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________________ भगवती आराधना निर्यायक आचार्य के गुणोंमें एक गुण अवपीडक है । समाधि लेनेसे पूर्व दोषोंकी विशुद्धिके लिये आचार्य उस क्षपकसे उसके पूर्वकृतदोष बाहर निकालते हैं । यदि वह अपने दोषों को छिपाता है तो जैसे सिंह स्यारके पेटमें गये मांसको भी उगलवाता है वैसे ही अवपीडक आचार्य उस क्षपकके अन्तरमें छिपे मायाशल्य दोषोको बाहर निकालता है ||४७९|| १८ गाथा ५२८ में आचार्यके छत्तीस गुण इस प्रकार कहे हैं 7 आचारवत्व आदि आठ दस प्रकारका स्थितिकल्प, बारह तप, छह आवश्यक । किन्तु विजयोदयामें आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पाँच समिति, तीन गुप्ति ये छत्तीस गुण कहे हैं। पं० आशाधरने अपनी टीकामें विजयोदयाके अनुसार छत्तीस गुण बतलाकर प्राकृत टीकाके अनुसार अट्ठाईस मूलगुण और आचारवत्व आदि आठ इस तरह छत्तीस गुण कहे हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भगवती आराधना और विजयोदयामें अट्ठाईस मूलगुणोंको नहीं गिनाया है । यद्यपि कथनमें आ जाते हैं । आचार्यके सन्मुख अपने दोषोंकी आलोचना करनेका बहुत महत्त्व है उसके बिना समा सम्भव नहीं होती । अतः समाधिका इच्छुक क्षपक दक्षिण पार्श्व में पीछीके साथ हाथोंकी अंजलि मस्तकसे लगाकर मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक गुरुकी वन्दना करके सब दोषोंको त्याग आलोचना करता है । अतः गाथा ५६४ में आलोचनाके दस दोष कहे हैं । यह गाथा सर्वार्थ सिद्धि ( ९-२२ ) में भी आई है । आगे ग्रन्थकारने प्रत्येक दोषका कथन किया है । आचार्य परीक्षा के लिये क्षपकसे तीन बार उसके दोषोंको स्वीकार कराते हैं । यदि वह तीनों बार एक ही बात कहता है तो उसे सरलहृदय मानते हैं । किन्तु यदि वह उलटफेर करता है तो उसे मायावी मानते हैं । और उसकी शुद्धि नहीं करते । 1 इस प्रकार श्रुतका पारगामी और प्रायश्चित्तके क्रमका ज्ञाता आचार्य क्षपककी विशुद्धि करता है । ऐसे आचार्यके न होनेपर प्रवर्तक अथवा स्थविर निर्यापकका कार्य करते हैं । जो अल्पशास्त्रज्ञ होते हुए भी संघकी मर्यादाको जानता है उसे प्रवर्तक कहते हैं । जिसे दीक्षा लिये बहुत समय बीत गया है तथा जो मार्गको जानता है उसे स्थविर कहते हैं । निर्यापक - जो योग्य और अयोग्य भोजन पानकी परीक्षा में कुशल होते हैं, क्षपकके चित्तका समाधान करनेमें तत्पर रहते हैं, जिन्होंने प्रायश्चित्त ग्रंथोंको सुना है और दूसरोंका उद्धार करनेका महत्त्व जानते हैं ऐसे अड़तालीस यति निर्यापक होते हैं || ६४७ || वे क्षपकके शरीरको सहलाते हैं, हाथ पैर दबाते हैं, चलने-फिरने, उठने-बैठने में सहायता करते हैं । उनमेंसे चार तो परिचर्या करते हैं । चार धर्मकथा करते हैं । चार खानपानकी व्यवस्था करते हैं । वह खानपान उद्गम आदि दोषोंसे रहित होता है और क्षपकके स्वास्थ्यके अनुकूल होता है । चार यति उस लाये गये खानपानकी रक्षा करते हैं । चार यति मलमूत्र उठाते हैं । चार यति क्षपकके द्वारकी रक्षा करते हैं असंयमी जनोंको प्रवेशसे रोकते हैं । चार मुनि उस देश के अच्छे-बुरे समाचारों पर दृष्टि रखते हैं जिससे समाधि में कोई बाधा उपस्थित न हो । चार यति जो स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्तके ज्ञाता होते हैं, धर्मश्रवणके लिये उपस्थित श्रोताओं को इस तरहसे उपदेश देते हैं कि उससे क्षपकको कोई बाधा न पहुंचे । अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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