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________________ विजयोदया टीका ६४७ सम्यगनुबद्धाश्चारित्रमोहोदयस्य स्वकारणस्य सदा सद्भावात् । नित्याश्चेत्कथं चपलाः । नित्यशब्दो ध्रौव्ये न प्रयुक्तः किंत्वभीक्ष्णे मुहुर्मुहुरनुबद्धा इत्यर्थः । चपलता तु परिणामानां अनवस्थितत्वं अतो न विरोधः । 'दुःखावहाय' दुःखावहाश्च । 'जीवाणं' जीवानां । अभिमतभोगालाभे प्राप्तस्य वाऽपाये महत् दुःखमित्यनुभवसिद्धमेव सर्वप्राणभृतां । कायास्तु क्रोधादयः कषायन्ति' हृदयं । अथवा दुःखकारणासट्टेद्यार्जन 'निमित्तत्वात् दुःखावहाः । इन्द्रियकषायवशगो जीवान् हिनस्ति । दुःखकरणेन वास्त्रवत्यसद्वेद्यं इति । यत एव दुःखावहा अतएव भीमाः । 'इ'दियकसाया' इन्द्रियकषायपरिणामाः ।। १३१०॥ मरुतेल्लंपि पितो वत्थो जह वादि पूदियं गंधं । दक्खिदो विइ दियकसायगंधं वहदि कोई ।। १३११ ॥ 'तुरुष्कतैलमपि' 'पियंतो' पिबन्, 'बत्थो' बस्तः अजपोतः । 'जह वादि पूदियं गंधं पूतिगन्धं यथा वाति । प्राकृतगन्धं यथा न जहाति संश्रियमाणोऽपि सुरभिणा द्रव्येण, 'तघ दिक्खिदो वि' तथा दीक्षितो - ऽपि परित्यक्तासंयमोऽपि । 'इंदियकषायगंधं वहदि' इन्द्रियकषाय दुर्गन्धमुद्वहति इति यावत् ।।१३११ ॥ भुजतो व सुभोयणमिच्छदि जघ सूयरो समलमेव । त दिक्खिदों व इंदियकसायमलिणो हवदि कोइ ।। १३१२ || 'भु'जंतो वि सुभोयणं' भुञ्जानोऽपि शोभनमाहारं 'सूयरो जध समलमेव इच्छदि' सूकरो यथा समलमेवाभिलषति चिरन्तनाभ्यासात् । 'तह' तथा 'दिक्खिदो वि' दीक्षितोऽपि कृतव्रतपरिग्रहसंस्कारोऽपि । 'कोइ' कश्चित् । 'इंदियकषायमलिणो हवदि इन्द्रियकषायाख्याशुभपरिणामोपनतो भवति । भव्योऽपि जनः मोहके क्षयोपशमका प्रकर्ष नहीं है वह जीव बड़े कष्टसे इन्हें वशमें कर पाता है । तथा इनका कारण चारित्रमोहका उदय सदा रहता है अतः ये नित्य बने रहते हैं । शङ्का - यदि ये नित्य हैं तो चपल कैसे हैं ? समाधान - नित्य शब्दका प्रयोग धौव्यके अर्थ में नहीं है किन्तु बार-बारके अर्थ में है । और परिणामों के स्थिर न होनेको चपलता कहते हैं अतः कोई विरोध नहीं है । तथा ये जीवोंको दुःखदायी हैं । इष्ट भोगकी प्राप्ति न होने पर अथवा प्राप्त भोगका विनाश होने पर महान् दुःख होता है यह सभी प्राणियोंको अनुभवसिद्ध है । क्रोधादि कषाय हृदयको संताप पहुंचाती है । अथवा दुःखका कारण जो असातावेदनीय कर्म है उसके बन्धमें निमित्त हैं इसलिए दुःखदायी हैं । जो इन्द्रिय और कषायके वशमें होता है वह जीवोंका घात करता है । जीवोंके दुःख देनेसे असातावेदनीय कर्मका आस्रव होता है । और यतः ये इन्द्रिय तथा कषाय दुःखदायी हैं, अतएव भयंकर हैं ॥ १३१०॥ गा०—जैसे बकरीका बच्चा सुगन्धित तेल भी पिये फिर भी अपनी पूर्व दुर्गन्धको नहीं छोड़ता । उसी प्रकार दीक्षा लेकर भी अर्थात् असंयमको त्यागने पर भी कोई कोई इन्द्रिय और कषाय रूप दुर्गन्धको नहीं छोड़ पाते || १३११॥ Jain Education International जैसे सुअर सुन्दर स्वादिष्ट आहार खाते हुए भी चिरंतन अभ्यास वश विष्टा ही खाना पसन्द करता है । उसी प्रकार व्रतोंको ग्रहण करके भी कोई कोई इन्द्रिय और कषायरूप अशुभ १. तपन्ति अ० । २. द्यानां नि-आ० मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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