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________________ विजयोदया टीका ३२१ ततो विमुक्तश्च शीतोष्णदंशमशकादिपरिश्रमाणामरोदानात. निश्चेलतामभ्युपगच्छता तपोऽपि घोरमनुष्ठितं भवति । एवमचेलत्वोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण ।। अथवान्यथा प्रक्रम्यते अचेलतागुणप्रशंसा। संयमशद्धिरेको गणः । स्वेदरजोमलावलिप्ते चेले तद्योनिकास्तदाश्रयाश्च त्रसाः सूक्ष्माः स्थूलाश्च जीवा उत्पद्यन्ते, ते वाध्यन्ते चेलग्राहिणा । संसक्तं वस्त्रं तावत्स्थापयतीति चेत्तहि हिंसा स्यात । विवेचने च ते म्रियन्ते तत्र संसक्तचेलवतः स्थाने. शयने, निषद्यायां. पाटने, छेदने, बन्धने, वेष्टने, प्रक्षालने, संघटने, आतपप्रक्षेपणे च जीवानां बाधेति महानसंयमः । अचेलस्यैवंविधासंयमाभावात् संयमविशुद्धिः । इन्द्रियविजयो द्वितीयः। सपाकूले बने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि यतते । अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति । कषायाभावश्च गुणोऽचेलतायाः । स्तेनभयाद्गोमयादिरसेन लेपं कुर्वन्तिगृहयित्वा कथंचिन्मायां करोति । उन्मार्गेण वा स्तेनवश्चनां कतुं यायात् । गुल्मवल्ल्याद्यन्तहितो वा स्यात् । चेलादिममास्तीति मानं चोदहते । बलादपहरणात्तेन सह कलहं कुर्यात् । लाभाद्वा लोभः प्रवर्तते । इति चेलग्राहिणाममी दोपाः । अचेलतायां पुनरित्थंभृतदोषानुत्पत्तिः ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च । सूचीसूत्रकर्पटादिपरिमार्गणसीवनादिव्याक्षेपेण तयोविघ्नो भवति । निःसंगस्य तथाभूतव्याक्षेपाभावात् । सूत्रार्थपौरुषीपु निर्विघ्नता, स्वाध्यायस्य ध्यानस्य च भावना । ग्रन्थत्यागश्च गुणः । भावको प्राप्त होकर शब्द आदि विषयोंमें आसक्त नहीं होता । तथा परिग्रहसे मुक्त होने से शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि परीषहोंको सहता है। अतः वस्त्र त्यागको स्वीकार करनेसे घोर तप भी होता है। इस प्रकार अचेलताके उपदेशसे संक्षेपसे दस प्रकारके धर्मो का कथन होता है । अथवा अचेलता गुणकी प्रशंसा अन्य प्रकारसे कहते हैं । अचेलतामें संयम की शुद्धि एक गुण है । पसीना, धूलि और मैलसे लिप्त वस्त्रमें उसी योनि वाले और उसके आश्रयसे रहने वाले त्रस जीव तथा सूक्ष्म और स्थूल जीव उत्पन्न होते हैं, वस्त्र धारण करनेसे उनको बाधा पहुँचती है । यदि कहोगे कि ऐसे जीवोंसे संबद्ध वस्त्रको अलग कर देंगे तो उनकी हिंसा होगी, क्योंकि उन्हें अलग कर देनेसे वे वहाँ मर जायेंगे । जीवोंसे संसक्त वस्त्र धारण करने वालेके उठने, वैठने, सोने, वस्त्र को फाड़ने, काटने, वाँधने, वेष्ठित करने, धोने, कूटने, और धूपमें डालने पर जीवोंको वाधा होनेसे महान् असंयम होता है । जो अचेल है उसके इस प्रकार का असंयम न होनेसे संयम की विशुद्धि होती है। दूसरा गुण है इन्द्रियोंको जीतना । जैसे सोसे भरे जंगलमें विद्या मंत्र आदिसे रहित पुरुष दृढ़ प्रयत्न-खूब सावधान रहता है उसी प्रकार जो अचेल होता है वह भी इन्द्रियोंको वशमें करनेका पूरा प्रयत्न करता है। ऐसा न करने पर शरीरमें विकार हआ तो लज्जित होना इता हैं। अचेलता का तीसरा गण कषाय का अभाव है। चोरोंके डरसे वस्त्रको गोबर आदिके रससे लिप्त करके छिपानेपर कथंचित् मायाचार करना होता है अथवा चोरोंको धोखा देनेके लिए कुमार्गसे जाना पड़ता है या झाड़ झंखाड़में छिपना होता है। मेरे पास वस्त्र हैं ऐसा अहंकार होता है। यदि कोई बलपूर्वक वस्त्र छीने तो उसके साथ कलह करता है । वस्त्रलाभ होनेसे लोभ होता है । इस प्रकार वस्त्र धारण करने वालोंके ये दोष हैं। वस्त्रत्यागकर अचेल होनेपर इस प्रकारके दोष उत्पन्न नहीं होते और ध्यान तथा स्वाध्यायमें किसी प्रकारका विघ्न नहीं होता । सुई धागा, वस्त्र आदिकी खोज तथा सीने आदिमें लगनेसे स्वाध्याय और ध्यानमें १. माः सुरासुरोदीर्णाः सोढाश्चोपसर्गाः नि-आ० मु० । २. संसक्ताः चे-आ० मु० । ३. णात्स्तेनेन-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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