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________________ भगवती आराधना क्षपकस्याशुभपरिणामविधायिनीं । 'सइरं वा' स्वैरं वा । 'जंपेज्ज' जल्पेत् । आराधकस्याग्रत इदं युक्त, न वेत्यविचार्य वदेवा ॥४२७॥ ण करेज्ज सारणं वारणं च खवयस्स चयणकप्पगदो। उद्देज्ज वा महल्लं खवयस्स वि किंचणारंभं ॥४२८।। 'ण करेज्ज' न कुर्यात् । किं 'सारणं' रत्नत्रये वृत्तिं । 'वारणं च' निषेधं न कुर्यात् । तेभ्यः प्रच्यवमानस्य । 'खवगस्स' क्षपकस्य । कः ? 'चयणकप्पगदो च्यवनकल्पगतः । 'उज्ज वा महल्लं' आरम्भ कारयेद्वा महान्तं आरम्भं पट्टशालां, पूजा, विमानं वा । ‘खवगस्स वि' क्षपकस्यापि कंचन ॥४२८॥ आयारस्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि । तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ ।।४२९।। 'आयारत्यो पुण' आचारस्थः पुनः सूरिः तान्सर्वान्वर्जयति दोषान् । 'तम्हा' तस्मात् । गुणेषु प्रवर्तमानो दोषेभ्यो व्यावृत्तश्च । 'आयारत्वो आयरिओ णिज्जवओ होदि आचारस्थ एवाचार्यों निर्यापको भवति नापरः । व्याख्यातमाचारवत्त्वम् ॥४२९॥ आधारवत्त्वव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धः चोदसदसणवपुव्वी महामदी सायरोव्व गंभीरो । कप्पववहारधारी होदि हु आधारवं णाम ।।४३०॥ 'चोद्दसदसणवपुन्वी' चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी वा । 'महामदी' महामतिः । 'सायरोव्व गंभीरो सागर इव गम्भीरः । 'आधारवं णाम कप्पववहारधारो वा' कल्पव्यवहारज्ञो वा आधारवान् ज्ञानी । दुष्परिणामा एते मनोवाक्कायविकल्पाः, शुभा वा पुण्यास्रवभूताः । शुद्धा वा शुभाशुभकर्मसंवरहेतवः, इति बोधयति । यह उचित है या नहीं यह विचार किये बिना क्षपकके आगे स्वच्छन्दता पूर्वक बात करेगा ॥४२७।। गा० तथा स्वयं आचार च्युत आचार्य क्षपकके रत्नत्रयसे डिगने पर रत्नत्रयमें प्रवृत्ति और रत्नत्रयसे च्युत होनेका निषेध नहीं करेगा । तथा क्षपकसे कोई महान् आरम्भ पूजा, विमानयात्रा, पट्टकशाला आदि करायगा ।।१२८॥ गा०—किन्तु आचारवान् आचार्य इन सब दोषोंको नहीं करता। इसलिए जो गुणोंमें प्रवत्ति करता है और दोषोंसे दूर रहता है ऐसा आचारवान् आचार्य ही निर्यापक होता है, दूसरा नहीं । इस प्रकार आचारवत्त्वका कथन किया ॥४२९।। आगे आधारवत्त्वका कथन करते हैं गा०-टी०-जो चौदह पूर्व, दस पूर्व अथवा नौ पूर्वका धारी हो, महाबुद्धिशाली हो, सागर की तरह गम्भीर हो, कल्प व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता हो वह ज्ञानी आधारवान् होता है। वह समझाता है कि मन वचन कायके विकल्प रूप ये परिणाम अशुभ हैं, शुभ परिणाम पुण्यकर्मके आस्रवके कारण हैं और शुद्ध परिणाम शुभ और अशुभ कर्मोके संवरमें कारण हैं । तथा वह रात दिन श्रुतका उपदेश करते हुए शुभ और शुद्ध परिणामोंमें क्षपकको लगाता है । इसलिए वह दर्शन, चारित्र और तपका आधारवाला होनेसे आधारवान होता है। ज्ञान आधार है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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