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भगवती आराधना
'आसागिरिदुग्गाणि य' आशागिरिदुर्गाश्च । 'अदिगम्म' अतिक्रम्य । 'तिदंडकक्कडसिलासु' त्रिदण्डकशशिलासु । 'ऊलोडिद' 'पन्भट्टा' अवलुण्ठिताः सन्तः प्रभ्रष्टाः 'खवेति' गमयन्ति । 'अनंतयं कालं' अनंतं
कालं ॥१२९८ ॥
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बहुपावकम्मकरणाडवीसु महदीसु विष्पणट्टा वा । googदिपा भमंति सुचिरंपि तत्थेव ।। १२९९॥
'बहुपावकम्मकरणाडवीसु' बहुविधान्यशुभकर्माण्येवाटव्यः तासु 'महदोसु' दीर्घासु । 'विप्पणठ्ठा' विननष्टाः । 'अद्दिवणिग्वृदिपधा' अदृष्टनिवृत्तिमार्गाः । 'भमंति' भ्रमन्ति । 'सुचिरंषि' सुचिरमपि । 'तत्थेव' तत्रैव ।।१२९९।।
दूरेण साधुसत्थं छंडिय सो उपधेण खु पलादि ।
सेवदि कुसीलपडि सेवणाओ जो सुत्तदिट्ठाओ || १३०० ||
'दूरेण साधुसत्थं' दूरात्साघुसार्थं । 'छंडिय' त्यक्त्वा । 'सो' सः । ' उप्पधेण खु' उन्मार्गेण । 'पलादि' पलायते । 'सेवदि कुसीलपडिसेवणाओ' सेवते कुशीलप्रतिसेवनाः । 'जो' यः । 'सुत्तणिदिट्ठाओ' सूत्र
निर्दिष्टाः ||१३०० ॥
इ दियकसाय गुरुगत्तणेण चरणं तणं व पस्संतो ।
घिसो भवित्ता सेवदि हु कुसीलसेवाओ || १३०१॥
'इ' दियकसायगुरुगत्तणेण' इन्द्रियकषायपरिणामानां गुरुत्वेन । 'चरणं तणं व पस्संतो' चरणं तृणमिव पश्यन् । 'णिद्दंधसो भवित्ता' अह्नीको भूत्वा । ' सेवदि' सेवते कुशीलसेवाः ।। कुसीला ।।१३०१ ॥ सिद्धिपुरमुवल्लीणा वि के इंदियकसायचोरेहिं |
पविलुत्तचरणभंडा उवहदमाणा णिवट्ठति ।। १३०२।।
दुष्प्रवृत्तिरूप शिलाओं पर लुढ़कते हुए गिरकर अनन्तकाल बिताते हैं || १२९८ ॥
विशेषार्थ - पहले वे उत्तरगुण छोड़ते हैं फिर मूलगुण और सम्यक्त्वसे भी भ्रष्ट होकर संसारमें भ्रमण करते हैं ।। १२९८ ।।
गा०—अनेक प्रकारके अशुभकर्मरूप सुदीर्घ अटवीमें भटकते हुए वे निर्वाणका मार्ग कभी देखा न होनेसे चिरकालतक वहीं भ्रमण करते रहते हैं || १२९९ ॥
गा० - वे दूरसे ही साधुसंगको त्यागकर कुमार्गमें दौडते हैं । और आगममें कहे कुशील मुनि दोषों को करते हैं ।। १३०० ||
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गा०
० - इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंकी तीव्रताके कारण चारित्रको तृणके समान मानते हैं और निर्लज्ज होकर कुशीलका सेवन करते हैं ॥१३०१ ||
इस प्रकार कुशील मुनिका कथन हुआ ।
गा० - कोई-कोई मुक्तिपुरीके निकट तक जाकर भी इन्द्रिय और कषायरूपी चोरोंके द्वारा चारित्ररूपी धन चुराये जानेपर संयमका अभिमान त्यागकर उससे लौट आते हैं ||१३०२ ||
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