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________________ विजयोदया टीका अपरिस्साई णिव्वावओ य णिज्जावओ पहिद कित्ती । णिज्जवणगुणोवेदो एरिसओ होदि आयरिओ ||४२०॥ 'अपरिस्साई' अपरिस्रावी । 'णिव्वावओ' निर्वापकः । 'पहिद कित्ती' प्रथितकीर्तिः । 'णिज्जवण गुणोवेदो' निर्यापनगुणसमन्वितः । 'एरिसओ होदि आयरिओ' ईदृग्भवत्याचार्यः ॥४२० ॥ आचारवत्त्वव्याख्यानायागता गाथा आयारं पंचविहं चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं । उवदिसदि य आयारं एसो आयारखं नाम ||४२१ ॥ 'आयारं पंचविहं' पञ्चप्रकारं आचारं । 'चरदि' विनातिचारं चरति । परं वा निरतिचारे पञ्चविधे आचारे प्रवर्तयति । 'उवदिसदि य आयारं' उपदिशति च आचारं । 'एसो आयारवं नाम' एष आचारवान्नाम । एतदुक्तं भवति - आचाराङ्गं स्वयं वेत्ति ग्रन्थतोऽर्थतश्च स्वयं पञ्चविधे आचारे प्रवर्तते प्रवर्तयति च । पाचारवान् इति । पञ्चविधे स्वाध्याये वृत्तिर्ज्ञानाचारः । जीवादितत्त्वश्रद्धानपरिणतिः दर्शनाचारः । हिंसादिनिवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः । चतुविधाहारत्यजनं, न्यूनभोजनं वृत्तेः परिसंख्यानं, रसानां त्यागः, काय सन्तापनं विविक्तावास इत्येवमादिकस्तपः संज्ञित आचारः । स्वशक्त्यनिगूहनं तपसि वीर्याचारः । एते पञ्चविधा आचाराः ॥४२१ ॥ प्रकारान्तरेण आचारवत्त्वं कथयति ३१९. दसविहठिदिकप्पे वा हवेज्ज जो सुट्ठिदो सयायरिओ । आयावं खु एसो पवयणमादासु आउत्तो ||४२२|| 'दसविहठिदिकप्पे वा' दशविधे स्थितिकल्पे वा । 'हवेज्ज जो सुट्ठिदो सया' भवेद्यः सुस्थितः सदा । गा० - अपरिस्रावी, निर्वापक, निर्यापक, प्रसिद्ध कीर्तिशाली और निर्यापन गुण से युक्त ऐसा आचार्य होता है ||४२० ॥ आगे उक्त गुणोंमें से आचारवत्त्व गुणका व्याख्यान करते हैं गा०—पाँच प्रकारके आचारका जो अतिचार लगाये बिना पालन करता है तथा दूसरों को पाँच प्रकार के आचारके निरतिचार पालनमें लगाता है, और आचारका उपदेश देता है यह आचारवान् नामक गुण है || ४२१ || टी०- To- इसका अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ रूपसे और अर्थरूपसे स्वयं आचारांगको जानता है | स्वयं पाँच प्रकारके आचारका पालन करता है और दूसरोंसे पालन कराता है इस तरह पाँच आचारवान् है । पाँच प्रकारके स्वाध्यायमें लगना ज्ञानाचार है, जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानरूप परिणत होना दर्शनाचार है । हिंसादिसे निवृत्ति रूप परिणति चारित्राचार है । चार प्रकारके आहारका त्याग, भूखसे कम भोजन करना, भिक्षाके लिये जाते समय गृह आदिका परिमाण करना, रसोंका त्याग, कायक्लेश, एकान्तमें निवास इत्यादि तप नामक आचार है, 'तपमें अपनी शक्तिको न छिपाना वीर्याचार है । पाँच प्रकारके आचार हैं ||४२१ || Jain Education International दूसरे प्रकारसे आचारवत्त्वको कहते हैं— गा०—जो आचार्य सदा दस प्रकारके स्थितिकल्पमें सम्यक् रूपसे स्थित है वह आचार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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