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भगवती आराधना
वैपरीत्यं वा ज्ञानस्य मलं, निश्चयेनानिश्चयव्यदासः । यथार्थतया वैपरीत्यस्य निरासो ज्ञानस्योद्योतनं । भावनाविरहो मलं चारित्रस्य. तास भावनास वत्तिरुद्योतनं चारित्रस्य । तपसोऽसंयमपरिणामः कलङ्कतया स्थितस्त स्यापाकृतिः संयमभावनया तपस उद्योतनम् । उत्कृष्टं यवनं उद्यवनं ।
ननु मिश्रणं युप्रकृतेरर्थः, मिश्रणं च संयोगता । तथा हि गुडमिश्रा धाना इति कथिते गुडेन संयुक्ता इति प्रतीयते । संयोगश्च विभिन्नयोरर्थयोरप्राप्तयोः प्राप्तिन च दर्शनादयोऽर्थान्तरभूता आत्मनस्तद्रूपविकलरूपाभावात् । तत्कथं दर्शनादिभिरात्मनो मिश्रणमिति ? उच्यते-विशेषवाच्योऽपि सामान्योपलक्षणतया वर्तते, यथा काकेभ्यो रक्ष्यतां सपिरित्यत्रोपघातकसामान्यमेंवार्थः काकशब्दस्य प्रतीतस्तद्वत्संबन्धसामान्यमत्र यवनशब्दाभिधेयं । असकृद्दर्शनादिपरिणतिरुद्यवनं ।
निराकुलं वहनं धारणं निर्वहणं, परिषहाद्युपनिपातेऽप्याकुलतामन्तरेण दर्शनादिपरिणतौ वृत्तिः । उपयोगान्तरेणान्तहितानां दर्शनादिपरिणामानां निष्पादनं साधनम् । भवान्तरप्रापणं दर्शनादीनां निस्तरणम । एवमाराधनाशब्दस्यानेकार्थवृत्तितायां यथावसरं तत्र तत्र व्याख्या कार्या ।
आगे हम कांक्षा आदिका स्वरूप और उनके निरासका क्रम कहेंगे। अनिश्चय अथवा विपरीतता ज्ञानका मल वा दोष है । निश्चयके द्वारा अनिश्चयका परिहार होता है। और यथार्थतासे विपरीतताका निरास होता है । यह ज्ञानका उद्योतन है अर्थात् ज्ञानका निश्चयात्मक और विपरीततारहित होना ही ज्ञानका उद्योतन है।
भावनाका न करना चारित्रका मल है। अतः उन भावनाओंमें लगना चारित्रका उद्योतन है। असंयमरूप परिणाम तपका कलंक है । संयमकी भावनाके द्वारा उसको दूर करना तपका उद्योतन है।
उत्कृष्ट यवनको उद्यवन कहते हैं।
शंका-'यु' धातुका अर्थ मिश्रण है। संयोगपनेको मिश्रण कहते हैं। जैसे 'गुड़से मिश्रित धान' कहने पर गुड़से संयुक्त धानकी प्रतीति होती है। दो विभिन्न पदार्थ जो एक दूसरेसे अलग हैं उनके मिलनेको संयोग कहते हैं। किन्तु दर्शन आदि तो आत्मासे भिन्न पदार्थ नहीं हैं क्योंकि दर्शन आदिसे रहित आत्माका अभाव है। तब दर्शन आदिके साथ आत्माका मिश्रण कसे संभव है ?
समाधान-जिस शब्दका जो विशेष अर्थ होता है वह भी उपलक्षणसे सामान्य रूप लिया जाता है। जैसे 'कौओंसे घी को बचाओ' यहाँ काक शब्दका अर्थ उपघातक सामान्य ही है अर्थात् जो धी को हानि पहुँचा सकते हैं उन सबसे घी को बचाओ। इसी तरह यहाँ 'यवन' शब्दका अर्थ सम्बन्ध मात्र है, कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। अतः बार बार आत्माका दर्शन आदि रूप परिणत होना उद्यवन है। निराकुलतापूर्वक 'वहन' अर्थात् धारण करनेको 'निर्वहण' कहते हैं । परीषह आदि आने पर भी आकुलताके बिना सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणतिमें संलग्न होना निर्वहण है। अन्य कार्योमें उपयोग लगनेसे तिरोहित हुए सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणामोंको पुनः उत्पन्न करना साधन है । और सम्यग्दर्शन आदिको दूसरे भवमें भी साथ ले जाना निस्तरण है।
इस प्रकार आराधना शब्दके अनेक अर्थ होने पर अवसरके अनुसार व्याख्या करना चाहिये।
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