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________________ ७१४ भगवती आराधना ग्रीवासु श्यामशबला महतीः शिलावज्रशृङ्खलाप्रोता बध्नन्ति दुर्विमोचाः। बद्ध्वा च तस्यामेवं पातयन्ति । पातितास्तत्र कृतोन्मज्जननिमज्जनानामुत्तमाङ्गानि असुरविक्रियानिमितमहामकरकरप्रहारेण जर्जरीभूय निपतन्ति । पुनश्च तटमारूढान्गच्छतस्तांस्तरूभय निश्चलं बध्नन्ति । तानपरिस्पन्दमव विध्यन्तीति निशातशरशतसहस्र: । 'पत्तो कयंबवालुगमदिगम्म' प्राप्तः कदंबप्रसूनाकारावालिका चित्तदु:प्रवेशाः, दलालंकृतखदिराङ्गारकणप्रकरोपमानाः परिप्राप्य तत्र बलात्संचार्यमाणः यत्प्राप्तवानसि दुःखं तच्चित्ते वचकुरु ॥१५६३॥ जं णीलमंडवे तत्तलोहपडिमाउले तुमे पत्तं । जं पाइओसि खारं कडुयं तत्तं कलयलं च ॥१५६४।। 'जं पत्तं तं चितेहि यत्प्राप्तं दुःखं तच्चितय । क्व ? 'णीलमंडवे' काललोहघटिते मण्डपे । 'तत्तलोहपडिमाउले' तप्तलोहप्रतिमाकुले। बलात्कारसंपाद्यमानस्तप्तलोहप्रतिमायुवत्यालिंगितो यदुःखं प्राप्तवानसि तन्मनसि निधेहि । 'जं पाइदोऽसि खारं' यत्पायितोऽसि क्षारं। 'कडुगं' कटुकं । 'तत्त' तप्तं ॥१५६४।। जं खाविओसि अवसो लोहंगारे य पज्जलंते तं । कंडुसु जं सि रद्धो जं सि कवल्लीए तलिओ सि ॥१५६५॥ _ 'जं खाविओसि' यत्खादितोऽसि । 'अवशो'ऽवशः । बलाद्यन्त्रविदारिताननः । 'लोहंगारे य पज्जलंते' तं लोहाङ्गारान्प्रज्वलतः त्वं । 'कंडसु जं सि रद्धो' कंदुकासु यन्मण्डका इव पक्वः ॥१५६५।। पैर तत्काल जुड़ जाते हैं। उनकी गर्दनोंमें भारी शिलाएँ वज्रमयी सांकलसे बाँध देते हैं जिनको खोलना अति कठिन होता है और उन्हें पुनः उसी वैतरणीमें डाल देते हैं । उसमें गिराये जानेपर वे डूबते उतराते हैं। असुर कुमारोंकी विक्रियासे बनाये गये महामच्छोंके प्रहारसे उनके मस्तक छिन्न-भिन्न होकर गिर जाते हैं। पुनः वे तट पर जाते हैं और उन्हें पुनः निश्चल वांध देते हैं। तव उन निश्चल स्थित नारकियोंको लक्ष करके लाखों तीक्ष्ण बाणोंसे बींध देते हैं। पुनः कदम्बके फूलोंके आकार वाली बाल्में, जिसमें बालिकाके चित्तकी तरह प्रवेश करना कठिन है और जो वज्रमयदलसे शोभित है तथा खैरकी लकड़ीके अंगारोंके कण समूहकी तरह गर्म है, उसमें बलपूर्वक चलाये जानेपर तुमने जो दुःख पाया है उसका विचार करो ॥१५६३।। __ गा०-काललोहसे निर्मित मण्डपमें तपाये हुए लोहेसे बनी प्रतिमारूपी युवतियोंसे बलपूर्वक आलिंगन कराये जानेपर तुमने जो दुःख पाया उसका विचार करो। तथा खारा कडुआ तपा हुआ कलकल पिलाये जानेपर जो दुःख पाया उसका चिन्तन करो ॥१५६४॥ विशेषार्थ-ताम्बा, सीसा, सज्जी, गूगल आदिको पकाकर जो काढ़ा तैयार होता है उसे कलकल कहते हैं। गा०-बलपूर्वक यंत्रके द्वारा तुम्हारा मुंह फाड़कर जो तुम्हें जलते हुए लोहेके अंगार खिलाये गये और भट्टीमें मांडकी तरह पकाया गया तथा कड़ाही में तला गया ।।१५६५।। १. ढानुगच्छतः तस्तत्र भय-अ० । ढान्क्षतः नकृभय-ज० । २.कारावलिकाबालिकाचि-ज० । राः तेषा ताः शिलाः पुनर्नि-मूलारा० । ३. तच्चितय-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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