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________________ प्रस्तावना अपनो प्रशंसा स्वयं नहीं करना चाहिए। जो अपनी प्रशंसा करता है वह सज्जनोंके मध्यमें तृणकी तरह लघु होता है ॥३६१।। इत्यादि । इस प्रकार आचार्य संघको उपदेश देकर अपनी आराधनाके लिए अपना संघ त्यागकर अन्य संघमें जाते हैं । ऐसा करने में ग्रन्थकारने जो उपपत्तियाँ दी हैं वे बहुमूल्म हैं ।।३८५।। समाधिका इच्छुक साध निर्यापककी खोजमें पांच सौ सात सौ योजन तक भी जाता है ऐसा करने में उसे बारह वर्ष तक लग सकते हैं ॥४०३-४०४।। इस कालमें यदि उसका मरण भी हो जाता है तो वह आराधक ही माना गया है ।।४०६॥ योग्य निर्यापकको खोजते हुए जब वह किसी संघमें जाता है तब उसकी परीक्षा की जाती है। जिस प्रकारका आचार्य निर्यापक होता है उसके गुणोंका वर्णन विस्तारसे किया है। उसका प्रथम गुण है आचारवत्त्व । जो दस प्रकारके स्थितिकल्पमें स्थित होता है वह आचारवान् होता है। गाथा ४२३ में इनका कथन है-ये दस कल्प हैं-आचेलक्य, उद्दिष्टत्याग, शय्यागृहका त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मास और पयुषणा। श्वेताम्बर आगमोंमें भी इन दस कल्पोंका विस्तारसे वर्णन मिलता है। विजयोदया टीकाकारने अपनी टीकामें इनका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है। सबसे प्रथम कल्प है आचेलक्य। चेल कहते हैं वस्त्रको, वस्त्रादि समस्त परिग्रहका त्याग आचेलक्य है। किन्तु श्वताम्बर परम्पराके साघु वस्त्र पात्र आदि परिग्रह रखते हैं। अतः टीकाकारने उनके मतका निरसन सप्रमाण किया है। और श्वेताम्बर आगमोसे-आचारांग, उत्तराध्ययन, आवश्यक आदिसे अनेक प्रमाण उद्धृत किये हैं। किन्तु वर्तमान श्वेताम्बर आगमोंमें उनसेसे अनेक प्रमाण नहीं मिलते । इस विषयमें आगे अलगसे चर्चा करेंगे। टीकामें कहा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थमें रात्रिभोजन त्याग नामक एक छठा व्रत भी था । पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थसिद्धि में सातवें अध्यायके प्रथमसूत्रके व्याख्यानमें रात्रि भोजन नामक छठे व्रतकी शका उठाकर समाधानमें कहा है कि उसका अन्तर्भाव अहिंसा व्रतकी भावनाओंमें किया है। प्रतिक्रमणके भेदोंका कथन करते हुए भी टीकाकारने कहा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकरके तीर्थ में साधुओंको प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थंकरोंके तीर्थमें साधु दोष लगनेपर ही प्रतिक्रमण करते थे। इसका कारण भी कहा है कि मध्यम तोर्थंकरोंके साधु दृढ़बुद्धि, एकाग्रचित, और अव्यर्थ लक्ष्यवाले थे इसलिए उनका आचरण गर्दा करनेमात्रसे शुद्ध हो जाता था । किन्तु शेष दो तीर्थंकरोंके साधु चलचित्त होनेसे अपने अपराधपर दृष्टि नहीं देते । इसलिए उन्हें सब प्रतिक्रमण करनेका उपदेश है। मूलाचारमें भी (७/१३२-१३३) यह कथन है। गाथा ४४८ की टीकामें पंचपरावर्तनका वर्णन है किन्तु द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, और भावसंसारका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिसे भिन्न है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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