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________________ भगवती आराधना विजयोदयामें इन सवका वर्णन किया है जो अन्यत्र नहीं मिलता। इस प्रकार विचार कर यदि उसकी आयु अल्प शेष रहती है तो वह अपनी शक्तिको न छिपा कर भक्त प्रत्याख्यानका निश्चय करता है ।।१५८॥ तथा संयमके साधनमात्र परिग्रह रखकर शेषका त्याग कर देता है ।।१६४॥ तथा पाँच प्रकारको संक्लेश भावना नहीं करता। इन पाँचों भावनाओंका स्वरूप ग्रन्थकारने स्वयं कहा है (१८२-१८६) । ___ आगे सल्लेखनाके दो भेद कहे हैं बाह्य और आभ्यन्तर । शरीरको कृश करना बाह्य सल्लेखना है और कषायोंका कृश करना अभ्यन्तर सल्लेखना हैं। वाह्य सल्लेखनाके लिए छह प्रकारके बाह्य तपका कथन किया है। विविक्तशय्यासन तपका कथन करते हुए गाथा २३२में उद्गम उत्पादन आदि दोषोंसे रहित वसतिकामें निवास कहा है । टीकाकारने अपनी टीकामें इन दोषोंका कथन किया है। ये सर्वदोष मूलाचारमें भी कहे हैं । आगे वाह्य तपके लाभ बतलाये हैं। ___ गाथा २५१में विविध भिक्षु प्रतिमाओंका निर्देश है। टीकाकार अपराजित सूरिने तो उनका कथन नहीं किया किन्तु आशाधरजीने किया है। उनकी संख्या बारह कही है । मूलाचारमें इनका कथन नहीं है। ___इस भक्त प्रत्याख्यानका उत्कष्ट काल बारह वर्ष कहा है। चार वर्ष तक अनेक प्रकारके कायक्लेश करता है। फिर दूध आदि रसोंको त्यागकर चार वर्ष विताता है। फिर आचाम्ल और निर्विकृतिका सेवन करते हुए दो वर्ष विताता है, एक वर्ष केवल आचाम्ल सेवन करके बिताता है । शेष रहे एक वर्षमेंसे छह मास मध्यम तपपूर्वक और शेष छह मास उत्कृष्ट तपपूर्वक बिताता है (२५४-२५६)। इस प्रकार शरीरकी सल्लेखना करते हुए वह परिणामोंकी विशुद्धिकी ओर सावधान रहता है । एक क्षणके लिए भी उस ओरसे उदासीन नहीं होता। इस प्रकारसे सल्लेखना करनेवाले या तो आचार्य होते हैं या सामान्य साधु होते हैं । यदि आचार्य होते हैं तो वे शुभमूहूर्तमें सव संघको बुलाकर योग्य शिष्यपर उसका भार सौंपकर सबसे क्षमा याचना करते हैं और नये आचार्यको शिक्षा देते हैं। उसके पश्चात् संघको शिक्षा देते हैं । यथा हे साधुओं ! आपको विष और आगके तुल्य आर्याओंका संसर्ग छोड़ना चाहिये । आर्याके साथ रहनेवाला साधु शीघ्र ही अपयशका भागी होता है ॥३३२॥ महान् सयमी भी दुर्जनोके द्वारा किये गये दोषसे अनर्थका भागी होता है अतः दुर्जनोंकी संगतिसे बचो ॥३५०॥ सज्जनोंकी संगतिसे दुर्जन भी अपना दोष छोड़ देते हैं, जैसे सुमेरु पर्वतका आश्रय लेनेपर कौवा अपनी असुन्दर छविको छोड़ देता है ॥३२॥ जैसे गन्धरहित फूल भी देवताके संसर्गसे उसके आशीर्वादरूप सिरपर धारण किया जाता है उसी प्रकार सुजनोंके मध्यमें रहनेवाला दुर्जन भी पूजित होता है ॥३५३॥ गुरुके द्वारा हृदयको अप्रिय लगनेवाले वचन भी कहे जानेपर पथ्यरूपसे ही ग्रहण करना चाहिए । जैसे बच्चेको जबरदस्ती मुह खोल पिलाया गया घी हितकारी होता है ॥३६०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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