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विजयोदया टीका
रभ्यत इति साध्यमाराधनास्वरूपज्ञानं साधनमिदं शास्त्रमिति साध्यसाधनरूपसंबन्धोऽपि शास्त्रप्रयोजनयोरत एव वाक्याल्लभ्यते । अभिधेयभतास्तु चतस्र आराधनाः । ग्राह्यमिदं शास्त्रं प्रयोजनादित्रयसमन्वितत्वात व्याकरणादिवदिति । एवमनया मङ्गलं प्रयोजनादित्रयं च सूचितं 'कमसो' क्रमेण पूर्वशास्त्रनिगदितेन । एतेन स्वमनोषिकाचचितमि न भवति । आप्तवचनानुसारितया प्रमाणमिदमित्याख्यातं भवति । 'पुव्वसुत्ताणं' इति वाक्यशेषादित्थं लभ्यते ॥१॥ का आराधना कस्य वा ? न ह्याराध्यापरिक्षानेनात्मभूताराधना शक्या प्रतिपत्तु इत्यारेकायामाह
उज्जोवणमज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं ।
दंसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा . भणिया ।। २ ।। उज्जोवणमुज्जवणमित्यादिकं । 'उज्जोवणं' उद्योतनं शङ्कादिनिरसनं सम्यक्त्वाराधना श्रुतनिरूपिते वस्तुनि किमित्थं भवेन्न भवेदिति समुपजातायाः शङ्कायाः संशयप्रतिसंजिताया अपाकृतिः । कथं ? हेतुबलेन आप्तवचनेन वा समुपजाताया इत्थमेवेदमिति निश्चित्य । यद्धि यस्य विरोधि यत्रोपजातं तत्र नेतरदास्पदं बध्नाति, यथा शीतस्पर्शनाक्रान्ते शिशिरकरे उष्णता । विरोधि च निश्चयज्ञानं । संशीतेविरोधता च नियोगतस्तद्भावे तत्रेतरस्य तदा अभवनात् । वक्ष्यामः कांक्षादीनां स्वरूपं तन्निरासक्रमं च प्रस्तावे । अनिश्चयो का ज्ञान करानेके लिये इस शास्त्रको प्रारम्भ करते हैं। आराधनाके स्वरूपका ज्ञान साध्य है और उसका साधन यह शास्त्र है। इस प्रकार शास्त्र और प्रयोजनमें साध्य साधनरूप सम्बन्ध है यह भी इसी वाक्यसे ज्ञात होता है । इस शास्त्रका अभिधेयभूत अर्थात् जो इसके द्वारा कहा गया है वह है चार आराधना। अतः प्रयोजन, सम्बन्ध और अभिधेयसे युक्त होनेसे यह शास्त्र उसी तरह उपादेय है जैसे व्याकरणशास्त्र उपादेय है।
इस प्रकार इस गाथासे मंगल प्रयोजन, सम्बन्ध और अभिधेयको सूचित किया है।
'कमसो' का अर्थ है क्रमसे अर्थात् पूर्व शास्त्रोंमें जैसा कहा है वैसा ही कहूँगा। इससे यह । सूचित किया है कि यह ग्रन्थकारकी अपनी बुद्धिकी उपज नहीं है किन्तु आप्त पुरुषोंके वचनोंके अनुसार होनेसे प्रमाण है । 'कमसो' के साथ 'पुव्व सुत्ताणं' पूर्व शास्त्रोंके इस वाक्यांशका अध्याहार करनेसे उक्त अर्थ निकलता है ॥१॥
आराध्यको जाने बिना उसकी आत्मभूत आराधनाको जानना शक्य नहीं है । अतः आराधना किसे कहते हैं और वह किसके होती है इस शंकाके समाधानके लिये आचार्य कहते हैं
गाथा-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्त्वके उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और (णिच्छरणं) निस्तरणको (आराहणा) आराधना कहा है ।।२।।
टीका-'उज्जोवण' का अर्थ है उद्योतन अर्थात् शंका आदि दोषोंको दूर करना। यह सम्यक्त्व आराधना है। शास्त्रमें कही गई वस्तुके विषयमें 'क्या ऐसा है अथवा नहीं है' इसप्रकार . से उत्पन्न हुई शंकाको, जिसका दूसरा नाम संशय है, दूर करना सम्यक्त्वाराधना है। युक्ति के बलसे अथवा आप्त वचनके द्वारा यह इसी प्रकार है ऐसा निश्चय करके उत्पन्न हई शंकाको दूर करना सम्यक्त्वका उद्योतन है। जिसका विरोधी जहाँ होता है वहाँ वह ठहर नहीं सकता। जैसे शीत स्पर्शसे व्याप्त चन्द्रमामें उष्णता नहीं ठहरती। निश्चयात्मक ज्ञान संशयका विरोधी है अतः इन दोनोंमें नियमसे विरोध है; क्योंकि एकके रहते हुए वहाँ उस समय दूसरा नहीं रहता ।
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