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भगवती आराधना
कालाभिधानक्रियातः प्रतीयते नास्य शास्त्रस्य व्यापार इति । यद्यस्य व्यापारः शास्त्रस्य वक्तूमिष्ट: स्यात् 'भण्णदि' इति ब्रूयात् । 'जिणवयणे भणिया दुविहा आराधणा' इति वचनात् । संक्षेपनिरूपणापि तत्स्थैवेतिनेह संक्षेपवाच्यम् । वस्तु बहूपन्यस्तं दुरवगमं मन्दबुद्धीनामिति । तदनुग्रहाय स्वल्पस्योपन्यासः । स संक्षेपस्त्रिप्रकारः-वचनसंक्षेपोऽर्थसंक्षेपस्तदुभयसंक्षेपश्चेति । वचनबहुत्वस्यार्थनिश्चयो न जायते जडानामिति वचनं संक्षिप्यते । अर्थस्तु सप्रपञ्च एव । अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः प्रस्तुतस्यार्थसंक्षेपः । वचनानि तु बहूनि । तस्योभयसंक्षपः पाश्चात्यः । द्विविधाराधनेति वचनसंक्षपो नार्थसंक्षपः । ज्ञानस्याराधना तपसश्च विद्यमानापि न वचनेनोच्यते । परमुखेनैदावबोधयितु शक्यत इति ।
दंसणमाराहंतेण णाणमाराहियं हवे णियमा ।
णाणं आराहतेण दंसणं होइ भयणिज्जं ॥ ४ ॥ 'दसणमाराहतेण' दर्शनाराधनायां कथितायां ज्ञानाराधनापि शक्यते प्रतिपत्तुम, अग्न्यानयनचोदनायां
धना 'भणिता' 'कही है' इस प्रकार अतीत काल सम्बन्धी क्रियाका प्रयोग किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि इस शास्त्रका उसमें व्यापार नहीं है। यदि उनको कथन करनेमें इस शास्त्रका व्यापार इष्ट होता तो 'भण्णदि' ऐसा लिखते। किन्तु वे कहते हैं 'जिणवयणे भणिया दुविहा आराधणा ।' जिनवचनमें दो प्रकारकी आराधना कही है। उसीमें संक्षेप भी कथन किया है इसलिये यहाँ संक्षेप भी नहीं कहना चाहिये ।
इसका समाधान यह है कि बहत विस्तारसे कथन मन्दबद्धियोंके लिये दरवगम होता है। वे उसे समझनेमें असमर्थ होते हैं। उनके कल्याणके लिये संक्षेप कथन किया जाता है। उस संक्षेपके तीन प्रकार हैं-वचन संक्षेप, अर्थ संक्षेप और उभय संक्षेप । वचनका विस्तार होने पर जड़बुद्धि अर्थका निश्चय नहीं कर सकते। इसलिये वचनका संक्षेप किया जाता है । अर्थका तो विस्तार रहता ही है। बहुतसे अनुयोगद्वार आदिका उपन्यास न करके केवल दिशामात्रका बतलाना प्रस्तुत विषयका अर्थ संक्षेप है। वचन तो बहुत है। उन दोनोंका अर्थात् वचन और अर्थका संक्षेप उभय संक्षेप है। 'दुविहा आराधणा' यह वचन संक्षेप है, अर्थ संक्षेप नहीं है। ज्ञानकी आराधना और तपकी आराधनाके विद्यमान होते हुए भी उन्हें वचनसे नहीं कहा । उन्हें परमुखसे ही अर्थात् दर्शन और चारित्राराधनाके द्वारा ही जाना जा सकता है।
___ भावार्थ-पहले विस्तारमें रुचि रखने वाले शिष्योंको दृष्टिमें रखकर चार प्रकारकी आराधना कही। पीछे संक्षेप रुचि शिष्योंकी अपेक्षा उसे दो प्रकारका कहा, क्योंकि दर्शनका ज्ञानके साथ तथा चारित्रका तपके साथ अविनाभाव होनेसे दर्शनाराधनामें ज्ञानाराधनाका और चारित्राराधनामें तप आराधनाका अन्तर्भाव होता है। तथा सम्यग्दर्शन आराधनाके होने पर ही ज्ञानाराधनापूर्वक चारित्राराधना होती है ॥ ३ ॥
गा०-दर्शनकी आराधना करने वालेके द्वारा नियमसे ज्ञानकी आराधना होती है । किन्तु ज्ञानकी आराधना करने वालेके द्वारा दर्शनकी आराधना भजनीय है, होती भी है, नहीं भी होती ॥४॥
टी०–'दसणमाराहतेण' अर्थात् दर्शन आराधनाका कथन करने पर ज्ञान आराधनाको भी १. तत्रैव-मु० । २. परमसुखे-आ० । ..
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