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________________ विजयोदया टीका २३९ पसंगदप्पासंजमकारीओ एदाओ'। काक्षा गाद्ध, प्रसंगः पुनःपुनस्तत्र वृत्तिः, दर्पः दृप्तेन्द्रियता, असंयमः रसविषयानुरागात्मकः इन्द्रियासंयमः, रसजजन्तुपीडा प्राणासंयमः, एतान्दोषानिमाः कुर्वन्ति ॥२१५॥ आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण । ताओ जावज्जीवं णिज्जूढाओ पुरा चेव ॥२१६।। 'आणाभिकंखिणा' । अवं पदघटना-'ताओ' ताः महाविकृतयः । 'जावज्जीवं' जीवितावधिकं । "णिज्जूढाओ' परित्यक्ताः । 'पुरा चेव' सल्लेखनाकालात्पूर्वमेव । केन परित्यक्ताः ? 'आणाभिकंखिणा'-इदमित्थं त्वया कर्तव्यमिति कथनं आज्ञा । सर्वविदा आज्ञप्ता भव्याः परित्याज्या नवनीतादयः । तदासेवा असंयमः कर्मबन्धहेतुरिति । अस्यामाज्ञायां कांक्षावता आदरवता सर्वज्ञाज्ञाऽसंपादनादेव दुरन्तसंसारमध्यपतनं ममासीद्भविष्यति च तेन तदाज्ञादरः कार्य इत्यभ्युद्यतेन । 'अवज्जभीषणा' अवद्यं पापं तेन । अयमर्थः पापभीरुणा । 'तवसमाधिकामेण तपस्येकाग्रतामभिलषता । अतो नवनीतादित्यागोऽपि रसत्याग एव ॥२१६॥ इह सल्लेखनाकाले ममैषां त्यागो गृहीत इत्याचष्टे खीरदधिसप्पितेल्लगुडाण पत्तेगदो व सव्वेसि । णिज्जूहणमोगाहिम पणकुसणलोणमादीणं ॥२१७।। 'खीरदधिसप्पितेल्लगुडाणं' क्षीरस्य, दध्नः, धृतस्य, तैलस्य, गुडस्य, च 'णिज्जूहणं' त्यागः । कथं ? 'पत्तेगदो व' प्रत्येक एकैकस्य वा त्यागः । 'सवेसि' सर्वेषां वा क्षीरादीनां त्यागः रसपरित्यागः । 'ओगाहिम पणकुसण लोणमादीण' अपूपानां, पत्रशाकानां, सुपस्य, लवणादीनां वा त्यागो रसपरित्यागः ॥२१७॥ हैं-इन्द्रिय असंयम और प्राणि असंयम । मधुके रसके विषयमें अनुरागकी आतुरता रूप इन्द्रिय असंयम होता है और मधुमें उत्पन्न जन्तुओंका घात होनेसे प्राण असंयम होता है ॥२१५।। गा०-सर्वज्ञकी आज्ञाके प्रति आदरवान, पाप भीरु और तपमें एकाग्रताके अभिलाषीने वे महविकृतियाँ सल्लेखनाके समयसे पूर्व ही जीवन पर्यन्तके लिये ( णिज्जूढाओ) त्याग दी है ॥२१६॥ टो०-यह काम इस प्रकार तुम्हें करना चाहिये, ऐसा कहना आज्ञा है । सर्वज्ञकी आज्ञासे भव्य जीवोंके लिये नवनीत आदि छोड़ने योग्य हैं। उनका सेवन असंयम हैं जो कर्मबन्धका कारण है । इस आज्ञाका पालन न करनेसे ही मेरा दुरन्त संसारके मध्यमें पतन हुआ और होगा। इसलिये उस आज्ञाका आदर करना चाहिये इस प्रकार जो उद्यत हुआ है और अवद्य अर्थात् पाप से जो डरता है तथा जो तपमें एकाग्रताका अभिलाषी है वह तो पहले ही जीवन पर्यन्तके लिये इन विकृतियोंको त्याग चुका है । अतः नवनीत आदिका त्याग भी रस त्याग ही है ॥२१६॥ - अब इस सल्लेखनाके समय मैंने इन नीचे कही वस्तुओंका त्याग किया, यह कहते है गा०-दूध, दही, घी, तेल, गुड़का और घृत पूर, पुवे, पत्रशाक, सूप और लवण आदिका सबका अथवा एक-एकका त्याग रस परित्याग है । अर्थात् सल्लेखना कालमें दूध आदि सबका या उनमेंसे यथायोग्य दो तीन चारका त्याग रस परित्याग है ॥२१७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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