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________________ ३२० भगवती आराधना 'आयरिओ' आचार्यः । 'आयारवं ख' आचारवान् । 'एसो' एषः । 'पवयणमादासु आउत्तो' प्रवचनमातृकासु समितिषु गुप्तिषु च आयुक्तः ॥४२२॥ अभिहितकल्पनिर्देशार्था गाथा आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे । वदजेट्ठपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥४२३।। 'आचेलक्कुट्टेसिय' चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते । दशविघे धर्मे त्यागो नाम धर्मः । त्यागश्च सर्वसंगविरतिरचेलतापि सैव । तेनाचेलो यतिस्त्यागाख्ये धर्म प्रवृत्तो भवति । अकिंचनाख्ये अपि धर्मे समुद्यतो भवति निष्परिग्रहः । परिग्रहार्था ह्यारम्भप्रवृत्तिनिष्परिग्रहस्यासत्यारम्भे कुतोऽसंयमः । तथा सत्येऽपि धर्मे समवस्थितो भवति । परं परिग्रहनिमित्तं व्यलोकं वदति । असति बाह्य क्षेत्रादिके अभ्यन्तरे च रागादिके परिग्रहे न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य । ततो व वन्ने अवोति । लाघवं च अचेलस्य भवति । अदत्तविरतिरपि संपूर्णा भवति । परिग्रहाभिलाषे सति अदत्तादाने प्रवर्तते नान्यथेति । अपि च रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशद्धतमं भवति । संगनिमित्तो हि क्रोधस्तदभावे चोत्तमा क्षमा व्यवतिष्ठते । सुरूपोऽहमाढ्य इत्यादिको दर्पस्त्यक्तो भवति अचेलेनेति मार्दवमपि तत्र सन्निहितं । 'अजिह्मभावस्य स्फुटमात्मीयं भावमादर्शयतोऽचेलस्यार्जवता च भवति मायाया मूलस्य परिग्रहस्य त्यागात् । चेलादिपरिग्रहपरित्यागपरो यस्मात् विरागभावमुपगतः शब्दादिविषयेष्वसक्तो भवति । वान् है । वह आचार्य प्रवचनकी माता समिति और गुप्तियोंमें तत्पर रहता है ।।४२२।। दस कल्पोंका कथन करते हैं गा०-आचेलक्य, औद्देशिकका त्याग, शय्या गृहका त्याग, राजपिण्डका त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मास और पर्युषणा ये दस कल्प है ।।४२३।। टो०-चेल वस्त्रको कहते हैं । चेलका ग्रहण परिग्रहका उपलक्षण है। अतः समस्त परिग्रह के त्यागको आचेलक्य कहते हैं। दस धर्मोंमें एक त्याग नामक धर्म है। समस्त परिग्रहसे विरति को त्याग कहते है वही अचेलता भी है । अतः अचेल यति त्याग नामक धर्ममें प्रवृत्त होता है । जो निष्परिग्रह है वह अकिंचन नामक धर्ममें तत्पर होता है। परिग्रहके लिये हो आरम्भमें प्रवृत्ति होती है । जो परिग्रहका त्याग कर चुका वह आरम्भ क्यों करेगा। अतः उसके असंयम कैसे हो सकता है ? तथा जो परिग्रह रहित है वह सत्य धर्ममें भी सम्यक् रूपसे स्थित होता है । क्योंकि परिग्रहके निमित्त ही दूसरेसे झूठ बोलना होता है। बाह्य परिग्रह क्षेत्र आदि और अभ्यन्तर परिग्रह रागादिके अभावमें झूठ बोलनेका कारण नहीं है। अतः बोलनेपर अचेल मुनि सत्य ही बोलता है । अचेलके लाघव भी होता है। अचेलके अदत्तका त्याग भी सम्पूर्ण होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होनेपर बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है। अन्यथा नहीं होती । तथा रागादिका त्याग होने पर भावोंकी विशुद्धि रूप ब्रह्मचर्य भी अत्यन्त विशुद्ध होता है। परिग्रहके निमित्त से क्रोध होता है । परिग्रहके अभावमें उत्तम क्षमा रहती है। मैं सुन्दर हूँ, सम्पन्न हूँ इत्यादि मद अचेलके नहीं होता अतः उसके मार्दव भी होता है । अचेल अपने भावको विना किसी छल कपट के प्रकट करता है अतः उसके आर्जव धर्म भी होता है, क्योंकि मायाके मूल परिग्रहका उसने त्याग किया है। यतः वस्त्र आदि परिग्रहके त्यागमें तत्पर मुनि विराग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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