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________________ विजयोदया टीका ७१३ 'असिपत्तवणम्मि य जं' असय एव पत्राणि यस्मिन्वने तदसिपत्रवनं । उष्णार्दितानां पूत्कुर्वतां नारकाणां असिपत्रवनेऽनेकासुरविक्रियाविनिर्मितविचित्रायुधपत्राणि वनानि । 'जं च कयं' यच्च कृतं । 'गिद्धककेहि' गृद्धैः कङ्कश्च वज्रमयस्तुण्डैः' ते लुञ्चनैस्तुदन्ति । तीक्ष्णीकृतक्रकचसदृशैः पक्षः प्रहरन्ति नितान्तखरपरुषश्चरणाङ्कुशस्ताडयन्ति ।।१५६२॥ सामसवलेहिं दोसं वइतरणीए य पाविओ जं सि । पत्तो कयंववालुयमइगम्ममसायमतितिव्वं ॥१५६३।। 'सामसवलेहि' श्यामशबलसंज्ञितैरसुरैः। 'दोस' दोषं दण्डानां । 'वइतरणीए य पाविओ जं सि' वैतरण्यां नद्यां प्रापितो यदसि । तुडभिभूतानां जलं मृगयतां दिक्षु विन्यस्तदीनलोचनानां शुष्कतालुगलानां वैतरणीनदीमपदर्शयन्ति । रङ्गत्तरङ्गाकुलां, अगाधनीलनीरभरित हदां, विषयसुखसेवेव दुरन्ततृष्णानुबंधनोद्यता, संसृतिरिव दुरुत्तरां, आशेव विशालां, कर्मपुद्गलस्कंधसंहतिरिव विचित्रविपद्विधायिनी, तद्दर्शनाद्रादेवोपजातोत्कंठा लब्धजीवितास्संवृत्ताः स्म इति मन्यमाना द्रुततरगतयस्तामवगाहन्ते । तदवगाहनानन्तरमेव कृतांजलयः पिबन्ति ताम्रद्रवसन्निभं तदम्भः। परुषवचनमिव हृदयदाहविधायि, हा विप्रलब्धाः स्मेति करुणं रसतां शिरांसि परुषतमसमीरणप्रेरणोत्थिततरङ्गासिधारा निकृन्तन्ति करचरणानि च । तेनातिक्षारेणोष्णेन, कालकूटविषायमानेन जलेन, व्रणान्तरप्रवेशिना दह्यमाना झटिति घटितकरचरणास्तटमेव रटन्तः समारोहन्ति । तेषां च भोगा। जिस वन में तलवारकी धारके समान पत्ते होते हैं उसे असिपत्र वन कहते हैं। गर्मीस पीड़ित नारकी असिपत्र वनमें जाते हैं जो अनेक असर कमार देवोंकी विक्रियाके द्वारा निर्मित विचित्र आयध रूप पत्रोंसे यक्त होते हैं और उन आयध रूप पत्तोंके गिरनेपर उनका सर्वांग छिद जाता है । तथा गृद्ध और कङ्क पक्षि अपनी वज्रमय चोंचोंसे उन्हें नोचते हैं तीक्ष्ण आरेके समान पंखोंसे प्रहार करते हैं । अत्यन्त तीक्ष्ण कठोर चरणरूपी अंकुशोंसे मारते हैं। इन सबका जो दुःख तुमने भोगा ।।१५६२।। गा०-टो०-श्याम शवल नामक असुर कुमारोंके द्वारा वैतरणी नदीमें तुमने जो दण्ड भोगा। जब नारको प्याससे व्याकुल होकर जलकी खोजमें होते हैं और उनकी आँखें दीन तथा कण्ठ और तालु सूख जाता है तो उन्हें वैतरणी नदी दिखलाई जाती है। वह रंगीन तरंगोंसे व्याप्त और अगाध नीले जलसे भरी होती है, विषय सुख सेवनकी तरह तृष्णाकी परम्पराको बढ़ाने वाली होती है, संसारकी तरह उसे पार करना कठिन होता है, आशाकी तरह विशाल होती है, कर्मपुद्गलोंके स्कन्धोंके समूहकी तरह अनेक विपत्तियाँ लानेवाली होती है। उसको देखकर दूरसे ही उनकी उत्कण्ठा बढ़ जाती है। अब हम जी गये, ऐसा मानते हुए दौड़कर नदीमें प्रवेश करते हैं। प्रवेश करते ही हाथोंकी अंजलि बनाकर पिघले हुए तामेके समान उसके जलको पीते हैं । वह जल कठोर वचनकी तरह हृदयको जलानेवाला होता है। 'अरे हम ठगाये गये' ऐसी करुण चीतकार करते हए उनके सिर और हाथ पैरोंको अत्यन्त कठोर वायसे प्रेरित लहरें, जो तलवारकी धारके समान होती हैं, काट देती हैं। तब कालकूट विषके समान अत्यन्त खारा गर्म जल उनके घावोंमें जाता है। उससे जलते हुए वे तत्काल तटकी ओर जाते हैं। उनके कटे हाथ १. तुण्डः तरललोचन -आ० मु० । ते हि वज्रमयस्तुडैनॆत्राणि तुदन्ति । २. रन्ति नित्यं नखर -आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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