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विजयोदया टीका प्रमत्तसंयतादिकं तु परमिति । श्रद्धानविरतिपरिणामयोयुगपदप्यस्ति प्रादुर्भावः, श्रद्धानवतो वा असंयतस्य पश्चाद्विरतिरुपजायते। तत्किमुच्यते 'उत्पत्त्यपेक्षयेति । असंयतसम्यग्दृष्टीनां कुतः क्रमो येन तदपेक्षया प्रथमद्वितीयव्यपदेशवृत्तिः स्यात् । उत्पत्त्यपेक्षया तत्रोक्त एव नियमः । अथागमे वचनपोपिर्यापेक्षया 'असंजदसम्मादिटिसंयदासंयदापमत्तसंयदा' इति वचनात् । तदेव वचनं किमर्थं क्रममाश्रित्य प्रवृत्तमुत नान्तरीयकतया ? न तावदस्ति परिणामानां नियोगभावी क्रमः । यदि स्यान्न योगपद्यं कदाचित्स्यात् । दृश्यते च सम्यग्दृष्टिसंयतासंयता इति चैकदा । अथ नानेकं वचनमेकः प्रयोक्तुं क्षमत इति वक्तुरिच्छानुविधायी क्रमः सूत्रविवक्षाकृतं प्राथम्यं द्वितीयता चेति वाच्यं न गुणस्थानापेक्षयेति । कि चोपजातदर्शनादिपरिणामस्यात्मनस्तद्गतातिशयवृत्तिराराधना साऽत्र प्रस्तुता । तत्र च प्राथम्यं द्वितीयता वा, तत्किमुच्यते उत्पत्त्यपेक्षया गुणस्थानापेक्षया चेति ।
अस्य सूत्रस्योपोद्धातमेवमपरे वर्णयन्ति-अस्मिन् शास्त्रे किमयमेव निश्चयश्चतुर्विधवाराधनेति, उतान्योऽपि विकल्पः संभवतीति ? अस्तीत्याहेति तदयुक्तम् ‘दसणणाणचरित्ततवाणमाराधणा भणिया' इत्यतीतहोनेके उत्तरकालमें चारित्ररूप परिणाम उत्पन्न होता है इसलिये दर्शनाराधना प्रथम है । असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पहले होता है प्रमत्तसंयत आदि बादमें होते हैं।
किन्तु श्रद्धानरूप और विरतिरूप परिणाम एक साथ भी प्रकट होते हैं। अथवा सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न असंयतके पीछेसे भी चारित्र उत्पन्न होता है, तब उत्पत्तिकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीय हैं ऐसा कैसे कहते हैं ? असंयत सम्यग्दृष्टियोंका क्रम कैसे संभव है जिससे उसकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीय व्यवहार हो सके । उत्पत्तिकी अपेक्षासे उनके सम्बन्धमें नियम कहा ही है।
. पूर्वपक्ष-आगममें वचनके पौर्वापर्यकी अपेक्षासे दर्शनाराधनाको प्रथम और चारित्राराधनाको द्वितीय कहा है, क्योंकि आगममें 'असंयतसम्यग्दृष्टी, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत' ऐसा वचन क्रम है।
उत्तर-वही वचन किसलिये क्रमका आश्रय लेकर प्रवृत्त हुआ है ? क्या यह क्रम परस्परमें अविनाभावी होनेसे रखा गया है ? परिणामोंके क्रमसे ही होनेका तो कोई नियम नहीं है । यदि. होता तो एक साथ श्रद्धान और चारित्र भी नहीं होते। किन्तु सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत एक कालमें होते देखे जाते हैं।
पूर्वपक्ष-एक व्यक्ति एक साथ अनेक वचनोंका प्रयोग नहीं कर सकता इसलिये क्रम वक्ताकी इच्छाका अनुसरण करता है ।
उत्तर-तब प्रथम और द्वितीयपनेको सूत्रकी विवक्षाकृत कहना चाहिये अर्थात् सूत्र में जिसकी प्रथम विवक्षा है वह प्रथम है और जिसकी विवक्षा बादमें है वह द्वितीय है । गुणस्थानकी अपेक्षा नहीं कहना चाहिये ।
दूसरे, जिस आत्मामें दर्शनादि परिणाम उत्पन्न हो गये हैं उसका दर्शन आदिके विषयमें विशेष अतिशय उत्पन्न करनेका नाम आराधना है। वही आराधना यहाँ प्रस्तुत है। उसके विषयमें उत्पत्तिकी अपेक्षा या गुणस्थानकी अपेक्षा प्रथमपना और द्वितीयपना कैसे आप कहते हैं ?
अन्य कुछ व्याख्याकार इस गाथासूत्रका उपोद्धात इस प्रकार कहते हैं-इस शास्त्रमें क्या यही निश्चय है कि आराधना चार ही प्रकार की है अथवा कोई दूसरा भी विकल्प संभव है ? यदि कहते हो 'है' तो ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि गाथामें दर्शन ज्ञान चारित्र और तप आरा
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