SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका पुव्वुत्ताणण्णदरे सल्लेहणकारणे समुप्पण्णे | तह चैव करिज्ज मदिं भतपइण्णाए णिच्छयदो ॥ १५९ ॥ 'पुवृत्ताणण्णवरे' पूर्वमुक्तानां 'वाहीव दुप्पसज्झा' इत्यादीनां मध्ये अन्यतरस्मिन् । 'सल्लेहणकारणे' सम्यक् कायकषायतनूकरणं सल्लेखना तस्याः कारणे वा । 'समुप्पण्णे' समुपस्थिते । 'तह चेव' तथैव च । यथाप. आयुषि करोति भक्तत्यागे मति तथैव णिच्छयवो भत्तपइण्णाए मदि करेज्ज' निश्चयतो भक्तप्रत्याख्याने मतिं कुर्यात् । एतद्गाथाद्वयं सूत्रकारवचनम् ॥१५९॥ आराधकस्य मनःप्रणिधानं प्रदर्शयति जाव य सुदी ण णस्सदि जाव य जोगा ण मे पराहीणा । जाय सड्ढा जायदि इंदियजोगा अपरिहीणा ॥ १६० ॥ २०७ 'जाव य सुई ण णस्सदि' यावत्स्मृतिर्न नश्यति । रत्नत्रयाराधनगोचरा अनुभूतविषयग्राहिणी तदित्थंभूतमिति प्रवर्तमाना स्मृतिरित्युच्यते मतिविज्ञानविकल्पः । वस्तुयाथात्म्यश्रद्धानं दर्शनं तद्याथात्म्यावगमो ज्ञानं, समता चारित्रमिति । श्रुतेनावगते परिणामत्रये यदुपजायते स्मार्तं ज्ञानं तदिह स्मृतिरित्युच्यते । स्मृतिमूलो व्यवहारः स्मृतौ नष्टायां न स्यादिति, स्मृतिसद्भावकाल एव प्रारभ्या मया सल्लेखनेति चिन्त्यम् । 'जाव य' कहा है । भक्त त्यागकी मति होनेका कारण केवल आयुका कम रह जाना ही नहीं हैं किन्तु अन्य भी कारण हैं ।। १५८ ॥ विशेषार्थ - स्मृति माहात्म्यसे आशय है - जिनागमके रहस्यका उपदेश सुननेसे जो उसका संस्कार रहा, उसके प्रभावसे 'मैं मरते समय अवश्य विधिपूर्वक सल्लेखना करूंगा' ऐसा जो विचार किया था, उसका स्मरण भी भक्त प्रत्याख्यानका कारण होता है । गा० ० - पहले कहे गये कारणों में से किसी एक सल्लेखना के कारणके उपस्थित होने पर उसी प्रकार निश्चयसे भक्त प्रत्याख्यानमें मति करे || १५९ ॥ टी० – पहले सल्लेखनाके जो कारण 'असाध्य बीमारी' आदि कहे हैं उनमें से किसी एक कारणके उपस्थित होने पर भी वैसे ही भक्त प्रत्याख्यानका विचार करना चाहिए जैसा आयुके अल्प रहने पर किया है ॥ १५९ ॥ आराधकके मनकी दृढ़ता बतलाते हैं गा०-- जब तक स्मृति नष्ट नहीं होती, जब तक मेरे आतापन आदि योग पराधीन नहीं होते, जब तक श्रद्धा रहतो है, इन्द्रियोंका अपने विषयोंसे सम्बन्ध हीन नहीं होता ॥ १६०॥ टी० - पहले अनुभव में आये विषयको ग्रहण करने वाली और 'वह वस्तु' इस प्रकार प्रवृत्ति वाली स्मृति होती है । यह मतिज्ञानका विकल्प है । यहाँ रत्नत्रयकी आराधना विषयक स्मृति ग्रहण की है । वस्तु यथार्थ स्वरूपके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं और उसके यथार्थ स्वरूपके जाननेको ज्ञान कहते हैं । तथा समताको चारित्र कहते हैं । श्रुतके द्वारा जाने गये रत्नत्रय रूप परिणाममें जो स्मृतिज्ञान होता है उसे यहाँ स्मृति कहा है । व्यवहारका मूल स्मृति है । स्मृतिके नष्ट होने पर व्यवहार नहीं होता । अतः स्मृतिके रहते हुए कालमें ही मुझे सल्लेखना प्रारम्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy