्तं 'दोहो परियाओं' इति । अवशिष्टकालाल्पताख्यापनाय न केवलमायुषोऽल्पता एव भक्तत्यागमतेः कारणं, अपि तु अन्यदपीति ॥१५८॥
होते हैं । सामायिक अथवा छेदोपस्थापना चारित्रवाले है । सब तीर्थङ्करोंके तीर्थमें होते हैं । जन्मसे तीस वर्ष और मुनिपदसे उन्नीस वर्षके होते हैं। नव-दस पूर्वके धारी होते हैं। तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले होते हैं। धर्मध्यानी और शुक्लध्यानी होते हैं। प्रथम संहनन होता है और छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान होता है। सात हाथसे लेकर पांच सौ धनुष तक लम्बे होते हैं । अन्तमुहूर्त आदिसे न्यून एक पूर्वकोटिकाल होता है। तपसे विक्रिया, आहारक, चारण और क्षीरास्रवित्व आदि लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं किन्तु विरागी होनेसे उनका सेवन नहीं करते। कोई-कोई अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानको प्राप्त करते हैं। जो केवलज्ञानी होते हैं वे नियमसे मोक्ष जाते हैं ॥१५७॥
इस प्रकार अथालंदिक आदि चारित्रकी विधिको धारण करके मुझे उत्साह करना चाहिए, ऐसा विचार करते हैं
गा०—उक्त प्रकारसे विचार करके स्मृतिका माहात्म्य होनेपर और आयुके अल्प होने पर अपने बल और वीर्यको न छिपाता हुआ मुनि भक्त प्रत्याख्यानमें मति करता है ॥१५८।।
टी०-उक्त प्रकारसे विचार करके स्मृतिका माहात्म्य होने पर आयुके लम्बा न होने पर बल और वीर्यको न छिपाता हुआ भक्त प्रत्याख्यानमें मति करता है । आहार और व्यायामसे जो शारीरिक शक्ति होती है उसे बल कहते हैं । और बलका सहायक वीर्य होता है । 'भज्यते' अर्थात् जो सेवन किया जाता है उसे भक्त कहते है उसका अर्थ आहार है उसका त्याग भक्त प्रत्याख्यान है। आहारके द्वारा शरीरकी स्थितिको लम्बी करके अपना और परका उपकार किया। आयुके थोड़ा रह जाने पर आहार ग्रहण करने पर भी शरीर नहीं ठहरता। अतः मैं आहारका त्याग करता हूं यह इसका भाव है। इसीसे ग्रन्थकारने शेष बचे कालकी अल्पता बतलानेके लिए 'दीहो परियाओ'
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