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भगवती आराधना अप्पो वि वरस्स गुणो सप्पुरिसं पप्प बहुदरों होदि ।
उदए व तेल्लबिंद किह सो जंपिहिदि परदोस ।।३७५।। 'अप्पो वि परस्स गुणो' परस्य गुणः स्वल्पोऽपि । 'सप्पुरिसं पप्प' सत्पुरुषं प्राप्य । 'बहुदरो होई' अतिमहान् भवति । 'उदए व तेल्लबिन्दू' उदके तैलबिन्दुरिव । 'किह सो जंपिहिदि परदोसं' कथमसी इत्थंभूतः जल्पति परस्य दोषं ॥३७५।।।
एसो सब्वसमासो तह जतह जह हवेज्ज सुजणम्मि ।
तुझं गुणेहिं जणिदा सव्वत्थ वि विस्सुदा कित्ती ॥३७६।। ‘एसो सध्वसमासो' एष सर्वस्योपदेशस्य संक्षेपः । 'तह जतह' तथा यतध्वं । 'जह हवेज्ज सुजणम्मि' यथा भवेत्सुजने । 'तुज्झं गुणेहिं जणिदा सम्वत्थ वि विस्सुदा कित्ती' युष्माकं गुणैर्जनिता सर्वत्रापि विश्रुता कीर्तिः ॥३७६॥ कासौ संयतानां कीर्तिरिति शंकायामुच्यते
एस अखंडियसीलो बहुस्सुदो य अपरोवतावी य ।
चरणगुणसुठ्ठिदोत्तिय धण्णस्स खु घोसणा भमदि ।।३७७।। ‘एस अखंडियसीलो' एष अखंडितसमाधिः । 'बहुस्सुदो य' बहुश्रुतश्च । 'अपरोवतावी य' अपरोपता'. पकारी च । 'चरणगुणसुट्टिदोत्ति य' सुचारित्रगुणैः सुस्थित इति । 'धण्णस्स खु' पुष्यवतः । 'घोसणा भमइ' यशो विचरति ॥३७७॥ एवं गुरूपदेशं श्रुत्वा गणः
बाढत्ति भाणिणं ऐदं णो मंगलेत्ति य गणो सो ।
गुरुगुणपरिणदभावो आणंदसुं णिवाणेइ ।।३७८॥ 'वाढत्ति भाणिदणं' वाढमित्युक्त्वा । 'एदं णो मंगलोत्ति य' एतद्भवतां वचनं अस्माकं मंगलं नितरां इत्युक्त्वा । 'गुरुगुणपरिणदभावो' गुरोर्गुणेषु परिणतचित्तः । 'आणंदंसुणिवाडे इ' आनन्दाथु निपात
गा०-दूसरेका छोटासा भी गुण सत्पुरुषको पाकर अतिमहान हो जाता है । जैसे तेलकी बूंद पानीमें फैलकर महान हो जाती है। तब वह सत्पुरुष दूसरेके दोपको कैसे कह सकता हैं ।।३७५।।
गा०-- यह समस्त उपदेश का सार है । ऐसा यत्न करो जिससे सज्जनोंमें तुम्हारे गुणोंसे उत्पन्न हुई कोर्ति सर्वत्र फैले ॥३७६।।
संयमी जनोंकी वह कीर्ति क्या है, यह बतलाते हैं
गा०-यह साधु अखण्डित समाधिके धारी हैं, बहुश्रुत हैं, दूसरोंको कष्ट नहीं देते, और चारित्रगुणमें अच्छी तरह स्थित हैं । पुण्यशालीका यह यश सर्वत्र फैलता है ।।३७७||
गा०-इस प्रकार गुरुका उपदेश सुनकर संघ 'हमें स्वीकार है' ऐसा कहकर आपके ये वचन हमारे लिये अत्यन्त मंगल कारक है ऐसा कहता है । तथा गुरुके गुणोंमें मन लगाकर
१. ताप इव कारी । -आ० । २. चरइ । -अ० आ० ।
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