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भगवंती आराधना
गाथा ८१६ में अहिंसाणुव्रतमें चण्डालका उदाहरण दिया है । गाथा ८४३में असत्य भाषण के फलमें राजा वसुका उदाहरण है। गाथा ८८६ में चोरीके फलमें श्रीभूतिका उदाहरण है। गाथा ९२९ में परस्त्री गमनके फलमें कडारपिंगका उदाहरण है।
गाथा ९३६ में कहा है कि स्त्रीके निमित्तसे ही महाभारत रामायण आदिमें वर्णित युद्ध हुए। गाथा ९९४ में कहा है
वयणे अमयं चिट्ठदि हियए य विसं महिलियाए । इसी आशयका एक पद्य संस्कृतमें प्रसिद्ध है
'अधरेऽमृतमस्ति योषितां हृदि हालाहलमेव केवलम् ।' गाथा ९७१ आदिमें स्त्रीके वाचक स्त्री, नारी, प्रमदा, विलया, युवती, योषा, अबला, कुमारी और महिला शब्दोंकी व्युत्पत्ति दोषपरक की गई है।
गाथा १००१ से गर्भमें शरीरकी रचनाका क्रम बतलाया है । तथा १०२१ आदिसे शरीरके अवयवोंका परिमाण बतलाया है।
गाथा १०५७.१०५९ में संसाररूपी वृक्षका चित्रण है जिसमें एक पुरुष वृक्षकी डाल पकड़कर मोहवश लटका हुआ है और दो चूहे उस डालको काट रहे हैं।
गाथा १०९५ में स्त्रीके कारण भ्रष्ट हुए रुद्र, पाराशर ऋषि, सात्यकि आदिके नाम आते हैं।
गाथा ११११ से परिग्रहत्याग महाव्रतका निरूपण करते हुए कहा है कि पहले जो दस स्थिति कल्प कहे हैं उनमें प्रथम है वस्त्र आदि समस्त परिग्रहका त्याग । आचेलक्य शब्द देशामर्षक है अतः आचेलक्यसे समस्त परिग्रहका त्याग अभीष्ट है। केवल वस्त्रमात्रका त्याग करनेसे संयमी नहीं होता ॥१११८॥
गाथा ११२३ में लोभवश चोरोंके द्वारा मद्य, मांसमें विष मिलाकर परस्परमें एक दूसरेको मार डालनेका उदाहरण है, इस तरहके अनेक उदाहरण हैं।
गाथा ११७८ में महाव्रत शब्दको व्युत्पत्ति दी है । यह मूलाचारमें भी है।
गाथा ११७९ में कहा है कि इन महाव्रतोंको रक्षाके लिए ही रात्रिभोजन त्याग नामक व्रत कहा है । यह भी मूलाचारमें है।
भाषा समितिका वर्णन करते हुए गाथा ११८७ में सत्यके दस भेद कहे हैं। तथा गाथा ११८९-९० में नौ प्रकारको अनुभय भाषा कही है। ये दो गाथाएँ जीवकाण्ड गोम्मटसारमें भी हैं और मूलाचारमें भी हैं। गाथा ११९१ की टीकामें टीकाकार ने लिखा है कि दशवैकालिक सूत्रकी विजयोदया टीकामें उद्गम आदि दोषोंका कथन किया है इससे यहाँ नहीं कहा। यह टीका भी इन्हीं टोकाकारकी होनी चाहिये। उसका नाम भी विजयोदया ही है। किन्तु इस ग्रन्थमें भी गाथा २३२ की टीकामें उद्गम आदि दोषोंका कथन टीकाकारने किया है। किन्तु वह संक्षिप्त है अतः विस्तारसे कथन दूसरी टीकामें किया होगा ।
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