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________________ प्रस्तावना होता है। किन्तु जो अपवादिक अर्थात् परिग्रह सहित लिंगके धारी हैं यदि उनके पुरुषचिन्हमें कोई दोष नहीं है तो उनके लिये भी औत्सगिक लिंग धारण करना ही उचित है। किन्तु जो महत् सम्पत्तिशाली है या लज्जाशील है, या जिसके बन्धु बान्धव मिथ्यामती हैं उसके लिये अपवादलिंग उचित है ।।७६-७८॥ औत्सर्गिक लिङ्ग–अचेलता, हाथसे केशोंका उखाड़ना (केशलोच), शरीरसे निर्ममत्व और पीछी ये चार औत्सर्गिक लिंग हैं । स्त्रियोंमें भी जो औत्सर्गिक या अपवाद लिंग आगममें कहा है, भक्त प्रत्याख्यान करते समय परिग्रहको अल्प करते हुए औत्सर्गिक लिंग होता है। अर्थात् पृरुषोंकी तरह स्त्री भी यदि सम्पत्तिशालिनी है या लज्जाशील है, या उसके बन्धु बान्धव विधर्मी हैं तो एकान्त स्थानमें उसे समस्त परिग्रहके त्यागरूप उत्सर्ग लिंग दिया जा सकता है ।।८७॥ आगे इन चार प्रकारके लिंगोके लाभ बतलाते हुए सबसे प्रथम परिग्रह त्यागके गुण बतलाये हैं __परिग्रह त्यागमें लाघव, अप्रतिलेखन, निर्भयता, सम्मूर्छन जीवोंकी रक्षा और परिकर्मका त्याग ये चार गुण कहे हैं। जो वस्त्रसहित लिंग धारण करते हैं, उन्हें उनके शोधनमें लगना होता है, वस्त्र न रहने पर उसकी याचना, वस्त्र फटने पर उसे सीना, धोने पर सुखाना आदि व्यापार करना पड़ता है। वस्त्रोंमें जूं होने पर उनको दूर करना होता है। वस्त्रादिके सद्भावमें शीतादि परिषह सहन करना नहीं होता, किन्तु आगममें कर्मोंकी निर्जराके लिए परिषह सहनेका विधान है ॥८२॥ वस्त्ररहित होनेसे दिगम्बर वेशमें जनताका विश्वास प्राप्त होता है कि इनके पास छिपानेके लिए कुछ भी नहीं है। विषय सुखमें अनादरभाव प्रकट होता है। सर्वत्र स्वाधीनपना रहता है ।।८३॥ नग्नता जिनदेवका प्रतिरूप है । उससे वीर्याचार पलता है रागद्वेष नहीं होते ॥८॥ जो अपवाद लिंग धारण करता है वह भी अपनो शवितको न छिपाते हुए अपनी निन्दा गर्दा करते हुए जब परिग्रहको त्याग देता है तब शुद्ध हो जाता है ।।८६॥ इस प्रकार लिंग ग्रहण करनेके पश्चात् साधुको ज्ञानार्जन करना चाहिए। उसके लिए विनय करना आवश्यक है अतः ज्ञानविनयके आठ भेदोंका वर्णन है ।।११२॥ तदनन्तर दर्शनविनय, चारित्रविनय, उपचारविनय आदिका कथन है। इस प्रकार निर्ग्रन्थ लिंग स्वीकार करके जो श्रुतके अभ्यासमें तत्पर है, पाँच प्रकारकी विनयका पालक है उस साधुको अनियतवासी होना चाहिए, एक स्थान पर नहीं रहना चाहिये । अतः अनियतवासके गुण बतलाये हैं। किन्तु देशान्तरमें भ्रमण करनेसे ही साधु अनियत विहारी नहीं होता किन्तु वसति, उपकरण, ग्राम, नगर, संघ और श्रावक गण सबमें उसे ममत्वभावसे रहित होना चाहिये । तभी वह अनियत विहारी होता है। इस तरहसे साधु जीवन बिताता हुआ साधु जब अपना कल्याण करना चाहता है तो विचारता है कि अथालन्दविधि, भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी मरण, परिहार विशुद्धि चारित्र, पादोपगमन अथवा जिनकल्पमेंसे किसको मैं धारण करूं? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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