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________________ विजयोदया टीका 'सिद्धिपुरमुवल्लोणा वि' सिद्धिपुरमुपलीना अपि । 'केई' केचित् । 'इंदियकसायचोरेहि' इन्द्रियकषायचोरैः । 'पविलुत्तचरणभंडा' अपहृतचारित्रभाण्डाः। 'उवहवमाणा' उपहताभिमानाः । 'निवति' निर्वतन्ते ॥१३०२॥ तो ते सीलदरिद्दा दुक्खमणंतं सदा वि पावंति । बहुपरियणो दरिदो पावदि तिव्वं जघा दुक्खं ॥१३०३।। 'तो' पश्चात् । 'ते सीलदरिदा' ते शीलदरिद्राः । 'दुक्खं' दुःखं । 'अणंत' अन्तातीतं । 'सदा वि पावंति' सदा प्राप्नुवन्ति । 'बहुंपरियणो' बहुपरिजनो। 'दरिदो' दरिद्रः । 'पाववि दुक्ख तिव्वं' प्राप्नोति दुःखं तीवं यथा ॥१३०३।। सो होदि साधुसत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो । उस्सुत्तमणुवदिटुं च जधिच्छाए विकप्पंतो ॥१३०४॥ __ 'सो होदि' स भवति । 'साधुसत्यादु णिग्गयो' साधुसान्निवृत्तः । 'जो हवे जधाछ दो' यो भवति स्वेच्छावृत्तिः । 'उस्सुत्तं' उत्सूत्रं । 'अणुवदिट्ट' अनुपदिष्टं च स्थविरैः । 'जदिच्छाए विकप्पंतो' यथेच्छया विकल्पयन् ।।१३०४॥ जो होदि जधाछंदो तस्स धणिदंपि संजमिंतस्स । पत्थि दु चरणं चरणं खु होदि सम्मत्तसहचारी ॥१३०५॥ 'जो होवि जधाई दो' यो भवति स्वेच्छावृत्तिः । 'तस्स धणिपि संजमितस्स' तस्य नितरामपि संयमे प्रवर्तमानस्य । 'णस्थि दु' नास्त्येव । 'चरणं' चारित्रं । 'चरणं खु होदि सम्मत्तसहचारी' सम्यक्त्वसहचार्येव यतेश्चारित्रं । स्वच्छन्दवृत्तस्तु यत्किचित्परिकल्पयतः सूत्रमननुसरतः नैव सम्यग्दर्शनमस्ति । तदन्तरेण सम्यक्चारित्रं नैव भवति ॥१३०५॥ इंदियकसायगुरुगत्तणेण सुत्तं पमाणमकरंतो। परिमाणेदि जिणुत्ते अत्थे सच्छंददो चेव ॥१३०६॥ गा०-पश्चात् वे शीलसे दरिद्र मुनि सदा अनन्त दुःख पाते हैं। जैसे बहुत परिवारवाला दरिद्र मनुष्य तीव्र दुःख पाता है ॥१३०३॥ अब यथाच्छन्द मुनिका स्वरूप कहते हैं गा०-साधुसंघसे निकलकर जो पूर्वाचार्योंके द्वारा नहीं कहे आगम विरुद्ध मार्गकी अपनी इच्छानुसार कल्पना करता है वह यथाच्छन्द मुनि होता है ।।१३०४|| गा०-टी०-जो स्वच्छन्दचारी मुनि होता है वह संयममें अत्यन्त प्रवृत्ति भी करे तो भी उसका चारित्र चारित्र नहीं है क्योंकि सम्यक्त्वके साथ जो चारित्र होता है वही चारित्र होता है। जो स्वच्छन्दचारी होता है वह तो जो उसकी इच्छा होती है तदनुसार आचरण करता है। आगमका अनुसरण नहीं करता, अतः उसके सम्यग्दर्शन नहीं है। और सम्यग्दर्शनके विना सम्यक्चारित्र नहीं होता ॥१३०५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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