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________________ ७२० भगवती आराधना सरः प्रविश्येह यथा नरः सन्नन्मज्जनं चैव निमज्जनं च । क्रीडाप्रसक्तो बहुशोऽपि कुर्यादनन्यकार्य स्ववशो वयस्थः ॥१०॥ प्रविश्य जन्मोदधिमध्यमेवं शरीरिणस्ते बह जन्ममृत्यून् । अन्तमहतंऽपि समाप्नुवन्ति पेपीयमानाः कटदुःखतोयम् ॥११॥ सूक्ष्मैः शरीरैरपि ते महान्ति दुःखानि नित्यं सममाप्नुवन्ति । 'स्थूलेषु देहेषु समोहितेषु दुःखोदयो देहिगणश्च दृष्टः ॥१२॥ येषां न माता न पिता न बन्धन चापि मित्रं न गुरुन नाथः । न भेषजं नाभिजनो न भक्ष्यं न ज्ञानमस्त्येव कुतः सुखं स्यात् ? ॥१३॥ मात्रा वियोगेऽपि सतीह तावत् दुःखाम्बु तत्तन जनो लभेत । मात्रा वियोगस्तु भवेन्न येषां स्थानं कथं ते न हि दुःखराशेः ॥१४॥ मा भैष्ट मा भूत्तव दुःखजालं मा विष्ट मा वेति वराककाणां। आश्वासको वाप्यनुकम्पिता वा तेषां जनः कोऽस्ति यथा नराणां ॥१५॥ तैस्तैः प्रकारैः सततं समन्ताच्छश्वद्दधाना अपि मृत्युमुग्रं ।। करोति वा को ग्रहणं निरीक्ष्य विमुच्य संबन्धविदो मनुष्यान् ॥१६॥ अन्योन्यतो मयंजनाच्च पापात् क्षुधादितश्चापि महाभयानि । पञ्चेन्द्रिया यानि समाप्नुवन्ति दुःखानि तेषामिह कोपमा स्यात् ॥१७॥ स्तनंधयान्स्वानपि भक्षयन्त श्रुतास्तिरश्चोऽपि न निष्कृपाकाः । निहत्य खावत्सु परान्परेषु तिर्यक्षु किं विस्मयनीयमस्ति ॥१८॥ जैसे कोई स्वाधीन वयस्क पुरुष क्रीड़ासक्त हो, सरोवरमें प्रवेश करके बहुत बार जलमें . डूबता और उतराता है। वैसे ही शरीरधारी प्राणी जन्मरूपी समुद्रके मध्यमें प्रवेश करके कटुक दुःखरूपी जलको पीते हुए एक अन्तर्मुहुर्तमें भी बहुत बार जन्म लेते और मरते हैं। यद्यपि उनके शरीर सूक्ष्म होते हैं फिर भी वे महान् दुःख भोगते हैं । स्थूल शरीर मिलने पर उनका दुःख अन्य प्राणी भी देख सकते हैं। जिनका न पिता है, न माता है, न बन्धु है, न मित्र है, न गुरु है, न स्वामी है, न औषध है, न वंश है, न भोजन है और न ज्ञान है उन्हें सुख कैसे हो सकता है । माताका वियोग भी होनेपर इतना दुःख होता है जिसे मनुष्य सह नहीं पाता। जिनके माता ही नहीं है उनकी दुःख राशिका तो कहना ही क्या है। तुम मत डरो, तुम्हें दुःख न हो, इस प्रकार उन बेचारोंको मनुष्योंकी तरह न कोई सान्त्वना देनेवाला है और न कोई उनपर दया करनेवाला है । विभिन्न प्रकारोंसे निरन्तर सदा चहुँ ओरसे उन मृत्युको प्राप्त उन प्राणियोंको देखकर उनके सम्बन्धमें जानने वाले मनुष्योंके सिवाय अन्य कौन उनकी सुध लेता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च परस्परमें एक दूसरेसे, पापी मनुष्योंसे भूख प्यास आदिसे जिन महाभयकारी दुःखोंको प्राप्त होते हैं उनकी कोई उपमा नहीं है। वे अपने बच्चोंको भी खा जाते हैं । तिर्यञ्च भी दयाहीन नहीं सुने गये हैं। किन्तु जो अपने ही बच्चोंको खाते हैं वे यदि दूसरोंको खा जावें तो इसमें आश्चर्य ही क्या। वे परस्परमें एक दूसरेका घात करनेके लिये प्रहार करते हैं। उनको मारनेके लिये १. स्थूलानुदेहेषु समोहितेषु सुखोदयो देहिगुणैश्च दृष्टः ।'-अ० । २. दुःख च स्या आविष्ट-अ० । ३. सुता आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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