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________________ विजयोदया टीका अत्रान्ये व्याचक्षते-निस्तरणशब्दः सामर्थ्यवाची स प्रत्येक सम्बध्यते उद्योतनादिभिरुद्योतनादीनांतद्दर्शनादिभिश्चतुभिरपि यथासंख्येन संवन्धः । उद्योतनं मरणकाले प्रागवस्थाया उत्कर्षेण निर्मलीकरणं अविघ्नेन दर्शनाराधनेत्यादिना क्रमेण । त एवं पर्यनुयोज्याः किमत्र ज्ञानादीनां निर्मलीकरणमिष्टमनिष्टं वा। इष्टं चेद्दर्शनेनैव किमिति सम्बध्यते निर्मलीकर? उत्कर्षेण यवनमपि सर्वेषामिष्यते । अनाकुलं वहनमपि साधारणं किमुच्यते व्रतगुप्तिसमितीनां निश्चयेनानाकुलं वहनमिति ? न च निस्तरणशब्दात्सामर्थ्य प्रतीयते । उद्योतनं सामर्थ्यमित्यादिषु न च कश्चिदर्थः, अविघ्नेनेति कथमयमर्थो लभ्यते उज्जोवणादिशब्दैरनुपात्तो । मरणकालश्च कः ? मनुष्यभवपर्यायविनाशसमयो मरणकालसमयेन यद्युच्यते, न तत्र भावनोत्कर्षः, मारणान्तिकसमुद्घाते परिणाममान्द्यात् । अत्र भावनाकालो मरणकालशब्देनोच्यते सोऽनुपात्तोप्रकृतश्च कथमिह लभ्यते । भावनाकालगतव्यापारकथनायेदं शास्त्रं प्रस्तुतमिति लम्यत इति चेत्, न तथाऽसूत्रितत्वात् । 'दंसणणाणचरित्ततवाणमुज्जोवणमाराहणा भणिया' 'दसणणाणचरित्ततवाणुज्जवणमाराधणा' इति, इति प्रत्येकमभिसंबन्धोऽत्र कार्यः । अन्यथा असमासेन निर्देशं कुर्यात् ॥२॥ यहां अन्य व्याख्याकार कहते हैं—निस्तरण शब्द सामर्थ्यवाचक है। अतः उद्योतन आदिमेंसे प्रत्येकके साथ उसका सम्बन्ध होता है। और उद्योतन आदिका दर्शन आदि चारोंके साथ क्रमसे सम्बन्ध होता है। जैसे मरणकालमें पूर्वकी अवस्थाका उत्कृष्ट रूपसे निर्मल करना सम्यग्दर्शनका उद्योतन है अर्थात् निर्विघ्नतापूर्वक सम्यग्दर्शनकी आराधना उद्योतन है, इस प्रकारक्रमसे करना चाहिये। उनसे पूछना चाहिए कि क्या यहाँ ज्ञानादिका निर्मल करना इष्ट है या अनिष्ट ? यदि इष्ट है तो निर्मल करनेका सम्बन्ध अकेले दर्शनके साथ ही क्यों जोड़ा जाता है ? उत्कृष्ट रूपसे यवन भी सभी दर्शन आदिका इष्ट है । निराकुलतापूर्वक धारण करना भी सामान्य है ! तब आप व्रत, गुप्ति और समितिके निश्चयपूर्वक निराकुल धारणाकी बात क्यों कहते है ? तथा निस्तरण शब्दसे सामर्थ्यकी प्रतीति भी नहीं होती। उसे उद्योतन आदिके साथ जोड़ने पर उद्योतन सामर्थ्य, उद्यवन सामर्थ्य इत्यादिसे कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता। तथा उद्योतन आदिसे तो निर्विघ्नता अर्थ नहीं निकलता। तब यह अर्थ आप कैसे लेते हैं ? तथा मरणकालसे आपका क्या अभिप्राय है ? यदि मरणकाल समयसे मनुष्य पर्यायके विनाशका समय लेते हैं तो उस समय तो भावनाकी उत्कृष्टता सम्भव नहीं हैं क्योंकि मारणान्तिक समुद्घातमें परिणामोंमें मन्दता होती है। यदि यहाँ मरणकाल शब्दसे भावना काल लेते हों तो उसका तो यहाँ ग्रहण नहीं है। तब जिसका प्रकरण नहीं है उसे कैसे लिया जा सकता है ? शंका-भावना कालमें होनेवाले व्यापारका कथन करनेके लिए यह शास्त्र रचा जाता है ? समाधान नहीं, ऐसा ग्रन्थकारने नहीं कहा है। ग्रन्थकारने तो 'दसणणाणचरित्ततवाणं उज्जोवणं आराहणा भणिया'-दर्शन ज्ञान चारित्र और तपके उद्योतनको आराधना कहा है। 'उज्जवणं आराहणा भणिया'-दर्शन ज्ञान चारित्र और तपके उद्यवनको आराधना कहा है अतः प्रत्येकके साथ सम्बन्ध यहाँ करना चाहिए। यदि ग्रन्थकारको ऐसा इष्ट न होता तो वे 'दसण' इत्यादिका निर्देश समासपूर्वक न करते । भावार्थ-सम्यग्दर्शन आदिके उद्योतनको चार प्रकार की आराधना कहा है। सम्यग्दर्शन आदिके निर्मल करनेको उद्योतन कहते हैं। उत्कृष्ट यवन अर्थात् मिश्रणको-बार बार दर्शनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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