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________________ २०८ भगवती आराधना यावच्च । 'जोगा' योगाः आतापनादयः । 'ण मे पराहीणा' न मे परायत्ताः शक्तिवैकल्यात । विचित्रेण तपसा निर्जरां विपुलां कर्तुकामस्य मम तपोऽतिचारे सा न भवतीति यावन्निरतिचारं इदं तपस्तावत्सल्लेखनां करोमीति कार्यां चिन्ता । 'जाव य सड्ढा जायदि' यावच्छ्रद्धा जायते रत्नत्रयमाराधयितुं । 'तावखमं मे काउमिति' वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । उपशमकालकरणलब्धयो हि दुर्लभाः प्राणिनां सुहृदो विद्वान्स इव । मूलं ताः श्रद्धायाः, न च विनष्टा सा पुनर्लभ्यते । न च तामन्तरेणातिशयवतामाहारत्यागेः सुखेन संपाद्यते । 'इंदियनोगा' इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां रूपादिभिविषयैः सम्वद्धा 'अपरिहोणा' होना न भवन्ति । दृक्श्रोत्रेन्द्रियाणामपाटवे दर्शनश्रवणाभ्यां परिहार्योऽसंयमः कथं परिह्रियते । दृष्ट्वा श्रुत्वा स इदमयोग्यमिति वेत्ति नान्यथा ।।१६०।। जाव य खेमसुभिक्खं आयरिया जाव णिज्जवणजोग्गा । अत्थि ति गारवरहिदा णाणचरणदंसणविसुद्धा ॥१६१॥ 'जाव य खेमसुभिक्खं' यावच्च क्षेमसुभिक्षं, स्वचक्रोपद्रवस्य व्याधेर्माश्चिाभावः क्षेम इत्युच्यते । प्रचुरधान्यता सुभिक्षत्वम् । एतदुभयमन्तरेण दुर्लभा निर्यापकाः, तानन्तरेण चतुष्काराधना । 'आयरिया जाव' आचार्या यावत् 'अत्थि' सन्ति । कीदग्भूता 'णिज्जवणजोगा' निर्यापकत्वयोग्याः । 'तिगारवरहिदा' गारवत्रयरहिताः ऋद्धिरससातगुरुकाः ये न भवन्ति । ऋद्धिप्रियो ह्यसंयतमपि जनं निर्यापकत्वेन स्थापयति । स्वयं च नासंयमभोरुर्भवति । असंयमकारणं अनुमननं च न परिहरतीति । रसासातगुरुको क्लेशासही आराध करनी चाहिए ऐसा विचार करे । जब तक मेरे आतापन आदि योग शक्तिकी कमीसे पराधीन नहीं होते । मैं अनेक प्रकारके तपसे बहुत निर्जरा करना चाहता हूँ किन्तु तपमें दोष लगने पर बहुत निर्जरा नहीं हो सकती । इसलिए जब तक तप निरतिचार है तब तक सल्लेखना कर लेना चाहिए, ऐसी चिन्ता करना उचित है । जब तक श्रद्धा रत्नत्रयकी आराधना करनेकी है 'तब तक मैं करने में समर्थ हूँ ऐसा आगे कहेंगे, उसके साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए। जैसे विद्वान् मित्र दुर्लभ हैं वैसे ही प्राणियोंको उपशमलब्धि, काललब्धि और करणलब्धि दुर्लभ हैं। वे लब्धियाँ श्रद्धाका मूल हैं। एक बार उस श्रद्धाके नष्ट हो जाने पर उसका पूनः प्राप्त होना दुर्लभ है। श्रद्धाके बिना अतिशय शालियोंका भी आहारत्याग सुखपूर्वक सम्पन्न नहीं होता। चक्षु आदि इन्द्रियोंका रूपादि विषयोंके साथ सम्बन्धको इन्द्रिययोग कहते हैं। वे जब तक हीन नहीं होते, चक्षु और कर्ण इन्द्रियके अपने विषयको ग्रहण करने में असमर्थ होने पर देखने और सुननेसे दूर होने वाला असंयम कैसे दूर किया जा सकता है। देख और सुनकर 'यह अयोग्य है' ऐसा ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं होता ॥१६०।। . गा०-जब तक क्षेम और सुभिक्ष है, जब तक आचार्य निर्यापकत्वके योग्य तीन गारवोंसे रहित निर्मल ज्ञान चारित्र और दर्शनवाले हैं ॥१६॥ ___टो०-जब तक क्षेम और सुभिक्ष है । अपने देश और परदेशकी सेनाके उपद्रव और मारी रोगके अभावको क्षेम कहते हैं। और धान्यकी बहुतायतको सुभिक्ष कहते हैं। इन दोनोंके बिना निर्यापकोंका मिलना दुर्लभ है और उनके बिना चार प्रकारकी आराधना दुर्लभ है। तथा आचार्य निर्यापकत्वके योग्य जब तक हैं तथा ऋद्धिगारव, रसगारव और सातगारवसे जो रहित होते हैं। जो आचार्य ऋद्धिप्रिय होता है वह असंयमी जनको भी निर्यापक बना देता है। और स्वयं भी असंयमसे नहीं डरता। तथा ऐसो अनुमति, जो असंयममें कारण होती है, देनेका त्याग नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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