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________________ भगवती आराधना किं चतुर्विधैवाराधनेत्याशङ्कायामाह दुविहा पुण जिणवयणे भणिया आराहणा समासेण । सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरितंमि ।। ३ ॥ 'दुविहा पुण जिणवयणे समासेण दुविधा आराधणा भणिया' इति पदसंबन्धः । आवरणमोहजयाज्जिनाः । ज्ञानदर्शनावरणजयात्सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः । मोहपराजयाद्वीतरागद्वषाः । सर्वज्ञानां सर्वदशिनां वीतरागद्वेषाणां वचनं जिनवचनं । एतेन असत्यवचनकारणाभावात् प्रामाण्यमाख्यातमागमस्य । वक्तुरज्ञानाद्रागद्वेषाभ्यां वा प्रवृत्तं वचः अयथार्थावबोधनादप्रामाण्यमास्कन्दति । तत्र च 'समासेण' संक्षेपेण 'दुविधा' द्विप्रकारा 'भणिदा' कथिता 'आराहणा' आराधना । का प्रथमा आराधना का द्वितीयेत्यत आह-'सम्मत्तम्मि य पढमा' श्रद्धानविषया प्रथमाराधना । 'विदिया य' द्वितीया च 'हवे' भवेत् 'चरित्तं मि' चारित्रविषया आराधना । दर्शनचारित्राराधनयोः प्रथमद्वितीयव्यपदेशः उत्पत्त्यपेक्षया गुणस्थानापेक्षया चेति । केचिच्च दर्शनपरिणामोत्पत्त्युत्तरकाले हि चारित्रपरिणाम उत्पद्यत इति प्राथम्यं दर्शनाराधनायाः । असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं पूर्व रूप परिणमन करनेको उद्यवन कहते हैं । परीषह आदि आने पर भी निराकुलतापूर्वक वहन अर्थात् धारण करनेको निर्वहन कहते हैं । अन्य तरफ उपयोग लगनेसे दर्शन आदिसे मनके हटने पर पुनः उनमें उपयोग लगाना साधन है । अर्थात् नित्य या नैमित्तिक कार्य करते समय सम्यग्दर्शन आदिमें व्यवधान आ जाये तो पुनः उपायपूर्वक उसे करना साधन है। दूसरे भवमें भी सम्यग्दर्शनादिको साथ ले जाना अथवा उस भव में मरणपर्यन्त धारण करना निस्तरण है। तत्त्वार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । स्व और परके निर्णयको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। पापका बन्ध करानेवाली क्रियाओंके त्यागको चारित्र कहते हैं और इन्द्रिय तथा मनके नियमनको तप कहते हैं ।।२।। क्या आराधना चार ही प्रकारकी होती है ऐसी आशङ्कामें आचार्य कहते हैं गा०—जिनागममें संक्षेपसे आराधना दो प्रकारकी कही है। श्रद्धान विषयक प्रथम आराधना है। और दूसरी चारित्रविषयक आराधना है ।। ३ ॥ टी०-जिनवचनमें संक्षेपसे दो प्रकारकी आराधना कही है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहको जीतनेसे जिन होते हैं तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणको जीतनेसे सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। मोहको जीतनेसे वीतरागी और वीतद्वेषी होते हैं। सर्वज्ञ सर्वदर्शी और वीतराग तथा वीतद्वेषी महापुरुषोंका वचन जिनवचन कहलाता है। इससे असत्य बोलनेके कारणोंका अभाव होनेसे आगमके प्रामाण्यको ख्यापित किया है । वक्ताके अज्ञानसे अथवा रागद्वेषसे कहा गया बचन अयथार्थका बोध करानेसे अप्रमाण होता है। उस जिनवचनमें 'समासेण' अर्थात् संक्षेपसे 'आराहणा' अर्थात् आराधना, 'दुविधा' अर्थात् दो भेदरूप, 'भणिदा' अर्थात् कही है । पहली आराधना कौन है और दूसरी कौन है ? इसके उत्तर में कहते हैं-'सम्मत्तम्मि य पढमा' अर्थात् श्रद्धानविषयक प्रथम आराधना है और 'विदिया हवे चरितम्मि' चारित्र विषयक दूसरी आराधना है । उत्पत्तिकी अपेक्षा और गुणस्थानकी अपेक्षा दर्शनाराधनाको प्रथम तथा चारित्राराधनाको द्वितीय कहा है ऐसा कोई कहते हैं। उनका कहना है कि सम्यग्दर्शनरूप परिणामकी उत्पत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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