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________________ प्रस्तावना अहिंसाणुव्रतकी भावनामें यह गभित है। और भगवती आराधनामें भी अहिंसावतकी भावनामें आलोक भोजन है। फिर भी आराधनामें पंच महावतोंकी रक्षाके लिए रात्रिभोजन त्यागको आवश्यक कहा है। अतः यह विषय चिन्तनीय है। __शिवार्यके द्वारा स्मृत गुरुओंमें एक सर्वगुप्त गणि भी है। गाथा २१६२ में आये 'संघस्स' पदका व्याख्यान विजयोदयामें 'सर्वगुप्तगणिनः संघस्य' किया है। और अमोघवृत्तिमें एक उदाहरण आता है-'उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः' ( १।३।१०४ ) अर्थात् सर्वगुप्त सबसे बड़े व्याख्याता थे। इसके साथ ही तीन उदाहरण और हैं- शाकटायन, सिद्धनन्दि और विशेषवादी । यतः शाकटायन यापनीय थे इसलिये अन्य सब भी यापनीय होना चाहिये । और ऐसी स्थितिमें शाकटायनके द्वारा स्मृत सर्वगुप्त भगवती आराधनाके कर्ताके गुरु हो सकते हैं । टीकाकार अपराजित सूरि भगवती आराधनाकी जितनी हस्तलिखित प्रतियाँ हमारे देखने में आई सबमें अपराजित सूरिकी विजयोदया टीका पाई जाती है। इस टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि टीकाकारका नाम अपराजित सूरि था। वे चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृति आचार्यके प्रशिष्य थे और बलदेव सूरिके शिष्य थे। आरातीय आचार्योंके चूड़ामणि थे। नागनन्दि गणिके चरण कमलोंकी सेवाके प्रसादसे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। अर्थात् उनके विद्यागुरुका नाम नागनन्दि था । श्री अपराजित सूरि जिन शासनके उद्धारमें संलग्न थे और उन्हें बहुत यश प्राप्त था। उन्होंने श्रीनन्दिगणि या नागनन्दि गणिकी प्रेरणासे आराधनाकी टीका रची थी। टीकाका नाम श्री विजयोदया है। केवल इतना ही उन्होंने अपने सम्बन्धमें लिखा है। पं० आशाधर ने अनगार धर्मामृतकी टीकामें तथा भ० आ० को मूलाराधना दर्पण नामक पंजिकामें श्रीविजय या श्रीविजयाचार्य नामसे इनका उल्लेख किया है। अपराजित और श्रीविजय शब्द परस्परमें सम्बद्ध हैं। ऐसा प्रतीत होता है उन्होंने शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त की थी और उसी पर से उन्हें अपराजित पराजित न होनेवाला नाम प्राप्त हुआ था । संभवतः उसीकी स्मृतिमें उन्होंने अपनी टीकाओंको श्री विजयोदया नाम दिया था। उनकी दशवकालिककी टीकाका भी यही नाम था। शिवार्य की तरह अपराजित सूरिकी भी गुरुपरम्परा किसी जैन पट्टावली या गुर्वावलीमें नहीं मिलती। वह अपनेको आरातीय चडामणि लिखते हैं और सर्वार्थसिद्धि टीका के अनसार 'भगवानके साक्षात् शिष्य गणधर और श्रुतकेवलियोंके पश्चात् आरातीय आचार्योंने कालदोषसे अल्प आयु और अल्प बुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिए दशवैकालिक आदि रचे ।' अतः आरातीय आचार्य विशिष्ट होते थे। अपराजित सूरि भी अपने समयके विशिष्ट आचार्य माने जाते होंगे १ भा० ज्ञानपीठ सं०, पृ० ६८४–'एतच्च श्रीविजयोचार्यविरचितमूलाराधनाटीकायां विस्तरतः . समर्थितं दृष्टव्यमिह न प्रपंच्यते।'' २. शोलापुर संस्करण गाथा ४४, ५९५, ६८१, ६८२, १७१२ और १९१९ की टीका । ३. आरातोयैः पुनराचार्यैः कालदोषसंक्षिप्तायुर्मतिवलशिष्यानुग्रहार्थ दशवैकालिकाद्युपनिबद्धं ॥ -(१।२०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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