SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३५ विजयोदया टीका एदेसु दससु णिच्चं समाहिदो णिच्चवज्जभीरू य । खवयस्स विसुद्धं सो जधुत्तचरियं उवविधेदि ॥४२४॥ 'एदेसु दससु णिच्च' एतेषु दशस्थितिकल्पेषु नित्यं । 'समाहिदो' समाहितः । 'णिच्चवज्जभीरू य' नित्यं पापभीरुः । 'खवगस्स' क्षपकस्म । 'विसुद्धं जधुत्तचरियं' यथोक्तां चर्या । 'सो उवविधेदि' स विदधाति ॥४२४॥ निर्यापकस्य सूरेराचारवत्त्वे क्षपकस्य गुणं व्याचष्टे पंचविधे आयारे समुज्जदो सव्वसमिदचेट्ठाओ। सो उज्जमेदि खवयं पंचविधे सुठ्ठ आयारे ॥४२५॥ 'पंचविधे आयारे समुज्जदो' पंचप्रकारे आचारे समुद्यतः । 'समिदसत्वचेढाओ' सम्यक् प्रवृत्ताः सर्वाश्चेष्टा यस्य सः । 'सुटठु उज्जमेदि' सुष्ठ उद्योगं कारयति । 'खवर्ग' क्षपकं । क्व ? 'पंचविधे' आचारे ॥४२५।। यः आचारवान्न भवति तदाश्रयणे दोषमाचष्टे. सेज्जोवधिसंथारं भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकप्पिज्ज असुद्धं पडिचरए वा असंविग्गे ॥४२६॥ 'सेज्ज' वसतिं । 'उवधि' उपकरणं । 'संथारभत्तपाणं च' संस्तरं भक्तपानं च । 'असुद्ध' उद्गमादिदोषोपहतं । 'उवकप्पेज्ज' उपकल्पयेत् । कः 'चयणकप्पगदो' ज्ञानाचारादिकादोषच्च्यवनमुपगतः 'पडिचरए वा' प्रतिचारकान्वा योजयेत । 'असंविग्गे' असंविग्नान । एवमसंयमे कृते महान्कर्मबन्धो भविष्यति ततोऽस्माकं महती संसृतिरनेकापन्मूलेति भयरहितान् ।।४२६।। सल्लेहणं पयासेज्ज गंधं मल्लं च समणुजाणिज्जा । अप्पाउग्गं व कधं करिज्ज सइरं व जंपिज्ज ॥४२७॥ 'सल्लेहणं पगासेज्ज' सल्लेखनां प्रकाशयेत् लोकस्य । 'गंध मल्लं च समणुजाणेज्ज' गन्धं माल्यं वानुजानीयात् । गन्धमाल्यानयनमभ्युपगच्छेत् । 'अप्पाउग्गं व कहं कहेज्ज' अप्रयोग्यां वा कथां कथयेत गा०-इन दस कल्पोंमें जो सदा समाधान युक्त रहता है और नित्य पापसे डरता है वह आचार्य क्षपक ऊपर कहे विशुद्ध आचरणको पालन कराता है ॥४२४॥ निर्यापकाचार्यके आचारवान होने पर क्षपकका लाभ बतलाते हैं गा०–जो आचार्य पाँच प्रकारके आचारमें तत्पर रहता है और जिसकी सब चेष्टाएँ सम्यग्रूपसे होती हैं वह क्षपकसे पाँच प्रकारके आचारमें उद्योग कराता है ॥४२५।। जो आचार्य आधारवान नहीं होता, उसका आश्रय लेनेमें दोष कहते हैं गा०-ज्ञानाचार आदिसे थोड़ा सा च्युत हुआ आचार्य उद्गम आदि दोषोंसे दूषित अशुद्ध वसति, उपकरण, संस्तर और भक्तपानकी व्यवस्था करेगा। तथा ऐसे परिचारक मुनियोंको नियुक्त करेगा जिन्हें यह भय नहीं है कि इस प्रकारका असंयम करने पर महान् कर्मबन्ध होगा और उससे हमारा संसार बढ़ेगा जो अनेक आपत्तियोंका मूल है ।।४२६।। गा०-तथा वह क्षपककी सल्लेखनाको लोगों पर प्रकाशित कर देगा। सुगंध माला आदि सेवनकी अनुमति दे देगा। क्षपकके अशुभ परिणाम करने वाली अयोग्य कथा वार्ता करेगा। और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy