SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 788
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ७२१ अन्योन्यघातार्थमनुप्रयाति हन्तुं तमन्यः कुपणोऽनुयाति । तं कश्चिदन्यः सहसा निहंता ही धिक्ततो भीमतरं किमन्यत् ॥१९॥ अन्योन्परन्ध्रेक्षणनष्टनिद्रा अन्योन्यमाहत्य जिजीविषन्तः। स्वस्था न येऽन्योन्यभयात्स्वपन्ति किं ते भवेयुः सुखिनः कदाचित् ॥२०॥ वने मृगास्तोयतृणप्रपुष्टाः मृगीसहाया रतिमाप्नुवन्ति । व्याधादिभिर्यद्धयमाप्नुवन्ति निरेनसः कारणमत्र कर्म ॥२१॥ वियोजिता आत्मसुतश्च बालमृग्यो मृगश्चात्ममनोऽनुकूलैः । दिशस्तु दोनाक्षिभिरोक्ष्यमाणाः सुदारुणं मारणमाप्नुवन्ति ॥२२॥ स्वभावपापाः कुकवीरिताभिः प्रोत्साहिता दुःश्रुतिभिः पुनश्च । अबिभ्यतो दुर्गतितो यथेष्टं घ्नन्तोऽभ्यदंतश्च हितानुमन्यते ? ॥२३॥ वने मगेभ्यः पिशिताशनेभ्यो प्रामेष नभ्यश्च तथाविधेभ्यः । ते बिभ्यते न क्वचिदाश्वसन्तो यदृच्छया बिभ्रति जीवितानि ॥२४॥ यवकुशाविप्रहतंर्गजाश्च कशाविघातैश्च हया हताशाः । गावश्च तोत्रादिवधैः परेषां कुर्वन्ति कर्मामरणावकामा: ॥२५।। 'मत्यायुतानामलमेतदेव विरागभावप्रभवे निमित्तम् । तादृग्विधाना बहवो हि कोटयः कथं प्रकुर्वन्त्य मितेतरस्य ॥२६॥ दंदामानाश्च दवाग्निवेगैर्महाजलौघश्च समूह्यमानाः । मृगाः खगाः सर्पसरीसृपाश्च साध नियन्ते बहवो बतान्ये ॥२७॥ दूसरा पशु उसके पीछे लग जाता है। उसको भी कोई तीसरा मार देता है। धिक्कार है इसे, इससे भयानक और क्या हो सकता है। परस्परमें एक दूसरेके छिद्रोंको देखनेसे जिनकी नींद भाग जाती है, जो एक दूसरेको मारकर जीना चाहते हैं, जो परस्परमें एक दूसरेके भयसे स्वस होकर सो नहीं सकते वे कभी सुखी कैसे हो सकते हैं ? वनमें मृग जल और तृण खाकर पुष्ट होते हैं । हिरणी उनकी सहचरी होती है। परस्परमें प्रेमसे रहते हैं। बिना किसी अपराधके भी व्याघ आदिसे उन्हें भय रहता है। इसमें कारण उनका पूर्व कर्म है। उन्हें अपने बच्चोंसे वियोगका दुःख उठाना पड़ता है। अपने मनके अनुकूल मृगोंकी खोजमें दीन दृष्टिसे दिशाओंको देखा करते हैं और इस तरह भयंकर मृत्युको प्राप्त होते हैं। जो स्वभावसे ही पापी हैं, और कुकवियोंके द्वारा कही गई न सुनने योग्य कविताओंसे उत्साहित होकर, दुर्गतिसे भी नहीं डरते वे उन पशुओंको यथेच्छ मारते हैं और इसे हित मानते हैं । वनमें मांसाहारी पशुओंसे, ग्रामोंमें मांसाहारी मनुष्योंसे डरते हैं। वे कहीं भी अपनी इच्छानुसार निर्भय जीवन नहीं बिताते। हाथी अंकुश आदिके प्रहारोंसे, घोड़े कोड़े आदिकी मारसे और बैल पैनी आदिके घातसे मरणपर्यन्त दूसरोंका काम करते हैं। जो बुद्धिमान् हैं उनके वैराग्य उत्पन्न होने में यह सब ही निमित्त है। उनकी बहुतसी कोठियाँ हैं वे एक दूसरेको कष्ट कैसे दे सकते हैं। जंगलकी आगके वेगसे जलते हुए महाजलसमूहके प्रवाहसे बहाये जाते हुए मृग, पक्षी, सर्प, सरीसृप तथा अन्य भी बहुतसे जीव एक साथ मर जाते हैं ॥१५७६।। १. ही धिक्क लोभान्नितरां किमन्यत्' -आ० । २. मायुनामामल-आ० । ३. न्त्यमिते नारस्य -आ० ज०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy