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प्रस्तावना
१९
बाद करनेमें कुशल चार यति उस सभा में सिंहके समान विचरण करते हैं कि यदि कोई विवाद करे तो उसका उत्तर दे सकें ।
कालके अनुसार यतियोंके गुणों और संख्या में भी परिवर्तन होता रहता है । कम से कम दो निर्यापक अवश्य होते हैं। एक बाहर जाये तो एक पासमें रहे ।।६७१-६७२॥
जब वह क्षपक खानपान त्यागकर संस्तर पर आरोहण करता है तब निर्यापक आचार्य उसके कान में शिक्षा देते है ||७१९ ॥
_सबसे प्रथम सम्यक्त्वका माहात्म्य बतलाते हैं । कि शुद्ध सम्यक्त्वी अविरत भी तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध करता है । असंयमी भी श्रेणिक भविष्य में तीर्थंकर होगा || ७३९||
सम्यक्त्वके पश्चात् ज्ञानका और तदनन्तर पाँच महाव्रतोंकी रक्षाका उपदेश देते हैं । गाथा ७७० में कहा है- जो ज्ञानरूप प्रकाशके विना मोक्षमार्गको प्राप्त करना चाहता है वह अन्धा अन्धकार में दुर्ग पर जाना चाहता है ।
गाथा ७७५ से ८१६ तक अहिंसाका वर्णन बहुत महत्त्वपूर्ण है । उसका प्रभाव अमृत के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अहिंसा वर्णन पर प्रतीत होता है ।
गाथा ७९१ में कहा है-यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्रीका वध न करना परमधर्म है सर्व प्राणियों पर दया परमधर्म क्यों नहीं है ?
गाथा ८०४ से ८०९ तक तत्त्वार्थसूत्र के छठें अध्याय में कहे जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण के भेदों का विवेचन है ।
गाथा ८१७ से सत्याणुव्रतके चार भेद कहे हैं जो पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें भी कहे हैं ।
गाथा ८७१ से ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है ।
गाथा ८७२ में कहा है-जीव ब्रह्म है उसमें चर्या ब्रह्मचर्य है । गाथा ८८७-८८९ में कामकी दस दशाओंका वर्णन है ।
गाथा ९२१ में कहा है
परमहिलं सेवंतो वेरं वधबंध- कलहधणनासं । पावदि रायकुलादो तिस्से णीयल्लयादो य ॥
सर्वार्थसिद्धिके सातवें अध्याय में भी परस्त्री सेवनमें यही दोष कहे हैं
यथा – 'पराङ्गनालिंगनसंगकृत रतिश्चेहैव वैरानुबन्धिनो लिंगच्छेदनवधबन्धसर्वस्वापहरणादीनपायान् प्राप्नोति ।
गाथा ९२३ में जो कहा है तत्त्वार्थवार्तिकमें भी ब्रह्मचर्य के प्रकरणमें वही शकशः कहा है
मादा घूदा भज्जा भगिणीसु परेण विप्पयम्मिकदं ।
जह दुक्खमप्पणी होई तहा अण्णस्स वि णरस्स ॥ ९२३ ॥
त०वा० - 'यथा च मम कान्ता परिभवे परकृते सति मानसपीडाऽतितीब्रा जायते तथेतरेषाम् ।
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